५२ जयमाल पहनाना

दोहा

मूल (दोहा)

बंदी मागध सूतगन बिरुद बदहिं मतिधीर।
करहिं निछावरि लोग सब हय गय धन मनि चीर॥ २६२॥

अनुवाद (हिन्दी)

धीर बुद्धिवाले, भाट, मागध और सूतलोग विरुदावली (कीर्ति) का बखान कर रहे हैं। सब लोग घोड़े, हाथी, धन, मणि और वस्त्र निछावर कर रहे हैं॥ २६२॥

मूल (चौपाई)

झाँझि मृदंग संख सहनाई।
भेरि ढोल दुंदुभी सुहाई॥
बाजहिं बहु बाजने सुहाए।
जहँ तहँ जुबतिन्ह मंगल गाए॥

अनुवाद (हिन्दी)

झाँझ, मृदंग, शङ्ख, शहनाई, भेरी, ढोल और सुहावने नगाड़े आदि बहुत प्रकारके सुन्दर बाजे बज रहे हैं। जहाँ-तहाँ युवतियाँ मङ्गलगीत गा रही हैं॥ १॥

मूल (चौपाई)

सखिन्ह सहित हरषी अति रानी।
सूखत धान परा जनु पानी॥
जनक लहेउ सुखु सोचु बिहाई।
पैरत थकें थाह जनु पाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

सखियोंसहित रानी अत्यन्त हर्षित हुई। मानो सूखते हुए धानपर पानी पड़ गया हो। जनकजीने सोच त्यागकर सुख प्राप्त किया। मानो तैरते-तैरते थके हुए पुरुषने थाह पा ली हो॥ २॥

मूल (चौपाई)

श्रीहत भए भूप धनु टूटे।
जैसें दिवस दीप छबि छूटे॥
सीय सुखहि बरनिअ केहि भाँती।
जनु चातकी पाइ जलु स्वाती॥

अनुवाद (हिन्दी)

धनुष टूट जानेपर राजालोग ऐसे श्रीहीन (निस्तेज) हो गये, जैसे दिनमें दीपककी शोभा जाती रहती है। सीताजीका सुख किस प्रकार वर्णन किया जाय; जैसे चातकी स्वातीका जल पा गयी हो॥ ३॥

मूल (चौपाई)

रामहि लखनु बिलोकत कैसें।
ससिहि चकोर किसोरकु जैसें॥
सतानंद तब आयसु दीन्हा।
सीताँ गमनु राम पहिं कीन्हा॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामजीको लक्ष्मणजी किस प्रकार देख रहे हैं, जैसे चन्द्रमाको चकोरका बच्चा देख रहा हो। तब शतानन्दजीने आज्ञा दी और सीताजीने श्रीरामजीके पास गमन किया॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

संग सखीं सुंदर चतुर गावहिं मंगलचार।
गवनी बाल मराल गति सुषमा अंग अपार॥ २६३॥

अनुवाद (हिन्दी)

साथमें सुन्दर चतुर सखियाँ मङ्गलाचारके गीत गा रही हैं; सीताजी बालहंसिनीकी चालसे चलीं। उनके अङ्गोंमें अपार शोभा है॥ २६३॥

मूल (चौपाई)

सखिन्ह मध्य सिय सोहति कैसें।
छबिगन मध्य महाछबि जैसें॥
कर सरोज जयमाल सुहाई।
बिस्व बिजय सोभा जेहिं छाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

सखियोंके बीचमें सीताजी कैसी शोभित हो रही हैं; जैसे बहुत-सी छबियोंके बीचमें महाछबि हो। करकमलमें सुन्दर जयमाला है, जिसमें विश्वविजयकी शोभा छायी हुई है॥ १॥

मूल (चौपाई)

तन सकोचु मन परम उछाहू।
गूढ़ प्रेमु लखि परइ न काहू॥
जाइ समीप राम छबि देखी।
रहि जनु कुअँरि चित्र अवरेखी॥

अनुवाद (हिन्दी)

सीताजीके शरीरमें संकोच है, पर मनमें परम उत्साह है। उनका यह गुप्त प्रेम किसीको जान नहीं पड़ रहा है। समीप जाकर, श्रीरामजीकी शोभा देखकर राजकुमारी सीताजी चित्रमें लिखी-सी रह गयीं॥ २॥

मूल (चौपाई)

चतुर सखीं लखि कहा बुझाई।
पहिरावहु जयमाल सुहाई॥
सुनत जुगल कर माल उठाई।
प्रेम बिबस पहिराइ न जाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

चतुर सखीने यह दशा देखकर समझाकर कहा—सुहावनी जयमाला पहनाओ। यह सुनकर सीताजीने दोनों हाथोंसे माला उठायी, पर प्रेमके विवश होनेसे पहनायी नहीं जाती॥ ३॥

मूल (चौपाई)

सोहत जनु जुग जलज सनाला।
ससिहि सभीत देत जयमाला॥
गावहिं छबि अवलोकि सहेली।
सियँ जयमाल राम उर मेली॥

अनुवाद (हिन्दी)

(उस समय उनके हाथ ऐसे सुशोभित हो रहे हैं) मानो डंडियोंसहित दो कमल चन्द्रमाको डरते हुए जयमाला दे रहे हों। इस छबिको देखकर सखियाँ गाने लगीं। तब सीताजीने श्रीरामजीके गलेमें जयमाला पहना दी॥ ४॥

सोरठा

मूल (दोहा)

रघुबर उर जयमाल देखि देव बरिसहिं सुमन।
सकुचे सकल भुआल जनु बिलोकि रबि कुमुदगन॥ २६४॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरघुनाथजीके हृदयपर जयमाला देखकर देवता फूल बरसाने लगे। समस्त राजागण इस प्रकार सकुचा गये मानो सूर्यको देखकर कुमुदोंका समूह सिकुड़ गया हो॥ २६४॥

मूल (चौपाई)

पुर अरु ब्योम बाजने बाजे।
खल भए मलिन साधु सब राजे॥
सुर किंनर नर नाग मुनीसा।
जय जय जय कहि देहिं असीसा॥

अनुवाद (हिन्दी)

नगर और आकाशमें बाजे बजने लगे। दुष्टलोग उदास हो गये और सज्जनलोग सब प्रसन्न हो गये। देवता, किन्नर, मनुष्य, नाग और मुनीश्वर जय-जयकार करके आशीर्वाद दे रहे हैं॥ १॥

मूल (चौपाई)

नाचहिं गावहिं बिबुध बधूटीं।
बार बार कुसुमांजलि छूटीं॥
जहँ तहँ बिप्र बेदधुनि करहीं।
बंदी बिरिदावलि उच्चरहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवताओंकी स्त्रियाँ नाचती-गाती हैं। बार-बार हाथोंसे पुष्पोंकी अञ्जलियाँ छूट रही हैं। जहाँ-तहाँ ब्राह्मण वेदध्वनि कर रहे हैं और भाटलोग विरुदावली (कुलकीर्ति) बखान रहे हैं॥ २॥

मूल (चौपाई)

महि पाताल नाक जसु ब्यापा।
राम बरी सिय भंजेउ चापा॥
करहिं आरती पुर नर नारी।
देहिं निछावरि बित्त बिसारी॥

अनुवाद (हिन्दी)

पृथ्वी, पाताल और स्वर्ग तीनों लोकोंमें यश फैल गया कि श्रीरामचन्द्रजीने धनुष तोड़ दिया और सीताजीको वरण कर लिया। नगरके नर-नारी आरती कर रहे हैं और अपनी पूँजी (हैसियत) को भुलाकर (सामर्थ्यसे बहुत अधिक) निछावर कर रहे हैं॥ ३॥

मूल (चौपाई)

सोहति सीय राम कै जोरी।
छबि सिंगारु मनहुँ एक ठोरी॥
सखीं कहहिं प्रभुपद गहु सीता।
करति न चरन परस अति भीता॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीसीता-रामजीकी जोड़ी ऐसी सुशोभित हो रही है मानो सुन्दरता और शृंगाररस एकत्र हो गये हों। सखियाँ कह रही हैं—सीते! स्वामीके चरण छुओ; किन्तु सीताजी अत्यन्त भयभीत हुई उनके चरण नहीं छूतीं॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

गौतम तिय गति सुरति करि नहिं परसति पग पानि।
मन बिहसे रघुबंसमनि प्रीति अलौकिक जानि॥ २६५॥

अनुवाद (हिन्दी)

गौतमजीकी स्त्री अहल्याकी गतिका स्मरण करके सीताजी श्रीरामजीके चरणोंको हाथोंसे स्पर्श नहीं कर रही हैं। सीताजीकी अलौकिक प्रीति जानकर रघुकुलमणि श्रीरामचन्द्रजी मनमें हँसे॥ २६५॥

मूल (चौपाई)

तब सिय देखि भूप अभिलाषे।
कूर कपूत मूढ़ मन माखे॥
उठि उठि पहिरि सनाह अभागे।
जहँ तहँ गाल बजावन लागे॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय सीताजीको देखकर कुछ राजा लोग ललचा उठे। वे दुष्ट, कुपूत और मूढ़ राजा मनमें बहुत तमतमाये। वे अभागे उठ-उठकर, कवच पहनकर, जहाँ-तहाँ गाल बजाने लगे॥ १॥

मूल (चौपाई)

लेहु छड़ाइ सीय कह कोऊ।
धरि बाँधहु नृप बालक दोऊ॥
तोरें धनुषु चाड़ नहिं सरई।
जीवत हमहि कुअँरि को बरई॥

अनुवाद (हिन्दी)

कोई कहते हैं, सीताको छीन लो और दोनों राजकुमारोंको पकड़कर बाँध लो। धनुष तोड़नेसे ही चाह नहीं सरेगी (पूरी होगी)। हमारे जीते-जी राजकुमारीको कौन ब्याह सकता है?॥ २॥

मूल (चौपाई)

जौं बिदेहु कछु करै सहाई।
जीतहु समर सहित दोउ भाई॥
साधु भूप बोले सुनि बानी।
राजसमाजहि लाज लजानी॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि जनक कुछ सहायता करे, तो युद्धमें दोनों भाइयोंसहित उसे भी जीत लो। ये वचन सुनकर साधु राजा बोले—इस (निर्लज्ज) राजसमाजको देखकर तो लाज भी लजा गयी॥ ३॥

मूल (चौपाई)

बलु प्रतापु बीरता बड़ाई।
नाक पिनाकहि संग सिधाई॥
सोइ सूरता कि अब कहुँ पाई।
असि बुधि तौ बिधि मुहँ मसि लाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

अरे ! तुम्हारा बल, प्रताप, वीरता, बड़ाई और नाक (प्रतिष्ठा) तो धनुषके साथ ही चली गयी। वही वीरता थी कि अब कहींसे मिली है? ऐसी दुष्ट बुद्धि है, तभी तो विधाताने तुम्हारे मुखोंपर कालिख लगा दी॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

देखहु रामहि नयन भरि तजि इरिषा मदु कोहु।
लखन रोषु पावकु प्रबल जानि सलभ जनि होहु॥२६६॥

अनुवाद (हिन्दी)

ईर्ष्या, घमंड और क्रोध छोड़कर नेत्र भरकर श्रीरामजी (की छबि) को देख लो। लक्ष्मणके क्रोधको प्रबल अग्नि जानकर उसमें पतंगे मत बनो॥ २६६॥

मूल (चौपाई)

बैनतेय बलि जिमि चह कागू।
जिमि ससु चहै नाग अरि भागू॥
जिमि चह कुसल अकारन कोही।
सब संपदा चहै सिवद्रोही॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे गरुड़का भाग कौआ चाहे, सिंहका भाग खरगोश चाहे, बिना कारण ही क्रोध करनेवाला अपनी कुशल चाहे, शिवजीसे विरोध करनेवाला सब प्रकारकी सम्पत्ति चाहे,॥ १॥

मूल (चौपाई)

लोभी लोलुप कल कीरति चहई।
अकलंकता कि कामी लहई॥
हरि पद बिमुख परम गति चाहा।
तस तुम्हार लालचु नरनाहा॥

अनुवाद (हिन्दी)

लोभी-लालची सुन्दर कीर्ति चाहे, कामी मनुष्य निष्कलंकता (चाहे तो) क्या पा सकता है? और जैसे श्रीहरिके चरणोंसे विमुख मनुष्य परमगति (मोक्ष) चाहे, हे राजाओ! सीताके लिये तुम्हारा लालच भी वैसा ही व्यर्थ है॥ २॥

मूल (चौपाई)

कोलाहलु सुनि सीय सकानी।
सखीं लवाइ गईं जहँ रानी॥
रामु सुभायँ चले गुरु पाहीं।
सिय सनेहु बरनत मन माहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

कोलाहल सुनकर सीताजी शंकित हो गयीं। तब सखियाँ उन्हें वहाँ ले गयीं जहाँ रानी (सीताजीकी माता) थीं। श्रीरामचन्द्रजी मनमें सीताजीके प्रेमका बखान करते हुए स्वाभाविक चालसे गुरुजीके पास चले॥ ३॥

मूल (चौपाई)

रानिन्ह सहित सोचबस सीया।
अब धौं बिधिहि काह करनीया॥
भूप बचन सुनि इत उत तकहीं।
लखनु राम डर बोलि न सकहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

रानियोंसहित सीताजी (दुष्ट राजाओंके दुर्वचन सुनकर) सोचके वश हैं कि न जाने विधाता अब क्या करनेवाले हैं। राजाओंके वचन सुनकर लक्ष्मणजी इधर-उधर ताकते हैं; किन्तु श्रीरामचन्द्रजीके डरसे कुछ बोल नहीं सकते॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

अरुन नयन भृकुटी कुटिल चितवत नृपन्ह सकोप।
मनहुँ मत्त गजगन निरखि सिंघकिसोरहि चोप॥ २६७॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनके नेत्र लाल और भौंहें टेढ़ी हो गयीं और वे क्रोधसे राजाओंकी ओर देखने लगे; मानो मतवाले हाथियोंका झुंड देखकर सिंहके बच्चेको जोश आ गया हो॥ २६७॥

मूल (चौपाई)

खरभरु देखि बिकल पुर नारीं।
सब मिलि देहिं महीपन्ह गारीं॥
तेहिं अवसर सुनि सिवधनु भंगा।
आयउ भृगुकुल कमल पतंगा॥

अनुवाद (हिन्दी)

खलबली देखकर जनकपुरकी स्त्रियाँ व्याकुल हो गयीं और सब मिलकर राजाओंको गालियाँ देने लगीं। उसी मौकेपर शिवजीके धनुषका टूटना सुनकर भृगुकुलरूपी कमलके सूर्य परशुरामजी आये॥ १॥

मूल (चौपाई)

देखि महीप सकल सकुचाने।
बाज झपट जनु लवा लुकाने॥
गौरि सरीर भूति भल भ्राजा।
भाल बिसाल त्रिपुंड बिराजा॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन्हें देखकर सब राजा सकुचा गये, मानो बाजके झपटनेपर बटेर लुक (छिप) गये हों। गोरे शरीरपर विभूति (भस्म) बड़ी फब रही है और विशाल ललाटपर त्रिपुण्ड्र विशेष शोभा दे रहा है॥ २॥

मूल (चौपाई)

सीस जटा ससिबदनु सुहावा।
रिसबस कछुक अरुन होइ आवा॥
भृकुटी कुटिल नयन रिस राते।
सहजहुँ चितवत मनहुँ रिसाते॥

अनुवाद (हिन्दी)

सिरपर जटा है, सुन्दर मुखचन्द्र क्रोधके कारण कुछ लाल हो आया है। भौंहें टेढ़ी और आँखें क्रोधसे लाल हैं। सहज ही देखते हैं, तो भी ऐसा जान पड़ता है मानो क्रोध कर रहे हैं॥ ३॥

मूल (चौपाई)

बृषभ कंध उर बाहु बिसाला।
चारु जनेउ माल मृगछाला॥
कटि मुनिबसन तून दुइ बाँधें।
धनु सर कर कुठारु कल काँधें॥

अनुवाद (हिन्दी)

बैलके समान (ऊँचे और पुष्ट) कंधे हैं; छाती और भुजाएँ विशाल हैं। सुन्दर यज्ञोपवीत धारण किये, माला पहने और मृगचर्म लिये हैं। कमरमें मुनियोंका वस्त्र (वल्कल) और दो तरकस बाँधे हैं। हाथमें धनुष-बाण और सुन्दर कंधेपर फरसा धारण किये हैं॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

सांत बेषु करनी कठिन बरनि न जाइ सरूप।
धरि मुनितनु जनु बीर रसु आयउ जहँ सब भूप॥ २६८॥

अनुवाद (हिन्दी)

शान्त वेष है, परन्तु करनी बहुत कठोर है; स्वरूपका वर्णन नहीं किया जा सकता। मानो वीर-रस ही मुनिका शरीर धारण करके, जहाँ सब राजालोग हैं वहाँ आ गया हो॥ २६८॥

मूल (चौपाई)

देखत भृगुपति बेषु कराला।
उठे सकल भय बिकल भुआला॥
पितु समेत कहि कहि निज नामा।
लगे करन सब दंड प्रनामा॥

अनुवाद (हिन्दी)

परशुरामजीका भयानक वेष देखकर सब राजा भयसे व्याकुल हो उठ खड़े हुए और पितासहित अपना नाम कह-कहकर सब दण्डवत्-प्रणाम करने लगे॥ १॥

मूल (चौपाई)

जेहि सुभायँ चितवहिं हितु जानी।
सो जानइ जनु आइ खुटानी॥
जनक बहोरि आइ सिरु नावा ।
सीय बोलाइ प्रनामु करावा॥

अनुवाद (हिन्दी)

परशुरामजी हित समझकर भी सहज ही जिसकी ओर देख लेते हैं, वह समझता है मानो मेरी आयु पूरी हो गयी। फिर जनकजीने आकर सिर नवाया और सीताजीको बुलाकर प्रणाम कराया॥ २॥

मूल (चौपाई)

आसिष दीन्हि सखीं हरषानीं।
निज समाज लै गईं सयानीं॥
बिस्वामित्रु मिले पुनि आई।
पद सरोज मेले दोउ भाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

परशुरामजीने सीताजीको आशीर्वाद दिया। सखियाँ हर्षित हुईं और (वहाँ अब अधिक देर ठहरना ठीक न समझकर) वे सयानी सखियाँ उनको अपनी मण्डलीमें ले गयीं। फिर विश्वामित्रजी आकर मिले और उन्होंने दोनों भाइयोंको उनके चरणकमलोंपर गिराया॥ ३॥

मूल (चौपाई)

रामु लखनु दसरथके ढोटा।
दीन्हि असीस देखि भल जोटा॥
रामहि चितइ रहे थकि लोचन।
रूप अपार मार मद मोचन॥

अनुवाद (हिन्दी)

(विश्वामित्रजीने कहा—) ये राम और लक्ष्मण राजा दशरथके पुत्र हैं। उनकी सुन्दर जोड़ी देखकर परशुरामजीने आशीर्वाद दिया। कामदेवके भी मदको छुड़ानेवाले श्रीरामचन्द्रजीके अपार रूपको देखकर उनके नेत्र थकित (स्तम्भित) हो रहे॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

बहुरि बिलोकि बिदेह सन कहहु काह अति भीर।
पूँछत जानि अजान जिमि ब्यापेउ कोपु सरीर॥ २६९॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर सब देखकर, जानते हुए भी अनजानकी तरह जनकजीसे पूछते हैं कि कहो, यह बड़ी भारी भीड़ कैसी है? उनके शरीरमें क्रोध छा गया॥ २६९॥

मूल (चौपाई)

समाचार कहि जनक सुनाए।
जेहि कारन महीप सब आए॥
सुनत बचन फिरि अनत निहारे।
देखे चापखंड महि डारे॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिस कारण सब राजा आये थे, राजा जनकने वे सब समाचार कह सुनाये। जनकके वचन सुनकर परशुरामजीने फिरकर दूसरी ओर देखा तो धनुषके टुकड़े पृथ्वीपर पड़े हुए दिखायी दिये॥ १॥

मूल (चौपाई)

अति रिस बोले बचन कठोरा।
कहु जड़ जनक धनुष कै तोरा॥
बेगि देखाउ मूढ़ न त आजू।
उलटउँ महि जहँ लहि तव राजू॥

अनुवाद (हिन्दी)

अत्यन्त क्रोधमें भरकर वे कठोर वचन बोले—रे मूर्ख जनक! बता, धनुष किसने तोड़ा? उसे शीघ्र दिखा, नहीं तो अरे मूढ़! आज मैं जहाँतक तेरा राज्य है, वहाँतककी पृथ्वी उलट दूँगा॥ २॥

मूल (चौपाई)

अति डरु उतरु देत नृपु नाहीं।
कुटिल भूप हरषे मन माहीं॥
सुर मुनि नाग नगर नर नारी।
सोचहिं सकल त्रास उर भारी॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजाको अत्यन्त डर लगा, जिसके कारण वे उत्तर नहीं देते। यह देखकर कुटिल राजा मनमें बड़े प्रसन्न हुए। देवता, मुनि, नाग और नगरके स्त्री-पुरुष सभी सोच करने लगे, सबके हृदयमें बड़ा भय है॥ ३॥

मूल (चौपाई)

मन पछिताति सीय महतारी।
बिधि अब सँवरी बात बिगारी॥
भृगुपति कर सुभाउ सुनि सीता।
अरध निमेष कलप सम बीता॥

अनुवाद (हिन्दी)

सीताजीकी माता मनमें पछता रही हैं कि हाय! विधाताने अब बनी-बनायी बात बिगाड़ दी। परशुरामजीका स्वभाव सुनकर सीताजीको आधा क्षण भी कल्पके समान बीतने लगा॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

सभय बिलोके लोग सब जानि जानकी भीरु।
हृदयँ न हरषु बिषादु कछु बोले श्रीरघुबीरु॥ २७०॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब श्रीरामचन्द्रजी सब लोगोंको भयभीत देखकर और सीताजीको डरी हुई जानकर बोले—उनके हृदयमें न कुछ हर्ष था, न विषाद—॥ २७०॥

भागसूचना

मासपारायण, नवाँ विश्राम

Misc Detail