०७ तुलसीदासजीकी दीनता और रामभक्तिमयी कविताकी महिमा

मूल (चौपाई)

जानि कृपाकर किंकर मोहू।
सब मिलि करहु छाड़ि छल छोहू॥
निज बुधि बल भरोस मोहि नाहीं।
तातें बिनय करउँ सब पाहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

मुझको अपना दास जानकर कृपाकी खान आप सब लोग मिलकर छल छोड़कर कृपा कीजिये। मुझे अपने बुद्धि-बलका भरोसा नहीं है, इसीलिये मैं सबसे विनती करता हूँ॥ २॥

मूल (चौपाई)

करन चहउँ रघुपति गुन गाहा।
लघु मति मोरि चरित अवगाहा॥
सूझ न एकउ अंग उपाऊ।
मन मति रंक मनोरथ राऊ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं श्रीरघुनाथजीके गुणोंका वर्णन करना चाहता हूँ, परन्तु मेरी बुद्धि छोटी है और श्रीरामजीका चरित्र अथाह है। इसके लिये मुझे उपायका एक भी अंग अर्थात् कुछ (लेशमात्र) भी उपाय नहीं सूझता। मेरे मन और बुद्धि कंगाल हैं, किन्तु मनोरथ राजा है॥ ३॥

मूल (चौपाई)

मति अति नीच ऊँचि रुचि आछी।
चहिअ अमिअ जग जुरइ न छाछी॥
छमिहहिं सज्जन मोरि ढिठाई।
सुनिहहिं बालबचन मन लाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेरी बुद्धि तो अत्यन्त नीची है और चाह बड़ी ऊँची है; चाह तो अमृत पानेकी है, पर जगत् में जुड़ती छाछ भी नहीं। सज्जन मेरी ढिठाईको क्षमा करेंगे और मेरे बालवचनोंको मन लगाकर (प्रेमपूर्वक) सुनेंगे॥ ४॥

मूल (चौपाई)

जौं बालक कह तोतरि बाता।
सुनहिं मुदित मन पितु अरु माता॥
हँसिहहिं कूर कुटिल कुबिचारी।
जे पर दूषन भूषनधारी॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे बालक जब तोतले वचन बोलता है तो उसके माता-पिता उन्हें प्रसन्न मनसे सुनते हैं। किन्तु क्रूर, कुटिल और बुरे विचारवाले लोग जो दूसरोंके दोषोंको ही भूषणरूपसे धारण किये रहते हैं (अर्थात् जिन्हें पराये दोष ही प्यारे लगते हैं), हँसेंगे॥ ५॥

मूल (चौपाई)

निज कबित्त केहि लाग न नीका।
सरस होउ अथवा अति फीका॥
जे पर भनिति सुनत हरषाहीं।
ते बर पुरुष बहुत जग नाहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

रसीली हो या अत्यन्त फीकी, अपनी कविता किसे अच्छी नहीं लगती ? किन्तु जो दूसरेकी रचनाको सुनकर हर्षित होते हैं, ऐसे उत्तम पुरुष जगत् में बहुत नहीं हैं,॥ ६॥

मूल (चौपाई)

जग बहु नर सर सरि सम भाई।
जे निज बाढ़ि बढ़हिं जल पाई॥
सज्जन सकृत सिंधु सम कोई।
देखि पूर बिधु बाढ़इ जोई॥

अनुवाद (हिन्दी)

हे भाई! जगत् में तालाबों और नदियोंके समान मनुष्य ही अधिक हैं, जो जल पाकर अपनी ही बाढ़से बढ़ते हैं (अर्थात् अपनी ही उन्नतिसे प्रसन्न होते हैं)। समुद्र-सा तो कोई एक विरला ही सज्जन होता है जो चन्द्रमाको पूर्ण देखकर (दूसरोंका उत्कर्ष देखकर) उमड़ पड़ता है॥ ७॥

दोहा

मूल (दोहा)

भाग छोट अभिलाषु बड़ करउँ एक बिस्वास।
पैहहिं सुख सुनि सुजन सब खल करिहहिं उपहास॥ ८॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेरा भाग्य छोटा है और इच्छा बहुत बड़ी है, परन्तु मुझे एक विश्वास है कि इसे सुनकर सज्जन सभी सुख पावेंगे और दुष्ट हँसी उड़ावेंगे॥ ८॥

मूल (चौपाई)

खल परिहास होइ हित मोरा।
काक कहहिं कलकंठ कठोरा॥
हंसहि बक दादुर चातकही।
हँसहिं मलिन खल बिमल बतकही॥

अनुवाद (हिन्दी)

किन्तु दुष्टोंके हँसनेसे मेरा हित ही होगा। मधुर कण्ठवाली कोयलको कौए तो कठोर ही कहा करते हैं। जैसे बगुले हंसको और मेढक पपीहेको हँसते हैं, वैसे ही मलिन मनवाले दुष्ट निर्मल वाणीको हँसते हैं॥ १॥

मूल (चौपाई)

कबित रसिक न राम पद नेहू।
तिन्ह कहँ सुखद हास रस एहू॥
भाषा भनिति भोरि मति मोरी।
हँसिबे जोग हँसें नहिं खोरी॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो न तो कविताके रसिक हैं और न जिनका श्रीरामचन्द्रजीके चरणोंमें प्रेम है, उनके लिये भी यह कविता सुखद हास्यरसका काम देगी। प्रथम तो यह भाषाकी रचना है, दूसरे मेरी बुद्धि भोली है; इससे यह हँसनेके योग्य ही है, हँसनेमें उन्हें कोई दोष नहीं॥ २॥

मूल (चौपाई)

प्रभु पद प्रीति न सामुझि नीकी।
तिन्हहि कथा सुनि लागिहि फीकी॥
हरि हर पद रति मति न कुतरकी।
तिन्ह कहुँ मधुर कथा रघुबर की॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिन्हें न तो प्रभुके चरणोंमें प्रेम है और न अच्छी समझ ही है, उनको यह कथा सुननेमें फीकी लगेगी। जिनकी श्रीहरि (भगवान् विष्णु) और श्रीहर (भगवान् शिव) के चरणोंमें प्रीति है और जिनकी बुद्धि कुतर्क करनेवाली नहीं है (जो श्रीहरि-हरमें भेदकी या ऊँच-नीचकी कल्पना नहीं करते), उन्हें श्रीरघुनाथजीकी यह कथा मीठी लगेगी॥ ३॥

मूल (चौपाई)

राम भगति भूषित जियँ जानी।
सुनिहहिं सुजन सराहि सुबानी॥
कबि न होउँ नहिं बचन प्रबीनू।
सकल कला सब बिद्या हीनू॥

अनुवाद (हिन्दी)

सज्जनगण इस कथाको अपने जीमें श्रीरामजीकी भक्तिसे भूषित जानकर सुन्दर वाणीसे सराहना करते हुए सुनेंगे। मैं न तो कवि हूँ, न वाक्यरचनामें ही कुशल हूँ, मैं तो सब कलाओं तथा सब विद्याओंसे रहित हूँ॥ ४॥

मूल (चौपाई)

आखर अरथ अलंकृति नाना।
छंद प्रबंध अनेक बिधाना॥
भाव भेद रस भेद अपारा।
कबित दोष गुन बिबिध प्रकारा॥

अनुवाद (हिन्दी)

नाना प्रकारके अक्षर, अर्थ और अलङ्कार, अनेक प्रकारकी छन्दरचना, भावों और रसोंके अपार भेद और कविताके भाँति-भाँतिके गुण-दोष होते हैं॥ ५॥

मूल (चौपाई)

कबित बिबेक एक नहिं मोरें।
सत्य कहउँ लिखि कागद कोरें॥

अनुवाद (हिन्दी)

इनमेंसे काव्यसम्बन्धी एक भी बातका ज्ञान मुझमें नहीं है, यह मैं कोरे कागजपर लिखकर (शपथपूर्वक) सत्य-सत्य कहता हूँ॥ ६॥

दोहा

मूल (दोहा)

भनिति मोरि सब गुन रहित बिस्व बिदित गुन एक।
सो बिचारि सुनिहहिं सुमति जिन्ह कें बिमल बिबेक॥ ९॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेरी रचना सब गुणोंसे रहित है; इसमें बस, जगत्प्रसिद्ध एक गुण है। उसे विचारकर अच्छी बुद्धिवाले पुरुष, जिनके निर्मल ज्ञान है, इसको सुनेंगे॥ ९॥

मूल (चौपाई)

एहि महँ रघुपति नाम उदारा।
अति पावन पुरान श्रुति सारा॥
मंगल भवन अमंगल हारी।
उमा सहित जेहि जपत पुरारी॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसमें श्रीरघुनाथजीका उदार नाम है, जो अत्यन्त पवित्र है, वेद-पुराणोंका सार है, कल्याणका भवन है और अमङ्गलोंको हरनेवाला है, जिसे पार्वतीजीसहित भगवान् शिवजी सदा जपा करते हैं॥ १॥

मूल (चौपाई)

भनिति बिचित्र सुकबि कृत जोऊ।
राम नाम बिनु सोह न सोऊ॥
बिधुबदनी सब भाँति सँवारी।
सोह न बसन बिना बर नारी॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो अच्छे कविके द्वारा रची हुई बड़ी अनूठी कविता है, वह भी रामनामके बिना शोभा नहीं पाती। जैसे चन्द्रमाके समान मुखवाली सुन्दर स्त्री सब प्रकारसे सुसज्जित होनेपर भी वस्त्रके बिना शोभा नहीं देती॥ २॥

मूल (चौपाई)

सब गुन रहित कुकबि कृत बानी।
राम नाम जस अंकित जानी॥
सादर कहहिं सुनहिं बुध ताही।
मधुकर सरिस संत गुनग्राही॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके विपरीत, कुकविकी रची हुई सब गुणोंसे रहित कविताको भी, रामके नाम एवं यशसे अंकित जानकर, बुद्धिमान् लोग आदरपूर्वक कहते और सुनते हैं; क्योंकि संतजन भौंरेकी भाँति गुणहीको ग्रहण करनेवाले होते हैं॥ ३॥

मूल (चौपाई)

जदपि कबित रस एकउ नाहीं।
राम प्रताप प्रगट एहि माहीं॥
सोइ भरोस मोरें मन आवा।
केहिं न सुसंग बड़प्पनु पावा॥

अनुवाद (हिन्दी)

यद्यपि मेरी इस रचनामें कविताका एक भी रस नहीं है, तथापि इसमें श्रीरामजीका प्रताप प्रकट है। मेरे मनमें यही एक भरोसा है। भले संगसे भला, किसने बड़प्पन नहीं पाया?॥ ४॥

मूल (चौपाई)

धूमउ तजइ सहज करुआई।
अगरु प्रसंग सुगंध बसाई॥
भनिति भदेस बस्तु भलि बरनी।
राम कथा जग मंगल करनी॥

अनुवाद (हिन्दी)

धुआँ भी अगरके संगसे सुगन्धित होकर अपने स्वाभाविक कड़ुवेपनको छोड़ देता है। मेरी कविता अवश्य भद्दी है, परन्तु इसमें जगत् का कल्याण करनेवाली रामकथारूपी उत्तम वस्तुका वर्णन किया गया है। (इससे यह भी अच्छी ही समझी जायगी)॥ ५॥

छंद

मूल (दोहा)

मंगल करनि कलि मल हरनि कलि तुलसी कथा रघुनाथ की।
गति कूर कबिता सरित की ज्यों सरित पावन पाथ की॥
प्रभु सुजस संगति भनिति भलि होइहि सुजन मन भावनी।
भव अंग भूति मसान की सुमिरत सुहावनि पावनी॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुलसीदासजी कहते हैं कि श्रीरघुनाथजीकी कथा कल्याण करनेवाली और कलियुगके पापोंको हरनेवाली है। मेरी इस भद्दी कवितारूपी नदीकी चाल पवित्र जलवाली नदी (गङ्गाजी) की चालकी भाँति टेढ़ी है। प्रभु श्रीरघुनाथजीके सुन्दर यशके संगसे यह कविता सुन्दर तथा सज्जनोंके मनको भानेवाली हो जायगी। श्मशानकी अपवित्र राख भी श्रीमहादेवजीके अंगके संगसे सुहावनी लगती है और स्मरण करते ही पवित्र करनेवाली होती है।

दोहा

मूल (दोहा)

प्रिय लागिहि अति सबहि मम भनिति राम जस संग।
दारु बिचारु कि करइ कोउ बंदिअ मलय प्रसंग॥ १०(क)॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्रीरामजीके यशके संगसे मेरी कविता सभीको अत्यन्त प्रिय लगेगी, जैसे मलय पर्वतके संगसे काष्ठमात्र (चन्दन बनकर) वन्दनीय हो जाता है, फिर क्या कोई काठ (की तुच्छता) का विचार करता है?॥ १०(क)॥

मूल (दोहा)

स्याम सुरभि पय बिसद अति गुनद करहिं सब पान।
गिरा ग्राम्य सिय राम जस गावहिं सुनहिं सुजान॥ १०(ख)॥

अनुवाद (हिन्दी)

श्यामा गौ काली होनेपर भी उसका दूध उज्ज्वल और बहुत गुणकारी होता है। यही समझकर सब लोग उसे पीते हैं। इसी तरह गँवारू भाषामें होनेपर भी श्रीसीता-रामजीके यशको बुद्धिमान् लोग बड़े चावसे गाते और सुनते हैं॥ १०(ख)॥

मूल (चौपाई)

मनि मानिक मुकुता छबि जैसी।
अहि गिरि गज सिर सोह न तैसी॥
नृप किरीट तरुनी तनु पाई।
लहहिं सकल सोभा अधिकाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

मणि, माणिक और मोतीकी जैसी सुन्दर छबि है, वह साँप, पर्वत और हाथीके मस्तकपर वैसी शोभा नहीं पाती। राजाके मुकुट और नवयुवती स्त्रीके शरीरको पाकर ही ये सब अधिक शोभाको प्राप्त होते हैं॥ १॥

मूल (चौपाई)

तैसेहिं सुकबि कबित बुध कहहीं।
उपजहिं अनत अनत छबि लहहीं॥
भगति हेतु बिधि भवन बिहाई।
सुमिरत सारद आवति धाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी तरह, बुद्धिमान् लोग कहते हैं कि सुकविकी कविता भी उत्पन्न और कहीं होती है और शोभा अन्यत्र कहीं पाती है (अर्थात् कविकी वाणीसे उत्पन्न हुई कविता वहाँ शोभा पाती है जहाँ उसका विचार, प्रचार तथा उसमें कथित आदर्शका ग्रहण और अनुसरण होता है)। कविके स्मरण करते ही उसकी भक्तिके कारण सरस्वतीजी ब्रह्मलोकको छोड़कर दौड़ी आती हैं॥ २॥

मूल (चौपाई)

राम चरित सर बिनु अन्हवाएँ।
सो श्रम जाइ न कोटि उपाएँ॥
कबि कोबिद अस हृदयँ बिचारी।
गावहिं हरि जस कलि मल हारी॥

अनुवाद (हिन्दी)

सरस्वतीजीकी दौड़ी आनेकी वह थकावट रामचरितरूपी सरोवरमें उन्हें नहलाये बिना दूसरे करोड़ों उपायोंसे भी दूर नहीं होती। कवि और पण्डित अपने हृदयमें ऐसा विचारकर कलियुगके पापोंको हरनेवाले श्रीहरिके यशका ही गान करते हैं॥ ३॥

मूल (चौपाई)

कीन्हें प्राकृत जन गुन गाना।
सिर धुनि गिरा लगत पछिताना॥
हृदय सिंधु मति सीप समाना।
स्वाति सारदा कहहिं सुजाना॥

अनुवाद (हिन्दी)

संसारी मनुष्योंका गुणगान करनेसे सरस्वतीजी सिर धुनकर पछताने लगती हैं (कि मैं क्यों इसके बुलानेपर आयी)। बुद्धिमान् लोग हृदयको समुद्र, बुद्धिको सीप और सरस्वतीको स्वाति नक्षत्रके समान कहते हैं॥ ४॥

मूल (चौपाई)

जौं बरषइ बर बारि बिचारू।
होहिं कबित मुकुतामनि चारू॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसमें यदि श्रेष्ठ विचाररूपी जल बरसता है तो मुक्तामणिके समान सुन्दर कविता होती है॥ ५॥

दोहा

मूल (दोहा)

जुगुति बेधि पुनि पोहिअहिं रामचरित बर ताग।
पहिरहिं सज्जन बिमल उर सोभा अति अनुराग॥ ११॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन कवितारूपी मुक्तामणियोंको युक्तिसे बेधकर फिर रामचरित्ररूपी सुन्दर तागेमें पिरोकर सज्जन लोग अपने निर्मल हृदयमें धारण करते हैं, जिससे अत्यन्त अनुरागरूपी शोभा होती है (वे आत्यन्तिक प्रेमको प्राप्त होते हैं)॥ ११॥

मूल (चौपाई)

जे जनमे कलिकाल कराला।
करतब बायस बेष मराला॥
चलत कुपंथ बेद मग छाँड़े।
कपट कलेवर कलि मल भाँड़े॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो कराल कलियुगमें जन्मे हैं, जिनकी करनी कौएके समान है और वेष हंसका-सा है, जो वेदमार्गको छोड़कर कुमार्गपर चलते हैं, जो कपटकी मूर्ति और कलियुगके पापोंके भाँड़े हैं॥ १॥

मूल (चौपाई)

बंचक भगत कहाइ राम के।
किंकर कंचन कोह काम के॥
तिन्ह महँ प्रथम रेख जग मोरी।
धींग धरमध्वज धंधक धोरी॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो श्रीरामजीके भक्त कहलाकर लोगोंको ठगते हैं, जो धन (लोभ), क्रोध और कामके गुलाम हैं और जो धींगाधींगी करनेवाले, धर्मध्वजी (धर्मकी झूठी ध्वजा फहरानेवाले—दम्भी) और कपटके धन्धोंका बोझ ढोनेवाले हैं, संसारके ऐसे लोगोंमें सबसे पहले मेरी गिनती है॥ २॥

मूल (चौपाई)

जौं अपने अवगुन सब कहऊँ।
बाढ़इ कथा पार नहिं लहऊँ॥
ताते मैं अति अलप बखाने।
थोरे महुँ जानिहहिं सयाने॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि मैं अपने सब अवगुणोंको कहने लगूँ तो कथा बहुत बढ़ जायगी और मैं पार नहीं पाऊँगा। इससे मैंने बहुत कम अवगुणोंका वर्णन किया है। बुद्धिमान् लोग थोड़ेहीमें समझ लेंगे॥ ३॥

मूल (चौपाई)

समुझि बिबिधि बिधि बिनती मोरी।
कोउ न कथा सुनि देइहि खोरी॥
एतेहु पर करिहहिं जे असंका।
मोहि ते अधिक ते जड़ मति रंका॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेरी अनेकों प्रकारकी विनतीको समझकर, कोई भी इस कथाको सुनकर दोष नहीं देगा। इतनेपर भी जो शंका करेंगे, वे तो मुझसे भी अधिक मूर्ख और बुद्धिके कंगाल हैं॥ ४॥

मूल (चौपाई)

कबि न होउँ नहिं चतुर कहावउँ।
मति अनुरूप राम गुन गावउँ॥
कहँ रघुपति के चरित अपारा।
कहँ मति मोरि निरत संसारा॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं न तो कवि हूँ, न चतुर कहलाता हूँ; अपनी बुद्धिके अनुसार श्रीरामजीके गुण गाता हूँ। कहाँ तो श्रीरघुनाथजीके अपार चरित्र, कहाँ संसारमें आसक्त मेरी बुद्धि!॥ ५॥

मूल (चौपाई)

जेहिं मारुत गिरि मेरु उड़ाहीं।
कहहु तूल केहि लेखे माहीं॥
समुझत अमित राम प्रभुताई।
करत कथा मन अति कदराई॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिस हवासे सुमेरु-जैसे पहाड़ उड़ जाते हैं, कहिये तो, उसके सामने रूई किस गिनतीमें है। श्रीरामजीकी असीम प्रभुताको समझकर कथा रचनेमें मेरा मन बहुत हिचकता है—॥ ६॥

दोहा

मूल (दोहा)

सारद सेस महेस बिधि आगम निगम पुरान।
नेति नेति कहि जासु गुन करहिं निरंतर गान॥१२॥

अनुवाद (हिन्दी)

सरस्वतीजी, शेषजी, शिवजी, ब्रह्माजी, शास्त्र, वेद और पुराण—ये सब ‘नेति-नेति’ कहकर (पार नहीं पाकर ‘ऐसा नहीं’, ‘ऐसा नहीं’ कहते हुए) सदा जिनका गुणगान किया करते हैं॥ १२॥

मूल (चौपाई)

सब जानत प्रभु प्रभुता सोई।
तदपि कहें बिनु रहा न कोई॥
तहाँ बेद अस कारन राखा।
भजन प्रभाउ भाँति बहु भाषा॥

अनुवाद (हिन्दी)

यद्यपि प्रभु श्रीरामचन्द्रजीकी प्रभुताको सब ऐसी (अकथनीय) ही जानते हैं तथापि कहे बिना कोई नहीं रहा। इसमें वेदने ऐसा कारण बताया है कि भजनका प्रभाव बहुत तरहसे कहा गया है। (अर्थात् भगवान् की महिमाका पूरा वर्णन तो कोई कर नहीं सकता; परन्तु जिससे जितना बन पड़े उतना भगवान् का गुणगान करना चाहिये। क्योंकि भगवान् के गुणगानरूपी भजनका प्रभाव बहुत ही अनोखा है, उसका नाना प्रकारसे शास्त्रोंमें वर्णन है। थोड़ा-सा भी भगवान् का भजन मनुष्यको सहज ही भवसागरसे तार देता है)॥ १॥

मूल (चौपाई)

एक अनीह अरूप अनामा।
अज सच्चिदानंद पर धामा॥
ब्यापक बिस्वरूप भगवाना।
तेहिं धरि देह चरित कृत नाना॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो परमेश्वर एक हैं, जिनके कोई इच्छा नहीं है, जिनका कोई रूप और नाम नहीं है, जो अजन्मा, सच्चिदानन्द और परमधाम हैं और जो सबमें व्यापक एवं विश्वरूप हैं, उन्हीं भगवान् ने दिव्य शरीर धारण करके नाना प्रकारकी लीला की है॥ २॥

मूल (चौपाई)

सो केवल भगतन हित लागी।
परम कृपाल प्रनत अनुरागी॥
जेहि जन पर ममता अति छोहू।
जेहिं करुना करि कीन्ह न कोहू॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह लीला केवल भक्तोंके हितके लिये ही है; क्योंकि भगवान् परम कृपालु हैं और शरणागतके बड़े प्रेमी हैं। जिनकी भक्तोंपर बड़ी ममता और कृपा है, जिन्होंने एक बार जिसपर कृपा कर दी, उसपर फिर कभी क्रोध नहीं किया॥ ३॥

मूल (चौपाई)

गई बहोर गरीब नेवाजू।
सरल सबल साहिब रघुराजू॥
बुध बरनहिं हरि जस अस जानी।
करहिं पुनीत सुफल निज बानी॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे प्रभु श्रीरघुनाथजी गयी हुई वस्तुको फिर प्राप्त करानेवाले, गरीबनिवाज (दीनबन्धु), सरलस्वभाव, सर्वशक्तिमान् और सबके स्वामी हैं। यही समझकर बुद्धिमान् लोग उन श्रीहरिका यश वर्णन करके अपनी वाणीको पवित्र और उत्तम फल (मोक्ष और दुर्लभ भगवत्प्रेम) देनेवाली बनाते हैं॥ ४॥

मूल (चौपाई)

तेहिं बल मैं रघुपति गुन गाथा।
कहिहउँ नाइ राम पद माथा॥
मुनिन्ह प्रथम हर कीरति गाई।
तेहिं मग चलत सुगम मोहि भाई॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसी बलसे (महिमाका यथार्थ वर्णन नहीं, परन्तु महान् फल देनेवाला भजन समझकर भगवत् कृपा के बलपर ही) मैं श्रीरामचन्द्रजीके चरणोंमें सिर नवाकर श्रीरघुनाथजीके गुणोंकी कथा कहूँगा। इसी विचारसे (वाल्मीकि, व्यास आदि) मुनियोंने पहले हरिकी कीर्ति गायी है, भाई! उसी मार्गपर चलना मेरे लिये सुगम होगा॥ ५॥

दोहा

मूल (दोहा)

अति अपार जे सरित बर जौं नृप सेतु कराहिं।
चढ़ि पिपीलिकउ परम लघु बिनु श्रम पारहि जाहिं॥ १३॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो अत्यन्त बड़ी श्रेष्ठ नदियाँ हैं, यदि राजा उनपर पुल बँधा देता है तो अत्यन्त छोटी चींटियाँ भी उनपर चढ़कर बिना ही परिश्रमके पार चली जाती हैं (इसी प्रकार मुनियोंके वर्णनके सहारे मैं भी श्रीरामचरित्रका वर्णन सहज ही कर सकूँगा)॥ १३॥

मूल (चौपाई)

एहि प्रकार बल मनहि देखाई।
करिहउँ रघुपति कथा सुहाई॥
ब्यास आदि कबि पुंगव नाना।
जिन्ह सादर हरि सुजस बखाना॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार मनको बल दिखलाकर मैं श्रीरघुनाथजीकी सुहावनी कथाकी रचना करूँगा। व्यास आदि जो अनेकों श्रेष्ठ कवि हो गये हैं, जिन्होंने बड़े आदरसे श्रीहरिका सुयश वर्णन किया है॥ १॥

Misc Detail