१२ श्रीरामगुण और श्रीरामचरितकी महिमा

मूल (चौपाई)

मोरि सुधारिहि सो सब भाँती।
जासु कृपा नहिं कृपाँ अघाती॥
राम सुस्वामि कुसेवकु मोसो।
निज दिसि देखि दयानिधि पोसो॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे (श्रीरामजी) मेरी (बिगड़ी) सब तरहसे सुधार लेंगे; जिनकी कृपा कृपा करनेसे नहीं अघाती। राम-से उत्तम स्वामी और मुझ-सरीखा बुरा सेवक! इतनेपर भी उन दयानिधिने अपनी ओर देखकर मेरा पालन किया है॥ २॥

मूल (चौपाई)

लोकहुँ बेद सुसाहिब रीती।
बिनय सुनत पहिचानत प्रीती॥
गनी गरीब ग्राम नर नागर।
पंडित मूढ़ मलीन उजागर॥

अनुवाद (हिन्दी)

लोक और वेदमें भी अच्छे स्वामीकी यही रीति प्रसिद्ध है कि वह विनय सुनते ही प्रेमको पहचान लेता है। अमीर-गरीब, गँवार-नगरनिवासी, पण्डित-मूर्ख, बदनाम-यशस्वी,॥ ३॥

मूल (चौपाई)

सुकबि कुकबि निज मति अनुहारी।
नृपहि सराहत सब नर नारी॥
साधु सुजान सुसील नृपाला।
ईस अंस भव परम कृपाला॥

अनुवाद (हिन्दी)

सुकवि-कुकवि, सभी नर-नारी अपनी-अपनी बुद्धिके अनुसार राजाकी सराहना करते हैं। और साधु, बुद्धिमान्, सुशील, ईश्वरके अंशसे उत्पन्न कृपालु राजा—॥ ४॥

मूल (चौपाई)

सुनि सनमानहिं सबहि सुबानी।
भनिति भगति नति गति पहिचानी॥
यह प्राकृत महिपाल सुभाऊ।
जान सिरोमनि कोसलराऊ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सबकी सुनकर और उनकी वाणी, भक्ति, विनय और चालको पहचानकर सुन्दर (मीठी) वाणीसे सबका यथायोग्य सम्मान करते हैं। यह स्वभाव तो संसारी राजाओंका है, कोसलनाथ श्रीरामचन्द्रजी तो चतुरशिरोमणि हैं॥ ५॥

मूल (चौपाई)

रीझत राम सनेह निसोतें।
को जग मंद मलिनमति मोतें॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामजी तो विशुद्ध प्रेमसे ही रीझते हैं, पर जगत् में मुझसे बढ़कर मूर्ख और मलिनबुद्धि और कौन होगा?॥ ६॥

दोहा

मूल (दोहा)

सठ सेवक की प्रीति रुचि रखिहहिं राम कृपालु।
उपल किए जलजान जेहिं सचिव सुमति कपि भालु॥ २८(क)॥

अनुवाद (हिन्दी)

तथापि कृपालु श्रीरामचन्द्रजी मुझ दुष्ट सेवककी प्रीति और रुचिको अवश्य रखेंगे, जिन्होंने पत्थरोंको जहाज और बन्दर-भालुओंको बुद्धिमान् मन्त्री बना लिया॥ २८(क)॥

मूल (दोहा)

हौंहु कहावत सबु कहत राम सहत उपहास।
साहिब सीतानाथ सो सेवक तुलसीदास॥ २८(ख)॥

अनुवाद (हिन्दी)

सब लोग मुझे श्रीरामजीका सेवक कहते हैं और मैं भी (बिना लज्जा-संकोचके) कहलाता हूँ (कहनेवालोंका विरोध नहीं करता); कृपालु श्रीरामजी इस निन्दाको सहते हैं कि श्रीसीतानाथजी-जैसे स्वामीका तुलसीदास-सा सेवक है॥ २८(ख)॥

मूल (चौपाई)

अति बड़ि मोरि ढिठाई खोरी।
सुनि अघ नरकहुँ नाक सकोरी॥
समुझि सहम मोहि अपडर अपनें।
सो सुधि राम कीन्हि नहिं सपनें॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह मेरी बहुत बड़ी ढिठाई और दोष है, मेरे पापको सुनकर नरकने भी नाक सिकोड़ ली है (अर्थात् नरकमें भी मेरे लिये ठौर नहीं है)। यह समझकर मुझे अपने ही कल्पित डरसे डर हो रहा है, किंतु भगवान् श्रीरामचन्द्रजीने तो स्वप्नमें भी इसपर (मेरी इस ढिठाई और दोषपर) ध्यान नहीं दिया॥ १॥

मूल (चौपाई)

सुनि अवलोकि सुचित चख चाही।
भगति मोरि मति स्वामि सराही॥
कहत नसाइ होइ हियँ नीकी।
रीझत राम जानि जन जी की॥

अनुवाद (हिन्दी)

वरं मेरे प्रभु श्रीरामचन्द्रजीने तो इस बातको सुनकर, देखकर और अपने सुचित्तरूपी चक्षुसे निरीक्षण कर मेरी भक्ति और बुद्धिकी (उलटे) सराहना की। क्योंकि कहनेमें चाहे बिगड़ जाय (अर्थात् मैं चाहे अपनेको भगवान् का सेवक कहता-कहलाता रहूँ ), परंतु हृदयमें अच्छापन होना चाहिये। (हृदयमें तो अपनेको उनका सेवक बनने योग्य नहीं मानकर पापी और दीन ही मानता हूँ, यह अच्छापन है।) श्रीरामचन्द्रजी भी दासके हृदयकी (अच्छी) स्थिति जानकर रीझ जाते हैं॥ २॥

मूल (चौपाई)

रहति न प्रभु चित चूक किए की।
करत सुरति सय बार हिए की॥
जेहिं अघ बधेउ ब्याध जिमि बाली।
फिरि सुकंठ सोइ कीन्हि कुचाली॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभुके चित्तमें अपने भक्तोंकी की हुई भूल-चूक याद नहीं रहती (वे उसे भूल जाते हैं) और उनके हृदय (की अच्छाई—नीकी) को सौ-सौ बार याद करते रहते हैं। जिस पापके कारण उन्होंने बालिको व्याधकी तरह मारा था, वैसी ही कुचाल फिर सुग्रीवने चली॥ ३॥

मूल (चौपाई)

सोइ करतूति बिभीषन केरी।
सपनेहुँ सो न राम हियँ हेरी॥
ते भरतहि भेंटत सनमाने।
राजसभाँ रघुबीर बखाने॥

अनुवाद (हिन्दी)

वही करनी विभीषणकी थी, परन्तु श्रीरामचन्द्रजीने स्वप्नमें भी उसका मनमें विचार नहीं किया। उलटे भरतजीसे मिलनेके समय श्रीरघुनाथजीने उनका सम्मान किया और राजसभामें भी उनके गुणोंका बखान किया॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

प्रभु तरु तर कपि डार पर ते किए आपु समान।
तुलसी कहूँ न राम से साहिब सीलनिधान॥ २९(क)॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभु (श्रीरामचन्द्रजी) तो वृक्षके नीचे और बंदर डालीपर (अर्थात् कहाँ मर्यादापुरुषोत्तम सच्चिदानन्दघन परमात्मा श्रीरामजी और कहाँ पेड़ोंकी शाखाओंपर कूदनेवाले बंदर)। परन्तु ऐसे बंदरोंको भी उन्होंने अपने समान बना लिया। तुलसीदासजी कहते हैं कि श्रीरामचन्द्रजी-सरीखे शीलनिधान स्वामी कहीं भी नहीं हैं॥ २९(क)॥

मूल (दोहा)

राम निकाईं रावरी है सबही को नीक।
जौं यह साँची है सदा तौ नीको तुलसीक॥ २९(ख)॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे श्रीरामजी! आपकी अच्छाईसे सभीका भला है (अर्थात् आपका कल्याणमय स्वभाव सभीका कल्याण करनेवाला है)। यदि यह बात सच है तो तुलसीदासका भी सदा कल्याण ही होगा॥२९(ख)॥

मूल (दोहा)

एहि बिधि निज गुन दोष कहि सबहि बहुरि सिरु नाइ।
बरनउँ रघुबर बिसद जसु सुनि कलि कलुष नसाइ॥ २९(ग)॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार अपने गुण-दोषोंको कहकर और सबको फिर सिर नवाकर मैं श्रीरघुनाथजीका निर्मल यश वर्णन करता हूँ जिसके सुननेसे कलियुगके पाप नष्ट हो जाते हैं॥ २९(ग)॥

मूल (चौपाई)

जागबलिक जो कथा सुहाई।
भरद्वाज मुनिबरहि सुनाई॥
कहिहउँ सोइ संबाद बखानी।
सुनहुँ सकल सज्जन सुखु मानी॥

अनुवाद (हिन्दी)

मुुनि याज्ञवल्क्यजीने जो सुहावनी कथा मुनिश्रेष्ठ भरद्वाजजीको सुनायी थी, उसी संवादको मैं बखानकर कहूँगा; सब सज्जन सुखका अनुभव करते हुए उसे सुनें॥ १॥

मूल (चौपाई)

संभु कीन्ह यह चरित सुहावा।
बहुरि कृपा करि उमहि सुनावा॥
सोइ सिव कागभुसुंडिहि दीन्हा।
राम भगत अधिकारी चीन्हा॥

अनुवाद (हिन्दी)

शिवजीने पहले इस सुहावने चरित्रको रचा, फिर कृपा करके पार्वतीजीको सुनाया। वही चरित्र शिवजीने काकभुशुण्डिजीको रामभक्त और अधिकारी पहचानकर दिया॥ २॥

मूल (चौपाई)

तेहि सन जागबलिक पुनि पावा।
तिन्ह पुनि भरद्वाज प्रति गावा॥
ते श्रोता बकता समसीला।
सवँदरसी जानहिं हरिलीला॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन काकभुशुण्डिजीसे फिर याज्ञवल्क्यजीने पाया और उन्होंने फिर उसे भरद्वाजजीको गाकर सुनाया। वे दोनों वक्ता और श्रोता (याज्ञवल्क्य और भरद्वाज) समान शीलवाले और समदर्शी हैं और श्रीहरिकी लीलाको जानते हैं॥ ३॥

मूल (चौपाई)

जानहिं तीनि काल निज ग्याना।
करतल गत आमलक समाना॥
औरउ जे हरिभगत सुजाना।
कहहिं सुनहिं समुझहिं बिधि नाना॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे अपने ज्ञानसे तीनों कालोंकी बातोंको हथेलीपर रखे हुए आँवलेके समान (प्रत्यक्ष) जानते हैं। और भी जो सुजान (भगवान् की लीलाओंका रहस्य जाननेवाले) हरिभक्त हैं, वे इस चरित्रको नाना प्रकारसे कहते, सुनते और समझते हैं॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

मैं पुनि निज गुर सन सुनी कथा सो सूकरखेत।
समुझी नहिं तसि बालपन तब अति रहेउँ अचेत॥ ३०(क)॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर वही कथा मैंने वाराह-क्षेत्रमें अपने गुरुजीसे सुनी; परन्तु उस समय मैं लड़कपनके कारण बहुत बेसमझ था, इससे उसको उस प्रकार (अच्छी तरह) समझा नहीं॥ ३०(क)॥

मूल (दोहा)

श्रोता बकता ग्याननिधि कथा राम कै गूढ़।
किमि समुझौं मैं जीव जड़ कलि मल ग्रसित बिमूढ़॥ ३०(ख)॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामजीकी गूढ़ कथाके वक्ता (कहनेवाले) और श्रोता (सुननेवाले) दोनों ज्ञानके खजाने (पूरे ज्ञानी) होते हैं। मैं कलियुगके पापोंसे ग्रसा हुआ महामूढ़ जड़ जीव भला उसको कैसे समझ सकता था?॥ ३०(ख)॥

मूल (चौपाई)

तदपि कही गुर बारहिं बारा।
समुझि परी कछु मति अनुसारा॥
भाषाबद्ध करबि मैं सोई।
मोरें मन प्रबोध जेहिं होई॥

अनुवाद (हिन्दी)

तो भी गुरुजीने जब बार-बार कथा कही, तब बुद्धिके अनुसार कुछ समझमें आयी। वही अब मेरे द्वारा भाषामें रची जायगी, जिससे मेरे मनको सन्तोष हो॥ १॥

मूल (चौपाई)

जस कछु बुधि बिबेक बल मेरें।
तस कहिहउँ हियँ हरि के प्रेरें॥
निज संदेह मोह भ्रम हरनी।
करउँ कथा भव सरिता तरनी॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसा कुछ मुझमें बुद्धि और विवेकका बल है, मैं हृदयमें हरिकी प्रेरणासे उसीके अनुसार कहूँगा। मैं अपने सन्देह, अज्ञान और भ्रमको हरनेवाली कथा रचता हूँ, जो संसाररूपी नदीके पार करनेके लिये नाव है॥ २॥

मूल (चौपाई)

बुध बिश्राम सकल जन रंजनि।
रामकथा कलि कलुष बिभंजनि॥
रामकथा कलि पंनग भरनी।
पुनि बिबेक पावक कहुँ अरनी॥

अनुवाद (हिन्दी)

रामकथा पण्डितोंको विश्राम देनेवाली, सब मनुष्योंको प्रसन्न करनेवाली और कलियुगके पापोंका नाश करनेवाली है। रामकथा कलियुगरूपी साँपके लिये मोरनी है और विवेकरूपी अग्निके प्रकट करनेके लिये अरणि (मन्थन की जानेवाली लकड़ी) है, (अर्थात् इस कथासे ज्ञानकी प्राप्ति होती है)॥ ३॥

मूल (चौपाई)

रामकथा कलि कामद गाई ।
सुजन सजीवनि मूरि सुहाई॥
सोइ बसुधातल सुधा तरंगिनि।
भय भंजनि भ्रम भेक भुअंगिनि॥

अनुवाद (हिन्दी)

रामकथा कलियुगमें सब मनोरथोंको पूर्ण करनेवाली कामधेनु गौ है और सज्जनोंके लिये सुन्दर सञ्जीवनी जड़ी है। पृथ्वीपर यही अमृतकी नदी है, जन्म-मरणरूपी भयका नाश करनेवाली और भ्रमरूपी मेढकोंको खानेके लिये सर्पिणी है॥ ४॥

मूल (चौपाई)

असुर सेन सम नरक निकंदिनि।
साधु बिबुध कुल हित गिरिनंदिनि॥
संत समाज पयोधि रमा सी।
बिस्व भार भर अचल छमा सी॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह रामकथा असुरोंकी सेनाके समान नरकोंका नाश करनेवाली और साधुरूप देवताओंके कुलका हित करनेवाली पार्वती (दुर्गा) है। यह संत-समाजरूपी क्षीरसमुद्रके लिये लक्ष्मीजीके समान है और सम्पूर्ण विश्वका भार उठानेमें अचल पृथ्वीके समान है॥ ५॥

मूल (चौपाई)

जम गन मुहँ मसि जग जमुना सी।
जीवन मुकुति हेतु जनु कासी॥
रामहि प्रिय पावनि तुलसी सी।
तुलसिदास हित हियँ हुलसी सी॥

अनुवाद (हिन्दी)

यमदूतोंके मुखपर कालिख लगानेके लिये यह जगत् में यमुनाजीके समान है और जीवोंको मुक्ति देनेके लिये मानो काशी ही है। यह श्रीरामजीको पवित्र तुलसीके समान प्रिय है और तुलसीदासके लिये हुलसी (तुलसीदासजीकी माता) के समान हृदयसे हित करनेवाली है॥ ६॥

मूल (चौपाई)

सिवप्रिय मेकल सैल सुता सी।
सकल सिद्धि सुख संपति रासी॥
सदगुन सुरगन अंब अदिति सी।
रघुबर भगति प्रेम परमिति सी॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह रामकथा शिवजीको नर्मदाजीके समान प्यारी है, यह सब सिद्धियोंकी तथा सुख-सम्पत्तिकी राशि है। सद्गुणरूपी देवताओंके उत्पन्न और पालन-पोषण करनेके लिये माता अदितिके समान है। श्रीरघुनाथजीकी भक्ति और प्रेमकी परम सीमा-सी है॥ ७॥

दोहा

मूल (दोहा)

रामकथा मंदाकिनी चित्रकूट चित चारु।
तुलसी सुभग सनेह बन सिय रघुबीर बिहारु॥ ३१॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुलसीदासजी कहते हैं कि रामकथा मन्दाकिनी नदी है, सुन्दर (निर्मल) चित्त चित्रकूट है, और सुन्दर स्नेह ही वन है, जिसमें श्रीसीतारामजी विहार करते हैं॥ ३१॥

मूल (चौपाई)

रामचरित चिंतामनि चारू।
संत सुमति तिय सुभग सिंगारू॥
जग मंगल गुनग्राम राम के।
दानि मुकुति धन धरम धाम के॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामचन्द्रजीका चरित्र सुन्दर चिन्तामणि है और संतोंकी सुबुद्धिरूपी स्त्रीका सुन्दर शृङ्गार है। श्रीरामचन्द्रजीके गुणसमूह जगत् का कल्याण करनेवाले और मुक्ति, धन, धर्म और परमधामके देनेवाले हैं॥ १॥

मूल (चौपाई)

सदगुर ग्यान बिराग जोग के।
बिबुध बैद भव भीम रोग के॥
जननि जनक सिय राम प्रेम के।
बीज सकल ब्रत धरम नेम के॥

अनुवाद (हिन्दी)

ज्ञान, वैराग्य और योगके लिये सद्गुरु हैं और संसाररूपी भयंकर रोगका नाश करनेके लिये देवताओंके वैद्य (अश्विनीकुमार) के समान हैं। ये श्रीसीतारामजीके प्रेमके उत्पन्न करनेके लिये माता-पिता हैं और सम्पूर्ण व्रत, धर्म और नियमोंके बीज हैं॥ २॥

मूल (चौपाई)

समन पाप संताप सोक के।
प्रिय पालक परलोक लोक के॥
सचिव सुभट भूपति बिचार के।
कुंभज लोभ उदधि अपार के॥

अनुवाद (हिन्दी)

पाप, सन्ताप और शोकका नाश करनेवाले तथा इस लोक और परलोकके प्रिय पालन करनेवाले हैं। विचार (ज्ञान) रूपी राजाके शूरवीर मन्त्री और लोभरूपी अपार समुद्रके सोखनेके लिये अगस्त्य मुनि हैं॥ ३॥

मूल (चौपाई)

काम कोह कलिमल करिगन के।
केहरि सावक जन मन बन के॥
अतिथि पूज्य प्रियतम पुरारि के।
कामद घन दारिद दवारि के॥

अनुवाद (हिन्दी)

भक्तोंके मनरूपी वनमें बसनेवाले काम, क्रोध और कलियुगके पापरूपी हाथियोंके मारनेके लिये सिंहके बच्चे हैं। शिवजीके पूज्य और प्रियतम अतिथि हैं और दरिद्रतारूपी दावानलके बुझानेके लिये कामना पूर्ण करनेवाले मेघ हैं॥ ४॥

मूल (चौपाई)

मंत्र महामनि बिषय ब्याल के।
मेटत कठिन कुअंक भाल के॥
हरन मोह तम दिनकर कर से।
सेवक सालि पाल जलधर से॥

अनुवाद (हिन्दी)

विषयरूपी साँपका जहर उतारनेके लिये मन्त्र और महामणि हैं। ये ललाटपर लिखे हुए कठिनतासे मिटनेवाले बुरे लेखों (मन्द प्रारब्ध) को मिटा देनेवाले हैं। अज्ञानरूपी अन्धकारके हरण करनेके लिये सूर्यकिरणोंके समान और सेवकरूपी धानके पालन करनेमें मेघके समान हैं॥ ५॥

मूल (चौपाई)

अभिमत दानि देवतरु बर से।
सेवत सुलभ सुखद हरि हर से॥
सुकबि सरद नभ मन उडगन से।
रामभगत जन जीवन धन से॥

अनुवाद (हिन्दी)

मनोवाञ्छित वस्तु देनेमें श्रेष्ठ कल्पवृक्षके समान हैं और सेवा करनेमें हरि-हरके समान सुलभ और सुख देनेवाले हैं। सुकविरूपी शरद् ऋतुके मनरूपी आकाशको सुशोभित करनेके लिये तारागणके समान और श्रीरामजीके भक्तोंके तो जीवनधन ही हैं॥ ६॥

मूल (चौपाई)

सकल सुकृत फल भूरि भोग से।
जग हित निरुपधि साधु लोग से॥
सेवक मन मानस मराल से।
पावन गंग तरंग माल से॥

अनुवाद (हिन्दी)

सम्पूर्ण पुण्योंके फल महान् भोगोंके समान हैं। जगत् का छलरहित (यथार्थ) हित करनेमें साधु-संतोंके समान हैं। सेवकोंके मनरूपी मानसरोवरके लिये हंसके समान और पवित्र करनेमें गङ्गाजीकी तरङ्गमालाओंके समान हैं॥ ७॥

दोहा

मूल (दोहा)

कुपथ कुतरक कुचालि कलि कपट दंभ पाषंड।
दहन राम गुन ग्राम जिमि इंधन अनल प्रचंड॥ ३२(क)॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामजीके गुणोंके समूह कुमार्ग, कुतर्क, कुचाल और कलियुगके कपट, दम्भ और पाखण्डके जलानेके लिये वैसे ही हैं जैसे ईंधनके लिये प्रचण्ड अग्नि॥ ३२(क)॥

मूल (दोहा)

रामचरित राकेस कर सरिस सुखद सब काहु।
सज्जन कुमुद चकोर चित हित बिसेषि बड़ लाहु॥ ३२(ख)॥

अनुवाद (हिन्दी)

रामचरित्र पूर्णिमाके चन्द्रमाकी किरणोंके समान सभीको सुख देनेवाले हैं, परन्तु सज्जनरूपी कुमुदिनी और चकोरके चित्तके लिये तो विशेष हितकारी और महान् लाभदायक हैं॥ ३२(ख)॥

मूल (चौपाई)

कीन्हि प्रस्न जेहि भाँति भवानी।
जेहि बिधि संकर कहा बखानी॥
सो सब हेतु कहब मैं गाई।
कथा प्रबंध बिचित्र बनाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिस प्रकार श्रीपार्वतीजीने श्रीशिवजीसे प्रश्न किया और जिस प्रकारसे श्रीशिवजीने विस्तारसे उसका उत्तर कहा, वह सब कारण मैं विचित्र कथाकी रचना करके गाकर कहूँगा॥ १॥

मूल (चौपाई)

जेहिं यह कथा सुनी नहिं होई।
जनि आचरजु करै सुनि सोई॥
कथा अलौकिक सुनहिं जे ग्यानी।
नहिं आचरजु करहिं अस जानी॥
रामकथा कै मिति जग नाहीं।
असि प्रतीति तिन्ह के मन माहीं॥
नाना भाँति राम अवतारा।
रामायन सत कोटि अपारा॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसने यह कथा पहले न सुनी हो, वह इसे सुनकर आश्चर्य न करे। जो ज्ञानी इस विचित्र कथाको सुनते हैं, वे यह जानकर आश्चर्य नहीं करते कि संसारमें रामकथाकी कोई सीमा नहीं है (रामकथा अनन्त है)। उनके मनमें ऐसा विश्वास रहता है। नाना प्रकारसे श्रीरामचन्द्रजीके अवतार हुए हैं और सौ करोड़ तथा अपार रामायण हैं॥ २-३॥

मूल (चौपाई)

कलपभेद हरिचरित सुहाए।
भाँति अनेक मुनीसन्ह गाए॥
करिअ न संसय अस उर आनी।
सुनिअ कथा सादर रति मानी॥

अनुवाद (हिन्दी)

कल्पभेदके अनुसार श्रीहरिके सुन्दर चरित्रोंको मुनीश्वरोंने अनेकों प्रकारसे गाया है। हृदयमें ऐसा विचारकर संदेह न कीजिये और आदरसहित प्रेमसे इस कथाको सुनिये॥ ४॥

दोहा

मूल (दोहा)

राम अनंत अनंत गुन अमित कथा बिस्तार।
सुनि आचरजु न मानिहहिं जिन्ह कें बिमल बिचार॥ ३३॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामचन्द्रजी अनन्त हैं, उनके गुण भी अनन्त हैं और उनकी कथाओंका विस्तार भी असीम है। अतएव जिनके विचार निर्मल हैं, वे इस कथाको सुनकर आश्चर्य नहीं मानेंगे॥ ३३॥

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