१६ सतीका भ्रम, श्रीरामजीका ऐश्वर्य और सतीका खेद

मूल (चौपाई)

रामकथा ससि किरन समाना।
संत चकोर करहिं जेहि पाना॥
ऐसेइ संसय कीन्ह भवानी।
महादेव तब कहा बखानी॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामजीकी कथा चन्द्रमाकी किरणोंके समान है, जिसे संतरूपी चकोर सदा पान करते हैं। ऐसा ही सन्देह पार्वतीजीने किया था, तब महादेवजीने विस्तारसे उसका उत्तर दिया था॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

कहउँ सो मति अनुहारि अब उमा संभु संबाद।
भयउ समय जेहि हेतु जेहि सुनु मुनि मिटिहि बिषाद॥ ४७॥

अनुवाद (हिन्दी)

अब मैं अपनी बुद्धिके अनुसार वही उमा और शिवजीका संवाद कहता हूँ। वह जिस समय और जिस हेतुसे हुआ, उसे हे मुनि! तुम सुनो, तुम्हारा विषाद मिट जायगा॥ ४७॥

मूल (चौपाई)

एक बार त्रेता जुग माहीं।
संभु गए कुंभज रिषि पाहीं॥
संग सती जगजननि भवानी।
पूजे रिषि अखिलेस्वर जानी॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक बार त्रेतायुगमें शिवजी अगस्त्य ऋषिके पास गये। उनके साथ जगज्जननी भवानी सतीजी भी थीं। ऋषिने सम्पूर्ण जगत् के ईश्वर जानकर उनका पूजन किया॥ १॥

मूल (चौपाई)

रामकथा मुनिबर्ज बखानी।
सुनी महेस परम सुखु मानी॥
रिषि पूछी हरिभगति सुहाई।
कही संभु अधिकारी पाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

मुनिवर अगस्त्यजीने रामकथा विस्तारसे कही, जिसको महेश्वरने परम सुख मानकर सुना। फिर ऋषिने शिवजीसे सुन्दर हरिभक्ति पूछी और शिवजीने उनको अधिकारी पाकर (रहस्यसहित) भक्तिका निरूपण किया॥ २॥

मूल (चौपाई)

कहत सुनत रघुपति गुन गाथा।
कछु दिन तहाँ रहे गिरिनाथा॥
मुनि सन बिदा मागि त्रिपुरारी।
चले भवन सँग दच्छकुमारी॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरघुनाथजीके गुणोंकी कथाएँ कहते-सुनते कुछ दिनोंतक शिवजी वहाँ रहे। फिर मुनिसे विदा माँगकर शिवजी दक्षकुमारी सतीजीके साथ घर (कैलास) को चले॥ ३॥

मूल (चौपाई)

तेहि अवसर भंजन महि भारा।
हरि रघुबंस लीन्ह अवतारा॥
पिता बचन तजि राजु उदासी।
दंडक बन बिचरत अबिनासी॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्हीं दिनों पृथ्वीका भार उतारनेके लिये श्रीहरिने रघुवंशमें अवतार लिया था। वे अविनाशी भगवान् उस समय पिताके वचनसे राज्यका त्याग करके तपस्वी या साधुवेशमें दण्डकवनमें विचर रहे थे॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

हृदयँ बिचारत जात हर केहि बिधि दरसनु होइ।
गुप्त रूप अवतरेउ प्रभु गएँ जान सबु कोइ॥ ४८(क)॥

अनुवाद (हिन्दी)

शिवजी हृदयमें विचारते जा रहे थे कि भगवान् के दर्शन मुझे किस प्रकार हों। प्रभुने गुप्तरूपसे अवतार लिया है, मेरे जानेसे सब लोग जान जायँगे॥ ४८(क)॥

सोरठा

मूल (दोहा)

संकर उर अति छोभु सती न जानहिं मरमु सोइ।
तुलसी दरसन लोभु मन डरु लोचन लालची॥ ४८(ख)॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीशङ्करजीके हृदयमें इस बातको लेकर बड़ी खलबली उत्पन्न हो गयी, परन्तु सतीजी इस भेदको नहीं जानती थीं। तुलसीदासजी कहते हैं कि शिवजीके मनमें (भेद खुलनेका) डर था, परन्तु दर्शनके लोभसे उनके नेत्र ललचा रहे थे॥ ४८(ख)॥

मूल (चौपाई)

रावन मरन मनुज कर जाचा।
प्रभु बिधि बचनु कीन्ह चह साचा॥
जौं नहिं जाउँ रहइ पछितावा।
करत बिचारु न बनत बनावा॥

अनुवाद (हिन्दी)

रावणने (ब्रह्माजीसे) अपनी मृत्यु मनुष्यके हाथसे माँगी थी। ब्रह्माजीके वचनोंको प्रभु सत्य करना चाहते हैं। मैं जो पास नहीं जाता हूँ तो बड़ा पछतावा रह जायगा। इस प्रकार शिवजी विचार करते थे, परन्तु कोई भी युक्ति ठीक नहीं बैठती थी॥ १॥

मूल (चौपाई)

एहि बिधि भए सोचबस ईसा।
तेही समय जाइ दससीसा॥
लीन्ह नीच मारीचहि संगा।
भयउ तुरत सोइ कपट कुरंगा॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार महादेवजी चिन्ताके वश हो गये। उसी समय नीच रावणने जाकर मारीचको साथ लिया और वह (मारीच) तुरंत कपटमृग बन गया॥ २॥

मूल (चौपाई)

करि छलु मूढ़ हरी बैदेही।
प्रभु प्रभाउ तस बिदित न तेही॥
मृग बधि बंधु सहित हरि आए।
आश्रमु देखि नयन जल छाए॥

अनुवाद (हिन्दी)

मूर्ख (रावण) ने छल करके सीताजीको हर लिया। उसे श्रीरामचन्द्रजीके वास्तविक प्रभावका कुछ भी पता न था। मृगको मारकर भाई लक्ष्मणसहित श्रीहरि आश्रममें आये और उसे खाली देखकर (अर्थात् वहाँ सीताजीको न पाकर) उनके नेत्रोंमें आँसू भर आये॥ ३॥

मूल (चौपाई)

बिरह बिकल नर इव रघुराई।
खोजत बिपिन फिरत दोउ भाई॥
कबहूँ जोग बियोग न जाकें।
देखा प्रगट बिरह दुखु ताकें॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरघुनाथजी मनुष्योंकी भाँति विरहसे व्याकुल हैं और दोनों भाई वनमें सीताको खोजते हुए फिर रहे हैं। जिनके कभी कोई संयोग-वियोग नहीं है, उनमें प्रत्यक्ष विरहका दुःख देखा गया॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

अति बिचित्र रघुपति चरित जानहिं परम सुजान।
जे मतिमंद बिमोह बस हृदयँ धरहिं कछु आन॥ ४९॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरघुनाथजीका चरित्र बड़ा ही विचित्र है, उसको पहुँचे हुए ज्ञानीजन ही जानते हैं। जो मन्दबुद्धि हैं, वे तो विशेषरूपसे मोहके वश होकर हृदयमें कुछ दूसरी ही बात समझ बैठते हैं॥ ४९॥

मूल (चौपाई)

संभु समय तेहि रामहि देखा।
उपजा हियँ अति हरषु बिसेषा॥
भरि लोचन छबिसिंधु निहारी।
कुसमय जानि न कीन्हि चिन्हारी॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीशिवजीने उसी अवसरपर श्रीरामजीको देखा और उनके हृदयमें बहुत भारी आनन्द उत्पन्न हुआ। उन शोभाके समुद्र (श्रीरामचन्द्रजी) को शिवजीने नेत्र भरकर देखा, परन्तु अवसर ठीक न जानकर परिचय नहीं किया॥ १॥

मूल (चौपाई)

जय सच्चिदानंद जग पावन।
अस कहि चलेउ मनोज नसावन॥
चले जात सिव सती समेता।
पुनि पुनि पुलकत कृपानिकेता॥

अनुवाद (हिन्दी)

जगत् के पवित्र करनेवाले सच्चिदानन्दकी जय हो, इस प्रकार कहकर कामदेवका नाश करनेवाले श्रीशिवजी चल पड़े। कृपानिधान शिवजी बार-बार आनन्दसे पुलकित होते हुए सतीजीके साथ चले जा रहे थे॥ २॥

मूल (चौपाई)

सतीं सो दसा संभु कै देखी।
उर उपजा संदेहु बिसेषी॥
संकरु जगतबंद्य जगदीसा।
सुर नर मुनि सब नावत सीसा॥

अनुवाद (हिन्दी)

सतीजीने शङ्करजीकी वह दशा देखी तो उनके मनमें बड़ा सन्देह उत्पन्न हो गया। (वे मन-ही-मन कहने लगीं कि) शङ्करजीकी सारा जगत् वन्दना करता है, वे जगत् के ईश्वर हैं; देवता, मनुष्य, मुनि सब उनके प्रति सिर नवाते हैं॥ ३॥

मूल (चौपाई)

तिन्ह नृपसुतहि कीन्ह परनामा।
कहि सच्चिदानंद परधामा॥
भए मगन छबि तासु बिलोकी।
अजहुँ प्रीति उर रहति न रोकी॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने एक राजपुत्रको सच्चिदानन्द परमधाम कहकर प्रणाम किया और उसकी शोभा देखकर वे इतने प्रेममग्न हो गये कि अबतक उनके हृदयमें प्रीति रोकनेसे भी नहीं रुकती॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

ब्रह्म जो ब्यापक बिरज अज अकल अनीह अभेद।
सो कि देह धरि होइ नर जाहि न जानत बेद॥ ५०॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो ब्रह्म सर्वव्यापक, मायारहित, अजन्मा, अगोचर, इच्छारहित और भेदरहित है, और जिसे वेद भी नहीं जानते, क्या वह देह धारण करके मनुष्य हो सकता है?॥ ५०॥

मूल (चौपाई)

बिष्नु जो सुर हित नरतनु धारी।
सोउ सर्बग्य जथा त्रिपुरारी॥
खोजइ सो कि अग्य इव नारी।
ग्यानधाम श्रीपति असुरारी॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवताओंके हितके लिये मनुष्यशरीर धारण करनेवाले जो विष्णुभगवान् हैं, वे भी शिवजीकी ही भाँति सर्वज्ञ हैं। वे ज्ञानके भण्डार, लक्ष्मीपति और असुरोंके शत्रु भगवान् विष्णु क्या अज्ञानीकी तरह स्त्रीको खोजेंगे?॥ १॥

मूल (चौपाई)

संभुगिरा पुनि मृषा न होई।
सिव सर्बग्य जान सबु कोई॥
अस संसय मन भयउ अपारा।
होइ न हृदयँ प्रबोध प्रचारा॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर शिवजीके वचन भी झूठे नहीं हो सकते। सब कोई जानते हैं कि शिवजी सर्वज्ञ हैं। सतीके मनमें इस प्रकारका अपार सन्देह उठ खड़ा हुआ, किसी तरह भी उनके हृदयमें ज्ञानका प्रादुर्भाव नहीं होता था॥ २॥

मूल (चौपाई)

जद्यपि प्रगट न कहेउ भवानी।
हर अंतरजामी सब जानी॥
सुनहि सती तव नारि सुभाऊ।
संसय अस न धरिअ उर काऊ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यद्यपि भवानीजीने प्रकट कुछ नहीं कहा, पर अन्तर्यामी शिवजी सब जान गये। वे बोले—हे सती! सुनो, तुम्हारा स्त्रीस्वभाव है। ऐसा सन्देह मनमें कभी न रखना चाहिये॥ ३॥

मूल (चौपाई)

जासु कथा कुंभज रिषि गाई।
भगति जासु मैं मुनिहि सुनाई॥
सोइ मम इष्टदेव रघुबीरा।
सेवत जाहि सदा मुनि धीरा॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिनकी कथाका अगस्त्य ऋषिने गान किया और जिनकी भक्ति मैंने मुनिको सुनायी, ये वही मेरे इष्टदेव श्रीरघुवीरजी हैं, जिनकी सेवा ज्ञानी मुनि सदा किया करते हैं॥ ४॥

छंद

मूल (दोहा)

मुनि धीर जोगी सिद्ध संतत बिमल मन जेहि ध्यावहीं।
कहि नेति निगम पुरान आगम जासु कीरति गावहीं॥
सोइ रामु ब्यापक ब्रह्म भुवन निकाय पति माया धनी।
अवतरेउ अपने भगत हित निजतंत्र नित रघुकुलमनी॥

अनुवाद (हिन्दी)

ज्ञानी मुनि, योगी और सिद्ध निरन्तर निर्मल चित्तसे जिनका ध्यान करते हैं तथा वेद, पुराण और शास्त्र ‘नेति-नेति’ कहकर जिनकी कीर्ति गाते हैं, उन्हीं सर्वव्यापक, समस्त ब्रह्माण्डोंके स्वामी, मायापति, नित्य परम स्वतन्त्र ब्रह्मरूप भगवान् श्रीरामजीने अपने भक्तोंके हितके लिये (अपनी इच्छासे) रघुकुलके मणिरूपमें अवतार लिया है।

सोरठा

मूल (दोहा)

लाग न उर उपदेसु जदपि कहेउ सिवँ बार बहु।
बोले बिहसि महेसु हरिमाया बलु जानि जियँ॥ ५१॥

अनुवाद (हिन्दी)

यद्यपि शिवजीने बहुत बार समझाया, फिर भी सतीजीके हृदयमें उनका उपदेश नहीं बैठा। तब महादेवजी मनमें भगवान् की मायाका बल जानकर मुसकराते हुए बोले—॥ ५१॥

मूल (चौपाई)

जौं तुम्हरें मन अति संदेहू।
तौ किन जाइ परीछा लेहू॥
तब लगि बैठ अहउँ बटछाहीं।
जब लगि तुम्ह ऐहहु मोहि पाहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो तुम्हारे मनमें बहुत सन्देह है तो तुम जाकर परीक्षा क्यों नहीं लेती? जबतक तुम मेरे पास लौट आओगी तबतक मैं इसी बड़की छाँहमें बैठा हूँ॥ १॥

मूल (चौपाई)

जैसें जाइ मोह भ्रम भारी।
करेहु सो जतनु बिबेक बिचारी॥
चलीं सती सिव आयसु पाई।
करहिं बिचारु करौं का भाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिस प्रकार तुम्हारा यह अज्ञानजनित भारी भ्रम दूर हो, (भलीभाँति) विवेकके द्वारा सोच-समझकर तुम वही करना। शिवजीकी आज्ञा पाकर सती चलीं और मनमें सोचने लगीं कि भाई! क्या करूँ (कैसे परीक्षा लूँ)?॥ २॥

मूल (चौपाई)

इहाँ संभु अस मन अनुमाना।
दच्छसुता कहुँ नहिं कल्याना॥
मोरेहु कहें न संसय जाहीं।
बिधि बिपरीत भलाई नाहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

इधर शिवजीने मनमें ऐसा अनुमान किया कि दक्षकन्या सतीका कल्याण नहीं है। जब मेरे समझानेसे भी सन्देह दूर नहीं होता तब (मालूम होता है) विधाता ही उलटे हैं, अब सतीका कुशल नहीं है॥ ३॥

मूल (चौपाई)

होइहि सोइ जो राम रचि राखा।
को करि तर्क बढ़ावै साखा॥
अस कहि लगे जपन हरिनामा।
गईं सती जहँ प्रभु सुखधामा॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो कुछ रामने रच रखा है, वही होगा। तर्क करके कौन शाखा (विस्तार) बढ़ावे। (मनमें) ऐसा कहकर शिवजी भगवान् श्रीहरिका नाम जपने लगे और सतीजी वहाँ गयीं जहाँ सुखके धाम प्रभु श्रीरामचन्द्रजी थे॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

पुनि पुनि हृदयँ बिचारु करि धरि सीता कर रूप।
आगें होइ चलि पंथ तेहिं जेहिं आवत नरभूप॥ ५२॥

अनुवाद (हिन्दी)

सती बार-बार मनमें विचारकर सीताजीका रूप धारण करके उस मार्गकी ओर आगे होकर चलीं, जिससे (सतीजीके विचारानुसार) मनुष्योंके राजा रामचन्द्रजी आ रहे थे॥ ५२॥

मूल (चौपाई)

लछिमन दीख उमाकृत बेषा।
चकित भए भ्रम हृदयँ बिसेषा॥
कहि न सकत कछु अति गंभीरा।
प्रभु प्रभाउ जानत मतिधीरा॥

अनुवाद (हिन्दी)

सतीजीके बनावटी वेषको देखकर लक्ष्मणजी चकित हो गये और उनके हृदयमें बड़ा भ्रम हो गया। वे बहुत गम्भीर हो गये, कुछ कह नहीं सके। धीरबुद्धि लक्ष्मण प्रभु रघुनाथजीके प्रभावको जानते थे॥ १॥

मूल (चौपाई)

सती कपटु जानेउ सुरस्वामी।
सबदरसी सब अंतरजामी॥
सुमिरत जाहि मिटइ अग्याना।
सोइ सरबग्य रामु भगवाना॥

अनुवाद (हिन्दी)

सब कुछ देखनेवाले और सबके हृदयकी जाननेवाले देवताओंके स्वामी श्रीरामचन्द्रजी सतीके कपटको जान गये; जिनके स्मरणमात्रसे अज्ञानका नाश हो जाता है, वही सर्वज्ञ भगवान् श्रीरामचन्द्रजी हैं॥ २॥

मूल (चौपाई)

सती कीन्ह चह तहँहुँ दुराऊ।
देखहु नारि सुभाव प्रभाऊ॥
निज माया बलु हृदयँ बखानी।
बोले बिहसि रामु मृदु बानी॥

अनुवाद (हिन्दी)

स्त्रीस्वभावका असर तो देखो कि वहाँ (उन सर्वज्ञ भगवान् के सामने) भी सतीजी छिपाव करना चाहती हैं। अपनी मायाके बलको हृदयमें बखानकर, श्रीरामचन्द्रजी हँसकर कोमल वाणीसे बोले॥ ३॥

मूल (चौपाई)

जोरि पानि प्रभु कीन्ह प्रनामू।
पिता समेत लीन्ह निज नामू॥
कहेउ बहोरि कहाँ बृषकेतू।
बिपिन अकेलि फिरहु केहि हेतू॥

अनुवाद (हिन्दी)

पहले प्रभुने हाथ जोड़कर सतीको प्रणाम किया और पितासहित अपना नाम बताया। फिर कहा कि वृषकेतु शिवजी कहाँ हैं? आप यहाँ वनमें अकेली किसलिये फिर रही हैं?॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

राम बचन मृदु गूढ़ सुनि उपजा अति संकोचु।
सती सभीत महेस पहिं चलीं हृदयँ बड़ सोचु॥ ५३॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामचन्द्रजीके कोमल और रहस्यभरे वचन सुनकर सतीजीको बड़ा संकोच हुआ। वे डरती हुई (चुपचाप) शिवजीके पास चलीं, उनके हृदयमें बड़ी चिन्ता हो गयी—॥ ५३॥

मूल (चौपाई)

मैं संकर कर कहा न माना।
निज अग्यानु राम पर आना॥
जाइ उतरु अब देहउँ काहा।
उर उपजा अति दारुन दाहा॥

अनुवाद (हिन्दी)

—कि मैंने शङ्करजीका कहना न माना और अपने अज्ञानका श्रीरामचन्द्रजीपर आरोप किया। अब जाकर मैं शिवजीको क्या उत्तर दूँगी? (यों सोचते-सोचते) सतीजीके हृदयमें अत्यन्त भयानक जलन पैदा हो गयी॥ १॥

मूल (चौपाई)

जाना राम सतीं दुखु पावा।
निज प्रभाउ कछु प्रगटि जनावा॥
सतीं दीख कौतुकु मग जाता।
आगें रामु सहित श्री भ्राता॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामचन्द्रजीने जान लिया कि सतीजीको दुःख हुआ; तब उन्होंने अपना कुछ प्रभाव प्रकट करके उन्हें दिखलाया। सतीजीने मार्गमें जाते हुए यह कौतुक देखा कि श्रीरामचन्द्रजी सीताजी और लक्ष्मणजीसहित आगे चले जा रहे हैं। (इस अवसरपर सीताजीको इसलिये दिखाया कि सतीजी श्रीरामके सच्चिदानन्दमय रूपको देखें, वियोग और दुःखकी कल्पना जो उन्हें हुई थी वह दूर हो जाय तथा वे प्रकृतिस्थ हों)॥ २॥

मूल (चौपाई)

फिरि चितवा पाछें प्रभु देखा।
सहित बंधु सिय सुंदर बेषा॥
जहँ चितवहिं तहँ प्रभु आसीना।
सेवहिं सिद्ध मुनीस प्रबीना॥

अनुवाद (हिन्दी)

(तब उन्होंने) पीछेकी ओर फिरकर देखा, तो वहाँ भी भाई लक्ष्मणजी और सीताजीके साथ श्रीरामचन्द्रजी सुन्दर वेषमें दिखायी दिये। वे जिधर देखती हैं, उधर ही प्रभु श्रीरामचन्द्रजी विराजमान हैं और सुचतुर सिद्ध मुनीश्वर उनकी सेवा कर रहे हैं॥ ३॥

मूल (चौपाई)

देखे सिव बिधि बिष्नु अनेका।
अमित प्रभाउ एक तें एका॥
बंदत चरन करत प्रभु सेवा।
बिबिध बेष देखे सब देवा॥

अनुवाद (हिन्दी)

सतीजीने अनेक शिव, ब्रह्मा और विष्णु देखे, जो एक-से-एक बढ़कर असीम प्रभाववाले थे। (उन्होंने देखा कि) भाँति-भाँतिके वेष धारण किये सभी देवता श्रीरामचन्द्रजीकी चरणवन्दना और सेवा कर रहे हैं॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

सती बिधात्री इंदिरा देखीं अमित अनूप।
जेहिं जेहिं बेष अजादि सुर तेहि तेहि तन अनुरूप॥ ५४॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने अनगिनत अनुपम सती, ब्रह्माणी और लक्ष्मी देखीं। जिस-जिस रूपमें ब्रह्मा आदि देवता थे, उसीके अनुकूल रूपमें (उनकी) ये सब (शक्तियाँ) भी थीं॥ ५४॥

मूल (चौपाई)

देखे जहँ तहँ रघुपति जेते।
सक्तिन्ह सहित सकल सुर तेते॥
जीव चराचर जो संसारा।
देखे सकल अनेक प्रकारा॥

अनुवाद (हिन्दी)

सतीजीने जहाँ-तहाँ जितने रघुनाथजी देखे, शक्तियोंसहित वहाँ उतने ही सारे देवताओंको भी देखा। संसारमें जो चराचर जीव हैं, वे भी अनेक प्रकारसे सब देखे॥ १॥

मूल (चौपाई)

पूजहिं प्रभुहि देव बहु बेषा।
राम रूप दूसर नहिं देखा॥
अवलोके रघुपति बहुतेरे।
सीता सहित न बेष घनेरे॥

अनुवाद (हिन्दी)

(उन्होंने देखा कि) अनेकों वेष धारण करके देवता प्रभु श्रीरामचन्द्रजीकी पूजा कर रहे हैं। परन्तु श्रीरामचन्द्रजीका दूसरा रूप कहीं नहीं देखा। सीतासहित श्रीरघुनाथजी बहुत-से देखे, परन्तु उनके वेष अनेक नहीं थे॥ २॥

मूल (चौपाई)

सोइ रघुबर सोइ लछिमनु सीता।
देखि सती अति भईं सभीता॥
हृदय कंप तन सुधि कछु नाहीं।
नयन मूदि बैठीं मग माहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

(सब जगह) वही रघुनाथजी, वही लक्ष्मण और वही सीताजी—सती ऐसा देखकर बहुत ही डर गयीं। उनका हृदय काँपने लगा और देहकी सारी सुध-बुध जाती रही। वे आँख मूँदकर मार्गमें बैठ गयीं॥ ३॥

मूल (चौपाई)

बहुरि बिलोकेउ नयन उघारी।
कछु न दीख तहँ दच्छकुमारी॥
पुनि पुनि नाइ राम पद सीसा।
चलीं तहाँ जहँ रहे गिरीसा॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर आँख खोलकर देखा, तो वहाँ दक्षकुमारी (सतीजी) को कुछ भी न दीख पड़ा। तब वे बार-बार श्रीरामचन्द्रजीके चरणोंमें सिर नवाकर वहाँ चलीं जहाँ श्रीशिवजी थे॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

गईं समीप महेस तब हँसि पूछी कुसलात।
लीन्हि परीछा कवन बिधि कहहु सत्य सब बात॥ ५५॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब पास पहुँचीं, तब श्रीशिवजीने हँसकर कुशल-प्रश्न करके कहा कि तुमने रामजीकी किस प्रकार परीक्षा ली, सारी बात सच-सच कहो॥ ५५॥

भागसूचना

मासपारायण, दूसरा विश्राम

मूल (चौपाई)

सतीं समुझि रघुबीर प्रभाऊ।
भय बस सिव सन कीन्ह दुराऊ॥
कछु न परीछा लीन्हि गोसाईं।
कीन्ह प्रनामु तुम्हारिहि नाईं॥

अनुवाद (हिन्दी)

सतीजीने श्रीरघुनाथजीके प्रभावको समझकर डरके मारे शिवजीसे छिपाव किया और कहा—हे स्वामिन्! मैंने कुछ भी परीक्षा नहीं ली, (वहाँ जाकर) आपकी ही तरह प्रणाम किया॥ १॥

मूल (चौपाई)

जो तुम्ह कहा सो मृषा न होई।
मोरें मन प्रतीति अति सोई॥
तब संकर देखेउ धरि ध्याना।
सतीं जो कीन्ह चरित सबु जाना॥

अनुवाद (हिन्दी)

आपने जो कहा वह झूठ नहीं हो सकता, मेरे मनमें यह बड़ा (पूरा) विश्वास है। तब शिवजीने ध्यान करके देखा और सतीजीने जो चरित्र किया था, सब जान लिया॥ २॥

मूल (चौपाई)

बहुरि राममायहि सिरु नावा।
प्रेरि सतिहि जेहिं झूँठ कहावा॥
हरि इच्छा भावी बलवाना।
हृदयँ बिचारत संभु सुजाना॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर श्रीरामचन्द्रजीकी मायाको सिर नवाया, जिसने प्रेरणा करके सतीके मुँहसे भी झूठ कहला दिया। सुजान शिवजीने मनमें विचार किया कि हरिकी इच्छारूपी भावी प्रबल है॥ ३॥

मूल (चौपाई)

सतीं कीन्ह सीता कर बेषा।
सिव उर भयउ बिषाद बिसेषा॥
जौं अब करउँ सती सन प्रीती।
मिटइ भगति पथु होइ अनीती॥

अनुवाद (हिन्दी)

सतीजीने सीताजीका वेष धारण किया, यह जानकर शिवजीके हृदयमें बड़ा विषाद हुआ। उन्होंने सोचा कि यदि मैं अब सतीसे प्रीति करता हूँ तो भक्तिमार्ग लुप्त हो जाता है और बड़ा अन्याय होता है॥ ४॥

Misc Detail