३७ राजा दशरथका पुत्रेष्टि यज्ञ, रानियोंका गर्भवती होना

मूल (चौपाई)

गिरि कानन जहँ तहँ भरि पूरी।
रहे निज निज अनीक रचि रूरी॥
यह सब रुचिर चरित मैं भाषा।
अब सो सुनहु जो बीचहिं राखा॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे (वानर) पर्वतों और जंगलोंमें जहाँ-तहाँ अपनी-अपनी सुन्दर सेना बनाकर भरपूर छा गये। यह सब सुन्दर चरित्र मैंने कहा। अब वह चरित्र सुनो जिसे बीचहीमें छोड़ दिया था॥ ३॥

मूल (चौपाई)

अवधपुरीं रघुकुलमनि राऊ।
बेद बिदित तेहि दसरथ नाऊँ॥
धरम धुरंधर गुननिधि ग्यानी।
हृदयँ भगति मति सारँगपानी॥

अनुवाद (हिन्दी)

अवधपुरीमें रघुकुलशिरोमणि दशरथ नामके राजा हुए, जिनका नाम वेदोंमें विख्यात है। वे धर्म-धुरन्धर, गुणोंके भण्डार और ज्ञानी थे। उनके हृदयमें शार्ङ्गधनुष धारण करनेवाले भगवान् की भक्ति थी, और उनकी बुद्धि भी उन्हींमें लगी रहती थी॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

कौसल्यादि नारि प्रिय सब आचरन पुनीत।
पति अनुकूल प्रेम दृढ़ हरि पद कमल बिनीत॥ १८८॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनकी कौसल्या आदि प्रिय रानियाँ सभी पवित्र आचरणवाली थीं। वे (बड़ी) विनीत और पतिके अनुकूल (चलनेवाली) थीं और श्रीहरिके चरणकमलोंमें उनका दृढ़ प्रेम था॥ १८८॥

मूल (चौपाई)

एक बार भूपति मन माहीं।
भै गलानि मोरें सुत नाहीं॥
गुर गृह गयउ तुरत महिपाला।
चरन लागि करि बिनय बिसाला॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक बार राजाके मनमें बड़ी ग्लानि हुई कि मेरे पुत्र नहीं है। राजा तुरंत ही गुरुके घर गये और चरणोंमें प्रणाम कर बहुत विनय की॥ १॥

मूल (चौपाई)

निज दुख सुख सब गुरहि सुनायउ।
कहि बसिष्ठ बहु बिधि समुझायउ॥
धरहु धीर होइहहिं सुत चारी।
त्रिभुवन बिदित भगत भय हारी॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजाने अपना सारा दुःख-सुख गुरुको सुनाया। गुरु वसिष्ठजीने उन्हें बहुत प्रकारसे समझाया (और कहा—) धीरज धरो, तुम्हारे चार पुत्र होंगे, जो तीनों लोकोंमें प्रसिद्ध और भक्तोंके भयको हरनेवाले होंगे॥ २॥

मूल (चौपाई)

सृंगी रिषिहि बसिष्ठ बोलावा।
पुत्रकाम सुभ जग्य करावा॥
भगति सहित मुनि आहुति दीन्हें।
प्रगटे अगिनि चरू कर लीन्हें॥

अनुवाद (हिन्दी)

वसिष्ठजीने शृङ्गी ऋषिको बुलवाया और उनसे शुभ पुत्रकामेष्टि यज्ञ कराया। मुनिके भक्तिसहित आहुतियाँ देनेपर अग्निदेव हाथमें चरु (हविष्यान्न खीर) लिये प्रकट हुए॥ ३॥

मूल (चौपाई)

जो बसिष्ठ कछु हृदयँ बिचारा।
सकल काजु भा सिद्ध तुम्हारा॥
यह हबि बाँटि देहु नृप जाई।
जथा जोग जेहि भाग बनाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

(और दशरथसे बोले—) वसिष्ठने हृदयमें जो कुछ विचारा था, तुम्हारा वह सब काम सिद्ध हो गया। हे राजन्! (अब) तुम जाकर इस हविष्यान्न (पायस) को, जिसको जैसा उचित हो, वैसा भाग बनाकर बाँट दो॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

तब अदृस्य भए पावक सकल सभहि समुझाइ।
परमानंद मगन नृप हरष न हृदयँ समाइ॥ १८९॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर अग्निदेव सारी सभाको समझाकर अन्तर्धान हो गये। राजा परमानन्दमें मग्न हो गये, उनके हृदयमें हर्ष समाता न था॥ १८९॥

मूल (चौपाई)

तबहिं रायँ प्रिय नारि बोलाईं।
कौसल्यादि तहाँ चलि आईं॥
अर्ध भाग कौसल्यहि दीन्हा।
उभय भाग आधे कर कीन्हा॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसी समय राजाने अपनी प्यारी पत्नियोंको बुलाया। कौसल्या आदि सब (रानियाँ) वहाँ चली आयीं। राजाने (पायसका) आधा भाग कौसल्याको दिया, (और शेष) आधेके दो भाग किये॥ १॥

मूल (चौपाई)

कैकेई कहँ नृप सो दयऊ।
रह्यो सो उभय भाग पुनि भयऊ॥
कौसल्या कैकेई हाथ धरि।
दीन्ह सुमित्रहि मन प्रसन्न करि॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह (उनमेंसे एक भाग) राजाने कैकेयीको दिया। शेष जो बच रहा उसके फिर दो भाग हुए और राजाने उनको कौसल्या और कैकेयीके हाथपर रखकर (अर्थात् उनकी अनुमति लेकर) और इस प्रकार उनका मन प्रसन्न करके सुमित्राको दिया॥ २॥

मूल (चौपाई)

एहि बिधि गर्भसहित सब नारी।
भईं हृदयँ हरषित सुख भारी॥
जा दिन तें हरि गर्भहिं आए।
सकल लोक सुख संपति छाए॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार सब स्त्रियाँ गर्भवती हुईं। वे हृदयमें बहुत हर्षित हुईं। उन्हें बड़ा सुख मिला। जिस दिनसे श्रीहरि (लीलासे ही) गर्भमें आये, सब लोकोंमें सुख और सम्पत्ति छा गयी॥ ३॥

मूल (चौपाई)

मंदिर महँ सब राजहिं रानीं।
सोभा सील तेज की खानीं॥
सुख जुत कछुक काल चलि गयऊ।
जेहिं प्रभु प्रगट सो अवसर भयऊ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शोभा, शील और तेजकी खान (बनी हुई) सब रानियाँ महलमें सुशोभित हुईं। इस प्रकार कुछ समय सुखपूर्वक बीता और वह अवसर आ गया जिसमें प्रभुको प्रकट होना था॥ ४॥

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