०१ बालकाण्ड (विश्वासप्रस्तुतिः)

काव्ये रामभक्तिप्राधान्यम्

राम-भगति-भूषित-जियँ+++(=जीव)+++ जानी। सुनिहहिं सुजन सराहि सुबानी॥
कबि न होउँ नहिं बचन-प्रबीनू। सकल-कला सब बिद्या +++(मेँ)+++ हीनू॥4॥

आख+++(क्ष)+++र अरथ अलङ्कृति नाना। छन्द प्रबन्ध अनेक-बिधाना॥
भाव-भेद रस-भेद अपारा। कबित-दोष-गुन बिबिध प्रकारा॥5॥
कबित-बिबेक एक नहिं मोरें। सत्य कहउँ लिखि कागद कोरें+++(=केवल/ अप्रयुक्त मेँ)+++॥6॥

दोहा
भनिति मोरि सब गुन-रहित
बिस्व-बिदित गुन एक।
सो बिचारि सुनिहहिं सुमति
जिन्ह कें बिमल बिबेक॥9॥+++(र५)+++

चौपाई

एहि+++(=एतस्मिन्)+++ महँ+++(=मध्ये)+++ रघुपति-नाम उदारा। अति पावन पुरान श्रुति-सारा॥
मङ्गल-भवन अमङ्गल-हारी। उमा-सहित जेहि जपत पुरारी॥1॥

भनिति बिचित्र सुकबि-कृत जोऊ। राम-नाम बिनु सोह न सोउ+++(शोभी)+++॥
+++(यथा)+++ बिधु+++(=विधु)+++-बदनी सब-भाँति सँवारी। सोह न-बसन बिना बर-नारी॥2॥ +++(5)+++

सब-गुन-रहित कुकबि-कृत बानी। राम-नाम-जस-अङ्कित जानी॥
सादर कहहिं सुनहिं बुध ताही। मधुकर सरिस+++(सदृश)+++ सन्त गुनग्राही॥3॥

जदपि कबित-रस एकउ नाहीं। राम-प्रताप-प्रगट एहि माहीं॥
सोइ भरोस मोरें मन आवा। केहिं न सुसङ्ग बड़प्पनु पावा॥4॥+++(४)+++

धूमउ त+++(त्य)+++जइ सहज करुआई+++(←सं० कटुकता>प्रा० कड़आया>आ० कडुआई)+++। अगरु प्रसङ्ग सुगन्ध बसाई+++(=सं० वशायते>प्रा० वसाइ)+++॥
भनिति भदेस+++(=भद्रवेष/ अभद्र)+++, बस्तु भलि बरनी। राम-कथा जग-मङ्गल करनी॥5॥ +++(4)+++

छन्द
मङ्गल करनि, कलिमल हरनि,,
तुलसी-कथा रघुनाथ की।
गति-कूर+++(=दुष्ट)+++ कबिता-सरित की ज्यों+++(=यथा)+++,,
सरित पावन-पाथ +++(गङ्गा)+++ की॥ +++(4)+++
प्रभु-सुजस-सङ्गति, भनिति भलि,,
होइहि+++(=भविष्यति)+++ सुजन-मन-भावनी।
भव-अङ्ग-भूति मसान की,,
सुमिरत सुहावनि+++(=सुखापक)+++ पावनी॥+++(४)+++

दोहा
प्रिय लागिहि अति सबहि मम
भनिति राम-जस-सङ्ग।
दारु बिचारु कि करइ कोउ,
+++(किन्तु वह ही)+++ बन्दिअ मलय-प्रसङ्ग॥10 क॥

स्याम-सुरभि+++(~गौ)+++-पय बिसद अति
गुनद करहिं सब पान।
गिरा+++(रः)+++ ग्राम्य सिय-राम-जस
गावहिं सुनहिं सुजा+++(ज्ञा)+++न ॥10 ख॥

चौपाई

मनि-मानिक-मुकु+++(क्)+++ता-छबि जैसी। अहि-गिरि-गज-सिर +++(मेँ)+++ सोह+++(=शोभ)+++ न तैसी॥
+++(वह)+++ नृप-किरीट +++(और)+++ तरुनी-तनु पाई। लहहिं सकल सोभा अधिकाई॥1॥
तैसेहिं सुकबि-कबित बुध कहहीं। उपजहिं अनत+++(=अन्यत्र)+++, अनत छबि+++(वि)+++ लहहीं॥

भगति-हेतु बिधि-भवन बिहाई+++(=विहाय)+++। सुमिरत सा+++(शा)+++रद आवति धा+++(व)+++ई॥2॥+++(५)+++
राम-चरित-सर बिनु +++(शारदा को)+++ अन्हवाएँ+++(=नहलाने से)+++। सो +++(शारदागमन-)+++श्रम जाइ न कोटि उपाएँ॥
कबि कोबिद अस+++(=ऐसे)+++ हृदयँ-बिचारी। गावहिं हरि-जस कलि-मल-हारी॥3॥
कीन्हें+++(=करने से)+++ प्राकृत-जन-गुन-गाना। सिर धुनि गिरा+++(देवी)+++ लगत पछिताना+++(=पछताना)+++॥

हृदय सिन्धु, मति सीप+++(=शक्तु)+++-समाना। +++(मुक्तकोत्पादक-वर्षा-सूचक-)+++स्वाति सारदा - कहहिं सुजाना॥4॥+++(५)+++
जौं बरषइ बर-बारि बिचारू। होहिं कबित-मुकुतामनि चारू॥5॥+++(५)+++

दोहा
+++(कवितामुक्तामणि को)+++ जुगुति+++(=युक्ति [से])+++ बेधि+++(=वेधि)+++, पुनि पोहिअहिं+++(=पोहे जाते हैं)+++
रामचरित बर ताग।
पहिरहिं सज्जन बिमल-उर
सोभा अति-अनुराग॥11॥+++(५)+++

स्वावगुणकथनम्

चौपाई

जे जनमे कलि-काल-कराला। करतब+++(←कर्तव्य)+++ बायस बेष-मराला+++(=हंस)+++॥
चलत कुपन्थ बेद-मग+++(=मार्ग)+++ छाँड़े। कपट-कलेवर कलि-मल-भाँड़े॥1॥
बञ्चक भगत कहाइ+++(=सं० कथापयित्त्व>प्रा. कहाविअ>अ० कहावि)+++ राम के। किङ्कर कञ्चन+++(=काञ्चन)+++-कोह+++(=क्रोध)+++-काम के॥
तिन्ह महँ+++(=मध्ये)+++ प्रथम रेख+++(=लेखा)+++ जग +++(मेँ)+++ मोरी। धीङ्ग+++(=बलात्कारी)+++ धरम-ध्वज धन्धक धोरी॥2॥

जौं+++(=यदि)+++ अपने अवगुन सब कहऊँ। बाढ़इ+++(=वृद्ध्वा)+++, कथा पार नहिं लहऊँ ॥
ताते+++(=ततः)+++ मैं अति अलप-बखाने+++(=व्याखान)+++। थोरे महुँ+++(=मेँ ← मध्ये)+++ जानिहहिं सयाने+++(=सज्ञानाः)+++ ॥3॥

अवगुण-कथनफलम्

समुझि बिबिधि-बिधि-बिनती मोरी। कोउ+++(=कोऽपि)+++ न कथा सुनि देइहि खोरी+++(=खोट/ दोष)+++॥
एतेहु पर करिहहिं जे असङ्का+++(=शङ्का)+++। मोहि ते अधिक ते जड़-मति रङ्का+++(=दरिद्र)+++॥4॥+++(र४)+++

कबि न होउँ नहिं चतुर कहावउँ। मति-अनुरूप राम-गुन गावउँ॥
कहँ रघुपति के चरित अपारा। कहँ मति मोरि निरत संसारा॥5॥

जेहिं मारुत गिरि मेरु उड़ाहीं। कहहु तूल केहि+++(=किस)+++ लेखे माहीं+++(=मेँ)+++॥
समुझत अमित राम-प्रभुताई। करत कथा मन अति कद+++(त)+++राई॥6॥+++(४)+++

दोहा
सारद सेस महेस बिधि
आगम निगम पुरान।
नेति नेति कहि जासु +++(राम मेँ)+++ गुन
करहिं निरन्तर गान॥12॥

चौपाई
सब जानत प्रभु-प्रभुता सोई। तदपि कहें बिनु रहा न कोई॥

तहाँ बेद अस+++(=ऐसा)+++ कारन रा+++(र)+++खा। भजन-प्रभाउ भाँति+++(=भेद)+++ बहु भाषा॥1॥
एक अनीह अरूप अनामा। अज सच्चिदानन्द पर धामा॥
ब्यापक बिस्वरूप भगवाना। तेहिं धरि देह +++(अवतारोँ मेँ)+++, चरित कृत नाना॥2॥
सो केवल भगत+++(=भक्त)+++न हित लागी। परम-कृपाल प्रनत-अनुरागी॥
जेहि जन पर ममता अति-छोहू+++(=क्षोभ / दया)+++। जेहिं+++(=जिसपर)+++ करुना करि, +++(पुनः उन पर)+++ कीन्ह न कोहू+++(=क्रोध)+++॥3॥

गई-बहोर+++(=प्रघूर्णन/ लौटना जिन्से होता है)+++ गरीब-नेवाजू+++(=कृपालु)+++। सरल सबल साहिब+++(=स्वामी)+++ रघुराजू॥
बुध बरनहिं हरि-जस अस+++(ऐसे)+++ जानी+++(=जानकर)+++। करहिं पुनीत सुफल निज-बानी॥4॥
तेहिं बल मैं रघुपति-गुन-गाथा। कहिहउँ नाइ+++(=नत्वा)+++ राम-पद +++(मेँ)+++ माथा॥
मुनिन्ह प्रथम हरि-कीरति गाई। तेहिं म+++(मार्)+++ग चलत सुगम, मोहि भाई॥5॥

दोहा
अति अपार जे सरित ब+++(प)+++र
जौं नृप सेतु कराहिं।
चढ़ि पिपीलिकउ परम लघु
बिनु श्रम पारहि जाहिं॥13॥+++(५)+++

चौपाई
एहि प्रकार बल मनहि देखाई। करिहउँ रघुपति कथा सुहाई+++(=शोभन)+++॥
ब्यास-आदि-कबि-पुङ्गव नाना। जिन्ह सादर हरि सुजस बखाना॥1॥
चरन-कमल बन्दउँ तिन्ह केरे+++(=के)+++। पु+++(पू)+++रवहुँ सकल मनोरथ मेरे॥
कलि के कबिन्ह करउँ परनामा। जिन्ह बरने रघुपति-गुन-ग्रामा॥2॥
जे प्राकृत-कबि परम-सया+++(ज्ञा)+++ने। भाषाँ जिन्ह हरि-चरित बखाने॥
भए+++(=भूतवन्तः)+++ जे, अहहिं+++(=भवन्ति)+++ जे, होइहहिं आगें। प्रनवउँ सबहि कपट सब त्यागें॥3॥
होहु प्रसन्न देहु बरदानू। साधु-समाज भनिति +++(का)+++ सनमानू॥
जो प्रबन्ध बुध नहिं आदरहीं। सो श्रम बा+++(वा)+++दि-बाल-कबि करहीं॥4॥
कीरति भनिति भूति भलि सोई। सुरसरि-सम सब कहँ हित होई॥
राम-सुकीरति, भनिति भदेसा+++(=भद्रवेष)+++। असमञ्जस - अस मोहि अँदेसा+++(=चिन्ता)+++॥5॥
+++(हे कवियों!)+++ तुम्हरी कृपाँ सुलभ सोउ मोरे। सिअनि+++(सीवन)+++ सुहावनि टाट+++(=स्थूलतन्तु [मेँ])+++ पटोरे+++(=पटोल/ कौशेयवस्त्र [का])+++॥6॥

दोहा
सरल कबित कीरति बिमल
सोइ आदरहिं सुजान।
सहज-बयर बिस+++(स्म)+++राइ रिपु
जो सुनि करहिं बखान॥14 क॥

सो न होई बिनु बिमल-मति
मोहि मति बल अति थोर+++(ड़ा)+++।
करहु कृपा हरि-जस कहउँ
पुनि पुनि करउँ निहोर+++(=मनोहार)+++=॥14 ख॥

कबि कोबिद! रघुबर-चरित
मानस-मञ्जु-मराल+++(=हंस)+++।
बालबिनय सुनि सुरुचि लखि
मो पर होहु कृपाल॥14 ग॥

बन्दउँ मुनि-पद-कञ्जु
रामायन जेहिं निरमयउ।
सखर+++(दैत्य)+++ सुकोमल मञ्जु
दोष-रहित दूषन+++(दैत्य)+++-सहित॥14 घ॥+++(४)+++

बन्दउँ चारिउ बेद
भव-बारिधि-बोहित+++(=वोहित्थ/ नाव)+++-सरिस+++(=सदृश)+++।
जिन्हहि न सपनेहुँ खेद
बरनत रघुबर-बिसद-जसु॥14 ङ॥

बन्दउँ बिधि-पद-रेनु
भव-सागर जेहिं कीन्ह जहँ।
सन्त सुधा ससि धेनु
प्रगटे खल बिष बारुनी॥14च॥+++(र४)+++

दोहा :
बिबुध-बिप्र-बुध-ग्रह-चरन
बन्दि कहउँ कर+++(=पाणि)+++ जोरि।
होइ प्रसन्न पु+++(पू)+++रवहु सकल
मञ्जु-मनोरथ मोरि॥14 छ॥

चौपाई
पुनि बन्दउँ सारद सुरसरिता। जुगल पुनीत मनोहर चरिता॥
मज्जन पान पाप-हर एका। कहत सुनत एक हर अबिबेका॥1॥+++(४)+++

गुर पितु मातु महेस भवानी। प्रनवउँ दीनबन्धु दिन दानी॥
सेवक स्वामि सखा सिय-पी+++(=पति)+++ के। हित निरुपधि सब बिधि तुलसी+++(दास)+++ के॥2॥

कलि +++(को)+++ बिलोकि जग-हित हर-गिरिजा। सा+++(शा)+++बर-मन्त्र-जाल जिन्ह सिरिजा॥
अनमिल+++(=अमेल्य)+++-आख+++(क्ष)+++र, अरथ न, +++(किन्तु)+++ जापू। प्रगट प्रभाउ महेस-प्रतापू॥3॥

सो उमेस मोहि पर-अनुकूला। करिहिं कथा मुद-मङ्गल-मूला॥
सुमिरि सिवा-सिव, पाइ पसाऊ+++(=प्रसाद)+++। बरनउँ रामचरित-चित-चाऊ+++(व)+++॥4॥

भनिति मोरि सिव-कृपाँ बिभाती। ससि समाज-+++(तारागण)+++-मिलि मनहुँ+++(=मानो)+++ सु-राती॥
जे एहि कथहि सनेह समेता। कहिहहिं सुनिहहिं समुझि सचेता॥5॥
होइहहिं राम-चरन-अनुरागी। कलि-मल-रहित सुमङ्गल-भागी॥6॥

दोहा
सपनेहुँ साचेहुँ+++(=सच हो)+++ मोहि पर
जौं हर-गौरि-पसाउ।
तौ +++(स्)+++फुर होउ जो कहेउँ सब
भाषा-भनिति-प्रभाउ॥15॥

चौपाई

बन्दउँ अवध-पुरी अति-पावनि। सरजू-सरि कलि-कलुष-नसावनि॥
प्रनवउँ पुर-नर-नारि बहोरी+++(=पुनः)+++। ममता जिन्ह पर प्रभुहि न थोरी॥1॥
सिय-निन्दक-अघ-ओघ नसाए। लोक बिसोक बनाइ बसाए॥

बन्दउँ कौसल्या-दिसि प्राची। कीरति जासु सकल-जग-माची+++(=मञ्चे)+++॥2॥
प्रगटेउ जहँ रघुपति ससि चारू। बिस्व सुखद खल-कमल-तुसारू+++(=तुषार/ नीहर)+++॥

दसरथ-राउ-सहित सब रानी। सुकृत-सुमङ्गल-मूरति मानी॥3॥
करउँ प्रनाम करम-मन-बानी +++(से)+++। करहु कृपा सुत-सेवक जानी॥
जिन्हहि बिरचि बड़ भयउ+++(=बने)+++ बिधाता। महिमा-अवधि राम-पितु-माता॥4॥

सोरठा
बन्दउँ अवध-भुआ+++(पा)+++ल
सत्य-प्रेम जेहि राम-पद +++(मेँ)+++।
बिछुरत+++(=विच्छेदित)+++ दीनदयाल +++(राम)+++
प्रिय-तनु तृन इव परिहरेउ॥16॥

चौपाई

प्रनवउँ परिजन-सहित बिदेहू+++(राज)+++। जाहि राम-पद गूढ़-सनेहू॥
जोग-भोग-महँ राखेउ गोई+++(=गुप्त)+++। राम बिलोकत प्रगटेउ सोई॥1॥

प्रनवउँ प्रथम भरत के चरना। जासु नेम+++(=नियम)+++ ब्रत जाइ न बरना॥
राम-चरन-पङ्कज-मन जासू। लुबुध-मधुप इव त+++(त्य)+++जइ न पासू॥2॥

बन्दउँ लछिमन-पद-जल-जाता। सीतल सुभग भगत-सुख-दाता॥
रघुपति-कीरति-बिमल-पताका-।-दण्ड समान भयउ जस जाका॥3॥
सेष सहस्र-सीस जग-कारन। जो अवतरेउ भूमि भय टार+++(ल)+++न॥
सदा सो सानुकूल रह मो पर। कृपासिन्धु सौमित्रि गुनाकर॥4॥

रिपुसूदन-पद-कमल नमामी। सू+++(शू)+++र सुसील भरत-अनुगामी॥
महाबीर बिनव+++(=विज्ञप्ति)+++उँ हनुमाना। राम जासु जस +++(अपने)+++आप बखाना॥5॥

सोरठा
प्रनवउँ पवनकुमार
खल-बन-पावक ग्यान-घन।
जासु हृदय-आगार
बसहिं राम सर-चाप-धर॥17॥

चौपाई
कपिपति-रीछ-निसाचर-राजा। अङ्गदादि जे कीस+++(=कीश=कपि)+++-समाजा॥
बन्दउँ सब के चरन सुहाए+++(=शोभन)+++। अधम-सरीर राम जिन्ह पाए॥1॥

रघुपति चरन उपासक जेते। खग-मृग-सुर-नर-असुर-समेते॥
बन्दउँ पद-सरोज सब केरे+++(=के)+++। जे बिनु काम राम के चेरे॥2॥

सुक-सनकादि भगत मुनि नारद। जे मुनिबर बिग्यान-बिसारद॥
प्रनवउँ सबहि धरनि +++(मेँ)+++ धरि सीसा। करहु कृपा +++(दास)+++जन जानि मुनीसा॥3॥

जनक-सुता जग-जननि जानकी। अतिसय-प्रिय करुना-निधान +++(राम)+++ की॥
ताके जुग-पद-कमल मनावउँ+++(=मनाता हूँ)+++। जासु कृपाँ निरमल-मति पावउँ॥4॥

पुनि+++(नः)+++ मन-बचन-कर्म +++(से)+++ रघुनायक-।-चरन-कमल बन्दउँ सब लायक॥
राजीव-नयन धरें धनु-सायक। भगत-बिपति-भञ्जन सुख-दायक॥5॥

दोहा
गिरा-अरथ जल-बीचि-सम
कहिअत भिन्न, न भिन्न +++(च)+++।
बन्दउँ सीता-राम-पद, जिन्हहि
परम-प्रिय खिन्न+++(लोग)+++॥18॥

चौपाई
बन्दउँ नाम राम रघुबर को। हेतु कृसानु-भानु-हिमकर को +++(र-आ-म-बीजोँ से)+++॥
बिधि-हरि-हर-मय, बेद प्रान सो। अगुन अनूपम गुन-निधान सो॥1॥

महामन्त्र जोइ जपत महेसू। कासीं-मुकुति-हेतु +++(जिनका)+++ उपदेसू॥
महिमा जासु जान गनराऊ। प्रथम-पूजिअत +++(बनेँ)+++ नाम प्रभाऊ॥2॥

जान आदिकबि नाम-प्रतापू। भयउ सुद्ध करि+++(=कृते)+++ उलटा जापू॥
सहस-नाम-सम सुनि सिव-बानी। जपि जेईं पिय-सङ्ग भवानी॥3॥

हरषे हेतु हेरि+++(=देखकर)+++ हर +++(रामजपसक्त-प्रसन्न-पार्वती-)+++ही+++(=हृदय)+++ को। किय +++(स्व)+++भूषन तिय+++(=स्त्री)+++-भूषन-ती+++(=स्त्री)+++ को॥
नाम-प्रभाउ जान सिव नीको+++(=निक्त)+++। कालकूट फलु दीन्ह अमी+++(=अमृत)+++ को+++(=का)+++॥4॥

दोहा
बरषा-रितु रघुपति-भगति
तुलसी सा+++(शा)+++लि+++(धान्यं)+++ सुदास।
राम नाम-बर-बरन+++(=वर्ण)+++-जुग
सावन-भादव-मास॥19॥

चौपाई

आख+++(क्ष)+++र मधुर मनोहर दोऊ। बरन-बिलोचन, जन-जिय जोऊ॥
सुमिरत सुलभ सुखद सब काहू+++(=किसी का)+++। लोक-लाहु+++(भ)+++ परलोक-निबाहू+++(=निर्वाह)+++॥1॥

कहत सुनत सुमिरत सुठि+++(ष्ठु)+++ नीके+++(=निक्त)+++। राम-लखन-सम प्रिय तुलसी के॥
बरनत +++(रा,म)+++बरन प्रीति बिलगाती। ब्रह्म-जीव-सम सहज-सँघाती॥2॥+++(५)+++

नर-नारायन-स+++(द्)+++रिस सुभ्राता। जग-पालक बिसेषि जन-त्राता॥
भगति-सु-तिय+++(=स्त्रि)+++ कल-कर+++(र्)+++न-बिभूषन। जग-हित-हेतु बिमल बिधु-पूषन+++(=सूर्य)+++॥3॥+++(५)+++

स्वाद-तोष-सम सुगति-सुधा के। कमठ-सेष-सम धर बसुधा के॥
जन-मन-मञ्जु-कञ्ज-मधुकर से। जीह+++(=जिह्वा)+++ जसोमति+++(=यशोदीय मेँ)+++ हरि हलधर से॥4॥+++(५)+++

दोहा
एकु +++(रेफ)+++ छत्रु, एकु +++(मकार)+++ मुकुट-मनि
सब-बरननि +++(ऊ)+++पर जोउ।
+++(हे)+++ तुलसी, रघुबर-नाम के
बरन बिराजत दोउ॥20॥+++(४)+++

चौपाई
समुझत स+++(द्)+++रिस नाम अरु नामी। प्रीति परसपर प्रभु अनुगामी॥
नाम-रूप दुइ ईस-उपाधी। अकथ अनादि सु-सामुझि+++(=सुबुद्धि)+++ साधी+++(=साधन किया)+++॥1॥+++(५)+++

को बड़ छोट - कहत अपराधू। सुनि गुन-भेदु समुझिहहिं साधू॥
देखिअहिं रूप नाम-आधीना। रूप-ग्यान नहिं नाम-बिहीना॥2॥+++(५)+++

रूप-बिसेष नाम-बिनु जानें। करतल-गत न पर+++(त)+++हिं पहिचानें॥
सुमिरिअ नाम रूप-बिनु देखें। +++(रूप)+++ आवत हृदयँ सनेह-बिसेषें॥3॥+++(५)+++

नाम-रूप-गति अकथ-कहानी। समुझत सुखद, न प+++(्)+++रति बखानी॥
अगुन सगुन बि+++(बी)+++च नाम सु-साखी+++(क्षी)+++। उभय-प्रबोधक चतुर दुभाषी॥4॥+++(५)+++

दोहा
राम-नाम-मनिदीप धरु
जीह+++(ह्व)+++-देहरीं+++(ली)+++-द्वार।
+++(हे)+++ तुलसी, भीतर-बाहेरहुँ
जौं चाहसि उजिआर॥21॥+++(५)+++

चौपाई
नाम जीहँ जपि - जागहिं जोगी। बिरति बिरञ्चि-प्रपञ्च-बियोगी॥
ब्रह्म-सुखहि अनुभवहिं अनूपा+++(=अनुपम)+++। अकथ अनामय - +++(न)+++ नाम न रूपा॥1॥

जाना च+++(चा)+++हहिं गूढ़-गति जेऊ। नाम जीहँ जपि जानहिं तेऊ॥
साधक नाम जपहिं लय लाएँ। होहिं सिद्ध अनिमादिक पाएँ॥2॥

जपहिं नामु जन आर+++(्)+++त भारी। मिटहिं कुसङ्कट होहिं सुखारी॥
राम-भगत जग चारि प्रकारा +++(अर्थार्थी, आर्त, जिझ्ञासू, ज्ञानी)+++। सुकृती चारिउ अनघ उदारा॥3॥
चहू+++(=४)+++ चतुर कहुँ नाम अ+++(आ)+++धारा। ग्यानी प्रभुहि बिसेषि-पिआरा॥
चहुँ जुग, चहुँ श्रुति +++(भी)+++ नाम-प्रभाऊ। कलि बिसेषि नहिं आन उपाऊ॥4॥

दोहा
सकल-कामना-हीन जे
राम-भगति-रस-लीन।
नाम सुप्रेम-पियूष-ह्रद
तिन्हहुँ किए मन मीन॥22॥+++(५)
+++(मीनो यथा ह्रदाद् विलग्नः स्यात्, तथा साधुमनो रामनामविलग्नम्।)+++

चौपाई

अगुन-सगुन दुइ ब्रह्म-सरूपा। अकथ अगाध अनादि अनूपा+++(पम)+++॥
मोरें मत बड़ नामु +++(उन)+++ दुहू तें। किए जेहिं जुग निज-बस निज-बूतें+++(=वृत्त)+++॥1॥

+++(इस को)+++ प्रौढ़ि सुजन जनि+++(=न)+++ जानहिं +++(दास)+++जन की। कहउँ प्रतीति, प्रीति, रुचि मन की॥
एकु दारुगत+++(अग्नि)+++, देखिअ+++(अग्नि)+++ एकू। पावक सम जुग ब्रह्म-बिबेकू॥2॥
उभय अगम, जुग सुगम नाम तें+++(=से)+++। कहेउँ नामु बड़ + ++(निर्गुण)+++ब्रह्म-+++(सगुण)+++राम तें+++(=से)+++॥
ब्यापकु एकु ब्रह्म अबिनासी। सत चेतन घन-आनँद-रासी॥3॥
अस प्रभु-हृदयँ अछ+++(क्ष)+++त अबिकारी। +++(किन्तु)+++ सकल-जीव जग दीन दुखारी॥
नाम-निरूपन नाम-जतन तें+++(=से)+++। सोउ प्रगटत जिमि मोल रतन तें+++(=से)+++॥4॥+++(५)++

दोहा
निरगुन तें+++(=से)+++ एहि+++(ष)+++ भाँति बड़
नाम-प्रभाउ अपार।
कहउँ नामु बड़ राम तें+++(=से)+++
निज-बिचार-अनुसार॥23॥+++(र५)+++

चौपाई

राम भगत-हित नर-तनु-धारी। सहि सङ्कट, किए साधु सुखारी॥+++(र५)+++
नामु सप्रेम जपत अनयासा। भगत होहिं मुद-मङ्गल-बा+++(वा)+++सा॥1॥

राम एक तापस-तिय+++(=स्त्री)+++ तारी। नाम कोटि खल कुमति सुधारी॥+++(५)+++
रिषि-हित राम सुकेतु-सुता +++(तटका)+++ की। सहित-सेन-+++(सुकेतु-)+++सुत कीन्हि बिबाकी+++(=समाप्ति)+++॥2॥
सहित-दोष-दुख दास+++(जन)+++-दुरासा। दलइ नामु जिमि रबि निसि-नासा॥+++(५)+++
भञ्जेउ राम आपु+++(=आत्मना)+++ भव-चापू। भव+++(!)+++-भय-भञ्जन नाम-प्रतापू॥3॥+++(५)+++

दण्डक-बन प्रभु कीन्ह सुहावन+++(=सुशोभन)+++। जन-मन अमित नाम किए पावन॥+++(५)+++
निसिचर-निकर दले रघु-नन्दन। नामु सकल-कलि-कलुष-निक+++(क्र)+++न्दन॥4॥

दोहा
सबरी-गीध+++(=गृध्र)+++-सुसेवकनि
सुगति दीन्हि रघुनाथ।
नाम उ+++(द्)+++धारे अमित खल
बेद-बिदित गुन-गाथ॥24॥

चौपाई

राम सुकण्ठ+++(=सुग्रीव)+++ बिभीषन दोऊ। राखे सरन, जान सबु कोऊ ॥
नाम गरीब अनेक नेवाजे+++(=कृपा किया)+++। लोक-बेद +++(मेँ)+++ ब+++(व)+++र-बिरिद+++(=विरुद)+++ बिराजे॥1॥

राम भालु-कपि-कटु+++(ट)+++क+++(=सेना)+++ बटोरा+++(=वितरण क्या)+++। सेतु-हेतु श्रमु कीन्ह न थोरा॥
नामु लेत भव-सिन्धु सु+++(सू)+++खाहीं। करहु बिचारु सुजन मन माहीं॥2॥+++(५)+++

राम सकुल रन रावनु मारा। सीय सहित निज-पुर-पगु+++(=पदक)+++ धारा॥
राजा रामु अवध रजधानी। गावत गुन सुर मुनि बर-बानी॥3॥
सेवक सुमिरत नामु सप्रीती। बिनु श्रम प्रबल-मोह दलु जीती॥
फिरत सनेहँ-मगन-सुख अपनें। नाम-प्रसाद +++(से)+++ सो+++(शो)+++च नहिं सपनें +++(मेँ)+++॥4॥

दोहा
+++(निर्गुण)+++ब्रह्म +++(सगुण)+++राम तें+++(=से)+++ नामु बड़
बर-दायक+++(-के-)+++-बर-दानि।
+++(नाम को)+++ रामचरित-सत-कोटि महँ
लिय महेस जियँ+++(=हृद्)+++ जानि॥25॥

+++(मासपारायण, पहला विश्राम)+++

चौपाई
नाम-प्रसाद +++(से)+++ सम्भु अबिनासी। साजु+++(=सज्ज)+++-अमङ्गल +++(किन्तु)+++ मङ्गल-रासी॥
सुक-सनकादि सिद्ध मुनि जोगी। नाम-प्रसाद +++(से)+++ ब्रह्मसुख-भोगी॥1॥ +++(५)+++

नारद जानेउ नाम-प्रतापू। जग-प्रिय हरि, +++(नारद)+++ हरि-हर-प्रिय आपू+++(=आत्मना)+++॥
नामु जपत प्रभु कीन्ह प्रसादू। भगत सिरोमनि भे+++(=हुए)+++ प्रहलादू॥2॥

ध्रुवँ +++(विमाता-वचन)+++सग+++(ग्)+++लानि जपेउ हरि-नाऊँ। पायउ अचल अनूपम ठा+++(स्था)+++ऊँ॥
सुमिरि पवन-सुत पावन-नामू। अपने बस करि राखे रामू॥3॥

अपतु+++(=अपात्र)+++ अजामिलु, गजु, गनिकाऊ। भए मुकुत हरि-नाम-प्रभाऊ॥
कहौं कहाँ लगि+++(=तक)+++ नाम-बड़ाई। रामु न सकहिं नाम-गुन गाई॥4॥+++(र५)+++

दोहा
नामु राम को कलपतरु
कलि +++(मेँ)+++ कल्यान-निवासु।
जो सुमिरत भयो+++(=बना)+++ भाँग तें+++(=से)+++
तुलसी तुलसीदासु॥26॥+++(५)+++

चौपाई

चहुँ जुग तीनि काल तिहुँ लोका। भए नाम जपि जीव बिसोका॥+++(४)+++
बेद-पुरान-सन्त-मत एहू। सकल-सुकृत-फल राम-सनेहू॥1॥

ध्यानु प्रथम-जुग +++(मेँ)+++, मख-बिधि दूजें +++(मेँ)+++। द्वापर +++(मेँ)+++ परि-तोषत प्रभु पूजें॥
कलि केवल-मल-मूल-मलीना। पाप-पयोनिधि, जन-मन मीना॥2॥+++(र४)+++

नाम काम-तरु काल-कराला +++(मेँ)+++। सुमिरत स+++(श)+++मन सकल-जग-जाला +++(का)+++॥
राम-नाम कलि-अभिमत-दाता। हित परलोक +++(का)+++, लोक +++(का)+++ पितु-माता॥3॥

नहिं कलि करम न भगति बिबेकू। राम-नाम अवलम्बन एकू॥
+++(हनुमद्वैरी/ विष्णुपराजित दानव)+++ कालनेमि कलि कपट-निधानू। नाम सुमति, समर+++(्)+++थ हनुमानू॥4॥

दोहा
राम नाम नर-केसरी
कनक-कसिपु कलिकाल।
जापक जन प्रहलाद जिमि
पालिहि दलि सुर-साल+++(=शल्य)+++॥27॥+++(५)+++

चौपाई

भायँ+++(व)+++ कुभायँ+++(व)+++ अनख+++(क्ष)+++ आलस हूँ+++(=भी)+++। नाम जपत मङ्गल दिसि दसहूँ॥
सुमिरि सो नाम राम-गुन-गाथा। करउँ ना+++(नम)+++इ रघु-नाथहि माथा +++(से)+++॥1॥॥

मोरि सुधारिहि सो सब भाँती। जासु कृपा - नहिं कृपाँ +++(करने से)+++ अघा+++(घ्रा)+++ती+++(=तृप्त होती)+++॥
राम सुस्वामि कुसेवकु मोसो+++(सा)+++। निज-दिसि देखि, दयानिधि पोसो+++(षा)+++॥2॥+++(र५)+++

लोकहुँ बेद सुसाहिब-रीती - । बिनय +++(को)+++ सुनत, पहिचानत प्रीती॥
ग+++(ध)+++नी गरीब ग्राम-नर नागर। पण्डित मूढ़ मलीन उ+++(ज्)+++जागर॥3॥
सुकबि कुकबि निज-मति-अनुहारी। नृपहि+++(को)+++ सराहत सब नर-नारी॥
साधु सुजा+++(ज्ञा)+++न सुसील नृपाला। ईस-अंस-भव परम-कृपाला॥4॥
सुनि सनमानहिं सबहि सुबानी। भनिति+++(=विनति)+++ भगति नति गति पहिचानी॥
यह प्राकृत महिपाल सुभाऊ। जान सिरोमनि कोसलराऊ॥5॥+++(५)+++

रीझत+++(=रञ्जत)+++ राम सनेह+++(हे)+++ निसोतें+++(=निःसंयुक्ते)+++। को जग मन्द मलिन-मति मो+++(=मुझ)+++तें+++(=से)+++॥6॥

दोहा
सठ सेवक की प्रीति रुचि
रखिहहिं राम कृपालु।
उपल किए जलजा+++(या)+++न जेहिं
सचिव सुमति कपि भालु ॥28 क॥+++(५)+++

हौंहु+++(=मैँ भी)+++ कहावत+++(=कहलाता हूँ)+++, सबु कहत,
राम सहत उपहास।
“साहिब सीता-नाथ सो
सेवक तुलसी-दास”॥28 ख॥+++(र५)+++

चौपाई
अति बड़ि मोरि ढिठाई+++(=धृष्टता)+++ खोरी+++(=पङ्गुता)+++। सुनि अघ नरकहुँ, नाक सकोरी+++(=सङ्कोचित को)+++॥
समुझि सहम+++(=भय)+++ मोहि, अपड+++(द)+++र अपनें +++(मेँ है)+++। +++(किन्तु)+++ सो सुधि राम कीन्हि नहिं सपनें+++(वि७)+++॥1॥

सुनि अवलोकि सुचित-चख+++(क्षु [से])+++ चाही। भगति मोरि मति स्वामि सराही॥
+++(जो कुछ मेरे बारे मेँ)+++ कहत नसा+++(शा)+++इ, +++(किन्तु)+++ होइ हियँ नीकी। रीझत+++(=ऋध्यत)+++ राम जानि +++(दास)+++जन-जी+++(=[अन्तर्]जीव)+++ की॥2॥

रहति न प्रभु-चित +++(भक्तों की)+++ चूक किए की। करत सुरति सय+++(=सौ)+++ बार हिए+++(=हृदय)+++ की॥
जेहिं+++(=जिस)+++ +++(भ्रातृजायाग्रह)+++अघ बधेउ ब्याध जिमि बा+++(वा)+++ली। फिरि सुकण्ठ+++(=सुग्रीव)+++ सोइ कीन्हि कुचाली +++(अघ)+++॥3॥+++(५)+++

सोइ करतूति बिभीषन केरी। सपनेहूँ सो न राम हियँ हेरी॥
ते भरतहि भेण्टत सनमाने। राजसभाँ+++(वि७)+++ रघुबीर बखाने॥4॥

दोहा
प्रभु तरु तर+++(ल [मेँ])+++, कपि डार+++(ली)+++ पर
ते किए आपु समान।
तुलसी कहूँ न राम से
साहिब सील-निधान॥ 29 क॥+++(५)+++

राम नि+++(ने)+++काईं रावरी+++(=राजा/सरकार के)+++
है सबही को नीक।
जौं यह साँची+++(=सत्य)+++ है सदा
तौ नीको तुलसीक॥ 29 ख॥+++(र५)+++

एहि बिधि निज-गुन-दोष कहि
सबहि+++(=सबको)+++ बहुरि+++(=पुनः)+++ सिरु नाइ+++(=नत्वा)+++।
बरनउँ रघुबर-बिसद-जसु
सुनि कलि कलुष नसा+++(शा)+++इ॥29 ग॥

चौपाई

जागबलिक+++(=याज्ञवल्क्यजी)+++ जो कथा सुहाई+++(=शोभित किया)+++। भरद्वाज मुनिबरहि सुनाई॥
कहिहउँ सोइ सम्बाद बखानी+++(=बखानकर)+++। सुनहुँ+++(=सुनें)+++ सकल सज्जन सुखु मानी॥1॥