२९ अवतारके हेतु

सोरठा

मूल (दोहा)

सुनु सुभ कथा भवानि रामचरितमानस बिमल।
कहा भुसुंडि बखानि सुना बिहग नायक गरुड़॥ १२०(ख)॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे पार्वती! निर्मल रामचरितमानसकी वह मङ्गलमयी कथा सुनो जिसे काकभुशुण्डिने विस्तारसे कहा और पक्षियोंके राजा गरुड़जीने सुना था॥ १२०(ख)॥

मूल (दोहा)

सो संबाद उदार जेहि बिधि भा आगें कहब।
सुनहु राम अवतार चरित परम सुंदर अनघ॥ १२०(ग)॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह श्रेष्ठ संवाद जिस प्रकार हुआ, वह मैं आगे कहूँगा। अभी तुम श्रीरामचन्द्रजीके अवतारका परम सुन्दर और पवित्र (पापनाशक) चरित्र सुनो॥ १२०(ग)॥

मूल (दोहा)

हरि गुन नाम अपार कथा रूप अगनित अमित।
मैं निज मति अनुसार कहउँ उमा सादर सुनहु॥ १२०(घ)॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीहरिके गुण, नाम, कथा और रूप सभी अपार, अगणित और असीम हैं। फिर भी हे पार्वती! मैं अपनी बुद्धिके अनुसार कहता हूँ, तुम आदरपूर्वक सुनो॥ १२०(घ)॥

मूल (चौपाई)

सुनु गिरिजा हरिचरित सुहाए।
बिपुल बिसद निगमागम गाए॥
हरि अवतार हेतु जेहि होई।
इदमित्थं कहि जाइ न सोई॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे पार्वती! सुनो, वेद-शास्त्रोंने श्रीहरिके सुन्दर, विस्तृत और निर्मल चरित्रोंका गान किया है। हरिका अवतार जिस कारणसे होता है, वह कारण ‘बस यही है’ ऐसा नहीं कहा जा सकता (अनेकों कारण हो सकते हैं और ऐसे भी हो सकते हैं जिन्हें कोई जान ही नहीं सकता)॥ १॥

मूल (चौपाई)

राम अतर्क्य बुद्धि मन बानी।
मत हमार अस सुनहि सयानी॥
तदपि संत मुनि बेद पुराना।
जस कछु कहहिं स्वमति अनुमाना॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे सयानी! सुनो, हमारा मत तो यह है कि बुद्धि, मन और वाणीसे श्रीरामचन्द्रजीकी तर्कना नहीं की जा सकती। तथापि संत, मुनि, वेद और पुराण—अपनी-अपनी बुद्धिके अनुसार जैसा कुछ कहते हैं,॥ २॥

मूल (चौपाई)

तस मैं सुमुखि सुनावउँ तोही।
समुझि परइ जस कारन मोही॥
जब जब होइ धरम कै हानी।
बाढ़हिं असुर अधम अभिमानी॥

अनुवाद (हिन्दी)

और जैसा कुछ मेरी समझमें आता है, हे सुमुखि! वही कारण मैं तुमको सुनाता हूँ। जब-जब धर्मका ह्रास होता है और नीच अभिमानी राक्षस बढ़ जाते हैं॥ ३॥

मूल (चौपाई)

करहिं अनीति जाइ नहिं बरनी।
सीदहिं बिप्र धेनु सुर धरनी॥
तब तब प्रभु धरि बिबिध सरीरा।
हरहिं कृपानिधि सज्जन पीरा॥

अनुवाद (हिन्दी)

और वे ऐसा अन्याय करते हैं कि जिसका वर्णन नहीं हो सकता तथा ब्राह्मण, गौ, देवता और पृथ्वी कष्ट पाते हैं, तब-तब वे कृपानिधान प्रभु भाँति-भाँतिके (दिव्य) शरीर धारण कर सज्जनोंकी पीड़ा हरते हैं॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

असुर मारि थापहिं सुरन्ह राखहिं निज श्रुति सेतु।
जग बिस्तारहिं बिसद जस राम जन्म कर हेतु॥ १२१॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे असुरोंको मारकर देवताओंको स्थापित करते हैं, अपने (श्वासरूप) वेदोंकी मर्यादाकी रक्षा करते हैं और जगत् में अपना निर्मल यश फैलाते हैं। श्रीरामचन्द्रजीके अवतारका यह कारण है॥ १२१॥

मूल (चौपाई)

सोइ जस गाइ भगत भव तरहीं।
कृपासिंधु जन हित तनु धरहीं॥
राम जनम के हेतु अनेका।
परम बिचित्र एक तें एका॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसी यशको गा-गाकर भक्तजन भवसागरसे तर जाते हैं। कृपासागर भगवान् भक्तोंके हितके लिये शरीर धारण करते हैं। श्रीरामचन्द्रजीके जन्म लेनेके अनेक कारण हैं, जो एक-से-एक बढ़कर विचित्र हैं॥ १॥

मूल (चौपाई)

जनम एक दुइ कहउँ बखानी।
सावधान सुनु सुमति भवानी॥
द्वारपाल हरि के प्रिय दोऊ।
जय अरु बिजय जान सब कोऊ॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे सुन्दर बुद्धिवाली भवानी! मैं उनके दो-एक जन्मोंका विस्तारसे वर्णन करता हूँ, तुम सावधान होकर सुनो। श्रीहरिके जय और विजय दो प्यारे द्वारपाल हैं, जिनको सब कोई जानते हैं॥ २॥

मूल (चौपाई)

बिप्र श्राप तें दूनउ भाई।
तामस असुर देह तिन्ह पाई॥
कनककसिपु अरु हाटकलोचन।
जगत बिदित सुरपति मद मोचन॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन दोनों भाइयोंने ब्राह्मण (सनकादि) के शापसे असुरोंका तामसी शरीर पाया। एकका नाम था हिरण्यकशिपु और दूसरेका हिरण्याक्ष। ये देवराज इन्द्रके गर्वको छुड़ानेवाले सारे जगत् में प्रसिद्ध हुए॥ ३॥

मूल (चौपाई)

बिजई समर बीर बिख्याता।
धरि बराह बपु एक निपाता॥
होइ नरहरि दूसर पुनि मारा।
जन प्रहलाद सुजस बिस्तारा॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे युद्धमें विजय पानेवाले विख्यात वीर थे। इनमेंसे एक (हिरण्याक्ष) को भगवान् ने वराह (सूअर)का शरीर धारण करके मारा; फिर दूसरे (हिरण्यकशिपु) का नरसिंहरूप धारण करके वध किया और अपने भक्त प्रह्लादका सुन्दर यश फैलाया॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

भए निसाचर जाइ तेइ महाबीर बलवान।
कुंभकरन रावन सुभट सुर बिजई जग जान॥ १२२॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे ही (दोनों) जाकर देवताओंको जीतनेवाले तथा बड़े योद्धा, रावण और कुम्भकर्ण नामक बड़े बलवान् और महावीर राक्षस हुए, जिन्हें सारा जगत् जानता है॥ १२२॥

मूल (चौपाई)

मुकुत न भए हते भगवाना।
तीनि जनम द्विज बचन प्रवाना॥
एक बार तिन्ह के हित लागी।
धरेउ सरीर भगत अनुरागी॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् के द्वारा मारे जानेपर भी वे (हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु) इसीलिये मुक्त नहीं हुए कि ब्राह्मणके वचन (शाप) का प्रमाण तीन जन्मके लिये था। अतः एक बार उनके कल्याणके लिये भक्तप्रेमी भगवान् ने फिर अवतार लिया॥ १॥

मूल (चौपाई)

कस्यप अदिति तहाँ पितु माता।
दसरथ कौसल्या बिख्याता॥
एक कलप एहि बिधि अवतारा।
चरित पवित्र किए संसारा॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ (उस अवतारमें ) कश्यप और अदिति उनके माता-पिता हुए, जो दशरथ और कौसल्याके नामसे प्रसिद्ध थे। एक कल्पमें इस प्रकार अवतार लेकर उन्होंने संसारमें पवित्र लीलाएँ कीं॥ २॥

मूल (चौपाई)

एक कलप सुर देखि दुखारे।
समर जलंधर सन सब हारे॥
संभु कीन्ह संग्राम अपारा।
दनुज महाबल मरइ न मारा॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक कल्पमें सब देवताओंको जलन्धर दैत्यसे युद्धमें हार जानेके कारण दुःखी देखकर शिवजीने उसके साथ बड़ा घोर युद्ध किया; पर वह महाबली दैत्य मारे नहीं मरता था॥ ३॥

मूल (चौपाई)

परम सती असुराधिप नारी।
तेहिं बल ताहि न जितहिं पुरारी॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस दैत्यराजकी स्त्री परम सती (बड़ी ही पतिव्रता) थी। उसीके प्रतापसे त्रिपुरासुर (जैसे अजेय शत्रु) का विनाश करनेवाले शिवजी भी उस दैत्यको नहीं जीत सके॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

छल करि टारेउ तासु ब्रत प्रभु सुर कारज कीन्ह।
जब तेहिं जानेउ मरम तब श्राप कोप करि दीन्ह॥ १२३॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभुने छलसे उस स्त्रीका व्रत भङ्ग कर देवताओंका काम किया। जब उस स्त्रीने यह भेद जाना, तब उसने क्रोध करके भगवान् को शाप दिया॥ १२३॥

मूल (चौपाई)

तासु श्राप हरि दीन्ह प्रमाना।
कौतुकनिधि कृपाल भगवाना॥
तहाँ जलंधर रावन भयऊ।
रन हति राम परम पद दयऊ॥

अनुवाद (हिन्दी)

लीलाओंके भण्डार कृपालु हरिने उस स्त्रीके शापको प्रामाण्य दिया (स्वीकार किया)। वही जलन्धर उस कल्पमें रावण हुआ, जिसे श्रीरामचन्द्रजीने युद्धमें मारकर परमपद दिया॥ १॥

मूल (चौपाई)

एक जनम कर कारन एहा।
जेहि लगि राम धरी नरदेहा॥
प्रति अवतार कथा प्रभु केरी।
सुनु मुनि बरनी कबिन्ह घनेरी॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक जन्मका कारण यह था, जिससे श्रीरामचन्द्रजीने मनुष्यदेह धारण किया। हे भरद्वाज मुनि! सुनो, प्रभुके प्रत्येक अवतारकी कथाका कवियोंने नाना प्रकारसे वर्णन किया है॥ २॥

मूल (चौपाई)

नारद श्राप दीन्ह एक बारा।
कलप एक तेहि लगि अवतारा॥
गिरिजा चकित भई सुनि बानी।
नारद बिष्नुभगत पुनि ग्यानी॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक बार नारदजीने शाप दिया, अतः एक कल्पमें उसके लिये अवतार हुआ। यह बात सुनकर पार्वतीजी बड़ी चकित हुईं (और बोलीं कि) नारदजी तो विष्णुभक्त और ज्ञानी हैं॥ ३॥

मूल (चौपाई)

कारन कवन श्राप मुनि दीन्हा।
का अपराध रमापति कीन्हा॥
यह प्रसंग मोहि कहहु पुरारी।
मुनि मन मोह आचरज भारी॥

अनुवाद (हिन्दी)

मुनिने भगवान् को शाप किस कारणसे दिया? लक्ष्मीपति भगवान् ने उनका क्या अपराध किया था? हे पुरारि (शङ्करजी)! यह कथा मुझसे कहिये। मुनि नारदके मनमें मोह होना बड़े आश्चर्यकी बात है॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

बोले बिहसि महेस तब ग्यानी मूढ़ न कोइ।
जेहि जस रघुपति करहिं जब सो तस तेहि छन होइ॥ १२४(क)॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब महादेवजीने हँसकर कहा—न कोई ज्ञानी है न मूर्ख। श्रीरघुनाथजी जब जिसको जैसा करते हैं, वह उसी क्षण वैसा ही हो जाता है॥ १२४(क)॥

सोरठा

मूल (दोहा)

कहउँ राम गुन गाथ भरद्वाज सादर सुनहु।
भव भंजन रघुनाथ भजु तुलसी तजि मान मद॥ १२४(ख)॥

अनुवाद (हिन्दी)

(याज्ञवल्क्यजी कहते हैं—) हे भरद्वाज! मैं श्रीरामचन्द्रजीके गुणोंकी कथा कहता हूँ, तुम आदरसे सुनो। तुलसीदासजी कहते हैं—मान और मदको छोड़कर आवागमनका नाश करनेवाले रघुनाथजीको भजो॥ १२४(ख)॥

मूल (चौपाई)

हिमगिरि गुहा एक अति पावनि।
बह समीप सुरसरी सुहावनि॥
आश्रम परम पुनीत सुहावा।
देखि देवरिषि मन अति भावा॥

अनुवाद (हिन्दी)

हिमालय पर्वतमें एक बड़ी पवित्र गुफा थी। उसके समीप ही सुन्दर गङ्गाजी बहती थीं। वह परम पवित्र सुन्दर आश्रम देखनेपर नारदजीके मनको बहुत ही सुहावना लगा॥ १॥

मूल (चौपाई)

निरखि सैल सरि बिपिन बिभागा।
भयउ रमापति पद अनुरागा॥
सुमिरत हरिहि श्राप गति बाधी।
सहज बिमल मन लागि समाधी॥

अनुवाद (हिन्दी)

पर्वत, नदी और वनके (सुन्दर) विभागोंको देखकर नारदजीका लक्ष्मीकान्त भगवान् के चरणोंमें प्रेम हो गया। भगवान् का स्मरण करते ही उन (नारद मुनि) के शापकी (जो शाप उन्हें दक्ष प्रजापतिने दिया था और जिसके कारण वे एक स्थानपर नहीं ठहर सकते थे) गति रुक गयी और मनके स्वाभाविक ही निर्मल होनेसे उनकी समाधि लग गयी॥ २॥

मूल (चौपाई)

मुनि गति देखि सुरेस डेराना।
कामहि बोलि कीन्ह सनमाना॥
सहित सहाय जाहु मम हेतू।
चलेउ हरषि हियँ जलचरकेतू॥

अनुवाद (हिन्दी)

नारद मुनिकी (यह तपोमयी) स्थिति देखकर देवराज इन्द्र डर गया। उसने कामदेवको बुलाकर उसका आदर-सत्कार किया (और कहा कि) मेरे (हितके) लिये तुम अपने सहायकोंसहित (नारदकी समाधि भङ्ग करनेको) जाओ। (यह सुनकर) मीनध्वज कामदेव मनमें प्रसन्न होकर चला॥ ३॥

मूल (चौपाई)

सुनासीर मन महुँ असि त्रासा।
चहत देवरिषि मम पुर बासा॥
जे कामी लोलुप जग माहीं।
कुटिल काक इव सबहि डेराहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन्द्रके मनमें यह डर हुआ कि देवर्षि नारद मेरी पुरी (अमरावती) का निवास(राज्य) चाहते हैं। जगत् में जो कामी और लोभी होते हैं, वे कुटिल कौएकी तरह सबसे डरते हैं॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

सूख हाड़ लै भाग सठ स्वान निरखि मृगराज।
छीनि लेइ जनि जान जड़ तिमि सुरपतिहि न लाज॥ १२५॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे मूर्ख कुत्ता सिंहको देखकर सूखी हड्डी लेकर भागे और वह मूर्ख यह समझे कि कहीं उस हड्डीको सिंह छीन न ले, वैसे ही इन्द्रको (नारदजी मेरा राज्य छीन लेंगे, ऐसा सोचते) लाज नहीं आयी॥ १२५॥

मूल (चौपाई)

तेहि आश्रमहिं मदन जब गयऊ।
निज मायाँ बसंत निरमयऊ॥
कुसुमित बिबिध बिटप बहुरंगा।
कूजहिं कोकिल गुंजहिं भृंगा॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब कामदेव उस आश्रममें गया, तब उसने अपनी मायासे वहाँ वसन्त-ऋतुको उत्पन्न किया। तरह-तरहके वृक्षोंपर रंग-बिरंगे फूल खिल गये, उनपर कोयलें कूकने लगीं और भौंरे गुंजार करने लगे॥ १॥

मूल (चौपाई)

चली सुहावनि त्रिबिध बयारी।
काम कृसानु बढ़ावनिहारी॥
रंभादिक सुरनारि नबीना।
सकल असमसर कला प्रबीना॥

अनुवाद (हिन्दी)

कामाग्निको भड़कानेवाली तीन प्रकारकी (शीतल, मन्द और सुगन्ध) सुहावनी हवा चलने लगी। रम्भा आदि नवयुवती देवाङ्गनाएँ, जो सब-की-सब कामकलामें निपुण थीं,॥ २॥

मूल (चौपाई)

करहिं गान बहु तान तरंगा।
बहुबिधि क्रीड़हिं पानि पतंगा॥
देखि सहाय मदन हरषाना।
कीन्हेसि पुनि प्रपंच बिधि नाना॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे बहुत प्रकारकी तानोंकी तरङ्गके साथ गाने लगीं और हाथमें गेंद लेकर नाना प्रकारके खेल खेलने लगीं। कामदेव अपने इन सहायकोंको देखकर बहुत प्रसन्न हुआ और फिर उसने नाना प्रकारके मायाजाल किये॥ ३॥

मूल (चौपाई)

काम कला कछु मुनिहि न ब्यापी।
निज भयँ डरेउ मनोभव पापी॥
सीम कि चाँपि सकइ कोउ तासू।
बड़ रखवार रमापति जासू॥

अनुवाद (हिन्दी)

परन्तु कामदेवकी कोई भी कला मुनिपर असर न कर सकी। तब तो पापी कामदेव अपने ही (नाशके) भयसे डर गया। लक्ष्मीपति भगवान् जिसके बड़े रक्षक हों, भला, उसकी सीमा (मर्यादा)को कोई दबा सकता है?॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

सहित सहाय सभीत अति मानि हारि मन मैन।
गहेसि जाइ मुनि चरन तब कहि सुठि आरत बैन॥ १२६॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब अपने सहायकोंसमेत कामदेवने बहुत डरकर और अपने मनमें हार मानकर बहुत ही आर्त (दीन) वचन कहते हुए मुनिके चरणोंको जा पकड़ा॥ १२६॥

मूल (चौपाई)

भयउ न नारद मन कछु रोषा।
कहि प्रिय बचन काम परितोषा॥
नाइ चरन सिरु आयसु पाई।
गयउ मदन तब सहित सहाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

नारदजीके मनमें कुछ भी क्रोध न आया। उन्होंने प्रिय वचन कहकर कामदेवका समाधान किया। तब मुनिके चरणोंमें सिर नवाकर और उनकी आज्ञा पाकर कामदेव अपने सहायकोंसहित लौट गया॥ १॥

मूल (चौपाई)

मुनि सुसीलता आपनि करनी।
सुरपति सभाँ जाइ सब बरनी॥
सुनि सब कें मन अचरजु आवा।
मुनिहि प्रसंसि हरिहि सिरु नावा॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवराज इन्द्रकी सभामें जाकर उसने मुनिकी सुशीलता और अपनी करतूत सब कही, जिसे सुनकर सबके मनमें आश्चर्य हुआ और उन्होंने मुनिकी बड़ाई करके श्रीहरिको सिर नवाया॥ २॥

मूल (चौपाई)

तब नारद गवने सिव पाहीं।
जिता काम अहमिति मन माहीं॥
मार चरित संकरहि सुनाए।
अतिप्रिय जानि महेस सिखाए॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब नारदजी शिवजीके पास गये। उनके मनमें इस बातका अहंकार हो गया कि हमने कामदेवको जीत लिया। उन्होंने कामदेवके चरित्र शिवजीको सुनाये और महादेवजीने उन (नारदजी) को अत्यन्त प्रिय जानकर (इस प्रकार) शिक्षा दी—॥ ३॥

मूल (चौपाई)

बार बार बिनवउँ मुनि तोही।
जिमि यह कथा सुनायहु मोही॥
तिमि जनि हरिहि सुनावहु कबहूँ।
चलेहुँ प्रसंग दुराएहु तबहूँ॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे मुनि! मैं तुमसे बार-बार विनती करता हूँ कि जिस तरह यह कथा तुमने मुझे सुनायी है, उस तरह भगवान् श्रीहरिको कभी मत सुनाना। चर्चा भी चले तब भी इसको छिपा जाना॥ ४॥

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