४९ बन्दीजनोंद्वारा जनकप्रतिज्ञाकी घोषणा, राजाओंसे धनुष न उठना, जनककी निराशाजनक वाणी

मूल (चौपाई)

तब बंदीजन जनक बोलाए।
बिरिदावली कहत चलि आए॥
कह नृपु जाइ कहहु पन मोरा।
चले भाट हियँ हरषु न थोरा॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब राजा जनकने बंदीजनों (भाटों) को बुलाया। वे विरुदावली (वंशकी कीर्ति) गाते हुए चले आये। राजाने कहा—जाकर मेरा प्रण सबसे कहो। भाट चले, उनके हृदयमें कम आनन्द न था॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

बोले बंदी बचन बर सुनहु सकल महिपाल।
पन बिदेह कर कहहिं हम भुजा उठाइ बिसाल॥ २४९॥

अनुवाद (हिन्दी)

भाटोंने श्रेष्ठ वचन कहा— हे पृथ्वीकी पालना करनेवाले सब राजागण! सुनिये। हम अपनी भुजा उठाकर जनकजीका विशाल प्रण कहते हैं॥ २४९॥

मूल (चौपाई)

नृप भुजबलु बिधु सिवधनु राहू।
गरुअ कठोर बिदित सब काहू॥
रावनु बानु महाभट भारे।
देखि सरासन गवँहिं सिधारे॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजाओंकी भुजाओंका बल चन्द्रमा है, शिवजीका धनुष राहु है, वह भारी है, कठोर है, यह सबको विदित है। बड़े भारी योद्धा रावण और बाणासुर भी इस धनुषको देखकर गौंसे (चुपके-से) चलते बने (उसे उठाना तो दूर रहा, छूनेतककी हिम्मत न हुई)॥ १॥

मूल (चौपाई)

सोइ पुरारि कोदंडु कठोरा।
राज समाज आजु जोइ तोरा॥
त्रिभुवन जय समेत बैदेही।
बिनहिं बिचार बरइ हठि तेही॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसी शिवजीके कठोर धनुषको आज इस राजसमाजमें जो भी तोड़ेगा, तीनों लोकोंकी विजयके साथ ही उसको जानकीजी बिना किसी विचारके हठपूर्वक वरण करेंगी॥ २॥

मूल (चौपाई)

सुनि पन सकल भूप अभिलाषे।
भटमानी अतिसय मन माखे॥
परिकर बाँधि उठे अकुलाई।
चले इष्टदेवन्ह सिर नाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रण सुनकर सब राजा ललचा उठे। जो वीरताके अभिमानी थे, वे मनमें बहुत ही तमतमाये। कमर कसकर अकुलाकर उठे और अपने इष्टदेवोंको सिर नवाकर चले॥ ३॥

मूल (चौपाई)

तमकि ताकि तकि सिवधनु धरहीं।
उठइ न कोटि भाँति बलु करहीं॥
जिन्ह के कछु बिचारु मन माहीं।
चाप समीप महीप न जाहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे तमककर (बड़े तावसे) शिवजीके धनुषकी ओर देखते हैं और फिर निगाह जमाकर उसे पकड़ते हैं, करोड़ों भाँतिसे जोर लगाते हैं, पर वह उठता ही नहीं। जिन राजाओंके मनमें कुछ विवेक है, वे धनुषके पास ही नहीं जाते॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

तमकि धरहिं धनु मूढ़ नृप उठइ न चलहिं लजाइ।
मनहुँ पाइ भट बाहुबलु अधिकु अधिकु गरुआइ॥ २५०॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे मूर्ख राजा तमककर (किटकिटाकर) धनुषको पकड़ते हैं, परन्तु जब नहीं उठता तो लजाकर चले जाते हैं, मानो वीरोंकी भुजाओंका बल पाकर वह धनुष अधिक-अधिक भारी होता जाता है॥ २५०॥

मूल (चौपाई)

भूप सहस दस एकहि बारा।
लगे उठावन टरइ न टारा॥
डगइ न संभु सरासनु कैसें।
कामी बचन सती मनु जैसें॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब दस हजार राजा एक ही बार धनुषको उठाने लगे, तो भी वह उनके टाले नहीं टलता। शिवजीका वह धनुष कैसे नहीं डिगता था, जैसे कामी पुरुषके वचनोंसे सतीका मन (कभी) चलायमान नहीं होता॥ १॥

मूल (चौपाई)

सब नृप भए जोगु उपहासी।
जैसें बिनु बिराग संन्यासी॥
कीरति बिजय बीरता भारी।
चले चाप कर बरबस हारी॥

अनुवाद (हिन्दी)

सब राजा उपहासके योग्य हो गये। जैसे वैराग्यके बिना संन्यासी उपहासके योग्य हो जाता है। कीर्ति, विजय, बड़ी वीरता—इन सबको वे धनुषके हाथों बरबस हारकर चले गये॥ २॥

मूल (चौपाई)

श्रीहत भए हारि हियँ राजा।
बैठे निज निज जाइ समाजा॥
नृपन्ह बिलोकि जनकु अकुलाने।
बोले बचन रोष जनु साने॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजालोग हृदयसे हारकर श्रीहीन (हतप्रभ) हो गये और अपने-अपने समाजमें जा बैठे। राजाओंको (असफल) देखकर जनक अकुला उठे और ऐसे वचन बोले जो मानो क्रोधमें सने हुए थे॥ ३॥

मूल (चौपाई)

दीप दीप के भूपति नाना।
आए सुनि हम जो पनु ठाना॥
देव दनुज धरि मनुज सरीरा।
बिपुल बीर आए रनधीरा॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैंने जो प्रण ठाना था, उसे सुनकर द्वीप-द्वीपके अनेकों राजा आये। देवता और दैत्य भी मनुष्यका शरीर धारण करके आये तथा और भी बहुत-से रणधीर वीर आये॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

कुअँरि मनोहर बिजय बड़ि कीरति अति कमनीय।
पावनिहार बिरंचि जनु रचेउ न धनु दमनीय॥२५१॥

अनुवाद (हिन्दी)

परन्तु धनुषको तोड़कर मनोहर कन्या, बड़ी विजय और अत्यन्त सुन्दर कीर्तिको पानेवाला मानो ब्रह्माने किसीको रचा ही नहीं॥ २५१॥

मूल (चौपाई)

कहहु काहि यहु लाभु न भावा।
काहुँ न संकर चाप चढ़ावा॥
रहउ चढ़ाउब तोरब भाई।
तिलु भरि भूमि न सके छड़ाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

कहिये, यह लाभ किसको अच्छा नहीं लगता। परन्तु किसीने भी शङ्करजीका धनुष नहीं चढ़ाया। अरे भाई! चढ़ाना और तोड़ना तो दूर रहा, कोई तिलभर भूमि भी छुड़ा न सका॥ १॥

मूल (चौपाई)

अब जनि कोउ माखै भट मानी।
बीर बिहीन मही मैं जानी॥
तजहु आस निज निज गृह जाहू।
लिखा न बिधि बैदेहि बिबाहू॥

अनुवाद (हिन्दी)

अब कोई वीरताका अभिमानी नाराज न हो। मैंने जान लिया, पृथ्वी वीरोंसे खाली हो गयी। अब आशा छोड़कर अपने-अपने घर जाओ; ब्रह्माने सीताका विवाह लिखा ही नहीं॥ २॥

मूल (चौपाई)

सुकृतु जाइ जौं पनु परिहरऊँ।
कुअँरि कुआरि रहउ का करऊँ॥
जौं जनतेउँ बिनु भट भुबि भाई।
तौ पनु करि होतेउँ न हँसाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि प्रण छोड़ता हूँ तो पुण्य जाता है; इसलिये क्या करूँ, कन्या कुँआरी ही रहे। यदि मैं जानता कि पृथ्वी वीरोंसे शून्य है, तो प्रण करके उपहासका पात्र न बनता॥ ३॥

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