६ लङ्काकाण्डम्

000

01 श्लोक

विश्वास-प्रस्तुतिः

रामं कामारिसेव्यं भवभयहरणं कालमत्तेभसिंहं
योगीन्द्रं ज्ञानगम्यं गुणनिधिमजितं निर्गुणं निर्विकारम्‌।
मायातीतं सुरेशं खलवधनिरतं ब्रह्मवृन्दैकदेवं
वन्दे कन्दावदातं सरसिजनयनं देवमुर्वीशरूपम्‌॥1॥

मूल

रामं कामारिसेव्यं भवभयहरणं कालमत्तेभसिंहं
योगीन्द्रं ज्ञानगम्यं गुणनिधिमजितं निर्गुणं निर्विकारम्‌।
मायातीतं सुरेशं खलवधनिरतं ब्रह्मवृन्दैकदेवं
वन्दे कन्दावदातं सरसिजनयनं देवमुर्वीशरूपम्‌॥1॥

भावार्थ

कामदेव के शत्रु शिवजी के सेव्य, भव (जन्म-मृत्यु) के भय को हरने वाले, काल रूपी मतवाले हाथी के लिए सिंह के समान, योगियों के स्वामी (योगीश्वर), ज्ञान के द्वारा जानने योग्य, गुणों की निधि, अजेय, निर्गुण, निर्विकार, माया से परे, देवताओं के स्वामी, दुष्टों के वध में तत्पर, ब्राह्मणवृन्द के एकमात्र देवता (रक्षक), जल वाले मेघ के समान सुन्दर श्याम, कमल के से नेत्र वाले, पृथ्वीपति (राजा) के रूप में परमदेव श्री रामजी की मैं वन्दना करता हूँ॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शङ्खेन्द्वाभमतीवसुन्दरतनुं शार्दूलचर्माम्बरं
कालव्यालकरालभूषणधरं गङ्गाशशाङ्कप्रियम्‌।
काशीशं कलिकल्मषौघशमनं कल्याणकल्पद्रुमं
नौमीड्यं गिरिजापतिं गुणनिधिं कन्दर्पहं शङ्करम्‌॥2॥

मूल

शङ्खेन्द्वाभमतीवसुन्दरतनुं शार्दूलचर्माम्बरं
कालव्यालकरालभूषणधरं गङ्गाशशाङ्कप्रियम्‌।
काशीशं कलिकल्मषौघशमनं कल्याणकल्पद्रुमं
नौमीड्यं गिरिजापतिं गुणनिधिं कन्दर्पहं शङ्करम्‌॥2॥

भावार्थ

शङ्ख और चन्द्रमा की सी कान्ति के अत्यन्त सुन्दर शरीर वाले, व्याघ्रचर्म के वस्त्र वाले, काल के समान (अथवा काले रङ्ग के) भयानक सर्पों का भूषण धारण करने वाले, गङ्गा और चन्द्रमा के प्रेमी, काशीपति, कलियुग के पाप समूह का नाश करने वाले, कल्याण के कल्पवृक्ष, गुणों के निधान और कामदेव को भस्म करने वाले, पार्वती पति वन्दनीय श्री शङ्करजी को मैं नमस्कार करता हूँ॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यो ददाति सतां शम्भुः कैवल्यमपि दुर्लभम्‌।
खलानां दण्डकृद्योऽसौ शङ्करः शं तनोतु मे॥3॥

मूल

यो ददाति सतां शम्भुः कैवल्यमपि दुर्लभम्‌।
खलानां दण्डकृद्योऽसौ शङ्करः शं तनोतु मे॥3॥

भावार्थ

जो सत्‌ पुरुषों को अत्यन्त दुर्लभ कैवल्यमुक्ति तक दे डालते हैं और जो दुष्टों को दण्ड देने वाले हैं, वे कल्याणकारी श्री शम्भु मेरे कल्याण का विस्तार करें॥3॥

02 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

लव निमेष परमानु जुग बरष कलप सर चण्ड।
भजसि न मन तेहि राम को कालु जासु कोदण्ड॥

मूल

लव निमेष परमानु जुग बरष कलप सर चण्ड।
भजसि न मन तेहि राम को कालु जासु कोदण्ड॥

भावार्थ

लव, निमेष, परमाणु, वर्ष, युग और कल्प जिनके प्रचण्ड बाण हैं और काल जिनका धनुष है, हे मन! तू उन श्री रामजी को क्यों नहीं भजता?

03 सोरठा

विश्वास-प्रस्तुतिः

सिन्धु बचन सुनि राम सचिव बोलि प्रभु अस कहेउ।
अब बिलम्बु केहि काम करहु सेतु उतरै कटकु॥

मूल

सिन्धु बचन सुनि राम सचिव बोलि प्रभु अस कहेउ।
अब बिलम्बु केहि काम करहु सेतु उतरै कटकु॥

भावार्थ

समुद्र के वचन सुनकर प्रभु श्री रामजी ने मन्त्रियों को बुलाकर ऐसा कहा- अब विलम्ब किसलिए हो रहा है? सेतु (पुल) तैयार करो, जिसमें सेना उतरे।

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुनहु भानुकुल केतु जामवन्त कर जोरि कह।
नाथ नाम तव सेतु नर चढि भव सागर तरहिं॥

मूल

सुनहु भानुकुल केतु जामवन्त कर जोरि कह।
नाथ नाम तव सेतु नर चढि भव सागर तरहिं॥

भावार्थ

जाम्बवान्‌ ने हाथ जोडकर कहा- हे सूर्यकुल के ध्वजास्वरूप (कीर्ति को बढाने वाले) श्री रामजी! सुनिए। हे नाथ! (सबसे बडा) सेतु तो आपका नाम ही है, जिस पर चढकर (जिसका आश्रय लेकर) मनुष्य संसार रूपी समुद्र से पार हो जाते हैं।

04 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

यह लघु जलधि तरत कति बारा। अस सुनि पुनि कह पवनकुमारा॥
प्रभु प्रताप बडवानल भारी। सोषेउ प्रथम पयोनिधि बारी॥1॥

मूल

यह लघु जलधि तरत कति बारा। अस सुनि पुनि कह पवनकुमारा॥
प्रभु प्रताप बडवानल भारी। सोषेउ प्रथम पयोनिधि बारी॥1॥

भावार्थ

फिर यह छोटा सा समुद्र पार करने में कितनी देर लगेगी? ऐसा सुनकर फिर पवनकुमार श्री हनुमान्‌जी ने कहा- प्रभु का प्रताप भारी बडवानल (समुद्र की आग) के समान है। इसने पहले समुद्र के जल को सोख लिया था,॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तव रिपु नारि रुदन जल धारा। भरेउ बहोरि भयउ तेहिं खारा॥
सुनि अति उकुति पवनसुत केरी। हरषे कपि रघुपति तन हेरी॥2॥

मूल

तव रिपु नारि रुदन जल धारा। भरेउ बहोरि भयउ तेहिं खारा॥
सुनि अति उकुति पवनसुत केरी। हरषे कपि रघुपति तन हेरी॥2॥

भावार्थ

परन्तु आपके शत्रुओं की स्त्रियों के आँसुओं की धारा से यह फिर भर गया और उसी से खारा भी हो गया। हनुमान्‌जी की यह अत्युक्ति (अलङ्कारपूर्ण युक्ति) सुनकर वानर श्री रघुनाथजी की ओर देखकर हर्षित हो गए॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जामवन्त बोले दोउ भाई। नल नीलहि सब कथा सुनाई॥
राम प्रताप सुमिरि मन माहीं। करहु सेतु प्रयास कछु नाहीं॥3॥

मूल

जामवन्त बोले दोउ भाई। नल नीलहि सब कथा सुनाई॥
राम प्रताप सुमिरि मन माहीं। करहु सेतु प्रयास कछु नाहीं॥3॥

भावार्थ

जाम्बवान्‌ ने नल-नील दोनों भाइयों को बुलाकर उन्हें सारी कथा कह सुनाई (और कहा-) मन में श्री रामजी के प्रताप को स्मरण करके सेतु तैयार करो, (रामप्रताप से) कुछ भी परिश्रम नहीं होगा॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बोलि लिए कपि निकर बहोरी। सकल सुनहु बिनती कछु मोरी॥
राम चरन पङ्कज उर धरहू। कौतुक एक भालु कपि करहू॥4॥

मूल

बोलि लिए कपि निकर बहोरी। सकल सुनहु बिनती कछु मोरी॥
राम चरन पङ्कज उर धरहू। कौतुक एक भालु कपि करहू॥4॥

भावार्थ

फिर वानरों के समूह को बुला लिया (और कहा-) आप सब लोग मेरी कुछ विनती सुनिए। अपने हृदय में श्री रामजी के चरण-कमलों को धारण कर लीजिए और सब भालू और वानर एक खेल कीजिए॥4॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धावहु मर्कट बिकट बरूथा। आनहु बिटप गिरिन्ह के जूथा॥
सुनि कपि भालु चले करि हूहा। जय रघुबीर प्रताप समूहा॥5॥

मूल

धावहु मर्कट बिकट बरूथा। आनहु बिटप गिरिन्ह के जूथा॥
सुनि कपि भालु चले करि हूहा। जय रघुबीर प्रताप समूहा॥5॥

भावार्थ

विकट वानरों के समूह (आप) दौड जाइए और वृक्षों तथा पर्वतों के समूहों को उखाड लाइए। यह सुनकर वानर और भालू हूह (हुँकार) करके और श्री रघुनाथजी के प्रताप समूह की (अथवा प्रताप के पुञ्ज श्री रामजी की) जय पुकारते हुए चले॥5॥

001

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

अति उतङ्ग गिरि पादप लीलहिं लेहिं उठाइ।
आनि देहिं नल नीलहि रचहिं ते सेतु बनाइ॥1॥

मूल

अति उतङ्ग गिरि पादप लीलहिं लेहिं उठाइ।
आनि देहिं नल नीलहि रचहिं ते सेतु बनाइ॥1॥

भावार्थ

बहुत ऊँचे-ऊँचे पर्वतों और वृक्षों को खेल की तरह ही (उखाडकर) उठा लेते हैं और ला-लाकर नल-नील को देते हैं। वे अच्छी तरह गढकर (सुन्दर) सेतु बनाते हैं॥1॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

सैल बिसाल आनि कपि देहीं। कन्दुक इव नल नील ते लेहीं॥
देखि सेतु अति सुन्दर रचना। बिहसि कृपानिधि बोले बचना॥1॥

मूल

सैल बिसाल आनि कपि देहीं। कन्दुक इव नल नील ते लेहीं॥
देखि सेतु अति सुन्दर रचना। बिहसि कृपानिधि बोले बचना॥1॥

भावार्थ

वानर बडे-बडे पहाड ला-लाकर देते हैं और नल-नील उन्हें गेन्द की तरह ले लेते हैं। सेतु की अत्यन्त सुन्दर रचना देखकर कृपासिन्धु श्री रामजी हँसकर वचन बोले-॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

परम रम्य उत्तम यह धरनी। महिमा अमित जाइ नहिं बरनी॥
करिहउँ इहाँ सम्भु थापना। मोरे हृदयँ परम कलपना॥2॥

मूल

परम रम्य उत्तम यह धरनी। महिमा अमित जाइ नहिं बरनी॥
करिहउँ इहाँ सम्भु थापना। मोरे हृदयँ परम कलपना॥2॥

भावार्थ

यह (यहाँ की) भूमि परम रमणीय और उत्तम है। इसकी असीम महिमा वर्णन नहीं की जा सकती। मैं यहाँ शिवजी की स्थापना करूँगा। मेरे हृदय में यह महान्‌ सङ्कल्प है॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुनि कपीस बहु दूत पठाए। मुनिबर सकल बोलि लै आए॥
लिङ्ग थापि बिधिवत करि पूजा। सिव समान प्रिय मोहि न दूजा॥3॥

मूल

सुनि कपीस बहु दूत पठाए। मुनिबर सकल बोलि लै आए॥
लिङ्ग थापि बिधिवत करि पूजा। सिव समान प्रिय मोहि न दूजा॥3॥

भावार्थ

श्री रामजी के वचन सुनकर वानरराज सुग्रीव ने बहुत से दूत भेजे, जो सब श्रेष्ठ मुनियों को बुलाकर ले आए। शिवलिङ्ग की स्थापना करके विधिपूर्वक उसका पूजन किया (फिर भगवान बोले-) शिवजी के समान मुझको दूसरा कोई प्रिय नहीं है॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सिव द्रोही मम भगत कहावा। सो नर सपनेहुँ मोहि न पावा॥
सङ्कर बिमुख भगति चह मोरी। सो नारकी मूढ मति थोरी॥4॥

मूल

सिव द्रोही मम भगत कहावा। सो नर सपनेहुँ मोहि न पावा॥
सङ्कर बिमुख भगति चह मोरी। सो नारकी मूढ मति थोरी॥4॥

भावार्थ

जो शिव से द्रोह रखता है और मेरा भक्त कहलाता है, वह मनुष्य स्वप्न में भी मुझे नहीं पाता। शङ्करजी से विमुख होकर (विरोध करके) जो मेरी भक्ति चाहता है, वह नरकगामी, मूर्ख और अल्पबुद्धि है॥4॥

002

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

सङ्करप्रिय मम द्रोही सिव द्रोही मम दास।
ते नर करहिं कलप भरि घोर नरक महुँ बास॥2॥

मूल

सङ्करप्रिय मम द्रोही सिव द्रोही मम दास।
ते नर करहिं कलप भरि घोर नरक महुँ बास॥2॥

भावार्थ

जिनको शङ्करजी प्रिय हैं, परन्तु जो मेरे द्रोही हैं एवं जो शिवजी के द्रोही हैं और मेरे दास (बनना चाहते) हैं, वे मनुष्य कल्पभर घोर नरक में निवास करते हैं॥2॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

जे रामेस्वर दरसनु करिहहिं। ते तनु तजि मम लोक सिधरिहहिं॥
जो गङ्गाजलु आनि चढाइहि। सो साजुज्य मुक्ति नर पाइहि॥1॥

मूल

जे रामेस्वर दरसनु करिहहिं। ते तनु तजि मम लोक सिधरिहहिं॥
जो गङ्गाजलु आनि चढाइहि। सो साजुज्य मुक्ति नर पाइहि॥1॥

भावार्थ

जो मनुष्य (मेरे स्थापित किए हुए इन) रामेश्वरजी का दर्शन करेङ्गे, वे शरीर छोडकर मेरे लोक को जाएँगे और जो गङ्गाजल लाकर इन पर चढावेगा, वह मनुष्य सायुज्य मुक्ति पावेगा (अर्थात्‌ मेरे साथ एक हो जाएगा)॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

होइ अकाम जो छल तजि सेइहि। भगति मोरि तेहि सङ्कर देइहि॥
मम कृत सेतु जो दरसनु करिही। सो बिनु श्रम भवसागर तरिही॥2॥

मूल

होइ अकाम जो छल तजि सेइहि। भगति मोरि तेहि सङ्कर देइहि॥
मम कृत सेतु जो दरसनु करिही। सो बिनु श्रम भवसागर तरिही॥2॥

भावार्थ

जो छल छोडकर और निष्काम होकर श्री रामेश्वरजी की सेवा करेङ्गे, उन्हें शङ्करजी मेरी भक्ति देङ्गे और जो मेरे बनाए सेतु का दर्शन करेगा, वह बिना ही परिश्रम संसार रूपी समुद्र से तर जाएगा॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम बचन सब के जिय भाए। मुनिबर निज निज आश्रम आए॥
गिरिजा रघुपति कै यह रीती। सन्तत करहिं प्रनत पर प्रीती॥3॥

मूल

राम बचन सब के जिय भाए। मुनिबर निज निज आश्रम आए॥
गिरिजा रघुपति कै यह रीती। सन्तत करहिं प्रनत पर प्रीती॥3॥

भावार्थ

श्री रामजी के वचन सबके मन को अच्छे लगे। तदनन्तर वे श्रेष्ठ मुनि अपने-अपने आश्रमों को लौट आए। (शिवजी कहते हैं-) हे पार्वती! श्री रघुनाथजी की यह रीति है कि वे शरणागत पर सदा प्रीति करते हैं॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बाँधा सेतु नील नल नागर। राम कृपाँ जसु भयउ उजागर॥
बूडहिं आनहि बोरहिं जेई। भए उपल बोहित सम तेई॥4॥

मूल

बाँधा सेतु नील नल नागर। राम कृपाँ जसु भयउ उजागर॥
बूडहिं आनहि बोरहिं जेई। भए उपल बोहित सम तेई॥4॥

भावार्थ

चतुर नल और नील ने सेतु बाँधा। श्री रामजी की कृपा से उनका यह (उज्ज्वल) यश सर्वत्र फैल गया। जो पत्थर आप डूबते हैं और दूसरों को डुबा देते हैं, वे ही जहाज के समान (स्वयं तैरने वाले और दूसरों को पार ले जाने वाले) हो गए॥4॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

महिमा यह न जलधि कइ बरनी। पाहन गुन न कपिन्ह कइ करनी॥5॥

मूल

महिमा यह न जलधि कइ बरनी। पाहन गुन न कपिन्ह कइ करनी॥5॥

भावार्थ

यह न तो समुद्र की महिमा वर्णन की गई है, न पत्थरों का गुण है और न वानरों की ही कोई करामात है॥5॥

003

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्री रघुबीर प्रताप ते सिन्धु तरे पाषान।
ते मतिमन्द जे राम तजि भजहिं जाइ प्रभु आन॥3॥

मूल

श्री रघुबीर प्रताप ते सिन्धु तरे पाषान।
ते मतिमन्द जे राम तजि भजहिं जाइ प्रभु आन॥3॥

भावार्थ

श्री रघुवीर के प्रताप से पत्थर भी समुद्र पर तैर गए। ऐसे श्री रामजी को छोडकर जो किसी दूसरे स्वामी को जाकर भजते हैं वे (निश्चय ही) मन्दबुद्धि हैं॥3॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

बाँधि सेतु अति सुदृढ बनावा। देखि कृपानिधि के मन भावा॥
चली सेन कछु बरनि न जाई। गर्जहिं मर्कट भट समुदाई॥1॥

मूल

बाँधि सेतु अति सुदृढ बनावा। देखि कृपानिधि के मन भावा॥
चली सेन कछु बरनि न जाई। गर्जहिं मर्कट भट समुदाई॥1॥

भावार्थ

नल-नील ने सेतु बाँधकर उसे बहुत मजबूत बनाया। देखने पर वह कृपानिधान श्री रामजी के मन को (बहुत ही) अच्छा लगा। सेना चली, जिसका कुछ वर्णन नहीं हो सकता। योद्धा वानरों के समुदाय गरज रहे हैं॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सेतुबन्ध ढिग चढि रघुराई। चितव कृपाल सिन्धु बहुताई॥
देखन कहुँ प्रभु करुना कन्दा। प्रगट भए सब जलचर बृन्दा॥2॥

मूल

सेतुबन्ध ढिग चढि रघुराई। चितव कृपाल सिन्धु बहुताई॥
देखन कहुँ प्रभु करुना कन्दा। प्रगट भए सब जलचर बृन्दा॥2॥

भावार्थ

कृपालु श्री रघुनाथजी सेतुबन्ध के तट पर चढकर समुद्र का विस्तार देखने लगे। करुणाकन्द (करुणा के मूल) प्रभु के दर्शन के लिए सब जलचरों के समूह प्रकट हो गए (जल के ऊपर निकल आए)॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मकर नक्र नाना झष ब्याला। सत जोजन तन परम बिसाला॥
अइसेउ एक तिन्हहि जे खाहीं। एकन्ह कें डर तेपि डेराहीं॥3॥

मूल

मकर नक्र नाना झष ब्याला। सत जोजन तन परम बिसाला॥
अइसेउ एक तिन्हहि जे खाहीं। एकन्ह कें डर तेपि डेराहीं॥3॥

भावार्थ

बहुत तरह के मगर, नाक (घडियाल), मच्छ और सर्प थे, जिनके सौ-सौ योजन के बहुत बडे विशाल शरीर थे। कुछ ऐसे भी जन्तु थे, जो उनको भी खा जाएँ। किसी-किसी के डर से तो वे भी डर रहे थे॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभुहि बिलोकहिं टरहिं न टारे। मन हरषित सब भए सुखारे॥
तिन्ह कीं ओट न देखिअ बारी। मगन भए हरि रूप निहारी॥4॥

मूल

प्रभुहि बिलोकहिं टरहिं न टारे। मन हरषित सब भए सुखारे॥
तिन्ह कीं ओट न देखिअ बारी। मगन भए हरि रूप निहारी॥4॥

भावार्थ

वे सब (वैर-विरोध भूलकर) प्रभु के दर्शन कर रहे हैं, हटाने से भी नहीं हटते। सबके मन हर्षित हैं, सब सुखी हो गए। उनकी आड के कारण जल नहीं दिखाई पडता। वे सब भगवान्‌ का रूप देखकर (आनन्द और प्रेम में) मग्न हो गए॥4॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चला कटकु प्रभु आयसु पाई। को कहि सक कपि दल बिपुलाई॥5॥

मूल

चला कटकु प्रभु आयसु पाई। को कहि सक कपि दल बिपुलाई॥5॥

भावार्थ

प्रभु श्री रामचन्द्रजी की आज्ञा पाकर सेना चली। वानर सेना की विपुलता (अत्यधिक सङ्ख्या) को कौन कह सकता है?॥5॥

004

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

सेतुबन्ध भइ भीर अति कपि नभ पन्थ उडाहिं।
अपर जलचरन्हि ऊपर चढि चढि पारहि जाहिं॥4॥

मूल

सेतुबन्ध भइ भीर अति कपि नभ पन्थ उडाहिं।
अपर जलचरन्हि ऊपर चढि चढि पारहि जाहिं॥4॥

भावार्थ

सेतुबन्ध पर बडी भीड हो गई, इससे कुछ वानर आकाश मार्ग से उडने लगे और दूसरे (कितने ही) जलचर जीवों पर चढ-चढकर पार जा रहे हैं॥4॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस कौतुक बिलोकि द्वौ भाई। बिहँसि चले कृपाल रघुराई॥
सेन सहित उतरे रघुबीरा। कहि न जाइ कपि जूथप भीरा॥1॥

मूल

अस कौतुक बिलोकि द्वौ भाई। बिहँसि चले कृपाल रघुराई॥
सेन सहित उतरे रघुबीरा। कहि न जाइ कपि जूथप भीरा॥1॥

भावार्थ

कृपालु रघुनाथजी (तथा लक्ष्मणजी) दोनों भाई ऐसा कौतुक देखकर हँसते हुए चले। श्री रघुवीर सेना सहित समुद्र के पार हो गए। वानरों और उनके सेनापतियों की भीड कही नहीं जा सकती॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सिन्धु पार प्रभु डेरा कीन्हा। सकल कपिन्ह कहुँ आयसु दीन्हा॥
खाहु जाइ फल मूल सुहाए। सुनत भालू कपि जहँ तहँ धाए॥2॥

मूल

सिन्धु पार प्रभु डेरा कीन्हा। सकल कपिन्ह कहुँ आयसु दीन्हा॥
खाहु जाइ फल मूल सुहाए। सुनत भालू कपि जहँ तहँ धाए॥2॥

भावार्थ

प्रभु ने समुद्र के पार डेरा डाला और सब वानरों को आज्ञा दी कि तुम जाकर सुन्दर फल-मूल खाओ। यह सुनते ही रीछ-वानर जहाँ-तहाँ दौड पडे॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सब तरु फरे राम हित लागी। रितु अरु कुरितु काल गति त्यागी॥
खाहिं मधुर फल बिटप हलावहिं। लङ्का सन्मुख सिखर चलावहिं॥3॥

मूल

सब तरु फरे राम हित लागी। रितु अरु कुरितु काल गति त्यागी॥
खाहिं मधुर फल बिटप हलावहिं। लङ्का सन्मुख सिखर चलावहिं॥3॥

भावार्थ

श्री रामजी के हित (सेवा) के लिए सब वृक्ष ऋतु-कुऋतु- समय की गति को छोडकर फल उठे। वानर-भालू मीठे फल खा रहे हैं, वृक्षों को हिला रहे हैं और पर्वतों के शिखरों को लङ्का की ओर फेङ्क रहे हैं॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जहँ कहुँ फिरत निसाचर पावहिं। घेरि सकल बहु नाच नचावहिं॥
दसनन्हि काटि नासिका काना। कहि प्रभु सुजसु देहिं तब जाना॥4॥

मूल

जहँ कहुँ फिरत निसाचर पावहिं। घेरि सकल बहु नाच नचावहिं॥
दसनन्हि काटि नासिका काना। कहि प्रभु सुजसु देहिं तब जाना॥4॥

भावार्थ

घूमते-घूमते जहाँ कहीं किसी राक्षस को पा जाते हैं तो सब उसे घेरकर खूब नाच नचाते हैं और दाँतों से उसके नाक-कान काटकर, प्रभु का सुयश कहकर (अथवा कहलाकर) तब उसे जाने देते हैं॥4॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिन्ह कर नासा कान निपाता। तिन्ह रावनहि कही सब बाता॥
सुनत श्रवन बारिधि बन्धाना। दस मुख बोलि उठा अकुलाना॥5॥

मूल

जिन्ह कर नासा कान निपाता। तिन्ह रावनहि कही सब बाता॥
सुनत श्रवन बारिधि बन्धाना। दस मुख बोलि उठा अकुलाना॥5॥

भावार्थ

जिन राक्षसों के नाक और कान काट डाले गए, उन्होन्ने रावण से सब समाचार कहा। समुद्र (पर सेतु) का बाँधा जाना कानों से सुनते ही रावण घबडाकर दसों मुखों से बोल उठा-॥5॥

005

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

बाँध्यो बननिधि नीरनिधि जलधि सिन्धु बारीस।
सत्य तोयनिधि कम्पति उदधि पयोधि नदीस॥5॥

मूल

बाँध्यो बननिधि नीरनिधि जलधि सिन्धु बारीस।
सत्य तोयनिधि कम्पति उदधि पयोधि नदीस॥5॥

भावार्थ

वननिधि, नीरनिधि, जलधि, सिन्धु, वारीश, तोयनिधि, कम्पति, उदधि, पयोधि, नदीश को क्या सचमुच ही बाँध लिया?॥5॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

निज बिकलता बिचारि बहोरी॥ बिहँसि गयउ गृह करि भय भोरी॥
मन्दोदरीं सुन्यो प्रभु आयो। कौतुकहीं पाथोधि बँधायो॥1॥

मूल

निज बिकलता बिचारि बहोरी॥ बिहँसि गयउ गृह करि भय भोरी॥
मन्दोदरीं सुन्यो प्रभु आयो। कौतुकहीं पाथोधि बँधायो॥1॥

भावार्थ

फिर अपनी व्याकुलता को समझकर (ऊपर से) हँसता हुआ, भय को भुलाकर, रावण महल को गया। (जब) मन्दोदरी ने सुना कि प्रभु श्री रामजी आ गए हैं और उन्होन्ने खेल में ही समुद्र को बँधवा लिया है,॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कर गहि पतिहि भवन निज आनी। बोली परम मनोहर बानी॥
चरन नाइ सिरु अञ्चलु रोपा। सुनहु बचन पिय परिहरि कोपा॥2॥

मूल

कर गहि पतिहि भवन निज आनी। बोली परम मनोहर बानी॥
चरन नाइ सिरु अञ्चलु रोपा। सुनहु बचन पिय परिहरि कोपा॥2॥

भावार्थ

(तब) वह हाथ पकडकर, पति को अपने महल में लाकर परम मनोहर वाणी बोली। चरणों में सिर नवाकर उसने अपना आँचल पसारा और कहा- हे प्रियतम! क्रोध त्याग कर मेरा वचन सुनिए॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाथ बयरु कीजे ताही सों। बुधि बल सकिअ जीति जाही सों॥
तुम्हहि रघुपतिहि अन्तर कैसा। खलु खद्योत दिनकरहि जैसा॥3॥

मूल

नाथ बयरु कीजे ताही सों। बुधि बल सकिअ जीति जाही सों॥
तुम्हहि रघुपतिहि अन्तर कैसा। खलु खद्योत दिनकरहि जैसा॥3॥

भावार्थ

हे नाथ! वैर उसी के साथ करना चाहिए, जिससे बुद्धि और बल के द्वारा जीत सकें। आप में और श्री रघुनाथजी में निश्चय ही कैसा अन्तर है, जैसा जुगनू और सूर्य में!॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अति बल मधु कैटभ जेहिं मारे। महाबीर दितिसुत सङ्घारे॥
जेहिं बलि बाँधि सहस भुज मारा। सोइ अवतरेउ हरन महि भारा॥4॥

मूल

अति बल मधु कैटभ जेहिं मारे। महाबीर दितिसुत सङ्घारे॥
जेहिं बलि बाँधि सहस भुज मारा। सोइ अवतरेउ हरन महि भारा॥4॥

भावार्थ

जिन्होन्ने (विष्णु रूप से) अत्यन्त बलवान्‌ मधु और कैटभ (दैत्य) मारे और (वराह और नृसिंह रूप से) महान्‌ शूरवीर दिति के पुत्रों (हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु) का संहार किया, जिन्होन्ने (वामन रूप से) बलि को बाँधा और (परशुराम रूप से) सहस्रबाहु को मारा, वे ही (भगवान्‌) पृथ्वी का भार हरण करने के लिए (रामरूप में) अवतीर्ण (प्रकट) हुए हैं!॥4॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तासु बिरोध न कीजिअ नाथा। काल करम जिव जाकें हाथा॥5॥

मूल

तासु बिरोध न कीजिअ नाथा। काल करम जिव जाकें हाथा॥5॥

भावार्थ

हे नाथ! उनका विरोध न कीजिए, जिनके हाथ में काल, कर्म और जीव सभी हैं॥5॥

006

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

रामहि सौम्पि जानकी नाइ कमल पद माथ।
सुत कहुँ राज समर्पि बन जाइ भजिअ रघुनाथ॥6॥

मूल

रामहि सौम्पि जानकी नाइ कमल पद माथ।
सुत कहुँ राज समर्पि बन जाइ भजिअ रघुनाथ॥6॥

भावार्थ

(श्री रामजी) के चरण कमलों में सिर नवाकर (उनकी शरण में जाकर) उनको जानकीजी सौम्प दीजिए और आप पुत्र को राज्य देकर वन में जाकर श्री रघुनाथजी का भजन कीजिए॥6॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाथ दीनदयाल रघुराई। बाघउ सनमुख गएँ न खाई॥
चाहिअ करन सो सब करि बीते। तुम्ह सुर असुर चराचर जीते॥1॥

मूल

नाथ दीनदयाल रघुराई। बाघउ सनमुख गएँ न खाई॥
चाहिअ करन सो सब करि बीते। तुम्ह सुर असुर चराचर जीते॥1॥

भावार्थ

हे नाथ! श्री रघुनाथजी तो दीनों पर दया करने वाले हैं। सम्मुख (शरण) जाने पर तो बाघ भी नहीं खाता। आपको जो कुछ करना चाहिए था, वह सब आप कर चुके। आपने देवता, राक्षस तथा चर-अचर सभी को जीत लिया॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सन्त कहहिं असि नीति दसानन। चौथेम्पन जाइहि नृप कानन॥
तासु भजनु कीजिअ तहँ भर्ता। जो कर्ता पालक संहर्ता॥2॥

मूल

सन्त कहहिं असि नीति दसानन। चौथेम्पन जाइहि नृप कानन॥
तासु भजनु कीजिअ तहँ भर्ता। जो कर्ता पालक संहर्ता॥2॥

भावार्थ

हे दशमुख! सन्तजन ऐसी नीति कहते हैं कि चौथेपन (बुढापे) में राजा को वन में चला जाना चाहिए। हे स्वामी! वहाँ (वन में) आप उनका भजन कीजिए जो सृष्टि के रचने वाले, पालने वाले और संहार करने वाले हैं॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोइ रघुबीर प्रनत अनुरागी। भजहु नाथ ममता सब त्यागी॥
मुनिबर जतनु करहिं जेहि लागी। भूप राजु तजि होहिं बिरागी॥3॥

मूल

सोइ रघुबीर प्रनत अनुरागी। भजहु नाथ ममता सब त्यागी॥
मुनिबर जतनु करहिं जेहि लागी। भूप राजु तजि होहिं बिरागी॥3॥

भावार्थ

हे नाथ! आप विषयों की सारी ममता छोडकर उन्हीं शरणागत पर प्रेम करने वाले भगवान्‌ का भजन कीजिए। जिनके लिए श्रेष्ठ मुनि साधन करते हैं और राजा राज्य छोडकर वैरागी हो जाते हैं-॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोइ कोसलाधीस रघुराया। आयउ करन तोहि पर दाया॥
जौं पिय मानहु मोर सिखावन। सुजसु होइ तिहुँ पुर अति पावन॥4॥

मूल

सोइ कोसलाधीस रघुराया। आयउ करन तोहि पर दाया॥
जौं पिय मानहु मोर सिखावन। सुजसु होइ तिहुँ पुर अति पावन॥4॥

भावार्थ

वही कोसलाधीश श्री रघुनाथजी आप पर दया करने आए हैं। हे प्रियतम! यदि आप मेरी सीख मान लेङ्गे, तो आपका अत्यन्त पवित्र और सुन्दर यश तीनों लोकों में फैल जाएगा॥4॥

007

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस कहि नयन नीर भरि गहि पद कम्पित गात।
नाथ भजहु रघुनाथहि अचल होइ अहिवात॥7॥

मूल

अस कहि नयन नीर भरि गहि पद कम्पित गात।
नाथ भजहु रघुनाथहि अचल होइ अहिवात॥7॥

भावार्थ

ऐसा कहकर, नेत्रों में (करुणा का) जल भरकर और पति के चरण पकडकर, काँपते हुए शरीर से मन्दोदरी ने कहा- हे नाथ! श्री रघुनाथजी का भजन कीजिए, जिससे मेरा सुहाग अचल हो जाए॥7॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

तब रावन मयसुता उठाई। कहै लाग खल निज प्रभुताई॥
सुनु तैं प्रिया बृथा भय माना। जग जोधा को मोहि समाना॥1॥

मूल

तब रावन मयसुता उठाई। कहै लाग खल निज प्रभुताई॥
सुनु तैं प्रिया बृथा भय माना। जग जोधा को मोहि समाना॥1॥

भावार्थ

तब रावण ने मन्दोदरी को उठाया और वह दुष्ट उससे अपनी प्रभुता कहने लगा- हे प्रिये! सुन, तूने व्यर्थ ही भय मान रखा है। बता तो जगत्‌ में मेरे समान योद्धा है कौन?॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बरुन कुबेर पवन जम काला। भुज बल जितेउँ सकल दिगपाला॥
देव दनुज नर सब बस मोरें। कवन हेतु उपजा भय तोरें॥2॥

मूल

बरुन कुबेर पवन जम काला। भुज बल जितेउँ सकल दिगपाला॥
देव दनुज नर सब बस मोरें। कवन हेतु उपजा भय तोरें॥2॥

भावार्थ

वरुण, कुबेर, पवन, यमराज आदि सभी दिक्पालों को तथा काल को भी मैन्ने अपनी भुजाओं के बल से जीत रखा है। देवता, दानव और मनुष्य सभी मेरे वश में हैं। फिर तुझको यह भय किस कारण उत्पन्न हो गया?॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाना बिधि तेहि कहेसि बुझाई। सभाँ बहोरि बैठ सो जाई॥
मन्दोदरीं हृदयँ अस जाना। काल बस्य उपजा अभिमाना॥3॥

मूल

नाना बिधि तेहि कहेसि बुझाई। सभाँ बहोरि बैठ सो जाई॥
मन्दोदरीं हृदयँ अस जाना। काल बस्य उपजा अभिमाना॥3॥

भावार्थ

मन्दोदरी ने उसे बहुत तरह से समझाकर कहा (किन्तु रावण ने उसकी एक भी बात न सुनी) और वह फिर सभा में जाकर बैठ गया। मन्दोदरी ने हृदय में ऐसा जान लिया कि काल के वश होने से पति को अभिमान हो गया है॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सभाँ आइ मन्त्रिन्ह तेहिं बूझा। करब कवन बिधि रिपु सैं जूझा॥
कहहिं सचिव सुनु निसिचर नाहा। बार बार प्रभु पूछहु काहा॥4॥

मूल

सभाँ आइ मन्त्रिन्ह तेहिं बूझा। करब कवन बिधि रिपु सैं जूझा॥
कहहिं सचिव सुनु निसिचर नाहा। बार बार प्रभु पूछहु काहा॥4॥

भावार्थ

सभा में आकर उसने मन्त्रियों से पूछा कि शत्रु के साथ किस प्रकार से युद्ध करना होगा? मन्त्री कहने लगे- हे राक्षसों के नाथ! हे प्रभु! सुनिए, आप बार-बार क्या पूछते हैं?॥4॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहहु कवन भय करिअ बिचारा। नर कपि भालु अहार हमारा॥5॥

मूल

कहहु कवन भय करिअ बिचारा। नर कपि भालु अहार हमारा॥5॥

भावार्थ

कहिए तो (ऐसा) कौन-सा बडा भय है, जिसका विचार किया जाए? (भय की बात ही क्या है?) मनुष्य और वानर-भालू तो हमारे भोजन (की सामग्री) हैं॥

008

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

सब के बचन श्रवन सुनि कह प्रहस्त कर जोरि।
नीति बिरोध न करिअ प्रभु मन्त्रिन्ह मति अति थोरि॥8॥

मूल

सब के बचन श्रवन सुनि कह प्रहस्त कर जोरि।
नीति बिरोध न करिअ प्रभु मन्त्रिन्ह मति अति थोरि॥8॥

भावार्थ

कानों से सबके वचन सुनकर (रावण का पुत्र) प्रहस्त हाथ जोडकर कहने लगा- हे प्रभु! नीति के विरुद्ध कुछ भी नहीं करना चाहिए, मन्त्रियों में बहुत ही थोडी बुद्धि है॥8॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहहिं सचिव सठ ठकुर सोहाती। नाथ न पूर आव एहि भाँती॥
बारिधि नाघि एक कपि आवा। तासु चरित मन महुँ सबु गावा॥1॥

मूल

कहहिं सचिव सठ ठकुर सोहाती। नाथ न पूर आव एहि भाँती॥
बारिधि नाघि एक कपि आवा। तासु चरित मन महुँ सबु गावा॥1॥

भावार्थ

ये सभी मूर्ख (खुशामदी) मन्त्र ठकुरसुहाती (मुँहदेखी) कह रहे हैं। हे नाथ! इस प्रकार की बातों से पूरा नहीं पडेगा। एक ही बन्दर समुद्र लाँघकर आया था। उसका चरित्र सब लोग अब भी मन-ही-मन गाया करते हैं (स्मरण किया करते हैं) ॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

छुधा न रही तुम्हहि तब काहू। जारत नगरु कस न धरि खाहू॥
सुनत नीक आगें दुख पावा। सचिवन अस मत प्रभुहि सुनावा॥2॥

मूल

छुधा न रही तुम्हहि तब काहू। जारत नगरु कस न धरि खाहू॥
सुनत नीक आगें दुख पावा। सचिवन अस मत प्रभुहि सुनावा॥2॥

भावार्थ

उस समय तुम लोगों में से किसी को भूख न थी? (बन्दर तो तुम्हारा भोजन ही हैं, फिर) नगर जलाते समय उसे पकडकर क्यों नहीं खा लिया? इन मन्त्रियों ने स्वामी (आप) को ऐसी सम्मति सुनायी है जो सुनने में अच्छी है पर जिससे आगे चलकर दुःख पाना होगा॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जेहिं बारीस बँधायउ हेला। उतरेउ सेन समेत सुबेला॥
सो भनु मनुज खाब हम भाई। बचन कहहिं सब गाल फुलाई॥3॥

मूल

जेहिं बारीस बँधायउ हेला। उतरेउ सेन समेत सुबेला॥
सो भनु मनुज खाब हम भाई। बचन कहहिं सब गाल फुलाई॥3॥

भावार्थ

जिसने खेल-ही-खेल में समुद्र बँधा लिया और जो सेना सहित सुबेल पर्वत पर आ उतरा है। हे भाई! कहो वह मनुष्य है, जिसे कहते हो कि हम खा लेङ्गे? सब गाल फुला-फुलाकर (पागलों की तरह) वचन कह रहे हैं!॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तात बचन मम सुनु अति आदर। जनि मन गुनहु मोहि करि कादर।
प्रिय बानी जे सुनहिं जे कहहीं। ऐसे नर निकाय जग अहहीं॥4॥

मूल

तात बचन मम सुनु अति आदर। जनि मन गुनहु मोहि करि कादर।
प्रिय बानी जे सुनहिं जे कहहीं। ऐसे नर निकाय जग अहहीं॥4॥

भावार्थ

हे तात! मेरे वचनों को बहुत आदर से (बडे गौर से) सुनिए। मुझे मन में कायर न समझ लीजिएगा। जगत्‌ में ऐसे मनुष्य झुण्ड-के-झुण्ड (बहुत अधिक) हैं, जो प्यारी (मुँह पर मीठी लगने वाली) बात ही सुनते और कहते हैं॥4॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बचन परम हित सुनत कठोरे। सुनहिं जे कहहिं ते नर प्रभु थोरे॥
प्रथम बसीठ पठउ सुनु नीती। सीता देइ करहु पुनि प्रीती॥5॥

मूल

बचन परम हित सुनत कठोरे। सुनहिं जे कहहिं ते नर प्रभु थोरे॥
प्रथम बसीठ पठउ सुनु नीती। सीता देइ करहु पुनि प्रीती॥5॥

भावार्थ

हे प्रभो! सुनने में कठोर परन्तु (परिणाम में) परम हितकारी वचन जो सुनते और कहतेहैं,वे मनुष्य बहुत ही थोडे हैं। नीति सुनिये, (उसके अनुसार) पहले दूत भेजिये, और (फिर) सीता को देकर श्रीरामजी से प्रीति (मेल) कर लीजिये॥5॥

009

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

नारि पाइ फिरि जाहिं जौं तौ न बढाइअ रारि।
नाहिं त सन्मुख समर महि तात करिअ हठि मारि॥9॥

मूल

नारि पाइ फिरि जाहिं जौं तौ न बढाइअ रारि।
नाहिं त सन्मुख समर महि तात करिअ हठि मारि॥9॥

भावार्थ

यदि वे स्त्री पाकर लौट जाएँ, तब तो (व्यर्थ) झगडा न बढाइये। नहीं तो (यदि न फिरें तो) हे तात! सम्मुख युद्धभूमि में उनसे हठपूर्वक (डटकर) मार-काट कीजिए॥9॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

यह मत जौं मानहु प्रभु मोरा। उभय प्रकार सुजसु जग तोरा॥
सुत सन कह दसकण्ठ रिसाई। असि मति सठ केहिं तोहि सिखाई॥1॥

मूल

यह मत जौं मानहु प्रभु मोरा। उभय प्रकार सुजसु जग तोरा॥
सुत सन कह दसकण्ठ रिसाई। असि मति सठ केहिं तोहि सिखाई॥1॥

भावार्थ

हे प्रभो! यदि आप मेरी यह सम्मति मानेङ्गे, तो जगत्‌ में दोनों ही प्रकार से आपका सुयश होगा। रावण ने गुस्से में भरकर पुत्र से कहा- अरे मूर्ख! तुझे ऐसी बुद्धि किसने सिखायी?॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अबहीं ते उर संसय होई। बेनुमूल सुत भयहु घमोई॥
सुनि पितु गिरा परुष अति घोरा। चला भवन कहि बचन कठोरा॥2॥

मूल

अबहीं ते उर संसय होई। बेनुमूल सुत भयहु घमोई॥
सुनि पितु गिरा परुष अति घोरा। चला भवन कहि बचन कठोरा॥2॥

भावार्थ

अभी से हृदय में सन्देह (भय) हो रहा है? हे पुत्र! तू तो बाँस की जड में घमोई हुआ (तू मेरे वंश के अनुकूल या अनुरूप नहीं हुआ)। पिता की अत्यन्त घोर और कठोर वाणी सुनकर प्रहस्त ये कडे वचन कहता हुआ घर को चला गया॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हित मत तोहि न लागत कैसें। काल बिबस कहुँ भेषज जैसें॥
सन्ध्या समय जानि दससीसा। भवन चलेउ निरखत भुज बीसा॥3॥

मूल

हित मत तोहि न लागत कैसें। काल बिबस कहुँ भेषज जैसें॥
सन्ध्या समय जानि दससीसा। भवन चलेउ निरखत भुज बीसा॥3॥

भावार्थ

हित की सलाह आपको कैसे नहीं लगती (आप पर कैसे असर नहीं करती), जैसे मृत्यु के वश हुए (रोगी) को दवा नहीं लगती। सन्ध्या का समय जानकर रावण अपनी बीसों भुजाओं को देखता हुआ महल को चला॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

लङ्का सिखर उपर आगारा। अति बिचित्र तहँ होइ अखारा॥
बैठ जाइ तेहिं मन्दिर रावन। लागे किन्नर गुन गन गावन॥4॥

मूल

लङ्का सिखर उपर आगारा। अति बिचित्र तहँ होइ अखारा॥
बैठ जाइ तेहिं मन्दिर रावन। लागे किन्नर गुन गन गावन॥4॥

भावार्थ

लङ्का की चोटी पर एक अत्यन्त विचित्र महल था। वहाँ नाच-गान का अखाडा जमता था। रावण उस महल में जाकर बैठ गया। किन्नर उसके गुण समूहों को गाने लगे॥4॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बाजहिं ताल पखाउज बीना। नृत्य करहिं अपछरा प्रबीना॥5॥

मूल

बाजहिं ताल पखाउज बीना। नृत्य करहिं अपछरा प्रबीना॥5॥

भावार्थ

ताल (करताल), पखावज (मृदङ्ग) और बीणा बज रहे हैं। नृत्य में प्रवीण अप्सराएँ नाच रही हैं॥5॥

010

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुनासीर सत सरिस सो सन्तत करइ बिलास।
परम प्रबल रिपु सीस पर तद्यपि सोच न त्रास॥10॥

मूल

सुनासीर सत सरिस सो सन्तत करइ बिलास।
परम प्रबल रिपु सीस पर तद्यपि सोच न त्रास॥10॥

भावार्थ

वह निरन्तर सैकडों इन्द्रों के समान भोग-विलास करता रहता है। यद्यपि (श्रीरामजी-सरीखा) अत्यन्त प्रबल शत्रु सिर पर है, फिर भी उसको न तो चिन्ता है और न डर ही है॥10॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

इहाँ सुबेल सैल रघुबीरा। उतरे सेन सहित अति भीरा॥
सिखर एक उतङ्ग अति देखी। परम रम्य सम सुभ्र बिसेषी॥1॥

मूल

इहाँ सुबेल सैल रघुबीरा। उतरे सेन सहित अति भीरा॥
सिखर एक उतङ्ग अति देखी। परम रम्य सम सुभ्र बिसेषी॥1॥

भावार्थ

यहाँ श्री रघुवीर सुबेल पर्वत पर सेना की बडी भीड (बडे समूह) के साथ उतरे। पर्वत का एक बहुत ऊँचा, परम रमणीय, समतल और विशेष रूप से उज्ज्वल शिखर देखकर-॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तहँ तरु किसलय सुमन सुहाए। लछिमन रचि निज हाथ डसाए॥
ता पर रुचिर मृदुल मृगछाला। तेहिं आसन आसीन कृपाला॥2॥

मूल

तहँ तरु किसलय सुमन सुहाए। लछिमन रचि निज हाथ डसाए॥
ता पर रुचिर मृदुल मृगछाला। तेहिं आसन आसीन कृपाला॥2॥

भावार्थ

वहाँ लक्ष्मणजी ने वृक्षों के कोमल पत्ते और सुन्दर फूल अपने हाथों से सजाकर बिछा दिए। उस पर सुन्दर और कोमल मृग छाला बिछा दी। उसी आसन पर कृपालु श्री रामजी विराजमान थे॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभु कृत सीस कपीस उछङ्गा। बाम दहिन दिसि चाप निषङ्गा
दुहुँ कर कमल सुधारत बाना। कह लङ्केस मन्त्र लगि काना॥3॥

मूल

प्रभु कृत सीस कपीस उछङ्गा। बाम दहिन दिसि चाप निषङ्गा
दुहुँ कर कमल सुधारत बाना। कह लङ्केस मन्त्र लगि काना॥3॥

भावार्थ

प्रभु श्री रामजी वानरराज सुग्रीव की गोद में अपना सिर रखे हैं। उनकी बायीं ओर धनुष तथा दाहिनी ओर तरकस (रखा) है। वे अपने दोनों करकमलों से बाण सुधार रहे हैं। विभीषणजी कानों से लगकर सलाह कर रहे हैं॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बडभागी अङ्गद हनुमाना। चरन कमल चापत बिधि नाना॥
प्रभु पाछें लछिमन बीरासन। कटि निषङ्ग कर बान सरासन॥4॥

मूल

बडभागी अङ्गद हनुमाना। चरन कमल चापत बिधि नाना॥
प्रभु पाछें लछिमन बीरासन। कटि निषङ्ग कर बान सरासन॥4॥

भावार्थ

परम भाग्यशाली अङ्गद और हनुमान अनेकों प्रकार से प्रभु के चरण कमलों को दबा रहे हैं। लक्ष्मणजी कमर में तरकस कसे और हाथों में धनुष-बाण लिए वीरासन से प्रभु के पीछे सुशोभित हैं॥4॥

011

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऐहि बिधि कृपा रूप गुन धाम रामु आसीन।
धन्य ते नर एहिं ध्यान जे रहत सदा लयलीन॥1॥

मूल

ऐहि बिधि कृपा रूप गुन धाम रामु आसीन।
धन्य ते नर एहिं ध्यान जे रहत सदा लयलीन॥1॥

भावार्थ

इस प्रकार कृपा, रूप (सौन्दर्य) और गुणों के धाम श्री रामजी विराजमान हैं। वे मनुष्य धन्य हैं, जो सदा इस ध्यान में लौ लगाए रहते हैं॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पूरब दिसा बिलोकि प्रभु देखा उदित मयङ्क।
कहत सबहि देखहु ससिहि मृगपति सरिस असङ्क॥2॥

मूल

पूरब दिसा बिलोकि प्रभु देखा उदित मयङ्क।
कहत सबहि देखहु ससिहि मृगपति सरिस असङ्क॥2॥

भावार्थ

पूर्व दिशा की ओर देखकर प्रभु श्री रामजी ने चन्द्रमा को उदय हुआ देखा। तब वे सबसे कहने लगे- चन्द्रमा को तो देखो। कैसा सिंह के समान निडर है!॥2॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

पूरब दिसि गिरिगुहा निवासी। परम प्रताप तेज बल रासी॥
मत्त नाग तम कुम्भ बिदारी। ससि केसरी गगन बन चारी॥1॥

मूल

पूरब दिसि गिरिगुहा निवासी। परम प्रताप तेज बल रासी॥
मत्त नाग तम कुम्भ बिदारी। ससि केसरी गगन बन चारी॥1॥

भावार्थ

पूर्व दिशा रूपी पर्वत की गुफा में रहने वाला, अत्यन्त प्रताप, तेज और बल की राशि यह चन्द्रमा रूपी सिंह अन्धकार रूपी मतवाले हाथी के मस्तक को विदीर्ण करके आकाश रूपी वन में निर्भय विचर रहा है॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिथुरे नभ मुकुताहल तारा। निसि सुन्दरी केर सिङ्गारा॥
कह प्रभु ससि महुँ मेचकताई। कहहु काह निज निज मति भाई॥2॥

मूल

बिथुरे नभ मुकुताहल तारा। निसि सुन्दरी केर सिङ्गारा॥
कह प्रभु ससि महुँ मेचकताई। कहहु काह निज निज मति भाई॥2॥

भावार्थ

आकाश में बिखरे हुए तारे मोतियों के समान हैं, जो रात्रि रूपी सुन्दर स्त्री के श्रृङ्गार हैं। प्रभु ने कहा- भाइयो! चन्द्रमा में जो कालापन है, वह क्या है? अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार कहो॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कह सुग्रीव सुनहु रघुराई। ससि महुँ प्रगट भूमि कै झाँई॥
मारेउ राहु ससिहि कह कोई। उर महँ परी स्यामता सोई॥3॥

मूल

कह सुग्रीव सुनहु रघुराई। ससि महुँ प्रगट भूमि कै झाँई॥
मारेउ राहु ससिहि कह कोई। उर महँ परी स्यामता सोई॥3॥

भावार्थ

सुग्रीव ने कहा- हे रघुनाथजी! सुनिए! चन्द्रमा में पृथ्वी की छाया दिखाई दे रही है। किसी ने कहा- चन्द्रमा को राहु ने मारा था। वही (चोट का) काला दाग हृदय पर पडा हुआ है॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कोउ कह जब बिधि रति मुख कीन्हा। सार भाग ससि कर हरि लीन्हा॥
छिद्र सो प्रगट इन्दु उर माहीं। तेहि मग देखिअ नभ परिछाहीं॥4॥

मूल

कोउ कह जब बिधि रति मुख कीन्हा। सार भाग ससि कर हरि लीन्हा॥
छिद्र सो प्रगट इन्दु उर माहीं। तेहि मग देखिअ नभ परिछाहीं॥4॥

भावार्थ

कोई कहता है- जब ब्रह्मा ने (कामदेव की स्त्री) रति का मुख बनाया, तब उसने चन्द्रमा का सार भाग निकाल लिया (जिससे रति का मुख तो परम सुन्दर बन गया, परन्तु चन्द्रमा के हृदय में छेद हो गया)। वही छेद चन्द्रमा के हृदय में वर्तमान है, जिसकी राह से आकाश की काली छाया उसमें दिखाई पडती है॥4॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभु कह गरल बन्धु ससि केरा। अति प्रिय निज उर दीन्ह बसेरा॥
बिष सञ्जुत कर निकर पसारी। जारत बिरहवन्त नर नारी॥5॥

मूल

प्रभु कह गरल बन्धु ससि केरा। अति प्रिय निज उर दीन्ह बसेरा॥
बिष सञ्जुत कर निकर पसारी। जारत बिरहवन्त नर नारी॥5॥

भावार्थ

प्रभु श्री रामजी ने कहा- विष चन्द्रमा का बहुत प्यारा भाई है, इसी से उसने विष को अपने हृदय में स्थान दे रखा है। विषयुक्त अपने किरण समूह को फैलाकर वह वियोगी नर-नारियों को जलाता रहता है॥5॥

012

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

कह हनुमन्त सुनहु प्रभु ससि तुम्हार प्रिय दास।
तव मूरति बिधु उर बसति सोइ स्यामता अभास॥1॥

मूल

कह हनुमन्त सुनहु प्रभु ससि तुम्हार प्रिय दास।
तव मूरति बिधु उर बसति सोइ स्यामता अभास॥1॥

भावार्थ

हनुमान्‌जी ने कहा- हे प्रभो! सुनिए, चन्द्रमा आपका प्रिय दास है। आपकी सुन्दर श्याम मूर्ति चन्द्रमा के हृदय में बसती है, वही श्यामता की झलक चन्द्रमा में है॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नवाह्नपारायण, सातवाँ विश्राम

पवन तनय के बचन सुनि बिहँसे रामु सुजान।
दच्छिन दिसि अवलोकि प्रभु बोले कृपा निधान॥2॥

मूल

नवाह्नपारायण, सातवाँ विश्राम

पवन तनय के बचन सुनि बिहँसे रामु सुजान।
दच्छिन दिसि अवलोकि प्रभु बोले कृपा निधान॥2॥

भावार्थ

पवनपुत्र हनुमान्‌जी के वचन सुनकर सुजान श्री रामजी हँसे। फिर दक्षिण की ओर देखकर कृपानिधान प्रभु बोले-॥2॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

देखु विभीषन दच्छिन आसा। घन घमण्ड दामिनी बिलासा॥
मधुर मधुर गरजइ घन घोरा। होइ बृष्टि जनि उपल कठोरा॥1॥

मूल

देखु विभीषन दच्छिन आसा। घन घमण्ड दामिनी बिलासा॥
मधुर मधुर गरजइ घन घोरा। होइ बृष्टि जनि उपल कठोरा॥1॥

भावार्थ

हे विभीषण! दक्षिण दिशा की ओर देखो, बादल कैसा घुमड रहा है और बिजली चमक रही है। भयानक बादल मीठे-मीठे (हल्के-हल्के) स्वर से गरज रहा है। कहीं कठोर ओलों की वर्षा न हो!॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहत विभीषन सुनहू कृपाला। होइ न तडित न बारिद माला॥
लङ्का सिखर उपर आगारा। तहँ दसकन्धर देख अखारा॥2॥

मूल

कहत विभीषन सुनहू कृपाला। होइ न तडित न बारिद माला॥
लङ्का सिखर उपर आगारा। तहँ दसकन्धर देख अखारा॥2॥

भावार्थ

विभीषण बोले- हे कृपालु! सुनिए, यह न तो बिजली है, न बादलों की घटा। लङ्का की चोटी पर एक महल है। दशग्रीव रावण वहाँ (नाच-गान का) अखाडा देख रहा है॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

छत्र मेघडम्बर सिर धारी। सोइ जनु जलद घटा अति कारी॥
मन्दोदरी श्रवन ताटङ्का। सोइ प्रभु जनु दामिनी दमङ्का॥3॥

मूल

छत्र मेघडम्बर सिर धारी। सोइ जनु जलद घटा अति कारी॥
मन्दोदरी श्रवन ताटङ्का। सोइ प्रभु जनु दामिनी दमङ्का॥3॥

भावार्थ

रावण ने सिर पर मेघडम्बर (बादलों के डम्बर जैसा विशाल और काला) छत्र धारण कर रखा है। वही मानो बादलों की काली घटा है। मन्दोदरी के कानों में जो कर्णफूल हिल रहे हैं, हे प्रभो! वही मानो बिजली चमक रही है॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बाजहिं ताल मृदङ्ग अनूपा। सोइ रव मधुर सुनहू सुरभूपा।
प्रभु मुसुकान समुझि अभिमाना। चाप चढाव बान सन्धाना॥4॥

मूल

बाजहिं ताल मृदङ्ग अनूपा। सोइ रव मधुर सुनहू सुरभूपा।
प्रभु मुसुकान समुझि अभिमाना। चाप चढाव बान सन्धाना॥4॥

भावार्थ

हे देवताओं के सम्राट! सुनिए, अनुपम ताल मृदङ्ग बज रहे हैं। वही मधुर (गर्जन) ध्वनि है। रावण का अभिमान समझकर प्रभु मुस्कुराए। उन्होन्ने धनुष चढाकर उस पर बाण का सन्धान किया॥4॥

013

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

छत्र मुकुट ताण्टक तब हते एकहीं बान।
सब कें देखत महि परे मरमु न कोऊ जान॥1॥

मूल

छत्र मुकुट ताण्टक तब हते एकहीं बान।
सब कें देखत महि परे मरमु न कोऊ जान॥1॥

भावार्थ

और एक ही बाण से (रावण के) छत्र-मुकुट और (मन्दोदरी के) कर्णफूल काट गिराए। सबके देखते-देखते वे जमीन पर आ पडे, पर इसका भेद (कारण) किसी ने नहीं जाना॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस कौतुक करि राम सर प्रबिसेउ आई निषङ्ग।
रावन सभा ससङ्क सब देखि महा रसभङ्ग॥2॥

मूल

अस कौतुक करि राम सर प्रबिसेउ आई निषङ्ग।
रावन सभा ससङ्क सब देखि महा रसभङ्ग॥2॥

भावार्थ

ऐसा चमत्कार करके श्री रामजी का बाण (वापस) आकर (फिर) तरकस में जा घुसा। यह महान्‌ रस भङ्ग (रङ्ग में भङ्ग) देखकर रावण की सारी सभा भयभीत हो गई॥2॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

कम्प न भूमि न मरुत बिसेषा। अस्त्र सस्त्र कछु नयन न देखा।
सोचहिं सब निज हृदय मझारी। असगुन भयउ भयङ्कर भारी॥1॥

मूल

कम्प न भूमि न मरुत बिसेषा। अस्त्र सस्त्र कछु नयन न देखा।
सोचहिं सब निज हृदय मझारी। असगुन भयउ भयङ्कर भारी॥1॥

भावार्थ

न भूकम्प हुआ, न बहुत जोर की हवा (आँधी) चली। न कोई अस्त्र-शस्त्र ही नेत्रों से देखे। (फिर ये छत्र, मुकुट और कर्णफूल जैसे कटकर गिर पडे?) सभी अपने-अपने हृदय में सोच रहे हैं कि यह बडा भयङ्कर अपशकुन हुआ!॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दसमुख देखि सभा भय पाई। बिहसि बचन कह जुगुति बनाई।
सिरउ गिरे सन्तत सुभ जाही। मुकुट परे कस असगुन ताही॥2॥

मूल

दसमुख देखि सभा भय पाई। बिहसि बचन कह जुगुति बनाई।
सिरउ गिरे सन्तत सुभ जाही। मुकुट परे कस असगुन ताही॥2॥

भावार्थ

सभा को भयतीत देखकर रावण ने हँसकर युक्ति रचकर ये वचन कहे- सिरों का गिरना भी जिसके लिए निरन्तर शुभ होता रहा है, उसके लिए मुकुट का गिरना अपशकुन कैसा?॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सयन करहु निज निज गृह जाईं। गवने भवन सकल सिर नाई॥
मन्दोदरी सोच उर बसेऊ। जब ते श्रवनपूर महि खसेऊ॥3॥

मूल

सयन करहु निज निज गृह जाईं। गवने भवन सकल सिर नाई॥
मन्दोदरी सोच उर बसेऊ। जब ते श्रवनपूर महि खसेऊ॥3॥

भावार्थ

अपने-अपने घर जाकर सो रहो (डरने की कोई बात नहीं है) तब सब लोग सिर नवाकर घर गए। जब से कर्णफूल पृथ्वी पर गिरा, तब से मन्दोदरी के हृदय में सोच बस गया॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सजल नयन कह जुग कर जोरी। सुनहु प्रानपति बिनती मोरी॥
कन्त राम बिरोध परिहरहू। जानि मनुज जनि हठ लग धरहू॥4॥

मूल

सजल नयन कह जुग कर जोरी। सुनहु प्रानपति बिनती मोरी॥
कन्त राम बिरोध परिहरहू। जानि मनुज जनि हठ लग धरहू॥4॥

भावार्थ

नेत्रों में जल भरकर, दोनों हाथ जोडकर वह (रावण से) कहने लगी- हे प्राणनाथ! मेरी विनती सुनिए। हे प्रियतम! श्री राम से विरोध छोड दीजिए। उन्हें मनुष्य जानकर मन में हठ न पकडे रहिए॥4॥

014

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिस्वरूप रघुबंस मनि करहु बचन बिस्वासु।
लोक कल्पना बेद कर अङ्ग अङ्ग प्रति जासु॥14॥

मूल

बिस्वरूप रघुबंस मनि करहु बचन बिस्वासु।
लोक कल्पना बेद कर अङ्ग अङ्ग प्रति जासु॥14॥

भावार्थ

मेरे इन वचनों पर विश्वास कीजिए कि ये रघुकुल के शिरोमणि श्री रामचन्द्रजी विश्व रूप हैं- (यह सारा विश्व उन्हीं का रूप है)। वेद जिनके अङ्ग-अङ्ग में लोकों की कल्पना करते हैं॥14॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

पद पाताल सीस अज धामा। अपर लोक अँग अँग बिश्रामा॥
भृकुटि बिलास भयङ्कर काला। नयन दिवाकर कच घन माला॥1॥

मूल

पद पाताल सीस अज धामा। अपर लोक अँग अँग बिश्रामा॥
भृकुटि बिलास भयङ्कर काला। नयन दिवाकर कच घन माला॥1॥

भावार्थ

पाताल (जिन विश्व रूप भगवान्‌ का) चरण है, ब्रह्म लोक सिर है, अन्य (बीच के सब) लोकों का विश्राम (स्थिति) जिनके अन्य भिन्न-भिन्न अङ्गों पर है। भयङ्कर काल जिनका भृकुटि सञ्चालन (भौंहों का चलना) है। सूर्य नेत्र हैं, बादलों का समूह बाल है॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जासु घ्रान अस्विनीकुमारा। निसि अरु दिवस निमेष अपारा॥
श्रवन दिसा दस बेद बखानी। मारुत स्वास निगम निज बानी॥2॥

मूल

जासु घ्रान अस्विनीकुमारा। निसि अरु दिवस निमेष अपारा॥
श्रवन दिसा दस बेद बखानी। मारुत स्वास निगम निज बानी॥2॥

भावार्थ

अश्विनी कुमार जिनकी नासिका हैं, रात और दिन जिनके अपार निमेष (पलक मारना और खोलना) हैं। दसों दिशाएँ कान हैं, वेद ऐसा कहते हैं। वायु श्वास है और वेद जिनकी अपनी वाणी है॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अधर लोभ जम दसन कराला। माया हास बाहु दिगपाला॥
आनन अनल अम्बुपति जीहा। उतपति पालन प्रलय समीहा॥3॥

मूल

अधर लोभ जम दसन कराला। माया हास बाहु दिगपाला॥
आनन अनल अम्बुपति जीहा। उतपति पालन प्रलय समीहा॥3॥

भावार्थ

लोभ जिनका अधर (होठ) है, यमराज भयानक दाँत हैं। माया हँसी है, दिक्पाल भुजाएँ हैं। अग्नि मुख है, वरुण जीभ है। उत्पत्ति, पालन और प्रलय जिनकी चेष्टा (क्रिया) है॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रोम राजि अष्टादस भारा। अस्थि सैल सरिता नस जारा॥
उदर उदधि अधगो जातना। जगमय प्रभु का बहु कलपना॥4॥

मूल

रोम राजि अष्टादस भारा। अस्थि सैल सरिता नस जारा॥
उदर उदधि अधगो जातना। जगमय प्रभु का बहु कलपना॥4॥

भावार्थ

अठारह प्रकार की असङ्ख्य वनस्पतियाँ जिनकी रोमावली हैं, पर्वत अस्थियाँ हैं, नदियाँ नसों का जाल है, समुद्र पेट है और नरक जिनकी नीचे की इन्द्रियाँ हैं। इस प्रकार प्रभु विश्वमय हैं, अधिक कल्पना (ऊहापोह) क्या की जाए?॥4॥

015

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहङ्कार सिव बुद्धि अज मन ससि चित्त महान।
मनुज बास सचराचर रूप राम भगवान॥1॥

मूल

अहङ्कार सिव बुद्धि अज मन ससि चित्त महान।
मनुज बास सचराचर रूप राम भगवान॥1॥

भावार्थ

शिव जिनका अहङ्कार हैं, ब्रह्मा बुद्धि हैं, चन्द्रमा मन हैं और महान (विष्णु) ही चित्त हैं। उन्हीं चराचर रूप भगवान श्री रामजी ने मनुष्य रूप में निवास किया है॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस बिचारि सुनु प्रानपति प्रभु सन बयरु बिहाइ।
प्रीति करहु रघुबीर पद मम अहिवात न जाइ॥2॥

मूल

अस बिचारि सुनु प्रानपति प्रभु सन बयरु बिहाइ।
प्रीति करहु रघुबीर पद मम अहिवात न जाइ॥2॥

भावार्थ

हे प्राणपति सुनिए, ऐसा विचार कर प्रभु से वैर छोडकर श्री रघुवीर के चरणों में प्रेम कीजिए, जिससे मेरा सुहाग न जाए॥2॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिहँसा नारि बचन सुनि काना। अहो मोह महिमा बलवाना॥
नारि सुभाउ सत्य सब कहहीं। अवगुन आठ सदा उर रहहीं॥1॥

मूल

बिहँसा नारि बचन सुनि काना। अहो मोह महिमा बलवाना॥
नारि सुभाउ सत्य सब कहहीं। अवगुन आठ सदा उर रहहीं॥1॥

भावार्थ

पत्नी के वचन कानों से सुनकर रावण खूब हँसा (और बोला-) अहो! मोह (अज्ञान) की महिमा बडी बलवान्‌ है। स्त्री का स्वभाव सब सत्य ही कहते हैं कि उसके हृदय में आठ अवगुण सदा रहते हैं-॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

साहस अनृत चपलता माया। भय अबिबेक असौच अदाया॥
रिपु कर रूप सकल तैं गावा। अति बिसाल भय मोहि सुनावा॥2॥

मूल

साहस अनृत चपलता माया। भय अबिबेक असौच अदाया॥
रिपु कर रूप सकल तैं गावा। अति बिसाल भय मोहि सुनावा॥2॥

भावार्थ

साहस, झूठ, चञ्चलता, माया (छल), भय (डरपोकपन) अविवेक (मूर्खता), अपवित्रता और निर्दयता। तूने शत्रु का समग्र (विराट) रूप गाया और मुझे उसका बडा भारी भय सुनाया॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सो सब प्रिया सहज बस मोरें। समुझि परा अब प्रसाद तोरें॥
जानिउँ प्रिया तोरि चतुराई। एहि बिधि कहहु मोरि प्रभुताई॥3॥

मूल

सो सब प्रिया सहज बस मोरें। समुझि परा अब प्रसाद तोरें॥
जानिउँ प्रिया तोरि चतुराई। एहि बिधि कहहु मोरि प्रभुताई॥3॥

भावार्थ

हे प्रिये! वह सब (यह चराचर विश्व तो) स्वभाव से ही मेरे वश में है। तेरी कृपा से मुझे यह अब समझ पडा। हे प्रिये! तेरी चतुराई मैं जान गया। तू इस प्रकार (इसी बहाने) मेरी प्रभुता का बखान कर रही है॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तव बतकही गूढ मृगलोचनि। समुझत सुखद सुनत भय मोचनि॥
मन्दोदरि मन महुँ अस ठयऊ। पियहि काल बस मति भ्रम भयउ॥4॥

मूल

तव बतकही गूढ मृगलोचनि। समुझत सुखद सुनत भय मोचनि॥
मन्दोदरि मन महुँ अस ठयऊ। पियहि काल बस मति भ्रम भयउ॥4॥

भावार्थ

हे मृगनयनी! तेरी बातें बडी गूढ (रहस्यभरी) हैं, समझने पर सुख देने वाली और सुनने से भय छुडाने वाली हैं। मन्दोदरी ने मन में ऐसा निश्चय कर लिया कि पति को कालवश मतिभ्रम हो गया है॥4॥

016

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऐहि बिधि करत बिनोद बहु प्रात प्रगट दसकन्ध।
सहज असङ्क लङ्कपति सभाँ गयउ मद अन्ध॥1॥

मूल

ऐहि बिधि करत बिनोद बहु प्रात प्रगट दसकन्ध।
सहज असङ्क लङ्कपति सभाँ गयउ मद अन्ध॥1॥

भावार्थ

इस प्रकार (अज्ञानवश) बहुत से विनोद करते हुए रावण को सबेरा हो गया। तब स्वभाव से ही निडर और घमण्ड में अन्धा लङ्कापति सभा में गया॥1॥

02 सोरठा

विश्वास-प्रस्तुतिः

फूलइ फरइ न बेत जदपि सुधा बरषहिं जलद।
मूरुख हृदयँ न चेत जौं गुर मिलहिं बिरञ्चि सम॥2॥

मूल

फूलइ फरइ न बेत जदपि सुधा बरषहिं जलद।
मूरुख हृदयँ न चेत जौं गुर मिलहिं बिरञ्चि सम॥2॥

भावार्थ

यद्यपि बादल अमृत सा जल बरसाते हैं तो भी बेत फूलता-फलता नहीं। इसी प्रकार चाहे ब्रह्मा के समान भी ज्ञानी गुरु मिलें, तो भी मूर्ख के हृदय में चेत (ज्ञान) नहीं होता॥2॥

03 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

इहाँ प्रात जागे रघुराई। पूछा मत सब सचिव बोलाई॥
कहहु बेगि का करिअ उपाई। जामवन्त कह पद सिरु नाई॥1॥

मूल

इहाँ प्रात जागे रघुराई। पूछा मत सब सचिव बोलाई॥
कहहु बेगि का करिअ उपाई। जामवन्त कह पद सिरु नाई॥1॥

भावार्थ

यहाँ (सुबेल पर्वत पर) प्रातःकाल श्री रघुनाथजी जागे और उन्होन्ने सब मन्त्रियों को बुलाकर सलाह पूछी कि शीघ्र बताइए, अब क्या उपाय करना चाहिए? जाम्बवान्‌ ने श्री रामजी के चरणों में सिर नवाकर कहा-॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुनु सर्बग्य सकल उर बासी। बुधि बल तेज धर्म गुन रासी॥
मन्त्र कहउँ निज मति अनुसारा। दूत पठाइअ बालि कुमारा॥2॥

मूल

सुनु सर्बग्य सकल उर बासी। बुधि बल तेज धर्म गुन रासी॥
मन्त्र कहउँ निज मति अनुसारा। दूत पठाइअ बालि कुमारा॥2॥

भावार्थ

हे सर्वज्ञ (सब कुछ जानने वाले)! हे सबके हृदय में बसने वाले (अन्तर्यामी)! हे बुद्धि, बल, तेज, धर्म और गुणों की राशि! सुनिए! मैं अपनी बुद्धि के अनुसार सलाह देता हूँ कि बालिकुमार अङ्गद को दूत बनाकर भेजा जाए!॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नीक मन्त्र सब के मन माना। अङ्गद सन कह कृपानिधाना॥
बालितनय बुधि बल गुन धामा। लङ्का जाहु तात मम कामा॥3॥

मूल

नीक मन्त्र सब के मन माना। अङ्गद सन कह कृपानिधाना॥
बालितनय बुधि बल गुन धामा। लङ्का जाहु तात मम कामा॥3॥

भावार्थ

यह अच्छी सलाह सबके मन में जँच गई। कृपा के निधान श्री रामजी ने अङ्गद से कहा- हे बल, बुद्धि और गुणों के धाम बालिपुत्र! हे तात! तुम मेरे काम के लिए लङ्का जाओ॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बहुत बुझाइ तुम्हहि का कहऊँ। परम चतुर मैं जानत अहऊँ॥
काजु हमार तासु हित होई। रिपु सन करेहु बतकही सोई॥4॥

मूल

बहुत बुझाइ तुम्हहि का कहऊँ। परम चतुर मैं जानत अहऊँ॥
काजु हमार तासु हित होई। रिपु सन करेहु बतकही सोई॥4॥

भावार्थ

तुमको बहुत समझाकर क्या कहूँ! मैं जानता हूँ, तुम परम चतुर हो। शत्रु से वही बातचीत करना, जिससे हमारा काम हो और उसका कल्याण हो॥4॥

017

01 सोरठा

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभु अग्या धरि सीस चरन बन्दि अङ्गद उठेउ।
सोइ गुन सागर ईस राम कृपा जा कर करहु॥1॥

मूल

प्रभु अग्या धरि सीस चरन बन्दि अङ्गद उठेउ।
सोइ गुन सागर ईस राम कृपा जा कर करहु॥1॥

भावार्थ

प्रभु की आज्ञा सिर चढकर और उनके चरणों की वन्दना करके अङ्गदजी उठे (और बोले-) हे भगवान्‌ श्री रामजी! आप जिस पर कृपा करें, वही गुणों का समुद्र हो जाता है॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वयंसिद्ध सब काज नाथ मोहि आदरु दियउ।
अस बिचारि जुबराज तन पुलकित हरषित हियउ॥2॥

मूल

स्वयंसिद्ध सब काज नाथ मोहि आदरु दियउ।
अस बिचारि जुबराज तन पुलकित हरषित हियउ॥2॥

भावार्थ

स्वामी सब कार्य अपने-आप सिद्ध हैं, यह तो प्रभु ने मुझ को आदर दिया है (जो मुझे अपने कार्य पर भेज रहे हैं)। ऐसा विचार कर युवराज अङ्गद का हृदय हर्षित और शरीर पुलकित हो गया॥2॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

बन्दि चरन उर धरि प्रभुताई। अङ्गद चलेउ सबहि सिरु नाई॥
प्रभु प्रताप उर सहज असङ्का। रन बाँकुरा बालिसुत बङ्का॥1॥

मूल

बन्दि चरन उर धरि प्रभुताई। अङ्गद चलेउ सबहि सिरु नाई॥
प्रभु प्रताप उर सहज असङ्का। रन बाँकुरा बालिसुत बङ्का॥1॥

भावार्थ

चरणों की वन्दना करके और भगवान्‌ की प्रभुता हृदय में धरकर अङ्गद सबको सिर नवाकर चले। प्रभु के प्रताप को हृदय में धारण किए हुए रणबाँकुरे वीर बालिपुत्र स्वाभाविक ही निर्भय हैं॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुर पैठत रावन कर बेटा। खेलत रहा सो होइ गै भेण्टा॥
बातहिं बात करष बढि आई। जुगल अतुल बल पुनि तरुनाई॥2॥

मूल

पुर पैठत रावन कर बेटा। खेलत रहा सो होइ गै भेण्टा॥
बातहिं बात करष बढि आई। जुगल अतुल बल पुनि तरुनाई॥2॥

भावार्थ

लङ्का में प्रवेश करते ही रावण के पुत्र से भेण्ट हो गई, जो वहाँ खेल रहा था। बातों ही बातों में दोनों में झगडा बढ गया (क्योङ्कि) दोनों ही अतुलनीय बलवान्‌ थे और फिर दोनों की युवावस्था थी॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेहिं अङ्गद कहुँ लात उठाई। गहि पद पटकेउ भूमि भवाँई॥
निसिचर निकर देखि भट भारी। जहँ तहँ चले न सकहिं पुकारी॥3॥

मूल

तेहिं अङ्गद कहुँ लात उठाई। गहि पद पटकेउ भूमि भवाँई॥
निसिचर निकर देखि भट भारी। जहँ तहँ चले न सकहिं पुकारी॥3॥

भावार्थ

उसने अङ्गद पर लात उठाई। अङ्गद ने (वही) पैर पकडकर उसे घुमाकर जमीन पर दे पटका (मार गिराया)। राक्षस के समूह भारी योद्धा देखकर जहाँ-तहाँ (भाग) चले, वे डर के मारे पुकार भी न मचा सके॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एक एक सन मरमु न कहहीं। समुझि तासु बध चुप करि रहहीं॥
भयउ कोलाहल नगर मझारी। आवा कपि लङ्का जेहिं जारी॥4॥

मूल

एक एक सन मरमु न कहहीं। समुझि तासु बध चुप करि रहहीं॥
भयउ कोलाहल नगर मझारी। आवा कपि लङ्का जेहिं जारी॥4॥

भावार्थ

एक-दूसरे को मर्म (असली बात) नहीं बतलाते, उस (रावण के पुत्र) का वध समझकर सब चुप मारकर रह जाते हैं। (रावण पुत्र की मृत्यु जानकर और राक्षसों को भय के मारे भागते देखकर) नगरभर में कोलाहल मच गया कि जिसने लङ्का जलाई थी, वही वानर फिर आ गया है॥4॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अब धौं कहा करिहि करतारा। अति सभीत सब करहिं बिचारा॥
बिनु पूछें मगु देहिं दिखाई। जेहि बिलोक सोइ जाइ सुखाई॥5॥

मूल

अब धौं कहा करिहि करतारा। अति सभीत सब करहिं बिचारा॥
बिनु पूछें मगु देहिं दिखाई। जेहि बिलोक सोइ जाइ सुखाई॥5॥

भावार्थ

सब अत्यन्त भयभीत होकर विचार करने लगे कि विधाता अब न जाने क्या करेगा। वे बिना पूछे ही अङ्गद को (रावण के दरबार की) राह बता देते हैं। जिसे ही वे देखते हैं, वही डर के मारे सूख जाता है॥5॥

018

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

गयउ सभा दरबार तब सुमिरि राम पद कञ्ज।
सिंह ठवनि इत उत चितव धीर बीर बल पुञ्ज॥18॥

मूल

गयउ सभा दरबार तब सुमिरि राम पद कञ्ज।
सिंह ठवनि इत उत चितव धीर बीर बल पुञ्ज॥18॥

भावार्थ

श्री रामजी के चरणकमलों का स्मरण करके अङ्गद रावण की सभा के द्वार पर गए और वे धीर, वीर और बल की राशि अङ्गद सिंह की सी ऐण्ड (शान) से इधर-उधर देखने लगे॥18॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुरत निसाचर एक पठावा। समाचार रावनहि जनावा॥
सुनत बिहँसि बोला दससीसा। आनहु बोलि कहाँ कर कीसा॥1॥

मूल

तुरत निसाचर एक पठावा। समाचार रावनहि जनावा॥
सुनत बिहँसि बोला दससीसा। आनहु बोलि कहाँ कर कीसा॥1॥

भावार्थ

तुरन्त ही उन्होन्ने एक राक्षस को भेजा और रावण को अपने आने का समाचार सूचित किया। सुनते ही रावण हँसकर बोला- बुला लाओ, (देखें) कहाँ का बन्दर है॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आयसु पाइ दूत बहु धाए। कपिकुञ्जरहि बोलि लै आए॥
अङ्गद दीख दसानन बैसें। सहित प्रान कज्जलगिरि जैसें॥2॥

मूल

आयसु पाइ दूत बहु धाए। कपिकुञ्जरहि बोलि लै आए॥
अङ्गद दीख दसानन बैसें। सहित प्रान कज्जलगिरि जैसें॥2॥

भावार्थ

आज्ञा पाकर बहुत से दूत दौडे और वानरों में हाथी के समान अङ्गद को बुला लाए। अङ्गद ने रावण को ऐसे बैठे हुए देखा, जैसे कोई प्राणयुक्त (सजीव) काजल का पहाड हो!॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भुजा बिटप सिर सृङ्ग समाना। रोमावली लता जनु नाना॥
मुख नासिका नयन अरु काना। गिरि कन्दरा खोह अनुमाना॥3॥

मूल

भुजा बिटप सिर सृङ्ग समाना। रोमावली लता जनु नाना॥
मुख नासिका नयन अरु काना। गिरि कन्दरा खोह अनुमाना॥3॥

भावार्थ

भुजाएँ वृक्षों के और सिर पर्वतों के शिखरों के समान हैं। रोमावली मानो बहुत सी लताएँ हैं। मुँह, नाक, नेत्र और कान पर्वत की कन्दराओं और खोहों के बराबर हैं॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गयउ सभाँ मन नेकु न मुरा। बालितनय अतिबल बाँकुरा॥
उठे सभासद कपि कहुँ देखी। रावन उर भा क्रोध बिसेषी॥4॥

मूल

गयउ सभाँ मन नेकु न मुरा। बालितनय अतिबल बाँकुरा॥
उठे सभासद कपि कहुँ देखी। रावन उर भा क्रोध बिसेषी॥4॥

भावार्थ

अत्यन्त बलवान्‌ बाँके वीर बालिपुत्र अङ्गद सभा में गए, वे मन में जरा भी नहीं झिझके। अङ्गद को देखते ही सब सभासद् उठ खडे हुए। यह देखकर रावण के हृदय में बडा क्रोध हुआ॥4॥

019

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

जथा मत्त गज जूथ महुँ पञ्चानन चलि जाइ।
राम प्रताप सुमिरि मन बैठ सभाँ सिरु नाइ॥19॥

मूल

जथा मत्त गज जूथ महुँ पञ्चानन चलि जाइ।
राम प्रताप सुमिरि मन बैठ सभाँ सिरु नाइ॥19॥

भावार्थ

जैसे मतवाले हाथियों के झुण्ड में सिंह (निःशङ्क होकर) चला जाता है, वैसे ही श्री रामजी के प्रताप का हृदय में स्मरण करके वे (निर्भय) सभा में सिर नवाकर बैठ गए॥19॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

कह दसकण्ठ कवन तैं बन्दर। मैं रघुबीर दूत दसकन्धर॥
मम जनकहि तोहि रही मिताई। तव हित कारन आयउँ भाई॥1॥

मूल

कह दसकण्ठ कवन तैं बन्दर। मैं रघुबीर दूत दसकन्धर॥
मम जनकहि तोहि रही मिताई। तव हित कारन आयउँ भाई॥1॥

भावार्थ

रावण ने कहा- अरे बन्दर! तू कौन है? (अङ्गद ने कहा-) हे दशग्रीव! मैं श्री रघुवीर का दूत हूँ। मेरे पिता से और तुमसे मित्रता थी, इसलिए हे भाई! मैं तुम्हारी भलाई के लिए ही आया हूँ॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उत्तम कुल पुलस्ति कर नाती। सिव बिंरचि पूजेहु बहु भाँती॥
बर पायहु कीन्हेहु सब काजा। जीतेहु लोकपाल सब राजा॥2॥

मूल

उत्तम कुल पुलस्ति कर नाती। सिव बिंरचि पूजेहु बहु भाँती॥
बर पायहु कीन्हेहु सब काजा। जीतेहु लोकपाल सब राजा॥2॥

भावार्थ

तुम्हारा उत्तम कुल है, पुलस्त्य ऋषि के तुम पौत्र हो। शिवजी की और ब्रह्माजी की तुमने बहुत प्रकार से पूजा की है। उनसे वर पाए हैं और सब काम सिद्ध किए हैं। लोकपालों और सब राजाओं को तुमने जीत लिया है॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नृप अभिमान मोह बस किम्बा। हरि आनिहु सीता जगदम्बा॥
अब सुभ कहा सुनहु तुम्ह मोरा। सब अपराध छमिहि प्रभु तोरा॥3॥

मूल

नृप अभिमान मोह बस किम्बा। हरि आनिहु सीता जगदम्बा॥
अब सुभ कहा सुनहु तुम्ह मोरा। सब अपराध छमिहि प्रभु तोरा॥3॥

भावार्थ

राजमद से या मोहवश तुम जगज्जननी सीताजी को हर लाए हो। अब तुम मेरे शुभ वचन (मेरी हितभरी सलाह) सुनो! (उसके अनुसार चलने से) प्रभु श्री रामजी तुम्हारे सब अपराध क्षमा कर देङ्गे॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दसन गहहु तृन कण्ठ कुठारी। परिजन सहित सङ्ग निज नारी॥
सादर जनकसुता करि आगें। एहि बिधि चलहु सकल भय त्यागें॥4॥

मूल

दसन गहहु तृन कण्ठ कुठारी। परिजन सहित सङ्ग निज नारी॥
सादर जनकसुता करि आगें। एहि बिधि चलहु सकल भय त्यागें॥4॥

भावार्थ

दाँतों में तिनका दबाओ, गले में कुल्हाडी डालो और कुटुम्बियों सहित अपनी स्त्रियों को साथ लेकर, आदरपूर्वक जानकीजी को आगे करके, इस प्रकार सब भय छोडकर चलो-॥4॥

020

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रनतपाल रघुबंसमनि त्राहि त्राहि अब मोहि।
आरत गिरा सुनत प्रभु अभय करेङ्गे तोहि॥20॥

मूल

प्रनतपाल रघुबंसमनि त्राहि त्राहि अब मोहि।
आरत गिरा सुनत प्रभु अभय करेङ्गे तोहि॥20॥

भावार्थ

और ‘हे शरणागत के पालन करने वाले रघुवंश शिरोमणि श्री रामजी! मेरी रक्षा कीजिए, रक्षा कीजिए।’ (इस प्रकार आर्त प्रार्थना करो।) आर्त पुकार सुनते ही प्रभु तुमको निर्भय कर देङ्गे॥20॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

रे कपिपोत बोलु सम्भारी। मूढ न जानेहि मोहि सुरारी॥
कहु निज नाम जनक कर भाई। केहि नातें मानिऐ मिताई॥1॥

मूल

रे कपिपोत बोलु सम्भारी। मूढ न जानेहि मोहि सुरारी॥
कहु निज नाम जनक कर भाई। केहि नातें मानिऐ मिताई॥1॥

भावार्थ

(रावण ने कहा-) अरे बन्दर के बच्चे! सँभालकर बोल! मूर्ख! मुझ देवताओं के शत्रु को तूने जाना नहीं? अरे भाई! अपना और अपने बाप का नाम तो बता। किस नाते से मित्रता मानता है?॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अङ्गद नाम बालि कर बेटा। तासों कबहुँ भई ही भेण्टा॥
अङ्गद बचन सुनत सकुचाना। रहा बालि बानर मैं जाना॥2॥

मूल

अङ्गद नाम बालि कर बेटा। तासों कबहुँ भई ही भेण्टा॥
अङ्गद बचन सुनत सकुचाना। रहा बालि बानर मैं जाना॥2॥

भावार्थ

(अङ्गद ने कहा-) मेरा नाम अङ्गद है, मैं बालि का पुत्र हूँ। उनसे कभी तुम्हारी भेण्ट हुई थी? अङ्गद का वचन सुनते ही रावण कुछ सकुचा गया (और बोला-) हाँ, मैं जान गया (मुझे याद आ गया), बालि नाम का एक बन्दर था॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अङ्गद तहीं बालि कर बालक। उपजेहु बंस अनल कुल घालक॥
गर्भ न गयहु ब्यर्थ तुम्ह जायहु। निज मुख तापस दूत कहायहु॥3॥

मूल

अङ्गद तहीं बालि कर बालक। उपजेहु बंस अनल कुल घालक॥
गर्भ न गयहु ब्यर्थ तुम्ह जायहु। निज मुख तापस दूत कहायहु॥3॥

भावार्थ

अरे अङ्गद! तू ही बालि का लडका है? अरे कुलनाशक! तू तो अपने कुलरूपी बाँस के लिए अग्नि रूप ही पैदा हुआ! गर्भ में ही क्यों न नष्ट हो गया तू? व्यर्थ ही पैदा हुआ जो अपने ही मुँह से तपस्वियों का दूत कहलाया!॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अब कहु कुसल बालि कहँ अहई। बिहँसि बचन तब अङ्गद कहई॥
दिन दस गएँ बालि पहिं जाई। बूझेहु कुसल सखा उर लाई॥4॥

मूल

अब कहु कुसल बालि कहँ अहई। बिहँसि बचन तब अङ्गद कहई॥
दिन दस गएँ बालि पहिं जाई। बूझेहु कुसल सखा उर लाई॥4॥

भावार्थ

अब बालि की कुशल तो बता, वह (आजकल) कहाँ है? तब अङ्गद ने हँसकर कहा- दस (कुछ) दिन बीतने पर (स्वयं ही) बालि के पास जाकर, अपने मित्र को हृदय से लगाकर, उसी से कुशल पूछ लेना॥4॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम बिरोध कुसल जसि होई। सो सब तोहि सुनाइहि सोई॥
सुनु सठ भेद होइ मन ताकें। श्री रघुबीर हृदय नहिं जाकें॥5॥

मूल

राम बिरोध कुसल जसि होई। सो सब तोहि सुनाइहि सोई॥
सुनु सठ भेद होइ मन ताकें। श्री रघुबीर हृदय नहिं जाकें॥5॥

भावार्थ

श्री रामजी से विरोध करने पर जैसी कुशल होती है, वह सब तुमको वे सुनावेङ्गे। हे मूर्ख! सुन, भेद उसी के मन में पड सकता है, (भेद नीति उसी पर अपना प्रभाव डाल सकती है) जिसके हृदय में श्री रघुवीर न हों॥5॥

021

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

हम कुल घालक सत्य तुम्ह कुल पालक दससीस।
अन्धउ बधिर न अस कहहिं नयन कान तव बीस॥21॥

मूल

हम कुल घालक सत्य तुम्ह कुल पालक दससीस।
अन्धउ बधिर न अस कहहिं नयन कान तव बीस॥21॥

भावार्थ

सच है, मैं तो कुल का नाश करने वाला हूँ और हे रावण! तुम कुल के रक्षक हो। अन्धे-बहरे भी ऐसी बात नहीं कहते, तुम्हारे तो बीस नेत्र और बीस कान हैं!॥21॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

सिव बिरञ्चि सुर मुनि समुदाई। चाहत जासु चरन सेवकाई॥
तासु दूत होइ हम कुल बोरा। अइसिहुँ मति उर बिहर न तोरा॥1॥

मूल

सिव बिरञ्चि सुर मुनि समुदाई। चाहत जासु चरन सेवकाई॥
तासु दूत होइ हम कुल बोरा। अइसिहुँ मति उर बिहर न तोरा॥1॥

भावार्थ

शिव, ब्रह्मा (आदि) देवता और मुनियों के समुदाय जिनके चरणों की सेवा (करना) चाहते हैं, उनका दूत होकर मैन्ने कुल को डुबा दिया? अरे ऐसी बुद्धि होने पर भी तुम्हारा हृदय फट नहीं जाता?॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुनि कठोर बानी कपि केरी। कहत दसानन नयन तरेरी॥
खल तव कठिन बचन सब सहऊँ। नीति धर्म मैं जानत अहऊँ॥2॥

मूल

सुनि कठोर बानी कपि केरी। कहत दसानन नयन तरेरी॥
खल तव कठिन बचन सब सहऊँ। नीति धर्म मैं जानत अहऊँ॥2॥

भावार्थ

वानर (अङ्गद) की कठोर वाणी सुनकर रावण आँखें तरेरकर (तिरछी करके) बोला- अरे दुष्ट! मैं तेरे सब कठोर वचन इसीलिए सह रहा हूँ कि मैं नीति और धर्म को जानता हूँ (उन्हीं की रक्षा कर रहा हूँ)॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कह कपि धर्मसीलता तोरी। हमहुँ सुनी कृत पर त्रिय चोरी॥
देखी नयन दूत रखवारी। बूडि न मरहु धर्म ब्रतधारी॥3॥

मूल

कह कपि धर्मसीलता तोरी। हमहुँ सुनी कृत पर त्रिय चोरी॥
देखी नयन दूत रखवारी। बूडि न मरहु धर्म ब्रतधारी॥3॥

भावार्थ

अङ्गद ने कहा- तुम्हारी धर्मशीलता मैन्ने भी सुनी है। (वह यह कि) तुमने पराई स्त्री की चोरी की है! और दूत की रक्षा की बात तो अपनी आँखों से देख ली। ऐसे धर्म के व्रत को धारण (पालन) करने वाले तुम डूबकर मर नहीं जाते!॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कान नाक बिनु भगिनि निहारी। छमा कीन्हि तुम्ह धर्म बिचारी॥
धर्मसीलता तव जग जागी। पावा दरसु हमहुँ बडभागी॥4॥

मूल

कान नाक बिनु भगिनि निहारी। छमा कीन्हि तुम्ह धर्म बिचारी॥
धर्मसीलता तव जग जागी। पावा दरसु हमहुँ बडभागी॥4॥

भावार्थ

नाक-कान से रहित बहिन को देखकर तुमने धर्म विचारकर ही तो क्षमा कर दिया था! तुम्हारी धर्मशीलता जगजाहिर है। मैं भी बडा भाग्यवान्‌ हूँ, जो मैन्ने तुम्हारा दर्शन पाया?॥4॥

022

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

जनि जल्पसि जड जन्तु कपि सठ बिलोकु मम बाहु।
लोकपाल बल बिपुल ससि ग्रसन हेतु सब राहु॥1॥

मूल

जनि जल्पसि जड जन्तु कपि सठ बिलोकु मम बाहु।
लोकपाल बल बिपुल ससि ग्रसन हेतु सब राहु॥1॥

भावार्थ

(रावण ने कहा-) अरे जड जन्तु वानर! व्यर्थ बक-बक न कर, अरे मूर्ख! मेरी भुजाएँ तो देख। ये सब लोकपालों के विशाल बल रूपी चन्द्रमा को ग्रसने के लिए राहु हैं॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुनि नभ सर मम कर निकर कमलन्हि पर करि बास।
सोभत भयउ मराल इव सम्भु सहित कैलास॥2॥

मूल

पुनि नभ सर मम कर निकर कमलन्हि पर करि बास।
सोभत भयउ मराल इव सम्भु सहित कैलास॥2॥

भावार्थ

फिर (तूने सुना ही होगा कि) आकाश रूपी तालाब में मेरी भुजाओं रूपी कमलों पर बसकर शिवजी सहित कैलास हंस के समान शोभा को प्राप्त हुआ था!॥2॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुम्हरे कटक माझ सुनु अङ्गद। मो सन भिरिहि कवन जोधा बद॥
तब प्रभु नारि बिरहँ बलहीना। अनुज तासु दुख दुखी मलीना॥1॥

मूल

तुम्हरे कटक माझ सुनु अङ्गद। मो सन भिरिहि कवन जोधा बद॥
तब प्रभु नारि बिरहँ बलहीना। अनुज तासु दुख दुखी मलीना॥1॥

भावार्थ

अरे अङ्गद! सुन, तेरी सेना में बता, ऐसा कौन योद्धा है, जो मुझसे भिड सकेगा। तेरा मालिक तो स्त्री के वियोग में बलहीन हो रहा है और उसका छोटा भाई उसी के दुःख से दुःखी और उदास है॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुम्ह सुग्रीव कूलद्रुम दोऊ। अनुज हमार भीरु अति सोऊ॥
जामवन्त मन्त्री अति बूढा। सो कि होइ अब समरारूढा॥2॥

मूल

तुम्ह सुग्रीव कूलद्रुम दोऊ। अनुज हमार भीरु अति सोऊ॥
जामवन्त मन्त्री अति बूढा। सो कि होइ अब समरारूढा॥2॥

भावार्थ

तुम और सुग्रीव, दोनों (नदी) तट के वृक्ष हो (रहा) मेरा छोटा भाई विभीषण, (सो) वह भी बडा डरपोक है। मन्त्री जाम्बवान्‌ बहुत बूढा है। वह अब लडाई में क्या चढ (उद्यत हो) सकता है?॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सिल्पि कर्म जानहिं नल नीला। है कपि एक महा बलसीला॥
आवा प्रथम नगरु जेहिं जारा। सुनत बचन कह बालिकुमारा॥3॥

मूल

सिल्पि कर्म जानहिं नल नीला। है कपि एक महा बलसीला॥
आवा प्रथम नगरु जेहिं जारा। सुनत बचन कह बालिकुमारा॥3॥

भावार्थ

नल-नील तो शिल्प-कर्म जानते हैं (वे लडना क्या जानें?)। हाँ, एक वानर जरूर महान्‌ बलवान्‌ है, जो पहले आया था और जिसने लङ्का जलाई थी। यह वचन सुनते ही बालि पुत्र अङ्गद ने कहा-॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सत्य बचन कहु निसिचर नाहा। साँचेहुँ कीस कीन्ह पुर दाहा॥
रावण नगर अल्प कपि दहई। सुनि अस बचन सत्य को कहई॥4॥

मूल

सत्य बचन कहु निसिचर नाहा। साँचेहुँ कीस कीन्ह पुर दाहा॥
रावण नगर अल्प कपि दहई। सुनि अस बचन सत्य को कहई॥4॥

भावार्थ

हे राक्षसराज! सच्ची बात कहो! क्या उस वानर ने सचमुच तुम्हारा नगर जला दिया? रावण (जैसे जगद्विजयी योद्धा) का नगर एक छोटे से वानर ने जला दिया। ऐसे वचन सुनकर उन्हें सत्य कौन कहेगा?॥4॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जो अति सुभट सराहेहु रावन। सो सुग्रीव केर लघु धावन॥
चलइ बहुत सो बीर न होई। पठवा खबरि लेन हम सोई॥5॥

मूल

जो अति सुभट सराहेहु रावन। सो सुग्रीव केर लघु धावन॥
चलइ बहुत सो बीर न होई। पठवा खबरि लेन हम सोई॥5॥

भावार्थ

हे रावण! जिसको तुमने बहुत बडा योद्धा कहकर सराहा है, वह तो सुग्रीव का एक छोटा सा दौडकर चलने वाला हरकारा है। वह बहुत चलता है, वीर नहीं है। उसको तो हमने (केवल) खबर लेने के लिए भेजा था॥5॥

023

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

सत्य नगरु कपि जारेउ बिनु प्रभु आयसु पाइ।
फिरि न गयउ सुग्रीव पहिं तेहिं भय रहा लुकाइ॥1॥

मूल

सत्य नगरु कपि जारेउ बिनु प्रभु आयसु पाइ।
फिरि न गयउ सुग्रीव पहिं तेहिं भय रहा लुकाइ॥1॥

भावार्थ

क्या सचमुच ही उस वानर ने प्रभु की आज्ञा पाए बिना ही तुम्हारा नगर जला डाला? मालूम होता है, इसी डर से वह लौटकर सुग्रीव के पास नहीं गया और कहीं छिप रहा!॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सत्य कहहि दसकण्ठ सब मोहि न सुनि कछु कोह।
कोउ न हमारें कटक अस तो सन लरत जो सोह॥2॥

मूल

सत्य कहहि दसकण्ठ सब मोहि न सुनि कछु कोह।
कोउ न हमारें कटक अस तो सन लरत जो सोह॥2॥

भावार्थ

हे रावण! तुम सब सत्य ही कहते हो, मुझे सुनकर कुछ भी क्रोध नहीं है। सचमुच हमारी सेना में कोई भी ऐसा नहीं है, जो तुमसे लडने में शोभा पाए॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रीति बिरोध समान सन करिअ नीति असि आहि।
जौं मृगपति बध मेडुकन्हि भल कि कहइ कोउ ताहि॥3॥

मूल

प्रीति बिरोध समान सन करिअ नीति असि आहि।
जौं मृगपति बध मेडुकन्हि भल कि कहइ कोउ ताहि॥3॥

भावार्थ

प्रीति और वैर बराबरी वाले से ही करना चाहिए, नीति ऐसी ही है। सिंह यदि मेण्ढकों को मारे, तो क्या उसे कोई भला कहेगा?॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जद्यपि लघुता राम कहुँ तोहि बधें बड दोष।
तदपि कठिन दसकण्ठ सुनु छत्र जाति कर रोष॥4॥

मूल

जद्यपि लघुता राम कहुँ तोहि बधें बड दोष।
तदपि कठिन दसकण्ठ सुनु छत्र जाति कर रोष॥4॥

भावार्थ

यद्यपि तुम्हें मारने में श्री रामजी की लघुता है और बडा दोष भी है तथापि हे रावण! सुनो, क्षत्रिय जाति का क्रोध बडा कठिन होता है॥4॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बक्र उक्ति धनु बचन सर हृदय दहेउ रिपु कीस।
प्रतिउत्तर सडसिन्ह मनहुँ काढत भट दससीस॥5॥

मूल

बक्र उक्ति धनु बचन सर हृदय दहेउ रिपु कीस।
प्रतिउत्तर सडसिन्ह मनहुँ काढत भट दससीस॥5॥

भावार्थ

वक्रोक्ति रूपी धनुष से वचन रूपी बाण मारकर अङ्गद ने शत्रु का हृदय जला दिया। वीर रावण उन बाणों को मानो प्रत्युत्तर रूपी सँडसियों से निकाल रहा है॥5॥

हँसि बोलेउ दसमौलि तब कपि कर बड गुन एक।
जो प्रतिपालइ तासु हित करइ उपाय अनेक॥6॥

मूल

हँसि बोलेउ दसमौलि तब कपि कर बड गुन एक।
जो प्रतिपालइ तासु हित करइ उपाय अनेक॥6॥

भावार्थ

तब रावण हँसकर बोला- बन्दर में यह एक बडा गुण है कि जो उसे पालता है, उसका वह अनेकों उपायों से भला करने की चेष्टा करता है॥6॥

02 चौपाई

धन्य कीस जो निज प्रभु काजा। जहँ तहँ नाचइ परिहरि लाजा॥
नाचि कूदि करि लोग रिझाई। पति हित करइ धर्म निपुनाई॥1॥

मूल

धन्य कीस जो निज प्रभु काजा। जहँ तहँ नाचइ परिहरि लाजा॥
नाचि कूदि करि लोग रिझाई। पति हित करइ धर्म निपुनाई॥1॥

भावार्थ

बन्दर को धन्य है, जो अपने मालिक के लिए लाज छोडकर जहाँ-तहाँ नाचता है। नाच-कूदकर, लोगों को रिझाकर, मालिक का हित करता है। यह उसके धर्म की निपुणता है॥1॥

अङ्गद स्वामिभक्त तव जाती। प्रभु गुन कस न कहसि एहि भाँती॥
मैं गुन गाहक परम सुजाना। तव कटु रटनि करउँ नहिं काना॥2॥

मूल

अङ्गद स्वामिभक्त तव जाती। प्रभु गुन कस न कहसि एहि भाँती॥
मैं गुन गाहक परम सुजाना। तव कटु रटनि करउँ नहिं काना॥2॥

भावार्थ

हे अङ्गद! तेरी जाति स्वामिभक्त है (फिर भला) तू अपने मालिक के गुण इस प्रकार कैसे न बखानेगा? मैं गुण ग्राहक (गुणों का आदर करने वाला) और परम सुजान (समझदार) हूँ, इसी से तेरी जली-कटी बक-बक पर कान (ध्यान) नहीं देता॥2॥

कह कपि तव गुन गाहकताई। सत्य पवनसुत मोहि सुनाई॥
बन बिधंसि सुत बधि पुर जारा। तदपि न तेहिं कछु कृत अपकारा॥3॥

मूल

कह कपि तव गुन गाहकताई। सत्य पवनसुत मोहि सुनाई॥
बन बिधंसि सुत बधि पुर जारा। तदपि न तेहिं कछु कृत अपकारा॥3॥

भावार्थ

अङ्गद ने कहा- तुम्हारी सच्ची गुण ग्राहकता तो मुझे हनुमान्‌ ने सुनाई थी। उसने अशोक वन में विध्वंस (तहस-नहस) करके, तुम्हारे पुत्र को मारकर नगर को जला दिया था। तो भी (तुमने अपनी गुण ग्राहकता के कारण यही समझा कि) उसने तुम्हारा कुछ भी अपकार नहीं किया॥3॥

सोइ बिचारि तव प्रकृति सुहाई। दसकन्धर मैं कीन्हि ढिठाई॥
देखेउँ आइ जो कछु कपि भाषा। तुम्हरें लाज न रोष न माखा॥4॥

मूल

सोइ बिचारि तव प्रकृति सुहाई। दसकन्धर मैं कीन्हि ढिठाई॥
देखेउँ आइ जो कछु कपि भाषा। तुम्हरें लाज न रोष न माखा॥4॥

भावार्थ

तुम्हारा वही सुन्दर स्वभाव विचार कर, हे दशग्रीव! मैन्ने कुछ धृष्टता की है। हनुमान्‌ ने जो कुछ कहा था, उसे आकर मैन्ने प्रत्यक्ष देख लिया कि तुम्हें न लज्जा है, न क्रोध है और न चिढ है॥4॥

जौं असि मति पितु खाए कीसा। कहि अस बचन हँसा दससीसा॥
पितहि खाइ खातेउँ पुनि तोही। अबहीं समुझि परा कछु मोही॥5॥

मूल

जौं असि मति पितु खाए कीसा। कहि अस बचन हँसा दससीसा॥
पितहि खाइ खातेउँ पुनि तोही। अबहीं समुझि परा कछु मोही॥5॥

भावार्थ

(रावण बोला-) अरे वानर! जब तेरी ऐसी बुद्धि है, तभी तो तू बाप को खा गया। ऐसा वचन कहकर रावण हँसा। अङ्गद ने कहा- पिता को खाकर फिर तुमको भी खा डालता, परन्तु अभी तुरन्त कुछ और ही बात मेरी समझ में आ गई!॥5॥

बालि बिमल जस भाजन जानी। हतउँ न तोहि अधम अभिमानी॥
कहु रावन रावन जग केते। मैं निज श्रवन सुने सुनु जेते॥6॥

मूल

बालि बिमल जस भाजन जानी। हतउँ न तोहि अधम अभिमानी॥
कहु रावन रावन जग केते। मैं निज श्रवन सुने सुनु जेते॥6॥

भावार्थ

अरे नीच अभिमानी! बालि के निर्मल यश का पात्र (कारण) जानकर तुम्हें मैं नहीं मारता। रावण! यह तो बता कि जगत्‌ में कितने रावण हैं? मैन्ने जितने रावण अपने कानों से सुन रखे हैं, उन्हें सुन-॥6॥

बलिहि जितन एक गयउ पताला। राखेउ बाँधि सिसुन्ह हयसाला॥
खेलहिं बालक मारहिं जाई। दया लागि बलि दीन्ह छोडाई॥7॥

मूल

बलिहि जितन एक गयउ पताला। राखेउ बाँधि सिसुन्ह हयसाला॥
खेलहिं बालक मारहिं जाई। दया लागि बलि दीन्ह छोडाई॥7॥

भावार्थ

एक रावण तो बलि को जीतने पाताल में गया था, तब बच्चों ने उसे घुडसाल में बाँध रखा। बालक खेलते थे और जा-जाकर उसे मारते थे। बलि को दया लगी, तब उन्होन्ने उसे छुडा दिया॥7॥

एक बहोरि सहसभुज देखा। धाइ धरा जिमि जन्तु बिसेषा॥
कौतुक लागि भवन लै आवा। सो पुलस्ति मुनि जाइ छोडावा॥8॥

मूल

एक बहोरि सहसभुज देखा। धाइ धरा जिमि जन्तु बिसेषा॥
कौतुक लागि भवन लै आवा। सो पुलस्ति मुनि जाइ छोडावा॥8॥

भावार्थ

फिर एक रावण को सहस्रबाहु ने देखा, और उसने दौडकर उसको एक विशेष प्रकार के (विचित्र) जन्तु की तरह (समझकर) पकड लिया। तमाशे के लिए वह उसे घर ले आया। तब पुलस्त्य मुनि ने जाकर उसे छुडाया॥8॥

024

01 दोहा

एक कहत मोहि सकुच अति रहा बालि कीं काँख।
इन्ह महुँ रावन तैं कवन सत्य बदहि तजि माख॥24॥

मूल

एक कहत मोहि सकुच अति रहा बालि कीं काँख।
इन्ह महुँ रावन तैं कवन सत्य बदहि तजि माख॥24॥

भावार्थ

एक रावण की बात कहने में तो मुझे बडा सङ्कोच हो रहा है- वह (बहुत दिनों तक) बालि की काँख में रहा था। इनमें से तुम कौन से रावण हो? खीझना छोडकर सच-सच बताओ॥24॥

02 चौपाई

सुनु सठ सोइ रावन बलसीला। हरगिरि जान जासु भुज लीला॥
जान उमापति जासु सुराई। पूजेउँ जेहि सिर सुमन चढाई॥1॥

मूल

सुनु सठ सोइ रावन बलसीला। हरगिरि जान जासु भुज लीला॥
जान उमापति जासु सुराई। पूजेउँ जेहि सिर सुमन चढाई॥1॥

भावार्थ

(रावण ने कहा-) अरे मूर्ख! सुन, मैं वही बलवान्‌ रावण हूँ, जिसकी भुजाओं की लीला (करामात) कैलास पर्वत जानता है। जिसकी शूरता उमापति महादेवजी जानते हैं, जिन्हें अपने सिर रूपी पुष्प चढा-चढाकर मैन्ने पूजा था॥1॥

सिर सरोज निज करन्हि उतारी। पूजेउँ अमित बार त्रिपुरारी॥
भुज बिक्रम जानहिं दिगपाला। सठ अजहूँ जिन्ह कें उर साला॥2॥

मूल

सिर सरोज निज करन्हि उतारी। पूजेउँ अमित बार त्रिपुरारी॥
भुज बिक्रम जानहिं दिगपाला। सठ अजहूँ जिन्ह कें उर साला॥2॥

भावार्थ

सिर रूपी कमलों को अपने हाथों से उतार-उतारकर मैन्ने अगणित बार त्रिपुरारि शिवजी की पूजा की है। अरे मूर्ख! मेरी भुजाओं का पराक्रम दिक्पाल जानते हैं, जिनके हृदय में वह आज भी चुभ रहा है॥2॥

जानहिं दिग्गज उर कठिनाई। जब जब भिरउँ जाइ बरिआई॥
जिन्ह के दसन कराल न फूटे। उर लागत मूलक इव टूटे॥3॥

मूल

जानहिं दिग्गज उर कठिनाई। जब जब भिरउँ जाइ बरिआई॥
जिन्ह के दसन कराल न फूटे। उर लागत मूलक इव टूटे॥3॥

भावार्थ

दिग्गज (दिशाओं के हाथी) मेरी छाती की कठोरता को जानते हैं। जिनके भयानक दाँत, जब-जब जाकर मैं उनसे जबरदस्ती भिडा, मेरी छाती में कभी नहीं फूटे (अपना चिह्न भी नहीं बना सके), बल्कि मेरी छाती से लगते ही वे मूली की तरह टूट गए॥3॥

जासु चलत डोलति इमि धरनी। चढत मत्त गज जिमि लघु तरनी॥
सोइ रावन जग बिदित प्रतापी। सुनेहि न श्रवन अलीक प्रलापी॥4॥

मूल

जासु चलत डोलति इमि धरनी। चढत मत्त गज जिमि लघु तरनी॥
सोइ रावन जग बिदित प्रतापी। सुनेहि न श्रवन अलीक प्रलापी॥4॥

भावार्थ

जिसके चलते समय पृथ्वी इस प्रकार हिलती है जैसे मतवाले हाथी के चढते समय छोटी नाव! मैं वही जगत प्रसिद्ध प्रतापी रावण हूँ। अरे झूठी बकवास करने वाले! क्या तूने मुझको कानों से कभी सुना?॥4॥

025

01 दोहा

तेहि रावन कहँ लघु कहसि नर कर करसि बखान।
रे कपि बर्बर खर्ब खल अब जाना तव ग्यान॥25॥

मूल

तेहि रावन कहँ लघु कहसि नर कर करसि बखान।
रे कपि बर्बर खर्ब खल अब जाना तव ग्यान॥25॥

भावार्थ

उस (महान प्रतापी और जगत प्रसिद्ध) रावण को (मुझे) तू छोटा कहता है और मनुष्य की बडाई करता है? अरे दुष्ट, असभ्य, तुच्छ बन्दर! अब मैन्ने तेरा ज्ञान जान लिया॥25॥

02 चौपाई

सुनि अङ्गद सकोप कह बानी। बोलु सम्भारि अधम अभिमानी॥
सहसबाहु भुज गहन अपारा। दहन अनल सम जासु कुठारा॥1॥

मूल

सुनि अङ्गद सकोप कह बानी। बोलु सम्भारि अधम अभिमानी॥
सहसबाहु भुज गहन अपारा। दहन अनल सम जासु कुठारा॥1॥

भावार्थ

रावण के ये वचन सुनकर अङ्गद क्रोध सहित वचन बोले- अरे नीच अभिमानी! सँभलकर (सोच-समझकर) बोल। जिनका फरसा सहस्रबाहु की भुजाओं रूपी अपार वन को जलाने के लिए अग्नि के समान था,॥1॥

जासु परसु सागर खर धारा। बूडे नृप अगनित बहु बारा॥
तासु गर्ब जेहि देखत भागा। सो नर क्यों दससीस अभागा॥2॥

मूल

जासु परसु सागर खर धारा। बूडे नृप अगनित बहु बारा॥
तासु गर्ब जेहि देखत भागा। सो नर क्यों दससीस अभागा॥2॥

भावार्थ

जिनके फरसा रूपी समुद्र की तीव्र धारा में अनगिनत राजा अनेकों बार डूब गए, उन परशुरामजी का गर्व जिन्हें देखते ही भाग गया, अरे अभागे दशशीश! वे मनुष्य क्यों कर हैं?॥2॥

राम मनुज कस रे सठ बङ्गा। धन्वी कामु नदी पुनि गङ्गा॥
पसु सुरधेनु कल्पतरु रूखा। अन्न दान अरु रस पीयूषा॥3॥

मूल

राम मनुज कस रे सठ बङ्गा। धन्वी कामु नदी पुनि गङ्गा॥
पसु सुरधेनु कल्पतरु रूखा। अन्न दान अरु रस पीयूषा॥3॥

भावार्थ

क्यों रे मूर्ख उद्दण्ड! श्री रामचन्द्रजी मनुष्य हैं? कामदेव भी क्या धनुर्धारी है? और गङ्गाजी क्या नदी हैं? कामधेनु क्या पशु है? और कल्पवृक्ष क्या पेड है? अन्न भी क्या दान है? और अमृत क्या रस है?॥3॥

बैनतेय खग अहि सहसानन। चिन्तामनि पुनि उपल दसानन॥
सुनु मतिमन्द लोक बैकुण्ठा। लाभ कि रघुपति भगति अकुण्ठा॥4॥

मूल

बैनतेय खग अहि सहसानन। चिन्तामनि पुनि उपल दसानन॥
सुनु मतिमन्द लोक बैकुण्ठा। लाभ कि रघुपति भगति अकुण्ठा॥4॥

भावार्थ

गरुडजी क्या पक्षी हैं? शेषजी क्या सर्प हैं? अरे रावण! चिन्तामणि भी क्या पत्थर है? अरे ओ मूर्ख! सुन, वैकुण्ठ भी क्या लोक है? और श्री रघुनाथजी की अखण्ड भक्ति क्या (और लाभों जैसा ही) लाभ है?॥4॥

026

01 दोहा

सेन सहित तव मान मथि बन उजारि पुर जारि।
कस रे सठ हनुमान कपि गयउ जो तव सुत मारि॥26॥

मूल

सेन सहित तव मान मथि बन उजारि पुर जारि।
कस रे सठ हनुमान कपि गयउ जो तव सुत मारि॥26॥

भावार्थ

सेना समेत तेरा मान मथकर, अशोक वन को उजाडकर, नगर को जलाकर और तेरे पुत्र को मारकर जो लौट गए (तू उनका कुछ भी न बिगाड सका), क्यों रे दुष्ट! वे हनुमान्‌जी क्या वानर हैं?॥26॥

02 चौपाई

सुनु रावन परिहरि चतुराई। भजसि न कृपासिन्धु रघुराई॥
जौं खल भएसि राम कर द्रोही। ब्रह्म रुद्र सक राखि न तोही॥1॥

मूल

सुनु रावन परिहरि चतुराई। भजसि न कृपासिन्धु रघुराई॥
जौं खल भएसि राम कर द्रोही। ब्रह्म रुद्र सक राखि न तोही॥1॥

भावार्थ

अरे रावण! चतुराई (कपट) छोडकर सुन। कृपा के समुद्र श्री रघुनाथजी का तू भजन क्यों नहीं करता? अरे दुष्ट! यदि तू श्री रामजी का वैरी हुआ तो तुझे ब्रह्मा और रुद्र भी नहीं बचा सकेङ्गे।

मूढ बृथा जनि मारसि गाला। राम बयर अस होइहि हाला॥
तव सिर निकर कपिन्ह के आगें। परिहहिं धरनि राम सर लागें॥2॥

मूल

मूढ बृथा जनि मारसि गाला। राम बयर अस होइहि हाला॥
तव सिर निकर कपिन्ह के आगें। परिहहिं धरनि राम सर लागें॥2॥

भावार्थ

हे मूढ! व्यर्थ गाल न मार (डीङ्ग न हाँक)। श्री रामजी से वैर करने पर तेरा ऐसा हाल होगा कि तेरे सिर समूह श्री रामजी के बाण लगते ही वानरों के आगे पृथ्वी पर पडेङ्गे,॥2॥

ते तव सिर कन्दुक सम नाना। खेलिहहिं भालु कीस चौगाना॥
जबहिं समर कोपिहि रघुनायक। छुटिहहिं अति कराल बहु सायक॥3॥

मूल

ते तव सिर कन्दुक सम नाना। खेलिहहिं भालु कीस चौगाना॥
जबहिं समर कोपिहि रघुनायक। छुटिहहिं अति कराल बहु सायक॥3॥

भावार्थ

और रीछ-वानर तेरे उन गेन्द के समान अनेकों सिरों से चौगान खेलेङ्गे। जब श्री रघुनाथजी युद्ध में कोप करेङ्गे और उनके अत्यन्त तीक्ष्ण बहुत से बाण छूटेङ्गे,॥3॥

तब कि चलिहि अस गाल तुम्हारा। अस बिचारि भजु राम उदारा॥
सुनत बचन रावन परजरा। जरत महानल जनु घृत परा॥4॥

मूल

तब कि चलिहि अस गाल तुम्हारा। अस बिचारि भजु राम उदारा॥
सुनत बचन रावन परजरा। जरत महानल जनु घृत परा॥4॥

भावार्थ

तब क्या तेरा गाल चलेगा? ऐसा विचार कर उदार (कृपालु) श्री रामजी को भज। अङ्गद के ये वचन सुनकर रावण बहुत अधिक जल उठा। मानो जलती हुई प्रचण्ड अग्नि में घी पड गया हो॥4॥

027

01 दोहा

कुम्भकरन अस बन्धु मम सुत प्रसिद्ध सक्रारि।
मोर पराक्रम नहिं सुनेहि जितेऊँ चराचर झारि॥27॥

मूल

कुम्भकरन अस बन्धु मम सुत प्रसिद्ध सक्रारि।
मोर पराक्रम नहिं सुनेहि जितेऊँ चराचर झारि॥27॥

भावार्थ

(वह बोला- अरे मूर्ख!) कुम्भकर्ण- ऐसा मेरा भाई है, इन्द्र का शत्रु सुप्रसिद्ध मेघनाद मेरा पुत्र है! और मेरा पराक्रम तो तूने सुना ही नहीं कि मैन्ने सम्पूर्ण जड-चेतन जगत्‌ को जीत लिया है!॥27॥

02 चौपाई

सठ साखामृग जोरि सहाई। बाँधा सिन्धु इहइ प्रभुताई॥
नाघहिं खग अनेक बारीसा। सूर न होहिं ते सुनु सब कीसा॥1॥

मूल

सठ साखामृग जोरि सहाई। बाँधा सिन्धु इहइ प्रभुताई॥
नाघहिं खग अनेक बारीसा। सूर न होहिं ते सुनु सब कीसा॥1॥

भावार्थ

रे दुष्ट! वानरों की सहायता जोडकर राम ने समुद्र बाँध लिया, बस, यही उसकी प्रभुता है। समुद्र को तो अनेकों पक्षी भी लाँघ जाते हैं। पर इसी से वे सभी शूरवीर नहीं हो जाते। अरे मूर्ख बन्दर! सुन-॥1॥

मम भुज सागर बल जल पूरा। जहँ बूडे बहु सुर नर सूरा॥
बीस पयोधि अगाध अपारा। को अस बीर जो पाइहि पारा॥2॥

मूल

मम भुज सागर बल जल पूरा। जहँ बूडे बहु सुर नर सूरा॥
बीस पयोधि अगाध अपारा। को अस बीर जो पाइहि पारा॥2॥

भावार्थ

मेरा एक-एक भुजा रूपी समुद्र बल रूपी जल से पूर्ण है, जिसमें बहुत से शूरवीर देवता और मनुष्य डूब चूके हैं। (बता,) कौन ऐसा शूरवीर है, जो मेरे इन अथाह और अपार बीस समुद्रों का पार पा जाएगा?॥2॥

दिगपालन्ह मैं नीर भरावा। भूप सुजस खल मोहि सुनावा॥
जौं पै समर सुभट तव नाथा। पुनि पुनि कहसि जासु गुन गाथा॥3॥

मूल

दिगपालन्ह मैं नीर भरावा। भूप सुजस खल मोहि सुनावा॥
जौं पै समर सुभट तव नाथा। पुनि पुनि कहसि जासु गुन गाथा॥3॥

भावार्थ

अरे दुष्ट! मैन्ने दिक्पालों तक से जल भरवाया और तू एक राजा का मुझे सुयश सुनाता है! यदि तेरा मालिक, जिसकी गुणगाथा तू बार-बार कह रहा है, सङ्ग्राम में लडने वाला योद्धा है-॥3॥

तौ बसीठ पठवत केहि काजा। रिपु सन प्रीति करत नहिं लाजा॥
हरगिरि मथन निरखु मम बाहू। पुनि सठ कपि निज प्रभुहि सराहू॥4॥

मूल

तौ बसीठ पठवत केहि काजा। रिपु सन प्रीति करत नहिं लाजा॥
हरगिरि मथन निरखु मम बाहू। पुनि सठ कपि निज प्रभुहि सराहू॥4॥

भावार्थ

तो (फिर) वह दूत किसलिए भेजता है? शत्रु से प्रीति (सन्धि) करते उसे लाज नहीं आती? (पहले) कैलास का मथन करने वाली मेरी भुजाओं को देख। फिर अरे मूर्ख वानर! अपने मालिक की सराहना करना॥4॥

028

01 दोहा

सूर कवन रावन सरिस स्वकर काटि जेहिं सीस।
हुने अनल अति हरष बहु बार साखि गौरीस॥28॥

मूल

सूर कवन रावन सरिस स्वकर काटि जेहिं सीस।
हुने अनल अति हरष बहु बार साखि गौरीस॥28॥

भावार्थ

रावण के समान शूरवीर कौन है? जिसने अपने हाथों से सिर काट-काटकर अत्यन्त हर्ष के साथ बहुत बार उन्हें अग्नि में होम दिया! स्वयं गौरीपति शिवजी इस बात के साक्षी हैं॥28॥

02 चौपाई

जरत बिलोकेउँ जबहि कपाला। बिधि के लिखे अङ्क निज भाला॥
नर कें कर आपन बध बाँची। हसेउँ जानि बिधि गिरा असाँची॥1॥

मूल

जरत बिलोकेउँ जबहि कपाला। बिधि के लिखे अङ्क निज भाला॥
नर कें कर आपन बध बाँची। हसेउँ जानि बिधि गिरा असाँची॥1॥

भावार्थ

मस्तकों के जलते समय जब मैन्ने अपने ललाटों पर लिखे हुए विधाता के अक्षर देखे, तब मनुष्य के हाथ से अपनी मृत्यु होना बाँचकर, विधाता की वाणी (लेख को) असत्य जानकर मैं हँसा॥1॥

सोउ मन समुझि त्रास नहिं मोरें। लिखा बिरञ्चि जरठ मति भोरें॥
आन बीर बल सठ मम आगें। पुनि पुनि कहसि लाज पति त्यागें॥2॥

मूल

सोउ मन समुझि त्रास नहिं मोरें। लिखा बिरञ्चि जरठ मति भोरें॥
आन बीर बल सठ मम आगें। पुनि पुनि कहसि लाज पति त्यागें॥2॥

भावार्थ

उस बात को समझकर (स्मरण करके) भी मेरे मन में डर नहीं है। (क्योङ्कि मैं समझता हूँ कि) बूढे ब्रह्मा ने बुद्धि भ्रम से ऐसा लिख दिया है। अरे मूर्ख! तू लज्जा और मर्यादा छोडकर मेरे आगे बार-बार दूसरे वीर का बल कहता है!॥2॥

कह अङ्गद सलज्ज जग माहीं। रावन तोहि समान कोउ नाहीं॥
लाजवन्त तव सहज सुभाऊ। निज मुख निज गुन कहसि न काऊ॥3॥

मूल

कह अङ्गद सलज्ज जग माहीं। रावन तोहि समान कोउ नाहीं॥
लाजवन्त तव सहज सुभाऊ। निज मुख निज गुन कहसि न काऊ॥3॥

भावार्थ

अङ्गद ने कहा- अरे रावण! तेरे समान लज्जावान्‌ जगत्‌ में कोई नहीं है। लज्जाशीलता तो तेरा सहज स्वभाव ही है। तू अपने मुँह से अपने गुण कभी नहीं कहता॥3॥

सिर अरु सैल कथा चित रही। ताते बार बीस तैं कहीं॥
सो भुजबल राखेहु उर घाली। जीतेहु सहसबाहु बलि बाली॥4॥

मूल

सिर अरु सैल कथा चित रही। ताते बार बीस तैं कहीं॥
सो भुजबल राखेहु उर घाली। जीतेहु सहसबाहु बलि बाली॥4॥

भावार्थ

सिर काटने और कैलास उठाने की कथा चित्त में चढी हुई थी, इससे तूने उसे बीसों बार कहा। भुजाओं के उस बल को तूने हृदय में ही टाल (छिपा) रखा है, जिससे तूने सहस्रबाहु, बलि और बालि को जीता था॥4॥

सुनु मतिमन्द देहि अब पूरा। काटें सीस कि होइअ सूरा॥
इन्द्रजालि कहुँ कहिअ न बीरा। काटइ निज कर सकल सरीरा॥5॥

मूल

सुनु मतिमन्द देहि अब पूरा। काटें सीस कि होइअ सूरा॥
इन्द्रजालि कहुँ कहिअ न बीरा। काटइ निज कर सकल सरीरा॥5॥

भावार्थ

अरे मन्द बुद्धि! सुन, अब बस कर। सिर काटने से भी क्या कोई शूरवीर हो जाता है? इन्द्रजाल रचने वाले को वीर नहीं कहा जाता, यद्यपि वह अपने ही हाथों अपना सारा शरीर काट डालता है!॥5॥

029

01 दोहा

जरहिं पतङ्ग मोह बस भार बहहिं खर बृन्द।
ते नहिं सूर कहावहिं समुझि देखु मतिमन्द॥29॥

मूल

जरहिं पतङ्ग मोह बस भार बहहिं खर बृन्द।
ते नहिं सूर कहावहिं समुझि देखु मतिमन्द॥29॥

भावार्थ

अरे मन्द बुद्धि! समझकर देख। पतङ्गे मोहवश आग में जल मरते हैं, गदहों के झुण्ड बोझ लादकर चलते हैं, पर इस कारण वे शूरवीर नहीं कहलाते॥29॥

02 चौपाई

अब जनि बतबढाव खल करही। सुनु मम बचन मान परिहरही॥
दसमुख मैं न बसीठीं आयउँ। अस बिचारि रघुबीर पठायउँ॥1॥

मूल

अब जनि बतबढाव खल करही। सुनु मम बचन मान परिहरही॥
दसमुख मैं न बसीठीं आयउँ। अस बिचारि रघुबीर पठायउँ॥1॥

भावार्थ

अरे दुष्ट! अब बतबढाव मत कर, मेरा वचन सुन और अभिमान त्याग दे! हे दशमुख! मैं दूत की तरह (सन्धि करने) नहीं आया हूँ। श्री रघुवीर ने ऐसा विचार कर मुझे भेजा है-॥1॥

बार बार अस कहइ कृपाला। नहिं गजारि जसु बन्धे सृकाला॥
मन महुँ समुझि बचन प्रभु केरे। सहेउँ कठोर बचन सठ तेरे॥2॥

मूल

बार बार अस कहइ कृपाला। नहिं गजारि जसु बन्धे सृकाला॥
मन महुँ समुझि बचन प्रभु केरे। सहेउँ कठोर बचन सठ तेरे॥2॥

भावार्थ

कृपालु श्री रामजी बार-बार ऐसा कहते हैं कि स्यार के मारने से सिंह को यश नहीं मिलता। अरे मूर्ख! प्रभु के (उन) वचनों को मन में समझकर (याद करके) ही मैन्ने तेरे कठोर वचन सहे हैं॥2॥

नाहिं त करि मुख भञ्जन तोरा। लैं जातेउँ सीतहि बरजोरा॥
जानेउँ तव बल अधम सुरारी। सूनें हरि आनिहि परनारी॥3॥

मूल

नाहिं त करि मुख भञ्जन तोरा। लैं जातेउँ सीतहि बरजोरा॥
जानेउँ तव बल अधम सुरारी। सूनें हरि आनिहि परनारी॥3॥

भावार्थ

नहीं तो तेरे मुँह तोडकर मैं सीताजी को जबरदस्ती ले जाता। अरे अधम! देवताओं के शत्रु! तेरा बल तो मैन्ने तभी जान लिया, जब तू सूने में पराई स्त्री को हर (चुरा) लाया॥3॥

तै निसिचर पति गर्ब बहूता। मैं रघुपति सेवक कर दूता॥
जौं न राम अपमानहिं डरऊँ। तोहि देखत अस कौतुक करउँ॥4॥

मूल

तै निसिचर पति गर्ब बहूता। मैं रघुपति सेवक कर दूता॥
जौं न राम अपमानहिं डरऊँ। तोहि देखत अस कौतुक करउँ॥4॥

भावार्थ

तू राक्षसों का राजा और बडा अभिमानी है, परन्तु मैं तो श्री रघुनाथजी के सेवक (सुग्रीव) का दूत (सेवक का भी सेवक) हूँ। यदि मैं श्री रामजी के अपमान से न डरूँ तो तेरे देखते-देखते ऐसा तमाशा करूँ कि-॥4॥

030

01 दोहा

तोहि पटकि महि सेन हति चौपट करि तव गाउँ।
तव जुबतिन्ह समेत सठ जनकसुतहि लै जाउँ॥30॥

मूल

तोहि पटकि महि सेन हति चौपट करि तव गाउँ।
तव जुबतिन्ह समेत सठ जनकसुतहि लै जाउँ॥30॥

भावार्थ

तुझे जमीन पर पटककर, तेरी सेना का संहार कर और तेरे गाँव को चौपट (नष्ट-भ्रष्ट) करके, अरे मूर्ख! तेरी युवती स्त्रियों सहित जानकीजी को ले जाऊँ॥30॥

02 चौपाई

जौं अस करौं तदपि न बडाई। मुएहि बधें नहिं कछु मनुसाई॥
कौल कामबस कृपिन बिमूढा। अति दरिद्र अजसी अति बूढा॥1॥

मूल

जौं अस करौं तदपि न बडाई। मुएहि बधें नहिं कछु मनुसाई॥
कौल कामबस कृपिन बिमूढा। अति दरिद्र अजसी अति बूढा॥1॥

भावार्थ

यदि ऐसा करूँ, तो भी इसमें कोई बडाई नहीं है। मरे हुए को मारने में कुछ भी पुरुषत्व (बहादुरी) नहीं है। वाममार्गी, कामी, कञ्जूस, अत्यन्त मूढ, अति दरिद्र, बदनाम, बहुत बूढा,॥1॥

सदा रोगबस सन्तत क्रोधी। बिष्नु बिमुख श्रुति सन्त बिरोधी॥
तनु पोषक निन्दक अघ खानी जीवत सव सम चौदह प्रानी॥2॥

मूल

सदा रोगबस सन्तत क्रोधी। बिष्नु बिमुख श्रुति सन्त बिरोधी॥
तनु पोषक निन्दक अघ खानी जीवत सव सम चौदह प्रानी॥2॥

भावार्थ

नित्य का रोगी, निरन्तर क्रोधयुक्त रहने वाला, भगवान्‌ विष्णु से विमुख, वेद और सन्तों का विरोधी, अपना ही शरीर पोषण करने वाला, पराई निन्दा करने वाला और पाप की खान (महान्‌ पापी)- ये चौदह प्राणी जीते ही मुरदे के समान हैं॥2॥

अस बिचारि खल बधउँ न तोही। अब जनि रिस उपजावसि मोही॥
सुनि सकोप कह निसिचर नाथा। अधर दसन दसि मीजत हाथा॥3॥

मूल

अस बिचारि खल बधउँ न तोही। अब जनि रिस उपजावसि मोही॥
सुनि सकोप कह निसिचर नाथा। अधर दसन दसि मीजत हाथा॥3॥

भावार्थ

अरे दुष्ट! ऐसा विचार कर मैं तुझे नहीं मारता। अब तू मुझमें क्रोध न पैदा कर (मुझे गुस्सा न दिला)। अङ्गद के वचन सुनकर राक्षस राज रावण दाँतों से होठ काटकर, क्रोधित होकर हाथ मलता हुआ बोला-॥3॥

रे कपि अधम मरन अब चहसी। छोटे बदन बात बडि कहसी॥
कटु जल्पसि जड कपि बल जाकें। बल प्रताप बुधि तेज न ताकें॥4॥

मूल

रे कपि अधम मरन अब चहसी। छोटे बदन बात बडि कहसी॥
कटु जल्पसि जड कपि बल जाकें। बल प्रताप बुधि तेज न ताकें॥4॥

भावार्थ

अरे नीच बन्दर! अब तू मरना ही चाहता है! इसी से छोटे मुँह बडी बात कहता है। अरे मूर्ख बन्दर! तू जिसके बल पर कडुए वचन बक रहा है, उसमें बल, प्रताप, बुद्धि अथवा तेज कुछ भी नहीं है॥4॥

031

01 दोहा

अगुन अमान जानि तेहि दीन्ह पिता बनबास।
सो दुख अरु जुबती बिरह पुनि निसि दिन मम त्रास॥1॥

मूल

अगुन अमान जानि तेहि दीन्ह पिता बनबास।
सो दुख अरु जुबती बिरह पुनि निसि दिन मम त्रास॥1॥

भावार्थ

उसे गुणहीन और मानहीन समझकर ही तो पिता ने वनवास दे दिया। उसे एक तो वह (उसका) दुःख, उस पर युवती स्त्री का विरह और फिर रात-दिन मेरा डर बना रहता है॥1॥

जिन्ह के बल कर गर्ब तोहि अइसे मनुज अनेक।
खाहिं निसाचर दिवस निसि मूढ समुझु तजि टेक॥2॥

मूल

जिन्ह के बल कर गर्ब तोहि अइसे मनुज अनेक।
खाहिं निसाचर दिवस निसि मूढ समुझु तजि टेक॥2॥

भावार्थ

जिनके बल का तुझे गर्व है, ऐसे अनेकों मनुष्यों को तो राक्षस रात-दिन खाया करते हैं। अरे मूढ! जिद्द छोडकर समझ (विचार कर)॥2॥

02 चौपाई

जब तेहिं कीन्हि राम कै निन्दा। क्रोधवन्त अति भयउ कपिन्दा॥
हरि हर निन्दा सुनइ जो काना। होइ पाप गोघात समाना॥1॥

मूल

जब तेहिं कीन्हि राम कै निन्दा। क्रोधवन्त अति भयउ कपिन्दा॥
हरि हर निन्दा सुनइ जो काना। होइ पाप गोघात समाना॥1॥

भावार्थ

जब उसने श्री रामजी की निन्दा की, तब तो कपिश्रेष्ठ अङ्गद अत्यन्त क्रोधित हुए, क्योङ्कि (शास्त्र ऐसा कहते हैं कि) जो अपने कानों से भगवान्‌ विष्णु और शिव की निन्दा सुनता है, उसे गो वध के समान पाप होता है॥1॥

कटकटान कपिकुञ्जर भारी। दुहु भुजदण्ड तमकि महि मारी॥
डोलत धरनि सभासद खसे। चले भाजि भय मारुत ग्रसे॥2॥

मूल

कटकटान कपिकुञ्जर भारी। दुहु भुजदण्ड तमकि महि मारी॥
डोलत धरनि सभासद खसे। चले भाजि भय मारुत ग्रसे॥2॥

भावार्थ

वानर श्रेष्ठ अङ्गद बहुत जोर से कटकटाए (शब्द किया) और उन्होन्ने तमककर (जोर से) अपने दोनों भुजदण्डों को पृथ्वी पर दे मारा। पृथ्वी हिलने लगी, (जिससे बैठे हुए) सभासद् गिर पडे और भय रूपी पवन (भूत) से ग्रस्त होकर भाग चले॥2॥

गिरत सँभारि उठा दसकन्धर। भूतल परे मुकुट अति सुन्दर॥
कछु तेहिं लै निज सिरन्हि सँवारे। कछु अङ्गद प्रभु पास पबारे॥3॥

मूल

गिरत सँभारि उठा दसकन्धर। भूतल परे मुकुट अति सुन्दर॥
कछु तेहिं लै निज सिरन्हि सँवारे। कछु अङ्गद प्रभु पास पबारे॥3॥

भावार्थ

रावण गिरते-गिरते सँभलकर उठा। उसके अत्यन्त सुन्दर मुकुट पृथ्वी पर गिर पडे। कुछ तो उसने उठाकर अपने सिरों पर सुधाकर रख लिए और कुछ अङ्गद ने उठाकर प्रभु श्री रामचन्द्रजी के पास फेङ्क दिए॥3॥

आवत मुकुट देखि कपि भागे। दिनहीं लूक परन बिधि लागे॥
की रावन करि कोप चलाए। कुलिस चारि आवत अति धाए॥4॥

मूल

आवत मुकुट देखि कपि भागे। दिनहीं लूक परन बिधि लागे॥
की रावन करि कोप चलाए। कुलिस चारि आवत अति धाए॥4॥

भावार्थ

मुकुटों को आते देखकर वानर भागे। (सोचने लगे) विधाता! क्या दिन में ही उल्कापात होने लगा (तारे टूटकर गिरने लगे)? अथवा क्या रावण ने क्रोध करके चार वज्र चलाए हैं, जो बडे धाए के साथ (वेग से) आ रहे हैं?॥4॥

कह प्रभु हँसि जनि हृदयँ डेराहू। लूक न असनि केतु नहिं राहू॥
ए किरीट दसकन्धर केरे। आवत बालितनय के प्रेरे॥5॥

मूल

कह प्रभु हँसि जनि हृदयँ डेराहू। लूक न असनि केतु नहिं राहू॥
ए किरीट दसकन्धर केरे। आवत बालितनय के प्रेरे॥5॥

भावार्थ

प्रभु ने (उनसे) हँसकर कहा- मन में डरो नहीं। ये न उल्का हैं, न वज्र हैं और न केतु या राहु ही हैं। अरे भाई! ये तो रावण के मुकुट हैं, जो बालिपुत्र अङ्गद के फेङ्के हुए आ रहे हैं॥5॥

032

01 दोहा

तरकि पवनसुत कर गहे आनि धरे प्रभु पास।
कौतुक देखहिं भालु कपि दिनकर सरिस प्रकास॥1॥

मूल

तरकि पवनसुत कर गहे आनि धरे प्रभु पास।
कौतुक देखहिं भालु कपि दिनकर सरिस प्रकास॥1॥

भावार्थ

पवन पुत्र श्री हनुमान्‌जी ने उछलकर उनको हाथ से पकड लिया और लाकर प्रभु के पास रख दिया। रीछ और वानर तमाशा देखने लगे। उनका प्रकाश सूर्य के समान था॥1॥

उहाँ सकोपि दसानन सब सन कहत रिसाइ।
धरहु कपिहि धरि मारहु सुनि अङ्गद मुसुकाइ॥2॥

मूल

उहाँ सकोपि दसानन सब सन कहत रिसाइ।
धरहु कपिहि धरि मारहु सुनि अङ्गद मुसुकाइ॥2॥

भावार्थ

वहाँ (सभा में) क्रोधयुक्त रावण सबसे क्रोधित होकर कहने लगा कि- बन्दर को पकड लो और पकडकर मार डालो। अङ्गद यह सुनकर मुस्कुराने लगे॥2॥

02 चौपाई

एहि बधि बेगि सुभट सब धावहु। खाहु भालु कपि जहँ जहँ पावहु॥
मर्कटहीन करहु महि जाई। जिअत धरहु तापस द्वौ भाई॥1॥

मूल

एहि बधि बेगि सुभट सब धावहु। खाहु भालु कपि जहँ जहँ पावहु॥
मर्कटहीन करहु महि जाई। जिअत धरहु तापस द्वौ भाई॥1॥

भावार्थ

(रावण फिर बोला-) इसे मारकर सब योद्धा तुरन्त दौडो और जहाँ कहीं रीछ-वानरों को पाओ, वहीं खा डालो। पृथ्वी को बन्दरों से रहित कर दो और जाकर दोनों तपस्वी भाइयों (राम-लक्ष्मण) को जीते जी पकड लो॥1॥

पुनि सकोप बोलेउ जुबराजा। गाल बजावत तोहि न लाजा॥
मरु गर काटि निलज कुलघाती। बल बिलोकि बिहरति नहिं छाती॥2॥

मूल

पुनि सकोप बोलेउ जुबराजा। गाल बजावत तोहि न लाजा॥
मरु गर काटि निलज कुलघाती। बल बिलोकि बिहरति नहिं छाती॥2॥

भावार्थ

(रावण के ये कोपभरे वचन सुनकर) तब युवराज अङ्गद क्रोधित होकर बोले- तुझे गाल बजाते लाज नहीं आती! अरे निर्लज्ज! अरे कुलनाशक! गला काटकर (आत्महत्या करके) मर जा! मेरा बल देखकर भी क्या तेरी छाती नहीं फटती!॥2॥

रे त्रिय चोर कुमारग गामी। खल मल रासि मन्दमति कामी॥
सन्यपात जल्पसि दुर्बादा। भएसि कालबस खल मनुजादा॥3॥

मूल

रे त्रिय चोर कुमारग गामी। खल मल रासि मन्दमति कामी॥
सन्यपात जल्पसि दुर्बादा। भएसि कालबस खल मनुजादा॥3॥

भावार्थ

अरे स्त्री के चोर! अरे कुमार्ग पर चलने वाले! अरे दुष्ट, पाप की राशि, मन्द बुद्धि और कामी! तू सन्निपात में क्या दुर्वचन बक रहा है? अरे दुष्ट राक्षस! तू काल के वश हो गया है!॥3॥

याको फलु पावहिगो आगें। बानर भालु चपेटन्हि लागें॥
रामु मनुज बोलत असि बानी। गिरहिं न तव रसना अभिमानी॥4॥

मूल

याको फलु पावहिगो आगें। बानर भालु चपेटन्हि लागें॥
रामु मनुज बोलत असि बानी। गिरहिं न तव रसना अभिमानी॥4॥

भावार्थ

इसका फल तू आगे वानर और भालुओं के चपेटे लगने पर पावेगा। राम मनुष्य हैं, ऐसा वचन बोलते ही, अरे अभिमानी! तेरी जीभें नहीं गिर पडतीं?॥4॥

गिरिहहिं रसना संसय नाहीं। सिरन्हि समेत समर महि माहीं॥5॥

मूल

गिरिहहिं रसना संसय नाहीं। सिरन्हि समेत समर महि माहीं॥5॥

भावार्थ

इसमें सन्देह नहीं है कि तेरी जीभें (अकेले नहीं वरन) सिरों के साथ रणभूमि में गिरेङ्गी॥5॥

033

01 सोरठा

सो नर क्यों दसकन्ध बालि बध्यो जेहिं एक सर।
बीसहुँ लोचन अन्ध धिग तव जन्म कुजाति जड॥1॥

मूल

सो नर क्यों दसकन्ध बालि बध्यो जेहिं एक सर।
बीसहुँ लोचन अन्ध धिग तव जन्म कुजाति जड॥1॥

भावार्थ

रे दशकन्ध! जिसने एक ही बाण से बालि को मार डाला, वह मनुष्य कैसे है? अरे कुजाति, अरे जड! बीस आँखें होने पर भी तू अन्धा है। तेरे जन्म को धिक्कार है॥1॥

तव सोनित कीं प्यास तृषित राम सायक निकर।
तजउँ तोहि तेहि त्रास कटु जल्पक निसिचर अधम॥2॥

मूल

तव सोनित कीं प्यास तृषित राम सायक निकर।
तजउँ तोहि तेहि त्रास कटु जल्पक निसिचर अधम॥2॥

भावार्थ

श्री रामचन्द्रजी के बाण समूह तेरे रक्त की प्यास से प्यासे हैं। (वे प्यासे ही रह जाएँगे) इस डर से, अरे कडवी बकवाद करने वाले नीच राक्षस! मैं तुझे छोडता हूँ॥2॥

02 चौपाई

मैं तव दसन तोरिबे लायक। आयसु मोहि न दीन्ह रघुनायक॥
असि रिस होति दसउ मुख तोरौं। लङ्का गहि समुद्र महँ बोरौं॥1॥

मूल

मैं तव दसन तोरिबे लायक। आयसु मोहि न दीन्ह रघुनायक॥
असि रिस होति दसउ मुख तोरौं। लङ्का गहि समुद्र महँ बोरौं॥1॥

भावार्थ

मैं तेरे दाँत तोडने में समर्थ हूँ। पर क्या करूँ? श्री रघुनाथजी ने मुझे आज्ञा नहीं दी। ऐसा क्रोध आता है कि तेरे दसों मुँह तोड डालूँ और (तेरी) लङ्का को पकडकर समुद्र में डुबो दूँ॥1॥

गूलरि फल समान तव लङ्का। बसहु मध्य तुम्ह जन्तु असङ्का॥
मैं बानर फल खात न बारा। आयसु दीन्ह न राम उदारा॥2॥

मूल

गूलरि फल समान तव लङ्का। बसहु मध्य तुम्ह जन्तु असङ्का॥
मैं बानर फल खात न बारा। आयसु दीन्ह न राम उदारा॥2॥

भावार्थ

तेरी लङ्का गूलर के फल के समान है। तुम सब कीडे उसके भीतर (अज्ञानवश) निडर होकर बस रहे हो। मैं बन्दर हूँ, मुझे इस फल को खाते क्या देर थी? पर उदार (कृपालु) श्री रामचन्द्रजी ने वैसी आज्ञा नहीं दी॥2॥

जुगुति सुनत रावन मुसुकाई। मूढ सिखिहि कहँ बहुत झुठाई॥
बालि न कबहुँ गाल अस मारा। मिलि तपसिन्ह तैं भएसि लबारा॥3॥

मूल

जुगुति सुनत रावन मुसुकाई। मूढ सिखिहि कहँ बहुत झुठाई॥
बालि न कबहुँ गाल अस मारा। मिलि तपसिन्ह तैं भएसि लबारा॥3॥

भावार्थ

अङ्गद की युक्ति सुनकर रावण मुस्कुराया (और बोला-) अरे मूर्ख! बहुत झूठ बोलना तूने कहाँ से सीखा? बालि ने तो कभी ऐसा गाल नहीं मारा। जान पडता है तू तपस्वियों से मिलकर लबार हो गया है॥3॥

साँचेहुँ मैं लबार भुज बीहा। जौं न उपारिउँ तव दस जीहा॥
समुझि राम प्रताप कपि कोपा। सभा माझ पन करि पद रोपा॥4॥

मूल

साँचेहुँ मैं लबार भुज बीहा। जौं न उपारिउँ तव दस जीहा॥
समुझि राम प्रताप कपि कोपा। सभा माझ पन करि पद रोपा॥4॥

भावार्थ

(अङ्गद ने कहा-) अरे बीस भुजा वाले! यदि तेरी दसों जीभें मैन्ने नहीं उखाड लीं तो सचमुच मैं लबार ही हूँ। श्री रामचन्द्रजी के प्रताप को समझकर (स्मरण करके) अङ्गद क्रोधित हो उठे और उन्होन्ने रावण की सभा में प्रण करके (दृढता के साथ) पैर रोप दिया॥4॥

जौं मम चरन सकसि सठ टारी। फिरहिं रामु सीता मैं हारी॥
सुनहु सुभट सब कह दससीसा। पद गहि धरनि पछारहु कीसा॥5॥

मूल

जौं मम चरन सकसि सठ टारी। फिरहिं रामु सीता मैं हारी॥
सुनहु सुभट सब कह दससीसा। पद गहि धरनि पछारहु कीसा॥5॥

भावार्थ

(और कहा-) अरे मूर्ख! यदि तू मेरा चरण हटा सके तो श्री रामजी लौट जाएँगे, मैं सीताजी को हार गया। रावण ने कहा- हे सब वीरो! सुनो, पैर पकडकर बन्दर को पृथ्वी पर पछाड दो॥5॥

इन्द्रजीत आदिक बलवाना। हरषि उठे जहँ तहँ भट नाना॥
झपटहिं करि बल बिपुल उपाई। पद न टरइ बैठहिं सिरु नाई॥6॥

मूल

इन्द्रजीत आदिक बलवाना। हरषि उठे जहँ तहँ भट नाना॥
झपटहिं करि बल बिपुल उपाई। पद न टरइ बैठहिं सिरु नाई॥6॥

भावार्थ

इन्द्रजीत (मेघनाद) आदि अनेकों बलवान्‌ योद्धा जहाँ-तहाँ से हर्षित होकर उठे। वे पूरे बल से बहुत से उपाय करके झपटते हैं। पर पैर टलता नहीं, तब सिर नीचा करके फिर अपने-अपने स्थान पर जा बैठ जाते हैं॥6॥

पुनि उठि झपटहिं सुर आराती। टरइ न कीस चरन एहि भाँती॥
पुरुष कुजोगी जिमि उरगारी। मोह बिटप नहिं सकहिं उपारी॥7॥

मूल

पुनि उठि झपटहिं सुर आराती। टरइ न कीस चरन एहि भाँती॥
पुरुष कुजोगी जिमि उरगारी। मोह बिटप नहिं सकहिं उपारी॥7॥

भावार्थ

(काकभुशुण्डिजी कहते हैं-) वे देवताओं के शत्रु (राक्षस) फिर उठकर झपटते हैं, परन्तु हे सर्पों के शत्रु गरुडजी! अङ्गद का चरण उनसे वैसे ही नहीं टलता जैसे कुयोगी (विषयी) पुरुष मोह रूपी वृक्ष को नहीं उखाड सकते॥7॥

034

01 दोहा

कोटिन्ह मेघनाद सम सुभट उठे हरषाइ।
झपटहिं टरै न कपि चरन पुनि बैठहिं सिर नाइ॥1॥

मूल

कोटिन्ह मेघनाद सम सुभट उठे हरषाइ।
झपटहिं टरै न कपि चरन पुनि बैठहिं सिर नाइ॥1॥

भावार्थ

करोडों वीर योद्धा जो बल में मेघनाद के समान थे, हर्षित होकर उठे, वे बार-बार झपटते हैं, पर वानर का चरण नहीं उठता, तब लज्जा के मारे सिर नवाकर बैठ जाते हैं॥1॥

भूमि न छाँडत कपि चरन देखत रिपु मद भाग।
कोटि बिघ्न ते सन्त कर मन जिमि नीति न त्याग॥2॥

मूल

भूमि न छाँडत कपि चरन देखत रिपु मद भाग।
कोटि बिघ्न ते सन्त कर मन जिमि नीति न त्याग॥2॥

भावार्थ

जैसे करोडों विघ्न आने पर भी सन्त का मन नीति को नहीं छोडता, वैसे ही वानर (अङ्गद) का चरण पृथ्वी को नहीं छोडता। यह देखकर शत्रु (रावण) का मद दूर हो गया!॥2॥

02 चौपाई

कपि बल देखि सकल हियँ हारे। उठा आपु कपि कें परचारे॥
गहत चरन कह बालिकुमारा। मम पद गहें न तोर उबारा॥1॥

मूल

कपि बल देखि सकल हियँ हारे। उठा आपु कपि कें परचारे॥
गहत चरन कह बालिकुमारा। मम पद गहें न तोर उबारा॥1॥

भावार्थ

अङ्गद का बल देखकर सब हृदय में हार गए। तब अङ्गद के ललकारने पर रावण स्वयं उठा। जब वह अङ्गद का चरण पकडने लगा, तब बालि कुमार अङ्गद ने कहा- मेरा चरण पकडने से तेरा बचाव नहीं होगा!॥1॥

गहसि न राम चरन सठ जाई॥ सुनत फिरा मन अति सकुचाई॥
भयउ तेजहत श्री सब गई। मध्य दिवस जिमि ससि सोहई॥2॥

मूल

गहसि न राम चरन सठ जाई॥ सुनत फिरा मन अति सकुचाई॥
भयउ तेजहत श्री सब गई। मध्य दिवस जिमि ससि सोहई॥2॥

भावार्थ

अरे मूर्ख- तू जाकर श्री रामजी के चरण क्यों नहीं पकडता? यह सुनकर वह मन में बहुत ही सकुचाकर लौट गया। उसकी सारी श्री जाती रही। वह ऐसा तेजहीन हो गया जैसे मध्याह्न में चन्द्रमा दिखाई देता है॥2॥

सिङ्घासन बैठेउ सिर नाई। मानहुँ सम्पति सकल गँवाई॥
जगदातमा प्रानपति रामा। तासु बिमुख किमि लह बिश्रामा॥3॥

मूल

सिङ्घासन बैठेउ सिर नाई। मानहुँ सम्पति सकल गँवाई॥
जगदातमा प्रानपति रामा। तासु बिमुख किमि लह बिश्रामा॥3॥

भावार्थ

वह सिर नीचा करके सिंहासन पर जा बैठा। मानो सारी सम्पत्ति गँवाकर बैठा हो। श्री रामचन्द्रजी जगत्‌भर के आत्मा और प्राणों के स्वामी हैं। उनसे विमुख रहने वाला शान्ति कैसे पा सकता है?॥3॥

उमा राम की भृकुटि बिलासा। होइ बिस्व पुनि पावइ नासा॥
तृन ते कुलिस कुलिस तृन करई। तासु दूत पन कहु किमि टरई॥4॥

मूल

उमा राम की भृकुटि बिलासा। होइ बिस्व पुनि पावइ नासा॥
तृन ते कुलिस कुलिस तृन करई। तासु दूत पन कहु किमि टरई॥4॥

भावार्थ

(शिवजी कहते हैं-) हे उमा! जिन श्री रामचन्द्रजी के भ्रूविलास (भौंह के इशारे) से विश्व उत्पन्न होता है और फिर नाश को प्राप्त होता है, जो तृण को वज्र और वज्र को तृण बना देते हैं (अत्यन्त निर्बल को महान्‌ प्रबल और महान्‌ प्रबल को अत्यन्त निर्बल कर देते हैं), उनके दूत का प्रण कहो, कैसे टल सकता है?॥4॥

पुनि कपि कही नीति बिधि नाना। मान न ताहि कालु निअराना॥
रिपु मद मथि प्रभु सुजसु सुनायो। यह कहि चल्यो बालि नृप जायो॥5॥

मूल

पुनि कपि कही नीति बिधि नाना। मान न ताहि कालु निअराना॥
रिपु मद मथि प्रभु सुजसु सुनायो। यह कहि चल्यो बालि नृप जायो॥5॥

भावार्थ

फिर अङ्गद ने अनेकों प्रकार से नीति कही। पर रावण नहीं माना, क्योङ्कि उसका काल निकट आ गया था। शत्रु के गर्व को चूर करके अङ्गद ने उसको प्रभु श्री रामचन्द्रजी का सुयश सुनाया और फिर वह राजा बालि का पुत्र यह कहकर चल दिया-॥5॥

हतौं न खेत खेलाइ खेलाई। तोहि अबहिं का करौं बडाई॥
प्रथमहिं तासु तनय कपि मारा। सो सुनि रावन भयउ दुखारा॥6॥

मूल

हतौं न खेत खेलाइ खेलाई। तोहि अबहिं का करौं बडाई॥
प्रथमहिं तासु तनय कपि मारा। सो सुनि रावन भयउ दुखारा॥6॥

भावार्थ

रणभूमि में तुझे खेला-खेलाकर न मारूँ तब तक अभी (पहले से) क्या बडाई करूँ। अङ्गद ने पहले ही (सभा में आने से पूर्व ही) उसके पुत्र को मार डाला था। वह संवाद सुनकर रावण दुःखी हो गया॥6॥

जातुधान अङ्गद पन देखी। भय ब्याकुल सब भए बिसेषी॥7॥

मूल

जातुधान अङ्गद पन देखी। भय ब्याकुल सब भए बिसेषी॥7॥

भावार्थ

अङ्गद का प्रण (सफल) देखकर सब राक्षस भय से अत्यन्त ही व्याकुल हो गए॥7॥

035

01 दोहा

रिपु बल धरषि हरषि कपि बालितनय बल पुञ्ज।
पुलक सरीर नयन जल गहे राम पद कञ्ज॥1॥

मूल

रिपु बल धरषि हरषि कपि बालितनय बल पुञ्ज।
पुलक सरीर नयन जल गहे राम पद कञ्ज॥1॥

भावार्थ

शत्रु के बल का मर्दन कर, बल की राशि बालि पुत्र अङ्गदजी ने हर्षित होकर आकर श्री रामचन्द्रजी के चरणकमल पकड लिए। उनका शरीर पुलकित है और नेत्रों में (आनन्दाश्रुओं का) जल भरा है॥1॥

साँझ जानि दसकन्धर भवन गयउ बिलखाइ।
मन्दोदरीं रावनहिं बहुरि कहा समुझाइ॥2॥

मूल

साँझ जानि दसकन्धर भवन गयउ बिलखाइ।
मन्दोदरीं रावनहिं बहुरि कहा समुझाइ॥2॥

भावार्थ

सन्ध्या हो गई जानकर दशग्रीव बिलखता हुआ (उदास होकर) महल में गया। मन्दोदरी ने रावण को समझाकर फिर कहा-॥2॥

02 चौपाई

कन्त समुझि मन तजहु कुमतिही। सोह न समर तुम्हहि रघुपतिही॥
रामानुज लघु रेख खचाई। सोउ नहिं नाघेहु असि मनुसाई॥1॥

मूल

कन्त समुझि मन तजहु कुमतिही। सोह न समर तुम्हहि रघुपतिही॥
रामानुज लघु रेख खचाई। सोउ नहिं नाघेहु असि मनुसाई॥1॥

भावार्थ

हे कान्त! मन में समझकर (विचारकर) कुबुद्धि को छोड दो। आप से और श्री रघुनाथजी से युद्ध शोभा नहीं देता। उनके छोटे भाई ने एक जरा सी रेखा खीञ्च दी थी, उसे भी आप नहीं लाँघ सके, ऐसा तो आपका पुरुषत्व है॥1॥

पिय तुम्ह ताहि जितब सङ्ग्रामा। जाके दूत केर यह कामा॥
कौतुक सिन्धु नाघि तव लङ्का। आयउ कपि केहरी असङ्का॥2॥

मूल

पिय तुम्ह ताहि जितब सङ्ग्रामा। जाके दूत केर यह कामा॥
कौतुक सिन्धु नाघि तव लङ्का। आयउ कपि केहरी असङ्का॥2॥

भावार्थ

हे प्रियतम! आप उन्हें सङ्ग्राम में जीत पाएँगे, जिनके दूत का ऐसा काम है? खेल से ही समुद्र लाँघकर वह वानरों में सिंह (हनुमान्‌) आपकी लङ्का में निर्भय चला आया!॥2॥

रखवारे हति बिपिन उजारा। देखत तोहि अच्छ तेहिं मारा॥
जारि सकल पुर कीन्हेसि छारा। कहाँ रहा बल गर्ब तुम्हारा॥3॥

मूल

रखवारे हति बिपिन उजारा। देखत तोहि अच्छ तेहिं मारा॥
जारि सकल पुर कीन्हेसि छारा। कहाँ रहा बल गर्ब तुम्हारा॥3॥

भावार्थ

रखवालों को मारकर उसने अशोक वन उजाड डाला। आपके देखते-देखते उसने अक्षयकुमार को मार डाला और सम्पूर्ण नगर को जलाकर राख कर दिया। उस समय आपके बल का गर्व कहाँ चला गया था?॥3॥

अब पति मृषा गाल जनि मारहु। मोर कहा कछु हृदयँ बिचारहु॥
पति रघुपतिहि नृपति जनि मानहु। अग जग नाथ अतुलबल जानहु॥4॥

मूल

अब पति मृषा गाल जनि मारहु। मोर कहा कछु हृदयँ बिचारहु॥
पति रघुपतिहि नृपति जनि मानहु। अग जग नाथ अतुलबल जानहु॥4॥

भावार्थ

अब हे स्वामी! झूठ (व्यर्थ) गाल न मारिए (डीङ्ग न हाँकिए) मेरे कहने पर हृदय में कुछ विचार कीजिए। हे पति! आप श्री रघुपति को (निरा) राजा मत समझिए, बल्कि अग-जगनाथ (चराचर के स्वामी) और अतुलनीय बलवान्‌ जानिए॥4॥

बान प्रताप जान मारीचा। तासु कहा नहिं मानेहि नीचा॥
जनक सभाँ अगनित भूपाला। रहे तुम्हउ बल अतुल बिसाला॥5॥

मूल

बान प्रताप जान मारीचा। तासु कहा नहिं मानेहि नीचा॥
जनक सभाँ अगनित भूपाला। रहे तुम्हउ बल अतुल बिसाला॥5॥

भावार्थ

श्री रामजी के बाण का प्रताप तो नीच मारीच भी जानता था, परन्तु आपने उसका कहना भी नहीं माना। जनक की सभा में अगणित राजागण थे। वहाँ विशाल और अतुलनीय बल वाले आप भी थे॥5॥

भञ्जि धनुष जानकी बिआही। तब सङ्ग्राम जितेहु किन ताही॥
सुरपति सुत जानइ बल थोरा। राखा जिअत आँखि गहि फोरा॥6॥

मूल

भञ्जि धनुष जानकी बिआही। तब सङ्ग्राम जितेहु किन ताही॥
सुरपति सुत जानइ बल थोरा। राखा जिअत आँखि गहि फोरा॥6॥

भावार्थ

वहाँ शिवजी का धनुष तोडकर श्री रामजी ने जानकी को ब्याहा, तब आपने उनको सङ्ग्राम में क्यों नहीं जीता? इन्द्रपुत्र जयन्त उनके बल को कुछ-कुछ जानता है। श्री रामजी ने पकडकर, केवल उसकी एक आँख ही फोड दी और उसे जीवित ही छोड दिया॥6॥

सूपनखा कै गति तुम्ह देखी। तदपि हृदयँ नहिं लाज बिसेषी॥7॥

मूल

सूपनखा कै गति तुम्ह देखी। तदपि हृदयँ नहिं लाज बिसेषी॥7॥

भावार्थ

शूर्पणखा की दशा तो आपने देख ही ली। तो भी आपके हृदय में (उनसे लडने की बात सोचते) विशेष (कुछ भी) लज्जा नहीं आती!॥7॥

036

01 दोहा

बधि बिराध खर दूषनहि लीलाँ हत्यो कबन्ध।
बालि एक सर मार्‌यो तेहि जानहु दसकन्ध॥36॥

मूल

बधि बिराध खर दूषनहि लीलाँ हत्यो कबन्ध।
बालि एक सर मार्‌यो तेहि जानहु दसकन्ध॥36॥

भावार्थ

जिन्होन्ने विराध और खर-दूषण को मारकर लीला से ही कबन्ध को भी मार डाला और जिन्होन्ने बालि को एक ही बाण से मार दिया, हे दशकन्ध! आप उन्हें (उनके महत्व को) समझिए!॥36॥

02 चौपाई

जेहिं जलनाथ बँधायउ हेला। उतरे प्रभु दल सहित सुबेला॥
कारुनीक दिनकर कुल केतू। दूत पठायउ तव हित हेतू॥1॥

मूल

जेहिं जलनाथ बँधायउ हेला। उतरे प्रभु दल सहित सुबेला॥
कारुनीक दिनकर कुल केतू। दूत पठायउ तव हित हेतू॥1॥

भावार्थ

जिन्होन्ने खेल से ही समुद्र को बँधा लिया और जो प्रभु सेना सहित सुबेल पर्वत पर उतर पडे, उन सूर्यकुल के ध्वजास्वरूप (कीर्ति को बढाने वाले) करुणामय भगवान्‌ ने आप ही के हित के लिए दूत भेजा॥1॥

सभा माझ जेहिं तव बल मथा। करि बरूथ महुँ मृगपति जथा॥
अङ्गद हनुमत अनुचर जाके। रन बाँकुरे बीर अति बाँके॥2॥

मूल

सभा माझ जेहिं तव बल मथा। करि बरूथ महुँ मृगपति जथा॥
अङ्गद हनुमत अनुचर जाके। रन बाँकुरे बीर अति बाँके॥2॥

भावार्थ

जिसने बीच सभा में आकर आपके बल को उसी प्रकार मथ डाला जैसे हाथियों के झुण्ड में आकर सिंह (उसे छिन्न-भिन्न कर डालता है) रण में बाँके अत्यन्त विकट वीर अङ्गद और हनुमान्‌ जिनके सेवक हैं,॥2॥

तेहि कहँ पिय पुनि पुनि नर कहहू। मुधा मान ममता मद बहहू॥
अहह कन्त कृत राम बिरोधा। काल बिबस मन उपज न बोधा॥3॥

मूल

तेहि कहँ पिय पुनि पुनि नर कहहू। मुधा मान ममता मद बहहू॥
अहह कन्त कृत राम बिरोधा। काल बिबस मन उपज न बोधा॥3॥

भावार्थ

हे पति! उन्हें आप बार-बार मनुष्य कहते हैं। आप व्यर्थ ही मान, ममता और मद का बोझ ढो रहे हैं! हा प्रियतम! आपने श्री रामजी से विरोध कर लिया और काल के विशेष वश होने से आपके मन में अब भी ज्ञान नहीं उत्पन्न होता॥3॥

काल दण्ड गहि काहु न मारा। हरइ धर्म बल बुद्धि बिचारा॥
निकट काल जेहि आवत साईं। तेहि भ्रम होइ तुम्हारिहि नाईं॥4॥

मूल

काल दण्ड गहि काहु न मारा। हरइ धर्म बल बुद्धि बिचारा॥
निकट काल जेहि आवत साईं। तेहि भ्रम होइ तुम्हारिहि नाईं॥4॥

भावार्थ

काल दण्ड (लाठी) लेकर किसी को नहीं मारता। वह धर्म, बल, बुद्धि और विचार को हर लेता है। हे स्वामी! जिसका काल (मरण समय) निकट आ जाता है, उसे आप ही की तरह भ्रम हो जाता है॥4॥

037

01 दोहा

दुइ सुत मरे दहेउ पुर अजहुँ पूर पिय देहु।
कृपासिन्धु रघुनाथ भजि नाथ बिमल जसु लेहु॥37॥

मूल

दुइ सुत मरे दहेउ पुर अजहुँ पूर पिय देहु।
कृपासिन्धु रघुनाथ भजि नाथ बिमल जसु लेहु॥37॥

भावार्थ

आपके दो पुत्र मारे गए और नगर जल गया। (जो हुआ सो हुआ) हे प्रियतम! अब भी (इस भूल की) पूर्ति (समाप्ति) कर दीजिए (श्री रामजी से वैर त्याग दीजिए) और हे नाथ! कृपा के समुद्र श्री रघुनाथजी को भजकर निर्मल यश लीजिए॥37॥

02 चौपाई

नारि बचन सुनि बिसिख समाना। सभाँ गयउ उठि होत बिहाना॥
बैठ जाइ सिङ्घासन फूली। अति अभिमान त्रास सब भूली॥1॥

मूल

नारि बचन सुनि बिसिख समाना। सभाँ गयउ उठि होत बिहाना॥
बैठ जाइ सिङ्घासन फूली। अति अभिमान त्रास सब भूली॥1॥

भावार्थ

स्त्री के बाण के समान वचन सुनकर वह सबेरा होते ही उठकर सभा में चला गया और सारा भय भुलाकर अत्यन्त अभिमान में फूलकर सिंहासन पर जा बैठा॥1॥

इहाँ राम अङ्गदहि बोलावा। आइ चरन पङ्कज सिरु नावा॥
अति आदर समीप बैठारी। बोले बिहँसि कृपाल खरारी॥2॥

मूल

इहाँ राम अङ्गदहि बोलावा। आइ चरन पङ्कज सिरु नावा॥
अति आदर समीप बैठारी। बोले बिहँसि कृपाल खरारी॥2॥

भावार्थ

यहाँ (सुबेल पर्वत पर) श्री रामजी ने अङ्गद को बुलाया। उन्होन्ने आकर चरणकमलों में सिर नवाया। बडे आदर से उन्हें पास बैठाकर खर के शत्रु कृपालु श्री रामजी हँसकर बोले॥2॥

बालितनय कौतुक अति मोही। तात सत्य कहुँ पूछउँ तोही॥
रावनु जातुधान कुल टीका। भुज बल अतुल जासु जग लीका॥3॥

मूल

बालितनय कौतुक अति मोही। तात सत्य कहुँ पूछउँ तोही॥
रावनु जातुधान कुल टीका। भुज बल अतुल जासु जग लीका॥3॥

भावार्थ

हे बालि के पुत्र! मुझे बडा कौतूहल है। हे तात! इसी से मैं तुमसे पूछता हूँ, सत्य कहना। जो रावण राक्षसों के कुल का तिलक है और जिसके अतुलनीय बाहुबल की जगत्‌भर में धाक है,॥3॥

तासु मुकुट तुम्ह चारि चलाए। कहहु तात कवनी बिधि पाए॥
सुनु सर्बग्य प्रनत सुखकारी। मुकुट न होहिं भूप न गुन चारी॥4॥

मूल

तासु मुकुट तुम्ह चारि चलाए। कहहु तात कवनी बिधि पाए॥
सुनु सर्बग्य प्रनत सुखकारी। मुकुट न होहिं भूप न गुन चारी॥4॥

भावार्थ

उसके चार मुकुट तुमने फेङ्के। हे तात! बताओ, तुमने उनको किस प्रकार से पाया! (अङ्गद ने कहा-) हे सर्वज्ञ! हे शरणागत को सुख देने वाले! सुनिए। वे मुकुट नहीं हैं। वे तो राजा के चार गुण हैं॥4॥

साम दान अरु दण्ड बिभेदा। नृप उर बसहिं नाथ कह बेदा॥
नीति धर्म के चरन सुहाए। अस जियँ जानि पहिं आए॥5॥

मूल

साम दान अरु दण्ड बिभेदा। नृप उर बसहिं नाथ कह बेदा॥
नीति धर्म के चरन सुहाए। अस जियँ जानि पहिं आए॥5॥

भावार्थ

हे नाथ! वेद कहते हैं कि साम, दान, दण्ड और भेद- ये चारों राजा के हृदय में बसते हैं। ये नीति-धर्म के चार सुन्दर चरण हैं, (किन्तु रावण में धर्म का अभाव है) ऐसा जी में जानकर ये नाथ के पास आ गए हैं॥5॥

038

01 दोहा

धर्महीन प्रभु पद बिमुख काल बिबस दससीस।
तेहि परिहरि गुन आए सुनहु कोसलाधीस॥1॥

मूल

धर्महीन प्रभु पद बिमुख काल बिबस दससीस।
तेहि परिहरि गुन आए सुनहु कोसलाधीस॥1॥

भावार्थ

दशशीश रावण धर्महीन, प्रभु के पद से विमुख और काल के वश में है, इसलिए हे कोसलराज! सुनिए, वे गुण रावण को छोडकर आपके पास आ गए हैं॥1॥

परम चतुरता श्रवन सुनि बिहँसे रामु उदार।
समाचार पुनि सब कहे गढ के बालिकुमार॥2॥

मूल

परम चतुरता श्रवन सुनि बिहँसे रामु उदार।
समाचार पुनि सब कहे गढ के बालिकुमार॥2॥

भावार्थ

अङ्गद की परम चतुरता (पूर्ण उक्ति) कानों से सुनकर उदार श्री रामचन्द्रजी हँसने लगे। फिर बालि पुत्र ने किले के (लङ्का के) सब समाचार कहे॥2॥

02 चौपाई

रिपु के समाचार जब पाए। राम सचिव सब निकट बोलाए॥
लङ्का बाँके चारि दुआरा। केहि बिधि लागिअ करहु बिचारा॥1॥

मूल

रिपु के समाचार जब पाए। राम सचिव सब निकट बोलाए॥
लङ्का बाँके चारि दुआरा। केहि बिधि लागिअ करहु बिचारा॥1॥

भावार्थ

जब शत्रु के समाचार प्राप्त हो गए, तब श्री रामचन्द्रजी ने सब मन्त्रियों को पास बुलाया (और कहा-) लङ्का के चार बडे विकट दरवाजे हैं। उन पर किस तरह आक्रमण किया जाए, इस पर विचार करो॥1॥

तब कपीस रिच्छेस बिभीषन। सुमरि हृदयँ दिनकर कुल भूषन॥
करि बिचार तिन्ह मन्त्र दृढावा। चारि अनी कपि कटकु बनावा॥2॥

मूल

तब कपीस रिच्छेस बिभीषन। सुमरि हृदयँ दिनकर कुल भूषन॥
करि बिचार तिन्ह मन्त्र दृढावा। चारि अनी कपि कटकु बनावा॥2॥

भावार्थ

तब वानरराज सुग्रीव, ऋक्षपति जाम्बवान्‌ और विभीषण ने हृदय में सूर्य कुल के भूषण श्री रघुनाथजी का स्मरण किया और विचार करके उन्होन्ने कर्तव्य निश्चित किया। वानरों की सेना के चार दल बनाए॥2॥

जथाजोग सेनापति कीन्हे। जूथप सकल बोलि तब लीन्हे॥
प्रभु प्रताप कहि सब समुझाए। सुनि कपि सिङ्घनाद करि धाए॥3॥

मूल

जथाजोग सेनापति कीन्हे। जूथप सकल बोलि तब लीन्हे॥
प्रभु प्रताप कहि सब समुझाए। सुनि कपि सिङ्घनाद करि धाए॥3॥

भावार्थ

और उनके लिए यथायोग्य (जैसे चाहिए वैसे) सेनापति नियुक्त किए। फिर सब यूथपतियों को बुला लिया और प्रभु का प्रताप कहकर सबको समझाया, जिसे सुनकर वानर, सिंह के समान गर्जना करके दौडे॥3॥

हरषित राम चरन सिर नावहिं। गहि गिरि सिखर बीर सब धावहिं॥
गर्जहिं तर्जहिं भालु कपीसा। जय रघुबीर कोसलाधीसा॥4॥

मूल

हरषित राम चरन सिर नावहिं। गहि गिरि सिखर बीर सब धावहिं॥
गर्जहिं तर्जहिं भालु कपीसा। जय रघुबीर कोसलाधीसा॥4॥

भावार्थ

वे हर्षित होकर श्री रामजी के चरणों में सिर नवाते हैं और पर्वतों के शिखर ले-लेकर सब वीर दौडते हैं। ‘कोसलराज श्री रघुवीरजी की जय हो’ पुकारते हुए भालू और वानर गरजते और ललकारते हैं॥4॥

जानत परम दुर्ग अति लङ्का। प्रभु प्रताप कपि चले असङ्का॥
घटाटोप करि चहुँ दिसि घेरी॥ मुखहिं निसार बजावहिं भेरी॥5॥

मूल

जानत परम दुर्ग अति लङ्का। प्रभु प्रताप कपि चले असङ्का॥
घटाटोप करि चहुँ दिसि घेरी॥ मुखहिं निसार बजावहिं भेरी॥5॥

भावार्थ

लङ्का को अत्यन्त श्रेष्ठ (अजेय) किला जानते हुए भी वानर प्रभु श्री रामचन्द्रजी के प्रताप से निडर होकर चले। चारों ओर से घिरी हुई बादलों की घटा की तरह लङ्का को चारों दिशाओं से घेरकर वे मुँह से डङ्के और भेरी बजाने लगे॥5॥

039

01 दोहा

जयति राम जय लछिमन जय कपीस सुग्रीव।
गर्जहिं सिंहनाद कपि भालु महा बल सींव॥39॥

मूल

जयति राम जय लछिमन जय कपीस सुग्रीव।
गर्जहिं सिंहनाद कपि भालु महा बल सींव॥39॥

भावार्थ

महान्‌ बल की सीमा वे वानर-भालू सिंह के समान ऊँचे स्वर से ‘श्री रामजी की जय’, ‘लक्ष्मणजी की जय’, ‘वानरराज सुग्रीव की जय’- ऐसी गर्जना करने लगे॥39॥

02 चौपाई

लङ्काँ भयउ कोलाहल भारी। सुना दसानन अति अहँकारी॥
देखहु बनरन्ह केरि ढिठाई। बिहँसि निसाचर सेन बोलाई॥1॥

मूल

लङ्काँ भयउ कोलाहल भारी। सुना दसानन अति अहँकारी॥
देखहु बनरन्ह केरि ढिठाई। बिहँसि निसाचर सेन बोलाई॥1॥

भावार्थ

लङ्का में बडा भारी कोलाहल (कोहराम) मच गया। अत्यन्त अहङ्कारी रावण ने उसे सुनकर कहा- वानरों की ढिठाई तो देखो! यह कहते हुए हँसकर उसने राक्षसों की सेना बुलाई॥1॥

आए कीस काल के प्रेरे। छुधावन्त सब निसिचर मेरे॥
बअस कहि अट्टहास सठ कीन्हा। गृह बैठें अहार बिधि दीन्हा॥2॥

मूल

आए कीस काल के प्रेरे। छुधावन्त सब निसिचर मेरे॥
बअस कहि अट्टहास सठ कीन्हा। गृह बैठें अहार बिधि दीन्हा॥2॥

भावार्थ

बन्दर काल की प्रेरणा से चले आए हैं। मेरे राक्षस सभी भूखे हैं। विधाता ने इन्हें घर बैठे भोजन भेज दिया। ऐसा कहकर उस मूर्ख ने अट्टहास किया (वह बडे जोर से ठहाका मारकर हँसा)॥2॥

सुभट सकल चारिहुँ दिसि जाहू। धरि धरि भालु कीस सब खाहू॥
उमा रावनहि अस अभिमाना। जिमि टिट्टिभ खग सूत उताना॥3॥

मूल

सुभट सकल चारिहुँ दिसि जाहू। धरि धरि भालु कीस सब खाहू॥
उमा रावनहि अस अभिमाना। जिमि टिट्टिभ खग सूत उताना॥3॥

भावार्थ

(और बोला-) हे वीरों! सब लोग चारों दिशाओं में जाओ और रीछ-वानर सबको पकड-पकडकर खाओ। (शिवजी कहते हैं-) हे उमा! रावण को ऐसा अभिमान था जैसा टिटिहिरी पक्षी पैर ऊपर की ओर करके सोता है (मानो आकाश को थाम लेगा)॥3॥

चले निसाचर आयसु मागी। गहि कर भिण्डिपाल बर साँगी॥
तोमर मुद्गर परसु प्रचण्डा। सूल कृपान परिघ गिरिखण्डा॥4॥

मूल

चले निसाचर आयसु मागी। गहि कर भिण्डिपाल बर साँगी॥
तोमर मुद्गर परसु प्रचण्डा। सूल कृपान परिघ गिरिखण्डा॥4॥

भावार्थ

आज्ञा माँगकर और हाथों में उत्तम भिन्दिपाल, साँगी (बरछी), तोमर, मुद्गर, प्रचण्ड फरसे, शूल, दोधारी तलवार, परिघ और पहाडों के टुकडे लेकर राक्षस चले॥4॥

जिमि अरुनोपल निकर निहारी। धावहिं सठ खग मांस अहारी॥
चोञ्च भङ्ग दुख तिन्हहि न सूझा। तिमि धाए मनुजाद अबूझा॥5॥

मूल

जिमि अरुनोपल निकर निहारी। धावहिं सठ खग मांस अहारी॥
चोञ्च भङ्ग दुख तिन्हहि न सूझा। तिमि धाए मनुजाद अबूझा॥5॥

भावार्थ

जैसे मूर्ख मांसाहारी पक्षी लाल पत्थरों का समूह देखकर उस पर टूट पडते हैं, (पत्थरों पर लगने से) चोञ्च टूटने का दुःख उन्हें नहीं सूझता, वैसे ही ये बेसमझ राक्षस दौडे॥5॥

040

01 दोहा

नानायुध सर चाप धर जातुधान बल बीर।
कोट कँगूरन्हि चढि गए कोटि कोटि रनधीर॥40॥

मूल

नानायुध सर चाप धर जातुधान बल बीर।
कोट कँगूरन्हि चढि गए कोटि कोटि रनधीर॥40॥

भावार्थ

अनेकों प्रकार के अस्त्र-शस्त्र और धनुष-बाण धारण किए करोडों बलवान्‌ और रणधीर राक्षस वीर परकोटे के कँगूरों पर चढ गए॥40॥

02 चौपाई

कोट कँगूरन्हि सोहहिं कैसे। मेरु के सृङ्गनि जनु घन बैसे॥
बाजहिं ढोल निसान जुझाऊ। सुनि धुनि होइ भटन्हि मन चाऊ॥1॥

मूल

कोट कँगूरन्हि सोहहिं कैसे। मेरु के सृङ्गनि जनु घन बैसे॥
बाजहिं ढोल निसान जुझाऊ। सुनि धुनि होइ भटन्हि मन चाऊ॥1॥

भावार्थ

वे परकोटे के कँगूरों पर कैसे शोभित हो रहे हैं, मानो सुमेरु के शिखरों पर बादल बैठे हों। जुझाऊ ढोल और डङ्के आदि बज रहे हैं, (जिनकी) ध्वनि सुनकर योद्धाओं के मन में (लडने का) चाव होता है॥1॥

बाजहिं भेरि नफीरि अपारा। सुनि कादर उर जाहिं दरारा॥
देखिन्ह जाइ कपिन्ह के ठट्टा। अति बिसाल तनु भालु सुभट्टा॥2॥

मूल

बाजहिं भेरि नफीरि अपारा। सुनि कादर उर जाहिं दरारा॥
देखिन्ह जाइ कपिन्ह के ठट्टा। अति बिसाल तनु भालु सुभट्टा॥2॥

भावार्थ

अगणित नफीरी और भेरी बज रही है, (जिन्हें) सुनकर कायरों के हृदय में दरारें पड जाती हैं। उन्होन्ने जाकर अत्यन्त विशाल शरीर वाले महान्‌ योद्धा वानर और भालुओं के ठट्ट (समूह) देखे॥2॥

धावहिं गनहिं न अवघट घाटा। पर्बत फोरि करहिं गहि बाटा॥
कटकटाहिं कोटिन्ह भट गर्जहिं। दसन ओठ काटहिं अति तर्जहिं॥3॥

मूल

धावहिं गनहिं न अवघट घाटा। पर्बत फोरि करहिं गहि बाटा॥
कटकटाहिं कोटिन्ह भट गर्जहिं। दसन ओठ काटहिं अति तर्जहिं॥3॥

भावार्थ

(देखा कि) वे रीछ-वानर दौडते हैं, औघट (ऊँची-नीची, विकट) घाटियों को कुछ नहीं गिनते। पकडकर पहाडों को फोडकर रास्ता बना लेते हैं। करोडों योद्धा कटकटाते और गर्जते हैं। दाँतों से होठ काटते और खूब डपटते हैं॥3॥

उत रावन इत राम दोहाई। जयति जयति जय परी लराई॥
निसिचर सिखर समूह ढहावहिं। कूदि धरहिं कपि फेरि चलावहिं॥4॥

मूल

उत रावन इत राम दोहाई। जयति जयति जय परी लराई॥
निसिचर सिखर समूह ढहावहिं। कूदि धरहिं कपि फेरि चलावहिं॥4॥

भावार्थ

उधर रावण की और इधर श्री रामजी की दुहाई बोली जा रही है। ‘जय’ ‘जय’ ‘जय’ की ध्वनि होते ही लडाई छिड गई। राक्षस पहाडों के ढेर के ढेर शिखरों को फेङ्कते हैं। वानर कूदकर उन्हें पकड लेते हैं और वापस उन्हीं की ओर चलाते हैं॥4॥

03 छन्द

धरि कुधर खण्ड प्रचण्ड मर्कट भालु गढ पर डारहीं।
झपटहिं चरन गहि पटकि महि भजि चलत बहुरि पचारहीं॥
अति तरल तरुन प्रताप तरपहिं तमकि गढ चढि चढि गए।
कपि भालु चढि मन्दिरन्ह जहँ तहँ राम जसु गावत भए॥

मूल

धरि कुधर खण्ड प्रचण्ड मर्कट भालु गढ पर डारहीं।
झपटहिं चरन गहि पटकि महि भजि चलत बहुरि पचारहीं॥
अति तरल तरुन प्रताप तरपहिं तमकि गढ चढि चढि गए।
कपि भालु चढि मन्दिरन्ह जहँ तहँ राम जसु गावत भए॥

भावार्थ

प्रचण्ड वानर और भालू पर्वतों के टुकडे ले-लेकर किले पर डालते हैं। वे झपटते हैं और राक्षसों के पैर पकडकर उन्हें पृथ्वी पर पटककर भाग चलते हैं और फिर ललकारते हैं। बहुत ही चञ्चल और बडे तेजस्वी वानर-भालू बडी फुर्ती से उछलकर किले पर चढ-चढकर गए और जहाँ-तहाँ महलों में घुसकर श्री रामजी का यश गाने लगे।

041

01 दोहा

एकु एकु निसिचर गहि पुनि कपि चले पराइ।
ऊपर आपु हेठ भट गिरहिं धरनि पर आइ॥41॥

मूल

एकु एकु निसिचर गहि पुनि कपि चले पराइ।
ऊपर आपु हेठ भट गिरहिं धरनि पर आइ॥41॥

भावार्थ

फिर एक-एक राक्षस को पकडकर वे वानर भाग चले। ऊपर आप और नीचे (राक्षस) योद्धा- इस प्रकार वे (किले से) धरती पर आ गिरते हैं॥41॥

02 चौपाई

राम प्रताप प्रबल कपिजूथा। मर्दहिं निसिचर सुभट बरूथा॥
चढे दुर्ग पुनि जहँ तहँ बानर। जय रघुबीर प्रताप दिवाकर॥1॥

मूल

राम प्रताप प्रबल कपिजूथा। मर्दहिं निसिचर सुभट बरूथा॥
चढे दुर्ग पुनि जहँ तहँ बानर। जय रघुबीर प्रताप दिवाकर॥1॥

भावार्थ

श्री रामजी के प्रताप से प्रबल वानरों के झुण्ड राक्षस योद्धाओं के समूह के समूह मसल रहे हैं। वानर फिर जहाँ-तहाँ किले पर चढ गए और प्रताप में सूर्य के समान श्री रघुवीर की जय बोलने लगे॥1॥

चले निसाचर निकर पराई। प्रबल पवन जिमि घन समुदाई॥
हाहाकार भयउ पुर भारी। रोवहिं बालक आतुर नारी॥2॥

मूल

चले निसाचर निकर पराई। प्रबल पवन जिमि घन समुदाई॥
हाहाकार भयउ पुर भारी। रोवहिं बालक आतुर नारी॥2॥

भावार्थ

राक्षसों के झुण्ड वैसे ही भाग चले जैसे जोर की हवा चलने पर बादलों के समूह तितर-बितर हो जाते हैं। लङ्का नगरी में बडा भारी हाहाकार मच गया। बालक, स्त्रियाँ और रोगी (असमर्थता के कारण) रोने लगे॥2॥

सब मिलि देहिं रावनहि गारी। राज करत एहिं मृत्यु हँकारी॥
निज दल बिचल सुनी तेहिं काना। फेरि सुभट लङ्केस रिसाना॥3॥

मूल

सब मिलि देहिं रावनहि गारी। राज करत एहिं मृत्यु हँकारी॥
निज दल बिचल सुनी तेहिं काना। फेरि सुभट लङ्केस रिसाना॥3॥

भावार्थ

सब मिलकर रावण को गालियाँ देने लगे कि राज्य करते हुए इसने मृत्यु को बुला लिया। रावण ने जब अपनी सेना का विचलित होना कानों से सुना, तब (भागते हुए) योद्धाओं को लौटाकर वह क्रोधित होकर बोला-॥3॥

जो रन बिमुख सुना मैं काना। सो मैं हतब कराल कृपाना॥
सर्बसु खाइ भोग करि नाना। समर भूमि भए बल्लभ प्राना॥4॥

मूल

जो रन बिमुख सुना मैं काना। सो मैं हतब कराल कृपाना॥
सर्बसु खाइ भोग करि नाना। समर भूमि भए बल्लभ प्राना॥4॥

भावार्थ

मैं जिसे रण से पीठ देकर भागा हुआ अपने कानों सुनूँगा, उसे स्वयं भयानक दोधारी तलवार से मारूँगा। मेरा सब कुछ खाया, भाँति-भाँति के भोग किए और अब रणभूमि में प्राण प्यारे हो गए!॥4॥

उग्र बचन सुनि सकल डेराने। चले क्रोध करि सुभट लजाने॥
सन्मुख मरन बीर कै सोभा। तब तिन्ह तजा प्रान कर लोभा॥5॥

मूल

उग्र बचन सुनि सकल डेराने। चले क्रोध करि सुभट लजाने॥
सन्मुख मरन बीर कै सोभा। तब तिन्ह तजा प्रान कर लोभा॥5॥

भावार्थ

रावण के उग्र (कठोर) वचन सुनकर सब वीर डर गए और लज्जित होकर क्रोध करके युद्ध के लिए लौट चले। रण में (शत्रु के) सम्मुख (युद्ध करते हुए) मरने में ही वीर की शोभा है। (यह सोचकर) तब उन्होन्ने प्राणों का लोभ छोड दिया॥5॥

042

01 दोहा

बहु आयुध धर सुभट सब भिरहिं पचारि पचारि।
ब्याकुल किए भालु कपि परिघ त्रिसूलन्हि मारि॥42॥

मूल

बहु आयुध धर सुभट सब भिरहिं पचारि पचारि।
ब्याकुल किए भालु कपि परिघ त्रिसूलन्हि मारि॥42॥

भावार्थ

बहुत से अस्त्र-शस्त्र धारण किए, सब वीर ललकार-ललकारकर भिडने लगे। उन्होन्ने परिघों और त्रिशूलों से मार-मारकर सब रीछ-वानरों को व्याकुल कर दिया॥42॥

02 चौपाई

भय आतुर कपि भागत लागे। जद्यपि उमा जीतिहहिं आगे॥
कोउ कह कहँ अङ्गद हनुमन्ता। कहँ नल नील दुबिद बलवन्ता॥1॥

मूल

भय आतुर कपि भागत लागे। जद्यपि उमा जीतिहहिं आगे॥
कोउ कह कहँ अङ्गद हनुमन्ता। कहँ नल नील दुबिद बलवन्ता॥1॥

भावार्थ

(शिवजी कहते हैं-) वानर भयातुर होकर (डर के मारे घबडाकर) भागने लगे, यद्यपि हे उमा! आगे चलकर (वे ही) जीतेङ्गे। कोई कहता है- अङ्गद-हनुमान्‌ कहाँ हैं? बलवान्‌ नल, नील और द्विविद कहाँ हैं?॥1॥

निज दल बिकल सुना हनुमाना। पच्छिम द्वार रहा बलवाना॥
मेघनाद तहँ करइ लराई। टूट न द्वार परम कठिनाई॥2॥

मूल

निज दल बिकल सुना हनुमाना। पच्छिम द्वार रहा बलवाना॥
मेघनाद तहँ करइ लराई। टूट न द्वार परम कठिनाई॥2॥

भावार्थ

हनुमान्‌जी ने जब अपने दल को विकल (भयभीत) हुआ सुना, उस समय वे बलवान्‌ पश्चिम द्वार पर थे। वहाँ उनसे मेघनाद युद्ध कर रहा था। वह द्वार टूटता न था, बडी भारी कठिनाई हो रही थी॥2॥

पवनतनय मन भा अति क्रोधा। गर्जेउ प्रबल काल सम जोधा॥
कूदि लङ्क गढ ऊपर आवा। गहि गिरि मेघनाद कहुँ धावा॥3॥

मूल

पवनतनय मन भा अति क्रोधा। गर्जेउ प्रबल काल सम जोधा॥
कूदि लङ्क गढ ऊपर आवा। गहि गिरि मेघनाद कहुँ धावा॥3॥

भावार्थ

तब पवनपुत्र हनुमान्‌जी के मन में बडा भारी क्रोध हुआ। वे काल के समान योद्धा बडे जोर से गरजे और कूदकर लङ्का के किले पर आ गए और पहाड लेकर मेघनाद की ओर दौडे॥3॥

भञ्जेउ रथ सारथी निपाता। ताहि हृदय महुँ मारेसि लाता॥
दुसरें सूत बिकल तेहि जाना। स्यन्दन घालि तुरत गृह आना॥4॥

मूल

भञ्जेउ रथ सारथी निपाता। ताहि हृदय महुँ मारेसि लाता॥
दुसरें सूत बिकल तेहि जाना। स्यन्दन घालि तुरत गृह आना॥4॥

भावार्थ

रथ तोड डाला, सारथी को मार गिराया और मेघनाद की छाती में लात मारी। दूसरा सारथी मेघनाद को व्याकुल जानकर, उसे रथ में डालकर, तुरन्त घर ले आया॥4॥

043

01 दोहा

अङ्गद सुना पवनसुत गढ पर गयउ अकेल।
रन बाँकुरा बालिसुत तरकि चढेउ कपि खेल॥43॥

मूल

अङ्गद सुना पवनसुत गढ पर गयउ अकेल।
रन बाँकुरा बालिसुत तरकि चढेउ कपि खेल॥43॥

भावार्थ

इधर अङ्गद ने सुना कि पवनपुत्र हनुमान्‌ किले पर अकेले ही गए हैं, तो रण में बाँके बालि पुत्र वानर के खेल की तरह उछलकर किले पर चढ गए॥43॥

02 चौपाई

जुद्ध बिरुद्ध क्रुद्ध द्वौ बन्दर। राम प्रताप सुमिरि उर अन्तर॥
रावन भवन चढे द्वौ धाई। करहिं कोसलाधीस दोहाई॥1॥

मूल

जुद्ध बिरुद्ध क्रुद्ध द्वौ बन्दर। राम प्रताप सुमिरि उर अन्तर॥
रावन भवन चढे द्वौ धाई। करहिं कोसलाधीस दोहाई॥1॥

भावार्थ

युद्ध में शत्रुओं के विरुद्ध दोनों वानर क्रुद्ध हो गए। हृदय में श्री रामजी के प्रताप का स्मरण करके दोनों दौडकर रावण के महल पर जा चढे और कोसलराज श्री रामजी की दुहाई बोलने लगे॥1॥

कलस सहित गहि भवनु ढहावा। देखि निसाचरपति भय पावा॥
नारि बृन्द कर पीटहिं छाती। अब दुइ कपि आए उतपाती॥2॥

मूल

कलस सहित गहि भवनु ढहावा। देखि निसाचरपति भय पावा॥
नारि बृन्द कर पीटहिं छाती। अब दुइ कपि आए उतपाती॥2॥

भावार्थ

उन्होन्ने कलश सहित महल को पकडकर ढहा दिया। यह देखकर राक्षस राज रावण डर गया। सब स्त्रियाँ हाथों से छाती पीटने लगीं (और कहने लगीं-) अब की बार दो उत्पाती वानर (एक साथ) आ गए हैं॥2॥

कपिलीला करि तिन्हहि डेरावहिं। रामचन्द्र कर सुजसु सुनावहिं॥
पुनि कर गहि कञ्चन के खम्भा। कहेन्हि करिअ उतपात अरम्भा॥3॥

मूल

कपिलीला करि तिन्हहि डेरावहिं। रामचन्द्र कर सुजसु सुनावहिं॥
पुनि कर गहि कञ्चन के खम्भा। कहेन्हि करिअ उतपात अरम्भा॥3॥

भावार्थ

वानरलीला करके (घुडकी देकर) दोनों उनको डराते हैं और श्री रामचन्द्रजी का सुन्दर यश सुनाते हैं। फिर सोने के खम्भों को हाथों से पकडकर उन्होन्ने (परस्पर) कहा कि अब उत्पात आरम्भ किया जाए॥3॥

गर्जि परे रिपु कटक मझारी। लागे मर्दै भुज बल भारी॥
काहुहि लात चपेटन्हि केहू। भजहु न रामहि सो फल लेहू॥4॥

मूल

गर्जि परे रिपु कटक मझारी। लागे मर्दै भुज बल भारी॥
काहुहि लात चपेटन्हि केहू। भजहु न रामहि सो फल लेहू॥4॥

भावार्थ

वे गर्जकर शत्रु की सेना के बीच में कूद पडे और अपने भारी भुजबल से उसका मर्दन करने लगे। किसी की लात से और किसी की थप्पड से खबर लेते हैं (और कहते हैं कि) तुम श्री रामजी को नहीं भजते, उसका यह फल लो॥4॥

044

01 दोहा

एक एक सों मर्दहिं तोरि चलावहिं मुण्ड।
रावन आगें परहिं ते जनु फूटहिं दधि कुण्ड॥44॥

मूल

एक एक सों मर्दहिं तोरि चलावहिं मुण्ड।
रावन आगें परहिं ते जनु फूटहिं दधि कुण्ड॥44॥

भावार्थ

एक को दूसरे से (रगडकर) मसल डालते हैं और सिरों को तोडकर फेङ्कते हैं। वे सिर जाकर रावण के सामने गिरते हैं और ऐसे फूटते हैं, मानो दही के कूण्डे फूट रहे हों॥4॥

02 चौपाई

महा महा मुखिआ जे पावहिं। ते पद गहि प्रभु पास चलावहिं॥
कहइ बिभीषनु तिन्ह के नामा। देहिं राम तिन्हहू निज धामा॥1॥

मूल

महा महा मुखिआ जे पावहिं। ते पद गहि प्रभु पास चलावहिं॥
कहइ बिभीषनु तिन्ह के नामा। देहिं राम तिन्हहू निज धामा॥1॥

भावार्थ

जिन बडे-बडे मुखियों (प्रधान सेनापतियों) को पकड पाते हैं, उनके पैर पकडकर उन्हें प्रभु के पास फेङ्क देते हैं। विभीषणजी उनके नाम बतलाते हैं और श्री रामजी उन्हें भी अपना धाम (परम पद) दे देते हैं॥1॥

खल मनुजाद द्विजामिष भोगी। पावहिं गति जो जाचत जोगी॥
उमा राम मृदुचित करुनाकर। बयर भाव सुमिरत मोहि निसिचर॥2॥

मूल

खल मनुजाद द्विजामिष भोगी। पावहिं गति जो जाचत जोगी॥
उमा राम मृदुचित करुनाकर। बयर भाव सुमिरत मोहि निसिचर॥2॥

भावार्थ

ब्राह्मणों का मांस खाने वाले वे नरभोजी दुष्ट राक्षस भी वह परम गति पाते हैं, जिसकी योगी भी याचना किया करते हैं, (परन्तु सहज में नहीं पाते)। (शिवजी कहते हैं-) हे उमा! श्री रामजी बडे ही कोमल हृदय और करुणा की खान हैं। (वे सोचते हैं कि) राक्षस मुझे वैरभाव से ही सही, स्मरण तो करते ही हैं॥2॥

देहिं परम गति सो जियँ जानी। अस कृपाल को कहहु भवानी॥
अस प्रभु सुनि न भजहिं भ्रम त्यागी। नर मतिमन्द ते परम अभागी॥3॥

मूल

देहिं परम गति सो जियँ जानी। अस कृपाल को कहहु भवानी॥
अस प्रभु सुनि न भजहिं भ्रम त्यागी। नर मतिमन्द ते परम अभागी॥3॥

भावार्थ

ऐसा हृदय में जानकर वे उन्हें परमगति (मोक्ष) देते हैं। हे भवानी! कहो तो ऐसे कृपालु (और) कौन हैं? प्रभु का ऐसा स्वभाव सुनकर भी जो मनुष्य भ्रम त्याग कर उनका भजन नहीं करते, वे अत्यन्त मन्दबुद्धि और परम भाग्यहीन हैं॥3॥

अङ्गद अरु हनुमन्त प्रबेसा। कीन्ह दुर्ग अस कह अवधेसा॥
लङ्काँ द्वौ कपि सोहहिं कैसें। मथहिं सिन्धु दुइ मन्दर जैसें॥4॥

मूल

अङ्गद अरु हनुमन्त प्रबेसा। कीन्ह दुर्ग अस कह अवधेसा॥
लङ्काँ द्वौ कपि सोहहिं कैसें। मथहिं सिन्धु दुइ मन्दर जैसें॥4॥

भावार्थ

श्री रामजी ने कहा कि अङ्गद और हनुमान किले में घुस गए हैं। दोनों वानर लङ्का में (विध्वंस करते) कैसे शोभा देते हैं, जैसे दो मन्दराचल समुद्र को मथ रहे हों॥4॥ दोहा :

045

01 दोहा

भुज बल रिपु दल दलमलि देखि दिवस कर अन्त।
कूदे जुगल बिगत श्रम आए जहँ भगवन्त॥45॥

मूल

भुज बल रिपु दल दलमलि देखि दिवस कर अन्त।
कूदे जुगल बिगत श्रम आए जहँ भगवन्त॥45॥

भावार्थ

भुजाओं के बल से शत्रु की सेना को कुचलकर और मसलकर, फिर दिन का अन्त होता देखकर हनुमान्‌ और अङ्गद दोनों कूद पडे और श्रम थकावट रहित होकर वहाँ आ गए, जहाँ भगवान्‌ श्री रामजी थे॥45॥

02 चौपाई

प्रभु पद कमल सीस तिन्ह नाए। देखि सुभट रघुपति मन भाए॥
राम कृपा करि जुगल निहारे। भए बिगतश्रम परम सुखारे॥1॥

मूल

प्रभु पद कमल सीस तिन्ह नाए। देखि सुभट रघुपति मन भाए॥
राम कृपा करि जुगल निहारे। भए बिगतश्रम परम सुखारे॥1॥

भावार्थ

उन्होन्ने प्रभु के चरण कमलों में सिर नवाए। उत्तम योद्धाओं को देखकर श्री रघुनाथजी मन में बहुत प्रसन्न हुए। श्री रामजी ने कृपा करके दोनों को देखा, जिससे वे श्रमरहित और परम सुखी हो गए॥1॥

गए जानि अङ्गद हनुमाना। फिरे भालु मर्कट भट नाना॥
जातुधान प्रदोष बल पाई। धाए करि दससीस दोहाई॥2॥

मूल

गए जानि अङ्गद हनुमाना। फिरे भालु मर्कट भट नाना॥
जातुधान प्रदोष बल पाई। धाए करि दससीस दोहाई॥2॥

भावार्थ

अङ्गद और हनुमान्‌ को गए जानकर सभी भालू और वानर वीर लौट पडे। राक्षसों ने प्रदोष (सायं) काल का बल पाकर रावण की दुहाई देते हुए वानरों पर धावा किया॥2॥

निसिचर अनी देखि कपि फिरे। जहँ तहँ कटकटाइ भट भिरे॥
द्वौ दल प्रबल पचारि पचारी। लरत सुभट नहिं मानहिं हारी॥3॥

मूल

निसिचर अनी देखि कपि फिरे। जहँ तहँ कटकटाइ भट भिरे॥
द्वौ दल प्रबल पचारि पचारी। लरत सुभट नहिं मानहिं हारी॥3॥

भावार्थ

राक्षसों की सेना आती देखकर वानर लौट पडे और वे योद्धा जहाँ-तहाँ कटकटाकर भिड गए। दोनों ही दल बडे बलवान्‌ हैं। योद्धा ललकार-ललकारकर लडते हैं, कोई हार नहीं मानते॥3॥

महाबीर निसिचर सब कारे। नाना बरन बलीमुख भारे॥
सबल जुगल दल समबल जोधा। कौतुक करत लरत करि क्रोधा॥4॥

मूल

महाबीर निसिचर सब कारे। नाना बरन बलीमुख भारे॥
सबल जुगल दल समबल जोधा। कौतुक करत लरत करि क्रोधा॥4॥

भावार्थ

सभी राक्षस महान्‌ वीर और अत्यन्त काले हैं और वानर विशालकाय तथा अनेकों रङ्गों के हैं। दोनों ही दल बलवान्‌ हैं और समान बल वाले योद्धा हैं। वे क्रोध करके लडते हैं और खेल करते (वीरता दिखलाते) हैं॥4॥

प्राबिट सरद पयोद घनेरे। लरत मनहुँ मारुत के प्रेरे॥
अनिप अकम्पन अरु अतिकाया। बिचलत सेन कीन्हि इन्ह माया॥5॥

मूल

प्राबिट सरद पयोद घनेरे। लरत मनहुँ मारुत के प्रेरे॥
अनिप अकम्पन अरु अतिकाया। बिचलत सेन कीन्हि इन्ह माया॥5॥

भावार्थ

(राक्षस और वानर युद्ध करते हुए ऐसे जान पडते हैं) मानो क्रमशः वर्षा और शरद् ऋतु में बहुत से बादल पवन से प्रेरित होकर लड रहे हों। अकम्पन और अतिकाय इन सेनापतियों ने अपनी सेना को विचलित होते देखकर माया की॥5॥

भयउ निमिष महँ अति अँधिआरा। बृष्टि होइ रुधिरोपल छारा॥6॥

मूल

भयउ निमिष महँ अति अँधिआरा। बृष्टि होइ रुधिरोपल छारा॥6॥

भावार्थ

पलभर में अत्यन्त अन्धकार हो गया। खून, पत्थर और राख की वर्षा होने लगी॥6॥

046

01 दोहा

देखि निबिड तम दसहुँ दिसि कपिदल भयउ खभार।
एकहि एक न देखई जहँ तहँ करहिं पुकार॥46॥

मूल

देखि निबिड तम दसहुँ दिसि कपिदल भयउ खभार।
एकहि एक न देखई जहँ तहँ करहिं पुकार॥46॥

भावार्थ

दसों दिशाओं में अत्यन्त घना अन्धकार देखकर वानरों की सेना में खलबली पड गई। एक को एक (दूसरा) नहीं देख सकता और सब जहाँ-तहाँ पुकार रहे हैं॥46॥

02 चौपाई

सकल मरमु रघुनायक जाना। लिए बोलि अङ्गद हनुमाना॥
समाचार सब कहि समुझाए। सुनत कोपि कपिकुञ्जर धाए॥1॥

मूल

सकल मरमु रघुनायक जाना। लिए बोलि अङ्गद हनुमाना॥
समाचार सब कहि समुझाए। सुनत कोपि कपिकुञ्जर धाए॥1॥

भावार्थ

श्री रघुनाथजी सब रहस्य जान गए। उन्होन्ने अङ्गद और हनुमान्‌ को बुला लिया और सब समाचार कहकर समझाया। सुनते ही वे दोनों कपिश्रेष्ठ क्रोध करके दौडे॥1॥

पुनि कृपाल हँसि चाप चढावा। पावक सायक सपदि चलावा॥
भयउ प्रकास कतहुँ तम नाहीं। ग्यान उदयँ जिमि संसय जाहीं॥2॥

मूल

पुनि कृपाल हँसि चाप चढावा। पावक सायक सपदि चलावा॥
भयउ प्रकास कतहुँ तम नाहीं। ग्यान उदयँ जिमि संसय जाहीं॥2॥

भावार्थ

फिर कृपालु श्री रामजी ने हँसकर धनुष चलाया और तुरन्त ही अग्निबाण चलाया, जिससे प्रकाश हो गया, कहीं अँधेरा नहीं रह गया। जैसे ज्ञान के उदय होने पर (सब प्रकार के) सन्देह दूर हो जाते हैं॥2॥

भालु बलीमुख पाई प्रकासा। धाए हरष बिगत श्रम त्रासा॥
हनूमान अङ्गद रन गाजे। हाँक सुनत रजनीचर भाजे॥3॥

मूल

भालु बलीमुख पाई प्रकासा। धाए हरष बिगत श्रम त्रासा॥
हनूमान अङ्गद रन गाजे। हाँक सुनत रजनीचर भाजे॥3॥

भावार्थ

भालू और वानर प्रकाश पाकर श्रम और भय से रहित तथा प्रसन्न होकर दौडे। हनुमान्‌ और अङ्गद रण में गरज उठे। उनकी हाँक सुनते ही राक्षस भाग छूटे॥3॥

भागत भट पटकहिं धरि धरनी। करहिं भालु कपि अद्भुत करनी॥
गहि पद डारहिं सागर माहीं। मकर उरग झष धरि धरि खाहीं॥4॥

मूल

भागत भट पटकहिं धरि धरनी। करहिं भालु कपि अद्भुत करनी॥
गहि पद डारहिं सागर माहीं। मकर उरग झष धरि धरि खाहीं॥4॥

भावार्थ

भागते हुए राक्षस योद्धाओं को वानर और भालू पकडकर पृथ्वी पर दे मारते हैं और अद्भुत (आश्चर्यजनक) करनी करते हैं (युद्धकौशल दिखलाते हैं)। पैर पकडकर उन्हें समुद्र में डाल देते हैं। वहाँ मगर, साँप और मच्छ उन्हें पकड-पकडकर खा डालते हैं॥4॥

047

01 दोहा

कछु मारे कछु घायल कछु गढ चढे पराइ।
गर्जहिं भालु बलीमुख रिपु दल बल बिचलाइ॥47॥

मूल

कछु मारे कछु घायल कछु गढ चढे पराइ।
गर्जहिं भालु बलीमुख रिपु दल बल बिचलाइ॥47॥

भावार्थ

कुछ मारे गए, कुछ घायल हुए, कुछ भागकर गढ पर चढ गए। अपने बल से शत्रुदल को विचलित करके रीछ और वानर (वीर) गरज रहे हैं॥47॥

02 चौपाई

निसा जानि कपि चारिउ अनी। आए जहाँ कोसला धनी॥
राम कृपा करि चितवा सबही। भए बिगतश्रम बानर तबही॥1॥

मूल

निसा जानि कपि चारिउ अनी। आए जहाँ कोसला धनी॥
राम कृपा करि चितवा सबही। भए बिगतश्रम बानर तबही॥1॥

भावार्थ

रात हुई जानकर वानरों की चारों सेनाएँ (टुकडियाँ) वहाँ आईं, जहाँ कोसलपति श्री रामजी थे। श्री रामजी ने ज्यों ही सबको कृपा करके देखा त्यों ही ये वानर श्रमरहित हो गए॥1॥

उहाँ दसानन सचिव हँकारे। सब सन कहेसि सुभट जे मारे॥
आधा कटकु कपिन्ह सङ्घारा। कहहु बेगि का करिअ बिचारा॥2॥

मूल

उहाँ दसानन सचिव हँकारे। सब सन कहेसि सुभट जे मारे॥
आधा कटकु कपिन्ह सङ्घारा। कहहु बेगि का करिअ बिचारा॥2॥

भावार्थ

वहाँ (लङ्का में) रावण ने मन्त्रियों को बुलाया और जो योद्धा मारे गए थे, उन सबको सबसे बताया। (उसने कहा-) वानरों ने आधी सेना का संहार कर दिया! अब शीघ्र बताओ, क्या विचार (उपाय) करना चाहिए?॥2॥

माल्यवन्त अति जरठ निसाचर। रावन मातु पिता मन्त्री बर॥
बोला बचन नीति अति पावन। सुनहु तात कछु मोर सिखावन॥3॥

मूल

माल्यवन्त अति जरठ निसाचर। रावन मातु पिता मन्त्री बर॥
बोला बचन नीति अति पावन। सुनहु तात कछु मोर सिखावन॥3॥

भावार्थ

माल्यवन्त (नाम का एक) अत्यन्त बूढा राक्षस था। वह रावण की माता का पिता (अर्थात्‌ उसका नाना) और श्रेष्ठ मन्त्री था। वह अत्यन्त पवित्र नीति के वचन बोला- हे तात! कुछ मेरी सीख भी सुनो-॥3॥

जब ते तुम्ह सीता हरि आनी। असगुन होहिं न जाहिं बखानी॥
बेद पुरान जासु जसु गायो। राम बिमुख काहुँ न सुख पायो॥4॥

मूल

जब ते तुम्ह सीता हरि आनी। असगुन होहिं न जाहिं बखानी॥
बेद पुरान जासु जसु गायो। राम बिमुख काहुँ न सुख पायो॥4॥

भावार्थ

जब से तुम सीता को हर लाए हो, तब से इतने अपशकुन हो रहे हैं कि जो वर्णन नहीं किए जा सकते। वेद-पुराणों ने जिनका यश गाया है, उन श्री राम से विमुख होकर किसी ने सुख नहीं पाया॥4॥

048

01 दोहा

हिरन्याच्छ भ्राता सहित मधु कैटभ बलवान।
जेहिं मारे सोइ अवतरेउ कृपासिन्धु भगवान॥1॥

मूल

हिरन्याच्छ भ्राता सहित मधु कैटभ बलवान।
जेहिं मारे सोइ अवतरेउ कृपासिन्धु भगवान॥1॥

भावार्थ

भाई हिरण्यकशिपु सहित हिरण्याक्ष को बलवान्‌ मधु-कैटभ को जिन्होन्ने मारा था, वे ही कृपा के समुद्र भगवान्‌ (रामरूप से) अवतरित हुए हैं॥1॥

मासपारायण, पचीसवाँ विश्राम

कालरूप खल बन दहन गुनागार घनबोध।
सिव बिरञ्चि जेहि सेवहिं तासों कवन बिरोध॥2॥

मूल

मासपारायण, पचीसवाँ विश्राम

कालरूप खल बन दहन गुनागार घनबोध।
सिव बिरञ्चि जेहि सेवहिं तासों कवन बिरोध॥2॥

भावार्थ

जो कालस्वरूप हैं, दुष्टों के समूह रूपी वन के भस्म करने वाले (अग्नि) हैं, गुणों के धाम और ज्ञानघन हैं एवं शिवजी और ब्रह्माजी भी जिनकी सेवा करते हैं, उनसे वैर कैसा?॥2॥

02 चौपाई

परिहरि बयरु देहु बैदेही। भजहु कृपानिधि परम सनेही॥
ताके बचन बान सम लागे। करिआ मुँह करि जाहि अभागे॥1॥

मूल

परिहरि बयरु देहु बैदेही। भजहु कृपानिधि परम सनेही॥
ताके बचन बान सम लागे। करिआ मुँह करि जाहि अभागे॥1॥

भावार्थ

(अतः) वैर छोडकर उन्हें जानकीजी को दे दो और कृपानिधान परम स्नेही श्री रामजी का भजन करो। रावण को उसके वचन बाण के समान लगे। (वह बोला-) अरे अभागे! मुँह काला करके (यहाँ से) निकल जा॥1॥

बूढ भएसि न त मरतेउँ तोही। अब जनि नयन देखावसि मोही॥
तेहिं अपने मन अस अनुमाना। बध्यो चहत एहि कृपानिधाना॥2॥

मूल

बूढ भएसि न त मरतेउँ तोही। अब जनि नयन देखावसि मोही॥
तेहिं अपने मन अस अनुमाना। बध्यो चहत एहि कृपानिधाना॥2॥

भावार्थ

तू बूढा हो गया, नहीं तो तुझे मार ही डालता। अब मेरी आँखों को अपना मुँह न दिखला। रावण के ये वचन सुनकर उसने (माल्यवान्‌ ने) अपने मन में ऐसा अनुमान किया कि इसे कृपानिधान श्री रामजी अब मारना ही चाहते हैं॥2॥

सो उठि गयउ कहत दुर्बादा। तब सकोप बोलेउ घननादा॥
कौतुक प्रात देखिअहु मोरा। करिहउँ बहुत कहौं का थोरा॥3॥

मूल

सो उठि गयउ कहत दुर्बादा। तब सकोप बोलेउ घननादा॥
कौतुक प्रात देखिअहु मोरा। करिहउँ बहुत कहौं का थोरा॥3॥

भावार्थ

वह रावण को दुर्वचन कहता हुआ उठकर चला गया। तब मेघनाद क्रोधपूर्वक बोला- सबेरे मेरी करामात देखना। मैं बहुत कुछ करूँगा, थोडा क्या कहूँ? (जो कुछ वर्णन करूँगा थोडा ही होगा)॥3॥

सुनि सुत बचन भरोसा आवा। प्रीति समेत अङ्क बैठावा॥
करत बिचार भयउ भिनुसारा। लागे कपि पुनि चहूँ दुआरा॥4॥

मूल

सुनि सुत बचन भरोसा आवा। प्रीति समेत अङ्क बैठावा॥
करत बिचार भयउ भिनुसारा। लागे कपि पुनि चहूँ दुआरा॥4॥

भावार्थ

पुत्र के वचन सुनकर रावण को भरोसा आ गया। उसने प्रेम के साथ उसे गोद में बैठा लिया। विचार करते-करते ही सबेरा हो गया। वानर फिर चारों दरवाजों पर जा लगे॥4॥

कोपि कपिन्ह दुर्घट गढु घेरा। नगर कोलाहलु भयउ घनेरा॥
बिबिधायुध धर निसिचर धाए। गढ ते पर्बत सिखर ढहाए॥5॥

मूल

कोपि कपिन्ह दुर्घट गढु घेरा। नगर कोलाहलु भयउ घनेरा॥
बिबिधायुध धर निसिचर धाए। गढ ते पर्बत सिखर ढहाए॥5॥

भावार्थ

वानरों ने क्रोध करके दुर्गम किले को घेर लिया। नगर में बहुत ही कोलाहल (शोर) मच गया। राक्षस बहुत तरह के अस्त्र-शस्त्र धारण करके दौडे और उन्होन्ने किले पर पहाडों के शिखर ढहाए॥5॥

03 छन्द

ढाहे महीधर सिखर कोटिन्ह बिबिध बिधि गोला चले।
घहरात जिमि पबिपात गर्जत जनु प्रलय के बादले॥
मर्कट बिकट भट जुटत कटत न लटत तन जर्जर भए।
गहि सैल तेहि गढ पर चलावहि जहँ सो तहँ निसिचर हए॥

मूल

ढाहे महीधर सिखर कोटिन्ह बिबिध बिधि गोला चले।
घहरात जिमि पबिपात गर्जत जनु प्रलय के बादले॥
मर्कट बिकट भट जुटत कटत न लटत तन जर्जर भए।
गहि सैल तेहि गढ पर चलावहि जहँ सो तहँ निसिचर हए॥

भावार्थ

उन्होन्ने पर्वतों के करोडों शिखर ढहाए, अनेक प्रकार से गोले चलने लगे। वे गोले ऐसा घहराते हैं जैसे वज्रपात हुआ हो (बिजली गिरी हो) और योद्धा ऐसे गरजते हैं, मानो प्रलयकाल के बादल हों। विकट वानर योद्धा भिडते हैं, कट जाते हैं (घायल हो जाते हैं), उनके शरीर जर्जर (चलनी) हो जाते हैं, तब भी वे लटते नहीं (हिम्मत नहीं हारते)। वे पहाड उठाकर उसे किले पर फेङ्कते हैं। राक्षस जहाँ के तहाँ (जो जहाँ होते हैं, वहीं) मारे जाते हैं।

049

01 दोहा

मेघनाद सुनि श्रवन अस गढ पुनि छेङ्का आइ।
उतर्‌यो बीर दुर्ग तें सन्मुख चल्यो बजाइ॥49॥

मूल

मेघनाद सुनि श्रवन अस गढ पुनि छेङ्का आइ।
उतर्‌यो बीर दुर्ग तें सन्मुख चल्यो बजाइ॥49॥

भावार्थ

मेघनाद ने कानों से ऐसा सुना कि वानरों ने आकर फिर किले को घेर लिया है। तब वह वीर किले से उतरा और डङ्का बजाकर उनके सामने चला॥49॥

02 चौपाई

कहँ कोसलाधीस द्वौ भ्राता। धन्वी सकल लोत बिख्याता॥
कहँ नल नील दुबिद सुग्रीवा। अङ्गद हनूमन्त बल सींवा॥1॥

मूल

कहँ कोसलाधीस द्वौ भ्राता। धन्वी सकल लोत बिख्याता॥
कहँ नल नील दुबिद सुग्रीवा। अङ्गद हनूमन्त बल सींवा॥1॥

भावार्थ

(मेघनाद ने पुकारकर कहा-) समस्त लोकों में प्रसिद्ध धनुर्धर कोसलाधीश दोनों भाई कहाँ हैं? नल, नील, द्विविद, सुग्रीव और बल की सीमा अङ्गद और हनुमान्‌ कहाँ हैं?॥1॥

कहाँ बिभीषनु भ्राताद्रोही। आजु सबहि हठि मारउँ ओही॥
अस कहि कठिन बान सन्धाने। अतिसय क्रोध श्रवन लगि ताने॥2॥

मूल

कहाँ बिभीषनु भ्राताद्रोही। आजु सबहि हठि मारउँ ओही॥
अस कहि कठिन बान सन्धाने। अतिसय क्रोध श्रवन लगि ताने॥2॥

भावार्थ

भाई से द्रोह करने वाला विभीषण कहाँ है? आज मैं सबको और उस दुष्ट को तो हठपूर्वक (अवश्य ही) मारूँगा। ऐसा कहकर उसने धनुष पर कठिन बाणों का सन्धान किया और अत्यन्त क्रोध करके उसे कान तक खीञ्चा॥2॥

सर समूह सो छाडै लागा। जनु सपच्छ धावहिं बहु नागा॥
जहँ तहँ परत देखिअहिं बानर। सन्मुख होइ न सके तेहि अवसर॥3॥

मूल

सर समूह सो छाडै लागा। जनु सपच्छ धावहिं बहु नागा॥
जहँ तहँ परत देखिअहिं बानर। सन्मुख होइ न सके तेहि अवसर॥3॥

भावार्थ

वह बाणों के समूह छोडने लगा। मानो बहुत से पङ्खवाले साँप दौडे जा रहे हों। जहाँ-तहाँ वानर गिरते दिखाई पडने लगे। उस समय कोई भी उसके सामने न हो सके॥3॥

जहँ तहँ भागि चले कपि रीछा। बिसरी सबहि जुद्ध कै ईछा॥
सो कपि भालु न रन महँ देखा। कीन्हेसि जेहि न प्रान अवसेषा॥4॥

मूल

जहँ तहँ भागि चले कपि रीछा। बिसरी सबहि जुद्ध कै ईछा॥
सो कपि भालु न रन महँ देखा। कीन्हेसि जेहि न प्रान अवसेषा॥4॥

भावार्थ

रीछ-वानर जहाँ-तहाँ भाग चले। सबको युद्ध की इच्छा भूल गई। रणभूमि में ऐसा एक भी वानर या भालू नहीं दिखाई पडा, जिसको उसने प्राणमात्र अवशेष न कर दिया हो (अर्थात्‌ जिसके केवल प्राणमात्र ही न बचे हों, बल, पुरुषार्थ सारा जाता न रहा हो)॥4॥

050

01 दोहा

दस दस सर सब मारेसि परे भूमि कपि बीर।
सिंहनाद करि गर्जा मेघनाद बल धीर॥50॥

मूल

दस दस सर सब मारेसि परे भूमि कपि बीर।
सिंहनाद करि गर्जा मेघनाद बल धीर॥50॥

भावार्थ

फिर उसने सबको दस-दस बाण मारे, वानर वीर पृथ्वी पर गिर पडे। बलवान्‌ और धीर मेघनाद सिंह के समान नाद करके गरजने लगा॥50॥

02 चौपाई

देखि पवनसुत कटक बिहाला। क्रोधवन्त जनु धायउ काला॥
महासैल एक तुरत उपारा। अति रिस मेघनाद पर डारा॥1॥

मूल

देखि पवनसुत कटक बिहाला। क्रोधवन्त जनु धायउ काला॥
महासैल एक तुरत उपारा। अति रिस मेघनाद पर डारा॥1॥

भावार्थ

सारी सेना को बेहाल (व्याकुल) देखकर पवनसुत हनुमान्‌ क्रोध करके ऐसे दौडे मानो स्वयं काल दौड आता हो। उन्होन्ने तुरन्त एक बडा भारी पहाड उखाड लिया और बडे ही क्रोध के साथ उसे मेघनाद पर छोडा॥1॥

आवत देखि गयउ नभ सोई। रथ सारथी तुरग सब खोई॥
बार बार पचार हनुमाना। निकट न आव मरमु सो जाना॥2॥

मूल

आवत देखि गयउ नभ सोई। रथ सारथी तुरग सब खोई॥
बार बार पचार हनुमाना। निकट न आव मरमु सो जाना॥2॥

भावार्थ

पहाडों को आते देखकर वह आकाश में उड गया। (उसके) रथ, सारथी और घोडे सब नष्ट हो गए (चूर-चूर हो गए) हनुमान्‌जी उसे बार-बार ललकारते हैं। पर वह निकट नहीं आता, क्योङ्कि वह उनके बल का मर्म जानता था॥2॥

रघुपति निकट गयउ घननादा। नाना भाँति करेसि दुर्बादा॥
अस्त्र सस्त्र आयुध सब डारे। कौतुकहीं प्रभु काटि निवारे॥3॥

मूल

रघुपति निकट गयउ घननादा। नाना भाँति करेसि दुर्बादा॥
अस्त्र सस्त्र आयुध सब डारे। कौतुकहीं प्रभु काटि निवारे॥3॥

भावार्थ

(तब) मेघनाद श्री रघुनाथजी के पास गया और उसने (उनके प्रति) अनेकों प्रकार के दुर्वचनों का प्रयोग किया। (फिर) उसने उन पर अस्त्र-शस्त्र तथा और सब हथियार चलाए। प्रभु ने खेल में ही सबको काटकर अलग कर दिया॥3॥

देखि प्रताप मूढ खिसिआना। करै लाग माया बिधि नाना॥
जिमि कोउ करै गरुड सैं खेला। डरपावै गहि स्वल्प सपेला॥4॥

मूल

देखि प्रताप मूढ खिसिआना। करै लाग माया बिधि नाना॥
जिमि कोउ करै गरुड सैं खेला। डरपावै गहि स्वल्प सपेला॥4॥

भावार्थ

श्री रामजी का प्रताप (सामर्थ्य) देखकर वह मूर्ख लज्जित हो गया और अनेकों प्रकार की माया करने लगा। जैसे कोई व्यक्ति छोटा सा साँप का बच्चा हाथ में लेकर गरुड को डरावे और उससे खेल करे॥4॥

051

01 दोहा

जासु प्रबल माया बस सिव बिरञ्चि बड छोट।
ताहि दिखावइ निसिचर निज माया मति खोट॥51॥

मूल

जासु प्रबल माया बस सिव बिरञ्चि बड छोट।
ताहि दिखावइ निसिचर निज माया मति खोट॥51॥

भावार्थ

शिवजी और ब्रह्माजी तक बडे-छोटे (सभी) जिनकी अत्यन्त बलवान्‌ माया के वश में हैं, नीच बुद्धि निशाचर उनको अपनी माया दिखलाता है॥51॥

02 चौपाई

नभ चढि बरष बिपुल अङ्गारा। महि ते प्रगट होहिं जलधारा॥
नाना भाँति पिसाच पिसाची। मारु काटु धुनि बोलहिं नाची॥1॥

मूल

नभ चढि बरष बिपुल अङ्गारा। महि ते प्रगट होहिं जलधारा॥
नाना भाँति पिसाच पिसाची। मारु काटु धुनि बोलहिं नाची॥1॥

भावार्थ

आकाश में (ऊँचे) चढकर वह बहुत से अङ्गारे बरसाने लगा। पृथ्वी से जल की धाराएँ प्रकट होने लगीं। अनेक प्रकार के पिशाच तथा पिशाचिनियाँ नाच-नाचकर ‘मारो, काटो’ की आवाज करने लगीं॥1॥

बिष्टा पूय रुधिर कच हाडा। बरषइ कबहुँ उपल बहु छाडा॥
बरषि धूरि कीन्हेसि अँधिआरा। सूझ न आपन हाथ पसारा॥2॥

मूल

बिष्टा पूय रुधिर कच हाडा। बरषइ कबहुँ उपल बहु छाडा॥
बरषि धूरि कीन्हेसि अँधिआरा। सूझ न आपन हाथ पसारा॥2॥

भावार्थ

वह कभी तो विष्टा, पीब, खून, बाल और हड्डियाँ बरसाता था और कभी बहुत से पत्थर फेङ्क देता था। फिर उसने धूल बरसाकर ऐसा अँधेरा कर दिया कि अपना ही पसारा हुआ हाथ नहीं सूझता था॥2॥

कपि अकुलाने माया देखें। सब कर मरन बना ऐहि लेखें॥
कौतुक देखि राम मुसुकाने। भए सभीत सकल कपि जाने॥3॥

मूल

कपि अकुलाने माया देखें। सब कर मरन बना ऐहि लेखें॥
कौतुक देखि राम मुसुकाने। भए सभीत सकल कपि जाने॥3॥

भावार्थ

माया देखकर वानर अकुला उठे। वे सोचने लगे कि इस हिसाब से (इसी तरह रहा) तो सबका मरण आ बना। यह कौतुक देखकर श्री रामजी मुस्कुराए। उन्होन्ने जान लिया कि सब वानर भयभीत हो गए हैं॥3॥

एक बान काटी सब माया। जिमि दिनकर हर तिमिर निकाया॥
कृपादृष्टि कपि भालु बिलोके। भए प्रबल रन रहहिं न रोके॥4॥

मूल

एक बान काटी सब माया। जिमि दिनकर हर तिमिर निकाया॥
कृपादृष्टि कपि भालु बिलोके। भए प्रबल रन रहहिं न रोके॥4॥

भावार्थ

तब श्री रामजी ने एक ही बाण से सारी माया काट डाली, जैसे सूर्य अन्धकार के समूह को हर लेता है। तदनन्तर उन्होन्ने कृपाभरी दृष्टि से वानर-भालुओं की ओर देखा, (जिससे) वे ऐसे प्रबल हो गए कि रण में रोकने पर भी नहीं रुकते थे॥4॥

052

01 दोहा

आयसु मागि राम पहिं अङ्गदादि कपि साथ।
लछिमन चले क्रुद्ध होइ बान सरासन हाथ॥52॥

मूल

आयसु मागि राम पहिं अङ्गदादि कपि साथ।
लछिमन चले क्रुद्ध होइ बान सरासन हाथ॥52॥

भावार्थ

श्री रामजी से आज्ञा माँगकर, अङ्गद आदि वानरों के साथ हाथों में धनुष-बाण लिए हुए श्री लक्ष्मणजी क्रुद्ध होकर चले॥52॥

02 चौपाई

छतज नयन उर बाहु बिसाला। हिमगिरि निभ तनु कछु एक लाला॥
इहाँ दसानन सुभट पठाए। नाना अस्त्र सस्त्र गहि धाए॥1॥

मूल

छतज नयन उर बाहु बिसाला। हिमगिरि निभ तनु कछु एक लाला॥
इहाँ दसानन सुभट पठाए। नाना अस्त्र सस्त्र गहि धाए॥1॥

भावार्थ

उनके लाल नेत्र हैं, चौडी छाती और विशाल भुजाएँ हैं। हिमाचल पर्वत के समान उज्ज्वल (गौरवर्ण) शरीर कुछ ललाई लिए हुए है। इधर रावण ने भी बडे-बडे योद्धा भेजे, जो अनेकों अस्त्र-शस्त्र लेकर दौडे॥1॥

भूधर नख बिटपायुध धारी। धाए कपि जय राम पुकारी॥
भिरे सकल जोरिहि सन जोरी। इत उत जय इच्छा नहिं थोरी॥2॥

मूल

भूधर नख बिटपायुध धारी। धाए कपि जय राम पुकारी॥
भिरे सकल जोरिहि सन जोरी। इत उत जय इच्छा नहिं थोरी॥2॥

भावार्थ

पर्वत, नख और वृक्ष रूपी हथियार धारण किए हुए वानर ‘श्री रामचन्द्रजी की जय’ पुकारकर दौडे। वानर और राक्षस सब जोडी से जोडी भिड गए। इधर और उधर दोनों ओर जय की इच्छा कम न थी (अर्थात्‌ प्रबल थी)॥2॥

मुठिकन्ह लातन्ह दातन्ह काटहिं। कपि जयसील मारि पुनि डाटहिं॥
मारु मारु धरु धरु धरु मारू। सीस तोरि गहि भुजा उपारू॥3॥

मूल

मुठिकन्ह लातन्ह दातन्ह काटहिं। कपि जयसील मारि पुनि डाटहिं॥
मारु मारु धरु धरु धरु मारू। सीस तोरि गहि भुजा उपारू॥3॥

भावार्थ

वानर उनको घूँसों और लातों से मारते हैं, दाँतों से काटते हैं। विजयशील वानर उन्हें मारकर फिर डाँटते भी हैं। ‘मारो, मारो, पकडो, पकडो, पकडकर मार दो, सिर तोड दो और भुजाऐँ पकडकर उखाड लो’॥3॥

असि रव पूरि रही नव खण्डा। धावहिं जहँ तहँ रुण्ड प्रचण्डा॥
देखहिं कौतुक नभ सुर बृन्दा। कबहुँक बिसमय कबहुँ अनन्दा॥4॥

मूल

असि रव पूरि रही नव खण्डा। धावहिं जहँ तहँ रुण्ड प्रचण्डा॥
देखहिं कौतुक नभ सुर बृन्दा। कबहुँक बिसमय कबहुँ अनन्दा॥4॥

भावार्थ

नवों खण्डों में ऐसी आवाज भर रही है। प्रचण्ड रुण्ड (धड) जहाँ-तहाँ दौड रहे हैं। आकाश में देवतागण यह कौतुक देख रहे हैं। उन्हें कभी खेद होता है और कभी आनन्द॥4॥

053

01 दोहा

रुधिर गाड भरि भरि जम्यो ऊपर धूरि उडाइ।
जनु अँगार रासिन्ह पर मृतक धूम रह्यो छाइ॥53॥

मूल

रुधिर गाड भरि भरि जम्यो ऊपर धूरि उडाइ।
जनु अँगार रासिन्ह पर मृतक धूम रह्यो छाइ॥53॥

भावार्थ

खून गड्ढों में भर-भरकर जम गया है और उस पर धूल उडकर पड रही है (वह दृश्य ऐसा है) मानो अङ्गारों के ढेरों पर राख छा रही हो॥53॥

02 चौपाई

घायल बीर बिराजहिं कैसे। कुसुमति किंसुक के तरु जैसे॥
लछिमन मेघनाद द्वौ जोधा। भिरहिं परसपर करि अति क्रोधा॥1॥

मूल

घायल बीर बिराजहिं कैसे। कुसुमति किंसुक के तरु जैसे॥
लछिमन मेघनाद द्वौ जोधा। भिरहिं परसपर करि अति क्रोधा॥1॥

भावार्थ

घायल वीर कैसे शोभित हैं, जैसे फूले हुए पलास के पेड। लक्ष्मण और मेघनाद दोनों योद्धा अत्यन्त क्रोध करके एक-दूसरे से भिडते हैं॥1॥

एकहि एक सकइ नहिं जीती। निसिचर छल बल करइ अनीती॥
क्रोधवन्त तब भयउ अनन्ता। भञ्जेउ रथ सारथी तुरन्ता॥2॥

मूल

एकहि एक सकइ नहिं जीती। निसिचर छल बल करइ अनीती॥
क्रोधवन्त तब भयउ अनन्ता। भञ्जेउ रथ सारथी तुरन्ता॥2॥

भावार्थ

एक-दूसरे को (कोई किसी को) जीत नहीं सकता। राक्षस छल-बल (माया) और अनीति (अधर्म) करता है, तब भगवान्‌ अनन्तजी (लक्ष्मणजी) क्रोधित हुए और उन्होन्ने तुरन्त उसके रथ को तोड डाला और सारथी को टुकडे-टुकडे कर दिया!॥2॥

नाना बिधि प्रहार कर सेषा। राच्छस भयउ प्रान अवसेषा॥
रावन सुत निज मन अनुमाना। सङ्कठ भयउ हरिहि मम प्राना॥3॥

मूल

नाना बिधि प्रहार कर सेषा। राच्छस भयउ प्रान अवसेषा॥
रावन सुत निज मन अनुमाना। सङ्कठ भयउ हरिहि मम प्राना॥3॥

भावार्थ

शेषजी (लक्ष्मणजी) उस पर अनेक प्रकार से प्रहार करने लगे। राक्षस के प्राणमात्र शेष रह गए। रावणपुत्र मेघनाद ने मन में अनुमान किया कि अब तो प्राण सङ्कट आ बना, ये मेरे प्राण हर लेङ्गे॥3॥

बीरघातिनी छाडिसि साँगी। तेजपुञ्ज लछिमन उर लागी॥
मुरुछा भई सक्ति के लागें। तब चलि गयउ निकट भय त्यागें॥4॥

मूल

बीरघातिनी छाडिसि साँगी। तेजपुञ्ज लछिमन उर लागी॥
मुरुछा भई सक्ति के लागें। तब चलि गयउ निकट भय त्यागें॥4॥

भावार्थ

तब उसने वीरघातिनी शक्ति चलाई। वह तेजपूर्ण शक्ति लक्ष्मणजी की छाती में लगी। शक्ति लगने से उन्हें मूर्छा आ गई। तब मेघनाद भय छोडकर उनके पास चला गया॥4॥

054

01 दोहा

मेघनाद सम कोटि सत जोधा रहे उठाइ।
जगदाधार सेष किमि उठै चले खिसिआइ॥54॥

मूल

मेघनाद सम कोटि सत जोधा रहे उठाइ।
जगदाधार सेष किमि उठै चले खिसिआइ॥54॥

भावार्थ

मेघनाद के समान सौ करोड (अगणित) योद्धा उन्हें उठा रहे हैं, परन्तु जगत्‌ के आधार श्री शेषजी (लक्ष्मणजी) उनसे कैसे उठते? तब वे लजाकर चले गए॥54॥

02 चौपाई

सुनु गिरिजा क्रोधानल जासू। जारइ भुवन चारिदस आसू॥
सक सङ्ग्राम जीति को ताही। सेवहिं सुर नर अग जग जाही॥1॥

मूल

सुनु गिरिजा क्रोधानल जासू। जारइ भुवन चारिदस आसू॥
सक सङ्ग्राम जीति को ताही। सेवहिं सुर नर अग जग जाही॥1॥

भावार्थ

(शिवजी कहते हैं-) हे गिरिजे! सुनो, (प्रलयकाल में) जिन (शेषनाग) के क्रोध की अग्नि चौदहों भुवनों को तुरन्त ही जला डालती है और देवता, मनुष्य तथा समस्त चराचर (जीव) जिनकी सेवा करते हैं, उनको सङ्ग्राम में कौन जीत सकता है?॥1॥

यह कौतूहल जानइ सोई। जा पर कृपा राम कै होई॥
सन्ध्या भय फिरि द्वौ बाहनी। लगे सँभारन निज निज अनी॥2॥

मूल

यह कौतूहल जानइ सोई। जा पर कृपा राम कै होई॥
सन्ध्या भय फिरि द्वौ बाहनी। लगे सँभारन निज निज अनी॥2॥

भावार्थ

इस लीला को वही जान सकता है, जिस पर श्री रामजी की कृपा हो। सन्ध्या होने पर दोनों ओर की सेनाएँ लौट पडीं, सेनापति अपनी-अपनी सेनाएँ सम्भालने लगे॥2॥

व्यापक ब्रह्म अजित भुवनेस्वर। लछिमन कहाँ बूझ करुनाकर॥
तब लगि लै आयउ हनुमाना। अनुज देखि प्रभु अति दुख माना॥3॥

मूल

व्यापक ब्रह्म अजित भुवनेस्वर। लछिमन कहाँ बूझ करुनाकर॥
तब लगि लै आयउ हनुमाना। अनुज देखि प्रभु अति दुख माना॥3॥

भावार्थ

व्यापक, ब्रह्म, अजेय, सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के ईश्वर और करुणा की खान श्री रामचन्द्रजी ने पूछा- लक्ष्मण कहाँ है? तब तक हनुमान्‌ उन्हें ले आए। छोटे भाई को (इस दशा में) देखकर प्रभु ने बहुत ही दुःख माना॥3॥

जामवन्त कह बैद सुषेना। लङ्काँ रहइ को पठई लेना॥
धरि लघु रूप गयउ हनुमन्ता। आनेउ भवन समेत तुरन्ता॥4॥

मूल

जामवन्त कह बैद सुषेना। लङ्काँ रहइ को पठई लेना॥
धरि लघु रूप गयउ हनुमन्ता। आनेउ भवन समेत तुरन्ता॥4॥

भावार्थ

जाम्बवान्‌ ने कहा- लङ्का में सुषेण वैद्य रहता है, उसे लाने के लिए किसको भेजा जाए? हनुमान्‌जी छोटा रूप धरकर गए और सुषेण को उसके घर समेत तुरन्त ही उठा लाए॥4॥

055

01 दोहा

राम पदारबिन्द सिर नायउ आइ सुषेन।
कहा नाम गिरि औषधी जाहु पवनसुत लेन ॥55॥

मूल

राम पदारबिन्द सिर नायउ आइ सुषेन।
कहा नाम गिरि औषधी जाहु पवनसुत लेन ॥55॥

भावार्थ

सुषेण ने आकर श्री रामजी के चरणारविन्दों में सिर नवाया। उसने पर्वत और औषध का नाम बताया, (और कहा कि) हे पवनपुत्र! औषधि लेने जाओ॥55॥

02 चौपाई

राम चरन सरसिज उर राखी। चला प्रभञ्जनसुत बल भाषी॥
उहाँ दूत एक मरमु जनावा। रावनु कालनेमि गृह आवा॥1॥

मूल

राम चरन सरसिज उर राखी। चला प्रभञ्जनसुत बल भाषी॥
उहाँ दूत एक मरमु जनावा। रावनु कालनेमि गृह आवा॥1॥

भावार्थ

श्री रामजी के चरणकमलों को हृदय में रखकर पवनपुत्र हनुमान्‌जी अपना बल बखानकर (अर्थात्‌ मैं अभी लिए आता हूँ, ऐसा कहकर) चले। उधर एक गुप्तचर ने रावण को इस रहस्य की खबर दी। तब रावण कालनेमि के घर आया॥1॥

दसमुख कहा मरमु तेहिं सुना। पुनि पुनि कालनेमि सिरु धुना॥
देखत तुम्हहि नगरु जेहिं जारा। तासु पन्थ को रोकन पारा॥2॥

मूल

दसमुख कहा मरमु तेहिं सुना। पुनि पुनि कालनेमि सिरु धुना॥
देखत तुम्हहि नगरु जेहिं जारा। तासु पन्थ को रोकन पारा॥2॥

भावार्थ

रावण ने उसको सारा मर्म (हाल) बतलाया। कालनेमि ने सुना और बार-बार सिर पीटा (खेद प्रकट किया)। (उसने कहा-) तुम्हारे देखते-देखते जिसने नगर जला डाला, उसका मार्ग कौन रोक सकता है?॥2॥

भजि रघुपति करु हित आपना। छाँडहु नाथ मृषा जल्पना॥
नील कञ्ज तनु सुन्दर स्यामा। हृदयँ राखु लोचनाभिरामा॥3॥

मूल

भजि रघुपति करु हित आपना। छाँडहु नाथ मृषा जल्पना॥
नील कञ्ज तनु सुन्दर स्यामा। हृदयँ राखु लोचनाभिरामा॥3॥

भावार्थ

श्री रघुनाथजी का भजन करके तुम अपना कल्याण करो! हे नाथ! झूठी बकवाद छोड दो। नेत्रों को आनन्द देने वाले नीलकमल के समान सुन्दर श्याम शरीर को अपने हृदय में रखो॥3॥

मैं तैं मोर मूढता त्यागू। महा मोह निसि सूतत जागू॥
काल ब्याल कर भच्छक जोई। सपनेहुँ समर कि जीतिअ सोई॥4॥

मूल

मैं तैं मोर मूढता त्यागू। महा मोह निसि सूतत जागू॥
काल ब्याल कर भच्छक जोई। सपनेहुँ समर कि जीतिअ सोई॥4॥

भावार्थ

मैं-तू (भेद-भाव) और ममता रूपी मूढता को त्याग दो। महामोह (अज्ञान) रूपी रात्रि में सो रहे हो, सो जाग उठो, जो काल रूपी सर्प का भी भक्षक है, कहीं स्वप्न में भी वह रण में जीता जा सकता है?॥4॥

056

01 दोहा

सुनि दसकण्ठ रिसान अति तेहिं मन कीन्ह बिचार।
राम दूत कर मरौं बरु यह खल रत मल भार॥56॥

मूल

सुनि दसकण्ठ रिसान अति तेहिं मन कीन्ह बिचार।
राम दूत कर मरौं बरु यह खल रत मल भार॥56॥

भावार्थ

उसकी ये बातें सुनकर रावण बहुत ही क्रोधित हुआ। तब कालनेमि ने मन में विचार किया कि (इसके हाथ से मरने की अपेक्षा) श्री रामजी के दूत के हाथ से ही मरूँ तो अच्छा है। यह दुष्ट तो पाप समूह में रत है॥56॥

02 चौपाई

अस कहि चला रचिसि मग माया। सर मन्दिर बर बाग बनाया॥
मारुतसुत देखा सुभ आश्रम। मुनिहि बूझि जल पियौं जाइ श्रम॥1॥

मूल

अस कहि चला रचिसि मग माया। सर मन्दिर बर बाग बनाया॥
मारुतसुत देखा सुभ आश्रम। मुनिहि बूझि जल पियौं जाइ श्रम॥1॥

भावार्थ

वह मन ही मन ऐसा कहकर चला और उसने मार्ग में माया रची। तालाब, मन्दिर और सुन्दर बाग बनाया। हनुमान्‌जी ने सुन्दर आश्रम देखकर सोचा कि मुनि से पूछकर जल पी लूँ, जिससे थकावट दूर हो जाए॥1॥

राच्छस कपट बेष तहँ सोहा। मायापति दूतहि चह मोहा॥
जाइ पवनसुत नायउ माथा। लाग सो कहै राम गुन गाथा॥2॥

मूल

राच्छस कपट बेष तहँ सोहा। मायापति दूतहि चह मोहा॥
जाइ पवनसुत नायउ माथा। लाग सो कहै राम गुन गाथा॥2॥

भावार्थ

राक्षस वहाँ कपट (से मुनि) का वेष बनाए विराजमान था। वह मूर्ख अपनी माया से मायापति के दूत को मोहित करना चाहता था। मारुति ने उसके पास जाकर मस्तक नवाया। वह श्री रामजी के गुणों की कथा कहने लगा॥2॥

होत महा रन रावन रामहिं। जितिहहिं राम न संसय या महिं॥
इहाँ भएँ मैं देखउँ भाई। ग्यान दृष्टि बल मोहि अधिकाई॥3॥

मूल

होत महा रन रावन रामहिं। जितिहहिं राम न संसय या महिं॥
इहाँ भएँ मैं देखउँ भाई। ग्यान दृष्टि बल मोहि अधिकाई॥3॥

भावार्थ

(वह बोला-) रावण और राम में महान्‌ युद्ध हो रहा है। रामजी जीतेङ्गे, इसमें सन्देह नहीं है। हे भाई! मैं यहाँ रहता हुआ ही सब देख रहा हूँ। मुझे ज्ञानदृष्टि का बहुत बडा बल है॥3॥

मागा जल तेहिं दीन्ह कमण्डल। कह कपि नहिं अघाउँ थोरें जल॥
सर मज्जन करि आतुर आवहु। दिच्छा देउँ ग्यान जेहिं पावहु॥4॥

मूल

मागा जल तेहिं दीन्ह कमण्डल। कह कपि नहिं अघाउँ थोरें जल॥
सर मज्जन करि आतुर आवहु। दिच्छा देउँ ग्यान जेहिं पावहु॥4॥

भावार्थ

हनुमान्‌जी ने उससे जल माँगा, तो उसने कमण्डलु दे दिया। हनुमान्‌जी ने कहा- थोडे जल से मैं तृप्त नहीं होने का। तब वह बोला- तालाब में स्नान करके तुरन्त लौट आओ तो मैं तुम्हे दीक्षा दूँ, जिससे तुम ज्ञान प्राप्त करो॥4॥

057

01 दोहा

सर पैठत कपि पद गहा मकरीं तब अकुलान।
मारी सो धरि दिब्य तनु चली गगन चढि जान॥57॥

मूल

सर पैठत कपि पद गहा मकरीं तब अकुलान।
मारी सो धरि दिब्य तनु चली गगन चढि जान॥57॥

भावार्थ

तालाब में प्रवेश करते ही एक मगरी ने अकुलाकर उसी समय हनुमान्‌जी का पैर पकड लिया। हनुमान्‌जी ने उसे मार डाला। तब वह दिव्य देह धारण करके विमान पर चढकर आकाश को चली॥57॥

02 चौपाई

कपि तव दरस भइउँ निष्पापा। मिटा तात मुनिबर कर सापा॥
मुनि न होइ यह निसिचर घोरा। मानहु सत्य बचन कपि मोरा॥1॥

मूल

कपि तव दरस भइउँ निष्पापा। मिटा तात मुनिबर कर सापा॥
मुनि न होइ यह निसिचर घोरा। मानहु सत्य बचन कपि मोरा॥1॥

भावार्थ

(उसने कहा-) हे वानर! मैं तुम्हारे दर्शन से पापरहित हो गई। हे तात! श्रेष्ठ मुनि का शाप मिट गया। हे कपि! यह मुनि नहीं है, घोर निशाचर है। मेरा वचन सत्य मानो॥1॥

अस कहि गई अपछरा जबहीं। निसिचर निकट गयउ कपि तबहीं॥
कह कपि मुनि गुरदछिना लेहू। पाछें हमहिं मन्त्र तुम्ह देहू॥2॥

मूल

अस कहि गई अपछरा जबहीं। निसिचर निकट गयउ कपि तबहीं॥
कह कपि मुनि गुरदछिना लेहू। पाछें हमहिं मन्त्र तुम्ह देहू॥2॥

भावार्थ

ऐसा कहकर ज्यों ही वह अप्सरा गई, त्यों ही हनुमान्‌जी निशाचर के पास गए। हनुमान्‌जी ने कहा- हे मुनि! पहले गुरुदक्षिणा ले लीजिए। पीछे आप मुझे मन्त्र दीजिएगा॥2॥

सिर लङ्गूर लपेटि पछारा। निज तनु प्रगटेसि मरती बारा॥
राम राम कहि छाडेसि प्राना। सुनि मन हरषि चलेउ हनुमाना॥3॥

मूल

सिर लङ्गूर लपेटि पछारा। निज तनु प्रगटेसि मरती बारा॥
राम राम कहि छाडेसि प्राना। सुनि मन हरषि चलेउ हनुमाना॥3॥

भावार्थ

हनुमान्‌जी ने उसके सिर को पूँछ में लपेटकर उसे पछाड दिया। मरते समय उसने अपना (राक्षसी) शरीर प्रकट किया। उसने राम-राम कहकर प्राण छोडे। यह (उसके मुँह से राम-राम का उच्चारण) सुनकर हनुमान्‌जी मन में हर्षित होकर चले॥3॥

देखा सैल न औषध चीन्हा। सहसा कपि उपारि गिरि लीन्हा॥
गहि गिरि निसि नभ धावक भयऊ। अवधपुरी ऊपर कपि गयऊ॥4॥

मूल

देखा सैल न औषध चीन्हा। सहसा कपि उपारि गिरि लीन्हा॥
गहि गिरि निसि नभ धावक भयऊ। अवधपुरी ऊपर कपि गयऊ॥4॥

भावार्थ

उन्होन्ने पर्वत को देखा, पर औषध न पहचान सके। तब हनुमान्‌जी ने एकदम से पर्वत को ही उखाड लिया। पर्वत लेकर हनुमान्‌जी रात ही में आकाश मार्ग से दौड चले और अयोध्यापुरी के ऊपर पहुँच गए॥4॥

058

01 दोहा

देखा भरत बिसाल अति निसिचर मन अनुमानि।
बिनु फर सायक मारेउ चाप श्रवन लगि तानि॥58॥

मूल

देखा भरत बिसाल अति निसिचर मन अनुमानि।
बिनु फर सायक मारेउ चाप श्रवन लगि तानि॥58॥

भावार्थ

भरतजी ने आकाश में अत्यन्त विशाल स्वरूप देखा, तब मन में अनुमान किया कि यह कोई राक्षस है। उन्होन्ने कान तक धनुष को खीञ्चकर बिना फल का एक बाण मारा॥58॥

02 चौपाई

परेउ मुरुछि महि लागत सायक। सुमिरत राम राम रघुनायक॥
सुनि प्रिय बचन भरत तब धाए। कपि समीप अति आतुर आए॥1॥

मूल

परेउ मुरुछि महि लागत सायक। सुमिरत राम राम रघुनायक॥
सुनि प्रिय बचन भरत तब धाए। कपि समीप अति आतुर आए॥1॥

भावार्थ

बाण लगते ही हनुमान्‌जी ‘राम, राम, रघुपति’ का उच्चारण करते हुए मूर्च्छित होकर पृथ्वी पर गिर पडे। प्रिय वचन (रामनाम) सुनकर भरतजी उठकर दौडे और बडी उतावली से हनुमान्‌जी के पास आए॥1॥

बिकल बिलोकि कीस उर लावा। जागत नहिं बहु भाँति जगावा॥
मुख मलीन मन भए दुखारी। कहत बचन भरि लोचन बारी॥2॥

मूल

बिकल बिलोकि कीस उर लावा। जागत नहिं बहु भाँति जगावा॥
मुख मलीन मन भए दुखारी। कहत बचन भरि लोचन बारी॥2॥

भावार्थ

हनुमान्‌जी को व्याकुल देखकर उन्होन्ने हृदय से लगा लिया। बहुत तरह से जगाया, पर वे जागते न थे! तब भरतजी का मुख उदास हो गया। वे मन में बडे दुःखी हुए और नेत्रों में (विषाद के आँसुओं का) जल भरकर ये वचन बोले-॥2॥

जेहिं बिधि राम बिमुख मोहि कीन्हा। तेहिं पुनि यह दारुन दुख दीन्हा॥
जौं मोरें मन बच अरु काया॥ प्रीति राम पद कमल अमाया॥3॥

मूल

जेहिं बिधि राम बिमुख मोहि कीन्हा। तेहिं पुनि यह दारुन दुख दीन्हा॥
जौं मोरें मन बच अरु काया॥ प्रीति राम पद कमल अमाया॥3॥

भावार्थ

जिस विधाता ने मुझे श्री राम से विमुख किया, उसी ने फिर यह भयानक दुःख भी दिया। यदि मन, वचन और शरीर से श्री रामजी के चरणकमलों में मेरा निष्कपट प्रेम हो,॥3॥

तौ कपि होउ बिगत श्रम सूला। जौं मो पर रघुपति अनुकूला॥
सुनत बचन उठि बैठ कपीसा। कहि जय जयति कोसलाधीसा॥4॥

मूल

तौ कपि होउ बिगत श्रम सूला। जौं मो पर रघुपति अनुकूला॥
सुनत बचन उठि बैठ कपीसा। कहि जय जयति कोसलाधीसा॥4॥

भावार्थ

और यदि श्री रघुनाथजी मुझ पर प्रसन्न हों तो यह वानर थकावट और पीडा से रहित हो जाए। यह वचन सुनते ही कपिराज हनुमान्‌जी ‘कोसलपति श्री रामचन्द्रजी की जय हो, जय हो’ कहते हुए उठ बैठे॥4॥

059

01 सोरठा

लीन्ह कपिहि उर लाइ पुलकित तनु लोचन सजल।
प्रीति न हृदय समाइ सुमिरि राम रघुकुल तिलक॥59॥

मूल

लीन्ह कपिहि उर लाइ पुलकित तनु लोचन सजल।
प्रीति न हृदय समाइ सुमिरि राम रघुकुल तिलक॥59॥

भावार्थ

भरतजी ने वानर (हनुमान्‌जी) को हृदय से लगा लिया, उनका शरीर पुलकित हो गया और नेत्रों में (आनन्द तथा प्रेम के आँसुओं का) जल भर आया। रघुकुलतिलक श्री रामचन्द्रजी का स्मरण करके भरतजी के हृदय में प्रीति समाती न थी॥59॥

02 चौपाई

तात कुसल कहु सुखनिधान की। सहित अनुज अरु मातु जानकी॥
लकपि सब चरित समास बखाने। भए दुखी मन महुँ पछिताने॥1॥

मूल

तात कुसल कहु सुखनिधान की। सहित अनुज अरु मातु जानकी॥
लकपि सब चरित समास बखाने। भए दुखी मन महुँ पछिताने॥1॥

भावार्थ

(भरतजी बोले-) हे तात! छोटे भाई लक्ष्मण तथा माता जानकी सहित सुखनिधान श्री रामजी की कुशल कहो। वानर (हनुमान्‌जी) ने सङ्क्षेप में सब कथा कही। सुनकर भरतजी दुःखी हुए और मन में पछताने लगे॥1॥

अहह दैव मैं कत जग जायउँ। प्रभु के एकहु काज न आयउँ॥
जानि कुअवसरु मन धरि धीरा। पुनि कपि सन बोले बलबीरा॥2॥

मूल

अहह दैव मैं कत जग जायउँ। प्रभु के एकहु काज न आयउँ॥
जानि कुअवसरु मन धरि धीरा। पुनि कपि सन बोले बलबीरा॥2॥

भावार्थ

हा दैव! मैं जगत्‌ में क्यों जन्मा? प्रभु के एक भी काम न आया। फिर कुअवसर (विपरीत समय) जानकर मन में धीरज धरकर बलवीर भरतजी हनुमान्‌जी से बोले-॥2॥

तात गहरु होइहि तोहि जाता। काजु नसाइहि होत प्रभाता॥
चढु मम सायक सैल समेता। पठवौं तोहि जहँ कृपानिकेता॥3॥

मूल

तात गहरु होइहि तोहि जाता। काजु नसाइहि होत प्रभाता॥
चढु मम सायक सैल समेता। पठवौं तोहि जहँ कृपानिकेता॥3॥

भावार्थ

हे तात! तुमको जाने में देर होगी और सबेरा होते ही काम बिगड जाएगा। (अतः) तुम पर्वत सहित मेरे बाण पर चढ जाओ, मैं तुमको वहाँ भेज दूँ जहाँ कृपा के धाम श्री रामजी हैं॥3॥

सुनि कपि मन उपजा अभिमाना। मोरें भार चलिहि किमि बाना॥
राम प्रभाव बिचारि बहोरी। बन्दि चरन कह कपि कर जोरी॥4॥

मूल

सुनि कपि मन उपजा अभिमाना। मोरें भार चलिहि किमि बाना॥
राम प्रभाव बिचारि बहोरी। बन्दि चरन कह कपि कर जोरी॥4॥

भावार्थ

भरतजी की यह बात सुनकर (एक बार तो) हनुमान्‌जी के मन में अभिमान उत्पन्न हुआ कि मेरे बोझ से बाण कैसे चलेगा? (किन्तु) फिर श्री रामचन्द्रजी के प्रभाव का विचार करके वे भरतजी के चरणों की वन्दना करके हाथ जोडकर बोले-॥4॥

060

01 दोहा

तव प्रताप उर राखि प्रभु जैहउँ नाथ तुरन्त।
अस कहि आयसु पाइ पद बन्दि चलेउ हनुमन्त॥1॥

मूल

तव प्रताप उर राखि प्रभु जैहउँ नाथ तुरन्त।
अस कहि आयसु पाइ पद बन्दि चलेउ हनुमन्त॥1॥

भावार्थ

हे नाथ! हे प्रभो! मैं आपका प्रताप हृदय में रखकर तुरन्त चला जाऊँगा। ऐसा कहकर आज्ञा पाकर और भरतजी के चरणों की वन्दना करके हनुमान्‌जी चले॥1॥

भरत बाहु बल सील गुन प्रभु पद प्रीति अपार।
मन महुँ जात सराहत पुनि पुनि पवनकुमार॥2॥

मूल

भरत बाहु बल सील गुन प्रभु पद प्रीति अपार।
मन महुँ जात सराहत पुनि पुनि पवनकुमार॥2॥

भावार्थ

भरतजी के बाहुबल, शील (सुन्दर स्वभाव), गुण और प्रभु के चरणों में अपार प्रेम की मन ही मन बारम्बार सराहना करते हुए मारुति श्री हनुमान्‌जी चले जा रहे हैं॥2॥

02 चौपाई

उहाँ राम लछिमनहि निहारी। बोले बचन मनुज अनुसारी॥
अर्ध राति गइ कपि नहिं आयउ। राम उठाइ अनुज उर लायउ॥1॥

मूल

उहाँ राम लछिमनहि निहारी। बोले बचन मनुज अनुसारी॥
अर्ध राति गइ कपि नहिं आयउ। राम उठाइ अनुज उर लायउ॥1॥

भावार्थ

वहाँ लक्ष्मणजी को देखकर श्री रामजी साधारण मनुष्यों के अनुसार (समान) वचन बोले- आधी रात बीत चुकी है, हनुमान्‌ नहीं आए। यह कहकर श्री रामजी ने छोटे भाई लक्ष्मणजी को उठाकर हृदय से लगा लिया॥1॥

सकहु न दुखित देखि मोहि काउ। बन्धु सदा तव मृदुल सुभाऊ॥
मम हित लागि तजेहु पितु माता। सहेहु बिपिन हिम आतप बाता॥2॥

मूल

सकहु न दुखित देखि मोहि काउ। बन्धु सदा तव मृदुल सुभाऊ॥
मम हित लागि तजेहु पितु माता। सहेहु बिपिन हिम आतप बाता॥2॥

भावार्थ

(और बोले-) हे भाई! तुम मुझे कभी दुःखी नहीं देख सकते थे। तुम्हारा स्वभाव सदा से ही कोमल था। मेरे हित के लिए तुमने माता-पिता को भी छोड दिया और वन में जाडा, गरमी और हवा सब सहन किया॥2॥

सो अनुराग कहाँ अब भाई। उठहु न सुनि मम बच बिकलाई॥
जौं जनतेउँ बन बन्धु बिछोहू। पिता बचन मनतेउँ नहिं ओहू॥3॥

मूल

सो अनुराग कहाँ अब भाई। उठहु न सुनि मम बच बिकलाई॥
जौं जनतेउँ बन बन्धु बिछोहू। पिता बचन मनतेउँ नहिं ओहू॥3॥

भावार्थ

हे भाई! वह प्रेम अब कहाँ है? मेरे व्याकुलतापूर्वक वचन सुनकर उठते क्यों नहीं? यदि मैं जानता कि वन में भाई का विछोह होगा तो मैं पिता का वचन (जिसका मानना मेरे लिए परम कर्तव्य था) उसे भी न मानता॥3॥

सुत बित नारि भवन परिवारा। होहिं जाहिं जग बारहिं बारा॥
अस बिचारि जियँ जागहु ताता। मिलइ न जगत सहोदर भ्राता॥4॥

मूल

सुत बित नारि भवन परिवारा। होहिं जाहिं जग बारहिं बारा॥
अस बिचारि जियँ जागहु ताता। मिलइ न जगत सहोदर भ्राता॥4॥

भावार्थ

पुत्र, धन, स्त्री, घर और परिवार- ये जगत्‌ में बार-बार होते और जाते हैं, परन्तु जगत्‌ में सहोदर भाई बार-बार नहीं मिलता। हृदय में ऐसा विचार कर हे तात! जागो॥4॥

जथा पङ्ख बिनु खग अति दीना। मनि बिनु फनि करिबर कर हीना॥
अस मम जिवन बन्धु बिनु तोही। जौं जड दैव जिआवै मोही॥5॥

मूल

जथा पङ्ख बिनु खग अति दीना। मनि बिनु फनि करिबर कर हीना॥
अस मम जिवन बन्धु बिनु तोही। जौं जड दैव जिआवै मोही॥5॥

भावार्थ

जैसे पङ्ख बिना पक्षी, मणि बिना सर्प और सूँड बिना श्रेष्ठ हाथी अत्यन्त दीन हो जाते हैं, हे भाई! यदि कहीं जड दैव मुझे जीवित रखे तो तुम्हारे बिना मेरा जीवन भी ऐसा ही होगा॥5॥

जैहउँ अवध कौन मुहु लाई। नारि हेतु प्रिय भाई गँवाई॥
बरु अपजस सहतेउँ जग माहीं। नारि हानि बिसेष छति नाहीं॥6॥

मूल

जैहउँ अवध कौन मुहु लाई। नारि हेतु प्रिय भाई गँवाई॥
बरु अपजस सहतेउँ जग माहीं। नारि हानि बिसेष छति नाहीं॥6॥

भावार्थ

स्त्री के लिए प्यारे भाई को खोकर, मैं कौन सा मुँह लेकर अवध जाऊँगा? मैं जगत्‌ में बदनामी भले ही सह लेता (कि राम में कुछ भी वीरता नहीं है जो स्त्री को खो बैठे)। स्त्री की हानि से (इस हानि को देखते) कोई विशेष क्षति नहीं थी॥6॥

अब अपलोकु सोकु सुत तोरा। सहिहि निठुर कठोर उर मोरा॥
निज जननी के एक कुमारा। तात तासु तुम्ह प्रान अधारा॥7॥

मूल

अब अपलोकु सोकु सुत तोरा। सहिहि निठुर कठोर उर मोरा॥
निज जननी के एक कुमारा। तात तासु तुम्ह प्रान अधारा॥7॥

भावार्थ

अब तो हे पुत्र! मेरे निष्ठुर और कठोर हृदय यह अपयश और तुम्हारा शोक दोनों ही सहन करेगा। हे तात! तुम अपनी माता के एक ही पुत्र और उसके प्राणाधार हो॥7॥

सौम्पेसि मोहि तुम्हहि गहि पानी। सब बिधि सुखद परम हित जानी॥
उतरु काह दैहउँ तेहि जाई। उठि किन मोहि सिखावहु भाई॥8॥

मूल

सौम्पेसि मोहि तुम्हहि गहि पानी। सब बिधि सुखद परम हित जानी॥
उतरु काह दैहउँ तेहि जाई। उठि किन मोहि सिखावहु भाई॥8॥

भावार्थ

सब प्रकार से सुख देने वाला और परम हितकारी जानकर उन्होन्ने तुम्हें हाथ पकडकर मुझे सौम्पा था। मैं अब जाकर उन्हें क्या उत्तर दूँगा? हे भाई! तुम उठकर मुझे सिखाते (समझाते) क्यों नहीं?॥8॥

बहु बिधि सोचत सोच बिमोचन। स्रवत सलिल राजिव दल लोचन॥
उमा एक अखण्ड रघुराई। नर गति भगत कृपाल देखाई॥9॥

मूल

बहु बिधि सोचत सोच बिमोचन। स्रवत सलिल राजिव दल लोचन॥
उमा एक अखण्ड रघुराई। नर गति भगत कृपाल देखाई॥9॥

भावार्थ

सोच से छुडाने वाले श्री रामजी बहुत प्रकार से सोच कर रहे हैं। उनके कमल की पङ्खुडी के समान नेत्रों से (विषाद के आँसुओं का) जल बह रहा है। (शिवजी कहते हैं-) हे उमा! श्री रघुनाथजी एक (अद्वितीय) और अखण्ड (वियोगरहित) हैं। भक्तों पर कृपा करने वाले भगवान्‌ ने (लीला करके) मनुष्य की दशा दिखलाई है॥9॥

061

01 सोरठा

प्रभु प्रलाप सुनि कान बिकल भए बानर निकर।
आइ गयउ हनुमान जिमि करुना महँ बीर रस॥61॥

मूल

प्रभु प्रलाप सुनि कान बिकल भए बानर निकर।
आइ गयउ हनुमान जिमि करुना महँ बीर रस॥61॥

भावार्थ

प्रभु के (लीला के लिए किए गए) प्रलाप को कानों से सुनकर वानरों के समूह व्याकुल हो गए। (इतने में ही) हनुमान्‌जी आ गए, जैसे करुणरस (के प्रसङ्ग) में वीर रस (का प्रसङ्ग) आ गया हो॥61॥

02 चौपाई

हरषि राम भेण्टेउ हनुमाना। अति कृतग्य प्रभु परम सुजाना॥
तुरत बैद तब कीन्ह उपाई। उठि बैठे लछिमन हरषाई॥1॥

मूल

हरषि राम भेण्टेउ हनुमाना। अति कृतग्य प्रभु परम सुजाना॥
तुरत बैद तब कीन्ह उपाई। उठि बैठे लछिमन हरषाई॥1॥

भावार्थ

श्री रामजी हर्षित होकर हनुमान्‌जी से गले मिले। प्रभु परम सुजान (चतुर) और अत्यन्त ही कृतज्ञ हैं। तब वैद्य (सुषेण) ने तुरन्त उपाय किया, (जिससे) लक्ष्मणजी हर्षित होकर उठ बैठे॥1॥

हृदयँ लाइ प्रभु भेण्टेउ भ्राता। हरषे सकल भालु कपि ब्राता॥
कपि पुनि बैद तहाँ पहुँचावा। जेहि बिधि तबहिं ताहि लइ आवा॥2॥

मूल

हृदयँ लाइ प्रभु भेण्टेउ भ्राता। हरषे सकल भालु कपि ब्राता॥
कपि पुनि बैद तहाँ पहुँचावा। जेहि बिधि तबहिं ताहि लइ आवा॥2॥

भावार्थ

प्रभु भाई को हृदय से लगाकर मिले। भालू और वानरों के समूह सब हर्षित हो गए। फिर हनुमान्‌जी ने वैद्य को उसी प्रकार वहाँ पहुँचा दिया, जिस प्रकार वे उस बार (पहले) उसे ले आए थे॥2॥

यह बृत्तान्त दसानन सुनेऊ। अति बिषाद पुनि पुनि सिर धुनेऊ॥
ब्याकुल कुम्भकरन पहिं आवा। बिबिध जतन करि ताहि जगावा॥3॥

मूल

यह बृत्तान्त दसानन सुनेऊ। अति बिषाद पुनि पुनि सिर धुनेऊ॥
ब्याकुल कुम्भकरन पहिं आवा। बिबिध जतन करि ताहि जगावा॥3॥

भावार्थ

यह समाचार जब रावण ने सुना, तब उसने अत्यन्त विषाद से बार-बार सिर पीटा। वह व्याकुल होकर कुम्भकर्ण के पास गया और बहुत से उपाय करके उसने उसको जगाया॥3॥

जागा निसिचर देखिअ कैसा। मानहुँ कालु देह धरि बैसा॥
कुम्भकरन बूझा कहु भाई। काहे तव मुख रहे सुखाई॥4॥

मूल

जागा निसिचर देखिअ कैसा। मानहुँ कालु देह धरि बैसा॥
कुम्भकरन बूझा कहु भाई। काहे तव मुख रहे सुखाई॥4॥

भावार्थ

कुम्भकर्ण जगा (उठ बैठा) वह कैसा दिखाई देता है मानो स्वयं काल ही शरीर धारण करके बैठा हो। कुम्भकर्ण ने पूछा- हे भाई! कहो तो, तुम्हारे मुख सूख क्यों रहे हैं?॥4॥

कथा कही सब तेहिं अभिमानी। जेहि प्रकार सीता हरि आनी॥
तात कपिन्ह सब निसिचर मारे। महा महा जोधा सङ्घारे॥5॥

मूल

कथा कही सब तेहिं अभिमानी। जेहि प्रकार सीता हरि आनी॥
तात कपिन्ह सब निसिचर मारे। महा महा जोधा सङ्घारे॥5॥

भावार्थ

उस अभिमानी (रावण) ने उससे जिस प्रकार से वह सीता को हर लाया था (तब से अब तक की) सारी कथा कही। (फिर कहा-) हे तात! वानरों ने सब राक्षस मार डाले। बडे-बडे योद्धाओं का भी संहार कर डाला॥5॥

दुर्मुख सुररिपु मनुज अहारी। भट अतिकाय अकम्पन भारी॥
अपर महोदर आदिक बीरा। परे समर महि सब रनधीरा॥6॥

मूल

दुर्मुख सुररिपु मनुज अहारी। भट अतिकाय अकम्पन भारी॥
अपर महोदर आदिक बीरा। परे समर महि सब रनधीरा॥6॥

भावार्थ

दुर्मुख, देवशत्रु (देवान्तक), मनुष्य भक्षक (नरान्तक), भारी योद्धा अतिकाय और अकम्पन तथा महोदर आदि दूसरे सभी रणधीर वीर रणभूमि में मारे गए॥6॥

062

01 दोहा

सुनि दसकन्धर बचन तब कुम्भकरन बिलखान।
जगदम्बा हरि आनि अब सठ चाहत कल्यान॥62॥

मूल

सुनि दसकन्धर बचन तब कुम्भकरन बिलखान।
जगदम्बा हरि आनि अब सठ चाहत कल्यान॥62॥

भावार्थ

तब रावण के वचन सुनकर कुम्भकर्ण बिलखकर (दुःखी होकर) बोला- अरे मूर्ख! जगज्जननी जानकी को हर लाकर अब कल्याण चाहता है?॥62॥

02 चौपाई

भल न कीन्ह तैं निसिचर नाहा। अब मोहि आइ जगाएहि काहा॥
अजहूँ तात त्यागि अभिमाना। भजहु राम होइहि कल्याना॥1॥

मूल

भल न कीन्ह तैं निसिचर नाहा। अब मोहि आइ जगाएहि काहा॥
अजहूँ तात त्यागि अभिमाना। भजहु राम होइहि कल्याना॥1॥

भावार्थ

हे राक्षसराज! तूने अच्छा नहीं किया। अब आकर मुझे क्यों जगाया? हे तात! अब भी अभिमान छोडकर श्री रामजी को भजो तो कल्याण होगा॥1॥

हैं दससीस मनुज रघुनायक। जाके हनूमान से पायक॥
अहह बन्धु तैं कीन्हि खोटाई। प्रथमहिं मोहि न सुनाएहि आई॥2॥

मूल

हैं दससीस मनुज रघुनायक। जाके हनूमान से पायक॥
अहह बन्धु तैं कीन्हि खोटाई। प्रथमहिं मोहि न सुनाएहि आई॥2॥

भावार्थ

हे रावण! जिनके हनुमान्‌ सरीखे सेवक हैं, वे श्री रघुनाथजी क्या मनुष्य हैं? हाय भाई! तूने बुरा किया, जो पहले ही आकर मुझे यह हाल नहीं सुनाया॥2॥

कीन्हेहु प्रभु बिरोध तेहि देवक। सिव बिरञ्चि सुर जाके सेवक॥
नारद मुनि मोहि ग्यान जो कहा। कहतेउँ तोहि समय निरबाहा॥3॥

मूल

कीन्हेहु प्रभु बिरोध तेहि देवक। सिव बिरञ्चि सुर जाके सेवक॥
नारद मुनि मोहि ग्यान जो कहा। कहतेउँ तोहि समय निरबाहा॥3॥

भावार्थ

हे स्वामी! तुमने उस परम देवता का विरोध किया, जिसके शिव, ब्रह्मा आदि देवता सेवक हैं। नारद मुनि ने मुझे जो ज्ञान कहा था, वह मैं तुझसे कहता, पर अब तो समय जाता रहा॥3॥

अब भरि अङ्क भेण्टु मोहि भाई। लोचन सुफल करौं मैं जाई॥
स्याम गात सरसीरुह लोचन। देखौं जाइ ताप त्रय मोचन॥4॥

मूल

अब भरि अङ्क भेण्टु मोहि भाई। लोचन सुफल करौं मैं जाई॥
स्याम गात सरसीरुह लोचन। देखौं जाइ ताप त्रय मोचन॥4॥

भावार्थ

हे भाई! अब तो (अन्तिम बार) अँकवार भरकर मुझसे मिल ले। मैं जाकर अपने नेत्र सफल करूँ। तीनों तापों को छुडाने वाले श्याम शरीर, कमल नेत्र श्री रामजी के जाकर दर्शन करूँ॥4॥

063

01 दोहा

राम रूप गुन सुमिरत मगन भयउ छन एक।
रावन मागेउ कोटि घट मद अरु महिष अनेक॥63॥

मूल

राम रूप गुन सुमिरत मगन भयउ छन एक।
रावन मागेउ कोटि घट मद अरु महिष अनेक॥63॥

भावार्थ

श्री रामचन्द्रजी के रूप और गुणों को स्मरण करके वह एक क्षण के लिए प्रेम में मग्न हो गया। फिर रावण से करोडों घडे मदिरा और अनेकों भैंसे मँगवाए॥63॥

02 चौपाई

महिषखाइ करि मदिरा पाना। गर्जा बज्राघात समाना॥
कुम्भकरन दुर्मद रन रङ्गा। चला दुर्ग तजि सेन न सङ्गा॥1॥

मूल

महिषखाइ करि मदिरा पाना। गर्जा बज्राघात समाना॥
कुम्भकरन दुर्मद रन रङ्गा। चला दुर्ग तजि सेन न सङ्गा॥1॥

भावार्थ

भैंसे खाकर और मदिरा पीकर वह वज्रघात (बिजली गिरने) के समान गरजा। मद से चूर रण के उत्साह से पूर्ण कुम्भकर्ण किला छोडकर चला। सेना भी साथ नहीं ली॥1॥

देखि बिभीषनु आगें आयउ। परेउ चरन निज नाम सुनायउ॥
अनुज उठाइ हृदयँ तेहि लायो। रघुपति भक्त जानि मन भायो॥2॥

मूल

देखि बिभीषनु आगें आयउ। परेउ चरन निज नाम सुनायउ॥
अनुज उठाइ हृदयँ तेहि लायो। रघुपति भक्त जानि मन भायो॥2॥

भावार्थ

उसे देखकर विभीषण आगे आए और उसके चरणों पर गिरकर अपना नाम सुनाया। छोटे भाई को उठाकर उसने हृदय से लगा लिया और श्री रघुनाथजी का भक्त जानकर वे उसके मन को प्रिय लगे॥2॥

तात लात रावन मोहि मारा। कहत परम हित मन्त्र बिचारा॥
तेहिं गलानि रघुपति पहिं आयउँ। देखि दीन प्रभु के मन भायउँ॥3॥

मूल

तात लात रावन मोहि मारा। कहत परम हित मन्त्र बिचारा॥
तेहिं गलानि रघुपति पहिं आयउँ। देखि दीन प्रभु के मन भायउँ॥3॥

भावार्थ

(विभीषण ने कहा-) हे तात! परम हितकर सलाह एवं विचार करने पर रावण ने मुझे लात मारी। उसी ग्लानि के मारे मैं श्री रघुनाथजी के पास चला आया। दीन देखकर प्रभु के मन को मैं (बहुत) प्रिय लगा॥3॥

सुनु भयउ कालबस रावन। सो कि मान अब परम सिखावन॥
धन्य धन्य तैं धन्य विभीषन। भयहु तात निसिचर कुल भूषन॥4॥

मूल

सुनु भयउ कालबस रावन। सो कि मान अब परम सिखावन॥
धन्य धन्य तैं धन्य विभीषन। भयहु तात निसिचर कुल भूषन॥4॥

भावार्थ

(कुम्भकर्ण ने कहा-) हे पुत्र! सुन, रावण तो काल के वश हो गया है (उसके सिर पर मृत्यु नाच रही है)। वह क्या अब उत्तम शिक्षा मान सकता है? हे विभीषण! तू धन्य है, धन्य है। हे तात! तू राक्षस कुल का भूषण हो गया॥4॥

बन्धु बंस तैं कीन्ह उजागर। भजेहु राम सोभा सुख सागर॥5॥

मूल

बन्धु बंस तैं कीन्ह उजागर। भजेहु राम सोभा सुख सागर॥5॥

भावार्थ

हे भाई! तूने अपने कुल को दैदीप्यमान कर दिया, जो शोभा और सुख के समुद्र श्री रामजी को भजा॥5॥

064

01 दोहा

बचन कर्म मन कपट तजि भजेहु राम रनधीर।
जाहु न निज पर सूझ मोहि भयउँ कालबस बीर॥64॥

मूल

बचन कर्म मन कपट तजि भजेहु राम रनधीर।
जाहु न निज पर सूझ मोहि भयउँ कालबस बीर॥64॥

भावार्थ

मन, वचन और कर्म से कपट छोडकर रणधीर श्री रामजी का भजन करना। हे भाई! मैं काल (मृत्यु) के वश हो गया हूँ, मुझे अपना-पराया नहीं सूझता, इसलिए अब तुम जाओ॥64॥

02 चौपाई

बन्धु बचन सुनि चला बिभीषन। आयउ जहँ त्रैलोक बिभूषन॥
नाथ भूधराकार सरीरा। कुम्भकरन आवत रनधीरा॥1॥

मूल

बन्धु बचन सुनि चला बिभीषन। आयउ जहँ त्रैलोक बिभूषन॥
नाथ भूधराकार सरीरा। कुम्भकरन आवत रनधीरा॥1॥

भावार्थ

भाई के वचन सुनकर विभीषण लौट गए और वहाँ आए, जहाँ त्रिलोकी के भूषण श्री रामजी थे। (विभीषण ने कहा-) हे नाथ! पर्वत के समान (विशाल) देह वाला रणधीर कुम्भकर्ण आ रहा है॥1॥

एतना कपिन्ह सुना जब काना। किलकिलाइ धाए बलवाना॥
लिए उठाइ बिटप अरु भूधर। कटकटाइ डारहिं ता ऊपर॥2॥

मूल

एतना कपिन्ह सुना जब काना। किलकिलाइ धाए बलवाना॥
लिए उठाइ बिटप अरु भूधर। कटकटाइ डारहिं ता ऊपर॥2॥

भावार्थ

वानरों ने जब कानों से इतना सुना, तब वे बलवान्‌ किलकिलाकर (हर्षध्वनि करके) दौडे। वृक्ष और पर्वत (उखाडकर) उठा लिए और (क्रोध से) दाँत कटकटाकर उन्हें उसके ऊपर डालने लगे॥2॥

कोटि कोटि गिरि सिखर प्रहारा। करहिं भालु कपि एक एक बारा॥
मुर्‌यो न मनु तनु टर्‌यो न टार्‌यो। जिमि गज अर्क फलनि को मार्‌यो॥3॥

मूल

कोटि कोटि गिरि सिखर प्रहारा। करहिं भालु कपि एक एक बारा॥
मुर्‌यो न मनु तनु टर्‌यो न टार्‌यो। जिमि गज अर्क फलनि को मार्‌यो॥3॥

भावार्थ

रीछ-वानर एक-एक बार में ही करोडों पहाडों के शिखरों से उस पर प्रहार करते हैं, परन्तु इससे न तो उसका मन ही मुडा (विचलित हुआ) और न शरीर ही टाले टला, जैसे मदार के फलों की मार से हाथी पर कुछ भी असर नहीं होता!॥3॥

तब मारुतसुत मुठिका हन्यो। परयो धरनि ब्याकुल सिर धुन्यो॥
पुनि उठि तेहिं मारेउ हनुमन्ता। घुर्मित भूतल परेउ तुरन्ता॥4॥

मूल

तब मारुतसुत मुठिका हन्यो। परयो धरनि ब्याकुल सिर धुन्यो॥
पुनि उठि तेहिं मारेउ हनुमन्ता। घुर्मित भूतल परेउ तुरन्ता॥4॥

भावार्थ

तब हनुमान्‌जी ने उसे एक घूँसा मारा, जिससे वह व्याकुल होकर पृथ्वी पर गिर पडा और सिर पीटने लगा। फिर उसने उठकर हनुमान्‌जी को मारा। वे चक्कर खाकर तुरन्त ही पृथ्वी पर गिर पडे॥4॥

पुनि नल नीलहि अवनि पछारेसि। जहँ तहँ पटकि पटकि भट डारेसि॥
चली बलीमुख सेन पराई। अति भय त्रसित न कोउ समुहाई॥5॥

मूल

पुनि नल नीलहि अवनि पछारेसि। जहँ तहँ पटकि पटकि भट डारेसि॥
चली बलीमुख सेन पराई। अति भय त्रसित न कोउ समुहाई॥5॥

भावार्थ

फिर उसने नल-नील को पृथ्वी पर पछाड दिया और दूसरे योद्धाओं को भी जहाँ-तहाँ पटककर डाल दिया। वानर सेना भाग चली। सब अत्यन्त भयभीत हो गए, कोई सामने नहीं आता॥5॥

065

01 दोहा

अङ्गदादि कपि मुरुछित करि समेत सुग्रीव।
काँख दाबि कपिराज कहुँ चला अमित बल सींव॥65॥

मूल

अङ्गदादि कपि मुरुछित करि समेत सुग्रीव।
काँख दाबि कपिराज कहुँ चला अमित बल सींव॥65॥

भावार्थ

सुग्रीव समेत अङ्गदादि वानरों को मूर्छित करके फिर वह अपरिमित बल की सीमा कुम्भकर्ण वानरराज सुग्रीव को काँख में दाबकर चला॥65॥

02 चौपाई

उमा करत रघुपति नरलीला। खेलत गरुड जिमि अहिगन मीला॥
भृकुटि भङ्ग जो कालहि खाई। ताहि कि सोहइ ऐसि लराई॥1॥

मूल

उमा करत रघुपति नरलीला। खेलत गरुड जिमि अहिगन मीला॥
भृकुटि भङ्ग जो कालहि खाई। ताहि कि सोहइ ऐसि लराई॥1॥

भावार्थ

(शिवजी कहते हैं-) हे उमा! श्री रघुनाथजी वैसे ही नरलीला कर रहे हैं, जैसे गरुड सर्पों के समूह में मिलकर खेलता हो। जो भौंह के इशारे मात्र से (बिना परिश्रम के) काल को भी खा जाता है, उसे कहीं ऐसी लडाई शोभा देती है?॥1॥

जग पावनि कीरति बिस्तरिहहिं। गाइ गाइ भवनिधि नर तरिहहिं॥
मुरुछा गइ मारुतसुत जागा। सुग्रीवहि तब खोजन लागा॥2॥

मूल

जग पावनि कीरति बिस्तरिहहिं। गाइ गाइ भवनिधि नर तरिहहिं॥
मुरुछा गइ मारुतसुत जागा। सुग्रीवहि तब खोजन लागा॥2॥

भावार्थ

भगवान्‌ (इसके द्वारा) जगत्‌ को पवित्र करने वाली वह कीर्ति फैलाएँगे, जिसे गा-गाकर मनुष्य भवसागर से तर जाएँगे। मूर्च्छा जाती रही, तब मारुति हनुमान्‌जी जागे और फिर वे सुग्रीव को खोजने लगे॥2॥

सुग्रीवहु कै मुरुछा बीती। निबुकि गयउ तेहि मृतक प्रतीती॥
काटेसि दसन नासिका काना। गरजि अकास चलेउ तेहिं जाना॥3॥

मूल

सुग्रीवहु कै मुरुछा बीती। निबुकि गयउ तेहि मृतक प्रतीती॥
काटेसि दसन नासिका काना। गरजि अकास चलेउ तेहिं जाना॥3॥

भावार्थ

सुग्रीव की भी मूर्च्छा दूर हुई, तब वे (मुर्दे से होकर) खिसक गए (काँख से नीचे गिर पडे)। कुम्भकर्ण ने उनको मृतक जाना। उन्होन्ने कुम्भकर्ण के नाक-कान दाँतों से काट लिए और फिर गरज कर आकाश की ओर चले, तब कुम्भकर्ण ने जाना॥3॥

गहेउ चरन गहि भूमि पछारा। अति लाघवँ उठि पुनि तेहि मारा॥
पुनि आयउ प्रभु पहिं बलवाना। जयति जयति जय कृपानिधाना॥4॥

मूल

गहेउ चरन गहि भूमि पछारा। अति लाघवँ उठि पुनि तेहि मारा॥
पुनि आयउ प्रभु पहिं बलवाना। जयति जयति जय कृपानिधाना॥4॥

भावार्थ

उसने सुग्रीव का पैर पकडकर उनको पृथ्वी पर पछाड दिया। फिर सुग्रीव ने बडी फुर्ती से उठकर उसको मारा और तब बलवान्‌ सुग्रीव प्रभु के पास आए और बोले- कृपानिधान प्रभु की जय हो, जय हो, जय हो॥4॥

नाक कान काटे जियँ जानी। फिरा क्रोध करि भइ मन ग्लानी॥
सहज भीम पुनि बिनु श्रुति नासा। देखत कपि दल उपजी त्रासा॥5॥

मूल

नाक कान काटे जियँ जानी। फिरा क्रोध करि भइ मन ग्लानी॥
सहज भीम पुनि बिनु श्रुति नासा। देखत कपि दल उपजी त्रासा॥5॥

भावार्थ

नाक-कान काटे गए, ऐसा मन में जानकर बडी ग्लानि हुई और वह क्रोध करके लौटा। एक तो वह स्वभाव (आकृति) से ही भयङ्कर था और फिर बिना नाक-कान का होने से और भी भयानक हो गया। उसे देखते ही वानरों की सेना में भय उत्पन्न हो गया॥5॥

066

01 दोहा

जय जय जय रघुबंस मनि धाए कपि दै हूह।
एकहि बार तासु पर छाडेन्हि गिरि तरु जूह॥66॥

मूल

जय जय जय रघुबंस मनि धाए कपि दै हूह।
एकहि बार तासु पर छाडेन्हि गिरि तरु जूह॥66॥

भावार्थ

‘रघुवंशमणि की जय हो, जय हो’ ऐसा पुकारकर वानर हूह करके दौडे और सबने एक ही साथ उस पर पहाड और वृक्षों के समूह छोडे॥66॥

02 चौपाई

कुम्भकरन रन रङ्ग बिरुद्धा। सन्मुख चला काल जनु क्रुद्धा॥
कोटि कोटि कपि धरि धरि खाई। जनु टीडी गिरि गुहाँ समाई॥1॥

मूल

कुम्भकरन रन रङ्ग बिरुद्धा। सन्मुख चला काल जनु क्रुद्धा॥
कोटि कोटि कपि धरि धरि खाई। जनु टीडी गिरि गुहाँ समाई॥1॥

भावार्थ

रण के उत्साह में कुम्भकर्ण विरुद्ध होकर (उनके) सामने ऐसा चला मानो क्रोधित होकर काल ही आ रहा हो। वह करोड-करोड वानरों को एक साथ पकडकर खाने लगा! (वे उसके मुँह में इस तरह घुसने लगे) मानो पर्वत की गुफा में टिड्डियाँ समा रही हों॥1॥

कोटिन्ह गहि सरीर सन मर्दा। कोटिन्ह मीजि मिलव महि गर्दा॥
मुख नासा श्रवनन्हि कीं बाटा। निसरि पराहिं भालु कपि ठाटा॥2॥

मूल

कोटिन्ह गहि सरीर सन मर्दा। कोटिन्ह मीजि मिलव महि गर्दा॥
मुख नासा श्रवनन्हि कीं बाटा। निसरि पराहिं भालु कपि ठाटा॥2॥

भावार्थ

करोडों (वानरों) को पकडकर उसने शरीर से मसल डाला। करोडों को हाथों से मलकर पृथ्वी की धूल में मिला दिया। (पेट में गए हुए) भालू और वानरों के ठट्ट के ठट्ट उसके मुख, नाक और कानों की राह से निकल-निकलकर भाग रहे हैं॥2॥

रन मद मत्त निसाचर दर्पा। बिस्व ग्रसिहि जनु ऐहि बिधि अर्पा॥
मुरे सुभट सब फिरहिं न फेरे। सूझ न नयन सुनहिं नहिं टेरे॥3॥

मूल

रन मद मत्त निसाचर दर्पा। बिस्व ग्रसिहि जनु ऐहि बिधि अर्पा॥
मुरे सुभट सब फिरहिं न फेरे। सूझ न नयन सुनहिं नहिं टेरे॥3॥

भावार्थ

रण के मद में मत्त राक्षस कुम्भकर्ण इस प्रकार गर्वित हुआ, मानो विधाता ने उसको सारा विश्व अर्पण कर दिया हो और उसे वह ग्रास कर जाएगा। सब योद्धा भाग खडे हुए, वे लौटाए भी नहीं लौटते। आँखों से उन्हें सूझ नहीं पडता और पुकारने से सुनते नहीं!॥3॥

कुम्भकरन कपि फौज बिडारी। सुनि धाई रजनीचर धारी॥
देखी राम बिकल कटकाई। रिपु अनीक नाना बिधि आई॥4॥

मूल

कुम्भकरन कपि फौज बिडारी। सुनि धाई रजनीचर धारी॥
देखी राम बिकल कटकाई। रिपु अनीक नाना बिधि आई॥4॥

भावार्थ

कुम्भकर्ण ने वानर सेना को तितर-बितर कर दिया। यह सुनकर राक्षस सेना भी दौडी। श्री रामचन्द्रजी ने देखा कि अपनी सेना व्याकुल है और शत्रु की नाना प्रकार की सेना आ गई है॥4॥

067

01 दोहा

सुनु सुग्रीव बिभीषन अनुज सँभारेहु सैन।
मैं देखउँ खल बल दलहि बोले राजिवनैन॥67॥

मूल

सुनु सुग्रीव बिभीषन अनुज सँभारेहु सैन।
मैं देखउँ खल बल दलहि बोले राजिवनैन॥67॥

भावार्थ

तब कमलनयन श्री रामजी बोले- हे सुग्रीव! हे विभीषण! और हे लक्ष्मण! सुनो, तुम सेना को सम्भालना। मैं इस दुष्ट के बल और सेना को देखता हूँ॥67॥

02 चौपाई

कर सारङ्ग साजि कटि भाथा। अरि दल दलन चले रघुनाथा॥
प्रथम कीन्हि प्रभु धनुष टङ्कोरा। रिपु दल बधिर भयउ सुनि सोरा॥1॥

मूल

कर सारङ्ग साजि कटि भाथा। अरि दल दलन चले रघुनाथा॥
प्रथम कीन्हि प्रभु धनुष टङ्कोरा। रिपु दल बधिर भयउ सुनि सोरा॥1॥

भावार्थ

हाथ में शार्गन्धनुष और कमर में तरकस सजाकर श्री रघुनाथजी शत्रु सेना को दलन करने चले। प्रभु ने पहले तो धनुष का टङ्कार किया, जिसकी भयानक आवाज सुनते ही शत्रु दल बहरा हो गया॥1॥

सत्यसन्ध छाँडे सर लच्छा। कालसर्प जनु चले सपच्छा॥
जहँ तहँ चले बिपुल नाराचा। लगे कटन भट बिकट पिसाचा॥2॥

मूल

सत्यसन्ध छाँडे सर लच्छा। कालसर्प जनु चले सपच्छा॥
जहँ तहँ चले बिपुल नाराचा। लगे कटन भट बिकट पिसाचा॥2॥

भावार्थ

फिर सत्यप्रतिज्ञ श्री रामजी ने एक लाख बाण छोडे। वे ऐसे चले मानो पङ्खवाले काल सर्प चले हों। जहाँ-तहाँ बहुत से बाण चले, जिनसे भयङ्कर राक्षस योद्धा कटने लगे॥2॥

कटहिं चरन उर सिर भुजदण्डा। बहुतक बीर होहिं सत खण्डा॥
घुर्मि घुर्मि घायल महि परहीं। उठि सम्भारि सुभट पुनि लरहीं॥3॥

मूल

कटहिं चरन उर सिर भुजदण्डा। बहुतक बीर होहिं सत खण्डा॥
घुर्मि घुर्मि घायल महि परहीं। उठि सम्भारि सुभट पुनि लरहीं॥3॥

भावार्थ

उनके चरण, छाती, सिर और भुजदण्ड कट रहे हैं। बहुत से वीरों के सौ-सौ टुकडे हो जाते हैं। घायल चक्कर खा-खाकर पृथ्वी पर पड रहे हैं। उत्तम योद्धा फिर सम्भलकर उठते और लडते हैं॥3॥

लागत बान जलद जिमि गाजहिं। बहुतक देखि कठिन सर भाजहिं॥
रुण्ड प्रचण्ड मुण्ड बिनु धावहिं। धरु धरु मारु मारु धुनि गावहिं॥4॥

मूल

लागत बान जलद जिमि गाजहिं। बहुतक देखि कठिन सर भाजहिं॥
रुण्ड प्रचण्ड मुण्ड बिनु धावहिं। धरु धरु मारु मारु धुनि गावहिं॥4॥

भावार्थ

बाण लगते ही वे मेघ की तरह गरजते हैं। बहुत से तो कठिन बाणों को देखकर ही भाग जाते हैं। बिना मुण्ड (सिर) के प्रचण्ड रुण्ड (धड) दौड रहे हैं और ‘पकडो, पकडो, मारो, मारो’ का शब्द करते हुए गा (चिल्ला) रहे हैं॥4॥

068

01 दोहा

छन महुँ प्रभु के सायकन्हि काटे बिकट पिसाच।
पुनि रघुबीर निषङ्ग महुँ प्रबिसे सब नाराच॥68॥

मूल

छन महुँ प्रभु के सायकन्हि काटे बिकट पिसाच।
पुनि रघुबीर निषङ्ग महुँ प्रबिसे सब नाराच॥68॥

भावार्थ

प्रभु के बाणों ने क्षण मात्र में भयानक राक्षसों को काटकर रख दिया। फिर वे सब बाण लौटकर श्री रघुनाथजी के तरकस में घुस गए॥68॥

02 चौपाई

कुम्भकरन मन दीख बिचारी। हति छन माझ निसाचर धारी॥
भा अति क्रुद्ध महाबल बीरा। कियो मृगनायक नाद गँभीरा॥1॥

मूल

कुम्भकरन मन दीख बिचारी। हति छन माझ निसाचर धारी॥
भा अति क्रुद्ध महाबल बीरा। कियो मृगनायक नाद गँभीरा॥1॥

भावार्थ

कुम्भकर्ण ने मन में विचार कर देखा कि श्री रामजी ने क्षण मात्र में राक्षसी सेना का संहार कर डाला। तब वह महाबली वीर अत्यन्त क्रोधित हुआ और उसने गम्भीर सिंहनाद किया॥1॥

कोपि महीधर लेइ उपारी। डारइ जहँ मर्कट भट भारी॥
आवत देखि सैल प्रभु भारे। सरन्हि काटि रज सम करि डारे॥2॥

मूल

कोपि महीधर लेइ उपारी। डारइ जहँ मर्कट भट भारी॥
आवत देखि सैल प्रभु भारे। सरन्हि काटि रज सम करि डारे॥2॥

भावार्थ

वह क्रोध करके पर्वत उखाड लेता है और जहाँ भारी-भारी वानर योद्धा होते हैं, वहाँ डाल देता है। बडे-बडे पर्वतों को आते देखकर प्रभु ने उनको बाणों से काटकर धूल के समान (चूर-चूर) कर डाला॥2॥

पुनि धनु तानि कोपि रघुनायक। छाँडे अति कराल बहु सायक॥
तनु महुँ प्रबिसि निसरि सर जाहीं। जिमि दामिनि घन माझ समाहीं॥3॥

मूल

पुनि धनु तानि कोपि रघुनायक। छाँडे अति कराल बहु सायक॥
तनु महुँ प्रबिसि निसरि सर जाहीं। जिमि दामिनि घन माझ समाहीं॥3॥

भावार्थ

फिर श्री रघुनाथजी ने क्रोध करके धनुष को तानकर बहुत से अत्यन्त भयानक बाण छोडे। वे बाण कुम्भकर्ण के शरीर में घुसकर (पीछे से इस प्रकार) निकल जाते हैं (कि उनका पता नहीं चलता), जैसे बिजलियाँ बादल में समा जाती हैं॥3॥

सोनित स्रवत सोह तन कारे। जनु कज्जल गिरि गेरु पनारे॥
बिकल बिलोकि भालु कपि धाए। बिहँसा जबहिं निकट कपि आए॥4॥

मूल

सोनित स्रवत सोह तन कारे। जनु कज्जल गिरि गेरु पनारे॥
बिकल बिलोकि भालु कपि धाए। बिहँसा जबहिं निकट कपि आए॥4॥

भावार्थ

उसके काले शरीर से रुधिर बहता हुआ ऐसे शोभा देता है, मानो काजल के पर्वत से गेरु के पनाले बह रहे हों। उसे व्याकुल देखकर रीछ वानर दौडे। वे ज्यों ही निकट आए, त्यों ही वह हँसा,॥4॥

069

01 दोहा

महानाद करि गर्जा कोटि कोटि गहि कीस।
महि पटकइ गजराज इव सपथ करइ दससीस॥69॥

मूल

महानाद करि गर्जा कोटि कोटि गहि कीस।
महि पटकइ गजराज इव सपथ करइ दससीस॥69॥

भावार्थ

और बडा घोर शब्द करके गरजा तथा करोड-करोड वानरों को पकडकर वह गजराज की तरह उन्हें पृथ्वी पर पटकने लगा और रावण की दुहाई देने लगा॥69॥

02 चौपाई

भागे भालु बलीमुख जूथा। बृकु बिलोकि जिमि मेष बरूथा॥
चले भागि कपि भालु भवानी। बिकल पुकारत आरत बानी॥1॥

मूल

भागे भालु बलीमुख जूथा। बृकु बिलोकि जिमि मेष बरूथा॥
चले भागि कपि भालु भवानी। बिकल पुकारत आरत बानी॥1॥

भावार्थ

यह देखकर रीछ-वानरों के झुण्ड ऐसे भागे जैसे भेडिये को देखकर भेडों के झुण्ड! (शिवजी कहते हैं-) हे भवानी! वानर-भालू व्याकुल होकर आर्तवाणी से पुकारते हुए भाग चले॥1॥

यह निसिचर दुकाल सम अहई। कपिकुल देस परन अब चहई॥
कृपा बारिधर राम खरारी। पाहि पाहि प्रनतारति हारी॥2॥

मूल

यह निसिचर दुकाल सम अहई। कपिकुल देस परन अब चहई॥
कृपा बारिधर राम खरारी। पाहि पाहि प्रनतारति हारी॥2॥

भावार्थ

(वे कहने लगे-) यह राक्षस दुर्भिक्ष के समान है, जो अब वानर कुल रूपी देश में पडना चाहता है। हे कृपा रूपी जल के धारण करने वाले मेघ रूप श्री राम! हे खर के शत्रु! हे शरणागत के दुःख हरने वाले! रक्षा कीजिए, रक्षा कीजिए!॥2॥।

सकरुन बचन सुनत भगवाना। चले सुधारि सरासन बाना॥
राम सेन निज पाछें घाली। चले सकोप महा बलसाली॥3॥

मूल

सकरुन बचन सुनत भगवाना। चले सुधारि सरासन बाना॥
राम सेन निज पाछें घाली। चले सकोप महा बलसाली॥3॥

भावार्थ

करुणा भरे वचन सुनते ही भगवान्‌ धनुष-बाण सुधारकर चले। महाबलशाली श्री रामजी ने सेना को अपने पीछे कर लिया और वे (अकेले) क्रोधपूर्वक चले (आगे बढे)॥3॥

खैञ्चि धनुष सर सत सन्धाने। छूटे तीर सरीर समाने॥
लागत सर धावा रिस भरा। कुधर डगमगत डोलति धरा॥4॥

मूल

खैञ्चि धनुष सर सत सन्धाने। छूटे तीर सरीर समाने॥
लागत सर धावा रिस भरा। कुधर डगमगत डोलति धरा॥4॥

भावार्थ

उन्होन्ने धनुष को खीञ्चकर सौ बाण सन्धान किए। बाण छूटे और उसके शरीर में समा गए। बाणों के लगते ही वह क्रोध में भरकर दौडा। उसके दौडने से पर्वत डगमगाने लगे और पृथ्वी हिलने लगी॥4॥

लीन्ह एक तेंहि सैल उपाटी। रघुकुलतिलक भुजा सोइ काटी॥
धावा बाम बाहु गिरि धारी। प्रभु सोउ भुजा काटि महि पारी॥5॥

मूल

लीन्ह एक तेंहि सैल उपाटी। रघुकुलतिलक भुजा सोइ काटी॥
धावा बाम बाहु गिरि धारी। प्रभु सोउ भुजा काटि महि पारी॥5॥

भावार्थ

उसने एक पर्वत उखाड लिया। रघुकुल तिलक श्री रामजी ने उसकी वह भुजा ही काट दी। तब वह बाएँ हाथ में पर्वत को लेकर दौडा। प्रभु ने उसकी वह भुजा भी काटकर पृथ्वी पर गिरा दी॥5॥

काटें भुजा सोह खल कैसा। पच्छहीन मन्दर गिरि जैसा॥
उग्र बिलोकनि प्रभुहि बिलोका। ग्रसन चहत मानहुँ त्रैलोका॥6॥

मूल

काटें भुजा सोह खल कैसा। पच्छहीन मन्दर गिरि जैसा॥
उग्र बिलोकनि प्रभुहि बिलोका। ग्रसन चहत मानहुँ त्रैलोका॥6॥

भावार्थ

भुजाओं के कट जाने पर वह दुष्ट कैसी शोभा पाने लगा, जैसे बिना पङ्ख का मन्दराचल पहाड हो। उसने उग्र दृष्टि से प्रभु को देखा। मानो तीनों लोकों को निगल जाना चाहता हो॥6॥

070

01 दोहा

करि चिक्कार घोर अति धावा बदनु पसारि।
गगन सिद्ध सुर त्रासित हा हा हेति पुकारि॥70॥

मूल

करि चिक्कार घोर अति धावा बदनु पसारि।
गगन सिद्ध सुर त्रासित हा हा हेति पुकारि॥70॥

भावार्थ

वह बडे जोर से चिग्घाड करके मुँह फैलाकर दौडा। आकाश में सिद्ध और देवता डरकर हा! हा! हा! इस प्रकार पुकारने लगे॥70॥

02 चौपाई

सभय देव करुनानिधि जान्यो। श्रवन प्रजन्त सरासुन तान्यो॥
बिसिख निकर निसिचर मुख भरेऊ। तदपि महाबल भूमि न परेऊ॥1॥

मूल

सभय देव करुनानिधि जान्यो। श्रवन प्रजन्त सरासुन तान्यो॥
बिसिख निकर निसिचर मुख भरेऊ। तदपि महाबल भूमि न परेऊ॥1॥

भावार्थ

करुणानिधान भगवान्‌ ने देवताओं को भयभीत जाना। तब उन्होन्ने धनुष को कान तक तानकर राक्षस के मुख को बाणों के समूह से भर दिया। तो भी वह महाबली पृथ्वी पर न गिरा॥1॥

सरन्हि भरा मुख सन्मुख धावा। काल त्रोन सजीव जनु आवा॥
तब प्रभु कोपि तीब्र सर लीन्हा। धर ते भिन्न तासु सिर कीन्हा॥2॥

मूल

सरन्हि भरा मुख सन्मुख धावा। काल त्रोन सजीव जनु आवा॥
तब प्रभु कोपि तीब्र सर लीन्हा। धर ते भिन्न तासु सिर कीन्हा॥2॥

भावार्थ

मुख में बाण भरे हुए वह (प्रभु के) सामने दौडा। मानो काल रूपी सजीव तरकस ही आ रहा हो। तब प्रभु ने क्रोध करके तीक्ष्ण बाण लिया और उसके सिर को धड से अलग कर दिया॥2॥

सो सिर परेउ दसानन आगें। बिकल भयउ जिमि फनि मनि त्यागें॥
धरनि धसइ धर धाव प्रचण्डा। तब प्रभु काटि कीन्ह दुइ खण्डा॥3॥

मूल

सो सिर परेउ दसानन आगें। बिकल भयउ जिमि फनि मनि त्यागें॥
धरनि धसइ धर धाव प्रचण्डा। तब प्रभु काटि कीन्ह दुइ खण्डा॥3॥

भावार्थ

वह सिर रावण के आगे जा गिरा उसे देखकर रावण ऐसा व्याकुल हुआ जैसे मणि के छूट जाने पर सर्प। कुम्भकर्ण का प्रचण्ड धड दौडा, जिससे पृथ्वी धँसी जाती थी। तब प्रभु ने काटकर उसके दो टुकडे कर दिए॥3॥

परे भूमि जिमि नभ तें भूधर। हेठ दाबि कपि भालु निसाचर॥
तासु तेज प्रभु बदन समाना। सुर मुनि सबहिं अचम्भव माना॥4॥

मूल

परे भूमि जिमि नभ तें भूधर। हेठ दाबि कपि भालु निसाचर॥
तासु तेज प्रभु बदन समाना। सुर मुनि सबहिं अचम्भव माना॥4॥

भावार्थ

वानर-भालू और निशाचरों को अपने नीचे दबाते हुए वे दोनों टुकडे पृथ्वी पर ऐसे पडे जैसे आकाश से दो पहाड गिरे हों। उसका तेज प्रभु श्री रामचन्द्रजी के मुख में समा गया। (यह देखकर) देवता और मुनि सभी ने आश्चर्य माना॥4॥

सुर दुन्दुभीं बजावहिं हरषहिं। अस्तुति करहिं सुमन बहु बरषहिं॥
करि बिनती सुर सकल सिधाए। तेही समय देवरिषि आए॥5॥

मूल

सुर दुन्दुभीं बजावहिं हरषहिं। अस्तुति करहिं सुमन बहु बरषहिं॥
करि बिनती सुर सकल सिधाए। तेही समय देवरिषि आए॥5॥

भावार्थ

देवता नगाडे बजाते, हर्षित होते और स्तुति करते हुए बहुत से फूल बरसा रहे हैं। विनती करके सब देवता चले गए। उसी समय देवर्षि नारद आए॥5॥

गगनोपरि हरि गुन गन गाए। रुचिर बीररस प्रभु मन भाए॥
बेगि हतहु खल कहि मुनि गए। राम समर महि सोभत भए॥6॥

मूल

गगनोपरि हरि गुन गन गाए। रुचिर बीररस प्रभु मन भाए॥
बेगि हतहु खल कहि मुनि गए। राम समर महि सोभत भए॥6॥

भावार्थ

आकाश के ऊपर से उन्होन्ने श्री हरि के सुन्दर वीर रसयुक्त गुण समूह का गान किया, जो प्रभु के मन को बहुत ही भाया। मुनि यह कहकर चले गए कि अब दुष्ट रावण को शीघ्र मारिए। (उस समय) श्री रामचन्द्रजी रणभूमि में आकर (अत्यन्त) सुशोभित हुए॥6॥

03 छन्द

सङ्ग्राम भूमि बिराज रघुपति अतुल बल कोसल धनी।
श्रम बिन्दु मुख राजीव लोचन अरुन तन सोनित कनी॥
भुज जुगल फेरत सर सरासन भालु कपि चहु दिसि बने।
कह दास तुलसी कहि न सक छबि सेष जेहि आनन घने॥

मूल

सङ्ग्राम भूमि बिराज रघुपति अतुल बल कोसल धनी।
श्रम बिन्दु मुख राजीव लोचन अरुन तन सोनित कनी॥
भुज जुगल फेरत सर सरासन भालु कपि चहु दिसि बने।
कह दास तुलसी कहि न सक छबि सेष जेहि आनन घने॥

भावार्थ

अतुलनीय बल वाले कोसलपति श्री रघुनाथजी रणभूमि में सुशोभित हैं। मुख पर पसीने की बूँदें हैं, कमल समान नेत्र कुछ लाल हो रहे हैं। शरीर पर रक्त के कण हैं, दोनों हाथों से धनुष-बाण फिरा रहे हैं। चारों ओर रीछ-वानर सुशोभित हैं। तुलसीदासजी कहते हैं कि प्रभु की इस छबि का वर्णन शेषजी भी नहीं कर सकते, जिनके बहुत से (हजार) मुख हैं।

071

01 दोहा

निसिचर अधम मलाकर ताहि दीन्ह निज धाम।
गिरिजा ते नर मन्दमति जे न भजहिं श्रीराम॥71॥

मूल

निसिचर अधम मलाकर ताहि दीन्ह निज धाम।
गिरिजा ते नर मन्दमति जे न भजहिं श्रीराम॥71॥

भावार्थ

(शिवजी कहते हैं-) हे गिरिजे! कुम्भकर्ण, जो नीच राक्षस और पाप की खान था, उसे भी श्री रामजी ने अपना परमधाम दे दिया। अतः वे मनुष्य (निश्चय ही) मन्दबुद्धि हैं, जो उन श्री रामजी को नहीं भजते॥71॥

02 चौपाई

दिन के अन्त फिरीं द्वौ अनी। समर भई सुभटन्ह श्रम घनी॥
राम कृपाँ कपि दल बल बाढा। जिमि तृन पाइ लाग अति डाढा॥1॥

मूल

दिन के अन्त फिरीं द्वौ अनी। समर भई सुभटन्ह श्रम घनी॥
राम कृपाँ कपि दल बल बाढा। जिमि तृन पाइ लाग अति डाढा॥1॥

भावार्थ

दिन का अन्त होने पर दोनों सेनाएँ लौट पडीं। (आज के युद्ध में) योद्धाओं को बडी थकावट हुई, परन्तु श्री रामजी की कृपा से वानर सेना का बल उसी प्रकार बढ गया, जैसे घास पाकर अग्नि बहुत बढ जाती है॥1॥(घ)॥

छीजहिं निसिचर दिनु अरु राती। निज मुख कहें सुकृत जेहि भाँती॥
बहु बिलाप दसकन्धर करई। बन्धु सीस पुनि पुनि उर धरई॥2॥

मूल

छीजहिं निसिचर दिनु अरु राती। निज मुख कहें सुकृत जेहि भाँती॥
बहु बिलाप दसकन्धर करई। बन्धु सीस पुनि पुनि उर धरई॥2॥

भावार्थ

उधर राक्षस दिन-रात इस प्रकार घटते जा रहे हैं, जिस प्रकार अपने ही मुख से कहने पर पुण्य घट जाते हैं। रावण बहुत विलाप कर रहा है। बार-बार भाई (कुम्भकर्ण) का सिर कलेजे से लगाता है॥2॥

रोवहिं नारि हृदय हति पानी। तासु तेज बल बिपुल बखानी॥
मेघनाद तेहि अवसर आयउ। कहि बहु कथा पिता समुझायउ॥3॥

मूल

रोवहिं नारि हृदय हति पानी। तासु तेज बल बिपुल बखानी॥
मेघनाद तेहि अवसर आयउ। कहि बहु कथा पिता समुझायउ॥3॥

भावार्थ

स्त्रियाँ उसके बडे भारी तेज और बल को बखान करके हाथों से छाती पीट-पीटकर रो रही हैं। उसी समय मेघनाद आया और उसने बहुत सी कथाएँ कहकर पिता को समझाया॥3॥

देखेहु कालि मोरि मनुसाई। अबहिं बहुत का करौं बडाई॥
इष्टदेव सैं बल रथ पायउँ। सो बल तात न तोहि देखायउँ॥4॥

मूल

देखेहु कालि मोरि मनुसाई। अबहिं बहुत का करौं बडाई॥
इष्टदेव सैं बल रथ पायउँ। सो बल तात न तोहि देखायउँ॥4॥

भावार्थ

(और कहा-) कल मेरा पुरुषार्थ देखिएगा। अभी बहुत बडाई क्या करूँ? हे तात! मैन्ने अपने इष्टदेव से जो बल और रथ पाया था, वह बल (और रथ) अब तक आपको नहीं दिखलाया था॥4॥

एहि बिधि जल्पत भयउ बिहाना। चहुँ दुआर लागे कपि नाना॥
इति कपि भालु काल सम बीरा। उत रजनीचर अति रनधीरा॥5॥

मूल

एहि बिधि जल्पत भयउ बिहाना। चहुँ दुआर लागे कपि नाना॥
इति कपि भालु काल सम बीरा। उत रजनीचर अति रनधीरा॥5॥

भावार्थ

इस प्रकार डीङ्ग मारते हुए सबेरा हो गया। लङ्का के चारों दरवाजों पर बहुत से वानर आ डटे। इधर काल के समान वीर वानर-भालू हैं और उधर अत्यन्त रणधीर राक्षस॥5॥

लरहिं सुभट निज निज जय हेतू। बरनि न जाइ समर खगकेतू॥6॥

मूल

लरहिं सुभट निज निज जय हेतू। बरनि न जाइ समर खगकेतू॥6॥

भावार्थ

→दोनों ओर के योद्धा अपनी-अपनी जय के लिए लड रहे हैं। हे गरुड उनके युद्ध का वर्णन नहीं किया जा सकता॥6॥

072

01 दोहा

मेघनाद मायामय रथ चढि गयउ अकास।
गर्जेउ अट्टहास करि भइ कपि कटकहि त्रास॥72॥

मूल

मेघनाद मायामय रथ चढि गयउ अकास।
गर्जेउ अट्टहास करि भइ कपि कटकहि त्रास॥72॥

भावार्थ

मेघनाद उसी (पूर्वोक्त) मायामय रथ पर चढकर आकाश में चला गया और अट्टहास करके गरजा, जिससे वानरों की सेना में भय छा गया॥72॥

02 चौपाई

सक्ति सूल तरवारि कृपाना। अस्त्र सस्त्र कुलिसायुध नाना॥
डारइ परसु परिघ पाषाना। लागेउ बृष्टि करै बहु बाना॥1॥

मूल

सक्ति सूल तरवारि कृपाना। अस्त्र सस्त्र कुलिसायुध नाना॥
डारइ परसु परिघ पाषाना। लागेउ बृष्टि करै बहु बाना॥1॥

भावार्थ

वह शक्ति, शूल, तलवार, कृपाण आदि अस्त्र, शास्त्र एवं वज्र आदि बहुत से आयुध चलाने तथा फरसे, परिघ, पत्थर आदि डालने और बहुत से बाणों की वृष्टि करने लगा॥1॥

दस दिसि रहे बान नभ छाई। मानहुँ मघा मेघ झरि लाई॥
धरु धरु मारु सुनिअ धुनि काना। जो मारइ तेहि कोउ न जाना॥2॥

मूल

दस दिसि रहे बान नभ छाई। मानहुँ मघा मेघ झरि लाई॥
धरु धरु मारु सुनिअ धुनि काना। जो मारइ तेहि कोउ न जाना॥2॥

भावार्थ

आकाश में दसों दिशाओं में बाण छा गए, मानो मघा नक्षत्र के बादलों ने झडी लगा दी हो। ‘पकडो, पकडो, मारो’ ये शब्द सुनाई पडते हैं। पर जो मार रहा है, उसे कोई नहीं जान पाता॥2॥

गहि गिरि तरु अकास कपि धावहिं। देखहिं तेहि न दुखित फिरि आवहिं॥
अवघट घाट बाट गिरि कन्दर। माया बल कीन्हेसि सर पञ्जर॥3॥

मूल

गहि गिरि तरु अकास कपि धावहिं। देखहिं तेहि न दुखित फिरि आवहिं॥
अवघट घाट बाट गिरि कन्दर। माया बल कीन्हेसि सर पञ्जर॥3॥

भावार्थ

पर्वत और वृक्षों को लेकर वानर आकाश में दौडकर जाते हैं। पर उसे देख नहीं पाते, इससे दुःखी होकर लौट आते हैं। मेघनाद ने माया के बल से अटपटी घाटियों, रास्तों और पर्वतों-कन्दराओं को बाणों के पिञ्जरे बना दिए (बाणों से छा दिया)॥3॥

जाहिं कहाँ ब्याकुल भए बन्दर। सुरपति बन्दि परे जनु मन्दर॥
मारुतसुत अङ्गद नल नीला। कीन्हेसि बिकल सकल बलसीला॥4॥

मूल

जाहिं कहाँ ब्याकुल भए बन्दर। सुरपति बन्दि परे जनु मन्दर॥
मारुतसुत अङ्गद नल नीला। कीन्हेसि बिकल सकल बलसीला॥4॥

भावार्थ

अब कहाँ जाएँ, यह सोचकर (रास्ता न पाकर) वानर व्याकुल हो गए। मानो पर्वत इन्द्र की कैद में पडे हों। मेघनाद ने मारुति हनुमान्‌, अङ्गद, नल और नील आदि सभी बलवानों को व्याकुल कर दिया॥4॥

पुनि लछिमन सुग्रीव बिभीषन। सरन्हि मारि कीन्हेसि जर्जर तन॥
पुनि रघुपति सैं जूझै लागा। सर छाँडइ होइ लागहिं नागा॥5॥

मूल

पुनि लछिमन सुग्रीव बिभीषन। सरन्हि मारि कीन्हेसि जर्जर तन॥
पुनि रघुपति सैं जूझै लागा। सर छाँडइ होइ लागहिं नागा॥5॥

भावार्थ

फिर उसने लक्ष्मणजी, सुग्रीव और विभीषण को बाणों से मारकर उनके शरीर को छलनी कर दिया। फिर वह श्री रघुनाथजी से लडने लगा। वह जो बाण छोडता है, वे साँप होकर लगते हैं॥5॥

ब्याल पास बस भए खरारी। स्वबस अनन्त एक अबिकारी॥
नट इव कपट चरित कर नाना। सदा स्वतन्त्र एक भगवाना॥6॥

मूल

ब्याल पास बस भए खरारी। स्वबस अनन्त एक अबिकारी॥
नट इव कपट चरित कर नाना। सदा स्वतन्त्र एक भगवाना॥6॥

भावार्थ

जो स्वतन्त्र, अनन्त, एक (अखण्ड) और निर्विकार हैं, वे खर के शत्रु श्री रामजी (लीला से) नागपाश के वश में हो गए (उससे बँध गए) श्री रामचन्द्रजी सदा स्वतन्त्र, एक, (अद्वितीय) भगवान्‌ हैं। वे नट की तरह अनेकों प्रकार के दिखावटी चरित्र करते हैं॥6॥

रन सोभा लगि प्रभुहिं बँधायो। नागपास देवन्ह भय पायो॥7॥

मूल

रन सोभा लगि प्रभुहिं बँधायो। नागपास देवन्ह भय पायो॥7॥

भावार्थ

रण की शोभा के लिए प्रभु ने अपने को नागपाश में बाँध लिया, किन्तु उससे देवताओं को बडा भय हुआ॥7॥

073

01 दोहा

गिरिजा जासु नाम जपि मुनि काटहिं भव पास।
सो कि बन्ध तर आवइ ब्यापक बिस्व निवास॥73॥

मूल

गिरिजा जासु नाम जपि मुनि काटहिं भव पास।
सो कि बन्ध तर आवइ ब्यापक बिस्व निवास॥73॥

भावार्थ

(शिवजी कहते हैं-) हे गिरिजे! जिनका नाम जपकर मुनि भव (जन्म-मृत्यु) की फाँसी को काट डालते हैं, वे सर्वव्यापक और विश्व निवास (विश्व के आधार) प्रभु कहीं बन्धन में आ सकते हैं?॥73॥

02 चौपाई

चरित राम के सगुन भवानी। तर्कि न जाहिं बुद्धि बल बानी॥
अस बिचारि जे तग्य बिरागी। रामहि भजहिं तर्क सब त्यागी॥1॥

मूल

चरित राम के सगुन भवानी। तर्कि न जाहिं बुद्धि बल बानी॥
अस बिचारि जे तग्य बिरागी। रामहि भजहिं तर्क सब त्यागी॥1॥

भावार्थ

हे भवानी! श्री रामजी की इस सगुण लीलाओं के विषय में बुद्धि और वाणी के बल से तर्क (निर्णय) नहीं किया जा सकता। ऐसा विचार कर जो तत्त्वज्ञानी और विरक्त पुरुष हैं, वे सब तर्क (शङ्का) छोडकर श्री रामजी का भजन ही करते हैं॥1॥

ब्याकुल कटकु कीन्ह घननादा। पुनि भा प्रगट कहइ दुर्बादा॥
जामवन्त कह खल रहु ठाढा। सुनि करि ताहि क्रोध अति बाढा॥2॥

मूल

ब्याकुल कटकु कीन्ह घननादा। पुनि भा प्रगट कहइ दुर्बादा॥
जामवन्त कह खल रहु ठाढा। सुनि करि ताहि क्रोध अति बाढा॥2॥

भावार्थ

मेघनाद ने सेना को व्याकुल कर दिया। फिर वह प्रकट हो गया और दुर्वचन कहने लगा। इस पर जाम्बवान्‌ ने कहा- अरे दुष्ट! खडा रह। यह सुनकर उसे बडा क्रोध बढा॥2॥

बूढ जानि सठ छाँडेउँ तोही। लागेसि अधम पचारै मोही॥
अस कहि तरल त्रिसूल चलायो। जामवन्त कर गहि सोइ धायो॥3॥

मूल

बूढ जानि सठ छाँडेउँ तोही। लागेसि अधम पचारै मोही॥
अस कहि तरल त्रिसूल चलायो। जामवन्त कर गहि सोइ धायो॥3॥

भावार्थ

अरे मूर्ख! मैन्ने बूढा जानकर तुझको छोड दिया था। अरे अधम! अब तू मुझे ही ललकारने लगा है? ऐसा कहकर उसने चमकता हुआ त्रिशूल चलाया। जाम्बवान्‌ उसी त्रिशूल को हाथ से पकडकर दौडा॥3॥

मारिसि मेघनाद कै छाती। परा भूमि घुर्मित सुरघाती॥
पुनि रिसान गहि चरन फिरायो। महि पछारि निज बल देखरायो॥4॥

मूल

मारिसि मेघनाद कै छाती। परा भूमि घुर्मित सुरघाती॥
पुनि रिसान गहि चरन फिरायो। महि पछारि निज बल देखरायो॥4॥

भावार्थ

और उसे मेघनाद की छाती पर दे मारा। वह देवताओं का शत्रु चक्कर खाकर पृथ्वी पर गिर पडा। जाम्बवान्‌ ने फिर क्रोध में भरकर पैर पकडकर उसको घुमाया और पृथ्वी पर पटककर उसे अपना बल दिखलाया॥4॥

बर प्रसाद सो मरइ न मारा। तब गहि पद लङ्का पर डारा॥
इहाँ देवरिषि गरुड पठायो। राम समीप सपदि सो आयो॥5॥

मूल

बर प्रसाद सो मरइ न मारा। तब गहि पद लङ्का पर डारा॥
इहाँ देवरिषि गरुड पठायो। राम समीप सपदि सो आयो॥5॥

भावार्थ

(किन्तु) वरदान के प्रताप से वह मारे नहीं मरता। तब जाम्बवान्‌ ने उसका पैर पकडकर उसे लङ्का पर फेङ्क दिया। इधर देवर्षि नारदजी ने गरुड को भेजा। वे तुरन्त ही श्री रामजी के पास आ पहुँचे॥5॥

074

01 दोहा

खगपति सब धरि खाए माया नाग बरुथ।
माया बिगत भए सब हरषे बानर जूथ॥1॥

मूल

खगपति सब धरि खाए माया नाग बरुथ।
माया बिगत भए सब हरषे बानर जूथ॥1॥

भावार्थ

पक्षीराज गरुडजी सब माया-सर्पों के समूहों को पकडकर खा गए। तब सब वानरों के झुण्ड माया से रहित होकर हर्षित हुए॥1॥

गहि गिरि पादप उपल नख धाए कीस रिसाइ।
चले तमीचर बिकलतर गढ पर चढे पराइ॥2॥

मूल

गहि गिरि पादप उपल नख धाए कीस रिसाइ।
चले तमीचर बिकलतर गढ पर चढे पराइ॥2॥

भावार्थ

पर्वत, वृक्ष, पत्थर और नख धारण किए वानर क्रोधित होकर दौडे। निशाचर विशेष व्याकुल होकर भाग चले और भागकर किले पर चढ गए॥2॥

02 चौपाई

मेघनाद कै मुरछा जागी। पितहि बिलोकि लाज अति लागी॥
तुरत गयउ गिरिबर कन्दरा। करौं अजय मख अस मन धरा॥1॥

मूल

मेघनाद कै मुरछा जागी। पितहि बिलोकि लाज अति लागी॥
तुरत गयउ गिरिबर कन्दरा। करौं अजय मख अस मन धरा॥1॥

भावार्थ

मेघनाद की मूर्च्छा छूटी, (तब) पिता को देखकर उसे बडी शर्म लगी। मैं अजय (अजेय होने को) यज्ञ करूँ, ऐसा मन में निश्चय करके वह तुरन्त श्रेष्ठ पर्वत की गुफा में चला गया॥1॥

इहाँ बिभीषन मन्त्र बिचारा। सुनहु नाथ बल अतुल उदारा॥
मेघनाद मख करइ अपावन। खल मायावी देव सतावन॥2॥

मूल

इहाँ बिभीषन मन्त्र बिचारा। सुनहु नाथ बल अतुल उदारा॥
मेघनाद मख करइ अपावन। खल मायावी देव सतावन॥2॥

भावार्थ

यहाँ विभीषण ने सलाह विचारी (और श्री रामचन्द्रजी से कहा-) हे अतुलनीय बलवान्‌ उदार प्रभो! देवताओं को सताने वाला दुष्ट, मायावी मेघनाद अपवित्र यज्ञ कर रहा है॥2॥

जौं प्रभु सिद्ध होइ सो पाइहि। नाथ बेगि पुनि जीति न जाइहि॥
सुनि रघुपति अतिसय सुख माना। बोले अङ्गदादि कपि नाना॥3॥

मूल

जौं प्रभु सिद्ध होइ सो पाइहि। नाथ बेगि पुनि जीति न जाइहि॥
सुनि रघुपति अतिसय सुख माना। बोले अङ्गदादि कपि नाना॥3॥

भावार्थ

हे प्रभो! यदि वह यज्ञ सिद्ध हो पाएगा तो हे नाथ! फिर मेघनाद जल्दी जीता न जा सकेगा। यह सुनकर श्री रघुनाथजी ने बहुत सुख माना और अङ्गदादि बहुत से वानरों को बुलाया (और कहा-)॥3॥

लछिमन सङ्ग जाहु सब भाई। करहु बिधंस जग्य कर जाई॥
तुम्ह लछिमन मारेहु रन ओही। देखि सभय सुर दुख अति मोही॥4॥

मूल

लछिमन सङ्ग जाहु सब भाई। करहु बिधंस जग्य कर जाई॥
तुम्ह लछिमन मारेहु रन ओही। देखि सभय सुर दुख अति मोही॥4॥

भावार्थ

हे भाइयों! सब लोग लक्ष्मण के साथ जाओ और जाकर यज्ञ को विध्वंस करो। हे लक्ष्मण! सङ्ग्राम में तुम उसे मारना। देवताओं को भयभीत देखकर मुझे बडा दुःख है॥4॥

मारेहु तेहि बल बुद्धि उपाई। जेहिं छीजै निसिचर सुनु भाई॥
जामवन्त सुग्रीव बिभीषन। सेन समेत रहेहु तीनिउ जन॥5॥

मूल

मारेहु तेहि बल बुद्धि उपाई। जेहिं छीजै निसिचर सुनु भाई॥
जामवन्त सुग्रीव बिभीषन। सेन समेत रहेहु तीनिउ जन॥5॥

भावार्थ

हे भाई! सुनो, उसको ऐसे बल और बुद्धि के उपाय से मारना, जिससे निशाचर का नाश हो। हे जाम्बवान, सुग्रीव और विभीषण! तुम तीनों जन सेना समेत (इनके) साथ रहना॥5॥

जब रघुबीर दीन्हि अनुसासन। कटि निषङ्ग कसि साजि सरासन॥
प्रभु प्रताप उर धरि रनधीरा। बोले घन इव गिरा गँभीरा॥6॥

मूल

जब रघुबीर दीन्हि अनुसासन। कटि निषङ्ग कसि साजि सरासन॥
प्रभु प्रताप उर धरि रनधीरा। बोले घन इव गिरा गँभीरा॥6॥

भावार्थ

(इस प्रकार) जब श्री रघुवीर ने आज्ञा दी, तब कमर में तरकस कसकर और धनुष सजाकर (चढाकर) रणधीर श्री लक्ष्मणजी प्रभु के प्रताप को हृदय में धारण करके मेघ के समान गम्भीर वाणी बोले-॥6॥

जौं तेहि आजु बन्धे बिनु आवौं। तौ रघुपति सेवक न कहावौं॥
जौं सत सङ्कर करहिं सहाई। तदपि हतउँ रघुबीर दोहाई॥7॥

मूल

जौं तेहि आजु बन्धे बिनु आवौं। तौ रघुपति सेवक न कहावौं॥
जौं सत सङ्कर करहिं सहाई। तदपि हतउँ रघुबीर दोहाई॥7॥

भावार्थ

यदि मैं आज उसे बिना मारे आऊँ, तो श्री रघुनाथजी का सेवक न कहलाऊँ। यदि सैकडों शङ्कर भी उसकी सहायता करें तो भी श्री रघुवीर की दुहाई है, आज मैं उसे मार ही डालूँगा॥7॥

075

01 दोहा

रघुपति चरन नाइ सिरु चलेउ तुरन्त अनन्त।
अङ्गद नील मयन्द नल सङ्ग सुभट हनुमन्त॥75॥

मूल

रघुपति चरन नाइ सिरु चलेउ तुरन्त अनन्त।
अङ्गद नील मयन्द नल सङ्ग सुभट हनुमन्त॥75॥

भावार्थ

श्री रघुनाथजी के चरणों में सिर नवाकर शेषावतार श्री लक्ष्मणजी तुरन्त चले। उनके साथ अङ्गद, नील, मयन्द, नल और हनुमान आदि उत्तम योद्धा थे॥75॥

02 चौपाई

जाइ कपिन्ह सो देखा बैसा। आहुति देत रुधिर अरु भैंसा॥
कीन्ह कपिन्ह सब जग्य बिधंसा। जब न उठइ तब करहिं प्रसंसा॥1॥

मूल

जाइ कपिन्ह सो देखा बैसा। आहुति देत रुधिर अरु भैंसा॥
कीन्ह कपिन्ह सब जग्य बिधंसा। जब न उठइ तब करहिं प्रसंसा॥1॥

भावार्थ

वानरों ने जाकर देखा कि वह बैठा हुआ खून और भैंसे की आहुति दे रहा है। वानरों ने सब यज्ञ विध्वंस कर दिया। फिर भी वह नहीं उठा, तब वे उसकी प्रशंसा करने लगे॥1॥

तदपि न उठइ धरेन्हि कच जाई। लातन्हि हति हति चले पराई॥
लै त्रिसूल धावा कपि भागे। आए जहँ रामानुज आगे॥2॥

मूल

तदपि न उठइ धरेन्हि कच जाई। लातन्हि हति हति चले पराई॥
लै त्रिसूल धावा कपि भागे। आए जहँ रामानुज आगे॥2॥

भावार्थ

इतने पर भी वह न उठा, (तब) उन्होन्ने जाकर उसके बाल पकडे और लातों से मार-मारकर वे भाग चले। वह त्रिशूल लेकर दौडा, तब वानर भागे और वहाँ आ गए, जहाँ आगे लक्ष्मणजी खडे थे॥2॥

आवा परम क्रोध कर मारा। गर्ज घोर रव बारहिं बारा॥
कोपि मरुतसुत अङ्गद धाए। हति त्रिसूल उर धरनि गिराए॥3॥

मूल

आवा परम क्रोध कर मारा। गर्ज घोर रव बारहिं बारा॥
कोपि मरुतसुत अङ्गद धाए। हति त्रिसूल उर धरनि गिराए॥3॥

भावार्थ

वह अत्यन्त क्रोध का मारा हुआ आया और बार-बार भयङ्कर शब्द करके गरजने लगा। मारुति (हनुमान्‌) और अङ्गद क्रोध करके दौडे। उसने छाती में त्रिशूल मारकर दोनों को धरती पर गिरा दिया॥3॥

प्रभु कहँ छाँडेसि सूल प्रचण्डा। सर हति कृत अनन्त जुग खण्डा॥
उठि बहोरि मारुति जुबराजा। हतहिं कोपि तेहि घाउ न बाजा॥4॥

मूल

प्रभु कहँ छाँडेसि सूल प्रचण्डा। सर हति कृत अनन्त जुग खण्डा॥
उठि बहोरि मारुति जुबराजा। हतहिं कोपि तेहि घाउ न बाजा॥4॥

भावार्थ

फिर उसने प्रभु श्री लक्ष्मणजी पर त्रिशूल छोडा। अनन्त (श्री लक्ष्मणजी) ने बाण मारकर उसके दो टुकडे कर दिए। हनुमान्‌जी और युवराज अङ्गद फिर उठकर क्रोध करके उसे मारने लगे, उसे चोट न लगी॥4॥

फिरे बीर रिपु मरइ न मारा। तब धावा करि घोर चिकारा॥
आवत देखि कुरद्ध जनु काला। लछिमन छाडे बिसिख कराला॥5॥

मूल

फिरे बीर रिपु मरइ न मारा। तब धावा करि घोर चिकारा॥
आवत देखि कुरद्ध जनु काला। लछिमन छाडे बिसिख कराला॥5॥

भावार्थ

शत्रु (मेघनाद) मारे नहीं मरता, यह देखकर जब वीर लौटे, तब वह घोर चिग्घाड करके दौडा। उसे क्रुद्ध काल की तरह आता देखकर लक्ष्मणजी ने भयानक बाण छोडे॥5॥

देखेसि आवत पबि सम बाना। तुरत भयउ खल अन्तरधाना॥
बिबिध बेष धरि करइ लराई। कबहुँक प्रगट कबहुँ दुरि जाई॥6॥

मूल

देखेसि आवत पबि सम बाना। तुरत भयउ खल अन्तरधाना॥
बिबिध बेष धरि करइ लराई। कबहुँक प्रगट कबहुँ दुरि जाई॥6॥

भावार्थ

वज्र के समान बाणों को आते देखकर वह दुष्ट तुरन्त अन्तर्धान हो गया और फिर भाँति-भाँति के रूप धारण करके युद्ध करने लगा। वह कभी प्रकट होता था और कभी छिप जाता था॥6॥

देखि अजय रिपु डरपे कीसा। परम क्रुद्ध तब भयउ अहीसा॥
लछिमन मन अस मन्त्र दृढावा। ऐहि पापिहि मैं बहुत खेलावा॥7॥

मूल

देखि अजय रिपु डरपे कीसा। परम क्रुद्ध तब भयउ अहीसा॥
लछिमन मन अस मन्त्र दृढावा। ऐहि पापिहि मैं बहुत खेलावा॥7॥

भावार्थ

शत्रु को पराजित न होता देखकर वानर डरे। तब सर्पराज शेषजी (लक्ष्मणजी) बहुत क्रोधित हुए। लक्ष्मणजी ने मन में यह विचार दृढ किया कि इस पापी को मैं बहुत खेला चुका (अब और अधिक खेलाना अच्छा नहीं, अब तो इसे समाप्त ही कर देना चाहिए।)॥7॥

सुमिरि कोसलाधीस प्रतापा। सर सन्धान कीन्ह करि दापा॥
छाडा बान माझ उर लागा। मरती बार कपटु सब त्यागा॥8॥

मूल

सुमिरि कोसलाधीस प्रतापा। सर सन्धान कीन्ह करि दापा॥
छाडा बान माझ उर लागा। मरती बार कपटु सब त्यागा॥8॥

भावार्थ

कोसलपति श्री रामजी के प्रताप का स्मरण करके लक्ष्मणजी ने वीरोचित दर्प करके बाण का सन्धान किया। बाण छोडते ही उसकी छाती के बीच में लगा। मरते समय उसने सब कपट त्याग दिया॥8॥

076

01 दोहा

रामानुज कहँ रामु कहँ अस कहि छाँडेसि प्रान।
धन्य धन्य तव जननी कह अङ्गद हनुमान॥76॥

मूल

रामानुज कहँ रामु कहँ अस कहि छाँडेसि प्रान।
धन्य धन्य तव जननी कह अङ्गद हनुमान॥76॥

भावार्थ

राम के छोटे भाई लक्ष्मण कहाँ हैं? राम कहाँ हैं? ऐसा कहकर उसने प्राण छोड दिए। अङ्गद और हनुमान कहने लगे- तेरी माता धन्य है, धन्य है (जो तू लक्ष्मणजी के हाथों मरा और मरते समय श्री राम-लक्ष्मण को स्मरण करके तूने उनके नामों का उच्चारण किया।)॥76॥

02 चौपाई

बिनु प्रयास हनुमान उठायो। लङ्का द्वार राखि पुनि आयो॥
तासु मरन सुनि सुर गन्धर्बा। चढि बिमान आए नभ सर्बा॥1॥

मूल

बिनु प्रयास हनुमान उठायो। लङ्का द्वार राखि पुनि आयो॥
तासु मरन सुनि सुर गन्धर्बा। चढि बिमान आए नभ सर्बा॥1॥

भावार्थ

हनुमान्‌जी ने उसको बिना ही परिश्रम के उठा लिया और लङ्का के दरवाजे पर रखकर वे लौट आए। उसका मरना सुनकर देवता और गन्धर्व आदि सब विमानों पर चढकर आकाश में आए॥1॥

बरषि सुमन दुन्दुभीं बजावहिं। श्रीरघुनाथ बिमल जसु गावहिं॥
जय अनन्त जय जगदाधारा। तुम्ह प्रभु सब देवन्हि निस्तारा॥2॥

मूल

बरषि सुमन दुन्दुभीं बजावहिं। श्रीरघुनाथ बिमल जसु गावहिं॥
जय अनन्त जय जगदाधारा। तुम्ह प्रभु सब देवन्हि निस्तारा॥2॥

भावार्थ

वे फूल बरसाकर नगाडे बजाते हैं और श्री रघुनाथजी का निर्मल यश गाते हैं। हे अनन्त! आपकी जय हो, हे जगदाधार! आपकी जय हो। हे प्रभो! आपने सब देवताओं का (महान्‌ विपत्ति से) उद्धार किया॥2॥

अस्तुति करि सुर सिद्ध सिधाए। लछिमन कृपासिन्धु पहिं आए॥
सुत बध सुना दसानन जबहीं। मुरुछित भयउ परेउ महि तबहीं॥3॥

मूल

अस्तुति करि सुर सिद्ध सिधाए। लछिमन कृपासिन्धु पहिं आए॥
सुत बध सुना दसानन जबहीं। मुरुछित भयउ परेउ महि तबहीं॥3॥

भावार्थ

देवता और सिद्ध स्तुति करके चले गए, तब लक्ष्मणजी कृपा के समुद्र श्री रामजी के पास आए। रावण ने ज्यों ही पुत्रवध का समाचार सुना, त्यों ही वह मूर्च्छित होकर पृथ्वी पर गिर पडा॥3॥

मन्दोदरी रुदन कर भारी। उर ताडन बहु भाँति पुकारी॥
रनगर लोग सब ब्याकुल सोचा। सकल कहहिं दसकन्धर पोचा॥4॥

मूल

मन्दोदरी रुदन कर भारी। उर ताडन बहु भाँति पुकारी॥
रनगर लोग सब ब्याकुल सोचा। सकल कहहिं दसकन्धर पोचा॥4॥

भावार्थ

मन्दोदरी छाती पीट-पीटकर और बहुत प्रकार से पुकार-पुकारकर बडा भारी विलाप करने लगी। नगर के सब लोग शोक से व्याकुल हो गए। सभी रावण को नीच कहने लगे॥4॥

077

01 दोहा

तब दसकण्ठ बिबिधि बिधि समुझाईं सब नारि।
नस्वर रूप जगत सब देखहु हृदयँ बिचारि॥77॥

मूल

तब दसकण्ठ बिबिधि बिधि समुझाईं सब नारि।
नस्वर रूप जगत सब देखहु हृदयँ बिचारि॥77॥

भावार्थ

तब रावण ने सब स्त्रियों को अनेकों प्रकार से समझाया कि समस्त जगत्‌ का यह (दृश्य)रूप नाशवान्‌ है, हृदय में विचारकर देखो॥77॥

02 चौपाई

तिन्हहि ग्यान उपदेसा रावन। आपुन मन्द कथा सुभ पावन॥
पर उपदेस कुसल बहुतेरे। जे आचरहिं ते नर न घनेरे॥1॥

मूल

तिन्हहि ग्यान उपदेसा रावन। आपुन मन्द कथा सुभ पावन॥
पर उपदेस कुसल बहुतेरे। जे आचरहिं ते नर न घनेरे॥1॥

भावार्थ

रावण ने उनको ज्ञान का उपदेश किया। वह स्वयं तो नीच है, पर उसकी कथा (बातें) शुभ और पवित्र हैं। दूसरों को उपदेश देने में तो बहुत लोग निपुण होते हैं। पर ऐसे लोग अधिक नहीं हैं, जो उपदेश के अनुसार आचरण भी करते हैं॥1॥

निसा सिरानि भयउ भिनुसारा। लगे भालु कपि चारिहुँ द्वारा॥
सुभट बोलाइ दसानन बोला। रन सन्मुख जाकर मन डोला॥2॥

मूल

निसा सिरानि भयउ भिनुसारा। लगे भालु कपि चारिहुँ द्वारा॥
सुभट बोलाइ दसानन बोला। रन सन्मुख जाकर मन डोला॥2॥

भावार्थ

रात बीत गई, सबेरा हुआ। रीछ-वानर (फिर) चारों दरवाजों पर जा डटे। योद्धाओं को बुलाकर दशमुख रावण ने कहा- लडाई में शत्रु के सम्मुख मन डाँवाडोल हो,॥2॥

सो अबहीं बरु जाउ पराई। सञ्जुग बिमुख भएँ न भलाई॥
निज भुज बल मैं बयरु बढावा। देहउँ उतरु जो रिपु चढि आवा॥3॥

मूल

सो अबहीं बरु जाउ पराई। सञ्जुग बिमुख भएँ न भलाई॥
निज भुज बल मैं बयरु बढावा। देहउँ उतरु जो रिपु चढि आवा॥3॥

भावार्थ

अच्छा है वह अभी भाग जाए। युद्ध में जाकर विमुख होने (भागने) में भलाई नहीं है। मैन्ने अपनी भुजाओं के बल पर बैर बढाया है। जो शत्रु चढ आया है, उसको मैं (अपने ही) उत्तर दे लूँगा॥3॥

अस कहि मरुत बेग रथ साजा। बाजे सकल जुझाऊ बाजा॥
चले बीर सब अतुलित बली। जनु कज्जल कै आँधी चली॥4॥

मूल

अस कहि मरुत बेग रथ साजा। बाजे सकल जुझाऊ बाजा॥
चले बीर सब अतुलित बली। जनु कज्जल कै आँधी चली॥4॥

भावार्थ

ऐसा कहकर उसने पवन के समान तेज चलने वाला रथ सजाया। सारे जुझाऊ (लडाई के) बाजे बजने लगे। सब अतुलनीय बलवान्‌ वीर ऐसे चले मानो काजल की आँधी चली हो॥4॥

असगुन अमित होहिं तेहि काला।
गनइ न भुज बल गर्ब बिसाला॥5॥

मूल

असगुन अमित होहिं तेहि काला।
गनइ न भुज बल गर्ब बिसाला॥5॥

भावार्थ

उस समय असङ्ख्य अपशकुन होने लगे। पर अपनी भुजाओं के बल का बडा गर्व होने से रावण उन्हें गिनता नहीं है॥5॥

03 छन्द

अति गर्ब गनइ न सगुन असगुन स्रवहिं आयुध हाथ ते।
भट गिरत रथ ते बाजि गज चिक्करत भाजहिं साथ ते॥
गोमाय गीध कराल खर रव स्वान बोलहिं अति घने।
जनु कालदूत उलूक बोलहिं बचन परम भयावने॥

मूल

अति गर्ब गनइ न सगुन असगुन स्रवहिं आयुध हाथ ते।
भट गिरत रथ ते बाजि गज चिक्करत भाजहिं साथ ते॥
गोमाय गीध कराल खर रव स्वान बोलहिं अति घने।
जनु कालदूत उलूक बोलहिं बचन परम भयावने॥

भावार्थ

अत्यन्त गर्व के कारण वह शकुन-अपशकुन का विचार नहीं करता। हथियार हाथों से गिर रहे हैं। योद्धा रथ से गिर पडते हैं। घोडे, हाथी साथ छोडकर चिग्घाडते हुए भाग जाते हैं। स्यार, गीध, कौए और गदहे शब्द कर रहे हैं। बहुत अधिक कुत्ते बोल रहे हैं। उल्लू ऐसे अत्यन्त भयानक शब्द कर रहे हैं, मानो काल के दूत हों। (मृत्यु का सन्देसा सुना रहे हों)।

078

01 दोहा

ताहि कि सम्पति सगुन सुभ सपनेहुँ मन बिश्राम।
भूत द्रोह रत मोहबस राम बिमुख रति काम॥78॥

मूल

ताहि कि सम्पति सगुन सुभ सपनेहुँ मन बिश्राम।
भूत द्रोह रत मोहबस राम बिमुख रति काम॥78॥

भावार्थ

जो जीवों के द्रोह में रत है, मोह के बस हो रहा है, रामविमुख है और कामासक्त है, उसको क्या कभी स्वप्न में भी सम्पत्ति, शुभ शकुन और चित्त की शान्ति हो सकती है?॥78॥

02 चौपाई

चलेउ निसाचर कटकु अपारा। चतुरङ्गिनी अनी बहु धारा॥
बिबिधि भाँति बाहन रथ जाना। बिपुल बरन पताक ध्वज नाना॥1॥

मूल

चलेउ निसाचर कटकु अपारा। चतुरङ्गिनी अनी बहु धारा॥
बिबिधि भाँति बाहन रथ जाना। बिपुल बरन पताक ध्वज नाना॥1॥

भावार्थ

राक्षसों की अपार सेना चली। चतुरङ्गिणी सेना की बहुत सी Uटुकडियाँ हैं। अनेकों प्रकार के वाहन, रथ और सवारियाँ हैं तथा बहुत से रङ्गों की अनेकों पताकाएँ और ध्वजाएँ हैं॥1॥

चले मत्त गज जूथ घनेरे। प्राबिट जलद मरुत जनु प्रेरे॥
बरन बरन बिरदैत निकाया। समर सूर जानहिं बहु माया॥2॥

मूल

चले मत्त गज जूथ घनेरे। प्राबिट जलद मरुत जनु प्रेरे॥
बरन बरन बिरदैत निकाया। समर सूर जानहिं बहु माया॥2॥

भावार्थ

मतवाले हाथियों के बहुत से झुण्ड चले। मानो पवन से प्रेरित हुए वर्षा ऋतु के बादल हों। रङ्ग-बिरङ्गे बाना धारण करने वाले वीरों के समूह हैं, जो युद्ध में बडे शूरवीर हैं और बहुत प्रकार की माया जानते हैं॥2॥

अति बिचित्र बाहिनी बिराजी। बीर बसन्त सेन जनु साजी॥
चलत कटक दिगसिन्धुर डगहीं। छुभित पयोधि कुधर डगमगहीं॥3॥

मूल

अति बिचित्र बाहिनी बिराजी। बीर बसन्त सेन जनु साजी॥
चलत कटक दिगसिन्धुर डगहीं। छुभित पयोधि कुधर डगमगहीं॥3॥

भावार्थ

अत्यन्त विचित्र फौज शोभित है। मानो वीर वसन्त ने सेना सजाई हो। सेना के चलने से दिशाओं के हाथी डिगने लगे, समुद्र क्षुभित हो गए और पर्वत डगमगाने लगे॥3॥

उठी रेनु रबि गयउ छपाई। मरुत थकित बसुधा अकुलाई॥
पनव निसान घोर रव बाजहिं। प्रलय समय के घन जनु गाजहिं॥4॥

मूल

उठी रेनु रबि गयउ छपाई। मरुत थकित बसुधा अकुलाई॥
पनव निसान घोर रव बाजहिं। प्रलय समय के घन जनु गाजहिं॥4॥

भावार्थ

इतनी धूल उडी कि सूर्य छिप गए। (फिर सहसा) पवन रुक गया और पृथ्वी अकुला उठी। ढोल और नगाडे भीषण ध्वनि से बज रहे हैं, जैसे प्रलयकाल के बादल गरज रहे हों॥4॥

भेरि नफीरि बाज सहनाई। मारू राग सुभट सुखदाई॥
केहरि नाद बीर सब करहीं। निज निज बल पौरुष उच्चरहीं॥5॥

मूल

भेरि नफीरि बाज सहनाई। मारू राग सुभट सुखदाई॥
केहरि नाद बीर सब करहीं। निज निज बल पौरुष उच्चरहीं॥5॥

भावार्थ

भेरी, नफीरी (तुरही) और शहनाई में योद्धाओं को सुख देने वाला मारू राग बज रहा है। सब वीर सिंहनाद करते हैं और अपने-अपने बल पौरुष का बखान कर रहे हैं॥5॥

कहइ दसानन सुनहू सुभट्टा। मर्दहु भालु कपिन्ह के ठट्टा॥
हौं मारिहउँ भूप द्वौ भाई। अस कहि सन्मुख फौज रेङ्गाई॥6॥

मूल

कहइ दसानन सुनहू सुभट्टा। मर्दहु भालु कपिन्ह के ठट्टा॥
हौं मारिहउँ भूप द्वौ भाई। अस कहि सन्मुख फौज रेङ्गाई॥6॥

भावार्थ

रावण ने कहा- हे उत्तम योद्धाओं! सुनो तुम रीछ-वानरों के ठट्ट को मसल डालो और मैं दोनों राजकुमार भाइयों को मारूँगा। ऐसा कहकर उसने अपनी सेना सामने चलाई॥6॥

यह सुधि सकल कपिन्ह जब पाई। धाए करि रघुबीर दोहाई॥7॥

मूल

यह सुधि सकल कपिन्ह जब पाई। धाए करि रघुबीर दोहाई॥7॥

भावार्थ

जब सब वानरों ने यह खबर पाई, तब वे श्री राम की दुहाई देते हुए दौडे॥7॥

03 छन्द

धाए बिसाल कराल मर्कट भालु काल समान ते।
मानहुँ सपच्छ उडाहिं भूधर बृन्द नाना बान ते॥
नख दसन सैल महाद्रुमायुध सबल सङ्क न मानहीं।
जय राम रावन मत्त गज मृगराज सुजसु बखानहीं॥

मूल

धाए बिसाल कराल मर्कट भालु काल समान ते।
मानहुँ सपच्छ उडाहिं भूधर बृन्द नाना बान ते॥
नख दसन सैल महाद्रुमायुध सबल सङ्क न मानहीं।
जय राम रावन मत्त गज मृगराज सुजसु बखानहीं॥

भावार्थ

वे विशाल और काल के समान कराल वानर-भालू दौडे। मानो पङ्ख वाले पर्वतों के समूह उड रहे हों। वे अनेक वर्णों के हैं। नख, दाँत, पर्वत और बडे-बडे वृक्ष ही उनके हथियार हैं। वे बडे बलवान्‌ हैं और किसी का भी डर नहीं मानते। रावण रूपी मतवाले हाथी के लिए सिंह रूप श्री रामजी का जय-जयकार करके वे उनके सुन्दर यश का बखान करते हैं।

079

01 दोहा

दुहु दिसि जय जयकार करि निज जोरी जानि।
भिरे बीर इत रामहि उत रावनहि बखानि॥79॥

मूल

दुहु दिसि जय जयकार करि निज जोरी जानि।
भिरे बीर इत रामहि उत रावनहि बखानि॥79॥

भावार्थ

दोनों ओर के योद्धा जय-जयकार करके अपनी-अपनी जोडी जान (चुन) कर इधर श्री रघुनाथजी का और उधर रावण का बखान करके परस्पर भिड गए॥79॥

02 चौपाई

रावनु रथी बिरथ रघुबीरा। देखि बिभीषन भयउ अधीरा॥
अधिक प्रीति मन भा सन्देहा। बन्दि चरन कह सहित सनेहा॥1॥

मूल

रावनु रथी बिरथ रघुबीरा। देखि बिभीषन भयउ अधीरा॥
अधिक प्रीति मन भा सन्देहा। बन्दि चरन कह सहित सनेहा॥1॥

भावार्थ

रावण को रथ पर और श्री रघुवीर को बिना रथ के देखकर विभीषण अधीर हो गए। प्रेम अधिक होने से उनके मन में सन्देह हो गया (कि वे बिना रथ के रावण को कैसे जीत सकेङ्गे)। श्री रामजी के चरणों की वन्दना करके वे स्नेह पूर्वक कहने लगे॥1॥

नाथ न रथ नहि तन पद त्राना। केहि बिधि जितब बीर बलवाना॥
सुनहु सखा कह कृपानिधाना। जेहिं जय होइ सो स्यन्दन आना॥2॥

मूल

नाथ न रथ नहि तन पद त्राना। केहि बिधि जितब बीर बलवाना॥
सुनहु सखा कह कृपानिधाना। जेहिं जय होइ सो स्यन्दन आना॥2॥

भावार्थ

हे नाथ! आपके न रथ है, न तन की रक्षा करने वाला कवच है और न जूते ही हैं। वह बलवान्‌ वीर रावण किस प्रकार जीता जाएगा? कृपानिधान श्री रामजी ने कहा- हे सखे! सुनो, जिससे जय होती है, वह रथ दूसरा ही है॥2॥

सौरज धीरज तेहि रथ चाका। सत्य सील दृढ ध्वजा पताका॥
बल बिबेक दम परहित घोरे। छमा कृपा समता रजु जोरे॥3॥

मूल

सौरज धीरज तेहि रथ चाका। सत्य सील दृढ ध्वजा पताका॥
बल बिबेक दम परहित घोरे। छमा कृपा समता रजु जोरे॥3॥

भावार्थ

शौर्य और धैर्य उस रथ के पहिए हैं। सत्य और शील (सदाचार) उसकी मजबूत ध्वजा और पताका हैं। बल, विवेक, दम (इन्द्रियों का वश में होना) और परोपकार- ये चार उसके घोडे हैं, जो क्षमा, दया और समता रूपी डोरी से रथ में जोडे हुए हैं॥3॥

ईस भजनु सारथी सुजाना। बिरति चर्म सन्तोष कृपाना॥
दान परसु बुधि सक्ति प्रचण्डा। बर बिग्यान कठिन कोदण्डा॥4॥

मूल

ईस भजनु सारथी सुजाना। बिरति चर्म सन्तोष कृपाना॥
दान परसु बुधि सक्ति प्रचण्डा। बर बिग्यान कठिन कोदण्डा॥4॥

भावार्थ

ईश्वर का भजन ही (उस रथ को चलाने वाला) चतुर सारथी है। वैराग्य ढाल है और सन्तोष तलवार है। दान फरसा है, बुद्धि प्रचण्ड शक्ति है, श्रेष्ठ विज्ञान कठिन धनुष है॥4॥

अमल अचल मन त्रोन समाना। सम जम नियम सिलीमुख नाना॥
कवच अभेद बिप्र गुर पूजा। एहि सम बिजय उपाय न दूजा॥5॥

मूल

अमल अचल मन त्रोन समाना। सम जम नियम सिलीमुख नाना॥
कवच अभेद बिप्र गुर पूजा। एहि सम बिजय उपाय न दूजा॥5॥

भावार्थ

निर्मल (पापरहित) और अचल (स्थिर) मन तरकस के समान है। शम (मन का वश में होना), (अहिंसादि) यम और (शौचादि) नियम- ये बहुत से बाण हैं। ब्राह्मणों और गुरु का पूजन अभेद्य कवच है। इसके समान विजय का दूसरा उपाय नहीं है॥5॥

सखा धर्ममय अस रथ जाकें। जीतन कहँ न कतहुँ रिपु ताकें॥6॥

मूल

सखा धर्ममय अस रथ जाकें। जीतन कहँ न कतहुँ रिपु ताकें॥6॥

भावार्थ

हे सखे! ऐसा धर्ममय रथ जिसके हो उसके लिए जीतने को कहीं शत्रु ही नहीं है॥6॥

080

01 दोहा

महा अजय संसार रिपु जीति सकइ सो बीर।
जाकें अस रथ होइ दृढ सुनहु सखा मतिधीर॥1॥

मूल

महा अजय संसार रिपु जीति सकइ सो बीर।
जाकें अस रथ होइ दृढ सुनहु सखा मतिधीर॥1॥

भावार्थ

हे धीरबुद्धि वाले सखा! सुनो, जिसके पास ऐसा दृढ रथ हो, वह वीर संसार (जन्म-मृत्यु) रूपी महान्‌ दुर्जय शत्रु को भी जीत सकता है (रावण की तो बात ही क्या है)॥1॥

सुनि प्रभु बचन बिभीषन हरषि गहे पद कञ्ज।
एहि मिस मोहि उपदेसेहु राम कृपा सुख पुञ्ज॥80 ख

मूल

सुनि प्रभु बचन बिभीषन हरषि गहे पद कञ्ज।
एहि मिस मोहि उपदेसेहु राम कृपा सुख पुञ्ज॥80 ख

भावार्थ

प्रभु के वचन सुनकर विभीषणजी ने हर्षित होकर उनके चरण कमल पकड लिए (और कहा-) हे कृपा और सुख के समूह श्री रामजी! आपने इसी बहाने मुझे (महान्‌) उपदेश दिया॥2॥

उत पचार दसकन्धर इत अङ्गद हनुमान।
लरत निसाचर भालु कपि करि निज निज प्रभु आन॥3॥

मूल

उत पचार दसकन्धर इत अङ्गद हनुमान।
लरत निसाचर भालु कपि करि निज निज प्रभु आन॥3॥

भावार्थ

उधर से रावण ललकार रहा है और इधर से अङ्गद और हनुमान्‌। राक्षस और रीछ-वानर अपने-अपने स्वामी की दुहाई देकर लड रहे हैं॥3॥

02 चौपाई

सुर ब्रह्मादि सिद्ध मुनि नाना। देखत रन नभ चढे बिमाना॥
हमहू उमा रहे तेहिं सङ्गा। देखत राम चरित रन रङ्गा॥1॥

मूल

सुर ब्रह्मादि सिद्ध मुनि नाना। देखत रन नभ चढे बिमाना॥
हमहू उमा रहे तेहिं सङ्गा। देखत राम चरित रन रङ्गा॥1॥

भावार्थ

ब्रह्मा आदि देवता और अनेकों सिद्ध तथा मुनि विमानों पर चढे हुए आकाश से युद्ध देख रहे हैं। (शिवजी कहते हैं-) हे उमा! मैं भी उस समाज में था और श्री रामजी के रण-रङ्ग (रणोत्साह) की लीला देख रहा था॥1॥

सुभट समर रस दुहु दिसि माते। कपि जयसील राम बल ताते॥
एक एक सन भिरहिं पचारहिं। एकन्ह एक मर्दि महि पारहिं॥2॥

मूल

सुभट समर रस दुहु दिसि माते। कपि जयसील राम बल ताते॥
एक एक सन भिरहिं पचारहिं। एकन्ह एक मर्दि महि पारहिं॥2॥

भावार्थ

दोनों ओर के योद्धा रण रस में मतवाले हो रहे हैं। वानरों को श्री रामजी का बल है, इससे वे जयशील हैं (जीत रहे हैं)। एक-दूसरे से भिडते और ललकारते हैं और एक-दूसरे को मसल-मसलकर पृथ्वी पर डाल देते हैं॥2॥

मारहिं काटहिं धरहिं पछारहिं। सीस तोरि सीसन्ह सन मारहिं॥
उदर बिदारहिं भुजा उपारहिं। गहि पद अवनि पटकि भट डारहिं॥3॥

मूल

मारहिं काटहिं धरहिं पछारहिं। सीस तोरि सीसन्ह सन मारहिं॥
उदर बिदारहिं भुजा उपारहिं। गहि पद अवनि पटकि भट डारहिं॥3॥

भावार्थ

वे मारते, काटते, पकडते और पछाड देते हैं और सिर तोडकर उन्हीं सिरों से दूसरों को मारते हैं। पेट फाडते हैं, भुजाएँ उखाडते हैं और योद्धाओं को पैर पकडकर पृथ्वी पर पटक देते हैं॥3॥

निसिचर भट महि गाडहिं भालू। ऊपर ढारि देहिं बहु बालू॥
बीर बलीमुख जुद्ध बिरुद्धे। देखिअत बिपुल काल जनु क्रुद्धे॥4॥

मूल

निसिचर भट महि गाडहिं भालू। ऊपर ढारि देहिं बहु बालू॥
बीर बलीमुख जुद्ध बिरुद्धे। देखिअत बिपुल काल जनु क्रुद्धे॥4॥

भावार्थ

राक्षस योद्धाओं को भालू पृथ्वी में गाड देते हैं और ऊपर से बहुत सी बालू डाल देते हैं। युद्ध में शत्रुओं से विरुद्ध हुए वीर वानर ऐसे दिखाई पडते हैं मानो बहुत से क्रोधित काल हों॥4॥

03 छन्द

क्रुद्धे कृतान्त समान कपि तन स्रवत सोनित राजहीं।
मर्दहिं निसाचर कटक भट बलवन्त घन जिमि गाजहीं॥
मारहिं चपेटन्हि डाटि दातन्ह काटि लातन्ह मीजहीं।
चिक्करहिं मर्कट भालु छल बल करहिं जेहिं खल छीजहीं॥1॥

मूल

क्रुद्धे कृतान्त समान कपि तन स्रवत सोनित राजहीं।
मर्दहिं निसाचर कटक भट बलवन्त घन जिमि गाजहीं॥
मारहिं चपेटन्हि डाटि दातन्ह काटि लातन्ह मीजहीं।
चिक्करहिं मर्कट भालु छल बल करहिं जेहिं खल छीजहीं॥1॥

भावार्थ

क्रोधित हुए काल के समान वे वानर खून बहते हुए शरीरों से शोभित हो रहे हैं। वे बलवान्‌ वीर राक्षसों की सेना के योद्धाओं को मसलते और मेघ की तरह गरजते हैं। डाँटकर चपेटों से मारते, दाँतों से काटकर लातों से पीस डालते हैं। वानर-भालू चिग्घाडते और ऐसा छल-बल करते हैं, जिससे दुष्ट राक्षस नष्ट हो जाएँ॥1॥

धरि गाल फारहिं उर बिदारहिं गल अँतावरि मेलहीं।
प्रह्लादपति जनु बिबिध तनु धरि समर अङ्गन खेलहीं॥
धरु मारु काटु पछारु घोर गिरा गगन महि भरि रही।
जय राम जो तृन ते कुलिस कर कुलिस ते कर तृन सही॥2॥

मूल

धरि गाल फारहिं उर बिदारहिं गल अँतावरि मेलहीं।
प्रह्लादपति जनु बिबिध तनु धरि समर अङ्गन खेलहीं॥
धरु मारु काटु पछारु घोर गिरा गगन महि भरि रही।
जय राम जो तृन ते कुलिस कर कुलिस ते कर तृन सही॥2॥

भावार्थ

वे राक्षसों के गाल पकडकर फाड डालते हैं, छाती चीर डालते हैं और उनकी अँतडियाँ निकालकर गले में डाल लेते हैं। वे वानर ऐसे दिख पडते हैं मानो प्रह्लाद के स्वामी श्री नृसिंह भगवान्‌ अनेकों शरीर धारण करके युद्ध के मैदान में क्रीडा कर रहे हों। पकडो, मारो, काटो, पछाडो आदि घोर शब्द आकाश और पृथ्वी में भर (छा) गए हैं। श्री रामचन्द्रजी की जय हो, जो सचमुच तृण से वज्र और वज्र से तृण कर देते हैं (निर्बल को सबल और सबल को निर्बल कर देते हैं)॥2॥

081

01 दोहा

निज दल बिचलत देखेसि बीस भुजाँ दस चाप।
रथ चढि चलेउ दसानन फिरहु फिरहु करि दाप॥81॥

मूल

निज दल बिचलत देखेसि बीस भुजाँ दस चाप।
रथ चढि चलेउ दसानन फिरहु फिरहु करि दाप॥81॥

भावार्थ

अपनी सेना को विचलित होते हुए देखा, तब बीस भुजाओं में दस धनुष लेकर रावण रथ पर चढकर गर्व करके ‘लौटो, लौटो’ कहता हुआ चला॥81॥

02 चौपाई

धायउ परम क्रुद्ध दसकन्धर। सन्मुख चले हूह दै बन्दर॥
गहि कर पादप उपल पहारा। डारेन्हि ता पर एकहिं बारा॥1॥

मूल

धायउ परम क्रुद्ध दसकन्धर। सन्मुख चले हूह दै बन्दर॥
गहि कर पादप उपल पहारा। डारेन्हि ता पर एकहिं बारा॥1॥

भावार्थ

रावण अत्यन्त क्रोधित होकर दौडा। वानर हुँकार करते हुए (लडने के लिए) उसके सामने चले। उन्होन्ने हाथों में वृक्ष, पत्थर और पहाड लेकर रावण पर एक ही साथ डाले॥1॥

लागहिं सैल बज्र तन तासू। खण्ड खण्ड होइ फूटहिं आसू॥
चला न अचल रहा रथ रोपी। रन दुर्मद रावन अति कोपी॥2॥

मूल

लागहिं सैल बज्र तन तासू। खण्ड खण्ड होइ फूटहिं आसू॥
चला न अचल रहा रथ रोपी। रन दुर्मद रावन अति कोपी॥2॥

भावार्थ

पर्वत उसके वज्रतुल्य शरीर में लगते ही तुरन्त टुकडे-टुकडे होकर फूट जाते हैं। अत्यन्त क्रोधी रणोन्मत्त रावण रथ रोककर अचल खडा रहा, (अपने स्थान से) जरा भी नहीं हिला॥2॥

इत उत झपटि दपटि कपि जोधा। मर्दै लाग भयउ अति क्रोधा॥
चले पराइ भालु कपि नाना। त्राहि त्राहि अङ्गद हनुमाना॥3॥

मूल

इत उत झपटि दपटि कपि जोधा। मर्दै लाग भयउ अति क्रोधा॥
चले पराइ भालु कपि नाना। त्राहि त्राहि अङ्गद हनुमाना॥3॥

भावार्थ

उसे बहुत ही क्रोध हुआ। वह इधर-उधर झपटकर और डपटकर वानर योद्धाओं को मसलने लगा। अनेकों वानर-भालू ‘हे अङ्गद! हे हनुमान्‌! रक्षा करो, रक्षा करो’ (पुकारते हुए) भाग चले॥3॥

पाहि पाहि रघुबीर गोसाईं। यह खल खाइ काल की नाईं॥
तेहिं देखे कपि सकल पराने। दसहुँ चाप सायक सन्धाने॥4॥

मूल

पाहि पाहि रघुबीर गोसाईं। यह खल खाइ काल की नाईं॥
तेहिं देखे कपि सकल पराने। दसहुँ चाप सायक सन्धाने॥4॥

भावार्थ

हे रघुवीर! हे गोसाईं! रक्षा कीजिए, रक्षा कीजिए। यह दुष्ट काल की भाँति हमें खा रहा है। उसने देखा कि सब वानर भाग छूटे, तब (रावण ने) दसों धनुषों पर बाण सन्धान किए॥4॥

03 छन्द

सन्धानि धनु सर निकर छाडेसि उरग जिमि उडि लागहीं।
रहे पूरि सर धरनी गगन दिसि बिदिसि कहँ कपि भागहीं॥
भयो अति कोलाहल बिकल कपि दल भालु बोलहिं आतुरे।
रघुबीर करुना सिन्धु आरत बन्धु जन रच्छक हरे॥

मूल

सन्धानि धनु सर निकर छाडेसि उरग जिमि उडि लागहीं।
रहे पूरि सर धरनी गगन दिसि बिदिसि कहँ कपि भागहीं॥
भयो अति कोलाहल बिकल कपि दल भालु बोलहिं आतुरे।
रघुबीर करुना सिन्धु आरत बन्धु जन रच्छक हरे॥

भावार्थ

उसने धनुष पर सन्धान करके बाणों के समूह छोडे। वे बाण सर्प की तरह उडकर जा लगते थे। पृथ्वी-आकाश और दिशा-विदिशा सर्वत्र बाण भर रहे हैं। वानर भागें तो कहाँ? अत्यन्त कोलाहल मच गया। वानर-भालुओं की सेना व्याकुल होकर आर्त्त पुकार करने लगी- हे रघुवीर! हे करुणासागर! हे पीडितों के बन्धु! हे सेवकों की रक्षा करके उनके दुःख हरने वाले हरि!

082

01 दोहा

निज दल बिकल देखि कटि कसि निषङ्ग धनु हाथ।
लछिमन चले क्रुद्ध होइ नाइ राम पद माथ॥82॥

मूल

निज दल बिकल देखि कटि कसि निषङ्ग धनु हाथ।
लछिमन चले क्रुद्ध होइ नाइ राम पद माथ॥82॥

भावार्थ

अपनी सेना को व्याकुल देखकर कमर में तरकस कसकर और हाथ में धनुष लेकर श्री रघुनाथजी के चरणों पर मस्तक नवाकर लक्ष्मणजी क्रोधित होकर चले॥82॥

02 चौपाई

रे खल का मारसि कपि भालू। मोहि बिलोकु तोर मैं कालू॥
खोजत रहेउँ तोहि सुतघाती। आजु निपाति जुडावउँ छाती॥1॥

मूल

रे खल का मारसि कपि भालू। मोहि बिलोकु तोर मैं कालू॥
खोजत रहेउँ तोहि सुतघाती। आजु निपाति जुडावउँ छाती॥1॥

भावार्थ

(लक्ष्मणजी ने पास जाकर कहा-) अरे दुष्ट! वानर भालुओं को क्या मार रहा है? मुझे देख, मैं तेरा काल हूँ। (रावण ने कहा-) अरे मेरे पुत्र के घातक! मैं तुझी को ढूँढ रहा था। आज तुझे मारकर (अपनी) छाती ठण्डी करूँगा॥1॥

अस कहि छाडेसि बान प्रचण्डा। लछिमन किए सकल सत खण्डा॥
कोटिन्ह आयुध रावन डारे। तिल प्रवान करि काटि निवारे॥2॥

मूल

अस कहि छाडेसि बान प्रचण्डा। लछिमन किए सकल सत खण्डा॥
कोटिन्ह आयुध रावन डारे। तिल प्रवान करि काटि निवारे॥2॥

भावार्थ

ऐसा कहकर उसने प्रचण्ड बाण छोडे। लक्ष्मणजी ने सबके सैकडों टुकडे कर डाले। रावण ने करोडों अस्त्र-शस्त्र चलाए। लक्ष्मणजी ने उनको तिल के बराबर करके काटकर हटा दिया॥2॥

पुनि निज बानन्ह कीन्ह प्रहारा। स्यन्दनु भञ्जि सारथी मारा॥
सत सत सर मारे दस भाला। गिरि सृङ्गन्ह जनु प्रबिसहिं ब्याला॥3॥

मूल

पुनि निज बानन्ह कीन्ह प्रहारा। स्यन्दनु भञ्जि सारथी मारा॥
सत सत सर मारे दस भाला। गिरि सृङ्गन्ह जनु प्रबिसहिं ब्याला॥3॥

भावार्थ

फिर अपने बाणों से (उस पर) प्रहार किया और (उसके) रथ को तोडकर सारथी को मार डाला। (रावण के) दसों मस्तकों में सौ-सौ बाण मारे। वे सिरों में ऐसे पैठ गए मानो पहाड के शिखरों में सर्प प्रवेश कर रहे हों॥3॥

पुनि सुत सर मारा उर माहीं। परेउ धरनि तल सुधि कछु नाहीं॥
उठा प्रबल पुनि मुरुछा जागी। छाडिसि ब्रह्म दीन्हि जो साँगी॥4॥

मूल

पुनि सुत सर मारा उर माहीं। परेउ धरनि तल सुधि कछु नाहीं॥
उठा प्रबल पुनि मुरुछा जागी। छाडिसि ब्रह्म दीन्हि जो साँगी॥4॥

भावार्थ

फिर सौ बाण उसकी छाती में मारे। वह पृथ्वी पर गिर पडा, उसे कुछ भी होश न रहा। फिर मूर्च्छा छूटने पर वह प्रबल रावण उठा और उसने वह शक्ति चलाई जो ब्रह्माजी ने उसे दी थी॥4॥

03 छन्द

सो ब्रह्म दत्त प्रचण्ड सक्ति अनन्त उर लागी सही।
पर्‌यो बीर बिकल उठाव दसमुख अतुल बल महिमा रही॥
ब्रह्माण्ड भवन बिराज जाकें एक सिर जिमि रज कनी।
तेहि चह उठावन मूढ रावन जान नहिं त्रिभुअन धनी॥

मूल

सो ब्रह्म दत्त प्रचण्ड सक्ति अनन्त उर लागी सही।
पर्‌यो बीर बिकल उठाव दसमुख अतुल बल महिमा रही॥
ब्रह्माण्ड भवन बिराज जाकें एक सिर जिमि रज कनी।
तेहि चह उठावन मूढ रावन जान नहिं त्रिभुअन धनी॥

भावार्थ

वह ब्रह्मा की दी हुई प्रचण्ड शक्ति लक्ष्मणजी की ठीक छाती में लगी। वीर लक्ष्मणजी व्याकुल होकर गिर पडे। तब रावण उन्हें उठाने लगा, पर उसके अतुलित बल की महिमा यों ही रह गई, (व्यर्थ हो गई, वह उन्हें उठा न सका)। जिनके एक ही सिर पर ब्रह्माण्ड रूपी भवन धूल के एक कण के समान विराजता है, उन्हें मूर्ख रावण उठाना चाहता है! वह तीनों भुवनों के स्वामी लक्ष्मणजी को नहीं जानता।

083

01 दोहा

देखि पवनसुत धायउ बोलत बचन कठोर।
आवत कपिहि हन्यो तेहिं मुष्टि प्रहार प्रघोर॥83॥

मूल

देखि पवनसुत धायउ बोलत बचन कठोर।
आवत कपिहि हन्यो तेहिं मुष्टि प्रहार प्रघोर॥83॥

भावार्थ

यह देखकर पवनपुत्र हनुमान्‌जी कठोर वचन बोलते हुए दौडे। हनुमान्‌जी के आते ही रावण ने उन पर अत्यन्त भयङ्कर घूँसे का प्रहार किया॥83॥

02 चौपाई

जानु टेकि कपि भूमि न गिरा। उठा सँभारि बहुत रिस भरा॥
मुठिका एक ताहि कपि मारा। परेउ सैल जनु बज्र प्रहारा॥1॥

मूल

जानु टेकि कपि भूमि न गिरा। उठा सँभारि बहुत रिस भरा॥
मुठिका एक ताहि कपि मारा। परेउ सैल जनु बज्र प्रहारा॥1॥

भावार्थ

हनुमान्‌जी घुटने टेककर रह गए, पृथ्वी पर गिरे नहीं और फिर क्रोध से भरे हुए सम्भलकर उठे। हनुमान्‌जी ने रावण को एक घूँसा मारा। वह ऐसा गिर पडा जैसे वज्र की मार से पर्वत गिरा हो॥1॥

मुरुछा गै बहोरि सो जागा। कपि बल बिपुल सराहन लागा॥
धिग धिग मम पौरुष धिग मोही। जौं तैं जिअत रहेसि सुरद्रोही॥2॥

मूल

मुरुछा गै बहोरि सो जागा। कपि बल बिपुल सराहन लागा॥
धिग धिग मम पौरुष धिग मोही। जौं तैं जिअत रहेसि सुरद्रोही॥2॥

भावार्थ

मूर्च्छा भङ्ग होने पर फिर वह जागा और हनुमान्‌जी के बडे भारी बल को सराहने लगा। (हनुमान्‌जी ने कहा-) मेरे पौरुष को धिक्कार है, धिक्कार है और मुझे भी धिक्कार है, जो हे देवद्रोही! तू अब भी जीता रह गया॥2॥

अस कहि लछिमन कहुँ कपि ल्यायो। देखि दसानन बिसमय पायो॥
कह रघुबीर समुझु जियँ भ्राता। तुम्ह कृतान्त भच्छक सुर त्राता॥3॥

मूल

अस कहि लछिमन कहुँ कपि ल्यायो। देखि दसानन बिसमय पायो॥
कह रघुबीर समुझु जियँ भ्राता। तुम्ह कृतान्त भच्छक सुर त्राता॥3॥

भावार्थ

ऐसा कहकर और लक्ष्मणजी को उठाकर हनुमान्‌जी श्री रघुनाथजी के पास ले आए। यह देखकर रावण को आश्चर्य हुआ। श्री रघुवीर ने (लक्ष्मणजी से) कहा- हे भाई! हृदय में समझो, तुम काल के भी भक्षक और देवताओं के रक्षक हो॥3॥

सुनत बचन उठि बैठ कृपाला। गई गगन सो सकति कराला॥
पुनि कोदण्ड बान गहि धाए। रिपु सन्मुख अति आतुर आए॥4॥

मूल

सुनत बचन उठि बैठ कृपाला। गई गगन सो सकति कराला॥
पुनि कोदण्ड बान गहि धाए। रिपु सन्मुख अति आतुर आए॥4॥

भावार्थ

ये वचन सुनते ही कृपालु लक्ष्मणजी उठ बैठे। वह कराल शक्ति आकाश को चली गई। लक्ष्मणजी फिर धनुष-बाण लेकर दौडे और बडी शीघ्रता से शत्रु के सामने आ पहुँचे॥4॥

03 छन्द

आतुर बहोरि बिभञ्जि स्यन्दन सूत हति ब्याकुल कियो।
गिर्‌यो धरनि दसकन्धर बिकलतर बान सत बेध्यो हियो॥
सारथी दूसर घालि रथ तेहि तुरत लङ्का लै गयो।
रघुबीर बन्धु प्रताप पुञ्ज बहोरि प्रभु चरनन्हि नयो॥

मूल

आतुर बहोरि बिभञ्जि स्यन्दन सूत हति ब्याकुल कियो।
गिर्‌यो धरनि दसकन्धर बिकलतर बान सत बेध्यो हियो॥
सारथी दूसर घालि रथ तेहि तुरत लङ्का लै गयो।
रघुबीर बन्धु प्रताप पुञ्ज बहोरि प्रभु चरनन्हि नयो॥

भावार्थ

फिर उन्होन्ने बडी ही शीघ्रता से रावण के रथ को चूर-चूर कर और सारथी को मारकर उसे (रावण को) व्याकुल कर दिया। सौ बाणों से उसका हृदय बेध दिया, जिससे रावण अत्यन्त व्याकुल होकर पृथ्वी पर गिर पडा। तब दूसरा सारथी उसे रथ में डालकर तुरन्त ही लङ्का को ले गया। प्रताप के समूह श्री रघुवीर के भाई लक्ष्मणजी ने फिर आकर प्रभु के चरणों में प्रणाम किया।

084

01 दोहा

उहाँ दसानन जागि करि करै लाग कछु जग्य।
राम बिरोध बिजय चह सठ हठ बस अति अग्य॥84॥

मूल

उहाँ दसानन जागि करि करै लाग कछु जग्य।
राम बिरोध बिजय चह सठ हठ बस अति अग्य॥84॥

भावार्थ

वहाँ (लङ्का में) रावण मूर्छा से जागकर कुछ यज्ञ करने लगा। वह मूर्ख और अत्यन्त अज्ञानी हठवश श्री रघुनाथजी से विरोध करके विजय चाहता है॥84॥

02 चौपाई

इहाँ बिभीषन सब सुधि पाई। सपदि जाइ रघुपतिहि सुनाई॥
नाथ करइ रावन एक जागा। सिद्ध भएँ नहिं मरिहि अभागा॥1॥

मूल

इहाँ बिभीषन सब सुधि पाई। सपदि जाइ रघुपतिहि सुनाई॥
नाथ करइ रावन एक जागा। सिद्ध भएँ नहिं मरिहि अभागा॥1॥

भावार्थ

यहाँ विभीषणजी ने सब खबर पाई और तुरन्त जाकर श्री रघुनाथजी को कह सुनाई कि हे नाथ! रावण एक यज्ञ कर रहा है। उसके सिद्ध होने पर वह अभागा सहज ही नहीं मरेगा॥1॥

पठवहु नाथ बेगि भट बन्दर। करहिं बिधंस आव दसकन्धर॥
प्रात होत प्रभु सुभट पठाए। हनुमदादि अङ्गद सब धाए॥2॥

मूल

पठवहु नाथ बेगि भट बन्दर। करहिं बिधंस आव दसकन्धर॥
प्रात होत प्रभु सुभट पठाए। हनुमदादि अङ्गद सब धाए॥2॥

भावार्थ

हे नाथ! तुरन्त वानर योद्धाओं को भेजिए, जो यज्ञ का विध्वंस करें, जिससे रावण युद्ध में आवे। प्रातःकाल होते ही प्रभु ने वीर योद्धाओं को भेजा। हनुमान्‌ और अङ्गद आदि सब (प्रधान वीर) दौडे॥2॥

कौतुक कूदि चढे कपि लङ्का। पैठे रावन भवन असङ्का॥
जग्य करत जबहीं सो देखा। सकल कपिन्ह भा क्रोध बिसेषा॥3॥

मूल

कौतुक कूदि चढे कपि लङ्का। पैठे रावन भवन असङ्का॥
जग्य करत जबहीं सो देखा। सकल कपिन्ह भा क्रोध बिसेषा॥3॥

भावार्थ

वानर खेल से ही कूदकर लङ्का पर जा चढे और निर्भय होकर रावण के महल में जा घुसे। ज्यों ही उसको यज्ञ करते देखा, त्यों ही सब वानरों को बहुत क्रोध हुआ॥3॥

रन ते निलज भाजि गृह आवा। इहाँ आइ बक ध्यान लगावा।
अस कहि अङ्गद मारा लाता। चितव न सठ स्वारथ मन राता॥4॥

मूल

रन ते निलज भाजि गृह आवा। इहाँ आइ बक ध्यान लगावा।
अस कहि अङ्गद मारा लाता। चितव न सठ स्वारथ मन राता॥4॥

भावार्थ

(उन्होन्ने कहा-) अरे ओ निर्लज्ज! रणभूमि से घर भाग आया और यहाँ आकर बगुले का सा ध्यान लगाकर बैठा है? ऐसा कहकर अङ्गद ने लात मारी। पर उसने इनकी ओर देखा भी नहीं, उस दुष्ट का मन स्वार्थ में अनुरक्त था॥4॥

03 छन्द

नहिं चितव जब करि कोप कपि गहि दसन लातन्ह मारहीं।
धरि केस नारि निकारि बाहेर तेऽतिदीन पुकारहीं॥
तब उठेउ क्रुद्ध कृतान्त सम गहि चरन बानर डारई।
एहि बीच कपिन्ह बिधंस कृत मख देखि मन महुँ हारई॥

मूल

नहिं चितव जब करि कोप कपि गहि दसन लातन्ह मारहीं।
धरि केस नारि निकारि बाहेर तेऽतिदीन पुकारहीं॥
तब उठेउ क्रुद्ध कृतान्त सम गहि चरन बानर डारई।
एहि बीच कपिन्ह बिधंस कृत मख देखि मन महुँ हारई॥

भावार्थ

जब उसने नहीं देखा, तब वानर क्रोध करके उसे दाँतों से पकडकर (काटने और) लातों से मारने लगे। स्त्रियों को बाल पकडकर घर से बाहर घसीट लाए, वे अत्यन्त ही दीन होकर पुकारने लगीं। तब रावण काल के समान क्रोधित होकर उठा और वानरों को पैर पकडकर पटकने लगा। इसी बीच में वानरों ने यज्ञ विध्वंस कर डाला, यह देखकर वह मन में हारने लगा। (निराश होने लगा)।

085

01 दोहा

जग्य बिधंसि कुसल कपि आए रघुपति पास।
चलेउ निसाचर कु्रद्ध होइ त्यागि जिवन कै आस॥85॥

मूल

जग्य बिधंसि कुसल कपि आए रघुपति पास।
चलेउ निसाचर कु्रद्ध होइ त्यागि जिवन कै आस॥85॥

भावार्थ

यज्ञ विध्वंस करके सब चतुर वानर रघुनाथजी के पास आ गए। तब रावण जीने की आश छोडकर क्रोधित होकर चला॥85॥

02 चौपाई

चलत होहिं अति असुभ भयङ्कर। बैठहिं गीध उडाइ सिरन्ह पर॥
भयउ कालबस काहु न माना। कहेसि बजावहु जुद्ध निसाना॥1॥

मूल

चलत होहिं अति असुभ भयङ्कर। बैठहिं गीध उडाइ सिरन्ह पर॥
भयउ कालबस काहु न माना। कहेसि बजावहु जुद्ध निसाना॥1॥

भावार्थ

चलते समय अत्यन्त भयङ्कर अमङ्गल (अपशकुन) होने लगे। गीध उड-उडकर उसके सिरों पर बैठने लगे, किन्तु वह काल के वश था, इससे किसी भी अपशकुन को नहीं मानता था। उसने कहा- युद्ध का डङ्का बजाओ॥1॥

चली तमीचर अनी अपारा। बहु गज रथ पदाति असवारा॥
प्रभु सन्मुख धाए खल कैसें। सलभ समूह अनल कहँ जैसें॥2॥

मूल

चली तमीचर अनी अपारा। बहु गज रथ पदाति असवारा॥
प्रभु सन्मुख धाए खल कैसें। सलभ समूह अनल कहँ जैसें॥2॥

भावार्थ

निशाचरों की अपार सेना चली। उसमें बहुत से हाथी, रथ, घुडसवार और पैदल हैं। वे दुष्ट प्रभु के सामने कैसे दौडे, जैसे पतङ्गों के समूह अग्नि की ओर (जलने के लिए) दौडते हैं॥2॥

इहाँ देवतन्ह अस्तुति कीन्ही। दारुन बिपति हमहि एहिं दीन्ही॥
अब जनि राम खेलावहु एही। अतिसय दुखित होति बैदेही॥3॥

मूल

इहाँ देवतन्ह अस्तुति कीन्ही। दारुन बिपति हमहि एहिं दीन्ही॥
अब जनि राम खेलावहु एही। अतिसय दुखित होति बैदेही॥3॥

भावार्थ

इधर देवताओं ने स्तुति की कि हे श्री रामजी! इसने हमको दारुण दुःख दिए हैं। अब आप इसे (अधिक) न खेलाइए। जानकीजी बहुत ही दुःखी हो रही हैं॥3॥

03 दोहा

देव बचन सुनि प्रभु मुसुकाना। उठि रघुबीर सुधारे बाना॥
जटा जूट दृढ बाँधें माथे। सोहहिं सुमन बीच बिच गाथे॥4॥

मूल

देव बचन सुनि प्रभु मुसुकाना। उठि रघुबीर सुधारे बाना॥
जटा जूट दृढ बाँधें माथे। सोहहिं सुमन बीच बिच गाथे॥4॥

भावार्थ

देवताओं के वचन सुनकर प्रभु मुस्कुराए। फिर श्री रघुवीर ने उठकर बाण सुधारे। मस्तक पर जटाओं के जूडे को कसकर बाँधे हुए हैं, उसके बीच-बीच में पुष्प गूँथे हुए शोभित हो रहे हैं॥4॥

अरुन नयन बारिद तनु स्यामा। अखिल लोक लोचनाभिरामा॥
कटितट परिकर कस्यो निषङ्गा। कर कोदण्ड कठिन सारङ्गा॥5॥

मूल

अरुन नयन बारिद तनु स्यामा। अखिल लोक लोचनाभिरामा॥
कटितट परिकर कस्यो निषङ्गा। कर कोदण्ड कठिन सारङ्गा॥5॥

भावार्थ

लाल नेत्र और मेघ के समान श्याम शरीर वाले और सम्पूर्ण लोकों के नेत्रों को आनन्द देने वाले हैं। प्रभु ने कमर में फेण्टा तथा तरकस कस लिया और हाथ में कठोर शार्गं धनुष ले लिया॥5॥

04 छन्द

सारङ्ग कर सुन्दर निषङ्ग सिलीमुखाकर कटि कस्यो।
भुजदण्ड पीन मनोहरायत उर धरासुर पद लस्यो॥
कह दास तुलसी जबहिं प्रभु सर चाप कर फेरन लगे।
ब्रह्माण्ड दिग्गज कमठ अहि महि सिन्धु भूधर डगमगे॥

मूल

सारङ्ग कर सुन्दर निषङ्ग सिलीमुखाकर कटि कस्यो।
भुजदण्ड पीन मनोहरायत उर धरासुर पद लस्यो॥
कह दास तुलसी जबहिं प्रभु सर चाप कर फेरन लगे।
ब्रह्माण्ड दिग्गज कमठ अहि महि सिन्धु भूधर डगमगे॥

भावार्थ

प्रभु ने हाथ में शार्गं धनुष लेकर कमर में बाणों की खान (अक्षय) सुन्दर तरकस कस लिया। उनके भुजदण्ड पुष्ट हैं और मनोहर चौडी छाती पर ब्राह्मण (भृगुजी) के चरण का चिह्न शोभित है। तुलसीदासजी कहते हैं, ज्यों ही प्रभु धनुष-बाण हाथ में लेकर फिराने लगे, त्यों ही ब्रह्माण्ड, दिशाओं के हाथी, कच्छप, शेषजी, पृथ्वी, समुद्र और पर्वत सभी डगमगा उठे।

086

01 दोहा

सोभा देखि हरषि सुर बरषहिं सुमन अपार।
जय जय जय करुनानिधि छबि बल गुन आगार॥86॥

मूल

सोभा देखि हरषि सुर बरषहिं सुमन अपार।
जय जय जय करुनानिधि छबि बल गुन आगार॥86॥

भावार्थ

(भगवान्‌ की) शोभा देखकर देवता हर्षित होकर फूलों की अपार वर्षा करने लगे और शोभा, शक्ति और गुणों के धाम करुणानिधान प्रभु की जय हो, जय हो, जय हो (ऐसा पुकारने लगे)॥86॥

02 चौपाई

एहीं बीच निसाचर अनी। कसमसात आई अति घनी॥
देखि चले सन्मुख कपि भट्टा। प्रलयकाल के जनु घन घट्टा॥1॥

मूल

एहीं बीच निसाचर अनी। कसमसात आई अति घनी॥
देखि चले सन्मुख कपि भट्टा। प्रलयकाल के जनु घन घट्टा॥1॥

भावार्थ

इसी बीच में निशाचरों की अत्यन्त घनी सेना कसमसाती हुई (आपस में टकराती हुई) आई। उसे देखकर वानर योद्धा इस प्रकार (उसके) सामने चले जैसे प्रलयकाल के बादलों के समूह हों॥1॥

बहु कृपान तरवारि चमङ्कहिं। जनु दहँ दिसि दामिनीं दमङ्कहिं॥
गज रथ तुरग चिकार कठोरा। गर्जहिं मनहुँ बलाहक घोरा॥2॥

मूल

बहु कृपान तरवारि चमङ्कहिं। जनु दहँ दिसि दामिनीं दमङ्कहिं॥
गज रथ तुरग चिकार कठोरा। गर्जहिं मनहुँ बलाहक घोरा॥2॥

भावार्थ

बहुत से कृपाल और तलवारें चमक रही हैं। मानो दसों दिशाओं में बिजलियाँ चमक रही हों। हाथी, रथ और घोडों का कठोर चिङ्ग्घाड ऐसा लगता है मानो बादल भयङ्कर गर्जन कर रहे हों॥2॥

कपि लङ्गूर बिपुल नभ छाए। मनहुँ इन्द्रधनु उए सुहाए॥
उठइ धूरि मानहुँ जलधारा। बान बुन्द भै बृष्टि अपारा॥3॥

मूल

कपि लङ्गूर बिपुल नभ छाए। मनहुँ इन्द्रधनु उए सुहाए॥
उठइ धूरि मानहुँ जलधारा। बान बुन्द भै बृष्टि अपारा॥3॥

भावार्थ

वानरों की बहुत सी पूँछें आकाश में छाई हुई हैं। (वे ऐसी शोभा दे रही हैं) मानो सुन्दर इन्द्रधनुष उदय हुए हों। धूल ऐसी उठ रही है मानो जल की धारा हो। बाण रूपी बूँदों की अपार वृष्टि हुई॥3॥

दुहुँ दिसि पर्बत करहिं प्रहारा। बज्रपात जनु बारहिं बारा॥
रघुपति कोपि बान झरि लाई। घायल भै निसिचर समुदाई॥4॥

मूल

दुहुँ दिसि पर्बत करहिं प्रहारा। बज्रपात जनु बारहिं बारा॥
रघुपति कोपि बान झरि लाई। घायल भै निसिचर समुदाई॥4॥

भावार्थ

दोनों ओर से योद्धा पर्वतों का प्रहार करते हैं। मानो बारम्बार वज्रपात हो रहा हो। श्री रघुनाथजी ने क्रोध करके बाणों की झडी लगा दी, (जिससे) राक्षसों की सेना घायल हो गई॥4॥

लागत बान बीर चिक्करहीं। घुर्मि घुर्मि जहँ तहँ महि परहीं॥
स्रवहिं सैल जनु निर्झर भारी। सोनित सरि कादर भयकारी॥5॥

मूल

लागत बान बीर चिक्करहीं। घुर्मि घुर्मि जहँ तहँ महि परहीं॥
स्रवहिं सैल जनु निर्झर भारी। सोनित सरि कादर भयकारी॥5॥

भावार्थ

बाण लगते ही वीर चीत्कार कर उठते हैं और चक्कर खा-खाकर जहाँ-तहाँ पृथ्वी पर गिर पडते हैं। उनके शरीर से ऐसे खून बह रहा है मानो पर्वत के भारी झरनों से जल बह रहा हो। इस प्रकार डरपोकों को भय उत्पन्न करने वाली रुधिर की नदी बह चली॥5॥

03 छन्द

कादर भयङ्कर रुधिर सरिता चली परम अपावनी।
दोउ कूल दल रथ रेत चक्र अबर्त बहति भयावनी॥
जलजन्तु गज पदचर तुरग खर बिबिध बाहन को गने।
सर सक्ति तोमर सर्प चाप तरङ्ग चर्म कमठ घने॥

मूल

कादर भयङ्कर रुधिर सरिता चली परम अपावनी।
दोउ कूल दल रथ रेत चक्र अबर्त बहति भयावनी॥
जलजन्तु गज पदचर तुरग खर बिबिध बाहन को गने।
सर सक्ति तोमर सर्प चाप तरङ्ग चर्म कमठ घने॥

भावार्थ

डरपोकों को भय उपजाने वाली अत्यन्त अपवित्र रक्त की नदी बह चली। दोनों दल उसके दोनों किनारे हैं। रथ रेत है और पहिए भँवर हैं। वह नदी बहुत भयावनी बह रही है। हाथी, पैदल, घोडे, गदहे तथा अनेकों सवारियाँ ही, जिनकी गिनती कौन करे, नदी के जल जन्तु हैं। बाण, शक्ति और तोमर सर्प हैं, धनुष तरङ्गें हैं और ढाल बहुत से कछुवे हैं।

087

01 दोहा

बीर परहिं जनु तीर तरु मज्जा बहु बह फेन।
कादर देखि डरहिं तहँ सुभटन्ह के मन चेन॥87॥

मूल

बीर परहिं जनु तीर तरु मज्जा बहु बह फेन।
कादर देखि डरहिं तहँ सुभटन्ह के मन चेन॥87॥

भावार्थ

वीर पृथ्वी पर इस तरह गिर रहे हैं, मानो नदी-किनारे के वृक्ष ढह रहे हों। बहुत सी मज्जा बह रही है, वही फेन है। डरपोक जहाँ इसे देखकर डरते हैं, वहाँ उत्तम योद्धाओं के मन में सुख होता है॥87॥

02 चौपाई

मज्जहिं भूत पिसाच बेताला। प्रमथ महा झोटिङ्ग कराला॥
काक कङ्क लै भुजा उडाहीं। एक ते छीनि एक लै खाहीं॥1॥

मूल

मज्जहिं भूत पिसाच बेताला। प्रमथ महा झोटिङ्ग कराला॥
काक कङ्क लै भुजा उडाहीं। एक ते छीनि एक लै खाहीं॥1॥

भावार्थ

भूत, पिशाच और बेताल, बडे-बडे झोण्टों वाले महान्‌ भयङ्कर झोटिङ्ग और प्रमथ (शिवगण) उस नदी में स्नान करते हैं। कौए और चील भुजाएँ लेकर उडते हैं और एक-दूसरे से छीनकर खा जाते हैं॥1॥

एक कहहिं ऐसिउ सौङ्घाई। सठहु तुम्हार दरिद्र न जाई॥
कहँरत भट घायल तट गिरे। जहँ तहँ मनहुँ अर्धजल परे॥2॥

मूल

एक कहहिं ऐसिउ सौङ्घाई। सठहु तुम्हार दरिद्र न जाई॥
कहँरत भट घायल तट गिरे। जहँ तहँ मनहुँ अर्धजल परे॥2॥

भावार्थ

एक (कोई) कहते हैं, अरे मूर्खों! ऐसी सस्ती (बहुतायत) है, फिर भी तुम्हारी दरिद्रता नहीं जाती? घायल योद्धा तट पर पडे कराह रहे हैं, मानो जहाँ-तहाँ अर्धजल (वे व्यक्ति जो मरने के समय आधे जल में रखे जाते हैं) पडे हों॥2॥

खैचहिं गीध आँत तट भए। जनु बंसी खेलत चित दए॥
बहु भट बहहिं चढे खग जाहीं। जनु नावरि खेलहिं सरि माहीं॥3॥

मूल

खैचहिं गीध आँत तट भए। जनु बंसी खेलत चित दए॥
बहु भट बहहिं चढे खग जाहीं। जनु नावरि खेलहिं सरि माहीं॥3॥

भावार्थ

गीध आँतें खीञ्च रहे हैं, मानो मछली मार नदी तट पर से चित्त लगाए हुए (ध्यानस्थ होकर) बंसी खेल रहे हों (बंसी से मछली पकड रहे हों)। बहुत से योद्धा बहे जा रहे हैं और पक्षी उन पर चढे चले जा रहे हैं। मानो वे नदी में नावरि (नौका क्रीडा) खेल रहे हों॥3॥

जोगिनि भरि भरि खप्पर सञ्चहिं। भूति पिसाच बधू नभ नञ्चहिं॥
भट कपाल करताल बजावहिं। चामुण्डा नाना बिधि गावहिं॥4॥

मूल

जोगिनि भरि भरि खप्पर सञ्चहिं। भूति पिसाच बधू नभ नञ्चहिं॥
भट कपाल करताल बजावहिं। चामुण्डा नाना बिधि गावहिं॥4॥

भावार्थ

योगिनियाँ खप्परों में भर-भरकर खून जमा कर रही हैं। भूत-पिशाचों की स्त्रियाँ आकाश में नाच रही हैं। चामुण्डाएँ योद्धाओं की खोपडियों का करताल बजा रही हैं और नाना प्रकार से गा रही हैं॥4॥

जम्बुक निकर कटक्कट कट्टहिं। खाहिं हुआहिं अघाहिं दपट्टहिं॥
कोटिन्ह रुण्ड मुण्ड बिनु डोल्लहिं। सीस परे महि जय जय बोल्लहिं॥5॥

मूल

जम्बुक निकर कटक्कट कट्टहिं। खाहिं हुआहिं अघाहिं दपट्टहिं॥
कोटिन्ह रुण्ड मुण्ड बिनु डोल्लहिं। सीस परे महि जय जय बोल्लहिं॥5॥

भावार्थ

गीदडों के समूह कट-कट शब्द करते हुए मुरदों को काटते, खाते, हुआँ-हुआँ करते और पेट भर जाने पर एक-दूसरे को डाँटते हैं। करोडों धड बिना सिर के घूम रहे हैं और सिर पृथ्वी पर पडे जय-जय बोल रहे है॥5॥

03 छन्द

बोल्लहिं जो जय जय मुण्ड रुण्ड प्रचण्ड सिर बिनु धावहीं।
खप्परिन्ह खग्ग अलुज्झि जुज्झहिं सुभट भटन्ह ढहावहीं॥
बानर निसाचर निकर मर्दहिं राम बल दर्पित भए।
सङ्ग्राम अङ्गन सुभट सोवहिं राम सर निकरन्हि हए॥

मूल

बोल्लहिं जो जय जय मुण्ड रुण्ड प्रचण्ड सिर बिनु धावहीं।
खप्परिन्ह खग्ग अलुज्झि जुज्झहिं सुभट भटन्ह ढहावहीं॥
बानर निसाचर निकर मर्दहिं राम बल दर्पित भए।
सङ्ग्राम अङ्गन सुभट सोवहिं राम सर निकरन्हि हए॥

भावार्थ

मुण्ड (कटे सिर) जय-जय बोल बोलते हैं और प्रचण्ड रुण्ड (धड) बिना सिर के दौडते हैं। पक्षी खोपडियों में उलझ-उलझकर परस्पर लडे मरते हैं, उत्तम योद्धा दूसरे योद्धाओं को ढहा रहे हैं। श्री रामचन्द्रजी बल से दर्पित हुए वानर राक्षसों के झुण्डों को मसले डालते हैं। श्री रामजी के बाण समूहों से मरे हुए योद्धा लडाई के मैदान में सो रहे हैं।

088

01 दोहा

रावन हृदयँ बिचारा भा निसिचर सङ्घार।
मैं अकेल कपि भालु बहु माया करौं अपार॥88॥

मूल

रावन हृदयँ बिचारा भा निसिचर सङ्घार।
मैं अकेल कपि भालु बहु माया करौं अपार॥88॥

भावार्थ

रावण ने हृदय में विचारा कि राक्षसों का नाश हो गया है। मैं अकेला हूँ और वानर-भालू बहुत हैं, इसलिए मैं अब अपार माया रचूँ॥88॥

02 चौपाई

देवन्ह प्रभुहि पयादें देखा। उपजा उर अति छोभ बिसेषा॥
सुरपति निज रथ तुरत पठावा। हरष सहित मातलि लै आवा॥1॥

मूल

देवन्ह प्रभुहि पयादें देखा। उपजा उर अति छोभ बिसेषा॥
सुरपति निज रथ तुरत पठावा। हरष सहित मातलि लै आवा॥1॥

भावार्थ

देवताओं ने प्रभु को पैदल (बिना सवारी के युद्ध करते) देखा, तो उनके हृदय में बडा भारी क्षोभ (दुःख) उत्पन्न हुआ। (फिर क्या था) इन्द्र ने तुरन्त अपना रथ भेज दिया। (उसका सारथी) मातलि हर्ष के साथ उसे ले आया॥1॥

तेज पुञ्ज रथ दिब्य अनूपा। हरषि चढे कोसलपुर भूपा॥
चञ्चल तुरग मनोहर चारी। अजर अमर मन सम गतिकारी॥2॥

मूल

तेज पुञ्ज रथ दिब्य अनूपा। हरषि चढे कोसलपुर भूपा॥
चञ्चल तुरग मनोहर चारी। अजर अमर मन सम गतिकारी॥2॥

भावार्थ

उस दिव्य अनुपम और तेज के पुञ्ज (तेजोमय) रथ पर कोसलपुरी के राजा श्री रामचन्द्रजी हर्षित होकर चढे। उसमें चार चञ्चल, मनोहर, अजर, अमर और मन की गति के समान शीघ्र चलने वाले (देवलोक के) घोडे जुते थे॥2॥

रथारूढ रघुनाथहि देखी। धाए कपि बलु पाइ बिसेषी॥
सही न जाइ कपिन्ह कै मारी। तब रावन माया बिस्तारी॥3॥

मूल

रथारूढ रघुनाथहि देखी। धाए कपि बलु पाइ बिसेषी॥
सही न जाइ कपिन्ह कै मारी। तब रावन माया बिस्तारी॥3॥

भावार्थ

श्री रघुनाथजी को रथ पर चढे देखकर वानर विशेष बल पाकर दौडे। वानरों की मार सही नहीं जाती। तब रावण ने माया फैलाई॥3॥

सो माया रघुबीरहि बाँची। लछिमन कपिन्ह सो मानी साँची॥
देखी कपिन्ह निसाचर अनी। अनुज सहित बहु कोसलधनी॥4॥

मूल

सो माया रघुबीरहि बाँची। लछिमन कपिन्ह सो मानी साँची॥
देखी कपिन्ह निसाचर अनी। अनुज सहित बहु कोसलधनी॥4॥

भावार्थ

एक श्री रघुवीर के ही वह माया नहीं लगी। सब वानरों ने और लक्ष्मणजी ने भी उस माया को सच मान लिया। वानरों ने राक्षसी सेना में भाई लक्ष्मणजी सहित बहुत से रामों को देखा॥4॥

03 छन्द

बहु राम लछिमन देखि मर्कट भालु मन अति अपडरे।
जनु चित्र लिखित समेत लछिमन जहँ सो तहँ चितवहिं खरे॥
निज सेन चकित बिलोकि हँसि सर चाप सजि कोसलधनी।
माया हरी हरि निमिष महुँ हरषी सकल मर्कट अनी॥

मूल

बहु राम लछिमन देखि मर्कट भालु मन अति अपडरे।
जनु चित्र लिखित समेत लछिमन जहँ सो तहँ चितवहिं खरे॥
निज सेन चकित बिलोकि हँसि सर चाप सजि कोसलधनी।
माया हरी हरि निमिष महुँ हरषी सकल मर्कट अनी॥

भावार्थ

बहुत से राम-लक्ष्मण देखकर वानर-भालू मन में मिथ्या डर से बहुत ही डर गए। लक्ष्मणजी सहित वे मानो चित्र लिखे से जहाँ के तहाँ खडे देखने लगे। अपनी सेना को आश्चर्यचकित देखकर कोसलपति भगवान्‌ हरि (दुःखों के हरने वाले श्री रामजी) ने हँसकर धनुष पर बाण चढाकर, पल भर में सारी माया हर ली। वानरों की सारी सेना हर्षित हो गई।

089

01 दोहा

बहुरि राम सब तन चितइ बोले बचन गँभीर।
द्वन्दजुद्ध देखहु सकल श्रमित भए अति बीर॥89॥

मूल

बहुरि राम सब तन चितइ बोले बचन गँभीर।
द्वन्दजुद्ध देखहु सकल श्रमित भए अति बीर॥89॥

भावार्थ

फिर श्री रामजी सबकी ओर देखकर गम्भीर वचन बोले- हे वीरों! तुम सब बहुत ही थक गए हो, इसलिए अब (मेरा और रावण का) द्वन्द्व युद्ध देखो॥89॥

02 चौपाई

अस कहि रथ रघुनाथ चलावा। बिप्र चरन पङ्कज सिरु नावा॥
तब लङ्केस क्रोध उर छावा। गर्जत तर्जत सम्मुख धावा॥1॥

मूल

अस कहि रथ रघुनाथ चलावा। बिप्र चरन पङ्कज सिरु नावा॥
तब लङ्केस क्रोध उर छावा। गर्जत तर्जत सम्मुख धावा॥1॥

भावार्थ

ऐसा कहकर श्री रघुनाथजी ने ब्राह्मणों के चरणकमलों में सिर नवाया और फिर रथ चलाया। तब रावण के हृदय में क्रोध छा गया और वह गरजता तथा ललकारता हुआ सामने दौडा॥1॥

जीतेहु जे भट सञ्जुग माहीं। सुनु तापस मैं तिन्ह सम नाहीं॥
रावन नाम जगत जस जाना। लोकप जाकें बन्दीखाना॥2॥

मूल

जीतेहु जे भट सञ्जुग माहीं। सुनु तापस मैं तिन्ह सम नाहीं॥
रावन नाम जगत जस जाना। लोकप जाकें बन्दीखाना॥2॥

भावार्थ

(उसने कहा-) अरे तपस्वी! सुनो, तुमने युद्ध में जिन योद्धाओं को जीता है, मैं उनके समान नहीं हूँ। मेरा नाम रावण है, मेरा यश सारा जगत्‌ जानता है, लोकपाल तक जिसके कैद खाने में पडे हैं॥2॥

खर दूषन बिराध तुम्ह मारा। बधेहु ब्याध इव बालि बिचारा॥
निसिचर निकर सुभट सङ्घारेहु। कुम्भकरन घननादहि मारेहु॥3॥

मूल

खर दूषन बिराध तुम्ह मारा। बधेहु ब्याध इव बालि बिचारा॥
निसिचर निकर सुभट सङ्घारेहु। कुम्भकरन घननादहि मारेहु॥3॥

भावार्थ

तुमने खर, दूषण और विराध को मारा! बेचारे बालि का व्याध की तरह वध किया। बडे-बडे राक्षस योद्धाओं के समूह का संहार किया और कुम्भकर्ण तथा मेघनाद को भी मारा॥3॥

आजु बयरु सबु लेउँ निबाही। जौं रन भूप भाजि नहिं जाही॥
आजु करउँ खलु काल हवाले। परेहु कठिन रावन के पाले॥4॥

मूल

आजु बयरु सबु लेउँ निबाही। जौं रन भूप भाजि नहिं जाही॥
आजु करउँ खलु काल हवाले। परेहु कठिन रावन के पाले॥4॥

भावार्थ

अरे राजा! यदि तुम रण से भाग न गए तो आज मैं (वह) सारा वैर निकाल लूँगा। आज मैं तुम्हें निश्चय ही काल के हवाले कर दूँगा। तुम कठिन रावण के पाले पडे हो॥4॥

सुनि दुर्बचन कालबस जाना। बिहँसि बचन कह कृपानिधाना॥
सत्य सत्य सब तव प्रभुताई। जल्पसि जनि देखाउ मनुसाई॥5॥

मूल

सुनि दुर्बचन कालबस जाना। बिहँसि बचन कह कृपानिधाना॥
सत्य सत्य सब तव प्रभुताई। जल्पसि जनि देखाउ मनुसाई॥5॥

भावार्थ

रावण के दुर्वचन सुनकर और उसे कालवश जान कृपानिधान श्री रामजी ने हँसकर यह वचन कहा- तुम्हारी सारी प्रभुता, जैसा तुम कहते हो, बिल्कुल सच है। पर अब व्यर्थ बकवाद न करो, अपना पुरुषार्थ दिखलाओ॥5॥

03 छन्द

जनि जल्पना करि सुजसु नासहि नीति सुनहि करहि छमा।
संसार महँ पूरुष त्रिबिध पाटल रसाल पनस समा॥
एक सुमनप्रद एक सुमन फल एक फलइ केवल लागहीं।
एक कहहिं कहहिं करहिं अपर एक करहिं कहत न बागहीं॥

मूल

जनि जल्पना करि सुजसु नासहि नीति सुनहि करहि छमा।
संसार महँ पूरुष त्रिबिध पाटल रसाल पनस समा॥
एक सुमनप्रद एक सुमन फल एक फलइ केवल लागहीं।
एक कहहिं कहहिं करहिं अपर एक करहिं कहत न बागहीं॥

भावार्थ

व्यर्थ बकवाद करके अपने सुन्दर यश का नाश न करो। क्षमा करना, तुम्हें नीति सुनाता हूँ, सुनो! संसार में तीन प्रकार के पुरुष होते हैं- पाटल (गुलाब), आम और कटहल के समान। एक (पाटल) फूल देते हैं, एक (आम) फूल और फल दोनों देते हैं एक (कटहल) में केवल फल ही लगते हैं। इसी प्रकार (पुरुषों में) एक कहते हैं (करते नहीं), दूसरे कहते और करते भी हैं और एक (तीसरे) केवल करते हैं, पर वाणी से कहते नहीं॥

090

01 दोहा

राम बचन सुनि बिहँसा मोहि सिखावत ग्यान।
बयरु करत नहिं तब डरे अब लागे प्रिय प्रान॥90॥

मूल

राम बचन सुनि बिहँसा मोहि सिखावत ग्यान।
बयरु करत नहिं तब डरे अब लागे प्रिय प्रान॥90॥

भावार्थ

श्री रामजी के वचन सुनकर वह खूब हँसा (और बोला-) मुझे ज्ञान सिखाते हो? उस समय वैर करते तो नहीं डरे, अब प्राण प्यारे लग रहे हैं॥90॥

02 चौपाई

कहि दुर्बचन क्रुद्ध दसकन्धर। कुलिस समान लाग छाँडै सर॥
नानाकार सिलीमुख धाए। दिसि अरु बिदिसि गगन महि छाए॥1॥

मूल

कहि दुर्बचन क्रुद्ध दसकन्धर। कुलिस समान लाग छाँडै सर॥
नानाकार सिलीमुख धाए। दिसि अरु बिदिसि गगन महि छाए॥1॥

भावार्थ

दुर्वचन कहकर रावण क्रुद्ध होकर वज्र के समान बाण छोडने लगा। अनेकों आकार के बाण दौडे और दिशा, विदिशा तथा आकाश और पृथ्वी में, सब जगह छा गए॥1॥

पावक सर छाँडेउ रघुबीरा। छन महुँ जरे निसाचर तीरा॥
छाडिसि तीब्र सक्ति खिसिआई। बान सङ्ग प्रभु फेरि चलाई॥2॥

मूल

पावक सर छाँडेउ रघुबीरा। छन महुँ जरे निसाचर तीरा॥
छाडिसि तीब्र सक्ति खिसिआई। बान सङ्ग प्रभु फेरि चलाई॥2॥

भावार्थ

श्री रघुवीर ने अग्निबाण छोडा, (जिससे) रावण के सब बाण क्षणभर में भस्म हो गए। तब उसने खिसियाकर तीक्ष्ण शक्ति छोडी, (किन्तु) श्री रामचन्द्रजी ने उसको बाण के साथ वापस भेज दिया॥2॥

कोटिन्ह चक्र त्रिसूल पबारै। बिनु प्रयास प्रभु काटि निवारै॥
निफल होहिं रावन सर कैसें। खल के सकल मनोरथ जैसें॥3॥

मूल

कोटिन्ह चक्र त्रिसूल पबारै। बिनु प्रयास प्रभु काटि निवारै॥
निफल होहिं रावन सर कैसें। खल के सकल मनोरथ जैसें॥3॥

भावार्थ

वह करोडों चक्र और त्रिशूल चलाता है, परन्तु प्रभु उन्हें बिना ही परिश्रम काटकर हटा देते हैं। रावण के बाण किस प्रकार निष्फल होते हैं, जैसे दुष्ट मनुष्य के सब मनोरथ!॥3॥

तब सत बान सारथी मारेसि। परेउ भूमि जय राम पुकारेसि॥
राम कृपा करि सूत उठावा। तब प्रभु परम क्रोध कहुँ पावा॥4॥

मूल

तब सत बान सारथी मारेसि। परेउ भूमि जय राम पुकारेसि॥
राम कृपा करि सूत उठावा। तब प्रभु परम क्रोध कहुँ पावा॥4॥

भावार्थ

तब उसने श्री रामजी के सारथी को सौ बाण मारे। वह श्री रामजी की जय पुकारकर पृथ्वी पर गिर पडा। श्री रामजी ने कृपा करके सारथी को उठाया। तब प्रभु अत्यन्त क्रोध को प्राप्त हुए॥4॥

03 छन्द

भए क्रुद्ध जुद्ध बिरुद्ध रघुपति त्रोन सायक कसमसे।
कोदण्ड धुनि अति चण्ड सुनि मनुजाद सब मारुत ग्रसे॥
मन्दोदरी उर कम्प कम्पति कमठ भू भूधर त्रसे।
चिक्करहिं दिग्गज दसन गहि महि देखि कौतुक सुर हँसे॥

मूल

भए क्रुद्ध जुद्ध बिरुद्ध रघुपति त्रोन सायक कसमसे।
कोदण्ड धुनि अति चण्ड सुनि मनुजाद सब मारुत ग्रसे॥
मन्दोदरी उर कम्प कम्पति कमठ भू भूधर त्रसे।
चिक्करहिं दिग्गज दसन गहि महि देखि कौतुक सुर हँसे॥

भावार्थ

युद्ध में शत्रु के विरुद्ध श्री रघुनाथजी क्रोधित हुए, तब तरकस में बाण कसमसाने लगे (बाहर निकलने को आतुर होने लगे)। उनके धनुष का अत्यन्त प्रचण्ड शब्द (टङ्कार) सुनकर मनुष्यभक्षी सब राक्षस वातग्रस्त हो गए (अत्यन्त भयभीत हो गए)। मन्दोदरी का हृदय काँप उठा, समुद्र, कच्छप, पृथ्वी और पर्वत डर गए। दिशाओं के हाथी पृथ्वी को दाँतों से पकडकर चिग्घाडने लगे। यह कौतुक देखकर देवता हँसे।

091

01 दोहा

तानेउ चाप श्रवन लगि छाँडे बिसिख कराल।
राम मारगन गन चले लहलहात जनु ब्याल॥91॥

मूल

तानेउ चाप श्रवन लगि छाँडे बिसिख कराल।
राम मारगन गन चले लहलहात जनु ब्याल॥91॥

भावार्थ

धनुष को कान तक तानकर श्री रामचन्द्रजी ने भयानक बाण छोडे। श्री रामजी के बाण समूह ऐसे चले मानो सर्प लहलहाते (लहराते) हुए जा रहे हों॥91॥

02 चौपाई

चले बान सपच्छ जनु उरगा। प्रथमहिं हतेउ सारथी तुरगा॥
रथ बिभञ्जि हति केतु पताका। गर्जा अति अन्तर बल थाका॥1॥

मूल

चले बान सपच्छ जनु उरगा। प्रथमहिं हतेउ सारथी तुरगा॥
रथ बिभञ्जि हति केतु पताका। गर्जा अति अन्तर बल थाका॥1॥

भावार्थ

बाण ऐसे चले मानो पङ्ख वाले सर्प उड रहे हों। उन्होन्ने पहले सारथी और घोडों को मार डाला। फिर रथ को चूर-चूर करके ध्वजा और पताकाओं को गिरा दिया। तब रावण बडे जोर से गरजा, पर भीतर से उसका बल थक गया था॥1॥

तुरत आन रथ चढि खिसिआना। अस्त्र सस्त्र छाँडेसि बिधि नाना॥
बिफल होहिं सब उद्यम ताके। जिमि परद्रोह निरत मनसा के॥2॥

मूल

तुरत आन रथ चढि खिसिआना। अस्त्र सस्त्र छाँडेसि बिधि नाना॥
बिफल होहिं सब उद्यम ताके। जिमि परद्रोह निरत मनसा के॥2॥

भावार्थ

तुरन्त दूसरे रथ पर चढकर खिसियाकर उसने नाना प्रकार के अस्त्र-शस्त्र छोडे। उसके सब उद्योग वैसे ही निष्फल हो गए, जैसे परद्रोह में लगे हुए चित्त वाले मनुष्य के होते हैं॥2॥

तब रावन दस सूल चलावा। बाजि चारि महि मारि गिरावा॥
तुरग उठाइ कोपि रघुनायक। खैञ्चि सरासन छाँडे सायक॥3॥

मूल

तब रावन दस सूल चलावा। बाजि चारि महि मारि गिरावा॥
तुरग उठाइ कोपि रघुनायक। खैञ्चि सरासन छाँडे सायक॥3॥

भावार्थ

तब रावण ने दस त्रिशूल चलाए और श्री रामजी के चारों घोडों को मारकर पृथ्वी पर गिरा दिया। घोडों को उठाकर श्री रघुनाथजी ने क्रोध करके धनुष खीञ्चकर बाण छोडे॥3॥

रावन सिर सरोज बनचारी। चलि रघुबीर सिलीमुख धारी॥
दस दस बान भाल दस मारे। निसरि गए चले रुधिर पनारे॥4॥

मूल

रावन सिर सरोज बनचारी। चलि रघुबीर सिलीमुख धारी॥
दस दस बान भाल दस मारे। निसरि गए चले रुधिर पनारे॥4॥

भावार्थ

रावण के सिर रूपी कमल वन में विचरण करने वाले श्री रघुवीर के बाण रूपी भ्रमरों की पङ्क्ति चली। श्री रामचन्द्रजी ने उसके दसों सिरों में दस-दस बाण मारे, जो आर-पार हो गए और सिरों से रक्त के पनाले बह चले॥4॥

स्रवत रुधिर धायउ बलवाना। प्रभु पुनि कृत धनु सर सन्धाना॥
तीस तीर रघुबीर पबारे। भुजन्हि समेत सीस महि पारे॥5॥

मूल

स्रवत रुधिर धायउ बलवाना। प्रभु पुनि कृत धनु सर सन्धाना॥
तीस तीर रघुबीर पबारे। भुजन्हि समेत सीस महि पारे॥5॥

भावार्थ

रुधिर बहते हुए ही बलवान्‌ रावण दौडा। प्रभु ने फिर धनुष पर बाण सन्धान किया। श्री रघुवीर ने तीस बाण मारे और बीसों भुजाओं समेत दसों सिर काटकर पृथ्वी पर गिरा दिए॥5॥

काटतहीं पुनि भए नबीने। राम बहोरि भुजा सिर छीने॥
प्रभु बहु बार बाहु सिर हए। कटत झटिति पुनि नूतन भए॥6॥

मूल

काटतहीं पुनि भए नबीने। राम बहोरि भुजा सिर छीने॥
प्रभु बहु बार बाहु सिर हए। कटत झटिति पुनि नूतन भए॥6॥

भावार्थ

(सिर और हाथ) काटते ही फिर नए हो गए। श्री रामजी ने फिर भुजाओं और सिरों को काट गिराया। इस तरह प्रभु ने बहुत बार भुजाएँ और सिर काटे, परन्तु काटते ही वे तुरन्त फिर नए हो गए॥6॥

पुनि पुनि प्रभु काटत भुज सीसा। अति कौतुकी कोसलाधीसा॥
रहे छाइ नभ सिर अरु बाहू। मानहुँ अमित केतु अरु राहू॥7॥

मूल

पुनि पुनि प्रभु काटत भुज सीसा। अति कौतुकी कोसलाधीसा॥
रहे छाइ नभ सिर अरु बाहू। मानहुँ अमित केतु अरु राहू॥7॥

भावार्थ

प्रभु बार-बार उसकी भुजा और सिरों को काट रहे हैं, क्योङ्कि कोसलपति श्री रामजी बडे कौतुकी हैं। आकाश में सिर और बाहु ऐसे छा गए हैं, मानो असङ्ख्य केतु और राहु हों॥7॥

03 छन्द

जनु राहु केतु अनेक नभ पथ स्रवत सोनित धावहीं।
रघुबीर तीर प्रचण्ड लागहिं भूमि गिरत न पावहीं॥
एक एक सर सिर निकर छेदे नभ उडत इमि सोहहीं।
जनु कोपि दिनकर कर निकर जहँ तहँ बिधुन्तुद पोहहीं॥

मूल

जनु राहु केतु अनेक नभ पथ स्रवत सोनित धावहीं।
रघुबीर तीर प्रचण्ड लागहिं भूमि गिरत न पावहीं॥
एक एक सर सिर निकर छेदे नभ उडत इमि सोहहीं।
जनु कोपि दिनकर कर निकर जहँ तहँ बिधुन्तुद पोहहीं॥

भावार्थ

मानो अनेकों राहु और केतु रुधिर बहाते हुए आकाश मार्ग से दौड रहे हों। श्री रघुवीर के प्रचण्ड बाणों के (बार-बार) लगने से वे पृथ्वी पर गिरने नहीं पाते। एक-एक बाण से समूह के समूह सिर छिदे हुए आकाश में उडते ऐसे शोभा दे रहे हैं मानो सूर्य की किरणें क्रोध करके जहाँ-तहाँ राहुओं को पिरो रही हों।

092

01 दोहा

जिमि जिमि प्रभु हर तासु सिर तिमि होहिं अपार।
सेवत बिषय बिबर्ध जिमि नित नित नूतन मार॥92॥

मूल

जिमि जिमि प्रभु हर तासु सिर तिमि होहिं अपार।
सेवत बिषय बिबर्ध जिमि नित नित नूतन मार॥92॥

भावार्थ

जैसे-जैसे प्रभु उसके सिरों को काटते हैं, वैसे ही वैसे वे अपार होते जाते हैं। जैसे विषयों का सेवन करने से काम (उन्हें भोगने की इच्छा) दिन-प्रतिदिन नया-नया बढता जाता है॥92॥

02 चौपाई

दसमुख देखि सिरन्ह कै बाढी। बिसरा मरन भई रिस गाढी॥
गर्जेउ मूढ महा अभिमानी। धायउ दसहु सरासन तानी॥1॥

मूल

दसमुख देखि सिरन्ह कै बाढी। बिसरा मरन भई रिस गाढी॥
गर्जेउ मूढ महा अभिमानी। धायउ दसहु सरासन तानी॥1॥

भावार्थ

सिरों की बाढ देखकर रावण को अपना मरण भूल गया और बडा गहरा क्रोध हुआ। वह महान्‌ अभिमानी मूर्ख गरजा और दसों धनुषों को तानकर दौडा॥1॥

समर भूमि दसकन्धर कोप्यो। बरषि बान रघुपति रथ तोप्यो॥
दण्ड एक रथ देखि न परेउ। जनु निहार महुँ दिनकर दुरेऊ॥2॥

मूल

समर भूमि दसकन्धर कोप्यो। बरषि बान रघुपति रथ तोप्यो॥
दण्ड एक रथ देखि न परेउ। जनु निहार महुँ दिनकर दुरेऊ॥2॥

भावार्थ

रणभूमि में रावण ने क्रोध किया और बाण बरसाकर श्री रघुनाथजी के रथ को ढँक दिया। एक दण्ड (घडी) तक रथ दिखलाई न पडा, मानो कुहरे में सूर्य छिप गया हो॥2॥

हाहाकार सुरन्ह जब कीन्हा। तब प्रभु कोपि कारमुक लीन्हा॥
सर निवारि रिपु के सिर काटे। ते दिसि बिदिसि गगन महि पाटे॥3॥

मूल

हाहाकार सुरन्ह जब कीन्हा। तब प्रभु कोपि कारमुक लीन्हा॥
सर निवारि रिपु के सिर काटे। ते दिसि बिदिसि गगन महि पाटे॥3॥

भावार्थ

जब देवताओं ने हाहाकार किया, तब प्रभु ने क्रोध करके धनुष उठाया और शत्रु के बाणों को हटाकर उन्होन्ने शत्रु के सिर काटे और उनसे दिशा, विदिशा, आकाश और पृथ्वी सबको पाट दिया॥3॥

काटे सिर नभ मारग धावहिं। जय जय धुनि करि भय उपजावहिं॥
कहँ लछिमन सुग्रीव कपीसा। कहँ रघुबीर कोसलाधीसा॥4॥

मूल

काटे सिर नभ मारग धावहिं। जय जय धुनि करि भय उपजावहिं॥
कहँ लछिमन सुग्रीव कपीसा। कहँ रघुबीर कोसलाधीसा॥4॥

भावार्थ

काटे हुए सिर आकाश मार्ग से दौडते हैं और जय-जय की ध्वनि करके भय उत्पन्न करते हैं। ‘लक्ष्मण और वानरराज सुग्रीव कहाँ हैं? कोसलपति रघुवीर कहाँ हैं?’॥4॥

03 छन्द

कहँ रामु कहि सिर निकर धाए देखि मर्कट भजि चले।
सन्धानि धनु रघुबंसमनि हँसि सरन्हि सिर बेधे भले॥
सिर मालिका कर कालिका गहि बृन्द बृन्दन्हि बहु मिलीं।
करि रुधिर सरि मज्जनु मनहुँ सङ्ग्राम बट पूजन चलीं॥

मूल

कहँ रामु कहि सिर निकर धाए देखि मर्कट भजि चले।
सन्धानि धनु रघुबंसमनि हँसि सरन्हि सिर बेधे भले॥
सिर मालिका कर कालिका गहि बृन्द बृन्दन्हि बहु मिलीं।
करि रुधिर सरि मज्जनु मनहुँ सङ्ग्राम बट पूजन चलीं॥

भावार्थ

‘राम कहाँ हैं?’ यह कहकर सिरों के समूह दौडे, उन्हें देखकर वानर भाग चले। तब धनुष सन्धान करके रघुकुलमणि श्री रामजी ने हँसकर बाणों से उन सिरों को भलीभाँति बेध डाला। हाथों में मुण्डों की मालाएँ लेकर बहुत सी कालिकाएँ झुण्ड की झुण्ड मिलकर इकट्ठी हुईं और वे रुधिर की नदी में स्नान करके चलीं। मानो सङ्ग्राम रूपी वटवृक्ष की पूजा करने जा रही हों।

093

01 दोहा

पुनि दसकण्ठ क्रुद्ध होइ छाँडी सक्ति प्रचण्ड।
चली बिभीषन सन्मुख मनहुँ काल कर दण्ड॥93॥

मूल

पुनि दसकण्ठ क्रुद्ध होइ छाँडी सक्ति प्रचण्ड।
चली बिभीषन सन्मुख मनहुँ काल कर दण्ड॥93॥

भावार्थ

फिर रावण ने क्रोधित होकर प्रचण्ड शक्ति छोडी। वह विभीषण के सामने ऐसी चली जैसे काल (यमराज) का दण्ड हो॥93॥

02 चौपाई

आवत देखि सक्ति अति घोरा। प्रनतारति भञ्जन पन मोरा॥
तुरत बिभीषन पाछें मेला। सन्मुख राम सहेउ सोइ सेला॥1॥

मूल

आवत देखि सक्ति अति घोरा। प्रनतारति भञ्जन पन मोरा॥
तुरत बिभीषन पाछें मेला। सन्मुख राम सहेउ सोइ सेला॥1॥

भावार्थ

अत्यन्त भयानक शक्ति को आती देख और यह विचार कर कि मेरा प्रण शरणागत के दुःख का नाश करना है, श्री रामजी ने तुरन्त ही विभीषण को पीछे कर लिया और सामने होकर वह शक्ति स्वयं सह ली॥1॥

लागि सक्ति मुरुछा कछु भई। प्रभु कृत खेल सुरन्ह बिकलई॥
देखि बिभीषन प्रभु श्रम पायो। गहि कर गदा क्रुद्ध होइ धायो॥2॥

मूल

लागि सक्ति मुरुछा कछु भई। प्रभु कृत खेल सुरन्ह बिकलई॥
देखि बिभीषन प्रभु श्रम पायो। गहि कर गदा क्रुद्ध होइ धायो॥2॥

भावार्थ

शक्ति लगने से उन्हें कुछ मूर्छा हो गई। प्रभु ने तो यह लीला की, पर देवताओं को व्याकुलता हुई। प्रभु को श्रम (शारीरिक कष्ट) प्राप्त हुआ देखकर विभीषण क्रोधित हो हाथ में गदा लेकर दौडे॥2॥

रे कुभाग्य सठ मन्द कुबुद्धे। तैं सुर नर मुनि नाग बिरुद्धे॥
सादर सिव कहुँ सीस चढाए। एक एक के कोटिन्ह पाए॥3॥

मूल

रे कुभाग्य सठ मन्द कुबुद्धे। तैं सुर नर मुनि नाग बिरुद्धे॥
सादर सिव कहुँ सीस चढाए। एक एक के कोटिन्ह पाए॥3॥

भावार्थ

(और बोले-) अरे अभागे! मूर्ख, नीच दुर्बुद्धि! तूने देवता, मनुष्य, मुनि, नाग सभी से विरोध किया। तूने आदर सहित शिवजी को सिर चढाए। इसी से एक-एक के बदले में करोडों पाए॥3॥

तेहि कारन खल अब लगि बाँच्यो। अब तव कालु सीस पर नाच्यो॥
राम बिमुख सठ चहसि सम्पदा। अस कहि हनेसि माझ उर गदा॥4॥

मूल

तेहि कारन खल अब लगि बाँच्यो। अब तव कालु सीस पर नाच्यो॥
राम बिमुख सठ चहसि सम्पदा। अस कहि हनेसि माझ उर गदा॥4॥

भावार्थ

उसी कारण से अरे दुष्ट! तू अब तक बचा है, (किन्तु) अब काल तेरे सिर पर नाच रहा है। अरे मूर्ख! तू राम विमुख होकर सम्पत्ति (सुख) चाहता है? ऐसा कहकर विभीषण ने रावण की छाती के बीचों-बीच गदा मारी॥4॥

03 छन्द

उर माझ गदा प्रहार घोर कठोर लागत महि पर्‌यो।
दस बदन सोनित स्रवत पुनि सम्भारि धायो रिस भर्‌यो॥
द्वौ भिरे अतिबल मल्लजुद्ध बिरुद्ध एकु एकहि हनै।
रघुबीर बल दर्पित बिभीषनु घालि नहिं ता कहुँ गनै॥

मूल

उर माझ गदा प्रहार घोर कठोर लागत महि पर्‌यो।
दस बदन सोनित स्रवत पुनि सम्भारि धायो रिस भर्‌यो॥
द्वौ भिरे अतिबल मल्लजुद्ध बिरुद्ध एकु एकहि हनै।
रघुबीर बल दर्पित बिभीषनु घालि नहिं ता कहुँ गनै॥

भावार्थ

बीच छाती में कठोर गदा की घोर और कठिन चोट लगते ही वह पृथ्वी पर गिर पडा। उसके दसों मुखों से रुधिर बहने लगा, वह अपने को फिर सम्भालकर क्रोध में भरा हुआ दौडा। दोनों अत्यन्त बलवान्‌ योद्धा भिड गए और मल्लयुद्ध में एक-दूसरे के विरुद्ध होकर मारने लगे। श्री रघुवीर के बल से गर्वित विभीषण उसको (रावण जैसे जगद्विजयी योद्धा को) पासङ्ग के बराबर भी नहीं समझते।

094

01 दोहा

उमा बिभीषनु रावनहि सन्मुख चितव कि काउ।
सो अब भिरत काल ज्यों श्री रघुबीर प्रभाउ॥94॥

मूल

उमा बिभीषनु रावनहि सन्मुख चितव कि काउ।
सो अब भिरत काल ज्यों श्री रघुबीर प्रभाउ॥94॥

भावार्थ

(शिवजी कहते हैं-) हे उमा! विभीषण क्या कभी रावण के सामने आँख उठाकर भी देख सकता था? परन्तु अब वही काल के समान उससे भिड रहा है। यह श्री रघुवीर का ही प्रभाव है॥94॥

02 चौपाई

देखा श्रमित बिभीषनु भारी। धायउ हनूमान गिरि धारी॥
रथ तुरङ्ग सारथी निपाता। हृदय माझ तेहि मारेसि लाता॥1॥

मूल

देखा श्रमित बिभीषनु भारी। धायउ हनूमान गिरि धारी॥
रथ तुरङ्ग सारथी निपाता। हृदय माझ तेहि मारेसि लाता॥1॥

भावार्थ

विभीषण को बहुत ही थका हुआ देखकर हनुमान्‌जी पर्वत धारण किए हुए दौडे। उन्होन्ने उस पर्वत से रावण के रथ, घोडे और सारथी का संहार कर डाला और उसके सीने पर लात मारी॥1॥

ठाढ रहा अति कम्पित गाता। गयउ बिभीषनु जहँ जनत्राता॥
पुनि रावन कपि हतेउ पचारी। चलेउ गगन कपि पूँछ पसारी॥2॥

मूल

ठाढ रहा अति कम्पित गाता। गयउ बिभीषनु जहँ जनत्राता॥
पुनि रावन कपि हतेउ पचारी। चलेउ गगन कपि पूँछ पसारी॥2॥

भावार्थ

रावण खडा रहा, पर उसका शरीर अत्यन्त काँपने लगा। विभीषण वहाँ गए, जहाँ सेवकों के रक्षक श्री रामजी थे। फिर रावण ने ललकारकर हनुमान्‌जी को मारा। वे पूँछ फैलाकर आकाश में चले गए॥2॥

गहिसि पूँछ कपि सहित उडाना। पुनि फिरि भिरेउ प्रबल हनुमाना॥
लरत अकास जुगल सम जोधा। एकहि एकु हनत करि क्रोधा॥3॥

मूल

गहिसि पूँछ कपि सहित उडाना। पुनि फिरि भिरेउ प्रबल हनुमाना॥
लरत अकास जुगल सम जोधा। एकहि एकु हनत करि क्रोधा॥3॥

भावार्थ

रावण ने पूँछ पकड ली, हनुमान्‌जी उसको साथ लिए ऊपर उडे। फिर लौटकर महाबलवान्‌ हनुमान्‌जी उससे भिड गए। दोनों समान योद्धा आकाश में लडते हुए एक-दूसरे को क्रोध करके मारने लगे॥3॥

सोहहिं नभ छल बल बहु करहीं। कज्जलगिरि सुमेरु जनु लरहीं॥
बुधि बल निसिचर परइ न पारयो। तब मारुतसुत प्रभु सम्भार्‌यो॥4॥

मूल

सोहहिं नभ छल बल बहु करहीं। कज्जलगिरि सुमेरु जनु लरहीं॥
बुधि बल निसिचर परइ न पारयो। तब मारुतसुत प्रभु सम्भार्‌यो॥4॥

भावार्थ

दोनों बहुत से छल-बल करते हुए आकाश में ऐसे शोभित हो रहे हैं मानो कज्जलगिरि और सुमेरु पर्वत लड रहे हों। जब बुद्धि और बल से राक्षस गिराए न गिरा तब मारुति श्री हनुमान्‌जी ने प्रभु को स्मरण किया॥4॥

03 छन्द

सम्भारि श्रीरघुबीर धीर पचारि कपि रावनु हन्यो।
महि परत पुनि उठि लरत देवन्ह जुगल कहुँ जय जय भन्यो॥
हनुमन्त सङ्कट देखि मर्कट भालु क्रोधातुर चले।
रन मत्त रावन सकल सुभट प्रचण्ड भुज बल दलमले॥

मूल

सम्भारि श्रीरघुबीर धीर पचारि कपि रावनु हन्यो।
महि परत पुनि उठि लरत देवन्ह जुगल कहुँ जय जय भन्यो॥
हनुमन्त सङ्कट देखि मर्कट भालु क्रोधातुर चले।
रन मत्त रावन सकल सुभट प्रचण्ड भुज बल दलमले॥

भावार्थ

श्री रघुवीर का स्मरण करके धीर हनुमान्‌जी ने ललकारकर रावण को मारा। वे दोनों पृथ्वी पर गिरते और फिर उठकर लडते हैं, देवताओं ने दोनों की ‘जय-जय’ पुकारी। हनुमान्‌जी पर सङ्कट देखकर वानर-भालू क्रोधातुर होकर दौडे, किन्तु रण-मद-माते रावण ने सब योद्धाओं को अपनी प्रचण्ड भुजाओं के बल से कुचल और मसल डाला।

095

01 दोहा

तब रघुबीर पचारे धाए कीस प्रचण्ड।
कपि बल प्रबल देखि तेहिं कीन्ह प्रगट पाषण्ड॥95॥

मूल

तब रघुबीर पचारे धाए कीस प्रचण्ड।
कपि बल प्रबल देखि तेहिं कीन्ह प्रगट पाषण्ड॥95॥

भावार्थ

तब श्री रघुवीर के ललकारने पर प्रचण्ड वीर वानर दौडे। वानरों के प्रबल दल को देखकर रावण ने माया प्रकट की॥95॥

02 चौपाई

अन्तरधान भयउ छन एका। पुनि प्रगटे खल रूप अनेका॥
रघुपति कटक भालु कपि जेते। जहँ तहँ प्रगट दसानन तेते॥1॥

मूल

अन्तरधान भयउ छन एका। पुनि प्रगटे खल रूप अनेका॥
रघुपति कटक भालु कपि जेते। जहँ तहँ प्रगट दसानन तेते॥1॥

भावार्थ

क्षणभर के लिए वह अदृश्य हो गया। फिर उस दुष्ट ने अनेकों रूप प्रकट किए। श्री रघुनाथजी की सेना में जितने रीछ-वानर थे, उतने ही रावण जहाँ-तहाँ (चारों ओर) प्रकट हो गए॥1॥

देखे कपिन्ह अमित दससीसा। जहँ तहँ भजे भालु अरु कीसा॥
भागे बानर धरहिं न धीरा। त्राहि त्राहि लछिमन रघुबीरा॥2॥

मूल

देखे कपिन्ह अमित दससीसा। जहँ तहँ भजे भालु अरु कीसा॥
भागे बानर धरहिं न धीरा। त्राहि त्राहि लछिमन रघुबीरा॥2॥

भावार्थ

वानरों ने अपरिमित रावण देखे। भालू और वानर सब जहाँ-तहाँ (इधर-उधर) भाग चले। वानर धीरज नहीं धरते। हे लक्ष्मणजी! हे रघुवीर! बचाइए, बचाइए, यों पुकारते हुए वे भागे जा रहे हैं॥2॥

दहँ दिसि धावहिं कोटिन्ह रावन। गर्जहिं घोर कठोर भयावन॥
डरे सकल सुर चले पराई। जय कै आस तजहु अब भाई॥3॥

मूल

दहँ दिसि धावहिं कोटिन्ह रावन। गर्जहिं घोर कठोर भयावन॥
डरे सकल सुर चले पराई। जय कै आस तजहु अब भाई॥3॥

भावार्थ

दसों दिशाओं में करोडों रावण दौडते हैं और घोर, कठोर भयानक गर्जन कर रहे हैं। सब देवता डर गए और ऐसा कहते हुए भाग चले कि हे भाई! अब जय की आशा छोड दो!॥3॥

सब सुर जिते एक दसकन्धर। अब बहु भए तकहु गिरि कन्दर॥
रहे बिरञ्चि सम्भु मुनि ग्यानी। जिन्ह जिन्ह प्रभु महिमा कछु जानी॥4॥

मूल

सब सुर जिते एक दसकन्धर। अब बहु भए तकहु गिरि कन्दर॥
रहे बिरञ्चि सम्भु मुनि ग्यानी। जिन्ह जिन्ह प्रभु महिमा कछु जानी॥4॥

भावार्थ

एक ही रावण ने सब देवताओं को जीत लिया था, अब तो बहुत से रावण हो गए हैं। इससे अब पहाड की गुफाओं का आश्रय लो (अर्थात्‌ उनमें छिप रहो)। वहाँ ब्रह्मा, शम्भु और ज्ञानी मुनि ही डटे रहे, जिन्होन्ने प्रभु की कुछ महिमा जानी थी॥4॥

03 छन्द

जाना प्रताप ते रहे निर्भय कपिन्ह रिपु माने फुरे।
चले बिचलि मर्कट भालु सकल कृपाल पाहि भयातुरे॥
हनुमन्त अङ्गद नील नल अतिबल लरत रन बाँकुरे।
मर्दहिं दसानन कोटि कोटिन्ह कपट भू भट अङ्कुरे॥

मूल

जाना प्रताप ते रहे निर्भय कपिन्ह रिपु माने फुरे।
चले बिचलि मर्कट भालु सकल कृपाल पाहि भयातुरे॥
हनुमन्त अङ्गद नील नल अतिबल लरत रन बाँकुरे।
मर्दहिं दसानन कोटि कोटिन्ह कपट भू भट अङ्कुरे॥

भावार्थ

जो प्रभु का प्रताप जानते थे, वे निर्भय डटे रहे। वानरों ने शत्रुओं (बहुत से रावणों) को सच्चा ही मान लिया। (इससे) सब वानर-भालू विचलित होकर ‘हे कृपालु! रक्षा कीजिए’ (यों पुकारते हुए) भय से व्याकुल होकर भाग चले। अत्यन्त बलवान्‌ रणबाँकुरे हनुमान्‌जी, अङ्गद, नील और नल लडते हैं और कपट रूपी भूमि से अङ्कुर की भाँति उपजे हुए कोटि-कोटि योद्धा रावणों को मसलते हैं।

096

01 दोहा

सुर बानर देखे बिकल हँस्यो कोसलाधीस।
सजि सारङ्ग एक सर हते सकल दससीस॥96॥

मूल

सुर बानर देखे बिकल हँस्यो कोसलाधीस।
सजि सारङ्ग एक सर हते सकल दससीस॥96॥

भावार्थ

देवताओं और वानरों को विकल देखकर कोसलपति श्री रामजी हँसे और शार्गं धनुष पर एक बाण चढाकर (माया के बने हुए) सब रावणों को मार डाला॥96॥

02 चौपाई

प्रभु छन महुँ माया सब काटी। जिमि रबि उएँ जाहिं तम फाटी॥
रावनु एकु देखि सुर हरषे। फिरे सुमन बहु प्रभु पर बरषे॥1॥

मूल

प्रभु छन महुँ माया सब काटी। जिमि रबि उएँ जाहिं तम फाटी॥
रावनु एकु देखि सुर हरषे। फिरे सुमन बहु प्रभु पर बरषे॥1॥

भावार्थ

प्रभु ने क्षणभर में सब माया काट डाली। जैसे सूर्य के उदय होते ही अन्धकार की राशि फट जाती है (नष्ट हो जाती है)। अब एक ही रावण को देखकर देवता हर्षित हुए और उन्होन्ने लौटकर प्रभु पर बहुत से पुष्प बरसाए॥1॥

भुज उठाइ रघुपति कपि फेरे। फिरे एक एकन्ह तब टेरे॥
प्रभु बलु पाइ भालु कपि धाए। तरल तमकि सञ्जुग महि आए॥2॥

मूल

भुज उठाइ रघुपति कपि फेरे। फिरे एक एकन्ह तब टेरे॥
प्रभु बलु पाइ भालु कपि धाए। तरल तमकि सञ्जुग महि आए॥2॥

भावार्थ

श्री रघुनाथजी ने भुजा उठाकर सब वानरों को लौटाया। तब वे एक-दूसरे को पुकार-पुकार कर लौट आए। प्रभु का बल पाकर रीछ-वानर दौड पडे। जल्दी से कूदकर वे रणभूमि में आ गए॥2॥

अस्तुति करत देवतन्हि देखें। भयउँ एक मैं इन्ह के लेखें॥
सठहु सदा तुम्ह मोर मरायल। अस कहि कोपि गगन पर धायल॥3॥

मूल

अस्तुति करत देवतन्हि देखें। भयउँ एक मैं इन्ह के लेखें॥
सठहु सदा तुम्ह मोर मरायल। अस कहि कोपि गगन पर धायल॥3॥

भावार्थ

देवताओं को श्री रामजी की स्तुति करते देख कर रावण ने सोचा, मैं इनकी समझ में एक हो गया, (परन्तु इन्हें यह पता नहीं कि इनके लिए मैं एक ही बहुत हूँ) और कहा- अरे मूर्खों! तुम तो सदा के ही मेरे मरैल (मेरी मार खाने वाले) हो। ऐसा कहकर वह क्रोध करके आकाश पर (देवताओं की ओर) दौडा॥3॥

03 चौपाई

हाहाकार करत सुर भागे। खलहु जाहु कहँ मोरें आगे॥
देखि बिकल सुर अङ्गद धायो। कूदि चरन गहि भूमि गिरायो॥4॥

मूल

हाहाकार करत सुर भागे। खलहु जाहु कहँ मोरें आगे॥
देखि बिकल सुर अङ्गद धायो। कूदि चरन गहि भूमि गिरायो॥4॥

भावार्थ

देवता हाहाकार करते हुए भागे। (रावण ने कहा-) दुष्टों! मेरे आगे से कहाँ जा सकोगे? देवताओं को व्याकुल देखकर अङ्गद दौडे और उछलकर रावण का पैर पकडकर (उन्होन्ने) उसको पृथ्वी पर गिरा दिया॥4॥

04 छन्द

गहि भूमि पार्‌यो लात मार्‌यो बालिसुत प्रभु पहिं गयो।
सम्भारि उठि दसकण्ठ घोर कठोर रव गर्जत भयो॥
करि दाप चाप चढाइ दस सन्धानि सर बहु बरषई।
किए सकल भट घायल भयाकुल देखि निज बल हरषई॥

मूल

गहि भूमि पार्‌यो लात मार्‌यो बालिसुत प्रभु पहिं गयो।
सम्भारि उठि दसकण्ठ घोर कठोर रव गर्जत भयो॥
करि दाप चाप चढाइ दस सन्धानि सर बहु बरषई।
किए सकल भट घायल भयाकुल देखि निज बल हरषई॥

भावार्थ

उसे पकडकर पृथ्वी पर गिराकर लात मारकर बालिपुत्र अङ्गद प्रभु के पास चले गए। रावण सम्भलकर उठा और बडे भंयकर कठोर शब्द से गरजने लगा। वह दर्प करके दसों धनुष चढाकर उन पर बहुत से बाण सन्धान करके बरसाने लगा। उसने सब योद्धाओं को घायल और भय से व्याकुल कर दिया और अपना बल देखकर वह हर्षित होने लगा।

097

01 दोहा

तब रघुपति रावन के सीस भुजा सर चाप।
काटे बहुत बढे पुनि जिमि तीरथ कर पाप॥97॥

मूल

तब रघुपति रावन के सीस भुजा सर चाप।
काटे बहुत बढे पुनि जिमि तीरथ कर पाप॥97॥

भावार्थ

तब श्री रघुनाथजी ने रावण के सिर, भुजाएँ, बाण और धनुष काट डाले। पर वे फिर बहुत बढ गए, जैसे तीर्थ में किए हुए पाप बढ जाते हैं (कई गुना अधिक भयानक फल उत्पन्न करते हैं)!॥97॥

02 चौपाई

सिर भुज बाढि देखि रिपु केरी। भालु कपिन्ह रिस भई घनेरी॥
मरत न मूढ कटेहुँ भुज सीसा। धाए कोपि भालु भट कीसा॥1॥

मूल

सिर भुज बाढि देखि रिपु केरी। भालु कपिन्ह रिस भई घनेरी॥
मरत न मूढ कटेहुँ भुज सीसा। धाए कोपि भालु भट कीसा॥1॥

भावार्थ

शत्रु के सिर और भुजाओं की बढती देखकर रीछ-वानरों को बहुत ही क्रोध हुआ। यह मूर्ख भुजाओं के और सिरों के कटने पर भी नहीं मरता, (ऐसा कहते हुए) भालू और वानर योद्धा क्रोध करके दौडे॥1॥

बालितनय मारुति नल नीला। बानरराज दुबिद बलसीला॥
बिटप महीधर करहिं प्रहारा। सोइ गिरि तरु गहि कपिन्ह सो मारा॥2॥

मूल

बालितनय मारुति नल नीला। बानरराज दुबिद बलसीला॥
बिटप महीधर करहिं प्रहारा। सोइ गिरि तरु गहि कपिन्ह सो मारा॥2॥

भावार्थ

बालिपुत्र अङ्गद, मारुति हनुमान्‌जी, नल, नील, वानरराज सुग्रीव और द्विविद आदि बलवान्‌ उस पर वृक्ष और पर्वतों का प्रहार करते हैं। वह उन्हीं पर्वतों और वृक्षों को पकडकर वानरों को मारता है॥2॥

एक नखन्हि रिपु बपुष बिदारी। भागि चलहिं एक लातन्ह मारी।
तब नल नील सिरन्हि चढि गयऊ। नखन्हि लिलार बिदारत भयऊ॥3॥

मूल

एक नखन्हि रिपु बपुष बिदारी। भागि चलहिं एक लातन्ह मारी।
तब नल नील सिरन्हि चढि गयऊ। नखन्हि लिलार बिदारत भयऊ॥3॥

भावार्थ

कोई एक वानर नखों से शत्रु के शरीर को फाडकर भाग जाते हैं, तो कोई उसे लातों से मारकर। तब नल और नील रावण के सिरों पर चढ गए और नखों से उसके ललाट को फाडने लगे॥3॥

रुधिर देखि बिषाद उर भारी। तिन्हहि धरन कहुँ भुजा पसारी॥
गहे न जाहिं करन्हि पर फिरहीं। जनु जुग मधुप कमल बन चरहीं॥4॥

मूल

रुधिर देखि बिषाद उर भारी। तिन्हहि धरन कहुँ भुजा पसारी॥
गहे न जाहिं करन्हि पर फिरहीं। जनु जुग मधुप कमल बन चरहीं॥4॥

भावार्थ

खून देखकर उसे हृदय में बडा दुःख हुआ। उसने उनको पकडने के लिए हाथ फैलाए, पर वे पकड में नहीं आते, हाथों के ऊपर-ऊपर ही फिरते हैं मानो दो भौंरे कमलों के वन में विचरण कर रहे हों॥4॥

कोपि कूदि द्वौ धरेसि बहोरी। महि पटकत भजे भुजा मरोरी॥
पुनि सकोप दस धनु कर लीन्हे। सरन्हि मारि घायल कपि कीन्हे॥5॥

मूल

कोपि कूदि द्वौ धरेसि बहोरी। महि पटकत भजे भुजा मरोरी॥
पुनि सकोप दस धनु कर लीन्हे। सरन्हि मारि घायल कपि कीन्हे॥5॥

भावार्थ

तब उसने क्रोध करके उछलकर दोनों को पकड लिया। पृथ्वी पर पटकते समय वे उसकी भुजाओं को मरोडकर भाग छूटे। फिर उसने क्रोध करके हाथों में दसों धनुष लिए और वानरों को बाणों से मारकर घायल कर दिया॥5॥

हनुमदादि मुरुछित करि बन्दर। पाइ प्रदोष हरष दसकन्धर॥
मुरुछित देखि सकल कपि बीरा। जामवन्त धायउ रनधीरा॥6॥

मूल

हनुमदादि मुरुछित करि बन्दर। पाइ प्रदोष हरष दसकन्धर॥
मुरुछित देखि सकल कपि बीरा। जामवन्त धायउ रनधीरा॥6॥

भावार्थ

हनुमान्‌जी आदि सब वानरों को मूर्च्छित करके और सन्ध्या का समय पाकर रावण हर्षित हुआ। समस्त वानर-वीरों को मूर्च्छित देखकर रणधीर जाम्बवत्‌ दौडे॥6॥

सङ्ग भालु भूधर तरु धारी। मारन लगे पचारि पचारी॥
भयउ क्रुद्ध रावन बलवाना। गहि पद महि पटकइ भट नाना॥7॥

मूल

सङ्ग भालु भूधर तरु धारी। मारन लगे पचारि पचारी॥
भयउ क्रुद्ध रावन बलवाना। गहि पद महि पटकइ भट नाना॥7॥

भावार्थ

जाम्बवान्‌ के साथ जो भालू थे, वे पर्वत और वृक्ष धारण किए रावण को ललकार-ललकार कर मारने लगे। बलवान्‌ रावण क्रोधित हुआ और पैर पकड-पकडकर वह अनेकों योद्धाओं को पृथ्वी पर पटकने लगा॥7॥

देखि भालुपति निज दल घाता। कोपि माझ उर मारेसि लाता॥8॥

मूल

देखि भालुपति निज दल घाता। कोपि माझ उर मारेसि लाता॥8॥

भावार्थ

जाम्बवान्‌ ने अपने दल का विध्वंस देखकर क्रोध करके रावण की छाती में लात मारी॥8॥

03 छन्द

उर लात घात प्रचण्ड लागत बिकल रथ ते महि परा।
गहि भालु बीसहुँ कर मनहुँ कमलन्हि बसे निसि मधुकरा॥
मुरुछित बिलोकि बहोरि पद हति भालुपति प्रभु पहिं गयो॥
निसि जानि स्यन्दन घालि तेहि तब सूत जतनु करय भयो॥

मूल

उर लात घात प्रचण्ड लागत बिकल रथ ते महि परा।
गहि भालु बीसहुँ कर मनहुँ कमलन्हि बसे निसि मधुकरा॥
मुरुछित बिलोकि बहोरि पद हति भालुपति प्रभु पहिं गयो॥
निसि जानि स्यन्दन घालि तेहि तब सूत जतनु करय भयो॥

भावार्थ

छाती में लात का प्रचण्ड आघात लगते ही रावण व्याकुल होकर रथ से पृथ्वी पर गिर पडा। उसने बीसों हाथों में भालुओं को पकड रखा था। (ऐसा जान पडता था) मानो रात्रि के समय भौंरे कमलों में बसे हुए हों। उसे मूर्च्छित देखकर, फिर लात मारकर ऋक्षराज जाम्बवान्‌ प्रभु के पास चले। रात्रि जानकर सारथी रावण को रथ में डालकर उसे होश में लाने का उपाय करने लगा॥

098

01 दोहा

मुरुछा बिगत भालु कपि सब आए प्रभु पास।
निसिचर सकल रावनहि घेरि रहे अति त्रास॥98॥

मूल

मुरुछा बिगत भालु कपि सब आए प्रभु पास।
निसिचर सकल रावनहि घेरि रहे अति त्रास॥98॥

भावार्थ

मूर्च्छा दूर होने पर सब रीछ-वानर प्रभु के पास आए। उधर सब राक्षसों ने बहुत ही भयभीत होकर रावण को घेर लिया॥98॥

मासपारायण, छब्बीसवाँ विश्राम

02 चौपाई

तेही निसि सीता पहिं जाई। त्रिजटा कहि सब कथा सुनाई॥
सिर भुज बाढि सुनत रिपु केरी। सीता उर भइ त्रास घनेरी॥1॥

मूल

तेही निसि सीता पहिं जाई। त्रिजटा कहि सब कथा सुनाई॥
सिर भुज बाढि सुनत रिपु केरी। सीता उर भइ त्रास घनेरी॥1॥

भावार्थ

उसी रात त्रिजटा ने सीताजी के पास जाकर उन्हें सब कथा कह सुनाई। शत्रु के सिर और भुजाओं की बढती का संवाद सुनकर सीताजी के हृदय में बडा भय हुआ॥1॥

मुख मलीन उपजी मन चिन्ता। त्रिजटा सन बोली तब सीता॥
होइहि कहा कहसि किन माता। केहि बिधि मरिहि बिस्व दुखदाता॥2॥

मूल

मुख मलीन उपजी मन चिन्ता। त्रिजटा सन बोली तब सीता॥
होइहि कहा कहसि किन माता। केहि बिधि मरिहि बिस्व दुखदाता॥2॥

भावार्थ

(उनका) मुख उदास हो गया, मन में चिन्ता उत्पन्न हो गई। तब सीताजी त्रिजटा से बोलीं- हे माता! बताती क्यों नहीं? क्या होगा? सम्पूर्ण विश्व को दुःख देने वाला यह किस प्रकार मरेगा?॥2॥

रघुपति सर सिर कटेहुँ न मरई। बिधि बिपरीत चरित सब करई॥
मोर अभाग्य जिआवत ओही। जेहिं हौं हरि पद कमल बिछोही॥3॥

मूल

रघुपति सर सिर कटेहुँ न मरई। बिधि बिपरीत चरित सब करई॥
मोर अभाग्य जिआवत ओही। जेहिं हौं हरि पद कमल बिछोही॥3॥

भावार्थ

श्री रघुनाथजी के बाणों से सिर कटने पर भी नहीं मरता। विधाता सारे चरित्र विपरीत (उलटे) ही कर रहा है। (सच बात तो यह है कि) मेरा दुर्भाग्य ही उसे जिला रहा है, जिसने मुझे भगवान्‌ के चरणकमलों से अलग कर दिया है॥3॥

जेहिं कृत कपट कनक मृग झूठा। अजहुँ सो दैव मोहि पर रूठा॥
जेहिं बिधि मोहि दुख दुसह सहाए। लछिमन कहुँ कटु बचन कहाए॥4॥

मूल

जेहिं कृत कपट कनक मृग झूठा। अजहुँ सो दैव मोहि पर रूठा॥
जेहिं बिधि मोहि दुख दुसह सहाए। लछिमन कहुँ कटु बचन कहाए॥4॥

भावार्थ

जिसने कपट का झूठा स्वर्ण मृग बनाया था, वही दैव अब भी मुझ पर रूठा हुआ है, जिस विधाता ने मुझसे दुःसह दुःख सहन कराए और लक्ष्मण को कडुवे वचन कहलाए,॥4॥

रघुपति बिरह सबिष सर भारी। तकि तकि मार बार बहु मारी॥
ऐसेहुँ दुख जो राख मम प्राना। सोइ बिधि ताहि जिआव न आना॥5॥

मूल

रघुपति बिरह सबिष सर भारी। तकि तकि मार बार बहु मारी॥
ऐसेहुँ दुख जो राख मम प्राना। सोइ बिधि ताहि जिआव न आना॥5॥

भावार्थ

जो श्री रघुनाथजी के विरह रूपी बडे विषैले बाणों से तक-तककर मुझे बहुत बार मारकर, अब भी मार रहा है और ऐसे दुःख में भी जो मेरे प्राणों को रख रहा है, वही विधाता उस (रावण) को जिला रहा है, दूसरा कोई नहीं॥5॥

बहु बिधि कर बिलाप जानकी। करि करि सुरति कृपानिधान की॥
कह त्रिजटा सुनु राजकुमारी। उर सर लागत मरइ सुरारी॥6॥

मूल

बहु बिधि कर बिलाप जानकी। करि करि सुरति कृपानिधान की॥
कह त्रिजटा सुनु राजकुमारी। उर सर लागत मरइ सुरारी॥6॥

भावार्थ

कृपानिधान श्री रामजी की याद कर-करके जानकीजी बहुत प्रकार से विलाप कर रही हैं। त्रिजटा ने कहा- हे राजकुमारी! सुनो, देवताओं का शत्रु रावण हृदय में बाण लगते ही मर जाएगा॥6॥

प्रभु ताते उर हतइ न तेही। एहि के हृदयँ बसति बैदेही॥7॥

मूल

प्रभु ताते उर हतइ न तेही। एहि के हृदयँ बसति बैदेही॥7॥

भावार्थ

परन्तु प्रभु उसके हृदय में बाण इसलिए नहीं मारते कि इसके हृदय में जानकीजी (आप) बसती हैं॥7॥

03 छन्द

एहि के हृदयँ बस जानकी जानकी उर मम बास है।
मम उदर भुअन अनेक लागत बान सब कर नास है॥
सुनि बचन हरष बिषाद मन अति देखि पुनि त्रिजटाँ कहा।
अब मरिहि रिपु एहि बिधि सुनहि सुन्दरि तजहि संसय महा॥

मूल

एहि के हृदयँ बस जानकी जानकी उर मम बास है।
मम उदर भुअन अनेक लागत बान सब कर नास है॥
सुनि बचन हरष बिषाद मन अति देखि पुनि त्रिजटाँ कहा।
अब मरिहि रिपु एहि बिधि सुनहि सुन्दरि तजहि संसय महा॥

भावार्थ

वे यही सोचकर रह जाते हैं कि) इसके हृदय में जानकी का निवास है, जानकी के हृदय में मेरा निवास है और मेरे उदर में अनेकों भुवन हैं। अतः रावण के हृदय में बाण लगते ही सब भुवनों का नाश हो जाएगा। यह वचन सुनकर सीताजी के मन में अत्यन्त हर्ष और विषाद हुआ देखकर त्रिजटा ने फिर कहा- हे सुन्दरी! महान्‌ सन्देह का त्याग कर दो, अब सुनो, शत्रु इस प्रकार मरेगा-

099

01 दोहा

काटत सिर होइहि बिकल छुटि जाइहि तव ध्यान।
तब रावनहि हृदय महुँ मरिहहिं रामु सुजान॥99॥

मूल

काटत सिर होइहि बिकल छुटि जाइहि तव ध्यान।
तब रावनहि हृदय महुँ मरिहहिं रामु सुजान॥99॥

भावार्थ

सिरों के बार-बार काटे जाने से जब वह व्याकुल हो जाएगा और उसके हृदय से तुम्हारा ध्यान छूट जाएगा, तब सुजान (अन्तर्यामी) श्री रामजी रावण के हृदय में बाण मारेङ्गे॥99॥

02 चौपाई

अस कहि बहुत भाँति समुझाई। पुनि त्रिजटा निज भवन सिधाई॥
राम सुभाउ सुमिरि बैदेही। उपजी बिरह बिथा अति तेही॥1॥

मूल

अस कहि बहुत भाँति समुझाई। पुनि त्रिजटा निज भवन सिधाई॥
राम सुभाउ सुमिरि बैदेही। उपजी बिरह बिथा अति तेही॥1॥

भावार्थ

ऐसा कहकर और सीताजी को बहुत प्रकार से समझाकर फिर त्रिजटा अपने घर चली गई। श्री रामचन्द्रजी के स्वभाव का स्मरण करके जानकीजी को अत्यन्त विरह व्यथा उत्पन्न हुई॥1॥

निसिहि ससिहि निन्दति बहु भाँति। जुग सम भई सिराति न राती॥
करति बिलाप मनहिं मन भारी। राम बिरहँ जानकी दुखारी॥2॥

मूल

निसिहि ससिहि निन्दति बहु भाँति। जुग सम भई सिराति न राती॥
करति बिलाप मनहिं मन भारी। राम बिरहँ जानकी दुखारी॥2॥

भावार्थ

वे रात्रि की और चन्द्रमा की बहुत प्रकार से निन्दा कर रही हैं (और कह रही हैं-) रात युग के समान बडी हो गई, वह बीतती ही नहीं। जानकीजी श्री रामजी के विरह में दुःखी होकर मन ही मन भारी विलाप कर रही हैं॥2॥

जब अति भयउ बिरह उर दाहू। फरकेउ बाम नयन अरु बाहू॥
सगुन बिचारि धरी मन धीरा। अब मिलिहहिं कृपाल रघुबीरा॥3॥

मूल

जब अति भयउ बिरह उर दाहू। फरकेउ बाम नयन अरु बाहू॥
सगुन बिचारि धरी मन धीरा। अब मिलिहहिं कृपाल रघुबीरा॥3॥

भावार्थ

जब विरह के मारे हृदय में दारुण दाह हो गया, तब उनका बायाँ नेत्र और बाहु फडक उठे। शकुन समझकर उन्होन्ने मन में धैर्य धारण किया कि अब कृपालु श्री रघुवीर अवश्य मिलेङ्गे॥3॥

इहाँ अर्धनिसि रावनु जागा। निज सारथि सन खीझन लागा।
सठ रनभूमि छडाइसि मोही। धिग धिग अधम मन्दमति तोही॥4॥

मूल

इहाँ अर्धनिसि रावनु जागा। निज सारथि सन खीझन लागा।
सठ रनभूमि छडाइसि मोही। धिग धिग अधम मन्दमति तोही॥4॥

भावार्थ

यहाँ आधी रात को रावण (मूर्च्छा से) जागा और अपने सारथी पर रुष्ट होकर कहने लगा- अरे मूर्ख! तूने मुझे रणभूमि से अलग कर दिया। अरे अधम! अरे मन्दबुद्धि! तुझे धिक्कार है, धिक्कार है!॥4॥

तेहिं पद गहि बहु बिधि समुझावा। भोरु भएँ रथ चढि पुनि धावा॥
सुनि आगवनु दसानन केरा। कपि दल खरभर भयउ घनेरा॥5॥

मूल

तेहिं पद गहि बहु बिधि समुझावा। भोरु भएँ रथ चढि पुनि धावा॥
सुनि आगवनु दसानन केरा। कपि दल खरभर भयउ घनेरा॥5॥

भावार्थ

सारथि ने चरण पकडकर रावण को बहुत प्रकार से समझाया। सबेरा होते ही वह रथ पर चढकर फिर दौडा। रावण का आना सुनकर वानरों की सेना में बडी खलबली मच गई॥5॥

जहँ तहँ भूधर बिटप उपारी। धाए कटकटाइ भट भारी॥6॥

मूल

जहँ तहँ भूधर बिटप उपारी। धाए कटकटाइ भट भारी॥6॥

भावार्थ

वे भारी योद्धा जहाँ-तहाँ से पर्वत और वृक्ष उखाडकर (क्रोध से) दाँत कटकटाकर दौडे॥6॥

03 छन्द

धाए जो मर्कट बिकट भालु कराल कर भूधर धरा।
अति कोप करहिं प्रहार मारत भजि चले रजनीचरा॥
बिचलाइ दल बलवन्त कीसन्ह घेरि पुनि रावनु लियो।
चहुँ दिसि चपेटन्हि मारि नखन्हि बिदारि तन ब्याकुल कियो॥

मूल

धाए जो मर्कट बिकट भालु कराल कर भूधर धरा।
अति कोप करहिं प्रहार मारत भजि चले रजनीचरा॥
बिचलाइ दल बलवन्त कीसन्ह घेरि पुनि रावनु लियो।
चहुँ दिसि चपेटन्हि मारि नखन्हि बिदारि तन ब्याकुल कियो॥

भावार्थ

विकट और विकराल वानर-भालू हाथों में पर्वत लिए दौडे। वे अत्यन्त क्रोध करके प्रहार करते हैं। उनके मारने से राक्षस भाग चले। बलवान्‌ वानरों ने शत्रु की सेना को विचलित करके फिर रावण को घेर लिया। चारों ओर से चपेटे मारकर और नखों से शरीर विदीर्ण कर वानरों ने उसको व्याकुल कर दिया॥

100

01 दोहा

देखि महा मर्कट प्रबल रावन कीन्ह बिचार।
अन्तरहित होइ निमिष महुँ कृत माया बिस्तार॥100॥

मूल

देखि महा मर्कट प्रबल रावन कीन्ह बिचार।
अन्तरहित होइ निमिष महुँ कृत माया बिस्तार॥100॥

भावार्थ

वानरों को बडा ही प्रबल देखकर रावण ने विचार किया और अन्तर्धान होकर क्षणभर में उसने माया फैलाई॥100॥

02 छन्द

जब कीन्ह तेहिं पाषण्ड। भए प्रगट जन्तु प्रचण्ड॥
बेताल भूत पिसाच। कर धरें धनु नाराच॥1॥

मूल

जब कीन्ह तेहिं पाषण्ड। भए प्रगट जन्तु प्रचण्ड॥
बेताल भूत पिसाच। कर धरें धनु नाराच॥1॥

भावार्थ

जब उसने पाखण्ड (माया) रचा, तब भयङ्कर जीव प्रकट हो गए। बेताल, भूत और पिशाच हाथों में धनुष-बाण लिए प्रकट हुए!॥1॥

जोगिनि गहें करबाल। एक हाथ मनुज कपाल॥
करि सद्य सोनित पान। नाचहिं करहिं बहु गान॥2॥

मूल

जोगिनि गहें करबाल। एक हाथ मनुज कपाल॥
करि सद्य सोनित पान। नाचहिं करहिं बहु गान॥2॥

भावार्थ

योगिनियाँ एक हाथ में तलवार और दूसरे हाथ में मनुष्य की खोपडी लिए ताजा खून पीकर नाचने और बहुत तरह के गीत गाने लगीं॥2॥

धरु मारु बोलहिं घोर। रहि पूरि धुनि चहुँ ओर॥
मुख बाइ धावहिं खान। तब लगे कीस परान॥3॥

मूल

धरु मारु बोलहिं घोर। रहि पूरि धुनि चहुँ ओर॥
मुख बाइ धावहिं खान। तब लगे कीस परान॥3॥

भावार्थ

वे ‘पकडो, मारो’ आदि घोर शब्द बोल रही हैं। चारों ओर (सब दिशाओं में) यह ध्वनि भर गई। वे मुख फैलाकर खाने दौडती हैं। तब वानर भागने लगे॥3॥

जहँ जाहिं मर्कट भागि। तहँ बरत देखहिं आगि॥
भए बिकल बानर भालु। पुनि लाग बरषै बालु॥4॥

मूल

जहँ जाहिं मर्कट भागि। तहँ बरत देखहिं आगि॥
भए बिकल बानर भालु। पुनि लाग बरषै बालु॥4॥

भावार्थ

वानर भागकर जहाँ भी जाते हैं, वहीं आग जलती देखते हैं। वानर-भालू व्याकुल हो गए। फिर रावण बालू बरसाने लगा॥4॥

जहँ तहँ थकित करि कीस। गर्जेउ बहुरि दससीस॥
लछिमन कपीस समेत। भए सकल बीर अचेत॥5॥

मूल

जहँ तहँ थकित करि कीस। गर्जेउ बहुरि दससीस॥
लछिमन कपीस समेत। भए सकल बीर अचेत॥5॥

भावार्थ

वानरों को जहाँ-तहाँ थकित (शिथिल) कर रावण फिर गरजा। लक्ष्मणजी और सुग्रीव सहित सभी वीर अचेत हो गए॥5॥

हा राम हा रघुनाथ। कहि सुभट मीजहिं हाथ॥
ऐहि बिधि सकल बल तोरि। तेहिं कीन्ह कपट बहोरि॥6॥

मूल

हा राम हा रघुनाथ। कहि सुभट मीजहिं हाथ॥
ऐहि बिधि सकल बल तोरि। तेहिं कीन्ह कपट बहोरि॥6॥

भावार्थ

हा राम! हा रघुनाथ पुकारते हुए श्रेष्ठ योद्धा अपने हाथ मलते (पछताते) हैं। इस प्रकार सब का बल तोडकर रावण ने फिर दूसरी माया रची॥6॥

प्रगटेसि बिपुल हनुमान। धाए गहे पाषान॥
तिन्ह रामु घेरे जाइ। चहुँ दिसि बरूथ बनाइ॥7॥

मूल

प्रगटेसि बिपुल हनुमान। धाए गहे पाषान॥
तिन्ह रामु घेरे जाइ। चहुँ दिसि बरूथ बनाइ॥7॥

भावार्थ

उसने बहुत से हनुमान्‌ प्रकट किए, जो पत्थर लिए दौडे। उन्होन्ने चारों ओर दल बनाकर श्री रामचन्द्रजी को जा घेरा॥7॥

मारहु धरहु जनि जाइ। कटकटहिं पूँछ उठाइ॥
दहँ दिसि लँगूर बिराज। तेहिं मध्य कोसलराज॥8॥

मूल

मारहु धरहु जनि जाइ। कटकटहिं पूँछ उठाइ॥
दहँ दिसि लँगूर बिराज। तेहिं मध्य कोसलराज॥8॥

भावार्थ

वे पूँछ उठाकर कटकटाते हुए पुकारने लगे, ‘मारो, पकडो, जाने न पावे’। उनके लङ्गूर (पूँछ) दसों दिशाओं में शोभा दे रहे हैं और उनके बीच में कोसलराज श्री रामजी हैं॥8॥

03 छन्द

तेहिं मध्य कोसलराज सुन्दर स्याम तन सोभा लही।
जनु इन्द्रधनुष अनेक की बर बारि तुङ्ग तमालही॥
प्रभु देखि हरष बिषाद उर सुर बदत जय जय जय करी।
रघुबीर एकहिं तीर कोपि निमेष महुँ माया हरी॥1॥

मूल

तेहिं मध्य कोसलराज सुन्दर स्याम तन सोभा लही।
जनु इन्द्रधनुष अनेक की बर बारि तुङ्ग तमालही॥
प्रभु देखि हरष बिषाद उर सुर बदत जय जय जय करी।
रघुबीर एकहिं तीर कोपि निमेष महुँ माया हरी॥1॥

भावार्थ

उनके बीच में कोसलराज का सुन्दर श्याम शरीर ऐसी शोभा पा रहा है, मानो ऊँचे तमाल वृक्ष के लिए अनेक इन्द्रधनुषों की श्रेष्ठ बाढ (घेरा) बनाई गई हो। प्रभु को देखकर देवता हर्ष और विषादयुक्त हृदय से ‘जय, जय, जय’ ऐसा बोलने लगे। तब श्री रघुवीर ने क्रोध करके एक ही बाण में निमेषमात्र में रावण की सारी माया हर ली॥1॥

माया बिगत कपि भालु हरषे बिटप गिरि गहि सब फिरे।
सर निकर छाडे राम रावन बाहु सिर पुनि महि गिरे॥
श्रीराम रावन समर चरित अनेक कल्प जो गावहीं।
सत सेष सारद निगम कबि तेउ तदपि पार न पावहीं॥2॥

मूल

माया बिगत कपि भालु हरषे बिटप गिरि गहि सब फिरे।
सर निकर छाडे राम रावन बाहु सिर पुनि महि गिरे॥
श्रीराम रावन समर चरित अनेक कल्प जो गावहीं।
सत सेष सारद निगम कबि तेउ तदपि पार न पावहीं॥2॥

भावार्थ

माया दूर हो जाने पर वानर-भालू हर्षित हुए और वृक्ष तथा पर्वत ले-लेकर सब लौट पडे। श्री रामजी ने बाणों के समूह छोडे, जिनसे रावण के हाथ और सिर फिर कट-कटकर पृथ्वी पर गिर पडे। श्री रामजी और रावण के युद्ध का चरित्र यदि सैकडों शेष, सरस्वती, वेद और कवि अनेक कल्पों तक गाते रहें, तो भी उसका पार नहीं पा सकते॥2॥

101

01 दोहा

ताके गुन गन कछु कहे जडमति तुलसीदास।
जिमि निज बल अनुरूप ते माछी उडइ अकास॥1॥

मूल

ताके गुन गन कछु कहे जडमति तुलसीदास।
जिमि निज बल अनुरूप ते माछी उडइ अकास॥1॥

भावार्थ

उसी चरित्र के कुछ गुणगण मन्दबुद्धि तुलसीदास ने कहे हैं, जैसे मक्खी भी अपने पुरुषार्थ के अनुसार आकाश में उडती है॥1॥

काटे सिर भुज बार बहु मरत न भट लङ्केस।
प्रभु क्रीडत सुर सिद्ध मुनि ब्याकुल देखि कलेस॥2॥

मूल

काटे सिर भुज बार बहु मरत न भट लङ्केस।
प्रभु क्रीडत सुर सिद्ध मुनि ब्याकुल देखि कलेस॥2॥

भावार्थ

सिर और भुजाएँ बहुत बार काटी गईं। फिर भी वीर रावण मरता नहीं। प्रभु तो खेल कर रहे हैं, परन्तु मुनि, सिद्ध और देवता उस क्लेश को देखकर (प्रभु को क्लेश पाते समझकर) व्याकुल हैं॥2॥

02 चौपाई

काटत बढहिं सीस समुदाई। जिमि प्रति लाभ लोभ अधिकाई॥
मरइ न रिपु श्रम भयउ बिसेषा। राम बिभीषन तन तब देखा॥1॥

मूल

काटत बढहिं सीस समुदाई। जिमि प्रति लाभ लोभ अधिकाई॥
मरइ न रिपु श्रम भयउ बिसेषा। राम बिभीषन तन तब देखा॥1॥

भावार्थ

काटते ही सिरों का समूह बढ जाता है, जैसे प्रत्येक लाभ पर लोभ बढता है। शत्रु मरता नहीं और परिश्रम बहुत हुआ। तब श्री रामचन्द्रजी ने विभीषण की ओर देखा॥1॥

उमा काल मर जाकीं ईछा। सो प्रभु जन कर प्रीति परीछा॥
सुनु सरबग्य चराचर नायक। प्रनतपाल सुर मुनि सुखदायक॥2॥

मूल

उमा काल मर जाकीं ईछा। सो प्रभु जन कर प्रीति परीछा॥
सुनु सरबग्य चराचर नायक। प्रनतपाल सुर मुनि सुखदायक॥2॥

भावार्थ

(शिवजी कहते हैं-) हे उमा! जिसकी इच्छा मात्र से काल भी मर जाता है, वही प्रभु सेवक की प्रीति की परीक्षा ले रहे हैं। (विभीषणजी ने कहा-) हे सर्वज्ञ! हे चराचर के स्वामी! हे शरणागत के पालन करने वाले! हे देवता और मुनियों को सुख देने वाले! सुनिए-॥2॥

नाभिकुण्ड पियूष बस याकें। नाथ जिअत रावनु बल ताकें॥
सुनत बिभीषन बचन कृपाला। हरषि गहे कर बान कराला॥3॥

मूल

नाभिकुण्ड पियूष बस याकें। नाथ जिअत रावनु बल ताकें॥
सुनत बिभीषन बचन कृपाला। हरषि गहे कर बान कराला॥3॥

भावार्थ

इसके नाभिकुण्ड में अमृत का निवास है। हे नाथ! रावण उसी के बल पर जीता है। विभीषण के वचन सुनते ही कृपालु श्री रघुनाथजी ने हर्षित होकर हाथ में विकराल बाण लिए॥3॥

असुभ होन लागे तब नाना। रोवहिं खर सृकाल बहु स्वाना॥
बोलहिं खग जग आरति हेतू। प्रगट भए नभ जहँ तहँ केतू॥4॥

मूल

असुभ होन लागे तब नाना। रोवहिं खर सृकाल बहु स्वाना॥
बोलहिं खग जग आरति हेतू। प्रगट भए नभ जहँ तहँ केतू॥4॥

भावार्थ

उस समय नाना प्रकार के अपशकुन होने लगे। बहुत से गदहे, स्यार और कुत्ते रोने लगे। जगत्‌ के दुःख (अशुभ) को सूचित करने के लिए पक्षी बोलने लगे। आकाश में जहाँ-तहाँ केतु (पुच्छल तारे) प्रकट हो गए॥4॥

दस दिसि दाह होन अति लागा। भयउ परब बिनु रबि उपरागा॥
मन्दोदरि उर कम्पति भारी। प्रतिमा स्रवहिं नयन मग बारी॥5॥

मूल

दस दिसि दाह होन अति लागा। भयउ परब बिनु रबि उपरागा॥
मन्दोदरि उर कम्पति भारी। प्रतिमा स्रवहिं नयन मग बारी॥5॥

भावार्थ

दसों दिशाओं में अत्यन्त दाह होने लगा (आग लगने लगी) बिना ही पर्व (योग) के सूर्यग्रहण होने लगा। मन्दोदरी का हृदय बहुत काँपने लगा। मूर्तियाँ नेत्र मार्ग से जल बहाने लगीं॥5॥

03 छन्द

प्रतिमा रुदहिं पबिपात नभ अति बात बह डोलति मही।
बरषहिं बलाहक रुधिर कच रज असुभ अति सक को कही॥
उतपात अमित बिलोकि नभ सुर बिकल बोलहिं जय जए।
सुर सभय जानि कृपाल रघुपति चाप सर जोरत भए॥

मूल

प्रतिमा रुदहिं पबिपात नभ अति बात बह डोलति मही।
बरषहिं बलाहक रुधिर कच रज असुभ अति सक को कही॥
उतपात अमित बिलोकि नभ सुर बिकल बोलहिं जय जए।
सुर सभय जानि कृपाल रघुपति चाप सर जोरत भए॥

भावार्थ

मूर्तियाँ रोने लगीं, आकाश से वज्रपात होने लगे, अत्यन्त प्रचण्ड वायु बहने लगी, पृथ्वी हिलने लगी, बादल रक्त, बाल और धूल की वर्षा करने लगे। इस प्रकार इतने अधिक अमङ्गल होने लगे कि उनको कौन कह सकता है? अपरिमित उत्पात देखकर आकाश में देवता व्याकुल होकर जय-जय पुकार उठे। देवताओं को भयभीत जानकर कृपालु श्री रघुनाथजी धनुष पर बाण सन्धान करने लगे।

102

01 दोहा

खैञ्चि सरासन श्रवन लगि छाडे सर एकतीस।
रघुनायक सायक चले मानहुँ काल फनीस॥102॥

मूल

खैञ्चि सरासन श्रवन लगि छाडे सर एकतीस।
रघुनायक सायक चले मानहुँ काल फनीस॥102॥

भावार्थ

कानों तक धनुष को खीञ्चकर श्री रघुनाथजी ने इकतीस बाण छोडे। वे श्री रामचन्द्रजी के बाण ऐसे चले मानो कालसर्प हों॥102॥

02 चौपाई

सायक एक नाभि सर सोषा। अपर लगे भुज सिर करि रोषा॥
लै सिर बाहु चले नाराचा। सिर भुज हीन रुण्ड महि नाचा॥1॥

मूल

सायक एक नाभि सर सोषा। अपर लगे भुज सिर करि रोषा॥
लै सिर बाहु चले नाराचा। सिर भुज हीन रुण्ड महि नाचा॥1॥

भावार्थ

एक बाण ने नाभि के अमृत कुण्ड को सोख लिया। दूसरे तीस बाण कोप करके उसके सिरों और भुजाओं में लगे। बाण सिरों और भुजाओं को लेकर चले। सिरों और भुजाओं से रहित रुण्ड (धड) पृथ्वी पर नाचने लगा॥1॥

धरनि धसइ धर धाव प्रचण्डा। तब सर हति प्रभु कृत दुइ खण्डा॥
गर्जेउ मरत घोर रव भारी। कहाँ रामु रन हतौं पचारी॥2॥

मूल

धरनि धसइ धर धाव प्रचण्डा। तब सर हति प्रभु कृत दुइ खण्डा॥
गर्जेउ मरत घोर रव भारी। कहाँ रामु रन हतौं पचारी॥2॥

भावार्थ

धड प्रचण्ड वेग से दौडता है, जिससे धरती धँसने लगी। तब प्रभु ने बाण मारकर उसके दो टुकडे कर दिए। मरते समय रावण बडे घोर शब्द से गरजकर बोला- राम कहाँ हैं? मैं ललकारकर उनको युद्ध में मारूँ!॥2॥

डोली भूमि गिरत दसकन्धर। छुभित सिन्धु सरि दिग्गज भूधर॥
धरनि परेउ द्वौ खण्ड बढाई। चापि भालु मर्कट समुदाई॥3॥

मूल

डोली भूमि गिरत दसकन्धर। छुभित सिन्धु सरि दिग्गज भूधर॥
धरनि परेउ द्वौ खण्ड बढाई। चापि भालु मर्कट समुदाई॥3॥

भावार्थ

रावण के गिरते ही पृथ्वी हिल गई। समुद्र, नदियाँ, दिशाओं के हाथी और पर्वत क्षुब्ध हो उठे। रावण धड के दोनों टुकडों को फैलाकर भालू और वानरों के समुदाय को दबाता हुआ पृथ्वी पर गिर पडा॥3॥

मन्दोदरि आगें भुज सीसा। धरि सर चले जहाँ जगदीसा॥
प्रबिसे सब निषङ्ग महुँ जाई। देखि सुरन्ह दुन्दुभीं बजाई॥4॥

मूल

मन्दोदरि आगें भुज सीसा। धरि सर चले जहाँ जगदीसा॥
प्रबिसे सब निषङ्ग महुँ जाई। देखि सुरन्ह दुन्दुभीं बजाई॥4॥

भावार्थ

रावण की भुजाओं और सिरों को मन्दोदरी के सामने रखकर रामबाण वहाँ चले, जहाँ जगदीश्वर श्री रामजी थे। सब बाण जाकर तरकस में प्रवेश कर गए। यह देखकर देवताओं ने नगाडे बजाए॥4॥

तासु तेज समान प्रभु आनन। हरषे देखि सम्भु चतुरानन॥
जय जय धुनि पूरी ब्रह्मण्डा। जय रघुबीर प्रबल भुजदण्डा॥5॥

मूल

तासु तेज समान प्रभु आनन। हरषे देखि सम्भु चतुरानन॥
जय जय धुनि पूरी ब्रह्मण्डा। जय रघुबीर प्रबल भुजदण्डा॥5॥

भावार्थ

रावण का तेज प्रभु के मुख में समा गया। यह देखकर शिवजी और ब्रह्माजी हर्षित हुए। ब्रह्माण्डभर में जय-जय की ध्वनि भर गई। प्रबल भुजदण्डों वाले श्री रघुवीर की जय हो॥5॥

बरषहिं सुमन देव मुनि बृन्दा। जय कृपाल जय जयति मुकुन्दा॥6॥

मूल

बरषहिं सुमन देव मुनि बृन्दा। जय कृपाल जय जयति मुकुन्दा॥6॥

भावार्थ

देवता और मुनियों के समूह फूल बरसाते हैं और कहते हैं- कृपालु की जय हो, मुकुन्द की जय हो, जय हो!॥6॥

03 छन्द

जय कृपा कन्द मुकुन्द द्वन्द हरन सरन सुखप्रद प्रभो।
खल दल बिदारन परम कारन कारुनीक सदा बिभो॥
सुर सुमन बरषहिं हरष सङ्कुल बाज दुन्दुभि गहगही।
सङ्ग्राम अङ्गन राम अङ्ग अनङ्ग बहु सोभा लही॥1॥

मूल

जय कृपा कन्द मुकुन्द द्वन्द हरन सरन सुखप्रद प्रभो।
खल दल बिदारन परम कारन कारुनीक सदा बिभो॥
सुर सुमन बरषहिं हरष सङ्कुल बाज दुन्दुभि गहगही।
सङ्ग्राम अङ्गन राम अङ्ग अनङ्ग बहु सोभा लही॥1॥

भावार्थ

हे कृपा के कन्द! हे मोक्षदाता मुकुन्द! हे (राग-द्वेष, हर्ष-शोक, जन्म-मृत्यु आदि) द्वन्द्वों के हरने वाले! हे शरणागत को सुख देने वाले प्रभो! हे दुष्ट दल को विदीर्ण करने वाले! हे कारणों के भी परम कारण! हे सदा करुणा करने वाले! हे सर्वव्यापक विभो! आपकी जय हो। देवता हर्ष में भरे हुए पुष्प बरसाते हैं, घमाघम नगाडे बज रहे हैं। रणभूमि में श्री रामचन्द्रजी के अङ्गों ने बहुत से कामदेवों की शोभा प्राप्त की॥1॥

सिर जटा मुकुट प्रसून बिच बिच अति मनोहर राजहीं।
जनु नीलगिरि पर तडित पटल समेत उडुगन भ्राजहीं॥
भुजदण्ड सर कोदण्ड फेरत रुधिर कन तन अति बने।
जनु रायमुनीं तमाल पर बैठीं बिपुल सुख आपने॥2॥

मूल

सिर जटा मुकुट प्रसून बिच बिच अति मनोहर राजहीं।
जनु नीलगिरि पर तडित पटल समेत उडुगन भ्राजहीं॥
भुजदण्ड सर कोदण्ड फेरत रुधिर कन तन अति बने।
जनु रायमुनीं तमाल पर बैठीं बिपुल सुख आपने॥2॥

भावार्थ

सिर पर जटाओं का मुकुट है, जिसके बीच में अत्यन्त मनोहर पुष्प शोभा दे रहे हैं। मानो नीले पर्वत पर बिजली के समूह सहित नक्षत्र सुशोभित हो रहे हैं। श्री रामजी अपने भुजदण्डों से बाण और धनुष फिरा रहे हैं। शरीर पर रुधिर के कण अत्यन्त सुन्दर लगते हैं। मानो तमाल के वृक्ष पर बहुत सी ललमुनियाँ चिडियाँ अपने महान्‌ सुख में मग्न हुई निश्चल बैठी हों॥2॥

103

01 दोहा

कृपादृष्टि करि बृष्टि प्रभु अभय किए सुर बृन्द।
भालु कीस सब हरषे जय सुख धाम मुकुन्द॥103॥

मूल

कृपादृष्टि करि बृष्टि प्रभु अभय किए सुर बृन्द।
भालु कीस सब हरषे जय सुख धाम मुकुन्द॥103॥

भावार्थ

प्रभु श्री रामचन्द्रजी ने कृपा दृष्टि की वर्षा करके देव समूह को निर्भय कर दिया। वानर-भालू सब हर्षित हुए और सुखधाम मुकुन्द की जय हो, ऐसा पुकारने लगे॥103॥

02 चौपाई

पति सिर देखत मन्दोदरी। मुरुछित बिकल धरनि खसि परी॥
जुबति बृन्द रोवत उठि धाईं। तेहि उठाइ रावन पहिं आईं॥1॥

मूल

पति सिर देखत मन्दोदरी। मुरुछित बिकल धरनि खसि परी॥
जुबति बृन्द रोवत उठि धाईं। तेहि उठाइ रावन पहिं आईं॥1॥

भावार्थ

पति के सिर देखते ही मन्दोदरी व्याकुल और मूर्च्छित होकर धरती पर गिर पडी। स्त्रियाँ रोती हुई दौडीं और उस (मन्दोदरी) को उठाकर रावण के पास आईं॥1॥

पति गति देखि ते करहिं पुकारा। छूटे कच नहिं बपुष सँभारा॥
उर ताडना करहिं बिधि नाना। रोवत करहिं प्रताप बखाना॥2॥

मूल

पति गति देखि ते करहिं पुकारा। छूटे कच नहिं बपुष सँभारा॥
उर ताडना करहिं बिधि नाना। रोवत करहिं प्रताप बखाना॥2॥

भावार्थ

पति की दशा देखकर वे पुकार-पुकारकर रोने लगीं। उनके बाल खुल गए, देह की सम्भाल नहीं रही। वे अनेकों प्रकार से छाती पीटती हैं और रोती हुई रावण के प्रताप का बखान करती हैं॥2॥

तव बल नाथ डोल नित धरनी। तेज हीन पावक ससि तरनी॥
सेष कमठ सहि सकहिं न भारा। सो तनु भूमि परेउ भरि छारा॥3॥

मूल

तव बल नाथ डोल नित धरनी। तेज हीन पावक ससि तरनी॥
सेष कमठ सहि सकहिं न भारा। सो तनु भूमि परेउ भरि छारा॥3॥

भावार्थ

(वे कहती हैं-) हे नाथ! तुम्हारे बल से पृथ्वी सदा काँपती रहती थी। अग्नि, चन्द्रमा और सूर्य तुम्हारे सामने तेजहीन थे। शेष और कच्छप भी जिसका भार नहीं सह सकते थे, वही तुम्हारा शरीर आज धूल में भरा हुआ पृथ्वी पर पडा है!॥3॥

बरुन कुबेर सुरेस समीरा। रन सन्मुख धरि काहुँ न धीरा॥
भुजबल जितेहु काल जम साईं। आजु परेहु अनाथ की नाईं॥4॥

मूल

बरुन कुबेर सुरेस समीरा। रन सन्मुख धरि काहुँ न धीरा॥
भुजबल जितेहु काल जम साईं। आजु परेहु अनाथ की नाईं॥4॥

भावार्थ

वरुण, कुबेर, इन्द्र और वायु, इनमें से किसी ने भी रण में तुम्हारे सामने धैर्य धारण नहीं किया। हे स्वामी! तुमने अपने भुजबल से काल और यमराज को भी जीत लिया था। वही तुम आज अनाथ की तरह पडे हो॥4॥

जगत बिदित तुम्हारि प्रभुताई। सुत परिजन बल बरनि न जाई॥
राम बिमुख अस हाल तुम्हारा। रहा न कोउ कुल रोवनिहारा॥5॥

मूल

जगत बिदित तुम्हारि प्रभुताई। सुत परिजन बल बरनि न जाई॥
राम बिमुख अस हाल तुम्हारा। रहा न कोउ कुल रोवनिहारा॥5॥

भावार्थ

तुम्हारी प्रभुता जगत्‌ भर में प्रसिद्ध है। तुम्हारे पुत्रों और कुटुम्बियों के बल का हाय! वर्णन ही नहीं हो सकता। श्री रामचन्द्रजी के विमुख होने से तुम्हारी ऐसी दुर्दशा हुई कि आज कुल में कोई रोने वाला भी न रह गया॥5॥

तव बस बिधि प्रचण्ड सब नाथा। सभय दिसिप नित नावहिं माथा॥
अब तव सिर भुज जम्बुक खाहीं। राम बिमुख यह अनुचित नाहीं॥6॥

मूल

तव बस बिधि प्रचण्ड सब नाथा। सभय दिसिप नित नावहिं माथा॥
अब तव सिर भुज जम्बुक खाहीं। राम बिमुख यह अनुचित नाहीं॥6॥

भावार्थ

हे नाथ! विधाता की सारी सृष्टि तुम्हारे वश में थी। लोकपाल सदा भयभीत होकर तुमको मस्तक नवाते थे, किन्तु हाय! अब तुम्हारे सिर और भुजाओं को गीदड खा रहे हैं। राम विमुख के लिए ऐसा होना अनुचित भी नहीं है (अर्थात्‌ उचित ही है)॥6॥

काल बिबस पति कहा न माना। अग जग नाथु मनुज करि जाना॥7॥

मूल

काल बिबस पति कहा न माना। अग जग नाथु मनुज करि जाना॥7॥

भावार्थ

हे पति! काल के पूर्ण वश में होने से तुमने (किसी का) कहना नहीं माना और चराचर के नाथ परमात्मा को मनुष्य करके जाना॥7॥

03 छन्द

जान्यो मनुज करि दनुज कानन दहन पावक हरि स्वयं।
जेहि नमत सिव ब्रह्मादि सुर पिय भजेहु नहिं करुनामयं॥
आजन्म ते परद्रोह रत पापौघमय तव तनु अयं।
तुम्हहू दियो निज धाम राम नमामि ब्रह्म निरामयं॥

मूल

जान्यो मनुज करि दनुज कानन दहन पावक हरि स्वयं।
जेहि नमत सिव ब्रह्मादि सुर पिय भजेहु नहिं करुनामयं॥
आजन्म ते परद्रोह रत पापौघमय तव तनु अयं।
तुम्हहू दियो निज धाम राम नमामि ब्रह्म निरामयं॥

भावार्थ

दैत्य रूपी वन को जलाने के लिए अग्निस्वरूप साक्षात्‌ श्री हरि को तुमने मनुष्य करके जाना। शिव और ब्रह्मा आदि देवता जिनको नमस्कार करते हैं, उन करुणामय भगवान्‌ को हे प्रियतम! तुमने नहीं भजा। तुम्हारा यह शरीर जन्म से ही दूसरों से द्रोह करने में तत्पर तथा पाप समूहमय रहा! इतने पर भी जिन निर्विकार ब्रह्म श्री रामजी ने तुमको अपना धाम दिया, उनको मैं नमस्कार करती हूँ।

104

01 दोहा

अहह नाथ रघुनाथ सम कृपासिन्धु नहिं आन।
जोगि बृन्द दुर्लभ गति तोहि दीन्हि भगवान॥104॥

मूल

अहह नाथ रघुनाथ सम कृपासिन्धु नहिं आन।
जोगि बृन्द दुर्लभ गति तोहि दीन्हि भगवान॥104॥

भावार्थ

अहह! नाथ! श्री रघुनाथजी के समान कृपा का समुद्र दूसरा कोई नहीं है, जिन भगवान्‌ ने तुमको वह गति दी, जो योगि समाज को भी दुर्लभ है॥104॥

02 चौपाई

मन्दोदरी बचन सुनि काना। सुर मुनि सिद्ध सबन्हि सुख माना॥
अज महेस नारद सनकादी। जे मुनिबर परमारथबादी॥1॥

मूल

मन्दोदरी बचन सुनि काना। सुर मुनि सिद्ध सबन्हि सुख माना॥
अज महेस नारद सनकादी। जे मुनिबर परमारथबादी॥1॥

भावार्थ

मन्दोदरी के वचन कानों में सुनकर देवता, मुनि और सिद्ध सभी ने सुख माना। ब्रह्मा, महादेव, नारद और सनकादि तथा और भी जो परमार्थवादी (परमात्मा के तत्त्व को जानने और कहने वाले) श्रेष्ठ मुनि थे॥1॥

भरि लोचन रघुपतिहि निहारी। प्रेम मगन सब भए सुखारी॥
रुदन करत देखीं सब नारी। गयउ बिभीषनु मनु दुख भारी॥2॥

मूल

भरि लोचन रघुपतिहि निहारी। प्रेम मगन सब भए सुखारी॥
रुदन करत देखीं सब नारी। गयउ बिभीषनु मनु दुख भारी॥2॥

भावार्थ

वे सभी श्री रघुनाथजी को नेत्र भरकर निरखकर प्रेममग्न हो गए और अत्यन्त सुखी हुए। अपने घर की सब स्त्रियों को रोती हुई देखकर विभीषणजी के मन में बडा भारी दुःख हुआ और वे उनके पास गए॥2॥

बन्धु दसा बिलोकि दुख कीन्हा। तब प्रभु अनुजहि आयसु दीन्हा॥
लछिमन तेहि बहु बिधि समुझायो। बहुरि बिभीषन प्रभु पहिं आयो॥3॥

मूल

बन्धु दसा बिलोकि दुख कीन्हा। तब प्रभु अनुजहि आयसु दीन्हा॥
लछिमन तेहि बहु बिधि समुझायो। बहुरि बिभीषन प्रभु पहिं आयो॥3॥

भावार्थ

उन्होन्ने भाई की दशा देखकर दुःख किया। तब प्रभु श्री रामजी ने छोटे भाई को आज्ञा दी (कि जाकर विभीषण को धैर्य बँधाओ)। लक्ष्मणजी ने उन्हें बहुत प्रकार से समझाया। तब विभीषण प्रभु के पास लौट आए॥3॥

कृपादृष्टि प्रभु ताहि बिलोका। करहु क्रिया परिहरि सब सोका॥
कीन्हि क्रिया प्रभु आयसु मानी। बिधिवत देस काल जियँ जानी॥4॥

मूल

कृपादृष्टि प्रभु ताहि बिलोका। करहु क्रिया परिहरि सब सोका॥
कीन्हि क्रिया प्रभु आयसु मानी। बिधिवत देस काल जियँ जानी॥4॥

भावार्थ

प्रभु ने उनको कृपापूर्ण दृष्टि से देखा (और कहा-) सब शोक त्यागकर रावण की अन्त्येष्टि क्रिया करो। प्रभु की आज्ञा मानकर और हृदय में देश और काल का विचार करके विभीषणजी ने विधिपूर्वक सब क्रिया की॥4॥

105

01 दोहा

मन्दोदरी आदि सब देह तिलाञ्जलि ताहि।
भवन गईं रघुपति गुन गन बरनत मन माहि॥105॥

मूल

मन्दोदरी आदि सब देह तिलाञ्जलि ताहि।
भवन गईं रघुपति गुन गन बरनत मन माहि॥105॥

भावार्थ

मन्दोदरी आदि सब स्त्रियाँ उसे (रावण को) तिलाञ्जलि देकर मन में श्री रघुनाथजी के गुण समूहों का वर्णन करती हुई महल को गईं॥105॥

02 चौपाई

आइ बिभीषन पुनि सिरु नायो। कृपासिन्धु तब अनुज बोलायो॥
तुम्ह कपीस अङ्गद नल नीला। जामवन्त मारुति नयसीला॥1॥
सब मिलि जाहु बिभीषन साथा। सारेहु तिलक कहेउ रघुनाथा॥
पिता बचन मैं नगर न आवउँ। आपु सरिस कपि अनुज पठावउँ॥2॥

मूल

आइ बिभीषन पुनि सिरु नायो। कृपासिन्धु तब अनुज बोलायो॥
तुम्ह कपीस अङ्गद नल नीला। जामवन्त मारुति नयसीला॥1॥
सब मिलि जाहु बिभीषन साथा। सारेहु तिलक कहेउ रघुनाथा॥
पिता बचन मैं नगर न आवउँ। आपु सरिस कपि अनुज पठावउँ॥2॥

भावार्थ

सब क्रिया-कर्म करने के बाद विभीषण ने आकर पुनः सिर नवाया। तब कृपा के समुद्र श्री रामजी ने छोटे भाई लक्ष्मणजी को बुलाया। श्री रघुनाथजी ने कहा कि तुम, वानरराज सुग्रीव, अङ्गद, नल, नील जाम्बवान्‌ और मारुति सब नीतिनिपुण लोग मिलकर विभीषण के साथ जाओ और उन्हें राजतिलक कर दो। पिताजी के वचनों के कारण मैं नगर में नहीं आ सकता। पर अपने ही समान वानर और छोटे भाई को भेजता हूँ॥1-2॥

तुरत चले कपि सुनि प्रभु बचना। कीन्ही जाइ तिलक की रचना॥
सादर सिंहासन बैठारी। तिलक सारि अस्तुति अनुसारी॥3॥

मूल

तुरत चले कपि सुनि प्रभु बचना। कीन्ही जाइ तिलक की रचना॥
सादर सिंहासन बैठारी। तिलक सारि अस्तुति अनुसारी॥3॥

भावार्थ

प्रभु के वचन सुनकर वानर तुरन्त चले और उन्होन्ने जाकर राजतिलक की सारी व्यवस्था की। आदर के साथ विभीषण को सिंहासन पर बैठाकर राजतिलक किया और स्तुति की॥3॥

जोरि पानि सबहीं सिर नाए। सहित बिभीषन प्रभु पहिं आए॥
तब रघुबीर बोलि कपि लीन्हे। कहि प्रिय बचन सुखी सब कीन्हे॥4॥

मूल

जोरि पानि सबहीं सिर नाए। सहित बिभीषन प्रभु पहिं आए॥
तब रघुबीर बोलि कपि लीन्हे। कहि प्रिय बचन सुखी सब कीन्हे॥4॥

भावार्थ

सभी ने हाथ जोडकर उनको सिर नवाए। तदनन्तर विभीषणजी सहित सब प्रभु के पास आए। तब श्री रघुवीर ने वानरों को बुला लिया और प्रिय वचन कहकर सबको सुखी किया॥4॥

03 छन्द

किए सुखी कहि बानी सुधा सम बल तुम्हारें रिपु हयो।
पायो बिभीषन राज तिहुँ पुर जसु तुम्हारो नित नयो॥
मोहि सहित सुभ कीरति तुम्हारी परम प्रीति जो गाइहैं।
संसार सिन्धु अपार पार प्रयास बिनु नर पाइहैं॥

मूल

किए सुखी कहि बानी सुधा सम बल तुम्हारें रिपु हयो।
पायो बिभीषन राज तिहुँ पुर जसु तुम्हारो नित नयो॥
मोहि सहित सुभ कीरति तुम्हारी परम प्रीति जो गाइहैं।
संसार सिन्धु अपार पार प्रयास बिनु नर पाइहैं॥

भावार्थ

भगवान्‌ ने अमृत के समान यह वाणी कहकर सबको सुखी किया कि तुम्हारे ही बल से यह प्रबल शत्रु मारा गया और विभीषण ने राज्य पाया। इसके कारण तुम्हारा यश तीनों लोकों में नित्य नया बना रहेगा। जो लोग मेरे सहित तुम्हारी शुभ कीर्ति को परम प्रेम के साथ गाएँगे, वे बिना ही परिश्रम इस अपार संसार का पार पा जाएँगे।

106

01 दोहा

प्रभु के बचन श्रवन सुनि नहिं अघाहिं कपि पुञ्ज।
बार बार सिर नावहिं गहहिं सकल पद कञ्ज॥106॥

मूल

प्रभु के बचन श्रवन सुनि नहिं अघाहिं कपि पुञ्ज।
बार बार सिर नावहिं गहहिं सकल पद कञ्ज॥106॥

भावार्थ

प्रभु के वचन कानों से सुनकर वानर समूह तृप्त नहीं होते। वे सब बार-बार सिर नवाते हैं और चरणकमलों को पकडते हैं॥106॥

02 चौपाई

पुनि प्रभु बोलि लियउ हनुमाना। लङ्का जाहु कहेउ भगवाना॥
समाचार जानकिहि सुनावहु। तासु कुसल लै तुम्ह चलि आवहु॥1॥

मूल

पुनि प्रभु बोलि लियउ हनुमाना। लङ्का जाहु कहेउ भगवाना॥
समाचार जानकिहि सुनावहु। तासु कुसल लै तुम्ह चलि आवहु॥1॥

भावार्थ

फिर प्रभु ने हनुमान्‌जी को बुला लिया। भगवान्‌ ने कहा- तुम लङ्का जाओ। जानकी को सब समाचार सुनाओ और उसका कुशल समाचार लेकर तुम चले आओ॥1॥

तब हनुमन्त नगर महुँ आए। सुनि निसिचरीं निसाचर धाए॥
बहु प्रकार तिन्ह पूजा कीन्ही। जनकसुता देखाइ पुनि दीन्ही॥2॥

मूल

तब हनुमन्त नगर महुँ आए। सुनि निसिचरीं निसाचर धाए॥
बहु प्रकार तिन्ह पूजा कीन्ही। जनकसुता देखाइ पुनि दीन्ही॥2॥

भावार्थ

तब हनुमान्‌जी नगर में आए। यह सुनकर राक्षस-राक्षसी (उनके सत्कार के लिए) दौडे। उन्होन्ने बहुत प्रकार से हनुमान्‌जी की पूजा की और फिर श्री जानकीजी को दिखला दिया॥2॥

दूरिहि ते प्रनाम कपि कीन्हा। रघुपति दूत जानकीं चीन्हा॥
कहहु तात प्रभु कृपानिकेता। कुसल अनुज कपि सेन समेता॥3॥

मूल

दूरिहि ते प्रनाम कपि कीन्हा। रघुपति दूत जानकीं चीन्हा॥
कहहु तात प्रभु कृपानिकेता। कुसल अनुज कपि सेन समेता॥3॥

भावार्थ

हनुमान्‌जी ने (सीताजी को) दूर से ही प्रणाम किया। जानकीजी ने पहचान लिया कि यह वही श्री रघुनाथजी का दूत है (और पूछा-) हे तात! कहो, कृपा के धाम मेरे प्रभु छोटे भाई और वानरों की सेना सहित कुशल से तो हैं?॥3॥

सब बिधि कुसल कोसलाधीसा। मातु समर जीत्यो दससीसा॥
अबिचल राजु बिभीषन पायो। सुनि कपि बचन हरष उर छायो॥4॥

मूल

सब बिधि कुसल कोसलाधीसा। मातु समर जीत्यो दससीसा॥
अबिचल राजु बिभीषन पायो। सुनि कपि बचन हरष उर छायो॥4॥

भावार्थ

(हनुमान्‌जी ने कहा-) हे माता! कोसलपति श्री रामजी सब प्रकार से सकुशल हैं। उन्होन्ने सङ्ग्राम में दस सिर वाले रावण को जीत लिया है और विभीषण ने अचल राज्य प्राप्त किया है। हनुमान्‌जी के वचन सुनकर सीताजी के हृदय में हर्ष छा गया॥4॥

03 छन्द

अति हरष मन तन पुलक लोचन सजल कह पुनि पुनि रमा।
का देउँ तोहि त्रैलोक महुँ कपि किमपि नहिं बानी समा॥
सुनु मातु मैं पायो अखिल जग राजु आजु न संसयं।
रन जीति रिपुदल बन्धु जुत पस्यामि राममनामयं॥

मूल

अति हरष मन तन पुलक लोचन सजल कह पुनि पुनि रमा।
का देउँ तोहि त्रैलोक महुँ कपि किमपि नहिं बानी समा॥
सुनु मातु मैं पायो अखिल जग राजु आजु न संसयं।
रन जीति रिपुदल बन्धु जुत पस्यामि राममनामयं॥

भावार्थ

श्री जानकीजी के हृदय में अत्यन्त हर्ष हुआ। उनका शरीर पुलकित हो गया और नेत्रों में (आनन्दाश्रुओं का) जल छा गया। वे बार-बार कहती हैं- हे हनुमान्‌! मैं तुझे क्या दूँ? इस वाणी (समाचार) के समान तीनों लोकों में और कुछ भी नहीं है! (हनुमान्‌जी ने कहा-) हे माता! सुनिए, मैन्ने आज निःसन्देह सारे जगत्‌ का राज्य पा लिया, जो मैं रण में शत्रु को जीतकर भाई सहित निर्विकार श्री रामजी को देख रहा हूँ।

107

01 दोहा

सुनु सुत सदगुन सकल तव हृदयँ बसहुँ हनुमन्त।
सानुकूल कोसलपति रहहुँ समेत अनन्त॥107॥

मूल

सुनु सुत सदगुन सकल तव हृदयँ बसहुँ हनुमन्त।
सानुकूल कोसलपति रहहुँ समेत अनन्त॥107॥

भावार्थ

(जानकीजी ने कहा-) हे पुत्र! सुन, समस्त सद्गुण तेरे हृदय में बसें और हे हनुमान्‌! शेष (लक्ष्मणजी) सहित कोसलपति प्रभु सदा तुझ पर प्रसन्न रहें॥107॥

02 चौपाई

अब सोइ जतन करहु तुम्ह ताता। देखौं नयन स्याम मृदु गाता॥
तब हनुमान राम पहिं जाई। जनकसुता कै कुसल सुनाई॥1॥

मूल

अब सोइ जतन करहु तुम्ह ताता। देखौं नयन स्याम मृदु गाता॥
तब हनुमान राम पहिं जाई। जनकसुता कै कुसल सुनाई॥1॥

भावार्थ

हे तात! अब तुम वही उपाय करो, जिससे मैं इन नेत्रों से प्रभु के कोमल श्याम शरीर के दर्शन करूँ। तब श्री रामचन्द्रजी के पास जाकर हनुमान्‌जी ने जानकीजी का कुशल समाचार सुनाया॥1॥

सुनि सन्देसु भानुकुलभूषन। बोलि लिए जुबराज बिभीषन॥
मारुतसुत के सङ्ग सिधावहु। सादर जनकसुतहि लै आवहु॥2॥

मूल

सुनि सन्देसु भानुकुलभूषन। बोलि लिए जुबराज बिभीषन॥
मारुतसुत के सङ्ग सिधावहु। सादर जनकसुतहि लै आवहु॥2॥

भावार्थ

सूर्य कुलभूषण श्री रामजी ने सन्देश सुनकर युवराज अङ्गद और विभीषण को बुला लिया (और कहा-) पवनपुत्र हनुमान्‌ के साथ जाओ और जानकी को आदर के साथ ले आओ॥2॥

तुरतहिं सकल गए जहँ सीता। सेवहिं सब निसिचरीं बिनीता॥
बेगि बिभीषन तिन्हहि सिखायो। तिन्ह बहु बिधि मज्जन करवायो॥3॥

मूल

तुरतहिं सकल गए जहँ सीता। सेवहिं सब निसिचरीं बिनीता॥
बेगि बिभीषन तिन्हहि सिखायो। तिन्ह बहु बिधि मज्जन करवायो॥3॥

भावार्थ

वे सब तुरन्त ही वहाँ गए, जहाँ सीताजी थीं। सब की सब राक्षसियाँ नम्रतापूर्वक उनकी सेवा कर रही थीं। विभीषणजी ने शीघ्र ही उन लोगों को समझा दिया। उन्होन्ने बहुत प्रकार से सीताजी को स्नान कराया,॥3॥

बहु प्रकार भूषन पहिराए। सिबिका रुचिर साजि पुनि ल्याए॥
ता पर हरषि चढी बैदेही। सुमिरि राम सुखधाम सनेही॥4॥

मूल

बहु प्रकार भूषन पहिराए। सिबिका रुचिर साजि पुनि ल्याए॥
ता पर हरषि चढी बैदेही। सुमिरि राम सुखधाम सनेही॥4॥

भावार्थ

बहुत प्रकार के गहने पहनाए और फिर वे एक सुन्दर पालकी सजाकर ले आए। सीताजी प्रसन्न होकर सुख के धाम प्रियतम श्री रामजी का स्मरण करके उस पर हर्ष के साथ चढीं॥4॥

बेतपानि रच्छक चहु पासा। चले सकल मन परम हुलासा॥
देखन भालु कीस सब आए। रच्छक कोपि निवारन धाए॥5॥

मूल

बेतपानि रच्छक चहु पासा। चले सकल मन परम हुलासा॥
देखन भालु कीस सब आए। रच्छक कोपि निवारन धाए॥5॥

भावार्थ

चारों ओर हाथों में छडी लिए रक्षक चले। सबके मनों में परम उल्लास (उमङ्ग) है। रीछ-वानर सब दर्शन करने के लिए आए, तब रक्षक क्रोध करके उनको रोकने दौडे॥5॥

कह रघुबीर कहा मम मानहु। सीतहि सखा पयादें आनहु॥
देखहुँ कपि जननी की नाईं। बिहसि कहा रघुनाथ गोसाईं॥6॥

मूल

कह रघुबीर कहा मम मानहु। सीतहि सखा पयादें आनहु॥
देखहुँ कपि जननी की नाईं। बिहसि कहा रघुनाथ गोसाईं॥6॥

भावार्थ

श्री रघुवीर ने कहा- हे मित्र! मेरा कहना मानो और सीता को पैदल ले आओ, जिससे वानर उसको माता की तरह देखें। गोसाईं श्री रामजी ने हँसकर ऐसा कहा॥6॥

सुनि प्रभु बचन भालु कपि हरषे। नभ ते सुरन्ह सुमन बहु बरषे॥
सीता प्रथम अनल महुँ राखी। प्रगट कीन्हि चह अन्तर साखी॥7॥

मूल

सुनि प्रभु बचन भालु कपि हरषे। नभ ते सुरन्ह सुमन बहु बरषे॥
सीता प्रथम अनल महुँ राखी। प्रगट कीन्हि चह अन्तर साखी॥7॥

भावार्थ

प्रभु के वचन सुनकर रीछ-वानर हर्षित हो गए। आकाश से देवताओं ने बहुत से फूल बरसाए। सीताजी (के असली स्वरूप) को पहिले अग्नि में रखा था। अब भीतर के साक्षी भगवान्‌ उनको प्रकट करना चाहते हैं॥7॥

108

01 दोहा

तेहि कारन करुनानिधि कहे कछुक दुर्बाद।
सुनत जातुधानीं सब लागीं करै बिषाद॥108॥

मूल

तेहि कारन करुनानिधि कहे कछुक दुर्बाद।
सुनत जातुधानीं सब लागीं करै बिषाद॥108॥

भावार्थ

इसी कारण करुणा के भण्डार श्री रामजी ने लीला से कुछ कडे वचन कहे, जिन्हे सुनकर सब राक्षसियाँ विषाद करने लगीं॥108॥

02 चौपाई

प्रभु के बचन सीस धरि सीता। बोली मन क्रम बचन पुनीता॥
लछिमन होहु धरम के नेगी। पावक प्रगट करहु तुम्ह बेगी॥1॥

मूल

प्रभु के बचन सीस धरि सीता। बोली मन क्रम बचन पुनीता॥
लछिमन होहु धरम के नेगी। पावक प्रगट करहु तुम्ह बेगी॥1॥

भावार्थ

प्रभु के वचनों को सिर चढाकर मन, वचन और कर्म से पवित्र श्री सीताजी बोलीं- हे लक्ष्मण! तुम मेरे धर्म के नेगी (धर्माचरण में सहायक) बनो और तुरन्त आग तैयार करो॥1॥

सुनि लछिमन सीता कै बानी। बिरह बिबेक धरम निति सानी॥
लोचन सजल जोरि कर दोऊ। प्रभु सन कछु कहि सकत न ओऊ॥2॥

मूल

सुनि लछिमन सीता कै बानी। बिरह बिबेक धरम निति सानी॥
लोचन सजल जोरि कर दोऊ। प्रभु सन कछु कहि सकत न ओऊ॥2॥

भावार्थ

श्री सीताजी की विरह, विवेक, धर्म और नीति से सनी हुई वाणी सुनकर लक्ष्मणजी के नेत्रों में (विषाद के आँसुओं का) जल भर आया। वे हाथ जोडे खडे रहे। वे भी प्रभु से कुछ कह नहीं सकते॥2॥

देखि राम रुख लछिमन धाए। पावक प्रगटि काठ बहु लाए॥
पावक प्रबल देखि बैदेही। हृदयँ हरष नहिं भय कछु तेही॥3॥

मूल

देखि राम रुख लछिमन धाए। पावक प्रगटि काठ बहु लाए॥
पावक प्रबल देखि बैदेही। हृदयँ हरष नहिं भय कछु तेही॥3॥

भावार्थ

फिर श्री रामजी का रुख देखकर लक्ष्मणजी दौडे और आग तैयार करके बहुत सी लकडी ले आए। अग्नि को खूब बढी हुई देखकर जानकीजी के हृदय में हर्ष हुआ। उन्हें भय कुछ भी नहीं हुआ॥3॥

जौं मन बच क्रम मम उर माहीं। तजि रघुबीर आन गति नाहीं॥
तौ कृसानु सब कै गति जाना। मो कहुँ होउ श्रीखण्ड समाना॥4॥

मूल

जौं मन बच क्रम मम उर माहीं। तजि रघुबीर आन गति नाहीं॥
तौ कृसानु सब कै गति जाना। मो कहुँ होउ श्रीखण्ड समाना॥4॥

भावार्थ

(सीताजी ने लीला से कहा-) यदि मन, वचन और कर्म से मेरे हृदय में श्री रघुवीर को छोडकर दूसरी गति (अन्य किसी का आश्रय) नहीं है, तो अग्निदेव जो सबके मन की गति जानते हैं, (मेरे भी मन की गति जानकर) मेरे लिए चन्दन के समान शीतल हो जाएँ॥4॥

03 छन्द

श्रीखण्ड सम पावक प्रबेस कियो सुमिरि प्रभु मैथिली।
जय कोसलेस महेस बन्दित चरन रति अति निर्मली॥
प्रतिबिम्ब अरु लौकिक कलङ्क प्रचण्ड पावक महुँ जरे।
प्रभु चरित काहुँ न लखे नभ सुर सिद्ध मुनि देखहिं खरे॥1॥

मूल

श्रीखण्ड सम पावक प्रबेस कियो सुमिरि प्रभु मैथिली।
जय कोसलेस महेस बन्दित चरन रति अति निर्मली॥
प्रतिबिम्ब अरु लौकिक कलङ्क प्रचण्ड पावक महुँ जरे।
प्रभु चरित काहुँ न लखे नभ सुर सिद्ध मुनि देखहिं खरे॥1॥

भावार्थ

प्रभु श्री रामजी का स्मरण करके और जिनके चरण महादेवजी के द्वारा वन्दित हैं तथा जिनमें सीताजी की अत्यन्त विशुद्ध प्रीति है, उन कोसलपति की जय बोलकर जानकीजी ने चन्दन के समान शीतल हुई अग्नि में प्रवेश किया। प्रतिबिम्ब (सीताजी की छायामूर्ति) और उनका लौकिक कलङ्क प्रचण्ड अग्नि में जल गए। प्रभु के इन चरित्रों को किसी ने नहीं जाना। देवता, सिद्ध और मुनि सब आकाश में खडे देखते हैं॥1॥

धरि रूप पावक पानि गहि श्री सत्य श्रुति जग बिदित जो।
जिमि छीरसागर इन्दिरा रामहि समर्पी आनि सो॥
सो राम बाम बिभाग राजति रुचिर अति सोभा भली।
नव नील नीरज निकट मानहुँ कनक पङ्कज की कली॥2॥

मूल

धरि रूप पावक पानि गहि श्री सत्य श्रुति जग बिदित जो।
जिमि छीरसागर इन्दिरा रामहि समर्पी आनि सो॥
सो राम बाम बिभाग राजति रुचिर अति सोभा भली।
नव नील नीरज निकट मानहुँ कनक पङ्कज की कली॥2॥

भावार्थ

तब अग्नि ने शरीर धारण करके वेदों में और जगत्‌ में प्रसिद्ध वास्तविक श्री (सीताजी) का हाथ पकड उन्हें श्री रामजी को वैसे ही समर्पित किया जैसे क्षीरसागर ने विष्णु भगवान्‌ को लक्ष्मी समर्पित की थीं। वे सीताजी श्री रामचन्द्रजी के वाम भाग में विराजित हुईं। उनकी उत्तम शोभा अत्यन्त ही सुन्दर है। मानो नए खिले हुए नीले कमल के पास सोने के कमल की कली सुशोभित हो॥2॥

109

01 दोहा

बरषहिं सुमन हरषि सुर बाजहिं गगन निसान।
गावहिं किन्नर सुरबधू नाचहिं चढीं बिमान॥1॥

मूल

बरषहिं सुमन हरषि सुर बाजहिं गगन निसान।
गावहिं किन्नर सुरबधू नाचहिं चढीं बिमान॥1॥

भावार्थ

देवता हर्षित होकर फूल बरसाने लगे। आकाश में डङ्के बजने लगे। किन्नर गाने लगे। विमानों पर चढी अप्सराएँ नाचने लगीं॥1॥

जनकसुता समेत प्रभु सोभा अमित अपार।
देखि भालु कपि हरषे जय रघुपति सुख सार॥2॥

मूल

जनकसुता समेत प्रभु सोभा अमित अपार।
देखि भालु कपि हरषे जय रघुपति सुख सार॥2॥

भावार्थ

श्री जानकीजी सहित प्रभु श्री रामचन्द्रजी की अपरिमित और अपार शोभा देखकर रीछ-वानर हर्षित हो गए और सुख के सार श्री रघुनाथजी की जय बोलने लगे॥2॥

02 चौपाई

तब रघुपति अनुसासन पाई। मातलि चलेउ चरन सिरु नाई॥
आए देव सदा स्वारथी। बचन कहहिं जनु परमारथी॥1॥

मूल

तब रघुपति अनुसासन पाई। मातलि चलेउ चरन सिरु नाई॥
आए देव सदा स्वारथी। बचन कहहिं जनु परमारथी॥1॥

भावार्थ

तब श्री रघुनाथजी की आज्ञा पाकर इन्द्र का सारथी मातलि चरणों में सिर नवाकर (रथ लेकर) चला गया। तदनन्तर सदा के स्वार्थी देवता आए। वे ऐसे वचन कह रहे हैं मानो बडे परमार्थी हों॥1॥

दीन बन्धु दयाल रघुराया। देव कीन्हि देवन्ह पर दाया॥
बिस्व द्रोह रत यह खल कामी। निज अघ गयउ कुमारगगामी॥2॥

मूल

दीन बन्धु दयाल रघुराया। देव कीन्हि देवन्ह पर दाया॥
बिस्व द्रोह रत यह खल कामी। निज अघ गयउ कुमारगगामी॥2॥

भावार्थ

हे दीनबन्धु! हे दयालु रघुराज! हे परमदेव! आपने देवताओं पर बडी दया की। विश्व के द्रोह में तत्पर यह दुष्ट, कामी और कुमार्ग पर चलने वाला रावण अपने ही पाप से नष्ट हो गया॥2॥

तुम्ह समरूप ब्रह्म अबिनासी। सदा एकरस सहज उदासी॥
अकल अगुन अज अनघ अनामय। अजित अमोघसक्ति करुनामय॥3॥

मूल

तुम्ह समरूप ब्रह्म अबिनासी। सदा एकरस सहज उदासी॥
अकल अगुन अज अनघ अनामय। अजित अमोघसक्ति करुनामय॥3॥

भावार्थ

आप समरूप, ब्रह्म, अविनाशी, नित्य, एकरस, स्वभाव से ही उदासीन (शत्रु-मित्र-भावरहित), अखण्ड, निर्गुण (मायिक गुणों से रहित), अजन्मे, निष्पाप, निर्विकार, अजेय, अमोघशक्ति (जिनकी शक्ति कभी व्यर्थ नहीं जाती) और दयामय हैं॥3॥

मीन कमठ सूकर नरहरी। बामन परसुराम बपु धरी॥
जब जब नाथ सुरन्ह दुखु पायो। नाना तनु धरि तुम्हइँ नसायो॥4॥

मूल

मीन कमठ सूकर नरहरी। बामन परसुराम बपु धरी॥
जब जब नाथ सुरन्ह दुखु पायो। नाना तनु धरि तुम्हइँ नसायो॥4॥

भावार्थ

आपने ही मत्स्य, कच्छप, वराह, नृसिंह, वामन और परशुराम के शरीर धारण किए। हे नाथ! जब-जब देवताओं ने दुःख पाया, तब-तब अनेकों शरीर धारण करके आपने ही उनका दुःख नाश किया॥4॥

यह खल मलिन सदा सुरद्रोही। काम लोभ मद रत अति कोही।
अधम सिरोमनि तव पद पावा। यह हमरें मन बिसमय आवा॥5॥

मूल

यह खल मलिन सदा सुरद्रोही। काम लोभ मद रत अति कोही।
अधम सिरोमनि तव पद पावा। यह हमरें मन बिसमय आवा॥5॥

भावार्थ

यह दुष्ट मलिन हृदय, देवताओं का नित्य शत्रु, काम, लोभ और मद के परायण तथा अत्यन्त क्रोधी था। ऐसे अधमों के शिरोमणि ने भी आपका परम पद पा लिया। इस बात का हमारे मन में आश्चर्य हुआ॥5॥

हम देवता परम अधिकारी। स्वारथ रत प्रभु भगति बिसारी॥
भव प्रबाहँ सन्तत हम परे। अब प्रभु पाहि सरन अनुसरे॥6॥

मूल

हम देवता परम अधिकारी। स्वारथ रत प्रभु भगति बिसारी॥
भव प्रबाहँ सन्तत हम परे। अब प्रभु पाहि सरन अनुसरे॥6॥

भावार्थ

हम देवता श्रेष्ठ अधिकारी होकर भी स्वार्थपरायण हो आपकी भक्ति को भुलाकर निरन्तर भवसागर के प्रवाह (जन्म-मृत्यु के चक्र) में पडे हैं। अब हे प्रभो! हम आपकी शरण में आ गए हैं, हमारी रक्षा कीजिए॥6॥

110

01 दोहा

करि बिनती सुर सिद्ध सब रहे जहँ तहँ कर जोरि।
अति सप्रेम तन पुलकि बिधि अस्तुति करत बहोरि॥110॥

मूल

करि बिनती सुर सिद्ध सब रहे जहँ तहँ कर जोरि।
अति सप्रेम तन पुलकि बिधि अस्तुति करत बहोरि॥110॥

भावार्थ

विनती करके देवता और सिद्ध सब जहाँ के तहाँ हाथ जोडे खडे रहे। तब अत्यन्त प्रेम से पुलकित शरीर होकर ब्रह्माजी स्तुति करने लगे– ॥110॥

02 छन्द

जय राम सदा सुख धाम हरे। रघुनायक सायक चाप धरे॥
भव बारन दारन सिंह प्रभो। गुन सागर नागर नाथ बिभो॥1॥

मूल

जय राम सदा सुख धाम हरे। रघुनायक सायक चाप धरे॥
भव बारन दारन सिंह प्रभो। गुन सागर नागर नाथ बिभो॥1॥

भावार्थ

हे नित्य सुखधाम और (दु:खों को हरने वाले) हरि! हे धनुष-बाण धारण किए हुए रघुनाथजी! आपकी जय हो। हे प्रभो! आप भव (जन्म-मरण) रूपी हाथी को विदीर्ण करने के लिए सिंह के समान हैं। हे नाथ! हे सर्वव्यापक! आप गुणों के समुद्र और परम चतुर हैं॥1॥

तन काम अनेक अनूप छबी। गुन गावत सिद्ध मुनीन्द्र कबी॥
जसु पावन रावन नाग महा। खगनाथ जथा करि कोप गहा॥2॥

मूल

तन काम अनेक अनूप छबी। गुन गावत सिद्ध मुनीन्द्र कबी॥
जसु पावन रावन नाग महा। खगनाथ जथा करि कोप गहा॥2॥

भावार्थ

आपके शरीर की अनेकों कामदेवों के समान, परन्तु अनुपम छवि है। सिद्ध, मुनीश्वर और कवि आपके गुण गाते रहते हैं। आपका यश पवित्र है। आपने रावणरूपी महासर्प को गरुड की तरह क्रोध करके पकड लिया॥2॥

जन रञ्जन भञ्जन सोक भयं। गत क्रोध सदा प्रभु बोधमयं॥
अवतार उदार अपार गुनं। महि भार बिभञ्जन ग्यानघनं॥3॥

मूल

जन रञ्जन भञ्जन सोक भयं। गत क्रोध सदा प्रभु बोधमयं॥
अवतार उदार अपार गुनं। महि भार बिभञ्जन ग्यानघनं॥3॥

भावार्थ

हे प्रभो! आप सेवकों को आनन्द देने वाले, शोक और भय का नाश करने वाले, सदा क्रोधरहित और नित्य ज्ञान स्वरूप हैं। आपका अवतार श्रेष्ठ, अपार दिव्य गुणों वाला, पृथ्वी का भार उतारने वाला और ज्ञान का समूह है॥3॥

अज ब्यापकमेकमनादि सदा। करुनाकर राम नमामि मुदा॥
रघुबंस बिभूषन दूषन हा। कृत भूप बिभीषन दीन रहा॥4॥

मूल

अज ब्यापकमेकमनादि सदा। करुनाकर राम नमामि मुदा॥
रघुबंस बिभूषन दूषन हा। कृत भूप बिभीषन दीन रहा॥4॥

भावार्थ

(किन्तु अवतार लेने पर भी) आप नित्य, अजन्मा, व्यापक, एक (अद्वितीय) और अनादि हैं। हे करुणा की खान श्रीरामजी! मैं आपको बडे ही हर्ष के साथ नमस्कार करता हूँ। हे रघुकुल के आभूषण! हे दूषण राक्षस को मारने वाले तथा समस्त दोषों को हरने वाले! विभिषण दीन था, उसे आपने (लङ्का का) राजा बना दिया॥4॥

गुन ध्यान निधान अमान अजं। नित राम नमामि बिभुं बिरजं॥
भुजदण्ड प्रचण्ड प्रताप बलं। खल बृन्द निकन्द महा कुसलं॥5॥

मूल

गुन ध्यान निधान अमान अजं। नित राम नमामि बिभुं बिरजं॥
भुजदण्ड प्रचण्ड प्रताप बलं। खल बृन्द निकन्द महा कुसलं॥5॥

भावार्थ

हे गुण और ज्ञान के भण्डार! हे मानरहित! हे अजन्मा, व्यापक और मायिक विकारों से रहित श्रीराम! मैं आपको नित्य नमस्कार करता हूँ। आपके भुजदण्डों का प्रताप और बल प्रचण्ड है। दुष्ट समूह के नाश करने में आप परम निपुण हैं॥5॥

बिनु कारन दीन दयाल हितं। छबि धाम नमामि रमा सहितं॥
भव तारन कारन काज परं। मन सम्भव दारुन दोष हरं॥6॥

मूल

बिनु कारन दीन दयाल हितं। छबि धाम नमामि रमा सहितं॥
भव तारन कारन काज परं। मन सम्भव दारुन दोष हरं॥6॥

भावार्थ

हे बिना ही कारण दीनों पर दया तथा उनका हित करने वाले और शोभा के धाम! मैं श्रीजानकीजी सहित आपको नमस्कार करता हूँ। आप भवसागर से तारने वाले हैं, कारणरूपा प्रकृति और कार्यरूप जगत दोनों से परे हैं और मन से उत्पन्न होने वाले कठिन दोषों को हरने वाले हैं॥6॥

सर चाप मनोहर त्रोन धरं। जलजारुन लोचन भूपबरं॥
सुख मन्दिर सुन्दर श्रीरमनं। मद मार मुधा ममता समनं॥7॥

मूल

सर चाप मनोहर त्रोन धरं। जलजारुन लोचन भूपबरं॥
सुख मन्दिर सुन्दर श्रीरमनं। मद मार मुधा ममता समनं॥7॥

भावार्थ

आप मनोहर बाण, धनुष और तरकस धारण करने वाले हैं। (लाल) कमल के समान रक्तवर्ण आपके नेत्र हैं। आप राजाओं में श्रेष्ठ, सुख के मन्दिर, सुन्दर, श्री (लक्ष्मीजी) के वल्लभ तथा मद (अहङ्कार), काम और झूठी ममता के नाश करने वाले हैं॥7॥

अनवद्य अखण्ड न गोचर गो। सब रूप सदा सब होइ न गो॥
इति बेद बदन्ति न दन्तकथा। रबि आतप भिन्नमभिन्न जथा॥8॥

मूल

अनवद्य अखण्ड न गोचर गो। सब रूप सदा सब होइ न गो॥
इति बेद बदन्ति न दन्तकथा। रबि आतप भिन्नमभिन्न जथा॥8॥

भावार्थ

आप अनिन्द्य या दोषरहित हैं, अखण्ड हैं, इन्द्रियों के विषय नहीं हैं। सदा सर्वरूप होते हुए भी आप वह सब कभी हुए ही नहीं, ऐसा वेद कहते हैं। यह (कोई) दन्तकथा (कोरी कल्पना) नहीं है। जैसे सूर्य और सूर्य का प्रकाश अलग-अलग हैं और अलग नहीं भी है, वैसे ही आप भी संसार से भिन्न तथा अभिन्न दोनों ही हैं॥8॥

कृतकृत्य बिभो सब बानर ए। निरखन्ति तनानन सादर ए॥
धिग जीवन देव सरीर हरे। तव भक्ति बिना भव भूलि परे॥9॥

मूल

कृतकृत्य बिभो सब बानर ए। निरखन्ति तनानन सादर ए॥
धिग जीवन देव सरीर हरे। तव भक्ति बिना भव भूलि परे॥9॥

भावार्थ

हे व्यापक प्रभो! ये सब वानर कृतार्थ रूप हैं, जो आदरपूर्वक ये आपका मुख देख रहे हैं। (और) हे हरे! हमारे (अमर) जीवन और देव (दिव्य) शरीर को धिक्कार है, जो हम आपकी भक्ति से रहित हुए संसार में (सांसारिक विषयों में) भूले पडे हैं॥9॥

अब दीनदयाल दया करिऐ। मति मोरि बिभेदकरी हरिऐ॥
जेहि ते बिपरीत क्रिया करिऐ। दुख सो सुख मानि सुखी चरिऐ॥10॥

मूल

अब दीनदयाल दया करिऐ। मति मोरि बिभेदकरी हरिऐ॥
जेहि ते बिपरीत क्रिया करिऐ। दुख सो सुख मानि सुखी चरिऐ॥10॥

भावार्थ

हे दीनदयालु! अब दया कीजिए और मेरी उस विभेद उत्पन्न करने वाली बुद्धि को हर लीजिए, जिससे मैं विपरीत कर्म करता हूँ और जो दु:ख है, उसे सुख मानकर आनन्द से विचरता हूँ॥10॥

खल खण्डन मण्डन रम्य छमा। पद पङ्कज सेवित सम्भु उमा॥
नृप नायक दे बरदानमिदं। चरनाम्बुज प्रेमु सदा सुभदं॥11॥

मूल

खल खण्डन मण्डन रम्य छमा। पद पङ्कज सेवित सम्भु उमा॥
नृप नायक दे बरदानमिदं। चरनाम्बुज प्रेमु सदा सुभदं॥11॥

भावार्थ

आप दुष्टों का खण्डन करने वाले और पृथ्वी के रमणीय आभूषण हैं। आपके चरणकमल श्री शिव-पार्वती द्वारा सेवित हैं। हे राजाओं के महाराज! मुझे यह वरदान दीजिए कि आपके चरणकमलों में सदा मेरा कल्याणदायक (अनन्य) प्रेम हो॥11॥

111

01 दोहा

बिनय कीन्ह चतुरानन प्रेम पुलक अति गात।
सोभासिन्धु बिलोकत लोचन नहीं अघात॥111॥

मूल

बिनय कीन्ह चतुरानन प्रेम पुलक अति गात।
सोभासिन्धु बिलोकत लोचन नहीं अघात॥111॥

भावार्थ

इस प्रकार ब्रह्माजी ने अत्यन्त प्रेम-पुलकित शरीर से विनती की। शोभा के समुद्र श्रीरामजी के दर्शन करते-करते उनके नेत्र तृप्त ही नहीं होते थे॥111॥

02 चौपाई

तेहि अवसर दसरथ तहँ आए। तनय बिलोकि नयन जल छाए॥
अनुज सहित प्रभु बन्दन कीन्हा। आसिरबाद पिताँ तब दीन्हा॥1 ॥

मूल

तेहि अवसर दसरथ तहँ आए। तनय बिलोकि नयन जल छाए॥
अनुज सहित प्रभु बन्दन कीन्हा। आसिरबाद पिताँ तब दीन्हा॥1 ॥

भावार्थ

उसी समय दशरथजी वहाँ आए। पुत्र (श्रीरामजी) को देखकर उनके नेत्रों में (प्रेमाश्रुओं का) जल छा गया। छोटे भाई लक्ष्मणजी सहित प्रभु ने उनकी वन्दना की और तब पिता ने उनको आशीर्वाद दिया॥1॥

तात सकल तव पुन्य प्रभाऊ। जीत्यों अजय निसाचर राऊ॥
सुनि सुत बचन प्रीति अति बाढी। नयन सलिल रोमावलि ठाढी॥2॥

मूल

तात सकल तव पुन्य प्रभाऊ। जीत्यों अजय निसाचर राऊ॥
सुनि सुत बचन प्रीति अति बाढी। नयन सलिल रोमावलि ठाढी॥2॥

भावार्थ

(श्रीरामजी ने कहा-) हे तात! यह सब आपके पुण्यों का प्रभाव है, जो मैन्ने अजेय राक्षसराज को जीत लिया। पुत्र के वचन सुनकर उनकी प्रीति अत्यन्त बढ गई। नेत्रों में जल छा गया और रोमावली खडी हो गई॥2॥

रघुपति प्रथम प्रेम अनुमाना। चितइ पितहि दीन्हेउ दृढ ग्याना॥
ताते उमा मोच्छ नहिं पायो। दसरथ भेद भगति मन लायो॥3॥

मूल

रघुपति प्रथम प्रेम अनुमाना। चितइ पितहि दीन्हेउ दृढ ग्याना॥
ताते उमा मोच्छ नहिं पायो। दसरथ भेद भगति मन लायो॥3॥

भावार्थ

श्री रघुनाथजी ने पहले के (जीवितकाल के) प्रेम को विचारकर, पिता की ओर देखकर ही उन्हें अपने स्वरूप का दृढ ज्ञान करा दिया। हे उमा! दशरथजी ने भेद-भक्ति में अपना मन लगाया था, इसी से उन्होन्ने (कैवल्य) मोक्ष नहीं पाया॥3॥

सगुनोपासक मोच्छ न लेहीं। तिन्ह कहुँ राम भगति निज देहीं॥
बार बार करि प्रभुहि प्रनामा। दसरथ हरषि गए सुरधामा॥4॥

मूल

सगुनोपासक मोच्छ न लेहीं। तिन्ह कहुँ राम भगति निज देहीं॥
बार बार करि प्रभुहि प्रनामा। दसरथ हरषि गए सुरधामा॥4॥

भावार्थ

(मायारहित सच्चिदानन्दमय स्वरूपभूत दिव्यगुणयुक्त) सगुण स्वरूप की उपासना करने वाले भक्त इस प्रकार मोक्ष लेते भी नहीं। उनको श्रीरामजी अपनी भक्ति देते हैं। प्रभु को (इष्टबुद्धि से) बार-बार प्रणाम करके दशरथजी हर्षित होकर देवलोक को चले गए॥4॥

112

01 दोहा

अनुज जानकी सहित प्रभु कुसल कोसलाधीस।
सोभा देखि हरषि मन अस्तुति कर सुर ईस॥112॥

मूल

अनुज जानकी सहित प्रभु कुसल कोसलाधीस।
सोभा देखि हरषि मन अस्तुति कर सुर ईस॥112॥

भावार्थ

छोटे भाई लक्ष्मणजी और जानकीजी सहित परम कुशल प्रभु श्रीकोसलाधीश की शोभा देखकर देवराज इन्द्र मन में हर्षित होकर स्तुति करने लगे- ॥112॥

02 छन्द

जय राम सोभा धाम। दायक प्रनत बिश्राम॥
धृत त्रोन बर सर चाप। भुजदण्ड प्रबल प्रताप॥1॥

मूल

जय राम सोभा धाम। दायक प्रनत बिश्राम॥
धृत त्रोन बर सर चाप। भुजदण्ड प्रबल प्रताप॥1॥

भावार्थ

शोभा के धाम, शरणागत को विश्राम देने वाले, श्रेष्ठ तरकस, धनुष और बाण धारण किए हुए, प्रबल प्रतापी भुज दण्डों वाले श्रीरामचन्द्रजी की जय हो! ॥1॥

जय दूषनारि खरारि। मर्दन निसाचर धारि॥
यह दुष्ट मारेउ नाथ। भए देव सकल नाथ॥2॥

मूल

जय दूषनारि खरारि। मर्दन निसाचर धारि॥
यह दुष्ट मारेउ नाथ। भए देव सकल नाथ॥2॥

भावार्थ

हे खरदूषण के शत्रु और राक्षसों की सेना के मर्दन करने वाले! आपकी जय हो! हे नाथ! आपने इस दुष्ट को मारा, जिससे सब देवता सनाथ (सुरक्षित) हो गए॥2॥

जय हरन धरनी भार। महिमा उदार अपार॥
जय रावनारि कृपाल। किए जातुधान बिहाल॥3॥

मूल

जय हरन धरनी भार। महिमा उदार अपार॥
जय रावनारि कृपाल। किए जातुधान बिहाल॥3॥

भावार्थ

हे भूमि का भार हरने वाले! हे अपार श्रेष्ठ महिमावाले! आपकी जय हो। हे रावण के शत्रु! हे कृपालु! आपकी जय हो। आपने राक्षसों को बेहाल (तहस-नहस) कर दिया॥3॥

लङ्केस अति बल गर्ब। किए बस्य सुर गन्धर्ब॥
मुनि सिद्ध नर खग नाग। हठि पं सब कें लाग॥4॥

मूल

लङ्केस अति बल गर्ब। किए बस्य सुर गन्धर्ब॥
मुनि सिद्ध नर खग नाग। हठि पं सब कें लाग॥4॥

भावार्थ

लङ्कापति रावण को अपने बल का बहुत घमण्ड था। उसने देवता और गन्धर्व सभी को अपने वश में कर लिया था और वह मुनि, सिद्ध, मनुष्य, पक्षी और नाग आदि सभी के हठपूर्वक (हाथ धोकर) पीछे पड गया था॥4॥

परद्रोह रत अति दुष्ट। पायो सो फलु पापिष्ट॥
अब सुनहु दीन दयाल। राजीव नयन बिसाल॥5॥

मूल

परद्रोह रत अति दुष्ट। पायो सो फलु पापिष्ट॥
अब सुनहु दीन दयाल। राजीव नयन बिसाल॥5॥

भावार्थ

वह दूसरों से द्रोह करने में तत्पर और अत्यन्त दुष्ट था। उस पापी ने वैसा ही फल पाया। अब हे दीनों पर दया करने वाले! हे कमल के समान विशाल नेत्रों वाले! सुनिए॥5॥

मोहि रहा अति अभिमान। नहिं कोउ मोहि समान॥
अब देखि प्रभु पद कञ्ज। गत मान प्रद दुख पुञ्ज॥6॥

मूल

मोहि रहा अति अभिमान। नहिं कोउ मोहि समान॥
अब देखि प्रभु पद कञ्ज। गत मान प्रद दुख पुञ्ज॥6॥

भावार्थ

मुझे अत्यन्त अभिमान था कि मेरे समान कोई नहीं है, पर अब प्रभु (आप) के चरण कमलों के दर्शन करने से दु:ख समूह का देने वाला मेरा वह अभिमान जाता रहा॥6॥

कोउ ब्रह्म निर्गुन ध्याव। अब्यक्त जेहि श्रुति गाव॥
मोहि भाव कोसल भूप। श्रीराम सगुन सरूप॥7॥

मूल

कोउ ब्रह्म निर्गुन ध्याव। अब्यक्त जेहि श्रुति गाव॥
मोहि भाव कोसल भूप। श्रीराम सगुन सरूप॥7॥

भावार्थ

कोई उन निर्गुन ब्रह्म का ध्यान करते हैं जिन्हें वेद अव्यक्त (निराकार) कहते हैं। परन्तु हे रामजी! मुझे तो आपका यह सगुण कोसलराज-स्वरूप ही प्रिय लगता है॥7॥

बैदेहि अनुज समेत। मम हृदयँ करहु निकेत॥
मोहि जानिऐ निज दास। दे भक्ति रमानिवास॥8॥

मूल

बैदेहि अनुज समेत। मम हृदयँ करहु निकेत॥
मोहि जानिऐ निज दास। दे भक्ति रमानिवास॥8॥

भावार्थ

श्रीजानकीजी और छोटे भाई लक्ष्मणजी सहित मेरे हृदय में अपना घर बनाइए। हे रमानिवास! मुझे अपना दास समझिए और अपनी भक्ति दीजिए॥8॥

03 छन्द

दे भक्ति रमानिवास त्रास हरन सरन सुखदायकं।
सुख धाम राम नमामि काम अनेक छबि रघुनायकं॥
सुर बृन्द रञ्जन द्वन्द भञ्जन मनुजतनु अतुलितबलं।
ब्रह्मादि सङ्कर सेब्य राम नमामि करुना कोमलं॥

मूल

दे भक्ति रमानिवास त्रास हरन सरन सुखदायकं।
सुख धाम राम नमामि काम अनेक छबि रघुनायकं॥
सुर बृन्द रञ्जन द्वन्द भञ्जन मनुजतनु अतुलितबलं।
ब्रह्मादि सङ्कर सेब्य राम नमामि करुना कोमलं॥

भावार्थ

हे रमानिवास! हे शरणागत के भय को हरने वाले और उसे सब प्रकार का सुख देने वाले! मुझे अपनी भक्ति दीजिए। हे सुख के धाम! हे अनेकों कामदेवों की छबिवाले रघुकुल के स्वामी श्रीरामचन्द्रजी! मैं आपको नमस्कार करता हूँ। हे देवसमूह को आनन्द देने वाले, (जन्म-मृत्यु, हर्ष-विषाद, सुख-दु:ख आदि) द्वन्द्वों के नाश करने वाले, मनुष्य शरीरधारी, अतुलनीय बलवाले, ब्रह्मा और शिव आदि से सेवनीय, करुणा से कोमल श्रीरामजी! मैं आपको नमस्कार करता हूँ।

113

01 दोहा

अब करि कृपा बिलोकि मोहि आयसु देहु कृपाल।
काह करौं सुनि प्रिय बचन बोले दीनदयाल॥113॥

मूल

अब करि कृपा बिलोकि मोहि आयसु देहु कृपाल।
काह करौं सुनि प्रिय बचन बोले दीनदयाल॥113॥

भावार्थ

हे कृपालु! अब मेरी ओर कृपा करके (कृपा दृष्टि से) देखकर आज्ञा दीजिए कि मैं क्या (सेवा) करूँ! इन्द्र के ये प्रिय वचन सुनकर दीनदयालु श्रीरामजी बोले ॥113॥

02 चौपाई

सुन सुरपति कपि भालु हमारे। परे भूमि निसिचरन्हि जे मारे॥
मम हित लागि तजे इन्ह प्राना। सकल जिआउ सुरेस सुजाना॥1॥

मूल

सुन सुरपति कपि भालु हमारे। परे भूमि निसिचरन्हि जे मारे॥
मम हित लागि तजे इन्ह प्राना। सकल जिआउ सुरेस सुजाना॥1॥

भावार्थ

हे देवराज! सुनो, हमारे वानर-भालू, जिन्हें निशाचरों ने मार डाला है, पृथ्वी पर पडे हैं। इन्होन्ने मेरे हित के लिए अपने प्राण त्याग दिए। हे सुजान देवराज! इन सबको जिला दो॥1॥

सुनु खगेस प्रभु कै यह बानी। अति अगाध जानहिं मुनि ग्यानी॥
प्रभु सक त्रिभुअन मारि जिआई। केवल सक्रहि दीन्हि बडाई॥2॥

मूल

सुनु खगेस प्रभु कै यह बानी। अति अगाध जानहिं मुनि ग्यानी॥
प्रभु सक त्रिभुअन मारि जिआई। केवल सक्रहि दीन्हि बडाई॥2॥

भावार्थ

(काकभुशुण्डिजी कहते हैं -) हे गरुड! सुनिए प्रभु के ये वचन अत्यन्त गहन (गूढ) हैं। ज्ञानी मुनि ही इन्हें जान सकते हैं। प्रभु श्रीरामजी त्रिलोकी को मारकर जिला सकते हैं। यहाँ तो उन्होन्ने केवल इन्द्र को बडाई दी है॥2॥

सुधा बरषि कपि भालु जियाए। हरषि उठे सब प्रभु पहिं आए॥
सुधाबृष्टि भै दुहु दल ऊपर। जिए भालु कपि नहिं रजनीचर॥3॥

मूल

सुधा बरषि कपि भालु जियाए। हरषि उठे सब प्रभु पहिं आए॥
सुधाबृष्टि भै दुहु दल ऊपर। जिए भालु कपि नहिं रजनीचर॥3॥

भावार्थ

इन्द्र ने अमृत बरसाकर वानर-भालुओं को जिला दिया। सब हर्षित होकर उठे और प्रभु के पास आए। अमृत की वर्षा दोनों ही दलों पर हुई। पर रीछ-वानर ही जीवित हुए, राक्षस नहीं॥3॥

रामाकार भए तिन्ह के मन। मुक्त भए छूट भव बन्धन॥
सुर अंसिक सब कपि अरु रीछा। जिए सकल रघुपति कीं ईछा॥4॥

मूल

रामाकार भए तिन्ह के मन। मुक्त भए छूट भव बन्धन॥
सुर अंसिक सब कपि अरु रीछा। जिए सकल रघुपति कीं ईछा॥4॥

भावार्थ

क्योङ्कि राक्षस के मन तो मरते समय रामाकार हो गए थे। अत: वे मुक्त हो गए, उनके भवबन्धन छूट गए। किन्तु वानर और भालू तो सब देवांश (भगवान् की लीला के परिकर) थे। इसलिए वे सब श्रीरघुनाथजी की इच्छा से जीवित हो गए॥4॥

राम सरिस को दीन हितकारी। कीन्हे मुकुत निसाचर झारी॥
खल मल धाम काम रत रावन। गति पाई जो मुनिबर पाव न॥5॥

मूल

राम सरिस को दीन हितकारी। कीन्हे मुकुत निसाचर झारी॥
खल मल धाम काम रत रावन। गति पाई जो मुनिबर पाव न॥5॥

भावार्थ

श्रीरामचन्द्रजी के समान दीनों का हित करने वाला कौन है? जिन्होन्ने सारे राक्षसों को मुक्त कर दिया! दुष्ट, पापों के घर और कामी रावण ने भी वह गति पाई जिसे श्रेष्ठ मुनि भी नहीं पाते॥5॥

114

01 दोहा

सुमन बरषि सब सुर चले चढि चढि रुचिर बिमान।
देखि सुअवसर प्रभु पहिं आयउ सम्भु सुजान॥114॥ (क) ॥

मूल

सुमन बरषि सब सुर चले चढि चढि रुचिर बिमान।
देखि सुअवसर प्रभु पहिं आयउ सम्भु सुजान॥114॥ (क) ॥

भावार्थ

फूलों की वर्षा करके सब देवता सुन्दर विमानों पर चढ-चढकर चले। तब सुअवसर जानकार सुजान शिवजी प्रभु श्रीरामचन्द्रजी के पास आए- ॥1॥

परम प्रीति कर जोरि जुग नलिन नयन भरि बारि।
पुलकित तन गदगद गिराँ बिनय करत त्रिपुरारि॥2॥

मूल

परम प्रीति कर जोरि जुग नलिन नयन भरि बारि।
पुलकित तन गदगद गिराँ बिनय करत त्रिपुरारि॥2॥

भावार्थ

और परम प्रेम से दोनों हाथ जोडकर, कमल के समान नेत्रों में जल भरकर, पुलकित शरीर और गद्गद् वाणी से त्रिपुरारी शिवजी विनती करने लगे - ॥2॥

02 छन्द

मामभिरक्षय रघुकुल नायक। धृत बर चाप रुचिर कर सायक॥
मोह महा घन पटल प्रभञ्जन। संसय बिपिन अनल सुर रञ्जन॥1॥

मूल

मामभिरक्षय रघुकुल नायक। धृत बर चाप रुचिर कर सायक॥
मोह महा घन पटल प्रभञ्जन। संसय बिपिन अनल सुर रञ्जन॥1॥

भावार्थ

हे रघुकुल के स्वामी! सुन्दर हाथों में श्रेष्ठ धनुष और सुन्दर बाण धारण किए हुए आप मेरी रक्षा कीजिए। आप महामोहरूपी मेघसमूह के (उडाने के) लिए प्रचण्ड पवन हैं, संशयरूपी वन के (भस्म करने के) लिए अग्नि हैं और देवताओं को आनन्द देने वाले हैं॥1॥

अगुन सगुन गुन मन्दिर सुन्दर। भ्रम तम प्रबल प्रताप दिवाकर॥
काम क्रोध मद गज पञ्चानन। बसहु निरन्तर जन मन कानन॥2॥

मूल

अगुन सगुन गुन मन्दिर सुन्दर। भ्रम तम प्रबल प्रताप दिवाकर॥
काम क्रोध मद गज पञ्चानन। बसहु निरन्तर जन मन कानन॥2॥

भावार्थ

आप निर्गुण, सगुण, दिव्य गुणों के धाम और परम सुन्दर हैं। भ्रमरूपी अन्धकार के (नाश के) लिए प्रबल प्रतापी सूर्य हैं। काम, क्रोध और मदरूपी हाथियों के (वध के) लिए सिंह के समान आप इस सेवक के मनरूपी वन में निरन्तर वास कीजिए॥2॥

बिषय मनोरथ पुञ्ज कुञ्ज बन। प्रबल तुषार उदार पार मन॥
भव बारिधि मन्दर परमं दर। बारय तारय संसृति दुस्तर॥3॥

मूल

बिषय मनोरथ पुञ्ज कुञ्ज बन। प्रबल तुषार उदार पार मन॥
भव बारिधि मन्दर परमं दर। बारय तारय संसृति दुस्तर॥3॥

भावार्थ

विषयकामनाओं के समूह रूपी कमलवन के (नाश के) लिए आप प्रबल पाला हैं, आप उदार और मन से परे हैं। भवसागर (को मथने) के लिए आप मन्दराचल पर्वत हैं। आप हमारे परम भय को दूर कीजिए और हमें दुस्तर संसार सागर से पार कीजिए॥3॥

स्याम गात राजीव बिलोचन। दीन बन्धु प्रनतारति मोचन॥
अनुज जानकी सहित निरन्तर। बसहु राम नृप मम उर अन्तर॥
मुनि रञ्जन महि मण्डल मण्डन। तुलसिदास प्रभु त्रास बिखण्डन॥ 4-5॥

मूल

स्याम गात राजीव बिलोचन। दीन बन्धु प्रनतारति मोचन॥
अनुज जानकी सहित निरन्तर। बसहु राम नृप मम उर अन्तर॥
मुनि रञ्जन महि मण्डल मण्डन। तुलसिदास प्रभु त्रास बिखण्डन॥ 4-5॥

भावार्थ

हे श्यामसुन्दर-शरीर! हे कमलनयन! हे दीनबन्धु! हे शरणागत को दु:ख से छुडाने वाले! हे राजा रामचन्द्रजी! आप छोटे भाई लक्ष्मण और जानकीजी सहित निरन्तर मेरे हृदय के अन्दर निवास कीजिए। आप मुनियों को आनन्द देने वाले, पृथ्वीमण्डल के भूषण, तुलसीदास के प्रभु और भय का नाश करने वाले हैं॥ 4-5॥

115

01 दोहा

नाथ जबहिं कोसलपुरीं होइहि तिलक तुम्हार।
कृपासिन्धु मैं आउब देखन चरित उदार ॥115॥

मूल

नाथ जबहिं कोसलपुरीं होइहि तिलक तुम्हार।
कृपासिन्धु मैं आउब देखन चरित उदार ॥115॥

भावार्थ

हे नाथ! जब अयोध्यापुरी में आपका राजतिलक होगा, तब हे कृपासागर! मैं आपकी उदार लीला देखने आऊँगा ॥115॥

02 चौपाई

करि बिनती जब सम्भु सिधाए। तब प्रभु निकट बिभीषनु आए॥
नाइ चरन सिरु कह मृदु बानी। बिनय सुनहु प्रभु सारँगपानी॥1॥

मूल

करि बिनती जब सम्भु सिधाए। तब प्रभु निकट बिभीषनु आए॥
नाइ चरन सिरु कह मृदु बानी। बिनय सुनहु प्रभु सारँगपानी॥1॥

भावार्थ

जब शिवजी विनती करके चले गए, तब विभीषणजी प्रभु के पास आए और चरणों में सिर नवाकर कोमल वाणी से बोले- हे शार्गं धनुष के धारण करने वाले प्रभो! मेरी विनती सुनिए-॥1॥

सकुल सदल प्रभु रावन मार्‌यो। पावन जस त्रिभुवन विस्तार्‌यो॥
दीन मलीन हीन मति जाती। मो पर कृपा कीन्हि बहु भाँती॥2॥

मूल

सकुल सदल प्रभु रावन मार्‌यो। पावन जस त्रिभुवन विस्तार्‌यो॥
दीन मलीन हीन मति जाती। मो पर कृपा कीन्हि बहु भाँती॥2॥

भावार्थ

आपने कुल और सेना सहित रावण का वध किया, त्रिभुवन में अपना पवित्र यश फैलाया और मुझ दीन, पापी, बुद्धिहीन और जातिहीन पर बहुत प्रकार से कृपा की॥2॥

अब जन गृह पुनीत प्रभु कीजे। मज्जन करिअ समर श्रम छीजे॥
देखि कोस मन्दिर सम्पदा। देहु कृपाल कपिन्ह कहुँ मुदा॥3॥

मूल

अब जन गृह पुनीत प्रभु कीजे। मज्जन करिअ समर श्रम छीजे॥
देखि कोस मन्दिर सम्पदा। देहु कृपाल कपिन्ह कहुँ मुदा॥3॥

भावार्थ

अब हे प्रभु! इस दास के घर को पवित्र कीजिए और वहाँ चलकर स्नान कीजिए, जिससे युद्ध की थकावट दूर हो जाए। हे कृपालु! खजाना, महल और सम्पत्ति का निरीक्षण कर प्रसन्नतापूर्वक वानरों को दीजिए॥3॥

सब बिधि नाथ मोहि अपनाइअ। पुनि मोहि सहित अवधपुर जाइअ॥
सुनत बचन मृदु दीनदयाला। सजल भए द्वौ नयन बिसाला॥4॥

मूल

सब बिधि नाथ मोहि अपनाइअ। पुनि मोहि सहित अवधपुर जाइअ॥
सुनत बचन मृदु दीनदयाला। सजल भए द्वौ नयन बिसाला॥4॥

भावार्थ

हे नाथ! मुझे सब प्रकार से अपना लीजिए और फिर हे प्रभो! मुझे साथ लेकर अयोध्यापुरी को पधारिए। विभीषणजी के कोमल वचन सुनते ही दीनदयालु प्रभु के दोनों विशाल नेत्रों में (प्रेमाश्रुओं का) जल भर आया॥4॥

116

01 दोहा

तोर कोस गृह मोर सब सत्य बचन सुनु भ्रात।
भरत दसा सुमिरत मोहि निमिष कल्प सम जात॥1॥

मूल

तोर कोस गृह मोर सब सत्य बचन सुनु भ्रात।
भरत दसा सुमिरत मोहि निमिष कल्प सम जात॥1॥

भावार्थ

(श्री रामजी ने कहा-) हे भाई! सुनो, तुम्हारा खजाना और घर सब मेरा ही है, यह सच बात है। पर भरत की दशा याद करके मुझे एक-एक पल कल्प के समान बीत रहा है॥1॥

तापस बेष गात कृस जपत निरन्तर मोहि।
देखौं बेगि सो जतनु करु सखा निहोरउँ तोहि॥2॥

मूल

तापस बेष गात कृस जपत निरन्तर मोहि।
देखौं बेगि सो जतनु करु सखा निहोरउँ तोहि॥2॥

भावार्थ

तपस्वी के वेष में कृश (दुबले) शरीर से निरन्तर मेरा नाम जप कर रहे हैं। हे सखा! वही उपाय करो जिससे मैं जल्दी से जल्दी उन्हें देख सकूँ। मैं तुमसे निहोरा (अनुरोध) करता हूँ॥2॥

बीतें अवधि जाउँ जौं जिअत न पावउँ बीर।
सुमिरत अनुज प्रीति प्रभु पुनि पुनि पुलक सरीर॥3॥

मूल

बीतें अवधि जाउँ जौं जिअत न पावउँ बीर।
सुमिरत अनुज प्रीति प्रभु पुनि पुनि पुलक सरीर॥3॥

भावार्थ

यदि अवधि बीत जाने पर जाता हूँ तो भाई को जीता न पाऊँगा। छोटे भाई भरतजी की प्रीति का स्मरण करके प्रभु का शरीर बार-बार पुलकित हो रहा है॥3॥

करेहु कल्प भरि राजु तुम्ह मोहि सुमिरेहु मन माहिं।
पुनि मम धाम पाइहहु जहाँ सन्त सब जाहिं॥4॥

मूल

करेहु कल्प भरि राजु तुम्ह मोहि सुमिरेहु मन माहिं।
पुनि मम धाम पाइहहु जहाँ सन्त सब जाहिं॥4॥

भावार्थ

(श्री रामजी ने फिर कहा-) हे विभीषण! तुम कल्पभर राज्य करना, मन में मेरा निरन्तर स्मरण करते रहना। फिर तुम मेरे उस धाम को पा जाओगे, जहाँ सब सन्त जाते हैं॥4॥

02 चौपाई

सुनत बिभीषन बचन राम के। हरषि गहे पद कृपाधाम के॥
बानर भालु सकल हरषाने। गहि प्रभु पद गुन बिमल बखाने॥1॥

मूल

सुनत बिभीषन बचन राम के। हरषि गहे पद कृपाधाम के॥
बानर भालु सकल हरषाने। गहि प्रभु पद गुन बिमल बखाने॥1॥

भावार्थ

श्री रामचन्द्रजी के वचन सुनते ही विभीषणजी ने हर्षित होकर कृपा के धाम श्री रामजी के चरण पकड लिए। सभी वानर-भालू हर्षित हो गए और प्रभु के चरण पकडकर उनके निर्मल गुणों का बखान करने लगे॥1॥

बहुरि विभीषन भवन सिधायो। मनि गन बसन बिमान भरायो॥
लै पुष्पक प्रभु आगें राखा। हँसि करि कृपासिन्धु तब भाषा॥2॥

मूल

बहुरि विभीषन भवन सिधायो। मनि गन बसन बिमान भरायो॥
लै पुष्पक प्रभु आगें राखा। हँसि करि कृपासिन्धु तब भाषा॥2॥

भावार्थ

फिर विभीषणजी महल को गए और उन्होन्ने मणियों के समूहों (रत्नों) से और वस्त्रों से विमान को भर लिया। फिर उस पुष्पक विमान को लाकर प्रभु के सामने रखा। तब कृपासागर श्री रामजी ने हँसकर कहा-॥2॥

चढि बिमान सुनु सखा बिभीषन। गगन जाइ बरषहु पट भूषन॥
नभ पर जाइ बिभीषन तबही। बरषि दिए मनि अम्बर सबही॥3॥

मूल

चढि बिमान सुनु सखा बिभीषन। गगन जाइ बरषहु पट भूषन॥
नभ पर जाइ बिभीषन तबही। बरषि दिए मनि अम्बर सबही॥3॥

भावार्थ

हे सखा विभीषण! सुनो, विमान पर चढकर, आकाश में जाकर वस्त्रों और गहनों को बरसा दो। तब (आज्ञा सुनते) ही विभीषणजी ने आकाश में जाकर सब मणियों और वस्त्रों को बरसा दिया॥3॥

जोइ जोइ मन भावइ सोइ लेहीं। मनि मुख मेलि डारि कपि देहीं॥
हँसे रामु श्री अनुज समेता। परम कौतुकी कृपा निकेता॥4॥

मूल

जोइ जोइ मन भावइ सोइ लेहीं। मनि मुख मेलि डारि कपि देहीं॥
हँसे रामु श्री अनुज समेता। परम कौतुकी कृपा निकेता॥4॥

भावार्थ

जिसके मन को जो अच्छा लगता है, वह वही ले लेता है। मणियों को मुँह में लेकर वानर फिर उन्हें खाने की चीज न समझकर उगल देते हैं। यह तमाशा देखकर परम विनोदी और कृपा के धाम श्री रामजी, सीताजी और लक्ष्मणजी सहित हँसने लगे॥4॥

117

01 दोहा

मुनि जेहि ध्यान न पावहिं नेति नेति कह बेद।
कृपासिन्धु सोइ कपिन्ह सन करत अनेक बिनोद॥1॥

मूल

मुनि जेहि ध्यान न पावहिं नेति नेति कह बेद।
कृपासिन्धु सोइ कपिन्ह सन करत अनेक बिनोद॥1॥

भावार्थ

जिनको मुनि ध्यान में भी नहीं पाते, जिन्हें वेद नेति-नेति कहते हैं, वे ही कृपा के समुद्र श्री रामजी वानरों के साथ अनेकों प्रकार के विनोद कर रहे हैं॥1॥

उमा जोग जप दान तप नाना मख ब्रत नेम।
राम कृपा नहिं करहिं तसि जसि निष्केवल प्रेम॥2॥

मूल

उमा जोग जप दान तप नाना मख ब्रत नेम।
राम कृपा नहिं करहिं तसि जसि निष्केवल प्रेम॥2॥

भावार्थ

(शिवजी कहते हैं-) हे उमा! अनेकों प्रकार के योग, जप, दान, तप, यज्ञ, व्रत और नियम करने पर भी श्री रामचन्द्रजी वैसी कृपा नहीं करते जैसी अनन्य प्रेम होने पर करते हैं॥2॥

02 चौपाई

भालु कपिन्ह पट भूषन पाए। पहिरि पहिरि रघुपति पहिं आए॥
नाना जिनस देखि सब कीसा। पुनि पुनि हँसत कोसलाधीसा॥1॥

मूल

भालु कपिन्ह पट भूषन पाए। पहिरि पहिरि रघुपति पहिं आए॥
नाना जिनस देखि सब कीसा। पुनि पुनि हँसत कोसलाधीसा॥1॥

भावार्थ

भालुओं और वानरों ने कपडे-गहने पाए और उन्हें पहन-पहनकर वे श्री रघुनाथजी के पास आए। अनेकों जातियों के वानरों को देखकर कोसलपति श्री रामजी बार-बार हँस रहे हैं॥1॥

चितइ सबन्हि पर कीन्ही दाया। बोले मृदुल बचन रघुराया॥
तुम्हरें बल मैं रावनु मार्‌यो। तिलक बिभीषन कहँ पुनि सार्‌यो॥2॥

मूल

चितइ सबन्हि पर कीन्ही दाया। बोले मृदुल बचन रघुराया॥
तुम्हरें बल मैं रावनु मार्‌यो। तिलक बिभीषन कहँ पुनि सार्‌यो॥2॥

भावार्थ

श्री रघुनाथजी ने कृपा दृष्टि से देखकर सब पर दया की। फिर वे कोमल वचन बोले- हे भाइयो! तुम्हारे ही बल से मैन्ने रावण को मारा और फिर विभीषण का राजतिलक किया॥2॥

निज निज गृह अब तुम्ह सब जाहू। सुमिरेहु मोहि डरपहु जनि काहू॥
सुनत बचन प्रेमाकुल बानर। जोरि पानि बोले सब सादर॥3॥

मूल

निज निज गृह अब तुम्ह सब जाहू। सुमिरेहु मोहि डरपहु जनि काहू॥
सुनत बचन प्रेमाकुल बानर। जोरि पानि बोले सब सादर॥3॥

भावार्थ

अब तुम सब अपने-अपने घर जाओ। मेरा स्मरण करते रहना और किसी से डरना नहीं। ये वचन सुनते ही सब वानर प्रेम में विह्वल होकर हाथ जोडकर आदरपूर्वक बोले-॥3॥

प्रभु जोइ कहहु तुम्हहि सब सोहा। हमरें होत बचन सुनि मोहा॥
दीन जानि कपि किए सनाथा। तुम्ह त्रैलोक ईस रघुनाथा॥4॥

मूल

प्रभु जोइ कहहु तुम्हहि सब सोहा। हमरें होत बचन सुनि मोहा॥
दीन जानि कपि किए सनाथा। तुम्ह त्रैलोक ईस रघुनाथा॥4॥

भावार्थ

प्रभो! आप जो कुछ भी कहें, आपको सब सोहता है। पर आपके वचन सुनकर हमको मोह होता है। हे रघुनाथजी! आप तीनों लोकों के ईश्वर हैं। हम वानरों को दीन जानकर ही आपने सनाथ (कृतार्थ) किया है॥4॥

सुनि प्रभु बचन लाज हम मरहीं। मसक कहूँ खगपति हित करहीं॥
देखि राम रुख बानर रीछा। प्रेम मगन नहिं गृह कै ईछा॥5॥

मूल

सुनि प्रभु बचन लाज हम मरहीं। मसक कहूँ खगपति हित करहीं॥
देखि राम रुख बानर रीछा। प्रेम मगन नहिं गृह कै ईछा॥5॥

भावार्थ

प्रभु के (ऐसे) वचन सुनकर हम लाज के मारे मरे जा रहे हैं। कहीं मच्छर भी गरुड का हित कर सकते हैं? श्री रामजी का रुख देखकर रीछ-वानर प्रेम में मग्न हो गए। उनकी घर जाने की इच्छा नहीं है॥5॥

118

01 दोहा

प्रभु प्रेरित कपि भालु सब राम रूप उर राखि।
हरष बिषाद सहित चले बिनय बिबिध बिधि भाषि॥1॥

मूल

प्रभु प्रेरित कपि भालु सब राम रूप उर राखि।
हरष बिषाद सहित चले बिनय बिबिध बिधि भाषि॥1॥

भावार्थ

परन्तु प्रभु की प्रेरणा (आज्ञा) से सब वानर-भालू श्री रामजी के रूप को हृदय में रखकर और अनेकों प्रकार से विनती करके हर्ष और विषाद सहित घर को चले॥1॥

कपिपति नील रीछपति अङ्गद नल हनुमान।
सहित बिभीषन अपर जे जूथप कपि बलवान॥2॥

मूल

कपिपति नील रीछपति अङ्गद नल हनुमान।
सहित बिभीषन अपर जे जूथप कपि बलवान॥2॥

भावार्थ

वानरराज सुग्रीव, नील, ऋक्षराज जाम्बवान्‌, अङ्गद, नल और हनुमान्‌ तथा विभीषण सहित और जो बलवान्‌ वानर सेनापति हैं,॥2॥

कहि न सकहिं कछु प्रेम बस भरि भरि लोचन बारि॥
सन्मुख चितवहिं राम तन नयन निमेष निवारि॥3॥

मूल

कहि न सकहिं कछु प्रेम बस भरि भरि लोचन बारि॥
सन्मुख चितवहिं राम तन नयन निमेष निवारि॥3॥

भावार्थ

वे कुछ कह नहीं सकते, प्रेमवश नेत्रों में जल भर-भरकर, नेत्रों का पलक मारना छोडकर (टकटकी लगाए) सम्मुख होकर श्री रामजी की ओर देख रहे हैं॥3॥

02 चौपाई

अतिसय प्रीति देखि रघुराई। लीन्हे सकल बिमान चढाई॥
मन महुँ बिप्र चरन सिरु नायो। उत्तर दिसिहि बिमान चलायो॥1॥

मूल

अतिसय प्रीति देखि रघुराई। लीन्हे सकल बिमान चढाई॥
मन महुँ बिप्र चरन सिरु नायो। उत्तर दिसिहि बिमान चलायो॥1॥

भावार्थ

श्री रघुनाथजी ने उनका अतिशय प्रेम देखकर सबको विमान पर चढा लिया। तदनन्तर मन ही मन विप्रचरणों में सिर नवाकर उत्तर दिशा की ओर विमान चलाया॥1॥

चलत बिमान कोलाहल होई। जय रघुबीर कहइ सबु कोई॥
सिंहासन अति उच्च मनोहर। श्री समेत प्रभु बैठे ता पर॥2॥

मूल

चलत बिमान कोलाहल होई। जय रघुबीर कहइ सबु कोई॥
सिंहासन अति उच्च मनोहर। श्री समेत प्रभु बैठे ता पर॥2॥

भावार्थ

विमान के चलते समय बडा शोर हो रहा है। सब कोई श्री रघुवीर की जय कह रहे हैं। विमान में एक अत्यन्त ऊँचा मनोहर सिंहासन है। उस पर सीताजी सहित प्रभु श्री रामचन्द्रजी विराजमान हो गए॥2॥

राजत रामु सहित भामिनी। मेरु सृङ्ग जनु घन दामिनी॥
रुचिर बिमानु चलेउ अति आतुर। कीन्ही सुमन बृष्टि हरषे सुर॥3॥

मूल

राजत रामु सहित भामिनी। मेरु सृङ्ग जनु घन दामिनी॥
रुचिर बिमानु चलेउ अति आतुर। कीन्ही सुमन बृष्टि हरषे सुर॥3॥

भावार्थ

पत्नी सहित श्री रामजी ऐसे सुशोभित हो रहे हैं मानो सुमेरु के शिखर पर बिजली सहित श्याम मेघ हो। सुन्दर विमान बडी शीघ्रता से चला। देवता हर्षित हुए और उन्होन्ने फूलों की वर्षा की॥3॥

परम सुखद चलि त्रिबिध बयारी। सागर सर सरि निर्मल बारी॥
सगुन होहिं सुन्दर चहुँ पासा। मन प्रसन्न निर्मल नभ आसा॥4॥

मूल

परम सुखद चलि त्रिबिध बयारी। सागर सर सरि निर्मल बारी॥
सगुन होहिं सुन्दर चहुँ पासा। मन प्रसन्न निर्मल नभ आसा॥4॥

भावार्थ

अत्यन्त सुख देने वाली तीन प्रकार की (शीतल, मन्द, सुगन्धित) वायु चलने लगी। समुद्र, तालाब और नदियों का जल निर्मल हो गया। चारों ओर सुन्दर शकुन होने लगे। सबके मन प्रसन्न हैं, आकाश और दिशाएँ निर्मल हैं॥4॥

कह रघुबीर देखु रन सीता। लछिमन इहाँ हत्यो इँद्रजीता॥
हनूमान अङ्गद के मारे। रन महि परे निसाचर भारे॥5॥

मूल

कह रघुबीर देखु रन सीता। लछिमन इहाँ हत्यो इँद्रजीता॥
हनूमान अङ्गद के मारे। रन महि परे निसाचर भारे॥5॥

भावार्थ

श्री रघुवीरजी ने कहा- हे सीते! रणभूमि देखो। लक्ष्मण ने यहाँ इन्द्र को जीतने वाले मेघनाद को मारा था। हनुमान्‌ और अङ्गद के मारे हुए ये भारी-भारी निशाचर रणभूमि में पडे हैं॥5॥

कुम्भकरन रावन द्वौ भाई। इहाँ हते सुर मुनि दुखदाई॥6॥

मूल

कुम्भकरन रावन द्वौ भाई। इहाँ हते सुर मुनि दुखदाई॥6॥

भावार्थ

देवताओं और मुनियों को दुःख देने वाले कुम्भकर्ण और रावण दोनों भाई यहाँ मारे गए॥6॥

119

01 दोहा

इहाँ सेतु बाँध्यों अरु थापेउँ सिव सुख धाम।
सीता सहित कृपानिधि सम्भुहि कीन्ह प्रनाम॥1॥

मूल

इहाँ सेतु बाँध्यों अरु थापेउँ सिव सुख धाम।
सीता सहित कृपानिधि सम्भुहि कीन्ह प्रनाम॥1॥

भावार्थ

मैन्ने यहाँ पुल बाँधा (बँधवाया) और सुखधाम श्री शिवजी की स्थापना की। तदनन्तर कृपानिधान श्री रामजी ने सीताजी सहित श्री रामेश्वर महादेव को प्रणाम किया॥1॥

जहँ जहँ कृपासिन्धु बन कीन्ह बास बिश्राम।
सकल देखाए जानकिहि कहे सबन्हि के नाम॥2॥

मूल

जहँ जहँ कृपासिन्धु बन कीन्ह बास बिश्राम।
सकल देखाए जानकिहि कहे सबन्हि के नाम॥2॥

भावार्थ

वन में जहाँ-तहाँ करुणा सागर श्री रामचन्द्रजी ने निवास और विश्राम किया था, वे सब स्थान प्रभु ने जानकीजी को दिखलाए और सबके नाम बतलाए॥2॥

02 चौपाई

तुरत बिमान तहाँ चलि आवा। दण्डक बन जहँ परम सुहावा॥
कुम्भजादि मुनिनायक नाना। गए रामु सब कें अस्थाना॥1॥

मूल

तुरत बिमान तहाँ चलि आवा। दण्डक बन जहँ परम सुहावा॥
कुम्भजादि मुनिनायक नाना। गए रामु सब कें अस्थाना॥1॥

भावार्थ

विमान शीघ्र ही वहाँ चला आया, जहाँ परम सुन्दर दण्डकवन था और अगस्त्य आदि बहुत से मुनिराज रहते थे। श्री रामजी इन सबके स्थानों में गए॥1॥

सकल रिषिन्ह सन पाइ असीसा। चित्रकूट आए जगदीसा॥
तहँ करि मुनिन्ह केर सन्तोषा। चला बिमानु तहाँ ते चोखा॥2॥

मूल

सकल रिषिन्ह सन पाइ असीसा। चित्रकूट आए जगदीसा॥
तहँ करि मुनिन्ह केर सन्तोषा। चला बिमानु तहाँ ते चोखा॥2॥

भावार्थ

सम्पूर्ण ऋषियों से आशीर्वाद पाकर जगदीश्वर श्री रामजी चित्रकूट आए। वहाँ मुनियों को सन्तुष्ट किया। (फिर) विमान वहाँ से आगे तेजी के साथ चला॥2॥

बहुरि राम जानकिहि देखाई। जमुना कलि मल हरनि सुहाई॥
पुनि देखी सुरसरी पुनीता। राम कहा प्रनाम करु सीता॥3॥

मूल

बहुरि राम जानकिहि देखाई। जमुना कलि मल हरनि सुहाई॥
पुनि देखी सुरसरी पुनीता। राम कहा प्रनाम करु सीता॥3॥

भावार्थ

फिर श्री रामजी ने जानकीजी को कलियुग के पापों का हरण करने वाली सुहावनी यमुनाजी के दर्शन कराए। फिर पवित्र गङ्गाजी के दर्शन किए। श्री रामजी ने कहा- हे सीते! इन्हें प्रणाम करो॥3॥

तीरथपति पुनि देखु प्रयागा। निरखत जन्म कोटि अघ भागा॥
देखु परम पावनि पुनि बेनी। हरनि सोक हरि लोक निसेनी॥4॥
पुनि देखु अवधपुरि अति पावनि। त्रिबिध ताप भव रोग नसावनि॥5॥

मूल

तीरथपति पुनि देखु प्रयागा। निरखत जन्म कोटि अघ भागा॥
देखु परम पावनि पुनि बेनी। हरनि सोक हरि लोक निसेनी॥4॥
पुनि देखु अवधपुरि अति पावनि। त्रिबिध ताप भव रोग नसावनि॥5॥

भावार्थ

फिर तीर्थराज प्रयाग को देखो, जिसके दर्शन से ही करोडों जन्मों के पाप भाग जाते हैं। फिर परम पवित्र त्रिवेणीजी के दर्शन करो, जो शोकों को हरने वाली और श्री हरि के परम धाम (पहुँचने) के लिए सीढी के समान है। फिर अत्यन्त पवित्र अयोध्यापुरी के दर्शन करो, जो तीनों प्रकार के तापों और भव (आवागमन रूपी) रोग का नाश करने वाली है॥4-5॥

120

01 दोहा

सीता सहित अवध कहुँ कीन्ह कृपाल प्रनाम।
सजल नयन तन पुलकित पुनि पुनि हरषित राम॥1॥

मूल

सीता सहित अवध कहुँ कीन्ह कृपाल प्रनाम।
सजल नयन तन पुलकित पुनि पुनि हरषित राम॥1॥

भावार्थ

यों कहकर कृपालु श्री रामजी ने सीताजी सहित अवधपुरी को प्रणाम किया। सजल नेत्र और पुलकित शरीर होकर श्री रामजी बार-बार हर्षित हो रहे हैं॥1॥

पुनि प्रभु आइ त्रिबेनीं हरषित मज्जनु कीन्ह।
कपिन्ह सहित बिप्रन्ह कहुँ दान बिबिध बिधि दीन्ह॥2॥

मूल

पुनि प्रभु आइ त्रिबेनीं हरषित मज्जनु कीन्ह।
कपिन्ह सहित बिप्रन्ह कहुँ दान बिबिध बिधि दीन्ह॥2॥

भावार्थ

फिर त्रिवेणी में आकर प्रभु ने हर्षित होकर स्नान किया और वानरों सहित ब्राह्मणों को अनेकों प्रकार के दान दिए॥2॥

02 चौपाई

प्रभु हनुमन्तहि कहा बुझाई। धरि बटु रूप अवधपुर जाई॥
भरतहि कुसल हमारि सुनाएहु। समाचार लै तुम्ह चलि आएहु॥1॥

मूल

प्रभु हनुमन्तहि कहा बुझाई। धरि बटु रूप अवधपुर जाई॥
भरतहि कुसल हमारि सुनाएहु। समाचार लै तुम्ह चलि आएहु॥1॥

भावार्थ

तदनन्तर प्रभु ने हनुमान्‌जी को समझाकर कहा- तुम ब्रह्मचारी का रूप धरकर अवधपुरी को जाओ। भरत को हमारी कुशल सुनाना और उनका समाचार लेकर चले आना॥1॥

तुरत पवनसुत गवनत भयऊ। तब प्रभु भरद्वाज पहिं गयऊ॥
नाना बिधि मुनि पूजा कीन्ही। अस्तुति करि पुनि आसिष दीन्ही॥2॥

मूल

तुरत पवनसुत गवनत भयऊ। तब प्रभु भरद्वाज पहिं गयऊ॥
नाना बिधि मुनि पूजा कीन्ही। अस्तुति करि पुनि आसिष दीन्ही॥2॥

भावार्थ

पवनपुत्र हनुमान्‌जी तुरन्त ही चल दिए। तब प्रभु भरद्वाजजी के पास गए। मुनि ने (इष्ट बुद्धि से) उनकी अनेकों प्रकार से पूजा की और स्तुति की और फिर (लीला की दृष्टि से) आशीर्वाद दिया॥2॥

मुनि पद बन्दि जुगल कर जोरी। चढि बिमान प्रभु चले बहोरी॥
इहाँ निषाद सुना प्रभु आए। नाव नाव कहँ लोग बोलाए॥3॥

मूल

मुनि पद बन्दि जुगल कर जोरी। चढि बिमान प्रभु चले बहोरी॥
इहाँ निषाद सुना प्रभु आए। नाव नाव कहँ लोग बोलाए॥3॥

भावार्थ

दोनों हाथ जोडकर तथा मुनि के चरणों की वन्दना करके प्रभु विमान पर चढकर फिर (आगे) चले। यहाँ जब निषादराज ने सुना कि प्रभु आ गए, तब उसने ‘नाव कहाँ है? नाव कहाँ है?’ पुकारते हुए लोगों को बुलाया॥3॥

सुरसरि नाघि जान तब आयो। उतरेउ तट प्रभु आयसु पायो॥
तब सीताँ पूजी सुरसरी। बहु प्रकार पुनि चरनन्हि परी॥4॥

मूल

सुरसरि नाघि जान तब आयो। उतरेउ तट प्रभु आयसु पायो॥
तब सीताँ पूजी सुरसरी। बहु प्रकार पुनि चरनन्हि परी॥4॥

भावार्थ

इतने में ही विमान गङ्गाजी को लाँघकर (इस पार) आ गया और प्रभु की आज्ञा पाकर वह किनारे पर उतरा। तब सीताजी बहुत प्रकार से गङ्गाजी की पूजा करके फिर उनके चरणों पर गिरीं॥4॥

दीन्हि असीस हरषि मन गङ्गा। सुन्दरि तव अहिवात अभङ्गा॥
सुनत गुहा धायउ प्रेमाकुल। आयउ निकट परम सुख सङ्कुल॥5॥

मूल

दीन्हि असीस हरषि मन गङ्गा। सुन्दरि तव अहिवात अभङ्गा॥
सुनत गुहा धायउ प्रेमाकुल। आयउ निकट परम सुख सङ्कुल॥5॥

भावार्थ

गङ्गाजी ने मन में हर्षित होकर आशीर्वाद दिया- हे सुन्दरी! तुम्हारा सुहाग अखण्ड हो। भगवान्‌ के तट पर उतरने की बात सुनते ही निषादराज गुह प्रेम में विह्वल होकर दौडा। परम सुख से परिपूर्ण होकर वह प्रभु के समीप आया,॥5॥

प्रभुहि सहित बिलोकि बैदेही। परेउ अवनि तन सुधि नहिं तेही॥
प्रीति परम बिलोकि रघुराई। हरषि उठाइ लियो उर लाई॥6॥

मूल

प्रभुहि सहित बिलोकि बैदेही। परेउ अवनि तन सुधि नहिं तेही॥
प्रीति परम बिलोकि रघुराई। हरषि उठाइ लियो उर लाई॥6॥

भावार्थ

और श्री जानकीजी सहित प्रभु को देखकर वह (आनन्द-समाधि में मग्न होकर) पृथ्वी पर गिर पडा, उसे शरीर की सुधि न रही। श्री रघुनाथजी ने उसका परम प्रेम देखकर उसे उठाकर हर्ष के साथ हृदय से लगा लिया॥6॥

03 छन्द

लियो हृदयँ लाइ कृपा निधान सुजान रायँ रमापति।
बैठारि परम समीप बूझी कुसल सो कर बीनती॥
अब कुसल पद पङ्कज बिलोकि बिरञ्चि सङ्कर सेब्य जे।
सुख धाम पूरनकाम राम नमामि राम नमामि ते॥1॥

मूल

लियो हृदयँ लाइ कृपा निधान सुजान रायँ रमापति।
बैठारि परम समीप बूझी कुसल सो कर बीनती॥
अब कुसल पद पङ्कज बिलोकि बिरञ्चि सङ्कर सेब्य जे।
सुख धाम पूरनकाम राम नमामि राम नमामि ते॥1॥

भावार्थ

सुजानों के राजा (शिरोमणि), लक्ष्मीकान्त, कृपानिधान भगवान्‌ ने उसको हृदय से लगा लिया और अत्यन्त निकट बैठकर कुशल पूछी। वह विनती करने लगा- आपके जो चरणकमल ब्रह्माजी और शङ्करजी से सेवित हैं, उनके दर्शन करके मैं अब सकुशल हूँ। हे सुखधाम! हे पूर्णकाम श्री रामजी! मैं आपको नमस्कार करता हूँ, नमस्कार करता हूँ॥1॥

सब भाँति अधम निषाद सो हरि भरत ज्यों उर लाइयो।
मतिमन्द तुलसीदास सो प्रभु मोह बस बिसराइयो॥
यह रावनारि चरित्र पावन राम पद रतिप्रद सदा।
कामादिहर बिग्यानकर सुर सिद्ध मुनि गावहिं मुदा॥2॥

मूल

सब भाँति अधम निषाद सो हरि भरत ज्यों उर लाइयो।
मतिमन्द तुलसीदास सो प्रभु मोह बस बिसराइयो॥
यह रावनारि चरित्र पावन राम पद रतिप्रद सदा।
कामादिहर बिग्यानकर सुर सिद्ध मुनि गावहिं मुदा॥2॥

भावार्थ

सब प्रकार से नीच उस निषाद को भगवान्‌ ने भरतजी की भाँति हृदय से लगा लिया। तुलसीदासजी कहते हैं- इस मन्दबुद्धि ने (मैन्ने) मोहवश उस प्रभु को भुला दिया। रावण के शत्रु का यह पवित्र करने वाला चरित्र सदा ही श्री रामजी के चरणों में प्रीति उत्पन्न करने वाला है। यह कामादि विकारों को हरने वाला और (भगवान्‌ के स्वरूप का) विशेष ज्ञान उत्पन्न करने वाला है। देवता, सिद्ध और मुनि आनन्दित होकर इसे गाते हैं॥2॥

121

01 दोहा

समर बिजय रघुबीर के चरित जे सुनहिं सुजान।
बिजय बिबेक बिभूति नित तिन्हहि देहिं भगवान॥1॥

मूल

समर बिजय रघुबीर के चरित जे सुनहिं सुजान।
बिजय बिबेक बिभूति नित तिन्हहि देहिं भगवान॥1॥

भावार्थ

जो सुजान लोग श्री रघुवीर की समर विजय सम्बन्धी लीला को सुनते हैं, उनको भगवान्‌ नित्य विजय, विवेक और विभूति (ऐश्वर्य) देते हैं॥।121 (क)॥

यह कलिकाल मलायतन मन करि देखु बिचार।
श्री रघुनाथ नाम तजि नाहिन आन अधार॥2॥

मूल

यह कलिकाल मलायतन मन करि देखु बिचार।
श्री रघुनाथ नाम तजि नाहिन आन अधार॥2॥

भावार्थ

अरे मन! विचार करके देख! यह कलिकाल पापों का घर है। इसमें श्री रघुनाथजी के नाम को छोडकर (पापों से बचने के लिए) दूसरा कोई आधार नहीं है॥2॥

मासपारायण, सत्ताईसवाँ विश्राम
इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने षष्ठः सोपानः समाप्तः।
कलियुग के समस्त पापों का नाश करने वाले श्री रामचरित मानस का यह छठा सोपान समाप्त हुआ।
(लङ्काकाण्ड समाप्त)