४६ श्रीसीताजीका पार्वती-पूजन एवं वरदानप्राप्ति तथा राम-लक्ष्मण-संवाद

दोहा

मूल (दोहा)

देखन मिस मृग बिहग तरु फिरइ बहोरि बहोरि।
निरखि निरखि रघुबीर छबि बाढ़इ प्रीति न थोरि॥ २३४॥

अनुवाद (हिन्दी)

मृग, पक्षी और वृक्षोंको देखनेके बहाने सीताजी बार-बार घूम जाती हैं और श्रीरामजीकी छबि देख-देखकर उनका प्रेम कम नहीं बढ़ रहा है (अर्थात् बहुत ही बढ़ता जाता है)॥ २३४॥

मूल (चौपाई)

जानि कठिन सिवचाप बिसूरति।
चली राखि उर स्यामल मूरति॥
प्रभु जब जात जानकी जानी।
सुख सनेह सोभा गुन खानी॥

अनुवाद (हिन्दी)

शिवजीके धनुषको कठोर जानकर वे विसूरती (मनमें विलाप करती) हुई हृदयमें श्रीरामजीकी साँवली मूर्तिको रखकर चलीं। (शिवजीके धनुषकी कठोरताका स्मरण आनेसे उन्हें चिन्ता होती थी कि ये सुकुमार रघुनाथजी उसे कैसे तोड़ेंगे, पिताके प्रणकी स्मृतिसे उनके हृदयमें क्षोभ था ही, इसलिये मनमें विलाप करने लगीं। प्रेमवश ऐश्वर्यकी विस्मृति हो जानेसे ही ऐसा हुआ; फिर भगवान् के बलका स्मरण आते ही वे हर्षित हो गयीं और साँवली छबिको हृदयमें धारण करके चलीं।) प्रभु श्रीरामजीने जब सुख, स्नेह, शोभा और गुणोंकी खान श्रीजानकीजीको जाती हुई जाना,॥ १॥

मूल (चौपाई)

परम प्रेममय मृदु मसि कीन्ही।
चारु चित्त भीतीं लिखि लीन्ही॥
गई भवानी भवन बहोरी।
बंदि चरन बोली कर जोरी॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब परमप्रेमकी कोमल स्याही बनाकर उनके स्वरूपको अपने सुन्दर चित्तरूपी भित्तिपर चित्रित कर लिया। सीताजी पुनः भवानीजीके मन्दिरमें गयीं और उनके चरणोंकी वन्दना करके हाथ जोड़कर बोलीं—॥ २॥

मूल (चौपाई)

जय जय गिरिबरराज किसोरी।
जय महेस मुख चंद चकोरी॥
जय गजबदन षडानन माता।
जगत जननि दामिनि दुति गाता॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे श्रेष्ठ पर्वतोंके राजा हिमाचलकी पुत्री पार्वती! आपकी जय हो, जय हो; हे महादेवजीके मुखरूपी चन्द्रमाकी (ओर टकटकी लगाकर देखनेवाली) चकोरी! आपकी जय हो; हे हाथीके मुखवाले गणेशजी और छः मुखवाले स्वामिकार्तिकजीकी माता! हे जगज्जननी! हे बिजलीकी-सी कान्तियुक्त शरीरवाली! आपकी जय हो!॥ ३॥

मूल (चौपाई)

नहिं तव आदि मध्य अवसाना।
अमित प्रभाउ बेदु नहिं जाना॥
भव भव बिभव पराभव कारिनि।
बिस्व बिमोहनि स्वबस बिहारिनि॥

अनुवाद (हिन्दी)

आपका न आदि है, न मध्य है और न अन्त है। आपके असीम प्रभावको वेद भी नहीं जानते। आप संसारको उत्पन्न, पालन और नाश करनेवाली हैं। विश्वको मोहित करनेवाली और स्वतन्त्ररूपसे विहार करनेवाली हैं॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

पतिदेवता सुतीय महुँ मातु प्रथम तव रेख।
महिमा अमित न सकहिं कहि सहस सारदा सेष॥ २३५॥

अनुवाद (हिन्दी)

पतिको इष्टदेव माननेवाली श्रेष्ठ नारियोंमें हे माता! आपकी प्रथम गणना है। आपकी अपार महिमाको हजारों सरस्वती और शेषजी भी नहीं कह सकते॥ २३५॥

मूल (चौपाई)

सेवत तोहि सुलभ फल चारी।
बरदायनी पुरारि पिआरी॥
देबि पूजि पद कमल तुम्हारे।
सुर नर मुनि सब होहिं सुखारे॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे (भक्तोंको मुँहमाँगा) वर देनेवाली! हे त्रिपुरके शत्रु शिवजीकी प्रिय पत्नी! आपकी सेवा करनेसे चारों फल सुलभ हो जाते हैं। हे देवि! आपके चरणकमलोंकी पूजा करके देवता, मनुष्य और मुनि सभी सुखी हो जाते हैं॥ १॥

मूल (चौपाई)

मोर मनोरथु जानहु नीकें।
बसहु सदा उर पुर सबही कें॥
कीन्हेउँ प्रगट न कारन तेहीं।
अस कहि चरन गहे बैदेहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेरे मनोरथको आप भलीभाँति जानती हैं; क्योंकि आप सदा सबके हृदयरूपी नगरीमें निवास करती हैं। इसी कारण मैंने उसको प्रकट नहीं किया। ऐसा कहकर जानकीजीने उनके चरण पकड़ लिये॥ २॥

मूल (चौपाई)

बिनय प्रेम बस भई भवानी।
खसी माल मूरति मुसुकानी॥
सादर सियँ प्रसादु सिर धरेऊ।
बोली गौरि हरषु हियँ भरेऊ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गिरिजाजी सीताजीके विनय और प्रेमके वशमें हो गयीं। उन (के गले) की माला खिसक पड़ी और मूर्ति मुसकरायी। सीताजीने आदरपूर्वक उस प्रसाद (माला) को सिरपर धारण किया। गौरीजीका हृदय हर्षसे भर गया और वे बोलीं—॥ ३॥

मूल (चौपाई)

सुनु सिय सत्य असीस हमारी।
पूजिहि मन कामना तुम्हारी॥
नारद बचन सदा सुचि साचा।
सो बरु मिलिहि जाहिं मनु राचा॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे सीता! हमारी सच्ची आसीस सुनो, तुम्हारी मनःकामना पूरी होगी। नारदजीका वचन सदा पवित्र (संशय, भ्रम आदि दोषोंसे रहित) और सत्य है। जिसमें तुम्हारा मन अनुरक्त हो गया है, वही वर तुमको मिलेगा॥ ४॥

छंद

मूल (दोहा)

मनु जाहिं राचेउ मिलिहि सो बरु सहज सुंदर साँवरो।
करुना निधान सुजान सीलु सनेहु जानत रावरो॥
एहि भाँति गौरि असीस सुनि सिय सहित हियँ हरषीं अली।
तुलसी भवानिहि पूजि पुनि पुनि मुदित मन मंदिर चली॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसमें तुम्हारा मन अनुरक्त हो गया है, वही स्वभावसे ही सुन्दर साँवला वर (श्रीरामचन्द्रजी) तुमको मिलेगा। वह दयाका खजाना और सुजान (सर्वज्ञ) है, तुम्हारे शील और स्नेहको जानता है। इस प्रकार श्रीगौरीजीका आशीर्वाद सुनकर जानकीजीसमेत सब सखियाँ हृदयमें हर्षित हुईं। तुलसीदासजी कहते हैं—भवानीजीको बार-बार पूजकर सीताजी प्रसन्न मनसे राजमहलको लौट चलीं।

सोरठा

मूल (दोहा)

जानि गौरि अनुकूल सिय हिय हरषु न जाइ कहि।
मंजुल मंगल मूल बाम अंग फरकन लगे॥ २३६॥

अनुवाद (हिन्दी)

गौरीजीको अनुकूल जानकर सीताजीके हृदयको जो हर्ष हुआ वह कहा नहीं जा सकता। सुन्दर मङ्गलोंके मूल उनके बायें अंग फड़कने लगे॥ २३६॥

मूल (चौपाई)

हृदयँ सराहत सीय लोनाई।
गुर समीप गवने दोउ भाई॥
राम कहा सबु कौसिक पाहीं।
सरल सुभाउ छुअत छल नाहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

हृदयमें सीताजीके सौन्दर्यकी सराहना करते हुए दोनों भाई गुरुजीके पास गये। श्रीरामचन्द्रजीने विश्वामित्रजीसे सब कुछ कह दिया। क्योंकि उनका सरल स्वभाव है, छल तो उसे छूता भी नहीं है॥ १॥

मूल (चौपाई)

सुमन पाइ मुनि पूजा कीन्ही।
पुनि असीस दुहु भाइन्ह दीन्ही॥
सुफल मनोरथ होहुँ तुम्हारे।
रामु लखनु सुनि भए सुखारे॥

अनुवाद (हिन्दी)

फूल पाकर मुनिने पूजा की। फिर दोनों भाइयोंको आशीर्वाद दिया कि तुम्हारे मनोरथ सफल हों। यह सुनकर श्रीराम-लक्ष्मण सुखी हुए॥ २॥

मूल (चौपाई)

करि भोजनु मुनिबर बिग्यानी।
लगे कहन कछु कथा पुरानी॥
बिगत दिवसु गुरु आयसु पाई।
संध्या करन चले दोउ भाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रेष्ठ विज्ञानी मुनि विश्वामित्रजी भोजन करके कुछ प्राचीन कथाएँ कहने लगे। (इतनेमें) दिन बीत गया और गुरुकी आज्ञा पाकर दोनों भाई सन्ध्या करने चले॥ ३॥

मूल (चौपाई)

प्राची दिसि ससि उयउ सुहावा।
सिय मुख सरिस देखि सुखु पावा॥
बहुरि बिचारु कीन्ह मन माहीं।
सीय बदन सम हिमकर नाहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

(उधर) पूर्व दिशामें सुन्दर चन्द्रमा उदय हुआ। श्रीरामचन्द्रजीने उसे सीताके मुखके समान देखकर सुख पाया। फिर मनमें विचार किया कि यह चन्द्रमा सीताजीके मुखके समान नहीं है॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

जनमु सिंधु पुनि बंधु बिषु दिन मलीन सकलंक।
सिय मुख समता पाव किमि चंदु बापुरो रंक॥ २३७॥

अनुवाद (हिन्दी)

खारे समुद्रमें तो इसका जन्म, फिर (उसी समुद्रसे उत्पन्न होनेके कारण) विष इसका भाई; दिनमें यह मलिन (शोभाहीन, निस्तेज) रहता है, और कलङ्की (काले दागसे युक्त) है। बेचारा गरीब चन्द्रमा सीताजीके मुखकी बराबरी कैसे पा सकता है?॥ २३७॥

मूल (चौपाई)

घटइ बढ़इ बिरहिनि दुखदाई।
ग्रसइ राहु निज संधिहिं पाई॥
कोक सोकप्रद पंकज द्रोही।
अवगुन बहुत चंद्रमा तोही॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर यह घटता-बढ़ता है और विरहिणी स्त्रियोंको दुःख देनेवाला है; राहु अपनी सन्धिमें पाकर इसे ग्रस लेता है। चकवेको (चकवीके वियोगका) शोक देनेवाला और कमलका वैरी (उसे मुरझा देनेवाला) है। हे चन्द्रमा! तुझमें बहुत-से अवगुण हैं (जो सीताजीमें नहीं हैं)॥ १॥

मूल (चौपाई)

बैदेही मुख पटतर दीन्हे।
होइ दोषु बड़ अनुचित कीन्हे॥
सिय मुख छबि बिधु ब्याज बखानी।
गुर पहिं चले निसा बड़ि जानी॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः जानकीजीके मुखकी तुझे उपमा देनेमें बड़ा अनुचित कर्म करनेका दोष लगेगा। इस प्रकार चन्द्रमाके बहाने सीताजीके मुखकी छबिका वर्णन करके, बड़ी रात हो गयी जान, वे गुरुजीके पास चले॥ २॥

मूल (चौपाई)

करि मुनि चरन सरोज प्रनामा।
आयसु पाइ कीन्ह बिश्रामा॥
बिगत निसा रघुनायक जागे।
बंधु बिलोकि कहन अस लागे॥

अनुवाद (हिन्दी)

मुनिके चरणकमलोंमें प्रणाम करके, आज्ञा पाकर उन्होंने विश्राम किया; रात बीतनेपर श्रीरघुनाथजी जागे और भाईको देखकर ऐसा कहने लगे—॥ ३॥

मूल (चौपाई)

उयउ अरुन अवलोकहु ताता।
पंकज कोक लोक सुखदाता॥
बोले लखनु जोरि जुग पानी।
प्रभु प्रभाउ सूचक मृदु बानी॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे तात! देखो, कमल, चक्रवाक और समस्त संसारको सुख देनेवाला अरुणोदय हुआ है। लक्ष्मणजी दोनों हाथ जोड़कर प्रभुके प्रभावको सूचित करनेवाली कोमल वाणी बोले—॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

अरुनोदयँ सकुचे कुमुद उडगन जोति मलीन।
जिमि तुम्हार आगमन सुनि भए नृपति बलहीन॥ २३८॥

अनुवाद (हिन्दी)

अरुणोदय होनेसे कुमुदिनी सकुचा गयी और तारागणोंका प्रकाश फीका पड़ गया, जिस प्रकार आपका आना सुनकर सब राजा बलहीन हो गये हैं॥ २३८॥

मूल (चौपाई)

नृप सब नखत करहिं उजिआरी।
टारि न सकहिं चाप तम भारी॥
कमल कोक मधुकर खग नाना।
हरषे सकल निसा अवसाना॥

अनुवाद (हिन्दी)

सब राजारूपी तारे उजाला (मन्द प्रकाश) करते हैं, पर वे धनुषरूपी महान् अन्धकारको हटा नहीं सकते। रात्रिका अन्त होनेसे जैसे कमल, चकवे, भौंरे और नाना प्रकारके पक्षी हर्षित हो रहे हैं॥ १॥

मूल (चौपाई)

ऐसेहिं प्रभु सब भगत तुम्हारे।
होइहहिं टूटें धनुष सुखारे॥
उयउ भानु बिनु श्रम तम नासा।
दुरे नखत जग तेजु प्रकासा॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैसे ही हे प्रभो! आपके सब भक्त धनुष टूटनेपर सुखी होंगे। सूर्य उदय हुआ, बिना ही परिश्रम अन्धकार नष्ट हो गया। तारे छिप गये, संसारमें तेजका प्रकाश हो गया॥ २॥

मूल (चौपाई)

रबि निज उदय ब्याज रघुराया।
प्रभु प्रतापु सब नृपन्ह दिखाया॥
तव भुज बल महिमा उदघाटी।
प्रगटी धनु बिघटन परिपाटी॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे रघुनाथजी! सूर्यने अपने उदयके बहाने सब राजाओंको प्रभु (आप) का प्रताप दिखलाया है। आपकी भुजाओंके बलकी महिमाको उद्घाटित करने (खोलकर दिखाने) के लिये ही धनुष तोड़नेकी यह पद्धति प्रकट हुई है॥ ३॥

मूल (चौपाई)

बंधु बचन सुनि प्रभु मुसुकाने।
होइ सुचि सहज पुनीत नहाने॥
नित्यक्रिया करि गुरु पहिं आए।
चरन सरोज सुभग सिर नाए॥

अनुवाद (हिन्दी)

भाईके वचन सुनकर प्रभु मुसकराये। फिर स्वभावसे ही पवित्र श्रीरामजीने शौचसे निवृत्त होकर स्नान किया और नित्यकर्म करके वे गुरुजीके पास आये। आकर उन्होंने गुरुजीके सुन्दर चरणकमलोंमें सिर नवाया॥ ४॥

मूल (चौपाई)

सतानंदु तब जनक बोलाए।
कौसिक मुनि पहिं तुरत पठाए॥
जनक बिनय तिन्ह आइ सुनाई।
हरषे बोलि लिए दोउ भाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब जनकजीने शतानन्दजीको बुलाया और उन्हें तुरंत ही विश्वामित्र मुनिके पास भेजा। उन्होंने आकर जनकजीकी विनती सुनायी। विश्वामित्रजीने हर्षित होकर दोनों भाइयोंको बुलाया॥ ५॥

दोहा

मूल (दोहा)

सतानंद पद बंदि प्रभु बैठे गुर पहिं जाइ।
चलहु तात मुनि कहेउ तब पठवा जनक बोलाइ॥ २३९॥

अनुवाद (हिन्दी)

शतानन्दजीके चरणोंकी वन्दना करके प्रभु श्रीरामचन्द्रजी गुरुजीके पास जा बैठे। तब मुनिने कहा—हे तात! चलो, जनकजीने बुला भेजा है॥ २३९॥

भागसूचना

मासपारायण, आठवाँ विश्राम
नवाह्नपारायण, दूसरा विश्राम

Misc Detail