४० विश्वामित्र-यज्ञकी रक्षा

दोहा

मूल (दोहा)

आयुध सर्ब समर्पि कै प्रभु निज आश्रम आनि।
कंद मूल फल भोजन दीन्ह भगति हित जानि॥ २०९॥

अनुवाद (हिन्दी)

सब अस्त्र-शस्त्र समर्पण करके मुनि प्रभु श्रीरामजीको अपने आश्रममें ले आये; और उन्हें परम हितू जानकर भक्तिपूर्वक कन्द, मूल और फलका भोजन कराया॥ २०९॥

मूल (चौपाई)

प्रात कहा मुनि सन रघुराई।
निर्भय जग्य करहु तुम्ह जाई॥
होम करन लागे मुनि झारी।
आपु रहे मख कीं रखवारी॥

अनुवाद (हिन्दी)

सबेरे श्रीरघुनाथजीने मुनिसे कहा—आप जाकर निडर होकर यज्ञ कीजिये। यह सुनकर सब मुनि हवन करने लगे। आप (श्रीरामजी) यज्ञकी रखवालीपर रहे॥ १॥

मूल (चौपाई)

सुनि मारीच निसाचर क्रोही।
लै सहाय धावा मुनिद्रोही॥
बिनु फर बान राम तेहि मारा।
सत जोजन गा सागर पारा॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह समाचार सुनकर मुनियोंका शत्रु क्रोधी राक्षस मारीच अपने सहायकोंको लेकर दौड़ा। श्रीरामजीने बिना फलवाला बाण उसको मारा, जिससे वह सौ योजनके विस्तारवाले समुद्रके पार जा गिरा॥ २॥

मूल (चौपाई)

पावक सर सुबाहु पुनि मारा।
अनुज निसाचर कटकु सँघारा॥
मारि असुर द्विज निर्भयकारी।
अस्तुति करहिं देव मुनि झारी॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर सुबाहुको अग्निबाण मारा। इधर छोटे भाई लक्ष्मणजीने राक्षसोंकी सेनाका संहार कर डाला। इस प्रकार श्रीरामजीने राक्षसोंको मारकर ब्राह्मणोंको निर्भय कर दिया। तब सारे देवता और मुनि स्तुति करने लगे॥ ३॥

मूल (चौपाई)

तहँ पुनि कछुक दिवस रघुराया।
रहे कीन्हि बिप्रन्ह पर दाया॥
भगति हेतु बहु कथा पुराना।
कहे बिप्र जद्यपि प्रभु जाना॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरघुनाथजीने वहाँ कुछ दिन और रहकर ब्राह्मणोंपर दया की। भक्तिके कारण ब्राह्मणोंने उन्हें पुराणोंकी बहुत-सी कथाएँ कहीं, यद्यपि प्रभु सब जानते थे॥ ४॥

मूल (चौपाई)

तब मुनि सादर कहा बुझाई।
चरित एक प्रभु देखिअ जाई॥
धनुषजग्य सुनि रघुकुल नाथा।
हरषि चले मुनिबर के साथा॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर मुनिने आदरपूर्वक समझाकर कहा—हे प्रभो! चलकर एक चरित्र देखिये। रघुकुलके स्वामी श्रीरामचन्द्रजी धनुषयज्ञ (की बात) सुनकर मुनिश्रेष्ठ विश्वामित्रजीके साथ प्रसन्न होकर चले॥ ५॥

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