४७ श्रीराम-लक्ष्मणसहित विश्वामित्रका यज्ञशालामें प्रवेश

मूल (चौपाई)

सीय स्वयंबरु देखिअ जाई।
ईसु काहि धौं देइ बड़ाई॥
लखन कहा जस भाजनु सोई।
नाथ कृपा तव जापर होई॥

अनुवाद (हिन्दी)

चलकर सीताजीके स्वयंवरको देखना चाहिये। देखें ईश्वर किसको बड़ाई देते हैं। लक्ष्मणजीने कहा—हे नाथ! जिसपर आपकी कृपा होगी, वही बड़ाईका पात्र होगा (धनुष तोड़नेका श्रेय उसीको प्राप्त होगा)॥ १॥

मूल (चौपाई)

हरषे मुनि सब सुनि बर बानी।
दीन्हि असीस सबहिं सुखु मानी॥
पुनि मुनि बृंद समेत कृपाला।
देखन चले धनुषमख साला॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस श्रेष्ठ वाणीको सुनकर सब मुनि प्रसन्न हुए। सभीने सुख मानकर आशीर्वाद दिया। फिर मुनियोंके समूहसहित कृपालु श्रीरामचन्द्रजी धनुषयज्ञशाला देखने चले॥ २॥

मूल (चौपाई)

रंगभूमि आए दोउ भाई।
असि सुधि सब पुरबासिन्ह पाई॥
चले सकल गृह काज बिसारी।
बाल जुबान जरठ नर नारी॥

अनुवाद (हिन्दी)

दोनों भाई रंगभूमिमें आये हैं, ऐसी खबर जब सब नगरनिवासियोंने पायी, तब बालक, जवान, बूढ़े, स्त्री, पुरुष सभी घर और काम-काजको भुलाकर चल दिये॥ ३॥

मूल (चौपाई)

देखी जनक भीर भै भारी।
सुचि सेवक सब लिए हँकारी॥
तुरत सकल लोगन्ह पहिं जाहू।
आसन उचित देहु सब काहू॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब जनकजीने देखा कि बड़ी भीड़ हो गयी है, तब उन्होंने सब विश्वासपात्र सेवकोंको बुलवा लिया और कहा—तुमलोग तुरंत सब लोगोंके पास जाओ और सब किसीको यथायोग्य आसन दो॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

कहि मृदु बचन बिनीत तिन्ह बैठारे नर नारि।
उत्तम मध्यम नीच लघु निज निज थल अनुहारि॥ २४०॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन सेवकोंने कोमल और नम्र वचन कहकर उत्तम, मध्यम, नीच और लघु (सभी श्रेणीके) स्त्री-पुरुषोंको अपने-अपने योग्य स्थानपर बैठाया॥ २४०॥

मूल (चौपाई)

राजकुअँर तेहि अवसर आए।
मनहुँ मनोहरता तन छाए॥
गुन सागर नागर बर बीरा।
सुंदर स्यामल गौर सरीरा॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसी समय राजकुमार (राम और लक्ष्मण) वहाँ आये। (वे ऐसे सुन्दर हैं) मानो साक्षात् मनोहरता ही उनके शरीरोंपर छा रही हो। सुन्दर साँवला और गोरा उनका शरीर है। वे गुणोंके समुद्र, चतुर और उत्तम वीर हैं॥ १॥

मूल (चौपाई)

राज समाज बिराजत रूरे।
उडगन महुँ जनु जुग बिधु पूरे॥
जिन्ह कें रही भावना जैसी।
प्रभु मूरति तिन्ह देखी तैसी॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे राजाओंके समाजमें ऐसे सुशोभित हो रहे हैं, मानो तारागणोंके बीच दो पूर्ण चन्द्रमा हों। जिनकी जैसी भावना थी, प्रभुकी मूर्ति उन्होंने वैसी ही देखी॥ २॥

मूल (चौपाई)

देखहिं रूप महा रनधीरा।
मनहुँ बीर रसु धरें सरीरा॥
डरे कुटिल नृप प्रभुहि निहारी।
मनहुँ भयानक मूरति भारी॥

अनुवाद (हिन्दी)

महान् रणधीर (राजालोग) श्रीरामचन्द्रजीके रूपको ऐसा देख रहे हैं, मानो स्वयं वीर-रस शरीर धारण किये हुए हो। कुटिल राजा प्रभुको देखकर डर गये, मानो बड़ी भयानक मूर्ति हो॥ ३॥

मूल (चौपाई)

रहे असुर छल छोनिप बेषा।
तिन्ह प्रभु प्रगट काल सम देखा॥
पुरबासिन्ह देखे दोउ भाई।
नरभूषन लोचन सुखदाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

छलसे जो राक्षस वहाँ राजाओंके वेषमें (बैठे) थे, उन्होंने प्रभुको प्रत्यक्ष कालके समान देखा। नगरनिवासियोंने दोनों भाइयोंको मनुष्योंके भूषणरूप और नेत्रोंको सुख देनेवाला देखा॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

नारि बिलोकहिं हरषि हियँ निज निज रुचि अनुरूप।
जनु सोहत सिंगार धरि मूरति परम अनूप॥ २४१॥

अनुवाद (हिन्दी)

स्त्रियाँ हृदयमें हर्षित होकर अपनी-अपनी रुचिके अनुसार उन्हें देख रही हैं। मानो शृंगार-रस ही परम अनुपम मूर्ति धारण किये सुशोभित हो रहा हो॥ २४१॥

मूल (चौपाई)

बिदुषन्ह प्रभु बिराटमय दीसा।
बहु मुख कर पग लोचन सीसा॥
जनक जाति अवलोकहिं कैसें।
सजन सगे प्रिय लागहिं जैसें॥

अनुवाद (हिन्दी)

विद्वानोंको प्रभु विराट्‍रूपमें दिखायी दिये, जिसके बहुत-से मुँह, हाथ, पैर, नेत्र और सिर हैं। जनकजीके सजातीय (कुटुम्बी) प्रभुको किस तरह (कैसे प्रिय रूपमें) देख रहे हैं, जैसे सगे सजन (सम्बन्धी) प्रिय लगते हैं॥ १॥

मूल (चौपाई)

सहित बिदेह बिलोकहिं रानी।
सिसु सम प्रीति न जाति बखानी॥
जोगिन्ह परम तत्त्वमय भासा।
सांत सुद्ध सम सहज प्रकासा॥

अनुवाद (हिन्दी)

जनकसमेत रानियाँ उन्हें अपने बच्चेके समान देख रही हैं, उनकी प्रीतिका वर्णन नहीं किया जा सकता। योगियोंको वे शान्त, शुद्ध, सम और स्वतःप्रकाश परम तत्त्वके रूपमें दीखे॥ २॥

मूल (चौपाई)

हरिभगतन्ह देखे दोउ भ्राता।
इष्टदेव इव सब सुख दाता॥
रामहि चितव भायँ जेहि सीया।
सो सनेहु सुखु नहिं कथनीया॥

अनुवाद (हिन्दी)

हरिभक्तोंने दोनों भाइयोंको सब सुखोंके देनेवाले इष्टदेवके समान देखा। सीताजी जिस भावसे श्रीरामचन्द्रजीको देख रही हैं, वह स्नेह और सुख तो कहनेमें ही नहीं आता॥ ३॥

मूल (चौपाई)

उर अनुभवति न कहि सक सोऊ।
कवन प्रकार कहै कबि कोऊ॥
एहि बिधि रहा जाहि जस भाऊ।
तेहिं तस देखेउ कोसलराऊ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस (स्नेह और सुख) का वे हृदयमें अनुभव कर रही हैं, पर वे भी उसे कह नहीं सकतीं। फिर कोई कवि उसे किस प्रकार कह सकता है। इस प्रकार जिसका जैसा भाव था, उसने कोसलाधीश श्रीरामचन्द्रजीको वैसा ही देखा॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

राजत राज समाज महुँ कोसलराज किसोर।
सुंदर स्यामल गौर तन बिस्व बिलोचन चोर॥ २४२॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुन्दर साँवले और गोरे शरीरवाले तथा विश्वभरके नेत्रोंको चुरानेवाले कोसलाधीशके कुमार राजसमाजमें (इस प्रकार) सुशोभित हो रहे हैं॥ २४२॥

मूल (चौपाई)

सहज मनोहर मूरति दोऊ।
कोटि काम उपमा लघु सोऊ॥
सरद चंद निंदक मुख नीके।
नीरज नयन भावते जी के॥

अनुवाद (हिन्दी)

दोनों मूर्तियाँ स्वभावसे ही (बिना किसी बनाव-शृंगारके) मनको हरनेवाली हैं। करोड़ों कामदेवोंकी उपमा भी उनके लिये तुच्छ है। उनके सुन्दर मुख शरद् (पूर्णिमा) के चन्द्रमाकी भी निन्दा करनेवाले (उसे नीचा दिखानेवाले) हैं और कमलके समान नेत्र मनको बहुत ही भाते हैं॥ १॥

मूल (चौपाई)

चितवनि चारु मार मनु हरनी।
भावति हृदय जाति नहिं बरनी॥
कल कपोल श्रुति कुंडल लोला।
चिबुक अधर सुंदर मृदु बोला॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुन्दर चितवन (सारे संसारके मनको हरनेवाले) कामदेवके भी मनको हरनेवाली है। वह हृदयको बहुत ही प्यारी लगती है, पर उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। सुन्दर गाल हैं, कानोंमें चञ्चल (झूमते हुए) कुण्डल हैं। ठोड़ी और अधर (ओठ) सुन्दर हैं, कोमल वाणी है॥ २॥

मूल (चौपाई)

कुमुदबंधु कर निंदक हाँसा।
भृकुटी बिकट मनोहर नासा॥
भाल बिसाल तिलक झलकाहीं।
कच बिलोकि अलि अवलि लजाहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

हँसी चन्द्रमाकी किरणोंका तिरस्कार करनेवाली है। भौंहें टेढ़ी और नासिका मनोहर है। (ऊँचे) चौड़े ललाटपर तिलक झलक रहे हैं (दीप्तिमान् हो रहे हैं)। (काले घुँघराले) बालोंको देखकर भौंरोंकी पंक्तियाँ भी लजा जाती हैं॥ ३॥

मूल (चौपाई)

पीत चौतनीं सिरन्हि सुहाईं।
कुसुम कलीं बिच बीच बनाईं॥
रेखें रुचिर कंबु कल गीवाँ।
जनु त्रिभुवन सुषमा की सीवाँ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पीली चौकोनी टोपियाँ सिरोंपर सुशोभित हैं, जिनके बीच-बीचमें फूलोंकी कलियाँ बनायी (काढ़ी) हुई हैं। शङ्खके समान सुन्दर (गोल) गलेमें मनोहर तीन रेखाएँ हैं, जो मानो तीनों लोकोंकी सुन्दरताकी सीमा (को बता रही) हैं॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

कुंजर मनि कंठा कलित उरन्हि तुलसिका माल।
बृषभ कंध केहरि ठवनि बल निधि बाहु बिसाल॥ २४३॥

अनुवाद (हिन्दी)

हृदयोंपर गजमुक्ताओंके सुन्दर कण्ठे और तुलसीकी मालाएँ सुशोभित हैं। उनके कंधे बैलोंके कंधेकी तरह (ऊँचे तथा पुष्ट) हैं, ऐंड़ (खड़े होनेकी शान) सिंहकी-सी है और भुजाएँ विशाल एवं बलकी भण्डार हैं॥ २४३॥

मूल (चौपाई)

कटि तूनीर पीत पट बाँधें।
कर सर धनुष बाम बर काँधें॥
पीत जग्य उपबीत सुहाए।
नख सिख मंजु महाछबि छाए॥

अनुवाद (हिन्दी)

कमरमें तरकस और पीताम्बर बाँधे हैं। (दाहिने) हाथोंमें बाण और बायें सुन्दर कंधोंपर धनुष तथा पीले यज्ञोपवीत (जनेऊ) सुशोभित हैं। नखसे लेकर शिखातक सब अंग सुन्दर हैं, उनपर महान् शोभा छायी हुई है॥ १॥

मूल (चौपाई)

देखि लोग सब भए सुखारे।
एकटक लोचन चलत न तारे॥
हरषे जनकु देखि दोउ भाई।
मुनि पद कमल गहे तब जाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्हें देखकर सब लोग सुखी हुए। नेत्र एकटक (निमेषशून्य) हैं और तारे (पुतलियाँ) भी नहीं चलते। जनकजी दोनों भाइयोंको देखकर हर्षित हुए। तब उन्होंने जाकर मुनिके चरणकमल पकड़ लिये॥ २॥

मूल (चौपाई)

करि बिनती निज कथा सुनाई।
रंग अवनि सब मुनिहि देखाई॥
जहँ जहँ जाहिं कुअँर बर दोऊ।
तहँ तहँ चकित चितव सबु कोऊ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विनती करके अपनी कथा सुनायी और मुनिको सारी रंगभूमि (यज्ञाशाला) दिखलायी। (मुनिके साथ) दोनों श्रेष्ठ राजकुमार जहाँ-जहाँ जाते हैं, वहाँ-वहाँ सब कोई आश्चर्यचकित हो देखने लगते हैं॥ ३॥

मूल (चौपाई)

निज निज रुख रामहि सबु देखा।
कोउ न जान कछु मरमु बिसेषा॥
भलि रचना मुनि नृप सन कहेऊ।
राजाँ मुदित महासुख लहेऊ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सबने रामजीको अपनी-अपनी ओर ही मुख किये हुए देखा; परन्तु इसका कुछ भी विशेष रहस्य कोई नहीं जान सका। मुनिने राजासे कहा—रंगभूमिकी रचना बड़ी सुन्दर है। (विश्वामित्र-जैसे निःस्पृह, विरक्त और ज्ञानी मुनिसे रचनाकी प्रशंसा सुनकर) राजा प्रसन्न हुए और उन्हें बड़ा सुख मिला॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

सब मंचन्ह तें मंचु एक सुंदर बिसद बिसाल।
मुनि समेत दोउ बंधु तहँ बैठारे महिपाल॥ २४४॥

अनुवाद (हिन्दी)

सब मञ्चोंसे एक मञ्च अधिक सुन्दर, उज्ज्वल और विशाल था। (स्वयं) राजाने मुनिसहित दोनों भाइयोंको उसपर बैठाया॥ २४४॥

मूल (चौपाई)

प्रभुहि देखि सब नृप हियँ हारे।
जनु राकेस उदय भएँ तारे॥
असि प्रतीति सब के मन माहीं।
राम चाप तोरब सक नाहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभुको देखकर सब राजा हृदयमें ऐसे हार गये (निराश एवं उत्साहहीन हो गये) जैसे पूर्ण चन्द्रमाके उदय होनेपर तारे प्रकाशहीन हो जाते हैं। (उनके तेजको देखकर) सबके मनमें ऐसा विश्वास हो गया कि रामचन्द्रजी ही धनुषको तोड़ेंगे, इसमें सन्देह नहीं॥ १॥

मूल (चौपाई)

बिनु भंजेहुँ भव धनुषु बिसाला।
मेलिहि सीय राम उर माला॥
अस बिचारि गवनहु घर भाई।
जसु प्रतापु बलु तेजु गवाँई॥

अनुवाद (हिन्दी)

(इधर उनके रूपको देखकर सबके मनमें यह निश्चय हो गया कि) शिवजीके विशाल धनुषको (जो सम्भव है न टूट सके) बिना तोड़े भी सीताजी श्रीरामचन्द्रजीके ही गलेमें जयमाल डालेंगी (अर्थात् दोनों तरहसे ही हमारी हार होगी और विजय श्रीरामचन्द्रजीके हाथ रहेगी)। (यों सोचकर वे कहने लगे—) हे भाई! ऐसा विचारकर यश, प्रताप, बल और तेज गँवाकर अपने-अपने घर चलो॥ २॥

मूल (चौपाई)

बिहसे अपर भूप सुनि बानी।
जे अबिबेक अंध अभिमानी॥
तोरेहुँ धनुषु ब्याहु अवगाहा।
बिनु तोरें को कुअँरि बिआहा॥

अनुवाद (हिन्दी)

दूसरे राजा, जो अविवेकसे अंधे हो रहे थे और अभिमानी थे, यह बात सुनकर बहुत हँसे। (उन्होंने कहा—) धनुष तोड़नेपर भी विवाह होना कठिन है (अर्थात् सहजहीमें हम जानकीको हाथसे जाने नहीं देंगे), फिर बिना तोड़े तो राजकुमारीको ब्याह ही कौन सकता है॥ ३॥

मूल (चौपाई)

एक बार कालउ किन होऊ।
सिय हित समर जितब हम सोऊ॥
यह सुनि अवर महिप मुसुकाने।
धरमसील हरिभगत सयाने॥

अनुवाद (हिन्दी)

काल ही क्यों न हो, एक बार तो सीताके लिये उसे भी हम युद्धमें जीत लेंगे। यह घमण्डकी बात सुनकर दूसरे राजा, जो धर्मात्मा, हरिभक्त और सयाने थे, मुसकराये॥ ४॥

सोरठा

मूल (दोहा)

सीय बिआहबि राम गरब दूरि करि नृपन्ह के।
जीति को सक संग्राम दसरथ के रन बाँकुरे॥ २४५॥

अनुवाद (हिन्दी)

(उन्होंने कहा—) राजाओंके गर्व दूर करके (जो धनुष किसीसे नहीं टूट सकेगा उसे तोड़कर) श्रीरामचन्द्रजी सीताजीको ब्याहेंगे। (रही युद्धकी बात, सो) महाराज दशरथके रणमें बाँके पुत्रोंको युद्धमें तो जीत ही कौन सकता है॥ २४५॥

मूल (चौपाई)

ब्यर्थ मरहु जनि गाल बजाई।
मन मोदकन्हि कि भूख बुताई॥
सिख हमारि सुनि परम पुनीता।
जगदंबा जानहु जियँ सीता॥

अनुवाद (हिन्दी)

गाल बजाकर व्यर्थ ही मत मरो। मनके लड्डुओंसे भी कहीं भूख बुझती है? हमारी परम पवित्र (निष्कपट) सीखको सुनकर सीताजीको अपने जीमें साक्षात् जगज्जननी समझो (उन्हें पत्नीरूपमें पानेकी आशा एवं लालसा छोड़ दो),॥ १॥

मूल (चौपाई)

जगत पिता रघुपतिहि बिचारी।
भरि लोचन छबि लेहु निहारी॥
सुंदर सुखद सकल गुन रासी।
ए दोउ बंधु संभु उर बासी॥

अनुवाद (हिन्दी)

और श्रीरघुनाथजीको जगत् का पिता (परमेश्वर) विचारकर, नेत्र भरकर उनकी छबि देख लो (ऐसा अवसर बार-बार नहीं मिलेगा)। सुन्दर, सुख देनेवाले और समस्त गुणोंकी राशि ये दोनों भाई शिवजीके हृदयमें बसनेवाले हैं (स्वयं शिवजी भी जिन्हें सदा हृदयमें छिपाये रखते हैं, वे तुम्हारे नेत्रोंके सामने आ गये हैं)॥ २॥

मूल (चौपाई)

सुधा समुद्र समीप बिहाई।
मृगजलु निरखि मरहु कत धाई॥
करहु जाइ जा कहुँ जोइ भावा।
हम तौ आजु जनम फलु पावा॥

अनुवाद (हिन्दी)

समीप आये हुए (भगवद्दर्शनरूप) अमृतके समुद्रको छोड़कर तुम (जगज्जननी जानकीको पत्नीरूपमें पानेकी दुराशारूप मिथ्या) मृगजलको देखकर दौड़कर क्यों मरते हो? फिर (भाई!) जिसको जो अच्छा लगे वही जाकर करो। हमने तो (श्रीरामचन्द्रजीके दर्शन करके ) आज जन्म लेनेका फल पा लिया (जीवन और जन्मको सफल कर लिया)॥ ३॥

मूल (चौपाई)

अस कहि भले भूप अनुरागे।
रूप अनूप बिलोकन लागे॥
देखहिं सुर नभ चढ़े बिमाना।
बरषहिं सुमन करहिं कल गाना॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसा कहकर अच्छे राजा प्रेममग्न होकर श्रीरामजीका अनुपम रूप देखने लगे। (मनुष्योंकी तो बात ही क्या) देवता लोग भी आकाशसे विमानोंपर चढ़े हुए दर्शन कर रहे हैं और सुन्दर गान करते हुए फूल बरसा रहे हैं॥ ४॥

Misc Detail