४४ श्रीराम-लक्ष्मणका जनकपुर-निरीक्षण

दोहा

मूल (दोहा)

जाइ देखि आवहु नगरु सुख निधान दोउ भाइ।
करहु सुफल सब के नयन सुंदर बदन देखाइ॥ २१८॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुखके निधान दोनों भाई जाकर नगर देख आओ। अपने सुन्दर मुख दिखलाकर सब (नगर-निवासियों) के नेत्रोंको सफल करो॥ २१८॥

मूल (चौपाई)

मुनि पद कमल बंदि दोउ भ्राता।
चले लोक लोचन सुख दाता॥
बालक बृंद देखि अति सोभा।
लगे संग लोचन मनु लोभा॥

अनुवाद (हिन्दी)

सब लोकोंके नेत्रोंको सुख देनेवाले दोनों भाई मुनिके चरणकमलोंकी वन्दना करके चले। बालकोंके झुंड इन (के सौन्दर्य) की अत्यन्त शोभा देखकर साथ लग गये। उनके नेत्र और मन (इनकी माधुरीपर) लुभा गये॥ १॥

मूल (चौपाई)

पीत बसन परिकर कटि भाथा।
चारु चाप सर सोहत हाथा॥
तन अनुहरत सुचंदन खोरी।
स्यामल गौर मनोहर जोरी॥

अनुवाद (हिन्दी)

(दोनों भाइयोंके) पीले रंगके वस्त्र हैं, कमरके (पीले) दुपट्टोंमें तरकस बँधे हैं। हाथोंमें सुन्दर धनुष-बाण सुशोभित हैं। (श्याम और गौर वर्णके) शरीरोंके अनुकूल (अर्थात् जिसपर जिस रंगका चन्दन अधिक फबे उसपर उसी रंगके) सुन्दर चन्दनकी खौर लगी है। साँवरे और गोरे (रंग) की मनोहर जोड़ी है॥ २॥

मूल (चौपाई)

केहरि कंधर बाहु बिसाला।
उर अति रुचिर नागमनि माला॥
सुभग सोन सरसी रुह लोचन।
बदन मयंक तापत्रय मोचन॥

अनुवाद (हिन्दी)

सिंहके समान (पुष्ट) गर्दन (गलेका पिछला भाग) है; विशाल भुजाएँ हैं। (चौड़ी) छातीपर अत्यन्त सुन्दर गजमुक्ताकी माला है। सुन्दर लाल कमलके समान नेत्र हैं। तीनों तापोंसे छुड़ानेवाला चन्द्रमाके समान मुख है॥ ३॥

मूल (चौपाई)

कानन्हि कनक फूल छबि देहीं।
चितवत चितहि चोरि जनु लेहीं॥
चितवनि चारु भृकुटि बर बाँकी।
तिलक रेख सोभा जनु चाँकी॥

अनुवाद (हिन्दी)

कानोंमें सोनेके कर्णफूल (अत्यन्त) शोभा दे रहे हैं और देखते ही (देखनेवालेके) चित्तको मानो चुरा लेते हैं। उनकी चितवन (दृष्टि) बड़ी मनोहर है और भौंहें तिरछी एवं सुन्दर हैं। (माथेपर) तिलककी रेखाएँ ऐसी सुन्दर हैं मानो (मूर्तिमती) शोभापर मुहर लगा दी गयी है॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

रुचिर चौतनीं सुभग सिर मेचक कुंचित केस।
नख सिख सुंदर बंधु दोउ सोभा सकल सुदेस॥ २१९॥

अनुवाद (हिन्दी)

सिरपर सुन्दर चौकोनी टोपियाँ (दिये) हैं, काले और घुँघराले बाल हैं। दोनों भाई नखसे लेकर शिखातक (एड़ीसे चोटीतक) सुन्दर हैं और सारी शोभा जहाँ जैसी चाहिये वैसी ही है॥ २१९॥

मूल (चौपाई)

देखन नगर भूपसुत आए।
समाचार पुरबासिन्ह पाए॥
धाए धाम काम सब त्यागी।
मनहुँ रंक निधि लूटन लागी॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब पुरवासियोंने यह समाचार पाया कि दोनों राजकुमार नगर देखनेके लिये आये हैं, तब वे सब घर-बार और सब काम-काज छोड़कर ऐसे दौड़े मानो दरिद्री (धनका) खजाना लूटने दौड़े हों॥ १॥

मूल (चौपाई)

निरखि सहज सुंदर दोउ भाई।
होहिं सुखी लोचन फल पाई॥
जुबतीं भवन झरोखन्हि लागीं।
निरखहिं राम रूप अनुरागीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

स्वभावहीसे सुन्दर दोनों भाइयोंको देखकर वे लोग नेत्रोंका फल पाकर सुखी हो रहे हैं। युवती स्त्रियाँ घरके झरोखोंसे लगी हुई प्रेमसहित श्रीरामचन्द्रजीके रूपको देख रही हैं॥ २॥

मूल (चौपाई)

कहहिं परसपर बचन सप्रीती।
सखि इन्ह कोटि काम छबि जीती॥
सुर नर असुर नाग मुनि माहीं।
सोभा असि कहुँ सुनिअति नाहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे आपसमें बड़े प्रेमसे बातें कर रही हैं—हे सखी! इन्होंने करोड़ों कामदेवोंकी छबिको जीत लिया है। देवता, मनुष्य, असुर, नाग और मुनियोंमें ऐसी शोभा तो कहीं सुननेमें भी नहीं आती॥३॥

मूल (चौपाई)

बिष्नु चारि भुज बिधि मुख चारी।
बिकट बेष मुख पंच पुरारी॥
अपर देउ अस कोउ न आही।
यह छबि सखी पटतरिअ जाही॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् विष्णुके चार भुजाएँ हैं, ब्रह्माजीके चार मुख हैं, शिवजीका विकट (भयानक) वेष है और उनके पाँच मुँह हैं। हे सखी! दूसरा देवता भी कोई ऐसा नहीं है जिसके साथ इस छबिकी उपमा दी जाय॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

बय किसोर सुषमा सदन स्याम गौर सुख धाम।
अंग अंग पर वारिअहिं कोटि कोटि सत काम॥ २२०॥

अनुवाद (हिन्दी)

इनकी किशोर अवस्था है, ये सुन्दरताके घर, साँवले और गोरे रंगके तथा सुखके धाम हैं। इनके अङ्ग-अङ्गपर करोड़ों-अरबों कामदेवोंको निछावर कर देना चाहिये॥ २२०॥

मूल (चौपाई)

कहहु सखी अस को तनुधारी।
जो न मोह यह रूप निहारी॥
कोउ सप्रेम बोली मृदु बानी।
जो मैं सुना सो सुनहु सयानी॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे सखी! (भला) कहो तो ऐसा कौन शरीरधारी होगा जो इस रूपको देखकर मोहित न हो जाय (अर्थात् यह रूप जड़-चेतन सबको मोहित करनेवाला है)। (तब) कोई दूसरी सखी प्रेमसहित कोमल वाणीसे बोली—हे सयानी! मैंने जो सुना है उसे सुनो—॥ १॥

मूल (चौपाई)

ए दोऊ दसरथ के ढोटा।
बाल मरालन्हि के कल जोटा॥
मुनि कौसिक मख के रखवारे।
जिन्ह रन अजिर निसाचर मारे॥

अनुवाद (हिन्दी)

ये दोनों (राजकुमार) महाराज दशरथजीके पुत्र हैं। बाल राजहंसोंका-सा सुन्दर जोड़ा है। ये मुनि विश्वामित्रके यज्ञकी रक्षा करनेवाले हैं, इन्होंने युद्धके मैदानमें राक्षसोंको मारा है॥ २॥

मूल (चौपाई)

स्याम गात कल कंज बिलोचन।
जो मारीच सुभुज मदु मोचन॥
कौसल्या सुत सो सुख खानी।
नामु रामु धनु सायक पानी॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिनका श्याम शरीर और सुन्दर कमल-जैसे नेत्र हैं, जो मारीच और सुबाहुके मदको चूर करनेवाले और सुखकी खान हैं और जो हाथमें धनुष-बाण लिये हुए हैं, वे कौसल्याजीके पुत्र हैं; इनका नाम राम है॥ ३॥

मूल (चौपाई)

गौर किसोर बेषु बर काछें।
कर सर चाप राम के पाछें॥
लछिमनु नामु राम लघु भ्राता।
सुनु सखि तासु सुमित्रा माता॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिनका रंग गोरा और किशोर अवस्था है और जो सुन्दर वेष बनाये और हाथमें धनुष-बाण लिये श्रीरामजीके पीछे-पीछे चल रहे हैं, वे इनके छोटे भाई हैं; उनका नाम लक्ष्मण है। हे सखी! सुनो, उनकी माता सुमित्रा हैं॥४॥

दोहा

मूल (दोहा)

बिप्रकाजु करि बंधु दोउ मग मुनिबधू उधारि।
आए देखन चापमख सुनि हरषीं सब नारि॥ २२१॥

अनुवाद (हिन्दी)

दोनों भाई ब्राह्मण विश्वामित्रका काम करके और रास्तेमें मुनि गौतमकी स्त्री अहल्याका उद्धार करके यहाँ धनुषयज्ञ देखने आये हैं। यह सुनकर सब स्त्रियाँ प्रसन्न हुईं॥ २२१॥

मूल (चौपाई)

देखि राम छबि कोउ एक कहई।
जोगु जानकिहि यह बरु अहई॥
जौं सखि इन्हहि देख नरनाहू।
पन परिहरि हठि करइ बिबाहू॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामचन्द्रजीकी छबि देखकर कोई एक (दूसरी सखी) कहने लगी—यह वर जानकीके योग्य है। हे सखी! यदि कहीं राजा इन्हें देख ले, तो प्रतिज्ञा छोड़कर हठपूर्वक इन्हींसे विवाह कर देगा॥ १॥

मूल (चौपाई)

कोउ कह ए भूपति पहिचाने।
मुनि समेत सादर सनमाने॥
सखि परंतु पनु राउ न तजई।
बिधि बस हठि अबिबेकहि भजई॥

अनुवाद (हिन्दी)

किसीने कहा—राजाने इन्हें पहचान लिया है और मुनिके सहित इनका आदरपूर्वक सम्मान किया है। परन्तु हे सखी! राजा अपना प्रण नहीं छोड़ता। वह होनहारके वशीभूत होकर हठपूर्वक अविवेकका ही आश्रय लिये हुए है (प्रणपर अड़े रहनेकी मूर्खता नहीं छोड़ता)॥ २॥

मूल (चौपाई)

कोउ कह जौं भल अहइ बिधाता।
सब कहँ सुनिअ उचित फलदाता॥
तौ जानकिहि मिलिहि बरु एहू।
नाहिन आलि इहाँ संदेहू॥

अनुवाद (हिन्दी)

कोई कहती है—यदि विधाता भले हैं और सुना जाता है कि वे सबको उचित फल देते हैं, तो जानकीजीको यही वर मिलेगा। हे सखी! इसमें सन्देह नहीं है॥ ३॥

मूल (चौपाई)

जौं बिधि बस अस बनै सँजोगू।
तौ कृतकृत्य होइ सब लोगू॥
सखि हमरें आरति अति तातें।
कबहुँक ए आवहिं एहि नातें॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो दैवयोगसे ऐसा संयोग बन जाय, तो हम सब लोग कृतार्थ हो जायँ। हे सखी! मेरे तो इसीसे इतनी अधिक आतुरता हो रही है कि इसी नाते कभी ये यहाँ आवेंगे॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

नाहिं त हम कहुँ सुनहु सखि इन्ह कर दरसनु दूरि।
यह संघटु तब होइ जब पुन्य पुराकृत भूरि॥ २२२॥

अनुवाद (हिन्दी)

नहीं तो (विवाह न हुआ तो) हे सखी! सुनो, हमको इनके दर्शन दुर्लभ हैं। यह संयोग तभी हो सकता है जब हमारे पूर्वजन्मोंके बहुत पुण्य हों॥ २२२॥

मूल (चौपाई)

बोली अपर कहेहु सखि नीका।
एहिं बिआह अति हित सबही का॥
कोउ कह संकर चाप कठोरा।
ए स्यामल मृदु गात किसोरा॥

अनुवाद (हिन्दी)

दूसरीने कहा—हे सखी! तुमने बहुत अच्छा कहा। इस विवाहसे सभीका परम हित है। किसीने कहा—शङ्करजीका धनुष कठोर है और ये साँवले राजकुमार कोमल शरीरके बालक हैं॥ १॥

मूल (चौपाई)

सबु असमंजस अहइ सयानी।
यह सुनि अपर कहइ मृदु बानी॥
सखि इन्ह कहँ कोउ कोउ अस कहहीं।
बड़ प्रभाउ देखत लघु अहहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे सयानी! सब असमंजस ही है। यह सुनकर दूसरी सखी कोमल वाणीसे कहने लगी—हे सखी! इनके सम्बन्धमें कोई-कोई ऐसा कहते हैं कि ये देखनेमें तो छोटे हैं, पर इनका प्रभाव बहुत बड़ा है॥ २॥

मूल (चौपाई)

परसि जासु पद पंकज धूरी।
तरी अहल्या कृत अघ भूरी॥
सो कि रहिहि बिनु सिव धनु तोरें।
यह प्रतीति परिहरिअ न भोरें॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिनके चरणकमलोंकी धूलिका स्पर्श पाकर अहल्या तर गयी, जिसने बड़ा भारी पाप किया था, वे क्या शिवजीका धनुष बिना तोड़े रहेंगे। इस विश्वासको भूलकर भी नहीं छोड़ना चाहिये॥ ३॥

मूल (चौपाई)

जेहिं बिरंचि रचि सीय सँवारी।
तेहिं स्यामल बरु रचेउ बिचारी॥
तासु बचन सुनि सब हरषानीं।
ऐसेइ होउ कहहिं मृदु बानीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिस ब्रह्माने सीताको सँवारकर (बड़ी चतुराईसे) रचा है, उसीने विचारकर साँवला वर भी रच रखा है। उसके ये वचन सुनकर सब हर्षित हुईं और कोमल वाणीसे कहने लगीं—ऐसा ही हो॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

हियँ हरषहिं बरषहिं सुमन सुमुखि सुलोचनि बृंद।
जाहिं जहाँ जहँ बंधु दोउ तहँ तहँ परमानंद॥ २२३॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुन्दर मुख और सुन्दर नेत्रोंवाली स्त्रियाँ समूह-की-समूह हृदयमें हर्षित होकर फूल बरसा रही हैं। जहाँ-जहाँ दोनों भाई जाते हैं, वहाँ-वहाँ परम आनन्द छा जाता है॥ २२३॥

मूल (चौपाई)

पुर पूरब दिसि गे दोउ भाई।
जहँ धनुमख हित भूमि बनाई॥
अति बिस्तार चारु गच ढारी।
बिमल बेदिका रुचिर सँवारी॥

अनुवाद (हिन्दी)

दोनों भाई नगरके पूरब ओर गये; जहाँ धनुषयज्ञके लिये (रंग) भूमि बनायी गयी थी। बहुत लंबा-चौड़ा सुन्दर ढाला हुआ पक्का आँगन था, जिसपर सुन्दर और निर्मल वेदी सजायी गयी थी॥ १॥

मूल (चौपाई)

चहुँ दिसि कंचन मंच बिसाला।
रचे जहाँ बैठहिं महिपाला॥
तेहि पाछें समीप चहुँ पासा।
अपर मंच मंडली बिलासा॥

अनुवाद (हिन्दी)

चारों ओर सोनेके बड़े-बड़े मंच बने थे, जिनपर राजा लोग बैठेंगे। उनके पीछे समीप ही चारों ओर दूसरे मचानोंका मण्डलाकार घेरा सुशोभित था॥ २॥

मूल (चौपाई)

कछुक ऊँचि सब भाँति सुहाई।
बैठहिं नगर लोग जहँ जाई॥
तिन्ह के निकट बिसाल सुहाए।
धवल धाम बहुबरन बनाए॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह कुछ ऊँचा था और सब प्रकारसे सुन्दर था, जहाँ जाकर नगरके लोग बैठेंगे। उन्हींके पास विशाल एवं सुन्दर सफेद मकान अनेक रंगोंके बनाये गये हैं,॥ ३॥

मूल (चौपाई)

जहँ बैठें देखहिं सब नारी।
जथाजोगु निज कुल अनुहारी॥
पुर बालक कहि कहि मृदु बचना।
सादर प्रभुहि देखावहिं रचना॥

अनुवाद (हिन्दी)

जहाँ अपने-अपने कुलके अनुसार सब स्त्रियाँ यथायोग्य (जिसको जहाँ बैठना उचित है) बैठकर देखेंगी। नगरके बालक कोमल वचन कह-कहकर आदरपूर्वक प्रभु श्रीरामचन्द्रजीको (यज्ञशालाकी) रचना दिखला रहे हैं॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

सब सिसु एहि मिस प्रेमबस परसि मनोहर गात।
तन पुलकहिं अति हरषु हियँ देखि देखि दोउ भ्रात॥ २२४॥

अनुवाद (हिन्दी)

सब बालक इसी बहाने प्रेमके वश होकर श्रीरामजीके मनोहर अङ्गोंको छूकर शरीरसे पुलकित हो रहे हैं और दोनों भाइयोंको देख-देखकर उनके हृदयमें अत्यन्त हर्ष हो रहा है॥ २२४॥

मूल (चौपाई)

सिसु सब राम प्रेमबस जाने।
प्रीति समेत निकेत बखाने॥
निज निज रुचि सब लेहिं बोलाई।
सहित सनेह जाहिं दोउ भाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामचन्द्रजीने सब बालकोंको प्रेमके वश जानकर (यज्ञभूमिके) स्थानोंकी प्रेमपूर्वक प्रशंसा की। (इससे बालकोंका उत्साह, आनन्द और प्रेम और भी बढ़ गया, जिससे) वे सब अपनी-अपनी रुचिके अनुसार उन्हें बुला लेते हैं और (प्रत्येकके बुलानेपर) दोनों भाई प्रेमसहित उनके पास चले जाते हैं॥ १॥

मूल (चौपाई)

राम देखावहिं अनुजहि रचना।
कहि मृदु मधुर मनोहर बचना॥
लव निमेष महुँ भुवन निकाया।
रचइ जासु अनुसासन माया॥

अनुवाद (हिन्दी)

कोमल, मधुर और मनोहर वचन कहकर श्रीरामजी अपने छोटे भाई लक्ष्मणको (यज्ञभूमिकी) रचना दिखलाते हैं। जिनकी आज्ञा पाकर माया लव निमेष (पलक गिरनेके चौथाई समय) में ब्रह्माण्डोंके समूह रच डालती है,॥ २॥

मूल (चौपाई)

भगति हेतु सोइ दीनदयाला।
चितवत चकित धनुष मखसाला॥
कौतुक देखि चले गुरु पाहीं।
जानि बिलंबु त्रास मन माहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

वही दीनोंपर दया करनेवाले श्रीरामजी भक्तिके कारण धनुषयज्ञशालाको चकित होकर (आश्चर्यके साथ) देख रहे हैं। इस प्रकार सब कौतुक (विचित्र रचना) देखकर वे गुरुके पास चले। देर हुई जानकर उनके मनमें डर है॥ ३॥

मूल (चौपाई)

जासु त्रास डर कहुँ डर होई।
भजन प्रभाउ देखावत सोई॥
कहि बातें मृदु मधुर सुहाईं।
किए बिदा बालक बरिआईं॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिनके भयसे डरको भी डर लगता है, वही प्रभु भजनका प्रभाव (जिसके कारण ऐसे महान् प्रभु भी भयका नाटॺ करते हैं) दिखला रहे हैं। उन्होंने कोमल, मधुर और सुन्दर बातें कहकर बालकोंको जबर्दस्ती विदा किया॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

सभय सप्रेम बिनीत अति सकुच सहित दोउ भाइ।
गुर पद पंकज नाइ सिर बैठे आयसु पाइ॥ २२५॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर भय, प्रेम, विनय और बड़े संकोचके साथ दोनों भाई गुरुके चरणकमलोंमें सिर नवाकर आज्ञा पाकर बैठे॥ २२५॥

मूल (चौपाई)

निसि प्रबेस मुनि आयसु दीन्हा।
सबहीं संध्या बंदनु कीन्हा॥
कहत कथा इतिहास पुरानी।
रुचिर रजनि जुग जाम सिरानी॥

अनुवाद (हिन्दी)

रात्रिका प्रवेश होते ही (सन्ध्याके समय) मुनिने आज्ञा दी, तब सबने सन्ध्यावन्दन किया। फिर प्राचीन कथाएँ तथा इतिहास कहते-कहते सुन्दर रात्रि दो पहर बीत गयी॥ १॥

मूल (चौपाई)

मुनिबर सयन कीन्हि तब जाई।
लगे चरन चापन दोउ भाई॥
जिन्ह के चरन सरोरुह लागी।
करत बिबिध जप जोग बिरागी॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब श्रेष्ठ मुनिने जाकर शयन किया। दोनों भाई उनके चरण दबाने लगे जिनके चरणकमलोंके (दर्शन एवं स्पर्शके) लिये वैराग्यवान् पुरुष भी भाँति-भाँतिके जप और योग करते हैं,॥ २॥

मूल (चौपाई)

तेइ दोउ बंधु प्रेम जनु जीते।
गुर पद कमल पलोटत प्रीते॥
बार बार मुनि अग्या दीन्ही।
रघुबर जाइ सयन तब कीन्ही॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे ही दोनों भाई मानो प्रेमसे जीते हुए प्रेमपूर्वक गुरुजीके चरणकमलोंको दबा रहे हैं। मुनिने बार-बार आज्ञा दी, तब श्रीरघुनाथजीने जाकर शयन किया॥ ३॥

मूल (चौपाई)

चापत चरन लखनु उर लाएँ।
सभय सप्रेम परम सचु पाएँ॥
पुनि पुनि प्रभु कह सोवहु ताता।
पौढ़े धरि उर पद जलजाता॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामजीके चरणोंको हृदयसे लगाकर भय और प्रेमसहित परम सुखका अनुभव करते हुए लक्ष्मणजी उनको दबा रहे हैं। प्रभु श्रीरामचन्द्रजीने बार-बार कहा—हे तात! (अब) सो जाओ। तब वे उन चरणकमलोंको हृदयमें धरकर लेट रहे॥ ४॥

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