४२ श्रीराम-लक्ष्मणसहित विश्वामित्रका जनकपुरमें प्रवेश

मूल (चौपाई)

चले राम लछिमन मुनि संगा।
गए जहाँ जग पावनि गंगा॥
गाधिसूनु सब कथा सुनाई।
जेहि प्रकार सुरसरि महि आई॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामजी और लक्ष्मणजी मुनिके साथ चले। वे वहाँ गये, जहाँ जगत् को पवित्र करनेवाली गङ्गाजी थीं। महाराज गाधिके पुत्र विश्वामित्रजीने वह सब कथा कह सुनायी जिस प्रकार देवनदी गङ्गाजी पृथ्वीपर आयी थीं॥ १॥

मूल (चौपाई)

तब प्रभु रिषिन्ह समेत नहाए।
बिबिध दान महिदेवन्हि पाए॥
हरषि चले मुनि बृंद सहाया।
बेगि बिदेह नगर निअराया॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब प्रभुने ऋषियोंसहित (गङ्गाजीमें) स्नान किया। ब्राह्मणोंने भाँति-भाँतिके दान पाये। फिर मुनिवृन्दके साथ वे प्रसन्न होकर चले और शीघ्र ही जनकपुरके निकट पहुँच गये॥ २॥

मूल (चौपाई)

पुर रम्यता राम जब देखी।
हरषे अनुज समेत बिसेषी॥
बापीं कूप सरित सर नाना।
सलिल सुधासम मनि सोपाना॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामजीने जब जनकपुरकी शोभा देखी, तब वे छोटे भाई लक्ष्मणसहित अत्यन्त हर्षित हुए। वहाँ अनेकों बावलियाँ, कुएँ, नदी और तालाब हैं, जिनमें अमृतके समान जल है और मणियोंकी सीढ़ियाँ (बनी हुई) हैं॥ ३॥

मूल (चौपाई)

गुंजत मंजु मत्त रस भृंगा।
कूजत कल बहुबरन बिहंगा॥
बरन बरन बिकसे बनजाता।
त्रिबिध समीर सदा सुखदाता॥

अनुवाद (हिन्दी)

मकरन्द-रससे मतवाले होकर भौंरे सुन्दर गुंजार कर रहे हैं। रंग-बिरंगे (बहुत-से) पक्षी मधुर शब्द कर रहे हैं। रंग-रंगके कमल खिले हैं। सदा (सब ऋतुओंमें) सुख देनेवाला शीतल, मन्द, सुगन्ध पवन बह रहा है॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

सुमन बाटिका बाग बन बिपुल बिहंग निवास।
फूलत फलत सुपल्लवत सोहत पुर चहुँ पास॥ २१२॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुष्पवाटिका (फुलवारी), बाग और वन, जिनमें बहुत-से पक्षियोंका निवास है, फूलते, फलते और सुन्दर पत्तोंसे लदे हुए नगरके चारों ओर सुशोभित हैं॥ २१२॥

मूल (चौपाई)

बनइ न बरनत नगर निकाई।
जहाँ जाइ मन तहँइँ लोभाई॥
चारु बजारु बिचित्र अँबारी।
मनिमय बिधि जनु स्वकर सँवारी॥

अनुवाद (हिन्दी)

नगरकी सुन्दरताका वर्णन करते नहीं बनता। मन जहाँ जाता है; वहीं लुभा जाता (रम जाता) है। सुन्दर बाजार है, मणियोंसे बने हुए विचित्र छज्जे हैं, मानो ब्रह्माने उन्हें अपने हाथोंसे बनाया है॥ १॥

मूल (चौपाई)

धनिक बनिक बर धनद समाना।
बैठे सकल बस्तु लै नाना॥
चौहट सुंदर गलीं सुहाई।
संतत रहहिं सुगंध सिंचाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुबेरके समान श्रेष्ठ धनी व्यापारी सब प्रकारकी अनेक वस्तुएँ लेकर (दूकानोंमें) बैठे हैं। सुन्दर चौराहे और सुहावनी गलियाँ सदा सुगन्धसे संची रहती हैं॥ २॥

मूल (चौपाई)

मंगलमय मंदिर सब केरें।
चित्रित जनु रतिनाथ चितेरें॥
पुर नर नारि सुभग सुचि संता।
धरमसील ग्यानी गुनवंता॥

अनुवाद (हिन्दी)

सबके घर मङ्गलमय हैं और उनपर चित्र कढ़े हुए हैं, जिन्हें मानो कामदेवरूपी चित्रकारने अंकित किया है। नगरके (सभी) स्त्री-पुरुष सुन्दर, पवित्र, साधु-स्वभाववाले, धर्मात्मा, ज्ञानी और गुणवान् हैं॥ ३॥

मूल (चौपाई)

अति अनूप जहँ जनक निवासू।
बिथकहिं बिबुध बिलोकि बिलासू॥
होत चकित चित कोट बिलोकी।
सकल भुवन सोभा जनु रोकी॥

अनुवाद (हिन्दी)

जहाँ जनकजीका अत्यन्त अनुपम (सुन्दर) निवासस्थान (महल) है, वहाँके विलास (ऐश्वर्य)को देखकर देवता भी थकित (स्तम्भित) हो जाते हैं (मनुष्योंकी तो बात ही क्या!)। कोट (राजमहलके परकोटे) को देखकर चित्त चकित हो जाता है, (ऐसा मालूम होता है) मानो उसने समस्त लोकोंकी शोभाको रोक (घेर) रखा है॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

धवल धाम मनि पुरट पट सुघटित नाना भाँति।
सिय निवास सुंदर सदन सोभा किमि कहि जाति॥ २१३॥

अनुवाद (हिन्दी)

उज्ज्वल महलोंमें अनेक प्रकारके सुन्दर रीतिसे बने हुए मणिजटित सोनेकी जरीके परदे लगे हैं। सीताजीके रहनेके सुन्दर महलकी शोभाका वर्णन किया ही कैसे जा सकता है॥ २१३॥

मूल (चौपाई)

सुभग द्वार सब कुलिस कपाटा।
भूप भीर नट मागध भाटा॥
बनी बिसाल बाजि गज साला।
हय गय रथ संकुल सब काला॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजमहलके सब दरवाजे (फाटक) सुन्दर हैं, जिनमें वज्रके (मजबूत अथवा हीरोंके चमकते हुए) किवाड़ लगे हैं। वहाँ (मातहत) राजाओं, नटों, मागधों और भाटोंकी भीड़ लगी रहती है। घोड़ों और हाथियोंके लिये बहुत बड़ी-बड़ी घुड़शालें और गजशालाएँ (फीलखाने) बनी हुई हैं; जो सब समय घोड़े, हाथी और रथोंसे भरी रहती हैं॥ १॥

मूल (चौपाई)

सूर सचिव सेनप बहुतेरे।
नृपगृह सरिस सदन सब केरे॥
पुर बाहेर सर सरित समीपा।
उतरे जहँ तहँ बिपुल महीपा॥

अनुवाद (हिन्दी)

बहुत-से शूरवीर, मन्त्री और सेनापति हैं। उन सबके घर भी राजमहल-सरीखे ही हैं। नगरके बाहर तालाब और नदीके निकट जहाँ-तहाँ बहुत-से राजालोग उतरे हुए (डेरा डाले हुए) हैं॥ २॥

मूल (चौपाई)

देखि अनूप एक अँवराई।
सब सुपास सब भाँति सुहाई॥
कौसिक कहेउ मोर मनु माना।
इहाँ रहिअ रघुबीर सुजाना॥

अनुवाद (हिन्दी)

(वहीं) आमोंका एक अनुपम बाग देखकर, जहाँ सब प्रकारके सुभीते थे और जो सब तरहसे सुहावना था, विश्वामित्रजीने कहा—हे सुजान रघुवीर! मेरा मन कहता है कि यहीं रहा जाय॥ ३॥

मूल (चौपाई)

भलेहिं नाथ कहि कृपानिकेता।
उतरे तहँ मुनिबृंद समेता॥
बिस्वामित्र महामुनि आए।
समाचार मिथिलापति पाए॥

अनुवाद (हिन्दी)

कृपाके धाम श्रीरामचन्द्रजी ‘बहुत अच्छा स्वामिन्!’ कहकर वहीं मुनियोंके समूहके साथ ठहर गये। मिथिलापति जनकजीने जब यह समाचार पाया कि महामुनि विश्वामित्र आये हैं,॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

संग सचिव सुचि भूरि भट भूसुर बर गुर ग्याति।
चले मिलन मुनिनायकहि मुदित राउ एहि भाँति॥ २१४॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब उन्होंने पवित्र हृदयके (ईमानदार, स्वामिभक्त) मन्त्री, बहुत-से योद्धा, श्रेष्ठ ब्राह्मण, गुरु (शतानन्दजी) और अपनी जातिके श्रेष्ठ लोगोंको साथ लिया और इस प्रकार प्रसन्नताके साथ राजा मुनियोंके स्वामी विश्वामित्रजीसे मिलने चले॥ २१४॥

मूल (चौपाई)

कीन्ह प्रनामु चरन धरि माथा।
दीन्हि असीस मुदित मुनिनाथा॥
बिप्रबृंद सब सादर बंदे।
जानि भाग्य बड़ राउ अनंदे॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजाने मुनिके चरणोंपर मस्तक रखकर प्रणाम किया। मुनियोंके स्वामी विश्वामित्रजीने प्रसन्न होकर आशीर्वाद दिया। फिर सारी ब्राह्मणमण्डलीको आदरसहित प्रणाम किया और अपना बड़ा भाग्य जानकर राजा आनन्दित हुए॥ १॥

मूल (चौपाई)

कुसल प्रस्न कहि बारहिं बारा।
बिस्वामित्र नृपहि बैठारा॥
तेहि अवसर आए दोउ भाई।
गए रहे देखन फुलवाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

बार-बार कुशलप्रश्न करके विश्वामित्रजीने राजाको बैठाया। उसी समय दोनों भाई आ पहुँचे, जो फुलवाड़ी देखने गये थे॥ २॥

मूल (चौपाई)

स्याम गौर मृदु बयस किसोरा।
लोचन सुखद बिस्व चित चोरा॥
उठे सकल जब रघुपति आए।
बिस्वामित्र निकट बैठाए॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुकुमार किशोर अवस्थावाले, श्याम और गौर वर्णके दोनों कुमार नेत्रोंको सुख देनेवाले और सारे विश्वके चित्तको चुरानेवाले हैं। जब रघुनाथजी आये तब सभी (उनके रूप एवं तेजसे प्रभावित होकर) उठकर खड़े हो गये। विश्वामित्रजीने उनको अपने पास बैठा लिया॥ ३॥

मूल (चौपाई)

भए सब सुखी देखि दोउ भ्राता।
बारि बिलोचन पुलकित गाता॥
मूरति मधुर मनोहर देखी।
भयउ बिदेहु बिदेहु बिसेषी॥

अनुवाद (हिन्दी)

दोनों भाइयोंको देखकर सभी सुखी हुए। सबके नेत्रोंमें जल भर आया (आनन्द और प्रेमके आँसू उमड़ पड़े) और शरीर रोमाञ्चित हो उठे। रामजीकी मधुर मनोहर मूर्तिको देखकर विदेह (जनक) विशेषरूपसे विदेह (देहकी सुध-बुधसे रहित) हो गये॥ ४॥

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