४५ पुष्पवाटिका-निरीक्षण, सीताजीका प्रथम दर्शन, श्रीसीतारामजीका परस्पर दर्शन

दोहा

मूल (दोहा)

उठे लखनु निसि बिगत सुनि अरुनसिखा धुनि कान।
गुर तें पहिलेहिं जगतपति जागे रामु सुजान॥ २२६॥

अनुवाद (हिन्दी)

रात बीतनेपर, मुर्गेका शब्द कानोंसे सुनकर लक्ष्मणजी उठे। जगत् के स्वामी सुजान श्रीरामचन्द्रजी भी गुरुसे पहले ही जाग गये॥ २२६॥

मूल (चौपाई)

सकल सौच करि जाइ नहाए।
नित्य निबाहि मुनिहि सिर नाए॥
समय जानि गुर आयसु पाई।
लेन प्रसून चले दोउ भाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

सब शौचक्रिया करके वे जाकर नहाये। फिर (सन्ध्या-अग्निहोत्रादि) नित्यकर्म समाप्त करके उन्होंने मुनिको मस्तक नवाया। (पूजाका) समय जानकर, गुरुकी आज्ञा पाकर दोनों भाई फूल लेने चले॥ १॥

मूल (चौपाई)

भूप बागु बर देखेउ जाई।
जहँ बसंत रितु रही लोभाई॥
लागे बिटप मनोहर नाना।
बरन बरन बर बेलि बिताना॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने जाकर राजाका सुन्दर बाग देखा, जहाँ वसन्त-ऋतु लुभाकर रह गयी है। मनको लुभानेवाले अनेक वृक्ष लगे हैं। रंग-बिरंगी उत्तम लताओंके मण्डप छाये हुए हैं॥ २॥

मूल (चौपाई)

नव पल्लव फल सुमन सुहाए।
निज संपति सुर रूख लजाए॥
चातक कोकिल कीर चकोरा।
कूजत बिहग नटत कल मोरा॥

अनुवाद (हिन्दी)

नये पत्तों, फलों और फूलोंसे युक्त सुन्दर वृक्ष अपनी सम्पत्तिसे कल्पवृक्षको भी लजा रहे हैं। पपीहे, कोयल, तोते, चकोर आदि पक्षी मीठी बोली बोल रहे हैं और मोर सुन्दर नृत्य कर रहे हैं॥ ३॥

मूल (चौपाई)

मध्य बाग सरु सोह सुहावा।
मनि सोपान बिचित्र बनावा॥
बिमल सलिलु सरसिज बहुरंगा।
जलखग कूजत गुंजत भृंगा॥

अनुवाद (हिन्दी)

बागके बीचोबीच सुहावना सरोवर सुशोभित है, जिसमें मणियोंकी सीढ़ियाँ विचित्र ढंगसे बनी हैं। उसका जल निर्मल है, जिसमें अनेक रंगोंके कमल खिले हुए हैं, जलके पक्षी कलरव कर रहे हैं और भ्रमर गुंजार कर रहे हैं॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

बागु तड़ागु बिलोकि प्रभु हरषे बंधु समेत।
परम रम्य आरामु यहु जो रामहि सुख देत॥ २२७॥

अनुवाद (हिन्दी)

बाग और सरोवरको देखकर प्रभु श्रीरामचन्द्रजी भाई लक्ष्मणसहित हर्षित हुए। यह बाग (वास्तवमें) परम रमणीय है, जो (जगत् को सुख देनेवाले) श्रीरामचन्द्रजीको सुख दे रहा है॥ २२७॥

मूल (चौपाई)

चहुँ दिसि चितइ पूँछि मालीगन।
लगे लेन दल फूल मुदित मन॥
तेहि अवसर सीता तहँ आई।
गिरिजा पूजन जननि पठाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

चारों ओर दृष्टि डालकर और मालियोंसे पूछकर वे प्रसन्न मनसे पत्र-पुष्प लेने लगे। उसी समय सीताजी वहाँ आयीं। माताने उन्हें गिरिजा (पार्वती) जीकी पूजा करनेके लिये भेजा था॥ १॥

मूल (चौपाई)

संग सखीं सब सुभग सयानीं।
गावहिं गीत मनोहर बानीं॥
सर समीप गिरिजा गृह सोहा।
बरनि न जाइ देखि मनु मोहा॥

अनुवाद (हिन्दी)

साथमें सब सुन्दरी और सयानी सखियाँ हैं, जो मनोहर वाणीसे गीत गा रही हैं। सरोवरके पास गिरिजाजीका मन्दिर सुशोभित है, जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता; देखकर मन मोहित हो जाता है॥ २॥

मूल (चौपाई)

मज्जनु करि सर सखिन्ह समेता।
गई मुदित मन गौरि निकेता॥
पूजा कीन्हि अधिक अनुरागा।
निज अनुरूप सुभग बरु मागा॥

अनुवाद (हिन्दी)

सखियोंसहित सरोवरमें स्नान करके सीताजी प्रसन्न मनसे गिरिजाजीके मन्दिरमें गयीं। उन्होंने बड़े प्रेमसे पूजा की और अपने योग्य सुन्दर वर माँगा॥ ३॥

मूल (चौपाई)

एक सखी सिय संगु बिहाई।
गई रही देखन फुलवाई॥
तेहिं दोउ बंधु बिलोके जाई।
प्रेम बिबस सीता पहिं आई॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक सखी सीताजीका साथ छोड़कर फुलवाड़ी देखने चली गयी थी। उसने जाकर दोनों भाइयोंको देखा और प्रेममें विह्वल होकर वह सीताजीके पास आयी॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

तासु दसा देखी सखिन्ह पुलक गात जलु नैन।
कहु कारनु निज हरष कर पूछहिं सब मृदु बैन॥ २२८॥

अनुवाद (हिन्दी)

सखियोंने उसकी दशा देखी कि उसका शरीर पुलकित है और नेत्रोंमें जल भरा है। सब कोमल वाणीसे पूछने लगीं कि अपनी प्रसन्नताका कारण बता॥ २२८॥

मूल (चौपाई)

देखन बागु कुअँर दुइ आए।
बय किसोर सब भाँति सुहाए॥
स्याम गौर किमि कहौं बखानी।
गिरा अनयन नयन बिनु बानी॥

अनुवाद (हिन्दी)

(उसने कहा—) दो राजकुमार बाग देखने आये हैं। किशोर अवस्थाके हैं और सब प्रकारसे सुन्दर हैं। वे साँवले और गोरे (रंगके) हैं; उनके सौन्दर्यको मैं कैसे बखानकर कहूँ। वाणी बिना नेत्रकी है और नेत्रोंके वाणी नहीं है॥ १॥

मूल (चौपाई)

सुनि हरषीं सब सखीं सयानी।
सिय हियँ अति उतकंठा जानी॥
एक कहइ नृपसुत तेइ आली।
सुने जे मुनि सँग आए काली॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह सुनकर और सीताजीके हृदयमें बड़ी उत्कण्ठा जानकर सब सयानी सखियाँ प्रसन्न हुईं। तब एक सखी कहने लगी—हे सखी! ये वही राजकुमार हैं जो सुना है कि कल विश्वामित्र मुनिके साथ आये हैं॥ २॥

मूल (चौपाई)

जिन्ह निज रूप मोहनी डारी।
कीन्हे स्वबस नगर नर नारी॥
बरनत छबि जहँ तहँ सब लोगू।
अवसि देखिअहिं देखन जोगू॥

अनुवाद (हिन्दी)

और जिन्होंने अपने रूपकी मोहिनी डालकर नगरके स्त्री-पुरुषोंको अपने वशमें कर लिया है। जहाँ-तहाँ सब लोग उन्हींकी छबिका वर्णन कर रहे हैं। अवश्य (चलकर) उन्हें देखना चाहिये, वे देखने ही योग्य हैं॥ ३॥

मूल (चौपाई)

तासु बचन अति सियहि सोहाने।
दरस लागि लोचन अकुलाने॥
चली अग्र करि प्रिय सखि सोई।
प्रीति पुरातन लखइ न कोई॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसके वचन सीताजीको अत्यन्त ही प्रिय लगे और दर्शनके लिये उनके नेत्र अकुला उठे। उसी प्यारी सखीको आगे करके सीताजी चलीं। पुरानी प्रीतिको कोई लख नहीं पाता॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

सुमिरि सीय नारद बचन उपजी प्रीति पुनीत।
चकित बिलोकति सकल दिसि जनु सिसु मृगी सभीत॥ २२९॥

अनुवाद (हिन्दी)

नारदजीके वचनोंका स्मरण करके सीताजीके मनमें पवित्र प्रीति उत्पन्न हुई। वे चकित होकर सब ओर इस तरह देख रही हैं मानो डरी हुई मृगछौनी इधर-उधर देख रही हो॥ २२९॥

मूल (चौपाई)

कंकन किंकिनि नूपुर धुनि सुनि।
कहत लखन सन रामु हृदयँ गुनि॥
मानहुँ मदन दुंदुभी दीन्ही।
मनसा बिस्व बिजय कहँ कीन्ही॥

अनुवाद (हिन्दी)

कंकण (हाथोंके कड़े), करधनी और पायजेबके शब्द सुनकर श्रीरामचन्द्रजी हृदयमें विचारकर लक्ष्मणसे कहते हैं—(यह ध्वनि ऐसी आ रही है) मानो कामदेवने विश्वको जीतनेका संकल्प करके डंकेपर चोट मारी है॥ १॥

मूल (चौपाई)

अस कहि फिरि चितए तेहि ओरा।
सिय मुख ससि भए नयन चकोरा॥
भए बिलोचन चारु अचंचल।
मनहुँ सकुचि निमि तजे दिगंचल॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसा कहकर श्रीरामजीने फिरकर उस ओर देखा। श्रीसीताजीके मुखरूपी चन्द्रमा (को निहारने) के लिये उनके नेत्र चकोर बन गये। सुन्दर नेत्र स्थिर हो गये (टकटकी लग गयी)। मानो निमि (जनकजीके पूर्वज) ने (जिनका सबकी पलकोंमें निवास माना गया है, लड़की-दामादके मिलन-प्रसङ्गको देखना उचित नहीं, इस भावसे) सकुचाकर पलकें छोड़ दीं, (पलकोंमें रहना छोड़ दिया, जिससे पलकोंका गिरना रुक गया)॥ २॥

मूल (चौपाई)

देखि सीय सोभा सुखु पावा।
हृदयँ सराहत बचनु न आवा॥
जनु बिरंचि सब निज निपुनाई।
बिरचि बिस्व कहँ प्रगटि देखाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

सीताजीकी शोभा देखकर श्रीरामजीने बड़ा सुख पाया। हृदयमें वे उसकी सराहना करते हैं, किन्तु मुखसे वचन नहीं निकलते। (वह शोभा ऐसी अनुपम है) मानो ब्रह्माने अपनी सारी निपुणताको मूर्तिमान् कर संसारको प्रकट करके दिखा दिया हो॥ ३॥

मूल (चौपाई)

सुंदरता कहुँ सुंदर करई।
छबिगृहँ दीपसिखा जनु बरई॥
सब उपमा कबि रहे जुठारी।
केहिं पटतरौं बिदेहकुमारी॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह (सीताजीकी शोभा) सुन्दरताको भी सुन्दर करनेवाली है (वह एेसी मालूम होती है) मानो सुन्दरतारूपी घरमें दीपककी लौ जल रही हो। (अबतक सुन्दरतारूपी भवनमें अँधेरा था, वह भवन मानो सीताजीकी सुन्दरतारूपी दीपशिखाको पाकर जगमगा उठा है, पहलेसे भी अधिक सुन्दर हो गया है)। सारी उपमाओंको तो कवियोंने जूँठा कर रखा है। मैं जनकनन्दिनी श्रीसीताजीकी किससे उपमा दूँ॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

सिय सोभा हियँ बरनि प्रभु आपनि दसा बिचारि।
बोले सुचि मन अनुज सन बचन समय अनुहारि॥ २३०॥

अनुवाद (हिन्दी)

(इस प्रकार) हृदयमें सीताजीकी शोभाका वर्णन करके और अपनी दशाको विचारकर प्रभु श्रीरामचन्द्रजी पवित्र मनसे अपने छोटे भाई लक्ष्मणसे समयानुकूल वचन बोले—॥ २३०॥

मूल (चौपाई)

तात जनकतनया यह सोई।
धनुषजग्य जेहि कारन होई॥
पूजन गौरि सखीं लै आईं।
करत प्रकासु फिरइ फुलवाईं॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे तात! यह वही जनकजीकी कन्या है जिसके लिये धनुषयज्ञ हो रहा है। सखियाँ इसे गौरीपूजनके लिये ले आयी हैं। यह फुलवाड़ीमें प्रकाश करती हुई फिर रही है॥ १॥

मूल (चौपाई)

जासु बिलोकि अलौकिक सोभा।
सहज पुनीत मोर मनु छोभा॥
सो सबु कारन जान बिधाता।
फरकहिं सुभद अंग सुनु भ्राता॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसकी अलौकिक सुन्दरता देखकर स्वभावसे ही पवित्र मेरा मन क्षुब्ध हो गया है। वह सब कारण (अथवा उसका सब कारण) तो विधाता जानें। किन्तु हे भाई! सुनो, मेरे मङ्गलदायक (दाहिने) अंग फड़क रहे हैं॥ २॥

मूल (चौपाई)

रघुबंसिन्ह कर सहज सुभाऊ ।
मनु कुपंथ पगु धरइ न काऊ॥
मोहि अतिसय प्रतीति मन केरी।
जेहिं सपनेहुँ परनारि न हेरी॥

अनुवाद (हिन्दी)

रघुवंशियोंका यह सहज (जन्मगत) स्वभाव है कि उनका मन कभी कुमार्गपर पैर नहीं रखता। मुझे तो अपने मनका अत्यन्त ही विश्वास है कि जिसने (जाग्रत् की कौन कहे) स्वप्नमें भी परायी स्त्रीपर दृष्टि नहीं डाली है॥ ३॥

मूल (चौपाई)

जिन्ह कै लहहिं न रिपु रन पीठी।
नहिं पावहिं परतिय मनु डीठी॥
मंगन लहहिं न जिन्ह कै नाहीं।
ते नरबर थोरे जग माहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

रणमें शत्रु जिनकी पीठ नहीं देख पाते (अर्थात् जो लड़ाईके मैदानसे भागते नहीं), परायी स्त्रियाँ जिनके मन और दृष्टिको नहीं खींच पातीं और भिखारी जिनके यहाँसे ‘नाहीं’ नहीं पाते (खाली हाथ नहीं लौटते), ऐसे श्रेष्ठ पुरुष संसारमें थोड़े हैं॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

करत बतकही अनुज सन मन सिय रूप लोभान।
मुख सरोज मकरंद छबि करइ मधुप इव पान॥ २३१॥

अनुवाद (हिन्दी)

यों श्रीरामजी छोटे भाईसे बातें कर रहे हैं, पर मन सीताजीके रूपमें लुभाया हुआ उनके मुखरूपी कमलके छबिरूप मकरन्द-रसको भौंरेकी तरह पी रहा है॥ २३१॥

मूल (चौपाई)

चितवति चकित चहूँ दिसि सीता।
कहँ गए नृपकिसोर मनु चिंता॥
जहँ बिलोक मृग सावक नैनी।
जनु तहँ बरिस कमल सित श्रेनी॥

अनुवाद (हिन्दी)

सीताजी चकित होकर चारों ओर देख रही हैं। मन इस बातकी चिन्ता कर रहा है कि राजकुमार कहाँ चले गये। बालमृग-नयनी (मृगके छौनेकी-सी आँखवाली) सीताजी जहाँ दृष्टि डालती हैं, वहाँ मानो श्वेत कमलोंकी कतार बरस जाती है॥ १॥

मूल (चौपाई)

लता ओट तब सखिन्ह लखाए।
स्यामल गौर किसोर सुहाए॥
देखि रूप लोचन ललचाने।
हरषे जनु निज निधि पहिचाने॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब सखियोंने लताकी ओटमें सुन्दर श्याम और गौर कुमारोंको दिखलाया। उनके रूपको देखकर नेत्र ललचा उठे; वे ऐसे प्रसन्न हुए मानो उन्होंने अपना खजाना पहचान लिया॥ २॥

मूल (चौपाई)

थके नयन रघुपति छबि देखें।
पलकन्हिहूँ परिहरीं निमेषें॥
अधिक सनेहँ देह भै भोरी।
सरद ससिहि जनु चितव चकोरी॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरघुनाथजीकी छबि देखकर नेत्र थकित (निश्चल) हो गये। पलकोंने भी गिरना छोड़ दिया। अधिक स्नेहके कारण शरीर विह्वल (बेकाबू) हो गया। मानो शरद्-ऋतुके चन्द्रमाको चकोरी (बेसुध हुई) देख रही हो॥ ३॥

मूल (चौपाई)

लोचन मग रामहि उर आनी।
दीन्हे पलक कपाट सयानी॥
जब सिय सखिन्ह प्रेमबस जानी।
कहि न सकहिं कछु मन सकुचानी॥

अनुवाद (हिन्दी)

नेत्रोंके रास्ते श्रीरामजीको हृदयमें लाकर चतुरशिरोमणि जानकीजीने पलकोंके किवाड़ लगा दिये (अर्थात् नेत्र मूँदकर उनका ध्यान करने लगीं)। जब सखियोंने सीताजीको प्रेमके वश जाना, तब वे मनमें सकुचा गयीं; कुछ कह नहीं सकती थीं॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

लताभवन तें प्रगट भे तेहि अवसर दोउ भाइ।
निकसे जनु जुग बिमल बिधु जलद पटल बिलगाइ॥ २३२॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसी समय दोनों भाई लतामण्डप (कुञ्ज) मेंसे प्रकट हुए। मानो दो निर्मल चन्द्रमा बादलोंके पर्देको हटाकर निकले हों॥ २३२॥

मूल (चौपाई)

सोभा सीवँ सुभग दोउ बीरा।
नील पीत जलजाभ सरीरा॥
मोरपंख सिर सोहत नीके।
गुच्छ बीच बिच कुसुम कली के॥

अनुवाद (हिन्दी)

दोनों सुन्दर भाई शोभाकी सीमा हैं। उनके शरीरकी आभा नीले और पीले कमलकी-सी है। सिरपर सुन्दर मोरपंख सुशोभित हैं। उनके बीच-बीचमें फूलोंकी कलियोंके गुच्छे लगे हैं॥ १॥

मूल (चौपाई)

भाल तिलक श्रमबिंदु सुहाए।
श्रवन सुभग भूषन छबि छाए॥
बिकट भृकुटि कच घूघरवारे।
नव सरोज लोचन रतनारे॥

अनुवाद (हिन्दी)

माथेपर तिलक और पसीनेकी बूँदें शोभायमान हैं। कानोंमें सुन्दर भूषणोंकी छबि छायी है। टेढ़ी भौंहें और घुँघराले बाल हैं। नये लाल कमलके समान रतनारे (लाल) नेत्र हैं॥ २॥

मूल (चौपाई)

चारु चिबुक नासिका कपोला।
हास बिलास लेत मनु मोला॥
मुखछबि कहि न जाइ मोहि पाहीं।
जो बिलोकि बहु काम लजाहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

ठोड़ी, नाक और गाल बड़े सुन्दर हैं, और हँसीकी शोभा मनको मोल लिये लेती है। मुखकी छबि तो मुझसे कही ही नहीं जाती, जिसे देखकर बहुत-से कामदेव लजा जाते हैं॥ ३॥

मूल (चौपाई)

उर मनि माल कंबु कल गीवा।
काम कलभ कर भुज बलसींवा॥
सुमन समेत बाम कर दोना।
सावँर कुअँर सखी सुठि लोना॥

अनुवाद (हिन्दी)

वक्षःस्थलपर मणियोंकी माला है। शङ्खके सदृश सुन्दर गला है। कामदेवके हाथीके बच्चेकी सूँड़के समान (उतार-चढ़ाववाली एवं कोमल) भुजाएँ हैं, जो बलकी सीमा हैं। जिसके बायें हाथमें फूलोंसहित दोना है, हे सखि! वह साँवला कुँअर तो बहुत ही सलोना है॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

केहरि कटि पट पीत धर सुषमा सील निधान।
देखि भानुकुलभूषनहि बिसरा सखिन्ह अपान॥ २३३॥

अनुवाद (हिन्दी)

सिंहकी-सी (पतली, लचीली) कमरवाले, पीताम्बर धारण किये हुए, शोभा और शीलके भण्डार, सूर्यकुलके भूषण श्रीरामचन्द्रजीको देखकर सखियाँ अपने-आपको भूल गयीं॥ २३३॥

मूल (चौपाई)

धरि धीरजु एक आलि सयानी।
सीता सन बोली गहि पानी॥
बहुरि गौरि कर ध्यान करेहू।
भूपकिसोर देखि किन लेहू॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक चतुर सखी धीरज धरकर, हाथ पकड़कर सीताजीसे बोली—गिरिजाजीका ध्यान फिर कर लेना, इस समय राजकुमारको क्यों नहीं देख लेतीं॥ १॥

मूल (चौपाई)

सकुचि सीयँ तब नयन उघारे।
सनमुख दोउ रघुसिंघ निहारे॥
नख सिख देखि राम कै सोभा।
सुमिरि पिता पनु मनु अति छोभा॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब सीताजीने सकुचाकर नेत्र खोले और रघुकुलके दोनों सिंहोंको अपने सामने (खड़े) देखा। नखसे शिखातक श्रीरामजीकी शोभा देखकर और फिर पिताका प्रण याद करके उनका मन बहुत क्षुब्ध हो गया॥ २॥

मूल (चौपाई)

परबस सखिन्ह लखी जब सीता।
भयउ गहरु सब कहहिं सभीता॥
पुनि आउब एहि बेरिआँ काली।
अस कहि मन बिहसी एक आली॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब सखियोंने सीताजीको परवश (प्रेमके वश) देखा, तब सब भयभीत होकर कहने लगीं—बड़ी देर हो गयी (अब चलना चाहिये)। कल इसी समय फिर आयेंगी, ऐसा कहकर एक सखी मनमें हँसी॥३॥

मूल (चौपाई)

गूढ़ गिरा सुनि सिय सकुचानी।
भयउ बिलंबु मातु भय मानी॥
धरि बड़ि धीर रामु उर आने।
फिरी अपनपउ पितुबस जाने॥

अनुवाद (हिन्दी)

सखीकी यह रहस्यभरी वाणी सुनकर सीताजी सकुचा गयीं। देर हो गयी जान उन्हें माताका भय लगा। बहुत धीरज धरकर वे श्रीरामचन्द्रजीको हृदयमें ले आयीं, और (उनका ध्यान करती हुई) अपनेको पिताके अधीन जानकर लौट चलीं॥४॥

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