३० नारदका अभिमान और मायाका प्रभाव

दोहा

मूल (दोहा)

संभु दीन्ह उपदेस हित नहिं नारदहि सोहान।
भरद्वाज कौतुक सुनहु हरि इच्छा बलवान॥ १२७॥

अनुवाद (हिन्दी)

यद्यपि शिवजीने यह हितकी शिक्षा दी, पर नारदजीको वह अच्छी न लगी। हे भरद्वाज! अब कौतुक (तमाशा) सुनो। हरिकी इच्छा बड़ी बलवान् है॥ १२७॥

मूल (चौपाई)

राम कीन्ह चाहहिं सोइ होई।
करै अन्यथा अस नहिं कोई॥
संभु बचन मुनि मन नहिं भाए।
तब बिरंचि के लोक सिधाए॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामचन्द्रजी जो करना चाहते हैं, वही होता है, ऐसा कोई नहीं जो उसके विरुद्ध कर सके। श्रीशिवजीके वचन नारदजीके मनको अच्छे नहीं लगे, तब वे वहाँसे ब्रह्मलोकको चल दिये॥ १॥

मूल (चौपाई)

एक बार करतल बर बीना।
गावत हरि गुन गान प्रबीना॥
क्षीरसिंधु गवने मुनिनाथा।
जहँ बस श्रीनिवास श्रुतिमाथा॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक बार गानविद्यामें निपुण मुनिनाथ नारदजी हाथमें सुन्दर वीणा लिये, हरिगुण गाते हुए क्षीरसागरको गये, जहाँ वेदोंके मस्तकस्वरूप (मूर्तिमान् वेदान्ततत्त्व) लक्ष्मीनिवास भगवान् नारायण रहते हैं॥ २॥

मूल (चौपाई)

हरषि मिले उठि रमानिकेता।
बैठे आसन रिषिहि समेता॥
बोले बिहसि चराचर राया।
बहुते दिनन कीन्हि मुनि दाया॥

अनुवाद (हिन्दी)

रमानिवास भगवान् उठकर बड़े आनन्दसे उनसे मिले और ऋषि (नारदजी) के साथ आसनपर बैठ गये। चराचरके स्वामी भगवान् हँसकर बोले—हे मुनि! आज आपने बहुत दिनोंपर दया की॥ ३॥

मूल (चौपाई)

काम चरित नारद सब भाषे।
जद्यपि प्रथम बरजि सिवँ राखे॥
अति प्रचंड रघुपति कै माया।
जेहि न मोह अस को जग जाया॥

अनुवाद (हिन्दी)

यद्यपि श्रीशिवजीने उन्हें पहलेसे ही बरज रखा था, तो भी नारदजीने कामदेवका सारा चरित्र भगवान् को कह सुनाया। श्रीरघुनाथजीकी माया बड़ी ही प्रबल है। जगत् में ऐसा कौन जन्मा है जिसे वह मोहित न कर दे॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

रूख बदन करि बचन मृदु बोले श्रीभगवान।
तुम्हरे सुमिरन तें मिटहिं मोह मार मद मान॥ १२८॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् रूखा मुँह करके कोमल वचन बोले—हे मुनिराज! आपका स्मरण करनेसे दूसरोंके मोह, काम, मद और अभिमान मिट जाते हैं ( फिर आपके लिये तो कहना ही क्या है?)॥ १२८॥

मूल (चौपाई)

सुनु मुनि मोह होइ मन ताकें।
ग्यान बिराग हृदय नहिं जाकें॥
ब्रह्मचरज ब्रत रत मतिधीरा।
तुम्हहि कि करइ मनोभव पीरा॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे मुनि! सुनिये, मोह तो उसके मनमें होता है जिसके हृदयमें ज्ञान-वैराग्य नहीं है। आप तो ब्रह्मचर्यव्रतमें तत्पर और बड़े धीरबुद्धि हैं। भला, कहीं आपको भी कामदेव सता सकता है?॥ १॥

मूल (चौपाई)

नारद कहेउ सहित अभिमाना।
कृपा तुम्हारि सकल भगवाना॥
करुनानिधि मन दीख बिचारी।
उर अंकुरेउ गरब तरु भारी॥

अनुवाद (हिन्दी)

नारदजीने अभिमानके साथ कहा—भगवन्! यह सब आपकी कृपा है। करुणानिधान भगवान् ने मनमें विचारकर देखा कि इनके मनमें गर्वके भारी वृक्षका अंकुर पैदा हो गया है॥ २॥

मूल (चौपाई)

बेगि सो मैं डारिहउँ उखारी।
पन हमार सेवक हितकारी॥
मुनिकर हित मम कौतुक होई।
अवसि उपाय करबि मैं सोई॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं उसे तुरंत ही उखाड़ फेंकूँगा, क्योंकि सेवकोंका हित करना हमारा प्रण है। मैं अवश्य ही वह उपाय करूँगा जिससे मुनिका कल्याण और मेरा खेल हो॥ ३॥

मूल (चौपाई)

तब नारद हरि पद सिर नाई।
चले हृदयँ अहमिति अधिकाई॥
श्रीपति निज माया तब प्रेरी।
सुनहु कठिन करनी तेहि केरी॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब नारदजी भगवान् के चरणोंमें सिर नवाकर चले। उनके हृदयमें अभिमान और भी बढ़ गया। तब लक्ष्मीपति भगवान् ने अपनी मायाको प्रेरित किया। अब उसकी कठिन करनी सुनो॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

बिरचेउ मग महुँ नगर तेहिं सत जोजन बिस्तार।
श्रीनिवासपुर तें अधिक रचना बिबिध प्रकार॥ १२९॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस (हरिमाया) ने रास्तेमें सौ योजन (चार सौ कोस) का एक नगर रचा। उस नगरकी भाँति-भाँतिकी रचनाएँ लक्ष्मीनिवास भगवान् विष्णुके नगर (वैकुण्ठ) से भी अधिक सुन्दर थीं॥ १२९॥

मूल (चौपाई)

बसहिं नगर सुंदर नर नारी।
जनु बहु मनसिज रति तनुधारी॥
तेहिं पुर बसइ सीलनिधि राजा।
अगनित हय गय सेन समाजा॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस नगरमें ऐसे सुन्दर नर-नारी बसते थे मानो बहुत-से कामदेव और (उसकी स्त्री) रति ही मनुष्य-शरीर धारण किये हुए हों। उस नगरमें शीलनिधि नामका राजा रहता था, जिसके यहाँ असंख्य घोड़े, हाथी और सेनाके समूह (टुकड़ियाँ) थे॥ १॥

मूल (चौपाई)

सत सुरेस सम बिभव बिलासा।
रूप तेज बल नीति निवासा॥
बिस्वमोहनी तासु कुमारी।
श्री बिमोह जिसु रूपु निहारी॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसका वैभव और विलास सौ इन्द्रोंके समान था। वह रूप, तेज, बल और नीतिका घर था। उसके विश्वमोहिनी नामकी एक (ऐसी रूपवती) कन्या थी, जिसके रूपको देखकर लक्ष्मीजी भी मोहित हो जायँ॥ २॥

मूल (चौपाई)

सोइ हरिमाया सब गुन खानी।
सोभा तासु कि जाइ बखानी॥
करइ स्वयंबर सो नृपबाला।
आए तहँ अगनित महिपाला॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह सब गुणोंकी खान भगवान् की माया ही थी। उसकी शोभाका वर्णन कैसे किया जा सकता है। वह राजकुमारी स्वयंवर करना चाहती थी, इससे वहाँ अगणित राजा आये हुए थे॥ ३॥

मूल (चौपाई)

मुनि कौतुकी नगर तेहिं गयऊ।
पुरबासिन्ह सब पूछत भयऊ॥
सुनि सब चरित भूपगृहँ आए।
करि पूजा नृप मुनि बैठाए॥

अनुवाद (हिन्दी)

खिलवाड़ी मुनि नारदजी उस नगरमें गये और नगरवासियोंसे उन्होंने सब हाल पूछा। सब समाचार सुनकर वे राजाके महलमें आये। राजाने पूजा करके मुनिको (आसनपर) बैठाया॥ ४॥

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