५ सुन्दरकाण्डम्

00

01 छन्द

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

शान्तं शाश्वतमप्रमेयमनघं निर्वाणशान्तिप्रदं
ब्रह्माशम्भुफणीन्द्रसेव्यमनिशं वेदान्तवेद्यं विभुम्‌।
रामाख्यं जगदीश्वरं सुरगुरुं मायामनुष्यं हरिं
वन्देऽहं करुणाकरं रघुवरं भूपालचूडामणिम्‌॥1॥

मूल

शान्तं शाश्वतमप्रमेयमनघं निर्वाणशान्तिप्रदं
ब्रह्माशम्भुफणीन्द्रसेव्यमनिशं वेदान्तवेद्यं विभुम्‌।
रामाख्यं जगदीश्वरं सुरगुरुं मायामनुष्यं हरिं
वन्देऽहं करुणाकरं रघुवरं भूपालचूडामणिम्‌॥1॥

भावार्थ

शान्त, सनातन, अप्रमेय (प्रमाणों से परे), निष्पाप, मोक्षरूप परमशान्ति देने वाले, ब्रह्मा, शम्भु और शेषजी से निरन्तर सेवित, वेदान्त के द्वारा जानने योग्य, सर्वव्यापक, देवताओं में सबसे बडे, माया से मनुष्य रूप में दिखने वाले, समस्त पापों को हरने वाले, करुणा की खान, रघुकुल में श्रेष्ठ तथा राजाओं के शिरोमणि राम कहलाने वाले जगदीश्वर की मैं वन्दना करता हूँ॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

नान्या स्पृहा रघुपते हृदयेऽस्मदीये
सत्यं वदामि च भवानखिलान्तरात्मा।
भक्तिं प्रयच्छ रघुपुङ्गव निर्भरां मे
कामादिदोषरहितं कुरु मानसं च॥2॥

मूल

नान्या स्पृहा रघुपते हृदयेऽस्मदीये
सत्यं वदामि च भवानखिलान्तरात्मा।
भक्तिं प्रयच्छ रघुपुङ्गव निर्भरां मे
कामादिदोषरहितं कुरु मानसं च॥2॥

भावार्थ

हे रघुनाथजी! मैं सत्य कहता हूँ और फिर आप सबके अन्तरात्मा ही हैं (सब जानते ही हैं) कि मेरे हृदय में दूसरी कोई इच्छा नहीं है। हे रघुकुलश्रेष्ठ! मुझे अपनी निर्भरा (पूर्ण) भक्ति दीजिए और मेरे मन को काम आदि दोषों से रहित कीजिए॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं
दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम्‌।
सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं
रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि॥3॥

मूल

अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं
दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम्‌।
सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं
रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि॥3॥

भावार्थ

अतुल बल के धाम, सोने के पर्वत (सुमेरु) के समान कान्तियुक्त शरीर वाले, दैत्य रूपी वन (को ध्वंस करने) के लिए अग्नि रूप, ज्ञानियों में अग्रगण्य, सम्पूर्ण गुणों के निधान, वानरों के स्वामी, श्री रघुनाथजी के प्रिय भक्त पवनपुत्र श्री हनुमान्‌जी को मैं प्रणाम करता हूँ॥3॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

जामवन्त के बचन सुहाए। सुनि हनुमन्त हृदय अति भाए॥
तब लगि मोहि परिखेहु तुम्ह भाई। सहि दुख कन्द मूल फल खाई॥1॥

मूल

जामवन्त के बचन सुहाए। सुनि हनुमन्त हृदय अति भाए॥
तब लगि मोहि परिखेहु तुम्ह भाई। सहि दुख कन्द मूल फल खाई॥1॥

भावार्थ

जाम्बवान्‌ के सुन्दर वचन सुनकर हनुमान्‌जी के हृदय को बहुत ही भाए। (वे बोले-) हे भाई! तुम लोग दुःख सहकर, कन्द-मूल-फल खाकर तब तक मेरी राह देखना॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

जब लगि आवौं सीतहि देखी। होइहि काजु मोहि हरष बिसेषी॥
यह कहि नाइ सबन्हि कहुँ माथा । चलेउ हरषि हियँ धरि रघुनाथा॥2॥

मूल

जब लगि आवौं सीतहि देखी। होइहि काजु मोहि हरष बिसेषी॥
यह कहि नाइ सबन्हि कहुँ माथा । चलेउ हरषि हियँ धरि रघुनाथा॥2॥

भावार्थ

जब तक मैं सीताजी को देखकर (लौट) न आऊँ। काम अवश्य होगा, क्योङ्कि मुझे बहुत ही हर्ष हो रहा है। यह कहकर और सबको मस्तक नवाकर तथा हृदय में श्री रघुनाथजी को धारण करके हनुमान्‌जी हर्षित होकर चले॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

सिन्धु तीर एक भूधर सुन्दर। कौतुक कूदि चढेउ ता ऊपर॥
बार-बार रघुबीर सँभारी। तरकेउ पवनतनय बल भारी॥3॥

मूल

सिन्धु तीर एक भूधर सुन्दर। कौतुक कूदि चढेउ ता ऊपर॥
बार-बार रघुबीर सँभारी। तरकेउ पवनतनय बल भारी॥3॥

भावार्थ

समुद्र के तीर पर एक सुन्दर पर्वत था। हनुमान्‌जी खेल से ही (अनायास ही) कूदकर उसके ऊपर जा चढे और बार-बार श्री रघुवीर का स्मरण करके अत्यन्त बलवान्‌ हनुमान्‌जी उस पर से बडे वेग से उछले॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

जेहिं गिरि चरन देइ हनुमन्ता। चलेउ सो गा पाताल तुरन्ता॥
जिमि अमोघ रघुपति कर बाना। एही भाँति चलेउ हनुमाना॥4॥

मूल

जेहिं गिरि चरन देइ हनुमन्ता। चलेउ सो गा पाताल तुरन्ता॥
जिमि अमोघ रघुपति कर बाना। एही भाँति चलेउ हनुमाना॥4॥

भावार्थ

जिस पर्वत पर हनुमान्‌जी पैर रखकर चले (जिस पर से वे उछले), वह तुरन्त ही पाताल में धँस गया। जैसे श्री रघुनाथजी का अमोघ बाण चलता है, उसी तरह हनुमान्‌जी चले॥4॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

जलनिधि रघुपति दूत बिचारी। तैं मैनाक होहि श्रम हारी॥5॥

मूल

जलनिधि रघुपति दूत बिचारी। तैं मैनाक होहि श्रम हारी॥5॥

भावार्थ

समुद्र ने उन्हें श्री रघुनाथजी का दूत समझकर मैनाक पर्वत से कहा कि हे मैनाक! तू इनकी थकावट दूर करने वाला हो (अर्थात्‌ अपने ऊपर इन्हें विश्राम दे)॥5॥

01

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

हनूमान तेहि परसा कर पुनि कीन्ह प्रनाम।
राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहाँ बिश्राम॥1॥

मूल

हनूमान तेहि परसा कर पुनि कीन्ह प्रनाम।
राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहाँ बिश्राम॥1॥

भावार्थ

हनुमान्‌जी ने उसे हाथ से छू दिया, फिर प्रणाम करके कहा- भाई! श्री रामचन्द्रजी का काम किए बिना मुझे विश्राम कहाँ?॥1॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

जात पवनसुत देवन्ह देखा। जानैं कहुँ बल बुद्धि बिसेषा॥
सुरसा नाम अहिन्ह कै माता। पठइन्हि आइ कही तेहिं बाता॥1॥

मूल

जात पवनसुत देवन्ह देखा। जानैं कहुँ बल बुद्धि बिसेषा॥
सुरसा नाम अहिन्ह कै माता। पठइन्हि आइ कही तेहिं बाता॥1॥

भावार्थ

देवताओं ने पवनपुत्र हनुमान्‌जी को जाते हुए देखा। उनकी विशेष बल-बुद्धि को जानने के लिए (परीक्षार्थ) उन्होन्ने सुरसा नामक सर्पों की माता को भेजा, उसने आकर हनुमान्‌जी से यह बात कही-॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

आजु सुरन्ह मोहि दीन्ह अहारा। सुनत बचन कह पवनकुमारा॥
राम काजु करि फिरि मैं आवौं। सीता कइ सुधि प्रभुहि सुनावौं॥2॥

मूल

आजु सुरन्ह मोहि दीन्ह अहारा। सुनत बचन कह पवनकुमारा॥
राम काजु करि फिरि मैं आवौं। सीता कइ सुधि प्रभुहि सुनावौं॥2॥

भावार्थ

आज देवताओं ने मुझे भोजन दिया है। यह वचन सुनकर पवनकुमार हनुमान्‌जी ने कहा- श्री रामजी का कार्य करके मैं लौट आऊँ और सीताजी की खबर प्रभु को सुना दूँ,॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

तब तव बदन पैठिहउँ आई। सत्य कहउँ मोहि जान दे माई॥
कवनेहुँ जतन देइ नहिं जाना। ग्रससि न मोहि कहेउ हनुमाना॥3॥

मूल

तब तव बदन पैठिहउँ आई। सत्य कहउँ मोहि जान दे माई॥
कवनेहुँ जतन देइ नहिं जाना। ग्रससि न मोहि कहेउ हनुमाना॥3॥

भावार्थ

तब मैं आकर तुम्हारे मुँह में घुस जाऊँगा (तुम मुझे खा लेना)। हे माता! मैं सत्य कहता हूँ, अभी मुझे जाने दे। जब किसी भी उपाय से उसने जाने नहीं दिया, तब हनुमान्‌जी ने कहा- तो फिर मुझे खा न ले॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

जोजन भरि तेहिं बदनु पसारा। कपि तनु कीन्ह दुगुन बिस्तारा ॥
सोरह जोजन मुख तेहिं ठयऊ। तुरत पवनसुत बत्तिस भयऊ॥4॥

मूल

जोजन भरि तेहिं बदनु पसारा। कपि तनु कीन्ह दुगुन बिस्तारा ॥
सोरह जोजन मुख तेहिं ठयऊ। तुरत पवनसुत बत्तिस भयऊ॥4॥

भावार्थ

उसने योजनभर (चार कोस में) मुँह फैलाया। तब हनुमान्‌जी ने अपने शरीर को उससे दूना बढा लिया। उसने सोलह योजन का मुख किया। हनुमान्‌जी तुरन्त ही बत्तीस योजन के हो गए॥4॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

जस जस सुरसा बदनु बढावा। तासु दून कपि रूप देखावा॥
सत जोजन तेहिं आनन कीन्हा। अति लघु रूप पवनसुत लीन्हा॥5॥

मूल

जस जस सुरसा बदनु बढावा। तासु दून कपि रूप देखावा॥
सत जोजन तेहिं आनन कीन्हा। अति लघु रूप पवनसुत लीन्हा॥5॥

भावार्थ

जैसे-जैसे सुरसा मुख का विस्तार बढाती थी, हनुमान्‌जी उसका दूना रूप दिखलाते थे। उसने सौ योजन (चार सौ कोस का) मुख किया। तब हनुमान्‌जी ने बहुत ही छोटा रूप धारण कर लिया॥5॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

बदन पइठि पुनि बाहेर आवा। मागा बिदा ताहि सिरु नावा॥
मोहि सुरन्ह जेहि लागि पठावा। बुधि बल मरमु तोर मैं पावा॥6॥

मूल

बदन पइठि पुनि बाहेर आवा। मागा बिदा ताहि सिरु नावा॥
मोहि सुरन्ह जेहि लागि पठावा। बुधि बल मरमु तोर मैं पावा॥6॥

भावार्थ

और उसके मुख में घुसकर (तुरन्त) फिर बाहर निकल आए और उसे सिर नवाकर विदा माँगने लगे। (उसने कहा-) मैन्ने तुम्हारे बुद्धि-बल का भेद पा लिया, जिसके लिए देवताओं ने मुझे भेजा था॥6॥

02

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

राम काजु सबु करिहहु तुम्ह बल बुद्धि निधान।
आसिष देइ गई सो हरषि चलेउ हनुमान॥2॥

मूल

राम काजु सबु करिहहु तुम्ह बल बुद्धि निधान।
आसिष देइ गई सो हरषि चलेउ हनुमान॥2॥

भावार्थ

तुम श्री रामचन्द्रजी का सब कार्य करोगे, क्योङ्कि तुम बल-बुद्धि के भण्डार हो। यह आशीर्वाद देकर वह चली गई, तब हनुमान्‌जी हर्षित होकर चले॥2॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

निसिचरि एक सिन्धु महुँ रहई। करि माया नभु के खग गहई॥
जीव जन्तु जे गगन उडाहीं। जल बिलोकि तिन्ह कै परिछाहीं॥1॥

मूल

निसिचरि एक सिन्धु महुँ रहई। करि माया नभु के खग गहई॥
जीव जन्तु जे गगन उडाहीं। जल बिलोकि तिन्ह कै परिछाहीं॥1॥

भावार्थ

समुद्र में एक राक्षसी रहती थी। वह माया करके आकाश में उडते हुए पक्षियों को पकड लेती थी। आकाश में जो जीव-जन्तु उडा करते थे, वह जल में उनकी परछाईं देखकर॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

गहइ छाहँ सक सो न उडाई। एहि बिधि सदा गगनचर खाई॥
सोइ छल हनूमान्‌ कहँ कीन्हा। तासु कपटु कपि तुरतहिं चीन्हा॥2॥

मूल

गहइ छाहँ सक सो न उडाई। एहि बिधि सदा गगनचर खाई॥
सोइ छल हनूमान्‌ कहँ कीन्हा। तासु कपटु कपि तुरतहिं चीन्हा॥2॥

भावार्थ

उस परछाईं को पकड लेती थी, जिससे वे उड नहीं सकते थे (और जल में गिर पडते थे) इस प्रकार वह सदा आकाश में उडने वाले जीवों को खाया करती थी। उसने वही छल हनुमान्‌जी से भी किया। हनुमान्‌जी ने तुरन्त ही उसका कपट पहचान लिया॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

ताहि मारि मारुतसुत बीरा। बारिधि पार गयउ मतिधीरा॥
तहाँ जाइ देखी बन सोभा। गुञ्जत चञ्चरीक मधु लोभा॥3॥

मूल

ताहि मारि मारुतसुत बीरा। बारिधि पार गयउ मतिधीरा॥
तहाँ जाइ देखी बन सोभा। गुञ्जत चञ्चरीक मधु लोभा॥3॥

भावार्थ

पवनपुत्र धीरबुद्धि वीर श्री हनुमान्‌जी उसको मारकर समुद्र के पार गए। वहाँ जाकर उन्होन्ने वन की शोभा देखी। मधु (पुष्प रस) के लोभ से भौंरे गुञ्जार कर रहे थे॥3॥नाना तरु फल फूल सुहाए। खग मृग बृन्द देखि मन भाए॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

सैल बिसाल देखि एक आगें। ता पर धाइ चढेउ भय त्यागें॥4॥

मूल

सैल बिसाल देखि एक आगें। ता पर धाइ चढेउ भय त्यागें॥4॥

भावार्थ

अनेकों प्रकार के वृक्ष फल-फूल से शोभित हैं। पक्षी और पशुओं के समूह को देखकर तो वे मन में (बहुत ही) प्रसन्न हुए। सामने एक विशाल पर्वत देखकर हनुमान्‌जी भय त्यागकर उस पर दौडकर जा चढे॥4॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

उमा न कछु कपि कै अधिकाई। प्रभु प्रताप जो कालहि खाई॥
गिरि पर चढि लङ्का तेहिं देखी। कहि न जाइ अति दुर्ग बिसेषी॥5॥

मूल

उमा न कछु कपि कै अधिकाई। प्रभु प्रताप जो कालहि खाई॥
गिरि पर चढि लङ्का तेहिं देखी। कहि न जाइ अति दुर्ग बिसेषी॥5॥

भावार्थ

(शिवजी कहते हैं-) हे उमा! इसमें वानर हनुमान्‌ की कुछ बडाई नहीं है। यह प्रभु का प्रताप है, जो काल को भी खा जाता है। पर्वत पर चढकर उन्होन्ने लङ्का देखी। बहुत ही बडा किला है, कुछ कहा नहीं जाता॥5॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

अति उतङ्ग जलनिधि चहुँ पासा। कनक कोट कर परम प्रकासा॥6॥

मूल

अति उतङ्ग जलनिधि चहुँ पासा। कनक कोट कर परम प्रकासा॥6॥

भावार्थ

वह अत्यन्त ऊँचा है, उसके चारों ओर समुद्र है। सोने के परकोटे (चहारदीवारी) का परम प्रकाश हो रहा है॥6॥

03 छन्द

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

कनक कोट बिचित्र मनि कृत सुन्दरायतना घना।
चउहट्ट हट्ट सुबट्ट बीथीं चारु पुर बहु बिधि बना॥
गज बाजि खच्चर निकर पदचर रथ बरूथन्हि को गनै।
बहुरूप निसिचर जूथ अतिबल सेन बरनत नहिं बनै॥1॥

मूल

कनक कोट बिचित्र मनि कृत सुन्दरायतना घना।
चउहट्ट हट्ट सुबट्ट बीथीं चारु पुर बहु बिधि बना॥
गज बाजि खच्चर निकर पदचर रथ बरूथन्हि को गनै।
बहुरूप निसिचर जूथ अतिबल सेन बरनत नहिं बनै॥1॥

भावार्थ

विचित्र मणियों से जडा हुआ सोने का परकोटा है, उसके अन्दर बहुत से सुन्दर-सुन्दर घर हैं। चौराहे, बाजार, सुन्दर मार्ग और गलियाँ हैं, सुन्दर नगर बहुत प्रकार से सजा हुआ है। हाथी, घोडे, खच्चरों के समूह तथा पैदल और रथों के समूहों को कौन गिन सकता है! अनेक रूपों के राक्षसों के दल हैं, उनकी अत्यन्त बलवती सेना वर्णन करते नहीं बनती॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

बन बाग उपबन बाटिका सर कूप बापीं सोहहीं।
नर नाग सुर गन्धर्ब कन्या रूप मुनि मन मोहहीं॥
कहुँ माल देह बिसाल सैल समान अतिबल गर्जहीं।
नाना अखारेन्ह भिरहिं बहुबिधि एक एकन्ह तर्जहीं॥2॥

मूल

बन बाग उपबन बाटिका सर कूप बापीं सोहहीं।
नर नाग सुर गन्धर्ब कन्या रूप मुनि मन मोहहीं॥
कहुँ माल देह बिसाल सैल समान अतिबल गर्जहीं।
नाना अखारेन्ह भिरहिं बहुबिधि एक एकन्ह तर्जहीं॥2॥

भावार्थ

वन, बाग, उपवन (बगीचे), फुलवाडी, तालाब, कुएँ और बावलियाँ सुशोभित हैं। मनुष्य, नाग, देवताओं और गन्धर्वों की कन्याएँ अपने सौन्दर्य से मुनियों के भी मन को मोहे लेती हैं। कहीं पर्वत के समान विशाल शरीर वाले बडे ही बलवान्‌ मल्ल (पहलवान) गरज रहे हैं। वे अनेकों अखाडों में बहुत प्रकार से भिडते और एक-दूसरे को ललकारते हैं॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

करि जतन भट कोटिन्ह बिकट तन नगर चहुँ दिसि रच्छहीं।
कहुँ महिष मानुष धेनु खर अज खल निसाचर भच्छहीं॥
एहि लागि तुलसीदास इन्ह की कथा कछु एक है कही।
रघुबीर सर तीरथ सरीरन्हि त्यागि गति पैहहिं सही॥3॥

मूल

करि जतन भट कोटिन्ह बिकट तन नगर चहुँ दिसि रच्छहीं।
कहुँ महिष मानुष धेनु खर अज खल निसाचर भच्छहीं॥
एहि लागि तुलसीदास इन्ह की कथा कछु एक है कही।
रघुबीर सर तीरथ सरीरन्हि त्यागि गति पैहहिं सही॥3॥

भावार्थ

भयङ्कर शरीर वाले करोडों योद्धा यत्न करके (बडी सावधानी से) नगर की चारों दिशाओं में (सब ओर से) रखवाली करते हैं। कहीं दुष्ट राक्षस भैंसों, मनुष्यों, गायों, गदहों और बकरों को खा रहे हैं। तुलसीदास ने इनकी कथा इसीलिए कुछ थोडी सी कही है कि ये निश्चय ही श्री रामचन्द्रजी के बाण रूपी तीर्थ में शरीरों को त्यागकर परमगति पावेङ्गे॥3॥

03

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

पुर रखवारे देखि बहु कपि मन कीन्ह बिचार।
अति लघु रूप धरों निसि नगर करौं पइसार॥3॥

मूल

पुर रखवारे देखि बहु कपि मन कीन्ह बिचार।
अति लघु रूप धरों निसि नगर करौं पइसार॥3॥

भावार्थ

नगर के बहुसङ्ख्यक रखवालों को देखकर हनुमान्‌जी ने मन में विचार किया कि अत्यन्त छोटा रूप धरूँ और रात के समय नगर में प्रवेश करूँ॥3॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

मसक समान रूप कपि धरी। लङ्कहि चलेउ सुमिरि नरहरी॥
नाम लङ्किनी एक निसिचरी। सो कह चलेसि मोहि निन्दरी॥1॥

मूल

मसक समान रूप कपि धरी। लङ्कहि चलेउ सुमिरि नरहरी॥
नाम लङ्किनी एक निसिचरी। सो कह चलेसि मोहि निन्दरी॥1॥

भावार्थ

हनुमान्‌जी मच्छड के समान (छोटा सा) रूप धारण कर नर रूप से लीला करने वाले भगवान्‌ श्री रामचन्द्रजी का स्मरण करके लङ्का को चले (लङ्का के द्वार पर) लङ्किनी नाम की एक राक्षसी रहती थी। वह बोली- मेरा निरादर करके (बिना मुझसे पूछे) कहाँ चला जा रहा है?॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

जानेहि नहीं मरमु सठ मोरा। मोर अहार जहाँ लगि चोरा॥
मुठिका एक महा कपि हनी। रुधिर बमत धरनीं ढनमनी॥2॥

मूल

जानेहि नहीं मरमु सठ मोरा। मोर अहार जहाँ लगि चोरा॥
मुठिका एक महा कपि हनी। रुधिर बमत धरनीं ढनमनी॥2॥

भावार्थ

हे मूर्ख! तूने मेरा भेद नहीं जाना जहाँ तक (जितने) चोर हैं, वे सब मेरे आहार हैं। महाकपि हनुमान्‌जी ने उसे एक घूँसा मारा, जिससे वह खून की उलटी करती हुई पृथ्वी पर लुढक पडी॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

पुनि सम्भारि उठी सो लङ्का। जोरि पानि कर बिनय ससङ्का॥
जब रावनहि ब्रह्म बर दीन्हा। चलत बिरञ्च कहा मोहि चीन्हा॥3॥

मूल

पुनि सम्भारि उठी सो लङ्का। जोरि पानि कर बिनय ससङ्का॥
जब रावनहि ब्रह्म बर दीन्हा। चलत बिरञ्च कहा मोहि चीन्हा॥3॥

भावार्थ

वह लङ्किनी फिर अपने को सम्भालकर उठी और डर के मारे हाथ जोडकर विनती करने लगी। (वह बोली-) रावण को जब ब्रह्माजी ने वर दिया था, तब चलते समय उन्होन्ने मुझे राक्षसों के विनाश की यह पहचान बता दी थी कि-॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

बिकल होसि तैं कपि कें मारे। तब जानेसु निसिचर सङ्घारे॥
तात मोर अति पुन्य बहूता। देखेउँ नयन राम कर दूता॥4॥

मूल

बिकल होसि तैं कपि कें मारे। तब जानेसु निसिचर सङ्घारे॥
तात मोर अति पुन्य बहूता। देखेउँ नयन राम कर दूता॥4॥

भावार्थ

जब तू बन्दर के मारने से व्याकुल हो जाए, तब तू राक्षसों का संहार हुआ जान लेना। हे तात! मेरे बडे पुण्य हैं, जो मैं श्री रामचन्द्रजी के दूत (आप) को नेत्रों से देख पाई॥4॥

04

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

तात स्वर्ग अपबर्ग सुख धरिअ तुला एक अङ्ग।
तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसङ्ग॥4॥

मूल

तात स्वर्ग अपबर्ग सुख धरिअ तुला एक अङ्ग।
तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसङ्ग॥4॥

भावार्थ

हे तात! स्वर्ग और मोक्ष के सब सुखों को तराजू के एक पलडे में रखा जाए, तो भी वे सब मिलकर (दूसरे पलडे पर रखे हुए) उस सुख के बराबर नहीं हो सकते, जो लव (क्षण) मात्र के सत्सङ्ग से होता है॥4॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रबिसि नगर कीजे सब काजा। हृदयँ राखि कोसलपुर राजा॥
गरल सुधा रिपु करहिं मिताई। गोपद सिन्धु अनल सितलाई॥1॥

मूल

प्रबिसि नगर कीजे सब काजा। हृदयँ राखि कोसलपुर राजा॥
गरल सुधा रिपु करहिं मिताई। गोपद सिन्धु अनल सितलाई॥1॥

भावार्थ

अयोध्यापुरी के राजा श्री रघुनाथजी को हृदय में रखे हुए नगर में प्रवेश करके सब काम कीजिए। उसके लिए विष अमृत हो जाता है, शत्रु मित्रता करने लगते हैं, समुद्र गाय के खुर के बराबर हो जाता है, अग्नि में शीतलता आ जाती है॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

गरुड सुमेरु रेनु सम ताही। राम कृपा करि चितवा जाही॥
अति लघु रूप धरेउ हनुमाना। पैठा नगर सुमिरि भगवाना॥2॥

मूल

गरुड सुमेरु रेनु सम ताही। राम कृपा करि चितवा जाही॥
अति लघु रूप धरेउ हनुमाना। पैठा नगर सुमिरि भगवाना॥2॥

भावार्थ

और हे गरुडजी! सुमेरु पर्वत उसके लिए रज के समान हो जाता है, जिसे श्री रामचन्द्रजी ने एक बार कृपा करके देख लिया। तब हनुमान्‌जी ने बहुत ही छोटा रूप धारण किया और भगवान्‌ का स्मरण करके नगर में प्रवेश किया॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

मन्दिर मन्दिर प्रति करि सोधा। देखे जहँ तहँ अगनित जोधा॥
गयउ दसानन मन्दिर माहीं। अति बिचित्र कहि जात सो नाहीं॥3॥

मूल

मन्दिर मन्दिर प्रति करि सोधा। देखे जहँ तहँ अगनित जोधा॥
गयउ दसानन मन्दिर माहीं। अति बिचित्र कहि जात सो नाहीं॥3॥

भावार्थ

उन्होन्ने एक-एक (प्रत्येक) महल की खोज की। जहाँ-तहाँ असङ्ख्य योद्धा देखे। फिर वे रावण के महल में गए। वह अत्यन्त विचित्र था, जिसका वर्णन नहीं हो सकता॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

सयन किएँ देखा कपि तेही। मन्दिर महुँ न दीखि बैदेही॥
भवन एक पुनि दीख सुहावा। हरि मन्दिर तहँ भिन्न बनावा॥4॥

मूल

सयन किएँ देखा कपि तेही। मन्दिर महुँ न दीखि बैदेही॥
भवन एक पुनि दीख सुहावा। हरि मन्दिर तहँ भिन्न बनावा॥4॥

भावार्थ

हनुमान्‌जी ने उस (रावण) को शयन किए देखा, परन्तु महल में जानकीजी नहीं दिखाई दीं। फिर एक सुन्दर महल दिखाई दिया। वहाँ (उसमें) भगवान्‌ का एक अलग मन्दिर बना हुआ था॥4॥

05

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

रामायुध अङ्कित गृह सोभा बरनि न जाइ।
नव तुलसिका बृन्द तहँ देखि हरष कपिराई॥5॥

मूल

रामायुध अङ्कित गृह सोभा बरनि न जाइ।
नव तुलसिका बृन्द तहँ देखि हरष कपिराई॥5॥

भावार्थ

वह महल श्री रामजी के आयुध (धनुष-बाण) के चिह्नों से अङ्कित था, उसकी शोभा वर्णन नहीं की जा सकती। वहाँ नवीन-नवीन तुलसी के वृक्ष-समूहों को देखकर कपिराज श्री हनुमान्‌जी हर्षित हुए॥5॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

लङ्का निसिचर निकर निवासा। इहाँ कहाँ सज्जन कर बासा॥
मन महुँ तरक करैं कपि लागा। तेहीं समय बिभीषनु जागा॥1॥

मूल

लङ्का निसिचर निकर निवासा। इहाँ कहाँ सज्जन कर बासा॥
मन महुँ तरक करैं कपि लागा। तेहीं समय बिभीषनु जागा॥1॥

भावार्थ

लङ्का तो राक्षसों के समूह का निवास स्थान है। यहाँ सज्जन (साधु पुरुष) का निवास कहाँ? हनुमान्‌जी मन में इस प्रकार तर्क करने लगे। उसी समय विभीषणजी जागे॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

राम राम तेहिं सुमिरन कीन्हा। हृदयँ हरष कपि सज्जन चीन्हा॥
एहि सन सठि करिहउँ पहिचानी। साधु ते होइ न कारज हानी॥2॥

मूल

राम राम तेहिं सुमिरन कीन्हा। हृदयँ हरष कपि सज्जन चीन्हा॥
एहि सन सठि करिहउँ पहिचानी। साधु ते होइ न कारज हानी॥2॥

भावार्थ

उन्होन्ने (विभीषण ने) राम नाम का स्मरण (उच्चारण) किया। हनमान्‌जी ने उन्हें सज्जन जाना और हृदय में हर्षित हुए। (हनुमान्‌जी ने विचार किया कि) इनसे हठ करके (अपनी ओर से ही) परिचय करूँगा, क्योङ्कि साधु से कार्य की हानि नहीं होती। (प्रत्युत लाभ ही होता है)॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

बिप्र रूप धरि बचन सुनाए। सुनत बिभीषन उठि तहँ आए॥
करि प्रनाम पूँछी कुसलाई। बिप्र कहहु निज कथा बुझाई॥3॥

मूल

बिप्र रूप धरि बचन सुनाए। सुनत बिभीषन उठि तहँ आए॥
करि प्रनाम पूँछी कुसलाई। बिप्र कहहु निज कथा बुझाई॥3॥

भावार्थ

ब्राह्मण का रूप धरकर हनुमान्‌जी ने उन्हें वचन सुनाए (पुकारा)। सुनते ही विभीषणजी उठकर वहाँ आए। प्रणाम करके कुशल पूछी (और कहा कि) हे ब्राह्मणदेव! अपनी कथा समझाकर कहिए॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

की तुम्ह हरि दासन्ह महँ कोई। मोरें हृदय प्रीति अति होई॥
की तुम्ह रामु दीन अनुरागी। आयहु मोहि करन बडभागी॥4॥

मूल

की तुम्ह हरि दासन्ह महँ कोई। मोरें हृदय प्रीति अति होई॥
की तुम्ह रामु दीन अनुरागी। आयहु मोहि करन बडभागी॥4॥

भावार्थ

क्या आप हरिभक्तों में से कोई हैं? क्योङ्कि आपको देखकर मेरे हृदय में अत्यन्त प्रेम उमड रहा है। अथवा क्या आप दीनों से प्रेम करने वाले स्वयं श्री रामजी ही हैं जो मुझे बडभागी बनाने (घर-बैठे दर्शन देकर कृतार्थ करने) आए हैं?॥4॥

06

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

तब हनुमन्त कही सब राम कथा निज नाम।
सुनत जुगल तन पुलक मन मगन सुमिरि गुन ग्राम॥6॥

मूल

तब हनुमन्त कही सब राम कथा निज नाम।
सुनत जुगल तन पुलक मन मगन सुमिरि गुन ग्राम॥6॥

भावार्थ

तब हनुमान्‌जी ने श्री रामचन्द्रजी की सारी कथा कहकर अपना नाम बताया। सुनते ही दोनों के शरीर पुलकित हो गए और श्री रामजी के गुण समूहों का स्मरण करके दोनों के मन (प्रेम और आनन्द में) मग्न हो गए॥6॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

सुनहु पवनसुत रहनि हमारी। जिमि दसनन्हि महुँ जीभ बिचारी॥
तात कबहुँ मोहि जानि अनाथा। करिहहिं कृपा भानुकुल नाथा॥1॥

मूल

सुनहु पवनसुत रहनि हमारी। जिमि दसनन्हि महुँ जीभ बिचारी॥
तात कबहुँ मोहि जानि अनाथा। करिहहिं कृपा भानुकुल नाथा॥1॥

भावार्थ

(विभीषणजी ने कहा-) हे पवनपुत्र! मेरी रहनी सुनो। मैं यहाँ वैसे ही रहता हूँ जैसे दाँतों के बीच में बेचारी जीभ। हे तात! मुझे अनाथ जानकर सूर्यकुल के नाथ श्री रामचन्द्रजी क्या कभी मुझ पर कृपा करेङ्गे?॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

तामस तनु कछु साधन नाहीं। प्रीत न पद सरोज मन माहीं॥
अब मोहि भा भरोस हनुमन्ता। बिनु हरिकृपा मिलहिं नहिं सन्ता॥2॥

मूल

तामस तनु कछु साधन नाहीं। प्रीत न पद सरोज मन माहीं॥
अब मोहि भा भरोस हनुमन्ता। बिनु हरिकृपा मिलहिं नहिं सन्ता॥2॥

भावार्थ

मेरा तामसी (राक्षस) शरीर होने से साधन तो कुछ बनता नहीं और न मन में श्री रामचन्द्रजी के चरणकमलों में प्रेम ही है, परन्तु हे हनुमान्‌! अब मुझे विश्वास हो गया कि श्री रामजी की मुझ पर कृपा है, क्योङ्कि हरि की कृपा के बिना सन्त नहीं मिलते॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

जौं रघुबीर अनुग्रह कीन्हा। तौ तुम्ह मोहि दरसु हठि दीन्हा॥
सुनहु बिभीषन प्रभु कै रीती। करहिं सदा सेवक पर प्रीति॥3॥

मूल

जौं रघुबीर अनुग्रह कीन्हा। तौ तुम्ह मोहि दरसु हठि दीन्हा॥
सुनहु बिभीषन प्रभु कै रीती। करहिं सदा सेवक पर प्रीति॥3॥

भावार्थ

जब श्री रघुवीर ने कृपा की है, तभी तो आपने मुझे हठ करके (अपनी ओर से) दर्शन दिए हैं। (हनुमान्‌जी ने कहा-) हे विभीषणजी! सुनिए, प्रभु की यही रीति है कि वे सेवक पर सदा ही प्रेम किया करते हैं॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

कहहु कवन मैं परम कुलीना। कपि चञ्चल सबहीं बिधि हीना॥
प्रात लेइ जो नाम हमारा। तेहि दिन ताहि न मिलै अहारा॥4॥

मूल

कहहु कवन मैं परम कुलीना। कपि चञ्चल सबहीं बिधि हीना॥
प्रात लेइ जो नाम हमारा। तेहि दिन ताहि न मिलै अहारा॥4॥

भावार्थ

भला कहिए, मैं ही कौन बडा कुलीन हूँ? (जाति का) चञ्चल वानर हूँ और सब प्रकार से नीच हूँ, प्रातःकाल जो हम लोगों (बन्दरों) का नाम ले ले तो उस दिन उसे भोजन न मिले॥4॥

07

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

अस मैं अधम सखा सुनु मोहू पर रघुबीर।
कीन्हीं कृपा सुमिरि गुन भरे बिलोचन नीर॥7॥

मूल

अस मैं अधम सखा सुनु मोहू पर रघुबीर।
कीन्हीं कृपा सुमिरि गुन भरे बिलोचन नीर॥7॥

भावार्थ

हे सखा! सुनिए, मैं ऐसा अधम हूँ, पर श्री रामचन्द्रजी ने तो मुझ पर भी कृपा ही की है। भगवान्‌ के गुणों का स्मरण करके हनुमान्‌जी के दोनों नेत्रों में (प्रेमाश्रुओं का) जल भर आया॥7॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

जानतहूँ अस स्वामि बिसारी। फिरहिं ते काहे न होहिं दुखारी॥
एहि बिधि कहत राम गुन ग्रामा। पावा अनिर्बाच्य बिश्रामा॥1॥

मूल

जानतहूँ अस स्वामि बिसारी। फिरहिं ते काहे न होहिं दुखारी॥
एहि बिधि कहत राम गुन ग्रामा। पावा अनिर्बाच्य बिश्रामा॥1॥

भावार्थ

जो जानते हुए भी ऐसे स्वामी (श्री रघुनाथजी) को भुलाकर (विषयों के पीछे) भटकते फिरते हैं, वे दुःखी क्यों न हों? इस प्रकार श्री रामजी के गुण समूहों को कहते हुए उन्होन्ने अनिर्वचनीय (परम) शान्ति प्राप्त की॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

पुनि सब कथा बिभीषन कही। जेहि बिधि जनकसुता तहँ रही॥
तब हनुमन्त कहा सुनु भ्राता। देखी चहउँ जानकी माता॥2॥

मूल

पुनि सब कथा बिभीषन कही। जेहि बिधि जनकसुता तहँ रही॥
तब हनुमन्त कहा सुनु भ्राता। देखी चहउँ जानकी माता॥2॥

भावार्थ

फिर विभीषणजी ने, श्री जानकीजी जिस प्रकार वहाँ (लङ्का में) रहती थीं, वह सब कथा कही। तब हनुमान्‌जी ने कहा- हे भाई सुनो, मैं जानकी माता को देखता चाहता हूँ॥2॥जुगुति बिभीषन सकल सुनाई। चलेउ पवन सुत बिदा कराई॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

करि सोइ रूप गयउ पुनि तहवाँ। बन असोक सीता रह जहवाँ॥3॥

मूल

करि सोइ रूप गयउ पुनि तहवाँ। बन असोक सीता रह जहवाँ॥3॥

भावार्थ

विभीषणजी ने (माता के दर्शन की) सब युक्तियाँ (उपाय) कह सुनाईं। तब हनुमान्‌जी विदा लेकर चले। फिर वही (पहले का मसक सरीखा) रूप धरकर वहाँ गए, जहाँ अशोक वन में (वन के जिस भाग में) सीताजी रहती थीं॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

देखि मनहि महुँ कीन्ह प्रनामा। बैठेहिं बीति जात निसि जामा॥
कृस तनु सीस जटा एक बेनी। जपति हृदयँ रघुपति गुन श्रेनी॥4॥

मूल

देखि मनहि महुँ कीन्ह प्रनामा। बैठेहिं बीति जात निसि जामा॥
कृस तनु सीस जटा एक बेनी। जपति हृदयँ रघुपति गुन श्रेनी॥4॥

भावार्थ

सीताजी को देखकर हनुमान्‌जी ने उन्हें मन ही में प्रणाम किया। उन्हें बैठे ही बैठे रात्रि के चारों पहर बीत जाते हैं। शरीर दुबला हो गया है, सिर पर जटाओं की एक वेणी (लट) है। हृदय में श्री रघुनाथजी के गुण समूहों का जाप (स्मरण) करती रहती हैं॥4॥

08

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

निज पद नयन दिएँ मन राम पद कमल लीन।
परम दुखी भा पवनसुत देखि जानकी दीन॥8॥

मूल

निज पद नयन दिएँ मन राम पद कमल लीन।
परम दुखी भा पवनसुत देखि जानकी दीन॥8॥

भावार्थ

श्री जानकीजी नेत्रों को अपने चरणों में लगाए हुए हैं (नीचे की ओर देख रही हैं) और मन श्री रामजी के चरण कमलों में लीन है। जानकीजी को दीन (दुःखी) देखकर पवनपुत्र हनुमान्‌जी बहुत ही दुःखी हुए॥8॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

तरु पल्लव महँ रहा लुकाई। करइ बिचार करौं का भाई॥
तेहि अवसर रावनु तहँ आवा। सङ्ग नारि बहु किएँ बनावा॥1॥

मूल

तरु पल्लव महँ रहा लुकाई। करइ बिचार करौं का भाई॥
तेहि अवसर रावनु तहँ आवा। सङ्ग नारि बहु किएँ बनावा॥1॥

भावार्थ

हनुमान्‌जी वृक्ष के पत्तों में छिप रहे और विचार करने लगे कि हे भाई! क्या करूँ (इनका दुःख कैसे दूर करूँ)? उसी समय बहुत सी स्त्रियों को साथ लिए सज-धजकर रावण वहाँ आया॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

बहु बिधि खल सीतहि समुझावा। साम दान भय भेद देखावा॥
कह रावनु सुनु सुमुखि सयानी। मन्दोदरी आदि सब रानी॥2॥

मूल

बहु बिधि खल सीतहि समुझावा। साम दान भय भेद देखावा॥
कह रावनु सुनु सुमुखि सयानी। मन्दोदरी आदि सब रानी॥2॥

भावार्थ

उस दुष्ट ने सीताजी को बहुत प्रकार से समझाया। साम, दान, भय और भेद दिखलाया। रावण ने कहा- हे सुमुखि! हे सयानी! सुनो! मन्दोदरी आदि सब रानियों को-॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

तव अनुचरीं करउँ पन मोरा। एक बार बिलोकु मम ओरा॥
तृन धरि ओट कहति बैदेही। सुमिरि अवधपति परम सनेही॥3॥

मूल

तव अनुचरीं करउँ पन मोरा। एक बार बिलोकु मम ओरा॥
तृन धरि ओट कहति बैदेही। सुमिरि अवधपति परम सनेही॥3॥

भावार्थ

मैं तुम्हारी दासी बना दूँगा, यह मेरा प्रण है। तुम एक बार मेरी ओर देखो तो सही! अपने परम स्नेही कोसलाधीश श्री रामचन्द्रजी का स्मरण करके जानकीजी तिनके की आड (परदा) करके कहने लगीं-॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

सुनु दसमुख खद्योत प्रकासा। कबहुँ कि नलिनी करइ बिकासा॥
अस मन समुझु कहति जानकी। खल सुधि नहिं रघुबीर बान की॥4॥

मूल

सुनु दसमुख खद्योत प्रकासा। कबहुँ कि नलिनी करइ बिकासा॥
अस मन समुझु कहति जानकी। खल सुधि नहिं रघुबीर बान की॥4॥

भावार्थ

हे दशमुख! सुन, जुगनू के प्रकाश से कभी कमलिनी खिल सकती है? जानकीजी फिर कहती हैं- तू (अपने लिए भी) ऐसा ही मन में समझ ले। रे दुष्ट! तुझे श्री रघुवीर के बाण की खबर नहीं है॥4॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

सठ सूनें हरि आनेहि मोही। अधम निलज्ज लाज नहिं तोही॥5॥

मूल

सठ सूनें हरि आनेहि मोही। अधम निलज्ज लाज नहिं तोही॥5॥

भावार्थ

रे पापी! तू मुझे सूने में हर लाया है। रे अधम! निर्लज्ज! तुझे लज्जा नहीं आती?॥5॥

09

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

आपुहि सुनि खद्योत सम रामहि भानु समान।
परुष बचन सुनि काढि असि बोला अति खिसिआन॥9॥

मूल

आपुहि सुनि खद्योत सम रामहि भानु समान।
परुष बचन सुनि काढि असि बोला अति खिसिआन॥9॥

भावार्थ

अपने को जुगनू के समान और रामचन्द्रजी को सूर्य के समान सुनकर और सीताजी के कठोर वचनों को सुनकर रावण तलवार निकालकर बडे गुस्से में आकर बोला-॥9॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

सीता तैं मम कृत अपमाना। कटिहउँ तव सिर कठिन कृपाना॥
नाहिं त सपदि मानु मम बानी। सुमुखि होति न त जीवन हानी॥1॥

मूल

सीता तैं मम कृत अपमाना। कटिहउँ तव सिर कठिन कृपाना॥
नाहिं त सपदि मानु मम बानी। सुमुखि होति न त जीवन हानी॥1॥

भावार्थ

सीता! तूने मेरा अपनाम किया है। मैं तेरा सिर इस कठोर कृपाण से काट डालूँगा। नहीं तो (अब भी) जल्दी मेरी बात मान ले। हे सुमुखि! नहीं तो जीवन से हाथ धोना पडेगा॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

स्याम सरोज दाम सम सुन्दर। प्रभु भुज करि कर सम दसकन्धर॥
सो भुज कण्ठ कि तव असि घोरा। सुनु सठ अस प्रवान पन मोरा॥2॥

मूल

स्याम सरोज दाम सम सुन्दर। प्रभु भुज करि कर सम दसकन्धर॥
सो भुज कण्ठ कि तव असि घोरा। सुनु सठ अस प्रवान पन मोरा॥2॥

भावार्थ

(सीताजी ने कहा-) हे दशग्रीव! प्रभु की भुजा जो श्याम कमल की माला के समान सुन्दर और हाथी की सूँड के समान (पुष्ट तथा विशाल) है, या तो वह भुजा ही मेरे कण्ठ में पडेगी या तेरी भयानक तलवार ही। रे शठ! सुन, यही मेरा सच्चा प्रण है॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

चन्द्रहास हरु मम परितापं। रघुपति बिरह अनल सञ्जातं॥
सीतल निसित बहसि बर धारा। कह सीता हरु मम दुख भारा॥3॥

मूल

चन्द्रहास हरु मम परितापं। रघुपति बिरह अनल सञ्जातं॥
सीतल निसित बहसि बर धारा। कह सीता हरु मम दुख भारा॥3॥

भावार्थ

सीताजी कहती हैं- हे चन्द्रहास (तलवार)! श्री रघुनाथजी के विरह की अग्नि से उत्पन्न मेरी बडी भारी जलन को तू हर ले, हे तलवार! तू शीतल, तीव्र और श्रेष्ठ धारा बहाती है (अर्थात्‌ तेरी धारा ठण्डी और तेज है), तू मेरे दुःख के बोझ को हर ले॥3॥

03 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

सुनत बचन पुनि मारन धावा। मयतनयाँ कहि नीति बुझावा॥
कहेसि सकल निसिचरिन्ह बोलाई। सीतहि बहु बिधि त्रासहु जाई॥4॥

मूल

सुनत बचन पुनि मारन धावा। मयतनयाँ कहि नीति बुझावा॥
कहेसि सकल निसिचरिन्ह बोलाई। सीतहि बहु बिधि त्रासहु जाई॥4॥

भावार्थ

सीताजी के ये वचन सुनते ही वह मारने दौडा। तब मय दानव की पुत्री मन्दोदरी ने नीति कहकर उसे समझाया। तब रावण ने सब दासियों को बुलाकर कहा कि जाकर सीता को बहुत प्रकार से भय दिखलाओ॥4॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

मास दिवस महुँ कहा न माना। तौ मैं मारबि काढि कृपाना॥5॥

मूल

मास दिवस महुँ कहा न माना। तौ मैं मारबि काढि कृपाना॥5॥

भावार्थ

यदि महीने भर में यह कहा न माने तो मैं इसे तलवार निकालकर मार डालूँगा॥5॥

10

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

भवन गयउ दसकन्धर इहाँ पिसाचिनि बृन्द।
सीतहि त्रास देखावहिं धरहिं रूप बहु मन्द॥10॥

मूल

भवन गयउ दसकन्धर इहाँ पिसाचिनि बृन्द।
सीतहि त्रास देखावहिं धरहिं रूप बहु मन्द॥10॥

भावार्थ

(यों कहकर) रावण घर चला गया। यहाँ राक्षसियों के समूह बहुत से बुरे रूप धरकर सीताजी को भय दिखलाने लगे॥10॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

त्रिजटा नाम राच्छसी एका। राम चरन रति निपुन बिबेका॥
सबन्हौ बोलि सुनाएसि सपना। सीतहि सेइ करहु हित अपना॥1॥

मूल

त्रिजटा नाम राच्छसी एका। राम चरन रति निपुन बिबेका॥
सबन्हौ बोलि सुनाएसि सपना। सीतहि सेइ करहु हित अपना॥1॥

भावार्थ

उनमें एक त्रिजटा नाम की राक्षसी थी। उसकी श्री रामचन्द्रजी के चरणों में प्रीति थी और वह विवेक (ज्ञान) में निपुण थी। उसने सबों को बुलाकर अपना स्वप्न सुनाया और कहा- सीताजी की सेवा करके अपना कल्याण कर लो॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

सपनें बानर लङ्का जारी। जातुधान सेना सब मारी॥
खर आरूढ नगन दससीसा। मुण्डित सिर खण्डित भुज बीसा॥2॥

मूल

सपनें बानर लङ्का जारी। जातुधान सेना सब मारी॥
खर आरूढ नगन दससीसा। मुण्डित सिर खण्डित भुज बीसा॥2॥

भावार्थ

स्वप्न (मैन्ने देखा कि) एक बन्दर ने लङ्का जला दी। राक्षसों की सारी सेना मार डाली गई। रावण नङ्गा है और गदहे पर सवार है। उसके सिर मुँडे हुए हैं, बीसों भुजाएँ कटी हुई हैं॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

एहि बिधि सो दच्छिन दिसि जाई। लङ्का मनहुँ बिभीषन पाई॥
नगर फिरी रघुबीर दोहाई। तब प्रभु सीता बोलि पठाई॥3॥

मूल

एहि बिधि सो दच्छिन दिसि जाई। लङ्का मनहुँ बिभीषन पाई॥
नगर फिरी रघुबीर दोहाई। तब प्रभु सीता बोलि पठाई॥3॥

भावार्थ

इस प्रकार से वह दक्षिण (यमपुरी की) दिशा को जा रहा है और मानो लङ्का विभीषण ने पाई है। नगर में श्री रामचन्द्रजी की दुहाई फिर गई। तब प्रभु ने सीताजी को बुला भेजा॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

यह सपना मैं कहउँ पुकारी। होइहि सत्य गएँ दिन चारी॥
तासु बचन सुनि ते सब डरीं। जनकसुता के चरनन्हि परीं॥4॥

मूल

यह सपना मैं कहउँ पुकारी। होइहि सत्य गएँ दिन चारी॥
तासु बचन सुनि ते सब डरीं। जनकसुता के चरनन्हि परीं॥4॥

भावार्थ

मैं पुकारकर (निश्चय के साथ) कहती हूँ कि यह स्वप्न चार (कुछ ही) दिनों बाद सत्य होकर रहेगा। उसके वचन सुनकर वे सब राक्षसियाँ डर गईं और जानकीजी के चरणों पर गिर पडीं॥4॥

11

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

जहँ तहँ गईं सकल तब सीता कर मन सोच।
मास दिवस बीतें मोहि मारिहि निसिचर पोच॥11॥

मूल

जहँ तहँ गईं सकल तब सीता कर मन सोच।
मास दिवस बीतें मोहि मारिहि निसिचर पोच॥11॥

भावार्थ

तब (इसके बाद) वे सब जहाँ-तहाँ चली गईं। सीताजी मन में सोच करने लगीं कि एक महीना बीत जाने पर नीच राक्षस रावण मुझे मारेगा॥11॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

त्रिजटा सन बोलीं कर जोरी। मातु बिपति सङ्गिनि तैं मोरी॥
तजौं देह करु बेगि उपाई। दुसह बिरहु अब नहिं सहि जाई॥1॥

मूल

त्रिजटा सन बोलीं कर जोरी। मातु बिपति सङ्गिनि तैं मोरी॥
तजौं देह करु बेगि उपाई। दुसह बिरहु अब नहिं सहि जाई॥1॥

भावार्थ

सीताजी हाथ जोडकर त्रिजटा से बोलीं- हे माता! तू मेरी विपत्ति की सङ्गिनी है। जल्दी कोई ऐसा उपाय कर जिससे मैं शरीर छोड सकूँ। विरह असह्म हो चला है, अब यह सहा नहीं जाता॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

आनि काठ रचु चिता बनाई। मातु अनल पुनि देहि लगाई॥
सत्य करहि मम प्रीति सयानी। सुनै को श्रवन सूल सम बानी॥2॥

मूल

आनि काठ रचु चिता बनाई। मातु अनल पुनि देहि लगाई॥
सत्य करहि मम प्रीति सयानी। सुनै को श्रवन सूल सम बानी॥2॥

भावार्थ

काठ लाकर चिता बनाकर सजा दे। हे माता! फिर उसमें आग लगा दे। हे सयानी! तू मेरी प्रीति को सत्य कर दे। रावण की शूल के समान दुःख देने वाली वाणी कानों से कौन सुने?॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

सुनत बचन पद गहि समुझाएसि। प्रभु प्रताप बल सुजसु सुनाएसि॥
निसि न अनल मिल सुनु सुकुमारी। अस कहि सो निज भवन सिधारी॥3॥

मूल

सुनत बचन पद गहि समुझाएसि। प्रभु प्रताप बल सुजसु सुनाएसि॥
निसि न अनल मिल सुनु सुकुमारी। अस कहि सो निज भवन सिधारी॥3॥

भावार्थ

सीताजी के वचन सुनकर त्रिजटा ने चरण पकडकर उन्हें समझाया और प्रभु का प्रताप, बल और सुयश सुनाया। (उसने कहा-) हे सुकुमारी! सुनो रात्रि के समय आग नहीं मिलेगी। ऐसा कहकर वह अपने घर चली गई॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

कह सीता बिधि भा प्रतिकूला। मिलिहि न पावक मिटिहि न सूला॥
देखिअत प्रगट गगन अङ्गारा। अवनि न आवत एकउ तारा॥4॥

मूल

कह सीता बिधि भा प्रतिकूला। मिलिहि न पावक मिटिहि न सूला॥
देखिअत प्रगट गगन अङ्गारा। अवनि न आवत एकउ तारा॥4॥

भावार्थ

सीताजी (मन ही मन) कहने लगीं- (क्या करूँ) विधाता ही विपरीत हो गया। न आग मिलेगी, न पीडा मिटेगी। आकाश में अङ्गारे प्रकट दिखाई दे रहे हैं, पर पृथ्वी पर एक भी तारा नहीं आता॥4॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

पावकमय ससि स्रवत न आगी। मानहुँ मोहि जानि हतभागी॥
सुनहि बिनय मम बिटप असोका। सत्य नाम करु हरु मम सोका॥5॥

मूल

पावकमय ससि स्रवत न आगी। मानहुँ मोहि जानि हतभागी॥
सुनहि बिनय मम बिटप असोका। सत्य नाम करु हरु मम सोका॥5॥

भावार्थ

चन्द्रमा अग्निमय है, किन्तु वह भी मानो मुझे हतभागिनी जानकर आग नहीं बरसाता। हे अशोक वृक्ष! मेरी विनती सुन। मेरा शोक हर ले और अपना (अशोक) नाम सत्य कर॥5॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

नूतन किसलय अनल समाना। देहि अगिनि जनि करहि निदाना॥
देखि परम बिरहाकुल सीता। सो छन कपिहि कलप सम बीता॥6॥

मूल

नूतन किसलय अनल समाना। देहि अगिनि जनि करहि निदाना॥
देखि परम बिरहाकुल सीता। सो छन कपिहि कलप सम बीता॥6॥

भावार्थ

तेरे नए-नए कोमल पत्ते अग्नि के समान हैं। अग्नि दे, विरह रोग का अन्त मत कर (अर्थात्‌ विरह रोग को बढाकर सीमा तक न पहुँचा) सीताजी को विरह से परम व्याकुल देखकर वह क्षण हनुमान्‌जी को कल्प के समान बीता॥6॥

12

01 सोरठा

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

कपि करि हृदयँ बिचार दीन्हि मुद्रिका डारि तब।
जनु असोक अङ्गार दीन्ह हरषि उठि कर गहेउ॥12॥

मूल

कपि करि हृदयँ बिचार दीन्हि मुद्रिका डारि तब।
जनु असोक अङ्गार दीन्ह हरषि उठि कर गहेउ॥12॥

भावार्थ

तब हनुमान्‌जी ने हदय में विचार कर (सीताजी के सामने) अँगूठी डाल दी, मानो अशोक ने अङ्गारा दे दिया। (यह समझकर) सीताजी ने हर्षित होकर उठकर उसे हाथ में ले लिया॥12॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

तब देखी मुद्रिका मनोहर। राम नाम अङ्कित अति सुन्दर॥
चकित चितव मुदरी पहिचानी। हरष बिषाद हृदयँ अकुलानी॥1॥

मूल

तब देखी मुद्रिका मनोहर। राम नाम अङ्कित अति सुन्दर॥
चकित चितव मुदरी पहिचानी। हरष बिषाद हृदयँ अकुलानी॥1॥

भावार्थ

तब उन्होन्ने राम-नाम से अङ्कित अत्यन्त सुन्दर एवं मनोहर अँगूठी देखी। अँगूठी को पहचानकर सीताजी आश्चर्यचकित होकर उसे देखने लगीं और हर्ष तथा विषाद से हृदय में अकुला उठीं॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

जीति को सकइ अजय रघुराई। माया तें असि रचि नहिं जाई॥
सीता मन बिचार कर नाना। मधुर बचन बोलेउ हनुमाना॥2॥

मूल

जीति को सकइ अजय रघुराई। माया तें असि रचि नहिं जाई॥
सीता मन बिचार कर नाना। मधुर बचन बोलेउ हनुमाना॥2॥

भावार्थ

(वे सोचने लगीं-) श्री रघुनाथजी तो सर्वथा अजेय हैं, उन्हें कौन जीत सकता है? और माया से ऐसी (माया के उपादान से सर्वथा रहित दिव्य, चिन्मय) अँगूठी बनाई नहीं जा सकती। सीताजी मन में अनेक प्रकार के विचार कर रही थीं। इसी समय हनुमान्‌जी मधुर वचन बोले-॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

रामचन्द्र गुन बरनैं लागा। सुनतहिं सीता कर दुख भागा॥
लागीं सुनैं श्रवन मन लाई। आदिहु तें सब कथा सुनाई॥3॥

मूल

रामचन्द्र गुन बरनैं लागा। सुनतहिं सीता कर दुख भागा॥
लागीं सुनैं श्रवन मन लाई। आदिहु तें सब कथा सुनाई॥3॥

भावार्थ

वे श्री रामचन्द्रजी के गुणों का वर्णन करने लगे, (जिनके) सुनते ही सीताजी का दुःख भाग गया। वे कान और मन लगाकर उन्हें सुनने लगीं। हनुमान्‌जी ने आदि से लेकर अब तक की सारी कथा कह सुनाई॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रवनामृत जेहिं कथा सुहाई। कही सो प्रगट होति किन भाई॥
तब हनुमन्त निकट चलि गयऊ। फिरि बैठीं मन बिसमय भयऊ ॥4॥

मूल

श्रवनामृत जेहिं कथा सुहाई। कही सो प्रगट होति किन भाई॥
तब हनुमन्त निकट चलि गयऊ। फिरि बैठीं मन बिसमय भयऊ ॥4॥

भावार्थ

(सीताजी बोलीं-) जिसने कानों के लिए अमृत रूप यह सुन्दर कथा कही, वह हे भाई! प्रकट क्यों नहीं होता? तब हनुमान्‌जी पास चले गए। उन्हें देखकर सीताजी फिरकर (मुख फेरकर) बैठ गईं? उनके मन में आश्चर्य हुआ॥4॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

राम दूत मैं मातु जानकी। सत्य सपथ करुनानिधान की॥
यह मुद्रिका मातु मैं आनी। दीन्हि राम तुम्ह कहँ सहिदानी॥5॥

मूल

राम दूत मैं मातु जानकी। सत्य सपथ करुनानिधान की॥
यह मुद्रिका मातु मैं आनी। दीन्हि राम तुम्ह कहँ सहिदानी॥5॥

भावार्थ

(हनुमान्‌जी ने कहा-) हे माता जानकी मैं श्री रामजी का दूत हूँ। करुणानिधान की सच्ची शपथ करता हूँ, हे माता! यह अँगूठी मैं ही लाया हूँ। श्री रामजी ने मुझे आपके लिए यह सहिदानी (निशानी या पहिचान) दी है॥5॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

नर बानरहि सङ्ग कहु कैसें। कही कथा भइ सङ्गति जैसें॥6॥

मूल

नर बानरहि सङ्ग कहु कैसें। कही कथा भइ सङ्गति जैसें॥6॥

भावार्थ

(सीताजी ने पूछा-) नर और वानर का सङ्ग कहो कैसे हुआ? तब हनुमानजी ने जैसे सङ्ग हुआ था, वह सब कथा कही॥6॥

13

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

कपि के बचन सप्रेम सुनि उपजा मन बिस्वास
जाना मन क्रम बचन यह कृपासिन्धु कर दास॥13॥

मूल

कपि के बचन सप्रेम सुनि उपजा मन बिस्वास
जाना मन क्रम बचन यह कृपासिन्धु कर दास॥13॥

भावार्थ

हनुमान्‌जी के प्रेमयक्त वचन सुनकर सीताजी के मन में विश्वास उत्पन्न हो गया, उन्होन्ने जान लिया कि यह मन, वचन और कर्म से कृपासागर श्री रघुनाथजी का दास है॥13॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

हरिजन जानि प्रीति अति गाढी। सजल नयन पुलकावलि बाढी॥
बूडत बिरह जलधि हनुमाना। भयहु तात मो कहुँ जलजाना॥1॥

मूल

हरिजन जानि प्रीति अति गाढी। सजल नयन पुलकावलि बाढी॥
बूडत बिरह जलधि हनुमाना। भयहु तात मो कहुँ जलजाना॥1॥

भावार्थ

भगवान का जन (सेवक) जानकर अत्यन्त गाढी प्रीति हो गई। नेत्रों में (प्रेमाश्रुओं का) जल भर आया और शरीर अत्यन्त पुलकित हो गया (सीताजी ने कहा-) हे तात हनुमान्‌! विरहसागर में डूबती हुई मुझको तुम जहाज हुए॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

अब कहु कुसल जाउँ बलिहारी। अनुज सहित सुख भवन खरारी॥
कोमलचित कृपाल रघुराई। कपि केहि हेतु धरी निठुराई॥2॥

मूल

अब कहु कुसल जाउँ बलिहारी। अनुज सहित सुख भवन खरारी॥
कोमलचित कृपाल रघुराई। कपि केहि हेतु धरी निठुराई॥2॥

भावार्थ

मैं बलिहारी जाती हूँ, अब छोटे भाई लक्ष्मणजी सहित खर के शत्रु सुखधाम प्रभु का कुशल-मङ्गल कहो। श्री रघुनाथजी तो कोमल हृदय और कृपालु हैं। फिर हे हनुमान्‌! उन्होन्ने किस कारण यह निष्ठुरता धारण कर ली है?॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

सहज बानि सेवक सुखदायक। कबहुँक सुरति करत रघुनायक॥
कबहुँ नयन मम सीतल ताता। होइहहिं निरखि स्याम मृदु गाता॥3॥

मूल

सहज बानि सेवक सुखदायक। कबहुँक सुरति करत रघुनायक॥
कबहुँ नयन मम सीतल ताता। होइहहिं निरखि स्याम मृदु गाता॥3॥

भावार्थ

सेवक को सुख देना उनकी स्वाभाविक बान है। वे श्री रघुनाथजी क्या कभी मेरी भी याद करते हैं? हे तात! क्या कभी उनके कोमल साँवले अङ्गों को देखकर मेरे नेत्र शीतल होङ्गे?॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

बचनु न आव नयन भरे बारी। अहह नाथ हौं निपट बिसारी॥
देखि परम बिरहाकुल सीता। बोला कपि मृदु बचन बिनीता॥4॥

मूल

बचनु न आव नयन भरे बारी। अहह नाथ हौं निपट बिसारी॥
देखि परम बिरहाकुल सीता। बोला कपि मृदु बचन बिनीता॥4॥

भावार्थ

(मुँह से) वचन नहीं निकलता, नेत्रों में (विरह के आँसुओं का) जल भर आया। (बडे दुःख से वे बोलीं-) हा नाथ! आपने मुझे बिलकुल ही भुला दिया! सीताजी को विरह से परम व्याकुल देखकर हनुमान्‌जी कोमल और विनीत वचन बोले-॥4॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

मातु कुसल प्रभु अनुज समेता। तव दुख दुखी सुकृपा निकेता॥
जनि जननी मानह जियँ ऊना। तुम्ह ते प्रेमु राम कें दूना॥5॥

मूल

मातु कुसल प्रभु अनुज समेता। तव दुख दुखी सुकृपा निकेता॥
जनि जननी मानह जियँ ऊना। तुम्ह ते प्रेमु राम कें दूना॥5॥

भावार्थ

हे माता! सुन्दर कृपा के धाम प्रभु भाई लक्ष्मणजी के सहित (शरीर से) कुशल हैं, परन्तु आपके दुःख से दुःखी हैं। हे माता! मन में ग्लानि न मानिए (मन छोटा करके दुःख न कीजिए)। श्री रामचन्द्रजी के हृदय में आपसे दूना प्रेम है॥5॥

14

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

रघुपति कर सन्देसु अब सुनु जननी धरि धीर।
अस कहि कपि गदगद भयउ भरे बिलोचन नीर॥14॥

मूल

रघुपति कर सन्देसु अब सुनु जननी धरि धीर।
अस कहि कपि गदगद भयउ भरे बिलोचन नीर॥14॥

भावार्थ

हे माता! अब धीरज धरकर श्री रघुनाथजी का सन्देश सुनिए। ऐसा कहकर हनुमान्‌जी प्रेम से गद्गद हो गए। उनके नेत्रों में (प्रेमाश्रुओं का) जल भर आया॥14॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

कहेउ राम बियोग तव सीता। मो कहुँ सकल भए बिपरीता॥
नव तरु किसलय मनहुँ कृसानू। कालनिसा सम निसि ससि भानू॥1॥

मूल

कहेउ राम बियोग तव सीता। मो कहुँ सकल भए बिपरीता॥
नव तरु किसलय मनहुँ कृसानू। कालनिसा सम निसि ससि भानू॥1॥

भावार्थ

(हनुमान्‌जी बोले-) श्री रामचन्द्रजी ने कहा है कि हे सीते! तुम्हारे वियोग में मेरे लिए सभी पदार्थ प्रतिकूल हो गए हैं। वृक्षों के नए-नए कोमल पत्ते मानो अग्नि के समान, रात्रि कालरात्रि के समान, चन्द्रमा सूर्य के समान॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

कुबलय बिपिन कुन्त बन सरिसा। बारिद तपत तेल जनु बरिसा॥
जे हित रहे करत तेइ पीरा। उरग स्वास सम त्रिबिध समीरा॥2॥

मूल

कुबलय बिपिन कुन्त बन सरिसा। बारिद तपत तेल जनु बरिसा॥
जे हित रहे करत तेइ पीरा। उरग स्वास सम त्रिबिध समीरा॥2॥

भावार्थ

और कमलों के वन भालों के वन के समान हो गए हैं। मेघ मानो खौलता हुआ तेल बरसाते हैं। जो हित करने वाले थे, वे ही अब पीडा देने लगे हैं। त्रिविध (शीतल, मन्द, सुगन्ध) वायु साँप के श्वास के समान (जहरीली और गरम) हो गई है॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

कहेहू तें कछु दुख घटि होई। काहि कहौं यह जान न कोई॥
तत्व प्रेम कर मम अरु तोरा। जानत प्रिया एकु मनु मोरा॥3॥

मूल

कहेहू तें कछु दुख घटि होई। काहि कहौं यह जान न कोई॥
तत्व प्रेम कर मम अरु तोरा। जानत प्रिया एकु मनु मोरा॥3॥

भावार्थ

मन का दुःख कह डालने से भी कुछ घट जाता है। पर कहूँ किससे? यह दुःख कोई जानता नहीं। हे प्रिये! मेरे और तेरे प्रेम का तत्त्व (रहस्य) एक मेरा मन ही जानता है॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

सो मनु सदा रहत तोहि पाहीं। जानु प्रीति रसु एतनेहि माहीं॥
प्रभु सन्देसु सुनत बैदेही। मगन प्रेम तन सुधि नहिं तेही॥4॥

मूल

सो मनु सदा रहत तोहि पाहीं। जानु प्रीति रसु एतनेहि माहीं॥
प्रभु सन्देसु सुनत बैदेही। मगन प्रेम तन सुधि नहिं तेही॥4॥

भावार्थ

और वह मन सदा तेरे ही पास रहता है। बस, मेरे प्रेम का सार इतने में ही समझ ले। प्रभु का सन्देश सुनते ही जानकीजी प्रेम में मग्न हो गईं। उन्हें शरीर की सुध न रही॥4॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

कह कपि हृदयँ धीर धरु माता। सुमिरु राम सेवक सुखदाता॥
उर आनहु रघुपति प्रभुताई। सुनि मम बचन तजहु कदराई॥5॥

मूल

कह कपि हृदयँ धीर धरु माता। सुमिरु राम सेवक सुखदाता॥
उर आनहु रघुपति प्रभुताई। सुनि मम बचन तजहु कदराई॥5॥

भावार्थ

हनुमान्‌जी ने कहा- हे माता! हृदय में धैर्य धारण करो और सेवकों को सुख देने वाले श्री रामजी का स्मरण करो। श्री रघुनाथजी की प्रभुता को हृदय में लाओ और मेरे वचन सुनकर कायरता छोड दो॥5॥

15

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

निसिचर निकर पतङ्ग सम रघुपति बान कृसानु।
जननी हृदयँ धीर धरु जरे निसाचर जानु॥15॥

मूल

निसिचर निकर पतङ्ग सम रघुपति बान कृसानु।
जननी हृदयँ धीर धरु जरे निसाचर जानु॥15॥

भावार्थ

राक्षसों के समूह पतङ्गों के समान और श्री रघुनाथजी के बाण अग्नि के समान हैं। हे माता! हृदय में धैर्य धारण करो और राक्षसों को जला ही समझो॥15॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

जौं रघुबीर होति सुधि पाई। करते नहिं बिलम्बु रघुराई॥
राम बान रबि उएँ जानकी। तम बरुथ कहँ जातुधान की॥1॥

मूल

जौं रघुबीर होति सुधि पाई। करते नहिं बिलम्बु रघुराई॥
राम बान रबि उएँ जानकी। तम बरुथ कहँ जातुधान की॥1॥

भावार्थ

श्री रामचन्द्रजी ने यदि खबर पाई होती तो वे बिलम्ब न करते। हे जानकीजी! रामबाण रूपी सूर्य के उदय होने पर राक्षसों की सेना रूपी अन्धकार कहाँ रह सकता है?॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

अबहिं मातु मैं जाउँ लवाई। प्रभु आयुस नहिं राम दोहाई॥
कछुक दिवस जननी धरु धीरा। कपिन्ह सहित अइहहिं रघुबीरा॥2॥

मूल

अबहिं मातु मैं जाउँ लवाई। प्रभु आयुस नहिं राम दोहाई॥
कछुक दिवस जननी धरु धीरा। कपिन्ह सहित अइहहिं रघुबीरा॥2॥

भावार्थ

हे माता! मैं आपको अभी यहाँ से लिवा जाऊँ, पर श्री रामचन्द्रजी की शपथ है, मुझे प्रभु (उन) की आज्ञा नहीं है। (अतः) हे माता! कुछ दिन और धीरज धरो। श्री रामचन्द्रजी वानरों सहित यहाँ आएँगे॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

निसिचर मारि तोहि लै जैहहिं। तिहुँ पुर नारदादि जसु गैहहिं॥
हैं सुत कपि सब तुम्हहि समाना। जातुधान अति भट बलवाना॥3॥

मूल

निसिचर मारि तोहि लै जैहहिं। तिहुँ पुर नारदादि जसु गैहहिं॥
हैं सुत कपि सब तुम्हहि समाना। जातुधान अति भट बलवाना॥3॥

भावार्थ

और राक्षसों को मारकर आपको ले जाएँगे। नारद आदि (ऋषि-मुनि) तीनों लोकों में उनका यश गाएँगे। (सीताजी ने कहा-) हे पुत्र! सब वानर तुम्हारे ही समान (नन्हें-नन्हें से) होङ्गे, राक्षस तो बडे बलवान, योद्धा हैं॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

मोरें हृदय परम सन्देहा। सुनि कपि प्रगट कीन्हि निज देहा॥
कनक भूधराकार सरीरा। समर भयङ्कर अतिबल बीरा॥4॥

मूल

मोरें हृदय परम सन्देहा। सुनि कपि प्रगट कीन्हि निज देहा॥
कनक भूधराकार सरीरा। समर भयङ्कर अतिबल बीरा॥4॥

भावार्थ

अतः मेरे हृदय में बडा भारी सन्देह होता है (कि तुम जैसे बन्दर राक्षसों को कैसे जीतेङ्गे!)। यह सुनकर हनुमान्‌जी ने अपना शरीर प्रकट किया। सोने के पर्वत (सुमेरु) के आकार का (अत्यन्त विशाल) शरीर था, जो युद्ध में शत्रुओं के हृदय में भय उत्पन्न करने वाला, अत्यन्त बलवान्‌ और वीर था॥4॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

सीता मन भरोस तब भयऊ। पुनि लघु रूप पवनसुत लयऊ॥5॥

मूल

सीता मन भरोस तब भयऊ। पुनि लघु रूप पवनसुत लयऊ॥5॥

भावार्थ

तब (उसे देखकर) सीताजी के मन में विश्वास हुआ। हनुमान्‌जी ने फिर छोटा रूप धारण कर लिया॥5॥

16

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

सुनु माता साखामृग नहिं बल बुद्धि बिसाल।
प्रभु प्रताप तें गरुडहि खाइ परम लघु ब्याल॥16॥

मूल

सुनु माता साखामृग नहिं बल बुद्धि बिसाल।
प्रभु प्रताप तें गरुडहि खाइ परम लघु ब्याल॥16॥

भावार्थ

हे माता! सुनो, वानरों में बहुत बल-बुद्धि नहीं होती, परन्तु प्रभु के प्रताप से बहुत छोटा सर्प भी गरुड को खा सकता है। (अत्यन्त निर्बल भी महान्‌ बलवान्‌ को मार सकता है)॥16॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

मन सन्तोष सुनत कपि बानी। भगति प्रताप तेज बल सानी॥
आसिष दीन्हि राम प्रिय जाना। होहु तात बल सील निधाना॥1॥

मूल

मन सन्तोष सुनत कपि बानी। भगति प्रताप तेज बल सानी॥
आसिष दीन्हि राम प्रिय जाना। होहु तात बल सील निधाना॥1॥

भावार्थ

भक्ति, प्रताप, तेज और बल से सनी हुई हनुमान्‌जी की वाणी सुनकर सीताजी के मन में सन्तोष हुआ। उन्होन्ने श्री रामजी के प्रिय जानकर हनुमान्‌जी को आशीर्वाद दिया कि हे तात! तुम बल और शील के निधान होओ॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

अजर अमर गुननिधि सुत होहू। करहुँ बहुत रघुनायक छोहू॥
करहुँ कृपा प्रभु अस सुनि काना। निर्भर प्रेम मगन हनुमाना॥2॥

मूल

अजर अमर गुननिधि सुत होहू। करहुँ बहुत रघुनायक छोहू॥
करहुँ कृपा प्रभु अस सुनि काना। निर्भर प्रेम मगन हनुमाना॥2॥

भावार्थ

हे पुत्र! तुम अजर (बुढापे से रहित), अमर और गुणों के खजाने होओ। श्री रघुनाथजी तुम पर बहुत कृपा करें। ‘प्रभु कृपा करें’ ऐसा कानों से सुनते ही हनुमान्‌जी पूर्ण प्रेम में मग्न हो गए॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

बार बार नाएसि पद सीसा। बोला बचन जोरि कर कीसा॥
अब कृतकृत्य भयउँ मैं माता। आसिष तव अमोघ बिख्याता॥3॥

मूल

बार बार नाएसि पद सीसा। बोला बचन जोरि कर कीसा॥
अब कृतकृत्य भयउँ मैं माता। आसिष तव अमोघ बिख्याता॥3॥

भावार्थ

हनुमान्‌जी ने बार-बार सीताजी के चरणों में सिर नवाया और फिर हाथ जोडकर कहा- हे माता! अब मैं कृतार्थ हो गया। आपका आशीर्वाद अमोघ (अचूक) है, यह बात प्रसिद्ध है॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

सुनहु मातु मोहि अतिसय भूखा। लागि देखि सुन्दर फल रूखा॥
सुनु सुत करहिं बिपिन रखवारी। परम सुभट रजनीचर भारी॥4॥

मूल

सुनहु मातु मोहि अतिसय भूखा। लागि देखि सुन्दर फल रूखा॥
सुनु सुत करहिं बिपिन रखवारी। परम सुभट रजनीचर भारी॥4॥

भावार्थ

हे माता! सुनो, सुन्दर फल वाले वृक्षों को देखकर मुझे बडी ही भूख लग आई है। (सीताजी ने कहा-) हे बेटा! सुनो, बडे भारी योद्धा राक्षस इस वन की रखवाली करते हैं॥4॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

तिन्ह कर भय माता मोहि नाहीं। जौं तुम्ह सुख मानहु मन माहीं॥5॥

मूल

तिन्ह कर भय माता मोहि नाहीं। जौं तुम्ह सुख मानहु मन माहीं॥5॥

भावार्थ

(हनुमान्‌जी ने कहा-) हे माता! यदि आप मन में सुख मानें (प्रसन्न होकर) आज्ञा दें तो मुझे उनका भय तो बिलकुल नहीं है॥5॥

17

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

देखि बुद्धि बल निपुन कपि कहेउ जानकीं जाहु।
रघुपति चरन हृदयँ धरि तात मधुर फल खाहु॥17॥

मूल

देखि बुद्धि बल निपुन कपि कहेउ जानकीं जाहु।
रघुपति चरन हृदयँ धरि तात मधुर फल खाहु॥17॥

भावार्थ

हनुमान्‌जी को बुद्धि और बल में निपुण देखकर जानकीजी ने कहा- जाओ। हे तात! श्री रघुनाथजी के चरणों को हृदय में धारण करके मीठे फल खाओ॥17॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

चलेउ नाइ सिरु पैठेउ बागा। फल खाएसि तरु तोरैं लागा॥
रहे तहाँ बहु भट रखवारे। कछु मारेसि कछु जाइ पुकारे॥1॥

मूल

चलेउ नाइ सिरु पैठेउ बागा। फल खाएसि तरु तोरैं लागा॥
रहे तहाँ बहु भट रखवारे। कछु मारेसि कछु जाइ पुकारे॥1॥

भावार्थ

वे सीताजी को सिर नवाकर चले और बाग में घुस गए। फल खाए और वृक्षों को तोडने लगे। वहाँ बहुत से योद्धा रखवाले थे। उनमें से कुछ को मार डाला और कुछ ने जाकर रावण से पुकार की-॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

नाथ एक आवा कपि भारी। तेहिं असोक बाटिका उजारी॥
खाएसि फल अरु बिटप उपारे। रच्छक मर्दि मर्दि महि डारे॥2॥

मूल

नाथ एक आवा कपि भारी। तेहिं असोक बाटिका उजारी॥
खाएसि फल अरु बिटप उपारे। रच्छक मर्दि मर्दि महि डारे॥2॥

भावार्थ

(और कहा-) हे नाथ! एक बडा भारी बन्दर आया है। उसने अशोक वाटिका उजाड डाली। फल खाए, वृक्षों को उखाड डाला और रखवालों को मसल-मसलकर जमीन पर डाल दिया॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

सुनि रावन पठए भट नाना। तिन्हहि देखि गर्जेउ हनुमाना॥
सब रजनीचर कपि सङ्घारे। गए पुकारत कछु अधमारे॥3॥

मूल

सुनि रावन पठए भट नाना। तिन्हहि देखि गर्जेउ हनुमाना॥
सब रजनीचर कपि सङ्घारे। गए पुकारत कछु अधमारे॥3॥

भावार्थ

यह सुनकर रावण ने बहुत से योद्धा भेजे। उन्हें देखकर हनुमान्‌जी ने गर्जना की। हनुमान्‌जी ने सब राक्षसों को मार डाला, कुछ जो अधमरे थे, चिल्लाते हुए गए॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

पुनि पठयउ तेहिं अच्छकुमारा। चला सङ्ग लै सुभट अपारा॥
आवत देखि बिटप गहि तर्जा। ताहि निपाति महाधुनि गर्जा॥4॥

मूल

पुनि पठयउ तेहिं अच्छकुमारा। चला सङ्ग लै सुभट अपारा॥
आवत देखि बिटप गहि तर्जा। ताहि निपाति महाधुनि गर्जा॥4॥

भावार्थ

फिर रावण ने अक्षयकुमार को भेजा। वह असङ्ख्य श्रेष्ठ योद्धाओं को साथ लेकर चला। उसे आते देखकर हनुमान्‌जी ने एक वृक्ष (हाथ में) लेकर ललकारा और उसे मारकर महाध्वनि (बडे जोर) से गर्जना की॥4॥

18

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

कछु मारेसि कछु मर्देसि कछु मिलएसि धरि धूरि।
कछु पुनि जाइ पुकारे प्रभु मर्कट बल भूरि॥18॥

मूल

कछु मारेसि कछु मर्देसि कछु मिलएसि धरि धूरि।
कछु पुनि जाइ पुकारे प्रभु मर्कट बल भूरि॥18॥

भावार्थ

उन्होन्ने सेना में से कुछ को मार डाला और कुछ को मसल डाला और कुछ को पकड-पकडकर धूल में मिला दिया। कुछ ने फिर जाकर पुकार की कि हे प्रभु! बन्दर बहुत ही बलवान्‌ है॥18॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

सुनि सुत बध लङ्केस रिसाना। पठएसि मेघनाद बलवाना॥
मारसि जनि सुत बाँधेसु ताही। देखिअ कपिहि कहाँ कर आही॥1॥

मूल

सुनि सुत बध लङ्केस रिसाना। पठएसि मेघनाद बलवाना॥
मारसि जनि सुत बाँधेसु ताही। देखिअ कपिहि कहाँ कर आही॥1॥

भावार्थ

पुत्र का वध सुनकर रावण क्रोधित हो उठा और उसने (अपने जेठे पुत्र) बलवान्‌ मेघनाद को भेजा। (उससे कहा कि-) हे पुत्र! मारना नहीं उसे बाँध लाना। उस बन्दर को देखा जाए कि कहाँ का है॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

चला इन्द्रजित अतुलित जोधा। बन्धु निधन सुनि उपजा क्रोधा॥
कपि देखा दारुन भट आवा। कटकटाइ गर्जा अरु धावा॥2॥

मूल

चला इन्द्रजित अतुलित जोधा। बन्धु निधन सुनि उपजा क्रोधा॥
कपि देखा दारुन भट आवा। कटकटाइ गर्जा अरु धावा॥2॥

भावार्थ

इन्द्र को जीतने वाला अतुलनीय योद्धा मेघनाद चला। भाई का मारा जाना सुन उसे क्रोध हो आया। हनुमान्‌जी ने देखा कि अबकी भयानक योद्धा आया है। तब वे कटकटाकर गर्जे और दौडे॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

अति बिसाल तरु एक उपारा। बिरथ कीन्ह लङ्केस कुमारा॥
रहे महाभट ताके सङ्गा। गहि गहि कपि मर्दई निज अङ्गा॥3॥

मूल

अति बिसाल तरु एक उपारा। बिरथ कीन्ह लङ्केस कुमारा॥
रहे महाभट ताके सङ्गा। गहि गहि कपि मर्दई निज अङ्गा॥3॥

भावार्थ

उन्होन्ने एक बहुत बडा वृक्ष उखाड लिया और (उसके प्रहार से) लङ्केश्वर रावण के पुत्र मेघनाद को बिना रथ का कर दिया। (रथ को तोडकर उसे नीचे पटक दिया)। उसके साथ जो बडे-बडे योद्धा थे, उनको पकड-पकडकर हनुमान्‌जी अपने शरीर से मसलने लगे॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

तिन्हहि निपाति ताहि सन बाजा। भिरे जुगल मानहुँ गजराजा॥
मुठिका मारि चढा तरु जाई। ताहि एक छन मुरुछा आई॥4॥

मूल

तिन्हहि निपाति ताहि सन बाजा। भिरे जुगल मानहुँ गजराजा॥
मुठिका मारि चढा तरु जाई। ताहि एक छन मुरुछा आई॥4॥

भावार्थ

उन सबको मारकर फिर मेघनाद से लडने लगे। (लडते हुए वे ऐसे मालूम होते थे) मानो दो गजराज (श्रेष्ठ हाथी) भिड गए हों। हनुमान्‌जी उसे एक घूँसा मारकर वृक्ष पर जा चढे। उसको क्षणभर के लिए मूर्च्छा आ गई॥4॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

उठि बहोरि कीन्हिसि बहु माया। जीति न जाइ प्रभञ्जन जाया॥5॥

मूल

उठि बहोरि कीन्हिसि बहु माया। जीति न जाइ प्रभञ्जन जाया॥5॥

भावार्थ

फिर उठकर उसने बहुत माया रची, परन्तु पवन के पुत्र उससे जीते नहीं जाते॥5॥

19

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रह्म अस्त्र तेहि साँधा कपि मन कीन्ह बिचार।
जौं न ब्रह्मसर मानउँ महिमा मिटइ अपार॥19॥

मूल

ब्रह्म अस्त्र तेहि साँधा कपि मन कीन्ह बिचार।
जौं न ब्रह्मसर मानउँ महिमा मिटइ अपार॥19॥

भावार्थ

अन्त में उसने ब्रह्मास्त्र का सन्धान (प्रयोग) किया, तब हनुमान्‌जी ने मन में विचार किया कि यदि ब्रह्मास्त्र को नहीं मानता हूँ तो उसकी अपार महिमा मिट जाएगी॥19॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रह्मबान कपि कहुँ तेहिं मारा। परतिहुँ बार कटकु सङ्घारा॥
तेहिं देखा कपि मुरुछित भयऊ। नागपास बाँधेसि लै गयऊ॥1॥

मूल

ब्रह्मबान कपि कहुँ तेहिं मारा। परतिहुँ बार कटकु सङ्घारा॥
तेहिं देखा कपि मुरुछित भयऊ। नागपास बाँधेसि लै गयऊ॥1॥

भावार्थ

उसने हनुमान्‌जी को ब्रह्मबाण मारा, (जिसके लगते ही वे वृक्ष से नीचे गिर पडे), परन्तु गिरते समय भी उन्होन्ने बहुत सी सेना मार डाली। जब उसने देखा कि हनुमान्‌जी मूर्छित हो गए हैं, तब वह उनको नागपाश से बाँधकर ले गया॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

जासु नाम जपि सुनहु भवानी। भव बन्धन काटहिं नर ग्यानी॥
तासु दूत कि बन्ध तरु आवा। प्रभु कारज लगि कपिहिं बँधावा॥2॥

मूल

जासु नाम जपि सुनहु भवानी। भव बन्धन काटहिं नर ग्यानी॥
तासु दूत कि बन्ध तरु आवा। प्रभु कारज लगि कपिहिं बँधावा॥2॥

भावार्थ

(शिवजी कहते हैं-) हे भवानी सुनो, जिनका नाम जपकर ज्ञानी (विवेकी) मनुष्य संसार (जन्म-मरण) के बन्धन को काट डालते हैं, उनका दूत कहीं बन्धन में आ सकता है? किन्तु प्रभु के कार्य के लिए हनुमान्‌जी ने स्वयं अपने को बँधा लिया॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

कपि बन्धन सुनि निसिचर धाए। कौतुक लागि सभाँ सब आए॥
दसमुख सभा दीखि कपि जाई। कहि न जाइ कछु अति प्रभुताई॥3॥

मूल

कपि बन्धन सुनि निसिचर धाए। कौतुक लागि सभाँ सब आए॥
दसमुख सभा दीखि कपि जाई। कहि न जाइ कछु अति प्रभुताई॥3॥

भावार्थ

बन्दर का बाँधा जाना सुनकर राक्षस दौडे और कौतुक के लिए (तमाशा देखने के लिए) सब सभा में आए। हनुमान्‌जी ने जाकर रावण की सभा देखी। उसकी अत्यन्त प्रभुता (ऐश्वर्य) कुछ कही नहीं जाती॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

कर जोरें सुर दिसिप बिनीता। भृकुटि बिलोकत सकल सभीता॥
देखि प्रताप न कपि मन सङ्का। जिमि अहिगन महुँ गरुड असङ्का॥4॥

मूल

कर जोरें सुर दिसिप बिनीता। भृकुटि बिलोकत सकल सभीता॥
देखि प्रताप न कपि मन सङ्का। जिमि अहिगन महुँ गरुड असङ्का॥4॥

भावार्थ

देवता और दिक्पाल हाथ जोडे बडी नम्रता के साथ भयभीत हुए सब रावण की भौं ताक रहे हैं। (उसका रुख देख रहे हैं) उसका ऐसा प्रताप देखकर भी हनुमान्‌जी के मन में जरा भी डर नहीं हुआ। वे ऐसे निःशङ्ख खडे रहे, जैसे सर्पों के समूह में गरुड निःशङ्ख निर्भय) रहते हैं॥4॥

20

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

कपिहि बिलोकि दसानन बिहसा कहि दुर्बाद।
सुत बध सुरति कीन्हि पुनि उपजा हृदयँ बिसाद॥20॥

मूल

कपिहि बिलोकि दसानन बिहसा कहि दुर्बाद।
सुत बध सुरति कीन्हि पुनि उपजा हृदयँ बिसाद॥20॥

भावार्थ

हनुमान्‌जी को देखकर रावण दुर्वचन कहता हुआ खूब हँसा। फिर पुत्र वध का स्मरण किया तो उसके हृदय में विषाद उत्पन्न हो गया॥20॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

कह लङ्केस कवन तैं कीसा। केहि कें बल घालेहि बन खीसा॥
की धौं श्रवन सुनेहि नहिं मोही। देखउँ अति असङ्क सठ तोही॥1॥

मूल

कह लङ्केस कवन तैं कीसा। केहि कें बल घालेहि बन खीसा॥
की धौं श्रवन सुनेहि नहिं मोही। देखउँ अति असङ्क सठ तोही॥1॥

भावार्थ

लङ्कापति रावण ने कहा- रे वानर! तू कौन है? किसके बल पर तूने वन को उजाडकर नष्ट कर डाला? क्या तूने कभी मुझे (मेरा नाम और यश) कानों से नहीं सुना? रे शठ! मैं तुझे अत्यन्त निःशङ्ख देख रहा हूँ॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

मारे निसिचर केहिं अपराधा। कहु सठ तोहि न प्रान कइ बाधा॥
सुनु रावन ब्रह्माण्ड निकाया। पाइ जासु बल बिरचति माया॥2॥

मूल

मारे निसिचर केहिं अपराधा। कहु सठ तोहि न प्रान कइ बाधा॥
सुनु रावन ब्रह्माण्ड निकाया। पाइ जासु बल बिरचति माया॥2॥

भावार्थ

तूने किस अपराध से राक्षसों को मारा? रे मूर्ख! बता, क्या तुझे प्राण जाने का भय नहीं है? (हनुमान्‌जी ने कहा-) हे रावण! सुन, जिनका बल पाकर माया सम्पूर्ण ब्रह्माण्डों के समूहों की रचना करती है,॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

जाकें बल बिरञ्चि हरि ईसा। पालत सृजत हरत दससीसा॥
जा बल सीस धरत सहसानन। अण्डकोस समेत गिरि कानन॥3॥

मूल

जाकें बल बिरञ्चि हरि ईसा। पालत सृजत हरत दससीसा॥
जा बल सीस धरत सहसानन। अण्डकोस समेत गिरि कानन॥3॥

भावार्थ

जिनके बल से हे दशशीश! ब्रह्मा, विष्णु, महेश (क्रमशः) सृष्टि का सृजन, पालन और संहार करते हैं, जिनके बल से सहस्रमुख (फणों) वाले शेषजी पर्वत और वनसहित समस्त ब्रह्माण्ड को सिर पर धारण करते हैं,॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

धरइ जो बिबिध देह सुरत्राता। तुम्ह से सठन्ह सिखावनु दाता॥
हर कोदण्ड कठिन जेहिं भञ्जा। तेहि समेत नृप दल मद गञ्जा॥4॥

मूल

धरइ जो बिबिध देह सुरत्राता। तुम्ह से सठन्ह सिखावनु दाता॥
हर कोदण्ड कठिन जेहिं भञ्जा। तेहि समेत नृप दल मद गञ्जा॥4॥

भावार्थ

जो देवताओं की रक्षा के लिए नाना प्रकार की देह धारण करते हैं और जो तुम्हारे जैसे मूर्खों को शिक्षा देने वाले हैं, जिन्होन्ने शिवजी के कठोर धनुष को तोड डाला और उसी के साथ राजाओं के समूह का गर्व चूर्ण कर दिया॥4॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

खर दूषन त्रिसिरा अरु बाली। बधे सकल अतुलित बलसाली॥5॥

मूल

खर दूषन त्रिसिरा अरु बाली। बधे सकल अतुलित बलसाली॥5॥

भावार्थ

जिन्होन्ने खर, दूषण, त्रिशिरा और बालि को मार डाला, जो सब के सब अतुलनीय बलवान्‌ थे,॥5॥

21

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

जाके बल लवलेस तें जितेहु चराचर झारि।
तास दूत मैं जा करि हरि आनेहु प्रिय नारि॥21॥

मूल

जाके बल लवलेस तें जितेहु चराचर झारि।
तास दूत मैं जा करि हरि आनेहु प्रिय नारि॥21॥

भावार्थ

जिनके लेशमात्र बल से तुमने समस्त चराचर जगत्‌ को जीत लिया और जिनकी प्रिय पत्नी को तुम (चोरी से) हर लाए हो, मैं उन्हीं का दूत हूँ॥21॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

जानउँ मैं तुम्हारि प्रभुताई। सहसबाहु सन परी लराई॥
समर बालि सन करि जसु पावा। सुनि कपि बचन बिहसि बिहरावा॥1॥

मूल

जानउँ मैं तुम्हारि प्रभुताई। सहसबाहु सन परी लराई॥
समर बालि सन करि जसु पावा। सुनि कपि बचन बिहसि बिहरावा॥1॥

भावार्थ

मैं तुम्हारी प्रभुता को खूब जानता हूँ सहस्रबाहु से तुम्हारी लडाई हुई थी और बालि से युद्ध करके तुमने यश प्राप्त किया था। हनुमान्‌जी के (मार्मिक) वचन सुनकर रावण ने हँसकर बात टाल दी॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

खायउँ फल प्रभु लागी भूँखा। कपि सुभाव तें तोरेउँ रूखा॥
सब कें देह परम प्रिय स्वामी। मारहिं मोहि कुमारग गामी॥2॥

मूल

खायउँ फल प्रभु लागी भूँखा। कपि सुभाव तें तोरेउँ रूखा॥
सब कें देह परम प्रिय स्वामी। मारहिं मोहि कुमारग गामी॥2॥

भावार्थ

हे (राक्षसों के) स्वामी मुझे भूख लगी थी, (इसलिए) मैन्ने फल खाए और वानर स्वभाव के कारण वृक्ष तोडे। हे (निशाचरों के) मालिक! देह सबको परम प्रिय है। कुमार्ग पर चलने वाले (दुष्ट) राक्षस जब मुझे मारने लगे॥2

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

जिन्ह मोहि मारा ते मैं मारे। तेहि पर बाँधेउँ तनयँ तुम्हारे॥
मोहि न कछु बाँधे कइ लाजा। कीन्ह चहउँ निज प्रभु कर काजा॥3॥

मूल

जिन्ह मोहि मारा ते मैं मारे। तेहि पर बाँधेउँ तनयँ तुम्हारे॥
मोहि न कछु बाँधे कइ लाजा। कीन्ह चहउँ निज प्रभु कर काजा॥3॥

भावार्थ

तब जिन्होन्ने मुझे मारा, उनको मैन्ने भी मारा। उस पर तुम्हारे पुत्र ने मुझको बाँध लिया (किन्तु), मुझे अपने बाँधे जाने की कुछ भी लज्जा नहीं है। मैं तो अपने प्रभु का कार्य करना चाहता हूँ॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

बिनती करउँ जोरि कर रावन। सुनहु मान तजि मोर सिखावन॥
देखहु तुम्ह निज कुलहि बिचारी। भ्रम तजि भजहु भगत भय हारी॥4॥

मूल

बिनती करउँ जोरि कर रावन। सुनहु मान तजि मोर सिखावन॥
देखहु तुम्ह निज कुलहि बिचारी। भ्रम तजि भजहु भगत भय हारी॥4॥

भावार्थ

हे रावण! मैं हाथ जोडकर तुमसे विनती करता हूँ, तुम अभिमान छोडकर मेरी सीख सुनो। तुम अपने पवित्र कुल का विचार करके देखो और भ्रम को छोडकर भक्त भयहारी भगवान्‌ को भजो॥4॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

जाकें डर अति काल डेराई। जो सुर असुर चराचर खाई॥
तासों बयरु कबहुँ नहिं कीजै। मोरे कहें जानकी दीजै॥5॥

मूल

जाकें डर अति काल डेराई। जो सुर असुर चराचर खाई॥
तासों बयरु कबहुँ नहिं कीजै। मोरे कहें जानकी दीजै॥5॥

भावार्थ

जो देवता, राक्षस और समस्त चराचर को खा जाता है, वह काल भी जिनके डर से अत्यन्त डरता है, उनसे कदापि वैर न करो और मेरे कहने से जानकीजी को दे दो॥5॥

22

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रनतपाल रघुनायक करुना सिन्धु खरारि।
गएँ सरन प्रभु राखिहैं तव अपराध बिसारि॥22॥

मूल

प्रनतपाल रघुनायक करुना सिन्धु खरारि।
गएँ सरन प्रभु राखिहैं तव अपराध बिसारि॥22॥

भावार्थ

खर के शत्रु श्री रघुनाथजी शरणागतों के रक्षक और दया के समुद्र हैं। शरण जाने पर प्रभु तुम्हारा अपराध भुलाकर तुम्हें अपनी शरण में रख लेङ्गे॥22॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

राम चरन पङ्कज उर धरहू। लङ्का अचल राजु तुम्ह करहू॥
रिषि पुलस्ति जसु बिमल मयङ्का। तेहि ससि महुँ जनि होहु कलङ्का॥1॥

मूल

राम चरन पङ्कज उर धरहू। लङ्का अचल राजु तुम्ह करहू॥
रिषि पुलस्ति जसु बिमल मयङ्का। तेहि ससि महुँ जनि होहु कलङ्का॥1॥

भावार्थ

तुम श्री रामजी के चरण कमलों को हृदय में धारण करो और लङ्का का अचल राज्य करो। ऋषि पुलस्त्यजी का यश निर्मल चन्द्रमा के समान है। उस चन्द्रमा में तुम कलङ्क न बनो॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

राम नाम बिनु गिरा न सोहा। देखु बिचारि त्यागि मद मोहा॥
बसन हीन नहिं सोह सुरारी। सब भूषन भूषित बर नारी॥2॥

मूल

राम नाम बिनु गिरा न सोहा। देखु बिचारि त्यागि मद मोहा॥
बसन हीन नहिं सोह सुरारी। सब भूषन भूषित बर नारी॥2॥

भावार्थ

राम नाम के बिना वाणी शोभा नहीं पाती, मद-मोह को छोड, विचारकर देखो। हे देवताओं के शत्रु! सब गहनों से सजी हुई सुन्दरी स्त्री भी कपडों के बिना (नङ्गी) शोभा नहीं पाती॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

राम बिमुख सम्पति प्रभुताई। जाइ रही पाई बिनु पाई॥
सजल मूल जिन्ह सरितन्ह नाहीं। बरषि गएँ पुनि तबहिं सुखाहीं॥3॥

मूल

राम बिमुख सम्पति प्रभुताई। जाइ रही पाई बिनु पाई॥
सजल मूल जिन्ह सरितन्ह नाहीं। बरषि गएँ पुनि तबहिं सुखाहीं॥3॥

भावार्थ

रामविमुख पुरुष की सम्पत्ति और प्रभुता रही हुई भी चली जाती है और उसका पाना न पाने के समान है। जिन नदियों के मूल में कोई जलस्रोत नहीं है। (अर्थात्‌ जिन्हें केवल बरसात ही आसरा है) वे वर्षा बीत जाने पर फिर तुरन्त ही सूख जाती हैं॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

सुनु दसकण्ठ कहउँ पन रोपी। बिमुख राम त्राता नहिं कोपी॥
सङ्कर सहस बिष्नु अज तोही। सकहिं न राखि राम कर द्रोही॥4॥

मूल

सुनु दसकण्ठ कहउँ पन रोपी। बिमुख राम त्राता नहिं कोपी॥
सङ्कर सहस बिष्नु अज तोही। सकहिं न राखि राम कर द्रोही॥4॥

भावार्थ

हे रावण! सुनो, मैं प्रतिज्ञा करके कहता हूँ कि रामविमुख की रक्षा करने वाला कोई भी नहीं है। हजारों शङ्कर, विष्णु और ब्रह्मा भी श्री रामजी के साथ द्रोह करने वाले तुमको नहीं बचा सकते॥4॥

23

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

मोहमूल बहु सूल प्रद त्यागहु तम अभिमान।
भजहु राम रघुनायक कृपा सिन्धु भगवान॥23॥

मूल

मोहमूल बहु सूल प्रद त्यागहु तम अभिमान।
भजहु राम रघुनायक कृपा सिन्धु भगवान॥23॥

भावार्थ

मोह ही जिनका मूल है ऐसे (अज्ञानजनित), बहुत पीडा देने वाले, तमरूप अभिमान का त्याग कर दो और रघुकुल के स्वामी, कृपा के समुद्र भगवान्‌ श्री रामचन्द्रजी का भजन करो॥23॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

जदपि कही कपि अति हित बानी। भगति बिबेक बिरति नय सानी॥
बोला बिहसि महा अभिमानी। मिला हमहि कपि गुर बड ग्यानी॥1॥

मूल

जदपि कही कपि अति हित बानी। भगति बिबेक बिरति नय सानी॥
बोला बिहसि महा अभिमानी। मिला हमहि कपि गुर बड ग्यानी॥1॥

भावार्थ

यद्यपि हनुमान्‌जी ने भक्ति, ज्ञान, वैराग्य और नीति से सनी हुई बहुत ही हित की वाणी कही, तो भी वह महान्‌ अभिमानी रावण बहुत हँसकर (व्यङ्ग्य से) बोला कि हमें यह बन्दर बडा ज्ञानी गुरु मिला!॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

मृत्यु निकट आई खल तोही। लागेसि अधम सिखावन मोही॥
उलटा होइहि कह हनुमाना। मतिभ्रम तोर प्रगट मैं जाना॥2॥

मूल

मृत्यु निकट आई खल तोही। लागेसि अधम सिखावन मोही॥
उलटा होइहि कह हनुमाना। मतिभ्रम तोर प्रगट मैं जाना॥2॥

भावार्थ

रे दुष्ट! तेरी मृत्यु निकट आ गई है। अधम! मुझे शिक्षा देने चला है। हनुमान्‌जी ने कहा- इससे उलटा ही होगा (अर्थात्‌ मृत्यु तेरी निकट आई है, मेरी नहीं)। यह तेरा मतिभ्रम (बुद्धि का फेर) है, मैन्ने प्रत्यक्ष जान लिया है॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

सुनि कपि बचन बहुत खिसिआना। बेगि न हरहु मूढ कर प्राना॥
सुनत निसाचर मारन धाए। सचिवन्ह सहित बिभीषनु आए॥3॥

मूल

सुनि कपि बचन बहुत खिसिआना। बेगि न हरहु मूढ कर प्राना॥
सुनत निसाचर मारन धाए। सचिवन्ह सहित बिभीषनु आए॥3॥

भावार्थ

हनुमान्‌जी के वचन सुनकर वह बहुत ही कुपित हो गया। (और बोला-) अरे! इस मूर्ख का प्राण शीघ्र ही क्यों नहीं हर लेते? सुनते ही राक्षस उन्हें मारने दौडे उसी समय मन्त्रियों के साथ विभीषणजी वहाँ आ पहुँचे॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

नाइ सीस करि बिनय बहूता। नीति बिरोध न मारिअ दूता॥
आन दण्ड कछु करिअ गोसाँई। सबहीं कहा मन्त्र भल भाई॥4॥

मूल

नाइ सीस करि बिनय बहूता। नीति बिरोध न मारिअ दूता॥
आन दण्ड कछु करिअ गोसाँई। सबहीं कहा मन्त्र भल भाई॥4॥

भावार्थ

उन्होन्ने सिर नवाकर और बहुत विनय करके रावण से कहा कि दूत को मारना नहीं चाहिए, यह नीति के विरुद्ध है। हे गोसाईं। कोई दूसरा दण्ड दिया जाए। सबने कहा- भाई! यह सलाह उत्तम है॥4॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

सुनत बिहसि बोला दसकन्धर। अङ्ग भङ्ग करि पठइअ बन्दर॥5॥

मूल

सुनत बिहसि बोला दसकन्धर। अङ्ग भङ्ग करि पठइअ बन्दर॥5॥

भावार्थ

यह सुनते ही रावण हँसकर बोला- अच्छा तो, बन्दर को अङ्ग-भङ्ग करके भेज (लौटा) दिया जाए॥5॥कपि कें ममता पूँछ पर सबहि कहउँ समुझाइ।

24

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

कपि कें ममता पूँछ पर सबहि कहउँ समुझाइ।
तेल बोरि पट बाँधि पुनि पावक देहु लगाइ॥24॥

मूल

कपि कें ममता पूँछ पर सबहि कहउँ समुझाइ।
तेल बोरि पट बाँधि पुनि पावक देहु लगाइ॥24॥

भावार्थ

मैं सबको समझाकर कहता हूँ कि बन्दर की ममता पूँछ पर होती है। अतः तेल में कपडा डुबोकर उसे इसकी पूँछ में बाँधकर फिर आग लगा दो॥24॥

01 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

पूँछहीन बानर तहँ जाइहि। तब सठ निज नाथहि लइ आइहि॥
जिन्ह कै कीन्हिसि बहुत बडाई। देखउ मैं तिन्ह कै प्रभुताई॥1॥

मूल

पूँछहीन बानर तहँ जाइहि। तब सठ निज नाथहि लइ आइहि॥
जिन्ह कै कीन्हिसि बहुत बडाई। देखउ मैं तिन्ह कै प्रभुताई॥1॥

भावार्थ

जब बिना पूँछ का यह बन्दर वहाँ (अपने स्वामी के पास) जाएगा, तब यह मूर्ख अपने मालिक को साथ ले आएगा। जिनकी इसने बहुत बडाई की है, मैं जरा उनकी प्रभुता (सामर्थ्य) तो देखूँ!॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

बचन सुनत कपि मन मुसुकाना। भइ सहाय सारद मैं जाना॥
जातुधान सुनि रावन बचना। लागे रचैं मूढ सोइ रचना॥2॥

मूल

बचन सुनत कपि मन मुसुकाना। भइ सहाय सारद मैं जाना॥
जातुधान सुनि रावन बचना। लागे रचैं मूढ सोइ रचना॥2॥

भावार्थ

यह वचन सुनते ही हनुमान्‌जी मन में मुस्कुराए (और मन ही मन बोले कि) मैं जान गया, सरस्वतीजी (इसे ऐसी बुद्धि देने में) सहायक हुई हैं। रावण के वचन सुनकर मूर्ख राक्षस वही (पूँछ में आग लगाने की) तैयारी करने लगे॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

रहा न नगर बसन घृत तेला। बाढी पूँछ कीन्ह कपि खेला॥
कौतुक कहँ आए पुरबासी। मारहिं चरन करहिं बहु हाँसी॥3॥

मूल

रहा न नगर बसन घृत तेला। बाढी पूँछ कीन्ह कपि खेला॥
कौतुक कहँ आए पुरबासी। मारहिं चरन करहिं बहु हाँसी॥3॥

भावार्थ

(पूँछ के लपेटने में इतना कपडा और घी-तेल लगा कि) नगर में कपडा, घी और तेल नहीं रह गया। हनुमान्‌जी ने ऐसा खेल किया कि पूँछ बढ गई (लम्बी हो गई)। नगरवासी लोग तमाशा देखने आए। वे हनुमान्‌जी को पैर से ठोकर मारते हैं और उनकी हँसी करते हैं॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

बाजहिं ढोल देहिं सब तारी। नगर फेरि पुनि पूँछ प्रजारी॥
पावक जरत देखि हनुमन्ता। भयउ परम लघुरूप तुरन्ता॥4॥

मूल

बाजहिं ढोल देहिं सब तारी। नगर फेरि पुनि पूँछ प्रजारी॥
पावक जरत देखि हनुमन्ता। भयउ परम लघुरूप तुरन्ता॥4॥

भावार्थ

ढोल बजते हैं, सब लोग तालियाँ पीटते हैं। हनुमान्‌जी को नगर में फिराकर, फिर पूँछ में आग लगा दी। अग्नि को जलते हुए देखकर हनुमान्‌जी तुरन्त ही बहुत छोटे रूप में हो गए॥4॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

निबुकि चढेउ कप कनक अटारीं। भईं सभीत निसाचर नारीं॥5॥

मूल

निबुकि चढेउ कप कनक अटारीं। भईं सभीत निसाचर नारीं॥5॥

भावार्थ

बन्धन से निकलकर वे सोने की अटारियों पर जा चढे। उनको देखकर राक्षसों की स्त्रियाँ भयभीत हो गईं॥5॥

25

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि प्रेरित तेहि अवसर चले मरुत उनचास।
अट्टहास करि गर्जा कपि बढि लाग अकास॥25॥

मूल

हरि प्रेरित तेहि अवसर चले मरुत उनचास।
अट्टहास करि गर्जा कपि बढि लाग अकास॥25॥

भावार्थ

उस समय भगवान्‌ की प्रेरणा से उनचासों पवन चलने लगे। हनुमान्‌जी अट्टहास करके गर्जे और बढकर आकाश से जा लगे॥25॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

देह बिसाल परम हरुआई। मन्दिर तें मन्दिर चढ धाई॥
जरइ नगर भा लोग बिहाला। झपट लपट बहु कोटि कराला॥1॥

मूल

देह बिसाल परम हरुआई। मन्दिर तें मन्दिर चढ धाई॥
जरइ नगर भा लोग बिहाला। झपट लपट बहु कोटि कराला॥1॥

भावार्थ

देह बडी विशाल, परन्तु बहुत ही हल्की (फुर्तीली) है। वे दौडकर एक महल से दूसरे महल पर चढ जाते हैं। नगर जल रहा है लोग बेहाल हो गए हैं। आग की करोडों भयङ्कर लपटें झपट रही हैं॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

तात मातु हा सुनिअ पुकारा। एहिं अवसर को हमहि उबारा॥
हम जो कहा यह कपि नहिं होई। बानर रूप धरें सुर कोई॥2॥

मूल

तात मातु हा सुनिअ पुकारा। एहिं अवसर को हमहि उबारा॥
हम जो कहा यह कपि नहिं होई। बानर रूप धरें सुर कोई॥2॥

भावार्थ

हाय बप्पा! हाय मैया! इस अवसर पर हमें कौन बचाएगा? (चारों ओर) यही पुकार सुनाई पड रही है। हमने तो पहले ही कहा था कि यह वानर नहीं है, वानर का रूप धरे कोई देवता है!॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

साधु अवग्या कर फलु ऐसा। जरइ नगर अनाथ कर जैसा॥
जारा नगरु निमिष एक माहीं। एक बिभीषन कर गृह नाहीं॥3॥

मूल

साधु अवग्या कर फलु ऐसा। जरइ नगर अनाथ कर जैसा॥
जारा नगरु निमिष एक माहीं। एक बिभीषन कर गृह नाहीं॥3॥

भावार्थ

साधु के अपमान का यह फल है कि नगर, अनाथ के नगर की तरह जल रहा है। हनुमान्‌जी ने एक ही क्षण में सारा नगर जला डाला। एक विभीषण का घर नहीं जलाया॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

ताकर दूत अनल जेहिं सिरिजा। जरा न सो तेहि कारन गिरिजा॥
उलटि पलटि लङ्का सब जारी। कूदि परा पुनि सिन्धु मझारी॥4॥

मूल

ताकर दूत अनल जेहिं सिरिजा। जरा न सो तेहि कारन गिरिजा॥
उलटि पलटि लङ्का सब जारी। कूदि परा पुनि सिन्धु मझारी॥4॥

भावार्थ

(शिवजी कहते हैं-) हे पार्वती! जिन्होन्ने अग्नि को बनाया, हनुमान्‌जी उन्हीं के दूत हैं। इसी कारण वे अग्नि से नहीं जले। हनुमान्‌जी ने उलट-पलटकर (एक ओर से दूसरी ओर तक) सारी लङ्का जला दी। फिर वे समुद्र में कूद पडे॥

26

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

पूँछ बुझाइ खोइ श्रम धरि लघु रूप बहोरि।
जनकसुता कें आगें ठाढ भयउ कर जोरि॥26॥

मूल

पूँछ बुझाइ खोइ श्रम धरि लघु रूप बहोरि।
जनकसुता कें आगें ठाढ भयउ कर जोरि॥26॥

भावार्थ

पूँछ बुझाकर, थकावट दूर करके और फिर छोटा सा रूप धारण कर हनुमान्‌जी श्री जानकीजी के सामने हाथ जोडकर जा खडे हुए॥26॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

मातु मोहि दीजे कछु चीन्हा। जैसें रघुनायक मोहि दीन्हा॥
चूडामनि उतारि तब दयऊ। हरष समेत पवनसुत लयऊ॥1॥

मूल

मातु मोहि दीजे कछु चीन्हा। जैसें रघुनायक मोहि दीन्हा॥
चूडामनि उतारि तब दयऊ। हरष समेत पवनसुत लयऊ॥1॥

भावार्थ

(हनुमान्‌जी ने कहा-) हे माता! मुझे कोई चिह्न (पहचान) दीजिए, जैसे श्री रघुनाथजी ने मुझे दिया था। तब सीताजी ने चूडामणि उतारकर दी। हनुमान्‌जी ने उसको हर्षपूर्वक ले लिया॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

कहेहु तात अस मोर प्रनामा। सब प्रकार प्रभु पूरनकामा॥
दीन दयाल बिरिदु सम्भारी। हरहु नाथ सम सङ्कट भारी॥2॥

मूल

कहेहु तात अस मोर प्रनामा। सब प्रकार प्रभु पूरनकामा॥
दीन दयाल बिरिदु सम्भारी। हरहु नाथ सम सङ्कट भारी॥2॥

भावार्थ

(जानकीजी ने कहा-) हे तात! मेरा प्रणाम निवेदन करना और इस प्रकार कहना- हे प्रभु! यद्यपि आप सब प्रकार से पूर्ण काम हैं (आपको किसी प्रकार की कामना नहीं है), तथापि दीनों (दुःखियों) पर दया करना आपका विरद है (और मैं दीन हूँ) अतः उस विरद को याद करके, हे नाथ! मेरे भारी सङ्कट को दूर कीजिए॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

तात सक्रसुत कथा सनाएहु। बान प्रताप प्रभुहि समुझाएहु॥
मास दिवस महुँ नाथु न आवा। तौ पुनि मोहि जिअत नहिं पावा॥3॥

मूल

तात सक्रसुत कथा सनाएहु। बान प्रताप प्रभुहि समुझाएहु॥
मास दिवस महुँ नाथु न आवा। तौ पुनि मोहि जिअत नहिं पावा॥3॥

भावार्थ

हे तात! इन्द्रपुत्र जयन्त की कथा (घटना) सुनाना और प्रभु को उनके बाण का प्रताप समझाना (स्मरण कराना)। यदि महीने भर में नाथ न आए तो फिर मुझे जीती न पाएँगे॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

कहु कपि केहि बिधि राखौं प्राना। तुम्हहू तात कहत अब जाना॥
तोहि देखि सीतलि भइ छाती। पुनि मो कहुँ सोइ दिनु सो राती॥4॥

मूल

कहु कपि केहि बिधि राखौं प्राना। तुम्हहू तात कहत अब जाना॥
तोहि देखि सीतलि भइ छाती। पुनि मो कहुँ सोइ दिनु सो राती॥4॥

भावार्थ

हे हनुमान्‌! कहो, मैं किस प्रकार प्राण रखूँ! हे तात! तुम भी अब जाने को कह रहे हो। तुमको देखकर छाती ठण्डी हुई थी। फिर मुझे वही दिन और वही रात!॥4॥

27

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

जनकसुतहि समुझाइ करि बहु बिधि धीरजु दीन्ह।
चरन कमल सिरु नाइ कपि गवनु राम पहिँ कीन्ह॥27॥

मूल

जनकसुतहि समुझाइ करि बहु बिधि धीरजु दीन्ह।
चरन कमल सिरु नाइ कपि गवनु राम पहिँ कीन्ह॥27॥

भावार्थ

हनुमान्‌जी ने जानकीजी को समझाकर बहुत प्रकार से धीरज दिया और उनके चरणकमलों में सिर नवाकर श्री रामजी के पास गमन किया॥27॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

चलत महाधुनि गर्जेसि भारी। गर्भ स्रवहिँ सुनि निसिचर नारी॥
नाँघि सिन्धु एहि पारहि आवा। सबद किलिकिला कपिन्ह सुनावा॥1॥

मूल

चलत महाधुनि गर्जेसि भारी। गर्भ स्रवहिँ सुनि निसिचर नारी॥
नाँघि सिन्धु एहि पारहि आवा। सबद किलिकिला कपिन्ह सुनावा॥1॥

भावार्थ

ः- चलते समय महाध्वनि से भारी गर्जना की, उसे सुनकर राक्षसियों के गर्भ गिर गए। समुद्र लाङ्घ कर इस पार आए और वानरों को किलकारी का शब्द (हर्ष सूचक ध्वनि) सुनाये।

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

हरषे सब बिलोकि हनुमाना। नूतन जनम कपिन्ह तब जाना॥
मुख प्रसन्न तन तेज बिराजा। कीन्हेसि रामचन्द्र कर काजा॥ 2॥

मूल

हरषे सब बिलोकि हनुमाना। नूतन जनम कपिन्ह तब जाना॥
मुख प्रसन्न तन तेज बिराजा। कीन्हेसि रामचन्द्र कर काजा॥ 2॥

भावार्थ

ः- हनूमानजी को देखकर सब प्रसन्न हुए; तब वानरों ने अपना नया जन्म समझा। देखा कि पवनकुमार का मुख प्रसन्न है और शरीर में तेज विराजमान है, इस से जान लिया कि रामचन्द्रजी का कार्य इन्होंने किया॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

मिले सकल अति भए सुखारी। तलफत मीन पाव जिमि बारी॥
चले हरषि रघुनायक पासा। पूँछत कहत नवल इतिहासा॥3॥

मूल

मिले सकल अति भए सुखारी। तलफत मीन पाव जिमि बारी॥
चले हरषि रघुनायक पासा। पूँछत कहत नवल इतिहासा॥3॥

भावार्थ

ः- सब वानर परम प्रेमके साथ हनुमानजी से मिले और अत्यन्त प्रसन्न हुए जैसे कि मानो तड़पती हुई मछलीको पानी मिल गया॥ फिर वे सब सुन्दर इतिहास पूछते हुए और कहते हुए आनन्द के साथ रामचन्द्रजीके पास चले॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

तब मधुबन भीतर सब आए। अङ्गद सम्मत मधु फल खाए॥
रखवारे जब बरजन लागे। मुष्टि प्रहार हनत सब भागे॥4॥

मूल

तब मधुबन भीतर सब आए। अङ्गद सम्मत मधु फल खाए॥
रखवारे जब बरजन लागे। मुष्टि प्रहार हनत सब भागे॥4॥

भावार्थ

ः- फिर उन सबोंने मधुवनके अन्दर आकर युवराज अंगदके साथ वहां मीठे फल खाये॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

जब वहांके पहरेदार बरजने लगे तब उनको मुक्कों से ऐसा मारा कि वे सब वहाँ से भाग गये॥4॥

मूल

जब वहांके पहरेदार बरजने लगे तब उनको मुक्कों से ऐसा मारा कि वे सब वहाँ से भाग गये॥4॥

28

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

जाइ पुकारे ते सब बन उजार जुबराज।
सुनि सुग्रीव हरष कपि करि आए प्रभु काज ॥28॥

मूल

जाइ पुकारे ते सब बन उजार जुबराज।
सुनि सुग्रीव हरष कपि करि आए प्रभु काज ॥28॥

भावार्थ

ः- वहाँ से जो वानर भाग कर बचे थे उन सबोंने जाकर राजा सुग्रीवसे कहा कि हे राजन्! युवराज अङ्गदने वन का सत्यानाश कर दिया है। यह समाचार सुनकर सुग्रीवको बड़ा आनंद आया कि वे लोग प्रभुका काम करके आए हैं ॥28॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

जौँ न होति सीता सुधि पाई। मधुबन के फल सकहिँ कि खाई॥
एहि बिधि मन बिचार कर राजा। आइ गए कपि सहित समाजा॥1॥

मूल

जौँ न होति सीता सुधि पाई। मधुबन के फल सकहिँ कि खाई॥
एहि बिधि मन बिचार कर राजा। आइ गए कपि सहित समाजा॥1॥

भावार्थ

ः- सुग्रीवको आनंद क्यों हुआ? उसका कारण कहते हैं। सुग्रीव ने मन में विचार किया कि जो उनको सीताजी की खबर नहीं मिली होती तो वे लोग मधुवन के फल कदापि नहीं खाते॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राजा सुग्रीव इस तरह मनमें विचार कर रहे थे। इतने में समाज के साथ वे सभी वानर वहाँ चले आये॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आइ सबहिँ नावा पद सीसा। मिलेउ सबन्हि अति प्रेम कपीसा॥
पूँछी कुसल कुसल पद देखी। राम कृपा भा काज बिसेखी॥2॥

मूल

राजा सुग्रीव इस तरह मनमें विचार कर रहे थे। इतने में समाज के साथ वे सभी वानर वहाँ चले आये॥1॥

आइ सबहिँ नावा पद सीसा। मिलेउ सबन्हि अति प्रेम कपीसा॥
पूँछी कुसल कुसल पद देखी। राम कृपा भा काज बिसेखी॥2॥

भावार्थ

ः- सबने आकर सुग्रीव के चरणों में सिर नवाया और बड़े प्रेम के साथ सुग्रीव उन सबसे मिले। सुग्रीव ने सभी से कुशल पूछा तब उन्होंने कहा कि नाथ! आपके चरण कुशल देखकर हम कुशल हैं और जो यह काम बना है सो केवल रामचन्द्रजी की कृपासे बना है॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

नाथ काजु कीन्हेउ हनुमाना। राखे सकल कपिन्ह के प्राना॥
सुनि सुग्रीव बहुरि तेहि मिलेऊ। कपिन्ह सहित रघुपति पहिँ चलेऊ॥3॥

मूल

नाथ काजु कीन्हेउ हनुमाना। राखे सकल कपिन्ह के प्राना॥
सुनि सुग्रीव बहुरि तेहि मिलेऊ। कपिन्ह सहित रघुपति पहिँ चलेऊ॥3॥

भावार्थ

ः- हे नाथ! यह काम हनुमानजीने किया हैै मानो सब वानरों के इसने प्राण बचा लिये हैं॥ यह बात सुनकर सुग्रीव उठकर फिर हनुमानजी से मिले और वानरों के साथ रामचन्द्रजी के पास आए॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

राम कपिन्ह जब आवत देखा। कियेँ काजु मन हरष बिसेखा॥
फटिक सिला बैठे द्वौ भाई। परे सकल कपि चरनन्हि जाई॥4॥

मूल

राम कपिन्ह जब आवत देखा। कियेँ काजु मन हरष बिसेखा॥
फटिक सिला बैठे द्वौ भाई। परे सकल कपि चरनन्हि जाई॥4॥

भावार्थ

ः- वानरोंको आते देखकर रामचन्द्रजीके मनमें बड़ा आनन्द हुआ कि ये लोग कार्य सिद्ध करके आ गये हैं॥ राम और लक्ष्मण ये दोनों भाई स्फटिकमणि की शिला पर बैठे हुए थे। वहाँ जाकर सब वानर दोनों भाइयों के चरणोंमें गिरे॥4॥

29

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रीति सहित सब भेँटे रघुपति करुना पुञ्ज॥ पूछी कुसल नाथ अब कुसल देखि पद कञ्ज ॥29॥

मूल

प्रीति सहित सब भेँटे रघुपति करुना पुञ्ज॥ पूछी कुसल नाथ अब कुसल देखि पद कञ्ज ॥29॥

भावार्थ

ः- करुणानिधान श्रीरामचन्द्रजी प्रीतिपूर्वक सब वानरोंसे मिले और उनसे कुशल पूछा, तब उन्होंने कहा कि हे नाथ! आपके चरणकमलों को कुशल देखकर (चरणकमलों के दर्शन पाने से) अब हम कुशल हैं ॥29॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

जामवन्त कह सुनु रघुराया। जा पर नाथ करहु तुम्ह दाया॥
ताहि सदा सुभ कुसल निरन्तर। सुर नर मुनि प्रसन्न ता ऊपर॥1॥

मूल

जामवन्त कह सुनु रघुराया। जा पर नाथ करहु तुम्ह दाया॥
ताहि सदा सुभ कुसल निरन्तर। सुर नर मुनि प्रसन्न ता ऊपर॥1॥

भावार्थ

ः- उस समय जाम्बवान ने रामचन्द्रजीसे कहा कि हे नाथ! सुनिए, आप जिस पर दया करते हैं वे सर्वदा शुभ और निरन्तर कुशल रहते हैं। तथा देवता मनुष्य और मुनि सभी उस पर सदा प्रसन्न रहते हैं॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

सोइ बिजई बिनई गुन सागर। तासु सुजसु त्रैलोक उजागर॥
प्रभु कीं कृपा भयउ सबु काजू। जन्म हमार सुफल भा आजू॥2॥

मूल

सोइ बिजई बिनई गुन सागर। तासु सुजसु त्रैलोक उजागर॥
प्रभु कीं कृपा भयउ सबु काजू। जन्म हमार सुफल भा आजू॥2॥

भावार्थ

ः- वही विजयी (विजय करने वाला), विनयी (विनयवाला) और गुणोंका समुद्र होता है और उसकी सुख्याति तीनों लोकोंमें प्रसिद्ध रहती है। यह सब काम प्रभु कृपा से सिद्ध हुआ है और हमारा जन्म भी आजही सफल हुआ है॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

नाथ पवनसुत कीन्हि जो करनी। सहसहुँ मुख न जाइ सो बरनी॥
पवनतनय के चरित सुहाए। जामवन्त रघुपतिहि सुनाए॥3॥

मूल

नाथ पवनसुत कीन्हि जो करनी। सहसहुँ मुख न जाइ सो बरनी॥
पवनतनय के चरित सुहाए। जामवन्त रघुपतिहि सुनाए॥3॥

भावार्थ

ः- हे नाथ! पवनपुत्र हनुमानजी ने जो कार्य किया है उसका हजार मुखों से भी वर्णन नहीं किया जा सकता हनुमानजी की प्रशंसा के वचन और कार्य जाम्बवान ने रामचन्द्रजी को सुनाये॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

सुनत कृपानिधि मन अति भाए। पुनि हनुमान हरषि हियँ लाए॥
कहहु तात केहि भाँति जानकी। रहति करति रच्छा स्वप्रान की॥4

मूल

सुनत कृपानिधि मन अति भाए। पुनि हनुमान हरषि हियँ लाए॥
कहहु तात केहि भाँति जानकी। रहति करति रच्छा स्वप्रान की॥4

भावार्थ

ः- उन वचनोंको सुनकर दयालु श्रीरामचन्द्रजी ने उठकर हनुमानजी को अपनी छाती से लगाया, और श्रीराम ने हनुमानजी से पूछा कि हे तात! कहो, सीता किस तरह रहती है? और अपने प्राणोंकी रक्षा वह किस तरह करती है?॥4॥

30

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाम पाहरू दिवस निसि ध्यान तुम्हार कपाट। लोचन निज पद जन्त्रित जाहिँ प्रान केहि बाट ॥30॥

हनुमानजीने कहा कि हे नाथ ! यद्यपि सीताजीको कष्ट तो इतना है कि उनके प्राण एक क्षणभर न रहे। परन्तु सीताजी ने आपके दर्शन के लिए प्राणों का ऐसा बंदोबस्त करके रखा है कि रात दिन अखण्ड पहरा देने हेतु आपके नाम को सिपाही बना रखा है (आपका नाम रात-दिन पहरा देने वाला है)। और आपके ध्यान को कपाट बनाया है (आपका ध्यान ही किवाड़ है)। और अपने नीचे किये हुए नेत्रों से जो अपने चरण की ओर निहारती है वह यन्त्रिका अर्थात् ताला है, अब प्राण किस रास्ते बाहर निकलें ॥30॥

02 चौपाई

चलत मोहि चूड़ामनि दीन्ही। रघुपति हृदयँ लाइ सोइ लीन्ही॥
नाथ जुगल लोचन भरि बारी। बचन कहे कछु जनककुमारी॥1॥

मूल

चलत मोहि चूड़ामनि दीन्ही। रघुपति हृदयँ लाइ सोइ लीन्ही॥
नाथ जुगल लोचन भरि बारी। बचन कहे कछु जनककुमारी॥1॥

भावार्थ

ः- चलते समय मुझे यह चूड़ामणि दी है, (ऐसे कह कर हनुमानजीने वह चूड़ामणि रामचन्द्रजीको दे दिया।) तब रामचन्द्रजी ने उस रत्न को लेकर अपनी छाती से लगाया॥

(तब हनुमानजीने कहा कि) हे नाथ! दोनो हाथ जोड़कर नेत्रों में जल लाकर सीताजी ने कुछ वचन भी कहे हैं सो सुनिये॥1॥

अनुज समेत गहेहु प्रभु चरना। दीन बन्धु प्रनतारति हरना॥
मन क्रम बचन चरन अनुरागी। केहिं अपराध नाथ हौं त्यागी॥2॥

भावार्थ

ः- (सीताजीने कहा है कि) अनुज लक्ष्मणजी के साथ प्रभु के चरण पकडकर कहना कि हे दीनबन्धु! शरणागतोके सङ्कट को हरने वाले, नाथ! फिर मन, वचन और कर्मसे चरणोमें प्रीति रखने वाली मुझ को आपने किस अपराध से त्याग दिया है॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

अवगुन एक मोर मैं माना। बिछुरत प्रान न कीन्ह पयाना॥
नाथ सो नयनन्हि को अपराधा। निसरत प्रान करहिं हठि बाधा॥3॥

मूल

अवगुन एक मोर मैं माना। बिछुरत प्रान न कीन्ह पयाना॥
नाथ सो नयनन्हि को अपराधा। निसरत प्रान करहिं हठि बाधा॥3॥

भावार्थ

ः- मेरा एक अपराध अवश्य है और वह मैंने जान भी लिया है कि आप से बिछडते ही (वियोग होते ही) मेरे प्राण नहीं निकल गये॥ परन्तु हे नाथ! वह अपराध मेरा नहीं है किन्तु नेत्रोका है; क्योंकि जिस समय प्राण निकलने लगते है उस समय ये नेत्र हठ कर उसमें बाधा कर देते हैं (अर्थात् केवल आपके दर्शन के लोभ से मेरे प्राण बने रहे हैं)॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

बिरह अगिनि तनु तूल समीरा। स्वास जरइ छन माहिँ सरीरा॥
नयन स्रवहिँ जलु निज हित लागी। जरैँ न पाव देह बिरहागी॥4॥

मूल

बिरह अगिनि तनु तूल समीरा। स्वास जरइ छन माहिँ सरीरा॥
नयन स्रवहिँ जलु निज हित लागी। जरैँ न पाव देह बिरहागी॥4॥

भावार्थ

ः- हे प्रभु! आपका विरह तो अग्नि है, मेरा शरीर तूल (रुई) है। श्वास प्रबल वायु है। अब इस सामग्री के रहते शरीर क्षणभर में जल जाय इसमें कोई आश्चर्य नहीं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

परन्तु नेत्र अपने हित के लिए अर्थात् दर्शन हेतु जल बहा बहा कर उस विरह की आग को शान्त करते हैं, इससे विरह की आग भी मेरे शरीरको जला नहीं पाती॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सीता कै अति बिपति बिसाला। बिनहिँ कहेँ भलि दीनदयाला॥5॥

मूल

परन्तु नेत्र अपने हित के लिए अर्थात् दर्शन हेतु जल बहा बहा कर उस विरह की आग को शान्त करते हैं, इससे विरह की आग भी मेरे शरीरको जला नहीं पाती॥

सीता कै अति बिपति बिसाला। बिनहिँ कहेँ भलि दीनदयाला॥5॥

भावार्थ

ः- (हनुमानजी ने कहा कि) हे दीनदयाल! सीता की विपत्ति ऐसी भारी है कि उसको न कहना ही अच्छा है॥5॥

31

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

निमिष निमिष करुनानिधि जाहिं कलप सम बीति।
बेगि चलिअ प्रभु आनिअ भुज बल खल दल जीति ॥31॥

मूल

निमिष निमिष करुनानिधि जाहिं कलप सम बीति।
बेगि चलिअ प्रभु आनिअ भुज बल खल दल जीति ॥31॥

भावार्थ

ः- हे करुणानिधान! सीताजीके एक एक क्षण, सौ सौ कल्प के समान व्यतीत होते हैं। इसलिए हे प्रभु! शीघ्र चलकर और अपने बाहुबल से दुष्टों के दल को जीतकर उनको शीघ्र ले आइए ॥31॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

सुनि सीता दुख प्रभु सुख अयना। भरि आए जल राजिव नयना॥
बचन कायँ मन मम गति जाही। सपनेहुँ बूझिअ बिपति कि ताही॥1॥

मूल

सुनि सीता दुख प्रभु सुख अयना। भरि आए जल राजिव नयना॥
बचन कायँ मन मम गति जाही। सपनेहुँ बूझिअ बिपति कि ताही॥1॥

भावार्थ

ः- सुख के धाम श्रीरामचन्द्रजी सीताजी के दुःख के समाचार सुन अति खिन्न हुए और उनके कमल जैसे दोनों नेत्रों में जल भर आया॥ रामचन्द्रजीने कहा कि जिसने मन, वचन व कर्मसे मेरी शरण ली है क्या स्वप्न में भी उसको विपत्ति होनी चाहिये? कदापि नहीं॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

कह हनुमंत बिपति प्रभु सोई। जब तव सुमिरन भजन न होई॥
केतिक बात प्रभु जातुधान की। रिपुहि जीति आनिबी जानकी॥2॥

मूल

कह हनुमंत बिपति प्रभु सोई। जब तव सुमिरन भजन न होई॥
केतिक बात प्रभु जातुधान की। रिपुहि जीति आनिबी जानकी॥2॥

भावार्थ

ः- हनुमानजीने कहा कि हे प्रभु! मनुष्यकी यह विपत्ति तो वही (तभी) है जब यह मनुष्य आपका भजन स्मरण नहीं करता॥ हे प्रभु इस राक्षस की कितनी सी बात है, आप शत्रुको जीतकर सीताजी को ले आइये॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

सुनु कपि तोहि समान उपकारी। नहिं कोउ सुर नर मुनि तनुधारी॥
प्रति उपकार करौं का तोरा। सनमुख होइ न सकत मन मोरा॥3

मूल

सुनु कपि तोहि समान उपकारी। नहिं कोउ सुर नर मुनि तनुधारी॥
प्रति उपकार करौं का तोरा। सनमुख होइ न सकत मन मोरा॥3

भावार्थ

ः- (रामचन्द्रजीने कहा कि ) हे हनुमान! सुनो, तुम्हारे समान मेरा उपकार करनेवाला देवता, मनुष्य और मुनि कोइ भी देहधारी नहीं है॥ हे हनुमान! में तुम्हारा क्या प्रत्युपकार ( उपकार के बदले में उपकार) करूं; क्योंकि मेरा मन भी तुम्हारे सामने नहीं हो सकता (तुमसे लज्जित हो रहा है।)॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुनु सुत तोहि उरिन मैं नाहीं। देखेउँ करि बिचार मन माहीं॥ पुनि पुनि कपिहि चितव सुरत्राता। लोचन नीर पुलक अति गाता॥4॥

हे हनुमान! सुनो, मैंने अपने मन में विचार करके देख लिया है कि मैं तुमसे उऋण (ऋण मुक्त)नहीं हो सकता॥ रामचन्द्रजी ज्यों ज्यों बारम्बार हनुमानजी की ओर देखते है; त्यों त्यों उनके नेत्रों में जल भर आता है और शरीर पुलकित हो जाता है॥

32

01 दोहा

सुनि प्रभु बचन बिलोकि मुख गात हरषि हनुमन्त। चरन परेउ प्रेमाकुल त्राहि त्राहि भगवन्त ॥32॥

मूल

सुनि प्रभु बचन बिलोकि मुख गात हरषि हनुमन्त। चरन परेउ प्रेमाकुल त्राहि त्राहि भगवन्त ॥32॥

भावार्थ

ः- हनुमानजी प्रभुके वचन सुनकर और प्रभुके मुखकी ओर देखकर मनमें परम हर्षित हो गए, और बहुत व्याकुल होकर ‘हे भगवन्! रक्षा करो’ ऐसे कहते हुए चरणोंमे गिर पड़े ॥32॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

बार बार प्रभु चहइ उठावा। प्रेम मगन तेहि उठब न भावा॥
प्रभु कर पङ्कज कपि कें सीसा। सुमिरि सो दसा मगन गौरीसा॥1॥

मूल

बार बार प्रभु चहइ उठावा। प्रेम मगन तेहि उठब न भावा॥
प्रभु कर पङ्कज कपि कें सीसा। सुमिरि सो दसा मगन गौरीसा॥1॥

भावार्थ

ः-यद्यपि प्रभु उनको चरणों में से बार-बार उठाना चाहते हैं, परन्तु हनुमान् प्रेम में ऐसे मग्न हो गए थे कि वह उठना नहीं चाहते थे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कवि कहते है कि रामचन्द्रजीके चरणकमलोंके बीच हनुमानजी सिर धरे है इस बातको स्मरण करके महादेवकी भी वही दशा होगयी और प्रेममें मग्न हो गये; क्योंकि हनुमान् रुद्रका अंशावतार है॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सावधान मन करि पुनि संकर। लागे कहन कथा अति सुंदर॥
कपि उठाई प्रभु हृदयँ लगावा। कर गहि परम निकट बैठावा॥2॥

मूल

कवि कहते है कि रामचन्द्रजीके चरणकमलोंके बीच हनुमानजी सिर धरे है इस बातको स्मरण करके महादेवकी भी वही दशा होगयी और प्रेममें मग्न हो गये; क्योंकि हनुमान् रुद्रका अंशावतार है॥1॥

सावधान मन करि पुनि संकर। लागे कहन कथा अति सुंदर॥
कपि उठाई प्रभु हृदयँ लगावा। कर गहि परम निकट बैठावा॥2॥

भावार्थ

ः- फिर महादेव अपने मनको सावधान करके अति मनोहर कथा कहने लगे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

महादेवजी कहते है कि हे पार्वती! प्रभु ने हनमान् ‌को उठाकर छाती से लगाया और हाथ पकड कर अपने बहुत नजदीक बिठाया॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहु कपि रावन पालित लङ्का। केहि बिधि दहेउ दुर्ग अति बङ्का॥
प्रभु प्रसन्न जाना हनुमाना। बोला बचन बिगत अभिमाना॥3॥

मूल

महादेवजी कहते है कि हे पार्वती! प्रभु ने हनमान् ‌को उठाकर छाती से लगाया और हाथ पकड कर अपने बहुत नजदीक बिठाया॥2॥

कहु कपि रावन पालित लङ्का। केहि बिधि दहेउ दुर्ग अति बङ्का॥
प्रभु प्रसन्न जाना हनुमाना। बोला बचन बिगत अभिमाना॥3॥

भावार्थ

ः- और हनुमानसे कहा कि हे हनुमान्! कहो, वह रावण की पाली हुई लंकापुरी, कि जो बड़ा बंका किला है, उसको तुमने कैसे जलाया? रामचन्द्रजी की यह बात सुन उनको प्रसन्न जानकर हनुमानजी ने अभिमानरहित होकर यह वचन कहे कि..॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

साखामग कै बड़ि मनुसाई। साखा तें साखा पर जाई॥
नाघि सिंधु हाटकपुर जारा। निसिचर गन बधि बिपिन उजारा॥4॥

मूल

साखामग कै बड़ि मनुसाई। साखा तें साखा पर जाई॥
नाघि सिंधु हाटकपुर जारा। निसिचर गन बधि बिपिन उजारा॥4॥

भावार्थ

ः- वानर का तो अत्यन्त पराक्रम यही है कि वृक्ष की एक डालसे दूसरी डालपर कूद जाय। परन्तु जो मैं समुद्र को लांघकर लङ्का में चला गया और वहा जाकर मैंने लङ्का को जला दिया और बहुतसे राक्षसोंको मारकर अशोक वनको उजाड़ दिया॥4॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

सो सब तव प्रताप रघुराई। नाथ न कछू मोरि प्रभुताई॥5॥

मूल

सो सब तव प्रताप रघुराई। नाथ न कछू मोरि प्रभुताई॥5॥

भावार्थ

ः- हे प्रभु! यह सब आपका प्रताप है। हे नाथ! इसमें मेरी प्रभुता कुछ नहीं है॥5॥

33

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

ता कहुँ प्रभु कछु अगम नहिं जा पर तुम्ह अनुकूल।
तव प्रभावँ बड़वानलहि जारि सकइ खलु तूल ॥33॥

हे प्रभु! आप जिस पर प्रसन्न हों, उसके लिए कुछ भी असाध्य (कठिन) नहीं है। आपके प्रतापसे निश्चय रूई बड़वानलको जला सकती है (असंभव भी संभव हो सकता है) ॥33॥

02 चौपाई

नाथ भगति अति सुखदायनी। देहु कृपा करि अनपायनी॥
सुनि प्रभु परम सरल कपि बानी। एवमस्तु तब कहेउ भवानी॥1॥

मूल

नाथ भगति अति सुखदायनी। देहु कृपा करि अनपायनी॥
सुनि प्रभु परम सरल कपि बानी। एवमस्तु तब कहेउ भवानी॥1॥

भावार्थ

ः- रामचन्द्रजी के ये वचन सुनकर हनुमानजी ने कहा कि हे नाथ! मुझे तो कृपा करके आपकी अनपायिनी (जिसमें कभी विच्छेद नहीं पडे ऐसी, निश्चल) कल्याणकारी और सुखदायी भक्ति दो॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

महादेवजी ने कहा कि हे पार्वती! हनुमान की ऐसी परम सरल वाणी सुनकर प्रभु ने कहा कि हे हनुमान्! ‘एवमस्तु’ (ऐसा ही हो) अर्थात् तुमको हमारी भक्ति प्राप्त हो॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उमा राम सुभाउ जेहिं जाना। ताहि भजनु तजि भाव न आना॥
यह संबाद जासु उर आवा। रघुपति चरन भगति सोइ पावा॥2॥

मूल

महादेवजी ने कहा कि हे पार्वती! हनुमान की ऐसी परम सरल वाणी सुनकर प्रभु ने कहा कि हे हनुमान्! ‘एवमस्तु’ (ऐसा ही हो) अर्थात् तुमको हमारी भक्ति प्राप्त हो॥1॥

उमा राम सुभाउ जेहिं जाना। ताहि भजनु तजि भाव न आना॥
यह संबाद जासु उर आवा। रघुपति चरन भगति सोइ पावा॥2॥

भावार्थ

ः- हे पार्वती! जिन्होंने रामचन्द्रजीके परम दयालु स्वभावको जान लिया है, उनको रामचन्द्रजीकी भक्तिको छोंड़कर दूसरा कुछ भी अच्छा नहीं लगता। यह हनुमान् और रामचन्द्रजीका संवाद जिसके हृदयमें दृढ़ रीतिसे आ जाता है, वह श्री रामचन्द्रजीकी भक्तिको अवश्य पा लेता है॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

सुनि प्रभु बचन कहहिँ कपिबृन्दा। जय जय जय कृपाल सुखकन्दा॥
तब रघुपति कपिपतिहि बोलावा। कहा चलैं कर करहु बनावा॥3॥

मूल

सुनि प्रभु बचन कहहिँ कपिबृन्दा। जय जय जय कृपाल सुखकन्दा॥
तब रघुपति कपिपतिहि बोलावा। कहा चलैं कर करहु बनावा॥3॥

भावार्थ

ः- प्रभुके ऐसे वचन सुनकर तमाम वानरवृन्द ने पुकार कर कहा कि हे दयालू! हे सुख के मूलकारण प्रभु! आपकी जय हो, जय हो, जय हो॥ उस समय प्रभुने सुग्रीव को बुलाकर कहा कि हे सुग्रीव! अब चलने की तैयारी करो॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

अब बिलम्बु केह कारन कीजे। तुरन्त कपिन्ह कहँ आयसु दीजे॥
कौतुक देखि सुमन बहु बरषी। नभ तें भवन चले सुर हरषी॥4॥

मूल

अब बिलम्बु केह कारन कीजे। तुरन्त कपिन्ह कहँ आयसु दीजे॥
कौतुक देखि सुमन बहु बरषी। नभ तें भवन चले सुर हरषी॥4॥

भावार्थ

ः- अब विलम्ब क्यों कर रहे हैं अब तुरन्त वानरोंको आज्ञा दीजिए। इस कौतुकको देखकर (भगवान की यह लीला) देवताओं ने आकाश से बहुतसे फूल बरसाये और फिर वे आनन्दित होकर अपने अपने लोक को चल दिये॥4॥

34

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

कपिपति बेगि बोलाए आए जूथप जूथ।
नाना बरन अतुल बल बानर भालु बरूथ॥34॥

मूल

कपिपति बेगि बोलाए आए जूथप जूथ।
नाना बरन अतुल बल बानर भालु बरूथ॥34॥

भावार्थ

वानरराज सुग्रीव ने शीघ्र ही वानरों को बुलाया, सेनापतियों के समूह आ गए। वानर-भालुओं के झुण्ड अनेक रङ्गों के हैं और उनमें अतुलनीय बल है॥34॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभु पद पङ्कज नावहिं सीसा। गर्जहिं भालु महाबल कीसा॥
देखी राम सकल कपि सेना। चितइ कृपा करि राजिव नैना॥1॥

मूल

प्रभु पद पङ्कज नावहिं सीसा। गर्जहिं भालु महाबल कीसा॥
देखी राम सकल कपि सेना। चितइ कृपा करि राजिव नैना॥1॥

भावार्थ

वे प्रभु के चरण कमलों में सिर नवाते हैं। महान्‌ बलवान्‌ रीछ और वानर गरज रहे हैं। श्री रामजी ने वानरों की सारी सेना देखी। तब कमल नेत्रों से कृपापूर्वक उनकी ओर दृष्टि डाली॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

राम कृपा बल पाइ कपिन्दा। भए पच्छजुत मनहुँ गिरिन्दा॥
हरषि राम तब कीन्ह पयाना। सगुन भए सुन्दर सुभ नाना॥2॥

मूल

राम कृपा बल पाइ कपिन्दा। भए पच्छजुत मनहुँ गिरिन्दा॥
हरषि राम तब कीन्ह पयाना। सगुन भए सुन्दर सुभ नाना॥2॥

भावार्थ

राम कृपा का बल पाकर श्रेष्ठ वानर मानो पङ्खवाले बडे पर्वत हो गए। तब श्री रामजी ने हर्षित होकर प्रस्थान (कूच) किया। अनेक सुन्दर और शुभ शकुन हुए॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

जासु सकल मङ्गलमय कीती। तासु पयान सगुन यह नीती॥
प्रभु पयान जाना बैदेहीं। फरकि बाम अँग जनु कहि देहीं॥3॥

मूल

जासु सकल मङ्गलमय कीती। तासु पयान सगुन यह नीती॥
प्रभु पयान जाना बैदेहीं। फरकि बाम अँग जनु कहि देहीं॥3॥

भावार्थ

जिनकी कीर्ति सब मङ्गलों से पूर्ण है, उनके प्रस्थान के समय शकुन होना, यह नीति है (लीला की मर्यादा है)। प्रभु का प्रस्थान जानकीजी ने भी जान लिया। उनके बाएँ अङ्ग फडक-फडककर मानो कहे देते थे (कि श्री रामजी आ रहे हैं)॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

जोइ जोइ सगुन जानकिहि होई। असगुन भयउ रावनहिं सोई॥
चला कटकु को बरनैं पारा। गर्जहिं बानर भालु अपारा॥4॥

मूल

जोइ जोइ सगुन जानकिहि होई। असगुन भयउ रावनहिं सोई॥
चला कटकु को बरनैं पारा। गर्जहिं बानर भालु अपारा॥4॥

भावार्थ

जानकीजी को जो-जो शकुन होते थे, वही-वही रावण के लिए अपशकुन हुए। सेना चली, उसका वर्णन कौन कर सकता है? असङ्ख्य वानर और भालू गर्जना कर रहे हैं॥4॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

नख आयुध गिरि पादपधारी। चले गगन महि इच्छाचारी॥
केहरिनाद भालु कपि करहीं। डगमगाहिं दिग्गज चिक्करहीं॥5॥

मूल

नख आयुध गिरि पादपधारी। चले गगन महि इच्छाचारी॥
केहरिनाद भालु कपि करहीं। डगमगाहिं दिग्गज चिक्करहीं॥5॥

भावार्थ

नख ही जिनके शस्त्र हैं, वे इच्छानुसार (सर्वत्र बेरोक-टोक) चलने वाले रीछ-वानर पर्वतों और वृक्षों को धारण किए कोई आकाश मार्ग से और कोई पृथ्वी पर चले जा रहे हैं। वे सिंह के समान गर्जना कर रहे हैं। (उनके चलने और गर्जने से) दिशाओं के हाथी विचलित होकर चिङ्ग्घाड रहे हैं॥5॥

03 छन्द

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

चिक्करहिं दिग्गज डोल महि गिरि लोल सागर खरभरे।
मन हरष सभ गन्धर्ब सुर मुनि नाग किन्नर दुख टरे॥
कटकटहिं मर्कट बिकट भट बहु कोटि कोटिन्ह धावहीं।
जय राम प्रबल प्रताप कोसलनाथ गुन गन गावहीं॥1॥

मूल

चिक्करहिं दिग्गज डोल महि गिरि लोल सागर खरभरे।
मन हरष सभ गन्धर्ब सुर मुनि नाग किन्नर दुख टरे॥
कटकटहिं मर्कट बिकट भट बहु कोटि कोटिन्ह धावहीं।
जय राम प्रबल प्रताप कोसलनाथ गुन गन गावहीं॥1॥

भावार्थ

दिशाओं के हाथी चिङ्ग्घाडने लगे, पृथ्वी डोलने लगी, पर्वत चञ्चल हो गए (काँपने लगे) और समुद्र खलबला उठे। गन्धर्व, देवता, मुनि, नाग, किन्नर सब के सब मन में हर्षित हुए’ कि (अब) हमारे दुःख टल गए। अनेकों करोड भयानक वानर योद्धा कटकटा रहे हैं और करोडों ही दौड रहे हैं। ‘प्रबल प्रताप कोसलनाथ श्री रामचन्द्रजी की जय हो’ ऐसा पुकारते हुए वे उनके गुणसमूहों को गा रहे हैं॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

सहि सक न भार उदार अहिपति बार बारहिं मोहई।
गह दसन पुनि पुनि कमठ पृष्ठ कठोर सो किमि सोहई॥
रघुबीर रुचिर प्रयान प्रस्थिति जानि परम सुहावनी।
जनु कमठ खर्पर सर्पराज सो लिखत अबिचल पावनी॥2॥

मूल

सहि सक न भार उदार अहिपति बार बारहिं मोहई।
गह दसन पुनि पुनि कमठ पृष्ठ कठोर सो किमि सोहई॥
रघुबीर रुचिर प्रयान प्रस्थिति जानि परम सुहावनी।
जनु कमठ खर्पर सर्पराज सो लिखत अबिचल पावनी॥2॥

भावार्थ

उदार (परम श्रेष्ठ एवं महान्‌) सर्पराज शेषजी भी सेना का बोझ नहीं सह सकते, वे बार-बार मोहित हो जाते (घबडा जाते) हैं और पुनः-पुनः कच्छप की कठोर पीठ को दाँतों से पकडते हैं। ऐसा करते (अर्थात्‌ बार-बार दाँतों को गडाकर कच्छप की पीठ पर लकीर सी खीञ्चते हुए) वे कैसे शोभा दे रहे हैं मानो श्री रामचन्द्रजी की सुन्दर प्रस्थान यात्रा को परम सुहावनी जानकर उसकी अचल पवित्र कथा को सर्पराज शेषजी कच्छप की पीठ पर लिख रहे हों॥2॥

35

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

एहि बिधि जाइ कृपानिधि उतरे सागर तीर।
जहँ तहँ लागे खान फल भालु बिपुल कपि बीर॥35॥

मूल

एहि बिधि जाइ कृपानिधि उतरे सागर तीर।
जहँ तहँ लागे खान फल भालु बिपुल कपि बीर॥35॥

भावार्थ

इस प्रकार कृपानिधान श्री रामजी समुद्र तट पर जा उतरे। अनेकों रीछ-वानर वीर जहाँ-तहाँ फल खाने लगे॥35॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

उहाँ निसाचर रहहिं ससङ्का। जब तें जारि गयउ कपि लङ्का॥
निज निज गृहँ सब करहिं बिचारा। नहिं निसिचर कुल केर उबारा॥1॥

मूल

उहाँ निसाचर रहहिं ससङ्का। जब तें जारि गयउ कपि लङ्का॥
निज निज गृहँ सब करहिं बिचारा। नहिं निसिचर कुल केर उबारा॥1॥

भावार्थ

वहाँ (लङ्का में) जब से हनुमान्‌जी लङ्का को जलाकर गए, तब से राक्षस भयभीत रहने लगे। अपने-अपने घरों में सब विचार करते हैं कि अब राक्षस कुल की रक्षा (का कोई उपाय) नहीं है॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

जासु दूत बल बरनि न जाई। तेहि आएँ पुर कवन भलाई॥
दूतिन्ह सन सुनि पुरजन बानी। मन्दोदरी अधिक अकुलानी॥2॥

मूल

जासु दूत बल बरनि न जाई। तेहि आएँ पुर कवन भलाई॥
दूतिन्ह सन सुनि पुरजन बानी। मन्दोदरी अधिक अकुलानी॥2॥

भावार्थ

जिसके दूत का बल वर्णन नहीं किया जा सकता, उसके स्वयं नगर में आने पर कौन भलाई है (हम लोगों की बडी बुरी दशा होगी)? दूतियों से नगरवासियों के वचन सुनकर मन्दोदरी बहुत ही व्याकुल हो गई॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

रहसि जोरि कर पति पग लागी। बोली बचन नीति रस पागी॥
कन्त करष हरि सन परिहरहू। मोर कहा अति हित हियँ धरहू॥3॥

मूल

रहसि जोरि कर पति पग लागी। बोली बचन नीति रस पागी॥
कन्त करष हरि सन परिहरहू। मोर कहा अति हित हियँ धरहू॥3॥

भावार्थ

वह एकान्त में हाथ जोडकर पति (रावण) के चरणों लगी और नीतिरस में पगी हुई वाणी बोली- हे प्रियतम! श्री हरि से विरोध छोड दीजिए। मेरे कहने को अत्यन्त ही हितकर जानकर हृदय में धारण कीजिए॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

समुझत जासु दूत कइ करनी। स्रवहिं गर्भ रजनीचर घरनी॥
तासु नारि निज सचिव बोलाई। पठवहु कन्त जो चहहु भलाई॥4॥

मूल

समुझत जासु दूत कइ करनी। स्रवहिं गर्भ रजनीचर घरनी॥
तासु नारि निज सचिव बोलाई। पठवहु कन्त जो चहहु भलाई॥4॥

भावार्थ

जिनके दूत की करनी का विचार करते ही (स्मरण आते ही) राक्षसों की स्त्रियों के गर्भ गिर जाते हैं, हे प्यारे स्वामी! यदि भला चाहते हैं, तो अपने मन्त्री को बुलाकर उसके साथ उनकी स्त्री को भेज दीजिए॥4॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

तव कुल कमल बिपिन दुखदाई। सीता सीत निसा सम आई॥
सुनहु नाथ सीता बिनु दीन्हें। हित न तुम्हार सम्भु अज कीन्हें॥5॥

मूल

तव कुल कमल बिपिन दुखदाई। सीता सीत निसा सम आई॥
सुनहु नाथ सीता बिनु दीन्हें। हित न तुम्हार सम्भु अज कीन्हें॥5॥

भावार्थ

सीता आपके कुल रूपी कमलों के वन को दुःख देने वाली जाडे की रात्रि के समान आई है। हे नाथ। सुनिए, सीता को दिए (लौटाए) बिना शम्भु और ब्रह्मा के किए भी आपका भला नहीं हो सकता॥5॥

36

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

राम बान अहि गन सरिस निकर निसाचर भेक।
जब लगि ग्रसत न तब लगि जतनु करहु तजि टेक॥36॥

मूल

राम बान अहि गन सरिस निकर निसाचर भेक।
जब लगि ग्रसत न तब लगि जतनु करहु तजि टेक॥36॥

भावार्थ

श्री रामजी के बाण सर्पों के समूह के समान हैं और राक्षसों के समूह मेण्ढक के समान। जब तक वे इन्हें ग्रस नहीं लेते (निगल नहीं जाते) तब तक हठ छोडकर उपाय कर लीजिए॥36॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रवन सुनी सठ ता करि बानी। बिहसा जगत बिदित अभिमानी॥
सभय सुभाउ नारि कर साचा। मङ्गल महुँ भय मन अति काचा॥1॥

मूल

श्रवन सुनी सठ ता करि बानी। बिहसा जगत बिदित अभिमानी॥
सभय सुभाउ नारि कर साचा। मङ्गल महुँ भय मन अति काचा॥1॥

भावार्थ

मूर्ख और जगत प्रसिद्ध अभिमानी रावण कानों से उसकी वाणी सुनकर खूब हँसा (और बोला-) स्त्रियों का स्वभाव सचमुच ही बहुत डरपोक होता है। मङ्गल में भी भय करती हो। तुम्हारा मन (हृदय) बहुत ही कच्चा (कमजोर) है॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

जौं आवइ मर्कट कटकाई। जिअहिं बिचारे निसिचर खाई॥
कम्पहिं लोकप जाकीं त्रासा। तासु नारि सभीत बडि हासा॥2॥

मूल

जौं आवइ मर्कट कटकाई। जिअहिं बिचारे निसिचर खाई॥
कम्पहिं लोकप जाकीं त्रासा। तासु नारि सभीत बडि हासा॥2॥

भावार्थ

यदि वानरों की सेना आवेगी तो बेचारे राक्षस उसे खाकर अपना जीवन निर्वाह करेङ्गे। लोकपाल भी जिसके डर से काँपते हैं, उसकी स्त्री डरती हो, यह बडी हँसी की बात है॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

अस कहि बिहसि ताहि उर लाई। चलेउ सभाँ ममता अधिकाई॥
फमन्दोदरी हृदयँ कर चिन्ता। भयउ कन्त पर बिधि बिपरीता॥3॥

मूल

अस कहि बिहसि ताहि उर लाई। चलेउ सभाँ ममता अधिकाई॥
फमन्दोदरी हृदयँ कर चिन्ता। भयउ कन्त पर बिधि बिपरीता॥3॥

भावार्थ

रावण ने ऐसा कहकर हँसकर उसे हृदय से लगा लिया और ममता बढाकर (अधिक स्नेह दर्शाकर) वह सभा में चला गया। मन्दोदरी हृदय में चिन्ता करने लगी कि पति पर विधाता प्रतिकूल हो गए॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

बैठेउ सभाँ खबरि असि पाई। सिन्धु पार सेना सब आई॥
बूझेसि सचिव उचित मत कहहू। ते सब हँसे मष्ट करि रहहू॥4॥

मूल

बैठेउ सभाँ खबरि असि पाई। सिन्धु पार सेना सब आई॥
बूझेसि सचिव उचित मत कहहू। ते सब हँसे मष्ट करि रहहू॥4॥

भावार्थ

ज्यों ही वह सभा में जाकर बैठा, उसने ऐसी खबर पाई कि शत्रु की सारी सेना समुद्र के उस पार आ गई है, उसने मन्त्रियों से पूछा कि उचित सलाह कहिए (अब क्या करना चाहिए?)। तब वे सब हँसे और बोले कि चुप किए रहिए (इसमें सलाह की कौन सी बात है?)॥4॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

जितेहु सुरासुर तब श्रम नाहीं। नर बानर केहि लेखे माहीं॥5॥

मूल

जितेहु सुरासुर तब श्रम नाहीं। नर बानर केहि लेखे माहीं॥5॥

भावार्थ

आपने देवताओं और राक्षसों को जीत लिया, तब तो कुछ श्रम ही नहीं हुआ। फिर मनुष्य और वानर किस गिनती में हैं?॥5॥

37

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

सचिव बैद गुर तीनि जौं प्रिय बोलहिं भय आस
राज धर्म तन तीनि कर होइ बेगिहीं नास॥37॥

मूल

सचिव बैद गुर तीनि जौं प्रिय बोलहिं भय आस
राज धर्म तन तीनि कर होइ बेगिहीं नास॥37॥

भावार्थ

मन्त्री, वैद्य और गुरु- ये तीन यदि (अप्रसन्नता के) भय या (लाभ की) आशा से (हित की बात न कहकर) प्रिय बोलते हैं (ठकुर सुहाती कहने लगते हैं), तो (क्रमशः) राज्य, शरीर और धर्म- इन तीन का शीघ्र ही नाश हो जाता है॥37॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

सोइ रावन कहुँ बनी सहाई। अस्तुति करहिं सुनाइ सुनाई॥
अवसर जानि बिभीषनु आवा। भ्राता चरन सीसु तेहिं नावा॥1॥

मूल

सोइ रावन कहुँ बनी सहाई। अस्तुति करहिं सुनाइ सुनाई॥
अवसर जानि बिभीषनु आवा। भ्राता चरन सीसु तेहिं नावा॥1॥

भावार्थ

रावण के लिए भी वही सहायता (संयोग) आ बनी है। मन्त्री उसे सुना-सुनाकर (मुँह पर) स्तुति करते हैं। (इसी समय) अवसर जानकर विभीषणजी आए। उन्होन्ने बडे भाई के चरणों में सिर नवाया॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

पुनि सिरु नाइ बैठ निज आसन। बोला बचन पाइ अनुसासन॥
जौ कृपाल पूँछिहु मोहि बाता। मति अनुरूप कहउँ हित ताता॥2॥

मूल

पुनि सिरु नाइ बैठ निज आसन। बोला बचन पाइ अनुसासन॥
जौ कृपाल पूँछिहु मोहि बाता। मति अनुरूप कहउँ हित ताता॥2॥

भावार्थ

फिर से सिर नवाकर अपने आसन पर बैठ गए और आज्ञा पाकर ये वचन बोले- हे कृपाल जब आपने मुझसे बात (राय) पूछी ही है, तो हे तात! मैं अपनी बुद्धि के अनुसार आपके हित की बात कहता हूँ-॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

जो आपन चाहै कल्याना। सुजसु सुमति सुभ गति सुख नाना॥
सो परनारि लिलार गोसाईं। तजउ चउथि के चन्द कि नाईं॥3॥

मूल

जो आपन चाहै कल्याना। सुजसु सुमति सुभ गति सुख नाना॥
सो परनारि लिलार गोसाईं। तजउ चउथि के चन्द कि नाईं॥3॥

भावार्थ

जो मनुष्य अपना कल्याण, सुन्दर यश, सुबुद्धि, शुभ गति और नाना प्रकार के सुख चाहता हो, वह हे स्वामी! परस्त्री के ललाट को चौथ के चन्द्रमा की तरह त्याग दे (अर्थात्‌ जैसे लोग चौथ के चन्द्रमा को नहीं देखते, उसी प्रकार परस्त्री का मुख ही न देखे)॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

चौदह भुवन एक पति होई। भूत द्रोह तिष्टइ नहिं सोई॥
गुन सागर नागर नर जोऊ। अलप लोभ भल कहइ न कोऊ॥4॥

मूल

चौदह भुवन एक पति होई। भूत द्रोह तिष्टइ नहिं सोई॥
गुन सागर नागर नर जोऊ। अलप लोभ भल कहइ न कोऊ॥4॥

भावार्थ

चौदहों भुवनों का एक ही स्वामी हो, वह भी जीवों से वैर करके ठहर नहीं सकता (नष्ट हो जाता है) जो मनुष्य गुणों का समुद्र और चतुर हो, उसे चाहे थोडा भी लोभ क्यों न हो, तो भी कोई भला नहीं कहता॥4॥

38

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

काम क्रोध मद लोभ सब नाथ नरक के पन्थ।
सब परिहरि रघुबीरहि भजहु भजहिं जेहि सन्त॥38॥

मूल

काम क्रोध मद लोभ सब नाथ नरक के पन्थ।
सब परिहरि रघुबीरहि भजहु भजहिं जेहि सन्त॥38॥

भावार्थ

हे नाथ! काम, क्रोध, मद और लोभ- ये सब नरक के रास्ते हैं, इन सबको छोडकर श्री रामचन्द्रजी को भजिए, जिन्हें सन्त (सत्पुरुष) भजते हैं॥38॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

तात राम नहिं नर भूपाला। भुवनेस्वर कालहु कर काला॥
ब्रह्म अनामय अज भगवन्ता। ब्यापक अजित अनादि अनन्ता॥1॥

मूल

तात राम नहिं नर भूपाला। भुवनेस्वर कालहु कर काला॥
ब्रह्म अनामय अज भगवन्ता। ब्यापक अजित अनादि अनन्ता॥1॥

भावार्थ

हे तात! राम मनुष्यों के ही राजा नहीं हैं। वे समस्त लोकों के स्वामी और काल के भी काल हैं। वे (सम्पूर्ण ऐश्वर्य, यश, श्री, धर्म, वैराग्य एवं ज्ञान के भण्डार) भगवान्‌ हैं, वे निरामय (विकाररहित), अजन्मे, व्यापक, अजेय, अनादि और अनन्त ब्रह्म हैं॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः
विश्वास-प्रस्तुतिः

गो द्विज धेनु देव हितकारी। कृपा सिन्धु मानुष तनुधारी॥
जन रञ्जन भञ्जन खल ब्राता। बेद धर्म रच्छक सुनु भ्राता॥2॥

मूल

गो द्विज धेनु देव हितकारी। कृपा सिन्धु मानुष तनुधारी॥
जन रञ्जन भञ्जन खल ब्राता। बेद धर्म रच्छक सुनु भ्राता॥2॥

भावार्थ

उन कृपा के समुद्र भगवान्‌ ने पृथ्वी, ब्राह्मण, गो और देवताओं का हित करने के लिए ही मनुष्य शरीर धारण किया है। हे भाई! सुनिए, वे सेवकों को आनन्द देने वाले, दुष्टों के समूह का नाश करने वाले और वेद तथा धर्म की रक्षा करने वाले हैं॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ताहि बयरु तजि नाइअ माथा। प्रनतारति भञ्जन रघुनाथा॥
देहु नाथ प्रभु कहुँ बैदेही। भजहु राम बिनु हेतु सनेही॥3॥

मूल

ताहि बयरु तजि नाइअ माथा। प्रनतारति भञ्जन रघुनाथा॥
देहु नाथ प्रभु कहुँ बैदेही। भजहु राम बिनु हेतु सनेही॥3॥

भावार्थ

वैर त्यागकर उन्हें मस्तक नवाइए। वे श्री रघुनाथजी शरणागत का दुःख नाश करने वाले हैं। हे नाथ! उन प्रभु (सर्वेश्वर) को जानकीजी दे दीजिए और बिना ही कारण स्नेह करने वाले श्री रामजी को भजिए॥3॥

03 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

सरन गएँ प्रभु ताहु न त्यागा। बिस्व द्रोह कृत अघ जेहि लागा॥
जासु नाम त्रय ताप नसावन। सोइ प्रभु प्रगट समुझु जियँ रावन॥4॥

मूल

सरन गएँ प्रभु ताहु न त्यागा। बिस्व द्रोह कृत अघ जेहि लागा॥
जासु नाम त्रय ताप नसावन। सोइ प्रभु प्रगट समुझु जियँ रावन॥4॥

भावार्थ

जिसे सम्पूर्ण जगत्‌ से द्रोह करने का पाप लगा है, शरण जाने पर प्रभु उसका भी त्याग नहीं करते। जिनका नाम तीनों तापों का नाश करने वाला है, वे ही प्रभु (भगवान्‌) मनुष्य रूप में प्रकट हुए हैं। हे रावण! हृदय में यह समझ लीजिए॥4॥

39

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

बार बार पद लागउँ बिनय करउँ दससीस।
परिहरि मान मोह मद भजहु कोसलाधीस॥1॥

मूल

बार बार पद लागउँ बिनय करउँ दससीस।
परिहरि मान मोह मद भजहु कोसलाधीस॥1॥

भावार्थ

हे दशशीश! मैं बार-बार आपके चरणों लगता हूँ और विनती करता हूँ कि मान, मोह और मद को त्यागकर आप कोसलपति श्री रामजी का भजन कीजिए॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मुनि पुलस्ति निज सिष्य सन कहि पठई यह बात।
तुरत सो मैं प्रभु सन कही पाइ सुअवसरु तात॥2॥

मूल

मुनि पुलस्ति निज सिष्य सन कहि पठई यह बात।
तुरत सो मैं प्रभु सन कही पाइ सुअवसरु तात॥2॥

भावार्थ

मुनि पुलस्त्यजी ने अपने शिष्य के हाथ यह बात कहला भेजी है। हे तात! सुन्दर अवसर पाकर मैन्ने तुरन्त ही वह बात प्रभु (आप) से कह दी॥2॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

माल्यवन्त अति सचिव सयाना। तासु बचन सुनि अति सुख माना॥
तात अनुज तव नीति बिभूषन। सो उर धरहु जो कहत बिभीषन॥1॥

मूल

माल्यवन्त अति सचिव सयाना। तासु बचन सुनि अति सुख माना॥
तात अनुज तव नीति बिभूषन। सो उर धरहु जो कहत बिभीषन॥1॥

भावार्थ

माल्यवान्‌ नाम का एक बहुत ही बुद्धिमान मन्त्री था। उसने उन (विभीषण) के वचन सुनकर बहुत सुख माना (और कहा-) हे तात! आपके छोटे भाई नीति विभूषण (नीति को भूषण रूप में धारण करने वाले अर्थात्‌ नीतिमान्‌) हैं। विभीषण जो कुछ कह रहे हैं उसे हृदय में धारण कर लीजिए॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रिपु उतकरष कहत सठ दोऊ। दूरि न करहु इहाँ हइ कोऊ॥
माल्यवन्त गह गयउ बहोरी। कहइ बिभीषनु पुनि कर जोरी॥2॥

मूल

रिपु उतकरष कहत सठ दोऊ। दूरि न करहु इहाँ हइ कोऊ॥
माल्यवन्त गह गयउ बहोरी। कहइ बिभीषनु पुनि कर जोरी॥2॥

भावार्थ

(रावन ने कहा-) ये दोनों मूर्ख शत्रु की महिमा बखान रहे हैं। यहाँ कोई है? इन्हें दूर करो न! तब माल्यवान्‌ तो घर लौट गया और विभीषणजी हाथ जोडकर फिर कहने लगे-॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुमति कुमति सब कें उर रहहीं। नाथ पुरान निगम अस कहहीं॥
जहाँ सुमति तहँ सम्पति नाना। जहाँ कुमति तहँ बिपति निदाना॥3॥

मूल

सुमति कुमति सब कें उर रहहीं। नाथ पुरान निगम अस कहहीं॥
जहाँ सुमति तहँ सम्पति नाना। जहाँ कुमति तहँ बिपति निदाना॥3॥

भावार्थ

हे नाथ! पुराण और वेद ऐसा कहते हैं कि सुबुद्धि (अच्छी बुद्धि) और कुबुद्धि (खोटी बुद्धि) सबके हृदय में रहती है, जहाँ सुबुद्धि है, वहाँ नाना प्रकार की सम्पदाएँ (सुख की स्थिति) रहती हैं और जहाँ कुबुद्धि है वहाँ परिणाम में विपत्ति (दुःख) रहती है॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तव उर कुमति बसी बिपरीता। हित अनहित मानहु रिपु प्रीता॥
कालराति निसिचर कुल केरी। तेहि सीता पर प्रीति घनेरी॥4॥

मूल

तव उर कुमति बसी बिपरीता। हित अनहित मानहु रिपु प्रीता॥
कालराति निसिचर कुल केरी। तेहि सीता पर प्रीति घनेरी॥4॥

भावार्थ

आपके हृदय में उलटी बुद्धि आ बसी है। इसी से आप हित को अहित और शत्रु को मित्र मान रहे हैं। जो राक्षस कुल के लिए कालरात्रि (के समान) हैं, उन सीता पर आपकी बडी प्रीति है॥4॥

40

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

तात चरन गहि मागउँ राखहु मोर दुलार।
सीता देहु राम कहुँ अहित न होइ तुम्हारा॥40॥

मूल

तात चरन गहि मागउँ राखहु मोर दुलार।
सीता देहु राम कहुँ अहित न होइ तुम्हारा॥40॥

भावार्थ

हे तात! मैं चरण पकडकर आपसे भीख माँगता हूँ (विनती करता हूँ)। कि आप मेरा दुलार रखिए (मुझ बालक के आग्रह को स्नेहपूर्वक स्वीकार कीजिए) श्री रामजी को सीताजी दे दीजिए, जिसमें आपका अहित न हो॥40॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

बुध पुरान श्रुति सम्मत बानी। कही बिभीषन नीति बखानी॥
सुनत दसानन उठा रिसाई। खल तोहिं निकट मृत्यु अब आई॥1॥

मूल

बुध पुरान श्रुति सम्मत बानी। कही बिभीषन नीति बखानी॥
सुनत दसानन उठा रिसाई। खल तोहिं निकट मृत्यु अब आई॥1॥

भावार्थ

विभीषण ने पण्डितों, पुराणों और वेदों द्वारा सम्मत (अनुमोदित) वाणी से नीति बखानकर कही। पर उसे सुनते ही रावण क्रोधित होकर उठा और बोला कि रे दुष्ट! अब मृत्यु तेरे निकट आ गई है!॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिअसि सदा सठ मोर जिआवा। रिपु कर पच्छ मूढ तोहि भावा॥
कहसि न खल अस को जग माहीं। भुज बल जाहि जिता मैं नाहीं॥2॥

मूल

जिअसि सदा सठ मोर जिआवा। रिपु कर पच्छ मूढ तोहि भावा॥
कहसि न खल अस को जग माहीं। भुज बल जाहि जिता मैं नाहीं॥2॥

भावार्थ

अरे मूर्ख! तू जीता तो है सदा मेरा जिलाया हुआ (अर्थात्‌ मेरे ही अन्न से पल रहा है), पर हे मूढ! पक्ष तुझे शत्रु का ही अच्छा लगता है। अरे दुष्ट! बता न, जगत्‌ में ऐसा कौन है जिसे मैन्ने अपनी भुजाओं के बल से न जीता हो?॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मम पुर बसि तपसिन्ह पर प्रीती। सठ मिलु जाइ तिन्हहि कहु नीती॥
अस कहि कीन्हेसि चरन प्रहारा। अनुज गहे पद बारहिं बारा॥3॥

मूल

मम पुर बसि तपसिन्ह पर प्रीती। सठ मिलु जाइ तिन्हहि कहु नीती॥
अस कहि कीन्हेसि चरन प्रहारा। अनुज गहे पद बारहिं बारा॥3॥

भावार्थ

मेरे नगर में रहकर प्रेम करता है तपस्वियों पर। मूर्ख! उन्हीं से जा मिल और उन्हीं को नीति बता। ऐसा कहकर रावण ने उन्हें लात मारी, परन्तु छोटे भाई विभीषण ने (मारने पर भी) बार-बार उसके चरण ही पकडे॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उमा सन्त कइ इहइ बडाई। मन्द करत जो करइ भलाई॥
तुम्ह पितु सरिस भलेहिं मोहि मारा। रामु भजें हित नाथ तुम्हारा॥4॥

मूल

उमा सन्त कइ इहइ बडाई। मन्द करत जो करइ भलाई॥
तुम्ह पितु सरिस भलेहिं मोहि मारा। रामु भजें हित नाथ तुम्हारा॥4॥

भावार्थ

(शिवजी कहते हैं-) हे उमा! सन्त की यही बडाई (महिमा) है कि वे बुराई करने पर भी (बुराई करने वाले की) भलाई ही करते हैं। (विभीषणजी ने कहा-) आप मेरे पिता के समान हैं, मुझे मारा सो तो अच्छा ही किया, परन्तु हे नाथ! आपका भला श्री रामजी को भजने में ही है॥4॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सचिव सङ्ग लै नभ पथ गयऊ। सबहि सुनाइ कहत अस भयऊ॥5॥

मूल

सचिव सङ्ग लै नभ पथ गयऊ। सबहि सुनाइ कहत अस भयऊ॥5॥

भावार्थ

(इतना कहकर) विभीषण अपने मन्त्रियों को साथ लेकर आकाश मार्ग में गए और सबको सुनाकर वे ऐसा कहने लगे-॥5॥

41

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

रामु सत्यसङ्कल्प प्रभु सभा कालबस तोरि।
मैं रघुबीर सरन अब जाउँ देहु जनि खोरि॥41॥

मूल

रामु सत्यसङ्कल्प प्रभु सभा कालबस तोरि।
मैं रघुबीर सरन अब जाउँ देहु जनि खोरि॥41॥

भावार्थ

श्री रामजी सत्य सङ्कल्प एवं (सर्वसमर्थ) प्रभु हैं और (हे रावण) तुम्हारी सभा काल के वश है। अतः मैं अब श्री रघुवीर की शरण जाता हूँ, मुझे दोष न देना॥41॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस कहि चला बिभीषनु जबहीं। आयू हीन भए सब तबहीं॥
साधु अवग्या तुरत भवानी। कर कल्यान अखिल कै हानी॥1॥

मूल

अस कहि चला बिभीषनु जबहीं। आयू हीन भए सब तबहीं॥
साधु अवग्या तुरत भवानी। कर कल्यान अखिल कै हानी॥1॥

भावार्थ

ऐसा कहकर विभीषणजी ज्यों ही चले, त्यों ही सब राक्षस आयुहीन हो गए। (उनकी मृत्यु निश्चित हो गई)। (शिवजी कहते हैं-) हे भवानी! साधु का अपमान तुरन्त ही सम्पूर्ण कल्याण की हानि (नाश) कर देता है॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रावन जबहिं बिभीषन त्यागा। भयउ बिभव बिनु तबहिं अभागा॥
चलेउ हरषि रघुनायक पाहीं। करत मनोरथ बहु मन माहीं॥2॥

मूल

रावन जबहिं बिभीषन त्यागा। भयउ बिभव बिनु तबहिं अभागा॥
चलेउ हरषि रघुनायक पाहीं। करत मनोरथ बहु मन माहीं॥2॥

भावार्थ

रावण ने जिस क्षण विभीषण को त्यागा, उसी क्षण वह अभागा वैभव (ऐश्वर्य) से हीन हो गया। विभीषणजी हर्षित होकर मन में अनेकों मनोरथ करते हुए श्री रघुनाथजी के पास चले॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

देखिहउँ जाइ चरन जलजाता। अरुन मृदुल सेवक सुखदाता॥
जे पद परसि तरी रिषनारी। दण्डक कानन पावनकारी॥3॥

मूल

देखिहउँ जाइ चरन जलजाता। अरुन मृदुल सेवक सुखदाता॥
जे पद परसि तरी रिषनारी। दण्डक कानन पावनकारी॥3॥

भावार्थ

(वे सोचते जाते थे-) मैं जाकर भगवान्‌ के कोमल और लाल वर्ण के सुन्दर चरण कमलों के दर्शन करूँगा, जो सेवकों को सुख देने वाले हैं, जिन चरणों का स्पर्श पाकर ऋषि पत्नी अहल्या तर गईं और जो दण्डकवन को पवित्र करने वाले हैं॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जे पद जनकसुताँ उर लाए। कपट कुरङ्ग सङ्ग धर धाए॥
हर उर सर सरोज पद जेई। अहोभाग्य मैं देखिहउँ तेई॥4॥

मूल

जे पद जनकसुताँ उर लाए। कपट कुरङ्ग सङ्ग धर धाए॥
हर उर सर सरोज पद जेई। अहोभाग्य मैं देखिहउँ तेई॥4॥

भावार्थ

जिन चरणों को जानकीजी ने हृदय में धारण कर रखा है, जो कपटमृग के साथ पृथ्वी पर (उसे पकडने को) दौडे थे और जो चरणकमल साक्षात्‌ शिवजी के हृदय रूपी सरोवर में विराजते हैं, मेरा अहोभाग्य है कि उन्हीं को आज मैं देखूँगा॥4॥

42

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिन्ह पायन्ह के पादुकन्हि भरतु रहे मन लाइ।
ते पद आजु बिलोकिहउँ इन्ह नयनन्हि अब जाइ॥42॥

मूल

जिन्ह पायन्ह के पादुकन्हि भरतु रहे मन लाइ।
ते पद आजु बिलोकिहउँ इन्ह नयनन्हि अब जाइ॥42॥

भावार्थ

जिन चरणों की पादुकाओं में भरतजी ने अपना मन लगा रखा है, अहा! आज मैं उन्हीं चरणों को अभी जाकर इन नेत्रों से देखूँगा॥42॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऐहि बिधि करत सप्रेम बिचारा। आयउ सपदि सिन्दु एहिं पारा॥
कपिन्ह बिभीषनु आवत देखा। जाना कोउ रिपु दूत बिसेषा॥1॥

मूल

ऐहि बिधि करत सप्रेम बिचारा। आयउ सपदि सिन्दु एहिं पारा॥
कपिन्ह बिभीषनु आवत देखा। जाना कोउ रिपु दूत बिसेषा॥1॥

भावार्थ

इस प्रकार प्रेमसहित विचार करते हुए वे शीघ्र ही समुद्र के इस पार (जिधर श्री रामचन्द्रजी की सेना थी) आ गए। वानरों ने विभीषण को आते देखा तो उन्होन्ने जाना कि शत्रु का कोई खास दूत है॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ताहि राखि कपीस पहिं आए। समाचार सब ताहि सुनाए॥
कह सुग्रीव सुनहु रघुराई। आवा मिलन दसानन भाई॥2॥

मूल

ताहि राखि कपीस पहिं आए। समाचार सब ताहि सुनाए॥
कह सुग्रीव सुनहु रघुराई। आवा मिलन दसानन भाई॥2॥

भावार्थ

उन्हें (पहरे पर) ठहराकर वे सुग्रीव के पास आए और उनको सब समाचार कह सुनाए। सुग्रीव ने (श्री रामजी के पास जाकर) कहा- हे रघुनाथजी! सुनिए, रावण का भाई (आप से) मिलने आया है॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कह प्रभु सखा बूझिए काहा। कहइ कपीस सुनहु नरनाहा॥
जानि न जाइ निसाचर माया। कामरूप केहि कारन आया॥3॥

मूल

कह प्रभु सखा बूझिए काहा। कहइ कपीस सुनहु नरनाहा॥
जानि न जाइ निसाचर माया। कामरूप केहि कारन आया॥3॥

भावार्थ

प्रभु श्री रामजी ने कहा- हे मित्र! तुम क्या समझते हो (तुम्हारी क्या राय है)? वानरराज सुग्रीव ने कहा- हे महाराज! सुनिए, राक्षसों की माया जानी नहीं जाती। यह इच्छानुसार रूप बदलने वाला (छली) न जाने किस कारण आया है॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भेद हमार लेन सठ आवा। राखिअ बाँधि मोहि अस भावा॥
सखा नीति तुम्ह नीकि बिचारी। मम पन सरनागत भयहारी॥4॥

मूल

भेद हमार लेन सठ आवा। राखिअ बाँधि मोहि अस भावा॥
सखा नीति तुम्ह नीकि बिचारी। मम पन सरनागत भयहारी॥4॥

भावार्थ

(जान पडता है) यह मूर्ख हमारा भेद लेने आया है, इसलिए मुझे तो यही अच्छा लगता है कि इसे बाँध रखा जाए। (श्री रामजी ने कहा-) हे मित्र! तुमने नीति तो अच्छी विचारी, परन्तु मेरा प्रण तो है शरणागत के भय को हर लेना!॥4॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुनि प्रभु बचन हरष हनुमाना। सरनागत बच्छल भगवाना॥5॥

मूल

सुनि प्रभु बचन हरष हनुमाना। सरनागत बच्छल भगवाना॥5॥

भावार्थ

प्रभु के वचन सुनकर हनुमान्‌जी हर्षित हुए (और मन ही मन कहने लगे कि) भगवान्‌ कैसे शरणागतवत्सल (शरण में आए हुए पर पिता की भाँति प्रेम करने वाले) हैं॥5॥

43

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

सरनागत कहुँ जे तजहिं निज अनहित अनुमानि।
ते नर पावँर पापमय तिन्हहि बिलोकत हानि॥43॥

मूल

सरनागत कहुँ जे तजहिं निज अनहित अनुमानि।
ते नर पावँर पापमय तिन्हहि बिलोकत हानि॥43॥

भावार्थ

(श्री रामजी फिर बोले-) जो मनुष्य अपने अहित का अनुमान करके शरण में आए हुए का त्याग कर देते हैं, वे पामर (क्षुद्र) हैं, पापमय हैं, उन्हें देखने में भी हानि है (पाप लगता है)॥43॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

कोटि बिप्र बध लागहिं जाहू। आएँ सरन तजउँ नहिं ताहू॥
सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं। जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं॥1॥

मूल

कोटि बिप्र बध लागहिं जाहू। आएँ सरन तजउँ नहिं ताहू॥
सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं। जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं॥1॥

भावार्थ

जिसे करोडों ब्राह्मणों की हत्या लगी हो, शरण में आने पर मैं उसे भी नहीं त्यागता। जीव ज्यों ही मेरे सम्मुख होता है, त्यों ही उसके करोडों जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पापवन्त कर सहज सुभाऊ। भजनु मोर तेहि भाव न काऊ॥
जौं पै दुष्ट हृदय सोइ होई। मोरें सनमुख आव कि सोई॥2॥

मूल

पापवन्त कर सहज सुभाऊ। भजनु मोर तेहि भाव न काऊ॥
जौं पै दुष्ट हृदय सोइ होई। मोरें सनमुख आव कि सोई॥2॥

भावार्थ

पापी का यह सहज स्वभाव होता है कि मेरा भजन उसे कभी नहीं सुहाता। यदि वह (रावण का भाई) निश्चय ही दुष्ट हृदय का होता तो क्या वह मेरे सम्मुख आ सकता था?॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निर्मल मन जन सो मोहि पावा। मोहि कपट छल छिद्र न भावा॥
भेद लेन पठवा दससीसा। तबहुँ न कछु भय हानि कपीसा॥3॥

मूल

निर्मल मन जन सो मोहि पावा। मोहि कपट छल छिद्र न भावा॥
भेद लेन पठवा दससीसा। तबहुँ न कछु भय हानि कपीसा॥3॥

भावार्थ

जो मनुष्य निर्मल मन का होता है, वही मुझे पाता है। मुझे कपट और छल-छिद्र नहीं सुहाते। यदि उसे रावण ने भेद लेने को भेजा है, तब भी हे सुग्रीव! अपने को कुछ भी भय या हानि नहीं है॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जग महुँ सखा निसाचर जेते। लछिमनु हनइ निमिष महुँ तेते॥
जौं सभीत आवा सरनाईं। रखिहउँ ताहि प्रान की नाईं॥4॥

मूल

जग महुँ सखा निसाचर जेते। लछिमनु हनइ निमिष महुँ तेते॥
जौं सभीत आवा सरनाईं। रखिहउँ ताहि प्रान की नाईं॥4॥

भावार्थ

क्योङ्कि हे सखे! जगत में जितने भी राक्षस हैं, लक्ष्मण क्षणभर में उन सबको मार सकते हैं और यदि वह भयभीत होकर मेरी शरण आया है तो मैं तो उसे प्राणों की तरह रखूँगा॥4॥

44

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

उभय भाँति तेहि आनहु हँसि कह कृपानिकेत।
जय कृपाल कहि कपि चले अङ्गद हनू समेत॥44॥

मूल

उभय भाँति तेहि आनहु हँसि कह कृपानिकेत।
जय कृपाल कहि कपि चले अङ्गद हनू समेत॥44॥

भावार्थ

कृपा के धाम श्री रामजी ने हँसकर कहा- दोनों ही स्थितियों में उसे ले आओ। तब अङ्गद और हनुमान्‌ सहित सुग्रीवजी ‘कपालु श्री रामजी की जय हो’ कहते हुए चले॥4॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

सादर तेहि आगें करि बानर। चले जहाँ रघुपति करुनाकर॥
दूरिहि ते देखे द्वौ भ्राता। नयनानन्द दान के दाता॥1॥

मूल

सादर तेहि आगें करि बानर। चले जहाँ रघुपति करुनाकर॥
दूरिहि ते देखे द्वौ भ्राता। नयनानन्द दान के दाता॥1॥

भावार्थ

विभीषणजी को आदर सहित आगे करके वानर फिर वहाँ चले, जहाँ करुणा की खान श्री रघुनाथजी थे। नेत्रों को आनन्द का दान देने वाले (अत्यन्त सुखद) दोनों भाइयों को विभीषणजी ने दूर ही से देखा॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बहुरि राम छबिधाम बिलोकी। रहेउ ठटुकि एकटक पल रोकी॥
भुज प्रलम्ब कञ्जारुन लोचन। स्यामल गात प्रनत भय मोचन॥2॥

मूल

बहुरि राम छबिधाम बिलोकी। रहेउ ठटुकि एकटक पल रोकी॥
भुज प्रलम्ब कञ्जारुन लोचन। स्यामल गात प्रनत भय मोचन॥2॥

भावार्थ

फिर शोभा के धाम श्री रामजी को देखकर वे पलक (मारना) रोककर ठिठककर (स्तब्ध होकर) एकटक देखते ही रह गए। भगवान्‌ की विशाल भुजाएँ हैं लाल कमल के समान नेत्र हैं और शरणागत के भय का नाश करने वाला साँवला शरीर है॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सघ कन्ध आयत उर सोहा। आनन अमित मदन मन मोहा॥
नयन नीर पुलकित अति गाता। मन धरि धीर कही मृदु बाता॥3॥

मूल

सघ कन्ध आयत उर सोहा। आनन अमित मदन मन मोहा॥
नयन नीर पुलकित अति गाता। मन धरि धीर कही मृदु बाता॥3॥

भावार्थ

सिंह के से कन्धे हैं, विशाल वक्षःस्थल (चौडी छाती) अत्यन्त शोभा दे रहा है। असङ्ख्य कामदेवों के मन को मोहित करने वाला मुख है। भगवान्‌ के स्वरूप को देखकर विभीषणजी के नेत्रों में (प्रेमाश्रुओं का) जल भर आया और शरीर अत्यन्त पुलकित हो गया। फिर मन में धीरज धरकर उन्होन्ने कोमल वचन कहे॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाथ दसानन कर मैं भ्राता। निसिचर बंस जनम सुरत्राता॥
सहज पापप्रिय तामस देहा। जथा उलूकहि तम पर नेहा॥4॥

मूल

नाथ दसानन कर मैं भ्राता। निसिचर बंस जनम सुरत्राता॥
सहज पापप्रिय तामस देहा। जथा उलूकहि तम पर नेहा॥4॥

भावार्थ

हे नाथ! मैं दशमुख रावण का भाई हूँ। हे देवताओं के रक्षक! मेरा जन्म राक्षस कुल में हुआ है। मेरा तामसी शरीर है, स्वभाव से ही मुझे पाप प्रिय हैं, जैसे उल्लू को अन्धकार पर सहज स्नेह होता है॥4॥

45

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रवन सुजसु सुनि आयउँ प्रभु भञ्जन भव भीर।
त्राहि त्राहि आरति हरन सरन सुखद रघुबीर॥45॥

मूल

श्रवन सुजसु सुनि आयउँ प्रभु भञ्जन भव भीर।
त्राहि त्राहि आरति हरन सरन सुखद रघुबीर॥45॥

भावार्थ

मैं कानों से आपका सुयश सुनकर आया हूँ कि प्रभु भव (जन्म-मरण) के भय का नाश करने वाले हैं। हे दुखियों के दुःख दूर करने वाले और शरणागत को सुख देने वाले श्री रघुवीर! मेरी रक्षा कीजिए, रक्षा कीजिए॥45॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस कहि करत दण्डवत देखा। तुरत उठे प्रभु हरष बिसेषा॥
दीन बचन सुनि प्रभु मन भावा। भुज बिसाल गहि हृदयँ लगावा॥1॥

मूल

अस कहि करत दण्डवत देखा। तुरत उठे प्रभु हरष बिसेषा॥
दीन बचन सुनि प्रभु मन भावा। भुज बिसाल गहि हृदयँ लगावा॥1॥

भावार्थ

प्रभु ने उन्हें ऐसा कहकर दण्डवत्‌ करते देखा तो वे अत्यन्त हर्षित होकर तुरन्त उठे। विभीषणजी के दीन वचन सुनने पर प्रभु के मन को बहुत ही भाए। उन्होन्ने अपनी विशाल भुजाओं से पकडकर उनको हृदय से लगा लिया॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनुज सहित मिलि ढिग बैठारी। बोले बचन भगत भय हारी॥
कहु लङ्केस सहित परिवारा। कुसल कुठाहर बास तुम्हारा॥2॥

मूल

अनुज सहित मिलि ढिग बैठारी। बोले बचन भगत भय हारी॥
कहु लङ्केस सहित परिवारा। कुसल कुठाहर बास तुम्हारा॥2॥

भावार्थ

छोटे भाई लक्ष्मणजी सहित गले मिलकर उनको अपने पास बैठाकर श्री रामजी भक्तों के भय को हरने वाले वचन बोले- हे लङ्केश! परिवार सहित अपनी कुशल कहो। तुम्हारा निवास बुरी जगह पर है॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

खल मण्डली बसहु दिनु राती। सखा धरम निबहइ केहि भाँती॥
मैं जानउँ तुम्हारि सब रीती। अति नय निपुन न भाव अनीती॥3॥

मूल

खल मण्डली बसहु दिनु राती। सखा धरम निबहइ केहि भाँती॥
मैं जानउँ तुम्हारि सब रीती। अति नय निपुन न भाव अनीती॥3॥

भावार्थ

दिन-रात दुष्टों की मण्डली में बसते हो। (ऐसी दशा में) हे सखे! तुम्हारा धर्म किस प्रकार निभता है? मैं तुम्हारी सब रीति (आचार-व्यवहार) जानता हूँ। तुम अत्यन्त नीतिनिपुण हो, तुम्हें अनीति नहीं सुहाती॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बरु भल बास नरक कर ताता। दुष्ट सङ्ग जनि देइ बिधाता॥
अब पद देखि कुसल रघुराया। जौं तुम्ह कीन्हि जानि जन दाया॥4॥

मूल

बरु भल बास नरक कर ताता। दुष्ट सङ्ग जनि देइ बिधाता॥
अब पद देखि कुसल रघुराया। जौं तुम्ह कीन्हि जानि जन दाया॥4॥

भावार्थ

हे तात! नरक में रहना वरन्‌ अच्छा है, परन्तु विधाता दुष्ट का सङ्ग (कभी) न दे। (विभीषणजी ने कहा-) हे रघुनाथजी! अब आपके चरणों का दर्शन कर कुशल से हूँ, जो आपने अपना सेवक जानकर मुझ पर दया की है॥4॥

46

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

तब लगि कुसल न जीव कहुँ सपनेहुँ मन बिश्राम।
जब लगि भजत न राम कहुँ सोक धाम तजि काम॥46॥

मूल

तब लगि कुसल न जीव कहुँ सपनेहुँ मन बिश्राम।
जब लगि भजत न राम कहुँ सोक धाम तजि काम॥46॥

भावार्थ

तब तक जीव की कुशल नहीं और न स्वप्न में भी उसके मन को शान्ति है, जब तक वह शोक के घर काम (विषय-कामना) को छोडकर श्री रामजी को नहीं भजता॥46॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

तब लगि हृदयँ बसत खल नाना। लोभ मोह मच्छर मद माना॥
जब लगि उर न बसत रघुनाथा। धरें चाप सायक कटि भाथा॥1॥

मूल

तब लगि हृदयँ बसत खल नाना। लोभ मोह मच्छर मद माना॥
जब लगि उर न बसत रघुनाथा। धरें चाप सायक कटि भाथा॥1॥

भावार्थ

लोभ, मोह, मत्सर (डाह), मद और मान आदि अनेकों दुष्ट तभी तक हृदय में बसते हैं, जब तक कि धनुष-बाण और कमर में तरकस धारण किए हुए श्री रघुनाथजी हृदय में नहीं बसते॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ममता तरुन तमी अँधिआरी। राग द्वेष उलूक सुखकारी॥
तब लगि बसति जीव मन माहीं। जब लगि प्रभु प्रताप रबि नाहीं॥2॥

मूल

ममता तरुन तमी अँधिआरी। राग द्वेष उलूक सुखकारी॥
तब लगि बसति जीव मन माहीं। जब लगि प्रभु प्रताप रबि नाहीं॥2॥

भावार्थ

ममता पूर्ण अँधेरी रात है, जो राग-द्वेष रूपी उल्लुओं को सुख देने वाली है। वह (ममता रूपी रात्रि) तभी तक जीव के मन में बसती है, जब तक प्रभु (आप) का प्रताप रूपी सूर्य उदय नहीं होता॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अब मैं कुसल मिटे भय भारे। देखि राम पद कमल तुम्हारे॥
तुम्ह कृपाल जा पर अनुकूला। ताहि न ब्याप त्रिबिध भव सूला॥3॥

मूल

अब मैं कुसल मिटे भय भारे। देखि राम पद कमल तुम्हारे॥
तुम्ह कृपाल जा पर अनुकूला। ताहि न ब्याप त्रिबिध भव सूला॥3॥

भावार्थ

हे श्री रामजी! आपके चरणारविन्द के दर्शन कर अब मैं कुशल से हूँ, मेरे भारी भय मिट गए। हे कृपालु! आप जिस पर अनुकूल होते हैं, उसे तीनों प्रकार के भवशूल (आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक ताप) नहीं व्यापते॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मैं निसिचर अति अधम सुभाऊ। सुभ आचरनु कीन्ह नहिं काऊ॥
जासु रूप मुनि ध्यान न आवा। तेहिं प्रभु हरषि हृदयँ मोहि लावा॥4॥

मूल

मैं निसिचर अति अधम सुभाऊ। सुभ आचरनु कीन्ह नहिं काऊ॥
जासु रूप मुनि ध्यान न आवा। तेहिं प्रभु हरषि हृदयँ मोहि लावा॥4॥

भावार्थ

मैं अत्यन्त नीच स्वभाव का राक्षस हूँ। मैन्ने कभी शुभ आचरण नहीं किया। जिनका रूप मुनियों के भी ध्यान में नहीं आता, उन प्रभु ने स्वयं हर्षित होकर मुझे हृदय से लगा लिया॥4॥

47

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहोभाग्य मम अमित अति राम कृपा सुख पुञ्ज।
देखेउँ नयन बिरञ्चि सिव सेब्य जुगल पद कञ्ज॥47॥

मूल

अहोभाग्य मम अमित अति राम कृपा सुख पुञ्ज।
देखेउँ नयन बिरञ्चि सिव सेब्य जुगल पद कञ्ज॥47॥

भावार्थ

हे कृपा और सुख के पुञ्ज श्री रामजी! मेरा अत्यन्त असीम सौभाग्य है, जो मैन्ने ब्रह्मा और शिवजी के द्वारा सेवित युगल चरण कमलों को अपने नेत्रों से देखा॥47॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुनहु सखा निज कहउँ सुभाऊ। जान भुसुण्डि सम्भु गिरिजाऊ॥
जौं नर होइ चराचर द्रोही। आवै सभय सरन तकि मोही॥1॥

मूल

सुनहु सखा निज कहउँ सुभाऊ। जान भुसुण्डि सम्भु गिरिजाऊ॥
जौं नर होइ चराचर द्रोही। आवै सभय सरन तकि मोही॥1॥

भावार्थ

(श्री रामजी ने कहा-) हे सखा! सुनो, मैं तुम्हें अपना स्वभाव कहता हूँ, जिसे काकभुशुण्डि, शिवजी और पार्वतीजी भी जानती हैं। कोई मनुष्य (सम्पूर्ण) जड-चेतन जगत्‌ का द्रोही हो, यदि वह भी भयभीत होकर मेरी शरण तक कर आ जाए,॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तजि मद मोह कपट छल नाना। करउँ सद्य तेहि साधु समाना॥
जननी जनक बन्धु सुत दारा। तनु धनु भवन सुहृद परिवारा॥2॥

मूल

तजि मद मोह कपट छल नाना। करउँ सद्य तेहि साधु समाना॥
जननी जनक बन्धु सुत दारा। तनु धनु भवन सुहृद परिवारा॥2॥

भावार्थ

और मद, मोह तथा नाना प्रकार के छल-कपट त्याग दे तो मैं उसे बहुत शीघ्र साधु के समान कर देता हूँ। माता, पिता, भाई, पुत्र, स्त्री, शरीर, धन, घर, मित्र और परिवार॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सब कै ममता ताग बटोरी। मम पद मनहि बाँध बरि डोरी॥
समदरसी इच्छा कछु नाहीं। हरष सोक भय नहिं मन माहीं॥3॥

मूल

सब कै ममता ताग बटोरी। मम पद मनहि बाँध बरि डोरी॥
समदरसी इच्छा कछु नाहीं। हरष सोक भय नहिं मन माहीं॥3॥

भावार्थ

इन सबके ममत्व रूपी तागों को बटोरकर और उन सबकी एक डोरी बनाकर उसके द्वारा जो अपने मन को मेरे चरणों में बाँध देता है। (सारे सांसारिक सम्बन्धों का केन्द्र मुझे बना लेता है), जो समदर्शी है, जिसे कुछ इच्छा नहीं है और जिसके मन में हर्ष, शोक और भय नहीं है॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस सज्जन मम उर बस कैसें। लोभी हृदयँ बसइ धनु जैसें॥
तुम्ह सारिखे सन्त प्रिय मोरें। धरउँ देह नहिं आन निहोरें॥4॥

मूल

अस सज्जन मम उर बस कैसें। लोभी हृदयँ बसइ धनु जैसें॥
तुम्ह सारिखे सन्त प्रिय मोरें। धरउँ देह नहिं आन निहोरें॥4॥

भावार्थ

ऐसा सज्जन मेरे हृदय में कैसे बसता है, जैसे लोभी के हृदय में धन बसा करता है। तुम सरीखे सन्त ही मुझे प्रिय हैं। मैं और किसी के निहोरे से (कृतज्ञतावश) देह धारण नहीं करता॥4॥

48

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

सगुन उपासक परहित निरत नीति दृढ नेम।
ते नर प्रान समान मम जिन्ह कें द्विज पद प्रेम॥48॥

मूल

सगुन उपासक परहित निरत नीति दृढ नेम।
ते नर प्रान समान मम जिन्ह कें द्विज पद प्रेम॥48॥

भावार्थ

जो सगुण (साकार) भगवान्‌ के उपासक हैं, दूसरे के हित में लगे रहते हैं, नीति और नियमों में दृढ हैं और जिन्हें ब्राह्मणों के चरणों में प्रेम है, वे मनुष्य मेरे प्राणों के समान हैं॥48॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुनु लङ्केस सकल गुन तोरें। तातें तुम्ह अतिसय प्रिय मोरें॥।
राम बचन सुनि बानर जूथा। सकल कहहिं जय कृपा बरूथा॥1॥

मूल

सुनु लङ्केस सकल गुन तोरें। तातें तुम्ह अतिसय प्रिय मोरें॥।
राम बचन सुनि बानर जूथा। सकल कहहिं जय कृपा बरूथा॥1॥

भावार्थ

हे लङ्कापति! सुनो, तुम्हारे अन्दर उपर्युक्त सब गुण हैं। इससे तुम मुझे अत्यन्त ही प्रिय हो। श्री रामजी के वचन सुनकर सब वानरों के समूह कहने लगे- कृपा के समूह श्री रामजी की जय हो॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुनत बिभीषनु प्रभु कै बानी। नहिं अघात श्रवनामृत जानी॥
पद अम्बुज गहि बारहिं बारा। हृदयँ समात न प्रेमु अपारा॥2॥

मूल

सुनत बिभीषनु प्रभु कै बानी। नहिं अघात श्रवनामृत जानी॥
पद अम्बुज गहि बारहिं बारा। हृदयँ समात न प्रेमु अपारा॥2॥

भावार्थ

प्रभु की वाणी सुनते हैं और उसे कानों के लिए अमृत जानकर विभीषणजी अघाते नहीं हैं। वे बार-बार श्री रामजी के चरण कमलों को पकडते हैं अपार प्रेम है, हृदय में समाता नहीं है॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुनहु देव सचराचर स्वामी। प्रनतपाल उर अन्तरजामी॥
उर कछु प्रथम बासना रही। प्रभु पद प्रीति सरित सो बही॥3॥

मूल

सुनहु देव सचराचर स्वामी। प्रनतपाल उर अन्तरजामी॥
उर कछु प्रथम बासना रही। प्रभु पद प्रीति सरित सो बही॥3॥

भावार्थ

(विभीषणजी ने कहा-) हे देव! हे चराचर जगत्‌ के स्वामी! हे शरणागत के रक्षक! हे सबके हृदय के भीतर की जानने वाले! सुनिए, मेरे हृदय में पहले कुछ वासना थी। वह प्रभु के चरणों की प्रीति रूपी नदी में बह गई॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अब कृपाल निज भगति पावनी। देहु सदा सिव मन भावनी॥
एवमस्तु कहि प्रभु रनधीरा। मागा तुरत सिन्धु कर नीरा॥4॥

मूल

अब कृपाल निज भगति पावनी। देहु सदा सिव मन भावनी॥
एवमस्तु कहि प्रभु रनधीरा। मागा तुरत सिन्धु कर नीरा॥4॥

भावार्थ

अब तो हे कृपालु! शिवजी के मन को सदैव प्रिय लगने वाली अपनी पवित्र भक्ति मुझे दीजिए। ‘एवमस्तु’ (ऐसा ही हो) कहकर रणधीर प्रभु श्री रामजी ने तुरन्त ही समुद्र का जल माँगा॥4॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जदपि सखा तव इच्छा नहीं। मोर दरसु अमोघ जग माहीं॥
अस कहि राम तिलक तेहि सारा। सुमन बृष्टि नभ भई अपारा॥5॥

मूल

जदपि सखा तव इच्छा नहीं। मोर दरसु अमोघ जग माहीं॥
अस कहि राम तिलक तेहि सारा। सुमन बृष्टि नभ भई अपारा॥5॥

भावार्थ

(और कहा-) हे सखा! यद्यपि तुम्हारी इच्छा नहीं है, पर जगत्‌ में मेरा दर्शन अमोघ है (वह निष्फल नहीं जाता)। ऐसा कहकर श्री रामजी ने उनको राजतिलक कर दिया। आकाश से पुष्पों की अपार वृष्टि हुई॥5॥

49

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

रावन क्रोध अनल निज स्वास समीर प्रचण्ड।
जरत बिभीषनु राखेउ दीन्हेउ राजु अखण्ड॥1॥

मूल

रावन क्रोध अनल निज स्वास समीर प्रचण्ड।
जरत बिभीषनु राखेउ दीन्हेउ राजु अखण्ड॥1॥

भावार्थ

श्री रामजी ने रावण की क्रोध रूपी अग्नि में, जो अपनी (विभीषण की) श्वास (वचन) रूपी पवन से प्रचण्ड हो रही थी, जलते हुए विभीषण को बचा लिया और उसे अखण्ड राज्य दिया॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जो सम्पति सिव रावनहि दीन्हि दिएँ दस माथ।
सोइ सम्पदा बिभीषनहि सकुचि दीन्हि रघुनाथ॥2॥

मूल

जो सम्पति सिव रावनहि दीन्हि दिएँ दस माथ।
सोइ सम्पदा बिभीषनहि सकुचि दीन्हि रघुनाथ॥2॥

भावार्थ

शिवजी ने जो सम्पत्ति रावण को दसों सिरों की बलि देने पर दी थी, वही सम्पत्ति श्री रघुनाथजी ने विभीषण को बहुत सकुचते हुए दी॥2॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस प्रभु छाडि भजहिं जे आना। ते नर पसु बिनु पूँछ बिषाना॥
निज जन जानि ताहि अपनावा। प्रभु सुभाव कपि कुल मन भावा॥1॥

मूल

अस प्रभु छाडि भजहिं जे आना। ते नर पसु बिनु पूँछ बिषाना॥
निज जन जानि ताहि अपनावा। प्रभु सुभाव कपि कुल मन भावा॥1॥

भावार्थ

ऐसे परम कृपालु प्रभु को छोडकर जो मनुष्य दूसरे को भजते हैं, वे बिना सीङ्ग-पूँछ के पशु हैं। अपना सेवक जानकर विभीषण को श्री रामजी ने अपना लिया। प्रभु का स्वभाव वानरकुल के मन को (बहुत) भाया॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुनि सर्बग्य सर्ब उर बासी। सर्बरूप सब रहित उदासी॥
बोले बचन नीति प्रतिपालक। कारन मनुज दनुज कुल घालक॥2॥

मूल

पुनि सर्बग्य सर्ब उर बासी। सर्बरूप सब रहित उदासी॥
बोले बचन नीति प्रतिपालक। कारन मनुज दनुज कुल घालक॥2॥

भावार्थ

फिर सब कुछ जानने वाले, सबके हृदय में बसने वाले, सर्वरूप (सब रूपों में प्रकट), सबसे रहित, उदासीन, कारण से (भक्तों पर कृपा करने के लिए) मनुष्य बने हुए तथा राक्षसों के कुल का नाश करने वाले श्री रामजी नीति की रक्षा करने वाले वचन बोले-॥2॥सुनु कपीस लङ्कापति बीरा। केहि बिधि तरिअ जलधि गम्भीरा॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सङ्कुल मकर उरग झष जाती। अति अगाध दुस्तर सब भाँति॥3॥

मूल

सङ्कुल मकर उरग झष जाती। अति अगाध दुस्तर सब भाँति॥3॥

भावार्थ

हे वीर वानरराज सुग्रीव और लङ्कापति विभीषण! सुनो, इस गहरे समुद्र को किस प्रकार पार किया जाए? अनेक जाति के मगर, साँप और मछलियों से भरा हुआ यह अत्यन्त अथाह समुद्र पार करने में सब प्रकार से कठिन है॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कह लङ्केस सुनहु रघुनायक। कोटि सिन्धु सोषक तव सायक॥
जद्यपि तदपि नीति असि गाई। बिनय करिअ सागर सन जाई॥4॥

मूल

कह लङ्केस सुनहु रघुनायक। कोटि सिन्धु सोषक तव सायक॥
जद्यपि तदपि नीति असि गाई। बिनय करिअ सागर सन जाई॥4॥

भावार्थ

विभीषणजी ने कहा- हे रघुनाथजी! सुनिए, यद्यपि आपका एक बाण ही करोडों समुद्रों को सोखने वाला है (सोख सकता है), तथापि नीति ऐसी कही गई है (उचित यह होगा) कि (पहले) जाकर समुद्र से प्रार्थना की जाए॥4॥

50

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभु तुम्हार कुलगुर जलधि कहिहि उपाय बिचारि॥
बिनु प्रयास सागर तरिहि सकल भालु कपि धारि॥50॥

मूल

प्रभु तुम्हार कुलगुर जलधि कहिहि उपाय बिचारि॥
बिनु प्रयास सागर तरिहि सकल भालु कपि धारि॥50॥

भावार्थ

हे प्रभु! समुद्र आपके कुल में बडे (पूर्वज) हैं, वे विचारकर उपाय बतला देङ्गे। तब रीछ और वानरों की सारी सेना बिना ही परिश्रम के समुद्र के पार उतर जाएगी॥50॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

सखा कही तुम्ह नीति उपाई। करिअ दैव जौं होइ सहाई।
मन्त्र न यह लछिमन मन भावा। राम बचन सुनि अति दुख पावा॥1॥

मूल

सखा कही तुम्ह नीति उपाई। करिअ दैव जौं होइ सहाई।
मन्त्र न यह लछिमन मन भावा। राम बचन सुनि अति दुख पावा॥1॥

भावार्थ

(श्री रामजी ने कहा-) हे सखा! तुमने अच्छा उपाय बताया। यही किया जाए, यदि दैव सहायक हों। यह सलाह लक्ष्मणजी के मन को अच्छी नहीं लगी। श्री रामजी के वचन सुनकर तो उन्होन्ने बहुत ही दुःख पाया॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाथ दैव कर कवन भरोसा। सोषिअ सिन्धु करिअ मन रोसा॥
कादर मन कहुँ एक अधारा। दैव दैव आलसी पुकारा॥2॥

मूल

नाथ दैव कर कवन भरोसा। सोषिअ सिन्धु करिअ मन रोसा॥
कादर मन कहुँ एक अधारा। दैव दैव आलसी पुकारा॥2॥

भावार्थ

(लक्ष्मणजी ने कहा-) हे नाथ! दैव का कौन भरोसा! मन में क्रोध कीजिए (ले आइए) और समुद्र को सुखा डालिए। यह दैव तो कायर के मन का एक आधार (तसल्ली देने का उपाय) है। आलसी लोग ही दैव-दैव पुकारा करते हैं॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुनत बिहसि बोले रघुबीरा। ऐसेहिं करब धरहु मन धीरा॥
अस कहि प्रभु अनुजहि समुझाई। सिन्धु समीप गए रघुराई॥3॥

मूल

सुनत बिहसि बोले रघुबीरा। ऐसेहिं करब धरहु मन धीरा॥
अस कहि प्रभु अनुजहि समुझाई। सिन्धु समीप गए रघुराई॥3॥

भावार्थ

यह सुनकर श्री रघुवीर हँसकर बोले- ऐसे ही करेङ्गे, मन में धीरज रखो। ऐसा कहकर छोटे भाई को समझाकर प्रभु श्री रघुनाथजी समुद्र के समीप गए॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रथम प्रनाम कीन्ह सिरु नाई। बैठे पुनि तट दर्भ डसाई॥
जबहिं बिभीषन प्रभु पहिं आए। पाछें रावन दूत पठाए॥4॥

मूल

प्रथम प्रनाम कीन्ह सिरु नाई। बैठे पुनि तट दर्भ डसाई॥
जबहिं बिभीषन प्रभु पहिं आए। पाछें रावन दूत पठाए॥4॥

भावार्थ

उन्होन्ने पहले सिर नवाकर प्रणाम किया। फिर किनारे पर कुश बिछाकर बैठ गए। इधर ज्यों ही विभीषणजी प्रभु के पास आए थे, त्यों ही रावण ने उनके पीछे दूत भेजे थे॥51॥

51

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

सकल चरित तिन्ह देखे धरें कपट कपि देह।
प्रभु गुन हृदयँ सराहहिं सरनागत पर नेह॥51॥

मूल

सकल चरित तिन्ह देखे धरें कपट कपि देह।
प्रभु गुन हृदयँ सराहहिं सरनागत पर नेह॥51॥

भावार्थ

कपट से वानर का शरीर धारण कर उन्होन्ने सब लीलाएँ देखीं। वे अपने हृदय में प्रभु के गुणों की और शरणागत पर उनके स्नेह की सराहना करने लगे॥51॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रगट बखानहिं राम सुभाऊ। अति सप्रेम गा बिसरि दुराऊ॥
रिपु के दूत कपिन्ह तब जाने। सकल बाँधि कपीस पहिं आने॥1॥

मूल

प्रगट बखानहिं राम सुभाऊ। अति सप्रेम गा बिसरि दुराऊ॥
रिपु के दूत कपिन्ह तब जाने। सकल बाँधि कपीस पहिं आने॥1॥

भावार्थ

फिर वे प्रकट रूप में भी अत्यन्त प्रेम के साथ श्री रामजी के स्वभाव की बडाई करने लगे उन्हें दुराव (कपट वेश) भूल गया। सब वानरों ने जाना कि ये शत्रु के दूत हैं और वे उन सबको बाँधकर सुग्रीव के पास ले आए॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कह सुग्रीव सुनहु सब बानर। अङ्ग भङ्ग करि पठवहु निसिचर॥
सुनि सुग्रीव बचन कपि धाए। बाँधि कटक चहु पास फिराए॥2॥

मूल

कह सुग्रीव सुनहु सब बानर। अङ्ग भङ्ग करि पठवहु निसिचर॥
सुनि सुग्रीव बचन कपि धाए। बाँधि कटक चहु पास फिराए॥2॥

भावार्थ

सुग्रीव ने कहा- सब वानरों! सुनो, राक्षसों के अङ्ग-भङ्ग करके भेज दो। सुग्रीव के वचन सुनकर वानर दौडे। दूतों को बाँधकर उन्होन्ने सेना के चारों ओर घुमाया॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बहु प्रकार मारन कपि लागे। दीन पुकारत तदपि न त्यागे॥
जो हमार हर नासा काना। तेहि कोसलाधीस कै आना॥3॥

मूल

बहु प्रकार मारन कपि लागे। दीन पुकारत तदपि न त्यागे॥
जो हमार हर नासा काना। तेहि कोसलाधीस कै आना॥3॥

भावार्थ

वानर उन्हें बहुत तरह से मारने लगे। वे दीन होकर पुकारते थे, फिर भी वानरों ने उन्हें नहीं छोडा। (तब दूतों ने पुकारकर कहा-) जो हमारे नाक-कान काटेगा, उसे कोसलाधीश श्री रामजी की सौगन्ध है॥ 3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुनि लछिमन सब निकट बोलाए। दया लागि हँसि तुरत छोडाए॥
रावन कर दीजहु यह पाती। लछिमन बचन बाचु कुलघाती॥4॥

मूल

सुनि लछिमन सब निकट बोलाए। दया लागि हँसि तुरत छोडाए॥
रावन कर दीजहु यह पाती। लछिमन बचन बाचु कुलघाती॥4॥

भावार्थ

यह सुनकर लक्ष्मणजी ने सबको निकट बुलाया। उन्हें बडी दया लगी, इससे हँसकर उन्होन्ने राक्षसों को तुरन्त ही छुडा दिया। (और उनसे कहा-) रावण के हाथ में यह चिट्ठी देना (और कहना-) हे कुलघातक! लक्ष्मण के शब्दों (सन्देसे) को बाँचो॥4॥

52

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहेहु मुखागर मूढ सन मम सन्देसु उदार।
सीता देइ मिलहु न त आवा कालु तुम्हार॥52॥

मूल

कहेहु मुखागर मूढ सन मम सन्देसु उदार।
सीता देइ मिलहु न त आवा कालु तुम्हार॥52॥

भावार्थ

फिर उस मूर्ख से जबानी यह मेरा उदार (कृपा से भरा हुआ) सन्देश कहना कि सीताजी को देकर उनसे (श्री रामजी से) मिलो, नहीं तो तुम्हारा काल आ गया (समझो)॥52॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुरत नाइ लछिमन पद माथा। चले दूत बरनत गुन गाथा॥
कहत राम जसु लङ्काँ आए। रावन चरन सीस तिन्ह नाए॥1॥

मूल

तुरत नाइ लछिमन पद माथा। चले दूत बरनत गुन गाथा॥
कहत राम जसु लङ्काँ आए। रावन चरन सीस तिन्ह नाए॥1॥

भावार्थ

लक्ष्मणजी के चरणों में मस्तक नवाकर, श्री रामजी के गुणों की कथा वर्णन करते हुए दूत तुरन्त ही चल दिए। श्री रामजी का यश कहते हुए वे लङ्का में आए और उन्होन्ने रावण के चरणों में सिर नवाए॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिहसि दसानन पूँछी बाता। कहसि न सुक आपनि कुसलाता॥
पुन कहु खबरि बिभीषन केरी। जाहि मृत्यु आई अति नेरी॥2॥

मूल

बिहसि दसानन पूँछी बाता। कहसि न सुक आपनि कुसलाता॥
पुन कहु खबरि बिभीषन केरी। जाहि मृत्यु आई अति नेरी॥2॥

भावार्थ

दशमुख रावण ने हँसकर बात पूछी- अरे शुक! अपनी कुशल क्यों नहीं कहता? फिर उस विभीषण का समाचार सुना, मृत्यु जिसके अत्यन्त निकट आ गई है॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

करत राज लङ्का सठ त्यागी। होइहि जव कर कीट अभागी॥
पुनि कहु भालु कीस कटकाई। कठिन काल प्रेरित चलि आई॥3॥

मूल

करत राज लङ्का सठ त्यागी। होइहि जव कर कीट अभागी॥
पुनि कहु भालु कीस कटकाई। कठिन काल प्रेरित चलि आई॥3॥

भावार्थ

मूर्ख ने राज्य करते हुए लङ्का को त्याग दिया। अभागा अब जौ का कीडा (घुन) बनेगा (जौ के साथ जैसे घुन भी पिस जाता है, वैसे ही नर वानरों के साथ वह भी मारा जाएगा), फिर भालु और वानरों की सेना का हाल कह, जो कठिन काल की प्रेरणा से यहाँ चली आई है॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिन्ह के जीवन कर रखवारा। भयउ मृदुल चित सिन्धु बिचारा॥
कहु तपसिन्ह कै बात बहोरी। जिन्ह के हृदयँ त्रास अति मोरी॥4॥

मूल

जिन्ह के जीवन कर रखवारा। भयउ मृदुल चित सिन्धु बिचारा॥
कहु तपसिन्ह कै बात बहोरी। जिन्ह के हृदयँ त्रास अति मोरी॥4॥

भावार्थ

और जिनके जीवन का रक्षक कोमल चित्त वाला बेचारा समुद्र बन गया है (अर्थात्‌) उनके और राक्षसों के बीच में यदि समुद्र न होता तो अब तक राक्षस उन्हें मारकर खा गए होते। फिर उन तपस्वियों की बात बता, जिनके हृदय में मेरा बडा डर है॥4॥

53

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

की भइ भेण्ट कि फिरि गए श्रवन सुजसु सुनि मोर।
कहसि न रिपु दल तेज बल बहुत चकित चित तोर ॥53॥

मूल

की भइ भेण्ट कि फिरि गए श्रवन सुजसु सुनि मोर।
कहसि न रिपु दल तेज बल बहुत चकित चित तोर ॥53॥

भावार्थ

उनसे तेरी भेण्ट हुई या वे कानों से मेरा सुयश सुनकर ही लौट गए? शत्रु सेना का तेज और बल बताता क्यों नहीं? तेरा चित्त बहुत ही चकित (भौञ्चक्का सा) हो रहा है॥53॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाथ कृपा करि पूँछेहु जैसें। मानहु कहा क्रोध तजि तैसें॥
मिला जाइ जब अनुज तुम्हारा। जातहिं राम तिलक तेहि सारा॥1॥

मूल

नाथ कृपा करि पूँछेहु जैसें। मानहु कहा क्रोध तजि तैसें॥
मिला जाइ जब अनुज तुम्हारा। जातहिं राम तिलक तेहि सारा॥1॥

भावार्थ

(दूत ने कहा-) हे नाथ! आपने जैसे कृपा करके पूछा है, वैसे ही क्रोध छोडकर मेरा कहना मानिए (मेरी बात पर विश्वास कीजिए)। जब आपका छोटा भाई श्री रामजी से जाकर मिला, तब उसके पहुँचते ही श्री रामजी ने उसको राजतिलक कर दिया॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रावन दूत हमहि सुनि काना। कपिन्ह बाँधि दीन्हें दुख नाना॥
श्रवन नासिका काटैं लागे। राम सपथ दीन्हें हम त्यागे॥2॥

मूल

रावन दूत हमहि सुनि काना। कपिन्ह बाँधि दीन्हें दुख नाना॥
श्रवन नासिका काटैं लागे। राम सपथ दीन्हें हम त्यागे॥2॥

भावार्थ

हम रावण के दूत हैं, यह कानों से सुनकर वानरों ने हमें बाँधकर बहुत कष्ट दिए, यहाँ तक कि वे हमारे नाक-कान काटने लगे। श्री रामजी की शपथ दिलाने पर कहीं उन्होन्ने हमको छोडा॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पूँछिहु नाथ राम कटकाई। बदन कोटि सत बरनि न जाई॥
नाना बरन भालु कपि धारी। बिकटानन बिसाल भयकारी॥3॥

मूल

पूँछिहु नाथ राम कटकाई। बदन कोटि सत बरनि न जाई॥
नाना बरन भालु कपि धारी। बिकटानन बिसाल भयकारी॥3॥

भावार्थ

हे नाथ! आपने श्री रामजी की सेना पूछी, सो वह तो सौ करोड मुखों से भी वर्णन नहीं की जा सकती। अनेकों रङ्गों के भालु और वानरों की सेना है, जो भयङ्कर मुख वाले, विशाल शरीर वाले और भयानक हैं॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जेहिं पुर दहेउ हतेउ सुत तोरा। सकल कपिन्ह महँ तेहि बलु थोरा॥
अमित नाम भट कठिन कराला। अमित नाग बल बिपुल बिसाला॥4॥

मूल

जेहिं पुर दहेउ हतेउ सुत तोरा। सकल कपिन्ह महँ तेहि बलु थोरा॥
अमित नाम भट कठिन कराला। अमित नाग बल बिपुल बिसाला॥4॥

भावार्थ

जिसने नगर को जलाया और आपके पुत्र अक्षय कुमार को मारा, उसका बल तो सब वानरों में थोडा है। असङ्ख्य नामों वाले बडे ही कठोर और भयङ्कर योद्धा हैं। उनमें असङ्ख्य हाथियों का बल है और वे बडे ही विशाल हैं॥4॥

54

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्विबिद मयन्द नील नल अङ्गद गद बिकटासि।
दधिमुख केहरि निसठ सठ जामवन्त बलरासि॥54॥

मूल

द्विबिद मयन्द नील नल अङ्गद गद बिकटासि।
दधिमुख केहरि निसठ सठ जामवन्त बलरासि॥54॥

भावार्थ

द्विविद, मयन्द, नील, नल, अङ्गद, गद, विकटास्य, दधिमुख, केसरी, निशठ, शठ और जाम्बवान्‌ ये सभी बल की राशि हैं॥54॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

ए कपि सब सुग्रीव समाना। इन्ह सम कोटिन्ह गनइ को नाना॥
राम कृपाँ अतुलित बल तिन्हहीं। तृन समान त्रैलोकहि गनहीं॥1॥

मूल

ए कपि सब सुग्रीव समाना। इन्ह सम कोटिन्ह गनइ को नाना॥
राम कृपाँ अतुलित बल तिन्हहीं। तृन समान त्रैलोकहि गनहीं॥1॥

भावार्थ

ये सब वानर बल में सुग्रीव के समान हैं और इनके जैसे (एक-दो नहीं) करोडों हैं, उन बहुत सो को गिन ही कौन सकता है। श्री रामजी की कृपा से उनमें अतुलनीय बल है। वे तीनों लोकों को तृण के समान (तुच्छ) समझते हैं॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस मैं सुना श्रवन दसकन्धर। पदुम अठारह जूथप बन्दर॥
नाथ कटक महँ सो कपि नाहीं। जो न तुम्हहि जीतै रन माहीं॥2॥

मूल

अस मैं सुना श्रवन दसकन्धर। पदुम अठारह जूथप बन्दर॥
नाथ कटक महँ सो कपि नाहीं। जो न तुम्हहि जीतै रन माहीं॥2॥

भावार्थ

हे दशग्रीव! मैन्ने कानों से ऐसा सुना है कि अठारह पद्म तो अकेले वानरों के सेनापति हैं। हे नाथ! उस सेना में ऐसा कोई वानर नहीं है, जो आपको रण में न जीत सके॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

परम क्रोध मीजहिं सब हाथा। आयसु पै न देहिं रघुनाथा॥
सोषहिं सिन्धु सहित झष ब्याला। पूरहिं न त भरि कुधर बिसाला॥3॥

मूल

परम क्रोध मीजहिं सब हाथा। आयसु पै न देहिं रघुनाथा॥
सोषहिं सिन्धु सहित झष ब्याला। पूरहिं न त भरि कुधर बिसाला॥3॥

भावार्थ

सब के सब अत्यन्त क्रोध से हाथ मीजते हैं। पर श्री रघुनाथजी उन्हें आज्ञा नहीं देते। हम मछलियों और साँपों सहित समुद्र को सोख लेङ्गे। नहीं तो बडे-बडे पर्वतों से उसे भरकर पूर (पाट) देङ्गे॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मर्दि गर्द मिलवहिं दससीसा। ऐसेइ बचन कहहिं सब कीसा॥
गर्जहिं तर्जहिं सहज असङ्का। मानहुँ ग्रसन चहत हहिं लङ्का॥4॥

मूल

मर्दि गर्द मिलवहिं दससीसा। ऐसेइ बचन कहहिं सब कीसा॥
गर्जहिं तर्जहिं सहज असङ्का। मानहुँ ग्रसन चहत हहिं लङ्का॥4॥

भावार्थ

और रावण को मसलकर धूल में मिला देङ्गे। सब वानर ऐसे ही वचन कह रहे हैं। सब सहज ही निडर हैं, इस प्रकार गरजते और डपटते हैं मानो लङ्का को निगल ही जाना चाहते हैं॥4॥

55

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

सहज सूर कपि भालु सब पुनि सिर पर प्रभु राम।
रावन काल कोटि कहुँ जीति सकहिं सङ्ग्राम॥55॥

मूल

सहज सूर कपि भालु सब पुनि सिर पर प्रभु राम।
रावन काल कोटि कहुँ जीति सकहिं सङ्ग्राम॥55॥

भावार्थ

सब वानर-भालू सहज ही शूरवीर हैं फिर उनके सिर पर प्रभु (सर्वेश्वर) श्री रामजी हैं। हे रावण! वे सङ्ग्राम में करोडों कालों को जीत सकते हैं॥55॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम तेज बल बुधि बिपुलाई। सेष सहस सत सकहिं न गाई॥
सक सर एक सोषि सत सागर। तव भ्रातहि पूँछेउ नय नागर॥1॥

मूल

राम तेज बल बुधि बिपुलाई। सेष सहस सत सकहिं न गाई॥
सक सर एक सोषि सत सागर। तव भ्रातहि पूँछेउ नय नागर॥1॥

भावार्थ

श्री रामचन्द्रजी के तेज (सामर्थ्य), बल और बुद्धि की अधिकता को लाखों शेष भी नहीं गा सकते। वे एक ही बाण से सैकडों समुद्रों को सोख सकते हैं, परन्तु नीति निपुण श्री रामजी ने (नीति की रक्षा के लिए) आपके भाई से उपाय पूछा॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तासु बचन सुनि सागर पाहीं। मागत पन्थ कृपा मन माहीं॥
सुनत बचन बिहसा दससीसा। जौं असि मति सहाय कृत कीसा॥2॥

मूल

तासु बचन सुनि सागर पाहीं। मागत पन्थ कृपा मन माहीं॥
सुनत बचन बिहसा दससीसा। जौं असि मति सहाय कृत कीसा॥2॥

भावार्थ

उनके (आपके भाई के) वचन सुनकर वे (श्री रामजी) समुद्र से राह माँग रहे हैं, उनके मन में कृपा भी है (इसलिए वे उसे सोखते नहीं)। दूत के ये वचन सुनते ही रावण खूब हँसा (और बोला-) जब ऐसी बुद्धि है, तभी तो वानरों को सहायक बनाया है!॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सहज भीरु कर बचन दृढाई। सागर सन ठानी मचलाई॥
मूढ मृषा का करसि बडाई। रिपु बल बुद्धि थाह मैं पाई॥3॥

मूल

सहज भीरु कर बचन दृढाई। सागर सन ठानी मचलाई॥
मूढ मृषा का करसि बडाई। रिपु बल बुद्धि थाह मैं पाई॥3॥

भावार्थ

स्वाभाविक ही डरपोक विभीषण के वचन को प्रमाण करके उन्होन्ने समुद्र से मचलना (बालहठ) ठाना है। अरे मूर्ख! झूठी बडाई क्या करता है? बस, मैन्ने शत्रु (राम) के बल और बुद्धि की थाह पा ली॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सचिव सभीत बिभीषन जाकें। बिजय बिभूति कहाँ जग ताकें॥
सुनि खल बचन दूत रिस बाढी। समय बिचारि पत्रिका काढी॥4॥

मूल

सचिव सभीत बिभीषन जाकें। बिजय बिभूति कहाँ जग ताकें॥
सुनि खल बचन दूत रिस बाढी। समय बिचारि पत्रिका काढी॥4॥

भावार्थ

सुनि खल बचन दूत रिस बाढी। समय बिचारि पत्रिका काढी॥4॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रामानुज दीन्हीं यह पाती। नाथ बचाइ जुडावहु छाती॥
बिहसि बाम कर लीन्हीं रावन। सचिव बोलि सठ लाग बचावन॥5॥

मूल

रामानुज दीन्हीं यह पाती। नाथ बचाइ जुडावहु छाती॥
बिहसि बाम कर लीन्हीं रावन। सचिव बोलि सठ लाग बचावन॥5॥

भावार्थ

(और कहा-) श्री रामजी के छोटे भाई लक्ष्मण ने यह पत्रिका दी है। हे नाथ! इसे बचवाकर छाती ठण्डी कीजिए। रावण ने हँसकर उसे बाएँ हाथ से लिया और मन्त्री को बुलवाकर वह मूर्ख उसे बँचाने लगा॥5॥

56

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

बातन्ह मनहि रिझाइ सठ जनि घालसि कुल खीस।
राम बिरोध न उबरसि सरन बिष्नु अज ईस॥1॥

मूल

बातन्ह मनहि रिझाइ सठ जनि घालसि कुल खीस।
राम बिरोध न उबरसि सरन बिष्नु अज ईस॥1॥

भावार्थ

(पत्रिका में लिखा था-) अरे मूर्ख! केवल बातों से ही मन को रिझाकर अपने कुल को नष्ट-भ्रष्ट न कर। श्री रामजी से विरोध करके तू विष्णु, ब्रह्मा और महेश की शरण जाने पर भी नहीं बचेगा॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

की तजि मान अनुज इव प्रभु पद पङ्कज भृङ्ग।
होहि कि राम सरानल खल कुल सहित पतङ्ग॥2॥

मूल

की तजि मान अनुज इव प्रभु पद पङ्कज भृङ्ग।
होहि कि राम सरानल खल कुल सहित पतङ्ग॥2॥

भावार्थ

या तो अभिमान छोडकर अपने छोटे भाई विभीषण की भाँति प्रभु के चरण कमलों का भ्रमर बन जा। अथवा रे दुष्ट! श्री रामजी के बाण रूपी अग्नि में परिवार सहित पतिङ्गा हो जा (दोनों में से जो अच्छा लगे सो कर)॥2॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुनत सभय मन मुख मुसुकाई। कहत दसानन सबहि सुनाई॥
भूमि परा कर गहत अकासा। लघु तापस कर बाग बिलासा॥1॥

मूल

सुनत सभय मन मुख मुसुकाई। कहत दसानन सबहि सुनाई॥
भूमि परा कर गहत अकासा। लघु तापस कर बाग बिलासा॥1॥

भावार्थ

पत्रिका सुनते ही रावण मन में भयभीत हो गया, परन्तु मुख से (ऊपर से) मुस्कुराता हुआ वह सबको सुनाकर कहने लगा- जैसे कोई पृथ्वी पर पडा हुआ हाथ से आकाश को पकडने की चेष्टा करता हो, वैसे ही यह छोटा तपस्वी (लक्ष्मण) वाग्विलास करता है (डीङ्ग हाँकता है)॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कह सुक नाथ सत्य सब बानी। समुझहु छाडि प्रकृति अभिमानी॥
सुनहु बचन मम परिहरि क्रोधा। नाथ राम सन तजहु बिरोधा॥2॥

मूल

कह सुक नाथ सत्य सब बानी। समुझहु छाडि प्रकृति अभिमानी॥
सुनहु बचन मम परिहरि क्रोधा। नाथ राम सन तजहु बिरोधा॥2॥

भावार्थ

शुक (दूत) ने कहा- हे नाथ! अभिमानी स्वभाव को छोडकर (इस पत्र में लिखी) सब बातों को सत्य समझिए। क्रोध छोडकर मेरा वचन सुनिए। हे नाथ! श्री रामजी से वैर त्याग दीजिए॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अति कोमल रघुबीर सुभाऊ। जद्यपि अखिल लोक कर राऊ॥
मिलत कृपा तुम्ह पर प्रभु करिही। उर अपराध न एकउ धरिही॥3॥

मूल

अति कोमल रघुबीर सुभाऊ। जद्यपि अखिल लोक कर राऊ॥
मिलत कृपा तुम्ह पर प्रभु करिही। उर अपराध न एकउ धरिही॥3॥

भावार्थ

यद्यपि श्री रघुवीर समस्त लोकों के स्वामी हैं, पर उनका स्वभाव अत्यन्त ही कोमल है। मिलते ही प्रभु आप पर कृपा करेङ्गे और आपका एक भी अपराध वे हृदय में नहीं रखेङ्गे॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जनकसुता रघुनाथहि दीजे। एतना कहा मोर प्रभु कीजे॥
जब तेहिं कहा देन बैदेही। चरन प्रहार कीन्ह सठ तेही॥4॥

मूल

जनकसुता रघुनाथहि दीजे। एतना कहा मोर प्रभु कीजे॥
जब तेहिं कहा देन बैदेही। चरन प्रहार कीन्ह सठ तेही॥4॥

भावार्थ

जानकीजी श्री रघुनाथजी को दे दीजिए। हे प्रभु! इतना कहना मेरा कीजिए। जब उस (दूत) ने जानकीजी को देने के लिए कहा, तब दुष्ट रावण ने उसको लात मारी॥4॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाइ चरन सिरु चला सो तहाँ। कृपासिन्धु रघुनायक जहाँ॥
करि प्रनामु निज कथा सुनाई। राम कृपाँ आपनि गति पाई॥5॥

मूल

नाइ चरन सिरु चला सो तहाँ। कृपासिन्धु रघुनायक जहाँ॥
करि प्रनामु निज कथा सुनाई। राम कृपाँ आपनि गति पाई॥5॥

भावार्थ

वह भी (विभीषण की भाँति) चरणों में सिर नवाकर वहीं चला, जहाँ कृपासागर श्री रघुनाथजी थे। प्रणाम करके उसने अपनी कथा सुनाई और श्री रामजी की कृपा से अपनी गति (मुनि का स्वरूप) पाई॥5॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रिषि अगस्ति कीं साप भवानी। राछस भयउ रहा मुनि ग्यानी॥
बन्दि राम पद बारहिं बारा। मुनि निज आश्रम कहुँ पगु धारा॥6॥

मूल

रिषि अगस्ति कीं साप भवानी। राछस भयउ रहा मुनि ग्यानी॥
बन्दि राम पद बारहिं बारा। मुनि निज आश्रम कहुँ पगु धारा॥6॥

भावार्थ

(शिवजी कहते हैं-) हे भवानी! वह ज्ञानी मुनि था, अगस्त्य ऋषि के शाप से राक्षस हो गया था। बार-बार श्री रामजी के चरणों की वन्दना करके वह मुनि अपने आश्रम को चला गया॥6॥

57

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिनय न मानत जलधि जड गए तीनि दिन बीति।
बोले राम सकोप तब भय बिनु होइ न प्रीति॥57॥

मूल

बिनय न मानत जलधि जड गए तीनि दिन बीति।
बोले राम सकोप तब भय बिनु होइ न प्रीति॥57॥

भावार्थ

इधर तीन दिन बीत गए, किन्तु जड समुद्र विनय नहीं मानता। तब श्री रामजी क्रोध सहित बोले- बिना भय के प्रीति नहीं होती!॥57॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

लछिमन बान सरासन आनू। सोषौं बारिधि बिसिख कृसानु॥
सठ सन बिनय कुटिल सन प्रीति। सहज कृपन सन सुन्दर नीति॥1॥

मूल

लछिमन बान सरासन आनू। सोषौं बारिधि बिसिख कृसानु॥
सठ सन बिनय कुटिल सन प्रीति। सहज कृपन सन सुन्दर नीति॥1॥

भावार्थ

हे लक्ष्मण! धनुष-बाण लाओ, मैं अग्निबाण से समुद्र को सोख डालूँ। मूर्ख से विनय, कुटिल के साथ प्रीति, स्वाभाविक ही कञ्जूस से सुन्दर नीति (उदारता का उपदेश),॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ममता रत सन ग्यान कहानी। अति लोभी सन बिरति बखानी॥
क्रोधिहि सम कामिहि हरिकथा। ऊसर बीज बएँ फल जथा॥2॥

मूल

ममता रत सन ग्यान कहानी। अति लोभी सन बिरति बखानी॥
क्रोधिहि सम कामिहि हरिकथा। ऊसर बीज बएँ फल जथा॥2॥

भावार्थ

ममता में फँसे हुए मनुष्य से ज्ञान की कथा, अत्यन्त लोभी से वैराग्य का वर्णन, क्रोधी से शम (शान्ति) की बात और कामी से भगवान्‌ की कथा, इनका वैसा ही फल होता है जैसा ऊसर में बीज बोने से होता है (अर्थात्‌ ऊसर में बीज बोने की भाँति यह सब व्यर्थ जाता है)॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस कहि रघुपति चाप चढावा। यह मत लछिमन के मन भावा॥
सन्धानेउ प्रभु बिसिख कराला। उठी उदधि उर अन्तर ज्वाला॥3॥

मूल

अस कहि रघुपति चाप चढावा। यह मत लछिमन के मन भावा॥
सन्धानेउ प्रभु बिसिख कराला। उठी उदधि उर अन्तर ज्वाला॥3॥

भावार्थ

ऐसा कहकर श्री रघुनाथजी ने धनुष चढाया। यह मत लक्ष्मणजी के मन को बहुत अच्छा लगा। प्रभु ने भयानक (अग्नि) बाण सन्धान किया, जिससे समुद्र के हृदय के अन्दर अग्नि की ज्वाला उठी॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मकर उरग झष गन अकुलाने। जरत जन्तु जलनिधि जब जाने॥
कनक थार भरि मनि गन नाना। बिप्र रूप आयउ तजि माना॥4॥

मूल

मकर उरग झष गन अकुलाने। जरत जन्तु जलनिधि जब जाने॥
कनक थार भरि मनि गन नाना। बिप्र रूप आयउ तजि माना॥4॥

भावार्थ

मगर, साँप तथा मछलियों के समूह व्याकुल हो गए। जब समुद्र ने जीवों को जलते जाना, तब सोने के थाल में अनेक मणियों (रत्नों) को भरकर अभिमान छोडकर वह ब्राह्मण के रूप में आया॥4॥

58

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

काटेहिं पइ कदरी फरइ कोटि जतन कोउ सीञ्च।
बिनय न मान खगेस सुनु डाटेहिं पइ नव नीच॥58॥

मूल

काटेहिं पइ कदरी फरइ कोटि जतन कोउ सीञ्च।
बिनय न मान खगेस सुनु डाटेहिं पइ नव नीच॥58॥

भावार्थ

(काकभुशुण्डिजी कहते हैं-) हे गरुडजी! सुनिए, चाहे कोई करोडों उपाय करके सीञ्चे, पर केला तो काटने पर ही फलता है। नीच विनय से नहीं मानता, वह डाँटने पर ही झुकता है (रास्ते पर आता है)॥58॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

सभय सिन्धु गहि पद प्रभु केरे।
“छमहु+++(=क्षमस्व)+++ नाथ सब अवगुन मेरे॥।
गगन समीर अनल जल धरनी।
इन्ह कइ नाथ सहज जड-करनी”॥1॥

मूल

सभय सिन्धु गहि पद प्रभु केरे। छमहु नाथ सब अवगुन मेरे॥।
गगन समीर अनल जल धरनी। इन्ह कइ नाथ सहज जड करनी॥1॥

भावार्थ

समुद्र ने भयभीत होकर प्रभु के चरण पकडकर कहा- हे नाथ! मेरे सब अवगुण (दोष) क्षमा कीजिए। हे नाथ! आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी- इन सबकी करनी स्वभाव से ही जड है॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तव प्रेरित मायाँ उपजाए।
सृष्टि हेतु सब ग्रन्थनि गाए॥
प्रभु-आयसु+++(=आज्ञा)+++ जेहि+++(=यस्मै)+++ कहँ जस अहई+++(=??)+++।
सो तेहि भाँति रहें सुख लहई॥2॥

मूल

तव प्रेरित मायाँ उपजाए। सृष्टि हेतु सब ग्रन्थनि गाए॥
प्रभु आयसु जेहि कहँ जस अहई। सो तेहि भाँति रहें सुख लहई॥2॥

भावार्थ

आपकी प्रेरणा से माया ने इन्हें सृष्टि के लिए उत्पन्न किया है, सब ग्रन्थों ने यही गाया है। जिसके लिए स्वामी की जैसी आज्ञा है, वह उसी प्रकार से रहने में सुख पाता है॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभु भल कीन्ह मोहि सिख+++(=शिक्षा)+++ दीन्हीं।
मरजादा पुनि तुम्हरी कीन्हीं॥
ढोल+++(वाद्य)+++ गवाँर सूद्र पसु नारी।
सकल ताडना के अधिकारी॥3॥

मूल

प्रभु भल कीन्ह मोहि सिख दीन्हीं। मरजादा पुनि तुम्हरी कीन्हीं॥
ढोल गवाँर सूद्र पसु नारी। सकल ताडना के अधिकारी॥3॥

भावार्थ

प्रभु ने अच्छा किया जो मुझे शिक्षा (दण्ड) दी, किन्तु मर्यादा (जीवों का स्वभाव) भी आपकी ही बनाई हुई है।
ढोल, गँवार, शूद्र, पशु और स्त्री- ये सब शिक्षा के अधिकारी हैं॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभु प्रताप मैं जाब सुखाई। उतरिहि कटकु न मोरि बडाई॥
प्रभु अग्या अपेल श्रुति गाई। करौं सो बेगि जो तुम्हहि सोहाई॥4॥

मूल

प्रभु प्रताप मैं जाब सुखाई। उतरिहि कटकु न मोरि बडाई॥
प्रभु अग्या अपेल श्रुति गाई। करौं सो बेगि जो तुम्हहि सोहाई॥4॥

भावार्थ

प्रभु के प्रताप से मैं सूख जाऊँगा और सेना पार उतर जाएगी, इसमें मेरी बडाई नहीं है (मेरी मर्यादा नहीं रहेगी)। तथापि प्रभु की आज्ञा अपेल है (अर्थात्‌ आपकी आज्ञा का उल्लङ्घन नहीं हो सकता) ऐसा वेद गाते हैं। अब आपको जो अच्छा लगे, मैं तुरन्त वही करूँ॥4॥

59

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुनत बिनीत बचन अति कह कृपाल मुसुकाइ।
जेहि बिधि उतरै कपि कटकु तात सो कहहु उपाइ॥59॥

मूल

सुनत बिनीत बचन अति कह कृपाल मुसुकाइ।
जेहि बिधि उतरै कपि कटकु तात सो कहहु उपाइ॥59॥

भावार्थ

समुद्र के अत्यन्त विनीत वचन सुनकर कृपालु श्री रामजी ने मुस्कुराकर कहा- हे तात! जिस प्रकार वानरों की सेना पार उतर जाए, वह उपाय बताओ॥59॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाथ नील नल कपि द्वौ भाई। लरिकाईं रिषि आसिष पाई॥
तिन्ह कें परस किएँ गिरि भारे। तरिहहिं जलधि प्रताप तुम्हारे॥1॥

मूल

नाथ नील नल कपि द्वौ भाई। लरिकाईं रिषि आसिष पाई॥
तिन्ह कें परस किएँ गिरि भारे। तरिहहिं जलधि प्रताप तुम्हारे॥1॥

भावार्थ

(समुद्र ने कहा)) हे नाथ! नील और नल दो वानर भाई हैं। उन्होन्ने लडकपन में ऋषि से आशीर्वाद पाया था। उनके स्पर्श कर लेने से ही भारी-भारी पहाड भी आपके प्रताप से समुद्र पर तैर जाएँगे॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मैं पुनि उर धरि प्रभु प्रभुताई। करिहउँ बल अनुमान सहाई॥
एहि बिधि नाथ पयोधि बँधाइअ। जेहिं यह सुजसु लोक तिहुँ गाइअ॥2॥

मूल

मैं पुनि उर धरि प्रभु प्रभुताई। करिहउँ बल अनुमान सहाई॥
एहि बिधि नाथ पयोधि बँधाइअ। जेहिं यह सुजसु लोक तिहुँ गाइअ॥2॥

भावार्थ

मैं भी प्रभु की प्रभुता को हृदय में धारण कर अपने बल के अनुसार (जहाँ तक मुझसे बन पडेगा) सहायता करूँगा। हे नाथ! इस प्रकार समुद्र को बँधाइए, जिससे तीनों लोकों में आपका सुन्दर यश गाया जाए॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एहि सर मम उत्तर तट बासी। हतहु नाथ खल नर अघ रासी॥
सुनि कृपाल सागर मन पीरा। तुरतहिं हरी राम रनधीरा॥3॥

मूल

एहि सर मम उत्तर तट बासी। हतहु नाथ खल नर अघ रासी॥
सुनि कृपाल सागर मन पीरा। तुरतहिं हरी राम रनधीरा॥3॥

भावार्थ

इस बाण से मेरे उत्तर तट पर रहने वाले पाप के राशि दुष्ट मनुष्यों का वध कीजिए। कृपालु और रणधीर श्री रामजी ने समुद्र के मन की पीडा सुनकर उसे तुरन्त ही हर लिया (अर्थात्‌ बाण से उन दुष्टों का वध कर दिया)॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

देखि राम बल पौरुष भारी। हरषि पयोनिधि भयउ सुखारी॥
सकल चरित कहि प्रभुहि सुनावा। चरन बन्दि पाथोधि सिधावा॥4॥

मूल

देखि राम बल पौरुष भारी। हरषि पयोनिधि भयउ सुखारी॥
सकल चरित कहि प्रभुहि सुनावा। चरन बन्दि पाथोधि सिधावा॥4॥

भावार्थ

श्री रामजी का भारी बल और पौरुष देखकर समुद्र हर्षित होकर सुखी हो गया। उसने उन दुष्टों का सारा चरित्र प्रभु को कह सुनाया। फिर चरणों की वन्दना करके समुद्र चला गया॥4॥

03 छन्द

विश्वास-प्रस्तुतिः

निज भवन गवनेउ सिन्धु श्रीरघुपतिहि यह मत भायऊ।
यह चरित कलि मल हर जथामति दास तुलसी गायऊ॥
सुख भवन संसय समन दवन बिषाद रघुपति गुन गना।
तजि सकल आस भरोस गावहि सुनहि सन्तत सठ मना॥

मूल

निज भवन गवनेउ सिन्धु श्रीरघुपतिहि यह मत भायऊ।
यह चरित कलि मल हर जथामति दास तुलसी गायऊ॥
सुख भवन संसय समन दवन बिषाद रघुपति गुन गना।
तजि सकल आस भरोस गावहि सुनहि सन्तत सठ मना॥

भावार्थ

समुद्र अपने घर चला गया, श्री रघुनाथजी को यह मत (उसकी सलाह) अच्छा लगा। यह चरित्र कलियुग के पापों को हरने वाला है, इसे तुलसीदास ने अपनी बुद्धि के अनुसार गाया है। श्री रघुनाथजी के गुण समूह सुख के धाम, सन्देह का नाश करने वाले और विषाद का दमन करने वाले हैं। अरे मूर्ख मन! तू संसार का सब आशा-भरोसा त्यागकर निरन्तर इन्हें गा और सुन।

60

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

सकल सुमङ्गल दायक रघुनायक गुन गान।
सादर सुनहिं ते तरहिं भव सिन्धु बिना जलजान॥60॥

मूल

सकल सुमङ्गल दायक रघुनायक गुन गान।
सादर सुनहिं ते तरहिं भव सिन्धु बिना जलजान॥60॥

भावार्थ

श्री रघुनाथजी का गुणगान सम्पूर्ण सुन्दर मङ्गलों का देने वाला है। जो इसे आदर सहित सुनेङ्गे, वे बिना किसी जहाज (अन्य साधन) के ही भवसागर को तर जाएँगे॥60॥

इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने पञ्चम सोपानः समाप्तः।
कलियुग के सम्पूर्ण पापों को विध्वंस करने वाले श्री रामचरितमानस का यह पाञ्चवा सोपान समाप्त हुआ।
(सुन्दरकाण्ड समाप्त)