५० श्रीलक्ष्मणजीका क्रोध

मूल (चौपाई)

जनक बचन सुनि सब नर नारी।
देखि जानकिहि भए दुखारी॥
माखे लखनु कुटिल भइँ भौंहें।
रदपट फरकत नयन रिसौंहें॥

अनुवाद (हिन्दी)

जनकके वचन सुनकर सभी स्त्री-पुरुष जानकीजीकी ओर देखकर दुःखी हुए, परन्तु लक्ष्मणजी तमतमा उठे, उनकी भौंहें टेढ़ी हो गयीं, ओठ फड़कने लगे और नेत्र क्रोधसे लाल हो गये॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

कहि न सकत रघुबीर डर लगे बचन जनु बान।
नाइ राम पद कमल सिरु बोले गिरा प्रमान॥ २५२॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरघुवीरजीके डरसे कुछ कह तो सकते नहीं, पर जनकके वचन उन्हें बाण-से लगे। (जब न रह सके तब) श्रीरामचन्द्रजीके चरणकमलोंमें सिर नवाकर वे यथार्थ वचन बोले—॥ २५२॥

मूल (चौपाई)

रघुबंसिन्ह महुँ जहँ कोउ होई।
तेहिं समाज अस कहइ न कोई॥
कही जनक जसि अनुचित बानी।
बिद्यमान रघुकुलमनि जानी॥

अनुवाद (हिन्दी)

रघुवंशियोंमें कोई भी जहाँ होता है, उस समाजमें ऐसे वचन कोई नहीं कहता, जैसे अनुचित वचन रघुकुलशिरोमणि श्रीरामजीको उपस्थित जानते हुए भी जनकजीने कहे हैं॥ १॥

मूल (चौपाई)

सुनहु भानुकुल पंकज भानू।
कहउँ सुभाउ न कछु अभिमानू॥
जौं तुम्हारि अनुसासन पावौं।
कंदुक इव ब्रह्मांड उठावौं॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे सूर्यकुलरूपी कमलके सूर्य! सुनिये, मैं स्वभावहीसे कहता हूँ, कुछ अभिमान करके नहीं, यदि आपकी आज्ञा पाऊँ, तो मैं ब्रह्माण्डको गेंदकी तरह उठा लूँ॥ २॥

मूल (चौपाई)

काचे घट जिमि डारौं फोरी।
सकउँ मेरु मूलक जिमि तोरी॥
तव प्रताप महिमा भगवाना।
को बापुरो पिनाक पुराना॥

अनुवाद (हिन्दी)

और उसे कच्चे घड़ेकी तरह फोड़ डालूँ। मैं सुमेरु पर्वतको मूलीकी तरह तोड़ सकता हूँ, हे भगवन्! आपके प्रतापकी महिमासे यह बेचारा पुराना धनुष तो कौन चीज है॥ ३॥

मूल (चौपाई)

नाथ जानि अस आयसु होऊ।
कौतुकु करौं बिलोकिअ सोऊ॥
कमल नाल जिमि चाप चढ़ावौं।
जोजन सत प्रमान लै धावौं॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसा जानकर हे नाथ! आज्ञा हो तो कुछ खेल करूँ, उसे भी देखिये। धनुषको कमलकी डंडीकी तरह चढ़ाकर उसे सौ योजनतक दौड़ा लिये चला जाऊँ॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

तोरौं छत्रक दंड जिमि तव प्रताप बल नाथ।
जौं न करौं प्रभु पद सपथ कर न धरौं धनु भाथ॥ २५३॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे नाथ! आपके प्रतापके बलसे धनुषको कुकुरमुत्ते (बरसाती छत्ते) की तरह तोड़ दूँ। यदि ऐसा न करूँ तो प्रभुके चरणोंकी शपथ है, फिर मैं धनुष और तरकसको कभी हाथमें भी न लूँगा॥ २५३॥

मूल (चौपाई)

लखन सकोप बचन जे बोले।
डगमगानि महि दिग्गज डोले॥
सकल लोग सब भूप डेराने।
सिय हियँ हरषु जनकु सकुचाने॥

अनुवाद (हिन्दी)

ज्यों ही लक्ष्मणजी क्रोधभरे वचन बोले कि पृथ्वी डगमगा उठी और दिशाओंके हाथी काँप गये। सभी लोग और सब राजा डर गये। सीताजीके हृदयमें हर्ष हुआ और जनकजी सकुचा गये॥ १॥

मूल (चौपाई)

गुर रघुपति सब मुनि मन माहीं।
मुदित भए पुनि पुनि पुलकाहीं॥
सयनहिं रघुपति लखनु नेवारे।
प्रेम समेत निकट बैठारे॥

अनुवाद (हिन्दी)

गुरु विश्वामित्रजी, श्रीरघुनाथजी और सब मुनि मनमें प्रसन्न हुए और बार-बार पुलकित होने लगे। श्रीरामचन्द्रजीने इशारेसे लक्ष्मणको मना किया और प्रेमसहित अपने पास बैठा लिया॥ २॥

मूल (चौपाई)

बिस्वामित्र समय सुभ जानी।
बोले अति सनेहमय बानी॥
उठहु राम भंजहु भवचापा।
मेटहु तात जनक परितापा॥

अनुवाद (हिन्दी)

विश्वामित्रजी शुभ समय जानकर अत्यन्त प्रेमभरी वाणी बोले—हे राम! उठो, शिवजीका धनुष तोड़ो और हे तात! जनकका सन्ताप मिटाओ॥ ३॥

मूल (चौपाई)

सुनि गुरु बचन चरन सिरु नावा।
हरषु बिषादु न कछु उर आवा॥
ठाढ़े भए उठि सहज सुभाएँ।
ठवनि जुबा मृगराजु लजाएँ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गुरुके वचन सुनकर श्रीरामजीने चरणोंमें सिर नवाया। उनके मनमें न हर्ष हुआ, न विषाद; और वे अपनी ऐंड़ (खड़े होनेकी शान) से जवान सिंहको भी लजाते हुए सहज स्वभावसे ही उठ खडे़ हुए॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

उदित उदयगिरि मंच पर रघुबर बालपतंग।
बिकसे संत सरोज सब हरषे लोचन भृंग॥२५४॥

अनुवाद (हिन्दी)

मञ्चरूपी उदयाचलपर रघुनाथजीरूपी बालसूर्यके उदय होते ही सब संतरूपी कमल खिल उठे और नेत्ररूपी भौंरे हर्षित हो गये॥२५४॥

मूल (चौपाई)

नृपन्ह केरि आसा निसि नासी।
बचन नखत अवली न प्रकासी॥
मानी महिप कुमुद सकुचाने।
कपटी भूप उलूक लुकाने॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजाओंकी आशारूपी रात्रि नष्ट हो गयी। उनके वचनरूपी तारोंके समूहका चमकना बंद हो गया (वे मौन हो गये)। अभिमानी राजारूपी कुमुद संकुचित हो गये और कपटी राजारूपी उल्लू छिप गये॥ १॥

मूल (चौपाई)

भए बिसोक कोक मुनि देवा।
बरिसहिं सुमन जनावहिं सेवा॥
गुर पद बंदि सहित अनुरागा।
राम मुनिन्ह सन आयसु मागा॥

अनुवाद (हिन्दी)

मुनि और देवतारूपी चकवे शोकरहित हो गये। वे फूल बरसाकर अपनी सेवा प्रकट कर रहे हैं। प्रेमसहित गुरुके चरणोंकी वन्दना करके श्रीरामचन्द्रजीने मुनियोंसे आज्ञा माँगी॥ २॥

मूल (चौपाई)

सहजहिं चले सकल जग स्वामी।
मत्त मंजु बर कुंजर गामी॥
चलत राम सब पुर नर नारी।
पुलक पूरि तन भए सुखारी॥

अनुवाद (हिन्दी)

समस्त जगत् के स्वामी श्रीरामजी सुन्दर मतवाले श्रेष्ठ हाथीकी-सी चालसे स्वाभाविक ही चले। श्रीरामचन्द्रजीके चलते ही नगरभरके सब स्त्री-पुरुष सुखी हो गये और उनके शरीर रोमाञ्चसे भर गये॥३॥

मूल (चौपाई)

बंदि पितर सुर सुकृत सँभारे।
जौं कछु पुन्य प्रभाउ हमारे॥
तौ सिवधनु मृनाल की नाईं।
तोरहुँ रामु गनेस गोसाईं॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने पितर और देवताओंकी वन्दना करके अपने पुण्योंका स्मरण किया। यदि हमारे पुण्योंका कुछ भी प्रभाव हो, तो हे गणेश गोसाईं! रामचन्द्रजी शिवजीके धनुषको कमलकी डंडीकी भाँति तोड़ डालें॥४॥

दोहा

मूल (दोहा)

रामहि प्रेम समेत लखि सखिन्ह समीप बोलाइ।
सीता मातु सनेह बस बचन कहइ बिलखाइ॥ २५५॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामचन्द्रजीको (वात्सल्य) प्रेमके साथ देखकर और सखियोंको समीप बुलाकर सीताजीकी माता स्नेहवश विलखकर (विलाप करती हुई-सी) ये वचन बोलीं—॥ २५५॥

मूल (चौपाई)

सखि सब कौतुकु देखनिहारे।
जेउ कहावत हितू हमारे॥
कोउ न बुझाइ कहइ गुर पाहीं।
ए बालक असि हठ भलि नाहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे सखी! ये जो हमारे हितू कहलाते हैं, वे भी सब तमाशा देखनेवाले हैं। कोई भी (इनके) गुरु विश्वामित्रजीको समझाकर नहीं कहता कि ये (रामजी) बालक हैं, इनके लिये ऐसा हठ अच्छा नहीं। (जो धनुष रावण और बाण-जैसे जगद्विजयी वीरोंके हिलाये न हिल सका, उसे तोड़नेके लिये मुनि विश्वामित्रजीका रामजीको आज्ञा देना और रामजीका उसे तोड़नेके लिये चल देना रानीको हठ जान पड़ा, इसलिये वे कहने लगीं कि गुरु विश्वामित्रजीको कोई समझाता भी नहीं।)॥ १॥

मूल (चौपाई)

रावन बान छुआ नहिं चापा।
हारे सकल भूप करि दापा॥
सो धनु राजकुअँर कर देहीं।
बाल मराल कि मंदर लेहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

रावण और बाणासुरने जिस धनुषको छुआतक नहीं और सब राजा घमंड करके हार गये, वही धनुष इस सुकुमार राजकुमारके हाथमें दे रहे हैं। हंसके बच्चे भी कहीं मन्दराचल पहाड़ उठा सकते हैं?॥ २॥

मूल (चौपाई)

भूप सयानप सकल सिरानी।
सखि बिधि गति कछु जाति न जानी॥
बोली चतुर सखी मृदु बानी।
तेजवंत लघु गनिअ न रानी॥

अनुवाद (हिन्दी)

(और तो कोई समझाकर कहे या नहीं, राजा तो बड़े समझदार और ज्ञानी हैं, उन्हें तो गुरुको समझानेकी चेष्टा करनी चाहिये थी, परन्तु मालूम होता है) राजाका भी सारा सयानापन समाप्त हो गया। हे सखी! विधाताकी गति कुछ जाननेमें नहीं आती (यों कहकर रानी चुप हो रहीं)। तब एक चतुर (रामजीके महत्त्वको जाननेवाली) सखी कोमल वाणीसे बोली—हे रानी! तेजवान् को (देखनेमें छोटा होनेपर भी) छोटा नहीं गिनना चाहिये॥ ३॥

मूल (चौपाई)

कहँ कुंभज कहँ सिंधु अपारा।
सोषेउ सुजसु सकल संसारा॥
रबि मंडल देखत लघु लागा।
उदयँ तासु तिभुवन तम भागा॥

अनुवाद (हिन्दी)

कहाँ घड़ेसे उत्पन्न होनेवाले (छोटे-से) मुनि अगस्त्य और कहाँ अपार समुद्र? किन्तु उन्होंने उसे सोख लिया, जिसका सुयश सारे संसारमें छाया हुआ है। सूर्यमण्डल देखनेमें छोटा लगता है, पर उसके उदय होते ही तीनों लोकोंका अन्धकार भाग जाता है॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

मंत्र परम लघु जासु बस बिधि हरि हर सुर सर्ब।
महामत्त गजराज कहुँ बस कर अंकुस खर्ब॥ २५६॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसके वशमें ब्रह्मा, विष्णु, शिव और सभी देवता हैं, वह मन्त्र अत्यन्त छोटा होता है। महान् मतवाले गजराजको छोटा-सा अंकुश वशमें कर लेता है॥ २५६॥

मूल (चौपाई)

काम कुसुम धनु सायक लीन्हे।
सकल भुवन अपने बस कीन्हे॥
देबि तजिअ संसउ अस जानी।
भंजब धनुषु राम सुनु रानी॥

अनुवाद (हिन्दी)

कामदेवने फूलोंका ही धनुष-बाण लेकर समस्त लोकोंको अपने वशमें कर रखा है। हे देवी! ऐसा जानकर सन्देह त्याग दीजिये। हे रानी! सुनिये, रामचन्द्रजी धनुषको अवश्य ही तोड़ेंगे॥ १॥

मूल (चौपाई)

सखी बचन सुनि भै परतीती।
मिटा बिषादु बढ़ी अति प्रीती॥
तब रामहि बिलोकि बैदेही।
सभय हृदयँ बिनवति जेहि तेही॥

अनुवाद (हिन्दी)

सखीके वचन सुनकर रानीको (श्रीरामजीके सामर्थ्यके सम्बन्धमें) विश्वास हो गया। उनकी उदासी मिट गयी और श्रीरामजीके प्रति उनका प्रेम अत्यन्त बढ़ गया। उस समय श्रीरामचन्द्रजीको देखकर सीताजी भयभीत हृदयसे जिस-तिस (देवता) से विनती कर रही हैं॥ २॥

मूल (चौपाई)

मनहीं मन मनाव अकुलानी।
होहु प्रसन्न महेस भवानी॥
करहु सफल आपनि सेवकाई।
करि हितु हरहु चाप गरुआई॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे व्याकुल होकर मन-ही-मन मना रही हैं—हे महेश-भवानी! मुझपर प्रसन्न होइये, मैंने आपकी जो सेवा की है, उसे सुफल कीजिये और मुझपर स्नेह करके धनुषके भारीपनको हर लीजिये॥ ३॥

मूल (चौपाई)

गननायक बरदायक देवा।
आजु लगें कीन्हिउँ तुअ सेवा॥
बार बार बिनती सुनि मोरी।
करहु चाप गुरुता अति थोरी॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे गणोंके नायक, वर देनेवाले देवता गणेशजी! मैंने आजहीके लिये तुम्हारी सेवा की थी। बार-बार मेरी विनती सुनकर धनुषका भारीपन बहुत ही कम कर दीजिये॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

देखि देखि रघुबीर तन सुर मनाव धरि धीर।
भरे बिलोचन प्रेम जल पुलकावली सरीर॥ २५७॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरघुनाथजीकी ओर देख-देखकर सीताजी धीरज धरकर देवताओंको मना रही हैं। उनके नेत्रोंमें प्रेमके आँसू भरे हैं और शरीरमें रोमाञ्च हो रहा है॥ २५७॥

मूल (चौपाई)

नीकें निरखि नयन भरि सोभा।
पितु पनु सुमिरि बहुरि मनु छोभा॥
अहह तात दारुनि हठ ठानी।
समुझत नहिं कछु लाभु न हानी॥

अनुवाद (हिन्दी)

अच्छी तरह नेत्र भरकर श्रीरामजीकी शोभा देखकर, फिर पिताके प्रणका स्मरण करके सीताजीका मन क्षुब्ध हो उठा। (वे मन-ही-मन कहने लगीं—) अहो! पिताजीने बड़ा ही कठिन हठ ठाना है, वे लाभ-हानि कुछ भी नहीं समझ रहे हैं॥ १॥

मूल (चौपाई)

सचिव सभय सिख देइ न कोई।
बुध समाज बड़ अनुचित होई॥
कहँ धनु कुलिसहु चाहि कठोरा।
कहँ स्यामल मृदुगात किसोरा॥

अनुवाद (हिन्दी)

मन्त्री डर रहे हैं; इसलिये कोई उन्हें सीख भी नहीं देता, पण्डितोंकी सभामें यह बड़ा अनुचित हो रहा है। कहाँ तो वज्रसे भी बढ़कर कठोर धनुष और कहाँ ये कोमलशरीर किशोर श्यामसुन्दर!॥ २॥

मूल (चौपाई)

बिधि केहि भाँति धरौं उर धीरा।
सिरस सुमन कन बेधिअ हीरा॥
सकल सभा कै मति भै भोरी।
अब मोहि संभुचाप गति तोरी॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे विधाता! मैं हृदयमें किस तरह धीरज धरूँ, सिरसके फूलके कणसे कहीं हीरा छेदा जाता है। सारी सभाकी बुद्धि भोली (बावली) हो गयी है, अतः हे शिवजीके धनुष! अब तो मुझे तुम्हारा ही आसरा है॥ ३॥

मूल (चौपाई)

निज जड़ता लोगन्ह पर डारी।
होहि हरुअ रघुपतिहि निहारी॥
अति परिताप सीय मन माहीं।
लव निमेष जुग सय सम जाहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुम अपनी जड़ता लोगोंपर डालकर, श्रीरघुनाथजी (के सुकुमार शरीर) को देखकर (उतने ही) हलके हो जाओ। इस प्रकार सीताजीके मनमें बड़ा ही सन्ताप हो रहा है। निमेषका एक लव (अंश) भी सौ युगोंके समान बीत रहा है॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

प्रभुहि चितइ पुनि चितव महि राजत लोचन लोल।
खेलत मनसिज मीन जुग जनु बिधु मंडल डोल॥ २५८॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभु श्रीरामचन्द्रजीको देखकर फिर पृथ्वीकी ओर देखती हुई सीताजीके चञ्चल नेत्र इस प्रकार शोभित हो रहे हैं, मानो चन्द्रमण्डलरूपी डोलमें कामदेवकी दो मछलियाँ खेल रही हों॥ २५८॥

मूल (चौपाई)

गिरा अलिनि मुख पंकज रोकी।
प्रगट न लाज निसा अवलोकी॥
लोचन जलु रह लोचन कोना।
जैसें परम कृपन कर सोना॥

अनुवाद (हिन्दी)

सीताजीकी वाणीरूपी भ्रमरीको उनके मुखरूपी कमलने रोक रखा है। लाजरूपी रात्रिको देखकर वह प्रकट नहीं हो रही है। नेत्रोंका जल नेत्रोंके कोने (कोये) में ही रह जाता है। जैसे बड़े भारी कंजूसका सोना कोनेमें ही गड़ा रह जाता है॥ १॥

मूल (चौपाई)

सकुची ब्याकुलता बड़ि जानी।
धरि धीरजु प्रतीति उर आनी॥
तन मन बचन मोर पनु साचा।
रघुपति पद सरोज चितु राचा॥

अनुवाद (हिन्दी)

अपनी बढ़ी हुई व्याकुलता जानकर सीताजी सकुचा गयीं और धीरज धरकर हृदयमें विश्वास ले आयीं कि यदि तन, मन और वचनसे मेरा प्रण सच्चा है और श्रीरघुनाथजीके चरणकमलोंमें मेरा चित्त वास्तवमें अनुरक्त है,॥ २॥

मूल (चौपाई)

तौ भगवानु सकल उर बासी।
करिहि मोहि रघुबर कै दासी॥
जेहि कें जेहि पर सत्य सनेहू।
सो तेहि मिलइ न कछु संदेहू॥

अनुवाद (हिन्दी)

तो सबके हृदयमें निवास करनेवाले भगवान् मुझे रघुश्रेष्ठ श्रीरामचन्द्रजीकी दासी अवश्य बनायेंगे। जिसका जिसपर सच्चा स्नेह होता है, वह उसे मिलता ही है, इसमें कुछ भी सन्देह नहीं है॥ ३॥

मूल (चौपाई)

प्रभु तन चितइ प्रेम तन ठाना।
कृपानिधान राम सबु जाना॥
सियहि बिलोकि तकेउ धनु कैसें।
चितव गरुरु लघु ब्यालहि जैसें॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभुकी ओर देखकर सीताजीने शरीरके द्वारा प्रेम ठान लिया (अर्थात् यह निश्चय कर लिया कि यह शरीर इन्हींका होकर रहेगा या रहेगा ही नहीं)। कृपानिधान श्रीरामजी सब जान गये। उन्होंने सीताजीको देखकर धनुषकी ओर कैसे ताका, जैसे गरुड़जी छोटे-से साँपकी ओर देखते हैं॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

लखन लखेउ रघुबंसमनि ताकेउ हर कोदंडु।
पुलकि गात बोले बचन चरन चापि ब्रह्मांडु॥ २५९॥

अनुवाद (हिन्दी)

इधर जब लक्ष्मणजीने देखा कि रघुकुलमणि श्रीरामचन्द्रजीने शिवजीके धनुषकी ओर ताका है, तो वे शरीरसे पुलकित हो ब्रह्माण्डको चरणोंसे दबाकर निम्नलिखित वचन बोले—॥ २५९॥

मूल (चौपाई)

दिसिकुंजरहु कमठ अहि कोला।
धरहु धरनि धरि धीर न डोला॥
रामु चहहिं संकर धनु तोरा।
होहु सजग सुनि आयसु मोरा॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे दिग्गजो! हे कच्छप! हे शेष! हे वाराह! धीरज धरकर पृथ्वीको थामे रहो, जिसमें यह हिलने न पावे। श्रीरामचन्द्रजी शिवजीके धनुषको तोड़ना चाहते हैं। मेरी आज्ञा सुनकर सब सावधान हो जाओ॥ १॥

मूल (चौपाई)

चाप समीप रामु जब आए।
नर नारिन्ह सुर सुकृत मनाए॥
सब कर संसउ अरु अग्यानू।
मंद महीपन्ह कर अभिमानू॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामचन्द्रजी जब धनुषके समीप आये, तब सब स्त्री-पुरुषोंने देवताओं और पुण्योंको मनाया। सबका सन्देह और अज्ञान, नीच राजाओंका अभिमान,॥ २॥

मूल (चौपाई)

भृगुपति केरि गरब गरुआई।
सुर मुनिबरन्ह केरि कदराई॥
सिय कर सोचु जनक पछितावा।
रानिन्ह कर दारुन दुख दावा॥

अनुवाद (हिन्दी)

परशुरामजीके गर्वकी गुरुता, देवता और श्रेष्ठ मुनियोंकी कातरता (भय), सीताजीका सोच, जनकका पश्चात्ताप और रानियोंके दारुण दुःखका दावानल,॥ ३॥

मूल (चौपाई)

संभुचाप बड़ बोहितु पाई।
चढ़े जाइ सब संगु बनाई॥
राम बाहुबल सिंधु अपारू।
चहत पारु नहिं कोउ कड़हारू॥

अनुवाद (हिन्दी)

ये सब शिवजीके धनुषरूपी बड़े जहाजको पाकर, समाज बनाकर उसपर जा चढ़े। ये श्रीरामचन्द्रजीकी भुजाओंके बलरूपी अपार समुद्रके पार जाना चाहते हैं, परन्तु कोई केवट नहीं है॥ ४॥

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