१८ सतीका दक्ष-यज्ञमें जाना

दोहा

मूल (दोहा)

दच्छ लिए मुनि बोलि सब करन लगे बड़ जाग।
नेवते सादर सकल सुर जे पावत मख भाग॥ ६०॥

अनुवाद (हिन्दी)

दक्षने सब मुनियोंको बुला लिया और वे बड़ा यज्ञ करने लगे। जो देवता यज्ञका भाग पाते हैं, दक्षने उन सबको आदरसहित निमन्त्रित किया॥ ६०॥

मूल (चौपाई)

किंनर नाग सिद्ध गंधर्बा।
बधुन्ह समेत चले सुर सर्बा॥
बिष्नु बिरंचि महेसु बिहाई।
चले सकल सुर जान बनाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

(दक्षका निमन्त्रण पाकर) किन्नर, नाग, सिद्ध, गन्धर्व और सब देवता अपनी-अपनी स्त्रियोंसहित चले। विष्णु, ब्रह्मा और महादेवजीको छोड़कर सभी देवता अपना-अपना विमान सजाकर चले॥ १॥

मूल (चौपाई)

सतीं बिलोके ब्योम बिमाना।
जात चले सुंदर बिधि नाना॥
सुर सुंदरी करहिं कल गाना।
सुनत श्रवन छूटहिं मुनि ध्याना॥

अनुवाद (हिन्दी)

सतीजीने देखा अनेकों प्रकारके सुन्दर विमान आकाशमें चले जा रहे हैं। देव-सुन्दरियाँ मधुर गान कर रही हैं, जिन्हें सुनकर मुनियोंका ध्यान छूट जाता है॥ २॥

मूल (चौपाई)

पूछेउ तब सिवँ कहेउ बखानी।
पिता जग्य सुनि कछु हरषानी॥
जौं महेसु मोहि आयसु देहीं।
कछु दिन जाइ रहौं मिस एहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

सतीजीने (विमानोंमें देवताओंके जानेका कारण) पूछा, तब शिवजीने सब बातें बतलायीं। पिताके यज्ञकी बात सुनकर सती कुछ प्रसन्न हुईं और सोचने लगीं कि यदि महादेवजी मुझे आज्ञा दें, तो इसी बहाने कुछ दिन पिताके घर जाकर रहूँ॥ ३॥

मूल (चौपाई)

पति परित्याग हृदयँ दुखु भारी।
कहइ न निज अपराध बिचारी॥
बोली सती मनोहर बानी।
भय संकोच प्रेम रस सानी॥

अनुवाद (हिन्दी)

क्योंकि उनके हृदयमें पतिद्वारा त्यागी जानेका बड़ा भारी दुःख था, पर अपना अपराध समझकर वे कुछ कहती न थीं। आखर सतीजी भय, संकोच और प्रेमरसमें सनी हुई मनोहर वाणीसे बोलीं—॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

पिता भवन उत्सव परम जौं प्रभु आयसु होइ।
तौ मैं जाउँ कृपायतन सादर देखन सोइ॥ ६१॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे प्रभो! मेरे पिताके घर बहुत बड़ा उत्सव है। यदि आपकी आज्ञा हो तो हे कृपाधाम! मैं आदरसहित उसे देखने जाऊँ॥ ६१॥

मूल (चौपाई)

कहेहु नीक मोरेहुँ मन भावा।
यह अनुचित नहिं नेवत पठावा॥
दच्छ सकल निज सुता बोलाईं।
हमरें बयर तुम्हउ बिसराईं॥

अनुवाद (हिन्दी)

शिवजीने कहा—तुमने बात तो अच्छी कही, यह मेरे मनको भी पसंद आयी। पर उन्होंने न्योता नहीं भेजा, यह अनुचित है। दक्षने अपनी सब लड़कियोंको बुलाया है; किन्तु हमारे वैरके कारण उन्होंने तुमको भी भुला दिया॥ १॥

मूल (चौपाई)

ब्रह्मसभाँ हम सन दुखु माना।
तेहि तें अजहुँ करहिं अपमाना॥
जौं बिनु बोलें जाहु भवानी।
रहइ न सीलु सनेहु न कानी॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक बार ब्रह्माकी सभामें हमसे अप्रसन्न हो गये थे, उसीसे वे अब भी हमारा अपमान करते हैं। हे भवानी! जो तुम बिना बुलाये जाओगी तो न शील-स्नेह ही रहेगा और न मान-मर्यादा ही रहेगी॥ २॥

मूल (चौपाई)

जदपि मित्र प्रभु पितु गुर गेहा।
जाइअ बिनु बोलेहुँ न सँदेहा॥
तदपि बिरोध मान जहँ कोई।
तहाँ गएँ कल्यानु न होई॥

अनुवाद (हिन्दी)

यद्यपि इसमें सन्देह नहीं कि मित्र, स्वामी, पिता और गुरुके घर बिना बुलाये भी जाना चाहिये तो भी जहाँ कोई विरोध मानता हो, उसके घर जानेसे कल्याण नहीं होता॥ ३॥

मूल (चौपाई)

भाँति अनेक संभु समुझावा।
भावी बस न ग्यानु उर आवा॥
कह प्रभु जाहु जो बिनहिं बोलाएँ।
नहिं भलि बात हमारे भाएँ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शिवजीने बहुत प्रकारसे समझाया, पर होनहारवश सतीके हृदयमें बोध नहीं हुआ। फिर शिवजीने कहा कि यदि बिना बुलाये जाओगी, तो हमारी समझमें अच्छी बात न होगी॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

कहि देखा हर जतन बहु रहइ न दच्छकुमारि।
दिए मुख्य गन संग तब बिदा कीन्ह त्रिपुरारि॥ ६२॥

अनुवाद (हिन्दी)

शिवजीने बहुत प्रकारसे कहकर देख लिया, किन्तु जब सती किसी प्रकार भी नहीं रुकीं, तब त्रिपुरारि महादेवजीने अपने मुख्य गणोंको साथ देकर उनको विदा कर दिया॥ ६२॥

मूल (चौपाई)

पिता भवन जब गईं भवानी।
दच्छ त्रास काहुँ न सनमानी॥
सादर भलेहिं मिली एक माता।
भगिनीं मिलीं बहुत मुसुकाता॥

अनुवाद (हिन्दी)

भवानी जब पिता (दक्ष) के घर पहुँचीं, तब दक्षके डरके मारे किसीने उनकी आवभगत नहीं की, केवल एक माता भले ही आदरसे मिली। बहिनें बहुत मुसकराती हुई मिलीं॥ १॥

मूल (चौपाई)

दच्छ न कछु पूछी कुसलाता।
सतिहि बिलोकि जरे सब गाता॥
सतीं जाइ देखेउ तब जागा।
कतहुँ न दीख संभु कर भागा॥

अनुवाद (हिन्दी)

दक्षने तो उनकी कुछ कुशलतक नहीं पूछी, सतीजीको देखकर उलटे उनके सारे अङ्ग जल उठे। तब सतीने जाकर यज्ञ देखा तो वहाँ कहीं शिवजीका भाग दिखायी नहीं दिया॥ २॥

मूल (चौपाई)

तब चित चढ़ेउ जो संकर कहेऊ।
प्रभु अपमानु समुझि उर दहेऊ॥
पाछिल दुखु न हृदयँ अस ब्यापा।
जस यह भयउ महा परितापा॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब शिवजीने जो कहा था वह उनकी समझमें आया। स्वामीका अपमान समझकर सतीका हृदय जल उठा। पिछला (पतिपरित्यागका) दुःख उनके हृदयमें उतना नहीं व्यापा था, जितना महान् दुःख इस समय (पति-अपमानके कारण) हुआ॥ ३॥

मूल (चौपाई)

जद्यपि जग दारुन दुख नाना।
सब तें कठिन जाति अवमाना॥
समुझि सो सतिहि भयउ अति क्रोधा।
बहु बिधि जननीं कीन्ह प्रबोधा॥

अनुवाद (हिन्दी)

यद्यपि जगत् में अनेक प्रकारके दारुण दुःख हैं, तथापि जाति-अपमान सबसे बढ़कर कठिन है। यह समझकर सतीजीको बड़ा क्रोध हो आया। माताने उन्हें बहुत प्रकारसे समझाया-बुझाया॥ ४॥

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