४३ श्रीराम-लक्ष्मणको देखकर जनकजीकी प्रेम-मुग्धता

दोहा

मूल (दोहा)

प्रेम मगन मनु जानि नृपु करि बिबेकु धरि धीर।
बोलेउ मुनि पद नाइ सिरु गदगद गिरा गभीर॥ २१५॥

अनुवाद (हिन्दी)

मनको प्रेममें मग्न जान राजा जनकने विवेकका आश्रय लेकर धीरज धारण किया और मुनिके चरणोंमें सिर नवाकर गद्गद (प्रेमभरी) गम्भीर वाणीसे कहा—॥ २१५॥

मूल (चौपाई)

कहहु नाथ सुंदर दोउ बालक।
मुनिकुल तिलक कि नृपकुल पालक॥
ब्रह्म जो निगम नेति कहि गावा।
उभय बेष धरि की सोइ आवा॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे नाथ! कहिये, ये दोनों सुन्दर बालक मुनिकुलके आभूषण हैं या किसी राजवंशके पालक? अथवा जिसका वेदोंने ‘नेति’ कहकर गान किया है कहीं वह ब्रह्म तो युगलरूप धरकर नहीं आया है?॥ १॥

मूल (चौपाई)

सहज बिरागरूप मनु मोरा।
थकित होत जिमि चंद चकोरा॥
ताते प्रभु पूछउँ सतिभाऊ।
कहहु नाथ जनि करहु दुराऊ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेरा मन जो स्वभावसे ही वैराग्यरूप (बना हुआ) है, (इन्हें देखकर) इस तरह मुग्ध हो रहा है जैसे चन्द्रमाको देखकर चकोर। हे प्रभो! इसलिये मैं आपसे सत्य (निश्छल) भावसे पूछता हूँ। हे नाथ! बताइये, छिपाव न कीजिये॥ २॥

मूल (चौपाई)

इन्हहि बिलोकत अति अनुरागा।
बरबस ब्रह्मसुखहि मन त्यागा॥
कह मुनि बिहसि कहेहु नृप नीका।
बचन तुम्हार न होइ अलीका॥

अनुवाद (हिन्दी)

इनको देखते ही अत्यन्त प्रेमके वश होकर मेरे मनने जबर्दस्ती ब्रह्मसुखको त्याग दिया है। मुनिने हँसकर कहा—हे राजन्! आपने ठीक (यथार्थ ही) कहा। आपका वचन मिथ्या नहीं हो सकता॥ ३॥

मूल (चौपाई)

ये प्रिय सबहि जहाँ लगि प्रानी।
मन मुसुकाहिं रामु सुनि बानी॥
रघुकुल मनि दसरथ के जाए।
मम हित लागि नरेस पठाए॥

अनुवाद (हिन्दी)

जगत् में जहाँतक (जितने भी) प्राणी हैं, ये सभीको प्रिय हैं। मुनिकी (रहस्यभरी) वाणी सुनकर श्रीरामजी मन-ही-मन मुसकराते हैं (हँसकर मानो संकेत करते हैं कि रहस्य खोलिये नहीं)। (तब मुनिने कहा—) ये रघुकुलमणि महाराज दशरथके पुत्र हैं। मेरे हितके लिये राजाने इन्हें मेरे साथ भेजा है॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

रामु लखनु दोउ बंधुबर रूप सील बल धाम।
मख राखेउ सबु साखि जगु जिते असुर संग्राम॥ २१६॥

अनुवाद (हिन्दी)

ये राम और लक्ष्मण दोनों श्रेष्ठ भाई रूप, शील और बलके धाम हैं। सारा जगत् (इस बातका) साक्षी है कि इन्होंने युद्धमें असुरोंको जीतकर मेरे यज्ञकी रक्षा की है॥ २१६॥

मूल (चौपाई)

मुनि तव चरन देखि कह राऊ।
कहि न सकउँ निज पुन्य प्रभाऊ॥
सुंदर स्याम गौर दोउ भ्राता।
आनँदहू के आनँद दाता॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजाने कहा—हे मुनि! आपके चरणोंके दर्शन कर मैं अपना पुण्य-प्रभाव कह नहीं सकता। ये सुन्दर श्याम और गौर वर्णके दोनों भाई आनन्दको भी आनन्द देनेवाले हैं॥ १॥

मूल (चौपाई)

इन्ह कै प्रीति परस पर पावनि।
कहि न जाइ मन भाव सुहावनि॥
सुनहु नाथ कह मुदित बिदेहू।
ब्रह्म जीव इव सहज सनेहू॥

अनुवाद (हिन्दी)

इनकी आपसकी प्रीति बड़ी पवित्र और सुहावनी है, वह मनको बहुत भाती है, पर (वाणीसे) कही नहीं जा सकती। विदेह (जनकजी) आनन्दित होकर कहते हैं—हे नाथ! सुनिये, ब्रह्म और जीवकी तरह इनमें स्वाभाविक प्रेम है॥ २॥

मूल (चौपाई)

पुनि पुनि प्रभुहि चितव नरनाहू।
पुलक गात उर अधिक उछाहू॥
मुनिहि प्रसंसि नाइ पद सीसू।
चलेउ लवाइ नगर अवनीसू॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा बार-बार प्रभुको देखते हैं (दृष्टि वहाँसे हटना ही नहीं चाहती)। (प्रेमसे) शरीर पुलकित हो रहा है और हृदयमें बड़ा उत्साह है। (फिर) मुनिकी प्रशंसा करके और उनके चरणोंमें सिर नवाकर राजा उन्हें नगरमें लिवा चले॥ ३॥

मूल (चौपाई)

सुंदर सदनु सुखद सब काला।
तहाँ बासु लै दीन्ह भुआला॥
करि पूजा सब बिधि सेवकाई।
गयउ राउ गृह बिदा कराई॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक सुन्दर महल जो सब समय (सभी ऋतुओंमें ) सुखदायक था, वहाँ राजाने उन्हें ले जाकर ठहराया। तदनन्तर सब प्रकारसे पूजा और सेवा करके राजा विदा माँगकर अपने घर गये॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

रिषय संग रघुबंस मनि करि भोजनु बिश्रामु।
बैठे प्रभु भ्राता सहित दिवसु रहा भरि जामु॥ २१७॥

अनुवाद (हिन्दी)

रघुकुलके शिरोमणि प्रभु श्रीरामचन्द्रजी ऋषियोंके साथ भोजन और विश्राम करके भाई लक्ष्मणसमेत बैठे। उस समय पहरभर दिन रह गया था॥ २१७॥

मूल (चौपाई)

लखन हृदयँ लालसा बिसेषी।
जाइ जनकपुर आइअ देखी॥
प्रभु भय बहुरि मुनिहि सकुचाहीं।
प्रगट न कहहिं मनहिं मुसुकाहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

लक्ष्मणजीके हृदयमें विशेष लालसा है कि जाकर जनकपुर देख आवें। परन्तु प्रभु श्रीरामचन्द्रजीका डर है और फिर मुनिसे भी सकुचाते हैं। इसलिये प्रकटमें कुछ नहीं कहते; मन-ही-मन मुसकरा रहे हैं॥ १॥

मूल (चौपाई)

राम अनुज मन की गति जानी।
भगत बछलता हियँ हुलसानी॥
परम बिनीत सकुचि मुसुकाई।
बोले गुर अनुसासन पाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

(अन्तर्यामी) श्रीरामचन्द्रजीने छोटे भाईके मनकी दशा जान ली, (तब) उनके हृदयमें भक्तवत्सलता उमड़ आयी। वे गुरुकी आज्ञा पाकर बहुत ही विनयके साथ सकुचाते हुए मुसकराकर बोले—॥ २॥

मूल (चौपाई)

नाथ लखनु पुरु देखन चहहीं।
प्रभु सकोच डर प्रगट न कहहीं॥
जौं राउर आयसु मैं पावौं।
नगर देखाइ तुरत लै आवौं॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे नाथ! लक्ष्मण नगर देखना चाहते हैं, किन्तु प्रभु (आप) के डर और संकोचके कारण स्पष्ट नहीं कहते। यदि आपकी आज्ञा पाऊँ, तो मैं इनको नगर दिखलाकर तुरंत ही (वापस) ले आऊँ॥ ३॥

मूल (चौपाई)

सुनि मुनीसु कह बचन सप्रीती।
कस न राम तुम्ह राखहु नीती॥
धरम सेतु पालक तुम्ह ताता।
प्रेम बिबस सेवक सुखदाता॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह सुनकर मुनीश्वर विश्वामित्रजीने प्रेमसहित वचन कहे—हे राम! तुम नीतिकी रक्षा कैसे न करोगे; हे तात! तुम धर्मकी मर्यादाका पालन करनेवाले और प्रेमके वशीभूत होकर सेवकोंको सुख देनेवाले हो॥ ४॥

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