१० श्रीसीताराम-धाम-परिकर-वन्दना

मूल (चौपाई)

बंदउँ अवध पुरी अति पावनि।
सरजू सरि कलि कलुष नसावनि॥
प्रनवउँ पुर नर नारि बहोरी।
ममता जिन्ह पर प्रभुहि न थोरी॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं अति पवित्र श्रीअयोध्यापुरी और कलियुगके पापोंका नाश करनेवाली श्रीसरयू नदीकी वन्दना करता हूँ। फिर अवधपुरीके उन नर-नारियोंको प्रणाम करता हूँ जिनपर प्रभु श्रीरामचन्द्रजीकी ममता थोड़ी नहीं है (अर्थात् बहुत है)॥ १॥

मूल (चौपाई)

सिय निंदक अघ ओघ नसाए।
लोक बिसोक बनाइ बसाए॥
बंदउँ कौसल्या दिसि प्राची।
कीरति जासु सकल जग माची॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने (अपनी पुरीमें रहनेवाले) सीताजीकी निन्दा करनेवाले (धोबी और उसके समर्थक पुर-नर-नारियों) के पापसमूहको नाश कर उनको शोकरहित बनाकर अपने लोक (धाम) में बसा दिया। मैं कौसल्यारूपी पूर्व दिशाकी वन्दना करता हूँ, जिसकी कीर्ति समस्त संसारमें फैल रही है॥ २॥

मूल (चौपाई)

प्रगटेउ जहँ रघुपति ससि चारू।
बिस्व सुखद खल कमल तुसारू॥
दसरथ राउ सहित सब रानी।
सुकृत सुमंगल मूरति मानी॥
करउँ प्रनाम करम मन बानी।
करहु कृपा सुत सेवक जानी॥
जिन्हहि बिरचि बड़ भयउ बिधाता।
महिमा अवधि राम पितु माता॥

अनुवाद (हिन्दी)

जहाँ (कौसल्यारूपी पूर्व दिशा) से विश्वको सुख देनेवाले और दुष्टरूपी कमलोंके लिये पालेके समान श्रीरामचन्द्रजीरूपी सुन्दर चन्द्रमा प्रकट हुए। सब रानियोंसहित राजा दशरथजीको पुण्य और सुन्दर कल्याणकी मूर्ति मानकर मैं मन, वचन और कर्मसे प्रणाम करता हूँ। अपने पुत्रका सेवक जानकर वे मुझपर कृपा करें, जिनको रचकर ब्रह्माजीने भी बड़ाई पायी तथा जो श्रीरामजीके माता और पिता होनेके कारण महिमाकी सीमा हैं॥ ३-४॥

सोरठा

मूल (दोहा)

बंदउँ अवध भुआल सत्य प्रेम जेहि राम पद।
बिछुरत दीनदयाल प्रिय तनु तृन इव परिहरेउ॥ १६॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं अवधके राजा श्रीदशरथजीकी वन्दना करता हूँ, जिनका श्रीरामजीके चरणोंमें सच्चा प्रेम था, जिन्होंने दीनदयालु प्रभुके बिछुड़ते ही अपने प्यारे शरीरको मामूली तिनकेकी तरह त्याग दिया॥ १६॥

मूल (चौपाई)

प्रनवउँ परिजन सहित बिदेहू।
जाहि राम पद गूढ़ सनेहू॥
जोग भोग महँ राखेउ गोई।
राम बिलोकत प्रगटेउ सोई॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं परिवारसहित राजा जनकजीको प्रणाम करता हूँ, जिनका श्रीरामजीके चरणोंमें गूढ़ प्रेम था, जिसको उन्होंने योग और भोगमें छिपा रखा था, परन्तु श्रीरामचन्द्रजीको देखते ही वह प्रकट हो गया॥ १॥

मूल (चौपाई)

प्रनवउँ प्रथम भरत के चरना।
जासु नेम ब्रत जाइ न बरना॥
राम चरन पंकज मन जासू।
लुबुध मधुप इव तजइ न पासू॥

अनुवाद (हिन्दी)

(भाइयोंमें) सबसे पहले मैं श्रीभरतजीके चरणोंको प्रणाम करता हूँ, जिनका नियम और व्रत वर्णन नहीं किया जा सकता तथा जिनका मन श्रीरामजीके चरणकमलोंमें भौंरेकी तरह लुभाया हुआ है, कभी उनका पास नहीं छोड़ता॥ २॥

मूल (चौपाई)

बंदउँ लछिमन पद जलजाता।
सीतल सुभग भगत सुखदाता॥
रघुपति कीरति बिमल पताका।
दंड समान भयउ जस जाका॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं श्रीलक्ष्मणजीके चरणकमलोंको प्रणाम करता हूँ, जो शीतल, सुन्दर और भक्तोंको सुख देनेवाले हैं। श्रीरघुनाथजीकी कीर्तिरूपी विमल पताकामें जिनका (लक्ष्मणजीका) यश (पताकाको ऊँचा करके फहरानेवाले) दंडके समान हुआ॥ ३॥

मूल (चौपाई)

सेष सहस्रसीस जग कारन।
जो अवतरेउ भूमि भय टारन॥
सदा सो सानुकूल रह मो पर।
कृपासिंधु सौमित्रि गुनाकर॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो हजार सिरवाले और जगत् के कारण (हजार सिरोंपर जगत् को धारण कर रखनेवाले) शेषजी हैं, जिन्होंने पृथ्वीका भय दूर करनेके लिये अवतार लिया, वे गुणोंकी खानि कृपासिन्धु सुमित्रानन्दन श्रीलक्ष्मणजी मुझपर सदा प्रसन्न रहें॥ ४॥

मूल (चौपाई)

रिपुसूदन पद कमल नमामी।
सूर सुसील भरत अनुगामी॥
महाबीर बिनवउँ हनुमाना।
राम जासु जस आप बखाना॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं श्रीशत्रुघ्नजीके चरणकमलोंको प्रणाम करता हूँ, जो बड़े वीर, सुशील और श्रीभरतजीके पीछे चलनेवाले हैं। मैं महावीर श्रीहनुमान् जी की विनती करता हूँ, जिनके यशका श्रीरामचन्द्रजीने स्वयं (अपने श्रीमुखसे) वर्णन किया है॥ ५॥

सोरठा

मूल (दोहा)

प्रनवउँ पवनकुमार खल बन पावक ग्यान घन।
जासु हृदय आगार बसहिं राम सर चाप धर॥ १७॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं पवनकुमार श्रीहनुमान् जी को प्रणाम करता हूँ, जो दुष्टरूपी वनको भस्म करनेके लिये अग्निरूप हैं, जो ज्ञानकी घनमूर्ति हैं और जिनके हृदयरूपी भवनमें धनुष-बाण धारण किये श्रीरामजी निवास करते हैं॥ १७॥

मूल (चौपाई)

कपिपति रीछ निसाचर राजा।
अंगदादि जे कीस समाजा॥
बंदउँ सब के चरन सुहाए।
अधम सरीर राम जिन्ह पाए॥

अनुवाद (हिन्दी)

वानरोंके राजा सुग्रीवजी, रीछोंके राजा जाम्बवान् जी, राक्षसोंके राजा विभीषणजी और अंगदजी आदि जितना वानरोंका समाज है, सबके सुन्दर चरणोंकी मैं वन्दना करता हूँ, जिन्होंने अधम (पशु और राक्षस आदि) शरीरमें भी श्रीरामचन्द्रजीको प्राप्त कर लिया॥ १॥

मूल (चौपाई)

रघुपति चरन उपासक जेते।
खग मृग सुर नर असुर समेते॥
बंदउँ पद सरोज सब केरे।
जे बिनु काम राम के चेरे॥

अनुवाद (हिन्दी)

पशु, पक्षी, देवता, मनुष्य, असुरसमेत जितने श्रीरामजीके चरणोंके उपासक हैं, मैं उन सबके चरणकमलोंकी वन्दना करता हूँ, जो श्रीरामजीके निष्काम सेवक हैं॥ २॥

मूल (चौपाई)

सुक सनकादि भगत मुनि नारद।
जे मुनिबर बिग्यान बिसारद॥
प्रनवउँ सबहि धरनि धरि सीसा।
करहु कृपा जन जानि मुनीसा॥

अनुवाद (हिन्दी)

शुकदेवजी, सनकादि, नारदमुनि आदि जितने भक्त और परम ज्ञानी श्रेष्ठ मुनि हैं, मैं धरतीपर सिर टेककर उन सबको प्रणाम करता हूँ; हे मुनीश्वरो! आप सब मुझको अपना दास जानकर कृपा कीजिये॥ ३॥

मूल (चौपाई)

जनकसुता जग जननि जानकी।
अतिसय प्रिय करुनानिधान की॥
ताके जुग पद कमल मनावउँ।
जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा जनककी पुत्री, जगत् की माता और करुणानिधान श्रीरामचन्द्रजीकी प्रियतमा श्रीजानकीजीके दोनों चरणकमलोंको मैं मनाता हूँ, जिनकी कृपासे निर्मल बुद्धि पाऊँ॥ ४॥

मूल (चौपाई)

पुनि मन बचन कर्म रघुनायक।
चरन कमल बंदउँ सब लायक॥
राजिवनयन धरें धनु सायक।
भगत बिपति भंजन सुखदायक॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर मैं मन, वचन और कर्मसे कमलनयन, धनुष-बाणधारी, भक्तोंकी विपत्तिका नाश करने और उन्हें सुख देनेवाले भगवान् श्रीरघुनाथजीके सर्वसमर्थ चरणकमलोंकी वन्दना करता हूँ॥ ५॥

दोहा

मूल (दोहा)

गिरा अरथ जल बीचि सम कहिअत भिन्न न भिन्न।
बंदउँ सीता राम पद जिन्हहि परम प्रिय खिन्न॥ १८॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो वाणी और उसके अर्थ तथा जल और जलकी लहरके समान कहनेमें अलग-अलग हैं, परन्तु वास्तवमें अभिन्न (एक) हैं, उन श्रीसीतारामजीके चरणोंकी मैं वन्दना करता हूँ, जिन्हें दीन-दुखी बहुत ही प्रिय हैं॥ १८॥

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