०५ संत-असंत-वन्दना

मूल (चौपाई)

बंदउँ संत असज्जन चरना।
दुखप्रद उभय बीच कछु बरना॥
बिछुरत एक प्रान हरि लेहीं।
मिलत एक दुख दारुन देहीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

अब मैं संत और असंत दोनोंके चरणोंकी वन्दना करता हूँ; दोनों ही दुःख देनेवाले हैं, परन्तु उनमें कुछ अन्तर कहा गया है। वह अन्तर यह है कि एक (संत) तो बिछुड़ते समय प्राण हर लेते हैं और दूसरे (असंत) मिलते हैं तब दारुण दुःख देते हैं। (अर्थात् संतोंका बिछुड़ना मरनेके समान दुःखदायी होता है और असंतोंका मिलना)॥ २॥

मूल (चौपाई)

उपजहिं एक संग जग माहीं।
जलज जोंक जिमि गुन बिलगाहीं॥
सुधा सुरा सम साधु असाधू।
जनक एक जग जलधि अगाधू॥

अनुवाद (हिन्दी)

दोनों (संत और असंत) जगत् में एक साथ पैदा होते हैं; पर (एक साथ पैदा होनेवाले) कमल और जोंककी तरह उनके गुण अलग-अलग होते हैं। (कमल दर्शन और स्पर्शसे सुख देता है, किन्तु जोंक शरीरका स्पर्श पाते ही रक्त चूसने लगती है।) साधु अमृतके समान (मृत्युरूपी संसारसे उबारनेवाला) और असाधु मदिराके समान (मोह,प्रमाद और जड़ता उत्पन्न करनेवाला) है, दोनोंको उत्पन्न करनेवाला जगद्‍रूपी अगाध समुद्र एक ही है। (शास्त्रोंमें समुद्रमन्थनसे ही अमृत और मदिरा दोनोंकी उत्पत्ति बतायी गयी है)॥ ३॥

मूल (चौपाई)

भल अनभल निज निज करतूती।
लहत सुजस अपलोक बिभूती॥
सुधा सुधाकर सुरसरि साधू।
गरल अनल कलिमल सरि ब्याधू॥
गुन अवगुन जानत सब कोई।
जो जेहि भाव नीक तेहि सोई॥

अनुवाद (हिन्दी)

भले और बुरे अपनी-अपनी करनीके अनुसार सुन्दर यश और अपयशकी सम्पत्ति पाते हैं। अमृत, चन्द्रमा, गङ्गाजी और साधु एवं विष, अग्नि, कलियुगके पापोंकी नदी अर्थात् कर्मनाशा और हिंसा करनेवाला व्याध, इनके गुण-अवगुण सब कोई जानते हैं; किन्तु जिसे जो भाता है, उसे वही अच्छा लगता है॥ ४-५॥

दोहा

मूल (दोहा)

भलो भलाइहि पै लहइ लहइ निचाइहि नीचु।
सुधा सराहिअ अमरताँ गरल सराहिअ मीचु॥ ५॥

अनुवाद (हिन्दी)

भला भलाई ही ग्रहण करता है और नीच नीचताको ही ग्रहण किये रहता है। अमृतकी सराहना अमर करनेमें होती है और विषकी मारनेमें॥ ५॥

मूल (चौपाई)

खल अघ अगुन साधु गुन गाहा।
उभय अपार उदधि अवगाहा॥
तेहि तें कछु गुन दोष बखाने।
संग्रह त्याग न बिनु पहिचाने॥

अनुवाद (हिन्दी)

दुष्टोंके पापों और अवगुणोंकी और साधुओंके गुणोंकी कथाएँ—दोनों ही अपार और अथाह समुद्र हैं। इसीसे कुछ गुण और दोषोंका वर्णन किया गया है, क्योंकि बिना पहचाने उनका ग्रहण या त्याग नहीं हो सकता॥ १॥

मूल (चौपाई)

भलेउ पोच सब बिधि उपजाए।
गनि गुन दोष बेद बिलगाए॥
कहहिं बेद इतिहास पुराना।
बिधि प्रपंचु गुन अवगुन साना॥

अनुवाद (हिन्दी)

भले, बुरे सभी ब्रह्माके पैदा किये हुए हैं, पर गुण और दोषोंको विचारकर वेदोंने उनको अलग-अलग कर दिया है। वेद, इतिहास और पुराण कहते हैं कि ब्रह्माकी यह सृष्टि गुण-अवगुणोंसे सनी हुई है॥ २॥

मूल (चौपाई)

दुख सुख पाप पुन्य दिन राती।
साधु असाधु सुजाति कुजाती॥
दानव देव ऊँच अरु नीचू।
अमिअ सुजीवनु माहुरु मीचू॥
माया ब्रह्म जीव जगदीसा।
लच्छि अलच्छि रंक अवनीसा॥
कासी मग सुरसरि क्रमनासा।
मरु मारव महिदेव गवासा॥
सरग नरक अनुराग बिरागा।
निगमागम गुन दोष बिभागा॥

अनुवाद (हिन्दी)

दुःख-सुख, पाप-पुण्य, दिन-रात, साधु-असाधु, सुजाति-कुजाति, दानव-देवता, ऊँच-नीच, अमृत-विष, सुजीवन (सुन्दर जीवन)-मृत्यु, माया-ब्रह्म, जीव-ईश्वर, सम्पत्ति-दरिद्रता, रंक-राजा, काशी-मगध, गङ्गा-कर्मनाशा, मारवाड़-मालवा, ब्राह्मण-कसाई, स्वर्ग-नरक, अनुराग-वैराग्य,(ये सभी पदार्थ ब्रह्माकी सृष्टिमें हैं।) वेद-शास्त्रोंने उनके गुण-दोषोंका विभाग कर दिया है॥ ३—५॥

दोहा

मूल (दोहा)

जड़ चेतन गुन दोषमय बिस्व कीन्ह करतार।
संत हंस गुन गहहिं पय परिहरि बारि बिकार॥६॥

अनुवाद (हिन्दी)

विधाताने इस जड-चेतन विश्वको गुण-दोषमय रचा है; किन्तु संतरूपी हंस दोषरूपी जलको छोड़कर गुणरूपी दूधको ही ग्रहण करते हैं॥ ६॥

मूल (चौपाई)

अस बिबेक जब देइ बिधाता।
तब तजि दोष गुनहिं मनु राता॥
काल सुभाउ करम बरिआईं।
भलेउ प्रकृति बस चुकइ भलाईं॥

अनुवाद (हिन्दी)

विधाता जब इस प्रकारका (हंसका-सा) विवेक देते हैं, तब दोषोंको छोड़कर मन गुणोंमें अनुरक्त होता है। काल-स्वभाव और कर्मकी प्रबलतासे भले लोग (साधु) भी मायाके वशमें होकर कभी-कभी भलाईसे चूक जाते हैं॥ १॥

मूल (चौपाई)

सो सुधारि हरिजन जिमि लेहीं।
दलि दुख दोष बिमल जसु देहीं॥
खलउ करहिं भल पाइ सुसंगू।
मिटइ न मलिन सुभाउ अभंगू॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् के भक्त जैसे उस चूकको सुधार लेते हैं और दुःख-दोषोंको मिटाकर निर्मल यश देते हैं, वैसे ही दुष्ट भी कभी-कभी उत्तम सङ्ग पाकर भलाई करते हैं; परन्तु उनका कभी भंग न होनेवाला मलिन स्वभाव नहीं मिटता॥ २॥

मूल (चौपाई)

लखि सुबेष जग बंचक जेऊ।
बेष प्रताप पूजिअहिं तेऊ॥
उघरहिं अंत न होइ निबाहू।
कालनेमि जिमि रावन राहू॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो (वेषधारी) ठग हैं, उन्हें भी अच्छा (साधुका-सा) वेष बनाये देखकर वेषके प्रतापसे जगत् पूजता है; परन्तु एक-न-एक दिन वे चौडे़ आ ही जाते हैं, अन्ततक उनका कपट नहीं निभता, जैसे कालनेमि, रावण और राहुका हाल हुआ॥ ३॥

मूल (चौपाई)

किएहुँ कुबेषु साधु सनमानू।
जिमि जग जामवंत हनुमानू॥
हानि कुसंग सुसंगति लाहू।
लोकहुँ बेद बिदित सब काहू॥

अनुवाद (हिन्दी)

बुरा वेष बना लेनेपर भी साधुका सम्मान ही होता है, जैसे जगत् में जाम्बवान् और हनुमान् जी का हुआ। बुरे संगसे हानि और अच्छे संगसे लाभ होता है, यह बात लोक और वेदमें है और सभी लोग इसको जानते हैं॥ ४॥

मूल (चौपाई)

गगन चढ़इ रज पवन प्रसंगा।
कीचहिं मिलइ नीच जल संगा॥
साधु असाधु सदन सुक सारीं।
सुमिरहिं राम देहिं गनि गारीं॥

अनुवाद (हिन्दी)

पवनके संगसे धूल आकाशपर चढ़ जाती है और वही नीच (नीचेकी ओर बहनेवाले) जलके संगसे कीचड़में मिल जाती है। साधुके घरके तोता-मैना राम-राम सुमिरते हैं और असाधुके घरके तोता-मैना गिन-गिनकर गालियाँ देते हैं॥ ५॥

मूल (चौपाई)

धूम कुसंगति कारिख होई।
लिखिअ पुरान मंजु मसि सोई॥
सोइ जल अनल अनिल संघाता।
होइ जलद जग जीवन दाता॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुसंगके कारण धुआँ कालिख कहलाता है, वही धुआँ (सुसंगसे) सुन्दर स्याही होकर पुराण लिखनेके काममें आता है और वही धुआँ जल, अग्नि और पवनके संगसे बादल होकर जगत् को जीवन देनेवाला बन जाता है॥ ६॥

दोहा

मूल (दोहा)

ग्रह भेषज जल पवन पट पाइ कुजोग सुजोग।
होहिं कुबस्तु सुबस्तु जग लखहिं सुलच्छन लोग॥ ७ (क)॥

अनुवाद (हिन्दी)

ग्रह, ओषधि, जल, वायु और वस्त्र—ये सब भी कुसंग और सुसंग पाकर संसारमें बुरे और भले पदार्थ हो जाते हैं। चतुर एवं विचारशील पुरुष ही इस बातको जान पाते हैं॥ ७(क)॥

मूल (दोहा)

सम प्रकास तम पाख दुहुँ नाम भेद बिधि कीन्ह।
ससि सोषक पोषक समुझि जग जस अपजस दीन्ह॥ ७ (ख)॥

अनुवाद (हिन्दी)

महीनेके दोनों पखवाड़ोंमें उजियाला और अँधेरा समान ही रहता है, परन्तु विधाताने इनके नाममें भेद कर दिया है (एकका नाम शुक्ल और दूसरेका नाम कृष्ण रख दिया)। एकको चन्द्रमाका बढ़ानेवाला और दूसरेको उसका घटानेवाला समझकर जगत् ने एकको सुयश और दूसरेको अपयश दे दिया॥ ७(ख)॥