०८ कवि-वन्दना

मूल (चौपाई)

चरन कमल बंदउँ तिन्ह केरे।
पुरवहुँ सकल मनोरथ मेरे॥
कलि के कबिन्ह करउँ परनामा।
जिन्ह बरने रघुपति गुन ग्रामा॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं उन सब (श्रोष्ठ कवियों) के चरणकमलोंमें प्रणाम करता हूँ, वे मेरे सब मनोरथोंको पूरा करें। कलियुगके भी उन कवियोंको मैं प्रणाम करता हूँ, जिन्होंने श्रीरघुनाथजीके गुणसमूहोंका वर्णन किया है॥ २॥

मूल (चौपाई)

जे प्राकृत कबि परम सयाने।
भाषाँ जिन्ह हरि चरित बखाने॥
भए जे अहहिं जे होइहहिं आगें।
प्रनवउँ सबहि कपट सब त्यागें॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो बड़े बुद्धिमान् प्राकृत कवि हैं, जिन्होंने भाषामें हरिचरित्रोंका वर्णन किया है, जो ऐसे कवि पहले हो चुके हैं, जो इस समय वर्तमान हैं और जो आगे होंगे, उन सबको मैं सारा कपट त्याग-कर प्रणाम करता हूँ॥ ३॥

मूल (चौपाई)

होहु प्रसन्न देहु बरदानू।
साधु समाज भनिति सनमानू॥
जो प्रबंध बुध नहिं आदरहीं।
सो श्रम बादि बाल कबि करहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

आप सब प्रसन्न होकर यह वरदान दीजिये कि साधु-समाजमें मेरी कविताका सम्मान हो; क्योंकि बुद्धिमान् लोग जिस कविताका आदर नहीं करते, मूर्ख कवि ही उसकी रचनाका व्यर्थ परिश्रम करते हैं॥ ४॥

मूल (चौपाई)

कीरति भनिति भूति भलि सोई।
सुरसरि सम सब कहँ हित होई॥
राम सुकीरति भनिति भदेसा।
असमंजस अस मोहि अँदेसा॥

अनुवाद (हिन्दी)

कीर्ति, कविता और सम्पत्ति वही उत्तम है जो गङ्गाजीकी तरह सबका हित करनेवाली हो। श्रीरामचन्द्रजीकी कीर्ति तो बड़ी सुन्दर (सबका अनन्त कल्याण करनेवाली ही) है, परन्तु मेरी कविता भद्दी है। यह असामञ्जस्य है (अर्थात् इन दोनोंका मेल नहीं मिलता), इसीकी मुझे चिन्ता है॥ ५॥

मूल (चौपाई)

तुम्हरी कृपाँ सुलभ सोउ मोरे।
सिअनि सुहावनि टाट पटोरे॥

अनुवाद (हिन्दी)

परन्तु हे कवियो! आपकी कृपासे यह बात भी मेरे लिये सुलभ हो सकती है। रेशमकी सिलाई टाटपर भी सुहावनी लगती है॥ ६॥

दोहा

मूल (दोहा)

सरल कबित कीरति बिमल सोइ आदरहिं सुजान।
सहज बयर बिसराइ रिपु जो सुनि करहिं बखान॥ १४(क)॥

अनुवाद (हिन्दी)

चतुर पुरुष उसी कविताका आदर करते हैं, जो सरल हो और जिसमें निर्मल चरित्रका वर्णन हो तथा जिसे सुनकर शत्रु भी स्वाभाविक वैरको भूलकर सराहना करने लगें॥ १४(क)॥

मूल (दोहा)

सो न होइ बिनु बिमल मति मोहि मति बल अति थोर।
करहु कृपा हरि जस कहउँ पुनि पुनि करउँ निहोर॥ १४(ख)॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसी कविता बिना निर्मल बुद्धिके होती नहीं और मेरे बुद्धिका बल बहुत ही थोड़ा है। इसलिये बार-बार निहोरा करता हूँ कि हे कवियो! आप कृपा करें, जिससे मैं हरियशका वर्णन कर सकूँ॥ १४(ख)॥

मूल (दोहा)

कबि कोबिद रघुबर चरित मानस मंजु मराल।
बालबिनय सुनि सुरुचि लखि मो पर होहु कृपाल॥ १४ (ग)॥

अनुवाद (हिन्दी)

कवि और पण्डितगण! आप जो रामचरित्ररूपी मानसरोवरके सुन्दर हंस हैं, मुझ बालककी विनती सुनकर और सुन्दर रुचि देखकर मुझपर कृपा करें॥ १४(ग)॥

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