२१ श्रीरामजीका शिवजीसे विवाहके लिये अनुरोध

दोहा

मूल (दोहा)

अब बिनती मम सुनहु सिव जौं मो पर निज नेहु।
जाइ बिबाहहु सैलजहि यह मोहि मागें देहु॥ ७६॥

अनुवाद (हिन्दी)

(फिर उन्होंने शिवजीसे कहा—) हे शिवजी! यदि मुझपर आपका स्नेह है तो अब आप मेरी विनती सुनिये। मुझे यह माँगे दीजिये कि आप जाकर पार्वतीके साथ विवाह कर लें॥ ७६॥

मूल (चौपाई)

कह सिव जदपि उचित अस नाहीं।
नाथ बचन पुनि मेटि न जाहीं॥
सिर धरि आयसु करिअ तुम्हारा।
परम धरमु यह नाथ हमारा॥

अनुवाद (हिन्दी)

शिवजीने कहा—यद्यपि ऐसा उचित नहीं है, परन्तु स्वामीकी बात भी मेटी नहीं जा सकती। हे नाथ! मेरा यही परम धर्म है कि मैं आपकी आज्ञाको सिरपर रखकर उसका पालन करूँ॥ १॥

मूल (चौपाई)

मातु पिता गुर प्रभु कै बानी।
बिनहिं बिचार करिअ सुभ जानी॥
तुम्ह सब भाँति परम हितकारी।
अग्या सिर पर नाथ तुम्हारी॥

अनुवाद (हिन्दी)

माता, पिता, गुरु और स्वामीकी बातको बिना ही विचारे शुभ समझकर करना (मानना) चाहिये। फिर आप तो सब प्रकारसे मेरे परम हितकारी हैं। हे नाथ! आपकी आज्ञा मेरे सिरपर है॥ २॥

मूल (चौपाई)

प्रभु तोषेउ सुनि संकर बचना।
भक्ति बिबेक धर्म जुत रचना॥
कह प्रभु हर तुम्हार पन रहेऊ।
अब उर राखेहु जो हम कहेऊ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शिवजीकी भक्ति, ज्ञान और धर्मसे युक्त वचनरचना सुनकर प्रभु रामचन्द्रजी सन्तुष्ट हो गये। प्रभुने कहा—हे हर! आपकी प्रतिज्ञा पूरी हो गयी। अब हमने जो कहा है उसे हृदयमें रखना॥ ३॥

मूल (चौपाई)

अंतरधान भए अस भाषी।
संकर सोइ मूरति उर राखी॥
तबहिं सप्तरिषि सिव पहिं आए।
बोले प्रभु अति बचन सुहाए॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार कहकर श्रीरामचन्द्रजी अन्तर्धान हो गये। शिवजीने उनकी वह मूर्ति अपने हृदयमें रख ली। उसी समय सप्तर्षि शिवजीके पास आये। प्रभु महादेवजीने उनसे अत्यन्त सुहावने वचन कहे—॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

पारबती पहिं जाइ तुम्ह प्रेम परिच्छा लेहु।
गिरिहि प्रेरि पठएहु भवन दूरि करेहु संदेहु॥ ७७॥

अनुवाद (हिन्दी)

आपलोग पार्वतीके पास जाकर उनके प्रेमकी परीक्षा लीजिये और हिमाचलको कहकर (उन्हें पार्वतीको लिवा लानेके लिये भेजिये तथा) पार्वतीको घर भिजवाइये और उनके सन्देहको दूर कीजिये॥ ७७॥

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