१ बालकाण्डम्

000 मङ्गलम्

01 श्लोक वन्दनानि

देववन्दनम्

विश्वास-प्रस्तुतिः

वर्णानाम् अर्थसङ्घानां
रसानां छन्दसामपि।
मङ्गलानां च कर्त्तारौ
वन्दे वाणी-विनायकौ॥1॥

मूल

वर्णानामर्थसङ्घानां रसानां छन्दसामपि।
मङ्गलानां च कर्त्तारौ वन्दे वाणीविनायकौ॥1॥

भावार्थ

अक्षरों, अर्थ समूहों, रसों, छन्दों और मङ्गलों को करने वाली सरस्वतीजी और गणेशजी की मैं वन्दना करता हूँ॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भवानी-शङ्करौ वन्दे
श्रद्धा-विश्वास-रूपिणौ।
याभ्यां विना न पश्यन्ति
सिद्धाः स्वान्तःस्थम् ईश्वरम्‌॥2॥+++(4)+++

मूल

भवानीशङ्करौ वन्दे श्रद्धाविश्वासरूपिणौ।
याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धाः स्वान्तःस्थमीश्वरम्‌॥2॥

भावार्थ

श्रद्धा और विश्वास के स्वरूप श्री पार्वतीजी और श्री शङ्करजी की मैं वन्दना करता हूँ, जिनके बिना सिद्धजन अपने अन्तःकरण में स्थित ईश्वर को नहीं देख सकते॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वन्दे बोधमयं नित्यं
गुरुं शङ्कर-रूपिणम्‌।
यम् आश्रितो हि वक्रोऽपि
चन्द्रः सर्वत्र वन्द्यते॥3॥+++(५)+++

मूल

वन्दे बोधमयं नित्यं गुरुं शङ्कररूपिणम्‌।
यमाश्रितो हि वक्रोऽपि चन्द्रः सर्वत्र वन्द्यते॥3॥

भावार्थ

ज्ञानमय, नित्य, शङ्कर रूपी गुरु की मैं वन्दना करता हूँ, जिनके आश्रित होने से ही टेढा चन्द्रमा भी सर्वत्र वन्दित होता है॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सीता-राम-गुणग्राम-
पुण्यारण्य-विहारिणौ।
वन्दे विशुद्ध-विज्ञानौ
कवीश्वर-कपीश्वरौ॥4॥+++(५)+++

मूल

सीतारामगुणग्रामपुण्यारण्यविहारिणौ।
वन्दे विशुद्धविज्ञानौ कवीश्वरकपीश्वरौ॥4॥

भावार्थ

श्री सीतारामजी के गुणसमूह रूपी पवित्र वन में विहार करने वाले, विशुद्ध विज्ञान सम्पन्न कवीश्वर श्री वाल्मीकिजी और कपीश्वर श्री हनुमानजी की मैं वन्दना करता हूँ॥4॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उद्भव-स्थिति-संहार-
कारिणीं क्लेश-हारिणीम्‌।
सर्वश्रेयस्-करीं सीतां
नतोऽहं राम-वल्लभाम्‌॥5॥

मूल

उद्भवस्थितिसंहारकारिणीं क्लेशहारिणीम्‌।
सर्वश्रेयस्करीं सीतां नतोऽहं रामवल्लभाम्‌॥5॥

भावार्थ

उत्पत्ति, स्थिति (पालन) और संहार करने वाली, क्लेशों को हरने वाली तथा सम्पूर्ण कल्याणों को करने वाली श्री रामचन्द्रजी की प्रियतमा श्री सीताजी को मैं नमस्कार करता हूँ॥5॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यन्-माया-वश-वर्ति विश्वम् अखिलं ब्रह्मादि-देवासुरा
यत्-सत्त्वाद् अमृषैव भाति सकलं रज्जौ यथाहेर् भ्रमः।
यत्-पाद-प्लवम् एकम् एव हि भवाम्भो-धेस् तितीर्षावतां
वन्देऽहं तम् अशेष-कारण-परं रामाख्यम् ईशं हरिम्‌॥6॥

मूल

यन्मायावशवर्ति विश्वमखिलं ब्रह्मादिदेवासुरा
यत्सत्त्वादमृषैव भाति सकलं रज्जौ यथाहेर्भ्रमः।
यत्पादप्लवमेकमेव हि भवाम्भोधेस्तितीर्षावतां
वन्देऽहं तमशेषकारणपरं रामाख्यमीशं हरिम्‌॥6॥

भावार्थ

जिनकी माया के वशीभूत सम्पूर्ण विश्व, ब्रह्मादि देवता और असुर हैं, जिनकी सत्ता से रस्सी में सर्प के भ्रम की भाँति यह सारा दृश्य जगत्‌ सत्य ही प्रतीत होता है और जिनके केवल चरण ही भवसागर से तरने की इच्छा वालों के लिए एकमात्र नौका हैं, उन समस्त कारणों से पर (सब कारणों के कारण और सबसे श्रेष्ठ) राम कहलाने वाले भगवान हरि की मैं वन्दना करता हूँ॥6॥

सङ्कल्पः

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाना-पुराण-निगमागम-सम्मतं यद्
रामायणे निगदितं क्वचिद् अन्यतोऽपि।
स्वान्तःसुखाय तुलसी रघुनाथ-गाथा-
भाषा-निबन्धम् अति-मञ्जुलम् आतनोति॥7॥

मूल

नानापुराणनिगमागमसम्मतं यद्
रामायणे निगदितं क्वचिदन्यतोऽपि।
स्वान्तःसुखाय तुलसी रघुनाथगाथा
भाषानिबन्धमतिमञ्जुलमातनोति॥7॥

भावार्थ

अनेक पुराण, वेद और (तन्त्र) शास्त्र से सम्मत तथा जो रामायण में वर्णित है और कुछ अन्यत्र से भी उपलब्ध श्री रघुनाथजी की कथा को तुलसीदास अपने अन्तःकरण के सुख के लिए अत्यन्त मनोहर भाषा रचना में विस्तृत करता है॥7॥

02 सोरठा वन्दनानि

देववन्दनम्

विश्वास-प्रस्तुतिः

जो सुमिरत सिधि होइ
गन-नायक-करिबर-बदन।
करउ अनुग्रह सोइ
बुद्धि-रासि सुभ-गुन-सदन॥1॥

मूल

जो सुमिरत सिधि होइ गन नायक करिबर बदन।
करउ अनुग्रह सोइ बुद्धि रासि सुभ गुन सदन॥1॥

भावार्थ

जिन्हें स्मरण करने से सब कार्य सिद्ध होते हैं, जो गणों के स्वामी और सुन्दर हाथी के मुख वाले हैं, वे ही बुद्धि के राशि और शुभ गुणों के धाम (श्री गणेशजी) मुझ पर कृपा करें॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मूक होइ बाचाल
पङ्गु चढ़इ गिरिबर गहन।
जासु कृपाँ सो दयाल
द्रवउ+++(=द्रवीभूयात्)+++ सकल-कलिमल-दहन॥2॥

मूल

मूक होइ बाचाल पङ्गु चढइ गिरिबर गहन।
जासु कृपाँ सो दयाल द्रवउ सकल कलिमल दहन॥2॥

भावार्थ

जिनकी कृपा से गूँगा बहुत सुन्दर बोलने वाला हो जाता है और लँगडा-लूला दुर्गम पहाड पर चढ जाता है, वे कलियुग के सब पापों को जला डालने वाले दयालु (भगवान) मुझ पर द्रवित हों (दया करें)॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नील-सरो-रुह-स्याम
तरुन-अरुन-बारिज-नयन।
करउ सो मम उर-धाम
सदा छीर-सागर-सयन॥3॥

मूल

नील सरोरुह स्याम तरुन अरुन बारिज नयन।
करउ सो मम उर धाम सदा छीरसागर सयन॥3॥

भावार्थ

जो नीलकमल के समान श्यामवर्ण हैं, पूर्ण खिले हुए लाल कमल के समान जिनके नेत्र हैं और जो सदा क्षीरसागर पर शयन करते हैं, वे भगवान्‌ (नारायण) मेरे हृदय में निवास करें॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कुन्द-इन्दु-सम-देह
उमा-रमन करुना-अयन।
जाहि दीन पर +++(स्)+++नेह
करउ कृपा मर्दन मयन+++(=मदन)+++॥4॥

मूल

कुन्द इन्दु सम देह उमा रमन करुना अयन।
जाहि दीन पर नेह करउ कृपा मर्दन मयन॥4॥

भावार्थ

जिनका कुन्द के पुष्प और चन्द्रमा के समान (गौर) शरीर है, जो पार्वतीजी के प्रियतम और दया के धाम हैं और जिनका दीनों पर स्नेह है, वे कामदेव का मर्दन करने वाले (शङ्करजी) मुझ पर कृपा करें॥4॥

गुरुवन्दनम्

विश्वास-प्रस्तुतिः

बन्दउँ गुरु-पद–कञ्-ज
कृपा-सिन्धु नर-रूप-हरि।
महा-मोह-तम-पुञ्ज +++(के लिए)+++
जासु बचन रबि-कर-निकर +++(है)+++॥5॥

मूल

बन्दउँ गुरु पद कञ्ज कृपा सिन्धु नररूप हरि।
महामोह तम पुञ्ज जासु बचन रबि कर निकर॥5॥

भावार्थ

मैं उन गुरु महाराज के चरणकमल की वन्दना करता हूँ, जो कृपा के समुद्र और नर रूप में श्री हरि ही हैं और जिनके वचन महामोह रूपी घने अन्धकार का नाश करने के लिए सूर्य किरणों के समूह हैं॥5॥

03 चौपाई वन्दनानि

गुरुवन्दनम्

विश्वास-प्रस्तुतिः

बन्दऊँ गुरु-पद-पदुम-परागा।
सुरुचि सुबास सरस अनुरागा॥
अमिअ+++(=अमर)+++-मूरि+++(लि =सञ्जीविनी)+++-मय-चूरन-चारू।
समन+++(=शमन)+++ सकल-भव-रुज-परिवारू॥1॥

मूल

बन्दऊँ गुरु पद पदुम परागा। सुरुचि सुबास सरस अनुरागा॥
अमिअ मूरिमय चूरन चारू। समन सकल भव रुज परिवारू॥1॥

भावार्थ

मैं गुरु महाराज के चरण कमलों की रज की वन्दना करता हूँ, जो सुरुचि (सुन्दर स्वाद), सुगन्ध तथा अनुराग रूपी रस से पूर्ण है। वह अमर मूल (सञ्जीवनी जडी) का सुन्दर चूर्ण है, जो सम्पूर्ण भव रोगों के परिवार को नाश करने वाला है॥1॥

शिवतिलकवन्दनम्

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुकृति सम्भु-तन-बिमल-बिभूती।
मञ्जुल मङ्गल मोद-प्रसूती॥
जन-मन-मञ्जु-मुकुर+++(=दर्पण)+++ मल-हरनी।
किएँ तिलक - गुन-गन-बस+++(=वश)+++-करनी॥2॥

मूल

सुकृति सम्भु तन बिमल बिभूती। मञ्जुल मङ्गल मोद प्रसूती॥
जन मन मञ्जु मुकुर मल हरनी। किएँ तिलक गुन गन बस करनी॥2॥

भावार्थ

वह रज सुकृति (पुण्यवान्‌ पुरुष) रूपी शिवजी के शरीर पर सुशोभित निर्मल विभूति है और सुन्दर कल्याण और आनन्द की जननी है, भक्त के मन रूपी सुन्दर दर्पण के मैल को दूर करने वाली और तिलक करने से गुणों के समूह को वश में करने वाली है॥2॥

गुरुवन्दनम्

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्री-गुर-पद-नख मनि-गन-जोती
सुमिरत दिब्य-दृष्टि हियँ+++(=हृदय में)+++ होती॥
दलन मोह-तम सो सप्रकासू
बड़े भाग उर आवइ जासू॥3॥

मूल

श्री गुर पद नख मनि गन जोती। सुमिरत दिब्य दृष्टि हियँ होती॥
दलन मोह तम सो सप्रकासू। बडे भाग उर आवइ जासू॥3॥

भावार्थ

श्री गुरु महाराज के चरण-नखों की ज्योति मणियों के प्रकाश के समान है, जिसके स्मरण करते ही हृदय में दिव्य दृष्टि उत्पन्न हो जाती है। वह प्रकाश अज्ञान रूपी अन्धकार का नाश करने वाला है, वह जिसके हृदय में आ जाता है, उसके बडे भाग्य हैं॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उघरहिं+++(=उद्घाट्यन्ते)+++ बिमल-बिलोचन ही+++(=हृदय)+++ के,
मिटहिं दोष-दुख-भव-रजनी के॥
सूझहिं+++(=संज्ञायन्ते)+++ राम-चरित-मनि-मानिक
गुपुत प्रगट जहँ+++(=यत्र)+++, जो+++(→गुरु)+++ जेहि+++(=जिसका)+++ खानिक+++(=खनक)+++॥4॥

मूल

उघरहिं बिमल बिलोचन ही के। मिटहिं दोष दुख भव रजनी के॥
सूझहिं राम चरित मनि मानिक। गुपुत प्रगट जहँ जो जेहि खानिक॥4॥

भावार्थ

उसके हृदय में आते ही हृदय के निर्मल नेत्र खुल जाते हैं और संसार रूपी रात्रि के दोष-दुःख मिट जाते हैं एवं श्री रामचरित्र रूपी मणि और माणिक्य, गुप्त और प्रकट जहाँ जो जिस खान में है, सब दिखाई पडने लगते हैं-॥4॥

001 वन्दनानि

01 दोहा गुरुवन्दनम्

विश्वास-प्रस्तुतिः

जथा सुअञ्जन अञ्जि दृग
साधक-सिद्ध-सु-जान+++(ज्ञान)+++।
कौतुक देखत सैल-बन-
भूतल +++(में)+++ भूरि निधान॥1॥

मूल

जथा सुअञ्जन अञ्जि दृग साधक सिद्ध सुजान।
कौतुक देखत सैल बन भूतल भूरि निधान॥1॥

भावार्थ

जैसे सिद्धाञ्जन को नेत्रों में लगाकर साधक, सिद्ध और सुजान पर्वतों, वनों और पृथ्वी के अन्दर कौतुक से ही बहुत सी खानें देखते हैं॥1॥

02 चौपाई वन्दनानि

गुरुवन्दनम्

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरु-पद-रज मृदु-मञ्जुल-अञ्जन
नयन-अमिअ दृग-दोष-बिभञ्जन॥
तेहिं करि बिमल-बिबेक-बिलोचन
बरनउँ+++(=वर्णयामि)+++ राम-चरित भव-मोचन॥1॥

मूल

गुरु पद रज मृदु मञ्जुल अञ्जन। नयन अमिअ दृग दोष बिभञ्जन॥
तेहिं करि बिमल बिबेक बिलोचन। बरनउँ राम चरित भव मोचन॥1॥

भावार्थ

श्री गुरु महाराज के चरणों की रज कोमल और सुन्दर नयनामृत अञ्जन है, जो नेत्रों के दोषों का नाश करने वाला है। उस अञ्जन से विवेक रूपी नेत्रों को निर्मल करके मैं संसाररूपी बन्धन से छुडाने वाले श्री रामचरित्र का वर्णन करता हूँ॥1॥

साधुवन्दनम्

विश्वास-प्रस्तुतिः

बन्दउँ प्रथम महीसुर-चरना
मोह-जनित-संसय सब हरना॥
सुजन-समाज सकल-गुन-खानी
करउँ प्रनाम सप्रेम सुबानी॥2॥

मूल

बन्दउँ प्रथम महीसुर चरना। मोह जनित संसय सब हरना॥
सुजन समाज सकल गुन खानी। करउँ प्रनाम सप्रेम सुबानी॥2॥

भावार्थ

पहले पृथ्वी के देवता ब्राह्मणों के चरणों की वन्दना करता हूँ, जो अज्ञान से उत्पन्न सब सन्देहों को हरने वाले हैं। फिर सब गुणों की खान सन्त समाज को प्रेम सहित सुन्दर वाणी से प्रणाम करता हूँ॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

साधु-चरित सुभ-चरित कपासू
निरस-बिसद-गुनमय-फल जासू+++(=यस्य)+++॥
जो सहि+++(=सहकर)+++ दुख परछिद्र दुरावा+++(=ढाङ्के)+++
बन्दनीय जेहिं+++(=जिससे)+++ जग जस पावा॥3॥+++(५)+++

मूल

साधु चरित सुभ चरित कपासू। निरस बिसद गुनमय फल जासू॥
जो सहि दुख परछिद्र दुरावा। बन्दनीय जेहिं जग जस पावा॥3॥

भावार्थ

सन्तों का चरित्र कपास के चरित्र (जीवन) के समान शुभ है, जिसका फल नीरस, विशद और गुणमय होता है। (कपास की डोडी नीरस होती है, सन्त चरित्र में भी विषयासक्ति नहीं है, इससे वह भी नीरस है, कपास उज्ज्वल होता है, सन्त का हृदय भी अज्ञान और पाप रूपी अन्धकार से रहित होता है, इसलिए वह विशद है और कपास में गुण (तन्तु) होते हैं, इसी प्रकार सन्त का चरित्र भी सद्गुणों का भण्डार होता है, इसलिए वह गुणमय है।) (जैसे कपास का धागा सुई के किए हुए छेद को अपना तन देकर ढँक देता है, अथवा कपास जैसे लोढे जाने, काते जाने और बुने जाने का कष्ट सहकर भी वस्त्र के रूप में परिणत होकर दूसरों के गोपनीय स्थानों को ढँकता है, उसी प्रकार) सन्त स्वयं दुःख सहकर दूसरों के छिद्रों (दोषों) को ढँकता है, जिसके कारण उसने जगत में वन्दनीय यश प्राप्त किया है॥3॥

साधूनां प्रयाग-रूपकम्
विश्वास-प्रस्तुतिः

मुद मङ्गलमय सन्त-समाजू
जो जग +++(मेँ)+++ जङ्गम-तीरथ-राजू॥
राम-भक्ति जहँ सुरसरि-धारा
सरसइ+++(=सरस्वती)+++ ब्रह्म-बिचार-प्रचारा॥4॥

मूल

मुद मङ्गलमय सन्त समाजू। जो जग जङ्गम तीरथराजू॥
राम भक्ति जहँ सुरसरि धारा। सरसइ ब्रह्म बिचार प्रचारा॥4॥

भावार्थ

सन्तों का समाज आनन्द और कल्याणमय है, जो जगत में चलता-फिरता तीर्थराज (प्रयाग) है। जहाँ (उस सन्त समाज रूपी प्रयागराज में) राम भक्ति रूपी गङ्गाजी की धारा है और ब्रह्मविचार का प्रचार सरस्वतीजी हैं॥4॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिधि-निषेध-मय-कलिमल-हरनी
करम-कथा रबि-नन्दनि +++(यमुना)+++ बरनी+++(=वर्ण्यमाना)+++॥
हरि-हर-कथा बिराजति बेनी+++(=वेणी)+++
सुनत +++(तो)+++ सकल मुद मङ्गल देनी॥5॥
+++(रामभक्तिः विधिनिषेधकथा हरि-हरकथा इति त्रिवेणीसङ्गमः, सरस्वती च ब्रह्म-विचार-प्रसारः)+++

मूल

बिधि निषेधमय कलिमल हरनी। करम कथा रबिनन्दनि बरनी॥
हरि हर कथा बिराजति बेनी। सुनत सकल मुद मङ्गल देनी॥5॥

भावार्थ

विधि और निषेध (यह करो और यह न करो) रूपी कर्मों की कथा कलियुग के पापों को हरने वाली सूर्यतनया यमुनाजी हैं और भगवान विष्णु और शङ्करजी की कथाएँ त्रिवेणी रूप से सुशोभित हैं, जो सुनते ही सब आनन्द और कल्याणों को देने वाली हैं॥5॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

+++(अक्षय)+++बटु+++(=वट)+++ बिस्वास अचल निज-धरमा
तीरथ-राज-समाज सु-करमा +++(है)+++॥
सबहि सुलभ सब-दिन सब-देसा
सेवत सादर +++(तो - )+++ समन+++(=शमन)+++ कलेसा॥6॥

मूल

बटु बिस्वास अचल निज धरमा। तीरथराज समाज सुकरमा॥
सबहि सुलभ सब दिन सब देसा। सेवत सादर समन कलेसा॥6॥

भावार्थ

(उस सन्त समाज रूपी प्रयाग में) अपने धर्म में जो अटल विश्वास है, वह अक्षयवट है और शुभ कर्म ही उस तीर्थराज का समाज (परिकर) है। वह (सन्त समाज रूपी प्रयागराज) सब देशों में, सब समय सभी को सहज ही में प्राप्त हो सकता है और आदरपूर्वक सेवन करने से क्लेशों को नष्ट करने वाला है॥6॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अकथ अलौकिक तीरथराऊ
देह सद्य फल प्रगट-प्रभाऊ॥7॥

मूल

अकथ अलौकिक तीरथराऊ। देह सद्य फल प्रगट प्रभाऊ॥7॥

भावार्थ

वह तीर्थराज अलौकिक और अकथनीय है एवं तत्काल फल देने वाला है, उसका प्रभाव प्रत्यक्ष है॥7॥

002 वन्दनानि

01 दोहा साधूनां प्रयाग-रूपकम्

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुनि समुझहिं जन मुदित-मन
मज्जहिं अति-अनुराग।
लहहिं चारि+++(४)+++-फल अछत+++(=अक्षत)+++-तनु
साधु-समाज-प्रयाग॥2॥+++(५)+++

मूल

सुनि समुझहिं जन मुदित मन मज्जहिं अति अनुराग।
लहहिं चारि फल अछत तनु साधु समाज प्रयाग॥2॥

भावार्थ

जो मनुष्य इस सन्त समाज रूपी तीर्थराज का प्रभाव प्रसन्न मन से सुनते और समझते हैं और फिर अत्यन्त प्रेमपूर्वक इसमें गोते लगाते हैं, वे इस शरीर के रहते ही धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष- चारों फल पा जाते हैं॥2॥

02 चौपाई सत्सङ्गः

विश्वास-प्रस्तुतिः

+++(साधु-प्रयाग-तीर्थ-)+++मज्जन-फल पेखिअ+++(=प्रेक्षतां)+++ ततकाला
काक होहिं पिक, बकउ मराला+++(=हंस)+++॥
सुनि आचरज करै जनि+++(=न)+++ कोई
सत-सङ्गति-महिमा नहिं गोई+++(=गुप्त)+++॥1॥+++(५)+++

मूल

मज्जन फल पेखिअ ततकाला। काक होहिं पिक बकउ मराला॥
सुनि आचरज करै जनि कोई। सतसङ्गति महिमा नहिं गोई॥1॥

भावार्थ

इस तीर्थराज में स्नान का फल तत्काल ऐसा देखने में आता है कि कौए कोयल बन जाते हैं और बगुले हंस। यह सुनकर कोई आश्चर्य न करे, क्योङ्कि सत्सङ्ग की महिमा छिपी नहीं है॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बालमीक नारद घटजोनी
निज निज मुखनि कही निज होनी+++(=घटनाः)+++॥
जलचर थलचर नभचर नाना
जे जड़ चेतन जीव जहाना॥2॥

मूल

बालमीक नारद घटजोनी। निज निज मुखनि कही निज होनी॥
जलचर थलचर नभचर नाना। जे जड चेतन जीव जहाना॥2॥

भावार्थ

वाल्मीकिजी, नारदजी और अगस्त्यजी ने अपने-अपने मुखों से अपनी होनी (जीवन का वृत्तान्त) कही है। जल में रहने वाले, जमीन पर चलने वाले और आकाश में विचरने वाले नाना प्रकार के जड-चेतन जितने जीव इस जगत में हैं॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मति कीरति गति भूति भलाई
जब जेहिं+++(=जिससे)+++ जतन+++(=यत्न)+++, जहाँ जेहिं+++(=जिसने)+++ पाई॥
सो जानब+++(=ज्ञातव्य)+++ सतसङ्ग-प्रभाऊ
लोकहुँ बेद न आन+++(=अन्य)+++ उपाऊ+++(य)+++॥3॥

मूल

मति कीरति गति भूति भलाई। जब जेहिं जतन जहाँ जेहिं पाई॥
सो जानब सतसङ्ग प्रभाऊ। लोकहुँ बेद न आन उपाऊ॥3॥

भावार्थ

उनमें से जिसने जिस समय जहाँ कहीं भी जिस किसी यत्न से बुद्धि, कीर्ति, सद्गति, विभूति (ऐश्वर्य) और भलाई पाई है, सो सब सत्सङ्ग का ही प्रभाव समझना चाहिए। वेदों में और लोक में इनकी प्राप्ति का दूसरा कोई उपाय नहीं है॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिनु सत-सङ्ग बिबेक न होई
राम-कृपा बिनु सुलभ न सोई+++(=सोऽपि)+++॥
सत-सङ्गत मुद-मङ्गल-मूला
सोई फल सिधि सब-साधन फूला॥4॥+++(४)+++

मूल

बिनु सतसङ्ग बिबेक न होई। राम कृपा बिनु सुलभ न सोई॥
सतसङ्गत मुद मङ्गल मूला। सोई फल सिधि सब साधन फूला॥4॥

भावार्थ

सत्सङ्ग के बिना विवेक नहीं होता और श्री रामजी की कृपा के बिना वह सत्सङ्ग सहज में मिलता नहीं। सत्सङ्गति आनन्द और कल्याण की जड है। सत्सङ्ग की सिद्धि (प्राप्ति) ही फल है और सब साधन तो फूल है॥4॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सठ सुधरहिं सतसङ्गति पाई
पारस+++(=philosophers stone)+++ +++(स्)+++परस कुधात सुहाई+++(=शोभित हुआ)+++॥
बिधि बस सुजन कुसङ्गत परहीं+++(=पडहीं)+++
फनि+++(=फणि)+++-मनि सम निज-गुन अनुसरहीं॥5॥+++(५)+++

मूल

सठ सुधरहिं सतसङ्गति पाई। पारस परस कुधात सुहाई॥
बिधि बस सुजन कुसङ्गत परहीं। फनि मनि सम निज गुन अनुसरहीं॥5॥

भावार्थ

दुष्ट भी सत्सङ्गति पाकर सुधर जाते हैं, जैसे पारस के स्पर्श से लोहा सुहावना हो जाता है (सुन्दर सोना बन जाता है), किन्तु दैवयोग से यदि कभी सज्जन कुसङ्गति में पड जाते हैं, तो वे वहाँ भी साँप की मणि के समान अपने गुणों का ही अनुसरण करते हैं। (अर्थात्‌ जिस प्रकार साँप का संसर्ग पाकर भी मणि उसके विष को ग्रहण नहीं करती तथा अपने सहज गुण प्रकाश को नहीं छोडती, उसी प्रकार साधु पुरुष दुष्टों के सङ्ग में रहकर भी दूसरों को प्रकाश ही देते हैं, दुष्टों का उन पर कोई प्रभाव नहीं पडता।)॥5॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बिधि हरि-हर-कबि-कोबिद-बानी
कहत साधु-महिमा सकुचानी॥
सो मोसन+++(=मुझसे)+++ कहि जात न कैसें +++(इति चेत् -)+++
साक+++(=शाक)+++ बनिक मनि-गुन-गन जैसें॥6॥

मूल

बिधि हरि हर कबि कोबिद बानी। कहत साधु महिमा सकुचानी॥
सो मो सन कहि जात न कैसें। साक बनिक मनि गुन गन जैसें॥6॥

भावार्थ

ब्रह्मा, विष्णु, शिव, कवि और पण्डितों की वाणी भी सन्त महिमा का वर्णन करने में सकुचाती है, वह मुझसे किस प्रकार नहीं कही जाती, जैसे साग-तरकारी बेचने वाले से मणियों के गुण समूह नहीं कहे जा सकते॥6॥

003 सौजन्यम्

01 दोहा सज्जन-वन्दनम्

विश्वास-प्रस्तुतिः

बन्दउँ सन्त समान-चित
हित अन-हित+++(=शत्रु)+++ नहिं कोइ।
अञ्जलि-गत सुभ-सुमन+++(स्)+++ जिमि
सम सुगन्ध कर दोइ॥3 (क)॥

मूल

बन्दउँ सन्त समान चित हित अनहित नहिं कोइ।
अञ्जलि गत सुभ सुमन जिमि सम सुगन्ध कर दोइ॥1॥

भावार्थ

मैं सन्तों को प्रणाम करता हूँ, जिनके चित्त में समता है, जिनका न कोई मित्र है और न शत्रु! जैसे अञ्जलि में रखे हुए सुन्दर फूल (जिस हाथ ने फूलों को तोडा और जिसने उनको रखा उन) दोनों ही हाथों को समान रूप से सुगन्धित करते हैं (वैसे ही सन्त शत्रु और मित्र दोनों का ही समान रूप से कल्याण करते हैं।)॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सन्त सरल-चित जगत-हित
जानि सुभाउ+++(=स्वभाव)+++ सनेहु।
बाल-बिनय सुनि करि कृपा
राम-चरन-रति देहु॥ 3 (ख)+++(र५)+++

मूल

सन्त सरल चित जगत हित जानि सुभाउ सनेहु।
बालबिनय सुनि करि कृपा राम चरन रति देहु॥ 3.1॥

भावार्थ

सन्त सरल हृदय और जगत के हितकारी होते हैं, उनके ऐसे स्वभाव और स्नेह को जानकर मैं विनय करता हूँ, मेरी इस बाल-विनय को सुनकर कृपा करके श्री रामजी के चरणों में मुझे प्रीति दें॥2॥

02 चौपाई खलवर्णनम्

विश्वास-प्रस्तुतिः

बहुरि+++(=पुनः)+++ बन्दि खल-गन सतिभाएँ+++(=सत्यभावेन)+++
जे बिनु काज दाहिनेहु+++(=दाहने भी)+++ बाएँ+++(=वामे [करहिँ])+++॥
पर-हित-हानि लाभ जिन्ह केरें+++(=के)+++
उजरें हरष, बिषाद बसेरें+++(=वासे)+++॥1॥+++(र५)+++

मूल

बहुरि बन्दि खल गन सतिभाएँ। जे बिनु काज दाहिनेहु बाएँ॥
पर हित हानि लाभ जिन्ह केरें। उजरें हरष बिषाद बसेरें॥1॥

भावार्थ

अब मैं सच्चे भाव से दुष्टों को प्रणाम करता हूँ, जो बिना ही प्रयोजन, अपना हित करने वाले के भी प्रतिकूल आचरण करते हैं। दूसरों के हित की हानि ही जिनकी दृष्टि में लाभ है, जिनको दूसरों के उजडने में हर्ष और बसने में विषाद होता है॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरि-हर-जस+++(नामक)+++-राकेस+++(=राकापतिः)+++ राहु से+++(=सद्दृश)+++
पर अकाज+++(=अकार्य/ दुष्कार्य)+++-भट सहस+++(स्र)+++-बाहु से॥
जे पर-दोष लखहिं+++(=लक्षयन्ति)+++ सहसाखी+++(क्षी)+++
पर-हित-घृत +++(के लिए)+++ जिन्ह के मन माखी+++(=मक्खी)+++॥2॥+++(५)+++

मूल

हरि हर जस राकेस राहु से। पर अकाज भट सहसबाहु से॥
जे पर दोष लखहिं सहसाखी। पर हित घृत जिन्ह के मन माखी॥2॥

भावार्थ

जो हरि और हर के यश रूपी पूर्णिमा के चन्द्रमा के लिए राहु के समान हैं (अर्थात जहाँ कहीं भगवान विष्णु या शङ्कर के यश का वर्णन होता है, उसी में वे बाधा देते हैं) और दूसरों की बुराई करने में सहस्रबाहु के समान वीर हैं। जो दूसरों के दोषों को हजार आँखों से देखते हैं और दूसरों के हित रूपी घी के लिए जिनका मन मक्खी के समान है (अर्थात्‌ जिस प्रकार मक्खी घी में गिरकर उसे खराब कर देती है और स्वयं भी मर जाती है, उसी प्रकार दुष्ट लोग दूसरों के बने-बनाए काम को अपनी हानि करके भी बिगाड देते हैं)॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेज कृसानु, रोष महिषेसा+++(=यम)+++
अघ-अवगुन-धन-धनी धनेसा॥
उदय +++(धूम)+++केत+++(तु)+++-सम हित सबही के
कुम्भकरन-सम सोवत +++(तो)+++ नीके+++(=निक्त/ साधु)+++॥3॥ +++(४)+++

मूल

तेज कृसानु रोष महिषेसा। अघ अवगुन धन धनी धनेसा॥
उदय केत सम हित सबही के। कुम्भकरन सम सोवत नीके॥3॥

भावार्थ

जो तेज (दूसरों को जलाने वाले ताप) में अग्नि और क्रोध में यमराज के समान हैं, पाप और अवगुण रूपी धन में कुबेर के समान धनी हैं, जिनकी बढती सभी के हित का नाश करने के लिए केतु (पुच्छल तारे) के समान है और जिनके कुम्भकर्ण की तरह सोते रहने में ही भलाई है॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पर-अकाज लगि+++(=लग्न करके)+++ तनु +++(को भी)+++ परि-हरहीं,
जिमि हिम-उपल कृषी दलि गरहीं+++(=गलन्ति)+++॥
बन्दउँ खल-जस-सेष सरोषा-
सहस-बदन बरनइ पर-दोषा॥4॥+++(५)+++

मूल

पर अकाजु लगि तनु परिहरहीं। जिमि हिम उपल कृषी दलि गरहीं॥
बन्दउँ खल जस सेष सरोषा। सहस बदन बरनइ पर दोषा॥4॥

भावार्थ

जैसे ओले खेती का नाश करके आप भी गल जाते हैं, वैसे ही वे दूसरों का काम बिगाडने के लिए अपना शरीर तक छोड देते हैं। मैं दुष्टों को (हजार मुख वाले) शेषजी के समान समझकर प्रणाम करता हूँ, जो पराए दोषों का हजार मुखों से बडे रोष के साथ वर्णन करते हैं॥4॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुनि प्रनवउँ पृथु-राज समाना
पर-अघ सुनइ सहस-दस-काना॥
+++(स पृथु-राजः सहस्रकर्णो ऽबुभूषत् सुर-यश-शुश्रूषया)+++
बहुरि+++(=पुनः)+++ सक्र-सम बिनवउँ+++(=विनयामि)+++ तेही
सन्तत सुरा-ऽऽनीक हित जेही॥5॥+++(५)+++

मूल

पुनि प्रनवउँ पृथुराज समाना। पर अघ सुनइ सहस दस काना॥
बहुरि सक्र सम बिनवउँ तेही। सन्तत सुरानीक हित जेही॥5॥

भावार्थ

पुनः उनको राजा पृथु (जिन्होन्ने भगवान का यश सुनने के लिए दस हजार कान माँगे थे) के समान जानकर प्रणाम करता हूँ, जो दस हजार कानों से दूसरों के पापों को सुनते हैं। फिर इन्द्र के समान मानकर उनकी विनय करता हूँ, जिनको सुरा (मदिरा) नीकी और हितकारी मालूम देती है (इन्द्र के लिए भी सुरानीक अर्थात्‌ देवताओं की सेना हितकारी है)॥5॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बचन-बज्र जेहि सदा पिआरा
सहस-नयन पर-दोष निहारा+++(=निभाला)+++॥6॥

मूल

बचन बज्र जेहि सदा पिआरा। सहस नयन पर दोष निहारा॥6॥

भावार्थ

जिनको कठोर वचन रूपी वज्र सदा प्यारा लगता है और जो हजार आँखों से दूसरों के दोषों को देखते हैं॥6॥

004 सौजन्यम्

01 दोहा खलवन्दनम्

विश्वास-प्रस्तुतिः

उदासीन-अरि-मीत–हित
सुनत जरहिं+++(=जलहिँ)+++ खल रीति।
जानि पानि+++(णि)+++-जुग जोरि+++(डि यह)+++ जन
बिनती करइ सप्रीति॥4॥

मूल

उदासीन अरि मीत हित सुनत जरहिं खल रीति।
जानि पानि जुग जोरि जन बिनती करइ सप्रीति॥4॥

भावार्थ

दुष्टों की यह रीति है कि वे उदासीन, शत्रु अथवा मित्र, किसी का भी हित सुनकर जलते हैं। यह जानकर दोनों हाथ जोडकर यह जन प्रेमपूर्वक उनसे विनय करता है॥4॥

02 चौपाई सद्-असद्-भेदः

विश्वास-प्रस्तुतिः

मैं अपनी दिसि कीन्ह निहोरा+++(=प्रार्थना)+++
तिन्ह निज ओर +++(से)+++ न लाउब+++(=लाना)+++ भोरा+++(ला[पन])+++॥
बायस पलिअहिं+++(=पालयन्ति)+++ अति अनुरागा
होहिं निरामिष कबहुँ कि कागा+++(का)+++॥1॥+++(४)+++

मूल

मैं अपनी दिसि कीन्ह निहोरा। तिन्ह निज ओर न लाउब भोरा॥
बायस पलिअहिं अति अनुरागा। होहिं निरामिष कबहुँ कि कागा॥1॥

भावार्थ

मैन्ने अपनी ओर से विनती की है, परन्तु वे अपनी ओर से कभी नहीं चूकेङ्गे। कौओं को बडे प्रेम से पालिए, परन्तु वे क्या कभी मांस के त्यागी हो सकते हैं?॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बन्दउँ सन्त-असज्जन-चरना
दुःख-प्रद उभय, +++(किन्तु)+++ बीच कछु बरना+++(=वर्णन)+++॥
+++(सन्त-)+++ बिछुरत एक प्रान हरि लेहीं
+++(खल-)+++ मिलत एक दुख दारुन देहीं॥2॥+++(५)+++

मूल

बन्दउँ सन्त असज्जन चरना। दुःखप्रद उभय बीच कछु बरना॥
बिछुरत एक प्रान हरि लेहीं। मिलत एक दुख दारुन देहीं॥2॥

भावार्थ

अब मैं सन्त और असन्त दोनों के चरणों की वन्दना करता हूँ, दोनों ही दुःख देने वाले हैं, परन्तु उनमें कुछ अन्तर कहा गया है। वह अन्तर यह है कि एक (सन्त) तो बिछुडते समय प्राण हर लेते हैं और दूसरे (असन्त) मिलते हैं, तब दारुण दुःख देते हैं। (अर्थात्‌ सन्तों का बिछुडना मरने के समान दुःखदायी होता है और असन्तों का मिलना।)॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उपजहिं+++(=उपजात)+++ एक सङ्ग जग माहीं
जलज जोङ्क+++(=जलौका रक्तपाः)+++ जिमि, गुन बिलगाहीं+++(=विलग्न किये)+++॥
सुधा-सुरा-सम साधु-असाधू +++(क्रमशः)+++
जनक एक जग+++(रूपी)+++-जलधि अगाधू॥3॥+++(५)+++

मूल

उपजहिं एक सङ्ग जग माहीं। जलज जोङ्क जिमि गुन बिलगाहीं॥
सुधा सुरा सम साधु असाधू। जनक एक जग जलधि अगाधू॥3॥

भावार्थ

दोनों (सन्त और असन्त) जगत में एक साथ पैदा होते हैं, पर (एक साथ पैदा होने वाले) कमल और जोङ्क की तरह उनके गुण अलग-अलग होते हैं। (कमल दर्शन और स्पर्श से सुख देता है, किन्तु जोङ्क शरीर का स्पर्श पाते ही रक्त चूसने लगती है।) साधु अमृत के समान (मृत्यु रूपी संसार से उबारने वाला) और असाधु मदिरा के समान (मोह, प्रमाद और जडता उत्पन्न करने वाला) है, दोनों को उत्पन्न करने वाला जगत रूपी अगाध समुद्र एक ही है। (शास्त्रों में समुद्रमन्थन से ही अमृत और मदिरा दोनों की उत्पत्ति बताई गई है।)॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भल अनभल निज-निज-करतूती
लहत+++(←लभ्)+++ सुजस अपलोक बिभूती॥
सुधा सुधाकर सुरसरि+++(त्)+++ साधू
गरल अनल कलिमल सरि+++(त्)+++ ब्याधू+++(=व्याध)+++॥4॥

+++(इन के)+++ गुन अवगुन जानत सब कोई
जो जेहि+++(=यस्मै)+++ भाव, नीक+++(=निक्त/ साधु)+++ तेहि+++(=तस्मै)+++ सोई॥5॥

मूल

भल अनभल निज निज करतूती। लहत सुजस अपलोक बिभूती॥
सुधा सुधाकर सुरसरि साधू। गरल अनल कलिमल सरि ब्याधू॥4॥
गुन अवगुन जानत सब कोई। जो जेहि भाव नीक तेहि सोई॥5॥

भावार्थ

भले और बुरे अपनी-अपनी करनी के अनुसार सुन्दर यश और अपयश की सम्पत्ति पाते हैं। अमृत, चन्द्रमा, गङ्गाजी और साधु एवं विष, अग्नि, कलियुग के पापों की नदी अर्थात्‌ कर्मनाशा और हिंसा करने वाला व्याध, इनके गुण-अवगुण सब कोई जानते हैं, किन्तु जिसे जो भाता है, उसे वही अच्छा लगता है॥4-5॥

005 सौजन्यम्

01 दोहा सौजन्यम्

विश्वास-प्रस्तुतिः

भलो +++(जन)+++ भलाइ हि +++(को)+++ पै+++(=प्रति)+++ लहइ+++(=लभते)+++,
+++(किन्तु)+++ लहइ निचाइ हि नीचु।
सुधा सराहिअ+++(=श्लाघ्यते)+++ अमरताँ+++(=अमरतया)+++
गरल सराहिअ मीचु+++(=मृत्यु [से])+++=॥5॥

मूल

भलो भलाइहि पै लहइ लहइ निचाइहि नीचु।
सुधा सराहिअ अमरताँ गरल सराहिअ मीचु॥5॥

भावार्थ

भला भलाई ही ग्रहण करता है और नीच नीचता को ही ग्रहण किए रहता है। अमृत की सराहना अमर करने में होती है और विष की मारने में॥5॥

02 चौपाई सद्-असद्-विवेकस्रोतः

विश्वास-प्रस्तुतिः

खल-अघ-अगुन, साधु-गुन गाहा+++(था)+++।
उभय अपार उदधि अवगाहा॥
तेहि तें+++(=से)+++ कछु+++(=कुछ)+++ गुन दोष बखाने+++(=व्याख्यातानि)+++।
+++(यतः-)+++ सङ्ग्रह त्याग न बिनु पहिचाने॥1॥+++(४)+++

मूल

खल अघ अगुन साधु गुन गाहा। उभय अपार उदधि अवगाहा॥
तेहि तें कछु गुन दोष बखाने। सङ्ग्रह त्याग न बिनु पहिचाने॥1॥

भावार्थ

दुष्टों के पापों और अवगुणों की और साधुओं के गुणों की कथाएँ- दोनों ही अपार और अथाह समुद्र हैं। इसी से कुछ गुण और दोषों का वर्णन किया गया है, क्योङ्कि बिना पहचाने उनका ग्रहण या त्याग नहीं हो सकता॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भलेउ पोच सब बिधि उपजाए। गनि गुन दोष बेद बिलगाए॥
कहहिं बेद इतिहास पुराना। बिधि प्रपञ्चु गुन अवगुन साना॥2॥

मूल

भलेउ पोच सब बिधि उपजाए। गनि गुन दोष बेद बिलगाए॥
कहहिं बेद इतिहास पुराना। बिधि प्रपञ्चु गुन अवगुन साना॥2॥

भावार्थ

भले-बुरे सभी ब्रह्मा के पैदा किए हुए हैं, पर गुण और दोषों को विचार कर वेदों ने उनको अलग-अलग कर दिया है। वेद, इतिहास और पुराण कहते हैं कि ब्रह्मा की यह सृष्टि गुण-अवगुणों से सनी हुई है॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुख सुख पाप पुन्य दिन राती
साधु असाधु सुजाति कुजाती॥
दानव देव ऊँच अरु नीचू
अमिअ+++(=अमृत)+++ सुजीवनु माहुरु+++(=मधुर[विष])+++ मीचू+++(=मृत्यु)+++॥3॥
माया ब्रह्म जीव जगदीसा
लच्छि अलच्छि रङ्क+++(=दरिद्र)+++ अवनीसा+++(=अवनीश)+++॥
कासी मग+++(ध)+++ सुरसरि+++(त्)+++ क्र+++(कर्)+++मनासा
मरु मारव+++(=मालव)+++ महिदेव+++(=भूसुर)+++ गवासा+++(=गवाश म्लेच्छ)+++॥4॥
सरग नरक अनुराग बिरागा -
+++(तिन्ह के)+++ निगमागम +++(शास्त्र)+++ गुन दोष बिभागा॥5॥

मूल

दुख सुख पाप पुन्य दिन राती। साधु असाधु सुजाति कुजाती॥
दानव देव ऊँच अरु नीचू। अमिअ सुजीवनु माहुरु मीचू॥3॥
माया ब्रह्म जीव जगदीसा। लच्छि अलच्छि रङ्क अवनीसा॥
कासी मग सुरसरि क्रमनासा। मरु मारव महिदेव गवासा॥4॥
सरग नरक अनुराग बिरागा। निगमागम गुन दोष बिभागा॥5॥

भावार्थ

दुःख-सुख, पाप-पुण्य, दिन-रात, साधु-असाधु, सुजाति-कुजाति, दानव-देवता, ऊँच-नीच, अमृत-विष, सुजीवन (सुन्दर जीवन)-मृत्यु, माया-ब्रह्म, जीव-ईश्वर, सम्पत्ति-दरिद्रता, रङ्क-राजा, काशी-मगध, गङ्गा-कर्मनाशा, मारवाड-मालवा, ब्राह्मण-कसाई, स्वर्ग-नरक, अनुराग-वैराग्य (ये सभी पदार्थ ब्रह्मा की सृष्टि में हैं।) वेद-शास्त्रों ने उनके गुण-दोषों का विभाग कर दिया है॥3-5॥

006 सद्-असद्-विवेकः

01 दोहा सद्-असद्-विवेकः

विश्वास-प्रस्तुतिः

जड़-चेतन-गुन-दोषमय
बिस्व कीन्ह करतार।
सन्त हंस-गुन गहहिं पय
परिहरि बारि-बिकार॥6॥+++(र४)+++

मूल

जड चेतन गुन दोषमय बिस्व कीन्ह करतार।
सन्त हंस गुन गहहिं पय परिहरि बारि बिकार॥6॥

भावार्थ

विधाता ने इस जड-चेतन विश्व को गुण-दोषमय रचा है, किन्तु सन्त रूपी हंस दोष रूपी जल को छोडकर गुण रूपी दूध को ही ग्रहण करते हैं॥6॥

02 चौपाई सौजन्यम्

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस बिबेक जब देइ बिधाता
तब तजि+++(त्यजि)+++ दोष, गुनहिं मनु राता॥
काल-सुभाउ+++(=स्वभाव)+++-करम-बरिआईं+++(=बल से)+++
भले उ+++(=भले भी)+++ प्रकृति-बस+++(=वश)+++ चुकइ+++(←च्युत्+कृ)+++ भलाईं॥1॥

मूल

अस बिबेक जब देइ बिधाता। तब तजि दोष गुनहिं मनु राता॥
काल सुभाउ करम बरिआईं। भलेउ प्रकृति बस चुकइ भलाईं॥1॥

भावार्थ

विधाता जब इस प्रकार का (हंस का सा) विवेक देते हैं, तब दोषों को छोडकर मन गुणों में अनुरक्त होता है। काल स्वभाव और कर्म की प्रबलता से भले लोग (साधु) भी माया के वश में होकर कभी-कभी भलाई से चूक जाते हैं॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सो +++(स्खलितसज्जन)+++ सुधारि हरिजन जिमि लेहीं
दलि दुख-दोष बिमल-जसु देहीं॥
खलउ करहिं भल पाइ सुसङ्गू
मिटइ न मलिन - सुभाउ अभङ्गू॥2॥

मूल

सो सुधारि हरिजन जिमि लेहीं। दलि दुख दोष बिमल जसु देहीं॥
खलउ करहिं भल पाइ सुसङ्गू। मिटइ न मलिन सुभाउ अभङ्गू॥2॥

भावार्थ

भगवान के भक्त जैसे उस चूक को सुधार लेते हैं और दुःख-दोषों को मिटाकर निर्मल यश देते हैं, वैसे ही दुष्ट भी कभी-कभी उत्तम सङ्ग पाकर भलाई करते हैं, परन्तु उनका कभी भङ्ग न होने वाला मलिन स्वभाव नहीं मिटता॥2॥

वञ्चक-दशा
विश्वास-प्रस्तुतिः

लखि+++(=लक्षित्वा)+++ सुबेष जग-बञ्चक जे ऊ+++(=येऽपि)+++
बेष-प्रताप पूजिअहिं ते ऊ॥
उघरहिं+++(=उद्घाट्यन्ते)+++ अन्त +++(मेँ)+++ न होइ निबाहू+++(=निर्वाह)+++
कालनेमि जिमि रावन राहू॥3॥

मूल

लखि सुबेष जग बञ्चक जेऊ। बेष प्रताप पूजिअहिं तेऊ॥
उघरहिं अन्त न होइ निबाहू। कालनेमि जिमि रावन राहू॥3॥

भावार्थ

जो (वेषधारी) ठग हैं, उन्हें भी अच्छा (साधु का सा) वेष बनाए देखकर वेष के प्रताप से जगत पूजता है, परन्तु एक न एक दिन वे चौडे आ ही जाते हैं, अन्त तक उनका कपट नहीं निभता, जैसे कालनेमि, रावण और राहु का हाल हुआ ॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

+++(अन्ते)+++ किएहुँ कुबेषु साधु सनमानू
जिमि जग +++(मेँ)+++ जामवन्त-हनुमानू॥
हानि कुसङ्ग, सुसङ्गति लाहू+++(भ)+++
लोकहुँ बेद बिदित सब काहू+++(=किसीको)+++॥4॥ +++(4)+++

मूल

किएहुँ कुबेषु साधु सनमानू। जिमि जग जामवन्त हनुमानू॥
हानि कुसङ्ग सुसङ्गति लाहू। लोकहुँ बेद बिदित सब काहू॥4॥

भावार्थ

बुरा वेष बना लेने पर भी साधु का सम्मान ही होता है, जैसे जगत में जाम्बवान्‌ और हनुमान्‌जी का हुआ। बुरे सङ्ग से हानि और अच्छे सङ्ग से लाभ होता है, यह बात लोक और वेद में है और सभी लोग इसको जानते हैं॥4॥

सङ्गप्रभावः

विश्वास-प्रस्तुतिः

गगन चढ़इ रज पवन-प्रसङ्गा
कीचहिं+++(=कीचड़ मेँ)+++ मिलइ नीच जल-सङ्गा॥
साधु असाधु सदन-सुक+++(=शुक)+++-सारीं+++(=शारी=मैना)+++
सुमिरहिं राम, +++(अथवा)+++ देहिं गनि+++(त)+++ गारीं+++(ली)+++॥5॥+++(५)+++

मूल

गगन चढइ रज पवन प्रसङ्गा। कीचहिं मिलइ नीच जल सङ्गा॥
साधु असाधु सदन सुक सारीं। सुमिरहिं राम देहिं गनि गारीं॥5॥

भावार्थ

पवन के सङ्ग से धूल आकाश पर चढ जाती है और वही नीच (नीचे की ओर बहने वाले) जल के सङ्ग से कीचड में मिल जाती है। साधु के घर के तोता-मैना राम-राम सुमिरते हैं और असाधु के घर के तोता-मैना गिन-गिनकर गालियाँ देते हैं॥5॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धूम कुसङ्गति कारिख+++(=कालिख, कज्जली)+++ होई
लिखिअ पुरान मञ्जु-मसि सोई॥
सोइ जल-अनल-अनिल-सङ्घाता
होइ जलद जग-जीवन-दाता॥6॥+++(५)+++

मूल

धूम कुसङ्गति कारिख होई। लिखिअ पुरान मञ्जु मसि सोई॥
सोइ जल अनल अनिल सङ्घाता। होइ जलद जग जीवन दाता॥6॥

भावार्थ

कुसङ्ग के कारण धुआँ कालिख कहलाता है, वही धुआँ (सुसङ्ग से) सुन्दर स्याही होकर पुराण लिखने के काम में आता है और वही धुआँ जल, अग्नि और पवन के सङ्ग से बादल होकर जगत को जीवन देने वाला बन जाता है॥6॥

007 सर्ववन्दनम्

01 दोहा सङ्गप्रभावः, सर्ववन्दनम्

विश्वास-प्रस्तुतिः

ग्रह भेषज जल पवन पट
पाइ कुजोग सुजोग।
होहिं कुबस्तु सुबस्तु जग
+++(ऐसे)+++ लखहिं+++(=लक्षयन्ति)+++ सुलच्छन लोग॥7 (क)॥

मूल

ग्रह भेजष जल पवन पट पाइ कुजोग सुजोग।
होहिं कुबस्तु सुबस्तु जग लखहिं सुलच्छन लोग॥1॥

भावार्थ

ग्रह, औषधि, जल, वायु और वस्त्र- ये सब भी कुसङ्ग और सुसङ्ग पाकर संसार में बुरे और भले पदार्थ हो जाते हैं। चतुर एवं विचारशील पुरुष ही इस बात को जान पाते हैं॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सम-प्रकास-तम पाख+++(=पक्ष)+++-दुहुँ+++(=दोनो मेँ)+++
नाम भेद बिधि-कीन्ह+++(=कृत)+++।
ससि +++(के सम्बन्ध मेँ पक्षोँ को)+++ सोषक पोषक समुझि
जग जस अपजस दीन्ह॥7 (ख)॥+++(४)+++

मूल

सम प्रकास तम पाख दुहुँ नाम भेद बिधि कीन्ह।
ससि सोषक पोषक समुझि जग जस अपजस दीन्ह॥2॥

भावार्थ

महीने के दोनों पखवाडों में उजियाला और अँधेरा समान ही रहता है, परन्तु विधाता ने इनके नाम में भेद कर दिया है (एक का नाम शुक्ल और दूसरे का नाम कृष्ण रख दिया)। एक को चन्द्रमा का बढाने वाला और दूसरे को उसका घटाने वाला समझकर जगत ने एक को सुयश और दूसरे को अपयश दे दिया॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जड़ चेतन जग जीव जत+++(=यत्)+++
सकल राममय जानि।
बन्दउँ सब के पद-कमल
सदा जोरि+++(डि)+++ जुग-पानि+++(णि)+++॥7(ग)॥

मूल

जड चेतन जग जीव जत सकल राममय जानि। बन्दउँ सब के पद कमल सदा जोरि जुग पानि॥3॥

भावार्थ

जगत में जितने जड और चेतन जीव हैं, सबको राममय जानकर मैं उन सबके चरणकमलों की सदा दोनों हाथ जोडकर वन्दना करता हूँ॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

देव दनुज नर नाग खग
प्रेत पितर गन्धर्ब।
बन्दउँ किन्नर रजनि-चर
कृपा करहु अब सर्ब॥7 (घ)+++(र४)+++

मूल

देव दनुज नर नाग खग प्रेत पितर गन्धर्ब।
बन्दउँ किन्नर रजनिचर कृपा करहु अब सर्ब॥7 (घ)

भावार्थ

देवता, दैत्य, मनुष्य, नाग, पक्षी, प्रेत, पितर, गन्धर्व, किन्नर और निशाचर सबको मैं प्रणाम करता हूँ। अब सब मुझ पर कृपा कीजिए॥4॥

02 चौपाई विनयकथनम्

विश्वास-प्रस्तुतिः

आकर+++(=आकरः)+++ चारि-लाख-चौरासी
जाति जीव जल-थल-नभ-बासी॥
सीय-राममय सब जग जानी। करउँ प्रनाम जोरि जुग-पानी+++(णी)+++॥1॥+++(र५)+++ ॥

मूल

आकर चारि लाख चौरासी। जाति जीव जल थल नभ बासी॥
सीय राममय सब जग जानी। करउँ प्रनाम जोरि जुग पानी॥1॥

भावार्थ

चौरासी लाख योनियों में चार प्रकार के (स्वेदज, अण्डज, उद्भिज्ज, जरायुज) जीव जल, पृथ्वी और आकाश में रहते हैं, उन सबसे भरे हुए इस सारे जगत को श्री सीताराममय जानकर मैं दोनों हाथ जोडकर प्रणाम करता हूँ॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जानि कृपाऽऽकर किङ्कर मोहू+++(=मुझे भी)+++
सब मिलि करहु छाड़ि+++(=छोड़कर)+++ छल छोहू+++(=कृपा भी)+++॥
निज बुधि-बल भरोस मोहि नाहीं
तातें+++(=ततः)+++ बिनय करउँ सब पाहीं+++(=पादयोः)+++॥2॥

मूल

जानि कृपाकर किङ्कर मोहू। सब मिलि करहु छाडि छल छोहू॥
निज बुधि बल भरोस मोहि नाहीं। तातें बिनय करउँ सब पाहीं॥2॥

भावार्थ

मुझको अपना दास जानकर कृपा की खान आप सब लोग मिलकर छल छोडकर कृपा कीजिए। मुझे अपने बुद्धि-बल का भरोसा नहीं है, इसीलिए मैं सबसे विनती करता हूँ॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

करन चहउँ रघुपति-गुन-गाहा
लघु-मति मोरि, चरित अवगाहा॥
सूझ न एकउ अङ्ग उपाऊ+++(य)+++
मन मति रङ्क+++(=दरिद्र)+++, मनोरथ राउ॥3॥+++(4)+++

मूल

करन चहउँ रघुपति गुन गाहा। लघु मति मोरि चरित अवगाहा॥
सूझ न एकउ अङ्ग उपाऊ। मन मति रङ्क मनोरथ राउ॥3॥

भावार्थ

मैं श्री रघुनाथजी के गुणों का वर्णन करना चाहता हूँ, परन्तु मेरी बुद्धि छोटी है और श्री रामजी का चरित्र अथाह है। इसके लिए मुझे उपाय का एक भी अङ्ग अर्थात्‌ कुछ (लेशमात्र) भी उपाय नहीं सूझता। मेरे मन और बुद्धि कङ्गाल हैं, किन्तु मनोरथ राजा है॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मति अति नीच ऊँचि रुचि आछी। चहिअ अमिअ जग जुरइ न छाछी॥
छमिहहिं सज्जन मोरि ढिठाई। सुनिहहिं बालबचन मन लाई॥4॥

मूल

मति अति नीच, ऊँचि रुचि आछी+++(=अच्च्छी)+++
चहिअ अमिअ+++(=अमृत)+++, जग +++(मेँ)+++ जुरइ+++(=जुडइ)+++ न छाछी+++(=छास)+++॥
छमिहहिं+++(=क्षमन्ते)+++ सज्जन मोरि ढिठाई+++(=धृष्टता)+++
सुनिहहिं बाल-बचन मन लाई॥4॥

भावार्थ

मेरी बुद्धि तो अत्यन्त नीची है और चाह बडी ऊँची है, चाह तो अमृत पाने की है, पर जगत में जुडती छाछ भी नहीं। सज्जन मेरी ढिठाई को क्षमा करेङ्गे और मेरे बाल वचनों को मन लगाकर (प्रेमपूर्वक) सुनेङ्गे॥4॥

प्रीत्या ग्रहणस्य काङ्क्षा

विश्वास-प्रस्तुतिः

जौं+++(=यदि)+++ बालक कह तोतरि बाता
सुनहिं मुदित-मन पितु अरु माता॥+++(४)+++
हँसिहहिं कूर कुटिल कुबिचारी
जे पर-दूषन-भूषनधारी॥5॥+++(४)+++

मूल

जौं बालक कह तोतरि बाता। सुनहिं मुदित मन पितु अरु माता॥
हँसिहहिं कूर कुटिल कुबिचारी। जे पर दूषन भूषनधारी॥5॥

भावार्थ

जैसे बालक जब तोतले वचन बोलता है, तो उसके माता-पिता उन्हें प्रसन्न मन से सुनते हैं, किन्तु क्रूर, कुटिल और बुरे विचार वाले लोग जो दूसरों के दोषों को ही भूषण रूप से धारण किए रहते हैं (अर्थात्‌ जिन्हें पराए दोष ही प्यारे लगते हैं), हँसेङ्गे॥5॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निज-कबित्त केहि+++(=किसे)+++ लाग न नीका+++(=निक्त)+++
सरस होउ अथवा अति फीका॥+++(४)+++
जे पर-भनिति सुनत हरषाहीं
ते बर-पुरुष, +++(वैसे)+++ बहुत जग नाहीं॥6॥

मूल

निज कबित्त केहि लाग न नीका। सरस होउ अथवा अति फीका॥
जे पर भनिति सुनत हरषाहीं। ते बर पुरुष बहुत जग नाहीं॥6॥

भावार्थ

रसीली हो या अत्यन्त फीकी, अपनी कविता किसे अच्छी नहीं लगती? किन्तु जो दूसरे की रचना को सुनकर हर्षित होते हैं, ऐसे उत्तम पुरुष जगत में बहुत नहीं हैं॥6॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जग बहु नर सर+++(ः)+++ सरि+++(त्)+++ सम भाई
जे निज-बाढ़ि बढ़हि जल पाई॥
सज्जन सकृत-सिन्धु सम कोई
देखि पूर बिधु+++(=विधु)+++ बाढ़इ जोई॥7॥+++(५)+++

मूल

जग बहु नर सर सरि सम भाई। जे निज बाढि बढहि जल पाई॥
सज्जन सकृत सिन्धु सम कोई। देखि पूर बिधु बाढइ जोई॥7॥

भावार्थ

हे भाई! जगत में तालाबों और नदियों के समान मनुष्य ही अधिक हैं, जो जल पाकर अपनी ही बाढ से बढते हैं (अर्थात्‌ अपनी ही उन्नति से प्रसन्न होते हैं)। समुद्र सा तो कोई एक बिरला ही सज्जन होता है, जो चन्द्रमा को पूर्ण देखकर (दूसरों का उत्कर्ष देखकर) उमड पडता है॥7॥

008 खलोपहासोपेक्षा

01 दोहा खलोपहासोपेक्षा

विश्वास-प्रस्तुतिः

+++(मेरा)+++ भाग छोट अभिलाषु बड़
करउँ एक बिस्वास।
पैहहिं+++(=पावेङ्गे)+++ सुख सुनि सुजन सब
खल करिहहिं उपहास ॥8॥

मूल

भाग छोट अभिलाषु बड करउँ एक बिस्वास।
पैहहिं सुख सुनि सुजन सब खल करिहहिं उपहास॥8॥

भावार्थ

मेरा भाग्य छोटा है और इच्छा बहुत बडी है, परन्तु मुझे एक विश्वास है कि इसे सुनकर सज्जन सभी सुख पावेङ्गे और दुष्ट हँसी उडावेङ्गे॥8॥

02 चौपाई खलोपहासोपेक्षा

विश्वास-प्रस्तुतिः

खल-परिहास होइ हित मोरा
काक कहहिं - कलकण्ठ+++(=कोयल को)+++ कठोरा॥
हंसहि +++(को)+++ बक, दादुर+++(=मेण्ढक)+++ चातकही +++(=कोयलविशेष जो वर्षासूचना देता है)+++।
हँसहिं+++(=हसन्ति)+++ मलिन खल बिमल बत-कही+++(=वार्ता-कथा [को])+++॥1॥

मूल

खल परिहास होइ हित मोरा। काक कहहिं कलकण्ठ कठोरा॥
हंसहि बक दादुर चातकही। हँसहिं मलिन खल बिमल बतकही॥1॥

भावार्थ

किन्तु दुष्टों के हँसने से मेरा हित ही होगा। मधुर कण्ठ वाली कोयल को कौए तो कठोर ही कहा करते हैं। जैसे बगुले हंस को और मेण्ढक पपीहे को हँसते हैं, वैसे ही मलिन मन वाले दुष्ट निर्मल वाणी को हँसते हैं॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबित-रसिक न, राम-पद नेहू+++(=नैव)+++
तिन्ह कहँ+++(=कुत्र)+++ - सुखद हास-रस एहू॥
भाषा-भनिति भोरि+++(=भोली)+++ मति मोरी
हँसिबे+++(=हसिष्यन्ति)+++ जो हँसें नहिं खोरी+++(~दुष्ट)+++॥2॥

मूल

कबित रसिक न राम पद नेहू। तिन्ह कहँ सुखद हास रस एहू॥
भाषा भनिति भोरि मति मोरी। हँसिबे जो हँसें नहिं खोरी॥2॥

भावार्थ

जो न तो कविता के रसिक हैं और न जिनका श्री रामचन्द्रजी के चरणों में प्रेम है, उनके लिए भी यह कविता सुखद हास्यरस का काम देगी। प्रथम तो यह भाषा की रचना है, दूसरे मेरी बुद्धि भोली है, इससे यह हँसने के योग्य ही है, हँसने में उन्हें कोई दोष नहीं॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभु-पद प्रीति न सामुझि नीकी+++(=निक्त [भी])+++
तिन्हहि कथा सुनि लागिहि फीकी॥
हरि-हर-पद-रति मति, न कुतरकी -
तिन्ह कहँ+++(=कुत्र)+++ मधुर कथा रघुबर की॥3॥

मूल

प्रभु पद प्रीति न सामुझि नीकी। तिन्हहि कथा सुनि लागिहि फीकी॥
हरि हर पद रति मति न कुतर की। तिन्ह कहँ मधुर कथा रघुबर की॥3॥

भावार्थ

जिन्हें न तो प्रभु के चरणों में प्रेम है और न अच्छी समझ ही है, उनको यह कथा सुनने में फीकी लगेगी। जिनकी श्री हरि (भगवान विष्णु) और श्री हर (भगवान शिव) के चरणों में प्रीति है और जिनकी बुद्धि कुतर्क करने वाली नहीं है (जो श्री हरि-हर में भेद की या ऊँच-नीच की कल्पना नहीं करते), उन्हें श्री रघुनाथजी की यह कथा मीठी लगेगी॥3॥

काव्ये रामभक्तिप्राधान्यम्

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम भगति भूषित जियँ जानी। सुनिहहिं सुजन सराहि सुबानी॥
कबि न होउँ नहिं बचन प्रबीनू। सकल कला सब बिद्या हीनू॥4॥

मूल

राम भगति भूषित जियँ जानी। सुनिहहिं सुजन सराहि सुबानी॥
कबि न होउँ नहिं बचन प्रबीनू। सकल कला सब बिद्या हीनू॥4॥

भावार्थ

सज्जनगण इस कथा को अपने जी में श्री रामजी की भक्ति से भूषित जानकर सुन्दर वाणी से सराहना करते हुए सुनेङ्गे। मैं न तो कवि हूँ, न वाक्य रचना में ही कुशल हूँ, मैं तो सब कलाओं तथा सब विद्याओं से रहित हूँ॥4॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आखर अरथ अलङ्कृति नाना। छन्द प्रबन्ध अनेक बिधाना॥
भाव भेद रस भेद अपारा। कबित दोष गुन बिबिध प्रकारा॥5॥

मूल

आखर अरथ अलङ्कृति नाना। छन्द प्रबन्ध अनेक बिधाना॥
भाव भेद रस भेद अपारा। कबित दोष गुन बिबिध प्रकारा॥5॥

भावार्थ

नाना प्रकार के अक्षर, अर्थ और अलङ्कार, अनेक प्रकार की छन्द रचना, भावों और रसों के अपार भेद और कविता के भाँति-भाँति के गुण-दोष होते हैं॥5॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबित बिबेक एक नहिं मोरें। सत्य कहउँ लिखि कागद कोरें॥6॥

मूल

कबित बिबेक एक नहिं मोरें। सत्य कहउँ लिखि कागद कोरें॥6॥

भावार्थ

इनमें से काव्य सम्बन्धी एक भी बात का ज्ञान मुझमें नहीं है, यह मैं कोरे कागज पर लिखकर (शपथपूर्वक) सत्य-सत्य कहता हूँ॥6॥

009

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

भनिति मोरि सब गुन रहित बिस्व बिदित गुन एक।
सो बिचारि सुनिहहिं सुमति जिन्ह कें बिमल बिबेक॥9॥

मूल

भनिति मोरि सब गुन रहित बिस्व बिदित गुन एक।
सो बिचारि सुनिहहिं सुमति जिन्ह कें बिमल बिबेक॥9॥

भावार्थ

मेरी रचना सब गुणों से रहित है, इसमें बस, जगत्प्रसिद्ध एक गुण है। उसे विचारकर अच्छी बुद्धिवाले पुरुष, जिनके निर्मल ज्ञान है, इसको सुनेङ्गे॥9॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

एहि महँ रघुपति नाम उदारा। अति पावन पुरान श्रुति सारा॥
मङ्गल भवन अमङ्गल हारी। उमा सहित जेहि जपत पुरारी॥1॥

मूल

एहि महँ रघुपति नाम उदारा। अति पावन पुरान श्रुति सारा॥
मङ्गल भवन अमङ्गल हारी। उमा सहित जेहि जपत पुरारी॥1॥

भावार्थ

इसमें श्री रघुनाथजी का उदार नाम है, जो अत्यन्त पवित्र है, वेद-पुराणों का सार है, कल्याण का भवन है और अमङ्गलों को हरने वाला है, जिसे पार्वतीजी सहित भगवान शिवजी सदा जपा करते हैं॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भनिति बिचित्र सुकबि कृत जोऊ। राम नाम बिनु सोह न सोउ॥
बिधुबदनी सब भाँति सँवारी। सोह न बसन बिना बर नारी॥2॥

मूल

भनिति बिचित्र सुकबि कृत जोऊ। राम नाम बिनु सोह न सोउ॥
बिधुबदनी सब भाँति सँवारी। सोह न बसन बिना बर नारी॥2॥

भावार्थ

जो अच्छे कवि के द्वारा रची हुई बडी अनूठी कविता है, वह भी राम नाम के बिना शोभा नहीं पाती। जैसे चन्द्रमा के समान मुख वाली सुन्दर स्त्री सब प्रकार से सुसज्जित होने पर भी वस्त्र के बिना शोभा नहीं देती॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सब गुन रहित कुकबि कृत बानी। राम नाम जस अङ्कित जानी॥
सादर कहहिं सुनहिं बुध ताही। मधुकर सरिस सन्त गुनग्राही॥3॥

मूल

सब गुन रहित कुकबि कृत बानी। राम नाम जस अङ्कित जानी॥
सादर कहहिं सुनहिं बुध ताही। मधुकर सरिस सन्त गुनग्राही॥3॥

भावार्थ

इसके विपरीत, कुकवि की रची हुई सब गुणों से रहित कविता को भी, राम के नाम एवं यश से अङ्कित जानकर, बुद्धिमान लोग आदरपूर्वक कहते और सुनते हैं, क्योङ्कि सन्तजन भौंरे की भाँति गुण ही को ग्रहण करने वाले होते हैं॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जदपि कबित रस एकउ नाहीं। राम प्रताप प्रगट एहि माहीं॥
सोइ भरोस मोरें मन आवा। केहिं न सुसङ्ग बडप्पनु पावा॥4॥

मूल

जदपि कबित रस एकउ नाहीं। राम प्रताप प्रगट एहि माहीं॥
सोइ भरोस मोरें मन आवा। केहिं न सुसङ्ग बडप्पनु पावा॥4॥

भावार्थ

यद्यपि मेरी इस रचना में कविता का एक भी रस नहीं है, तथापि इसमें श्री रामजी का प्रताप प्रकट है। मेरे मन में यही एक भरोसा है। भले सङ्ग से भला, किसने बडप्पन नहीं पाया?॥4॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धूमउ तजइ सहज करुआई। अगरु प्रसङ्ग सुगन्ध बसाई॥
भनिति भदेस बस्तु भलि बरनी। राम कथा जग मङ्गल करनी॥5॥

मूल

धूमउ तजइ सहज करुआई। अगरु प्रसङ्ग सुगन्ध बसाई॥
भनिति भदेस बस्तु भलि बरनी। राम कथा जग मङ्गल करनी॥5॥

भावार्थ

धुआँ भी अगर के सङ्ग से सुगन्धित होकर अपने स्वाभाविक कडुवेपन को छोड देता है। मेरी कविता अवश्य भद्दी है, परन्तु इसमें जगत का कल्याण करने वाली रामकथा रूपी उत्तम वस्तु का वर्णन किया गया है। (इससे यह भी अच्छी ही समझी जाएगी।)॥5॥

03 छन्द

विश्वास-प्रस्तुतिः

मङ्गल करनि कलिमल हरनि तुलसी कथा रघुनाथ की।
गति कूर कबिता सरित की ज्यों सरित पावन पाथ की॥1॥

मूल

मङ्गल करनि कलिमल हरनि तुलसी कथा रघुनाथ की।
गति कूर कबिता सरित की ज्यों सरित पावन पाथ की॥1॥

भावार्थ

तुलसीदासजी कहते हैं कि श्री रघुनाथजी की कथा कल्याण करने वाली और कलियुग के पापों को हरने वाली है। मेरी इस भद्दी कविता रूपी नदी की चाल पवित्र जल वाली नदी (गङ्गाजी) की चाल की भाँति टेढी है।॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभु सुजस सङ्गति भनिति भलि होइहि सुजन मन भावनी
भव अङ्ग भूति मसान की सुमिरत सुहावनि पावनी॥2॥

मूल

प्रभु सुजस सङ्गति भनिति भलि होइहि सुजन मन भावनी
भव अङ्ग भूति मसान की सुमिरत सुहावनि पावनी॥2॥

भावार्थ

प्रभु श्री रघुनाथजी के सुन्दर यश के सङ्ग से यह कविता सुन्दर तथा सज्जनों के मन को भाने वाली हो जाएगी। श्मशान की अपवित्र राख भी श्री महादेवजी के अङ्ग के सङ्ग से सुहावनी लगती है और स्मरण करते ही पवित्र करने वाली होती है।॥2॥

010

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रिय लागिहि अति सबहि मम भनिति राम जस सङ्ग।
दारु बिचारु कि करइ कोउ बन्दिअ मलय प्रसङ्ग॥1॥

मूल

प्रिय लागिहि अति सबहि मम भनिति राम जस सङ्ग।
दारु बिचारु कि करइ कोउ बन्दिअ मलय प्रसङ्ग॥1॥

भावार्थ

श्री रामजी के यश के सङ्ग से मेरी कविता सभी को अत्यन्त प्रिय लगेगी। जैसे मलय पर्वत के सङ्ग से काष्ठमात्र (चन्दन बनकर) वन्दनीय हो जाता है, फिर क्या कोई काठ (की तुच्छता) का विचार करता है?॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्याम सुरभि पय बिसद अति गुनद करहिं सब पान।
गिरा ग्राम्य सिय राम जस गावहिं सुनहिं सुजान ॥2॥

मूल

स्याम सुरभि पय बिसद अति गुनद करहिं सब पान।
गिरा ग्राम्य सिय राम जस गावहिं सुनहिं सुजान ॥2॥

भावार्थ

श्यामा गो काली होने पर भी उसका दूध उज्ज्वल और बहुत गुणकारी होता है। यही समझकर सब लोग उसे पीते हैं। इसी तरह गँवारू भाषा में होने पर भी श्री सीतारामजी के यश को बुद्धिमान लोग बडे चाव से गाते और सुनते हैं॥2॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनि मानिक मुकुता छबि जैसी। अहि गिरि गज सिर सोह न तैसी॥
नृप किरीट तरुनी तनु पाई। लहहिं सकल सोभा अधिकाई॥1॥

मूल

मनि मानिक मुकुता छबि जैसी। अहि गिरि गज सिर सोह न तैसी॥
नृप किरीट तरुनी तनु पाई। लहहिं सकल सोभा अधिकाई॥1॥

भावार्थ

मणि, माणिक और मोती की जैसी सुन्दर छबि है, वह साँप, पर्वत और हाथी के मस्तक पर वैसी शोभा नहीं पाती। राजा के मुकुट और नवयुवती स्त्री के शरीर को पाकर ही ये सब अधिक शोभा को प्राप्त होते हैं॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तैसेहिं सुकबि कबित बुध कहहीं। उपजहिं अनत अनत छबि लहहीं॥
भगति हेतु बिधि भवन बिहाई। सुमिरत सारद आवति धाई॥2॥

मूल

तैसेहिं सुकबि कबित बुध कहहीं। उपजहिं अनत अनत छबि लहहीं॥
भगति हेतु बिधि भवन बिहाई। सुमिरत सारद आवति धाई॥2॥

भावार्थ

इसी तरह, बुद्धिमान लोग कहते हैं कि सुकवि की कविता भी उत्पन्न और कहीं होती है और शोभा अन्यत्र कहीं पाती है (अर्थात कवि की वाणी से उत्पन्न हुई कविता वहाँ शोभा पाती है, जहाँ उसका विचार, प्रचार तथा उसमें कथित आदर्श का ग्रहण और अनुसरण होता है)। कवि के स्मरण करते ही उसकी भक्ति के कारण सरस्वतीजी ब्रह्मलोक को छोडकर दौडी आती हैं॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम चरित सर बिनु अन्हवाएँ। सो श्रम जाइ न कोटि उपाएँ॥
कबि कोबिद अस हृदयँ बिचारी। गावहिं हरि जस कलि मल हारी॥3॥

मूल

राम चरित सर बिनु अन्हवाएँ। सो श्रम जाइ न कोटि उपाएँ॥
कबि कोबिद अस हृदयँ बिचारी। गावहिं हरि जस कलि मल हारी॥3॥

भावार्थ

सरस्वतीजी की दौडी आने की वह थकावट रामचरित रूपी सरोवर में उन्हें नहलाए बिना दूसरे करोडों उपायों से भी दूर नहीं होती। कवि और पण्डित अपने हृदय में ऐसा विचारकर कलियुग के पापों को हरने वाले श्री हरि के यश का ही गान करते हैं॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कीन्हें प्राकृत जन गुन गाना। सिर धुनि गिरा लगत पछिताना॥
हृदय सिन्धु मति सीप समाना। स्वाति सारदा कहहिं सुजाना॥4॥

मूल

कीन्हें प्राकृत जन गुन गाना। सिर धुनि गिरा लगत पछिताना॥
हृदय सिन्धु मति सीप समाना। स्वाति सारदा कहहिं सुजाना॥4॥

भावार्थ

संसारी मनुष्यों का गुणगान करने से सरस्वतीजी सिर धुनकर पछताने लगती हैं (कि मैं क्यों इसके बुलाने पर आई)। बुद्धिमान लोग हृदय को समुद्र, बुद्धि को सीप और सरस्वती को स्वाति नक्षत्र के समान कहते हैं॥4॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जौं बरषइ बर बारि बिचारू। हो हिं कबित मुकुतामनि चारू॥5॥

मूल

जौं बरषइ बर बारि बिचारू। हो हिं कबित मुकुतामनि चारू॥5॥

भावार्थ

इसमें यदि श्रेष्ठ विचार रूपी जल बरसता है तो मुक्ता मणि के समान सुन्दर कविता होती है॥5॥

011

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

जुगुति बेधि पुनि पोहिअहिं रामचरित बर ताग।
पहिरहिं सज्जन बिमल उर सोभा अति अनुराग॥11॥

मूल

जुगुति बेधि पुनि पोहिअहिं रामचरित बर ताग।
पहिरहिं सज्जन बिमल उर सोभा अति अनुराग॥11॥

भावार्थ

उन कविता रूपी मुक्तामणियों को युक्ति से बेधकर फिर रामचरित्र रूपी सुन्दर तागे में पिरोकर सज्जन लोग अपने निर्मल हृदय में धारण करते हैं, जिससे अत्यन्त अनुराग रूपी शोभा होती है (वे आत्यन्तिक प्रेम को प्राप्त होते हैं)॥11॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

जे जनमे कलिकाल कराला। करतब बायस बेष मराला॥
चलत कुपन्थ बेद मग छाँडे। कपट कलेवर कलि मल भाँडे॥1॥

मूल

जे जनमे कलिकाल कराला। करतब बायस बेष मराला॥
चलत कुपन्थ बेद मग छाँडे। कपट कलेवर कलि मल भाँडे॥1॥

भावार्थ

जो कराल कलियुग में जन्मे हैं, जिनकी करनी कौए के समान है और वेष हंस का सा है, जो वेदमार्ग को छोडकर कुमार्ग पर चलते हैं, जो कपट की मूर्ति और कलियुग के पापों के भाँडें हैं॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बञ्चक भगत कहाइ राम के। किङ्कर कञ्चन कोह काम के॥
तिन्ह महँ प्रथम रेख जग मोरी। धीङ्ग धरम ध्वज धन्धक धोरी॥2॥

मूल

बञ्चक भगत कहाइ राम के। किङ्कर कञ्चन कोह काम के॥
तिन्ह महँ प्रथम रेख जग मोरी। धीङ्ग धरम ध्वज धन्धक धोरी॥2॥

भावार्थ

जो श्री रामजी के भक्त कहलाकर लोगों को ठगते हैं, जो धन (लोभ), क्रोध और काम के गुलाम हैं और जो धीङ्गाधीङ्गी करने वाले, धर्मध्वजी (धर्म की झूठी ध्वजा फहराने वाले दम्भी) और कपट के धन्धों का बोझ ढोने वाले हैं, संसार के ऐसे लोगों में सबसे पहले मेरी गिनती है॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जौं अपने अवगुन सब कहऊँ। बाढइ कथा पार नहिं लहऊँ ॥
ताते मैं अति अलप बखाने। थोरे महुँ जानिहहिं सयाने ॥3॥

मूल

जौं अपने अवगुन सब कहऊँ। बाढइ कथा पार नहिं लहऊँ ॥
ताते मैं अति अलप बखाने। थोरे महुँ जानिहहिं सयाने ॥3॥

भावार्थ

यदि मैं अपने सब अवगुणों को कहने लगूँ तो कथा बहुत बढ जाएगी और मैं पार नहीं पाऊँगा। इससे मैन्ने बहुत कम अवगुणों का वर्णन किया है। बुद्धिमान लोग थोडे ही में समझ लेङ्गे॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

समुझि बिबिधि बिधि बिनती मोरी। कोउ न कथा सुनि देइहि खोरी॥
एतेहु पर करिहहिं जे असङ्का। मोहि ते अधिक ते जड मति रङ्का॥4॥

मूल

समुझि बिबिधि बिधि बिनती मोरी। कोउ न कथा सुनि देइहि खोरी॥
एतेहु पर करिहहिं जे असङ्का। मोहि ते अधिक ते जड मति रङ्का॥4॥

भावार्थ

मेरी अनेकों प्रकार की विनती को समझकर, कोई भी इस कथा को सुनकर दोष नहीं देगा। इतने पर भी जो शङ्का करेङ्गे, वे तो मुझसे भी अधिक मूर्ख और बुद्धि के कङ्गाल हैं॥4॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबि न होउँ नहिं चतुर कहावउँ। मति अनुरूप राम गुन गावउँ॥
कहँ रघुपति के चरित अपारा। कहँ मति मोरि निरत संसारा॥5॥

मूल

कबि न होउँ नहिं चतुर कहावउँ। मति अनुरूप राम गुन गावउँ॥
कहँ रघुपति के चरित अपारा। कहँ मति मोरि निरत संसारा॥5॥

भावार्थ

मैं न तो कवि हूँ, न चतुर कहलाता हूँ, अपनी बुद्धि के अनुसार श्री रामजी के गुण गाता हूँ। कहाँ तो श्री रघुनाथजी के अपार चरित्र, कहाँ संसार में आसक्त मेरी बुद्धि !॥5॥।

विश्वास-प्रस्तुतिः

जेहिं मारुत गिरि मेरु उडाहीं। कहहु तूल केहि लेखे माहीं॥
समुझत अमित राम प्रभुताई। करत कथा मन अति कदराई॥6॥

मूल

जेहिं मारुत गिरि मेरु उडाहीं। कहहु तूल केहि लेखे माहीं॥
समुझत अमित राम प्रभुताई। करत कथा मन अति कदराई॥6॥

भावार्थ

जिस हवा से सुमेरु जैसे पहाड उड जाते हैं, कहिए तो, उसके सामने रूई किस गिनती में है। श्री रामजी की असीम प्रभुता को समझकर कथा रचने में मेरा मन बहुत हिचकता है-॥6॥

012

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

सारद सेस महेस बिधि आगम निगम पुरान।
नेति नेति कहि जासु गुन करहिं निरन्तर गान॥12॥

मूल

सारद सेस महेस बिधि आगम निगम पुरान।
नेति नेति कहि जासु गुन करहिं निरन्तर गान॥12॥

भावार्थ

सरस्वतीजी, शेषजी, शिवजी, ब्रह्माजी, शास्त्र, वेद और पुराण- ये सब ‘नेति-नेति’ कहकर (पार नहीं पाकर ‘ऐसा नहीं’, ऐसा नहीं कहते हुए) सदा जिनका गुणगान किया करते हैं॥12॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

सब जानत प्रभु प्रभुता सोई। तदपि कहें बिनु रहा न कोई॥
तहाँ बेद अस कारन राखा। भजन प्रभाउ भाँति बहु भाषा॥1॥

मूल

सब जानत प्रभु प्रभुता सोई। तदपि कहें बिनु रहा न कोई॥
तहाँ बेद अस कारन राखा। भजन प्रभाउ भाँति बहु भाषा॥1॥

भावार्थ

यद्यपि प्रभु श्री रामचन्द्रजी की प्रभुता को सब ऐसी (अकथनीय) ही जानते हैं, तथापि कहे बिना कोई नहीं रहा। इसमें वेद ने ऐसा कारण बताया है कि भजन का प्रभाव बहुत तरह से कहा गया है। (अर्थात भगवान की महिमा का पूरा वर्णन तो कोई कर नहीं सकता, परन्तु जिससे जितना बन पडे उतना भगवान का गुणगान करना चाहिए, क्योङ्कि भगवान के गुणगान रूपी भजन का प्रभाव बहुत ही अनोखा है, उसका नाना प्रकार से शास्त्रों में वर्णन है। थोडा सा भी भगवान का भजन मनुष्य को सहज ही भवसागर से तार देता है)॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एक अनीह अरूप अनामा। अज सच्चिदानन्द पर धामा॥
ब्यापक बिस्वरूप भगवाना। तेहिं धरि देह चरित कृत नाना॥2॥

मूल

एक अनीह अरूप अनामा। अज सच्चिदानन्द पर धामा॥
ब्यापक बिस्वरूप भगवाना। तेहिं धरि देह चरित कृत नाना॥2॥

भावार्थ

जो परमेश्वर एक है, जिनके कोई इच्छा नहीं है, जिनका कोई रूप और नाम नहीं है, जो अजन्मा, सच्चिदानन्द और परमधाम है और जो सबमें व्यापक एवं विश्व रूप हैं, उन्हीं भगवान ने दिव्य शरीर धारण करके नाना प्रकार की लीला की है॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सो केवल भगतन हित लागी। परम कृपाल प्रनत अनुरागी॥
जेहि जन पर ममता अति छोहू। जेहिं करुना करि कीन्ह न कोहू॥3॥

मूल

सो केवल भगतन हित लागी। परम कृपाल प्रनत अनुरागी॥
जेहि जन पर ममता अति छोहू। जेहिं करुना करि कीन्ह न कोहू॥3॥

भावार्थ

वह लीला केवल भक्तों के हित के लिए ही है, क्योङ्कि भगवान परम कृपालु हैं और शरणागत के बडे प्रेमी हैं। जिनकी भक्तों पर बडी ममता और कृपा है, जिन्होन्ने एक बार जिस पर कृपा कर दी, उस पर फिर कभी क्रोध नहीं किया॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गई बहोर गरीब नेवाजू। सरल सबल साहिब रघुराजू॥
बुध बरनहिं हरि जस अस जानी। करहिं पुनीत सुफल निज बानी॥4॥

मूल

गई बहोर गरीब नेवाजू। सरल सबल साहिब रघुराजू॥
बुध बरनहिं हरि जस अस जानी। करहिं पुनीत सुफल निज बानी॥4॥

भावार्थ

वे प्रभु श्री रघुनाथजी गई हुई वस्तु को फिर प्राप्त कराने वाले, गरीब नवाज (दीनबन्धु), सरल स्वभाव, सर्वशक्तिमान और सबके स्वामी हैं। यही समझकर बुद्धिमान लोग उन श्री हरि का यश वर्णन करके अपनी वाणी को पवित्र और उत्तम फल (मोक्ष और दुर्लभ भगवत्प्रेम) देने वाली बनाते हैं॥4॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेहिं बल मैं रघुपति गुन गाथा। कहिहउँ नाइ राम पद माथा॥
मुनिन्ह प्रथम हरि कीरति गाई। तेहिं मग चलत सुगम मोहि भाई॥5॥

मूल

तेहिं बल मैं रघुपति गुन गाथा। कहिहउँ नाइ राम पद माथा॥
मुनिन्ह प्रथम हरि कीरति गाई। तेहिं मग चलत सुगम मोहि भाई॥5॥

भावार्थ

उसी बल से (महिमा का यथार्थ वर्णन नहीं, परन्तु महान फल देने वाला भजन समझकर भगवत्कृपा के बल पर ही) मैं श्री रामचन्द्रजी के चरणों में सिर नवाकर श्री रघुनाथजी के गुणों की कथा कहूँगा। इसी विचार से (वाल्मीकि, व्यास आदि) मुनियों ने पहले हरि की कीर्ति गाई है। भाई! उसी मार्ग पर चलना मेरे लिए सुगम होगा॥5॥

013

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

अति अपार जे सरित बर जौं नृप सेतु कराहिं।
चढि पिपीलिकउ परम लघु बिनु श्रम पारहि जाहिं॥13॥

मूल

अति अपार जे सरित बर जौं नृप सेतु कराहिं।
चढि पिपीलिकउ परम लघु बिनु श्रम पारहि जाहिं॥13॥

भावार्थ

जो अत्यन्त बडी श्रेष्ठ नदियाँ हैं, यदि राजा उन पर पुल बँधा देता है, तो अत्यन्त छोटी चीण्टियाँ भी उन पर चढकर बिना ही परिश्रम के पार चली जाती हैं। (इसी प्रकार मुनियों के वर्णन के सहारे मैं भी श्री रामचरित्र का वर्णन सहज ही कर सकूँगा)॥13॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

एहि प्रकार बल मनहि देखाई। करिहउँ रघुपति कथा सुहाई॥
ब्यास आदि कबि पुङ्गव नाना। जिन्ह सादर हरि सुजस बखाना॥1॥

मूल

एहि प्रकार बल मनहि देखाई। करिहउँ रघुपति कथा सुहाई॥
ब्यास आदि कबि पुङ्गव नाना। जिन्ह सादर हरि सुजस बखाना॥1॥

भावार्थ

इस प्रकार मन को बल दिखलाकर मैं श्री रघुनाथजी की सुहावनी कथा की रचना करूँगा। व्यास आदि जो अनेकों श्रेष्ठ कवि हो गए हैं, जिन्होन्ने बडे आदर से श्री हरि का सुयश वर्णन किया है॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चरन कमल बन्दउँ तिन्ह केरे। पुरवहुँ सकल मनोरथ मेरे॥
कलि के कबिन्ह करउँ परनामा। जिन्ह बरने रघुपति गुन ग्रामा॥2॥

मूल

चरन कमल बन्दउँ तिन्ह केरे। पुरवहुँ सकल मनोरथ मेरे॥
कलि के कबिन्ह करउँ परनामा। जिन्ह बरने रघुपति गुन ग्रामा॥2॥

भावार्थ

मैं उन सब (श्रेष्ठ कवियों) के चरणकमलों में प्रणाम करता हूँ, वे मेरे सब मनोरथों को पूरा करें। कलियुग के भी उन कवियों को मैं प्रणाम करता हूँ, जिन्होन्ने श्री रघुनाथजी के गुण समूहों का वर्णन किया है॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जे प्राकृत कबि परम सयाने। भाषाँ जिन्ह हरि चरित बखाने॥
भए जे अहहिं जे होइहहिं आगें। प्रनवउँ सबहि कपट सब त्यागें॥3॥

मूल

जे प्राकृत कबि परम सयाने। भाषाँ जिन्ह हरि चरित बखाने॥
भए जे अहहिं जे होइहहिं आगें। प्रनवउँ सबहि कपट सब त्यागें॥3॥

भावार्थ

जो बडे बुद्धिमान प्राकृत कवि हैं, जिन्होन्ने भाषा में हरि चरित्रों का वर्णन किया है, जो ऐसे कवि पहले हो चुके हैं, जो इस समय वर्तमान हैं और जो आगे होङ्गे, उन सबको मैं सारा कपट त्यागकर प्रणाम करता हूँ॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

होहु प्रसन्न देहु बरदानू। साधु समाज भनिति सनमानू॥
जो प्रबन्ध बुध नहिं आदरहीं। सो श्रम बादि बाल कबि करहीं॥4॥

मूल

होहु प्रसन्न देहु बरदानू। साधु समाज भनिति सनमानू॥
जो प्रबन्ध बुध नहिं आदरहीं। सो श्रम बादि बाल कबि करहीं॥4॥

भावार्थ

आप सब प्रसन्न होकर यह वरदान दीजिए कि साधु समाज में मेरी कविता का सम्मान हो, क्योङ्कि बुद्धिमान लोग जिस कविता का आदर नहीं करते, मूर्ख कवि ही उसकी रचना का व्यर्थ परिश्रम करते हैं॥4॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कीरति भनिति भूति भलि सोई। सुरसरि सम सब कहँ हित होई॥
राम सुकीरति भनिति भदेसा। असमञ्जस अस मोहि अँदेसा॥5॥

मूल

कीरति भनिति भूति भलि सोई। सुरसरि सम सब कहँ हित होई॥
राम सुकीरति भनिति भदेसा। असमञ्जस अस मोहि अँदेसा॥5॥

भावार्थ

कीर्ति, कविता और सम्पत्ति वही उत्तम है, जो गङ्गाजी की तरह सबका हित करने वाली हो। श्री रामचन्द्रजी की कीर्ति तो बडी सुन्दर (सबका अनन्त कल्याण करने वाली ही) है, परन्तु मेरी कविता भद्दी है। यह असामञ्जस्य है (अर्थात इन दोनों का मेल नहीं मिलता), इसी की मुझे चिन्ता है॥5॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तुम्हरी कृपाँ सुलभ सोउ मोरे। सिअनि सुहावनि टाट पटोरे॥6॥

मूल

तुम्हरी कृपाँ सुलभ सोउ मोरे। सिअनि सुहावनि टाट पटोरे॥6॥

भावार्थ

परन्तु हे कवियों! आपकी कृपा से यह बात भी मेरे लिए सुलभ हो सकती है। रेशम की सिलाई टाट पर भी सुहावनी लगती है॥6॥

014

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

सरल कबित कीरति बिमल सोइ आदरहिं सुजान।
सहज बयर बिसराइ रिपु जो सुनि करहिं बखान॥1॥

मूल

सरल कबित कीरति बिमल सोइ आदरहिं सुजान।
सहज बयर बिसराइ रिपु जो सुनि करहिं बखान॥1॥

भावार्थ

चतुर पुरुष उसी कविता का आदर करते हैं, जो सरल हो और जिसमें निर्मल चरित्र का वर्णन हो तथा जिसे सुनकर शत्रु भी स्वाभाविक बैर को भूलकर सराहना करने लगें॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सो न होई बिनु बिमल मति मोहि मति बल अति थोर।
करहु कृपा हरि जस कहउँ पुनि पुनि करउँ निहोर॥2॥

मूल

सो न होई बिनु बिमल मति मोहि मति बल अति थोर।
करहु कृपा हरि जस कहउँ पुनि पुनि करउँ निहोर॥2॥

भावार्थ

ऐसी कविता बिना निर्मल बुद्धि के होती नहीं और मेरी बुद्धि का बल बहुत ही थोडा है, इसलिए बार-बार निहोरा करता हूँ कि हे कवियों! आप कृपा करें, जिससे मैं हरि यश का वर्णन कर सकूँ॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कबि कोबिद रघुबर चरित मानस मञ्जु मराल।
बालबिनय सुनि सुरुचि लखि मो पर होहु कृपाल॥3॥

मूल

कबि कोबिद रघुबर चरित मानस मञ्जु मराल।
बालबिनय सुनि सुरुचि लखि मो पर होहु कृपाल॥3॥

भावार्थ

कवि और पण्डितगण! आप जो रामचरित्र रूपी मानसरोवर के सुन्दर हंस हैं, मुझ बालक की विनती सुनकर और सुन्दर रुचि देखकर मुझ पर कृपा करें॥3॥

02 सोरठा

विश्वास-प्रस्तुतिः

बन्दउँ मुनि पद कञ्जु रामायन जेहिं निरमयउ।
सखर सुकोमल मञ्जु दोष रहित दूषन सहित॥4॥

मूल

बन्दउँ मुनि पद कञ्जु रामायन जेहिं निरमयउ।
सखर सुकोमल मञ्जु दोष रहित दूषन सहित॥4॥

भावार्थ

मैं उन वाल्मीकि मुनि के चरण कमलों की वन्दना करता हूँ, जिन्होन्ने रामायण की रचना की है, जो खर (राक्षस) सहित होने पर भी (खर (कठोर) से विपरीत) बडी कोमल और सुन्दर है तथा जो दूषण (राक्षस) सहित होने पर भी दूषण अर्थात्‌ दोष से रहित है॥4॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बन्दउँ चारिउ बेद भव बारिधि बोहित सरिस।
जिन्हहि न सपनेहुँ खेद बरनत रघुबर बिसद जसु॥5॥

मूल

बन्दउँ चारिउ बेद भव बारिधि बोहित सरिस।
जिन्हहि न सपनेहुँ खेद बरनत रघुबर बिसद जसु॥5॥

भावार्थ

मैं चारों वेदों की वन्दना करता हूँ, जो संसार समुद्र के पार होने के लिए जहाज के समान हैं तथा जिन्हें श्री रघुनाथजी का निर्मल यश वर्णन करते स्वप्न में भी खेद (थकावट) नहीं होता॥5॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बन्दउँ बिधि पद रेनु भव सागर जेहिं कीन्ह जहँ।
सन्त सुधा ससि धेनु प्रगटे खल बिष बारुनी॥6॥

मूल

बन्दउँ बिधि पद रेनु भव सागर जेहिं कीन्ह जहँ।
सन्त सुधा ससि धेनु प्रगटे खल बिष बारुनी॥6॥

भावार्थ

मैं ब्रह्माजी के चरण रज की वन्दना करता हूँ, जिन्होन्ने भवसागर बनाया है, जहाँ से एक ओर सन्तरूपी अमृत, चन्द्रमा और कामधेनु निकले और दूसरी ओर दुष्ट मनुष्य रूपी विष और मदिरा उत्पन्न हुए॥6॥

03 दोहा

:
बिबुध बिप्र बुध ग्रह चरन बन्दि कहउँ कर जोरि।
होइ प्रसन्न पुरवहु सकल मञ्जु मनोरथ मोरि॥7॥

भावार्थ

देवता, ब्राह्मण, पण्डित, ग्रह- इन सबके चरणों की वन्दना करके हाथ जोडकर कहता हूँ कि आप प्रसन्न होकर मेरे सारे सुन्दर मनोरथों को पूरा करें॥7॥

04 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुनि बन्दउँ सारद सुरसरिता। जुगल पुनीत मनोहर चरिता॥
मज्जन पान पाप हर एका। कहत सुनत एक हर अबिबेका॥1॥

मूल

पुनि बन्दउँ सारद सुरसरिता। जुगल पुनीत मनोहर चरिता॥
मज्जन पान पाप हर एका। कहत सुनत एक हर अबिबेका॥1॥

भावार्थ

फिर मैं सरस्वती और देवनदी गङ्गाजी की वन्दना करता हूँ। दोनों पवित्र और मनोहर चरित्र वाली हैं। एक (गङ्गाजी) स्नान करने और जल पीने से पापों को हरती है और दूसरी (सरस्वतीजी) गुण और यश कहने और सुनने से अज्ञान का नाश कर देती है॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुर पितु मातु महेस भवानी। प्रनवउँ दीनबन्धु दिन दानी॥
सेवक स्वामि सखा सिय पी के। हित निरुपधि सब बिधि तुलसी के॥2॥

मूल

गुर पितु मातु महेस भवानी। प्रनवउँ दीनबन्धु दिन दानी॥
सेवक स्वामि सखा सिय पी के। हित निरुपधि सब बिधि तुलसी के॥2॥

भावार्थ

श्री महेश और पार्वती को मैं प्रणाम करता हूँ, जो मेरे गुरु और माता-पिता हैं, जो दीनबन्धु और नित्य दान करने वाले हैं, जो सीतापति श्री रामचन्द्रजी के सेवक, स्वामी और सखा हैं तथा मुझ तुलसीदास का सब प्रकार से कपटरहित (सच्चा) हित करने वाले हैं॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कलि बिलोकि जग हित हर गिरिजा। साबर मन्त्र जाल जिन्ह सिरिजा॥
अनमिल आखर अरथ न जापू। प्रगट प्रभाउ महेस प्रतापू॥3॥

मूल

कलि बिलोकि जग हित हर गिरिजा। साबर मन्त्र जाल जिन्ह सिरिजा॥
अनमिल आखर अरथ न जापू। प्रगट प्रभाउ महेस प्रतापू॥3॥

भावार्थ

जिन शिव-पार्वती ने कलियुग को देखकर, जगत के हित के लिए, शाबर मन्त्र समूह की रचना की, जिन मन्त्रों के अक्षर बेमेल हैं, जिनका न कोई ठीक अर्थ होता है और न जप ही होता है, तथापि श्री शिवजी के प्रताप से जिनका प्रभाव प्रत्यक्ष है॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सो उमेस मोहि पर अनुकूला। करिहिं कथा मुद मङ्गल मूला॥
सुमिरि सिवा सिव पाइ पसाऊ। बस्नउँ रामचरित चित चाऊ॥4॥

मूल

सो उमेस मोहि पर अनुकूला। करिहिं कथा मुद मङ्गल मूला॥
सुमिरि सिवा सिव पाइ पसाऊ। बस्नउँ रामचरित चित चाऊ॥4॥

भावार्थ

वे उमापति शिवजी मुझ पर प्रसन्न होकर (श्री रामजी की) इस कथा को आनन्द और मङ्गल की मूल (उत्पन्न करने वाली) बनाएँगे। इस प्रकार पार्वतीजी और शिवजी दोनों का स्मरण करके और उनका प्रसाद पाकर मैं चाव भरे चित्त से श्री रामचरित्र का वर्णन करता हूँ॥4॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भनिति मोरि सिव कृपाँ बिभाती। ससि समाज मिलि मनहुँ सुराती॥
जे एहि कथहि सनेह समेता। कहिहहिं सुनिहहिं समुझि सचेता॥5॥
होइहहिं राम चरन अनुरागी। कलि मल रहित सुमङ्गल भागी॥6॥

मूल

भनिति मोरि सिव कृपाँ बिभाती। ससि समाज मिलि मनहुँ सुराती॥
जे एहि कथहि सनेह समेता। कहिहहिं सुनिहहिं समुझि सचेता॥5॥
होइहहिं राम चरन अनुरागी। कलि मल रहित सुमङ्गल भागी॥6॥

भावार्थ

मेरी कविता श्री शिवजी की कृपा से ऐसी सुशोभित होगी, जैसी तारागणों के सहित चन्द्रमा के साथ रात्रि शोभित होती है, जो इस कथा को प्रेम सहित एवं सावधानी के साथ समझ-बूझकर कहें-सुनेङ्गे, वे कलियुग के पापों से रहित और सुन्दर कल्याण के भागी होकर श्री रामचन्द्रजी के चरणों के प्रेमी बन जाएँगे॥5-6॥

015

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

सपनेहुँ साचेहुँ मोहि पर जौं हर गौरि पसाउ।
तौ फुर होउ जो कहेउँ सब भाषा भनिति प्रभाउ॥15॥

मूल

सपनेहुँ साचेहुँ मोहि पर जौं हर गौरि पसाउ।
तौ फुर होउ जो कहेउँ सब भाषा भनिति प्रभाउ॥15॥

भावार्थ

यदि मु्‌झ पर श्री शिवजी और पार्वतीजी की स्वप्न में भी सचमुच प्रसन्नता हो, तो मैन्ने इस भाषा कविता का जो प्रभाव कहा है, वह सब सच हो॥15॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

बन्दउँ अवध पुरी अति पावनि। सरजू सरि कलि कलुष नसावनि॥
प्रनवउँ पुर नर नारि बहोरी। ममता जिन्ह पर प्रभुहि न थोरी॥1॥

मूल

बन्दउँ अवध पुरी अति पावनि। सरजू सरि कलि कलुष नसावनि॥
प्रनवउँ पुर नर नारि बहोरी। ममता जिन्ह पर प्रभुहि न थोरी॥1॥

भावार्थ

मैं अति पवित्र श्री अयोध्यापुरी और कलियुग के पापों का नाश करने वाली श्री सरयू नदी की वन्दना करता हूँ। फिर अवधपुरी के उन नर-नारियों को प्रणाम करता हूँ, जिन पर प्रभु श्री रामचन्द्रजी की ममता थोडी नहीं है (अर्थात्‌ बहुत है)॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सिय निन्दक अघ ओघ नसाए। लोक बिसोक बनाइ बसाए॥
बन्दउँ कौसल्या दिसि प्राची। कीरति जासु सकल जग माची॥2॥

मूल

सिय निन्दक अघ ओघ नसाए। लोक बिसोक बनाइ बसाए॥
बन्दउँ कौसल्या दिसि प्राची। कीरति जासु सकल जग माची॥2॥

भावार्थ

उन्होन्ने (अपनी पुरी में रहने वाले) सीताजी की निन्दा करने वाले (धोबी और उसके समर्थक पुर-नर-नारियों) के पाप समूह को नाश कर उनको शोकरहित बनाकर अपने लोक (धाम) में बसा दिया। मैं कौशल्या रूपी पूर्व दिशा की वन्दना करता हूँ, जिसकी कीर्ति समस्त संसार में फैल रही है॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रगटेउ जहँ रघुपति ससि चारू। बिस्व सुखद खल कमल तुसारू॥
दसरथ राउ सहित सब रानी। सुकृत सुमङ्गल मूरति मानी॥3॥
करउँ प्रनाम करम मन बानी। करहु कृपा सुत सेवक जानी॥
जिन्हहि बिरचि बड भयउ बिधाता। महिमा अवधि राम पितु माता॥4॥

मूल

प्रगटेउ जहँ रघुपति ससि चारू। बिस्व सुखद खल कमल तुसारू॥
दसरथ राउ सहित सब रानी। सुकृत सुमङ्गल मूरति मानी॥3॥
करउँ प्रनाम करम मन बानी। करहु कृपा सुत सेवक जानी॥
जिन्हहि बिरचि बड भयउ बिधाता। महिमा अवधि राम पितु माता॥4॥

भावार्थ

जहाँ (कौशल्या रूपी पूर्व दिशा) से विश्व को सुख देने वाले और दुष्ट रूपी कमलों के लिए पाले के समान श्री रामचन्द्रजी रूपी सुन्दर चन्द्रमा प्रकट हुए। सब रानियों सहित राजा दशरथजी को पुण्य और सुन्दर कल्याण की मूर्ति मानकर मैं मन, वचन और कर्म से प्रणाम करता हूँ। अपने पुत्र का सेवक जानकर वे मुझ पर कृपा करें, जिनको रचकर ब्रह्माजी ने भी बडाई पाई तथा जो श्री रामजी के माता और पिता होने के कारण महिमा की सीमा हैं॥3-4॥

016

01 सोरठा

विश्वास-प्रस्तुतिः

बन्दउँ अवध भुआल सत्य प्रेम जेहि राम पद।
बिछुरत दीनदयाल प्रिय तनु तृन इव परिहरेउ॥16॥

मूल

बन्दउँ अवध भुआल सत्य प्रेम जेहि राम पद।
बिछुरत दीनदयाल प्रिय तनु तृन इव परिहरेउ॥16॥

भावार्थ

मैं अवध के राजा श्री दशरथजी की वन्दना करता हूँ, जिनका श्री रामजी के चरणों में सच्चा प्रेम था, जिन्होन्ने दीनदयालु प्रभु के बिछुडते ही अपने प्यारे शरीर को मामूली तिनके की तरह त्याग दिया॥16॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रनवउँ परिजन सहित बिदेहू। जाहि राम पद गूढ सनेहू॥
जोग भोग महँ राखेउ गोई। राम बिलोकत प्रगटेउ सोई॥1॥

मूल

प्रनवउँ परिजन सहित बिदेहू। जाहि राम पद गूढ सनेहू॥
जोग भोग महँ राखेउ गोई। राम बिलोकत प्रगटेउ सोई॥1॥

भावार्थ

मैं परिवार सहित राजा जनकजी को प्रणाम करता हूँ, जिनका श्री रामजी के चरणों में गूढ प्रेम था, जिसको उन्होन्ने योग और भोग में छिपा रखा था, परन्तु श्री रामचन्द्रजी को देखते ही वह प्रकट हो गया॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रनवउँ प्रथम भरत के चरना। जासु नेम ब्रत जाइ न बरना॥
राम चरन पङ्कज मन जासू। लुबुध मधुप इव तजइ न पासू॥2॥

मूल

प्रनवउँ प्रथम भरत के चरना। जासु नेम ब्रत जाइ न बरना॥
राम चरन पङ्कज मन जासू। लुबुध मधुप इव तजइ न पासू॥2॥

भावार्थ

(भाइयों में) सबसे पहले मैं श्री भरतजी के चरणों को प्रणाम करता हूँ, जिनका नियम और व्रत वर्णन नहीं किया जा सकता तथा जिनका मन श्री रामजी के चरणकमलों में भौंरे की तरह लुभाया हुआ है, कभी उनका पास नहीं छोडता॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बन्दउँ लछिमन पद जल जाता। सीतल सुभग भगत सुख दाता॥
रघुपति कीरति बिमल पताका। दण्ड समान भयउ जस जाका॥3॥

मूल

बन्दउँ लछिमन पद जल जाता। सीतल सुभग भगत सुख दाता॥
रघुपति कीरति बिमल पताका। दण्ड समान भयउ जस जाका॥3॥

भावार्थ

मैं श्री लक्ष्मणजी के चरण कमलों को प्रणाम करता हूँ, जो शीतल सुन्दर और भक्तों को सुख देने वाले हैं। श्री रघुनाथजी की कीर्ति रूपी विमल पताका में जिनका (लक्ष्मणजी का) यश (पताका को ऊँचा करके फहराने वाले) दण्ड के समान हुआ॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सेष सहस्रसीस जग कारन। जो अवतरेउ भूमि भय टारन॥
सदा सो सानुकूल रह मो पर। कृपासिन्धु सौमित्रि गुनाकर॥4॥

मूल

सेष सहस्रसीस जग कारन। जो अवतरेउ भूमि भय टारन॥
सदा सो सानुकूल रह मो पर। कृपासिन्धु सौमित्रि गुनाकर॥4॥

भावार्थ

जो हजार सिर वाले और जगत के कारण (हजार सिरों पर जगत को धारण कर रखने वाले) शेषजी हैं, जिन्होन्ने पृथ्वी का भय दूर करने के लिए अवतार लिया, वे गुणों की खान कृपासिन्धु सुमित्रानन्दन श्री लक्ष्मणजी मुझ पर सदा प्रसन्न रहें॥4॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रिपुसूदन पद कमल नमामी। सूर सुसील भरत अनुगामी॥
महाबीर बिनवउँ हनुमाना। राम जासु जस आप बखाना॥5॥

मूल

रिपुसूदन पद कमल नमामी। सूर सुसील भरत अनुगामी॥
महाबीर बिनवउँ हनुमाना। राम जासु जस आप बखाना॥5॥

भावार्थ

मैं श्री शत्रुघ्नजी के चरणकमलों को प्रणाम करता हूँ, जो बडे वीर, सुशील और श्री भरतजी के पीछे चलने वाले हैं। मैं महावीर श्री हनुमानजी की विनती करता हूँ, जिनके यश का श्री रामचन्द्रजी ने स्वयं (अपने श्रीमुख से) वर्णन किया है॥5॥

017

01 सोरठा

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रनवउँ पवनकुमार खल बन पावक ग्यान घन।
जासु हृदय आगार बसहिं राम सर चाप धर॥17॥

मूल

प्रनवउँ पवनकुमार खल बन पावक ग्यान घन।
जासु हृदय आगार बसहिं राम सर चाप धर॥17॥

भावार्थ

मैं पवनकुमार श्री हनुमान्‌जी को प्रणाम करता हूँ, जो दुष्ट रूपी वन को भस्म करने के लिए अग्निरूप हैं, जो ज्ञान की घनमूर्ति हैं और जिनके हृदय रूपी भवन में धनुष-बाण धारण किए श्री रामजी निवास करते हैं॥17॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

कपिपति रीछ निसाचर राजा। अङ्गदादि जे कीस समाजा॥
बन्दउँ सब के चरन सुहाए। अधम सरीर राम जिन्ह पाए॥1॥

मूल

कपिपति रीछ निसाचर राजा। अङ्गदादि जे कीस समाजा॥
बन्दउँ सब के चरन सुहाए। अधम सरीर राम जिन्ह पाए॥1॥

भावार्थ

वानरों के राजा सुग्रीवजी, रीछों के राजा जाम्बवानजी, राक्षसों के राजा विभीषणजी और अङ्गदजी आदि जितना वानरों का समाज है, सबके सुन्दर चरणों की मैं वदना करता हूँ, जिन्होन्ने अधम (पशु और राक्षस आदि) शरीर में भी श्री रामचन्द्रजी को प्राप्त कर लिया॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रघुपति चरन उपासक जेते। खग मृग सुर नर असुर समेते॥
बन्दउँ पद सरोज सब केरे। जे बिनु काम राम के चेरे॥2॥

मूल

रघुपति चरन उपासक जेते। खग मृग सुर नर असुर समेते॥
बन्दउँ पद सरोज सब केरे। जे बिनु काम राम के चेरे॥2॥

भावार्थ

पशु, पक्षी, देवता, मनुष्य, असुर समेत जितने श्री रामजी के चरणों के उपासक हैं, मैं उन सबके चरणकमलों की वन्दना करता हूँ, जो श्री रामजी के निष्काम सेवक हैं॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुक सनकादि भगत मुनि नारद। जे मुनिबर बिग्यान बिसारद॥
प्रनवउँ सबहि धरनि धरि सीसा। करहु कृपा जन जानि मुनीसा॥3॥

मूल

सुक सनकादि भगत मुनि नारद। जे मुनिबर बिग्यान बिसारद॥
प्रनवउँ सबहि धरनि धरि सीसा। करहु कृपा जन जानि मुनीसा॥3॥

भावार्थ

शुकदेवजी, सनकादि, नारदमुनि आदि जितने भक्त और परम ज्ञानी श्रेष्ठ मुनि हैं, मैं धरती पर सिर टेककर उन सबको प्रणाम करता हूँ, हे मुनीश्वरों! आप सब मुझको अपना दास जानकर कृपा कीजिए॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की॥
ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥4॥

मूल

जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की॥
ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥4॥

भावार्थ

राजा जनक की पुत्री, जगत की माता और करुणा निधान श्री रामचन्द्रजी की प्रियतमा श्री जानकीजी के दोनों चरण कमलों को मैं मनाता हूँ, जिनकी कृपा से निर्मल बुद्धि पाऊँ॥4॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुनि मन बचन कर्म रघुनायक। चरन कमल बन्दउँ सब लायक॥
राजीवनयन धरें धनु सायक। भगत बिपति भञ्जन सुखदायक॥5॥

मूल

पुनि मन बचन कर्म रघुनायक। चरन कमल बन्दउँ सब लायक॥
राजीवनयन धरें धनु सायक। भगत बिपति भञ्जन सुखदायक॥5॥

भावार्थ

फिर मैं मन, वचन और कर्म से कमलनयन, धनुष-बाणधारी, भक्तों की विपत्ति का नाश करने और उन्हें सुख देने वाले भगवान्‌ श्री रघुनाथजी के सर्व समर्थ चरण कमलों की वन्दना करता हूँ॥5॥

018

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

गिरा अरथ जल बीचि सम कहिअत भिन्न न भिन्न।
बन्दउँ सीता राम पद जिन्हहि परम प्रिय खिन्न॥18॥

मूल

गिरा अरथ जल बीचि सम कहिअत भिन्न न भिन्न।
बन्दउँ सीता राम पद जिन्हहि परम प्रिय खिन्न॥18॥

भावार्थ

जो वाणी और उसके अर्थ तथा जल और जल की लहर के समान कहने में अलग-अलग हैं, परन्तु वास्तव में अभिन्न (एक) हैं, उन श्री सीतारामजी के चरणों की मैं वन्दना करता हूँ, जिन्हें दीन-दुःखी बहुत ही प्रिय हैं॥18॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

बन्दउँ नाम राम रघुबर को। हेतु कृसानु भानु हिमकर को॥
बिधि हरि हरमय बेद प्रान सो। अगुन अनूपम गुन निधान सो॥1॥

मूल

बन्दउँ नाम राम रघुबर को। हेतु कृसानु भानु हिमकर को॥
बिधि हरि हरमय बेद प्रान सो। अगुन अनूपम गुन निधान सो॥1॥

भावार्थ

मैं श्री रघुनाथजी के नाम ‘राम’ की वन्दना करता हूँ, जो कृशानु (अग्नि), भानु (सूर्य) और हिमकर (चन्द्रमा) का हेतु अर्थात्‌ ‘र’ ‘आ’ और ‘म’ रूप से बीज है। वह ‘राम’ नाम ब्रह्मा, विष्णु और शिवरूप है। वह वेदों का प्राण है, निर्गुण, उपमारहित और गुणों का भण्डार है॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

महामन्त्र जोइ जपत महेसू। कासीं मुकुति हेतु उपदेसू॥
महिमा जासु जान गनराऊ। प्रथम पूजिअत नाम प्रभाऊ॥2॥

मूल

महामन्त्र जोइ जपत महेसू। कासीं मुकुति हेतु उपदेसू॥
महिमा जासु जान गनराऊ। प्रथम पूजिअत नाम प्रभाऊ॥2॥

भावार्थ

जो महामन्त्र है, जिसे महेश्वर श्री शिवजी जपते हैं और उनके द्वारा जिसका उपदेश काशी में मुक्ति का कारण है तथा जिसकी महिमा को गणेशजी जानते हैं, जो इस ‘राम’ नाम के प्रभाव से ही सबसे पहले पूजे जाते हैं॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जान आदिकबि नाम प्रतापू। भयउ सुद्ध करि उलटा जापू॥
सहस नाम सम सुनि सिव बानी। जपि जेईं पिय सङ्ग भवानी॥3॥

मूल

जान आदिकबि नाम प्रतापू। भयउ सुद्ध करि उलटा जापू॥
सहस नाम सम सुनि सिव बानी। जपि जेईं पिय सङ्ग भवानी॥3॥

भावार्थ

आदिकवि श्री वाल्मीकिजी रामनाम के प्रताप को जानते हैं, जो उल्टा नाम (‘मरा’, ‘मरा’) जपकर पवित्र हो गए। श्री शिवजी के इस वचन को सुनकर कि एक राम-नाम सहस्र नाम के समान है, पार्वतीजी सदा अपने पति (श्री शिवजी) के साथ राम-नाम का जप करती रहती हैं॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हरषे हेतु हेरि हर ही को। किय भूषन तिय भूषन ती को॥
नाम प्रभाउ जान सिव नीको। कालकूट फलु दीन्ह अमी को॥4॥

मूल

हरषे हेतु हेरि हर ही को। किय भूषन तिय भूषन ती को॥
नाम प्रभाउ जान सिव नीको। कालकूट फलु दीन्ह अमी को॥4॥

भावार्थ

नाम के प्रति पार्वतीजी के हृदय की ऐसी प्रीति देखकर श्री शिवजी हर्षित हो गए और उन्होन्ने स्त्रियों में भूषण रूप (पतिव्रताओं में शिरोमणि) पार्वतीजी को अपना भूषण बना लिया। (अर्थात्‌ उन्हें अपने अङ्ग में धारण करके अर्धाङ्गिनी बना लिया)। नाम के प्रभाव को श्री शिवजी भलीभाँति जानते हैं, जिस (प्रभाव) के कारण कालकूट जहर ने उनको अमृत का फल दिया॥4॥

019

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

बरषा रितु रघुपति भगति तुलसी सालि सुदास।
राम नाम बर बरन जुग सावन भादव मास॥19॥

मूल

बरषा रितु रघुपति भगति तुलसी सालि सुदास।
राम नाम बर बरन जुग सावन भादव मास॥19॥

भावार्थ

श्री रघुनाथजी की भक्ति वर्षा ऋतु है, तुलसीदासजी कहते हैं कि उत्तम सेवकगण धान हैं और ‘राम’ नाम के दो सुन्दर अक्षर सावन-भादो के महीने हैं॥19॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

आखर मधुर मनोहर दोऊ। बरन बिलोचन जन जिय जोऊ॥
ससुमिरत सुलभ सुखद सब काहू। लोक लाहु परलोक निबाहू॥1॥

मूल

आखर मधुर मनोहर दोऊ। बरन बिलोचन जन जिय जोऊ॥
ससुमिरत सुलभ सुखद सब काहू। लोक लाहु परलोक निबाहू॥1॥

भावार्थ

दोनों अक्षर मधुर और मनोहर हैं, जो वर्णमाला रूपी शरीर के नेत्र हैं, भक्तों के जीवन हैं तथा स्मरण करने में सबके लिए सुलभ और सुख देने वाले हैं और जो इस लोक में लाभ और परलोक में निर्वाह करते हैं (अर्थात्‌ भगवान के दिव्य धाम में दिव्य देह से सदा भगवत्सेवा में नियुक्त रखते हैं।)॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहत सुनत सुमिरत सुठि नीके। राम लखन सम प्रिय तुलसी के॥
बरनत बरन प्रीति बिलगाती। ब्रह्म जीव सम सहज सँघाती॥2॥

मूल

कहत सुनत सुमिरत सुठि नीके। राम लखन सम प्रिय तुलसी के॥
बरनत बरन प्रीति बिलगाती। ब्रह्म जीव सम सहज सँघाती॥2॥

भावार्थ

ये कहने, सुनने और स्मरण करने में बहुत ही अच्छे (सुन्दर और मधुर) हैं, तुलसीदास को तो श्री राम-लक्ष्मण के समान प्यारे हैं। इनका (‘र’ और ‘म’ का) अलग-अलग वर्णन करने में प्रीति बिलगाती है (अर्थात बीज मन्त्र की दृष्टि से इनके उच्चारण, अर्थ और फल में भिन्नता दिख पडती है), परन्तु हैं ये जीव और ब्रह्म के समान स्वभाव से ही साथ रहने वाले (सदा एक रूप और एक रस),॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नर नारायन सरिस सुभ्राता। जग पालक बिसेषि जन त्राता॥
भगति सुतिय कल करन बिभूषन। जग हित हेतु बिमल बिधु पूषन॥3॥

मूल

नर नारायन सरिस सुभ्राता। जग पालक बिसेषि जन त्राता॥
भगति सुतिय कल करन बिभूषन। जग हित हेतु बिमल बिधु पूषन॥3॥

भावार्थ

ये दोनों अक्षर नर-नारायण के समान सुन्दर भाई हैं, ये जगत का पालन और विशेष रूप से भक्तों की रक्षा करने वाले हैं। ये भक्ति रूपिणी सुन्दर स्त्री के कानों के सुन्दर आभूषण (कर्णफूल) हैं और जगत के हित के लिए निर्मल चन्द्रमा और सूर्य हैं॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वाद तोष सम सुगति सुधा के। कमठ सेष सम धर बसुधा के॥
जन मन मञ्जु कञ्ज मधुकर से। जीह जसोमति हरि हलधर से॥4॥

मूल

स्वाद तोष सम सुगति सुधा के। कमठ सेष सम धर बसुधा के॥
जन मन मञ्जु कञ्ज मधुकर से। जीह जसोमति हरि हलधर से॥4॥

भावार्थ

ये सुन्दर गति (मोक्ष) रूपी अमृत के स्वाद और तृप्ति के समान हैं, कच्छप और शेषजी के समान पृथ्वी के धारण करने वाले हैं, भक्तों के मन रूपी सुन्दर कमल में विहार करने वाले भौंरे के समान हैं और जीभ रूपी यशोदाजी के लिए श्री कृष्ण और बलरामजी के समान (आनन्द देने वाले) हैं॥4॥

020

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकु छत्रु एकु मुकुटमनि सब बरननि पर जोउ।
तुलसी रघुबर नाम के बरन बिराजत दोउ॥20॥

मूल

एकु छत्रु एकु मुकुटमनि सब बरननि पर जोउ।
तुलसी रघुबर नाम के बरन बिराजत दोउ॥20॥

भावार्थ

तुलसीदासजी कहते हैं- श्री रघुनाथजी के नाम के दोनों अक्षर बडी शोभा देते हैं, जिनमें से एक (रकार) छत्ररूप (रेफ र्) से और दूसरा (मकार) मुकुटमणि (अनुस्वार) रूप से सब अक्षरों के ऊपर है॥20॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

समुझत सरिस नाम अरु नामी। प्रीति परसपर प्रभु अनुगामी॥
नाम रूप दुइ ईस उपाधी। अकथ अनादि सुसामुझि साधी॥1॥

मूल

समुझत सरिस नाम अरु नामी। प्रीति परसपर प्रभु अनुगामी॥
नाम रूप दुइ ईस उपाधी। अकथ अनादि सुसामुझि साधी॥1॥

भावार्थ

समझने में नाम और नामी दोनों एक से हैं, किन्तु दोनों में परस्पर स्वामी और सेवक के समान प्रीति है (अर्थात्‌ नाम और नामी में पूर्ण एकता होने पर भी जैसे स्वामी के पीछे सेवक चलता है, उसी प्रकार नाम के पीछे नामी चलते हैं। प्रभु श्री रामजी अपने ‘राम’ नाम का ही अनुगमन करते हैं (नाम लेते ही वहाँ आ जाते हैं)। नाम और रूप दोनों ईश्वर की उपाधि हैं, ये (भगवान के नाम और रूप) दोनों अनिर्वचनीय हैं, अनादि हैं और सुन्दर (शुद्ध भक्तियुक्त) बुद्धि से ही इनका (दिव्य अविनाशी) स्वरूप जानने में आता है॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

को बड छोट कहत अपराधू। सुनि गुन भेदु समुझिहहिं साधू॥
देखिअहिं रूप नाम आधीना। रूप ग्यान नहिं नाम बिहीना॥2॥

मूल

को बड छोट कहत अपराधू। सुनि गुन भेदु समुझिहहिं साधू॥
देखिअहिं रूप नाम आधीना। रूप ग्यान नहिं नाम बिहीना॥2॥

भावार्थ

इन (नाम और रूप) में कौन बडा है, कौन छोटा, यह कहना तो अपराध है। इनके गुणों का तारतम्य (कमी-बेशी) सुनकर साधु पुरुष स्वयं ही समझ लेङ्गे। रूप नाम के अधीन देखे जाते हैं, नाम के बिना रूप का ज्ञान नहीं हो सकता॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रूप बिसेष नाम बिनु जानें। करतल गत न परहिं पहिचानें॥
सुमिरिअ नाम रूप बिनु देखें। आवत हृदयँ सनेह बिसेषें॥3॥

मूल

रूप बिसेष नाम बिनु जानें। करतल गत न परहिं पहिचानें॥
सुमिरिअ नाम रूप बिनु देखें। आवत हृदयँ सनेह बिसेषें॥3॥

भावार्थ

कोई सा विशेष रूप बिना उसका नाम जाने हथेली पर रखा हुआ भी पहचाना नहीं जा सकता और रूप के बिना देखे भी नाम का स्मरण किया जाए तो विशेष प्रेम के साथ वह रूप हृदय में आ जाता है॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाम रूप गति अकथ कहानी। समुझत सुखद न परति बखानी॥
अगुन सगुन बिच नाम सुसाखी। उभय प्रबोधक चतुर दुभाषी॥4॥

मूल

नाम रूप गति अकथ कहानी। समुझत सुखद न परति बखानी॥
अगुन सगुन बिच नाम सुसाखी। उभय प्रबोधक चतुर दुभाषी॥4॥

भावार्थ

नाम और रूप की गति की कहानी (विशेषता की कथा) अकथनीय है। वह समझने में सुखदायक है, परन्तु उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। निर्गुण और सगुण के बीच में नाम सुन्दर साक्षी है और दोनों का यथार्थ ज्ञान कराने वाला चतुर दुभाषिया है॥4॥

021

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम नाम मनिदीप धरु जीह देहरीं द्वार।
तुलसी भीतर बाहेरहुँ जौं चाहसि उजिआर॥21॥

मूल

राम नाम मनिदीप धरु जीह देहरीं द्वार।
तुलसी भीतर बाहेरहुँ जौं चाहसि उजिआर॥21॥

भावार्थ

तुलसीदासजी कहते हैं, यदि तू भीतर और बाहर दोनों ओर उजाला चाहता है, तो मुख रूपी द्वार की जीभ रूपी देहली पर रामनाम रूपी मणि-दीपक को रख॥21॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाम जीहँ जपि जागहिं जोगी। बिरति बिरञ्चि प्रपञ्च बियोगी॥
ब्रह्मसुखहि अनुभवहिं अनूपा। अकथ अनामय नाम न रूपा॥1॥

मूल

नाम जीहँ जपि जागहिं जोगी। बिरति बिरञ्चि प्रपञ्च बियोगी॥
ब्रह्मसुखहि अनुभवहिं अनूपा। अकथ अनामय नाम न रूपा॥1॥

भावार्थ

ब्रह्मा के बनाए हुए इस प्रपञ्च (दृश्य जगत) से भलीभाँति छूटे हुए वैराग्यवान्‌ मुक्त योगी पुरुष इस नाम को ही जीभ से जपते हुए (तत्व ज्ञान रूपी दिन में) जागते हैं और नाम तथा रूप से रहित अनुपम, अनिर्वचनीय, अनामय ब्रह्मसुख का अनुभव करते हैं॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जाना चहहिं गूढ गति जेऊ। नाम जीहँ जपि जानहिं तेऊ॥
साधक नाम जपहिं लय लाएँ। होहिं सिद्ध अनिमादिक पाएँ॥2॥

मूल

जाना चहहिं गूढ गति जेऊ। नाम जीहँ जपि जानहिं तेऊ॥
साधक नाम जपहिं लय लाएँ। होहिं सिद्ध अनिमादिक पाएँ॥2॥

भावार्थ

जो परमात्मा के गूढ रहस्य को (यथार्थ महिमा को) जानना चाहते हैं, वे (जिज्ञासु) भी नाम को जीभ से जपकर उसे जान लेते हैं। (लौकिक सिद्धियों के चाहने वाले अर्थार्थी) साधक लौ लगाकर नाम का जप करते हैं और अणिमादि (आठों) सिद्धियों को पाकर सिद्ध हो जाते हैं॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जपहिं नामु जन आरत भारी। मिटहिं कुसङ्कट होहिं सुखारी॥
राम भगत जग चारि प्रकारा। सुकृती चारिउ अनघ उदारा॥3॥

मूल

जपहिं नामु जन आरत भारी। मिटहिं कुसङ्कट होहिं सुखारी॥
राम भगत जग चारि प्रकारा। सुकृती चारिउ अनघ उदारा॥3॥

भावार्थ

(सङ्कट से घबडाए हुए) आर्त भक्त नाम जप करते हैं, तो उनके बडे भारी बुरे-बुरे सङ्कट मिट जाते हैं और वे सुखी हो जाते हैं। जगत में चार प्रकार के (1- अर्थार्थी-धनादि की चाह से भजने वाले, 2-आर्त सङ्कट की निवृत्ति के लिए भजने वाले, 3-जिज्ञासु-भगवान को जानने की इच्छा से भजने वाले, 4-ज्ञानी-भगवान को तत्व से जानकर स्वाभाविक ही प्रेम से भजने वाले) रामभक्त हैं और चारों ही पुण्यात्मा, पापरहित और उदार हैं॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चहू चतुर कहुँ नाम अधारा। ग्यानी प्रभुहि बिसेषि पिआरा॥
चहुँ जुग चहुँ श्रुति नाम प्रभाऊ। कलि बिसेषि नहिं आन उपाऊ॥4॥

मूल

चहू चतुर कहुँ नाम अधारा। ग्यानी प्रभुहि बिसेषि पिआरा॥
चहुँ जुग चहुँ श्रुति नाम प्रभाऊ। कलि बिसेषि नहिं आन उपाऊ॥4॥

भावार्थ

चारों ही चतुर भक्तों को नाम का ही आधार है, इनमें ज्ञानी भक्त प्रभु को विशेष रूप से प्रिय हैं। यों तो चारों युगों में और चारों ही वेदों में नाम का प्रभाव है, परन्तु कलियुग में विशेष रूप से है। इसमें तो (नाम को छोडकर) दूसरा कोई उपाय ही नहीं है॥4॥

022

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

सकल कामना हीन जे राम भगति रस लीन।
नाम सुप्रेम पियूष ह्रद तिन्हहुँ किए मन मीन॥22॥

मूल

सकल कामना हीन जे राम भगति रस लीन।
नाम सुप्रेम पियूष ह्रद तिन्हहुँ किए मन मीन॥22॥

भावार्थ

जो सब प्रकार की (भोग और मोक्ष की भी) कामनाओं से रहित और श्री रामभक्ति के रस में लीन हैं, उन्होन्ने भी नाम के सुन्दर प्रेम रूपी अमृत के सरोवर में अपने मन को मछली बना रखा है (अर्थात्‌ वे नाम रूपी सुधा का निरन्तर आस्वादन करते रहते हैं, क्षणभर भी उससे अलग होना नहीं चाहते)॥22॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

अगुन सगुन दुइ ब्रह्म सरूपा। अकथ अगाध अनादि अनूपा॥
मोरें मत बड नामु दुहू तें। किए जेहिं जुग िनज बस निज बूतें॥1॥

मूल

अगुन सगुन दुइ ब्रह्म सरूपा। अकथ अगाध अनादि अनूपा॥
मोरें मत बड नामु दुहू तें। किए जेहिं जुग िनज बस निज बूतें॥1॥

भावार्थ

निर्गुण और सगुण ब्रह्म के दो स्वरूप हैं। ये दोनों ही अकथनीय, अथाह, अनादि और अनुपम हैं। मेरी सम्मति में नाम इन दोनों से बडा है, जिसने अपने बल से दोनों को अपने वश में कर रखा है॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रौढि सुजन जनि जानहिं जन की। कहउँ प्रतीति प्रीति रुचि मन की॥
एकु दारुगत देखिअ एकू। पावक सम जुग ब्रह्म बिबेकू॥2॥
उभय अगम जुग सुगम नाम तें। कहेउँ नामु बड ब्रह्म राम तें॥
ब्यापकु एकु ब्रह्म अबिनासी। सत चेतन घन आनँद रासी॥3॥

मूल

प्रौढि सुजन जनि जानहिं जन की। कहउँ प्रतीति प्रीति रुचि मन की॥
एकु दारुगत देखिअ एकू। पावक सम जुग ब्रह्म बिबेकू॥2॥
उभय अगम जुग सुगम नाम तें। कहेउँ नामु बड ब्रह्म राम तें॥
ब्यापकु एकु ब्रह्म अबिनासी। सत चेतन घन आनँद रासी॥3॥

भावार्थ

सज्जनगण इस बात को मुझ दास की ढिठाई या केवल काव्योक्ति न समझें। मैं अपने मन के विश्वास, प्रेम और रुचि की बात कहता हूँ। (िनर्गुण और सगुण) दोनों प्रकार के ब्रह्म का ज्ञान अग्नि के समान है। निर्गुण उस अप्रकट अग्नि के समान है, जो काठ के अन्दर है, परन्तु दिखती नहीं और सगुण उस प्रकट अग्नि के समान है, जो प्रत्यक्ष दिखती है।

(तत्त्वतः दोनों एक ही हैं, केवल प्रकट-अप्रकट के भेद से भिन्न मालूम होती हैं। इसी प्रकार निर्गुण और सगुण तत्त्वतः एक ही हैं। इतना होने पर भी) दोनों ही जानने में बडे कठिन हैं, परन्तु नाम से दोनों सुगम हो जाते हैं। इसी से मैन्ने नाम को (निर्गुण) ब्रह्म से और (सगुण) राम से बडा कहा है, ब्रह्म व्यापक है, एक है, अविनाशी है, सत्ता, चैतन्य और आनन्द की घन राशि है॥2-3॥

अस प्रभु हृदयँ अछत अबिकारी। सकल जीव जग दीन दुखारी॥
नाम निरूपन नाम जतन तें। सोउ प्रगटत जिमि मोल रतन तें॥4॥

भावार्थ

ऐसे विकाररहित प्रभु के हृदय में रहते भी जगत के सब जीव दीन और दुःखी हैं। नाम का निरूपण करके (नाम के यथार्थ स्वरूप, महिमा, रहस्य और प्रभाव को जानकर) नाम का जतन करने से (श्रद्धापूर्वक नाम जप रूपी साधन करने से) वही ब्रह्म ऐसे प्रकट हो जाता है, जैसे रत्न के जानने से उसका मूल्य॥4॥

023

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

निरगुन तें एहि भाँति बड नाम प्रभाउ अपार।
कहउँ नामु बड राम तें निज बिचार अनुसार॥23॥

मूल

निरगुन तें एहि भाँति बड नाम प्रभाउ अपार।
कहउँ नामु बड राम तें निज बिचार अनुसार॥23॥

भावार्थ

इस प्रकार निर्गुण से नाम का प्रभाव अत्यन्त बडा है। अब अपने विचार के अनुसार कहता हूँ, कि नाम (सगुण) राम से भी बडा है॥23॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम भगत हित नर तनु धारी। सहि सङ्कट किए साधु सुखारी॥
नामु सप्रेम जपत अनयासा। भगत होहिं मुद मङ्गल बासा॥1॥

मूल

राम भगत हित नर तनु धारी। सहि सङ्कट किए साधु सुखारी॥
नामु सप्रेम जपत अनयासा। भगत होहिं मुद मङ्गल बासा॥1॥

भावार्थ

श्री रामचन्द्रजी ने भक्तों के हित के लिए मनुष्य शरीर धारण करके स्वयं कष्ट सहकर साधुओं को सुखी किया, परन्तु भक्तगण प्रेम के साथ नाम का जप करते हुए सहज ही में आनन्द और कल्याण के घर हो जाते हैं॥1॥।

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम एक तापस तिय तारी। नाम कोटि खल कुमति सुधारी॥
रिषि हित राम सुकेतुसुता की। सहित सेन सुत कीन्हि बिबाकी॥2॥
सहित दोष दुख दास दुरासा। दलइ नामु जिमि रबि निसि नासा॥
भञ्जेउ राम आपु भव चापू। भव भय भञ्जन नाम प्रतापू॥3॥

मूल

राम एक तापस तिय तारी। नाम कोटि खल कुमति सुधारी॥
रिषि हित राम सुकेतुसुता की। सहित सेन सुत कीन्हि बिबाकी॥2॥
सहित दोष दुख दास दुरासा। दलइ नामु जिमि रबि निसि नासा॥
भञ्जेउ राम आपु भव चापू। भव भय भञ्जन नाम प्रतापू॥3॥

भावार्थ

श्री रामजी ने एक तपस्वी की स्त्री (अहिल्या) को ही तारा, परन्तु नाम ने करोडों दुष्टों की बिगडी बुद्धि को सुधार दिया। श्री रामजी ने ऋषि विश्वामिश्र के हित के लिए एक सुकेतु यक्ष की कन्या ताडका की सेना और पुत्र (सुबाहु) सहित समाप्ति की, परन्तु नाम अपने भक्तों के दोष, दुःख और दुराशाओं का इस तरह नाश कर देता है जैसे सूर्य रात्रि का। श्री रामजी ने तो स्वयं शिवजी के धनुष को तोडा, परन्तु नाम का प्रताप ही संसार के सब भयों का नाश करने वाला है॥2-3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दण्डक बन प्रभु कीन्ह सुहावन। जन मन अमित नाम किए पावन॥
निसिचर निकर दले रघुनन्दन। नामु सकल कलि कलुष निकन्दन॥4॥

मूल

दण्डक बन प्रभु कीन्ह सुहावन। जन मन अमित नाम किए पावन॥
निसिचर निकर दले रघुनन्दन। नामु सकल कलि कलुष निकन्दन॥4॥

भावार्थ

प्रभु श्री रामजी ने (भयानक) दण्डक वन को सुहावना बनाया, परन्तु नाम ने असङ्ख्य मनुष्यों के मनों को पवित्र कर दिया। श्री रघुनाथजी ने राक्षसों के समूह को मारा, परन्तु नाम तो कलियुग के सारे पापों की जड उखाडने वाला है॥4॥

024

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

सबरी गीध सुसेवकनि सुगति दीन्हि रघुनाथ।
नाम उधारे अमित खल बेद बिदित गुन गाथ॥24॥

मूल

सबरी गीध सुसेवकनि सुगति दीन्हि रघुनाथ।
नाम उधारे अमित खल बेद बिदित गुन गाथ॥24॥

भावार्थ

श्री रघुनाथजी ने तो शबरी, जटायु आदि उत्तम सेवकों को ही मुक्ति दी, परन्तु नाम ने अगनित दुष्टों का उद्धार किया। नाम के गुणों की कथा वेदों में प्रसिद्ध है॥24॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम सुकण्ठ बिभीषन दोऊ। राखे सरन जान सबु कोऊ ॥
नाम गरीब अनेक नेवाजे। लोक बेद बर बिरिद बिराजे॥1॥

मूल

राम सुकण्ठ बिभीषन दोऊ। राखे सरन जान सबु कोऊ ॥
नाम गरीब अनेक नेवाजे। लोक बेद बर बिरिद बिराजे॥1॥

भावार्थ

श्री रामजी ने सुग्रीव और विभीषण दोनों को ही अपनी शरण में रखा, यह सब कोई जानते हैं, परन्तु नाम ने अनेक गरीबों पर कृपा की है। नाम का यह सुन्दर विरद लोक और वेद में विशेष रूप से प्रकाशित है॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम भालु कपि कटुक बटोरा। सेतु हेतु श्रमु कीन्ह न थोरा॥
नामु लेत भवसिन्धु सुखाहीं। करहु बिचारु सुजन मन माहीं॥2॥

मूल

राम भालु कपि कटुक बटोरा। सेतु हेतु श्रमु कीन्ह न थोरा॥
नामु लेत भवसिन्धु सुखाहीं। करहु बिचारु सुजन मन माहीं॥2॥

भावार्थ

श्री रामजी ने तो भालू और बन्दरों की सेना बटोरी और समुद्र पर पुल बाँधने के लिए थोडा परिश्रम नहीं किया, परन्तु नाम लेते ही संसार समुद्र सूख जाता है। सज्जनगण! मन में विचार कीजिए (कि दोनों में कौन बडा है)॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम सकुल रन रावनु मारा। सीय सहित निज पुर पगु धारा॥
राजा रामु अवध रजधानी। गावत गुन सुर मुनि बर बानी॥3॥
सेवक सुमिरत नामु सप्रीती। बिनु श्रम प्रबल मोह दलु जीती॥
फिरत सनेहँ मगन सुख अपनें। नाम प्रसाद सोच नहिं सपनें॥4॥

मूल

राम सकुल रन रावनु मारा। सीय सहित निज पुर पगु धारा॥
राजा रामु अवध रजधानी। गावत गुन सुर मुनि बर बानी॥3॥
सेवक सुमिरत नामु सप्रीती। बिनु श्रम प्रबल मोह दलु जीती॥
फिरत सनेहँ मगन सुख अपनें। नाम प्रसाद सोच नहिं सपनें॥4॥

भावार्थ

श्री रामचन्द्रजी ने कुटुम्ब सहित रावण को युद्ध में मारा, तब सीता सहित उन्होन्ने अपने नगर (अयोध्या) में प्रवेश किया। राम राजा हुए, अवध उनकी राजधानी हुई, देवता और मुनि सुन्दर वाणी से जिनके गुण गाते हैं, परन्तु सेवक (भक्त) प्रेमपूर्वक नाम के स्मरण मात्र से बिना परिश्रम मोह की प्रबल सेना को जीतकर प्रेम में मग्न हुए अपने ही सुख में विचरते हैं, नाम के प्रसाद से उन्हें सपने में भी कोई चिन्ता नहीं सताती॥3-4॥

025

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रह्म राम तें नामु बड बर दायक बर दानि।
रामचरित सत कोटि महँ लिय महेस जियँ जानि॥25॥

मूल

ब्रह्म राम तें नामु बड बर दायक बर दानि।
रामचरित सत कोटि महँ लिय महेस जियँ जानि॥25॥

भावार्थ

इस प्रकार नाम (निर्गुण) ब्रह्म और (सगुण) राम दोनों से बडा है। यह वरदान देने वालों को भी वर देने वाला है। श्री शिवजी ने अपने हृदय में यह जानकर ही सौ करोड राम चरित्र में से इस ‘राम’ नाम को (साररूप से चुनकर) ग्रहण किया है॥25॥

मासपारायण, पहला विश्राम

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाम प्रसाद सम्भु अबिनासी। साजु अमङ्गल मङ्गल रासी॥
सुक सनकादि सिद्ध मुनि जोगी। नाम प्रसाद ब्रह्मसुख भोगी॥1॥

मूल

नाम प्रसाद सम्भु अबिनासी। साजु अमङ्गल मङ्गल रासी॥
सुक सनकादि सिद्ध मुनि जोगी। नाम प्रसाद ब्रह्मसुख भोगी॥1॥

भावार्थ

नाम ही के प्रसाद से शिवजी अविनाशी हैं और अमङ्गल वेष वाले होने पर भी मङ्गल की राशि हैं। शुकदेवजी और सनकादि सिद्ध, मुनि, योगी गण नाम के ही प्रसाद से ब्रह्मानन्द को भोगते हैं॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नारद जानेउ नाम प्रतापू। जग प्रिय हरि हरि हर प्रिय आपू॥
नामु जपत प्रभु कीन्ह प्रसादू। भगत सिरोमनि भे प्रहलादू॥2॥

मूल

नारद जानेउ नाम प्रतापू। जग प्रिय हरि हरि हर प्रिय आपू॥
नामु जपत प्रभु कीन्ह प्रसादू। भगत सिरोमनि भे प्रहलादू॥2॥

भावार्थ

नारदजी ने नाम के प्रताप को जाना है। हरि सारे संसार को प्यारे हैं, (हरि को हर प्यारे हैं) और आप (श्री नारदजी) हरि और हर दोनों को प्रिय हैं। नाम के जपने से प्रभु ने कृपा की, जिससे प्रह्लाद, भक्त शिरोमणि हो गए॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ध्रुवँ सगलानि जपेउ हरि नाऊँ। पायउ अचल अनूपम ठाऊँ॥
सुमिरि पवनसुत पावन नामू। अपने बस करि राखे रामू॥3॥

मूल

ध्रुवँ सगलानि जपेउ हरि नाऊँ। पायउ अचल अनूपम ठाऊँ॥
सुमिरि पवनसुत पावन नामू। अपने बस करि राखे रामू॥3॥

भावार्थ

ध्रुवजी ने ग्लानि से (विमाता के वचनों से दुःखी होकर सकाम भाव से) हरि नाम को जपा और उसके प्रताप से अचल अनुपम स्थान (ध्रुवलोक) प्राप्त किया। हनुमान्‌जी ने पवित्र नाम का स्मरण करके श्री रामजी को अपने वश में कर रखा है॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपतु अजामिलु गजु गनिकाऊ। भए मुकुत हरि नाम प्रभाऊ॥
कहौं कहाँ लगि नाम बडाई। रामु न सकहिं नाम गुन गाई॥4॥

मूल

अपतु अजामिलु गजु गनिकाऊ। भए मुकुत हरि नाम प्रभाऊ॥
कहौं कहाँ लगि नाम बडाई। रामु न सकहिं नाम गुन गाई॥4॥

भावार्थ

नीच अजामिल, गज और गणिका (वेश्या) भी श्री हरि के नाम के प्रभाव से मुक्त हो गए। मैं नाम की बडाई कहाँ तक कहूँ, राम भी नाम के गुणों को नहीं गा सकते॥4॥

026

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

नामु राम को कलपतरु कलि कल्यान निवासु।
जो सुमिरत भयो भाँग तें तुलसी तुलसीदासु॥26॥

मूल

नामु राम को कलपतरु कलि कल्यान निवासु।
जो सुमिरत भयो भाँग तें तुलसी तुलसीदासु॥26॥

भावार्थ

कलियुग में राम का नाम कल्पतरु (मन चाहा पदार्थ देने वाला) और कल्याण का निवास (मुक्ति का घर) है, जिसको स्मरण करने से भाँग सा (निकृष्ट) तुलसीदास तुलसी के समान (पवित्र) हो गया॥26॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

चहुँ जुग तीनि काल तिहुँ लोका। भए नाम जपि जीव बिसोका॥
बेद पुरान सन्त मत एहू। सकल सुकृत फल राम सनेहू॥1॥

मूल

चहुँ जुग तीनि काल तिहुँ लोका। भए नाम जपि जीव बिसोका॥
बेद पुरान सन्त मत एहू। सकल सुकृत फल राम सनेहू॥1॥

भावार्थ

(केवल कलियुग की ही बात नहीं है,) चारों युगों में, तीनों काल में और तीनों लोकों में नाम को जपकर जीव शोकरहित हुए हैं। वेद, पुराण और सन्तों का मत यही है कि समस्त पुण्यों का फल श्री रामजी में (या राम नाम में) प्रेम होना है॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ध्यानु प्रथम जुग मख बिधि दूजें। द्वापर परितोषत प्रभु पूजें॥
कलि केवल मल मूल मलीना। पाप पयोनिधि जन मन मीना॥2॥

मूल

ध्यानु प्रथम जुग मख बिधि दूजें। द्वापर परितोषत प्रभु पूजें॥
कलि केवल मल मूल मलीना। पाप पयोनिधि जन मन मीना॥2॥

भावार्थ

पहले (सत्य) युग में ध्यान से, दूसरे (त्रेता) युग में यज्ञ से और द्वापर में पूजन से भगवान प्रसन्न होते हैं, परन्तु कलियुग केवल पाप की जड और मलिन है, इसमें मनुष्यों का मन पाप रूपी समुद्र में मछली बना हुआ है (अर्थात पाप से कभी अलग होना ही नहीं चाहता, इससे ध्यान, यज्ञ और पूजन नहीं बन सकते)॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाम कामतरु काल कराला। सुमिरत समन सकल जग जाला॥
राम नाम कलि अभिमत दाता। हित परलोक लोक पितु माता॥3॥

मूल

नाम कामतरु काल कराला। सुमिरत समन सकल जग जाला॥
राम नाम कलि अभिमत दाता। हित परलोक लोक पितु माता॥3॥

भावार्थ

ऐसे कराल (कलियुग के) काल में तो नाम ही कल्पवृक्ष है, जो स्मरण करते ही संसार के सब जञ्जालों को नाश कर देने वाला है। कलियुग में यह राम नाम मनोवाञ्छित फल देने वाला है, परलोक का परम हितैषी और इस लोक का माता-पिता है (अर्थात परलोक में भगवान का परमधाम देता है और इस लोक में माता-पिता के समान सब प्रकार से पालन और रक्षण करता है।)॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नहिं कलि करम न भगति बिबेकू। राम नाम अवलम्बन एकू॥
कालनेमि कलि कपट निधानू। नाम सुमति समरथ हनुमानू॥4॥

मूल

नहिं कलि करम न भगति बिबेकू। राम नाम अवलम्बन एकू॥
कालनेमि कलि कपट निधानू। नाम सुमति समरथ हनुमानू॥4॥

भावार्थ

कलियुग में न कर्म है, न भक्ति है और न ज्ञान ही है, राम नाम ही एक आधार है। कपट की खान कलियुग रूपी कालनेमि के (मारने के) लिए राम नाम ही बुद्धिमान और समर्थ श्री हनुमान्‌जी हैं॥4॥

027

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम नाम नरकेसरी कनककसिपु कलिकाल।
जापक जन प्रहलाद जिमि पालिहि दलि सुरसाल॥27॥

मूल

राम नाम नरकेसरी कनककसिपु कलिकाल।
जापक जन प्रहलाद जिमि पालिहि दलि सुरसाल॥27॥

भावार्थ

राम नाम श्री नृसिंह भगवान है, कलियुग हिरण्यकशिपु है और जप करने वाले जन प्रह्लाद के समान हैं, यह राम नाम देवताओं के शत्रु (कलियुग रूपी दैत्य) को मारकर जप करने वालों की रक्षा करेगा॥27॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

भायँ कुभायँ अनख आलस हूँ। नाम जपत मङ्गल दिसि दसहूँ॥
सुमिरि सो नाम राम गुन गाथा। करउँ नाइ रघुनाथहि माथा॥1॥

मूल

भायँ कुभायँ अनख आलस हूँ। नाम जपत मङ्गल दिसि दसहूँ॥
सुमिरि सो नाम राम गुन गाथा। करउँ नाइ रघुनाथहि माथा॥1॥

भावार्थ

अच्छे भाव (प्रेम) से, बुरे भाव (बैर) से, क्रोध से या आलस्य से, किसी तरह से भी नाम जपने से दसों दिशाओं में कल्याण होता है। उसी (परम कल्याणकारी) राम नाम का स्मरण करके और श्री रघुनाथजी को मस्तक नवाकर मैं रामजी के गुणों का वर्णन करता हूँ॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मोरि सुधारिहि सो सब भाँती। जासु कृपा नहिं कृपाँ अघाती॥
राम सुस्वामि कुसेवकु मोसो। निज दिसि देखि दयानिधि पोसो॥2॥

मूल

मोरि सुधारिहि सो सब भाँती। जासु कृपा नहिं कृपाँ अघाती॥
राम सुस्वामि कुसेवकु मोसो। निज दिसि देखि दयानिधि पोसो॥2॥

भावार्थ

वे (श्री रामजी) मेरी (बिगडी) सब तरह से सुधार लेङ्गे, जिनकी कृपा कृपा करने से नहीं अघाती। राम से उत्तम स्वामी और मुझ सरीखा बुरा सेवक! इतने पर भी उन दयानिधि ने अपनी ओर देखकर मेरा पालन किया है॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

लोकहुँ बेद सुसाहिब रीती। बिनय सुनत पहिचानत प्रीती॥
गनी गरीब ग्राम नर नागर। पण्डित मूढ मलीन उजागर॥3॥

मूल

लोकहुँ बेद सुसाहिब रीती। बिनय सुनत पहिचानत प्रीती॥
गनी गरीब ग्राम नर नागर। पण्डित मूढ मलीन उजागर॥3॥

भावार्थ

लोक और वेद में भी अच्छे स्वामी की यही रीति प्रसिद्ध है कि वह विनय सुनते ही प्रेम को पहचान लेता है। अमीर-गरीब, गँवार-नगर निवासी, पण्डित-मूर्ख, बदनाम-यशस्वी॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुकबि कुकबि निज मति अनुहारी। नृपहि सराहत सब नर नारी॥
साधु सुजान सुसील नृपाला। ईस अंस भव परम कृपाला॥4॥

मूल

सुकबि कुकबि निज मति अनुहारी। नृपहि सराहत सब नर नारी॥
साधु सुजान सुसील नृपाला। ईस अंस भव परम कृपाला॥4॥

भावार्थ

सुकवि-कुकवि, सभी नर-नारी अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार राजा की सराहना करते हैं और साधु, बुद्धिमान, सुशील, ईश्वर के अंश से उत्पन्न कृपालु राजा-॥4॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुनि सनमानहिं सबहि सुबानी। भनिति भगति नति गति पहिचानी॥
यह प्राकृत महिपाल सुभाऊ। जान सिरोमनि कोसलराऊ॥5॥

मूल

सुनि सनमानहिं सबहि सुबानी। भनिति भगति नति गति पहिचानी॥
यह प्राकृत महिपाल सुभाऊ। जान सिरोमनि कोसलराऊ॥5॥

भावार्थ

सबकी सुनकर और उनकी वाणी, भक्ति, विनय और चाल को पहचानकर सुन्दर (मीठी) वाणी से सबका यथायोग्य सम्मान करते हैं। यह स्वभाव तो संसारी राजाओं का है, कोसलनाथ श्री रामचन्द्रजी तो चतुरशिरोमणि हैं॥5॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रीझत राम सनेह निसोतें। को जग मन्द मलिनमति मोतें॥6॥

मूल

रीझत राम सनेह निसोतें। को जग मन्द मलिनमति मोतें॥6॥

भावार्थ

श्री रामजी तो विशुद्ध प्रेम से ही रीझते हैं, पर जगत में मुझसे बढकर मूर्ख और मलिन बुद्धि और कौन होगा?॥6॥

028

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

सठ सेवक की प्रीति रुचि रखिहहिं राम कृपालु।
उपल किए जलजान जेहिं सचिव सुमति कपि भालु॥1॥

मूल

सठ सेवक की प्रीति रुचि रखिहहिं राम कृपालु।
उपल किए जलजान जेहिं सचिव सुमति कपि भालु॥1॥

भावार्थ

तथापि कृपालु श्री रामचन्द्रजी मुझ दुष्ट सेवक की प्रीति और रुचि को अवश्य रखेङ्गे, जिन्होन्ने पत्थरों को जहाज और बन्दर-भालुओं को बुद्धिमान मन्त्री बना लिया॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हौंहु कहावत सबु कहत राम सहत उपहास।
साहिब सीतानाथ सो सेवक तुलसीदास॥2॥

मूल

हौंहु कहावत सबु कहत राम सहत उपहास।
साहिब सीतानाथ सो सेवक तुलसीदास॥2॥

भावार्थ

सब लोग मुझे श्री रामजी का सेवक कहते हैं और मैं भी (बिना लज्जा-सङ्कोच के) कहलाता हूँ (कहने वालों का विरोध नहीं करता), कृपालु श्री रामजी इस निन्दा को सहते हैं कि श्री सीतानाथजी, जैसे स्वामी का तुलसीदास सा सेवक है॥2॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

अति बडि मोरि ढिठाई खोरी। सुनि अघ नरकहुँ नाक सकोरी॥
समुझि सहम मोहि अपडर अपनें। सो सुधि राम कीन्हि नहिं सपनें॥1॥

मूल

अति बडि मोरि ढिठाई खोरी। सुनि अघ नरकहुँ नाक सकोरी॥
समुझि सहम मोहि अपडर अपनें। सो सुधि राम कीन्हि नहिं सपनें॥1॥

भावार्थ

यह मेरी बहुत बडी ढिठाई और दोष है, मेरे पाप को सुनकर नरक ने भी नाक सिकोड ली है (अर्थात नरक में भी मेरे लिए ठौर नहीं है)। यह समझकर मुझे अपने ही कल्पित डर से डर हो रहा है, किन्तु भगवान श्री रामचन्द्रजी ने तो स्वप्न में भी इस पर (मेरी इस ढिठाई और दोष पर) ध्यान नहीं दिया॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुनि अवलोकि सुचित चख चाही। भगति मोरि मति स्वामि सराही॥
कहत नसाइ होइ हियँ नीकी। रीझत राम जानि जन जी की॥2॥

मूल

सुनि अवलोकि सुचित चख चाही। भगति मोरि मति स्वामि सराही॥
कहत नसाइ होइ हियँ नीकी। रीझत राम जानि जन जी की॥2॥

भावार्थ

वरन मेरे प्रभु श्री रामचन्द्रजी ने तो इस बात को सुनकर, देखकर और अपने सुचित्त रूपी चक्षु से निरीक्षण कर मेरी भक्ति और बुद्धि की (उलटे) सराहना की, क्योङ्कि कहने में चाहे बिगड जाए (अर्थात्‌ मैं चाहे अपने को भगवान का सेवक कहता-कहलाता रहूँ), परन्तु हृदय में अच्छापन होना चाहिए। (हृदय में तो अपने को उनका सेवक बनने योग्य नहीं मानकर पापी और दीन ही मानता हूँ, यह अच्छापन है।) श्री रामचन्द्रजी भी दास के हृदय की (अच्छी) स्थिति जानकर रीझ जाते हैं॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रहति न प्रभु चित चूक किए की। करत सुरति सय बार हिए की॥
जेहिं अघ बधेउ ब्याध जिमि बाली। फिरि सुकण्ठ सोइ कीन्हि कुचाली॥3॥

मूल

रहति न प्रभु चित चूक किए की। करत सुरति सय बार हिए की॥
जेहिं अघ बधेउ ब्याध जिमि बाली। फिरि सुकण्ठ सोइ कीन्हि कुचाली॥3॥

भावार्थ

प्रभु के चित्त में अपने भक्तों की हुई भूल-चूक याद नहीं रहती (वे उसे भूल जाते हैं) और उनके हृदय (की अच्छाई-नेकी) को सौ-सौ बार याद करते रहते हैं। जिस पाप के कारण उन्होन्ने बालि को व्याध की तरह मारा था, वैसी ही कुचाल फिर सुग्रीव ने चली॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोइ करतूति बिभीषन केरी। सपनेहूँ सो न राम हियँ हेरी॥
ते भरतहि भेण्टत सनमाने। राजसभाँ रघुबीर बखाने॥4॥

मूल

सोइ करतूति बिभीषन केरी। सपनेहूँ सो न राम हियँ हेरी॥
ते भरतहि भेण्टत सनमाने। राजसभाँ रघुबीर बखाने॥4॥

भावार्थ

वही करनी विभीषण की थी, परन्तु श्री रामचन्द्रजी ने स्वप्न में भी उसका मन में विचार नहीं किया। उलटे भरतजी से मिलने के समय श्री रघुनाथजी ने उनका सम्मान किया और राजसभा में भी उनके गुणों का बखान किया॥4॥

029

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभु तरु तर कपि डार पर ते किए आपु समान।
तुलसी कहूँ न राम से साहिब सील निधान॥1॥

मूल

प्रभु तरु तर कपि डार पर ते किए आपु समान।
तुलसी कहूँ न राम से साहिब सील निधान॥1॥

भावार्थ

प्रभु (श्री रामचन्द्रजी) तो वृक्ष के नीचे और बन्दर डाली पर (अर्थात कहाँ मर्यादा पुरुषोत्तम सच्चिदानन्दघन परमात्मा श्री रामजी और कहाँ पेडों की शाखाओं पर कूदने वाले बन्दर), परन्तु ऐसे बन्दरों को भी उन्होन्ने अपने समान बना लिया। तुलसीदासजी कहते हैं कि श्री रामचन्द्रजी सरीखे शीलनिधान स्वामी कहीं भी नहीं हैं॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम निकाईं रावरी है सबही को नीक।
जौं यह साँची है सदा तौ नीको तुलसीक॥2॥

मूल

राम निकाईं रावरी है सबही को नीक।
जौं यह साँची है सदा तौ नीको तुलसीक॥2॥

भावार्थ

हे श्री रामजी! आपकी अच्छाई से सभी का भला है (अर्थात आपका कल्याणमय स्वभाव सभी का कल्याण करने वाला है) यदि यह बात सच है तो तुलसीदास का भी सदा कल्याण ही होगा॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एहि बिधि निज गुन दोष कहि सबहि बहुरि सिरु नाइ।
बरनउँ रघुबर बिसद जसु सुनि कलि कलुष नसाइ॥3॥

मूल

एहि बिधि निज गुन दोष कहि सबहि बहुरि सिरु नाइ।
बरनउँ रघुबर बिसद जसु सुनि कलि कलुष नसाइ॥3॥

भावार्थ

इस प्रकार अपने गुण-दोषों को कहकर और सबको फिर सिर नवाकर मैं श्री रघुनाथजी का निर्मल यश वर्णन करता हूँ, जिसके सुनने से कलियुग के पाप नष्ट हो जाते हैं॥3॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

जागबलिक जो कथा सुहाई। भरद्वाज मुनिबरहि सुनाई॥
कहिहउँ सोइ सम्बाद बखानी। सुनहुँ सकल सज्जन सुखु मानी॥1॥

मूल

जागबलिक जो कथा सुहाई। भरद्वाज मुनिबरहि सुनाई॥
कहिहउँ सोइ सम्बाद बखानी। सुनहुँ सकल सज्जन सुखु मानी॥1॥

भावार्थ

मुनि याज्ञवल्क्यजी ने जो सुहावनी कथा मुनिश्रेष्ठ भरद्वाजजी को सुनाई थी, उसी संवाद को मैं बखानकर कहूँगा, सब सज्जन सुख का अनुभव करते हुए उसे सुनें॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सम्भु कीन्ह यह चरित सुहावा। बहुरि कृपा करि उमहि सुनावा॥
सोइ सिव कागभुसुण्डिहि दीन्हा। राम भगत अधिकारी चीन्हा॥2॥

मूल

सम्भु कीन्ह यह चरित सुहावा। बहुरि कृपा करि उमहि सुनावा॥
सोइ सिव कागभुसुण्डिहि दीन्हा। राम भगत अधिकारी चीन्हा॥2॥

भावार्थ

शिवजी ने पहले इस सुहावने चरित्र को रचा, फिर कृपा करके पार्वतीजी को सुनाया। वही चरित्र शिवजी ने काकभुशुण्डिजी को रामभक्त और अधिकारी पहचानकर दिया॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेहि सन जागबलिक पुनि पावा। तिन्ह पुनि भरद्वाज प्रति गावा॥
ते श्रोता बकता समसीला। सवँदरसी जानहिं हरिलीला॥3॥

मूल

तेहि सन जागबलिक पुनि पावा। तिन्ह पुनि भरद्वाज प्रति गावा॥
ते श्रोता बकता समसीला। सवँदरसी जानहिं हरिलीला॥3॥

भावार्थ

उन काकभुशुण्डिजी से फिर याज्ञवल्क्यजी ने पाया और उन्होन्ने फिर उसे भरद्वाजजी को गाकर सुनाया। वे दोनों वक्ता और श्रोता (याज्ञवल्क्य और भरद्वाज) समान शील वाले और समदर्शी हैं और श्री हरि की लीला को जानते हैं॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जानहिं तीनि काल निज ग्याना। करतल गत आमलक समाना॥
औरउ जे हरिभगत सुजाना। कहहिं सुनहिं समुझहिं बिधि नाना॥4॥

मूल

जानहिं तीनि काल निज ग्याना। करतल गत आमलक समाना॥
औरउ जे हरिभगत सुजाना। कहहिं सुनहिं समुझहिं बिधि नाना॥4॥

भावार्थ

वे अपने ज्ञान से तीनों कालों की बातों को हथेली पर रखे हुए आँवले के समान (प्रत्यक्ष) जानते हैं। और भी जो सुजान (भगवान की लीलाओं का रहस्य जानने वाले) हरि भक्त हैं, वे इस चरित्र को नाना प्रकार से कहते, सुनते और समझते हैं॥4॥

030

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

मैं पुनि निज गुर सन सुनी कथा सो सूकरखेत।
समुझी नहिं तसि बालपन तब अति रहेउँ अचेत॥1॥

मूल

मैं पुनि निज गुर सन सुनी कथा सो सूकरखेत।
समुझी नहिं तसि बालपन तब अति रहेउँ अचेत॥1॥

भावार्थ

फिर वही कथा मैन्ने वाराह क्षेत्र में अपने गुरुजी से सुनी, परन्तु उस समय मैं लडकपन के कारण बहुत बेसमझ था, इससे उसको उस प्रकार (अच्छी तरह) समझा नहीं॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रोता बकता ग्याननिधि कथा राम कै गूढ।
किमि समुझौं मैं जीव जड कलि मल ग्रसित बिमूढ॥2॥

मूल

श्रोता बकता ग्याननिधि कथा राम कै गूढ।
किमि समुझौं मैं जीव जड कलि मल ग्रसित बिमूढ॥2॥

भावार्थ

श्री रामजी की गूढ कथा के वक्ता (कहने वाले) और श्रोता (सुनने वाले) दोनों ज्ञान के खजाने (पूरे ज्ञानी) होते हैं। मैं कलियुग के पापों से ग्रसा हुआ महामूढ जड जीव भला उसको कैसे समझ सकता था?॥2॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदपि कही गुर बारहिं बारा। समुझि परी कछु मति अनुसारा॥
भाषाबद्ध करबि मैं सोई। मोरें मन प्रबोध जेहिं होई॥1॥

मूल

तदपि कही गुर बारहिं बारा। समुझि परी कछु मति अनुसारा॥
भाषाबद्ध करबि मैं सोई। मोरें मन प्रबोध जेहिं होई॥1॥

भावार्थ

तो भी गुरुजी ने जब बार-बार कथा कही, तब बुद्धि के अनुसार कुछ समझ में आई। वही अब मेरे द्वारा भाषा में रची जाएगी, जिससे मेरे मन को सन्तोष हो॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जस कछु बुधि बिबेक बल मेरें। तस कहिहउँ हियँ हरि के प्रेरें॥
निज सन्देह मोह भ्रम हरनी। करउँ कथा भव सरिता तरनी॥2॥

मूल

जस कछु बुधि बिबेक बल मेरें। तस कहिहउँ हियँ हरि के प्रेरें॥
निज सन्देह मोह भ्रम हरनी। करउँ कथा भव सरिता तरनी॥2॥

भावार्थ

जैसा कुछ मुझमें बुद्धि और विवेक का बल है, मैं हृदय में हरि की प्रेरणा से उसी के अनुसार कहूँगा। मैं अपने सन्देह, अज्ञान और भ्रम को हरने वाली कथा रचता हूँ, जो संसार रूपी नदी के पार करने के लिए नाव है॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बुध बिश्राम सकल जन रञ्जनि। रामकथा कलि कलुष बिभञ्जनि॥
रामकथा कलि पन्नग भरनी। पुनि बिबेक पावक कहुँ अरनी॥3॥

मूल

बुध बिश्राम सकल जन रञ्जनि। रामकथा कलि कलुष बिभञ्जनि॥
रामकथा कलि पन्नग भरनी। पुनि बिबेक पावक कहुँ अरनी॥3॥

भावार्थ

रामकथा पण्डितों को विश्राम देने वाली, सब मनुष्यों को प्रसन्न करने वाली और कलियुग के पापों का नाश करने वाली है। रामकथा कलियुग रूपी साँप के लिए मोरनी है और विवेक रूपी अग्नि के प्रकट करने के लिए अरणि (मन्थन की जाने वाली लकडी) है, (अर्थात इस कथा से ज्ञान की प्राप्ति होती है)॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रामकथा कलि कामद गाई। सुजन सजीवनि मूरि सुहाई॥
सोइ बसुधातल सुधा तरङ्गिनि। भय भञ्जनि भ्रम भेक भुअङ्गिनि॥4॥

मूल

रामकथा कलि कामद गाई। सुजन सजीवनि मूरि सुहाई॥
सोइ बसुधातल सुधा तरङ्गिनि। भय भञ्जनि भ्रम भेक भुअङ्गिनि॥4॥

भावार्थ

रामकथा कलियुग में सब मनोरथों को पूर्ण करने वाली कामधेनु गौ है और सज्जनों के लिए सुन्दर सञ्जीवनी जडी है। पृथ्वी पर यही अमृत की नदी है, जन्म-मरण रूपी भय का नाश करने वाली और भ्रम रूपी मेण्ढकों को खाने के लिए सर्पिणी है॥4॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

असुर सेन सम नरक निकन्दिनि। साधु बिबुध कुल हित गिरिनन्दिनि॥
सन्त समाज पयोधि रमा सी। बिस्व भार भर अचल छमा सी॥5॥

मूल

असुर सेन सम नरक निकन्दिनि। साधु बिबुध कुल हित गिरिनन्दिनि॥
सन्त समाज पयोधि रमा सी। बिस्व भार भर अचल छमा सी॥5॥

भावार्थ

यह रामकथा असुरों की सेना के समान नरकों का नाश करने वाली और साधु रूप देवताओं के कुल का हित करने वाली पार्वती (दुर्गा) है। यह सन्त-समाज रूपी क्षीर समुद्र के लिए लक्ष्मीजी के समान है और सम्पूर्ण विश्व का भार उठाने में अचल पृथ्वी के समान है॥5॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जम गन मुहँ मसि जग जमुना सी। जीवन मुकुति हेतु जनु कासी॥
रामहि प्रिय पावनि तुलसी सी। तुलसिदास हित हियँ हुलसी सी॥6॥

मूल

जम गन मुहँ मसि जग जमुना सी। जीवन मुकुति हेतु जनु कासी॥
रामहि प्रिय पावनि तुलसी सी। तुलसिदास हित हियँ हुलसी सी॥6॥

भावार्थ

यमदूतों के मुख पर कालिख लगाने के लिए यह जगत में यमुनाजी के समान है और जीवों को मुक्ति देने के लिए मानो काशी ही है। यह श्री रामजी को पवित्र तुलसी के समान प्रिय है और तुलसीदास के लिए हुलसी (तुलसीदासजी की माता) के समान हृदय से हित करने वाली है॥6॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सिवप्रिय मेकल सैल सुता सी। सकल सिद्धि सुख सम्पति रासी॥
सदगुन सुरगन अम्ब अदिति सी। रघुबर भगति प्रेम परमिति सी॥7॥

मूल

सिवप्रिय मेकल सैल सुता सी। सकल सिद्धि सुख सम्पति रासी॥
सदगुन सुरगन अम्ब अदिति सी। रघुबर भगति प्रेम परमिति सी॥7॥

भावार्थ

यह रामकथा शिवजी को नर्मदाजी के समान प्यारी है, यह सब सिद्धियों की तथा सुख-सम्पत्ति की राशि है। सद्गुण रूपी देवताओं के उत्पन्न और पालन-पोषण करने के लिए माता अदिति के समान है। श्री रघुनाथजी की भक्ति और प्रेम की परम सीमा सी है॥7॥

031

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

रामकथा मन्दाकिनी चित्रकूट चित चारु।
तुलसी सुभग सनेह बन सिय रघुबीर बिहारु॥31॥

मूल

रामकथा मन्दाकिनी चित्रकूट चित चारु।
तुलसी सुभग सनेह बन सिय रघुबीर बिहारु॥31॥

भावार्थ

तुलसीदासजी कहते हैं कि रामकथा मन्दाकिनी नदी है, सुन्दर (निर्मल) चित्त चित्रकूट है और सुन्दर स्नेह ही वन है, जिसमें श्री सीतारामजी विहार करते हैं॥31॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

रामचरित चिन्तामति चारू। सन्त सुमति तिय सुभग सिङ्गारू॥
जग मङ्गल गुनग्राम राम के। दानि मुकुति धन धरम धाम के॥1॥

मूल

रामचरित चिन्तामति चारू। सन्त सुमति तिय सुभग सिङ्गारू॥
जग मङ्गल गुनग्राम राम के। दानि मुकुति धन धरम धाम के॥1॥

भावार्थ

श्री रामचन्द्रजी का चरित्र सुन्दर चिन्तामणि है और सन्तों की सुबुद्धि रूपी स्त्री का सुन्दर श्रङ्गार है। श्री रामचन्द्रजी के गुण-समूह जगत्‌ का कल्याण करने वाले और मुक्ति, धन, धर्म और परमधाम के देने वाले हैं॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सदगुर ग्यान बिराग जोग के। बिबुध बैद भव भीम रोग के॥
जननि जनक सिय राम प्रेम के। बीज सकल ब्रत धरम नेम के॥2॥

मूल

सदगुर ग्यान बिराग जोग के। बिबुध बैद भव भीम रोग के॥
जननि जनक सिय राम प्रेम के। बीज सकल ब्रत धरम नेम के॥2॥

भावार्थ

ज्ञान, वैराग्य और योग के लिए सद्गुरु हैं और संसार रूपी भयङ्कर रोग का नाश करने के लिए देवताओं के वैद्य (अश्विनीकुमार) के समान हैं। ये श्री सीतारामजी के प्रेम के उत्पन्न करने के लिए माता-पिता हैं और सम्पूर्ण व्रत, धर्म और नियमों के बीज हैं॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

समन पाप सन्ताप सोक के। प्रिय पालक परलोक लोक के॥
सचिव सुभट भूपति बिचार के। कुम्भज लोभ उदधि अपार के॥3॥

मूल

समन पाप सन्ताप सोक के। प्रिय पालक परलोक लोक के॥
सचिव सुभट भूपति बिचार के। कुम्भज लोभ उदधि अपार के॥3॥

भावार्थ

पाप, सन्ताप और शोक का नाश करने वाले तथा इस लोक और परलोक के प्रिय पालन करने वाले हैं। विचार (ज्ञान) रूपी राजा के शूरवीर मन्त्री और लोभ रूपी अपार समुद्र के सोखने के लिए अगस्त्य मुनि हैं॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

काम कोह कलिमल करिगन के। केहरि सावक जन मन बन के॥
अतिथि पूज्य प्रियतम पुरारि के। कामद घन दारिद दवारि के॥4॥

मूल

काम कोह कलिमल करिगन के। केहरि सावक जन मन बन के॥
अतिथि पूज्य प्रियतम पुरारि के। कामद घन दारिद दवारि के॥4॥

भावार्थ

भक्तों के मन रूपी वन में बसने वाले काम, क्रोध और कलियुग के पाप रूपी हाथियों को मारने के लिए सिंह के बच्चे हैं। शिवजी के पूज्य और प्रियतम अतिथि हैं और दरिद्रता रूपी दावानल के बुझाने के लिए कामना पूर्ण करने वाले मेघ हैं॥4॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मन्त्र महामनि बिषय ब्याल के। मेटत कठिन कुअङ्क भाल के॥
हरन मोह तम दिनकर कर से। सेवक सालि पाल जलधर से॥5॥

मूल

मन्त्र महामनि बिषय ब्याल के। मेटत कठिन कुअङ्क भाल के॥
हरन मोह तम दिनकर कर से। सेवक सालि पाल जलधर से॥5॥

भावार्थ

विषय रूपी साँप का जहर उतारने के लिए मन्त्र और महामणि हैं। ये ललाट पर लिखे हुए कठिनता से मिटने वाले बुरे लेखों (मन्द प्रारब्ध) को मिटा देने वाले हैं। अज्ञान रूपी अन्धकार को हरण करने के लिए सूर्य किरणों के समान और सेवक रूपी धान के पालन करने में मेघ के समान हैं॥5॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अभिमत दानि देवतरु बर से। सेवत सुलभ सुखद हरि हर से॥
सुकबि सरद नभ मन उडगन से। रामभगत जन जीवन धन से॥6॥

मूल

अभिमत दानि देवतरु बर से। सेवत सुलभ सुखद हरि हर से॥
सुकबि सरद नभ मन उडगन से। रामभगत जन जीवन धन से॥6॥

भावार्थ

मनोवाञ्छित वस्तु देने में श्रेष्ठ कल्पवृक्ष के समान हैं और सेवा करने में हरि-हर के समान सुलभ और सुख देने वाले हैं। सुकवि रूपी शरद् ऋतु के मन रूपी आकाश को सुशोभित करने के लिए तारागण के समान और श्री रामजी के भक्तों के तो जीवन धन ही हैं॥6॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सकल सुकृत फल भूरि भोग से। जग हित निरुपधि साधु लोग से॥
सेवक मन मानस मराल से। पावन गङ्ग तरङ्ग माल से॥7॥

मूल

सकल सुकृत फल भूरि भोग से। जग हित निरुपधि साधु लोग से॥
सेवक मन मानस मराल से। पावन गङ्ग तरङ्ग माल से॥7॥

भावार्थ

सम्पूर्ण पुण्यों के फल महान भोगों के समान हैं। जगत का छलरहित (यथार्थ) हित करने में साधु-सन्तों के समान हैं। सेवकों के मन रूपी मानसरोवर के लिए हंस के समान और पवित्र करने में गङ्गाजी की तरङ्गमालाओं के समान हैं॥7॥

032

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

कुपथ कुतरक कुचालि कलि कपट दम्भ पाषण्ड।
दहन राम गुन ग्राम जिमि इन्धन अनल प्रचण्ड॥1॥

मूल

कुपथ कुतरक कुचालि कलि कपट दम्भ पाषण्ड।
दहन राम गुन ग्राम जिमि इन्धन अनल प्रचण्ड॥1॥

भावार्थ

श्री रामजी के गुणों के समूह कुमार्ग, कुतर्क, कुचाल और कलियुग के कपट, दम्भ और पाखण्ड को जलाने के लिए वैसे ही हैं, जैसे ईन्धन के लिए प्रचण्ड अग्नि॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रामचरित राकेस कर सरिस सुखद सब काहु।
सज्जन कुमुद चकोर चित हित बिसेषि बड लाहु॥2॥

मूल

रामचरित राकेस कर सरिस सुखद सब काहु।
सज्जन कुमुद चकोर चित हित बिसेषि बड लाहु॥2॥

भावार्थ

रामचरित्र पूर्णिमा के चन्द्रमा की किरणों के समान सभी को सुख देने वाले हैं, परन्तु सज्जन रूपी कुमुदिनी और चकोर के चित्त के लिए तो विशेष हितकारी और महान लाभदायक हैं॥2॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

कीन्हि प्रस्न जेहि भाँति भवानी। जेहि बिधि सङ्कर कहा बखानी॥
सो सब हेतु कहब मैं गाई। कथा प्रबन्ध बिचित्र बनाई॥1॥

मूल

कीन्हि प्रस्न जेहि भाँति भवानी। जेहि बिधि सङ्कर कहा बखानी॥
सो सब हेतु कहब मैं गाई। कथा प्रबन्ध बिचित्र बनाई॥1॥

भावार्थ

जिस प्रकार श्री पार्वतीजी ने श्री शिवजी से प्रश्न किया और जिस प्रकार से श्री शिवजी ने विस्तार से उसका उत्तर कहा, वह सब कारण मैं विचित्र कथा की रचना करके गाकर कहूँगा॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जेहिं यह कथा सुनी नहिं होई। जनि आचरजु करै सुनि सोई॥
कथा अलौकिक सुनहिं जे ग्यानी। नहिं आचरजु करहिं अस जानी॥2॥
रामकथा कै मिति जग नाहीं। असि प्रतीति तिन्ह के मन माहीं॥
नाना भाँति राम अवतारा। रामायन सत कोटि अपारा॥3॥

मूल

जेहिं यह कथा सुनी नहिं होई। जनि आचरजु करै सुनि सोई॥
कथा अलौकिक सुनहिं जे ग्यानी। नहिं आचरजु करहिं अस जानी॥2॥
रामकथा कै मिति जग नाहीं। असि प्रतीति तिन्ह के मन माहीं॥
नाना भाँति राम अवतारा। रामायन सत कोटि अपारा॥3॥

भावार्थ

जिसने यह कथा पहले न सुनी हो, वह इसे सुनकर आश्चर्य न करे। जो ज्ञानी इस विचित्र कथा को सुनते हैं, वे यह जानकर आश्चर्य नहीं करते कि संसार में रामकथा की कोई सीमा नहीं है (रामकथा अनन्त है)। उनके मन में ऐसा विश्वास रहता है। नाना प्रकार से श्री रामचन्द्रजी के अवतार हुए हैं और सौ करोड तथा अपार रामायण हैं॥2-3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कलपभेद हरिचरित सुहाए। भाँति अनेक मुनीसन्ह गाए॥
करिअ न संसय अस उर आनी। सुनिअ कथा सादर रति मानी॥4॥

मूल

कलपभेद हरिचरित सुहाए। भाँति अनेक मुनीसन्ह गाए॥
करिअ न संसय अस उर आनी। सुनिअ कथा सादर रति मानी॥4॥

भावार्थ

कल्पभेद के अनुसार श्री हरि के सुन्दर चरित्रों को मुनीश्वरों ने अनेकों प्रकार से गया है। हृदय में ऐसा विचार कर सन्देह न कीजिए और आदर सहित प्रेम से इस कथा को सुनिए॥4॥

033

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम अनन्त अनन्त गुन अमित कथा बिस्तार।
सुनि आचरजु न मानिहहिं जिन्ह कें बिमल बिचार॥33॥

मूल

राम अनन्त अनन्त गुन अमित कथा बिस्तार।
सुनि आचरजु न मानिहहिं जिन्ह कें बिमल बिचार॥33॥

भावार्थ

श्री रामचन्द्रजी अनन्त हैं, उनके गुण भी अनन्त हैं और उनकी कथाओं का विस्तार भी असीम है। अतएव जिनके विचार निर्मल हैं, वे इस कथा को सुनकर आश्चर्य नहीं मानेङ्गे॥3॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

एहि बिधि सब संसय करि दूरी। सिर धरि गुर पद पङ्कज धूरी॥
पुनि सबही बिनवउँ कर जोरी। करत कथा जेहिं लाग न खोरी॥1॥

मूल

एहि बिधि सब संसय करि दूरी। सिर धरि गुर पद पङ्कज धूरी॥
पुनि सबही बिनवउँ कर जोरी। करत कथा जेहिं लाग न खोरी॥1॥

भावार्थ

इस प्रकार सब सन्देहों को दूर करके और श्री गुरुजी के चरणकमलों की रज को सिर पर धारण करके मैं पुनः हाथ जोडकर सबकी विनती करता हूँ, जिससे कथा की रचना में कोई दोष स्पर्श न करने पावे॥1॥सादर सिवहि नाइ अब माथा। बरनउँ बिसद राम गुन गाथा॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सम्बत सोरह सै एकतीसा। करउँ कथा हरि पद धरि सीसा॥2॥

मूल

सम्बत सोरह सै एकतीसा। करउँ कथा हरि पद धरि सीसा॥2॥

भावार्थ

अब मैं आदरपूर्वक श्री शिवजी को सिर नवाकर श्री रामचन्द्रजी के गुणों की निर्मल कथा कहता हूँ। श्री हरि के चरणों पर सिर रखकर संवत्‌ 1631 में इस कथा का आरम्भ करता हूँ॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नौमी भौम बार मधुमासा। अवधपुरीं यह चरित प्रकासा॥
जेहि दिन राम जनम श्रुति गावहिं। तीरथ सकल जहाँ चलि आवहिं॥3॥

मूल

नौमी भौम बार मधुमासा। अवधपुरीं यह चरित प्रकासा॥
जेहि दिन राम जनम श्रुति गावहिं। तीरथ सकल जहाँ चलि आवहिं॥3॥

भावार्थ

चैत्र मास की नवमी तिथि मङ्गलवार को श्री अयोध्याजी में यह चरित्र प्रकाशित हुआ। जिस दिन श्री रामजी का जन्म होता है, वेद कहते हैं कि उस दिन सारे तीर्थ वहाँ (श्री अयोध्याजी में) चले आते हैं॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

असुर नाग खग नर मुनि देवा। आइ करहिं रघुनायक सेवा॥
जन्म महोत्सव रचहिं सुजाना। करहिं राम कल कीरति गाना॥4॥

मूल

असुर नाग खग नर मुनि देवा। आइ करहिं रघुनायक सेवा॥
जन्म महोत्सव रचहिं सुजाना। करहिं राम कल कीरति गाना॥4॥

भावार्थ

असुर-नाग, पक्षी, मनुष्य, मुनि और देवता सब अयोध्याजी में आकर श्री रघुनाथजी की सेवा करते हैं। बुद्धिमान लोग जन्म का महोत्सव मनाते हैं और श्री रामजी की सुन्दर कीर्ति का गान करते हैं॥4॥

034

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

मज्जहिं सज्जन बृन्द बहु पावन सरजू नीर।
जपहिं राम धरि ध्यान उर सुन्दर स्याम सरीर॥34॥

मूल

मज्जहिं सज्जन बृन्द बहु पावन सरजू नीर।
जपहिं राम धरि ध्यान उर सुन्दर स्याम सरीर॥34॥

भावार्थ

सज्जनों के बहुत से समूह उस दिन श्री सरयूजी के पवित्र जल में स्नान करते हैं और हृदय में सुन्दर श्याम शरीर श्री रघुनाथजी का ध्यान करके उनके नाम का जप करते हैं॥34॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

दरस परस मज्जन अरु पाना। हरइ पाप कह बेद पुराना॥
नदी पुनीत अमित महिमा अति। कहि न सकइ सारदा बिमल मति॥1॥

मूल

दरस परस मज्जन अरु पाना। हरइ पाप कह बेद पुराना॥
नदी पुनीत अमित महिमा अति। कहि न सकइ सारदा बिमल मति॥1॥

भावार्थ

वेद-पुराण कहते हैं कि श्री सरयूजी का दर्शन, स्पर्श, स्नान और जलपान पापों को हरता है। यह नदी बडी ही पवित्र है, इसकी महिमा अनन्त है, जिसे विमल बुद्धि वाली सरस्वतीजी भी नहीं कह सकतीं॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम धामदा पुरी सुहावनि। लोक समस्त बिदित अति पावनि॥
चारि खानि जग जीव अपारा। अवध तजें तनु नहिं संसारा॥2॥

मूल

राम धामदा पुरी सुहावनि। लोक समस्त बिदित अति पावनि॥
चारि खानि जग जीव अपारा। अवध तजें तनु नहिं संसारा॥2॥

भावार्थ

यह शोभायमान अयोध्यापुरी श्री रामचन्द्रजी के परमधाम की देने वाली है, सब लोकों में प्रसिद्ध है और अत्यन्त पवित्र है। जगत में (अण्डज, स्वेदज, उद्भिज्ज और जरायुज) चार खानि (प्रकार) के अनन्त जीव हैं, इनमें से जो कोई भी अयोध्याजी में शरीर छोडते हैं, वे फिर संसार में नहीं आते (जन्म-मृत्यु के चक्कर से छूटकर भगवान के परमधाम में निवास करते हैं)॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सब बिधि पुरी मनोहर जानी। सकल सिद्धिप्रद मङ्गल खानी॥
बिमल कथा कर कीन्ह अरम्भा। सुनत नसाहिं काम मद दम्भा॥3॥

मूल

सब बिधि पुरी मनोहर जानी। सकल सिद्धिप्रद मङ्गल खानी॥
बिमल कथा कर कीन्ह अरम्भा। सुनत नसाहिं काम मद दम्भा॥3॥

भावार्थ

इस अयोध्यापुरी को सब प्रकार से मनोहर, सब सिद्धियों की देने वाली और कल्याण की खान समझकर मैन्ने इस निर्मल कथा का आरम्भ किया, जिसके सुनने से काम, मद और दम्भ नष्ट हो जाते हैं॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रामचरितमानस एहि नामा। सुनत श्रवन पाइअ बिश्रामा॥
मन करि बिषय अनल बन जरई। होई सुखी जौं एहिं सर परई॥4॥

मूल

रामचरितमानस एहि नामा। सुनत श्रवन पाइअ बिश्रामा॥
मन करि बिषय अनल बन जरई। होई सुखी जौं एहिं सर परई॥4॥

भावार्थ

इसका नाम रामचरित मानस है, जिसके कानों से सुनते ही शान्ति मिलती है। मन रूपी हाथी विषय रूपी दावानल में जल रहा है, वह यदि इस रामचरित मानस रूपी सरोवर में आ पडे तो सुखी हो जाए॥4॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रामचरितमानस मुनि भावन। बिरचेउ सम्भु सुहावन पावन॥
त्रिबिध दोष दुख दारिद दावन। कलि कुचालि कुलि कलुष नसावन॥5॥

मूल

रामचरितमानस मुनि भावन। बिरचेउ सम्भु सुहावन पावन॥
त्रिबिध दोष दुख दारिद दावन। कलि कुचालि कुलि कलुष नसावन॥5॥

भावार्थ

यह रामचरित मानस मुनियों का प्रिय है, इस सुहावने और पवित्र मानस की शिवजी ने रचना की। यह तीनों प्रकार के दोषों, दुःखों और दरिद्रता को तथा कलियुग की कुचालों और सब पापों का नाश करने वाला है॥5॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रचि महेस निज मानस राखा। पाइ सुसमउ सिवा सन भाषा॥
तातें रामचरितमानस बर। धरेउ नाम हियँ हेरि हरषि हर॥6॥

मूल

रचि महेस निज मानस राखा। पाइ सुसमउ सिवा सन भाषा॥
तातें रामचरितमानस बर। धरेउ नाम हियँ हेरि हरषि हर॥6॥

भावार्थ

श्री महादेवजी ने इसको रचकर अपने मन में रखा था और सुअवसर पाकर पार्वतीजी से कहा। इसी से शिवजी ने इसको अपने हृदय में देखकर और प्रसन्न होकर इसका सुन्दर ‘रामचरित मानस’ नाम रखा॥6॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहउँ कथा सोइ सुखद सुहाई। सादर सुनहु सुजन मन लाई॥7॥

मूल

कहउँ कथा सोइ सुखद सुहाई। सादर सुनहु सुजन मन लाई॥7॥

भावार्थ

मैं उसी सुख देने वाली सुहावनी रामकथा को कहता हूँ, हे सज्जनों! आदरपूर्वक मन लगाकर इसे सुनिए॥7॥