०१ बालकाण्ड-शिष्टम्

035

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

जस मानस जेहि बिधि भयउ जग प्रचार जेहि हेतु।
अब सोइ कहउँ प्रसङ्ग सब सुमिरि उमा बृषकेतु॥35॥

मूल

जस मानस जेहि बिधि भयउ जग प्रचार जेहि हेतु।
अब सोइ कहउँ प्रसङ्ग सब सुमिरि उमा बृषकेतु॥35॥

भावार्थ

यह रामचरित मानस जैसा है, जिस प्रकार बना है और जिस हेतु से जगत में इसका प्रचार हुआ, अब वही सब कथा मैं श्री उमा-महेश्वर का स्मरण करके कहता हूँ॥35॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

सम्भु प्रसाद सुमति हियँ हुलसी। रामचरितमानस कबि तुलसी॥
करइ मनोहर मति अनुहारी। सुजन सुचित सुनि लेहु सुधारी॥1॥

मूल

सम्भु प्रसाद सुमति हियँ हुलसी। रामचरितमानस कबि तुलसी॥
करइ मनोहर मति अनुहारी। सुजन सुचित सुनि लेहु सुधारी॥1॥

भावार्थ

श्री शिवजी की कृपा से उसके हृदय में सुन्दर बुद्धि का विकास हुआ, जिससे यह तुलसीदास श्री रामचरित मानस का कवि हुआ। अपनी बुद्धि के अनुसार तो वह इसे मनोहर ही बनाता है, किन्तु फिर भी हे सज्जनो! सुन्दर चित्त से सुनकर इसे आप सुधार लीजिए॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुमति भूमि थल हृदय अगाधू। बेद पुरान उदधि घन साधू॥
बरषहिं राम सुजस बर बारी। मधुर मनोहर मङ्गलकारी॥2॥

मूल

सुमति भूमि थल हृदय अगाधू। बेद पुरान उदधि घन साधू॥
बरषहिं राम सुजस बर बारी। मधुर मनोहर मङ्गलकारी॥2॥

भावार्थ

सुन्दर (सात्त्वकी) बुद्धि भूमि है, हृदय ही उसमें गहरा स्थान है, वेद-पुराण समुद्र हैं और साधु-सन्त मेघ हैं। वे (साधु रूपी मेघ) श्री रामजी के सुयश रूपी सुन्दर, मधुर, मनोहर और मङ्गलकारी जल की वर्षा करते हैं॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

लीला सगुन जो कहहिं बखानी। सोइ स्वच्छता करइ मल हानी॥
प्रेम भगति जो बरनि न जाई। सोइ मधुरता सुसीतलताई॥3॥

मूल

लीला सगुन जो कहहिं बखानी। सोइ स्वच्छता करइ मल हानी॥
प्रेम भगति जो बरनि न जाई। सोइ मधुरता सुसीतलताई॥3॥

भावार्थ

सगुण लीला का जो विस्तार से वर्णन करते हैं, वही राम सुयश रूपी जल की निर्मलता है, जो मल का नाश करती है और जिस प्रेमाभक्ति का वर्णन नहीं किया जा सकता, वही इस जल की मधुरता और सुन्दर शीतलता है॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सो जल सुकृत सालि हित होई। राम भगत जन जीवन सोई॥
मेधा महि गत सो जल पावन। सकिलि श्रवन मग चलेउ सुहावन॥4॥
भरेउ सुमानस सुथल थिराना। सुखद सीत रुचि चारु चिराना॥5॥

मूल

सो जल सुकृत सालि हित होई। राम भगत जन जीवन सोई॥
मेधा महि गत सो जल पावन। सकिलि श्रवन मग चलेउ सुहावन॥4॥
भरेउ सुमानस सुथल थिराना। सुखद सीत रुचि चारु चिराना॥5॥

भावार्थ

वह (राम सुयश रूपी) जल सत्कर्म रूपी धान के लिए हितकर है और श्री रामजी के भक्तों का तो जीवन ही है। वह पवित्र जल बुद्धि रूपी पृथ्वी पर गिरा और सिमटकर सुहावने कान रूपी मार्ग से चला और मानस (हृदय) रूपी श्रेष्ठ स्थान में भरकर वहीं स्थिर हो गया। वही पुराना होकर सुन्दर, रुचिकर, शीतल और सुखदाई हो गया॥4-5॥

036

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुठि सुन्दर सम्बाद बर बिरचे बुद्धि बिचारि।
तेइ एहि पावन सुभग सर घाट मनोहर चारि॥36॥

मूल

सुठि सुन्दर सम्बाद बर बिरचे बुद्धि बिचारि।
तेइ एहि पावन सुभग सर घाट मनोहर चारि॥36॥

भावार्थ

इस कथा में बुद्धि से विचारकर जो चार अत्यन्त सुन्दर और उत्तम संवाद (भुशुण्डि-गरुड, शिव-पार्वती, याज्ञवल्क्य-भरद्वाज और तुलसीदास और सन्त) रचे हैं, वही इस पवित्र और सुन्दर सरोवर के चार मनोहर घाट हैं॥36॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

सप्त प्रबन्ध सुभग सोपाना। ग्यान नयन निरखत मन माना॥
रघुपति महिमा अगुन अबाधा। बरनब सोइ बर बारि अगाधा॥1॥

मूल

सप्त प्रबन्ध सुभग सोपाना। ग्यान नयन निरखत मन माना॥
रघुपति महिमा अगुन अबाधा। बरनब सोइ बर बारि अगाधा॥1॥

भावार्थ

सात काण्ड ही इस मानस सरोवर की सुन्दर सात सीढियाँ हैं, जिनको ज्ञान रूपी नेत्रों से देखते ही मन प्रसन्न हो जाता है। श्री रघुनाथजी की निर्गुण (प्राकृतिक गुणों से अतीत) और निर्बाध (एकरस) महिमा का जो वर्णन किया जाएगा, वही इस सुन्दर जल की अथाह गहराई है॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम सीय जस सलिल सुधासम। उपमा बीचि बिलास मनोरम॥
पुरइनि सघन चारु चौपाई। जुगुति मञ्जु मनि सीप सुहाई॥2॥

मूल

राम सीय जस सलिल सुधासम। उपमा बीचि बिलास मनोरम॥
पुरइनि सघन चारु चौपाई। जुगुति मञ्जु मनि सीप सुहाई॥2॥

भावार्थ

श्री रामचन्द्रजी और सीताजी का यश अमृत के समान जल है। इसमें जो उपमाएँ दी गई हैं, वही तरङ्गों का मनोहर विलास है। सुन्दर चौपाइयाँ ही इसमें घनी फैली हुई पुरइन (कमलिनी) हैं और कविता की युक्तियाँ सुन्दर मणि (मोती) उत्पन्न करने वाली सुहावनी सीपियाँ हैं॥2॥

03 छन्द

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोरठा सुन्दर दोहा। सोइ बहुरङ्ग कमल कुल सोहा॥
अरथ अनूप सुभाव सुभासा। सोइ पराग मकरन्द सुबासा॥3॥

मूल

सोरठा सुन्दर दोहा। सोइ बहुरङ्ग कमल कुल सोहा॥
अरथ अनूप सुभाव सुभासा। सोइ पराग मकरन्द सुबासा॥3॥

भावार्थ

जो सुन्दर छन्द, सोरठे और दोहे हैं, वही इसमें बहुरङ्गे कमलों के समूह सुशोभित हैं। अनुपम अर्थ, ऊँचे भाव और सुन्दर भाषा ही पराग (पुष्परज), मकरन्द (पुष्परस) और सुगन्ध हैं॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुकृत पुञ्ज मञ्जुल अलि माला। ग्यान बिराग बिचार मराला॥
धुनि अवरेब कबित गुन जाती। मीन मनोहर ते बहुभाँती॥4॥

मूल

सुकृत पुञ्ज मञ्जुल अलि माला। ग्यान बिराग बिचार मराला॥
धुनि अवरेब कबित गुन जाती। मीन मनोहर ते बहुभाँती॥4॥

भावार्थ

सत्कर्मों (पुण्यों) के पुञ्ज भौंरों की सुन्दर पङ्क्तियाँ हैं, ज्ञान, वैराग्य और विचार हंस हैं। कविता की ध्वनि वक्रोक्ति, गुण और जाति ही अनेकों प्रकार की मनोहर मछलियाँ हैं॥4॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अरथ धरम कामादिक चारी। कहब ग्यान बिग्यान बिचारी॥
नव रस जप तप जोग बिरागा। ते सब जलचर चारु तडागा॥5॥

मूल

अरथ धरम कामादिक चारी। कहब ग्यान बिग्यान बिचारी॥
नव रस जप तप जोग बिरागा। ते सब जलचर चारु तडागा॥5॥

भावार्थ

अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष- ये चारों, ज्ञान-विज्ञान का विचार के कहना, काव्य के नौ रस, जप, तप, योग और वैराग्य के प्रसङ्ग- ये सब इस सरोवर के सुन्दर जलचर जीव हैं॥5॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुकृती साधु नाम गुन गाना। ते बिचित्र जलबिहग समाना॥
सन्तसभा चहुँ दिसि अवँराई। श्रद्धा रितु बसन्त सम गाई॥6॥

मूल

सुकृती साधु नाम गुन गाना। ते बिचित्र जलबिहग समाना॥
सन्तसभा चहुँ दिसि अवँराई। श्रद्धा रितु बसन्त सम गाई॥6॥

भावार्थ

सुकृती (पुण्यात्मा) जनों के, साधुओं के और श्री रामनाम के गुणों का गान ही विचित्र जल पक्षियों के समान है। सन्तों की सभा ही इस सरोवर के चारों ओर की अमराई (आम की बगीचियाँ) हैं और श्रद्धा वसन्त ऋतु के समान कही गई है॥6॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भगति निरूपन बिबिध बिधाना। छमा दया दम लता बिताना॥
सम जम नियम फूल फल ग्याना। हरि पद रति रस बेद बखाना॥7॥

मूल

भगति निरूपन बिबिध बिधाना। छमा दया दम लता बिताना॥
सम जम नियम फूल फल ग्याना। हरि पद रति रस बेद बखाना॥7॥

भावार्थ

नाना प्रकार से भक्ति का निरूपण और क्षमा, दया तथा दम (इन्द्रिय निग्रह) लताओं के मण्डप हैं। मन का निग्रह, यम (अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह), नियम (शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान) ही उनके फूल हैं, ज्ञान फल है और श्री हरि के चरणों में प्रेम ही इस ज्ञान रूपी फल का रस है। ऐसा वेदों ने कहा है॥7॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

औरउ कथा अनेक प्रसङ्गा। तेइ सुक पिक बहुबरन बिहङ्गा॥8॥

मूल

औरउ कथा अनेक प्रसङ्गा। तेइ सुक पिक बहुबरन बिहङ्गा॥8॥

भावार्थ

इस (रामचरित मानस) में और भी जो अनेक प्रसङ्गों की कथाएँ हैं, वे ही इसमें तोते, कोयल आदि रङ्ग-बिरङ्गे पक्षी हैं॥8॥

037

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुलक बाटिका बाग बन सुख सुबिहङ्ग बिहारु।
माली सुमन सनेह जल सीञ्चत लोचन चारु॥37॥

मूल

पुलक बाटिका बाग बन सुख सुबिहङ्ग बिहारु।
माली सुमन सनेह जल सीञ्चत लोचन चारु॥37॥

भावार्थ

कथा में जो रोमाञ्च होता है, वही वाटिका, बाग और वन है और जो सुख होता है, वही सुन्दर पक्षियों का विहार है। निर्मल मन ही माली है, जो प्रेमरूपी जल से सुन्दर नेत्रों द्वारा उनको सीञ्चता है॥37॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

जे गावहिं यह चरित सँभारे। तेइ एहि ताल चतुर रखवारे॥
सदा सुनहिं सादर नर नारी। तेइ सुरबर मानस अधिकारी॥1॥

मूल

जे गावहिं यह चरित सँभारे। तेइ एहि ताल चतुर रखवारे॥
सदा सुनहिं सादर नर नारी। तेइ सुरबर मानस अधिकारी॥1॥

भावार्थ

जो लोग इस चरित्र को सावधानी से गाते हैं, वे ही इस तालाब के चतुर रखवाले हैं और जो स्त्री-पुरुष सदा आदरपूर्वक इसे सुनते हैं, वे ही इस सुन्दर मानस के अधिकारी उत्तम देवता हैं॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अति खल जे बिषई बग कागा। एहि सर निकट न जाहिं अभागा॥
सम्बुक भेक सेवार समाना। इहाँ न बिषय कथा रस नाना॥2॥

मूल

अति खल जे बिषई बग कागा। एहि सर निकट न जाहिं अभागा॥
सम्बुक भेक सेवार समाना। इहाँ न बिषय कथा रस नाना॥2॥

भावार्थ

जो अति दुष्ट और विषयी हैं, वे अभागे बगुले और कौए हैं, जो इस सरोवर के समीप नहीं जाते, क्योङ्कि यहाँ (इस मानस सरोवर में) घोङ्घे, मेण्ढक और सेवार के समान विषय रस की नाना कथाएँ नहीं हैं॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेहि कारन आवत हियँ हारे। कामी काक बलाक बिचारे॥
आवत ऐहिं सर अति कठिनाई। राम कृपा बिनु आइ न जाई॥3॥

मूल

तेहि कारन आवत हियँ हारे। कामी काक बलाक बिचारे॥
आवत ऐहिं सर अति कठिनाई। राम कृपा बिनु आइ न जाई॥3॥

भावार्थ

इसी कारण बेचारे कौवे और बगुले रूपी विषयी लोग यहाँ आते हुए हृदय में हार मान जाते हैं, क्योङ्कि इस सरोवर तक आने में कठिनाइयाँ बहुत हैं। श्री रामजी की कृपा बिना यहाँ नहीं आया जाता॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कठिन कुसङ्ग कुपन्थ कराला। तिन्ह के बचन बाघ हरि ब्याला॥
गृह कारज नाना जञ्जाला। ते अति दुर्गम सैल बिसाला॥4॥

मूल

कठिन कुसङ्ग कुपन्थ कराला। तिन्ह के बचन बाघ हरि ब्याला॥
गृह कारज नाना जञ्जाला। ते अति दुर्गम सैल बिसाला॥4॥

भावार्थ

घोर कुसङ्ग ही भयानक बुरा रास्ता है, उन कुसङ्गियों के वचन ही बाघ, सिंह और साँप हैं। घर के कामकाज और गृहस्थी के भाँति-भाँति के जञ्जाल ही अत्यन्त दुर्गम बडे-बडे पहाड हैं॥4॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बन बहु बिषम मोह मद माना। नदीं कुतर्क भयङ्कर नाना॥5॥

मूल

बन बहु बिषम मोह मद माना। नदीं कुतर्क भयङ्कर नाना॥5॥

भावार्थ

मोह, मद और मान ही बहुत से बीहड वन हैं और नाना प्रकार के कुतर्क ही भयानक नदियाँ हैं॥5॥

038

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

जे श्रद्धा सम्बल रहित नहिं सन्तन्ह कर साथ।
तिन्ह कहुँ मानस अगम अति जिन्हहि न प्रिय रघुनाथ॥38॥

मूल

जे श्रद्धा सम्बल रहित नहिं सन्तन्ह कर साथ।
तिन्ह कहुँ मानस अगम अति जिन्हहि न प्रिय रघुनाथ॥38॥

भावार्थ

जिनके पास श्रद्धा रूपी राह खर्च नहीं है और सन्तों का साथ नहीं है और जिनको श्री रघुनाथजी प्रिय हैं, उनके लिए यह मानस अत्यन्त ही अगम है। (अर्थात्‌ श्रद्धा, सत्सङ्ग और भगवत्प्रेम के बिना कोई इसको नहीं पा सकता)॥38॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

जौं करि कष्ट जाइ पुनि कोई। जातहिं नीद जुडाई होई॥
जडता जाड बिषम उर लागा। गएहुँ न मज्जन पाव अभागा॥1॥

मूल

जौं करि कष्ट जाइ पुनि कोई। जातहिं नीद जुडाई होई॥
जडता जाड बिषम उर लागा। गएहुँ न मज्जन पाव अभागा॥1॥

भावार्थ

यदि कोई मनुष्य कष्ट उठाकर वहाँ तक पहुँच भी जाए, तो वहाँ जाते ही उसे नीन्द रूपी जूडी आ जाती है। हृदय में मूर्खता रूपी बडा कडा जाडा लगने लगता है, जिससे वहाँ जाकर भी वह अभागा स्नान नहीं कर पाता॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

करि न जाइ सर मज्जन पाना। फिरि आवइ समेत अभिमाना।
जौं बहोरि कोउ पूछन आवा। सर निन्दा करि ताहि बुझावा॥2॥

मूल

करि न जाइ सर मज्जन पाना। फिरि आवइ समेत अभिमाना।
जौं बहोरि कोउ पूछन आवा। सर निन्दा करि ताहि बुझावा॥2॥

भावार्थ

उससे उस सरोवर में स्नान और उसका जलपान तो किया नहीं जाता, वह अभिमान सहित लौट आता है। फिर यदि कोई उससे (वहाँ का हाल) पूछने आता है, तो वह (अपने अभाग्य की बात न कहकर) सरोवर की निन्दा करके उसे समझाता है॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सकल बिघ्न ब्यापहिं नहिं तेही। राम सुकृपाँ बिलोकहिं जेही॥
सोइ सादर सर मज्जनु करई। महा घोर त्रयताप न जरई॥3॥

मूल

सकल बिघ्न ब्यापहिं नहिं तेही। राम सुकृपाँ बिलोकहिं जेही॥
सोइ सादर सर मज्जनु करई। महा घोर त्रयताप न जरई॥3॥

भावार्थ

ये सारे विघ्न उसको नहीं व्यापते (बाधा नहीं देते) जिसे श्री रामचन्द्रजी सुन्दर कृपा की दृष्टि से देखते हैं। वही आदरपूर्वक इस सरोवर में स्नान करता है और महान्‌ भयानक त्रिताप से (आध्यात्मिक, आधिदैविक, आधिभौतिक तापों से) नहीं जलता॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते नर यह सर तजहिं न काऊ। जिन्ह कें राम चरन भल भाऊ॥
जो नहाइ चह एहिं सर भाई। सो सतसङ्ग करउ मन लाई॥4॥

मूल

ते नर यह सर तजहिं न काऊ। जिन्ह कें राम चरन भल भाऊ॥
जो नहाइ चह एहिं सर भाई। सो सतसङ्ग करउ मन लाई॥4॥

भावार्थ

जिनके मन में श्री रामचन्द्रजी के चरणों में सुन्दर प्रेम है, वे इस सरोवर को कभी नहीं छोडते। हे भाई! जो इस सरोवर में स्नान करना चाहे, वह मन लगाकर सत्सङ्ग करे॥4॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस मानस मानस चख चाही। भइ कबि बुद्धि बिमल अवगाही॥
भयउ हृदयँ आनन्द उछाहू। उमगेउ प्रेम प्रमोद प्रबाहू॥5॥

मूल

अस मानस मानस चख चाही। भइ कबि बुद्धि बिमल अवगाही॥
भयउ हृदयँ आनन्द उछाहू। उमगेउ प्रेम प्रमोद प्रबाहू॥5॥

भावार्थ

ऐसे मानस सरोवर को हृदय के नेत्रों से देखकर और उसमें गोता लगाकर कवि की बुद्धि निर्मल हो गई, हृदय में आनन्द और उत्साह भर गया और प्रेम तथा आनन्द का प्रवाह उमड आया॥5॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चली सुभग कबिता सरिता सो। राम बिमल जस जल भरित सो।
सरजू नाम सुमङ्गल मूला। लोक बेद मत मञ्जुल कूला॥6॥

मूल

चली सुभग कबिता सरिता सो। राम बिमल जस जल भरित सो।
सरजू नाम सुमङ्गल मूला। लोक बेद मत मञ्जुल कूला॥6॥

भावार्थ

उससे वह सुन्दर कविता रूपी नदी बह निकली, जिसमें श्री रामजी का निर्मल यश रूपी जल भरा है। इस (कवितारूपिणी नदी) का नाम सरयू है, जो सम्पूर्ण सुन्दर मङ्गलों की जड है। लोकमत और वेदमत इसके दो सुन्दर किनारे हैं॥6॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नदी पुनीत सुमानस नन्दिनि। कलिमल तृन तरु मूल निकन्दिनि॥7॥

मूल

नदी पुनीत सुमानस नन्दिनि। कलिमल तृन तरु मूल निकन्दिनि॥7॥

भावार्थ

यह सुन्दर मानस सरोवर की कन्या सरयू नदी बडी पवित्र है और कलियुग के (छोटे-बडे) पाप रूपी तिनकों और वृक्षों को जड से उखाड फेङ्कने वाली है॥7॥

039

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रोता त्रिबिध समाज पुर ग्राम नगर दुहुँ कूल।
सन्तसभा अनुपम अवध सकल सुमङ्गल मूल॥39॥

मूल

श्रोता त्रिबिध समाज पुर ग्राम नगर दुहुँ कूल।
सन्तसभा अनुपम अवध सकल सुमङ्गल मूल॥39॥

भावार्थ

तीनों प्रकार के श्रोताओं का समाज ही इस नदी के दोनों किनारों पर बसे हुए पुरवे, गाँव और नगर में है और सन्तों की सभा ही सब सुन्दर मङ्गलों की जड अनुपम अयोध्याजी हैं॥39॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

रामभगति सुरसरितहि जाई। मिली सुकीरति सरजु सुहाई॥
सानुज राम समर जसु पावन। मिलेउ महानदु सोन सुहावन॥1॥

मूल

रामभगति सुरसरितहि जाई। मिली सुकीरति सरजु सुहाई॥
सानुज राम समर जसु पावन। मिलेउ महानदु सोन सुहावन॥1॥

भावार्थ

सुन्दर कीर्ति रूपी सुहावनी सरयूजी रामभक्ति रूपी गङ्गाजी में जा मिलीं। छोटे भाई लक्ष्मण सहित श्री रामजी के युद्ध का पवित्र यश रूपी सुहावना महानद सोन उसमें आ मिला॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जुग बिच भगति देवधुनि धारा। सोहति सहित सुबिरति बिचारा॥
त्रिबिध ताप त्रासक तिमुहानी। राम सरूप सिन्धु समुहानी॥2॥

मूल

जुग बिच भगति देवधुनि धारा। सोहति सहित सुबिरति बिचारा॥
त्रिबिध ताप त्रासक तिमुहानी। राम सरूप सिन्धु समुहानी॥2॥

भावार्थ

दोनों के बीच में भक्ति रूपी गङ्गाजी की धारा ज्ञान और वैराग्य के सहित शोभित हो रही है। ऐसी तीनों तापों को डराने वाली यह तिमुहानी नदी रामस्वरूप रूपी समुद्र की ओर जा रही है॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मानस मूल मिली सुरसरिही। सुनत सुजन मन पावन करिही॥
बिच बिच कथा बिचित्र बिभागा। जनु सरि तीर तीर बन बागा॥3॥

मूल

मानस मूल मिली सुरसरिही। सुनत सुजन मन पावन करिही॥
बिच बिच कथा बिचित्र बिभागा। जनु सरि तीर तीर बन बागा॥3॥

भावार्थ

इस (कीर्ति रूपी सरयू) का मूल मानस (श्री रामचरित) है और यह (रामभक्ति रूपी) गङ्गाजी में मिली है, इसलिए यह सुनने वाले सज्जनों के मन को पवित्र कर देगी। इसके बीच-बीच में जो भिन्न-भिन्न प्रकार की विचित्र कथाएँ हैं, वे ही मानो नदी तट के आस-पास के वन और बाग हैं॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उमा महेस बिबाह बराती। ते जलचर अगनित बहुभाँती॥
रघुबर जनम अनन्द बधाई। भवँर तरङ्ग मनोहरताई॥4॥

मूल

उमा महेस बिबाह बराती। ते जलचर अगनित बहुभाँती॥
रघुबर जनम अनन्द बधाई। भवँर तरङ्ग मनोहरताई॥4॥

भावार्थ

श्री पार्वतीजी और शिवजी के विवाह के बाराती इस नदी में बहुत प्रकार के असङ्ख्य जलचर जीव हैं। श्री रघुनाथजी के जन्म की आनन्द-बधाइयाँ ही इस नदी के भँवर और तरङ्गों की मनोहरता है॥4॥

040

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

बालचरित चहु बन्धु के बनज बिपुल बहुरङ्ग।
नृप रानी परिजन सुकृत मधुकर बारि बिहङ्ग॥40॥

मूल

बालचरित चहु बन्धु के बनज बिपुल बहुरङ्ग।
नृप रानी परिजन सुकृत मधुकर बारि बिहङ्ग॥40॥

भावार्थ

चारों भाइयों के जो बालचरित हैं, वे ही इसमें खिले हुए रङ्ग-बिरङ्गे बहुत से कमल हैं। महाराज श्री दशरथजी तथा उनकी रानियों और कुटुम्बियों के सत्कर्म (पुण्य) ही भ्रमर और जल पक्षी हैं॥40॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

सीय स्वयम्बर कथा सुहाई। सरित सुहावनि सो छबि छाई॥
नदी नाव पटु प्रस्न अनेका। केवट कुसल उतर सबिबेका॥1॥

मूल

सीय स्वयम्बर कथा सुहाई। सरित सुहावनि सो छबि छाई॥
नदी नाव पटु प्रस्न अनेका। केवट कुसल उतर सबिबेका॥1॥

भावार्थ

श्री सीताजी के स्वयंवर की जो सुन्दर कथा है, वह इस नदी में सुहावनी छबि छा रही है। अनेकों सुन्दर विचारपूर्ण प्रश्न ही इस नदी की नावें हैं और उनके विवेकयुक्त उत्तर ही चतुर केवट हैं॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुनि अनुकथन परस्पर होई। पथिक समाज सोह सरि सोई॥
घोर धार भृगुनाथ रिसानी। घाट सुबद्ध राम बर बानी॥2॥

मूल

सुनि अनुकथन परस्पर होई। पथिक समाज सोह सरि सोई॥
घोर धार भृगुनाथ रिसानी। घाट सुबद्ध राम बर बानी॥2॥

भावार्थ

इस कथा को सुनकर पीछे जो आपस में चर्चा होती है, वही इस नदी के सहारे-सहारे चलने वाले यात्रियों का समाज शोभा पा रहा है। परशुरामजी का क्रोध इस नदी की भयानक धारा है और श्री रामचन्द्रजी के श्रेष्ठ वचन ही सुन्दर बँधे हुए घाट हैं॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सानुज राम बिबाह उछाहू। सो सुभ उमग सुखद सब काहू॥
कहत सुनत हरषहिं पुलकाहीं। ते सुकृती मन मुदित नहाहीं॥3॥

मूल

सानुज राम बिबाह उछाहू। सो सुभ उमग सुखद सब काहू॥
कहत सुनत हरषहिं पुलकाहीं। ते सुकृती मन मुदित नहाहीं॥3॥

भावार्थ

भाइयों सहित श्री रामचन्द्रजी के विवाह का उत्साह ही इस कथा नदी की कल्याणकारिणी बाढ है, जो सभी को सुख देने वाली है। इसके कहने-सुनने में जो हर्षित और पुलकित होते हैं, वे ही पुण्यात्मा पुरुष हैं, जो प्रसन्न मन से इस नदी में नहाते हैं॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम तिलक हित मङ्गल साजा। परब जोग जनु जुरे समाजा।
काई कुमति केकई केरी। परी जासु फल बिपति घनेरी॥4॥

मूल

राम तिलक हित मङ्गल साजा। परब जोग जनु जुरे समाजा।
काई कुमति केकई केरी। परी जासु फल बिपति घनेरी॥4॥

भावार्थ

श्री रामचन्द्रजी के राजतिलक के लिए जो मङ्गल साज सजाया गया, वही मानो पर्व के समय इस नदी पर यात्रियों के समूह इकट्ठे हुए हैं। कैकेयी की कुबुद्धि ही इस नदी में काई है, जिसके फलस्वरूप बडी भारी विपत्ति आ पडी॥4॥

041

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

समन अमित उतपात सब भरत चरित जपजाग।
कलि अघ खल अवगुन कथन ते जलमल बग काग॥41॥

मूल

समन अमित उतपात सब भरत चरित जपजाग।
कलि अघ खल अवगुन कथन ते जलमल बग काग॥41॥

भावार्थ

सम्पूर्ण अनगिनत उत्पातों को शान्त करने वाला भरतजी का चरित्र नदी तट पर किया जाने वाला जपयज्ञ है। कलियुग के पापों और दुष्टों के अवगुणों के जो वर्णन हैं, वे ही इस नदी के जल का कीचड और बगुले-कौए हैं॥41॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

कीरति सरित छहूँ रितु रूरी। समय सुहावनि पावनि भूरी॥
हिम हिमसैलसुता सिव ब्याहू। सिसिर सुखद प्रभु जनम उछाहू॥1॥

मूल

कीरति सरित छहूँ रितु रूरी। समय सुहावनि पावनि भूरी॥
हिम हिमसैलसुता सिव ब्याहू। सिसिर सुखद प्रभु जनम उछाहू॥1॥

भावार्थ

यह कीर्तिरूपिणी नदी छहों ऋतुओं में सुन्दर है। सभी समय यह परम सुहावनी और अत्यन्त पवित्र है। इसमें शिव-पार्वती का विवाह हेमन्त ऋतु है। श्री रामचन्द्रजी के जन्म का उत्सव सुखदायी शिशिर ऋतु है॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बरनब राम बिबाह समाजू। सो मुद मङ्गलमय रितुराजू॥
ग्रीषम दुसह राम बनगवनू। पन्थकथा खर आतप पवनू॥2॥

मूल

बरनब राम बिबाह समाजू। सो मुद मङ्गलमय रितुराजू॥
ग्रीषम दुसह राम बनगवनू। पन्थकथा खर आतप पवनू॥2॥

भावार्थ

श्री रामचन्द्रजी के विवाह समाज का वर्णन ही आनन्द-मङ्गलमय ऋतुराज वसन्त है। श्री रामजी का वनगमन दुःसह ग्रीष्म ऋतु है और मार्ग की कथा ही कडी धूप और लू है॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बरषा घोर निसाचर रारी। सुरकुल सालि सुमङ्गलकारी॥
राम राज सुख बिनय बडाई। बिसद सुखद सोइ सरद सुहाई॥3॥

मूल

बरषा घोर निसाचर रारी। सुरकुल सालि सुमङ्गलकारी॥
राम राज सुख बिनय बडाई। बिसद सुखद सोइ सरद सुहाई॥3॥

भावार्थ

राक्षसों के साथ घोर युद्ध ही वर्षा ऋतु है, जो देवकुल रूपी धान के लिए सुन्दर कल्याण करने वाली है। रामचन्द्रजी के राज्यकाल का जो सुख, विनम्रता और बडाई है, वही निर्मल सुख देने वाली सुहावनी शरद् ऋतु है॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सती सिरोमनि सिय गुन गाथा। सोइ गुन अमल अनूपम पाथा॥
भरत सुभाउ सुसीतलताई। सदा एकरस बरनि न जाई॥4॥

मूल

सती सिरोमनि सिय गुन गाथा। सोइ गुन अमल अनूपम पाथा॥
भरत सुभाउ सुसीतलताई। सदा एकरस बरनि न जाई॥4॥

भावार्थ

सती-शिरोमणि श्री सीताजी के गुणों की जो कथा है, वही इस जल का निर्मल और अनुपम गुण है। श्री भरतजी का स्वभाव इस नदी की सुन्दर शीतलता है, जो सदा एक सी रहती है और जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता॥4॥

042

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

अवलोकनि बोलनि मिलनि प्रीति परसपर हास।
भायप भलि चहु बन्धु की जल माधुरी सुबास॥42॥

मूल

अवलोकनि बोलनि मिलनि प्रीति परसपर हास।
भायप भलि चहु बन्धु की जल माधुरी सुबास॥42॥

भावार्थ

चारों भाइयों का परस्पर देखना, बोलना, मिलना, एक-दूसरे से प्रेम करना, हँसना और सुन्दर भाईपना इस जल की मधुरता और सुगन्ध है॥42॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

आरति बिनय दीनता मोरी। लघुता ललित सुबारि न थोरी॥
अदभुत सलिल सुनत गुनकारी। आस पिआस मनोमल हारी॥1॥

मूल

आरति बिनय दीनता मोरी। लघुता ललित सुबारि न थोरी॥
अदभुत सलिल सुनत गुनकारी। आस पिआस मनोमल हारी॥1॥

भावार्थ

मेरा आर्तभाव, विनय और दीनता इस सुन्दर और निर्मल जल का कम हलकापन नहीं है (अर्थात्‌ अत्यन्त हलकापन है)। यह जल बडा ही अनोखा है, जो सुनने से ही गुण करता है और आशा रूपी प्यास को और मन के मैल को दूर कर देता है॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राम सुप्रेमहि पोषत पानी। हरत सकल कलि कलुष गलानी॥
भव श्रम सोषक तोषक तोषा। समन दुरित दुख दारिद दोषा॥2॥

मूल

राम सुप्रेमहि पोषत पानी। हरत सकल कलि कलुष गलानी॥
भव श्रम सोषक तोषक तोषा। समन दुरित दुख दारिद दोषा॥2॥

भावार्थ

यह जल श्री रामचन्द्रजी के सुन्दर प्रेम को पुष्ट करता है, कलियुग के समस्त पापों और उनसे होने वाली ग्लानि को हर लेता है। (संसार के जन्म-मृत्यु रूप) श्रम को सोख लेता है, सन्तोष को भी सन्तुष्ट करता है और पाप, दरिद्रता और दोषों को नष्ट कर देता है॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

काम कोह मद मोह नसावन। बिमल बिबेक बिराग बढावन॥
सादर मज्जन पान किए तें। मिटहिं पाप परिताप हिए तें॥3॥

मूल

काम कोह मद मोह नसावन। बिमल बिबेक बिराग बढावन॥
सादर मज्जन पान किए तें। मिटहिं पाप परिताप हिए तें॥3॥

भावार्थ

यह जल काम, क्रोध, मद और मोह का नाश करने वाला और निर्मल ज्ञान और वैराग्य को बढाने वाला है। इसमें आदरपूर्वक स्नान करने से और इसे पीने से हृदय में रहने वाले सब पाप-ताप मिट जाते हैं॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जिन्ह एहिं बारि न मानस धोए। ते कायर कलिकाल बिगोए॥
तृषित निरखि रबि कर भव बारी। फिरिहहिं मृग जिमि जीव दुखारी॥4॥

मूल

जिन्ह एहिं बारि न मानस धोए। ते कायर कलिकाल बिगोए॥
तृषित निरखि रबि कर भव बारी। फिरिहहिं मृग जिमि जीव दुखारी॥4॥

भावार्थ

जिन्होन्ने इस (राम सुयश रूपी) जल से अपने हृदय को नहीं धोया, वे कायर कलिकाल के द्वारा ठगे गए। जैसे प्यासा हिरन सूर्य की किरणों के रेत पर पडने से उत्पन्न हुए जल के भ्रम को वास्तविक जल समझकर पीने को दौडता है और जल न पाकर दुःखी होता है, वैसे ही वे (कलियुग से ठगे हुए) जीव भी (विषयों के पीछे भटककर) दुःखी होङ्गे॥4॥

043

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

मति अनुहारि सुबारि गुन गन गनि मन अन्हवाइ।
सुमिरि भवानी सङ्करहि कह कबि कथा सुहाइ॥1॥

मूल

मति अनुहारि सुबारि गुन गन गनि मन अन्हवाइ।
सुमिरि भवानी सङ्करहि कह कबि कथा सुहाइ॥1॥

भावार्थ

अपनी बुद्धि के अनुसार इस सुन्दर जल के गुणों को विचार कर, उसमें अपने मन को स्नान कराकर और श्री भवानी-शङ्कर को स्मरण करके कवि (तुलसीदास) सुन्दर कथा कहता है॥1॥अब रघुपति पद पङ्करुह हियँ धरि पाइ प्रसाद।

विश्वास-प्रस्तुतिः

कहउँ जुगल मुनिबर्य कर मिलन सुभग सम्बाद ॥2॥

मूल

कहउँ जुगल मुनिबर्य कर मिलन सुभग सम्बाद ॥2॥

भावार्थ

मैं अब श्री रघुनाथजी के चरण कमलों को हृदय में धारण कर और उनका प्रसाद पाकर दोनों श्रेष्ठ मुनियों के मिलन का सुन्दर संवाद वर्णन करता हूँ॥2॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

भरद्वाज मुनि बसहिं प्रयागा। तिन्हहि राम पद अति अनुरागा॥
तापस सम दम दया निधाना। परमारथ पथ परम सुजाना॥1॥

मूल

भरद्वाज मुनि बसहिं प्रयागा। तिन्हहि राम पद अति अनुरागा॥
तापस सम दम दया निधाना। परमारथ पथ परम सुजाना॥1॥

भावार्थ

भरद्वाज मुनि प्रयाग में बसते हैं, उनका श्री रामजी के चरणों में अत्यन्त प्रेम है। वे तपस्वी, निगृहीत चित्त, जितेन्द्रिय, दया के निधान और परमार्थ के मार्ग में बडे ही चतुर हैं॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

माघ मकरगत रबि जब होई। तीरथपतिहिं आव सब कोई॥
देव दनुज किन्नर नर श्रेनीं। सादर मज्जहिं सकल त्रिबेनीं॥2॥

मूल

माघ मकरगत रबि जब होई। तीरथपतिहिं आव सब कोई॥
देव दनुज किन्नर नर श्रेनीं। सादर मज्जहिं सकल त्रिबेनीं॥2॥

भावार्थ

माघ में जब सूर्य मकर राशि पर जाते हैं, तब सब लोग तीर्थराज प्रयाग को आते हैं। देवता, दैत्य, किन्नर और मनुष्यों के समूह सब आदरपूर्वक त्रिवेणी में स्नान करते हैं॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पूजहिं माधव पद जलजाता। परसि अखय बटु हरषहिं गाता॥
भरद्वाज आश्रम अति पावन। परम रम्य मुनिबर मन भावन॥3॥

मूल

पूजहिं माधव पद जलजाता। परसि अखय बटु हरषहिं गाता॥
भरद्वाज आश्रम अति पावन। परम रम्य मुनिबर मन भावन॥3॥

भावार्थ

श्री वेणीमाधवजी के चरणकमलों को पूजते हैं और अक्षयवट का स्पर्श कर उनके शरीर पुलकित होते हैं। भरद्वाजजी का आश्रम बहुत ही पवित्र, परम रमणीय और श्रेष्ठ मुनियों के मन को भाने वाला है॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तहाँ होइ मुनि रिषय समाजा। जाहिं जे मज्जन तीरथराजा॥
मज्जहिं प्रात समेत उछाहा। कहहिं परसपर हरि गुन गाहा॥4॥

मूल

तहाँ होइ मुनि रिषय समाजा। जाहिं जे मज्जन तीरथराजा॥
मज्जहिं प्रात समेत उछाहा। कहहिं परसपर हरि गुन गाहा॥4॥

भावार्थ

तीर्थराज प्रयाग में जो स्नान करने जाते हैं, उन ऋषि-मुनियों का समाज वहाँ (भरद्वाज के आश्रम में) जुटता है। प्रातःकाल सब उत्साहपूर्वक स्नान करते हैं और फिर परस्पर भगवान्‌ के गुणों की कथाएँ कहते हैं॥4॥

044

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रह्म निरूपन धरम बिधि बरनहिं तत्त्व बिभाग।
ककहिं भगति भगवन्त कै सञ्जुत ग्यान बिराग॥44॥

मूल

ब्रह्म निरूपन धरम बिधि बरनहिं तत्त्व बिभाग।
ककहिं भगति भगवन्त कै सञ्जुत ग्यान बिराग॥44॥

भावार्थ

ब्रह्म का निरूपण, धर्म का विधान और तत्त्वों के विभाग का वर्णन करते हैं तथा ज्ञान-वैराग्य से युक्त भगवान्‌ की भक्ति का कथन करते हैं॥44॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

एहि प्रकार भरि माघ नहाहीं। पुनि सब निज निज आश्रम जाहीं॥
प्रति सम्बत अति होइ अनन्दा। मकर मज्जि गवनहिं मुनिबृन्दा॥1॥

मूल

एहि प्रकार भरि माघ नहाहीं। पुनि सब निज निज आश्रम जाहीं॥
प्रति सम्बत अति होइ अनन्दा। मकर मज्जि गवनहिं मुनिबृन्दा॥1॥

भावार्थ

इसी प्रकार माघ के महीनेभर स्नान करते हैं और फिर सब अपने-अपने आश्रमों को चले जाते हैं। हर साल वहाँ इसी तरह बडा आनन्द होता है। मकर में स्नान करके मुनिगण चले जाते हैं॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एक बार भरि मकर नहाए। सब मुनीस आश्रमन्ह सिधाए॥
जागबलिक मुनि परम बिबेकी। भरद्वाज राखे पद टेकी॥2॥

मूल

एक बार भरि मकर नहाए। सब मुनीस आश्रमन्ह सिधाए॥
जागबलिक मुनि परम बिबेकी। भरद्वाज राखे पद टेकी॥2॥

भावार्थ

एक बार पूरे मकरभर स्नान करके सब मुनीश्वर अपने-अपने आश्रमों को लौट गए। परम ज्ञानी याज्ञवल्क्य मुनि को चरण पकडकर भरद्वाजजी ने रख लिया॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सादर चरन सरोज पखारे। अति पुनीत आसन बैठारे॥
करि पूजा मुनि सुजसु बखानी। बोले अति पुनीत मृदु बानी॥3॥

मूल

सादर चरन सरोज पखारे। अति पुनीत आसन बैठारे॥
करि पूजा मुनि सुजसु बखानी। बोले अति पुनीत मृदु बानी॥3॥

भावार्थ

आदरपूर्वक उनके चरण कमल धोए और बडे ही पवित्र आसन पर उन्हें बैठाया। पूजा करके मुनि याज्ञवल्क्यजी के सुयश का वर्णन किया और फिर अत्यन्त पवित्र और कोमल वाणी से बोले-॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाथ एक संसउ बड मोरें। करगत बेदतत्त्व सबु तोरें॥
कहत सो मोहि लागत भय लाजा। जौं न कहउँ बड होइ अकाजा॥4॥

मूल

नाथ एक संसउ बड मोरें। करगत बेदतत्त्व सबु तोरें॥
कहत सो मोहि लागत भय लाजा। जौं न कहउँ बड होइ अकाजा॥4॥

भावार्थ

हे नाथ! मेरे मन में एक बडा सन्देह है, वेदों का तत्त्व सब आपकी मुट्ठी में है (अर्थात्‌ आप ही वेद का तत्त्व जानने वाले होने के कारण मेरा सन्देह निवारण कर सकते हैं) पर उस सन्देह को कहते मुझे भय और लाज आती है (भय इसलिए कि कहीं आप यह न समझें कि मेरी परीक्षा ले रहा है, लाज इसलिए कि इतनी आयु बीत गई, अब तक ज्ञान न हुआ) और यदि नहीं कहता तो बडी हानि होती है (क्योङ्कि अज्ञानी बना रहता हूँ)॥4॥

045

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

सन्त कहहिं असि नीति प्रभु श्रुति पुरान मुनि गाव।
होइ न बिमल बिबेक उर गुर सन किएँ दुराव॥45॥

मूल

सन्त कहहिं असि नीति प्रभु श्रुति पुरान मुनि गाव।
होइ न बिमल बिबेक उर गुर सन किएँ दुराव॥45॥

भावार्थ

हे प्रभो! सन्त लोग ऐसी नीति कहते हैं और वेद, पुराण तथा मुनिजन भी यही बतलाते हैं कि गुरु के साथ छिपाव करने से हृदय में निर्मल ज्ञान नहीं होता॥45॥

02 चौपाई

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस बिचारि प्रगटउँ निज मोहू। हरहु नाथ करि जन पर छोहू॥
राम नाम कर अमित प्रभावा। सन्त पुरान उपनिषद गावा॥1॥

मूल

अस बिचारि प्रगटउँ निज मोहू। हरहु नाथ करि जन पर छोहू॥
राम नाम कर अमित प्रभावा। सन्त पुरान उपनिषद गावा॥1॥

भावार्थ

यही सोचकर मैं अपना अज्ञान प्रकट करता हूँ। हे नाथ! सेवक पर कृपा करके इस अज्ञान का नाश कीजिए। सन्तों, पुराणों और उपनिषदों ने राम नाम के असीम प्रभाव का गान किया है॥1॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सन्तत जपत सम्भु अबिनासी। सिव भगवान ग्यान गुन रासी॥
आकर चारि जीव जग अहहीं। कासीं मरत परम पद लहहीं॥2॥

मूल

सन्तत जपत सम्भु अबिनासी। सिव भगवान ग्यान गुन रासी॥
आकर चारि जीव जग अहहीं। कासीं मरत परम पद लहहीं॥2॥

भावार्थ

कल्याण स्वरूप, ज्ञान और गुणों की राशि, अविनाशी भगवान्‌ शम्भु निरन्तर राम नाम का जप करते रहते हैं। संसार में चार जाति के जीव हैं, काशी में मरने से सभी परम पद को प्राप्त करते हैं॥2॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोपि राम महिमा मुनिराया। सिव उपदेसु करत करि दाया॥
रामु कवन प्रभु पूछउँ तोही। कहिअ बुझाइ कृपानिधि मोही॥3॥

मूल

सोपि राम महिमा मुनिराया। सिव उपदेसु करत करि दाया॥
रामु कवन प्रभु पूछउँ तोही। कहिअ बुझाइ कृपानिधि मोही॥3॥

भावार्थ

हे मुनिराज! वह भी राम (नाम) की ही महिमा है, क्योङ्कि शिवजी महाराज दया करके (काशी में मरने वाले जीव को) राम नाम का ही उपदेश करते हैं (इसी से उनको परम पद मिलता है)। हे प्रभो! मैं आपसे पूछता हूँ कि वे राम कौन हैं? हे कृपानिधान! मुझे समझाकर कहिए॥3॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एक राम अवधेस कुमारा। तिन्ह कर चरित बिदित संसारा॥
नारि बिरहदुख लहेउ अपारा। भयउ रोष रन रावन मारा॥4॥

मूल

एक राम अवधेस कुमारा। तिन्ह कर चरित बिदित संसारा॥
नारि बिरहदुख लहेउ अपारा। भयउ रोष रन रावन मारा॥4॥

भावार्थ

एक राम तो अवध नरेश दशरथजी के कुमार हैं, उनका चरित्र सारा संसार जानता है। उन्होन्ने स्त्री के विरह में अपार दुःख उठाया और क्रोध आने पर युद्ध में रावण को मार डाला॥4॥

046

01 दोहा

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रभु सोइ राम कि अपर कोउ जाहि जपत त्रिपुरारि।
सत्यधाम सर्बग्य तुम्ह कहहु बिबेकु बिचारि॥46॥

मूल

प्रभु सोइ राम कि अपर कोउ जाहि जपत त्रिपुरारि।
सत्यधाम सर्बग्य तुम्ह कहहु बिबेकु बिचारि॥46॥

भावार्थ

हे प्रभो! वही राम हैं या और कोई दूसरे हैं, जिनको शिवजी जपते हैं? आप सत्य के धाम हैं और सब कुछ जानते हैं, ज्ञान विचार कर कहिए॥46॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जैसें मिटै मोर भ्रम भारी। कहहु सो कथा नाथ बिस्तारी॥
जागबलिक बोले मुसुकाई। तुम्हहि बिदित रघुपति प्रभुताई॥1॥

मूल

जैसें मिटै मोर भ्रम भारी। कहहु सो कथा नाथ बिस्तारी॥
जागबलिक बोले मुसुकाई। तुम्हहि बिदित रघुपति प्रभुताई॥1॥

भावार्थ

हे नाथ! जिस प्रकार से मेरा यह भारी भ्रम मिट जाए, आप वही कथा विस्तारपूर्वक कहिए। इस पर याज्ञवल्क्यजी मुस्कुराकर बोले, श्री रघुनाथजी की प्रभुता को तुम जानते हो॥1॥

रामभगत तुम्ह मन क्रम बानी। चतुराई तुम्हारि मैं जानी॥
चाहहु सुनै राम गुन गूढा कीन्हिहु प्रस्न मनहुँ अति मूढा॥2॥

मूल

रामभगत तुम्ह मन क्रम बानी। चतुराई तुम्हारि मैं जानी॥
चाहहु सुनै राम गुन गूढा कीन्हिहु प्रस्न मनहुँ अति मूढा॥2॥

भावार्थ

तुम मन, वचन और कर्म से श्री रामजी के भक्त हो। तुम्हारी चतुराई को मैं जान गया। तुम श्री रामजी के रहस्यमय गुणों को सुनना चाहते हो, इसी से तुमने ऐसा प्रश्न किया है मानो बडे ही मूढ हो॥2॥

तात सुनहु सादर मनु लाई। कहउँ राम कै कथा सुहाई॥
महामोहु महिषेसु बिसाला। रामकथा कालिका कराला॥3॥

मूल

तात सुनहु सादर मनु लाई। कहउँ राम कै कथा सुहाई॥
महामोहु महिषेसु बिसाला। रामकथा कालिका कराला॥3॥

भावार्थ

हे तात! तुम आदरपूर्वक मन लगाकर सुनो, मैं श्री रामजी की सुन्दर कथा कहता हूँ। बडा भारी अज्ञान विशाल महिषासुर है और श्री रामजी की कथा (उसे नष्ट कर देने वाली) भयङ्कर कालीजी हैं॥3॥रामकथा ससि किरन समाना। सन्त चकोर करहिं जेहि पाना॥

ऐसेइ संसय कीन्ह भवानी। महादेव तब कहा बखानी॥4॥

मूल

ऐसेइ संसय कीन्ह भवानी। महादेव तब कहा बखानी॥4॥

भावार्थ

श्री रामजी की कथा चन्द्रमा की किरणों के समान है, जिसे सन्त रूपी चकोर सदा पान करते हैं। ऐसा ही सन्देह पार्वतीजी ने किया था, तब महादेवजी ने विस्तार से उसका उत्तर दिया था॥4॥

047

01 दोहा

कहउँ सो मति अनुहारि अब उमा सम्भु सम्बाद।
भयउ समय जेहि हेतु जेहि सुनु मुनि मिटिहि बिषाद॥47॥

मूल

कहउँ सो मति अनुहारि अब उमा सम्भु सम्बाद।
भयउ समय जेहि हेतु जेहि सुनु मुनि मिटिहि बिषाद॥47॥

भावार्थ

अब मैं अपनी बुद्धि के अनुसार वही उमा और शिवजी का संवाद कहता हूँ। वह जिस समय और जिस हेतु से हुआ, उसे हे मुनि! तुम सुनो, तुम्हारा विषाद मिट जाएगा॥47॥

02 चौपाई

एक बार त्रेता जुग माहीं। सम्भु गए कुम्भज रिषि पाहीं॥
सङ्ग सती जगजननि भवानी। पूजे रिषि अखिलेस्वर जानी॥1॥

मूल

एक बार त्रेता जुग माहीं। सम्भु गए कुम्भज रिषि पाहीं॥
सङ्ग सती जगजननि भवानी। पूजे रिषि अखिलेस्वर जानी॥1॥

भावार्थ

एक बार त्रेता युग में शिवजी अगस्त्य ऋषि के पास गए। उनके साथ जगज्जननी भवानी सतीजी भी थीं। ऋषि ने सम्पूर्ण जगत्‌ के ईश्वर जानकर उनका पूजन किया॥1॥

रामकथा मुनिबर्ज बखानी। सुनी महेस परम सुखु मानी॥
रिषि पूछी हरिभगति सुहाई। कही सम्भु अधिकारी पाई॥2॥

मूल

रामकथा मुनिबर्ज बखानी। सुनी महेस परम सुखु मानी॥
रिषि पूछी हरिभगति सुहाई। कही सम्भु अधिकारी पाई॥2॥

भावार्थ

मुनिवर अगस्त्यजी ने रामकथा विस्तार से कही, जिसको महेश्वर ने परम सुख मानकर सुना। फिर ऋषि ने शिवजी से सुन्दर हरिभक्ति पूछी और शिवजी ने उनको अधिकारी पाकर (रहस्य सहित) भक्ति का निरूपण किया॥2॥

कहत सुनत रघुपति गुन गाथा। कछु दिन तहाँ रहे गिरिनाथा॥
मुनि सन बिदा मागि त्रिपुरारी। चले भवन सँग दच्छकुमारी॥3॥

मूल

कहत सुनत रघुपति गुन गाथा। कछु दिन तहाँ रहे गिरिनाथा॥
मुनि सन बिदा मागि त्रिपुरारी। चले भवन सँग दच्छकुमारी॥3॥

भावार्थ

श्री रघुनाथजी के गुणों की कथाएँ कहते-सुनते कुछ दिनों तक शिवजी वहाँ रहे। फिर मुनि से विदा माँगकर शिवजी दक्षकुमारी सतीजी के साथ घर (कैलास) को चले॥3॥

तेहि अवसर भञ्जन महिभारा। हरि रघुबंस लीन्ह अवतारा॥
पिता बचन तजि राजु उदासी। दण्डक बन बिचरत अबिनासी॥4॥

मूल

तेहि अवसर भञ्जन महिभारा। हरि रघुबंस लीन्ह अवतारा॥
पिता बचन तजि राजु उदासी। दण्डक बन बिचरत अबिनासी॥4॥

भावार्थ

उन्हीं दिनों पृथ्वी का भार उतारने के लिए श्री हरि ने रघुवंश में अवतार लिया था। वे अविनाशी भगवान्‌ उस समय पिता के वचन से राज्य का त्याग करके तपस्वी या साधु वेश में दण्डकवन में विचर रहे थे॥4॥

048

01 दोहा

हृदयँ बिचारत जात हर केहि बिधि दरसनु होइ।
गुप्त रूप अवतरेउ प्रभु गएँ जान सबु कोइ॥1॥

मूल

हृदयँ बिचारत जात हर केहि बिधि दरसनु होइ।
गुप्त रूप अवतरेउ प्रभु गएँ जान सबु कोइ॥1॥

भावार्थ

शिवजी हृदय में विचारते जा रहे थे कि भगवान्‌ के दर्शन मुझे किस प्रकार हों। प्रभु ने गुप्त रूप से अवतार लिया है, मेरे जाने से सब लोग जान जाएँगे॥1॥

02 सोरठा

सङ्कर उर अति छोभु सती न जानहिं मरमु सोइ।
तुलसी दरसन लोभु मन डरु लोचन लालची॥2॥

मूल

सङ्कर उर अति छोभु सती न जानहिं मरमु सोइ।
तुलसी दरसन लोभु मन डरु लोचन लालची॥2॥

भावार्थ

श्री शङ्करजी के हृदय में इस बात को लेकर बडी खलबली उत्पन्न हो गई, परन्तु सतीजी इस भेद को नहीं जानती थीं। तुलसीदासजी कहते हैं कि शिवजी के मन में (भेद खुलने का) डर था, परन्तु दर्शन के लोभ से उनके नेत्र ललचा रहे थे॥2॥

03 चौपाई

रावन मरन मनुज कर जाचा। प्रभु बिधि बचनु कीन्ह चह साचा॥
जौं नहिं जाउँ रहइ पछितावा। करत बिचारु न बनत बनावा॥1॥

मूल

रावन मरन मनुज कर जाचा। प्रभु बिधि बचनु कीन्ह चह साचा॥
जौं नहिं जाउँ रहइ पछितावा। करत बिचारु न बनत बनावा॥1॥

भावार्थ

रावण ने (ब्रह्माजी से) अपनी मृत्यु मनुष्य के हाथ से माँगी थी। ब्रह्माजी के वचनों को प्रभु सत्य करना चाहते हैं। मैं जो पास नहीं जाता हूँ तो बडा पछतावा रह जाएगा। इस प्रकार शिवजी विचार करते थे, परन्तु कोई भी युक्ति ठीक नहीं बैठती थी॥1॥

ऐहि बिधि भए सोचबस ईसा। तेही समय जाइ दससीसा॥
लीन्ह नीच मारीचहि सङ्गा। भयउ तुरउ सोइ कपट कुरङ्गा॥2॥

मूल

ऐहि बिधि भए सोचबस ईसा। तेही समय जाइ दससीसा॥
लीन्ह नीच मारीचहि सङ्गा। भयउ तुरउ सोइ कपट कुरङ्गा॥2॥

भावार्थ

इस प्रकार महादेवजी चिन्ता के वश हो गए। उसी समय नीच रावण ने जाकर मारीच को साथ लिया और वह (मारीच) तुरन्त कपट मृग बन गया॥2॥

करि छलु मूढ हरी बैदेही। प्रभु प्रभाउ तस बिदित न तेही॥
मृग बधि बन्धु सहित हरि आए। आश्रमु देखि नयन जल छाए॥3॥

मूल

करि छलु मूढ हरी बैदेही। प्रभु प्रभाउ तस बिदित न तेही॥
मृग बधि बन्धु सहित हरि आए। आश्रमु देखि नयन जल छाए॥3॥

भावार्थ

मूर्ख (रावण) ने छल करके सीताजी को हर लिया। उसे श्री रामचन्द्रजी के वास्तविक प्रभाव का कुछ भी पता न था। मृग को मारकर भाई लक्ष्मण सहित श्री हरि आश्रम में आए और उसे खाली देखकर (अर्थात्‌ वहाँ सीताजी को न पाकर) उनके नेत्रों में आँसू भर आए॥3॥

बिरह बिकल नर इव रघुराई। खोजत बिपिन फिरत दोउ भाई॥
कबहूँ जोग बियोग न जाकें। देखा प्रगट बिरह दुखु ताकें॥4॥

मूल

बिरह बिकल नर इव रघुराई। खोजत बिपिन फिरत दोउ भाई॥
कबहूँ जोग बियोग न जाकें। देखा प्रगट बिरह दुखु ताकें॥4॥

भावार्थ

श्री रघुनाथजी मनुष्यों की भाँति विरह से व्याकुल हैं और दोनों भाई वन में सीता को खोजते हुए फिर रहे हैं। जिनके कभी कोई संयोग-वियोग नहीं है, उनमें प्रत्यक्ष विरह का दुःख देखा गया॥4॥

049

01 दोहा

अति बिचित्र रघुपति चरित जानहिं परम सुजान।
जे मतिमन्द बिमोह बस हृदयँ धरहिं कछु आन॥49॥

मूल

अति बिचित्र रघुपति चरित जानहिं परम सुजान।
जे मतिमन्द बिमोह बस हृदयँ धरहिं कछु आन॥49॥

भावार्थ

श्री रघुनाथजी का चरित्र बडा ही विचित्र है, उसको पहुँचे हुए ज्ञानीजन ही जानते हैं। जो मन्दबुद्धि हैं, वे तो विशेष रूप से मोह के वश होकर हृदय में कुछ दूसरी ही बात समझ बैठते हैं॥49॥

02 चौपाई

सम्भु समय तेहि रामहि देखा। उपजा हियँ अति हरषु बिसेषा ॥
भरि लोचन छबिसिन्धु निहारी। कुसमय जानि न कीन्हि चिन्हारी॥1॥

मूल

सम्भु समय तेहि रामहि देखा। उपजा हियँ अति हरषु बिसेषा ॥
भरि लोचन छबिसिन्धु निहारी। कुसमय जानि न कीन्हि चिन्हारी॥1॥

भावार्थ

श्री शिवजी ने उसी अवसर पर श्री रामजी को देखा और उनके हृदय में बहुत भारी आनन्द उत्पन्न हुआ। उन शोभा के समुद्र (श्री रामचन्द्रजी) को शिवजी ने नेत्र भरकर देखा, परन्तु अवसर ठीक न जानकर परिचय नहीं किया॥1॥

जय सच्चिदानन्द जग पावन। अस कहि चलेउ मनोज नसावन॥
चले जात सिव सती समेता। पुनि पुनि पुलकत कृपानिकेता॥2॥

मूल

जय सच्चिदानन्द जग पावन। अस कहि चलेउ मनोज नसावन॥
चले जात सिव सती समेता। पुनि पुनि पुलकत कृपानिकेता॥2॥

भावार्थ

जगत्‌ को पवित्र करने वाले सच्चिदानन्द की जय हो, इस प्रकार कहकर कामदेव का नाश करने वाले श्री शिवजी चल पडे। कृपानिधान शिवजी बार-बार आनन्द से पुलकित होते हुए सतीजी के साथ चले जा रहे थे॥2॥

सतीं सो दसा सम्भु कै देखी। उर उपजा सन्देहु बिसेषी॥
सङ्करु जगतबन्द्य जगदीसा। सुर नर मुनि सब नावत सीसा॥3॥

मूल

सतीं सो दसा सम्भु कै देखी। उर उपजा सन्देहु बिसेषी॥
सङ्करु जगतबन्द्य जगदीसा। सुर नर मुनि सब नावत सीसा॥3॥

भावार्थ

सतीजी ने शङ्करजी की वह दशा देखी तो उनके मन में बडा सन्देह उत्पन्न हो गया। (वे मन ही मन कहने लगीं कि) शङ्करजी की सारा जगत्‌ वन्दना करता है, वे जगत्‌ के ईश्वर हैं, देवता, मनुष्य, मुनि सब उनके प्रति सिर नवाते हैं॥3॥

तिन्ह नृपसुतहि कीन्ह परनामा। कहि सच्चिदानन्द परधामा॥
भए मगन छबि तासु बिलोकी। अजहुँ प्रीति उर रहति न रोकी॥4॥

मूल

तिन्ह नृपसुतहि कीन्ह परनामा। कहि सच्चिदानन्द परधामा॥
भए मगन छबि तासु बिलोकी। अजहुँ प्रीति उर रहति न रोकी॥4॥

भावार्थ

उन्होन्ने एक राजपुत्र को सच्चिदानन्द परधाम कहकर प्रणाम किया और उसकी शोभा देखकर वे इतने प्रेममग्न हो गए कि अब तक उनके हृदय में प्रीति रोकने से भी नहीं रुकती॥4॥

050

01 दोहा

ब्रह्म जो ब्यापक बिरज अज अकल अनीह अभेद।
सो कि देह धरि होइ नर जाहि न जानत बेद॥50॥

मूल

ब्रह्म जो ब्यापक बिरज अज अकल अनीह अभेद।
सो कि देह धरि होइ नर जाहि न जानत बेद॥50॥

भावार्थ

जो ब्रह्म सर्वव्यापक, मायारहित, अजन्मा, अगोचर, इच्छारहित और भेदरहित है और जिसे वेद भी नहीं जानते, क्या वह देह धारण करके मनुष्य हो सकता है?॥50॥

02 चौपाई

बिष्नु जो सुर हित नरतनु धारी। सोउ सर्बग्य जथा त्रिपुरारी॥
खोजइ सो कि अग्य इव नारी। ग्यानधाम श्रीपति असुरारी॥1॥

मूल

बिष्नु जो सुर हित नरतनु धारी। सोउ सर्बग्य जथा त्रिपुरारी॥
खोजइ सो कि अग्य इव नारी। ग्यानधाम श्रीपति असुरारी॥1॥

भावार्थ

देवताओं के हित के लिए मनुष्य शरीर धारण करने वाले जो विष्णु भगवान्‌ हैं, वे भी शिवजी की ही भाँति सर्वज्ञ हैं। वे ज्ञान के भण्डार, लक्ष्मीपति और असुरों के शत्रु भगवान्‌ विष्णु क्या अज्ञानी की तरह स्त्री को खोजेङ्गे?॥1॥

सम्भुगिरा पुनि मृषा न होई। सिव सर्बग्य जान सबु कोई॥
अस संसय मन भयउ अपारा। होइ न हृदयँ प्रबोध प्रचारा॥2॥

मूल

सम्भुगिरा पुनि मृषा न होई। सिव सर्बग्य जान सबु कोई॥
अस संसय मन भयउ अपारा। होइ न हृदयँ प्रबोध प्रचारा॥2॥

भावार्थ

फिर शिवजी के वचन भी झूठे नहीं हो सकते। सब कोई जानते हैं कि शिवजी सर्वज्ञ हैं। सती के मन में इस प्रकार का अपार सन्देह उठ खडा हुआ, किसी तरह भी उनके हृदय में ज्ञान का प्रादुर्भाव नहीं होता था॥2॥

जद्यपि प्रगट न कहेउ भवानी। हर अन्तरजामी सब जानी॥
सुनहि सती तव नारि सुभाऊ। संसय अस न धरिअ उर काऊ॥3॥

मूल

जद्यपि प्रगट न कहेउ भवानी। हर अन्तरजामी सब जानी॥
सुनहि सती तव नारि सुभाऊ। संसय अस न धरिअ उर काऊ॥3॥

भावार्थ

यद्यपि भवानीजी ने प्रकट कुछ नहीं कहा, पर अन्तर्यामी शिवजी सब जान गए। वे बोले- हे सती! सुनो, तुम्हारा स्त्री स्वभाव है। ऐसा सन्देह मन में कभी न रखना चाहिए॥3॥

जासु कथा कुम्भज रिषि गाई। भगति जासु मैं मुनिहि सुनाई॥
सोइ मम इष्टदेव रघुबीरा। सेवत जाहि सदा मुनि धीरा॥4॥

मूल

जासु कथा कुम्भज रिषि गाई। भगति जासु मैं मुनिहि सुनाई॥
सोइ मम इष्टदेव रघुबीरा। सेवत जाहि सदा मुनि धीरा॥4॥

भावार्थ

जिनकी कथा का अगस्त्य ऋषि ने गान किया और जिनकी भक्ति मैन्ने मुनि को सुनाई, ये वही मेरे इष्टदेव श्री रघुवीरजी हैं, जिनकी सेवा ज्ञानी मुनि सदा किया करते हैं॥4॥

03 छन्द

मुनि धीर जोगी सिद्ध सन्तत बिमल मन जेहि ध्यावहीं।
कहि नेति निगम पुरान आगम जासु कीरति गावहीं॥
सोइ रामु ब्यापक ब्रह्म भुवन निकाय पति माया धनी।
अवतरेउ अपने भगत हित निजतन्त्र नित रघुकुलमनी॥

मूल

मुनि धीर जोगी सिद्ध सन्तत बिमल मन जेहि ध्यावहीं।
कहि नेति निगम पुरान आगम जासु कीरति गावहीं॥
सोइ रामु ब्यापक ब्रह्म भुवन निकाय पति माया धनी।
अवतरेउ अपने भगत हित निजतन्त्र नित रघुकुलमनी॥

भावार्थ

ज्ञानी मुनि, योगी और सिद्ध निरन्तर निर्मल चित्त से जिनका ध्यान करते हैं तथा वेद, पुराण और शास्त्र ‘नेति-नेति’ कहकर जिनकी कीर्ति गाते हैं, उन्हीं सर्वव्यापक, समस्त ब्रह्माण्डों के स्वामी, मायापति, नित्य परम स्वतन्त्र, ब्रह्मा रूप भगवान्‌ श्री रामजी ने अपने भक्तों के हित के लिए (अपनी इच्छा से) रघुकुल के मणिरूप में अवतार लिया है।

051

01 सोरठा

लाग न उर उपदेसु जदपि कहेउ सिवँ बार बहु।
बोले बिहसि महेसु हरिमाया बलु जानि जियँ॥51॥

मूल

लाग न उर उपदेसु जदपि कहेउ सिवँ बार बहु।
बोले बिहसि महेसु हरिमाया बलु जानि जियँ॥51॥

भावार्थ

यद्यपि शिवजी ने बहुत बार समझाया, फिर भी सतीजी के हृदय में उनका उपदेश नहीं बैठा। तब महादेवजी मन में भगवान्‌ की माया का बल जानकर मुस्कुराते हुए बोले-॥51॥

02 चौपाई

जौं तुम्हरें मन अति सन्देहू। तौ किन जाइ परीछा लेहू॥
तब लगि बैठ अहउँ बटछाहीं। जब लगि तुम्ह ऐहहु मोहि पाहीं॥1॥

मूल

जौं तुम्हरें मन अति सन्देहू। तौ किन जाइ परीछा लेहू॥
तब लगि बैठ अहउँ बटछाहीं। जब लगि तुम्ह ऐहहु मोहि पाहीं॥1॥

भावार्थ

जो तुम्हारे मन में बहुत सन्देह है तो तुम जाकर परीक्षा क्यों नहीं लेती? जब तक तुम मेरे पास लौट आओगी तब तक मैं इसी बड की छाँह में बैठा हूँ॥1॥

जैसें जाइ मोह भ्रम भारी। करेहु सो जतनु बिबेक बिचारी॥
चलीं सती सिव आयसु पाई। करहिं बेचारु करौं का भाई॥2॥

मूल

जैसें जाइ मोह भ्रम भारी। करेहु सो जतनु बिबेक बिचारी॥
चलीं सती सिव आयसु पाई। करहिं बेचारु करौं का भाई॥2॥

भावार्थ

जिस प्रकार तुम्हारा यह अज्ञानजनित भारी भ्रम दूर हो, (भली-भाँति) विवेक के द्वारा सोच-समझकर तुम वही करना। शिवजी की आज्ञा पाकर सती चलीं और मन में सोचने लगीं कि भाई! क्या करूँ (कैसे परीक्षा लूँ)?॥2॥

इहाँ सम्भु अस मन अनुमाना। दच्छसुता कहुँ नहिं कल्याना॥
मोरेहु कहें न संसय जाहीं। बिधि बिपरीत भलाई नाहीं॥3॥

मूल

इहाँ सम्भु अस मन अनुमाना। दच्छसुता कहुँ नहिं कल्याना॥
मोरेहु कहें न संसय जाहीं। बिधि बिपरीत भलाई नाहीं॥3॥

भावार्थ

इधर शिवजी ने मन में ऐसा अनुमान किया कि दक्षकन्या सती का कल्याण नहीं है। जब मेरे समझाने से भी सन्देह दूर नहीं होता तब (मालूम होता है) विधाता ही उलटे हैं, अब सती का कुशल नहीं है॥3॥

होइहि सोइ जो राम रचि राखा। को करि तर्क बढावै साखा॥
अस कहि लगे जपन हरिनामा। गईं सती जहँ प्रभु सुखधामा॥4॥

मूल

होइहि सोइ जो राम रचि राखा। को करि तर्क बढावै साखा॥
अस कहि लगे जपन हरिनामा। गईं सती जहँ प्रभु सुखधामा॥4॥

भावार्थ

जो कुछ राम ने रच रखा है, वही होगा। तर्क करके कौन शाखा (विस्तार) बढावे। (मन में) ऐसा कहकर शिवजी भगवान्‌ श्री हरि का नाम जपने लगे और सतीजी वहाँ गईं, जहाँ सुख के धाम प्रभु श्री रामचन्द्रजी थे॥4॥

052

01 दोहा

पुनि पुनि हृदयँ बिचारु करि धरि सीता कर रूप।
आगें होइ चलि पन्थ तेहिं जेहिं आवत नरभूप॥52॥

मूल

पुनि पुनि हृदयँ बिचारु करि धरि सीता कर रूप।
आगें होइ चलि पन्थ तेहिं जेहिं आवत नरभूप॥52॥

भावार्थ

सती बार-बार मन में विचार कर सीताजी का रूप धारण करके उस मार्ग की ओर आगे होकर चलीं, जिससे (सतीजी के विचारानुसार) मनुष्यों के राजा रामचन्द्रजी आ रहे थे॥52॥

02 चौपाई

लछिमन दीख उमाकृत बेषा। चकित भए भ्रम हृदयँ बिसेषा॥
कहि न सकत कछु अति गम्भीरा। प्रभु प्रभाउ जानत मतिधीरा॥1॥

मूल

लछिमन दीख उमाकृत बेषा। चकित भए भ्रम हृदयँ बिसेषा॥
कहि न सकत कछु अति गम्भीरा। प्रभु प्रभाउ जानत मतिधीरा॥1॥

भावार्थ

सतीजी के बनावटी वेष को देखकर लक्ष्मणजी चकित हो गए और उनके हृदय में बडा भ्रम हो गया। वे बहुत गम्भीर हो गए, कुछ कह नहीं सके। धीर बुद्धि लक्ष्मण प्रभु रघुनाथजी के प्रभाव को जानते थे॥1॥

सती कपटु जानेउ सुरस्वामी। सबदरसी सब अन्तरजामी॥
सुमिरत जाहि मिटइ अग्याना। सोइ सरबग्य रामु भगवाना॥2॥

मूल

सती कपटु जानेउ सुरस्वामी। सबदरसी सब अन्तरजामी॥
सुमिरत जाहि मिटइ अग्याना। सोइ सरबग्य रामु भगवाना॥2॥

भावार्थ

सब कुछ देखने वाले और सबके हृदय की जानने वाले देवताओं के स्वामी श्री रामचन्द्रजी सती के कपट को जान गए, जिनके स्मरण मात्र से अज्ञान का नाश हो जाता है, वही सर्वज्ञ भगवान्‌ श्री रामचन्द्रजी हैं॥2॥

सती कीन्ह चह तहँहुँ दुराऊ। देखहु नारि सुभाव प्रभाऊ॥
निज माया बलु हृदयँ बखानी। बोले बिहसि रामु मृदु बानी॥3॥

मूल

सती कीन्ह चह तहँहुँ दुराऊ। देखहु नारि सुभाव प्रभाऊ॥
निज माया बलु हृदयँ बखानी। बोले बिहसि रामु मृदु बानी॥3॥

भावार्थ

स्त्री स्वभाव का असर तो देखो कि वहाँ (उन सर्वज्ञ भगवान्‌ के सामने) भी सतीजी छिपाव करना चाहती हैं। अपनी माया के बल को हृदय में बखानकर, श्री रामचन्द्रजी हँसकर कोमल वाणी से बोले॥3॥

जोरि पानि प्रभु कीन्ह प्रनामू। पिता समेत लीन्ह निज नामू॥
कहेउ बहोरि कहाँ बृषकेतू। बिपिन अकेलि फिरहु केहि हेतू॥4॥

मूल

जोरि पानि प्रभु कीन्ह प्रनामू। पिता समेत लीन्ह निज नामू॥
कहेउ बहोरि कहाँ बृषकेतू। बिपिन अकेलि फिरहु केहि हेतू॥4॥

भावार्थ

पहले प्रभु ने हाथ जोडकर सती को प्रणाम किया और पिता सहित अपना नाम बताया। फिर कहा कि वृषकेतु शिवजी कहाँ हैं? आप यहाँ वन में अकेली किसलिए फिर रही हैं?॥4॥

053

01 दोहा

राम बचन मृदु गूढ सुनि उपजा अति सङ्कोचु।
सती सभीत महेस पहिं चलीं हृदयँ बड सोचु॥53॥

मूल

राम बचन मृदु गूढ सुनि उपजा अति सङ्कोचु।
सती सभीत महेस पहिं चलीं हृदयँ बड सोचु॥53॥

भावार्थ

श्री रामचन्द्रजी के कोमल और रहस्य भरे वचन सुनकर सतीजी को बडा सङ्कोच हुआ। वे डरती हुई (चुपचाप) शिवजी के पास चलीं, उनके हृदय में बडी चिन्ता हो गई॥53॥

02 चौपाई

मैं सङ्कर कर कहा न माना। निज अग्यानु राम पर आना॥
जाइ उतरु अब देहउँ काहा। उर उपजा अति दारुन दाहा॥1॥

मूल

मैं सङ्कर कर कहा न माना। निज अग्यानु राम पर आना॥
जाइ उतरु अब देहउँ काहा। उर उपजा अति दारुन दाहा॥1॥

भावार्थ

कि मैन्ने शङ्करजी का कहना न माना और अपने अज्ञान का श्री रामचन्द्रजी पर आरोप किया। अब जाकर मैं शिवजी को क्या उत्तर दूँगी? (यों सोचते-सोचते) सतीजी के हृदय में अत्यन्त भयानक जलन पैदा हो गई॥1॥

जाना राम सतीं दुखु पावा। निज प्रभाउ कछु प्रगटि जनावा॥
सतीं दीख कौतुकु मग जाता। आगें रामु सहित श्री भ्राता॥2॥

मूल

जाना राम सतीं दुखु पावा। निज प्रभाउ कछु प्रगटि जनावा॥
सतीं दीख कौतुकु मग जाता। आगें रामु सहित श्री भ्राता॥2॥

भावार्थ

श्री रामचन्द्रजी ने जान लिया कि सतीजी को दुःख हुआ, तब उन्होन्ने अपना कुछ प्रभाव प्रकट करके उन्हें दिखलाया। सतीजी ने मार्ग में जाते हुए यह कौतुक देखा कि श्री रामचन्द्रजी सीताजी और लक्ष्मणजी सहित आगे चले जा रहे हैं। (इस अवसर पर सीताजी को इसलिए दिखाया कि सतीजी श्री राम के सच्चिदानन्दमय रूप को देखें, वियोग और दुःख की कल्पना जो उन्हें हुई थी, वह दूर हो जाए तथा वे प्रकृतिस्थ हों।)॥2॥

फिरि चितवा पाछें प्रभु देखा। सहित बन्धु सिय सुन्दर बेषा॥
जहँ चितवहिं तहँ प्रभु आसीना। सेवहिं सिद्ध मुनीस प्रबीना॥3॥

मूल

फिरि चितवा पाछें प्रभु देखा। सहित बन्धु सिय सुन्दर बेषा॥
जहँ चितवहिं तहँ प्रभु आसीना। सेवहिं सिद्ध मुनीस प्रबीना॥3॥

भावार्थ

(तब उन्होन्ने) पीछे की ओर फिरकर देखा, तो वहाँ भी भाई लक्ष्मणजी और सीताजी के साथ श्री रामचन्द्रजी सुन्दर वेष में दिखाई दिए। वे जिधर देखती हैं, उधर ही प्रभु श्री रामचन्द्रजी विराजमान हैं और सुचतुर सिद्ध मुनीश्वर उनकी सेवा कर रहे हैं॥3॥

देखे सिव बिधि बिष्नु अनेका। अमित प्रभाउ एक तें एका॥
बन्दत चरन करत प्रभु सेवा। बिबिध बेष देखे सब देवा॥4॥

मूल

देखे सिव बिधि बिष्नु अनेका। अमित प्रभाउ एक तें एका॥
बन्दत चरन करत प्रभु सेवा। बिबिध बेष देखे सब देवा॥4॥

भावार्थ

सतीजी ने अनेक शिव, ब्रह्मा और विष्णु देखे, जो एक से एक बढकर असीम प्रभाव वाले थे। (उन्होन्ने देखा कि) भाँति-भाँति के वेष धारण किए सभी देवता श्री रामचन्द्रजी की चरणवन्दना और सेवा कर रहे हैं॥4॥

054

01 दोहा

सती बिधात्री इन्दिरा देखीं अमित अनूप।
जेहिं जेहिं बेष अजादि सुर तेहि तेहि तन अनुरूप॥54॥

मूल

सती बिधात्री इन्दिरा देखीं अमित अनूप।
जेहिं जेहिं बेष अजादि सुर तेहि तेहि तन अनुरूप॥54॥

भावार्थ

उन्होन्ने अनगिनत अनुपम सती, ब्रह्माणी और लक्ष्मी देखीं। जिस-जिस रूप में ब्रह्मा आदि देवता थे, उसी के अनुकूल रूप में (उनकी) ये सब (शक्तियाँ) भी थीं॥54॥

02 चौपाई

देखे जहँ जहँ रघुपति जेते। सक्तिन्ह सहित सकल सुर तेते॥
जीव चराचर जो संसारा। देखे सकल अनेक प्रकारा॥1॥

मूल

देखे जहँ जहँ रघुपति जेते। सक्तिन्ह सहित सकल सुर तेते॥
जीव चराचर जो संसारा। देखे सकल अनेक प्रकारा॥1॥

भावार्थ

सतीजी ने जहाँ-जहाँ जितने रघुनाथजी देखे, शक्तियों सहित वहाँ उतने ही सारे देवताओं को भी देखा। संसार में जो चराचर जीव हैं, वे भी अनेक प्रकार के सब देखे॥1॥

पूजहिं प्रभुहि देव बहु बेषा। राम रूप दूसर नहिं देखा॥
अवलोके रघुपति बहुतेरे। सीता सहित न बेष घनेरे॥2॥

मूल

पूजहिं प्रभुहि देव बहु बेषा। राम रूप दूसर नहिं देखा॥
अवलोके रघुपति बहुतेरे। सीता सहित न बेष घनेरे॥2॥

भावार्थ

(उन्होन्ने देखा कि) अनेकों वेष धारण करके देवता प्रभु श्री रामचन्द्रजी की पूजा कर रहे हैं, परन्तु श्री रामचन्द्रजी का दूसरा रूप कहीं नहीं देखा। सीता सहित श्री रघुनाथजी बहुत से देखे, परन्तु उनके वेष अनेक नहीं थे॥2॥

सोइ रघुबर सोइ लछिमनु सीता। देखि सती अति भईं सभीता॥
हृदय कम्प तन सुधि कछु नाहीं। नयन मूदि बैठीं मग माहीं॥3॥

मूल

सोइ रघुबर सोइ लछिमनु सीता। देखि सती अति भईं सभीता॥
हृदय कम्प तन सुधि कछु नाहीं। नयन मूदि बैठीं मग माहीं॥3॥

भावार्थ

(सब जगह) वही रघुनाथजी, वही लक्ष्मण और वही सीताजी- सती ऐसा देखकर बहुत ही डर गईं। उनका हृदय काँपने लगा और देह की सारी सुध-बुध जाती रही। वे आँख मूँदकर मार्ग में बैठ गईं॥3॥

बहुरि बिलोकेउ नयन उघारी। कछु न दीख तहँ दच्छकुमारी॥
पुनि पुनि नाइ राम पद सीसा। चलीं तहाँ जहँ रहे गिरीसा॥4॥

मूल

बहुरि बिलोकेउ नयन उघारी। कछु न दीख तहँ दच्छकुमारी॥
पुनि पुनि नाइ राम पद सीसा। चलीं तहाँ जहँ रहे गिरीसा॥4॥

भावार्थ

फिर आँख खोलकर देखा, तो वहाँ दक्षकुमारी (सतीजी) को कुछ भी न दिख पडा। तब वे बार-बार श्री रामचन्द्रजी के चरणों में सिर नवाकर वहाँ चलीं, जहाँ श्री शिवजी थे॥4॥

055

01 दोहा

गईं समीप महेस तब हँसि पूछी कुसलात।
लीन्हि परीछा कवन बिधि कहहु सत्य सब बात॥55॥

मूल

गईं समीप महेस तब हँसि पूछी कुसलात।
लीन्हि परीछा कवन बिधि कहहु सत्य सब बात॥55॥

भावार्थ

जब पास पहुँचीं, तब श्री शिवजी ने हँसकर कुशल प्रश्न करके कहा कि तुमने रामजी की किस प्रकार परीक्षा ली, सारी बात सच-सच कहो॥55॥

मास पारायण, दूसरा विश्राम

मूल

मास पारायण, दूसरा विश्राम

02 चौपाई

सतीं समुझि रघुबीर प्रभाऊ। भय बस सिव सन कीन्ह दुराऊ॥
कछु न परीछा लीन्हि गोसाईं। कीन्ह प्रनामु तुम्हारिहि नाईं॥1॥

मूल

सतीं समुझि रघुबीर प्रभाऊ। भय बस सिव सन कीन्ह दुराऊ॥
कछु न परीछा लीन्हि गोसाईं। कीन्ह प्रनामु तुम्हारिहि नाईं॥1॥

भावार्थ

सतीजी ने श्री रघुनाथजी के प्रभाव को समझकर डर के मारे शिवजी से छिपाव किया और कहा- हे स्वामिन्‌! मैन्ने कुछ भी परीक्षा नहीं ली, (वहाँ जाकर) आपकी ही तरह प्रणाम किया॥1॥

जो तुम्ह कहा सो मृषा न होई। मोरें मन प्रतीति अति सोई॥
तब सङ्कर देखेउ धरि ध्याना। सतीं जो कीन्ह चरित सबु जाना॥2॥

मूल

जो तुम्ह कहा सो मृषा न होई। मोरें मन प्रतीति अति सोई॥
तब सङ्कर देखेउ धरि ध्याना। सतीं जो कीन्ह चरित सबु जाना॥2॥

भावार्थ

आपने जो कहा वह झूठ नहीं हो सकता, मेरे मन में यह बडा (पूरा) विश्वास है। तब शिवजी ने ध्यान करके देखा और सतीजी ने जो चरित्र किया था, सब जान लिया॥2॥

बहुरि राममायहि सिरु नावा। प्रेरि सतिहि जेहिं झूँठ कहावा॥
हरि इच्छा भावी बलवाना। हृदयँ बिचारत सम्भु सुजाना॥3॥

मूल

बहुरि राममायहि सिरु नावा। प्रेरि सतिहि जेहिं झूँठ कहावा॥
हरि इच्छा भावी बलवाना। हृदयँ बिचारत सम्भु सुजाना॥3॥

भावार्थ

फिर श्री रामचन्द्रजी की माया को सिर नवाया, जिसने प्रेरणा करके सती के मुँह से भी झूठ कहला दिया। सुजान शिवजी ने मन में विचार किया कि हरि की इच्छा रूपी भावी प्रबल है॥3॥

सतीं कीन्ह सीता कर बेषा। सिव उर भयउ बिषाद बिसेषा॥
जौं अब करउँ सती सन प्रीती। मिटइ भगति पथु होइ अनीती॥4॥

मूल

सतीं कीन्ह सीता कर बेषा। सिव उर भयउ बिषाद बिसेषा॥
जौं अब करउँ सती सन प्रीती। मिटइ भगति पथु होइ अनीती॥4॥

भावार्थ

सतीजी ने सीताजी का वेष धारण किया, यह जानकर शिवजी के हृदय में बडा विषाद हुआ।

उन्होन्ने सोचा कि यदि मैं अब सती से प्रीति करता हूँ तो भक्तिमार्ग लुप्त हो जाता है और बडा अन्याय होता है॥4॥

056

01 दोहा

परम पुनीत न जाइ तजि किएँ प्रेम बड पापु।
प्रगटि न कहत महेसु कछु हृदयँ अधिक सन्तापु॥56॥

मूल

परम पुनीत न जाइ तजि किएँ प्रेम बड पापु।
प्रगटि न कहत महेसु कछु हृदयँ अधिक सन्तापु॥56॥

भावार्थ

सती परम पवित्र हैं, इसलिए इन्हें छोडते भी नहीं बनता और प्रेम करने में बडा पाप है। प्रकट करके महादेवजी कुछ भी नहीं कहते, परन्तु उनके हृदय में बडा सन्ताप है॥56॥

02 चौपाई

तब सङ्कर प्रभु पद सिरु नावा। सुमिरत रामु हृदयँ अस आवा॥
एहिं तन सतिहि भेण्ट मोहि नाहीं। सिव सङ्कल्पु कीन्ह मन माहीं॥1॥

मूल

तब सङ्कर प्रभु पद सिरु नावा। सुमिरत रामु हृदयँ अस आवा॥
एहिं तन सतिहि भेण्ट मोहि नाहीं। सिव सङ्कल्पु कीन्ह मन माहीं॥1॥

भावार्थ

तब शिवजी ने प्रभु श्री रामचन्द्रजी के चरण कमलों में सिर नवाया और श्री रामजी का स्मरण करते ही उनके मन में यह आया कि सती के इस शरीर से मेरी (पति-पत्नी रूप में) भेण्ट नहीं हो सकती और शिवजी ने अपने मन में यह सङ्कल्प कर लिया॥1॥

अस बिचारि सङ्करु मतिधीरा। चले भवन सुमिरत रघुबीरा॥
चलत गगन भै गिरा सुहाई। जय महेस भलि भगति दृढाई॥2॥

मूल

अस बिचारि सङ्करु मतिधीरा। चले भवन सुमिरत रघुबीरा॥
चलत गगन भै गिरा सुहाई। जय महेस भलि भगति दृढाई॥2॥

भावार्थ

स्थिर बुद्धि शङ्करजी ऐसा विचार कर श्री रघुनाथजी का स्मरण करते हुए अपने घर (कैलास) को चले। चलते समय सुन्दर आकाशवाणी हुई कि हे महेश ! आपकी जय हो। आपने भक्ति की अच्छी दृढता की॥2॥

अस पन तुम्ह बिनु करइ को आना। रामभगत समरथ भगवाना॥
सुनि नभगिरा सती उर सोचा। पूछा सिवहि समेत सकोचा॥3॥

मूल

अस पन तुम्ह बिनु करइ को आना। रामभगत समरथ भगवाना॥
सुनि नभगिरा सती उर सोचा। पूछा सिवहि समेत सकोचा॥3॥

भावार्थ

आपको छोडकर दूसरा कौन ऐसी प्रतिज्ञा कर सकता है। आप श्री रामचन्द्रजी के भक्त हैं, समर्थ हैं और भगवान्‌ हैं। इस आकाशवाणी को सुनकर सतीजी के मन में चिन्ता हुई और उन्होन्ने सकुचाते हुए शिवजी से पूछा-॥3॥

कीन्ह कवन पन कहहु कृपाला। सत्यधाम प्रभु दीनदयाला॥
जदपि सतीं पूछा बहु भाँती। तदपि न कहेउ त्रिपुर आराती॥4॥

मूल

कीन्ह कवन पन कहहु कृपाला। सत्यधाम प्रभु दीनदयाला॥
जदपि सतीं पूछा बहु भाँती। तदपि न कहेउ त्रिपुर आराती॥4॥

भावार्थ

हे कृपालु! कहिए, आपने कौन सी प्रतिज्ञा की है? हे प्रभो! आप सत्य के धाम और दीनदयालु हैं। यद्यपि सतीजी ने बहुत प्रकार से पूछा, परन्तु त्रिपुरारि शिवजी ने कुछ न कहा॥4॥

057

01 दोहा

सतीं हृदयँ अनुमान किय सबु जानेउ सर्बग्य।
कीन्ह कपटु मैं सम्भु सन नारि सहज जड अग्य॥1॥

मूल

सतीं हृदयँ अनुमान किय सबु जानेउ सर्बग्य।
कीन्ह कपटु मैं सम्भु सन नारि सहज जड अग्य॥1॥

भावार्थ

सतीजी ने हृदय में अनुमान किया कि सर्वज्ञ शिवजी सब जान गए। मैन्ने शिवजी से कपट किया, स्त्री स्वभाव से ही मूर्ख और बेसमझ होती है॥1॥

02 सोरठा

जलु पय सरिस बिकाइ देखहु प्रीति कि रीति भलि।
बिलग होइ रसु जाइ कपट खटाई परत पुनि॥2॥

मूल

जलु पय सरिस बिकाइ देखहु प्रीति कि रीति भलि।
बिलग होइ रसु जाइ कपट खटाई परत पुनि॥2॥

भावार्थ

प्रीति की सुन्दर रीति देखिए कि जल भी (दूध के साथ मिलकर) दूध के समान भाव बिकता है, परन्तु फिर कपट रूपी खटाई पडते ही पानी अलग हो जाता है (दूध फट जाता है) और स्वाद (प्रेम) जाता रहता है॥2॥

03 चौपाई

हृदयँ सोचु समुझत निज करनी। चिन्ता अमित जाइ नहिं बरनी॥
कृपासिन्धु सिव परम अगाधा। प्रगट न कहेउ मोर अपराधा॥1॥

मूल

हृदयँ सोचु समुझत निज करनी। चिन्ता अमित जाइ नहिं बरनी॥
कृपासिन्धु सिव परम अगाधा। प्रगट न कहेउ मोर अपराधा॥1॥

भावार्थ

अपनी करनी को याद करके सतीजी के हृदय में इतना सोच है और इतनी अपार चिन्ता है कि जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता। (उन्होन्ने समझ लिया कि) शिवजी कृपा के परम अथाह सागर हैं। इससे प्रकट में उन्होन्ने मेरा अपराध नहीं कहा॥1॥

सङ्कर रुख अवलोकि भवानी। प्रभु मोहि तजेउ हृदयँ अकुलानी॥
निज अघ समुझि न कछु कहि जाई। तपइ अवाँ इव उर अधिकाई॥2॥

मूल

सङ्कर रुख अवलोकि भवानी। प्रभु मोहि तजेउ हृदयँ अकुलानी॥
निज अघ समुझि न कछु कहि जाई। तपइ अवाँ इव उर अधिकाई॥2॥

भावार्थ

शिवजी का रुख देखकर सतीजी ने जान लिया कि स्वामी ने मेरा त्याग कर दिया और वे हृदय में व्याकुल हो उठीं। अपना पाप समझकर कुछ कहते नहीं बनता, परन्तु हृदय (भीतर ही भीतर) कुम्हार के आँवे के समान अत्यन्त जलने लगा॥2॥

सतिहि ससोच जानि बृषकेतू। कहीं कथा सुन्दर सुख हेतू॥
बरनत पन्थ बिबिध इतिहासा। बिस्वनाथ पहुँचे कैलासा॥3॥

मूल

सतिहि ससोच जानि बृषकेतू। कहीं कथा सुन्दर सुख हेतू॥
बरनत पन्थ बिबिध इतिहासा। बिस्वनाथ पहुँचे कैलासा॥3॥

भावार्थ

वृषकेतु शिवजी ने सती को चिन्तायुक्त जानकर उन्हें सुख देने के लिए सुन्दर कथाएँ कहीं। इस प्रकार मार्ग में विविध प्रकार के इतिहासों को कहते हुए विश्वनाथ कैलास जा पहुँचे॥3॥

तहँ पुनि सम्भु समुझि पन आपन। बैठे बट तर करि कमलासन॥
सङ्कर सहज सरूपु सम्हारा। लागि समाधि अखण्ड अपारा॥4॥

मूल

तहँ पुनि सम्भु समुझि पन आपन। बैठे बट तर करि कमलासन॥
सङ्कर सहज सरूपु सम्हारा। लागि समाधि अखण्ड अपारा॥4॥

भावार्थ

वहाँ फिर शिवजी अपनी प्रतिज्ञा को याद करके बड के पेड के नीचे पद्मासन लगाकर बैठ गए। शिवजी ने अपना स्वाभाविक रूप सम्भाला। उनकी अखण्ड और अपार समाधि लग गई॥4॥

058

01 दोहा

सती बसहिं कैलास तब अधिक सोचु मन माहिं।
मरमु न कोऊ जान कछु जुग सम दिवस सिराहिं॥58॥

मूल

सती बसहिं कैलास तब अधिक सोचु मन माहिं।
मरमु न कोऊ जान कछु जुग सम दिवस सिराहिं॥58॥

भावार्थ

तब सतीजी कैलास पर रहने लगीं। उनके मन में बडा दुःख था। इस रहस्य को कोई कुछ भी नहीं जानता था। उनका एक-एक दिन युग के समान बीत रहा था॥58॥

02 चौपाई

नित नव सोचु सती उर भारा। कब जैहउँ दुख सागर पारा॥
मैं जो कीन्ह रघुपति अपमाना। पुनि पतिबचनु मृषा करि जाना॥1॥

मूल

नित नव सोचु सती उर भारा। कब जैहउँ दुख सागर पारा॥
मैं जो कीन्ह रघुपति अपमाना। पुनि पतिबचनु मृषा करि जाना॥1॥

भावार्थ

सतीजी के हृदय में नित्य नया और भारी सोच हो रहा था कि मैं इस दुःख समुद्र के पार कब जाऊँगी। मैन्ने जो श्री रघुनाथजी का अपमान किया और फिर पति के वचनों को झूठ जाना-॥1॥

सो फलु मोहि बिधाताँ दीन्हा। जो कछु उचित रहा सोइ कीन्हा॥
अब बिधि अस बूझिअ नहिं तोही। सङ्कर बिमुख जिआवसि मोही॥2॥

मूल

सो फलु मोहि बिधाताँ दीन्हा। जो कछु उचित रहा सोइ कीन्हा॥
अब बिधि अस बूझिअ नहिं तोही। सङ्कर बिमुख जिआवसि मोही॥2॥

भावार्थ

उसका फल विधाता ने मुझको दिया, जो उचित था वही किया, परन्तु हे विधाता! अब तुझे यह उचित नहीं है, जो शङ्कर से विमुख होने पर भी मुझे जिला रहा है॥2॥

कहि न जाइ कछु हृदय गलानी। मन महुँ रामहि सुमिर सयानी॥
जौं प्रभु दीनदयालु कहावा। आरति हरन बेद जसु गावा॥3॥

मूल

कहि न जाइ कछु हृदय गलानी। मन महुँ रामहि सुमिर सयानी॥
जौं प्रभु दीनदयालु कहावा। आरति हरन बेद जसु गावा॥3॥

भावार्थ

सतीजी के हृदय की ग्लानि कुछ कही नहीं जाती। बुद्धिमती सतीजी ने मन में श्री रामचन्द्रजी का स्मरण किया और कहा- हे प्रभो! यदि आप दीनदयालु कहलाते हैं और वेदों ने आपका यह यश गाया है कि आप दुःख को हरने वाले हैं, ॥3॥

तौ मैं बिनय करउँ कर जोरी। छूटउ बेगि देह यह मोरी॥
जौं मोरें सिव चरन सनेहू। मन क्रम बचन सत्य ब्रतु एहू॥4॥

मूल

तौ मैं बिनय करउँ कर जोरी। छूटउ बेगि देह यह मोरी॥
जौं मोरें सिव चरन सनेहू। मन क्रम बचन सत्य ब्रतु एहू॥4॥

भावार्थ

तो मैं हाथ जोडकर विनती करती हूँ कि मेरी यह देह जल्दी छूट जाए। यदि मेरा शिवजी के चरणों में प्रेम है और मेरा यह (प्रेम का) व्रत मन, वचन और कर्म (आचरण) से सत्य है,॥4॥

059

01 दोहा

तौ सबदरसी सुनिअ प्रभु करउ सो बेगि उपाइ।
होइ मरनु जेहिं बिनहिं श्रम दुसह बिपत्ति बिहाइ॥59॥

मूल

तौ सबदरसी सुनिअ प्रभु करउ सो बेगि उपाइ।
होइ मरनु जेहिं बिनहिं श्रम दुसह बिपत्ति बिहाइ॥59॥

भावार्थ

तो हे सर्वदर्शी प्रभो! सुनिए और शीघ्र वह उपाय कीजिए, जिससे मेरा मरण हो और बिना ही परिश्रम यह (पति-परित्याग रूपी) असह्य विपत्ति दूर हो जाए॥59॥

02 चौपाई

एहि बिधि दुखित प्रजेसकुमारी। अकथनीय दारुन दुखु भारी॥
बीतें सम्बत सहस सतासी। तजी समाधि सम्भु अबिनासी॥1॥

मूल

एहि बिधि दुखित प्रजेसकुमारी। अकथनीय दारुन दुखु भारी॥
बीतें सम्बत सहस सतासी। तजी समाधि सम्भु अबिनासी॥1॥

भावार्थ

दक्षसुता सतीजी इस प्रकार बहुत दुःखित थीं, उनको इतना दारुण दुःख था कि जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता। सत्तासी हजार वर्ष बीत जाने पर अविनाशी शिवजी ने समाधि खोली॥1॥

राम नाम सिव सुमिरन लागे। जानेउ सतीं जगतपति जागे॥
जाइ सम्भु पद बन्दनु कीन्हा। सनमुख सङ्कर आसनु दीन्हा॥2॥

मूल

राम नाम सिव सुमिरन लागे। जानेउ सतीं जगतपति जागे॥
जाइ सम्भु पद बन्दनु कीन्हा। सनमुख सङ्कर आसनु दीन्हा॥2॥

भावार्थ

शिवजी रामनाम का स्मरण करने लगे, तब सतीजी ने जाना कि अब जगत के स्वामी (शिवजी) जागे। उन्होन्ने जाकर शिवजी के चरणों में प्रणाम किया। शिवजी ने उनको बैठने के लिए सामने आसन दिया॥2॥

लगे कहन हरि कथा रसाला। दच्छ प्रजेस भए तेहि काला॥
देखा बिधि बिचारि सब लायक। दच्छहि कीन्ह प्रजापति नायक॥3॥

मूल

लगे कहन हरि कथा रसाला। दच्छ प्रजेस भए तेहि काला॥
देखा बिधि बिचारि सब लायक। दच्छहि कीन्ह प्रजापति नायक॥3॥

भावार्थ

शिवजी भगवान हरि की रसमयी कथाएँ कहने लगे। उसी समय दक्ष प्रजापति हुए। ब्रह्माजी ने सब प्रकार से योग्य देख-समझकर दक्ष को प्रजापतियों का नायक बना दिया॥3॥

बड अधिकार दच्छ जब पावा। अति अभिनामु हृदयँ तब आवा॥
नहिं कोउ अस जनमा जग माहीं। प्रभुता पाइ जाहि मद नाहीं॥4॥

मूल

बड अधिकार दच्छ जब पावा। अति अभिनामु हृदयँ तब आवा॥
नहिं कोउ अस जनमा जग माहीं। प्रभुता पाइ जाहि मद नाहीं॥4॥

भावार्थ

जब दक्ष ने इतना बडा अधिकार पाया, तब उनके हृदय में अत्यन्त अभिमान आ गया।

जगत में ऐसा कोई नहीं पैदा हुआ, जिसको प्रभुता पाकर मद न हो॥4॥

060

01 दोहा

दच्छ लिए मुनि बोलि सब करन लगे बड जाग।
नेवते सादर सकल सुर जे पावत मख भाग॥60॥

मूल

दच्छ लिए मुनि बोलि सब करन लगे बड जाग।
नेवते सादर सकल सुर जे पावत मख भाग॥60॥

भावार्थ

दक्ष ने सब मुनियों को बुला लिया और वे बडा यज्ञ करने लगे। जो देवता यज्ञ का भाग पाते हैं, दक्ष ने उन सबको आदर सहित निमन्त्रित किया॥60॥

02 चौपाई

किन्नर नाग सिद्ध गन्धर्बा। बधुन्ह समेत चले सुर सर्बा॥
बिष्नु बिरञ्चि महेसु बिहाई। चले सकल सुर जान बनाई॥1॥

मूल

किन्नर नाग सिद्ध गन्धर्बा। बधुन्ह समेत चले सुर सर्बा॥
बिष्नु बिरञ्चि महेसु बिहाई। चले सकल सुर जान बनाई॥1॥

भावार्थ

(दक्ष का निमन्त्रण पाकर) किन्नर, नाग, सिद्ध, गन्धर्व और सब देवता अपनी-अपनी स्त्रियों सहित चले। विष्णु, ब्रह्मा और महादेवजी को छोडकर सभी देवता अपना-अपना विमान सजाकर चले॥1॥

सतीं बिलोके ब्योम बिमाना। जात चले सुन्दर बिधि नाना॥
सुर सुन्दरी करहिं कल गाना। सुनत श्रवन छूटहिं मुनि ध्याना॥2॥

मूल

सतीं बिलोके ब्योम बिमाना। जात चले सुन्दर बिधि नाना॥
सुर सुन्दरी करहिं कल गाना। सुनत श्रवन छूटहिं मुनि ध्याना॥2॥

भावार्थ

सतीजी ने देखा, अनेकों प्रकार के सुन्दर विमान आकाश में चले जा रहे हैं, देव-सुन्दरियाँ मधुर गान कर रही हैं, जिन्हें सुनकर मुनियों का ध्यान छूट जाता है॥2॥

पूछेउ तब सिवँ कहेउ बखानी। पिता जग्य सुनि कछु हरषानी॥
जौं महेसु मोहि आयसु देहीं। कछु िदन जाइ रहौं मिस एहीं॥3॥

मूल

पूछेउ तब सिवँ कहेउ बखानी। पिता जग्य सुनि कछु हरषानी॥
जौं महेसु मोहि आयसु देहीं। कछु िदन जाइ रहौं मिस एहीं॥3॥

भावार्थ

सतीजी ने (विमानों में देवताओं के जाने का कारण) पूछा, तब शिवजी ने सब बातें बतलाईं। पिता के यज्ञ की बात सुनकर सती कुछ प्रसन्न हुईं और सोचने लगीं कि यदि महादेवजी मुझे आज्ञा दें, तो इसी बहाने कुछ दिन पिता के घर जाकर रहूँ॥3॥

पति परित्याग हृदयँ दुखु भारी। कहइ न निज अपराध बिचारी॥
बोली सती मनोहर बानी। भय सङ्कोच प्रेम रस सानी॥4॥

मूल

पति परित्याग हृदयँ दुखु भारी। कहइ न निज अपराध बिचारी॥
बोली सती मनोहर बानी। भय सङ्कोच प्रेम रस सानी॥4॥

भावार्थ

क्योङ्कि उनके हृदय में पति द्वारा त्यागी जाने का बडा भारी दुःख था, पर अपना अपराध समझकर वे कुछ कहती न थीं। आखिर सतीजी भय, सङ्कोच और प्रेमरस में सनी हुई मनोहर वाणी से बोलीं- ॥4॥

061

01 दोहा

पिता भवन उत्सव परम जौं प्रभु आयसु होइ।
तौ मैं जाउँ कृपायतन सादर देखन सोइ॥61॥

मूल

पिता भवन उत्सव परम जौं प्रभु आयसु होइ।
तौ मैं जाउँ कृपायतन सादर देखन सोइ॥61॥

भावार्थ

हे प्रभो! मेरे पिता के घर बहुत बडा उत्सव है। यदि आपकी आज्ञा हो तो हे कृपाधाम! मैं आदर सहित उसे देखने जाऊँ॥61॥

02 चौपाई

कहेहु नीक मोरेहूँ मन भावा। यह अनुचित नहिं नेवत पठावा॥
दच्छ सकल निज सुता बोलाईं। हमरें बयर तुम्हउ बिसराईं॥1॥

मूल

कहेहु नीक मोरेहूँ मन भावा। यह अनुचित नहिं नेवत पठावा॥
दच्छ सकल निज सुता बोलाईं। हमरें बयर तुम्हउ बिसराईं॥1॥

भावार्थ

शिवजी ने कहा- तुमने बात तो अच्छी कही, यह मेरे मन को भी पसन्द आई पर उन्होन्ने न्योता नहीं भेजा, यह अनुचित है। दक्ष ने अपनी सब लडकियों को बुलाया है, किन्तु हमारे बैर के कारण उन्होन्ने तुमको भी भुला दिया॥1॥

ब्रह्मसभाँ हम सन दुखु माना। तेहि तें अजहुँ करहिं अपमाना॥
जौं बिनु बोलें जाहु भवानी। रहइ न सीलु सनेहु न कानी॥2॥

मूल

ब्रह्मसभाँ हम सन दुखु माना। तेहि तें अजहुँ करहिं अपमाना॥
जौं बिनु बोलें जाहु भवानी। रहइ न सीलु सनेहु न कानी॥2॥

भावार्थ

एक बार ब्रह्मा की सभा में हम से अप्रसन्न हो गए थे, उसी से वे अब भी हमारा अपमान करते हैं। हे भवानी! जो तुम बिना बुलाए जाओगी तो न शील-स्नेह ही रहेगा और न मान-मर्यादा ही रहेगी॥2॥

जदपि मित्र प्रभु पितु गुर गेहा। जाइअ बिनु बोलेहुँ न सँदेहा॥
तदपि बिरोध मान जहँ कोई। तहाँ गएँ कल्यानु न होई॥3॥

मूल

जदपि मित्र प्रभु पितु गुर गेहा। जाइअ बिनु बोलेहुँ न सँदेहा॥
तदपि बिरोध मान जहँ कोई। तहाँ गएँ कल्यानु न होई॥3॥

भावार्थ

यद्यपि इसमें सन्देह नहीं कि मित्र, स्वामी, पिता और गुरु के घर बिना बुलाए भी जाना चाहिए तो भी जहाँ कोई विरोध मानता हो, उसके घर जाने से कल्याण नहीं होता॥3॥

भाँति अनेक सम्भु समुझावा। भावी बस न ग्यानु उर आवा॥
कह प्रभु जाहु जो बिनहिं बोलाएँ। नहिं भलि बात हमारे भाएँ॥4॥

मूल

भाँति अनेक सम्भु समुझावा। भावी बस न ग्यानु उर आवा॥
कह प्रभु जाहु जो बिनहिं बोलाएँ। नहिं भलि बात हमारे भाएँ॥4॥

भावार्थ

शिवजी ने बहुत प्रकार से समझाया, पर होनहारवश सती के हृदय में बोध नहीं हुआ। फिर शिवजी ने कहा कि यदि बिना बुलाए जाओगी, तो हमारी समझ में अच्छी बात न होगी॥4॥

062

01 दोहा

कहि देखा हर जतन बहु रहइ न दच्छकुमारि।
दिए मुख्य गन सङ्ग तब बिदा कीन्ह त्रिपुरारि॥62॥

मूल

कहि देखा हर जतन बहु रहइ न दच्छकुमारि।
दिए मुख्य गन सङ्ग तब बिदा कीन्ह त्रिपुरारि॥62॥

भावार्थ

शिवजी ने बहुत प्रकार से कहकर देख लिया, किन्तु जब सती किसी प्रकार भी नहीं रुकीं, तब त्रिपुरारि महादेवजी ने अपने मुख्य गणों को साथ देकर उनको बिदा कर दिया॥62॥

02 चौपाई

पिता भवन जब गईं भवानी। दच्छ त्रास काहुँ न सनमानी॥
सादर भलेहिं मिली एक माता। भगिनीं मिलीं बहुत मुसुकाता॥1॥

मूल

पिता भवन जब गईं भवानी। दच्छ त्रास काहुँ न सनमानी॥
सादर भलेहिं मिली एक माता। भगिनीं मिलीं बहुत मुसुकाता॥1॥

भावार्थ

भवानी जब पिता (दक्ष) के घर पहुँची, तब दक्ष के डर के मारे किसी ने उनकी आवभगत नहीं की, केवल एक माता भले ही आदर से मिली। बहिनें बहुत मुस्कुराती हुई मिलीं॥1॥

दच्छ न कछु पूछी कुसलाता। सतिहि बिलोकी जरे सब गाता॥
सतीं जाइ देखेउ तब जागा। कतहूँ न दीख सम्भु कर भागा॥2॥

मूल

दच्छ न कछु पूछी कुसलाता। सतिहि बिलोकी जरे सब गाता॥
सतीं जाइ देखेउ तब जागा। कतहूँ न दीख सम्भु कर भागा॥2॥

भावार्थ

दक्ष ने तो उनकी कुछ कुशल तक नहीं पूछी, सतीजी को देखकर उलटे उनके सारे अङ्ग जल उठे। तब सती ने जाकर यज्ञ देखा तो वहाँ कहीं शिवजी का भाग दिखाई नहीं दिया॥2॥

तब चित चढेउ जो सङ्कर कहेऊ। प्रभु अपमानु समुझि उर दहेऊ॥
पाछिल दुखु न हृदयँ अस ब्यापा। जस यह भयउ महा परितापा॥3॥

मूल

तब चित चढेउ जो सङ्कर कहेऊ। प्रभु अपमानु समुझि उर दहेऊ॥
पाछिल दुखु न हृदयँ अस ब्यापा। जस यह भयउ महा परितापा॥3॥

भावार्थ

तब शिवजी ने जो कहा था, वह उनकी समझ में आया। स्वामी का अपमान समझकर सती का हृदय जल उठा। पिछला (पति परित्याग का) दुःख उनके हृदय में उतना नहीं व्यापा था, जितना महान्‌ दुःख इस समय (पति अपमान के कारण) हुआ॥3॥

जद्यपि जग दारुन दुख नाना। सब तें कठिन जाति अवमाना॥
समुझि सो सतिहि भयउ अति क्रोधा। बहु बिधि जननीं कीन्ह प्रबोधा॥4॥

मूल

जद्यपि जग दारुन दुख नाना। सब तें कठिन जाति अवमाना॥
समुझि सो सतिहि भयउ अति क्रोधा। बहु बिधि जननीं कीन्ह प्रबोधा॥4॥

भावार्थ

यद्यपि जगत में अनेक प्रकार के दारुण दुःख हैं, तथापि, जाति अपमान सबसे बढकर कठिन है।

यह समझकर सतीजी को बडा क्रोध हो आया। माता ने उन्हें बहुत प्रकार से समझाया-बुझाया॥4॥

063

01 दोहा

सिव अपमानु न जाइ सहि हृदयँ न होइ प्रबोध।
सकल सभहि हठि हटकि तब बोलीं बचन सक्रोध॥63॥

मूल

सिव अपमानु न जाइ सहि हृदयँ न होइ प्रबोध।
सकल सभहि हठि हटकि तब बोलीं बचन सक्रोध॥63॥

भावार्थ

परन्तु उनसे शिवजी का अपमान सहा नहीं गया, इससे उनके हृदय में कुछ भी प्रबोध नहीं हुआ। तब वे सारी सभा को हठपूर्वक डाँटकर क्रोधभरे वचन बोलीं-॥63॥

02 चौपाई

सुनहु सभासद सकल मुनिन्दा। कही सुनी जिन्ह सङ्कर निन्दा॥
सो फलु तुरत लहब सब काहूँ। भली भाँति पछिताब पिताहूँ॥1॥

मूल

सुनहु सभासद सकल मुनिन्दा। कही सुनी जिन्ह सङ्कर निन्दा॥
सो फलु तुरत लहब सब काहूँ। भली भाँति पछिताब पिताहूँ॥1॥

भावार्थ

हे सभासदों और सब मुनीश्वरो! सुनो। जिन लोगों ने यहाँ शिवजी की निन्दा की या सुनी है, उन सबको उसका फल तुरन्त ही मिलेगा और मेरे पिता दक्ष भी भलीभाँति पछताएँगे॥1॥

सन्त सम्भु श्रीपति अपबादा। सुनिअ जहाँ तहँ असि मरजादा॥
काटिअ तासु जीभ जो बसाई। श्रवन मूदि न त चलिअ पराई॥2॥

मूल

सन्त सम्भु श्रीपति अपबादा। सुनिअ जहाँ तहँ असि मरजादा॥
काटिअ तासु जीभ जो बसाई। श्रवन मूदि न त चलिअ पराई॥2॥

भावार्थ

जहाँ सन्त, शिवजी और लक्ष्मीपति श्री विष्णु भगवान की निन्दा सुनी जाए, वहाँ ऐसी मर्यादा है कि यदि अपना वश चले तो उस (निन्दा करने वाले) की जीभ काट लें और नहीं तो कान मूँदकर वहाँ से भाग जाएँ॥2॥

जगदातमा महेसु पुरारी। जगत जनक सब के हितकारी॥
पिता मन्दमति निन्दत तेही। दच्छ सुक्र सम्भव यह देही॥3॥

मूल

जगदातमा महेसु पुरारी। जगत जनक सब के हितकारी॥
पिता मन्दमति निन्दत तेही। दच्छ सुक्र सम्भव यह देही॥3॥

भावार्थ

त्रिपुर दैत्य को मारने वाले भगवान महेश्वर सम्पूर्ण जगत की आत्मा हैं, वे जगत्पिता और सबका हित करने वाले हैं। मेरा मन्दबुद्धि पिता उनकी निन्दा करता है और मेरा यह शरीर दक्ष ही के वीर्य से उत्पन्न है॥3॥

तजिहउँ तुरत देह तेहि हेतू। उर धरि चन्द्रमौलि बृषकेतू॥
अस कहि जोग अगिनि तनु जारा। भयउ सकल मख हाहाकारा॥4॥

मूल

तजिहउँ तुरत देह तेहि हेतू। उर धरि चन्द्रमौलि बृषकेतू॥
अस कहि जोग अगिनि तनु जारा। भयउ सकल मख हाहाकारा॥4॥

भावार्थ

इसलिए चन्द्रमा को ललाट पर धारण करने वाले वृषकेतु शिवजी को हृदय में धारण करके मैं इस शरीर को तुरन्त ही त्याग दूँगी। ऐसा कहकर सतीजी ने योगाग्नि में अपना शरीर भस्म कर डाला। सारी यज्ञशाला में हाहाकार मच गया॥4॥

064

01 दोहा

सती मरनु सुनि सम्भु गन लगे करन मख खीस।
जग्य बिधंस बिलोकि भृगु रच्छा कीन्हि मुनीस॥64॥ ॥

भावार्थ

सती का मरण सुनकर शिवजी के गण यज्ञ विध्वंस करने लगे। यज्ञ विध्वंस होते देखकर मुनीश्वर भृगुजी ने उसकी रक्षा की॥64॥

02 चौपाई

समाचार सब सङ्कर पाए। बीरभद्रु करि कोप पठाए॥
जग्य बिधंस जाइ तिन्ह कीन्हा। सकल सुरन्ह बिधिवत फलु दीन्हा॥1॥

भावार्थ

ये सब समाचार शिवजी को मिले, तब उन्होन्ने क्रोध करके वीरभद्र को भेजा। उन्होन्ने वहाँ जाकर यज्ञ विध्वंस कर डाला और सब देवताओं को यथोचित फल (दण्ड) दिया॥1॥

भै जगबिदित दच्छ गति सोई। जसि कछु सम्भु बिमुख कै होई॥
यह इतिहास सकल जग जानी। ताते मैं सञ्छेप बखानी॥2॥

भावार्थ

दक्ष की जगत्प्रसिद्ध वही गति हुई, जो शिवद्रोही की हुआ करती है। यह इतिहास सारा संसार जानता है, इसलिए मैन्ने सङ्क्षेप में वर्णन किया॥2॥सतीं मरत हरि सन बरु मागा। जनम जनम सिव पद अनुरागा॥

तेहि कारन हिमगिरि गृह जाई। जनमीं पारबती तनु पाई॥3॥

भावार्थ

सती ने मरते समय भगवान हरि से यह वर माँगा कि मेरा जन्म-जन्म में शिवजी के चरणों में अनुराग रहे। इसी कारण उन्होन्ने हिमाचल के घर जाकर पार्वती के शरीर से जन्म लिया॥3॥

जब तें उमा सैल गृह जाईं। सकल सिद्धि सम्पति तहँ छाईं॥
जहँ तहँ मुनिन्ह सुआश्रम कीन्हे। उचित बास हिम भूधर दीन्हे॥4॥

भावार्थ

जब से उमाजी हिमाचल के घर जन्मीं, तबसे वहाँ सारी सिद्धियाँ और सम्पत्तियाँ छा गईं। मुनियों ने जहाँ-तहाँ सुन्दर आश्रम बना लिए और हिमाचल ने उनको उचित स्थान दिए॥4॥

065

01 दोहा

सदा सुमन फल सहित सब द्रुम नव नाना जाति।
प्रगटीं सुन्दर सैल पर मनि आकर बहु भाँति॥65॥

मूल

सदा सुमन फल सहित सब द्रुम नव नाना जाति।
प्रगटीं सुन्दर सैल पर मनि आकर बहु भाँति॥65॥

भावार्थ

उस सुन्दर पर्वत पर बहुत प्रकार के सब नए-नए वृक्ष सदा पुष्प-फलयुक्त हो गए और वहाँ बहुत तरह की मणियों की खानें प्रकट हो गईं॥65॥

02 चौपाई

सरिता सब पुनीत जलु बहहीं। खग मृग मधुप सुखी सब रहहीं॥
सहज बयरु सब जीवन्ह त्यागा। गिरि पर सकल करहिं अनुरागा॥1॥

मूल

सरिता सब पुनीत जलु बहहीं। खग मृग मधुप सुखी सब रहहीं॥
सहज बयरु सब जीवन्ह त्यागा। गिरि पर सकल करहिं अनुरागा॥1॥

भावार्थ

सारी नदियों में पवित्र जल बहता है और पक्षी, पशु, भ्रमर सभी सुखी रहते हैं। सब जीवों ने अपना स्वाभाविक बैर छोड दिया और पर्वत पर सभी परस्पर प्रेम करते हैं॥1॥

सोह सैल गिरिजा गृह आएँ। जिमि जनु रामभगति के पाएँ॥
नित नूतन मङ्गल गृह तासू। ब्रह्मादिक गावहिं जसु जासू॥2॥

मूल

सोह सैल गिरिजा गृह आएँ। जिमि जनु रामभगति के पाएँ॥
नित नूतन मङ्गल गृह तासू। ब्रह्मादिक गावहिं जसु जासू॥2॥

भावार्थ

पार्वतीजी के घर आ जाने से पर्वत ऐसा शोभायमान हो रहा है जैसा रामभक्ति को पाकर भक्त शोभायमान होता है। उस (पर्वतराज) के घर नित्य नए-नए मङ्गलोत्सव होते हैं, जिसका ब्रह्मादि यश गाते हैं॥2॥

नारद समाचार सब पाए। कोतुकहीं गिरि गेह सिधाए॥
सैलराज बड आदर कीन्हा। पद पखारि बर आसनु दीन्हा॥3॥

मूल

नारद समाचार सब पाए। कोतुकहीं गिरि गेह सिधाए॥
सैलराज बड आदर कीन्हा। पद पखारि बर आसनु दीन्हा॥3॥

भावार्थ

जब नारदजी ने ये सब समाचार सुने तो वे कौतुक ही से हिमाचल के घर पधारे। पर्वतराज ने उनका बडा आदर किया और चरण धोकर उनको उत्तम आसन दिया॥3॥

नारि सहित मुनि पद सिरु नावा। चरन सलिल सबु भवनु सिञ्चावा॥
निज सौभाग्य बहुत गिरि बरना। सुता बोलि मेली मुनि चरना॥4॥

मूल

नारि सहित मुनि पद सिरु नावा। चरन सलिल सबु भवनु सिञ्चावा॥
निज सौभाग्य बहुत गिरि बरना। सुता बोलि मेली मुनि चरना॥4॥

भावार्थ

फिर अपनी स्त्री सहित मुनि के चरणों में सिर नवाया और उनके चरणोदक को सारे घर में छिडकाया। हिमाचल ने अपने सौभाग्य का बहुत बखान किया और पुत्री को बुलाकर मुनि के चरणों पर डाल दिया॥4॥

066

01 दोहा

त्रिकालग्य सर्बग्य तुम्ह गति सर्बत्र तुम्हारि।
कहहु सुता के दोष गुन मुनिबर हृदयँ बिचारि॥66॥

मूल

त्रिकालग्य सर्बग्य तुम्ह गति सर्बत्र तुम्हारि।
कहहु सुता के दोष गुन मुनिबर हृदयँ बिचारि॥66॥

भावार्थ

(और कहा-) हे मुनिवर! आप त्रिकालज्ञ और सर्वज्ञ हैं, आपकी सर्वत्र पहुँच है। अतः आप हृदय में विचार कर कन्या के दोष-गुण कहिए॥66॥

02 चौपाई

कह मुनि बिहसि गूढ मृदु बानी। सुता तुम्हारि सकल गुन खानी॥
सुन्दर सहज सुसील सयानी। नाम उमा अम्बिका भवानी॥1॥

मूल

कह मुनि बिहसि गूढ मृदु बानी। सुता तुम्हारि सकल गुन खानी॥
सुन्दर सहज सुसील सयानी। नाम उमा अम्बिका भवानी॥1॥

भावार्थ

नारद मुनि ने हँसकर रहस्ययुक्त कोमल वाणी से कहा- तुम्हारी कन्या सब गुणों की खान है। यह स्वभाव से ही सुन्दर, सुशील और समझदार है। उमा, अम्बिका और भवानी इसके नाम हैं॥1॥

सब लच्छन सम्पन्न कुमारी। होइहि सन्तत पियहि पिआरी॥
सदा अचल एहि कर अहिवाता। एहि तें जसु पैहहिं पितु माता॥2॥

मूल

सब लच्छन सम्पन्न कुमारी। होइहि सन्तत पियहि पिआरी॥
सदा अचल एहि कर अहिवाता। एहि तें जसु पैहहिं पितु माता॥2॥

भावार्थ

कन्या सब सुलक्षणों से सम्पन्न है, यह अपने पति को सदा प्यारी होगी। इसका सुहाग सदा अचल रहेगा और इससे इसके माता-पिता यश पावेङ्गे॥2॥

होइहि पूज्य सकल जग माहीं। एहि सेवत कछु दुर्लभ नाहीं॥
एहि कर नामु सुमिरि संसारा। त्रिय चढिहहिं पतिब्रत असिधारा॥3॥

मूल

होइहि पूज्य सकल जग माहीं। एहि सेवत कछु दुर्लभ नाहीं॥
एहि कर नामु सुमिरि संसारा। त्रिय चढिहहिं पतिब्रत असिधारा॥3॥

भावार्थ

यह सारे जगत में पूज्य होगी और इसकी सेवा करने से कुछ भी दुर्लभ न होगा। संसार में स्त्रियाँ इसका नाम स्मरण करके पतिव्रता रूपी तलवार की धार पर चढ जाएँगी॥3॥

सैल सुलच्छन सुता तुम्हारी। सुनहु जे अब अवगुन दुइ चारी॥
अगुन अमान मातु पितु हीना। उदासीन सब संसय छीना॥4॥

मूल

सैल सुलच्छन सुता तुम्हारी। सुनहु जे अब अवगुन दुइ चारी॥
अगुन अमान मातु पितु हीना। उदासीन सब संसय छीना॥4॥

भावार्थ

हे पर्वतराज! तुम्हारी कन्या सुलच्छनी है। अब इसमें जो दो-चार अवगुण हैं, उन्हें भी सुन लो। गुणहीन, मानहीन, माता-पिताविहीन, उदासीन, संशयहीन (लापरवाह)॥4॥

067

01 दोहा

जोगी जटिल अकाम मन नगन अमङ्गल बेष।
अस स्वामी एहि कहँ मिलिहि परी हस्त असि रेख॥67॥

मूल

जोगी जटिल अकाम मन नगन अमङ्गल बेष।
अस स्वामी एहि कहँ मिलिहि परी हस्त असि रेख॥67॥

भावार्थ

योगी, जटाधारी, निष्काम हृदय, नङ्गा और अमङ्गल वेष वाला, ऐसा पति इसको मिलेगा। इसके हाथ में ऐसी ही रेखा पडी है॥67॥

02 चौपाई

सुनि मुनि गिरा सत्य जियँ जानी। दुख दम्पतिहि उमा हरषानी॥
नारदहूँ यह भेदु न जाना। दसा एक समुझब बिलगाना॥1॥

मूल

सुनि मुनि गिरा सत्य जियँ जानी। दुख दम्पतिहि उमा हरषानी॥
नारदहूँ यह भेदु न जाना। दसा एक समुझब बिलगाना॥1॥

भावार्थ

नारद मुनि की वाणी सुनकर और उसको हृदय में सत्य जानकर पति-पत्नी (हिमवान्‌ और मैना) को दुःख हुआ और पार्वतीजी प्रसन्न हुईं। नारदजी ने भी इस रहस्य को नहीं जाना, क्योङ्कि सबकी बाहरी दशा एक सी होने पर भी भीतरी समझ भिन्न-भिन्न थी॥1॥

सकल सखीं गिरिजा गिरि मैना। पुलक सरीर भरे जल नैना॥
होइ न मृषा देवरिषि भाषा। उमा सो बचनु हृदयँ धरि राखा॥2॥

मूल

सकल सखीं गिरिजा गिरि मैना। पुलक सरीर भरे जल नैना॥
होइ न मृषा देवरिषि भाषा। उमा सो बचनु हृदयँ धरि राखा॥2॥

भावार्थ

सारी सखियाँ, पार्वती, पर्वतराज हिमवान्‌ और मैना सभी के शरीर पुलकित थे और सभी के नेत्रों में जल भरा था। देवर्षि के वचन असत्य नहीं हो सकते, (यह विचारकर) पार्वती ने उन वचनों को हृदय में धारण कर लिया॥2॥

उपजेउ सिव पद कमल सनेहू। मिलन कठिन मन भा सन्देहू॥
जानि कुअवसरु प्रीति दुराई। सखी उछँग बैठी पुनि जाई॥3॥

मूल

उपजेउ सिव पद कमल सनेहू। मिलन कठिन मन भा सन्देहू॥
जानि कुअवसरु प्रीति दुराई। सखी उछँग बैठी पुनि जाई॥3॥

भावार्थ

उन्हें शिवजी के चरण कमलों में स्नेह उत्पन्न हो आया, परन्तु मन में यह सन्देह हुआ कि उनका मिलना कठिन है। अवसर ठीक न जानकर उमा ने अपने प्रेम को छिपा लिया और फिर वे सखी की गोद में जाकर बैठ गईं॥3॥

झूठि न होइ देवरिषि बानी। सोचहिं दम्पति सखीं सयानी॥
उर धरि धीर कहइ गिरिराऊ। कहहु नाथ का करिअ उपाऊ॥4॥

मूल

झूठि न होइ देवरिषि बानी। सोचहिं दम्पति सखीं सयानी॥
उर धरि धीर कहइ गिरिराऊ। कहहु नाथ का करिअ उपाऊ॥4॥

भावार्थ

देवर्षि की वाणी झूठी न होगी, यह विचार कर हिमवान्‌, मैना और सारी चतुर सखियाँ चिन्ता करने लगीं। फिर हृदय में धीरज धरकर पर्वतराज ने कहा- हे नाथ! कहिए, अब क्या उपाय किया जाए?॥4॥

068

01 दोहा

कह मुनीस हिमवन्त सुनु जो बिधि लिखा लिलार।
देव दनुज नर नाग मुनि कोउ न मेटनिहार॥68॥

मूल

कह मुनीस हिमवन्त सुनु जो बिधि लिखा लिलार।
देव दनुज नर नाग मुनि कोउ न मेटनिहार॥68॥

भावार्थ

मुनीश्वर ने कहा- हे हिमवान्‌! सुनो, विधाता ने ललाट पर जो कुछ लिख दिया है, उसको देवता, दानव, मनुष्य, नाग और मुनि कोई भी नहीं मिटा सकते॥68॥

02 चौपाई

तदपि एक मैं कहउँ उपाई। होइ करै जौं दैउ सहाई॥
जस बरु मैं बरनेउँ तुम्ह पाहीं। मिलिहि उमहि तस संसय नाहीं॥1॥

मूल

तदपि एक मैं कहउँ उपाई। होइ करै जौं दैउ सहाई॥
जस बरु मैं बरनेउँ तुम्ह पाहीं। मिलिहि उमहि तस संसय नाहीं॥1॥

भावार्थ

तो भी एक उपाय मैं बताता हूँ। यदि दैव सहायता करें तो वह सिद्ध हो सकता है। उमा को वर तो निःसन्देह वैसा ही मिलेगा, जैसा मैन्ने तुम्हारे सामने वर्णन किया है॥1॥

जे जे बर के दोष बखाने। ते सब सिव पहिं मैं अनुमाने॥
जौं बिबाहु सङ्कर सन होई। दोषउ गुन सम कह सबु कोई॥2॥

मूल

जे जे बर के दोष बखाने। ते सब सिव पहिं मैं अनुमाने॥
जौं बिबाहु सङ्कर सन होई। दोषउ गुन सम कह सबु कोई॥2॥

भावार्थ

परन्तु मैन्ने वर के जो-जो दोष बतलाए हैं, मेरे अनुमान से वे सभी शिवजी में हैं। यदि शिवजी के साथ विवाह हो जाए तो दोषों को भी सब लोग गुणों के समान ही कहेङ्गे॥2॥

जौं अहि सेज सयन हरि करहीं। बुध कछु तिन्ह कर दोषु न धरहीं॥
भानु कृसानु सर्ब रस खाहीं। तिन्ह कहँ मन्द कहत कोउ नाहीं॥3॥

मूल

जौं अहि सेज सयन हरि करहीं। बुध कछु तिन्ह कर दोषु न धरहीं॥
भानु कृसानु सर्ब रस खाहीं। तिन्ह कहँ मन्द कहत कोउ नाहीं॥3॥

भावार्थ

जैसे विष्णु भगवान शेषनाग की शय्या पर सोते हैं, तो भी पण्डित लोग उनको कोई दोष नहीं लगाते। सूर्य और अग्निदेव अच्छे-बुरे सभी रसों का भक्षण करते हैं, परन्तु उनको कोई बुरा नहीं कहता॥3॥

सुभ अरु असुभ सलिल सब बहई। सुरसरि कोउ अपुनीत न कहई॥
समरथ कहुँ नहिं दोषु गोसाईं। रबि पावक सुरसरि की नाईं॥4॥

मूल

सुभ अरु असुभ सलिल सब बहई। सुरसरि कोउ अपुनीत न कहई॥
समरथ कहुँ नहिं दोषु गोसाईं। रबि पावक सुरसरि की नाईं॥4॥

भावार्थ

गङ्गाजी में शुभ और अशुभ सभी जल बहता है, पर कोई उन्हें अपवित्र नहीं कहता। सूर्य, अग्नि और गङ्गाजी की भाँति समर्थ को कुछ दोष नहीं लगता॥4॥

069

01 दोहा

जौं अस हिसिषा करहिं नर जड बिबेक अभिमान।
परहिं कलप भरि नरक महुँ जीव कि ईस समान॥69॥

मूल

जौं अस हिसिषा करहिं नर जड बिबेक अभिमान।
परहिं कलप भरि नरक महुँ जीव कि ईस समान॥69॥

भावार्थ

यदि मूर्ख मनुष्य ज्ञान के अभिमान से इस प्रकार होड करते हैं, तो वे कल्पभर के लिए नरक में पडते हैं। भला कहीं जीव भी ईश्वर के समान (सर्वथा स्वतन्त्र) हो सकता है?॥69॥

02 चौपाई

सुरसरि जल कृत बारुनि जाना। कबहुँ न सन्त करहिं तेहि पाना॥
सुरसरि मिलें सो पावन जैसें। ईस अनीसहि अन्तरु तैसें॥1॥

मूल

सुरसरि जल कृत बारुनि जाना। कबहुँ न सन्त करहिं तेहि पाना॥
सुरसरि मिलें सो पावन जैसें। ईस अनीसहि अन्तरु तैसें॥1॥

भावार्थ

गङ्गा जल से भी बनाई हुई मदिरा को जानकर सन्त लोग कभी उसका पान नहीं करते। पर वही गङ्गाजी में मिल जाने पर जैसे पवित्र हो जाती है, ईश्वर और जीव में भी वैसा ही भेद है॥1॥

सम्भु सहज समरथ भगवाना। एहि बिबाहँ सब बिधि कल्याना॥
दुराराध्य पै अहहिं महेसू। आसुतोष पुनि किएँ कलेसू॥2॥

भावार्थ

शिवजी सहज ही समर्थ हैं, क्योङ्कि वे भगवान हैं, इसलिए इस विवाह में सब प्रकार कल्याण है, परन्तु महादेवजी की आराधना बडी कठिन है, फिर भी क्लेश (तप) करने से वे बहुत जल्द सन्तुष्ट हो जाते हैं॥2॥

जौं तपु करै कुमारि तुम्हारी। भाविउ मेटि सकहिं त्रिपुरारी॥
जद्यपि बर अनेक जग माहीं। एहि कहँ सिव तजि दूसर नाहीं॥3॥

भावार्थ

यदि तुम्हारी कन्या तप करे, तो त्रिपुरारि महादेवजी होनहार को मिटा सकते हैं। यद्यपि संसार में वर अनेक हैं, पर इसके लिए शिवजी को छोडकर दूसरा वर नहीं है॥3॥

बर दायक प्रनतारति भञ्जन। कृपासिन्धु सेवक मन रञ्जन॥
इच्छित फल बिनु सिव अवराधें। लहिअ न कोटि जोग जप साधें॥4॥

भावार्थ

शिवजी वर देने वाले, शरणागतों के दुःखों का नाश करने वाले, कृपा के समुद्र और सेवकों के मन को प्रसन्न करने वाले हैं। शिवजी की आराधना किए बिना करोडों योग और जप करने पर भी वाञ्छित फल नहीं मिलता॥4॥

070

01 दोहा

अस कहि नारद सुमिरि हरि गिरिजहि दीन्हि असीस।
होइहि यह कल्यान अब संसय तजहु गिरीस॥70॥

मूल

अस कहि नारद सुमिरि हरि गिरिजहि दीन्हि असीस।
होइहि यह कल्यान अब संसय तजहु गिरीस॥70॥

भावार्थ

ऐसा कहकर भगवान का स्मरण करके नारदजी ने पार्वती को आशीर्वाद दिया। (और कहा कि-) हे पर्वतराज! तुम सन्देह का त्याग कर दो, अब यह कल्याण ही होगा॥70॥

02 चौपाई

कहि अस ब्रह्मभवन मुनि गयऊ। आगिल चरित सुनहु जस भयऊ॥
पतिहि एकान्त पाइ कह मैना। नाथ न मैं समुझे मुनि बैना॥1॥

मूल

कहि अस ब्रह्मभवन मुनि गयऊ। आगिल चरित सुनहु जस भयऊ॥
पतिहि एकान्त पाइ कह मैना। नाथ न मैं समुझे मुनि बैना॥1॥

भावार्थ

यों कहकर नारद मुनि ब्रह्मलोक को चले गए। अब आगे जो चरित्र हुआ उसे सुनो। पति को एकान्त में पाकर मैना ने कहा- हे नाथ! मैन्ने मुनि के वचनों का अर्थ नहीं समझा॥1॥

जौं घरु बरु कुलु होइ अनूपा। करिअ बिबाहु सुता अनुरूपा॥
न त कन्या बरु रहउ कुआरी। कन्त उमा मम प्रानपिआरी॥2॥

भावार्थ

जो हमारी कन्या के अनुकूल घर, वर और कुल उत्तम हो तो विवाह कीजिए। नहीं तो लडकी चाहे कुमारी ही रहे (मैं अयोग्य वर के साथ उसका विवाह नहीं करना चाहती), क्योङ्कि हे स्वामिन्‌! पार्वती मुझको प्राणों के समान प्यारी है॥2॥

जौं न मिलिहि बरु गिरिजहि जोगू। गिरि जड सहज कहिहि सबु लोगू॥
सोइ बिचारि पति करेहु बिबाहू। जेहिं न बहोरि होइ उर दाहू॥3॥

भावार्थ

यदि पार्वती के योग्य वर न मिला तो सब लोग कहेङ्गे कि पर्वत स्वभाव से ही जड (मूर्ख) होते हैं। हे स्वामी! इस बात को विचारकर ही विवाह कीजिएगा, जिसमें फिर पीछे हृदय में सन्ताप न हो॥3॥

अस कहि परी चरन धरि सीसा। बोले सहित सनेह गिरीसा॥
बरु पावक प्रगटै ससि माहीं। नारद बचनु अन्यथा नाहीं॥4॥

भावार्थ

इस प्रकार कहकर मैना पति के चरणों पर मस्तक रखकर गिर पडीं। तब हिमवान्‌ ने प्रेम से कहा- चाहे चन्द्रमा में अग्नि प्रकट हो जाए, पर नारदजी के वचन झूठे नहीं हो सकते॥4॥

071

01 दोहा

प्रिया सोचु परिहरहु सबु सुमिरहु श्रीभगवान।
पारबतिहि निरमयउ जेहिं सोइ करिहि कल्यान॥71॥

मूल

प्रिया सोचु परिहरहु सबु सुमिरहु श्रीभगवान।
पारबतिहि निरमयउ जेहिं सोइ करिहि कल्यान॥71॥

भावार्थ

हे प्रिये! सब सोच छोडकर श्री भगवान का स्मरण करो, जिन्होन्ने पार्वती को रचा है, वे ही कल्याण करेङ्गे॥71॥

02 चौपाई

अब जौं तुम्हहि सुता पर नेहू। तौ अस जाइ सिखावनु देहू॥
करै सो तपु जेहिं मिलहिं महेसू। आन उपायँ न मिटिहि कलेसू॥1॥

मूल

अब जौं तुम्हहि सुता पर नेहू। तौ अस जाइ सिखावनु देहू॥
करै सो तपु जेहिं मिलहिं महेसू। आन उपायँ न मिटिहि कलेसू॥1॥

भावार्थ

अब यदि तुम्हें कन्या पर प्रेम है, तो जाकर उसे यह शिक्षा दो कि वह ऐसा तप करे, जिससे शिवजी मिल जाएँ। दूसरे उपाय से यह क्लेश नहीं मिटेगा॥1॥

नारद बचन सगर्भ सहेतू। सुन्दर सब गुन निधि बृषकेतू॥
अस बिचारि तुम्ह तजहु असङ्का। सबहि भाँति सङ्करु अकलङ्का॥2॥

मूल

नारद बचन सगर्भ सहेतू। सुन्दर सब गुन निधि बृषकेतू॥
अस बिचारि तुम्ह तजहु असङ्का। सबहि भाँति सङ्करु अकलङ्का॥2॥

भावार्थ

नारदजी के वचन रहस्य से युक्त और सकारण हैं और शिवजी समस्त सुन्दर गुणों के भण्डार हैं। यह विचारकर तुम (मिथ्या) सन्देह को छोड दो। शिवजी सभी तरह से निष्कलङ्क हैं॥2॥

सुनि पति बचन हरषि मन माहीं। गई तुरत उठि गिरिजा पाहीं॥
उमहि बिलोकि नयन भरे बारी। सहित सनेह गोद बैठारी॥3॥

मूल

सुनि पति बचन हरषि मन माहीं। गई तुरत उठि गिरिजा पाहीं॥
उमहि बिलोकि नयन भरे बारी। सहित सनेह गोद बैठारी॥3॥

भावार्थ

पति के वचन सुन मन में प्रसन्न होकर मैना उठकर तुरन्त पार्वती के पास गईं। पार्वती को देखकर उनकी आँखों में आँसू भर आए। उसे स्नेह के साथ गोद में बैठा लिया॥3॥

बारहिं बार लेति उर लाई। गदगद कण्ठ न कछु कहि जाई॥
जगत मातु सर्बग्य भवानी। मातु सुखद बोलीं मृदु बानी॥4॥

मूल

बारहिं बार लेति उर लाई। गदगद कण्ठ न कछु कहि जाई॥
जगत मातु सर्बग्य भवानी। मातु सुखद बोलीं मृदु बानी॥4॥

भावार्थ

फिर बार-बार उसे हृदय से लगाने लगीं। प्रेम से मैना का गला भर आया, कुछ कहा नहीं जाता। जगज्जननी भवानीजी तो सर्वज्ञ ठहरीं। (माता के मन की दशा को जानकर) वे माता को सुख देने वाली कोमल वाणी से बोलीं-॥4॥

072

01 दोहा

सुनहि मातु मैं दीख अस सपन सुनावउँ तोहि।
सुन्दर गौर सुबिप्रबर अस उपदेसेउ मोहि॥72॥

मूल

सुनहि मातु मैं दीख अस सपन सुनावउँ तोहि।
सुन्दर गौर सुबिप्रबर अस उपदेसेउ मोहि॥72॥

भावार्थ

माँ! सुन, मैं तुझे सुनाती हूँ, मैन्ने ऐसा स्वप्न देखा है कि मुझे एक सुन्दर गौरवर्ण श्रेष्ठ ब्राह्मण ने ऐसा उपदेश दिया है-॥72॥

02 चौपाई

करहि जाइ तपु सैलकुमारी। नारद कहा सो सत्य बिचारी॥
मातु पितहि पुनि यह मत भावा। तपु सुखप्रद दुख दोष नसावा॥1॥

मूल

करहि जाइ तपु सैलकुमारी। नारद कहा सो सत्य बिचारी॥
मातु पितहि पुनि यह मत भावा। तपु सुखप्रद दुख दोष नसावा॥1॥

भावार्थ

हे पार्वती! नारदजी ने जो कहा है, उसे सत्य समझकर तू जाकर तप कर। फिर यह बात तेरे माता-पिता को भी अच्छी लगी है। तप सुख देने वाला और दुःख-दोष का नाश करने वाला है॥1॥

तपबल रचइ प्रपञ्चु बिधाता। तपबल बिष्नु सकल जग त्राता॥
तपबल सम्भु करहिं सङ्घारा। तपबल सेषु धरइ महिभारा॥2॥

मूल

तपबल रचइ प्रपञ्चु बिधाता। तपबल बिष्नु सकल जग त्राता॥
तपबल सम्भु करहिं सङ्घारा। तपबल सेषु धरइ महिभारा॥2॥

भावार्थ

तप के बल से ही ब्रह्मा संसार को रचते हैं और तप के बल से ही बिष्णु सारे जगत का पालन करते हैं। तप के बल से ही शम्भु (रुद्र रूप से) जगत का संहार करते हैं और तप के बल से ही शेषजी पृथ्वी का भार धारण करते हैं॥2॥

तप अधार सब सृष्टि भवानी। करहि जाइ तपु अस जियँ जानी॥
सुनत बचन बिसमित महतारी। सपन सुनायउ गिरिहि हँकारी॥3॥

भावार्थ

हे भवानी! सारी सृष्टि तप के ही आधार पर है। ऐसा जी में जानकर तू जाकर तप कर। यह बात सुनकर माता को बडा अचरज हुआ और उसने हिमवान्‌ को बुलाकर वह स्वप्न सुनाया॥3॥

मातु पितहि बहुबिधि समुझाई। चलीं उमा तप हित हरषाई॥
प्रिय परिवार पिता अरु माता। भए बिकल मुख आव न बाता॥4॥

भावार्थ

माता-पिता को बहुत तरह से समझाकर बडे हर्ष के साथ पार्वतीजी तप करने के लिए चलीं। प्यारे कुटुम्बी, पिता और माता सब व्याकुल हो गए। किसी के मुँह से बात नहीं निकलती॥4॥

073

01 दोहा

बेदसिरा मुनि आइ तब सबहि कहा समुझाइ।
पारबती महिमा सुनत रहे प्रबोधहि पाइ॥73॥

मूल

बेदसिरा मुनि आइ तब सबहि कहा समुझाइ।
पारबती महिमा सुनत रहे प्रबोधहि पाइ॥73॥

भावार्थ

तब वेदशिरा मुनि ने आकर सबको समझाकर कहा। पार्वतीजी की महिमा सुनकर सबको समाधान हो गया॥73॥

02 चौपाई

उर धरि उमा प्रानपति चरना। जाइ बिपिन लागीं तपु करना॥
अति सुकुमार न तनु तप जोगू। पति पद सुमिरि तजेउ सबु भोगू॥1॥

मूल

उर धरि उमा प्रानपति चरना। जाइ बिपिन लागीं तपु करना॥
अति सुकुमार न तनु तप जोगू। पति पद सुमिरि तजेउ सबु भोगू॥1॥

भावार्थ

प्राणपति (शिवजी) के चरणों को हृदय में धारण करके पार्वतीजी वन में जाकर तप करने लगीं। पार्वतीजी का अत्यन्त सुकुमार शरीर तप के योग्य नहीं था, तो भी पति के चरणों का स्मरण करके उन्होन्ने सब भोगों को तज दिया॥1॥

नित नव चरन उपज अनुरागा। बिसरी देह तपहिं मनु लागा॥
सम्बत सहस मूल फल खाए। सागु खाइ सत बरष गवाँए॥2॥

मूल

नित नव चरन उपज अनुरागा। बिसरी देह तपहिं मनु लागा॥
सम्बत सहस मूल फल खाए। सागु खाइ सत बरष गवाँए॥2॥

भावार्थ

स्वामी के चरणों में नित्य नया अनुराग उत्पन्न होने लगा और तप में ऐसा मन लगा कि शरीर की सारी सुध बिसर गई। एक हजार वर्ष तक उन्होन्ने मूल और फल खाए, फिर सौ वर्ष साग खाकर बिताए॥2॥

कछु दिन भोजनु बारि बतासा। किए कठिन कछु दिन उपबासा॥
बेल पाती महि परइ सुखाई। तीनि सहस सम्बत सोइ खाई॥3॥

मूल

कछु दिन भोजनु बारि बतासा। किए कठिन कछु दिन उपबासा॥
बेल पाती महि परइ सुखाई। तीनि सहस सम्बत सोइ खाई॥3॥

भावार्थ

कुछ दिन जल और वायु का भोजन किया और फिर कुछ दिन कठोर उपवास किए, जो बेल पत्र सूखकर पृथ्वी पर गिरते थे, तीन हजार वर्ष तक उन्हीं को खाया॥3॥

पुनि परिहरे सुखानेउ परना। उमहि नामु तब भयउ अपरना॥
देखि उमहि तप खीन सरीरा। ब्रह्मगिरा भै गगन गभीरा॥4॥

मूल

पुनि परिहरे सुखानेउ परना। उमहि नामु तब भयउ अपरना॥
देखि उमहि तप खीन सरीरा। ब्रह्मगिरा भै गगन गभीरा॥4॥

भावार्थ

फिर सूखे पर्ण (पत्ते) भी छोड दिए, तभी पार्वती का नाम ‘अपर्णा’ हुआ। तप से उमा का शरीर क्षीण देखकर आकाश से गम्भीर ब्रह्मवाणी हुई-॥4॥

074

01 दोहा

भयउ मनोरथ सुफल तव सुनु गिरिराजकुमारि।
परिहरु दुसह कलेस सब अब मिलिहहिं त्रिपुरारि॥74॥

मूल

भयउ मनोरथ सुफल तव सुनु गिरिराजकुमारि।
परिहरु दुसह कलेस सब अब मिलिहहिं त्रिपुरारि॥74॥

भावार्थ

हे पर्वतराज की कुमारी! सुन, तेरा मनोरथ सफल हुआ। तू अब सारे असह्य क्लेशों को (कठिन तप को) त्याग दे। अब तुझे शिवजी मिलेङ्गे॥74॥

02 चौपाई

अस तपु काहुँ न कीन्ह भवानी। भए अनेक धीर मुनि ग्यानी॥
अब उर धरहु ब्रह्म बर बानी। सत्य सदा सन्तत सुचि जानी॥1॥

मूल

अस तपु काहुँ न कीन्ह भवानी। भए अनेक धीर मुनि ग्यानी॥
अब उर धरहु ब्रह्म बर बानी। सत्य सदा सन्तत सुचि जानी॥1॥

भावार्थ

हे भवानी! धीर, मुनि और ज्ञानी बहुत हुए हैं, पर ऐसा (कठोर) तप किसी ने नहीं किया। अब तू इस श्रेष्ठ ब्रह्मा की वाणी को सदा सत्य और निरन्तर पवित्र जानकर अपने हृदय में धारण कर॥1॥

आवै पिता बोलावन जबहीं। हठ परिहरि घर जाएहु तबहीं॥
मिलहिं तुम्हहि जब सप्त रिषीसा। जानेहु तब प्रमान बागीसा॥2॥

मूल

आवै पिता बोलावन जबहीं। हठ परिहरि घर जाएहु तबहीं॥
मिलहिं तुम्हहि जब सप्त रिषीसा। जानेहु तब प्रमान बागीसा॥2॥

भावार्थ

जब तेरे पिता बुलाने को आवें, तब हठ छोडकर घर चली जाना और जब तुम्हें सप्तर्षि मिलें तब इस वाणी को ठीक समझना॥2॥

सुनत गिरा बिधि गगन बखानी। पुलक गात गिरिजा हरषानी॥
उमा चरित सुन्दर मैं गावा। सुनहु सम्भु कर चरित सुहावा॥3॥

मूल

सुनत गिरा बिधि गगन बखानी। पुलक गात गिरिजा हरषानी॥
उमा चरित सुन्दर मैं गावा। सुनहु सम्भु कर चरित सुहावा॥3॥

भावार्थ

(इस प्रकार) आकाश से कही हुई ब्रह्मा की वाणी को सुनते ही पार्वतीजी प्रसन्न हो गईं और (हर्ष के मारे) उनका शरीर पुलकित हो गया। (याज्ञवल्क्यजी भरद्वाजजी से बोले कि-) मैन्ने पार्वती का सुन्दर चरित्र सुनाया, अब शिवजी का सुहावना चरित्र सुनो॥3॥

जब तें सतीं जाइ तनु त्यागा। तब तें सिव मन भयउ बिरागा॥
जपहिं सदा रघुनायक नामा। जहँ तहँ सुनहिं राम गुन ग्रामा॥4॥

मूल

जब तें सतीं जाइ तनु त्यागा। तब तें सिव मन भयउ बिरागा॥
जपहिं सदा रघुनायक नामा। जहँ तहँ सुनहिं राम गुन ग्रामा॥4॥

भावार्थ

जब से सती ने जाकर शरीर त्याग किया, तब से शिवजी के मन में वैराग्य हो गया। वे सदा श्री रघुनाथजी का नाम जपने लगे और जहाँ-तहाँ श्री रामचन्द्रजी के गुणों की कथाएँ सुनने लगे॥4॥

075

01 दोहा

चिदानन्द सुखधाम सिव बिगत मोह मद काम।
बिचरहिं महि धरि हृदयँ हरि सकल लोक अभिराम॥75॥

मूल

चिदानन्द सुखधाम सिव बिगत मोह मद काम।
बिचरहिं महि धरि हृदयँ हरि सकल लोक अभिराम॥75॥

भावार्थ

चिदानन्द, सुख के धाम, मोह, मद और काम से रहित शिवजी सम्पूर्ण लोकों को आनन्द देने वाले भगवान श्री हरि (श्री रामचन्द्रजी) को हृदय में धारण कर (भगवान के ध्यान में मस्त हुए) पृथ्वी पर विचरने लगे॥75॥

02 चौपाई

कतहुँ मुनिन्ह उपदेसहिं ग्याना। कतहुँ राम गुन करहिं बखाना॥
जदपि अकाम तदपि भगवाना। भगत बिरह दुख दुखित सुजाना॥1॥

मूल

कतहुँ मुनिन्ह उपदेसहिं ग्याना। कतहुँ राम गुन करहिं बखाना॥
जदपि अकाम तदपि भगवाना। भगत बिरह दुख दुखित सुजाना॥1॥

भावार्थ

वे कहीं मुनियों को ज्ञान का उपदेश करते और कहीं श्री रामचन्द्रजी के गुणों का वर्णन करते थे। यद्यपि सुजान शिवजी निष्काम हैं, तो भी वे भगवान अपने भक्त (सती) के वियोग के दुःख से दुःखी हैं॥1॥

एहि बिधि गयउ कालु बहु बीती। नित नै होइ राम पद प्रीती॥
नेमु प्रेमु सङ्कर कर देखा। अबिचल हृदयँ भगति कै रेखा॥2॥

मूल

एहि बिधि गयउ कालु बहु बीती। नित नै होइ राम पद प्रीती॥
नेमु प्रेमु सङ्कर कर देखा। अबिचल हृदयँ भगति कै रेखा॥2॥

भावार्थ

इस प्रकार बहुत समय बीत गया। श्री रामचन्द्रजी के चरणों में नित नई प्रीति हो रही है। शिवजी के (कठोर) नियम, (अनन्य) प्रेम और उनके हृदय में भक्ति की अटल टेक को (जब श्री रामचन्द्रजी ने) देखा॥2॥

प्रगटे रामु कृतग्य कृपाला। रूप सील निधि तेज बिसाला॥
बहु प्रकार सङ्करहि सराहा। तुम्ह बिनु अस ब्रतु को निरबाहा॥3॥

मूल

प्रगटे रामु कृतग्य कृपाला। रूप सील निधि तेज बिसाला॥
बहु प्रकार सङ्करहि सराहा। तुम्ह बिनु अस ब्रतु को निरबाहा॥3॥

भावार्थ

तब कृतज्ञ (उपकार मानने वाले), कृपालु, रूप और शील के भण्डार, महान्‌ तेजपुञ्ज भगवान श्री रामचन्द्रजी प्रकट हुए। उन्होन्ने बहुत तरह से शिवजी की सराहना की और कहा कि आपके बिना ऐसा (कठिन) व्रत कौन निबाह सकता है॥3॥

बहुबिधि राम सिवहि समुझावा। पारबती कर जन्मु सुनावा॥
अति पुनीत गिरिजा कै करनी। बिस्तर सहित कृपानिधि बरनी॥4॥

मूल

बहुबिधि राम सिवहि समुझावा। पारबती कर जन्मु सुनावा॥
अति पुनीत गिरिजा कै करनी। बिस्तर सहित कृपानिधि बरनी॥4॥

भावार्थ

श्री रामचन्द्रजी ने बहुत प्रकार से शिवजी को समझाया और पार्वतीजी का जन्म सुनाया। कृपानिधान श्री रामचन्द्रजी ने विस्तारपूर्वक पार्वतीजी की अत्यन्त पवित्र करनी का वर्णन किया॥4॥

076

01 दोहा

अब बिनती मम सुनहु सिव जौं मो पर निज नेहु।
जाइ बिबाहहु सैलजहि यह मोहि मागें देहु॥76॥

मूल

अब बिनती मम सुनहु सिव जौं मो पर निज नेहु।
जाइ बिबाहहु सैलजहि यह मोहि मागें देहु॥76॥

भावार्थ

(फिर उन्होन्ने शिवजी से कहा-) हे शिवजी! यदि मुझ पर आपका स्नेह है, तो अब आप मेरी विनती सुनिए। मुझे यह माँगें दीजिए कि आप जाकर पार्वती के साथ विवाह कर लें॥76॥

02 चौपाई

कह सिव जदपि उचित अस नाहीं। नाथ बचन पुनि मेटि न जाहीं॥
सिर धरि आयसु करिअ तुम्हारा। परम धरमु यह नाथ हमारा॥1॥

मूल

कह सिव जदपि उचित अस नाहीं। नाथ बचन पुनि मेटि न जाहीं॥
सिर धरि आयसु करिअ तुम्हारा। परम धरमु यह नाथ हमारा॥1॥

भावार्थ

शिवजी ने कहा- यद्यपि ऐसा उचित नहीं है, परन्तु स्वामी की बात भी मेटी नहीं जा सकती। हे नाथ! मेरा यही परम धर्म है कि मैं आपकी आज्ञा को सिर पर रखकर उसका पालन करूँ॥1॥

मातु पिता गुर प्रभु कै बानी। बिनहिं बिचार करिअ सुभ जानी॥
तुम्ह सब भाँति परम हितकारी। अग्या सिर पर नाथ तुम्हारी॥2॥

मूल

मातु पिता गुर प्रभु कै बानी। बिनहिं बिचार करिअ सुभ जानी॥
तुम्ह सब भाँति परम हितकारी। अग्या सिर पर नाथ तुम्हारी॥2॥

भावार्थ

माता, पिता, गुरु और स्वामी की बात को बिना ही विचारे शुभ समझकर करना (मानना) चाहिए। फिर आप तो सब प्रकार से मेरे परम हितकारी हैं। हे नाथ! आपकी आज्ञा मेरे सिर पर है॥2॥

प्रभु तोषेउ सुनि सङ्कर बचना। भक्ति बिबेक धर्म जुत रचना॥
कह प्रभु हर तुम्हार पन रहेऊ। अब उर राखेहु जो हम कहेऊ॥3॥

मूल

प्रभु तोषेउ सुनि सङ्कर बचना। भक्ति बिबेक धर्म जुत रचना॥
कह प्रभु हर तुम्हार पन रहेऊ। अब उर राखेहु जो हम कहेऊ॥3॥

भावार्थ

शिवजी की भक्ति, ज्ञान और धर्म से युक्त वचन रचना सुनकर प्रभु रामचन्द्रजी सन्तुष्ट हो गए। प्रभु ने कहा- हे हर! आपकी प्रतिज्ञा पूरी हो गई। अब हमने जो कहा है, उसे हृदय में रखना॥3॥

अन्तरधान भए अस भाषी। सङ्कर सोइ मूरति उर राखी॥
तबहिं सप्तरिषि सिव पहिं आए। बोले प्रभु अति बचन सुहाए॥4॥

मूल

अन्तरधान भए अस भाषी। सङ्कर सोइ मूरति उर राखी॥
तबहिं सप्तरिषि सिव पहिं आए। बोले प्रभु अति बचन सुहाए॥4॥

भावार्थ

इस प्रकार कहकर श्री रामचन्द्रजी अन्तर्धान हो गए। शिवजी ने उनकी वह मूर्ति अपने हृदय में रख ली। उसी समय सप्तर्षि शिवजी के पास आए। प्रभु महादेवजी ने उनसे अत्यन्त सुहावने वचन कहे-॥4॥

077

01 दोहा

पारबती पहिं जाइ तुम्ह प्रेम परिच्छा लेहु।
गिरिहि प्रेरि पठएहु भवन दूरि करेहु सन्देहु॥77॥

मूल

पारबती पहिं जाइ तुम्ह प्रेम परिच्छा लेहु।
गिरिहि प्रेरि पठएहु भवन दूरि करेहु सन्देहु॥77॥

भावार्थ

आप लोग पार्वती के पास जाकर उनके प्रेम की परीक्षा लीजिए और हिमाचल को कहकर (उन्हें पार्वती को लिवा लाने के लिए भेजिए तथा) पार्वती को घर भिजवाइए और उनके सन्देह को दूर कीजिए॥77॥

02 चौपाई

रिषिन्ह गौरि देखी तहँ कैसी। मूरतिमन्त तपस्या जैसी॥
बोले मुनि सुनु सैलकुमारी। करहु कवन कारन तपु भारी॥1॥

मूल

रिषिन्ह गौरि देखी तहँ कैसी। मूरतिमन्त तपस्या जैसी॥
बोले मुनि सुनु सैलकुमारी। करहु कवन कारन तपु भारी॥1॥

भावार्थ

ऋषियों ने (वहाँ जाकर) पार्वती को कैसी देखा, मानो मूर्तिमान्‌ तपस्या ही हो। मुनि बोले- हे शैलकुमारी! सुनो, तुम किसलिए इतना कठोर तप कर रही हो?॥1॥

केहि अवराधहु का तुम्ह चहहू। हम सन सत्य मरमु किन कहहू॥
कहत बचन मनु अति सकुचाई। हँसिहहु सुनि हमारि जडताई॥2॥

मूल

केहि अवराधहु का तुम्ह चहहू। हम सन सत्य मरमु किन कहहू॥
कहत बचन मनु अति सकुचाई। हँसिहहु सुनि हमारि जडताई॥2॥

भावार्थ

तुम किसकी आराधना करती हो और क्या चाहती हो? हमसे अपना सच्चा भेद क्यों नहीं कहतीं? (पार्वती ने कहा-) बात कहते मन बहुत सकुचाता है। आप लोग मेरी मूर्खता सुनकर हँसेङ्गे॥2॥

मनु हठ परा न सुनइ सिखावा। चहत बारि पर भीति उठावा॥
नारद कहा सत्य सोइ जाना। बिनु पङ्खन्ह हम चहहिं उडाना॥3॥

मूल

मनु हठ परा न सुनइ सिखावा। चहत बारि पर भीति उठावा॥
नारद कहा सत्य सोइ जाना। बिनु पङ्खन्ह हम चहहिं उडाना॥3॥

भावार्थ

मन ने हठ पकड लिया है, वह उपदेश नहीं सुनता और जल पर दीवाल उठाना चाहता है। नारदजी ने जो कह दिया उसे सत्य जानकर मैं बिना ही पाँख के उडना चाहती हूँ॥3॥

देखहु मुनि अबिबेकु हमारा। चाहिअ सदा सिवहि भरतारा॥4॥

मूल

देखहु मुनि अबिबेकु हमारा। चाहिअ सदा सिवहि भरतारा॥4॥

भावार्थ

हे मुनियों! आप मेरा अज्ञान तो देखिए कि मैं सदा शिवजी को ही पति बनाना चाहती हूँ॥4॥

078

01 दोहा

सुनत बचन बिहसे रिषय गिरिसम्भव तव देह।
नारद कर उपदेसु सुनि कहहु बसेउ किसु गेह॥78॥

मूल

सुनत बचन बिहसे रिषय गिरिसम्भव तव देह।
नारद कर उपदेसु सुनि कहहु बसेउ किसु गेह॥78॥

भावार्थ

पार्वतीजी की बात सुनते ही ऋषि लोग हँस पडे और बोले- तुम्हारा शरीर पर्वत से ही तो उत्पन्न हुआ है! भला, कहो तो नारद का उपदेश सुनकर आज तक किसका घर बसा है?॥78॥

02 चौपाई

दच्छसुतन्ह उपदेसेन्हि जाई। तिन्ह फिरि भवनु न देखा आई॥
चित्रकेतु कर घरु उन घाला। कनककसिपु कर पुनि अस हाला॥1॥

मूल

दच्छसुतन्ह उपदेसेन्हि जाई। तिन्ह फिरि भवनु न देखा आई॥
चित्रकेतु कर घरु उन घाला। कनककसिपु कर पुनि अस हाला॥1॥

भावार्थ

उन्होन्ने जाकर दक्ष के पुत्रों को उपदेश दिया था, जिससे उन्होन्ने फिर लौटकर घर का मुँह भी नहीं देखा। चित्रकेतु के घर को नारद ने ही चौपट किया। फिर यही हाल हिरण्यकशिपु का हुआ॥1॥

नारद सिख जे सुनहिं नर नारी। अवसि होहिं तजि भवनु भिखारी॥
मन कपटी तन सज्जन चीन्हा। आपु सरिस सबही चह कीन्हा॥2॥

मूल

नारद सिख जे सुनहिं नर नारी। अवसि होहिं तजि भवनु भिखारी॥
मन कपटी तन सज्जन चीन्हा। आपु सरिस सबही चह कीन्हा॥2॥

भावार्थ

जो स्त्री-पुरुष नारद की सीख सुनते हैं, वे घर-बार छोडकर अवश्य ही भिखारी हो जाते हैं। उनका मन तो कपटी है, शरीर पर सज्जनों के चिह्न हैं। वे सभी को अपने समान बनाना चाहते हैं॥2॥

तेहि कें बचन मानि बिस्वासा। तुम्ह चाहहु पति सहज उदासा॥
निर्गुन निलज कुबेष कपाली। अकुल अगेह दिगम्बर ब्याली॥3॥

मूल

तेहि कें बचन मानि बिस्वासा। तुम्ह चाहहु पति सहज उदासा॥
निर्गुन निलज कुबेष कपाली। अकुल अगेह दिगम्बर ब्याली॥3॥

भावार्थ

उनके वचनों पर विश्वास मानकर तुम ऐसा पति चाहती हो जो स्वभाव से ही उदासीन, गुणहीन, निर्लज्ज, बुरे वेषवाला, नर-कपालों की माला पहनने वाला, कुलहीन, बिना घर-बार का, नङ्गा और शरीर पर साँपों को लपेटे रखने वाला है॥3॥

कहहु कवन सुखु अस बरु पाएँ। भल भूलिहु ठग के बौराएँ॥
पञ्च कहें सिवँ सती बिबाही। पुनि अवडेरि मराएन्हि ताही॥4॥

मूल

कहहु कवन सुखु अस बरु पाएँ। भल भूलिहु ठग के बौराएँ॥
पञ्च कहें सिवँ सती बिबाही। पुनि अवडेरि मराएन्हि ताही॥4॥

भावार्थ

ऐसे वर के मिलने से कहो, तुम्हें क्या सुख होगा? तुम उस ठग (नारद) के बहकावे में आकर खूब भूलीं। पहले पञ्चों के कहने से शिव ने सती से विवाह किया था, परन्तु फिर उसे त्यागकर मरवा डाला॥

079

01 दोहा

अब सुख सोवत सोचु नहिं भीख मागि भव खाहिं।
सहज एकाकिन्ह के भवन कबहुँ कि नारि खटाहिं॥79॥

मूल

अब सुख सोवत सोचु नहिं भीख मागि भव खाहिं।
सहज एकाकिन्ह के भवन कबहुँ कि नारि खटाहिं॥79॥

भावार्थ

अब शिव को कोई चिन्ता नहीं रही, भीख माँगकर खा लेते हैं और सुख से सोते हैं। ऐसे स्वभाव से ही अकेले रहने वालों के घर भी भला क्या कभी स्त्रियाँ टिक सकती हैं?॥79॥

02 चौपाई

अजहूँ मानहु कहा हमारा। हम तुम्ह कहुँ बरु नीक बिचारा॥
अति सुन्दर सुचि सुखद सुसीला। गावहिं बेद जासु जस लीला॥1॥

मूल

अजहूँ मानहु कहा हमारा। हम तुम्ह कहुँ बरु नीक बिचारा॥
अति सुन्दर सुचि सुखद सुसीला। गावहिं बेद जासु जस लीला॥1॥

भावार्थ

अब भी हमारा कहा मानो, हमने तुम्हारे लिए अच्छा वर विचारा है। वह बहुत ही सुन्दर, पवित्र, सुखदायक और सुशील है, जिसका यश और लीला वेद गाते हैं॥1॥

दूषन रहित सकल गुन रासी। श्रीपति पुर बैकुण्ठ निवासी॥
अस बरु तुम्हहि मिलाउब आनी। सुनत बिहसि कह बचन भवानी॥2॥

मूल

दूषन रहित सकल गुन रासी। श्रीपति पुर बैकुण्ठ निवासी॥
अस बरु तुम्हहि मिलाउब आनी। सुनत बिहसि कह बचन भवानी॥2॥

भावार्थ

वह दोषों से रहित, सारे सद्गुणों की राशि, लक्ष्मी का स्वामी और वैकुण्ठपुरी का रहने वाला है। हम ऐसे वर को लाकर तुमसे मिला देङ्गे। यह सुनते ही पार्वतीजी हँसकर बोलीं-॥2॥

सत्य कहेहु गिरिभव तनु एहा। हठ न छूट छूटै बरु देहा॥
कनकउ पुनि पषान तें होई। जारेहुँ सहजु न परिहर सोई॥3॥

मूल

सत्य कहेहु गिरिभव तनु एहा। हठ न छूट छूटै बरु देहा॥
कनकउ पुनि पषान तें होई। जारेहुँ सहजु न परिहर सोई॥3॥

भावार्थ

आपने यह सत्य ही कहा कि मेरा यह शरीर पर्वत से उत्पन्न हुआ है, इसलिए हठ नहीं छूटेगा, शरीर भले ही छूट जाए। सोना भी पत्थर से ही उत्पन्न होता है, सो वह जलाए जाने पर भी अपने स्वभाव (सुवर्णत्व) को नहीं छोडता॥3॥

नारद बचन न मैं परिहरऊँ। बसउ भवनु उजरउ नहिं डरउँ॥
गुर कें बचन प्रतीति न जेही। सपनेहुँ सुगम न सुख सिधि तेही॥4॥

मूल

नारद बचन न मैं परिहरऊँ। बसउ भवनु उजरउ नहिं डरउँ॥
गुर कें बचन प्रतीति न जेही। सपनेहुँ सुगम न सुख सिधि तेही॥4॥

भावार्थ

अतः मैं नारदजी के वचनों को नहीं छोडूँगी, चाहे घर बसे या उजडे, इससे मैं नहीं डरती। जिसको गुरु के वचनों में विश्वास नहीं है, उसको सुख और सिद्धि स्वप्न में भी सुगम नहीं होती॥4॥

080

01 दोहा

महादेव अवगुन भवन बिष्नु सकल गुन धाम।
जेहि कर मनु रम जाहि सन तेहि तेही सन काम॥80॥

मूल

महादेव अवगुन भवन बिष्नु सकल गुन धाम।
जेहि कर मनु रम जाहि सन तेहि तेही सन काम॥80॥

भावार्थ

माना कि महादेवजी अवगुणों के भवन हैं और विष्णु समस्त सद्गुणों के धाम हैं, पर जिसका मन जिसमें रम गया, उसको तो उसी से काम है॥80॥

02 चौपाई

जौं तुम्ह मिलतेहु प्रथम मुनीसा। सुनतिउँ सिख तुम्हारि धरि सीसा॥
अब मैं जन्मु सम्भु हित हारा। को गुन दूषन करै बिचारा॥1॥

मूल

जौं तुम्ह मिलतेहु प्रथम मुनीसा। सुनतिउँ सिख तुम्हारि धरि सीसा॥
अब मैं जन्मु सम्भु हित हारा। को गुन दूषन करै बिचारा॥1॥

भावार्थ

हे मुनीश्वरों! यदि आप पहले मिलते, तो मैं आपका उपदेश सिर-माथे रखकर सुनती, परन्तु अब तो मैं अपना जन्म शिवजी के लिए हार चुकी! फिर गुण-दोषों का विचार कौन करे?॥1॥

जौं तुम्हरे हठ हृदयँ बिसेषी। रहि न जाइ बिनु किएँ बरेषी॥
तौ कौतुकिअन्ह आलसु नाहीं। बर कन्या अनेक जग माहीं॥2॥

मूल

जौं तुम्हरे हठ हृदयँ बिसेषी। रहि न जाइ बिनु किएँ बरेषी॥
तौ कौतुकिअन्ह आलसु नाहीं। बर कन्या अनेक जग माहीं॥2॥

भावार्थ

यदि आपके हृदय में बहुत ही हठ है और विवाह की बातचीत (बरेखी) किए बिना आपसे रहा ही नहीं जाता, तो संसार में वर-कन्या बहुत हैं। खिलवाड करने वालों को आलस्य तो होता नहीं (और कहीं जाकर कीजिए)॥2॥

जन्म कोटि लगि रगर हमारी। बरउँ सम्भु न त रहउँ कुआरी॥
तजउँ न नारद कर उपदेसू। आपु कहहिं सत बार महेसू॥3॥

मूल

जन्म कोटि लगि रगर हमारी। बरउँ सम्भु न त रहउँ कुआरी॥
तजउँ न नारद कर उपदेसू। आपु कहहिं सत बार महेसू॥3॥

भावार्थ

मेरा तो करोड जन्मों तक यही हठ रहेगा कि या तो शिवजी को वरूँगी, नहीं तो कुमारी ही रहूँगी। स्वयं शिवजी सौ बार कहें, तो भी नारदजी के उपदेश को न छोडूँगी॥3॥

मैं पा परउँ कहइ जगदम्बा। तुम्ह गृह गवनहु भयउ बिलम्बा॥
देखि प्रेमु बोले मुनि ग्यानी। जय जय जगदम्बिके भवानी॥4॥

मूल

मैं पा परउँ कहइ जगदम्बा। तुम्ह गृह गवनहु भयउ बिलम्बा॥
देखि प्रेमु बोले मुनि ग्यानी। जय जय जगदम्बिके भवानी॥4॥

भावार्थ

जगज्जननी पार्वतीजी ने फिर कहा कि मैं आपके पैरों पडती हूँ। आप अपने घर जाइए, बहुत देर हो गई। (शिवजी में पार्वतीजी का ऐसा) प्रेम देखकर ज्ञानी मुनि बोले- हे जगज्जननी! हे भवानी! आपकी जय हो! जय हो!!॥4॥

081

01 दोहा

तुम्ह माया भगवान सिव सकल गजत पितु मातु।
नाइ चरन सिर मुनि चले पुनि पुनि हरषत गातु॥81॥

मूल

तुम्ह माया भगवान सिव सकल गजत पितु मातु।
नाइ चरन सिर मुनि चले पुनि पुनि हरषत गातु॥81॥

भावार्थ

आप माया हैं और शिवजी भगवान हैं। आप दोनों समस्त जगत के माता-पिता हैं। (यह कहकर) मुनि पार्वतीजी के चरणों में सिर नवाकर चल दिए। उनके शरीर बार-बार पुलकित हो रहे थे॥81॥

02 चौपाई

जाइ मुनिन्ह हिमवन्तु पठाए। करि बिनती गिरजहिं गृह ल्याए॥
बहुरि सप्तरिषि सिव पहिं जाई। कथा उमा कै सकल सुनाई॥1॥

मूल

जाइ मुनिन्ह हिमवन्तु पठाए। करि बिनती गिरजहिं गृह ल्याए॥
बहुरि सप्तरिषि सिव पहिं जाई। कथा उमा कै सकल सुनाई॥1॥

भावार्थ

मुनियों ने जाकर हिमवान्‌ को पार्वतीजी के पास भेजा और वे विनती करके उनको घर ले आए, फिर सप्तर्षियों ने शिवजी के पास जाकर उनको पार्वतीजी की सारी कथा सुनाई॥1॥

भए मगन सिव सुनत सनेहा। हरषि सप्तरिषि गवने गेहा॥
मनु थिर करि तब सम्भु सुजाना। लगे करन रघुनायक ध्याना॥2॥

मूल

भए मगन सिव सुनत सनेहा। हरषि सप्तरिषि गवने गेहा॥
मनु थिर करि तब सम्भु सुजाना। लगे करन रघुनायक ध्याना॥2॥

भावार्थ

पार्वतीजी का प्रेम सुनते ही शिवजी आनन्दमग्न हो गए। सप्तर्षि प्रसन्न होकर अपने घर (ब्रह्मलोक) को चले गए। तब सुजान शिवजी मन को स्थिर करके श्री रघुनाथजी का ध्यान करने लगे॥2॥

तारकु असुर भयउ तेहि काला। भुज प्रताप बल तेज बिसाला॥
तेहिं सब लोक लोकपति जीते। भए देव सुख सम्पति रीते॥3॥

भावार्थ

उसी समय तारक नाम का असुर हुआ, जिसकी भुजाओं का बल, प्रताप और तेज बहुत बडा था। उसने सब लोक और लोकपालों को जीत लिया, सब देवता सुख और सम्पत्ति से रहित हो गए॥3॥

अजर अमर सो जीति न जाई। हारे सुर करि बिबिध लराई॥
तब बिरञ्चि सन जाइ पुकारे। देखे बिधि सब देव दुखारे॥4॥

भावार्थ

वह अजर-अमर था, इसलिए किसी से जीता नहीं जाता था। देवता उसके साथ बहुत तरह की लडाइयाँ लडकर हार गए। तब उन्होन्ने ब्रह्माजी के पास जाकर पुकार मचाई। ब्रह्माजी ने सब देवताओं को दुःखी देखा॥4॥

082

01 दोहा

सब सन कहा बुझाइ बिधि दनुज निधन तब होइ।
सम्भु सुक्र सम्भूत सुत एहि जीतइ रन सोइ॥82॥

मूल

सब सन कहा बुझाइ बिधि दनुज निधन तब होइ।
सम्भु सुक्र सम्भूत सुत एहि जीतइ रन सोइ॥82॥

भावार्थ

ब्रह्माजी ने सबको समझाकर कहा- इस दैत्य की मृत्यु तब होगी जब शिवजी के वीर्य से पुत्र उत्पन्न हो, इसको युद्ध में वही जीतेगा॥82॥

02 चौपाई

मोर कहा सुनि करहु उपाई। होइहि ईस्वर करिहि सहाई॥
सतीं जो तजी दच्छ मख देहा। जनमी जाइ हिमाचल गेहा॥1॥

मूल

मोर कहा सुनि करहु उपाई। होइहि ईस्वर करिहि सहाई॥
सतीं जो तजी दच्छ मख देहा। जनमी जाइ हिमाचल गेहा॥1॥

भावार्थ

मेरी बात सुनकर उपाय करो। ईश्वर सहायता करेङ्गे और काम हो जाएगा। सतीजी ने जो दक्ष के यज्ञ में देह का त्याग किया था, उन्होन्ने अब हिमाचल के घर जाकर जन्म लिया है॥1॥

तेहिं तपु कीन्ह सम्भु पति लागी। सिव समाधि बैठे सबु त्यागी॥
जदपि अहइ असमञ्जस भारी। तदपि बात एक सुनहु हमारी॥2॥

मूल

तेहिं तपु कीन्ह सम्भु पति लागी। सिव समाधि बैठे सबु त्यागी॥
जदपि अहइ असमञ्जस भारी। तदपि बात एक सुनहु हमारी॥2॥

भावार्थ

उन्होन्ने शिवजी को पति बनाने के लिए तप किया है, इधर शिवजी सब छोड-छाडकर समाधि लगा बैठे हैं। यद्यपि है तो बडे असमञ्जस की बात, तथापि मेरी एक बात सुनो॥2॥

पठवहु कामु जाइ सिव पाहीं। करै छोभु सङ्कर मन माहीं॥
तब हम जाइ सिवहि सिर नाई। करवाउब बिबाहु बरिआई॥3॥

मूल

पठवहु कामु जाइ सिव पाहीं। करै छोभु सङ्कर मन माहीं॥
तब हम जाइ सिवहि सिर नाई। करवाउब बिबाहु बरिआई॥3॥

भावार्थ

तुम जाकर कामदेव को शिवजी के पास भेजो, वह शिवजी के मन में क्षोभ उत्पन्न करे (उनकी समाधि भङ्ग करे)। तब हम जाकर शिवजी के चरणों में सिर रख देङ्गे और जबरदस्ती (उन्हें राजी करके) विवाह करा देङ्गे॥3॥

एहि बिधि भलेहिं देवहित होई। मत अति नीक कहइ सबु कोई॥
अस्तुति सुरन्ह कीन्हि अति हेतू। प्रगटेउ बिषमबान झषकेतू॥4॥

मूल

एहि बिधि भलेहिं देवहित होई। मत अति नीक कहइ सबु कोई॥
अस्तुति सुरन्ह कीन्हि अति हेतू। प्रगटेउ बिषमबान झषकेतू॥4॥

भावार्थ

इस प्रकार से भले ही देवताओं का हित हो (और तो कोई उपाय नहीं है) सबने कहा- यह सम्मति बहुत अच्छी है। फिर देवताओं ने बडे प्रेम से स्तुति की। तब विषम (पाँच) बाण धारण करने वाला और मछली के चिह्नयुक्त ध्वजा वाला कामदेव प्रकट हुआ॥4॥सुरन्ह कही निज बिपति सब सुनि मन कीन्ह बिचार।

सम्भु बिरोध न कुसल मोहि बिहसि कहेउ अस मार॥83॥

मूल

सम्भु बिरोध न कुसल मोहि बिहसि कहेउ अस मार॥83॥

भावार्थ

देवताओं ने कामदेव से अपनी सारी विपत्ति कही। सुनकर कामदेव ने मन में विचार किया और हँसकर देवताओं से यों कहा कि शिवजी के साथ विरोध करने में मेरी कुशल नहीं है॥83॥

03 चौपाई

तदपि करब मैं काजु तुम्हारा। श्रुति कह परम धरम उपकारा॥
पर हित लागि तजइ जो देही। सन्तत सन्त प्रसंसहिं तेही॥1॥

मूल

तदपि करब मैं काजु तुम्हारा। श्रुति कह परम धरम उपकारा॥
पर हित लागि तजइ जो देही। सन्तत सन्त प्रसंसहिं तेही॥1॥

भावार्थ

तथापि मैं तुम्हारा काम तो करूँगा, क्योङ्कि वेद दूसरे के उपकार को परम धर्म कहते हैं। जो दूसरे के हित के लिए अपना शरीर त्याग देता है, सन्त सदा उसकी बडाई करते हैं॥1॥

अस कहि चलेउ सबहि सिरु नाई। सुमन धनुष कर सहित सहाई॥
चलत मार अस हृदयँ बिचारा। सिव बिरोध ध्रुब मरनु हमारा॥2॥

मूल

अस कहि चलेउ सबहि सिरु नाई। सुमन धनुष कर सहित सहाई॥
चलत मार अस हृदयँ बिचारा। सिव बिरोध ध्रुब मरनु हमारा॥2॥

भावार्थ

यों कह और सबको सिर नवाकर कामदेव अपने पुष्प के धनुष को हाथ में लेकर (वसन्तादि) सहायकों के साथ चला। चलते समय कामदेव ने हृदय में ऐसा विचार किया कि शिवजी के साथ विरोध करने से मेरा मरण निश्चित है॥2॥

तब आपन प्रभाउ बिस्तारा। निज बस कीन्ह सकल संसारा॥
कोपेउ जबहिं बारिचरकेतू। छन महुँ मिटे सकल श्रुति सेतू॥3॥

मूल

तब आपन प्रभाउ बिस्तारा। निज बस कीन्ह सकल संसारा॥
कोपेउ जबहिं बारिचरकेतू। छन महुँ मिटे सकल श्रुति सेतू॥3॥

भावार्थ

तब उसने अपना प्रभाव फैलाया और समस्त संसार को अपने वश में कर लिया। जिस समय उस मछली के चिह्न की ध्वजा वाले कामदेव ने कोप किया, उस समय क्षणभर में ही वेदों की सारी मर्यादा मिट गई॥3॥

ब्रह्मचर्ज ब्रत सञ्जम नाना। धीरज धरम ग्यान बिग्याना॥
सदाचार जप जोग बिरागा। सभय बिबेक कटकु सबु भागा॥4॥

मूल

ब्रह्मचर्ज ब्रत सञ्जम नाना। धीरज धरम ग्यान बिग्याना॥
सदाचार जप जोग बिरागा। सभय बिबेक कटकु सबु भागा॥4॥

भावार्थ

ब्रह्मचर्य, नियम, नाना प्रकार के संयम, धीरज, धर्म, ज्ञान, विज्ञान, सदाचार, जप, योग, वैराग्य आदि विवेक की सारी सेना डरकर भाग गई॥4॥

04 छन्द

भागेउ बिबेकु सहाय सहित सो सुभट सञ्जुग महि मुरे।
सदग्रन्थ पर्बत कन्दरन्हि महुँ जाइ तेहि अवसर दुरे॥
होनिहार का करतार को रखवार जग खरभरु परा।
दुइ माथ केहि रतिनाथ जेहि कहुँ कोपि कर धनु सरु धरा॥

मूल

भागेउ बिबेकु सहाय सहित सो सुभट सञ्जुग महि मुरे।
सदग्रन्थ पर्बत कन्दरन्हि महुँ जाइ तेहि अवसर दुरे॥
होनिहार का करतार को रखवार जग खरभरु परा।
दुइ माथ केहि रतिनाथ जेहि कहुँ कोपि कर धनु सरु धरा॥

भावार्थ

विवेक अपने सहायकों सहित भाग गया, उसके योद्धा रणभूमि से पीठ दिखा गए।

उस समय वे सब सद्ग्रन्थ रूपी पर्वत की कन्दराओं में जा छिपे (अर्थात ज्ञान, वैराग्य, संयम, नियम, सदाचारादि ग्रन्थों में ही लिखे रह गए, उनका आचरण छूट गया)। सारे जगत्‌ में खलबली मच गई (और सब कहने लगे) हे विधाता! अब क्या होने वाला है? हमारी रक्षा कौन करेगा? ऐसा दो सिर वाला कौन है, जिसके लिए रति के पति कामदेव ने कोप करके हाथ में धनुष-बाण उठाया है?

084

01 दोहा

जे सजीव जग अचर चर नारि पुरुष अस नाम।
ते निज निज मरजाद तजि भए सकल बस काम॥84॥

मूल

जे सजीव जग अचर चर नारि पुरुष अस नाम।
ते निज निज मरजाद तजि भए सकल बस काम॥84॥

भावार्थ

जगत में स्त्री-पुरुष सञ्ज्ञा वाले जितने चर-अचर प्राणी थे, वे सब अपनी-अपनी मर्यादा छोडकर काम के वश में हो गए॥84॥

02 चौपाई

सब के हृदयँ मदन अभिलाषा। लता निहारि नवहिं तरु साखा॥
नदीं उमगि अम्बुधि कहुँ धाईं। सङ्गम करहिं तलाव तलाईं॥1॥

मूल

सब के हृदयँ मदन अभिलाषा। लता निहारि नवहिं तरु साखा॥
नदीं उमगि अम्बुधि कहुँ धाईं। सङ्गम करहिं तलाव तलाईं॥1॥

भावार्थ

सबके हृदय में काम की इच्छा हो गई। लताओं (बेलों) को देखकर वृक्षों की डालियाँ झुकने लगीं। नदियाँ उमड-उमडकर समुद्र की ओर दौडीं और ताल-तलैयाँ भी आपस में सङ्गम करने (मिलने-जुलने) लगीं॥1॥

जहँ असि दसा जडन्ह कै बरनी। को कहि सकइ सचेतन करनी॥
पसु पच्छी नभ जल थल चारी। भए काम बस समय बिसारी॥2॥

मूल

जहँ असि दसा जडन्ह कै बरनी। को कहि सकइ सचेतन करनी॥
पसु पच्छी नभ जल थल चारी। भए काम बस समय बिसारी॥2॥

भावार्थ

जब जड (वृक्ष, नदी आदि) की यह दशा कही गई, तब चेतन जीवों की करनी कौन कह सकता है? आकाश, जल और पृथ्वी पर विचरने वाले सारे पशु-पक्षी (अपने संयोग का) समय भुलाकर काम के वश में हो गए॥2॥

मदन अन्ध ब्याकुल सब लोका। निसि दिनु नहिं अवलोकहिं कोका॥
देव दनुज नर किन्नर ब्याला। प्रेत पिसाच भूत बेताला॥3॥

भावार्थ

सब लोक कामान्ध होकर व्याकुल हो गए। चकवा-चकवी रात-दिन नहीं देखते। देव, दैत्य, मनुष्य, किन्नर, सर्प, प्रेत, पिशाच, भूत, बेताल-॥3॥

इन्ह कै दसा न कहेउँ बखानी। सदा काम के चेरे जानी॥
सिद्ध बिरक्त महामुनि जोगी। तेपि कामबस भए बियोगी॥4॥

भावार्थ

ये तो सदा ही काम के गुलाम हैं, यह समझकर मैन्ने इनकी दशा का वर्णन नहीं किया। सिद्ध, विरक्त, महामुनि और महान्‌ योगी भी काम के वश होकर योगरहित या स्त्री के विरही हो गए॥4॥

03 छन्द

भए कामबस जोगीस तापस पावँरन्हि की को कहै।
देखहिं चराचर नारिमय जे ब्रह्ममय देखत रहे॥
अबला बिलोकहिं पुरुषमय जगु पुरुष सब अबलामयं।
दुइ दण्ड भरि ब्रह्माण्ड भीतर कामकृत कौतुक अयं॥

मूल

भए कामबस जोगीस तापस पावँरन्हि की को कहै।
देखहिं चराचर नारिमय जे ब्रह्ममय देखत रहे॥
अबला बिलोकहिं पुरुषमय जगु पुरुष सब अबलामयं।
दुइ दण्ड भरि ब्रह्माण्ड भीतर कामकृत कौतुक अयं॥

भावार्थ

जब योगीश्वर और तपस्वी भी काम के वश हो गए, तब पामर मनुष्यों की कौन कहे? जो समस्त चराचर जगत को ब्रह्ममय देखते थे, वे अब उसे स्त्रीमय देखने लगे।

स्त्रियाँ सारे संसार को पुरुषमय देखने लगीं और पुरुष उसे स्त्रीमय देखने लगे। दो घडी तक सारे ब्राह्मण्ड के अन्दर कामदेव का रचा हुआ यह कौतुक (तमाशा) रहा।

085

01 सोरठा

धरी न काहूँ धीर सब के मन मनसिज हरे।
जे राखे रघुबीर ते उबरे तेहि काल महुँ॥85॥

मूल

धरी न काहूँ धीर सब के मन मनसिज हरे।
जे राखे रघुबीर ते उबरे तेहि काल महुँ॥85॥

भावार्थ

किसी ने भी हृदय में धैर्य नहीं धारण किया, कामदेव ने सबके मन हर लिए। श्री रघुनाथजी ने जिनकी रक्षा की, केवल वे ही उस समय बचे रहे॥85॥

02 चौपाई

उभय घरी अस कौतुक भयऊ। जौ लगि कामु सम्भु पहिं गयऊ॥
सिवहि बिलोकि ससङ्केउ मारू। भयउ जथाथिति सबु संसारू॥1॥

मूल

उभय घरी अस कौतुक भयऊ। जौ लगि कामु सम्भु पहिं गयऊ॥
सिवहि बिलोकि ससङ्केउ मारू। भयउ जथाथिति सबु संसारू॥1॥

भावार्थ

दो घडी तक ऐसा तमाशा हुआ, जब तक कामदेव शिवजी के पास पहुँच गया। शिवजी को देखकर कामदेव डर गया, तब सारा संसार फिर जैसा-का तैसा स्थिर हो गया।

भए तुरत सब जीव सुखारे। जिमि मद उतरि गएँ मतवारे॥
रुद्रहि देखि मदन भय माना। दुराधरष दुर्गम भगवाना॥2॥

मूल

भए तुरत सब जीव सुखारे। जिमि मद उतरि गएँ मतवारे॥
रुद्रहि देखि मदन भय माना। दुराधरष दुर्गम भगवाना॥2॥

भावार्थ

तुरन्त ही सब जीव वैसे ही सुखी हो गए, जैसे मतवाले (नशा पिए हुए) लोग मद (नशा) उतर जाने पर सुखी होते हैं। दुराधर्ष (जिनको पराजित करना अत्यन्त ही कठिन है) और दुर्गम (जिनका पार पाना कठिन है) भगवान (सम्पूर्ण ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, ज्ञान और वैराग्य रूप छह ईश्वरीय गुणों से युक्त) रुद्र (महाभयङ्कर) शिवजी को देखकर कामदेव भयभीत हो गया॥2॥

फिरत लाज कछु करि नहिं जाई। मरनु ठानि मन रचेसि उपाई॥
प्रगटेसि तुरत रुचिर रितुराजा। कुसुमित नव तरु राजि बिराजा॥3॥

मूल

फिरत लाज कछु करि नहिं जाई। मरनु ठानि मन रचेसि उपाई॥
प्रगटेसि तुरत रुचिर रितुराजा। कुसुमित नव तरु राजि बिराजा॥3॥

भावार्थ

लौट जाने में लज्जा मालूम होती है और करते कुछ बनता नहीं। आखिर मन में मरने का निश्चय करके उसने उपाय रचा। तुरन्त ही सुन्दर ऋतुराज वसन्त को प्रकट किया। फूले हुए नए-नए वृक्षों की कतारें सुशोभित हो गईं॥3॥

बन उपबन बापिका तडागा। परम सुभग सब दिसा बिभागा॥
जहँ तहँ जनु उमगत अनुरागा। देखि मुएहुँ मन मनसिज जागा॥4॥

मूल

बन उपबन बापिका तडागा। परम सुभग सब दिसा बिभागा॥
जहँ तहँ जनु उमगत अनुरागा। देखि मुएहुँ मन मनसिज जागा॥4॥

भावार्थ

वन-उपवन, बावली-तालाब और सब दिशाओं के विभाग परम सुन्दर हो गए। जहाँ-तहाँ मानो प्रेम उमड रहा है, जिसे देखकर मरे मनों में भी कामदेव जाग उठा॥4॥

03 छन्द

जागइ मनोभव मुएहुँ मन बन सुभगता न परै कही।
सीतल सुगन्ध सुमन्द मारुत मदन अनल सखा सही॥
बिकसे सरन्हि बहु कञ्ज गुञ्जत पुञ्ज मञ्जुल मधुकरा।
कलहंस पिक सुक सरस रव करि गान नाचहिं अपछरा

मूल

जागइ मनोभव मुएहुँ मन बन सुभगता न परै कही।
सीतल सुगन्ध सुमन्द मारुत मदन अनल सखा सही॥
बिकसे सरन्हि बहु कञ्ज गुञ्जत पुञ्ज मञ्जुल मधुकरा।
कलहंस पिक सुक सरस रव करि गान नाचहिं अपछरा

भावार्थ

मरे हुए मन में भी कामदेव जागने लगा, वन की सुन्दरता कही नहीं जा सकती। कामरूपी अग्नि का सच्चा मित्र शीतल-मन्द-सुगन्धित पवन चलने लगा। सरोवरों में अनेकों कमल खिल गए, जिन पर सुन्दर भौंरों के समूह गुञ्जार करने लगे। राजहंस, कोयल और तोते रसीली बोली बोलने लगे और अप्सराएँ गा-गाकर नाचने लगीं॥

086

01 दोहा

सकल कला करि कोटि बिधि हारेउ सेन समेत।
चली न अचल समाधि सिव कोपेउ हृदयनिकेत॥86॥

मूल

सकल कला करि कोटि बिधि हारेउ सेन समेत।
चली न अचल समाधि सिव कोपेउ हृदयनिकेत॥86॥

भावार्थ

कामदेव अपनी सेना समेत करोडों प्रकार की सब कलाएँ (उपाए) करके हार गया, पर शिवजी की अचल समाधि न डिगी। तब कामदेव क्रोधित हो उठा॥86॥

02 चौपाई

देखि रसाल बिटप बर साखा। तेहि पर चढेउ मदनु मन माखा॥
सुमन चाप निज सर सन्धाने। अति रिस ताकि श्रवन लगि ताने॥1॥

मूल

देखि रसाल बिटप बर साखा। तेहि पर चढेउ मदनु मन माखा॥
सुमन चाप निज सर सन्धाने। अति रिस ताकि श्रवन लगि ताने॥1॥

भावार्थ

आम के वृक्ष की एक सुन्दर डाली देखकर मन में क्रोध से भरा हुआ कामदेव उस पर चढ गया। उसने पुष्प धनुष पर अपने (पाँचों) बाण चढाए और अत्यन्त क्रोध से (लक्ष्य की ओर) ताककर उन्हें कान तक तान लिया॥1॥

छाडे बिषम बिसिख उर लागे। छूटि समाधि सम्भु तब जागे॥
भयउ ईस मन छोभु बिसेषी। नयन उघारि सकल दिसि देखी॥2॥

मूल

छाडे बिषम बिसिख उर लागे। छूटि समाधि सम्भु तब जागे॥
भयउ ईस मन छोभु बिसेषी। नयन उघारि सकल दिसि देखी॥2॥

भावार्थ

कामदेव ने तीक्ष्ण पाँच बाण छोडे, जो शिवजी के हृदय में लगे। तब उनकी समाधि टूट गई और वे जाग गए। ईश्वर (शिवजी) के मन में बहुत क्षोभ हुआ। उन्होन्ने आँखें खोलकर सब ओर देखा॥2॥

सौरभ पल्लव मदनु बिलोका। भयउ कोपु कम्पेउ त्रैलोका॥
तब सिवँ तीसर नयन उघारा। चितवन कामु भयउ जरि छारा॥3॥

मूल

सौरभ पल्लव मदनु बिलोका। भयउ कोपु कम्पेउ त्रैलोका॥
तब सिवँ तीसर नयन उघारा। चितवन कामु भयउ जरि छारा॥3॥

भावार्थ

जब आम के पत्तों में (छिपे हुए) कामदेव को देखा तो उन्हें बडा क्रोध हुआ, जिससे तीनों लोक काँप उठे। तब शिवजी ने तीसरा नेत्र खोला, उनको देखते ही कामदेव जलकर भस्म हो गया॥3॥

हाहाकार भयउ जग भारी। डरपे सुर भए असुर सुखारी॥
समुझि कामसुख सोचहिं भोगी। भए अकण्टक साधक जोगी॥4॥

मूल

हाहाकार भयउ जग भारी। डरपे सुर भए असुर सुखारी॥
समुझि कामसुख सोचहिं भोगी। भए अकण्टक साधक जोगी॥4॥

भावार्थ

जगत में बडा हाहाकर मच गया। देवता डर गए, दैत्य सुखी हुए। भोगी लोग कामसुख को याद करके चिन्ता करने लगे और साधक योगी निष्कण्टक हो गए॥4॥

03 छन्द

जोगी अकण्टक भए पति गति सुनत रति मुरुछित भई।
रोदति बदति बहु भाँति करुना करति सङ्कर पहिं गई॥
अति प्रेम करि बिनती बिबिध बिधि जोरि कर सन्मुख रही।
प्रभु आसुतोष कृपाल सिव अबला निरखि बोले सही॥

मूल

जोगी अकण्टक भए पति गति सुनत रति मुरुछित भई।
रोदति बदति बहु भाँति करुना करति सङ्कर पहिं गई॥
अति प्रेम करि बिनती बिबिध बिधि जोरि कर सन्मुख रही।
प्रभु आसुतोष कृपाल सिव अबला निरखि बोले सही॥

भावार्थ

योगी निष्कण्टक हो गए, कामदेव की स्त्री रति अपने पति की यह दशा सुनते ही मूर्च्छित हो गई।

रोती-चिल्लाती और भाँति-भाँति से करुणा करती हुई वह शिवजी के पास गई। अत्यन्त प्रेम के साथ अनेकों प्रकार से विनती करके हाथ जोडकर सामने खडी हो गई। शीघ्र प्रसन्न होने वाले कृपालु शिवजी अबला (असहाय स्त्री) को देखकर सुन्दर (उसको सान्त्वना देने वाले) वचन बोले।

087

01 दोहा

अब तें रति तव नाथ कर होइहि नामु अनङ्गु।
बिनु बपु ब्यापिहि सबहि पुनि सुनु निज मिलन प्रसङ्गु॥87॥

मूल

अब तें रति तव नाथ कर होइहि नामु अनङ्गु।
बिनु बपु ब्यापिहि सबहि पुनि सुनु निज मिलन प्रसङ्गु॥87॥

भावार्थ

हे रति! अब से तेरे स्वामी का नाम अनङ्ग होगा। वह बिना ही शरीर के सबको व्यापेगा। अब तू अपने पति से मिलने की बात सुन॥87॥

02 चौपाई

जब जदुबंस कृष्न अवतारा। होइहि हरन महा महिभारा॥
कृष्न तनय होइहि पति तोरा। बचनु अन्यथा होइ न मोरा॥1॥

मूल

जब जदुबंस कृष्न अवतारा। होइहि हरन महा महिभारा॥
कृष्न तनय होइहि पति तोरा। बचनु अन्यथा होइ न मोरा॥1॥

भावार्थ

जब पृथ्वी के बडे भारी भार को उतारने के लिए यदुवंश में श्री कृष्ण का अवतार होगा, तब तेरा पति उनके पुत्र (प्रद्युम्न) के रूप में उत्पन्न होगा। मेरा यह वचन अन्यथा नहीं होगा॥1॥

रति गवनी सुनि सङ्कर बानी। कथा अपर अब कहउँ बखानी॥
देवन्ह समाचार सब पाए। ब्रह्मादिक बैकुण्ठ सिधाए॥2॥

मूल

रति गवनी सुनि सङ्कर बानी। कथा अपर अब कहउँ बखानी॥
देवन्ह समाचार सब पाए। ब्रह्मादिक बैकुण्ठ सिधाए॥2॥

भावार्थ

शिवजी के वचन सुनकर रति चली गई। अब दूसरी कथा बखानकर (विस्तार से) कहता हूँ। ब्रह्मादि देवताओं ने ये सब समाचार सुने तो वे वैकुण्ठ को चले॥2॥

सब सुर बिष्नु बिरञ्चि समेता। गए जहाँ सिव कृपानिकेता॥
पृथक-पृथक तिन्ह कीन्हि प्रसंसा। भए प्रसन्न चन्द्र अवतंसा॥3॥

मूल

सब सुर बिष्नु बिरञ्चि समेता। गए जहाँ सिव कृपानिकेता॥
पृथक-पृथक तिन्ह कीन्हि प्रसंसा। भए प्रसन्न चन्द्र अवतंसा॥3॥

भावार्थ

फिर वहाँ से विष्णु और ब्रह्मा सहित सब देवता वहाँ गए, जहाँ कृपा के धाम शिवजी थे। उन सबने शिवजी की अलग-अलग स्तुति की, तब शशिभूषण शिवजी प्रसन्न हो गए॥3॥

बोले कृपासिन्धु बृषकेतू। कहहु अमर आए केहि हेतू॥
कह बिधि तुम्ह प्रभु अन्तरजामी। तदपि भगति बस बिनवउँ स्वामी॥4॥

मूल

बोले कृपासिन्धु बृषकेतू। कहहु अमर आए केहि हेतू॥
कह बिधि तुम्ह प्रभु अन्तरजामी। तदपि भगति बस बिनवउँ स्वामी॥4॥

भावार्थ

कृपा के समुद्र शिवजी बोले- हे देवताओं! कहिए, आप किसलिए आए हैं? ब्रह्माजी ने कहा- हे प्रभो! आप अन्तर्यामी हैं, तथापि हे स्वामी! भक्तिवश मैं आपसे विनती करता हूँ॥4॥

088

01 दोहा

सकल सुरन्ह के हृदयँ अस सङ्कर परम उछाहु।
निज नयनन्हि देखा चहहिं नाथ तुम्हार बिबाहु॥88॥

मूल

सकल सुरन्ह के हृदयँ अस सङ्कर परम उछाहु।
निज नयनन्हि देखा चहहिं नाथ तुम्हार बिबाहु॥88॥

भावार्थ

हे शङ्कर! सब देवताओं के मन में ऐसा परम उत्साह है कि हे नाथ! वे अपनी आँखों से आपका विवाह देखना चाहते हैं॥88॥

02 चौपाई

यह उत्सव देखिअ भरि लोचन। सोइ कछु करहु मदन मद मोचन॥
कामु जारि रति कहुँ बरु दीन्हा। कृपासिन्धु यह अति भल कीन्हा॥1॥

मूल

यह उत्सव देखिअ भरि लोचन। सोइ कछु करहु मदन मद मोचन॥
कामु जारि रति कहुँ बरु दीन्हा। कृपासिन्धु यह अति भल कीन्हा॥1॥

भावार्थ

हे कामदेव के मद को चूर करने वाले! आप ऐसा कुछ कीजिए, जिससे सब लोग इस उत्सव को नेत्र भरकर देखें। हे कृपा के सागर! कामदेव को भस्म करके आपने रति को जो वरदान दिया, सो बहुत ही अच्छा किया॥1॥

सासति करि पुनि करहिं पसाऊ। नाथ प्रभुन्ह कर सहज सुभाऊ॥
पारबतीं तपु कीन्ह अपारा। करहु तासु अब अङ्गीकारा॥2॥

मूल

सासति करि पुनि करहिं पसाऊ। नाथ प्रभुन्ह कर सहज सुभाऊ॥
पारबतीं तपु कीन्ह अपारा। करहु तासु अब अङ्गीकारा॥2॥

भावार्थ

हे नाथ! श्रेष्ठ स्वामियों का यह सहज स्वभाव ही है कि वे पहले दण्ड देकर फिर कृपा किया करते हैं। पार्वती ने अपार तप किया है, अब उन्हें अङ्गीकार कीजिए॥2॥

सुनि बिधि बिनय समुझि प्रभु बानी। ऐसेइ होउ कहा सुखु मानी॥
तब देवन्ह दुन्दुभीं बजाईं। बरषि सुमन जय जय सुर साईं॥3॥

मूल

सुनि बिधि बिनय समुझि प्रभु बानी। ऐसेइ होउ कहा सुखु मानी॥
तब देवन्ह दुन्दुभीं बजाईं। बरषि सुमन जय जय सुर साईं॥3॥

भावार्थ

ब्रह्माजी की प्रार्थना सुनकर और प्रभु श्री रामचन्द्रजी के वचनों को याद करके शिवजी ने प्रसन्नतापूर्वक कहा- ‘ऐसा ही हो।’ तब देवताओं ने नगाडे बजाए और फूलों की वर्षा करके ‘जय हो! देवताओं के स्वामी जय हो’ ऐसा कहने लगे॥3॥

अवसरु जानि सप्तरिषि आए। तुरतहिं बिधि गिरिभवन पठाए॥
प्रथम गए जहँ रहीं भवानी। बोले मधुर बचन छल सानी॥4॥

मूल

अवसरु जानि सप्तरिषि आए। तुरतहिं बिधि गिरिभवन पठाए॥
प्रथम गए जहँ रहीं भवानी। बोले मधुर बचन छल सानी॥4॥

भावार्थ

उचित अवसर जानकर सप्तर्षि आए और ब्रह्माजी ने तुरन्त ही उन्हें हिमाचल के घर भेज दिया। वे पहले वहाँ गए जहाँ पार्वतीजी थीं और उनसे छल से भरे मीठे (विनोदयुक्त, आनन्द पहुँचाने वाले) वचन बोले-॥4॥

089

01 दोहा

कहा हमार न सुनेहु तब नारद कें उपदेस॥
अब भा झूठ तुम्हार पन जारेउ कामु महेस॥89॥

मूल

कहा हमार न सुनेहु तब नारद कें उपदेस॥
अब भा झूठ तुम्हार पन जारेउ कामु महेस॥89॥

भावार्थ

नारदजी के उपदेश से तुमने उस समय हमारी बात नहीं सुनी। अब तो तुम्हारा प्रण झूठा हो गया, क्योङ्कि महादेवजी ने काम को ही भस्म कर डाला॥89॥

मासपारायण, तीसरा विश्राम

02 चौपाई

सुनि बोलीं मुसुकाइ भवानी। उचित कहेहु मुनिबर बिग्यानी॥
तुम्हरें जान कामु अब जारा। अब लगि सम्भु रहे सबिकारा॥1॥

मूल

सुनि बोलीं मुसुकाइ भवानी। उचित कहेहु मुनिबर बिग्यानी॥
तुम्हरें जान कामु अब जारा। अब लगि सम्भु रहे सबिकारा॥1॥

भावार्थ

यह सुनकर पार्वतीजी मुस्कुराकर बोलीं- हे विज्ञानी मुनिवरों! आपने उचित ही कहा। आपकी समझ में शिवजी ने कामदेव को अब जलाया है, अब तक तो वे विकारयुक्त (कामी) ही रहे!॥1॥

हमरें जान सदासिव जोगी। अज अनवद्य अकाम अभोगी॥
जौं मैं सिव सेये अस जानी। प्रीति समेत कर्म मन बानी॥2॥

मूल

हमरें जान सदासिव जोगी। अज अनवद्य अकाम अभोगी॥
जौं मैं सिव सेये अस जानी। प्रीति समेत कर्म मन बानी॥2॥

भावार्थ

किन्तु हमारी समझ से तो शिवजी सदा से ही योगी, अजन्मे, अनिन्द्य, कामरहित और भोगहीन हैं और यदि मैन्ने शिवजी को ऐसा समझकर ही मन, वचन और कर्म से प्रेम सहित उनकी सेवा की है॥2॥

तौ हमार पन सुनहु मुनीसा। करिहहिं सत्य कृपानिधि ईसा॥
तुम्ह जो कहा हर जारेउ मारा। सोइ अति बड अबिबेकु तुम्हारा॥3॥

मूल

तौ हमार पन सुनहु मुनीसा। करिहहिं सत्य कृपानिधि ईसा॥
तुम्ह जो कहा हर जारेउ मारा। सोइ अति बड अबिबेकु तुम्हारा॥3॥

भावार्थ

तो हे मुनीश्वरो! सुनिए, वे कृपानिधान भगवान मेरी प्रतिज्ञा को सत्य करेङ्गे। आपने जो यह कहा कि शिवजी ने कामदेव को भस्म कर दिया, यही आपका बडा भारी अविवेक है॥3॥

तात अनल कर सहज सुभाऊ। हिम तेहि निकट जाइ नहिं काऊ॥
गएँ समीप सो अवसि नसाई। असि मन्मथ महेस की नाई॥4॥

मूल

तात अनल कर सहज सुभाऊ। हिम तेहि निकट जाइ नहिं काऊ॥
गएँ समीप सो अवसि नसाई। असि मन्मथ महेस की नाई॥4॥

भावार्थ

हे तात! अग्नि का तो यह सहज स्वभाव ही है कि पाला उसके समीप कभी जा ही नहीं सकता और जाने पर वह अवश्य नष्ट हो जाएगा। महादेवजी और कामदेव के सम्बन्ध में भी यही न्याय (बात) समझना चाहिए॥4॥

090

01 दोहा

हियँ हरषे मुनि बचन सुनि देखि प्रीति बिस्वास।
चले भवानिहि नाइ सिर गए हिमाचल पास॥90॥

मूल

हियँ हरषे मुनि बचन सुनि देखि प्रीति बिस्वास।
चले भवानिहि नाइ सिर गए हिमाचल पास॥90॥

भावार्थ

पार्वती के वचन सुनकर और उनका प्रेम तथा विश्वास देखकर मुनि हृदय में बडे प्रसन्न हुए। वे भवानी को सिर नवाकर चल दिए और हिमाचल के पास पहुँचे॥90॥

02 चौपाई

सबु प्रसङ्गु गिरिपतिहि सुनावा। मदन दहन सुनि अति दुखु पावा॥
बहुरि कहेउ रति कर बरदाना। सुनि हिमवन्त बहुत सुखु माना॥1॥

मूल

सबु प्रसङ्गु गिरिपतिहि सुनावा। मदन दहन सुनि अति दुखु पावा॥
बहुरि कहेउ रति कर बरदाना। सुनि हिमवन्त बहुत सुखु माना॥1॥

भावार्थ

उन्होन्ने पर्वतराज हिमाचल को सब हाल सुनाया। कामदेव का भस्म होना सुनकर हिमाचल बहुत दुःखी हुए। फिर मुनियों ने रति के वरदान की बात कही, उसे सुनकर हिमवान्‌ ने बहुत सुख माना॥1॥

हृदयँ बिचारि सम्भु प्रभुताई। सादर मुनिबर लिए बोलाई।
सुदिनु सुनखतु सुघरी सोचाई। बेगि बेदबिधि लगन धराई॥2॥

मूल

हृदयँ बिचारि सम्भु प्रभुताई। सादर मुनिबर लिए बोलाई।
सुदिनु सुनखतु सुघरी सोचाई। बेगि बेदबिधि लगन धराई॥2॥

भावार्थ

शिवजी के प्रभाव को मन में विचार कर हिमाचल ने श्रेष्ठ मुनियों को आदरपूर्वक बुला लिया और उनसे शुभ दिन, शुभ नक्षत्र और शुभ घडी शोधवाकर वेद की विधि के अनुसार शीघ्र ही लग्न निश्चय कराकर लिखवा लिया॥2॥

पत्री सप्तरिषिन्ह सोइ दीन्ही। गहि पद बिनय हिमाचल कीन्ही॥
जाइ बिधिहि तिन्ह दीन्हि सो पाती। बाचत प्रीति न हृदयँ समाती॥3॥

मूल

पत्री सप्तरिषिन्ह सोइ दीन्ही। गहि पद बिनय हिमाचल कीन्ही॥
जाइ बिधिहि तिन्ह दीन्हि सो पाती। बाचत प्रीति न हृदयँ समाती॥3॥

भावार्थ

फिर हिमाचल ने वह लग्नपत्रिका सप्तर्षियों को दे दी और चरण पकडकर उनकी विनती की। उन्होन्ने जाकर वह लग्न पत्रिका ब्रह्माजी को दी। उसको पढते समय उनके हृदय में प्रेम समाता न था॥3॥

लगन बाचि अज सबहि सुनाई। हरषे मुनि सब सुर समुदाई॥
सुमन बृष्टि नभ बाजन बाजे। मङ्गल कलस दसहुँ दिसि साजे॥4॥

मूल

लगन बाचि अज सबहि सुनाई। हरषे मुनि सब सुर समुदाई॥
सुमन बृष्टि नभ बाजन बाजे। मङ्गल कलस दसहुँ दिसि साजे॥4॥

भावार्थ

ब्रह्माजी ने लग्न पढकर सबको सुनाया, उसे सुनकर सब मुनि और देवताओं का सारा समाज हर्षित हो गया।

आकाश से फूलों की वर्षा होने लगी, बाजे बजने लगे और दसों दिशाओं में मङ्गल कलश सजा दिए गए॥4॥

091

01 दोहा

लगे सँवारन सकल सुर बाहन बिबिध बिमान।
होहिं सगुन मङ्गल सुभद करहिं अपछरा गान॥91॥

मूल

लगे सँवारन सकल सुर बाहन बिबिध बिमान।
होहिं सगुन मङ्गल सुभद करहिं अपछरा गान॥91॥

भावार्थ

सब देवता अपने भाँति-भाँति के वाहन और विमान सजाने लगे, कल्याणप्रद मङ्गल शकुन होने लगे और अप्सराएँ गाने लगीं॥91॥

02 चौपाई

सिवहि सम्भु गन करहिं सिङ्गारा। जटा मुकुट अहि मौरु सँवारा॥
कुण्डल कङ्कन पहिरे ब्याला। तन बिभूति पट केहरि छाला॥1॥

मूल

सिवहि सम्भु गन करहिं सिङ्गारा। जटा मुकुट अहि मौरु सँवारा॥
कुण्डल कङ्कन पहिरे ब्याला। तन बिभूति पट केहरि छाला॥1॥

भावार्थ

शिवजी के गण शिवजी का श्रृङ्गार करने लगे। जटाओं का मुकुट बनाकर उस पर साँपों का मौर सजाया गया। शिवजी ने साँपों के ही कुण्डल और कङ्कण पहने, शरीर पर विभूति रमायी और वस्त्र की जगह बाघम्बर लपेट लिया॥1॥

ससि ललाट सुन्दर सिर गङ्गा। नयन तीनि उपबीत भुजङ्गा॥
गरल कण्ठ उर नर सिर माला। असिव बेष सिवधाम कृपाला॥2॥

मूल

ससि ललाट सुन्दर सिर गङ्गा। नयन तीनि उपबीत भुजङ्गा॥
गरल कण्ठ उर नर सिर माला। असिव बेष सिवधाम कृपाला॥2॥

भावार्थ

शिवजी के सुन्दर मस्तक पर चन्द्रमा, सिर पर गङ्गाजी, तीन नेत्र, साँपों का जनेऊ, गले में विष और छाती पर नरमुण्डों की माला थी। इस प्रकार उनका वेष अशुभ होने पर भी वे कल्याण के धाम और कृपालु हैं॥2॥

कर त्रिसूल अरु डमरु बिराजा। चले बसहँ चढि बाजहिं बाजा॥
देखि सिवहि सुरत्रिय मुसुकाहीं। बर लायक दुलहिनि जग नाहीं॥3॥

मूल

कर त्रिसूल अरु डमरु बिराजा। चले बसहँ चढि बाजहिं बाजा॥
देखि सिवहि सुरत्रिय मुसुकाहीं। बर लायक दुलहिनि जग नाहीं॥3॥

भावार्थ

एक हाथ में त्रिशूल और दूसरे में डमरू सुशोभित है। शिवजी बैल पर चढकर चले। बाजे बज रहे हैं। शिवजी को देखकर देवाङ्गनाएँ मुस्कुरा रही हैं (और कहती हैं कि) इस वर के योग्य दुलहिन संसार में नहीं मिलेगी॥3॥

बिष्नु बिरञ्चि आदि सुरब्राता। चढि चढि बाहन चले बराता॥
सुर समाज सब भाँति अनूपा। नहिं बरात दूलह अनुरूपा॥4॥

मूल

बिष्नु बिरञ्चि आदि सुरब्राता। चढि चढि बाहन चले बराता॥
सुर समाज सब भाँति अनूपा। नहिं बरात दूलह अनुरूपा॥4॥

भावार्थ

विष्णु और ब्रह्मा आदि देवताओं के समूह अपने-अपने वाहनों (सवारियों) पर चढकर बारात में चले। देवताओं का समाज सब प्रकार से अनुपम (परम सुन्दर) था, पर दूल्हे के योग्य बारात न थी॥4॥

092

01 दोहा

बिष्नु कहा अस बिहसि तब बोलि सकल दिसिराज।
बिलग बिलग होइ चलहु सब निज निज सहित समाज॥92॥

मूल

बिष्नु कहा अस बिहसि तब बोलि सकल दिसिराज।
बिलग बिलग होइ चलहु सब निज निज सहित समाज॥92॥

भावार्थ

तब विष्णु भगवान ने सब दिक्पालों को बुलाकर हँसकर ऐसा कहा- सब लोग अपने-अपने दल समेत अलग-अलग होकर चलो॥92॥

02 चौपाई

बर अनुहारि बरात न भाई। हँसी करैहहु पर पुर जाई॥
बिष्नु बचन सुनि सुर मुसुकाने। निज निज सेन सहित बिलगाने॥1॥

मूल

बर अनुहारि बरात न भाई। हँसी करैहहु पर पुर जाई॥
बिष्नु बचन सुनि सुर मुसुकाने। निज निज सेन सहित बिलगाने॥1॥

भावार्थ

हे भाई! हम लोगों की यह बारात वर के योग्य नहीं है। क्या पराए नगर में जाकर हँसी कराओगे? विष्णु भगवान की बात सुनकर देवता मुस्कुराए और वे अपनी-अपनी सेना सहित अलग हो गए॥1॥

मनहीं मन महेसु मुसुकाहीं। हरि के बिङ्ग्य बचन नहिं जाहीं॥
अति प्रिय बचन सुनत प्रिय केरे। भृङ्गिहि प्रेरि सकल गन टेरे॥2॥

मूल

मनहीं मन महेसु मुसुकाहीं। हरि के बिङ्ग्य बचन नहिं जाहीं॥
अति प्रिय बचन सुनत प्रिय केरे। भृङ्गिहि प्रेरि सकल गन टेरे॥2॥

भावार्थ

महादेवजी (यह देखकर) मन-ही-मन मुस्कुराते हैं कि विष्णु भगवान के व्यङ्ग्य-वचन (दिल्लगी) नहीं छूटते! अपने प्यारे (विष्णु भगवान) के इन अति प्रिय वचनों को सुनकर शिवजी ने भी भृङ्गी को भेजकर अपने सब गणों को बुलवा लिया॥2॥

सिव अनुसासन सुनि सब आए। प्रभु पद जलज सीस तिन्ह नाए॥
नाना बाहन नाना बेषा। बिहसे सिव समाज निज देखा॥3॥

मूल

सिव अनुसासन सुनि सब आए। प्रभु पद जलज सीस तिन्ह नाए॥
नाना बाहन नाना बेषा। बिहसे सिव समाज निज देखा॥3॥

भावार्थ

शिवजी की आज्ञा सुनते ही सब चले आए और उन्होन्ने स्वामी के चरण कमलों में सिर नवाया। तरह-तरह की सवारियों और तरह-तरह के वेष वाले अपने समाज को देखकर शिवजी हँसे॥3॥

कोउ मुख हीन बिपुल मुख काहू। बिनु पद कर कोउ बहु पद बाहू॥
बिपुल नयन कोउ नयन बिहीना। रिष्टपुष्ट कोउ अति तनखीना॥4॥

मूल

कोउ मुख हीन बिपुल मुख काहू। बिनु पद कर कोउ बहु पद बाहू॥
बिपुल नयन कोउ नयन बिहीना। रिष्टपुष्ट कोउ अति तनखीना॥4॥

भावार्थ

कोई बिना मुख का है, किसी के बहुत से मुख हैं, कोई बिना हाथ-पैर का है तो किसी के कई हाथ-पैर हैं। किसी के बहुत आँखें हैं तो किसी के एक भी आँख नहीं है। कोई बहुत मोटा-ताजा है, तो कोई बहुत ही दुबला-पतला है॥4॥

03 छन्द

तन कीन कोउ अति पीन पावन कोउ अपावन गति धरें।
भूषन कराल कपाल कर सब सद्य सोनित तन भरें॥
खर स्वान सुअर सृकाल मुख गन बेष अगनित को गनै।
बहु जिनस प्रेत पिसाच जोगि जमात बरनत नहिं बनै॥

मूल

तन कीन कोउ अति पीन पावन कोउ अपावन गति धरें।
भूषन कराल कपाल कर सब सद्य सोनित तन भरें॥
खर स्वान सुअर सृकाल मुख गन बेष अगनित को गनै।
बहु जिनस प्रेत पिसाच जोगि जमात बरनत नहिं बनै॥

भावार्थ

कोई बहुत दुबला, कोई बहुत मोटा, कोई पवित्र और कोई अपवित्र वेष धारण किए हुए है।

भयङ्कर गहने पहने हाथ में कपाल लिए हैं और सब के सब शरीर में ताजा खून लपेटे हुए हैं। गधे, कुत्ते, सूअर और सियार के से उनके मुख हैं। गणों के अनगिनत वेषों को कौन गिने? बहुत प्रकार के प्रेत, पिशाच और योगिनियों की जमाते हैं। उनका वर्णन करते नहीं बनता।

093

01 सोरठा

नाचहिं गावहिं गीत परम तरङ्गी भूत सब।
देखत अति बिपरीत बोलहिं बचन बिचित्र बिधि॥93॥

मूल

नाचहिं गावहिं गीत परम तरङ्गी भूत सब।
देखत अति बिपरीत बोलहिं बचन बिचित्र बिधि॥93॥

भावार्थ

भूत-प्रेत नाचते और गाते हैं, वे सब बडे मौजी हैं। देखने में बहुत ही बेढङ्गे जान पडते हैं और बडे ही विचित्र ढङ्ग से बोलते हैं॥93॥

02 चौपाई

जस दूलहु तसि बनी बराता। कौतुक बिबिध होहिं मग जाता॥
इहाँ हिमाचल रचेउ बिताना। अति बिचित्र नहिं जाइ बखाना॥1॥

मूल

जस दूलहु तसि बनी बराता। कौतुक बिबिध होहिं मग जाता॥
इहाँ हिमाचल रचेउ बिताना। अति बिचित्र नहिं जाइ बखाना॥1॥

भावार्थ

जैसा दूल्हा है, अब वैसी ही बारात बन गई है। मार्ग में चलते हुए भाँति-भाँति के कौतुक (तमाशे) होते जाते हैं। इधर हिमाचल ने ऐसा विचित्र मण्डप बनाया कि जिसका वर्णन नहीं हो सकता॥1॥

सैल सकल जहँ लगि जग माहीं। लघु बिसाल नहिं बरनि सिराहीं॥
बन सागर सब नदी तलावा। हिमगिरि सब कहुँ नेवत पठावा॥2॥

मूल

सैल सकल जहँ लगि जग माहीं। लघु बिसाल नहिं बरनि सिराहीं॥
बन सागर सब नदी तलावा। हिमगिरि सब कहुँ नेवत पठावा॥2॥

भावार्थ

जगत में जितने छोटे-बडे पर्वत थे, जिनका वर्णन करके पार नहीं मिलता तथा जितने वन, समुद्र, नदियाँ और तालाब थे, हिमाचल ने सबको नेवता भेजा॥2॥

कामरूप सुन्दर तन धारी। सहित समाज सहित बर नारी॥
गए सकल तुहिमाचल गेहा। गावहिं मङ्गल सहित सनेहा॥3॥

मूल

कामरूप सुन्दर तन धारी। सहित समाज सहित बर नारी॥
गए सकल तुहिमाचल गेहा। गावहिं मङ्गल सहित सनेहा॥3॥

भावार्थ

वे सब अपनी इच्छानुसार रूप धारण करने वाले सुन्दर शरीर धारण कर सुन्दरी स्त्रियों और समाजों के साथ हिमाचल के घर गए। सभी स्नेह सहित मङ्गल गीत गाते हैं॥3॥

प्रथमहिं गिरि बहु गृह सँवराए। जथाजोगु तहँ तहँ सब छाए॥
पुर सोभा अवलोकि सुहाई। लागइ लघु बिरञ्चि निपुनाई॥4॥

मूल

प्रथमहिं गिरि बहु गृह सँवराए। जथाजोगु तहँ तहँ सब छाए॥
पुर सोभा अवलोकि सुहाई। लागइ लघु बिरञ्चि निपुनाई॥4॥

भावार्थ

हिमाचल ने पहले ही से बहुत से घर सजवा रखे थे। यथायोग्य उन-उन स्थानों में सब लोग उतर गए। नगर की सुन्दर शोभा देखकर ब्रह्मा की रचना चातुरी भी तुच्छ लगती थी॥4॥

03 छन्द

लघु लाग बिधि की निपुनता अवलोकि पुर सोभा सही।
बन बाग कूप तडाग सरिता सुभग सब सक को कही॥
मङ्गल बिपुल तोरन पताका केतु गृह गृह सोहहीं।
बनिता पुरुष सुन्दर चतुर छबि देखि मुनि मन मोहहीं॥

मूल

लघु लाग बिधि की निपुनता अवलोकि पुर सोभा सही।
बन बाग कूप तडाग सरिता सुभग सब सक को कही॥
मङ्गल बिपुल तोरन पताका केतु गृह गृह सोहहीं।
बनिता पुरुष सुन्दर चतुर छबि देखि मुनि मन मोहहीं॥

भावार्थ

नगर की शोभा देखकर ब्रह्मा की निपुणता सचमुच तुच्छ लगती है। वन, बाग, कुएँ, तालाब, नदियाँ सभी सुन्दर हैं, उनका वर्णन कौन कर सकता है? घर-घर बहुत से मङ्गल सूचक तोरण और ध्वजा-पताकाएँ सुशोभित हो रही हैं। वहाँ के सुन्दर और चतुर स्त्री-पुरुषों की छबि देखकर मुनियों के भी मन मोहित हो जाते हैं॥

094

01 दोहा

जगदम्बा जहँ अवतरी सो पुरु बरनि कि जाइ।
रिद्धि सिद्धि सम्पत्ति सुख नित नूतन अधिकाइ॥94॥

मूल

जगदम्बा जहँ अवतरी सो पुरु बरनि कि जाइ।
रिद्धि सिद्धि सम्पत्ति सुख नित नूतन अधिकाइ॥94॥

भावार्थ

जिस नगर में स्वयं जगदम्बा ने अवतार लिया, क्या उसका वर्णन हो सकता है? वहाँ ऋद्धि, सिद्धि, सम्पत्ति और सुख नित-नए बढते जाते हैं॥94॥

02 चौपाई

नगर निकट बरात सुनि आई। पुर खरभरु सोभा अधिकाई॥
करि बनाव सजि बाहन नाना। चले लेन सादर अगवाना॥1॥

मूल

नगर निकट बरात सुनि आई। पुर खरभरु सोभा अधिकाई॥
करि बनाव सजि बाहन नाना। चले लेन सादर अगवाना॥1॥

भावार्थ

बारात को नगर के निकट आई सुनकर नगर में चहल-पहल मच गई, जिससे उसकी शोभा बढ गई। अगवानी करने वाले लोग बनाव-श्रृङ्गार करके तथा नाना प्रकार की सवारियों को सजाकर आदर सहित बारात को लेने चले॥1॥

हियँ हरषे सुर सेन निहारी। हरिहि देखि अति भए सुखारी॥
सिव समाज जब देखन लागे। बिडरि चले बाहन सब भागे॥2॥

मूल

हियँ हरषे सुर सेन निहारी। हरिहि देखि अति भए सुखारी॥
सिव समाज जब देखन लागे। बिडरि चले बाहन सब भागे॥2॥

भावार्थ

देवताओं के समाज को देखकर सब मन में प्रसन्न हुए और विष्णु भगवान को देखकर तो बहुत ही सुखी हुए, किन्तु जब शिवजी के दल को देखने लगे तब तो उनके सब वाहन (सवारियों के हाथी, घोडे, रथ के बैल आदि) डरकर भाग चले॥2॥

धरि धीरजु तहँ रहे सयाने। बालक सब लै जीव पराने॥
गएँ भवन पूछहिं पितु माता। कहहिं बचन भय कम्पित गाता॥3॥

मूल

धरि धीरजु तहँ रहे सयाने। बालक सब लै जीव पराने॥
गएँ भवन पूछहिं पितु माता। कहहिं बचन भय कम्पित गाता॥3॥

भावार्थ

कुछ बडी उम्र के समझदार लोग धीरज धरकर वहाँ डटे रहे। लडके तो सब अपने प्राण लेकर भागे। घर पहुँचने पर जब माता-पिता पूछते हैं, तब वे भय से काँपते हुए शरीर से ऐसा वचन कहते हैं॥3॥

कहिअ काह कहि जाइ न बाता। जम कर धार किधौं बरिआता॥
बरु बौराह बसहँ असवारा। ब्याल कपाल बिभूषन छारा॥4॥

मूल

कहिअ काह कहि जाइ न बाता। जम कर धार किधौं बरिआता॥
बरु बौराह बसहँ असवारा। ब्याल कपाल बिभूषन छारा॥4॥

भावार्थ

क्या कहें, कोई बात कही नहीं जाती। यह बारात है या यमराज की सेना? दूल्हा पागल है और बैल पर सवार है। साँप, कपाल और राख ही उसके गहने हैं॥4॥

03 छन्द

तन छार ब्याल कपाल भूषन नगन जटिल भयङ्करा।
सँग भूत प्रेत पिसाच जोगिनि बिकट मुख रजनीचरा॥
जो जिअत रहिहि बरात देखत पुन्य बड तेहि कर सही।
देखिहि सो उमा बिबाहु घर घर बात असि लरिकन्ह कही॥

मूल

तन छार ब्याल कपाल भूषन नगन जटिल भयङ्करा।
सँग भूत प्रेत पिसाच जोगिनि बिकट मुख रजनीचरा॥
जो जिअत रहिहि बरात देखत पुन्य बड तेहि कर सही।
देखिहि सो उमा बिबाहु घर घर बात असि लरिकन्ह कही॥

भावार्थ

दूल्हे के शरीर पर राख लगी है, साँप और कपाल के गहने हैं, वह नङ्गा, जटाधारी और भयङ्कर है।

उसके साथ भयानक मुखवाले भूत, प्रेत, पिशाच, योगिनियाँ और राक्षस हैं, जो बारात को देखकर जीता बचेगा, सचमुच उसके बडे ही पुण्य हैं और वही पार्वती का विवाह देखेगा। लडकों ने घर-घर यही बात कही।

095

01 दोहा

समुझि महेस समाज सब जननि जनक मुसुकाहिं।
बाल बुझाए बिबिध बिधि निडर होहु डरु नाहिं॥95॥

मूल

समुझि महेस समाज सब जननि जनक मुसुकाहिं।
बाल बुझाए बिबिध बिधि निडर होहु डरु नाहिं॥95॥

भावार्थ

महेश्वर (शिवजी) का समाज समझकर सब लडकों के माता-पिता मुस्कुराते हैं। उन्होन्ने बहुत तरह से लडकों को समझाया कि निडर हो जाओ, डर की कोई बात नहीं है॥95॥

02 चौपाई

लै अगवान बरातहि आए। दिए सबहि जनवास सुहाए॥
मैनाँ सुभ आरती सँवारी। सङ्ग सुमङ्गल गावहिं नारी॥1॥

मूल

लै अगवान बरातहि आए। दिए सबहि जनवास सुहाए॥
मैनाँ सुभ आरती सँवारी। सङ्ग सुमङ्गल गावहिं नारी॥1॥

भावार्थ

अगवान लोग बारात को लिवा लाए, उन्होन्ने सबको सुन्दर जनवासे ठहरने को दिए। मैना (पार्वतीजी की माता) ने शुभ आरती सजाई और उनके साथ की स्त्रियाँ उत्तम मङ्गलगीत गाने लगीं॥1॥

कञ्चन थार सोह बर पानी। परिछन चली हरहि हरषानी॥
बिकट बेष रुद्रहि जब देखा। अबलन्ह उर भय भयउ बिसेषा॥2॥

मूल

कञ्चन थार सोह बर पानी। परिछन चली हरहि हरषानी॥
बिकट बेष रुद्रहि जब देखा। अबलन्ह उर भय भयउ बिसेषा॥2॥

भावार्थ

सुन्दर हाथों में सोने का थाल शोभित है, इस प्रकार मैना हर्ष के साथ शिवजी का परछन करने चलीं। जब महादेवजी को भयानक वेष में देखा तब तो स्त्रियों के मन में बडा भारी भय उत्पन्न हो गया॥2॥

भागि भवन पैठीं अति त्रासा। गए महेसु जहाँ जनवासा॥
मैना हृदयँ भयउ दुखु भारी। लीन्ही बोली गिरीसकुमारी॥3॥

मूल

भागि भवन पैठीं अति त्रासा। गए महेसु जहाँ जनवासा॥
मैना हृदयँ भयउ दुखु भारी। लीन्ही बोली गिरीसकुमारी॥3॥

भावार्थ

बहुत ही डर के मारे भागकर वे घर में घुस गईं और शिवजी जहाँ जनवासा था, वहाँ चले गए। मैना के हृदय में बडा दुःख हुआ, उन्होन्ने पार्वतीजी को अपने पास बुला लिया॥3॥

अधिक सनेहँ गोद बैठारी। स्याम सरोज नयन भरे बारी॥
जेहिं बिधि तुम्हहि रूपु अस दीन्हा। तेहिं जड बरु बाउर कस कीन्हा॥4॥

मूल

अधिक सनेहँ गोद बैठारी। स्याम सरोज नयन भरे बारी॥
जेहिं बिधि तुम्हहि रूपु अस दीन्हा। तेहिं जड बरु बाउर कस कीन्हा॥4॥

भावार्थ

और अत्यन्त स्नेह से गोद में बैठाकर अपने नीलकमल के समान नेत्रों में आँसू भरकर कहा- जिस विधाता ने तुमको ऐसा सुन्दर रूप दिया, उस मूर्ख ने तुम्हारे दूल्हे को बावला कैसे बनाया?॥4॥

03 छन्द

कस कीन्ह बरु बौराह बिधि जेहिं तुम्हहि सुन्दरता दई।
जो फलु चहिअ सुरतरुहिं सो बरबस बबूरहिं लागई॥
तुम्ह सहित गिरि तें गिरौं पावक जरौं जलनिधि महुँ परौं।
घरु जाउ अपजसु होउ जग जीवत बिबाहु न हौं करौं॥

मूल

कस कीन्ह बरु बौराह बिधि जेहिं तुम्हहि सुन्दरता दई।
जो फलु चहिअ सुरतरुहिं सो बरबस बबूरहिं लागई॥
तुम्ह सहित गिरि तें गिरौं पावक जरौं जलनिधि महुँ परौं।
घरु जाउ अपजसु होउ जग जीवत बिबाहु न हौं करौं॥

भावार्थ

जिस विधाता ने तुमको सुन्दरता दी, उसने तुम्हारे लिए वर बावला कैसे बनाया? जो फल कल्पवृक्ष में लगना चाहिए, वह जबर्दस्ती बबूल में लग रहा है।

मैं तुम्हें लेकर पहाड से गिर पडूँगी, आग में जल जाऊँगी या समुद्र में कूद पडूँगी। चाहे घर उजड जाए और संसार भर में अपकीर्ति फैल जाए, पर जीते जी मैं इस बावले वर से तुम्हारा विवाह न करूँगी।

096

01 दोहा

भईं बिकल अबला सकल दुखित देखि गिरिनारि।
करि बिलापु रोदति बदति सुता सनेहु सँभारि॥96॥।

मूल

भईं बिकल अबला सकल दुखित देखि गिरिनारि।
करि बिलापु रोदति बदति सुता सनेहु सँभारि॥96॥।

भावार्थ

हिमाचल की स्त्री (मैना) को दुःखी देखकर सारी स्त्रियाँ व्याकुल हो गईं। मैना अपनी कन्या के स्नेह को याद करके विलाप करती, रोती और कहती थीं-॥96॥

02 चौपाई

नारद कर मैं काह बिगारा। भवनु मोर जिन्ह बसत उजारा॥
अस उपदेसु उमहि जिन्ह दीन्हा। बौरे बरहि लागि तपु कीन्हा॥1॥

मूल

नारद कर मैं काह बिगारा। भवनु मोर जिन्ह बसत उजारा॥
अस उपदेसु उमहि जिन्ह दीन्हा। बौरे बरहि लागि तपु कीन्हा॥1॥

भावार्थ

मैन्ने नारद का क्या बिगाडा था, जिन्होन्ने मेरा बसता हुआ घर उजाड दिया और जिन्होन्ने पार्वती को ऐसा उपदेश दिया कि जिससे उसने बावले वर के लिए तप किया॥1॥

साचेहुँ उन्ह कें मोह न माया। उदासीन धनु धामु न जाया॥
पर घर घालक लाज न भीरा। बाँझ कि जान प्रसव कै पीरा॥2॥

मूल

साचेहुँ उन्ह कें मोह न माया। उदासीन धनु धामु न जाया॥
पर घर घालक लाज न भीरा। बाँझ कि जान प्रसव कै पीरा॥2॥

भावार्थ

सचमुच उनके न किसी का मोह है, न माया, न उनके धन है, न घर है और न स्त्री ही है, वे सबसे उदासीन हैं। इसी से वे दूसरे का घर उजाडने वाले हैं। उन्हें न किसी की लाज है, न डर है। भला, बाँझ स्त्री प्रसव की पीडा को क्या जाने॥2॥

जननिहि बिकल बिलोकि भवानी। बोली जुत बिबेक मृदु बानी॥
अस बिचारि सोचहि मति माता। सो न टरइ जो रचइ बिधाता॥3॥

मूल

जननिहि बिकल बिलोकि भवानी। बोली जुत बिबेक मृदु बानी॥
अस बिचारि सोचहि मति माता। सो न टरइ जो रचइ बिधाता॥3॥

भावार्थ

माता को विकल देखकर पार्वतीजी विवेकयुक्त कोमल वाणी बोलीं- हे माता! जो विधाता रच देते हैं, वह टलता नहीं, ऐसा विचार कर तुम सोच मत करो!॥3॥

करम लिखा जौं बाउर नाहू। तौ कत दोसु लगाइअ काहू॥
तुम्ह सन मिटहिं कि बिधि के अङ्का। मातु ब्यर्थ जनि लेहु कलङ्का॥4॥

मूल

करम लिखा जौं बाउर नाहू। तौ कत दोसु लगाइअ काहू॥
तुम्ह सन मिटहिं कि बिधि के अङ्का। मातु ब्यर्थ जनि लेहु कलङ्का॥4॥

भावार्थ

जो मेरे भाग्य में बावला ही पति लिखा है, तो किसी को क्यों दोष लगाया जाए? हे माता! क्या विधाता के अङ्क तुमसे मिट सकते हैं? वृथा कलङ्क का टीका मत लो॥4॥

03 छन्द

जनि लेहु मातु कलङ्कु करुना परिहरहु अवसर नहीं।
दुखु सुखु जो लिखा लिलार हमरें जाब जहँ पाउब तहीं॥
सुनि उमा बचन बिनीत कोमल सकल अबला सोचहीं।
बहु भाँति बिधिहि लगाइ दूषन नयन बारि बिमोचहीं॥

मूल

जनि लेहु मातु कलङ्कु करुना परिहरहु अवसर नहीं।
दुखु सुखु जो लिखा लिलार हमरें जाब जहँ पाउब तहीं॥
सुनि उमा बचन बिनीत कोमल सकल अबला सोचहीं।
बहु भाँति बिधिहि लगाइ दूषन नयन बारि बिमोचहीं॥

भावार्थ

हे माता! कलङ्क मत लो, रोना छोडो, यह अवसर विषाद करने का नहीं है।

मेरे भाग्य में जो दुःख-सुख लिखा है, उसे मैं जहाँ जाऊँगी, वहीं पाऊँगी! पार्वतीजी के ऐसे विनय भरे कोमल वचन सुनकर सारी स्त्रियाँ सोच करने लगीं और भाँति-भाँति से विधाता को दोष देकर आँखों से आँसू बहाने लगीं।

097

01 दोहा

तेहि अवसर नारद सहित अरु रिषि सप्त समेत।
समाचार सुनि तुहिनगिरि गवने तुरत निकेत॥97॥

मूल

तेहि अवसर नारद सहित अरु रिषि सप्त समेत।
समाचार सुनि तुहिनगिरि गवने तुरत निकेत॥97॥

भावार्थ

इस समाचार को सुनते ही हिमाचल उसी समय नारदजी और सप्त ऋषियों को साथ लेकर अपने घर गए॥97॥

02 चौपाई

तब नारद सबही समुझावा। पूरुब कथा प्रसङ्गु सुनावा॥
मयना सत्य सुनहु मम बानी। जगदम्बा तव सुता भवानी॥1॥

मूल

तब नारद सबही समुझावा। पूरुब कथा प्रसङ्गु सुनावा॥
मयना सत्य सुनहु मम बानी। जगदम्बा तव सुता भवानी॥1॥

भावार्थ

तब नारदजी ने पूर्वजन्म की कथा सुनाकर सबको समझाया (और कहा) कि हे मैना! तुम मेरी सच्ची बात सुनो, तुम्हारी यह लडकी साक्षात जगज्जनी भवानी है॥1॥

अजा अनादि सक्ति अबिनासिनि। सदा सम्भु अरधङ्ग निवासिनि॥
जग सम्भव पालन लय कारिनि। निज इच्छा लीला बपु धारिनि॥2॥

भावार्थ

ये अजन्मा, अनादि और अविनाशिनी शक्ति हैं। सदा शिवजी के अर्द्धाङ्ग में रहती हैं। ये जगत की उत्पत्ति, पालन और संहार करने वाली हैं और अपनी इच्छा से ही लीला शरीर धारण करती हैं॥2॥

जनमीं प्रथम दच्छ गृह जाई। नामु सती सुन्दर तनु पाई॥
तहँहुँ सती सङ्करहि बिबाहीं। कथा प्रसिद्ध सकल जग माहीं॥3॥

भावार्थ

पहले ये दक्ष के घर जाकर जन्मी थीं, तब इनका सती नाम था, बहुत सुन्दर शरीर पाया था। वहाँ भी सती शङ्करजी से ही ब्याही गई थीं। यह कथा सारे जगत में प्रसिद्ध है॥3॥

एक बार आवत सिव सङ्गा। देखेउ रघुकुल कमल पतङ्गा॥
भयउ मोहु सिव कहा न कीन्हा। भ्रम बस बेषु सीय कर लीन्हा॥4॥

भावार्थ

एक बार इन्होन्ने शिवजी के साथ आते हुए (राह में) रघुकुल रूपी कमल के सूर्य श्री रामचन्द्रजी को देखा, तब इन्हें मोह हो गया और इन्होन्ने शिवजी का कहना न मानकर भ्रमवश सीताजी का वेष धारण कर लिया॥4॥

03 छन्द

सिय बेषु सतीं जो कीन्ह तेहिं अपराध सङ्कर परिहरीं।
हर बिरहँ जाइ बहोरि पितु कें जग्य जोगानल जरीं॥
अब जनमि तुम्हरे भवन निज पति लागि दारुन तपु किया।
अस जानि संसय तजहु गिरिजा सर्बदा सङ्करप्रिया॥

मूल

सिय बेषु सतीं जो कीन्ह तेहिं अपराध सङ्कर परिहरीं।
हर बिरहँ जाइ बहोरि पितु कें जग्य जोगानल जरीं॥
अब जनमि तुम्हरे भवन निज पति लागि दारुन तपु किया।
अस जानि संसय तजहु गिरिजा सर्बदा सङ्करप्रिया॥

भावार्थ

सतीजी ने जो सीता का वेष धारण किया, उसी अपराध के कारण शङ्करजी ने उनको त्याग दिया।

फिर शिवजी के वियोग में ये अपने पिता के यज्ञ में जाकर वहीं योगाग्नि से भस्म हो गईं। अब इन्होन्ने तुम्हारे घर जन्म लेकर अपने पति के लिए कठिन तप किया है ऐसा जानकर सन्देह छोड दो, पार्वतीजी तो सदा ही शिवजी की प्रिया (अर्द्धाङ्गिनी) हैं।

098

01 दोहा

सुनि नारद के बचन तब सब कर मिटा बिषाद।
छन महुँ ब्यापेउ सकल पुर घर घर यह सम्बाद॥98॥

मूल

सुनि नारद के बचन तब सब कर मिटा बिषाद।
छन महुँ ब्यापेउ सकल पुर घर घर यह सम्बाद॥98॥

भावार्थ

तब नारद के वचन सुनकर सबका विषाद मिट गया और क्षणभर में यह समाचार सारे नगर में घर-घर फैल गया॥98॥

02 चौपाई

तब मयना हिमवन्तु अनन्दे। पुनि पुनि पारबती पद बन्दे॥
नारि पुरुष सिसु जुबा सयाने। नगर लोग सब अति हरषाने॥1॥

मूल

तब मयना हिमवन्तु अनन्दे। पुनि पुनि पारबती पद बन्दे॥
नारि पुरुष सिसु जुबा सयाने। नगर लोग सब अति हरषाने॥1॥

भावार्थ

तब मैना और हिमवान आनन्द में मग्न हो गए और उन्होन्ने बार-बार पार्वती के चरणों की वन्दना की। स्त्री, पुरुष, बालक, युवा और वृद्ध नगर के सभी लोग बहुत प्रसन्न हुए॥1॥

लगे होन पुर मङ्गल गाना। सजे सबहिं हाटक घट नाना॥
भाँति अनेक भई जेवनारा। सूपसास्त्र जस कछु ब्यवहारा॥2॥

मूल

लगे होन पुर मङ्गल गाना। सजे सबहिं हाटक घट नाना॥
भाँति अनेक भई जेवनारा। सूपसास्त्र जस कछु ब्यवहारा॥2॥

भावार्थ

नगर में मङ्गल गीत गाए जाने लगे और सबने भाँति-भाँति के सुवर्ण के कलश सजाए। पाक शास्त्र में जैसी रीति है, उसके अनुसार अनेक भाँति की ज्योनार हुई (रसोई बनी)॥2॥

सो जेवनार कि जाइ बखानी। बसहिं भवन जेहिं मातु भवानी॥
सादर बोले सकल बराती। बिष्नु बिरञ्चि देव सब जाती॥3॥

मूल

सो जेवनार कि जाइ बखानी। बसहिं भवन जेहिं मातु भवानी॥
सादर बोले सकल बराती। बिष्नु बिरञ्चि देव सब जाती॥3॥

भावार्थ

जिस घर में स्वयं माता भवानी रहती हों, वहाँ की ज्योनार (भोजन सामग्री) का वर्णन कैसे किया जा सकता है? हिमाचल ने आदरपूर्वक सब बारातियों, विष्णु, ब्रह्मा और सब जाति के देवताओं को बुलवाया॥3॥

बिबिधि पाँति बैठी जेवनारा। लागे परुसन निपुन सुआरा॥
नारिबृन्द सुर जेवँत जानी। लगीं देन गारीं मृदु बानी॥4॥

मूल

बिबिधि पाँति बैठी जेवनारा। लागे परुसन निपुन सुआरा॥
नारिबृन्द सुर जेवँत जानी। लगीं देन गारीं मृदु बानी॥4॥

भावार्थ

भोजन (करने वालों) की बहुत सी पङ्गतें बैठीं। चतुर रसोइए परोसने लगे। स्त्रियों की मण्डलियाँ देवताओं को भोजन करते जानकर कोमल वाणी से गालियाँ देने लगीं॥4॥

03 छन्द

गारीं मधुर स्वर देहिं सुन्दरि बिङ्ग्य बचन सुनावहीं।
भोजनु करहिं सुर अति बिलम्बु बिनोदु सुनि सचु पावहीं॥
जेवँत जो बढ्यो अनन्दु सो मुख कोटिहूँ न परै कह्यो।
अचवाँइ दीन्हें पान गवने बास जहँ जाको रह्यो॥

मूल

गारीं मधुर स्वर देहिं सुन्दरि बिङ्ग्य बचन सुनावहीं।
भोजनु करहिं सुर अति बिलम्बु बिनोदु सुनि सचु पावहीं॥
जेवँत जो बढ्यो अनन्दु सो मुख कोटिहूँ न परै कह्यो।
अचवाँइ दीन्हें पान गवने बास जहँ जाको रह्यो॥

भावार्थ

सब सुन्दरी स्त्रियाँ मीठे स्वर में गालियाँ देने लगीं और व्यङ्ग्य भरे वचन सुनाने लगीं।

देवगण विनोद सुनकर बहुत सुख अनुभव करते हैं, इसलिए भोजन करने में बडी देर लगा रहे हैं। भोजन के समय जो आनन्द बढा वह करोडों मुँह से भी नहीं कहा जा सकता। (भोजन कर चुकने पर) सबके हाथ-मुँह धुलवाकर पान दिए गए। फिर सब लोग, जो जहाँ ठहरे थे, वहाँ चले गए।

099

01 दोहा

बहुरि मुनिन्ह हिमवन्त कहुँ लगन सुनाई आइ।
समय बिलोकि बिबाह कर पठए देव बोलाइ॥99॥

मूल

बहुरि मुनिन्ह हिमवन्त कहुँ लगन सुनाई आइ।
समय बिलोकि बिबाह कर पठए देव बोलाइ॥99॥

भावार्थ

फिर मुनियों ने लौटकर हिमवान्‌ को लगन (लग्न पत्रिका) सुनाई और विवाह का समय देखकर देवताओं को बुला भेजा॥99॥

02 चौपाई

बोलि सकल सुर सादर लीन्हे। सबहि जथोचित आसन दीन्हे॥
बेदी बेद बिधान सँवारी। सुभग सुमङ्गल गावहिं नारी॥1॥

मूल

बोलि सकल सुर सादर लीन्हे। सबहि जथोचित आसन दीन्हे॥
बेदी बेद बिधान सँवारी। सुभग सुमङ्गल गावहिं नारी॥1॥

भावार्थ

सब देवताओं को आदर सहित बुलवा लिया और सबको यथायोग्य आसन दिए। वेद की रीति से वेदी सजाई गई और स्त्रियाँ सुन्दर श्रेष्ठ मङ्गल गीत गाने लगीं॥1॥

सिङ्घासनु अति दिब्य सुहावा। जाइ न बरनि बिरञ्चि बनावा॥
बैठे सिव बिप्रन्ह सिरु नाई। हृदयँ सुमिरि निज प्रभु रघुराई॥2॥

मूल

सिङ्घासनु अति दिब्य सुहावा। जाइ न बरनि बिरञ्चि बनावा॥
बैठे सिव बिप्रन्ह सिरु नाई। हृदयँ सुमिरि निज प्रभु रघुराई॥2॥

भावार्थ

वेदिका पर एक अत्यन्त सुन्दर दिव्य सिंहासन था, जिस (की सुन्दरता) का वर्णन नहीं किया जा सकता, क्योङ्कि वह स्वयं ब्रह्माजी का बनाया हुआ था। ब्राह्मणों को सिर नवाकर और हृदय में अपने स्वामी श्री रघुनाथजी का स्मरण करके शिवजी उस सिंहासन पर बैठ गए॥2॥

बहुरि मुनीसन्ह उमा बोलाईं। करि सिङ्गारु सखीं लै आईं॥
देखत रूपु सकल सुर मोहे। बरनै छबि अस जग कबि को है॥3॥

मूल

बहुरि मुनीसन्ह उमा बोलाईं। करि सिङ्गारु सखीं लै आईं॥
देखत रूपु सकल सुर मोहे। बरनै छबि अस जग कबि को है॥3॥

भावार्थ

फिर मुनीश्वरों ने पार्वतीजी को बुलाया। सखियाँ श्रृङ्गार करके उन्हें ले आईं। पार्वतीजी के रूप को देखते ही सब देवता मोहित हो गए। संसार में ऐसा कवि कौन है, जो उस सुन्दरता का वर्णन कर सके?॥3॥

जगदम्बिका जानि भव भामा। सुरन्ह मनहिं मन कीन्ह प्रनामा॥
सुन्दरता मरजाद भवानी। जाइ न कोटिहुँ बदन बखानी॥4॥

मूल

जगदम्बिका जानि भव भामा। सुरन्ह मनहिं मन कीन्ह प्रनामा॥
सुन्दरता मरजाद भवानी। जाइ न कोटिहुँ बदन बखानी॥4॥

भावार्थ

पार्वतीजी को जगदम्बा और शिवजी की पत्नी समझकर देवताओं ने मन ही मन प्रणाम किया। भवानीजी सुन्दरता की सीमा हैं। करोडों मुखों से भी उनकी शोभा नहीं कही जा सकती॥4॥

03 छन्द

कोटिहुँ बदन नहिं बनै बरनत जग जननि सोभा महा।
सकुचहिं कहत श्रुति सेष सारद मन्दमति तुलसीकहा॥
छबिखानि मातु भवानि गवनीं मध्य मण्डप सिव जहाँ।
अवलोकि सकहिं न सकुच पति पद कमल मनु मधुकरु तहाँ॥

मूल

कोटिहुँ बदन नहिं बनै बरनत जग जननि सोभा महा।
सकुचहिं कहत श्रुति सेष सारद मन्दमति तुलसीकहा॥
छबिखानि मातु भवानि गवनीं मध्य मण्डप सिव जहाँ।
अवलोकि सकहिं न सकुच पति पद कमल मनु मधुकरु तहाँ॥

भावार्थ

जगज्जननी पार्वतीजी की महान शोभा का वर्णन करोडों मुखों से भी करते नहीं बनता।

वेद, शेषजी और सरस्वतीजी तक उसे कहते हुए सकुचा जाते हैं, तब मन्दबुद्धि तुलसी किस गिनती में है? सुन्दरता और शोभा की खान माता भवानी मण्डप के बीच में, जहाँ शिवजी थे, वहाँ गईं। वे सङ्कोच के मारे पति (शिवजी) के चरणकमलों को देख नहीं सकतीं, परन्तु उनका मन रूपी भौंरा तो वहीं (रसपान कर रहा) था।

100

01 दोहा

मुनि अनुसासन गनपतिहि पूजेउ सम्भु भवानि।
कोउ सुनि संसय करै जनि सुर अनादि जियँ जानि॥100॥

मूल

मुनि अनुसासन गनपतिहि पूजेउ सम्भु भवानि।
कोउ सुनि संसय करै जनि सुर अनादि जियँ जानि॥100॥

भावार्थ

मुनियों की आज्ञा से शिवजी और पार्वतीजी ने गणेशजी का पूजन किया। मन में देवताओं को अनादि समझकर कोई इस बात को सुनकर शङ्का न करे (कि गणेशजी तो शिव-पार्वती की सन्तान हैं, अभी विवाह से पूर्व ही वे कहाँ से आ गए?)॥100॥

02 चौपाई

जसि बिबाह कै बिधि श्रुति गाई। महामुनिन्ह सो सब करवाई॥
गहि गिरीस कुस कन्या पानी। भवहि समरपीं जानि भवानी॥1॥

मूल

जसि बिबाह कै बिधि श्रुति गाई। महामुनिन्ह सो सब करवाई॥
गहि गिरीस कुस कन्या पानी। भवहि समरपीं जानि भवानी॥1॥

भावार्थ

वेदों में विवाह की जैसी रीति कही गई है, महामुनियों ने वह सभी रीति करवाई। पर्वतराज हिमाचल ने हाथ में कुश लेकर तथा कन्या का हाथ पकडकर उन्हें भवानी (शिवपत्नी) जानकर शिवजी को समर्पण किया॥1॥

पानिग्रहन जब कीन्ह महेसा। हियँ हरषे तब सकल सुरेसा॥
बेदमन्त्र मुनिबर उच्चरहीं। जय जय जय सङ्कर सुर करहीं॥2॥

मूल

पानिग्रहन जब कीन्ह महेसा। हियँ हरषे तब सकल सुरेसा॥
बेदमन्त्र मुनिबर उच्चरहीं। जय जय जय सङ्कर सुर करहीं॥2॥

भावार्थ

जब महेश्वर (शिवजी) ने पार्वती का पाणिग्रहण किया, तब (इन्द्रादि) सब देवता हृदय में बडे ही हर्षित हुए। श्रेष्ठ मुनिगण वेदमन्त्रों का उच्चारण करने लगे और देवगण शिवजी का जय-जयकार करने लगे॥2॥

बाजहिं बाजन बिबिध बिधाना। सुमनबृष्टि नभ भै बिधि नाना॥
हर गिरिजा कर भयउ बिबाहू। सकल भुवन भरि रहा उछाहू॥3॥

भावार्थ

अनेकों प्रकार के बाजे बजने लगे। आकाश से नाना प्रकार के फूलों की वर्षा हुई। शिव-पार्वती का विवाह हो गया। सारे ब्राह्माण्ड में आनन्द भर गया॥3॥

दासीं दास तुरग रथ नागा। धेनु बसन मनि बस्तु बिभागा॥
अन्न कनकभाजन भरि जाना। दाइज दीन्ह न जाइ बखाना॥4॥

भावार्थ

दासी, दास, रथ, घोडे, हाथी, गायें, वस्त्र और मणि आदि अनेक प्रकार की चीजें, अन्न तथा सोने के बर्तन गाडियों में लदवाकर दहेज में दिए, जिनका वर्णन नहीं हो सकता॥4॥

03 छन्द

दाइज दियो बहु भाँति पुनि कर जोरि हिमभूधर कह्यो।
का देउँ पूरनकाम सङ्कर चरन पङ्कज गहि रह्यो॥
सिवँ कृपासागर ससुर कर सन्तोषु सब भाँतिहिं कियो।
पुनि गहे पद पाथोज मयनाँ प्रेम परिपूरन हियो॥

मूल

दाइज दियो बहु भाँति पुनि कर जोरि हिमभूधर कह्यो।
का देउँ पूरनकाम सङ्कर चरन पङ्कज गहि रह्यो॥
सिवँ कृपासागर ससुर कर सन्तोषु सब भाँतिहिं कियो।
पुनि गहे पद पाथोज मयनाँ प्रेम परिपूरन हियो॥

भावार्थ

बहुत प्रकार का दहेज देकर, फिर हाथ जोडकर हिमाचल ने कहा- हे शङ्कर! आप पूर्णकाम हैं, मैं आपको क्या दे सकता हूँ? (इतना कहकर) वे शिवजी के चरणकमल पकडकर रह गए।

तब कृपा के सागर शिवजी ने अपने ससुर का सभी प्रकार से समाधान किया। फिर प्रेम से परिपूर्ण हृदय मैनाजी ने शिवजी के चरण कमल पकडे (और कहा-)।

101

01 दोहा

नाथ उमा मम प्रान सम गृहकिङ्करी करेहु।
छमेहु सकल अपराध अब होइ प्रसन्न बरु देहु॥101॥

मूल

नाथ उमा मम प्रान सम गृहकिङ्करी करेहु।
छमेहु सकल अपराध अब होइ प्रसन्न बरु देहु॥101॥

भावार्थ

हे नाथ! यह उमा मुझे मेरे प्राणों के समान (प्यारी) है। आप इसे अपने घर की टहलनी बनाइएगा और इसके सब अपराधों को क्षमा करते रहिएगा। अब प्रसन्न होकर मुझे यही वर दीजिए॥101॥

02 चौपाई

बहु बिधि सम्भु सासु समुझाई। गवनी भवन चरन सिरु नाई॥
जननीं उमा बोलि तब लीन्ही। लै उछङ्ग सुन्दर सिख दीन्ही॥1॥

मूल

बहु बिधि सम्भु सासु समुझाई। गवनी भवन चरन सिरु नाई॥
जननीं उमा बोलि तब लीन्ही। लै उछङ्ग सुन्दर सिख दीन्ही॥1॥

भावार्थ

शिवजी ने बहुत तरह से अपनी सास को समझाया। तब वे शिवजी के चरणों में सिर नवाकर घर गईं। फिर माता ने पार्वती को बुला लिया और गोद में बिठाकर यह सुन्दर सीख दी-॥1॥

करेहु सदा सङ्कर पद पूजा। नारिधरमु पति देउ न दूजा॥
बचन कहत भरे लोचन बारी। बहुरि लाइ उर लीन्हि कुमारी॥2॥

मूल

करेहु सदा सङ्कर पद पूजा। नारिधरमु पति देउ न दूजा॥
बचन कहत भरे लोचन बारी। बहुरि लाइ उर लीन्हि कुमारी॥2॥

भावार्थ

हे पार्वती! तू सदाशिवजी के चरणों की पूजा करना, नारियों का यही धर्म है। उनके लिए पति ही देवता है और कोई देवता नहीं है। इस प्रकार की बातें कहते-कहते उनकी आँखों में आँसू भर आए और उन्होन्ने कन्या को छाती से चिपटा लिया॥2॥

कत बिधि सृजीं नारि जग माहीं। पराधीन सपनेहूँ सुखु नाहीं॥
भै अति प्रेम बिकल महतारी। धीरजु कीन्ह कुसमय बिचारी॥3॥

मूल

कत बिधि सृजीं नारि जग माहीं। पराधीन सपनेहूँ सुखु नाहीं॥
भै अति प्रेम बिकल महतारी। धीरजु कीन्ह कुसमय बिचारी॥3॥

भावार्थ

(फिर बोलीं कि) विधाता ने जगत में स्त्री जाति को क्यों पैदा किया? पराधीन को सपने में भी सुख नहीं मिलता। यों कहती हुई माता प्रेम में अत्यन्त विकल हो गईं, परन्तु कुसमय जानकर (दुःख करने का अवसर न जानकर) उन्होन्ने धीरज धरा॥3॥

पुनि पुनि मिलति परति गहि चरना। परम प्रेमु कछु जाइ न बरना॥
सब नारिन्ह मिलि भेण्टि भवानी। जाइ जननि उर पुनि लपटानी॥4॥

मूल

पुनि पुनि मिलति परति गहि चरना। परम प्रेमु कछु जाइ न बरना॥
सब नारिन्ह मिलि भेण्टि भवानी। जाइ जननि उर पुनि लपटानी॥4॥

भावार्थ

मैना बार-बार मिलती हैं और (पार्वती के) चरणों को पकडकर गिर पडती हैं। बडा ही प्रेम है, कुछ वर्णन नहीं किया जाता। भवानी सब स्त्रियों से मिल-भेण्टकर फिर अपनी माता के हृदय से जा लिपटीं॥4॥

03 छन्द

जननिहि बहुरि मिलि चली उचित असीस सब काहूँ दईं।
फिरि फिरि बिलोकति मातु तन तब सखीं लै सिव पहिं गईं॥
जाचक सकल सन्तोषि सङ्करु उमा सहित भवन चले।
सब अमर हरषे सुमन बरषि निसान नभ बाजे भले॥

मूल

जननिहि बहुरि मिलि चली उचित असीस सब काहूँ दईं।
फिरि फिरि बिलोकति मातु तन तब सखीं लै सिव पहिं गईं॥
जाचक सकल सन्तोषि सङ्करु उमा सहित भवन चले।
सब अमर हरषे सुमन बरषि निसान नभ बाजे भले॥

भावार्थ

पार्वतीजी माता से फिर मिलकर चलीं, सब किसी ने उन्हें योग्य आशीर्वाद दिए।

पार्वतीजी फिर-फिरकर माता की ओर देखती जाती थीं। तब सखियाँ उन्हें शिवजी के पास ले गईं। महादेवजी सब याचकों को सन्तुष्ट कर पार्वती के साथ घर (कैलास) को चले। सब देवता प्रसन्न होकर फूलों की वर्षा करने लगे और आकाश में सुन्दर नगाडे बजाने लगे।

102

01 दोहा

चले सङ्ग हिमवन्तु तब पहुँचावन अति हेतु।
बिबिध भाँति परितोषु करि बिदा कीन्ह बृषकेतु॥102॥

मूल

चले सङ्ग हिमवन्तु तब पहुँचावन अति हेतु।
बिबिध भाँति परितोषु करि बिदा कीन्ह बृषकेतु॥102॥

भावार्थ

तब हिमवान्‌ अत्यन्त प्रेम से शिवजी को पहुँचाने के लिए साथ चले। वृषकेतु (शिवजी) ने बहुत तरह से उन्हें सन्तोष कराकर विदा किया॥102॥

02 चौपाई

तुरत भवन आए गिरिराई। सकल सैल सर लिए बोलाई॥
आदर दान बिनय बहुमाना। सब कर बिदा कीन्ह हिमवाना॥1॥

मूल

तुरत भवन आए गिरिराई। सकल सैल सर लिए बोलाई॥
आदर दान बिनय बहुमाना। सब कर बिदा कीन्ह हिमवाना॥1॥

भावार्थ

पर्वतराज हिमाचल तुरन्त घर आए और उन्होन्ने सब पर्वतों और सरोवरों को बुलाया। हिमवान ने आदर, दान, विनय और बहुत सम्मानपूर्वक सबकी विदाई की॥1॥

जबहिं सम्भु कैलासहिं आए। सुर सब निज निज लोक सिधाए॥
जगत मातु पितु सम्भु भवानी। तेहिं सिङ्गारु न कहउँ बखानी॥2॥

मूल

जबहिं सम्भु कैलासहिं आए। सुर सब निज निज लोक सिधाए॥
जगत मातु पितु सम्भु भवानी। तेहिं सिङ्गारु न कहउँ बखानी॥2॥

भावार्थ

जब शिवजी कैलास पर्वत पर पहुँचे, तब सब देवता अपने-अपने लोकों को चले गए। (तुलसीदासजी कहते हैं कि) पार्वतीजी और शिवजी जगत के माता-पिता हैं, इसलिए मैं उनके श्रृङ्गार का वर्णन नहीं करता॥2॥

करहिं बिबिध बिधि भोग बिलासा। गनन्ह समेत बसहिं कैलासा॥
हर गिरिजा बिहार नित नयऊ। एहि बिधि बिपुल काल चलि गयऊ॥3॥

मूल

करहिं बिबिध बिधि भोग बिलासा। गनन्ह समेत बसहिं कैलासा॥
हर गिरिजा बिहार नित नयऊ। एहि बिधि बिपुल काल चलि गयऊ॥3॥

भावार्थ

शिव-पार्वती विविध प्रकार के भोग-विलास करते हुए अपने गणों सहित कैलास पर रहने लगे। वे नित्य नए विहार करते थे। इस प्रकार बहुत समय बीत गया॥3॥

जब जनमेउ षटबदन कुमारा। तारकु असुरु समर जेहिं मारा॥
आगम निगम प्रसिद्ध पुराना। षन्मुख जन्मु सकल जग जाना॥4॥

भावार्थ

तब छ: मुखवाले पुत्र (स्वामिकार्तिक) का जन्म हुआ, जिन्होन्ने (बडे होने पर) युद्ध में तारकासुर को मारा। वेद, शास्त्र और पुराणों में स्वामिकार्तिक के जन्म की कथा प्रसिद्ध है और सारा जगत उसे जानता है॥4॥

03 छन्द

जगु जान षन्मुख जन्मु कर्मु प्रतापु पुरुषारथु महा।
तेहि हेतु मैं बृषकेतु सुत कर चरित सञ्छेपहिं कहा॥
यह उमा सम्भु बिबाहु जे नर नारि कहहिं जे गावहीं।
कल्यान काज बिबाह मङ्गल सर्बदा सुखु पावहीं॥

मूल

जगु जान षन्मुख जन्मु कर्मु प्रतापु पुरुषारथु महा।
तेहि हेतु मैं बृषकेतु सुत कर चरित सञ्छेपहिं कहा॥
यह उमा सम्भु बिबाहु जे नर नारि कहहिं जे गावहीं।
कल्यान काज बिबाह मङ्गल सर्बदा सुखु पावहीं॥

भावार्थ

षडानन (स्वामिकार्तिक) के जन्म, कर्म, प्रताप और महान पुरुषार्थ को सारा जगत जानता है, इसलिए मैन्ने वृषकेतु (शिवजी) के पुत्र का चरित्र सङ्क्षेप में ही कहा है।

शिव-पार्वती के विवाह की इस कथा को जो स्त्री-पुरुष कहेङ्गे और गाएँगे, वे कल्याण के कार्यों और विवाहादि मङ्गलों में सदा सुख पाएँगे।

103

01 दोहा

चरित सिन्धु गिरिजा रमन बेद न पावहिं पारु।
बरनै तुलसीदासु किमि अति मतिमन्द गवाँरु॥103॥

मूल

चरित सिन्धु गिरिजा रमन बेद न पावहिं पारु।
बरनै तुलसीदासु किमि अति मतिमन्द गवाँरु॥103॥

भावार्थ

गिरिजापति महादेवजी का चरित्र समुद्र के समान (अपार) है, उसका पार वेद भी नहीं पाते। तब अत्यन्त मन्दबुद्धि और गँवार तुलसीदास उसका वर्णन कैसे कर सकता है? ॥103॥

02 चौपाई

सम्भु चरित सुनि सरस सुहावा। भरद्वाज मुनि अति सुखु पावा॥
बहु लालसा कथा पर बाढी। नयनन्हि नीरु रोमावलि ठाढी॥1॥

मूल

सम्भु चरित सुनि सरस सुहावा। भरद्वाज मुनि अति सुखु पावा॥
बहु लालसा कथा पर बाढी। नयनन्हि नीरु रोमावलि ठाढी॥1॥

भावार्थ

शिवजी के रसीले और सुहावने चरित्र को सुनकर मुनि भरद्वाजजी ने बहुत ही सुख पाया। कथा सुनने की उनकी लालसा बहुत बढ गई। नेत्रों में जल भर आया तथा रोमावली खडी हो गई॥1॥

प्रेम बिबस मुख आव न बानी। दसा देखि हरषे मुनि ग्यानी॥
अहो धन्य तब जन्मु मुनीसा। तुम्हहि प्रान सम प्रिय गौरीसा॥2॥

मूल

प्रेम बिबस मुख आव न बानी। दसा देखि हरषे मुनि ग्यानी॥
अहो धन्य तब जन्मु मुनीसा। तुम्हहि प्रान सम प्रिय गौरीसा॥2॥

भावार्थ

वे प्रेम में मुग्ध हो गए, मुख से वाणी नहीं निकलती। उनकी यह दशा देखकर ज्ञानी मुनि याज्ञवल्क्य बहुत प्रसन्न हुए (और बोले-) हे मुनीश! अहा हा! तुम्हारा जन्म धन्य है, तुमको गौरीपति शिवजी प्राणों के समान प्रिय हैं॥2॥

सिव पद कमल जिन्हहि रति नाहीं। रामहि ते सपनेहुँ न सोहाहीं॥
बिनु छल बिस्वनाथ पद नेहू। राम भगत कर लच्छन एहू॥3॥

मूल

सिव पद कमल जिन्हहि रति नाहीं। रामहि ते सपनेहुँ न सोहाहीं॥
बिनु छल बिस्वनाथ पद नेहू। राम भगत कर लच्छन एहू॥3॥

भावार्थ

शिवजी के चरण कमलों में जिनकी प्रीति नहीं है, वे श्री रामचन्द्रजी को स्वप्न में भी अच्छे नहीं लगते। विश्वनाथ श्री शिवजी के चरणों में निष्कपट (विशुद्ध) प्रेम होना यही रामभक्त का लक्षण है॥3॥

सिव सम को रघुपति ब्रतधारी। बिनु अघ तजी सती असि नारी॥
पनु करि रघुपति भगति देखाई। को सिव सम रामहि प्रिय भाई॥4॥

भावार्थ

शिवजी के समान रघुनाथजी (की भक्ति) का व्रत धारण करने वाला कौन है? जिन्होन्ने बिना ही पाप के सती जैसी स्त्री को त्याग दिया और प्रतिज्ञा करके श्री रघुनाथजी की भक्ति को दिखा दिया। हे भाई! श्री रामचन्द्रजी को शिवजी के समान और कौन प्यारा है?॥4॥

104

01 दोहा

प्रथमहिं मैं कहि सिव चरित बूझा मरमु तुम्हार।
सुचि सेवक तुम्ह राम के रहित समस्त बिकार॥104॥

मूल

प्रथमहिं मैं कहि सिव चरित बूझा मरमु तुम्हार।
सुचि सेवक तुम्ह राम के रहित समस्त बिकार॥104॥

भावार्थ

मैन्ने पहले ही शिवजी का चरित्र कहकर तुम्हारा भेद समझ लिया। तुम श्री रामचन्द्रजी के पवित्र सेवक हो और समस्त दोषों से रहित हो॥104॥

02 चौपाई

मैं जाना तुम्हार गुन सीला। कहउँ सुनहु अब रघुपति लीला॥
सुनु मुनि आजु समागम तोरें। कहि न जाइ जस सुखु मन मोरें॥1॥

मूल

मैं जाना तुम्हार गुन सीला। कहउँ सुनहु अब रघुपति लीला॥
सुनु मुनि आजु समागम तोरें। कहि न जाइ जस सुखु मन मोरें॥1॥

भावार्थ

मैन्ने तुम्हारा गुण और शील जान लिया। अब मैं श्री रघुनाथजी की लीला कहता हूँ, सुनो। हे मुनि! सुनो, आज तुम्हारे मिलने से मेरे मन में जो आनन्द हुआ है, वह कहा नहीं जा सकता॥1॥

राम चरित अति अमित मुनीसा। कहि न सकहिं सत कोटि अहीसा॥
तदपि जथाश्रुत कहउँ बखानी। सुमिरि गिरापति प्रभु धनुपानी॥2॥

मूल

राम चरित अति अमित मुनीसा। कहि न सकहिं सत कोटि अहीसा॥
तदपि जथाश्रुत कहउँ बखानी। सुमिरि गिरापति प्रभु धनुपानी॥2॥

भावार्थ

हे मुनीश्वर! रामचरित्र अत्यन्त अपार है। सौ करोड शेषजी भी उसे नहीं कह सकते। तथापि जैसा मैन्ने सुना है, वैसा वाणी के स्वामी (प्रेरक) और हाथ में धनुष लिए हुए प्रभु श्री रामचन्द्रजी का स्मरण करके कहता हूँ॥2॥

सारद दारुनारि सम स्वामी। रामु सूत्रधर अन्तरजामी॥
जेहि पर कृपा करहिं जनु जानी। कबि उर अजिर नचावहिं बानी॥3॥

मूल

सारद दारुनारि सम स्वामी। रामु सूत्रधर अन्तरजामी॥
जेहि पर कृपा करहिं जनु जानी। कबि उर अजिर नचावहिं बानी॥3॥

भावार्थ

सरस्वतीजी कठपुतली के समान हैं और अन्तर्यामी स्वामी श्री रामचन्द्रजी (सूत पकडकर कठपुतली को नचाने वाले) सूत्रधार हैं। अपना भक्त जानकर जिस कवि पर वे कृपा करते हैं, उसके हृदय रूपी आँगन में सरस्वती को वे नचाया करते हैं॥3॥

प्रनवउँ सोइ कृपाल रघुनाथा। बरनउँ बिसद तासु गुन गाथा॥
परम रम्य गिरिबरु कैलासू। सदा जहाँ सिव उमा निवासू॥4॥

मूल

प्रनवउँ सोइ कृपाल रघुनाथा। बरनउँ बिसद तासु गुन गाथा॥
परम रम्य गिरिबरु कैलासू। सदा जहाँ सिव उमा निवासू॥4॥

भावार्थ

उन्हीं कृपालु श्री रघुनाथजी को मैं प्रणाम करता हूँ और उन्हीं के निर्मल गुणों की कथा कहता हूँ। कैलास पर्वतों में श्रेष्ठ और बहुत ही रमणीय है, जहाँ शिव-पार्वतीजी सदा निवास करते हैं॥4॥

105

01 दोहा

सिद्ध तपोधन जोगिजन सुर किन्नर मुनिबृन्द।
बसहिं तहाँ सुकृती सकल सेवहिं सिव सुखकन्द॥105॥

मूल

सिद्ध तपोधन जोगिजन सुर किन्नर मुनिबृन्द।
बसहिं तहाँ सुकृती सकल सेवहिं सिव सुखकन्द॥105॥

भावार्थ

सिद्ध, तपस्वी, योगीगण, देवता, किन्नर और मुनियों के समूह उस पर्वत पर रहते हैं। वे सब बडे पुण्यात्मा हैं और आनन्दकन्द श्री महादेवजी की सेवा करते हैं॥105॥

02 चौपाई

हरि हर बिमुख धर्म रति नाहीं। ते नर तहँ सपनेहुँ नहिं जाहीं॥
तेहि गिरि पर बट बिटप बिसाला। नित नूतन सुन्दर सब काला॥1॥

मूल

हरि हर बिमुख धर्म रति नाहीं। ते नर तहँ सपनेहुँ नहिं जाहीं॥
तेहि गिरि पर बट बिटप बिसाला। नित नूतन सुन्दर सब काला॥1॥

भावार्थ

जो भगवान विष्णु और महादेवजी से विमुख हैं और जिनकी धर्म में प्रीति नहीं है, वे लोग स्वप्न में भी वहाँ नहीं जा सकते। उस पर्वत पर एक विशाल बरगद का पेड है, जो नित्य नवीन और सब काल (छहों ऋतुओं) में सुन्दर रहता है॥1॥

त्रिबिध समीर सुसीतलि छाया। सिव बिश्राम बिटप श्रुति गाया॥
एक बार तेहि तर प्रभु गयऊ। तरु बिलोकि उर अति सुखु भयऊ॥2॥

मूल

त्रिबिध समीर सुसीतलि छाया। सिव बिश्राम बिटप श्रुति गाया॥
एक बार तेहि तर प्रभु गयऊ। तरु बिलोकि उर अति सुखु भयऊ॥2॥

भावार्थ

वहाँ तीनों प्रकार की (शीतल, मन्द और सुगन्ध) वायु बहती रहती है और उसकी छाया बडी ठण्डी रहती है। वह शिवजी के विश्राम करने का वृक्ष है, जिसे वेदों ने गाया है। एक बार प्रभु श्री शिवजी उस वृक्ष के नीचे गए और उसे देखकर उनके हृदय में बहुत आनन्द हुआ॥2॥

निज कर डासि नागरिपु छाला। बैठे सहजहिं सम्भु कृपाला॥
कुन्द इन्दु दर गौर सरीरा। भुज प्रलम्ब परिधन मुनिचीरा॥3॥

मूल

निज कर डासि नागरिपु छाला। बैठे सहजहिं सम्भु कृपाला॥
कुन्द इन्दु दर गौर सरीरा। भुज प्रलम्ब परिधन मुनिचीरा॥3॥

भावार्थ

अपने हाथ से बाघम्बर बिछाकर कृपालु शिवजी स्वभाव से ही (बिना किसी खास प्रयोजन के) वहाँ बैठ गए। कुन्द के पुष्प, चन्द्रमा और शङ्ख के समान उनका गौर शरीर था। बडी लम्बी भुजाएँ थीं और वे मुनियों के से (वल्कल) वस्त्र धारण किए हुए थे॥3॥

तरुन अरुन अम्बुज सम चरना। नख दुति भगत हृदय तम हरना॥
भुजग भूति भूषन त्रिपुरारी। आननु सरद चन्द छबि हारी॥4॥

भावार्थ

उनके चरण नए (पूर्ण रूप से खिले हुए) लाल कमल के समान थे, नखों की ज्योति भक्तों के हृदय का अन्धकार हरने वाली थी।

साँप और भस्म ही उनके भूषण थे और उन त्रिपुरासुर के शत्रु शिवजी का मुख शरद (पूर्णिमा) के चन्द्रमा की शोभा को भी हरने वाला (फीकी करने वाला) था॥4॥

106

01 दोहा

जटा मुकुट सुरसरित सिर लोचन नलिन बिसाल।
नीलकण्ठ लावन्यनिधि सोह बालबिधु भाल॥106॥

मूल

जटा मुकुट सुरसरित सिर लोचन नलिन बिसाल।
नीलकण्ठ लावन्यनिधि सोह बालबिधु भाल॥106॥

भावार्थ

उनके सिर पर जटाओं का मुकुट और गङ्गाजी (शोभायमान) थीं। कमल के समान बडे-बडे नेत्र थे। उनका नील कण्ठ था और वे सुन्दरता के भण्डार थे। उनके मस्तक पर द्वितीया का चन्द्रमा शोभित था॥106॥

02 चौपाई

बैठे सोह कामरिपु कैसें। धरें सरीरु सान्तरसु जैसें॥
पारबती भल अवसरु जानी। गईं सम्भु पहिं मातु भवानी॥1॥

मूल

बैठे सोह कामरिपु कैसें। धरें सरीरु सान्तरसु जैसें॥
पारबती भल अवसरु जानी। गईं सम्भु पहिं मातु भवानी॥1॥

भावार्थ

कामदेव के शत्रु शिवजी वहाँ बैठे हुए ऐसे शोभित हो रहे थे, मानो शान्तरस ही शरीर धारण किए बैठा हो। अच्छा मौका जानकर शिवपत्नी माता पार्वतीजी उनके पास गईं।

जानि प्रिया आदरु अति कीन्हा। बाम भाग आसनु हर दीन्हा॥
बैठीं सिव समीप हरषाई। पूरुब जन्म कथा चित आई॥2॥

मूल

जानि प्रिया आदरु अति कीन्हा। बाम भाग आसनु हर दीन्हा॥
बैठीं सिव समीप हरषाई। पूरुब जन्म कथा चित आई॥2॥

भावार्थ

अपनी प्यारी पत्नी जानकार शिवजी ने उनका बहुत आदर-सत्कार किया और अपनी बायीं ओर बैठने के लिए आसन दिया। पार्वतीजी प्रसन्न होकर शिवजी के पास बैठ गईं। उन्हें पिछले जन्म की कथा स्मरण हो आई॥2॥

पति हियँ हेतु अधिक अनुमानी। बिहसि उमा बोलीं प्रिय बानी॥
कथा जो सकल लोक हितकारी। सोइ पूछन चह सैल कुमारी॥3॥

मूल

पति हियँ हेतु अधिक अनुमानी। बिहसि उमा बोलीं प्रिय बानी॥
कथा जो सकल लोक हितकारी। सोइ पूछन चह सैल कुमारी॥3॥

भावार्थ

स्वामी के हृदय में (अपने ऊपर पहले की अपेक्षा) अधिक प्रेम समझकर पार्वतीजी हँसकर प्रिय वचन बोलीं। (याज्ञवल्क्यजी कहते हैं कि) जो कथा सब लोगों का हित करने वाली है, उसे ही पार्वतीजी पूछना चाहती हैं॥3॥

बिस्वनाथ मम नाथ पुरारी। त्रिभुवन महिमा बिदित तुम्हारी॥
चर अरु अचर नाग नर देवा। सकल करहिं पद पङ्कज सेवा॥4॥

मूल

बिस्वनाथ मम नाथ पुरारी। त्रिभुवन महिमा बिदित तुम्हारी॥
चर अरु अचर नाग नर देवा। सकल करहिं पद पङ्कज सेवा॥4॥

भावार्थ

(पार्वतीजी ने कहा-) हे संसार के स्वामी! हे मेरे नाथ! हे त्रिपुरासुर का वध करने वाले! आपकी महिमा तीनों लोकों में विख्यात है। चर, अचर, नाग, मनुष्य और देवता सभी आपके चरण कमलों की सेवा करते हैं॥4॥

107

01 दोहा

प्रभु समरथ सर्बग्य सिव सकल कला गुन धाम।
जोग ग्यान बैराग्य निधि प्रनत कलपतरु नाम॥107॥

मूल

प्रभु समरथ सर्बग्य सिव सकल कला गुन धाम।
जोग ग्यान बैराग्य निधि प्रनत कलपतरु नाम॥107॥

भावार्थ

हे प्रभो! आप समर्थ, सर्वज्ञ और कल्याणस्वरूप हैं। सब कलाओं और गुणों के निधान हैं और योग, ज्ञान तथा वैराग्य के भण्डार हैं। आपका नाम शरणागतों के लिए कल्पवृक्ष है॥107॥

02 चौपाई

जौं मो पर प्रसन्न सुखरासी। जानिअ सत्य मोहि निज दासी॥
तौ प्रभु हरहु मोर अग्याना। कहि रघुनाथ कथा बिधि नाना॥1॥

मूल

जौं मो पर प्रसन्न सुखरासी। जानिअ सत्य मोहि निज दासी॥
तौ प्रभु हरहु मोर अग्याना। कहि रघुनाथ कथा बिधि नाना॥1॥

भावार्थ

हे सुख की राशि ! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं और सचमुच मुझे अपनी दासी (या अपनी सच्ची दासी) जानते हैं, तो हे प्रभो! आप श्री रघुनाथजी की नाना प्रकार की कथा कहकर मेरा अज्ञान दूर कीजिए॥1॥

जासु भवनु सुरतरु तर होई। सहि कि दरिद्र जनित दुखु सोई॥
ससिभूषन अस हृदयँ बिचारी। हरहु नाथ मम मति भ्रम भारी॥2॥

मूल

जासु भवनु सुरतरु तर होई। सहि कि दरिद्र जनित दुखु सोई॥
ससिभूषन अस हृदयँ बिचारी। हरहु नाथ मम मति भ्रम भारी॥2॥

भावार्थ

जिसका घर कल्पवृक्ष के नीचे हो, वह भला दरिद्रता से उत्पन्न दुःख को क्यों सहेगा? हे शशिभूषण! हे नाथ! हृदय में ऐसा विचार कर मेरी बुद्धि के भारी भ्रम को दूर कीजिए॥2॥

प्रभु जे मुनि परमारथबादी। कहहिं राम कहुँ ब्रह्म अनादी॥
सेस सारदा बेद पुराना। सकल करहिं रघुपति गुन गाना॥3॥

मूल

प्रभु जे मुनि परमारथबादी। कहहिं राम कहुँ ब्रह्म अनादी॥
सेस सारदा बेद पुराना। सकल करहिं रघुपति गुन गाना॥3॥

भावार्थ

हे प्रभो! जो परमार्थतत्व (ब्रह्म) के ज्ञाता और वक्ता मुनि हैं, वे श्री रामचन्द्रजी को अनादि ब्रह्म कहते हैं और शेष, सरस्वती, वेद और पुराण सभी श्री रघुनाथजी का गुण गाते हैं॥3॥

तुम्ह पुनि राम राम दिन राती। सादर जपहु अनँग आराती॥
रामु सो अवध नृपति सुत सोई। की अज अगुन अलखगति कोई॥4॥

मूल

तुम्ह पुनि राम राम दिन राती। सादर जपहु अनँग आराती॥
रामु सो अवध नृपति सुत सोई। की अज अगुन अलखगति कोई॥4॥

भावार्थ

और हे कामदेव के शत्रु! आप भी दिन-रात आदरपूर्वक राम-राम जपा करते हैं- ये राम वही अयोध्या के राजा के पुत्र हैं? या अजन्मे, निर्गुण और अगोचर कोई और राम हैं?॥4॥

108

01 दोहा

जौं नृप तनय त ब्रह्म किमि नारि बिरहँ मति भोरि।
देखि चरित महिमा सुनत भ्रमति बुद्धि अति मोरि॥108॥

मूल

जौं नृप तनय त ब्रह्म किमि नारि बिरहँ मति भोरि।
देखि चरित महिमा सुनत भ्रमति बुद्धि अति मोरि॥108॥

भावार्थ

यदि वे राजपुत्र हैं तो ब्रह्म कैसे? (और यदि ब्रह्म हैं तो) स्त्री के विरह में उनकी मति बावली कैसे हो गई? इधर उनके ऐसे चरित्र देखकर और उधर उनकी महिमा सुनकर मेरी बुद्धि अत्यन्त चकरा रही है॥108॥

02 चौपाई

जौं अनीह ब्यापक बिभु कोऊ। कहहु बुझाइ नाथ मोहि सोऊ॥
अग्य जानि रिस उर जनि धरहू। जेहि बिधि मोह मिटै सोइ करहू॥1॥

मूल

जौं अनीह ब्यापक बिभु कोऊ। कहहु बुझाइ नाथ मोहि सोऊ॥
अग्य जानि रिस उर जनि धरहू। जेहि बिधि मोह मिटै सोइ करहू॥1॥

भावार्थ

यदि इच्छारहित, व्यापक, समर्थ ब्रह्म कोई और हैं, तो हे नाथ! मुझे उसे समझाकर कहिए। मुझे नादान समझकर मन में क्रोध न लाइए। जिस तरह मेरा मोह दूर हो, वही कीजिए॥1॥

मैं बन दीखि राम प्रभुताई। अति भय बिकल न तुम्हहि सुनाई॥
तदपि मलिन मन बोधु न आवा। सो फलु भली भाँति हम पावा॥2॥

मूल

मैं बन दीखि राम प्रभुताई। अति भय बिकल न तुम्हहि सुनाई॥
तदपि मलिन मन बोधु न आवा। सो फलु भली भाँति हम पावा॥2॥

भावार्थ

मैन्ने (पिछले जन्म में) वन में श्री रामचन्द्रजी की प्रभुता देखी थी, परन्तु अत्यन्त भयभीत होने के कारण मैन्ने वह बात आपको सुनाई नहीं। तो भी मेरे मलिन मन को बोध न हुआ। उसका फल भी मैन्ने अच्छी तरह पा लिया॥2॥

अजहूँ कछु संसउ मन मोरें। करहु कृपा बिनवउँ कर जोरें॥
प्रभु तब मोहि बहु भाँति प्रबोधा। नाथ सो समुझि करहु जनि क्रोधा॥3॥

मूल

अजहूँ कछु संसउ मन मोरें। करहु कृपा बिनवउँ कर जोरें॥
प्रभु तब मोहि बहु भाँति प्रबोधा। नाथ सो समुझि करहु जनि क्रोधा॥3॥

भावार्थ

अब भी मेरे मन में कुछ सन्देह है। आप कृपा कीजिए, मैं हाथ जोडकर विनती करती हूँ। हे प्रभो! आपने उस समय मुझे बहुत तरह से समझाया था (फिर भी मेरा सन्देह नहीं गया), हे नाथ! यह सोचकर मुझ पर क्रोध न कीजिए॥3॥

तब कर अस बिमोह अब नाहीं। रामकथा पर रुचि मन माहीं॥
कहहु पुनीत राम गुन गाथा। भुजगराज भूषन सुरनाथा॥4॥

मूल

तब कर अस बिमोह अब नाहीं। रामकथा पर रुचि मन माहीं॥
कहहु पुनीत राम गुन गाथा। भुजगराज भूषन सुरनाथा॥4॥

भावार्थ

मुझे अब पहले जैसा मोह नहीं है, अब तो मेरे मन में रामकथा सुनने की रुचि है। हे शेषनाग को अलङ्कार रूप में धारण करने वाले देवताओं के नाथ! आप श्री रामचन्द्रजी के गुणों की पवित्र कथा कहिए॥4॥

109

01 दोहा

बन्दउँ पद धरि धरनि सिरु बिनय करउँ कर जोरि।
बरनहु रघुबर बिसद जसु श्रुति सिद्धान्त निचोरि॥109॥

मूल

बन्दउँ पद धरि धरनि सिरु बिनय करउँ कर जोरि।
बरनहु रघुबर बिसद जसु श्रुति सिद्धान्त निचोरि॥109॥

भावार्थ

मैं पृथ्वी पर सिर टेककर आपके चरणों की वन्दना करती हूँ और हाथ जोडकर विनती करती हूँ। आप वेदों के सिद्धान्त को निचोडकर श्री रघुनाथजी का निर्मल यश वर्णन कीजिए॥109॥

02 चौपाई

जदपि जोषिता नहिं अधिकारी। दासी मन क्रम बचन तुम्हारी॥
गूढउ तत्त्व न साधु दुरावहिं। आरत अधिकारी जहँ पावहिं॥1॥

मूल

जदपि जोषिता नहिं अधिकारी। दासी मन क्रम बचन तुम्हारी॥
गूढउ तत्त्व न साधु दुरावहिं। आरत अधिकारी जहँ पावहिं॥1॥

भावार्थ

यद्यपि स्त्री होने के कारण मैं उसे सुनने की अधिकारिणी नहीं हूँ, तथापि मैं मन, वचन और कर्म से आपकी दासी हूँ। सन्त लोग जहाँ आर्त अधिकारी पाते हैं, वहाँ गूढ तत्त्व भी उससे नहीं छिपाते॥1॥

अति आरति पूछउँ सुरराया। रघुपति कथा कहहु करि दाया॥
प्रथम सो कारन कहहु बिचारी। निर्गुन ब्रह्म सगुन बपु धारी॥2॥

मूल

अति आरति पूछउँ सुरराया। रघुपति कथा कहहु करि दाया॥
प्रथम सो कारन कहहु बिचारी। निर्गुन ब्रह्म सगुन बपु धारी॥2॥

भावार्थ

हे देवताओं के स्वामी! मैं बहुत ही आर्तभाव (दीनता) से पूछती हूँ, आप मुझ पर दया करके श्री रघुनाथजी की कथा कहिए। पहले तो वह कारण विचारकर बतलाइए, जिससे निर्गुण ब्रह्म सगुण रूप धारण करता है॥2॥

पुनि प्रभु कहहु राम अवतारा। बालचरित पुनि कहहु उदारा॥
कहहु जथा जानकी बिबाहीं। राज तजा सो दूषन काहीं॥3॥

भावार्थ

फिर हे प्रभु! श्री रामचन्द्रजी के अवतार (जन्म) की कथा कहिए तथा उनका उदार बाल चरित्र कहिए। फिर जिस प्रकार उन्होन्ने श्री जानकीजी से विवाह किया, वह कथा कहिए और फिर यह बतलाइए कि उन्होन्ने जो राज्य छोडा, सो किस दोष से॥3॥

बन बसि कीन्हे चरित अपारा। कहहु नाथ जिमि रावन मारा॥
राज बैठि कीन्हीं बहु लीला। सकल कहहु सङ्कर सुखसीला॥4॥

भावार्थ

हे नाथ! फिर उन्होन्ने वन में रहकर जो अपार चरित्र किए तथा जिस तरह रावण को मारा, वह कहिए। हे सुखस्वरूप शङ्कर! फिर आप उन सारी लीलाओं को कहिए जो उन्होन्ने राज्य (सिंहासन) पर बैठकर की थीं॥4॥

110

01 दोहा

बहुरि कहहु करुनायतन कीन्ह जो अचरज राम।
प्रजा सहित रघुबंसमनि किमि गवने निज धाम॥110॥

मूल

बहुरि कहहु करुनायतन कीन्ह जो अचरज राम।
प्रजा सहित रघुबंसमनि किमि गवने निज धाम॥110॥

भावार्थ

हे कृपाधाम! फिर वह अद्भुत चरित्र कहिए जो श्री रामचन्द्रजी ने किया- वे रघुकुल शिरोमणि प्रजा सहित किस प्रकार अपने धाम को गए?॥110॥

02 चौपाई

पुनि प्रभु कहहु सो तत्त्व बखानी। जेहिं बिग्यान मगन मुनि ग्यानी॥
भगति ग्यान बिग्यान बिरागा। पुनि सब बरनहु सहित बिभागा॥1॥

मूल

पुनि प्रभु कहहु सो तत्त्व बखानी। जेहिं बिग्यान मगन मुनि ग्यानी॥
भगति ग्यान बिग्यान बिरागा। पुनि सब बरनहु सहित बिभागा॥1॥

भावार्थ

हे प्रभु! फिर आप उस तत्त्व को समझाकर कहिए, जिसकी अनुभूति में ज्ञानी मुनिगण सदा मग्न रहते हैं और फिर भक्ति, ज्ञान, विज्ञान और वैराग्य का विभाग सहित वर्णन कीजिए॥1॥

औरउ राम रहस्य अनेका। कहहु नाथ अति बिमल बिबेका॥
जो प्रभु मैं पूछा नहिं होई। सोउ दयाल राखहु जनि गोई॥2॥

भावार्थ

(इसके सिवा) श्री रामचन्द्रजी के और भी जो अनेक रहस्य (छिपे हुए भाव अथवा चरित्र) हैं, उनको कहिए। हे नाथ! आपका ज्ञान अत्यन्त निर्मल है। हे प्रभो! जो बात मैन्ने न भी पूछी हो, हे दयालु! उसे भी आप छिपा न रखिएगा॥2॥

तुम्ह त्रिभुवन गुर बेद बखाना। आन जीव पाँवर का जाना॥
प्रस्न उमा कै सहज सुहाई। छल बिहीन सुनि सिव मन भाई॥3॥

भावार्थ

वेदों ने आपको तीनों लोकों का गुरु कहा है। दूसरे पामर जीव इस रहस्य को क्या जानें! पार्वतीजी के सहज सुन्दर और छलरहित (सरल) प्रश्न सुनकर शिवजी के मन को बहुत अच्छे लगे॥3॥

हर हियँ रामचरित सब आए। प्रेम पुलक लोचन जल छाए॥
श्रीरघुनाथ रूप उर आवा। परमानन्द अमित सुख पावा॥4॥

भावार्थ

श्री महादेवजी के हृदय में सारे रामचरित्र आ गए। प्रेम के मारे उनका शरीर पुलकित हो गया और नेत्रों में जल भर आया। श्री रघुनाथजी का रूप उनके हृदय में आ गया, जिससे स्वयं परमानन्दस्वरूप शिवजी ने भी अपार सुख पाया॥4॥

111

01 दोहा

मगन ध्यान रस दण्ड जुग पुनि मन बाहेर कीन्ह।
रघुपति चरित महेस तब हरषित बरनै लीन्ह॥111॥

मूल

मगन ध्यान रस दण्ड जुग पुनि मन बाहेर कीन्ह।
रघुपति चरित महेस तब हरषित बरनै लीन्ह॥111॥

भावार्थ

शिवजी दो घडी तक ध्यान के रस (आनन्द) में डूबे रहे, फिर उन्होन्ने मन को बाहर खीञ्चा और तब वे प्रसन्न होकर श्री रघुनाथजी का चरित्र वर्णन करने लगे॥111॥

02 चौपाई

झूठेउ सत्य जाहि बिनु जानें। जिमि भुजङ्ग बिनु रजु पहिचानें॥
जेहि जानें जग जाइ हेराई। जागें जथा सपन भ्रम जाई॥1॥

मूल

झूठेउ सत्य जाहि बिनु जानें। जिमि भुजङ्ग बिनु रजु पहिचानें॥
जेहि जानें जग जाइ हेराई। जागें जथा सपन भ्रम जाई॥1॥

भावार्थ

जिसके बिना जाने झूठ भी सत्य मालूम होता है, जैसे बिना पहचाने रस्सी में साँप का भ्रम हो जाता है और जिसके जान लेने पर जगत का उसी तरह लोप हो जाता है, जैसे जागने पर स्वप्न का भ्रम जाता रहता है॥1॥

बन्दउँ बालरूप सोइ रामू। सब सिधि सुलभ जपत जिसु नामू॥
मङ्गल भवन अमङ्गल हारी। द्रवउ सो दसरथ अजिर बिहारी॥2॥

मूल

बन्दउँ बालरूप सोइ रामू। सब सिधि सुलभ जपत जिसु नामू॥
मङ्गल भवन अमङ्गल हारी। द्रवउ सो दसरथ अजिर बिहारी॥2॥

भावार्थ

मैं उन्हीं श्री रामचन्द्रजी के बाल रूप की वन्दना करता हूँ, जिनका नाम जपने से सब सिद्धियाँ सहज ही प्राप्त हो जाती हैं। मङ्गल के धाम, अमङ्गल के हरने वाले और श्री दशरथजी के आँगन में खेलने वाले (बालरूप) श्री रामचन्द्रजी मुझ पर कृपा करें॥2॥

करि प्रनाम रामहि त्रिपुरारी। हरषि सुधा सम गिरा उचारी॥
धन्य धन्य गिरिराजकुमारी। तुम्ह समान नहिं कोउ उपकारी॥3॥

मूल

करि प्रनाम रामहि त्रिपुरारी। हरषि सुधा सम गिरा उचारी॥
धन्य धन्य गिरिराजकुमारी। तुम्ह समान नहिं कोउ उपकारी॥3॥

भावार्थ

त्रिपुरासुर का वध करने वाले शिवजी श्री रामचन्द्रजी को प्रणाम करके आनन्द में भरकर अमृत के समान वाणी बोले- हे गिरिराजकुमारी पार्वती! तुम धन्य हो! धन्य हो!! तुम्हारे समान कोई उपकारी नहीं है॥3॥

पूँछेहु रघुपति कथा प्रसङ्गा। सकल लोक जग पावनि गङ्गा॥
तुम्ह रघुबीर चरन अनुरागी। कीन्हिहु प्रस्न जगत हित लागी॥4॥

मूल

पूँछेहु रघुपति कथा प्रसङ्गा। सकल लोक जग पावनि गङ्गा॥
तुम्ह रघुबीर चरन अनुरागी। कीन्हिहु प्रस्न जगत हित लागी॥4॥

भावार्थ

जो तुमने श्री रघुनाथजी की कथा का प्रसङ्ग पूछा है, जो कथा समस्त लोकों के लिए जगत को पवित्र करने वाली गङ्गाजी के समान है। तुमने जगत के कल्याण के लिए ही प्रश्न पूछे हैं। तुम श्री रघुनाथजी के चरणों में प्रेम रखने वाली हो॥4॥

112

01 दोहा

राम कृपा तें पारबति सपनेहुँ तव मन माहिं।
सोक मोह सन्देह भ्रम मम बिचार कछु नाहिं॥112॥

भावार्थ

हे पार्वती! मेरे विचार में तो श्री रामजी की कृपा से तुम्हारे मन में स्वप्न में भी शोक, मोह, सन्देह और भ्रम कुछ भी नहीं है॥112॥

02 चौपाई

तदपि असङ्का कीन्हिहु सोई। कहत सुनत सब कर हित होई॥
जिन्ह हरिकथा सुनी नहिं काना। श्रवन रन्ध्र अहिभवन समाना॥1॥

मूल

तदपि असङ्का कीन्हिहु सोई। कहत सुनत सब कर हित होई॥
जिन्ह हरिकथा सुनी नहिं काना। श्रवन रन्ध्र अहिभवन समाना॥1॥

भावार्थ

फिर भी तुमने इसीलिए वही (पुरानी) शङ्का की है कि इस प्रसङ्ग के कहने-सुनने से सबका कल्याण होगा। जिन्होन्ने अपने कानों से भगवान की कथा नहीं सुनी, उनके कानों के छिद्र साँप के बिल के समान हैं॥1॥

नयनन्हि सन्त दरस नहिं देखा। लोचन मोरपङ्ख कर लेखा॥
तेसिर कटु तुम्बरि समतूला। जे न नमत हरि गुर पद मूला॥2॥

भावार्थ

जिन्होन्ने अपने नेत्रों से सन्तों के दर्शन नहीं किए, उनके वे नेत्र मोर के पङ्खों पर दिखने वाली नकली आँखों की गिनती में हैं। वे सिर कडवी तूँबी के समान हैं, जो श्री हरि और गुरु के चरणतल पर नहीं झुकते॥2॥

जिन्ह हरिभगति हृदयँ नहिं आनी। जीवत सव समान तेइ प्रानी॥
जो नहिं करइ राम गुन गाना। जीह सो दादुर जीह समाना॥3॥

भावार्थ

जिन्होन्ने भगवान की भक्ति को अपने हृदय में स्थान नहीं दिया, वे प्राणी जीते हुए ही मुर्दे के समान हैं, जो जीभ श्री रामचन्द्रजी के गुणों का गान नहीं करती, वह मेण्ढक की जीभ के समान है॥3॥

कुलिस कठोर निठुर सोइ छाती। सुनि हरिचरित न जो हरषाती॥
गिरिजा सुनहु राम कै लीला। सुर हित दनुज बिमोहनसीला॥4॥

भावार्थ

वह हृदय वज्र के समान कडा और निष्ठुर है, जो भगवान के चरित्र सुनकर हर्षित नहीं होता। हे पार्वती! श्री रामचन्द्रजी की लीला सुनो, यह देवताओं का कल्याण करने वाली और दैत्यों को विशेष रूप से मोहित करने वाली है॥4॥

113

01 दोहा

रामकथा सुरधेनु सम सेवत सब सुख दानि।
सतसमाज सुरलोक सब को न सुनै अस जानि॥113॥

मूल

रामकथा सुरधेनु सम सेवत सब सुख दानि।
सतसमाज सुरलोक सब को न सुनै अस जानि॥113॥

भावार्थ

श्री रामचन्द्रजी की कथा कामधेनु के समान सेवा करने से सब सुखों को देने वाली है और सत्पुरुषों के समाज ही सब देवताओं के लोक हैं, ऐसा जानकर इसे कौन न सुनेगा!॥113॥

02 चौपाई

रामकथा सुन्दर कर तारी। संसय बिहग उडावनिहारी॥
रामकथा कलि बिटप कुठारी। सादर सुनु गिरिराजकुमारी॥1॥

मूल

रामकथा सुन्दर कर तारी। संसय बिहग उडावनिहारी॥
रामकथा कलि बिटप कुठारी। सादर सुनु गिरिराजकुमारी॥1॥

भावार्थ

श्री रामचन्द्रजी की कथा हाथ की सुन्दर ताली है, जो सन्देह रूपी पक्षियों को उडा देती है। फिर रामकथा कलियुग रूपी वृक्ष को काटने के लिए कुल्हाडी है। हे गिरिराजकुमारी! तुम इसे आदरपूर्वक सुनो॥1॥

राम नाम गुन चरित सुहाए। जनम करम अगनित श्रुति गाए॥
जथा अनन्त राम भगवाना। तथा कथा कीरति गुन नाना॥2॥

मूल

राम नाम गुन चरित सुहाए। जनम करम अगनित श्रुति गाए॥
जथा अनन्त राम भगवाना। तथा कथा कीरति गुन नाना॥2॥

भावार्थ

वेदों ने श्री रामचन्द्रजी के सुन्दर नाम, गुण, चरित्र, जन्म और कर्म सभी अनगिनत कहे हैं। जिस प्रकार भगवान श्री रामचन्द्रजी अनन्त हैं, उसी तरह उनकी कथा, कीर्ति और गुण भी अनन्त हैं॥2॥

तदपि जथा श्रुत जसि मति मोरी। कहिहउँ देखि प्रीति अति तोरी॥
उमा प्रस्न तव सहज सुहाई। सुखद सन्तसम्मत मोहि भाई॥3॥

मूल

तदपि जथा श्रुत जसि मति मोरी। कहिहउँ देखि प्रीति अति तोरी॥
उमा प्रस्न तव सहज सुहाई। सुखद सन्तसम्मत मोहि भाई॥3॥

भावार्थ

तो भी तुम्हारी अत्यन्त प्रीति देखकर, जैसा कुछ मैन्ने सुना है और जैसी मेरी बुद्धि है, उसी के अनुसार मैं कहूँगा। हे पार्वती! तुम्हारा प्रश्न स्वाभाविक ही सुन्दर, सुखदायक और सन्तसम्मत है और मुझे तो बहुत ही अच्छा लगा है॥3॥

एक बात नहिं मोहि सोहानी। जदपि मोह बस कहेहु भवानी॥
तुम्ह जो कहा राम कोउ आना। जेहि श्रुति गाव धरहिं मुनि ध्याना॥4॥

मूल

एक बात नहिं मोहि सोहानी। जदपि मोह बस कहेहु भवानी॥
तुम्ह जो कहा राम कोउ आना। जेहि श्रुति गाव धरहिं मुनि ध्याना॥4॥

भावार्थ

परन्तु हे पार्वती! एक बात मुझे अच्छी नहीं लगी, यद्यपि वह तुमने मोह के वश होकर ही कही है। तुमने जो यह कहा कि वे राम कोई और हैं, जिन्हें वेद गाते और मुनिजन जिनका ध्यान धरते हैं-॥4॥

114

01 दोहा

कहहिं सुनहिं अस अधम नर ग्रसे जे मोह पिसाच।
पाषण्डी हरि पद बिमुख जानहिं झूठ न साच॥114॥

मूल

कहहिं सुनहिं अस अधम नर ग्रसे जे मोह पिसाच।
पाषण्डी हरि पद बिमुख जानहिं झूठ न साच॥114॥

भावार्थ

जो मोह रूपी पिशाच के द्वारा ग्रस्त हैं, पाखण्डी हैं, भगवान के चरणों से विमुख हैं और जो झूठ-सच कुछ भी नहीं जानते, ऐसे अधम मनुष्य ही इस तरह कहते-सुनते हैं॥114॥

02 चौपाई

अग्य अकोबिद अन्ध अभागी। काई बिषय मुकुर मन लागी॥
लम्पट कपटी कुटिल बिसेषी। सपनेहुँ सन्तसभा नहिं देखी॥1॥

मूल

अग्य अकोबिद अन्ध अभागी। काई बिषय मुकुर मन लागी॥
लम्पट कपटी कुटिल बिसेषी। सपनेहुँ सन्तसभा नहिं देखी॥1॥

भावार्थ

जो अज्ञानी, मूर्ख, अन्धे और भाग्यहीन हैं और जिनके मन रूपी दर्पण पर विषय रूपी काई जमी हुई है, जो व्यभिचारी, छली और बडे कुटिल हैं और जिन्होन्ने कभी स्वप्न में भी सन्त समाज के दर्शन नहीं किए॥1॥

कहहिं ते बेद असम्मत बानी। जिन्ह कें सूझ लाभु नहिं हानी॥
मुकुर मलिन अरु नयन बिहीना। राम रूप देखहिं किमि दीना॥2॥

मूल

कहहिं ते बेद असम्मत बानी। जिन्ह कें सूझ लाभु नहिं हानी॥
मुकुर मलिन अरु नयन बिहीना। राम रूप देखहिं किमि दीना॥2॥

भावार्थ

और जिन्हें अपने लाभ-हानि नहीं सूझती, वे ही ऐसी वेदविरुद्ध बातें कहा करते हैं, जिनका हृदय रूपी दर्पण मैला है और जो नेत्रों से हीन हैं, वे बेचारे श्री रामचन्द्रजी का रूप कैसे देखें!॥2॥

जिन्ह कें अगुन न सगुन बिबेका। जल्पहिं कल्पित बचन अनेका॥
हरिमाया बस जगत भ्रमाहीं। तिन्हहि कहत कछु अघटित नाहीं॥3॥

भावार्थ

जिनको निर्गुण-सगुण का कुछ भी विवेक नहीं है, जो अनेक मनगढन्त बातें बका करते हैं, जो श्री हरि की माया के वश में होकर जगत में (जन्म-मृत्यु के चक्र में) भ्रमते फिरते हैं, उनके लिए कुछ भी कह डालना असम्भव नहीं है॥3॥

बातुल भूत बिबस मतवारे। ते नहिं बोलहिं बचन बिचारे॥
जिन्ह कृत महामोह मद पाना। तिन्ह कर कहा करिअ नहिं काना॥4॥

भावार्थ

जिन्हें वायु का रोग (सन्निपात, उन्माद आदि) हो गया हो, जो भूत के वश हो गए हैं और जो नशे में चूर हैं, ऐसे लोग विचारकर वचन नहीं बोलते। जिन्होन्ने महामोह रूपी मदिरा पी रखी है, उनके कहने पर कान नहीं देना चाहिए॥4॥

115

01 सोरठा

अस निज हृदयँ बिचारि तजु संसय भजु राम पद।
सुनु गिरिराज कुमारि भ्रम तम रबि कर बचन मम॥115॥

मूल

अस निज हृदयँ बिचारि तजु संसय भजु राम पद।
सुनु गिरिराज कुमारि भ्रम तम रबि कर बचन मम॥115॥

भावार्थ

अपने हृदय में ऐसा विचार कर सन्देह छोड दो और श्री रामचन्द्रजी के चरणों को भजो। हे पार्वती! भ्रम रूपी अन्धकार के नाश करने के लिए सूर्य की किरणों के समान मेरे वचनों को सुनो!॥115॥

02 चौपाई

सगुनहि अगुनहि नहिं कछु भेदा। गावहिं मुनि पुरान बुध बेदा॥
अगुन अरूप अलख अज जोई। भगत प्रेम बस सगुन सो होई॥1॥

मूल

सगुनहि अगुनहि नहिं कछु भेदा। गावहिं मुनि पुरान बुध बेदा॥
अगुन अरूप अलख अज जोई। भगत प्रेम बस सगुन सो होई॥1॥

भावार्थ

सगुण और निर्गुण में कुछ भी भेद नहीं है- मुनि, पुराण, पण्डित और वेद सभी ऐसा कहते हैं। जो निर्गुण, अरूप (निराकार), अलख (अव्यक्त) और अजन्मा है, वही भक्तों के प्रेमवश सगुण हो जाता है॥1॥

जो गुन रहित सगुन सोइ कैसें। जलु हिम उपल बिलग नहिं जैसें॥
जासु नाम भ्रम तिमिर पतङ्गा। तेहि किमि कहिअ बिमोह प्रसङ्गा॥2॥

मूल

जो गुन रहित सगुन सोइ कैसें। जलु हिम उपल बिलग नहिं जैसें॥
जासु नाम भ्रम तिमिर पतङ्गा। तेहि किमि कहिअ बिमोह प्रसङ्गा॥2॥

भावार्थ

जो निर्गुण है वही सगुण कैसे है? जैसे जल और ओले में भेद नहीं। (दोनों जल ही हैं, ऐसे ही निर्गुण और सगुण एक ही हैं।) जिसका नाम भ्रम रूपी अन्धकार के मिटाने के लिए सूर्य है, उसके लिए मोह का प्रसङ्ग भी कैसे कहा जा सकता है?॥2॥

राम सच्चिदानन्द दिनेसा। नहिं तहँ मोह निसा लवलेसा॥
सहज प्रकासरूप भगवाना। नहिं तहँ पुनि बिग्यान बिहाना॥3॥

मूल

राम सच्चिदानन्द दिनेसा। नहिं तहँ मोह निसा लवलेसा॥
सहज प्रकासरूप भगवाना। नहिं तहँ पुनि बिग्यान बिहाना॥3॥

भावार्थ

श्री रामचन्द्रजी सच्चिदानन्दस्वरूप सूर्य हैं। वहाँ मोह रूपी रात्रि का लवलेश भी नहीं है। वे स्वभाव से ही प्रकाश रूप और (षडैश्वर्ययुक्त) भगवान है, वहाँ तो विज्ञान रूपी प्रातःकाल भी नहीं होता (अज्ञान रूपी रात्रि हो तब तो विज्ञान रूपी प्रातःकाल हो, भगवान तो नित्य ज्ञान स्वरूप हैं।)॥3॥

हरष बिषाद ग्यान अग्याना। जीव धर्म अहमिति अभिमाना॥
राम ब्रह्म ब्यापक जग जाना। परमानन्द परेस पुराना॥4॥

मूल

हरष बिषाद ग्यान अग्याना। जीव धर्म अहमिति अभिमाना॥
राम ब्रह्म ब्यापक जग जाना। परमानन्द परेस पुराना॥4॥

भावार्थ

हर्ष, शोक, ज्ञान, अज्ञान, अहन्ता और अभिमान- ये सब जीव के धर्म हैं। श्री रामचन्द्रजी तो व्यापक ब्रह्म, परमानन्दस्वरूप, परात्पर प्रभु और पुराण पुरुष हैं। इस बात को सारा जगत जानता है॥4॥

116

01 दोहा

पुरुष प्रसिद्ध प्रकाश निधि प्रगट परावर नाथ।
रघुकुलमनि मम स्वामि सोइ कहि सिवँ नायउ माथ॥116॥

मूल

पुरुष प्रसिद्ध प्रकाश निधि प्रगट परावर नाथ।
रघुकुलमनि मम स्वामि सोइ कहि सिवँ नायउ माथ॥116॥

भावार्थ

जो (पुराण) पुरुष प्रसिद्ध हैं, प्रकाश के भण्डार हैं, सब रूपों में प्रकट हैं, जीव, माया और जगत सबके स्वामी हैं, वे ही रघुकुल मणि श्री रामचन्द्रजी मेरे स्वामी हैं- ऐसा कहकर शिवजी ने उनको मस्तक नवाया॥116॥

02 चौपाई

निज भ्रम नहिं समुझहिं अग्यानी। प्रभु पर मोह धरहिं जड प्रानी॥
जथा गगन घन पटल निहारी। झाँपेउ भानु कहहिं कुबिचारी॥1॥

मूल

निज भ्रम नहिं समुझहिं अग्यानी। प्रभु पर मोह धरहिं जड प्रानी॥
जथा गगन घन पटल निहारी। झाँपेउ भानु कहहिं कुबिचारी॥1॥

भावार्थ

अज्ञानी मनुष्य अपने भ्रम को तो समझते नहीं और वे मूर्ख प्रभु श्री रामचन्द्रजी पर उसका आरोप करते हैं, जैसे आकाश में बादलों का परदा देखकर कुविचारी (अज्ञानी) लोग कहते हैं कि बादलों ने सूर्य को ढँक लिया॥1॥

चितव जो लोचन अङ्गुलि लाएँ। प्रगट जुगल ससि तेहि के भाएँ॥
उमा राम बिषइक अस मोहा। नभ तम धूम धूरि जिमि सोहा॥2॥

मूल

चितव जो लोचन अङ्गुलि लाएँ। प्रगट जुगल ससि तेहि के भाएँ॥
उमा राम बिषइक अस मोहा। नभ तम धूम धूरि जिमि सोहा॥2॥

भावार्थ

जो मनुष्य आँख में अँगुली लगाकर देखता है, उसके लिए तो दो चन्द्रमा प्रकट (प्रत्यक्ष) हैं। हे पार्वती! श्री रामचन्द्रजी के विषय में इस प्रकार मोह की कल्पना करना वैसा ही है, जैसा आकाश में अन्धकार, धुएँ और धूल का सोहना (दिखना)। (आकाश जैसे निर्मल और निर्लेप है, उसको कोई मलिन या स्पर्श नहीं कर सकता, इसी प्रकार भगवान श्री रामचन्द्रजी नित्य निर्मल और निर्लेप हैं।) ॥2॥

बिषय करन सुर जीव समेता। सकल एक तें एक सचेता॥
सब कर परम प्रकासक जोई। राम अनादि अवधपति सोई॥3॥

भावार्थ

विषय, इन्द्रियाँ, इन्द्रियों के देवता और जीवात्मा- ये सब एक की सहायता से एक चेतन होते हैं। (अर्थात विषयों का प्रकाश इन्द्रियों से, इन्द्रियों का इन्द्रियों के देवताओं से और इन्द्रिय देवताओं का चेतन जीवात्मा से प्रकाश होता है।) इन सबका जो परम प्रकाशक है (अर्थात जिससे इन सबका प्रकाश होता है), वही अनादि ब्रह्म अयोध्या नरेश श्री रामचन्द्रजी हैं॥3॥

जगत प्रकास्य प्रकासक रामू। मायाधीस ग्यान गुन धामू॥
जासु सत्यता तें जड माया। भास सत्य इव मोह सहाया॥4॥

भावार्थ

यह जगत प्रकाश्य है और श्री रामचन्द्रजी इसके प्रकाशक हैं। वे माया के स्वामी और ज्ञान तथा गुणों के धाम हैं। जिनकी सत्ता से, मोह की सहायता पाकर जड माया भी सत्य सी भासित होती है॥4॥

117

01 दोहा

रजत सीप महुँ भास जिमि जथा भानु कर बारि।
जदपि मृषा तिहुँ काल सोइ भ्रम न सकइ कोउ टारि॥117॥

मूल

रजत सीप महुँ भास जिमि जथा भानु कर बारि।
जदपि मृषा तिहुँ काल सोइ भ्रम न सकइ कोउ टारि॥117॥

भावार्थ

जैसे सीप में चाँदी की और सूर्य की किरणों में पानी की (बिना हुए भी) प्रतीति होती है। यद्यपि यह प्रतीति तीनों कालों में झूठ है, तथापि इस भ्रम को कोई हटा नहीं सकता॥117॥

02 चौपाई

एहि बिधि जग हरि आश्रित रहई। जदपि असत्य देत दुख अहई॥
जौं सपनें सिर काटै कोई। बिनु जागें न दूरि दुख होई॥1॥

मूल

एहि बिधि जग हरि आश्रित रहई। जदपि असत्य देत दुख अहई॥
जौं सपनें सिर काटै कोई। बिनु जागें न दूरि दुख होई॥1॥

भावार्थ

इसी तरह यह संसार भगवान के आश्रित रहता है। यद्यपि यह असत्य है, तो भी दुःख तो देता ही है, जिस तरह स्वप्न में कोई सिर काट ले तो बिना जागे वह दुःख दूर नहीं होता॥1॥

जासु कृपाँ अस भ्रम मिटि जाई। गिरिजा सोइ कृपाल रघुराई॥
आदि अन्त कोउ जासु न पावा। मति अनुमानि निगम अस गावा॥2॥

मूल

जासु कृपाँ अस भ्रम मिटि जाई। गिरिजा सोइ कृपाल रघुराई॥
आदि अन्त कोउ जासु न पावा। मति अनुमानि निगम अस गावा॥2॥

भावार्थ

हे पार्वती! जिनकी कृपा से इस प्रकार का भ्रम मिट जाता है, वही कृपालु श्री रघुनाथजी हैं। जिनका आदि और अन्त किसी ने नहीं (जान) पाया। वेदों ने अपनी बुद्धि से अनुमान करके इस प्रकार (नीचे लिखे अनुसार) गाया है-॥2॥

बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना। कर बिनु करम करइ बिधि नाना॥
आनन रहित सकल रस भोगी। बिनु बानी बकता बड जोगी॥3॥

भावार्थ

वह (ब्रह्म) बिना ही पैर के चलता है, बिना ही कान के सुनता है, बिना ही हाथ के नाना प्रकार के काम करता है, बिना मुँह (जिव्हा) के ही सारे (छहों) रसों का आनन्द लेता है और बिना ही वाणी के बहुत योग्य वक्ता है॥3॥

तन बिनु परस नयन बिनु देखा। ग्रहइ घ्रान बिनु बास असेषा॥
असि सब भाँति अलौकिक करनी। महिमा जासु जाइ नहिं बरनी॥4॥

भावार्थ

वह बिना ही शरीर (त्वचा) के स्पर्श करता है, बिना ही आँखों के देखता है और बिना ही नाक के सब गन्धों को ग्रहण करता है (सूँघता है)। उस ब्रह्म की करनी सभी प्रकार से ऐसी अलौकिक है कि जिसकी महिमा कही नहीं जा सकती॥4॥

118

01 दोहा

जेहि इमि गावहिं बेद बुध जाहि धरहिं मुनि ध्यान।
सोइ दसरथ सुत भगत हित कोसलपति भगवान॥118॥

मूल

जेहि इमि गावहिं बेद बुध जाहि धरहिं मुनि ध्यान।
सोइ दसरथ सुत भगत हित कोसलपति भगवान॥118॥

भावार्थ

जिसका वेद और पण्डित इस प्रकार वर्णन करते हैं और मुनि जिसका ध्यान धरते हैं, वही दशरथनन्दन, भक्तों के हितकारी, अयोध्या के स्वामी भगवान श्री रामचन्द्रजी हैं॥118॥

02 चौपाई

कासीं मरत जन्तु अवलोकी। जासु नाम बल करउँ बिसोकी॥
सोइ प्रभु मोर चराचर स्वामी। रघुबर सब उर अन्तरजामी॥1॥

मूल

कासीं मरत जन्तु अवलोकी। जासु नाम बल करउँ बिसोकी॥
सोइ प्रभु मोर चराचर स्वामी। रघुबर सब उर अन्तरजामी॥1॥

भावार्थ

(हे पार्वती !) जिनके नाम के बल से काशी में मरते हुए प्राणी को देखकर मैं उसे (राम मन्त्र देकर) शोकरहित कर देता हूँ (मुक्त कर देता हूँ), वही मेरे प्रभु रघुश्रेष्ठ श्री रामचन्द्रजी जड-चेतन के स्वामी और सबके हृदय के भीतर की जानने वाले हैं॥1॥

बिबसहुँ जासु नाम नर कहहीं। जनम अनेक रचित अघ दहहीं॥
सादर सुमिरन जे नर करहीं। भव बारिधि गोपद इव तरहीं॥2॥

मूल

बिबसहुँ जासु नाम नर कहहीं। जनम अनेक रचित अघ दहहीं॥
सादर सुमिरन जे नर करहीं। भव बारिधि गोपद इव तरहीं॥2॥

भावार्थ

विवश होकर (बिना इच्छा के) भी जिनका नाम लेने से मनुष्यों के अनेक जन्मों में किए हुए पाप जल जाते हैं। फिर जो मनुष्य आदरपूर्वक उनका स्मरण करते हैं, वे तो संसार रूपी (दुस्तर) समुद्र को गाय के खुर से बने हुए गड्ढे के समान (अर्थात बिना किसी परिश्रम के) पार कर जाते हैं॥2॥

राम सो परमातमा भवानी। तहँ भ्रम अति अबिहित तव बानी॥
अस संसय आनत उर माहीं। ग्यान बिराग सकल गुन जाहीं॥3॥

मूल

राम सो परमातमा भवानी। तहँ भ्रम अति अबिहित तव बानी॥
अस संसय आनत उर माहीं। ग्यान बिराग सकल गुन जाहीं॥3॥

भावार्थ

हे पार्वती! वही परमात्मा श्री रामचन्द्रजी हैं। उनमें भ्रम (देखने में आता) है, तुम्हारा ऐसा कहना अत्यन्त ही अनुचित है। इस प्रकार का सन्देह मन में लाते ही मनुष्य के ज्ञान, वैराग्य आदि सारे सद्गुण नष्ट हो जाते हैं॥3॥

सुनि सिव के भ्रम भञ्जन बचना। मिटि गै सब कुतरक कै रचना॥
भइ रघुपति पद प्रीति प्रतीती। दारुन असम्भावना बीती॥4॥

मूल

सुनि सिव के भ्रम भञ्जन बचना। मिटि गै सब कुतरक कै रचना॥
भइ रघुपति पद प्रीति प्रतीती। दारुन असम्भावना बीती॥4॥

भावार्थ

शिवजी के भ्रमनाशक वचनों को सुनकर पार्वतीजी के सब कुतर्कों की रचना मिट गई। श्री रघुनाथजी के चरणों में उनका प्रेम और विश्वास हो गया और कठिन असम्भावना (जिसका होना- सम्भव नहीं, ऐसी मिथ्या कल्पना) जाती रही!॥4॥

119

01 दोहा

पुनि पुनि प्रभु पद कमल गहि जोरि पङ्करुह पानि।
बोलीं गिरिजा बचन बर मनहुँ प्रेम रस सानि॥119॥

मूल

पुनि पुनि प्रभु पद कमल गहि जोरि पङ्करुह पानि।
बोलीं गिरिजा बचन बर मनहुँ प्रेम रस सानि॥119॥

भावार्थ

बार- बार स्वामी (शिवजी) के चरणकमलों को पकडकर और अपने कमल के समान हाथों को जोडकर पार्वतीजी मानो प्रेमरस में सानकर सुन्दर वचन बोलीं॥119॥

02 चौपाई

ससि कर सम सुनि गिरा तुम्हारी। मिटा मोह सरदातप भारी॥
तुम्ह कृपाल सबु संसउ हरेऊ। राम स्वरूप जानि मोहि परेऊ॥1॥

मूल

ससि कर सम सुनि गिरा तुम्हारी। मिटा मोह सरदातप भारी॥
तुम्ह कृपाल सबु संसउ हरेऊ। राम स्वरूप जानि मोहि परेऊ॥1॥

भावार्थ

आपकी चन्द्रमा की किरणों के समान शीतल वाणी सुनकर मेरा अज्ञान रूपी शरद-ऋतु (क्वार) की धूप का भारी ताप मिट गया। हे कृपालु! आपने मेरा सब सन्देह हर लिया, अब श्री रामचन्द्रजी का यथार्थ स्वरूप मेरी समझ में आ गया॥1॥

नाथ कृपाँ अब गयउ बिषादा। सुखी भयउँ प्रभु चरन प्रसादा॥
अब मोहि आपनि किङ्करि जानी। जदपि सहज जड नारि अयानी॥2॥

मूल

नाथ कृपाँ अब गयउ बिषादा। सुखी भयउँ प्रभु चरन प्रसादा॥
अब मोहि आपनि किङ्करि जानी। जदपि सहज जड नारि अयानी॥2॥

भावार्थ

हे नाथ! आपकी कृपा से अब मेरा विषाद जाता रहा और आपके चरणों के अनुग्रह से मैं सुखी हो गई। यद्यपि मैं स्त्री होने के कारण स्वभाव से ही मूर्ख और ज्ञानहीन हूँ, तो भी अब आप मुझे अपनी दासी जानकर-॥2॥

प्रथम जो मैं पूछा सोइ कहहू। जौं मो पर प्रसन्न प्रभु अहहू॥
राम ब्रह्म चिनमय अबिनासी। सर्ब रहित सब उर पुर बासी॥3॥

भावार्थ

हे प्रभो! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं, तो जो बात मैन्ने पहले आपसे पूछी थी, वही कहिए। (यह सत्य है कि) श्री रामचन्द्रजी ब्रह्म हैं, चिन्मय (ज्ञानस्वरूप) हैं, अविनाशी हैं, सबसे रहित और सबके हृदय रूपी नगरी में निवास करने वाले हैं॥3॥

नाथ धरेउ नरतनु केहि हेतू। मोहि समुझाइ कहहु बृषकेतू॥
उमा बचन सुनि परम बिनीता। रामकथा पर प्रीति पुनीता॥4॥

भावार्थ

फिर हे नाथ! उन्होन्ने मनुष्य का शरीर किस कारण से धारण किया? हे धर्म की ध्वजा धारण करने वाले प्रभो! यह मुझे समझाकर कहिए। पार्वती के अत्यन्त नम्र वचन सुनकर और श्री रामचन्द्रजी की कथा में उनका विशुद्ध प्रेम देखकर-॥4॥

120

01 सोरठा

सुनु सुभ कथा भवानि रामचरितमानस बिमल।
कहा भुसुण्डि बखानि सुना बिहग नायक गरुड॥2॥

मूल

सुनु सुभ कथा भवानि रामचरितमानस बिमल।
कहा भुसुण्डि बखानि सुना बिहग नायक गरुड॥2॥

भावार्थ

हे पार्वती! निर्मल रामचरितमानस की वह मङ्गलमयी कथा सुनो जिसे काकभुशुण्डि ने विस्तार से कहा और पक्षियों के राजा गरुडजी ने सुना था॥2॥

सो सम्बाद उदार जेहि बिधि भा आगें कहब।
सुनहु राम अवतार चरति परम सुन्दर अनघ॥3॥

मूल

सो सम्बाद उदार जेहि बिधि भा आगें कहब।
सुनहु राम अवतार चरति परम सुन्दर अनघ॥3॥

भावार्थ

वह श्रेष्ठ संवाद जिस प्रकार हुआ, वह मैं आगे कहूँगा। अभी तुम श्री रामचन्द्रजी के अवतार का परम सुन्दर और पवित्र (पापनाशक) चरित्र सुनो॥3॥

हरि गुन नाम अपार कथा रूप अगनित अमित।
मैं निज मति अनुसार कहउँ उमा सादर सुनहु॥4॥

भावार्थ

श्री हरि के गुण, मान, कथा और रूप सभी अपार, अगणित और असीम हैं। फिर भी हे पार्वती! मैं अपनी बुद्धि के अनुसार कहता हूँ, तुम आदरपूर्वक सुनो॥4॥

02 चौपाई

सुनु गिरिजा हरिचरित सुहाए। बिपुल बिसद निगमागम गाए॥
हरि अवतार हेतु जेहि होई। इदमित्थं कहि जाइ न सोई॥1॥

मूल

सुनु गिरिजा हरिचरित सुहाए। बिपुल बिसद निगमागम गाए॥
हरि अवतार हेतु जेहि होई। इदमित्थं कहि जाइ न सोई॥1॥

भावार्थ

हे पार्वती! सुनो, वेद-शास्त्रों ने श्री हरि के सुन्दर, विस्तृत और निर्मल चरित्रों का गान किया है। हरि का अवतार जिस कारण से होता है, वह कारण ‘बस यही है’ ऐसा नहीं कहा जा सकता (अनेकों कारण हो सकते हैं और ऐसे भी हो सकते हैं, जिन्हें कोई जान ही नहीं सकता)॥1॥

राम अतर्क्य बुद्धि मन बानी। मत हमार अस सुनहि सयानी॥
तदपि सन्त मुनि बेद पुराना। जस कछु कहहिं स्वमति अनुमाना॥2॥

भावार्थ

हे सयानी! सुनो, हमारा मत तो यह है कि बुद्धि, मन और वाणी से श्री रामचन्द्रजी की तर्कना नहीं की जा सकती। तथापि सन्त, मुनि, वेद और पुराण अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार जैसा कुछ कहते हैं॥2॥

तस मैं सुमुखि सुनावउँ तोही। समुझि परइ जस कारन मोही॥
जब जब होई धरम कै हानी। बाढहिं असुर अधम अभिमानी॥3॥

भावार्थ

और जैसा कुछ मेरी समझ में आता है, हे सुमुखि! वही कारण मैं तुमको सुनाता हूँ। जब-जब धर्म का ह्रास होता है और नीच अभिमानी राक्षस बढ जाते हैं॥3॥

करहिं अनीति जाइ नहिं बरनी। सीदहिं बिप्र धेनु सुर धरनी॥
तब तब प्रभु धरि बिबिध सरीरा। हरहिं कृपानिधि सज्जन पीरा॥4॥

भावार्थ

और वे ऐसा अन्याय करते हैं कि जिसका वर्णन नहीं हो सकता तथा ब्राह्मण, गो, देवता और पृथ्वी कष्ट पाते हैं, तब-तब वे कृपानिधान प्रभु भाँति-भाँति के (दिव्य) शरीर धारण कर सज्जनों की पीडा हरते हैं॥4॥

121

01 दोहा

असुर मारि थापहिं सुरन्ह राखहिं निज श्रुति सेतु।
जग बिस्तारहिं बिसद जस राम जन्म कर हेतु॥121॥

मूल

असुर मारि थापहिं सुरन्ह राखहिं निज श्रुति सेतु।
जग बिस्तारहिं बिसद जस राम जन्म कर हेतु॥121॥

भावार्थ

वे असुरों को मारकर देवताओं को स्थापित करते हैं, अपने (श्वास रूप) वेदों की मर्यादा की रक्षा करते हैं और जगत में अपना निर्मल यश फैलाते हैं। श्री रामचन्द्रजी के अवतार का यह कारण है॥121॥

02 चौपाई

सोइ जस गाइ भगत भव तरहीं। कृपासिन्धु जन हित तनु धरहीं॥
राम जनम के हेतु अनेका। परम बिचित्र एक तें एका॥1॥

मूल

सोइ जस गाइ भगत भव तरहीं। कृपासिन्धु जन हित तनु धरहीं॥
राम जनम के हेतु अनेका। परम बिचित्र एक तें एका॥1॥

भावार्थ

उसी यश को गा-गाकर भक्तजन भवसागर से तर जाते हैं। कृपासागर भगवान भक्तों के हित के लिए शरीर धारण करते हैं। श्री रामचन्द्रजी के जन्म लेने के अनेक कारण हैं, जो एक से एक बढकर विचित्र हैं॥1॥

जनम एक दुइ कहउँ बखानी। सावधान सुनु सुमति भवानी॥
द्वारपाल हरि के प्रिय दोऊ। जय अरु बिजय जान सब कोऊ॥2॥

भावार्थ

हे सुन्दर बुद्धि वाली भवानी! मैं उनके दो-एक जन्मों का विस्तार से वर्णन करता हूँ, तुम सावधान होकर सुनो। श्री हरि के जय और विजय दो प्यारे द्वारपाल हैं, जिनको सब कोई जानते हैं॥2॥

बिप्र श्राप तें दूनउ भाई। तामस असुर देह तिन्ह पाई॥
कनककसिपु अरु हाटकलोचन। जगत बिदित सुरपति मद मोचन॥3॥

भावार्थ

उन दोनों भाइयों ने ब्राह्मण (सनकादि) के शाप से असुरों का तामसी शरीर पाया। एक का नाम था हिरण्यकशिपु और दूसरे का हिरण्याक्ष। ये देवराज इन्द्र के गर्व को छुडाने वाले सारे जगत में प्रसिद्ध हुए॥3॥

बिजई समर बीर बिख्याता। धरि बराह बपु एक निपाता॥
होइ नरहरि दूसर पुनि मारा। जन प्रहलाद सुजस बिस्तारा॥4॥

भावार्थ

वे युद्ध में विजय पाने वाले विख्यात वीर थे। इनमें से एक (हिरण्याक्ष) को भगवान ने वराह (सूअर) का शरीर धारण करके मारा, फिर दूसरे (हिरण्यकशिपु) का नरसिंह रूप धारण करके वध किया और अपने भक्त प्रह्लाद का सुन्दर यश फैलाया॥4॥

122

01 दोहा

भए निसाचर जाइ तेइ महाबीर बलवान।
कुम्भकरन रावन सुभट सुर बिजई जग जान॥122॥

मूल

भए निसाचर जाइ तेइ महाबीर बलवान।
कुम्भकरन रावन सुभट सुर बिजई जग जान॥122॥

भावार्थ

वे ही (दोनों) जाकर देवताओं को जीतने वाले तथा बडे योद्धा, रावण और कुम्भकर्ण नामक बडे बलवान और महावीर राक्षस हुए, जिन्हें सारा जगत जानता है॥122॥

02 चौपाई

मुकुत न भए हते भगवाना। तीनि जनम द्विज बचन प्रवाना॥
एक बार तिन्ह के हित लागी। धरेउ सरीर भगत अनुरागी॥1॥

मूल

मुकुत न भए हते भगवाना। तीनि जनम द्विज बचन प्रवाना॥
एक बार तिन्ह के हित लागी। धरेउ सरीर भगत अनुरागी॥1॥

भावार्थ

भगवान के द्वारा मारे जाने पर भी वे (हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु) इसीलिए मुक्त नहीं हुए कि ब्राह्मण के वचन (शाप) का प्रमाण तीन जन्म के लिए था। अतः एक बार उनके कल्याण के लिए भक्तप्रेमी भगवान ने फिर अवतार लिया॥1॥

कस्यप अदिति तहाँ पितु माता। दसरथ कौसल्या बिख्याता॥
एक कलप एहि बिधि अवतारा। चरित पवित्र किए संसारा॥2॥

मूल

कस्यप अदिति तहाँ पितु माता। दसरथ कौसल्या बिख्याता॥
एक कलप एहि बिधि अवतारा। चरित पवित्र किए संसारा॥2॥

भावार्थ

वहाँ (उस अवतार में) कश्यप और अदिति उनके माता-पिता हुए, जो दशरथ और कौसल्या के नाम से प्रसिद्ध थे। एक कल्प में इस प्रकार अवतार लेकर उन्होन्ने संसार में पवित्र लीलाएँ कीं॥2॥

एक कलप सुर देखि दुखारे। समर जलन्धर सन सब हारे॥
सम्भु कीन्ह सङ्ग्राम अपारा। दनुज महाबल मरइ न मारा॥3॥

मूल

एक कलप सुर देखि दुखारे। समर जलन्धर सन सब हारे॥
सम्भु कीन्ह सङ्ग्राम अपारा। दनुज महाबल मरइ न मारा॥3॥

भावार्थ

एक कल्प में सब देवताओं को जलन्धर दैत्य से युद्ध में हार जाने के कारण दुःखी देखकर शिवजी ने उसके साथ बडा घोर युद्ध किया, पर वह महाबली दैत्य मारे नहीं मरता था॥3॥

परम सती असुराधिप नारी। तेहिं बल ताहि न जितहिं पुरारी॥4॥

मूल

परम सती असुराधिप नारी। तेहिं बल ताहि न जितहिं पुरारी॥4॥

भावार्थ

उस दैत्यराज की स्त्री परम सती (बडी ही पतिव्रता) थी। उसी के प्रताप से त्रिपुरासुर (जैसे अजेय शत्रु) का विनाश करने वाले शिवजी भी उस दैत्य को नहीं जीत सके॥4॥

123

01 दोहा

छल करि टारेउ तासु ब्रत प्रभु सुर कारज कीन्ह।
जब तेहिं जानेउ मरम तब श्राप कोप करि दीन्ह॥123॥

भावार्थ

प्रभु ने छल से उस स्त्री का व्रत भङ्ग कर देवताओं का काम किया। जब उस स्त्री ने यह भेद जाना, तब उसने क्रोध करके भगवान को शाप दिया॥123॥

02 चौपाई

तासु श्राप हरि दीन्ह प्रमाना। कौतुकनिधि कृपाल भगवाना॥
तहाँ जलन्धर रावन भयऊ। रन हति राम परम पद दयऊ॥1॥

भावार्थ

लीलाओं के भण्डार कृपालु हरि ने उस स्त्री के शाप को प्रामाण्य दिया (स्वीकार किया)। वही जलन्धर उस कल्प में रावण हुआ, जिसे श्री रामचन्द्रजी ने युद्ध में मारकर परमपद दिया॥1॥

एक जनम कर कारन एहा। जेहि लगि राम धरी नरदेहा॥
प्रति अवतार कथा प्रभु केरी। सुनु मुनि बरनी कबिन्ह घनेरी॥2॥

भावार्थ

एक जन्म का कारण यह था, जिससे श्री रामचन्द्रजी ने मनुष्य देह धारण किया। हे भरद्वाज मुनि! सुनो, प्रभु के प्रत्येक अवतार की कथा का कवियों ने नाना प्रकार से वर्णन किया है॥2॥

नारद श्राप दीन्ह एक बारा। कलप एक तेहि लगि अवतारा॥
गिरिजा चकित भईं सुनि बानी। नारद बिष्नुभगत पुनि ग्यानी॥3॥

भावार्थ

एक बार नारदजी ने शाप दिया, अतः एक कल्प में उसके लिए अवतार हुआ। यह बात सुनकर पार्वतीजी बडी चकित हुईं (और बोलीं कि) नारदजी तो विष्णु भक्त और ज्ञानी हैं॥3॥

कारन कवन श्राप मुनि दीन्हा। का अपराध रमापति कीन्हा॥
यह प्रसङ्ग मोहि कहहु पुरारी। मुनि मन मोह आचरज भारी॥4॥

भावार्थ

मुनि ने भगवान को शाप किस कारण से दिया। लक्ष्मीपति भगवान ने उनका क्या अपराध किया था? हे पुरारि (शङ्करजी)! यह कथा मुझसे कहिए। मुनि नारद के मन में मोह होना बडे आश्चर्य की बात है॥4॥

124

01 दोहा

बोले बिहसि महेस तब ग्यानी मूढ न कोइ।
जेहि जस रघुपति करहिं जब सो तस तेहि छन होइ॥1॥

मूल

बोले बिहसि महेस तब ग्यानी मूढ न कोइ।
जेहि जस रघुपति करहिं जब सो तस तेहि छन होइ॥1॥

भावार्थ

तब महादेवजी ने हँसकर कहा- न कोई ज्ञानी है न मूर्ख। श्री रघुनाथजी जब जिसको जैसा करते हैं, वह उसी क्षण वैसा ही हो जाता है॥1॥

02 सोरठा

कहउँ राम गुन गाथ भरद्वाज सादर सुनहु।
भव भञ्जन रघुनाथ भजु तुलसी तजि मान मद॥2॥

मूल

कहउँ राम गुन गाथ भरद्वाज सादर सुनहु।
भव भञ्जन रघुनाथ भजु तुलसी तजि मान मद॥2॥

भावार्थ

(याज्ञवल्क्यजी कहते हैं-) हे भरद्वाज! मैं श्री रामचन्द्रजी के गुणों की कथा कहता हूँ, तुम आदर से सुनो। तुलसीदासजी कहते हैं- मान और मद को छोडकर आवागमन का नाश करने वाले रघुनाथजी को भजो॥2॥

03 चौपाई

हिमगिरि गुहा एक अति पावनि। बह समीप सुरसरी सुहावनि॥
आश्रम परम पुनीत सुहावा। देखि देवरिषि मन अति भावा॥1॥

मूल

हिमगिरि गुहा एक अति पावनि। बह समीप सुरसरी सुहावनि॥
आश्रम परम पुनीत सुहावा। देखि देवरिषि मन अति भावा॥1॥

भावार्थ

हिमालय पर्वत में एक बडी पवित्र गुफा थी। उसके समीप ही सुन्दर गङ्गाजी बहती थीं। वह परम पवित्र सुन्दर आश्रम देखने पर नारदजी के मन को बहुत ही सुहावना लगा॥1॥

निरखि सैल सरि बिपिन बिभागा। भयउ रमापति पद अनुरागा॥
सुमिरत हरिहि श्राप गति बाधी। सहज बिमल मन लागि समाधी॥2॥

मूल

निरखि सैल सरि बिपिन बिभागा। भयउ रमापति पद अनुरागा॥
सुमिरत हरिहि श्राप गति बाधी। सहज बिमल मन लागि समाधी॥2॥

भावार्थ

पर्वत, नदी और वन के (सुन्दर) विभागों को देखकर नादरजी का लक्ष्मीकान्त भगवान के चरणों में प्रेम हो गया। भगवान का स्मरण करते ही उन (नारद मुनि) के शाप की (जो शाप उन्हें दक्ष प्रजापति ने दिया था और जिसके कारण वे एक स्थान पर नहीं ठहर सकते थे) गति रुक गई और मन के स्वाभाविक ही निर्मल होने से उनकी समाधि लग गई॥2॥

मुनि गति देखि सुरेस डेराना। कामहि बोलि कीन्ह सनमाना॥
सहित सहाय जाहु मम हेतू। चलेउ हरषि हियँ जलचरकेतू॥3॥

मूल

मुनि गति देखि सुरेस डेराना। कामहि बोलि कीन्ह सनमाना॥
सहित सहाय जाहु मम हेतू। चलेउ हरषि हियँ जलचरकेतू॥3॥

भावार्थ

नारद मुनि की (यह तपोमयी) स्थिति देखकर देवराज इन्द्र डर गया। उसने कामदेव को बुलाकर उसका आदर-सत्कार किया (और कहा कि) मेरे (हित के) लिए तुम अपने सहायकों सहित (नारद की समाधि भङ्ग करने को) जाओ। (यह सुनकर) मीनध्वज कामदेव मन में प्रसन्न होकर चला॥3॥

सुनासीर मन महुँ असि त्रासा। चहत देवरिषि मम पुर बासा॥
जे कामी लोलुप जग माहीं। कुटिल काक इव सबहि डेराहीं॥4॥

मूल

सुनासीर मन महुँ असि त्रासा। चहत देवरिषि मम पुर बासा॥
जे कामी लोलुप जग माहीं। कुटिल काक इव सबहि डेराहीं॥4॥

भावार्थ

इन्द्र के मन में यह डर हुआ कि देवर्षि नारद मेरी पुरी (अमरावती) का निवास (राज्य) चाहते हैं। जगत में जो कामी और लोभी होते हैं, वे कुटिल कौए की तरह सबसे डरते हैं॥4॥

125

01 दोहा

सूख हाड लै भाग सठ स्वान निरखि मृगराज।
छीनि लेइ जनि जान जड तिमि सुरपतिहि न लाज॥125॥

मूल

सूख हाड लै भाग सठ स्वान निरखि मृगराज।
छीनि लेइ जनि जान जड तिमि सुरपतिहि न लाज॥125॥

भावार्थ

जैसे मूर्ख कुत्ता सिंह को देखकर सूखी हड्डी लेकर भागे और वह मूर्ख यह समझे कि कहीं उस हड्डी को सिंह छीन न ले, वैसे ही इन्द्र को (नारदजी मेरा राज्य छीन लेङ्गे, ऐसा सोचते) लाज नहीं आई॥125॥

02 चौपाई

तेहि आश्रमहिं मदन जब गयऊ। निज मायाँ बसन्त निरमयऊ॥
कुसुमित बिबिध बिटप बहुरङ्गा। कूजहिं कोकिल गुञ्जहिं भृङ्गा॥1॥

मूल

तेहि आश्रमहिं मदन जब गयऊ। निज मायाँ बसन्त निरमयऊ॥
कुसुमित बिबिध बिटप बहुरङ्गा। कूजहिं कोकिल गुञ्जहिं भृङ्गा॥1॥

भावार्थ

जब कामदेव उस आश्रम में गया, तब उसने अपनी माया से वहाँ वसन्त ऋतु को उत्पन्न किया। तरह-तरह के वृक्षों पर रङ्ग-बिरङ्गे फूल खिल गए, उन पर कोयलें कूकने लगीं और भौंरे गुञ्जार करने लगे॥1॥

चली सुहावनि त्रिबिध बयारी। काम कृसानु बढावनिहारी॥
रम्भादिक सुर नारि नबीना। सकल असमसर कला प्रबीना॥2॥

भावार्थ

कामाग्नि को भडकाने वाली तीन प्रकार की (शीतल, मन्द और सुगन्ध) सुहावनी हवा चलने लगी। रम्भा आदि नवयुवती देवाङ्गनाएँ, जो सब की सब कामकला में निपुण थीं,॥2॥

करहिं गान बहु तान तरङ्गा। बहुबिधि क्रीडहिं पानि पतङ्गा॥
देखि सहाय मदन हरषाना। कीन्हेसि पुनि प्रपञ्च बिधि नाना॥3॥

भावार्थ

वे बहुत प्रकार की तानों की तरङ्ग के साथ गाने लगीं और हाथ में गेन्द लेकर नाना प्रकार के खेल खेलने लगीं। कामदेव अपने इन सहायकों को देखकर बहुत प्रसन्न हुआ और फिर उसने नाना प्रकार के मायाजाल किए॥3॥

काम कला कछु मुनिहि न ब्यापी। निज भयँ डरेउ मनोभव पापी॥
सीम कि चाँपि सकइ कोउ तासू। बड रखवार रमापति जासू॥4॥

भावार्थ

परन्तु कामदेव की कोई भी कला मुनि पर असर न कर सकी। तब तो पापी कामदेव अपने ही (नाश के) भय से डर गया। लक्ष्मीपति भगवान जिसके बडे रक्षक हों, भला, उसकी सीमा (मर्यादा) को कोई दबा सकता है? ॥4॥

126

01 दोहा

सहित सहाय सभीत अति मानि हारि मन मैन।
गहेसि जाइ मुनि चरन तब कहि सुठि आरत बैन॥126॥

भावार्थ

तब अपने सहायकों समेत कामदेव ने बहुत डरकर और अपने मन में हार मानकर बहुत ही आर्त (दीन) वचन कहते हुए मुनि के चरणों को जा पकडा॥126॥

02 चौपाई

भयउ न नारद मन कछु रोषा। कहि प्रिय बचन काम परितोषा॥
नाइ चरन सिरु आयसु पाई। गयउ मदन तब सहित सहाई॥1॥

भावार्थ

नारदजी के मन में कुछ भी क्रोध न आया। उन्होन्ने प्रिय वचन कहकर कामदेव का समाधान किया। तब मुनि के चरणों में सिर नवाकर और उनकी आज्ञा पाकर कामदेव अपने सहायकों सहित लौट गया॥1॥

मुनि सुसीलता आपनि करनी। सुरपति सभाँ जाइ सब बरनी॥
सुनि सब कें मन अचरजु आवा। मुनिहि प्रसंसि हरिहि सिरु नावा॥2॥

भावार्थ

देवराज इन्द्र की सभा में जाकर उसने मुनि की सुशीलता और अपनी करतूत सब कही, जिसे सुनकर सबके मन में आश्चर्य हुआ और उन्होन्ने मुनि की बडाई करके श्री हरि को सिर नवाया॥2॥

तब नारद गवने सिव पाहीं। जिता काम अहमिति मन माहीं॥
मार चरति सङ्करहि सुनाए। अतिप्रिय जानि महेस सिखाए॥3॥

भावार्थ

तब नारदजी शिवजी के पास गए। उनके मन में इस बात का अहङ्कार हो गया कि हमने कामदेव को जीत लिया। उन्होन्ने कामदेव के चरित्र शिवजी को सुनाए और महादेवजी ने उन (नारदजी) को अत्यन्त प्रिय जानकर (इस प्रकार) शिक्षा दी-॥3॥

बार बार बिनवउँ मुनि तोही। जिमि यह कथा सुनायहु मोही॥
तिमि जनि हरिहि सुनावहु कबहूँ। चलेहुँ प्रसङ्ग दुराएहु तबहूँ॥4॥

भावार्थ

हे मुनि! मैं तुमसे बार-बार विनती करता हूँ कि जिस तरह यह कथा तुमने मुझे सुनाई है, उस तरह भगवान श्री हरि को कभी मत सुनाना। चर्चा भी चले तब भी इसको छिपा जाना॥4॥

127

01 दोहा

सम्भु दीन्ह उपदेस हित नहिं नारदहि सोहान।
भरद्वाज कौतुक सुनहु हरि इच्छा बलवान॥127॥

मूल

सम्भु दीन्ह उपदेस हित नहिं नारदहि सोहान।
भरद्वाज कौतुक सुनहु हरि इच्छा बलवान॥127॥

भावार्थ

यद्यपि शिवजी ने यह हित की शिक्षा दी, पर नारदजी को वह अच्छी न लगी। हे भरद्वाज! अब कौतुक (तमाशा) सुनो। हरि की इच्छा बडी बलवान है॥127॥

02 चौपाई

राम कीन्ह चाहहिं सोइ होई। करै अन्यथा अस नहिं कोई॥
सम्भु बचन मुनि मन नहिं भाए। तब बिरञ्चि के लोक सिधाए॥1॥

मूल

राम कीन्ह चाहहिं सोइ होई। करै अन्यथा अस नहिं कोई॥
सम्भु बचन मुनि मन नहिं भाए। तब बिरञ्चि के लोक सिधाए॥1॥

भावार्थ

श्री रामचन्द्रजी जो करना चाहते हैं, वही होता है, ऐसा कोई नहीं जो उसके विरुद्ध कर सके। श्री शिवजी के वचन नारदजी के मन को अच्छे नहीं लगे, तब वे वहाँ से ब्रह्मलोक को चल दिए॥1॥

एक बार करतल बर बीना। गावत हरि गुन गान प्रबीना॥
छीरसिन्धु गवने मुनिनाथा। जहँ बस श्रीनिवास श्रुतिमाथा॥2॥

मूल

एक बार करतल बर बीना। गावत हरि गुन गान प्रबीना॥
छीरसिन्धु गवने मुनिनाथा। जहँ बस श्रीनिवास श्रुतिमाथा॥2॥

भावार्थ

एक बार गानविद्या में निपुण मुनिनाथ नारदजी हाथ में सुन्दर वीणा लिए, हरिगुण गाते हुए क्षीरसागर को गए, जहाँ वेदों के मस्तकस्वरूप (मूर्तिमान वेदान्तत्व) लक्ष्मी निवास भगवान नारायण रहते हैं॥2॥

हरषि मिले उठि रमानिकेता। बैठे आसन रिषिहि समेता॥
बोले बिहसि चराचर राया। बहुते दिनन कीन्हि मुनि दाया॥3॥

मूल

हरषि मिले उठि रमानिकेता। बैठे आसन रिषिहि समेता॥
बोले बिहसि चराचर राया। बहुते दिनन कीन्हि मुनि दाया॥3॥

भावार्थ

रमानिवास भगवान उठकर बडे आनन्द से उनसे मिले और ऋषि (नारदजी) के साथ आसन पर बैठ गए। चराचर के स्वामी भगवान हँसकर बोले- हे मुनि! आज आपने बहुत दिनों पर दया की॥3॥

काम चरित नारद सब भाषे। जद्यपि प्रथम बरजि सिवँ राखे॥
अति प्रचण्ड रघुपति कै माया। जेहि न मोह अस को जग जाया॥4॥

मूल

काम चरित नारद सब भाषे। जद्यपि प्रथम बरजि सिवँ राखे॥
अति प्रचण्ड रघुपति कै माया। जेहि न मोह अस को जग जाया॥4॥

भावार्थ

यद्यपि श्री शिवजी ने उन्हें पहले से ही बरज रखा था, तो भी नारदजी ने कामदेव का सारा चरित्र भगवान को कह सुनाया। श्री रघुनाथजी की माया बडी ही प्रबल है। जगत में ऐसा कौन जन्मा है, जिसे वे मोहित न कर दें॥4॥

128

01 दोहा

रूख बदन करि बचन मृदु बोले श्रीभगवान।
तुम्हरे सुमिरन तें मिटहिं मोह मार मद मान॥128॥

भावार्थ

भगवान रूखा मुँह करके कोमल वचन बोले- हे मुनिराज! आपका स्मरण करने से दूसरों के मोह, काम, मद और अभिमान मिट जाते हैं (फिर आपके लिए तो कहना ही क्या है!)॥128॥

02 चौपाई

सुनु मुनि मोह होइ मन ताकें। ग्यान बिराग हृदय नहिं जाकें॥
ब्रह्मचरज ब्रत रत मतिधीरा। तुम्हहि कि करइ मनोभव पीरा॥1॥

भावार्थ

हे मुनि! सुनिए, मोह तो उसके मन में होता है, जिसके हृदय में ज्ञान-वैराग्य नहीं है। आप तो ब्रह्मचर्यव्रत में तत्पर और बडे धीर बुद्धि हैं। भला, कहीं आपको भी कामदेव सता सकता है?॥1॥

नारद कहेउ सहित अभिमाना। कृपा तुम्हारि सकल भगवाना॥
करुनानिधि मन दीख बिचारी। उर अङ्कुरेउ गरब तरु भारी॥2॥

भावार्थ

नारदजी ने अभिमान के साथ कहा- भगवन! यह सब आपकी कृपा है। करुणानिधान भगवान ने मन में विचारकर देखा कि इनके मन में गर्व के भारी वृक्ष का अङ्कुर पैदा हो गया है॥2॥

बेगि सो मैं डारिहउँ उखारी। पन हमार सेवक हितकारी॥
मुनि कर हित मम कौतुक होई। अवसि उपाय करबि मैं सोई॥3॥

भावार्थ

मैं उसे तुरन्त ही उखाड फेङ्कूँगा, क्योङ्कि सेवकों का हित करना हमारा प्रण है। मैं अवश्य ही वह उपाय करूँगा, जिससे मुनि का कल्याण और मेरा खेल हो॥3॥

तब नारद हरि पद सिर नाई। चले हृदयँ अहमिति अधिकाई॥
श्रीपति निज माया तब प्रेरी। सुनहु कठिन करनी तेहि केरी॥4॥

भावार्थ

तब नारदजी भगवान के चरणों में सिर नवाकर चले। उनके हृदय में अभिमान और भी बढ गया। तब लक्ष्मीपति भगवान ने अपनी माया को प्रेरित किया। अब उसकी कठिन करनी सुनो॥4॥

129

01 दोहा

बिरचेउ मग महुँ नगर तेहिं सत जोजन बिस्तार।
श्रीनिवासपुर तें अधिक रचना बिबिध प्रकार॥129॥

मूल

बिरचेउ मग महुँ नगर तेहिं सत जोजन बिस्तार।
श्रीनिवासपुर तें अधिक रचना बिबिध प्रकार॥129॥

भावार्थ

उस (हरिमाया) ने रास्ते में सौ योजन (चार सौ कोस) का एक नगर रचा। उस नगर की भाँति-भाँति की रचनाएँ लक्ष्मीनिवास भगवान विष्णु के नगर (वैकुण्ठ) से भी अधिक सुन्दर थीं॥129॥

02 चौपाई

बसहिं नगर सुन्दर नर नारी। जनु बहु मनसिज रति तनुधारी॥
तेहिं पुर बसइ सीलनिधि राजा। अगनित हय गय सेन समाजा॥1॥

मूल

बसहिं नगर सुन्दर नर नारी। जनु बहु मनसिज रति तनुधारी॥
तेहिं पुर बसइ सीलनिधि राजा। अगनित हय गय सेन समाजा॥1॥

भावार्थ

उस नगर में ऐसे सुन्दर नर-नारी बसते थे, मानो बहुत से कामदेव और (उसकी स्त्री) रति ही मनुष्य शरीर धारण किए हुए हों। उस नगर में शीलनिधि नाम का राजा रहता था, जिसके यहाँ असङ्ख्य घोडे, हाथी और सेना के समूह (टुकडियाँ) थे॥1॥

सत सुरेस सम बिभव बिलासा। रूप तेज बल नीति निवासा॥
बिस्वमोहनी तासु कुमारी। श्री बिमोह जिसु रूपु निहारी॥2॥

मूल

सत सुरेस सम बिभव बिलासा। रूप तेज बल नीति निवासा॥
बिस्वमोहनी तासु कुमारी। श्री बिमोह जिसु रूपु निहारी॥2॥

भावार्थ

उसका वैभव और विलास सौ इन्द्रों के समान था। वह रूप, तेज, बल और नीति का घर था। उसके विश्वमोहिनी नाम की एक (ऐसी रूपवती) कन्या थी, जिसके रूप को देखकर लक्ष्मीजी भी मोहित हो जाएँ॥ 2॥

सोइ हरिमाया सब गुन खानी। सोभा तासु कि जाइ बखानी॥
करइ स्वयम्बर सो नृपबाला। आए तहँ अगनित महिपाला॥3॥

मूल

सोइ हरिमाया सब गुन खानी। सोभा तासु कि जाइ बखानी॥
करइ स्वयम्बर सो नृपबाला। आए तहँ अगनित महिपाला॥3॥

भावार्थ

वह सब गुणों की खान भगवान की माया ही थी। उसकी शोभा का वर्णन कैसे किया जा सकता है। वह राजकुमारी स्वयंवर करना चाहती थी, इससे वहाँ अगणित राजा आए हुए थे॥3॥

मुनि कौतुकी नगर तेहि गयऊ। पुरबासिन्ह सब पूछत भयऊ॥
सुनि सब चरित भूपगृहँ आए। करि पूजा नृप मुनि बैठाए॥4॥

मूल

मुनि कौतुकी नगर तेहि गयऊ। पुरबासिन्ह सब पूछत भयऊ॥
सुनि सब चरित भूपगृहँ आए। करि पूजा नृप मुनि बैठाए॥4॥

भावार्थ

खिलवाडी मुनि नारदजी उस नगर में गए और नगरवासियों से उन्होन्ने सब हाल पूछा। सब समाचार सुनकर वे राजा के महल में आए। राजा ने पूजा करके मुनि को (आसन पर) बैठाया॥4॥

130

01 दोहा

आनि देखाई नारदहि भूपति राजकुमारि।
कहहु नाथ गुन दोष सब एहि के हृदयँ बिचारि॥130॥

मूल

आनि देखाई नारदहि भूपति राजकुमारि।
कहहु नाथ गुन दोष सब एहि के हृदयँ बिचारि॥130॥

भावार्थ

(फिर) राजा ने राजकुमारी को लाकर नारदजी को दिखलाया (और पूछा कि-) हे नाथ! आप अपने हृदय में विचार कर इसके सब गुण-दोष कहिए॥130॥

02 चौपाई

देखि रूप मुनि बिरति बिसारी। बडी बार लगि रहे निहारी॥
लच्छन तासु बिलोकि भुलाने। हृदयँ हरष नहिं प्रगट बखाने॥1॥

मूल

देखि रूप मुनि बिरति बिसारी। बडी बार लगि रहे निहारी॥
लच्छन तासु बिलोकि भुलाने। हृदयँ हरष नहिं प्रगट बखाने॥1॥

भावार्थ

उसके रूप को देखकर मुनि वैराग्य भूल गए और बडी देर तक उसकी ओर देखते ही रह गए। उसके लक्षण देखकर मुनि अपने आपको भी भूल गए और हृदय में हर्षित हुए, पर प्रकट रूप में उन लक्षणों को नहीं कहा॥1॥

जो एहि बरइ अमर सोइ होई। समरभूमि तेहि जीत न कोई॥
सेवहिं सकल चराचर ताही। बरइ सीलनिधि कन्या जाही॥2॥

मूल

जो एहि बरइ अमर सोइ होई। समरभूमि तेहि जीत न कोई॥
सेवहिं सकल चराचर ताही। बरइ सीलनिधि कन्या जाही॥2॥

भावार्थ

(लक्षणों को सोचकर वे मन में कहने लगे कि) जो इसे ब्याहेगा, वह अमर हो जाएगा और रणभूमि में कोई उसे जीत न सकेगा। यह शीलनिधि की कन्या जिसको वरेगी, सब चर-अचर जीव उसकी सेवा करेङ्गे॥2॥

लच्छन सब बिचारि उर राखे। कछुक बनाइ भूप सन भाषे॥
सुता सुलच्छन कहि नृप पाहीं। नारद चले सोच मन माहीं॥3॥

मूल

लच्छन सब बिचारि उर राखे। कछुक बनाइ भूप सन भाषे॥
सुता सुलच्छन कहि नृप पाहीं। नारद चले सोच मन माहीं॥3॥

भावार्थ

सब लक्षणों को विचारकर मुनि ने अपने हृदय में रख लिया और राजा से कुछ अपनी ओर से बनाकर कह दिए। राजा से लडकी के सुलक्षण कहकर नारदजी चल दिए। पर उनके मन में यह चिन्ता थी कि- ॥3॥

करौं जाइ सोइ जतन बिचारी। जेहि प्रकार मोहि बरै कुमारी॥
जप तप कछु न होइ तेहि काला। हे बिधि मिलइ कवन बिधि बाला॥4॥

मूल

करौं जाइ सोइ जतन बिचारी। जेहि प्रकार मोहि बरै कुमारी॥
जप तप कछु न होइ तेहि काला। हे बिधि मिलइ कवन बिधि बाला॥4॥

भावार्थ

मैं जाकर सोच-विचारकर अब वही उपाय करूँ, जिससे यह कन्या मुझे ही वरे। इस समय जप-तप से तो कुछ हो नहीं सकता। हे विधाता! मुझे यह कन्या किस तरह मिलेगी?॥4॥

131

01 दोहा

एहि अवसर चाहिअ परम सोभा रूप बिसाल।
जो बिलोकि रीझै कुअँरि तब मेलै जयमाल॥131॥

मूल

एहि अवसर चाहिअ परम सोभा रूप बिसाल।
जो बिलोकि रीझै कुअँरि तब मेलै जयमाल॥131॥

भावार्थ

इस समय तो बडी भारी शोभा और विशाल (सुन्दर) रूप चाहिए, जिसे देखकर राजकुमारी मुझ पर रीझ जाए और तब जयमाल (मेरे गले में) डाल दे॥131॥

02 चौपाई

हरि सन मागौं सुन्दरताई। होइहि जात गहरु अति भाई॥
मोरें हित हरि सम नहिं कोऊ। एहि अवसर सहाय सोइ होऊ॥1॥

मूल

हरि सन मागौं सुन्दरताई। होइहि जात गहरु अति भाई॥
मोरें हित हरि सम नहिं कोऊ। एहि अवसर सहाय सोइ होऊ॥1॥

भावार्थ

(एक काम करूँ कि) भगवान से सुन्दरता माँगूँ, पर भाई! उनके पास जाने में तो बहुत देर हो जाएगी, किन्तु श्री हरि के समान मेरा हितू भी कोई नहीं है, इसलिए इस समय वे ही मेरे सहायक हों॥1॥

बहुबिधि बिनय कीन्हि तेहि काला। प्रगटेउ प्रभु कौतुकी कृपाला॥
प्रभु बिलोकि मुनि नयन जुडाने। होइहि काजु हिएँ हरषाने॥2॥

मूल

बहुबिधि बिनय कीन्हि तेहि काला। प्रगटेउ प्रभु कौतुकी कृपाला॥
प्रभु बिलोकि मुनि नयन जुडाने। होइहि काजु हिएँ हरषाने॥2॥

भावार्थ

उस समय नारदजी ने भगवान की बहुत प्रकार से विनती की। तब लीलामय कृपालु प्रभु (वहीं) प्रकट हो गए। स्वामी को देखकर नारदजी के नेत्र शीतल हो गए और वे मन में बडे ही हर्षित हुए कि अब तो काम बन ही जाएगा॥2॥

अति आरति कहि कथा सुनाई। करहु कृपा करि होहु सहाई॥
आपन रूप देहु प्रभु मोहीं। आन भाँति नहिं पावौं ओही॥3॥

मूल

अति आरति कहि कथा सुनाई। करहु कृपा करि होहु सहाई॥
आपन रूप देहु प्रभु मोहीं। आन भाँति नहिं पावौं ओही॥3॥

भावार्थ

नारदजी ने बहुत आर्त (दीन) होकर सब कथा कह सुनाई (और प्रार्थना की कि) कृपा कीजिए और कृपा करके मेरे सहायक बनिए। हे प्रभो! आप अपना रूप मुझको दीजिए और किसी प्रकार मैं उस (राजकन्या) को नहीं पा सकता॥3॥

जेहि बिधि नाथ होइ हित मोरा। करहु सो बेगि दास मैं तोरा॥
निज माया बल देखि बिसाला। हियँ हँसि बोले दीनदयाला॥4॥

मूल

जेहि बिधि नाथ होइ हित मोरा। करहु सो बेगि दास मैं तोरा॥
निज माया बल देखि बिसाला। हियँ हँसि बोले दीनदयाला॥4॥

भावार्थ

हे नाथ! जिस तरह मेरा हित हो, आप वही शीघ्र कीजिए। मैं आपका दास हूँ। अपनी माया का विशाल बल देख दीनदयालु भगवान मन ही मन हँसकर बोले-॥4॥

132

01 दोहा

जेहि बिधि होइहि परम हित नारद सुनहु तुम्हार।
सोइ हम करब न आन कछु बचन न मृषा हमार॥132॥

मूल

जेहि बिधि होइहि परम हित नारद सुनहु तुम्हार।
सोइ हम करब न आन कछु बचन न मृषा हमार॥132॥

भावार्थ

हे नारदजी! सुनो, जिस प्रकार आपका परम हित होगा, हम वही करेङ्गे, दूसरा कुछ नहीं। हमारा वचन असत्य नहीं होता॥132॥

02 चौपाई

कुपथ माग रुज ब्याकुल रोगी। बैद न देइ सुनहु मुनि जोगी॥
एहि बिधि हित तुम्हार मैं ठयऊ। कहि अस अन्तरहित प्रभु भयऊ॥1॥

मूल

कुपथ माग रुज ब्याकुल रोगी। बैद न देइ सुनहु मुनि जोगी॥
एहि बिधि हित तुम्हार मैं ठयऊ। कहि अस अन्तरहित प्रभु भयऊ॥1॥

भावार्थ

हे योगी मुनि! सुनिए, रोग से व्याकुल रोगी कुपथ्य माँगे तो वैद्य उसे नहीं देता। इसी प्रकार मैन्ने भी तुम्हारा हित करने की ठान ली है। ऐसा कहकर भगवान अन्तर्धान हो गए॥1॥

माया बिबस भए मुनि मूढा। समुझी नहिं हरि गिरा निगूढा॥
गवने तुरत तहाँ रिषिराई। जहाँ स्वयम्बर भूमि बनाई॥2॥

मूल

माया बिबस भए मुनि मूढा। समुझी नहिं हरि गिरा निगूढा॥
गवने तुरत तहाँ रिषिराई। जहाँ स्वयम्बर भूमि बनाई॥2॥

भावार्थ

(भगवान की) माया के वशीभूत हुए मुनि ऐसे मूढ हो गए कि वे भगवान की अगूढ (स्पष्ट) वाणी को भी न समझ सके। ऋषिराज नारदजी तुरन्त वहाँ गए जहाँ स्वयंवर की भूमि बनाई गई थी॥2॥

निज निज आसन बैठे राजा। बहु बनाव करि सहित समाजा॥
मुनि मन हरष रूप अति मोरें। मोहि तजि आनहि बरिहि न भोरें॥3॥

मूल

निज निज आसन बैठे राजा। बहु बनाव करि सहित समाजा॥
मुनि मन हरष रूप अति मोरें। मोहि तजि आनहि बरिहि न भोरें॥3॥

भावार्थ

राजा लोग खूब सज-धजकर समाज सहित अपने-अपने आसन पर बैठे थे। मुनि (नारद) मन ही मन प्रसन्न हो रहे थे कि मेरा रूप बडा सुन्दर है, मुझे छोड कन्या भूलकर भी दूसरे को न वरेगी॥3॥

मुनि हित कारन कृपानिधाना। दीन्ह कुरूप न जाइ बखाना॥
सो चरित्र लखि काहुँ न पावा। नारद जानि सबहिं सिर नावा॥4॥

मूल

मुनि हित कारन कृपानिधाना। दीन्ह कुरूप न जाइ बखाना॥
सो चरित्र लखि काहुँ न पावा। नारद जानि सबहिं सिर नावा॥4॥

भावार्थ

कृपानिधान भगवान ने मुनि के कल्याण के लिए उन्हें ऐसा कुरूप बना दिया कि जिसका वर्णन नहीं हो सकता, पर यह चरित कोई भी न जान सका। सबने उन्हें नारद ही जानकर प्रणाम किया॥4॥

133

01 दोहा

रहे तहाँ दुइ रुद्र गन ते जानहिं सब भेउ।
बिप्रबेष देखत फिरहिं परम कौतुकी तेउ॥133॥

मूल

रहे तहाँ दुइ रुद्र गन ते जानहिं सब भेउ।
बिप्रबेष देखत फिरहिं परम कौतुकी तेउ॥133॥

भावार्थ

वहाँ शिवजी के दो गण भी थे। वे सब भेद जानते थे और ब्राह्मण का वेष बनाकर सारी लीला देखते-फिरते थे। वे भी बडे मौजी थे॥133॥

02 चौपाई

जेहिं समाज बैठे मुनि जाई। हृदयँ रूप अहमिति अधिकाई॥
तहँ बैठे महेस गन दोऊ। बिप्रबेष गति लखइ न कोऊ॥1॥

मूल

जेहिं समाज बैठे मुनि जाई। हृदयँ रूप अहमिति अधिकाई॥
तहँ बैठे महेस गन दोऊ। बिप्रबेष गति लखइ न कोऊ॥1॥

भावार्थ

नारदजी अपने हृदय में रूप का बडा अभिमान लेकर जिस समाज (पङ्क्ति) में जाकर बैठे थे, ये शिवजी के दोनों गण भी वहीं बैठ गए। ब्राह्मण के वेष में होने के कारण उनकी इस चाल को कोई न जान सका॥1॥

करहिं कूटि नारदहि सुनाई। नीकि दीन्हि हरि सुन्दरताई॥
रीझिहि राजकुअँरि छबि देखी। इन्हहि बरिहि हरि जानि बिसेषी॥2॥

मूल

करहिं कूटि नारदहि सुनाई। नीकि दीन्हि हरि सुन्दरताई॥
रीझिहि राजकुअँरि छबि देखी। इन्हहि बरिहि हरि जानि बिसेषी॥2॥

भावार्थ

वे नारदजी को सुना-सुनाकर, व्यङ्ग्य वचन कहते थे- भगवान ने इनको अच्छी ‘सुन्दरता’ दी है। इनकी शोभा देखकर राजकुमारी रीझ ही जाएगी और ‘हरि’ (वानर) जानकर इन्हीं को खास तौर से वरेगी॥2॥

मुनिहि मोह मन हाथ पराएँ। हँसहिं सम्भु गन अति सचु पाएँ॥
जदपि सुनहिं मुनि अटपटि बानी। समुझि न परइ बुद्धि भ्रम सानी॥3॥

मूल

मुनिहि मोह मन हाथ पराएँ। हँसहिं सम्भु गन अति सचु पाएँ॥
जदपि सुनहिं मुनि अटपटि बानी। समुझि न परइ बुद्धि भ्रम सानी॥3॥

भावार्थ

नारद मुनि को मोह हो रहा था, क्योङ्कि उनका मन दूसरे के हाथ (माया के वश) में था। शिवजी के गण बहुत प्रसन्न होकर हँस रहे थे। यद्यपि मुनि उनकी अटपटी बातें सुन रहे थे, पर बुद्धि भ्रम में सनी हुई होने के कारण वे बातें उनकी समझ में नहीं आती थीं (उनकी बातों को वे अपनी प्रशंसा समझ रहे थे)॥3॥

काहुँ न लखा सो चरित बिसेषा। सो सरूप नृपकन्याँ देखा॥
मर्कट बदन भयङ्कर देही। देखत हृदयँ क्रोध भा तेही॥4॥

मूल

काहुँ न लखा सो चरित बिसेषा। सो सरूप नृपकन्याँ देखा॥
मर्कट बदन भयङ्कर देही। देखत हृदयँ क्रोध भा तेही॥4॥

भावार्थ

इस विशेष चरित को और किसी ने नहीं जाना, केवल राजकन्या ने (नारदजी का) वह रूप देखा। उनका बन्दर का सा मुँह और भयङ्कर शरीर देखते ही कन्या के हृदय में क्रोध उत्पन्न हो गया॥4॥

134

01 दोहा

सखीं सङ्ग लै कुअँरि तब चलि जनु राजमराल।
देखत फिरइ महीप सब कर सरोज जयमाल॥134॥

मूल

सखीं सङ्ग लै कुअँरि तब चलि जनु राजमराल।
देखत फिरइ महीप सब कर सरोज जयमाल॥134॥

भावार्थ

तब राजकुमारी सखियों को साथ लेकर इस तरह चली मानो राजहंसिनी चल रही है। वह अपने कमल जैसे हाथों में जयमाला लिए सब राजाओं को देखती हुई घूमने लगी॥134॥

02 चौपाई

जेहि दिसि बैठे नारद फूली। सो दिसि तेहिं न बिलोकी भूली॥
पुनि-पुनि मुनि उकसहिं अकुलाहीं। देखि दसा हर गन मुसुकाहीं॥1॥

मूल

जेहि दिसि बैठे नारद फूली। सो दिसि तेहिं न बिलोकी भूली॥
पुनि-पुनि मुनि उकसहिं अकुलाहीं। देखि दसा हर गन मुसुकाहीं॥1॥

भावार्थ

जिस ओर नारदजी (रूप के गर्व में) फूले बैठे थे, उस ओर उसने भूलकर भी नहीं ताका। नारद मुनि बार-बार उचकते और छटपटाते हैं। उनकी दशा देखकर शिवजी के गण मुसकराते हैं॥1॥

धरि नृपतनु तहँ गयउ कृपाला। कुअँरि हरषि मेलेउ जयमाला॥
दुलहिनि लै गे लच्छिनिवासा। नृपसमाज सब भयउ निरासा॥2॥

मूल

धरि नृपतनु तहँ गयउ कृपाला। कुअँरि हरषि मेलेउ जयमाला॥
दुलहिनि लै गे लच्छिनिवासा। नृपसमाज सब भयउ निरासा॥2॥

भावार्थ

कृपालु भगवान भी राजा का शरीर धारण कर वहाँ जा पहुँचे। राजकुमारी ने हर्षित होकर उनके गले में जयमाला डाल दी। लक्ष्मीनिवास भगवान दुलहिन को ले गए। सारी राजमण्डली निराश हो गई॥2॥

मुनि अति बिकल मोहँ मति नाठी। मनि गिरि गई छूटि जनु गाँठी॥
तब हर गन बोले मुसुकाई। निज मुख मुकुर बिलोकहु जाई॥3॥

मूल

मुनि अति बिकल मोहँ मति नाठी। मनि गिरि गई छूटि जनु गाँठी॥
तब हर गन बोले मुसुकाई। निज मुख मुकुर बिलोकहु जाई॥3॥

भावार्थ

मोह के कारण मुनि की बुद्धि नष्ट हो गई थी, इससे वे (राजकुमारी को गई देख) बहुत ही विकल हो गए। मानो गाँठ से छूटकर मणि गिर गई हो। तब शिवजी के गणों ने मुसकराकर कहा- जाकर दर्पण में अपना मुँह तो देखिए!॥3॥

अस कहि दोउ भागे भयँ भारी। बदन दीख मुनि बारि निहारी॥
बेषु बिलोकि क्रोध अति बाढा। तिन्हहि सराप दीन्ह अति गाढा॥4॥

मूल

अस कहि दोउ भागे भयँ भारी। बदन दीख मुनि बारि निहारी॥
बेषु बिलोकि क्रोध अति बाढा। तिन्हहि सराप दीन्ह अति गाढा॥4॥

भावार्थ

ऐसा कहकर वे दोनों बहुत भयभीत होकर भागे। मुनि ने जल में झाँककर अपना मुँह देखा। अपना रूप देखकर उनका क्रोध बहुत बढ गया। उन्होन्ने शिवजी के उन गणों को अत्यन्त कठोर शाप दिया-॥4॥

135

01 दोहा

होहु निसाचर जाइ तुम्ह कपटी पापी दोउ।
हँसेहु हमहि सो लेहु फल बहुरि हँसेहु मुनि कोउ॥135॥

मूल

होहु निसाचर जाइ तुम्ह कपटी पापी दोउ।
हँसेहु हमहि सो लेहु फल बहुरि हँसेहु मुनि कोउ॥135॥

भावार्थ

तुम दोनों कपटी और पापी जाकर राक्षस हो जाओ। तुमने हमारी हँसी की, उसका फल चखो। अब फिर किसी मुनि की हँसी करना॥135॥

02 चौपाई

पुनि जल दीख रूप निज पावा। तदपि हृदयँ सन्तोष न आवा॥
फरकत अधर कोप मन माहीं। सपदि चले कमलापति पाहीं॥1॥

मूल

पुनि जल दीख रूप निज पावा। तदपि हृदयँ सन्तोष न आवा॥
फरकत अधर कोप मन माहीं। सपदि चले कमलापति पाहीं॥1॥

भावार्थ

मुनि ने फिर जल में देखा, तो उन्हें अपना (असली) रूप प्राप्त हो गया, तब भी उन्हें सन्तोष नहीं हुआ। उनके होठ फडक रहे थे और मन में क्रोध (भरा) था। तुरन्त ही वे भगवान कमलापति के पास चले॥1॥

देहउँ श्राप कि मरिहउँ जाई। जगत मोरि उपहास कराई॥
बीचहिं पन्थ मिले दनुजारी। सङ्ग रमा सोइ राजकुमारी॥2॥

मूल

देहउँ श्राप कि मरिहउँ जाई। जगत मोरि उपहास कराई॥
बीचहिं पन्थ मिले दनुजारी। सङ्ग रमा सोइ राजकुमारी॥2॥

भावार्थ

(मन में सोचते जाते थे-) जाकर या तो शाप दूँगा या प्राण दे दूँगा। उन्होन्ने जगत में मेरी हँसी कराई। दैत्यों के शत्रु भगवान हरि उन्हें बीच रास्ते में ही मिल गए। साथ में लक्ष्मीजी और वही राजकुमारी थीं॥2॥

बोले मधुर बचन सुरसाईं। मुनि कहँ चले बिकल की नाईं॥
सुनत बचन उपजा अति क्रोधा। माया बस न रहा मन बोधा॥3॥

मूल

बोले मधुर बचन सुरसाईं। मुनि कहँ चले बिकल की नाईं॥
सुनत बचन उपजा अति क्रोधा। माया बस न रहा मन बोधा॥3॥

भावार्थ

देवताओं के स्वामी भगवान ने मीठी वाणी में कहा- हे मुनि! व्याकुल की तरह कहाँ चले? ये शब्द सुनते ही नारद को बडा क्रोध आया, माया के वशीभूत होने के कारण मन में चेत नहीं रहा॥3॥

पर सम्पदा सकहु नहिं देखी। तुम्हरें इरिषा कपट बिसेषी॥
मथत सिन्धु रुद्रहि बौरायहु। सुरन्ह प्रेरि बिष पान करायहु॥4॥

मूल

पर सम्पदा सकहु नहिं देखी। तुम्हरें इरिषा कपट बिसेषी॥
मथत सिन्धु रुद्रहि बौरायहु। सुरन्ह प्रेरि बिष पान करायहु॥4॥

भावार्थ

(मुनि ने कहा-) तुम दूसरों की सम्पदा नहीं देख सकते, तुम्हारे ईर्ष्या और कपट बहुत है। समुद्र मथते समय तुमने शिवजी को बावला बना दिया और देवताओं को प्रेरित करके उन्हें विषपान कराया॥4॥

136

01 दोहा

असुर सुरा बिष सङ्करहि आपु रमा मनि चारु।
स्वारथ साधक कुटिल तुम्ह सदा कपट ब्यवहारु॥136॥

मूल

असुर सुरा बिष सङ्करहि आपु रमा मनि चारु।
स्वारथ साधक कुटिल तुम्ह सदा कपट ब्यवहारु॥136॥

भावार्थ

असुरों को मदिरा और शिवजी को विष देकर तुमने स्वयं लक्ष्मी और सुन्दर (कौस्तुभ) मणि ले ली। तुम बडे धोखेबाज और मतलबी हो। सदा कपट का व्यवहार करते हो॥136॥

02 चौपाई

परम स्वतन्त्र न सिर पर कोई। भावइ मनहि करहु तुम्ह सोई॥
भलेहि मन्द मन्देहि भल करहू। बिसमय हरष न हियँ कछु धरहू॥1॥

मूल

परम स्वतन्त्र न सिर पर कोई। भावइ मनहि करहु तुम्ह सोई॥
भलेहि मन्द मन्देहि भल करहू। बिसमय हरष न हियँ कछु धरहू॥1॥

भावार्थ

तुम परम स्वतन्त्र हो, सिर पर तो कोई है नहीं, इससे जब जो मन को भाता है, (स्वच्छन्दता से) वही करते हो। भले को बुरा और बुरे को भला कर देते हो। हृदय में हर्ष-विषाद कुछ भी नहीं लाते॥1॥

डहकि डहकि परिचेहु सब काहू। अति असङ्क मन सदा उछाहू॥
करम सुभासुभ तुम्हहि न बाधा। अब लगि तुम्हहि न काहूँ साधा॥2॥

मूल

डहकि डहकि परिचेहु सब काहू। अति असङ्क मन सदा उछाहू॥
करम सुभासुभ तुम्हहि न बाधा। अब लगि तुम्हहि न काहूँ साधा॥2॥

भावार्थ

सबको ठग-ठगकर परक गए हो और अत्यन्त निडर हो गए हो, इसी से (ठगने के काम में) मन में सदा उत्साह रहता है। शुभ-अशुभ कर्म तुम्हें बाधा नहीं देते। अब तक तुम को किसी ने ठीक नहीं किया था॥2॥

भले भवन अब बायन दीन्हा। पावहुगे फल आपन कीन्हा॥
बञ्चेहु मोहि जवनि धरि देहा। सोइ तनु धरहु श्राप मम एहा॥3॥

मूल

भले भवन अब बायन दीन्हा। पावहुगे फल आपन कीन्हा॥
बञ्चेहु मोहि जवनि धरि देहा। सोइ तनु धरहु श्राप मम एहा॥3॥

भावार्थ

अबकी तुमने अच्छे घर बैना दिया है (मेरे जैसे जबर्दस्त आदमी से छेडखानी की है।) अतः अपने किए का फल अवश्य पाओगे। जिस शरीर को धारण करके तुमने मुझे ठगा है, तुम भी वही शरीर धारण करो, यह मेरा शाप है॥3॥

कपि आकृति तुम्ह कीन्हि हमारी। करिहहिं कीस सहाय तुम्हारी॥
मम अपकार कीन्ह तुम्ह भारी। नारि बिरहँ तुम्ह होब दुखारी॥4॥

मूल

कपि आकृति तुम्ह कीन्हि हमारी। करिहहिं कीस सहाय तुम्हारी॥
मम अपकार कीन्ह तुम्ह भारी। नारि बिरहँ तुम्ह होब दुखारी॥4॥

भावार्थ

तुमने हमारा रूप बन्दर का सा बना दिया था, इससे बन्दर ही तुम्हारी सहायता करेङ्गे। (मैं जिस स्त्री को चाहता था, उससे मेरा वियोग कराकर) तुमने मेरा बडा अहित किया है, इससे तुम भी स्त्री के वियोग में दुःखी होङ्गे॥4॥

137

01 दोहा

श्राप सीस धरि हरषि हियँ प्रभु बहु बिनती कीन्हि॥
निज माया कै प्रबलता करषि कृपानिधि लीन्हि॥137॥

मूल

श्राप सीस धरि हरषि हियँ प्रभु बहु बिनती कीन्हि॥
निज माया कै प्रबलता करषि कृपानिधि लीन्हि॥137॥

भावार्थ

शाप को सिर पर चढाकर, हृदय में हर्षित होते हुए प्रभु ने नारदजी से बहुत विनती की और कृपानिधान भगवान ने अपनी माया की प्रबलता खीञ्च ली॥137॥

02 चौपाई

जब हरि माया दूरि निवारी। नहिं तहँ रमा न राजकुमारी॥
तब मुनि अति सभीत हरि चरना। गहे पाहि प्रनतारति हरना॥1॥

मूल

जब हरि माया दूरि निवारी। नहिं तहँ रमा न राजकुमारी॥
तब मुनि अति सभीत हरि चरना। गहे पाहि प्रनतारति हरना॥1॥

भावार्थ

जब भगवान ने अपनी माया को हटा लिया, तब वहाँ न लक्ष्मी ही रह गईं, न राजकुमारी ही। तब मुनि ने अत्यन्त भयभीत होकर श्री हरि के चरण पकड लिए और कहा- हे शरणागत के दुःखों को हरने वाले! मेरी रक्षा कीजिए॥1॥

मृषा होउ मम श्राप कृपाला। मम इच्छा कह दीनदयाला॥
मैं दुर्बचन कहे बहुतेरे। कह मुनि पाप मिटिहिं किमि मेरे॥2॥

मूल

मृषा होउ मम श्राप कृपाला। मम इच्छा कह दीनदयाला॥
मैं दुर्बचन कहे बहुतेरे। कह मुनि पाप मिटिहिं किमि मेरे॥2॥

भावार्थ

हे कृपालु! मेरा शाप मिथ्या हो जाए। तब दीनों पर दया करने वाले भगवान ने कहा कि यह सब मेरी ही इच्छा (से हुआ) है। मुनि ने कहा- मैन्ने आप को अनेक खोटे वचन कहे हैं। मेरे पाप कैसे मिटेङ्गे?॥2॥

जपहु जाइ सङ्कर सत नामा। होइहि हृदयँ तुरत बिश्रामा॥
कोउ नहिं सिव समान प्रिय मोरें। असि परतीति तजहु जनि भोरें॥3॥

मूल

जपहु जाइ सङ्कर सत नामा। होइहि हृदयँ तुरत बिश्रामा॥
कोउ नहिं सिव समान प्रिय मोरें। असि परतीति तजहु जनि भोरें॥3॥

भावार्थ

(भगवान ने कहा-) जाकर शङ्करजी के शतनाम का जप करो, इससे हृदय में तुरन्त शान्ति होगी। शिवजी के समान मुझे कोई प्रिय नहीं है, इस विश्वास को भूलकर भी न छोडना॥3॥

जेहि पर कृपा न करहिं पुरारी। सो न पाव मुनि भगति हमारी॥
अस उर धरि महि बिचरहु जाई। अब न तुम्हहि माया निअराई॥4॥

मूल

जेहि पर कृपा न करहिं पुरारी। सो न पाव मुनि भगति हमारी॥
अस उर धरि महि बिचरहु जाई। अब न तुम्हहि माया निअराई॥4॥

भावार्थ

हे मुनि ! पुरारि (शिवजी) जिस पर कृपा नहीं करते, वह मेरी भक्ति नहीं पाता। हृदय में ऐसा निश्चय करके जाकर पृथ्वी पर विचरो। अब मेरी माया तुम्हारे निकट नहीं आएगी॥4॥

138

01 दोहा

बहुबिधि मुनिहि प्रबोधि प्रभु तब भए अन्तरधान।
सत्यलोक नारद चले करत राम गुन गान॥138॥

मूल

बहुबिधि मुनिहि प्रबोधि प्रभु तब भए अन्तरधान।
सत्यलोक नारद चले करत राम गुन गान॥138॥

भावार्थ

बहुत प्रकार से मुनि को समझा-बुझाकर (ढाँढस देकर) तब प्रभु अन्तर्द्धान हो गए और नारदजी श्री रामचन्द्रजी के गुणों का गान करते हुए सत्य लोक (ब्रह्मलोक) को चले॥138॥

02 चौपाई

हर गन मुनिहि जात पथ देखी। बिगत मोह मन हरष बिसेषी॥
अति सभीत नारद पहिं आए। गहि पद आरत बचन सुहाए॥1॥

मूल

हर गन मुनिहि जात पथ देखी। बिगत मोह मन हरष बिसेषी॥
अति सभीत नारद पहिं आए। गहि पद आरत बचन सुहाए॥1॥

भावार्थ

शिवजी के गणों ने जब मुनि को मोहरहित और मन में बहुत प्रसन्न होकर मार्ग में जाते हुए देखा तब वे अत्यन्त भयभीत होकर नारदजी के पास आए और उनके चरण पकडकर दीन वचन बोले-॥1॥

हर गन हम न बिप्र मुनिराया। बड अपराध कीन्ह फल पाया॥
श्राप अनुग्रह करहु कृपाला। बोले नारद दीनदयाला॥2॥

मूल

हर गन हम न बिप्र मुनिराया। बड अपराध कीन्ह फल पाया॥
श्राप अनुग्रह करहु कृपाला। बोले नारद दीनदयाला॥2॥

भावार्थ

हे मुनिराज! हम ब्राह्मण नहीं हैं, शिवजी के गण हैं। हमने बडा अपराध किया, जिसका फल हमने पा लिया। हे कृपालु! अब शाप दूर करने की कृपा कीजिए। दीनों पर दया करने वाले नारदजी ने कहा-॥2॥

निसिचर जाइ होहु तुम्ह दोऊ। बैभव बिपुल तेज बल होऊ॥
भुज बल बिस्व जितब तुम्ह जहिआ। धरिहहिं बिष्नु मनुज तनु तहिआ॥3॥

मूल

निसिचर जाइ होहु तुम्ह दोऊ। बैभव बिपुल तेज बल होऊ॥
भुज बल बिस्व जितब तुम्ह जहिआ। धरिहहिं बिष्नु मनुज तनु तहिआ॥3॥

भावार्थ

तुम दोनों जाकर राक्षस होओ, तुम्हें महान ऐश्वर्य, तेज और बल की प्राप्ति हो। तुम अपनी भुजाओं के बल से जब सारे विश्व को जीत लोगे, तब भगवान विष्णु मनुष्य का शरीर धारण करेङ्गे॥3॥

समर मरन हरि हाथ तुम्हारा। होइहहु मुकुत न पुनि संसारा॥
चले जुगल मुनि पद सिर नाई। भए निसाचर कालहि पाई॥4॥

मूल

समर मरन हरि हाथ तुम्हारा। होइहहु मुकुत न पुनि संसारा॥
चले जुगल मुनि पद सिर नाई। भए निसाचर कालहि पाई॥4॥

भावार्थ

युद्ध में श्री हरि के हाथ से तुम्हारी मृत्यु होगी, जिससे तुम मुक्त हो जाओगे और फिर संसार में जन्म नहीं लोगे। वे दोनों मुनि के चरणों में सिर नवाकर चले और समय पाकर राक्षस हुए॥4॥

139

01 दोहा

एक कलप एहि हेतु प्रभु लीन्ह मनुज अवतार।
सुर रञ्जन सज्जन सुखद हरि भञ्जन भुमि भार॥139॥

मूल

एक कलप एहि हेतु प्रभु लीन्ह मनुज अवतार।
सुर रञ्जन सज्जन सुखद हरि भञ्जन भुमि भार॥139॥

भावार्थ

देवताओं को प्रसन्न करने वाले, सज्जनों को सुख देने वाले और पृथ्वी का भार हरण करने वाले भगवान ने एक कल्प में इसी कारण मनुष्य का अवतार लिया था॥139॥

02 चौपाई

एहि बिधि जनम करम हरि केरे। सुन्दर सुखद बिचित्र घनेरे॥
कलप कलप प्रति प्रभु अवतरहीं। चारु चरित नानाबिधि करहीं॥1॥

मूल

एहि बिधि जनम करम हरि केरे। सुन्दर सुखद बिचित्र घनेरे॥
कलप कलप प्रति प्रभु अवतरहीं। चारु चरित नानाबिधि करहीं॥1॥

भावार्थ

इस प्रकार भगवान के अनेक सुन्दर, सुखदायक और अलौकिक जन्म और कर्म हैं। प्रत्येक कल्प में जब-जब भगवान अवतार लेते हैं और नाना प्रकार की सुन्दर लीलाएँ करते हैं,॥1॥

तब-तब कथा मुनीसन्ह गाई। परम पुनीत प्रबन्ध बनाई॥
बिबिध प्रसङ्ग अनूप बखाने। करहिं न सुनि आचरजु सयाने॥2॥

मूल

तब-तब कथा मुनीसन्ह गाई। परम पुनीत प्रबन्ध बनाई॥
बिबिध प्रसङ्ग अनूप बखाने। करहिं न सुनि आचरजु सयाने॥2॥

भावार्थ

तब-तब मुनीश्वरों ने परम पवित्र काव्य रचना करके उनकी कथाओं का गान किया है और भाँति-भाँति के अनुपम प्रसङ्गों का वर्णन किया है, जिनको सुनकर समझदार (विवेकी) लोग आश्चर्य नहीं करते॥2॥

हरि अनन्त हरि कथा अनन्ता। कहहिं सुनहिं बहुबिधि सब सन्ता॥
रामचन्द्र के चरित सुहाए। कलप कोटि लगि जाहिं न गाए॥3॥

मूल

हरि अनन्त हरि कथा अनन्ता। कहहिं सुनहिं बहुबिधि सब सन्ता॥
रामचन्द्र के चरित सुहाए। कलप कोटि लगि जाहिं न गाए॥3॥

भावार्थ

श्री हरि अनन्त हैं (उनका कोई पार नहीं पा सकता) और उनकी कथा भी अनन्त है। सब सन्त लोग उसे बहुत प्रकार से कहते-सुनते हैं। श्री रामचन्द्रजी के सुन्दर चरित्र करोडों कल्पों में भी गाए नहीं जा सकते॥3॥

यह प्रसङ्ग मैं कहा भवानी। हरिमायाँ मोहहिं मुनि ग्यानी॥
प्रभु कौतुकी प्रनत हितकारी। सेवत सुलभ सकल दुखहारी॥4॥

मूल

यह प्रसङ्ग मैं कहा भवानी। हरिमायाँ मोहहिं मुनि ग्यानी॥
प्रभु कौतुकी प्रनत हितकारी। सेवत सुलभ सकल दुखहारी॥4॥

भावार्थ

(शिवजी कहते हैं कि) हे पार्वती! मैन्ने यह बताने के लिए इस प्रसङ्ग को कहा कि ज्ञानी मुनि भी भगवान की माया से मोहित हो जाते हैं। प्रभु कौतुकी (लीलामय) हैं और शरणागत का हित करने वाले हैं। वे सेवा करने में बहुत सुलभ और सब दुःखों के हरने वाले हैं॥4॥

140

01 सोरठा

सुर नर मुनि कोउ नाहिं जेहि न मोह माया प्रबल।
अस बिचारि मन माहिं भजिअ महामाया पतिहि॥140॥

मूल

सुर नर मुनि कोउ नाहिं जेहि न मोह माया प्रबल।
अस बिचारि मन माहिं भजिअ महामाया पतिहि॥140॥

भावार्थ

देवता, मनुष्य और मुनियों में ऐसा कोई नहीं है, जिसे भगवान की महान बलवती माया मोहित न कर दे। मन में ऐसा विचारकर उस महामाया के स्वामी (प्रेरक) श्री भगवान का भजन करना चाहिए॥140॥

02 चौपाई

अपर हेतु सुनु सैलकुमारी। कहउँ बिचित्र कथा बिस्तारी॥
जेहि कारन अज अगुन अरूपा। ब्रह्म भयउ कोसलपुर भूपा॥1॥

मूल

अपर हेतु सुनु सैलकुमारी। कहउँ बिचित्र कथा बिस्तारी॥
जेहि कारन अज अगुन अरूपा। ब्रह्म भयउ कोसलपुर भूपा॥1॥

भावार्थ

हे गिरिराजकुमारी! अब भगवान के अवतार का वह दूसरा कारण सुनो- मैं उसकी विचित्र कथा विस्तार करके कहता हूँ- जिस कारण से जन्मरहित, निर्गुण और रूपरहित (अव्यक्त सच्चिदानन्दघन) ब्रह्म अयोध्यापुरी के राजा हुए॥1॥

जो प्रभु बिपिन फिरत तुम्ह देखा। बन्धु समेत धरें मुनिबेषा॥
जासु चरित अवलोकि भवानी। सती सरीर रहिहु बौरानी॥2॥

मूल

जो प्रभु बिपिन फिरत तुम्ह देखा। बन्धु समेत धरें मुनिबेषा॥
जासु चरित अवलोकि भवानी। सती सरीर रहिहु बौरानी॥2॥

भावार्थ

जिन प्रभु श्री रामचन्द्रजी को तुमने भाई लक्ष्मणजी के साथ मुनियों का सा वेष धारण किए वन में फिरते देखा था और हे भवानी! जिनके चरित्र देखकर सती के शरीर में तुम ऐसी बावली हो गई थीं कि- ॥2॥

अजहुँ न छाया मिटति तुम्हारी। तासु चरित सुनु भ्रम रुज हारी॥
लीला कीन्हि जो तेहिं अवतारा। सो सब कहिहउँ मति अनुसारा॥3॥

मूल

अजहुँ न छाया मिटति तुम्हारी। तासु चरित सुनु भ्रम रुज हारी॥
लीला कीन्हि जो तेहिं अवतारा। सो सब कहिहउँ मति अनुसारा॥3॥

भावार्थ

अब भी तुम्हारे उस बावलेपन की छाया नहीं मिटती, उन्हीं के भ्रम रूपी रोग के हरण करने वाले चरित्र सुनो। उस अवतार में भगवान ने जो-जो लीला की, वह सब मैं अपनी बुद्धि के अनुसार तुम्हें कहूँगा॥3॥

भरद्वाज सुनि सङ्कर बानी। सकुचि सप्रेम उमा मुसुकानी॥
लगे बहुरि बरनै बृषकेतू। सो अवतार भयउ जेहि हेतू॥4॥

मूल

भरद्वाज सुनि सङ्कर बानी। सकुचि सप्रेम उमा मुसुकानी॥
लगे बहुरि बरनै बृषकेतू। सो अवतार भयउ जेहि हेतू॥4॥

भावार्थ

(याज्ञवल्क्यजी ने कहा-) हे भरद्वाज! शङ्करजी के वचन सुनकर पार्वतीजी सकुचाकर प्रेमसहित मुस्कुराईं।

फिर वृषकेतु शिवजी जिस कारण से भगवान का वह अवतार हुआ था, उसका वर्णन करने लगे॥4॥

141

01 दोहा

सो मैं तुम्ह सन कहउँ सबु सुनु मुनीस मन लाइ।
रामकथा कलि मल हरनि मङ्गल करनि सुहाइ॥141॥

मूल

सो मैं तुम्ह सन कहउँ सबु सुनु मुनीस मन लाइ।
रामकथा कलि मल हरनि मङ्गल करनि सुहाइ॥141॥

भावार्थ

हे मुनीश्वर भरद्वाज! मैं वह सब तुमसे कहता हूँ, मन लगाकर सुनो। श्री रामचन्द्रजी की कथा कलियुग के पापों को हरने वाली, कल्याण करने वाली और बडी सुन्दर है॥141॥

02 चौपाई

स्वायम्भू मनु अरु सतरूपा। जिन्ह तें भै नरसृष्टि अनूपा॥
दम्पति धरम आचरन नीका। अजहुँ गाव श्रुति जिन्ह कै लीका॥1॥

मूल

स्वायम्भू मनु अरु सतरूपा। जिन्ह तें भै नरसृष्टि अनूपा॥
दम्पति धरम आचरन नीका। अजहुँ गाव श्रुति जिन्ह कै लीका॥1॥

भावार्थ

स्वायम्भुव मनु और (उनकी पत्नी) शतरूपा, जिनसे मनुष्यों की यह अनुपम सृष्टि हुई, इन दोनों पति-पत्नी के धर्म और आचरण बहुत अच्छे थे। आज भी वेद जिनकी मर्यादा का गान करते हैं॥1॥

नृप उत्तानपाद सुत तासू। ध्रुव हरिभगत भयउ सुत जासू॥
लघु सुत नाम प्रियब्रत ताही। बेद पुरान प्रसंसहिं जाही॥2॥

मूल

नृप उत्तानपाद सुत तासू। ध्रुव हरिभगत भयउ सुत जासू॥
लघु सुत नाम प्रियब्रत ताही। बेद पुरान प्रसंसहिं जाही॥2॥

भावार्थ

राजा उत्तानपाद उनके पुत्र थे, जिनके पुत्र (प्रसिद्ध) हरिभक्त ध्रुवजी हुए। उन (मनुजी) के छोटे लडके का नाम प्रियव्रत था, जिनकी प्रशंसा वेद और पुराण करते हैं॥2॥

देवहूति पुनि तासु कुमारी। जो मुनि कर्दम कै प्रिय नारी॥
आदि देव प्रभु दीनदयाला। जठर धरेउ जेहिं कपिल कृपाला॥3॥

मूल

देवहूति पुनि तासु कुमारी। जो मुनि कर्दम कै प्रिय नारी॥
आदि देव प्रभु दीनदयाला। जठर धरेउ जेहिं कपिल कृपाला॥3॥

भावार्थ

पुनः देवहूति उनकी कन्या थी, जो कर्दम मुनि की प्यारी पत्नी हुई और जिन्होन्ने आदि देव, दीनों पर दया करने वाले समर्थ एवं कृपालु भगवान कपिल को गर्भ में धारण किया॥3॥

साङ्ख्य सास्त्र जिन्ह प्रगट बखाना। तत्व बिचार निपुन भगवाना॥
तेहिं मनु राज कीन्ह बहु काला। प्रभु आयसु सब बिधि प्रतिपाला॥4॥

मूल

साङ्ख्य सास्त्र जिन्ह प्रगट बखाना। तत्व बिचार निपुन भगवाना॥
तेहिं मनु राज कीन्ह बहु काला। प्रभु आयसु सब बिधि प्रतिपाला॥4॥

भावार्थ

तत्वों का विचार करने में अत्यन्त निपुण जिन (कपिल) भगवान ने साङ्ख्य शास्त्र का प्रकट रूप में वर्णन किया, उन (स्वायम्भुव) मनुजी ने बहुत समय तक राज्य किया और सब प्रकार से भगवान की आज्ञा (रूप शास्त्रों की मर्यादा) का पालन किया॥4॥

142

01 सोरठा

होइ न बिषय बिराग भवन बसत भा चौथपन॥
हृदयँ बहुत दुख लाग जनम गयउ हरिभगति बिनु॥142॥

मूल

होइ न बिषय बिराग भवन बसत भा चौथपन॥
हृदयँ बहुत दुख लाग जनम गयउ हरिभगति बिनु॥142॥

भावार्थ

घर में रहते बुढापा आ गया, परन्तु विषयों से वैराग्य नहीं होता (इस बात को सोचकर) उनके मन में बडा दुःख हुआ कि श्री हरि की भक्ति बिना जन्म यों ही चला गया॥142॥

02 चौपाई

बरबस राज सुतहि तब दीन्हा। नारि समेत गवन बन कीन्हा॥
तीरथ बर नैमिष बिख्याता। अति पुनीत साधक सिधि दाता॥1॥

मूल

बरबस राज सुतहि तब दीन्हा। नारि समेत गवन बन कीन्हा॥
तीरथ बर नैमिष बिख्याता। अति पुनीत साधक सिधि दाता॥1॥

भावार्थ

तब मनुजी ने अपने पुत्र को जबर्दस्ती राज्य देकर स्वयं स्त्री सहित वन को गमन किया। अत्यन्त पवित्र और साधकों को सिद्धि देने वाला तीर्थों में श्रेष्ठ नैमिषारण्य प्रसिद्ध है॥1॥

बसहिं तहाँ मुनि सिद्ध समाजा। तहँ हियँ हरषि चलेउ मनु राजा॥
पन्थ जात सोहहिं मतिधीरा। ग्यान भगति जनु धरें सरीरा॥2॥

मूल

बसहिं तहाँ मुनि सिद्ध समाजा। तहँ हियँ हरषि चलेउ मनु राजा॥
पन्थ जात सोहहिं मतिधीरा। ग्यान भगति जनु धरें सरीरा॥2॥

भावार्थ

वहाँ मुनियों और सिद्धों के समूह बसते हैं। राजा मनु हृदय में हर्षित होकर वहीं चले। वे धीर बुद्धि वाले राजा-रानी मार्ग में जाते हुए ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानों ज्ञान और भक्ति ही शरीर धारण किए जा रहे हों॥2॥

पहुँचे जाइ धेनुमति तीरा। हरषि नहाने निरमल नीरा॥
आए मिलन सिद्ध मुनि ग्यानी। धरम धुरन्धर नृपरिषि जानी॥3॥

मूल

पहुँचे जाइ धेनुमति तीरा। हरषि नहाने निरमल नीरा॥
आए मिलन सिद्ध मुनि ग्यानी। धरम धुरन्धर नृपरिषि जानी॥3॥

भावार्थ

(चलते-चलते) वे गोमती के किनारे जा पहुँचे। हर्षित होकर उन्होन्ने निर्मल जल में स्नान किया। उनको धर्मधुरन्धर राजर्षि जानकर सिद्ध और ज्ञानी मुनि उनसे मिलने आए॥3॥

जहँ जहँ तीरथ रहे सुहाए। मुनिन्ह सकल सादर करवाए॥
कृस सरीर मुनिपट परिधाना। सत समाज नित सुनहिं पुराना॥4॥

मूल

जहँ जहँ तीरथ रहे सुहाए। मुनिन्ह सकल सादर करवाए॥
कृस सरीर मुनिपट परिधाना। सत समाज नित सुनहिं पुराना॥4॥

भावार्थ

जहाँ-जहाँ सुन्दर तीर्थ थे, मुनियों ने आदरपूर्वक सभी तीर्थ उनको करा दिए। उनका शरीर दुर्बल हो गया था। वे मुनियों के से (वल्कल) वस्त्र धारण करते थे और सन्तों के समाज में नित्य पुराण सुनते थे॥4॥

143

01 दोहा

द्वादस अच्छर मन्त्र पुनि जपहिं सहित अनुराग।
बासुदेव पद पङ्करुह दम्पति मन अति लाग॥143॥

मूल

द्वादस अच्छर मन्त्र पुनि जपहिं सहित अनुराग।
बासुदेव पद पङ्करुह दम्पति मन अति लाग॥143॥

भावार्थ

और द्वादशाक्षर मन्त्र (ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय) का प्रेम सहित जप करते थे। भगवान वासुदेव के चरणकमलों में उन राजा-रानी का मन बहुत ही लग गया॥143॥

02 चौपाई

करहिं अहार साक फल कन्दा। सुमिरहिं ब्रह्म सच्चिदानन्दा॥
पुनि हरि हेतु करन तप लागे। बारि अधार मूल फल त्यागे॥1॥

मूल

करहिं अहार साक फल कन्दा। सुमिरहिं ब्रह्म सच्चिदानन्दा॥
पुनि हरि हेतु करन तप लागे। बारि अधार मूल फल त्यागे॥1॥

भावार्थ

वे साग, फल और कन्द का आहार करते थे और सच्चिदानन्द ब्रह्म का स्मरण करते थे। फिर वे श्री हरि के लिए तप करने लगे और मूल-फल को त्यागकर केवल जल के आधार पर रहने लगे॥1॥

उर अभिलाष निरन्तर होई। देखिअ नयन परम प्रभु सोई॥
अगुन अखण्ड अनन्त अनादी। जेहि चिन्तहिं परमारथबादी॥2॥

मूल

उर अभिलाष निरन्तर होई। देखिअ नयन परम प्रभु सोई॥
अगुन अखण्ड अनन्त अनादी। जेहि चिन्तहिं परमारथबादी॥2॥

भावार्थ

हृदय में निरन्तर यही अभिलाषा हुआ करती कि हम (कैसे) उन परम प्रभु को आँखों से देखें, जो निर्गुण, अखण्ड, अनन्त और अनादि हैं और परमार्थवादी (ब्रह्मज्ञानी, तत्त्ववेत्ता) लोग जिनका चिन्तन किया करते हैं॥2॥

नेति नेति जेहि बेद निरूपा। निजानन्द निरुपाधि अनूपा॥
सम्भु बिरञ्चि बिष्नु भगवाना। उपजहिं जासु अंस तें नाना॥3॥

मूल

नेति नेति जेहि बेद निरूपा। निजानन्द निरुपाधि अनूपा॥
सम्भु बिरञ्चि बिष्नु भगवाना। उपजहिं जासु अंस तें नाना॥3॥

भावार्थ

जिन्हें वेद ‘नेति-नेति’ (यह भी नहीं, यह भी नहीं) कहकर निरूपण करते हैं। जो आनन्दस्वरूप, उपाधिरहित और अनुपम हैं एवं जिनके अंश से अनेक शिव, ब्रह्मा और विष्णु भगवान प्रकट होते हैं॥3॥

ऐसेउ प्रभु सेवक बस अहई। भगत हेतु लीलातनु गहई॥
जौं यह बचन सत्य श्रुति भाषा। तौ हमार पूजिहि अभिलाषा॥4॥

मूल

ऐसेउ प्रभु सेवक बस अहई। भगत हेतु लीलातनु गहई॥
जौं यह बचन सत्य श्रुति भाषा। तौ हमार पूजिहि अभिलाषा॥4॥

भावार्थ

ऐसे (महान) प्रभु भी सेवक के वश में हैं और भक्तों के लिए (दिव्य) लीला विग्रह धारण करते हैं। यदि वेदों में यह वचन सत्य कहा है, तो हमारी अभिलाषा भी अवश्य पूरी होगी॥4॥

144

01 दोहा

एहि विधि बीते बरष षट सहस बारि आहार।
सम्बत सप्त सहस्र पुनि रहे समीर अधार॥144॥

मूल

एहि विधि बीते बरष षट सहस बारि आहार।
सम्बत सप्त सहस्र पुनि रहे समीर अधार॥144॥

भावार्थ

इस प्रकार जल का आहार (करके तप) करते छह हजार वर्ष बीत गए। फिर सात हजार वर्ष वे वायु के आधार पर रहे॥144॥

02 चौपाई

बरष सहस दस त्यागेउ सोऊ। ठाढे रहे एक पद दोऊ ॥
बिधि हरि हर तप देखि अपारा। मनु समीप आए बहु बारा॥1॥

मूल

बरष सहस दस त्यागेउ सोऊ। ठाढे रहे एक पद दोऊ ॥
बिधि हरि हर तप देखि अपारा। मनु समीप आए बहु बारा॥1॥

भावार्थ

दस हजार वर्ष तक उन्होन्ने वायु का आधार भी छोड दिया। दोनों एक पैर से खडे रहे। उनका अपार तप देखकर ब्रह्मा, विष्णु और शिवजी कई बार मनुजी के पास आए॥1॥

मागहु बर बहु भाँति लोभाए। परम धीर नहिं चलहिं चलाए॥
अस्थिमात्र होइ रहे सरीरा। तदपि मनाग मनहिं नहिं पीरा॥2॥

मूल

मागहु बर बहु भाँति लोभाए। परम धीर नहिं चलहिं चलाए॥
अस्थिमात्र होइ रहे सरीरा। तदपि मनाग मनहिं नहिं पीरा॥2॥

भावार्थ

उन्होन्ने इन्हें अनेक प्रकार से ललचाया और कहा कि कुछ वर माँगो। पर ये परम धैर्यवान (राजा-रानी अपने तप से किसी के) डिगाए नहीं डिगे। यद्यपि उनका शरीर हड्डियों का ढाँचा मात्र रह गया था, फिर भी उनके मन में जरा भी पीडा नहीं थी॥2॥

प्रभु सर्बग्य दास निज जानी। गति अनन्य तापस नृप रानी॥
मागु मागु बरु भै नभ बानी। परम गभीर कृपामृत सानी॥3॥

मूल

प्रभु सर्बग्य दास निज जानी। गति अनन्य तापस नृप रानी॥
मागु मागु बरु भै नभ बानी। परम गभीर कृपामृत सानी॥3॥

भावार्थ

सर्वज्ञ प्रभु ने अनन्य गति (आश्रय) वाले तपस्वी राजा-रानी को ‘निज दास’ जाना। तब परम गम्भीर और कृपा रूपी अमृत से सनी हुई यह आकाशवाणी हुई कि ‘वर माँगो’॥3॥

मृतक जिआवनि गिरा सुहाई। श्रवन रन्ध्र होइ उर जब आई॥
हृष्ट पुष्ट तन भए सुहाए। मानहुँ अबहिं भवन ते आए॥4॥

मूल

मृतक जिआवनि गिरा सुहाई। श्रवन रन्ध्र होइ उर जब आई॥
हृष्ट पुष्ट तन भए सुहाए। मानहुँ अबहिं भवन ते आए॥4॥

भावार्थ

मुर्दे को भी जिला देने वाली यह सुन्दर वाणी कानों के छेदों से होकर जब हृदय में आई, तब राजा-रानी के शरीर ऐसे सुन्दर और हृष्ट-पुष्ट हो गए, मानो अभी घर से आए हैं॥4॥

145

01 दोहा

श्रवन सुधा सम बचन सुनि पुलक प्रफुल्लित गात।
बोले मनु करि दण्डवत प्रेम न हृदयँ समात॥145॥

मूल

श्रवन सुधा सम बचन सुनि पुलक प्रफुल्लित गात।
बोले मनु करि दण्डवत प्रेम न हृदयँ समात॥145॥

भावार्थ

कानों में अमृत के समान लगने वाले वचन सुनते ही उनका शरीर पुलकित और प्रफुल्लित हो गया। तब मनुजी दण्डवत करके बोले- प्रेम हृदय में समाता न था-॥145॥

02 चौपाई

सुनु सेवक सुरतरु सुरधेनू। बिधि हरि हर बन्दित पद रेनू॥
सेवत सुलभ सकल सुखदायक। प्रनतपाल सचराचर नायक॥1॥

मूल

सुनु सेवक सुरतरु सुरधेनू। बिधि हरि हर बन्दित पद रेनू॥
सेवत सुलभ सकल सुखदायक। प्रनतपाल सचराचर नायक॥1॥

भावार्थ

हे प्रभो! सुनिए, आप सेवकों के लिए कल्पवृक्ष और कामधेनु हैं। आपके चरण रज की ब्रह्मा, विष्णु और शिवजी भी वन्दना करते हैं। आप सेवा करने में सुलभ हैं तथा सब सुखों के देने वाले हैं। आप शरणागत के रक्षक और जड-चेतन के स्वामी हैं॥1॥

जौं अनाथ हित हम पर नेहू। तौ प्रसन्न होई यह बर देहू॥
जोसरूप बस सिव मन माहीं। जेहिं कारन मुनि जतन कराहीं॥2॥

मूल

जौं अनाथ हित हम पर नेहू। तौ प्रसन्न होई यह बर देहू॥
जोसरूप बस सिव मन माहीं। जेहिं कारन मुनि जतन कराहीं॥2॥

भावार्थ

हे अनाथों का कल्याण करने वाले! यदि हम लोगों पर आपका स्नेह है, तो प्रसन्न होकर यह वर दीजिए कि आपका जो स्वरूप शिवजी के मन में बसता है और जिस (की प्राप्ति) के लिए मुनि लोग यत्न करते हैं॥2॥

जो भुसुण्डि मन मानस हंसा। सगुन अगुन जेहि निगम प्रसंसा॥
देखहिं हम सो रूप भरि लोचन। कृपा करहु प्रनतारति मोचन॥3॥

मूल

जो भुसुण्डि मन मानस हंसा। सगुन अगुन जेहि निगम प्रसंसा॥
देखहिं हम सो रूप भरि लोचन। कृपा करहु प्रनतारति मोचन॥3॥

भावार्थ

जो काकभुशुण्डि के मन रूपी मान सरोवर में विहार करने वाला हंस है, सगुण और निर्गुण कहकर वेद जिसकी प्रशंसा करते हैं, हे शरणागत के दुःख मिटाने वाले प्रभो! ऐसी कृपा कीजिए कि हम उसी रूप को नेत्र भरकर देखें॥3॥

दम्पति बचन परम प्रिय लागे। मृदुल बिनीत प्रेम रस पागे॥
भगत बछल प्रभु कृपानिधाना। बिस्वबास प्रगटे भगवाना॥4॥

मूल

दम्पति बचन परम प्रिय लागे। मृदुल बिनीत प्रेम रस पागे॥
भगत बछल प्रभु कृपानिधाना। बिस्वबास प्रगटे भगवाना॥4॥

भावार्थ

राजा-रानी के कोमल, विनययुक्त और प्रेमरस में पगे हुए वचन भगवान को बहुत ही प्रिय लगे। भक्तवत्सल, कृपानिधान, सम्पूर्ण विश्व के निवास स्थान (या समस्त विश्व में व्यापक), सर्वसमर्थ भगवान प्रकट हो गए॥4॥

146

01 दोहा

नील सरोरुह नील मनि नील नीरधर स्याम।
लाजहिं तन सोभा निरखि कोटि कोटि सत काम॥146॥

मूल

नील सरोरुह नील मनि नील नीरधर स्याम।
लाजहिं तन सोभा निरखि कोटि कोटि सत काम॥146॥

भावार्थ

भगवान के नीले कमल, नीलमणि और नीले (जलयुक्त) मेघ के समान (कोमल, प्रकाशमय और सरस) श्यामवर्ण (चिन्मय) शरीर की शोभा देखकर करोडों कामदेव भी लजा जाते हैं॥146॥

02 चौपाई

सरद मयङ्क बदन छबि सींवा। चारु कपोल चिबुक दर ग्रीवा॥
अधर अरुन रद सुन्दर नासा। बिधु कर निकर बिनिन्दक हासा॥1॥

मूल

सरद मयङ्क बदन छबि सींवा। चारु कपोल चिबुक दर ग्रीवा॥
अधर अरुन रद सुन्दर नासा। बिधु कर निकर बिनिन्दक हासा॥1॥

भावार्थ

उनका मुख शरद (पूर्णिमा) के चन्द्रमा के समान छबि की सीमास्वरूप था। गाल और ठोडी बहुत सुन्दर थे, गला शङ्ख के समान (त्रिरेखायुक्त, चढाव-उतार वाला) था। लाल होठ, दाँत और नाक अत्यन्त सुन्दर थे। हँसी चन्द्रमा की किरणावली को नीचा दिखाने वाली थी॥1॥

नव अम्बुज अम्बक छबि नीकी। चितवनि ललित भावँतीजी की॥
भृकुटि मनोज चाप छबि हारी। तिलक ललाट पटल दुतिकारी॥2॥

मूल

नव अम्बुज अम्बक छबि नीकी। चितवनि ललित भावँतीजी की॥
भृकुटि मनोज चाप छबि हारी। तिलक ललाट पटल दुतिकारी॥2॥

भावार्थ

नेत्रों की छवि नए (खिले हुए) कमल के समान बडी सुन्दर थी। मनोहर चितवन जी को बहुत प्यारी लगती थी। टेढी भौंहें कामदेव के धनुष की शोभा को हरने वाली थीं। ललाट पटल पर प्रकाशमय तिलक था॥2॥

कुण्डल मकर मुकुट सिर भ्राजा। कुटिल केस जनु मधुप समाजा॥
उर श्रीबत्स रुचिर बनमाला। पदिक हार भूषन मनिजाला॥3॥

मूल

कुण्डल मकर मुकुट सिर भ्राजा। कुटिल केस जनु मधुप समाजा॥
उर श्रीबत्स रुचिर बनमाला। पदिक हार भूषन मनिजाला॥3॥

भावार्थ

कानों में मकराकृत (मछली के आकार के) कुण्डल और सिर पर मुकुट सुशोभित था। टेढे (घुँघराले) काले बाल ऐसे सघन थे, मानो भौंरों के झुण्ड हों। हृदय पर श्रीवत्स, सुन्दर वनमाला, रत्नजडित हार और मणियों के आभूषण सुशोभित थे॥3॥

केहरि कन्धर चारु जनेऊ। बाहु बिभूषन सुन्दर तेऊ॥
मकरि कर सरिस सुभग भुजदण्डा। कटि निषङ्ग कर सर कोदण्डा॥4॥

मूल

केहरि कन्धर चारु जनेऊ। बाहु बिभूषन सुन्दर तेऊ॥
मकरि कर सरिस सुभग भुजदण्डा। कटि निषङ्ग कर सर कोदण्डा॥4॥

भावार्थ

सिंह की सी गर्दन थी, सुन्दर जनेऊ था। भुजाओं में जो गहने थे, वे भी सुन्दर थे। हाथी की सूँड के समान (उतार-चढाव वाले) सुन्दर भुजदण्ड थे। कमर में तरकस और हाथ में बाण और धनुष (शोभा पा रहे) थे॥4॥

147

01 दोहा

तडित बिनिन्दक पीत पट उदर रेख बर तीनि।
नाभि मनोहर लेति जनु जमुन भँवर छबि छीनि॥147॥

मूल

तडित बिनिन्दक पीत पट उदर रेख बर तीनि।
नाभि मनोहर लेति जनु जमुन भँवर छबि छीनि॥147॥

भावार्थ

(स्वर्ण-वर्ण का प्रकाशमय) पीताम्बर बिजली को लजाने वाला था। पेट पर सुन्दर तीन रेखाएँ (त्रिवली) थीं। नाभि ऐसी मनोहर थी, मानो यमुनाजी के भँवरों की छबि को छीने लेती हो॥147॥

02 चौपाई

पद राजीव बरनि नहिं जाहीं। मुनि मन मधुप बसहिं जेन्ह माहीं॥
बाम भाग सोभति अनुकूला। आदिसक्ति छबिनिधि जगमूला॥1॥

मूल

पद राजीव बरनि नहिं जाहीं। मुनि मन मधुप बसहिं जेन्ह माहीं॥
बाम भाग सोभति अनुकूला। आदिसक्ति छबिनिधि जगमूला॥1॥

भावार्थ

जिनमें मुनियों के मन रूपी भौंरे बसते हैं, भगवान के उन चरणकमलों का तो वर्णन ही नहीं किया जा सकता। भगवान के बाएँ भाग में सदा अनुकूल रहने वाली, शोभा की राशि जगत की मूलकारण रूपा आदि शक्ति श्री जानकीजी सुशोभित हैं॥1॥

जासु अंस उपजहिं गुनखानी। अगनित लच्छि उमा ब्रह्मानी॥
भृकुटि बिलास जासु जग होई। राम बाम दिसि सीता सोई॥2॥

मूल

जासु अंस उपजहिं गुनखानी। अगनित लच्छि उमा ब्रह्मानी॥
भृकुटि बिलास जासु जग होई। राम बाम दिसि सीता सोई॥2॥

भावार्थ

जिनके अंश से गुणों की खान अगणित लक्ष्मी, पार्वती और ब्रह्माणी (त्रिदेवों की शक्तियाँ) उत्पन्न होती हैं तथा जिनकी भौंह के इशारे से ही जगत की रचना हो जाती है, वही (भगवान की स्वरूपा शक्ति) श्री सीताजी श्री रामचन्द्रजी की बाईं ओर स्थित हैं॥2॥

छबिसमुद्र हरि रूप बिलोकी। एकटक रहे नयन पट रोकी॥
चितवहिं सादर रूप अनूपा। तृप्ति न मानहिं मनु सतरूपा॥3॥

मूल

छबिसमुद्र हरि रूप बिलोकी। एकटक रहे नयन पट रोकी॥
चितवहिं सादर रूप अनूपा। तृप्ति न मानहिं मनु सतरूपा॥3॥

भावार्थ

शोभा के समुद्र श्री हरि के रूप को देखकर मनु-शतरूपा नेत्रों के पट (पलकें) रोके हुए एकटक (स्तब्ध) रह गए। उस अनुपम रूप को वे आदर सहित देख रहे थे और देखते-देखते अघाते ही न थे॥3॥

हरष बिबस तन दसा भुलानी। परे दण्ड इव गहि पद पानी॥
सिर परसे प्रभु निज कर कञ्जा। तुरत उठाए करुनापुञ्जा॥4॥

मूल

हरष बिबस तन दसा भुलानी। परे दण्ड इव गहि पद पानी॥
सिर परसे प्रभु निज कर कञ्जा। तुरत उठाए करुनापुञ्जा॥4॥

भावार्थ

आनन्द के अधिक वश में हो जाने के कारण उन्हें अपने देह की सुधि भूल गई। वे हाथों से भगवान के चरण पकडकर दण्ड की तरह (सीधे) भूमि पर गिर पडे। कृपा की राशि प्रभु ने अपने करकमलों से उनके मस्तकों का स्पर्श किया और उन्हें तुरन्त ही उठा लिया॥4॥

148

01 दोहा

बोले कृपानिधान पुनि अति प्रसन्न मोहि जानि।
मागहु बर जोइ भाव मन महादानि अनुमानि॥148॥

मूल

बोले कृपानिधान पुनि अति प्रसन्न मोहि जानि।
मागहु बर जोइ भाव मन महादानि अनुमानि॥148॥

भावार्थ

फिर कृपानिधान भगवान बोले- मुझे अत्यन्त प्रसन्न जानकर और बडा भारी दानी मानकर, जो मन को भाए वही वर माँग लो॥148॥

02 चौपाई

सुनि प्रभु बचन जोरि जुग पानी। धरि धीरजु बोली मृदु बानी॥
नाथ देखि पद कमल तुम्हारे। अब पूरे सब काम हमारे॥1॥

मूल

सुनि प्रभु बचन जोरि जुग पानी। धरि धीरजु बोली मृदु बानी॥
नाथ देखि पद कमल तुम्हारे। अब पूरे सब काम हमारे॥1॥

भावार्थ

प्रभु के वचन सुनकर, दोनों हाथ जोडकर और धीरज धरकर राजा ने कोमल वाणी कही- हे नाथ! आपके चरणकमलों को देखकर अब हमारी सारी मनःकामनाएँ पूरी हो गईं॥1॥

एक लालसा बडि उर माहीं। सुगम अगम कहि जाति सो नाहीं॥
तुम्हहि देत अति सुगम गोसाईं। अगम लाग मोहि निज कृपनाईं॥2॥

मूल

एक लालसा बडि उर माहीं। सुगम अगम कहि जाति सो नाहीं॥
तुम्हहि देत अति सुगम गोसाईं। अगम लाग मोहि निज कृपनाईं॥2॥

भावार्थ

फिर भी मन में एक बडी लालसा है। उसका पूरा होना सहज भी है और अत्यन्त कठिन भी, इसी से उसे कहते नहीं बनता। हे स्वामी! आपके लिए तो उसका पूरा करना बहुत सहज है, पर मुझे अपनी कृपणता (दीनता) के कारण वह अत्यन्त कठिन मालूम होता है॥2॥

जथा दरिद्र बिबुधतरु पाई। बहु सम्पति मागत सकुचाई॥
तासु प्रभाउ जान नहिं सोई। तथा हृदयँ मम संसय होई॥3॥

मूल

जथा दरिद्र बिबुधतरु पाई। बहु सम्पति मागत सकुचाई॥
तासु प्रभाउ जान नहिं सोई। तथा हृदयँ मम संसय होई॥3॥

भावार्थ

जैसे कोई दरिद्र कल्पवृक्ष को पाकर भी अधिक द्रव्य माँगने में सङ्कोच करता है, क्योङ्कि वह उसके प्रभाव को नहीं जानता, वैसे ही मेरे हृदय में संशय हो रहा है॥3॥

सो तुम्ह जानहु अन्तरजामी। पुरवहु मोर मनोरथ स्वामी॥
सकुच बिहाइ मागु नृप मोही। मोरें नहिं अदेय कछु तोही॥4॥

मूल

सो तुम्ह जानहु अन्तरजामी। पुरवहु मोर मनोरथ स्वामी॥
सकुच बिहाइ मागु नृप मोही। मोरें नहिं अदेय कछु तोही॥4॥

भावार्थ

हे स्वामी! आप अन्तरयामी हैं, इसलिए उसे जानते ही हैं। मेरा वह मनोरथ पूरा कीजिए। (भगवान ने कहा-) हे राजन्‌! सङ्कोच छोडकर मुझसे माँगो। तुम्हें न दे सकूँ ऐसा मेरे पास कुछ भी नहीं है॥4॥

149

01 दोहा

दानि सिरोमनि कृपानिधि नाथ कहउँ सतिभाउ।
चाहउँ तुम्हहि समान सुत प्रभु सन कवन दुराउ॥149॥

मूल

दानि सिरोमनि कृपानिधि नाथ कहउँ सतिभाउ।
चाहउँ तुम्हहि समान सुत प्रभु सन कवन दुराउ॥149॥

भावार्थ

(राजा ने कहा-) हे दानियों के शिरोमणि! हे कृपानिधान! हे नाथ! मैं अपने मन का सच्चा भाव कहता हूँ कि मैं आपके समान पुत्र चाहता हूँ। प्रभु से भला क्या छिपाना! ॥149॥

02 चौपाई

देखि प्रीति सुनि बचन अमोले। एवमस्तु करुनानिधि बोले॥
आपु सरिस खोजौं कहँ जाई। नृप तव तनय होब मैं आई॥1॥

मूल

देखि प्रीति सुनि बचन अमोले। एवमस्तु करुनानिधि बोले॥
आपु सरिस खोजौं कहँ जाई। नृप तव तनय होब मैं आई॥1॥

भावार्थ

राजा की प्रीति देखकर और उनके अमूल्य वचन सुनकर करुणानिधान भगवान बोले- ऐसा ही हो। हे राजन्‌! मैं अपने समान (दूसरा) कहाँ जाकर खोजूँ! अतः स्वयं ही आकर तुम्हारा पुत्र बनूँगा॥1॥

सतरूपहिं बिलोकि कर जोरें। देबि मागु बरु जो रुचि तोरें॥
जो बरु नाथ चतुर नृप मागा। सोइ कृपाल मोहि अति प्रिय लागा॥2॥

मूल

सतरूपहिं बिलोकि कर जोरें। देबि मागु बरु जो रुचि तोरें॥
जो बरु नाथ चतुर नृप मागा। सोइ कृपाल मोहि अति प्रिय लागा॥2॥

भावार्थ

शतरूपाजी को हाथ जोडे देखकर भगवान ने कहा- हे देवी! तुम्हारी जो इच्छा हो, सो वर माँग लो। (शतरूपा ने कहा-) हे नाथ! चतुर राजा ने जो वर माँगा, हे कृपालु! वह मुझे बहुत ही प्रिय लगा,॥2॥

प्रभु परन्तु सुठि होति ढिठाई। जदपि भगत हित तुम्हहि सोहाई॥
तुम्ह ब्रह्मादि जनक जग स्वामी। ब्रह्म सकल उर अन्तरजामी॥3॥

मूल

प्रभु परन्तु सुठि होति ढिठाई। जदपि भगत हित तुम्हहि सोहाई॥
तुम्ह ब्रह्मादि जनक जग स्वामी। ब्रह्म सकल उर अन्तरजामी॥3॥

भावार्थ

परन्तु हे प्रभु! बहुत ढिठाई हो रही है, यद्यपि हे भक्तों का हित करने वाले! वह ढिठाई भी आपको अच्छी ही लगती है। आप ब्रह्मा आदि के भी पिता (उत्पन्न करने वाले), जगत के स्वामी और सबके हृदय के भीतर की जानने वाले ब्रह्म हैं॥3॥

अस समुझत मन संसय होई। कहा जो प्रभु प्रवान पुनि सोई॥
जे निज भगत नाथ तव अहहीं। जो सुख पावहिं जो गति लहहीं॥4॥

मूल

अस समुझत मन संसय होई। कहा जो प्रभु प्रवान पुनि सोई॥
जे निज भगत नाथ तव अहहीं। जो सुख पावहिं जो गति लहहीं॥4॥

भावार्थ

ऐसा समझने पर मन में सन्देह होता है, फिर भी प्रभु ने जो कहा वही प्रमाण (सत्य) है। (मैं तो यह माँगती हूँ कि) हे नाथ! आपके जो निज जन हैं, वे जो (अलौकिक, अखण्ड) सुख पाते हैं और जिस परम गति को प्राप्त होते हैं-॥4॥

150

01 दोहा

सोइ सुख सोइ गति सोइ भगति सोइ निज चरन सनेहु।
सोइ बिबेक सोइ रहनि प्रभु हमहि कृपा करि देहु॥150॥

मूल

सोइ सुख सोइ गति सोइ भगति सोइ निज चरन सनेहु।
सोइ बिबेक सोइ रहनि प्रभु हमहि कृपा करि देहु॥150॥

भावार्थ

हे प्रभो! वही सुख, वही गति, वही भक्ति, वही अपने चरणों में प्रेम, वही ज्ञान और वही रहन-सहन कृपा करके हमें दीजिए॥150॥

02 चौपाई

सुनि मृदु गूढ रुचिर बर रचना। कृपासिन्धु बोले मृदु बचना॥
जो कछु रुचि तुम्हरे मन माहीं। मैं सो दीन्ह सब संसय नाहीं॥1॥

मूल

सुनि मृदु गूढ रुचिर बर रचना। कृपासिन्धु बोले मृदु बचना॥
जो कछु रुचि तुम्हरे मन माहीं। मैं सो दीन्ह सब संसय नाहीं॥1॥

भावार्थ

(रानी की) कोमल, गूढ और मनोहर श्रेष्ठ वाक्य रचना सुनकर कृपा के समुद्र भगवान कोमल वचन बोले- तुम्हारे मन में जो कुछ इच्छा है, वह सब मैन्ने तुमको दिया, इसमें कोई सन्देह न समझना॥1॥

मातु बिबेक अलौकिक तोरें। कबहुँ न मिटिहि अनुग्रह मोरें॥
बन्दि चरन मनु कहेउ बहोरी। अवर एक बिनती प्रभु मोरी॥2॥

मूल

मातु बिबेक अलौकिक तोरें। कबहुँ न मिटिहि अनुग्रह मोरें॥
बन्दि चरन मनु कहेउ बहोरी। अवर एक बिनती प्रभु मोरी॥2॥

भावार्थ

हे माता! मेरी कृपा से तुम्हारा अलौकिक ज्ञान कभी नष्ट न होगा। तब मनु ने भगवान के चरणों की वन्दना करके फिर कहा- हे प्रभु! मेरी एक विनती और है-॥2॥

सुत बिषइक तव पद रति होऊ। मोहि बड मूढ कहे किन कोऊ॥
मनि बिनु फनि जिमि जल बिनु मीना। मम जीवन तिमि तुम्हहि अधीना॥3॥

मूल

सुत बिषइक तव पद रति होऊ। मोहि बड मूढ कहे किन कोऊ॥
मनि बिनु फनि जिमि जल बिनु मीना। मम जीवन तिमि तुम्हहि अधीना॥3॥

भावार्थ

आपके चरणों में मेरी वैसी ही प्रीति हो जैसी पुत्र के लिए पिता की होती है, चाहे मुझे कोई बडा भारी मूर्ख ही क्यों न कहे। जैसे मणि के बिना साँप और जल के बिना मछली (नहीं रह सकती), वैसे ही मेरा जीवन आपके अधीन रहे (आपके बिना न रह सके)॥3॥

अस बरु मागि चरन गहि रहेऊ। एवमस्तु करुनानिधि कहेऊ॥
अब तुम्ह मम अनुसासन मानी। बसहु जाइ सुरपति रजधानी॥4॥

मूल

अस बरु मागि चरन गहि रहेऊ। एवमस्तु करुनानिधि कहेऊ॥
अब तुम्ह मम अनुसासन मानी। बसहु जाइ सुरपति रजधानी॥4॥

भावार्थ

ऐसा वर माँगकर राजा भगवान के चरण पकडे रह गए। तब दया के निधान भगवान ने कहा- ऐसा ही हो। अब तुम मेरी आज्ञा मानकर देवराज इन्द्र की राजधानी (अमरावती) में जाकर वास करो॥4॥

151

01 सोरठा

तहँ करि भोग बिसाल तात गएँ कछु काल पुनि।
होइहहु अवध भुआल तब मैं होब तुम्हार सुत॥151॥

मूल

तहँ करि भोग बिसाल तात गएँ कछु काल पुनि।
होइहहु अवध भुआल तब मैं होब तुम्हार सुत॥151॥

भावार्थ

हे तात! वहाँ (स्वर्ग के) बहुत से भोग भोगकर, कुछ काल बीत जाने पर, तुम अवध के राजा होङ्गे। तब मैं तुम्हारा पुत्र होऊँगा॥151॥

02 चौपाई

इच्छामय नरबेष सँवारें। होइहउँ प्रगट निकेत तुम्हारें॥
अंसन्ह सहित देह धरि ताता। करिहउँ चरित भगत सुखदाता॥1॥

मूल

इच्छामय नरबेष सँवारें। होइहउँ प्रगट निकेत तुम्हारें॥
अंसन्ह सहित देह धरि ताता। करिहउँ चरित भगत सुखदाता॥1॥

भावार्थ

इच्छानिर्मित मनुष्य रूप सजकर मैं तुम्हारे घर प्रकट होऊँगा। हे तात! मैं अपने अंशों सहित देह धारण करके भक्तों को सुख देने वाले चरित्र करूँगा॥1॥

जे सुनि सादर नर बडभागी। भव तरिहहिं ममता मद त्यागी॥
आदिसक्ति जेहिं जग उपजाया। सोउ अवतरिहि मोरि यह माया॥2॥

मूल

जे सुनि सादर नर बडभागी। भव तरिहहिं ममता मद त्यागी॥
आदिसक्ति जेहिं जग उपजाया। सोउ अवतरिहि मोरि यह माया॥2॥

भावार्थ

जिन (चरित्रों) को बडे भाग्यशाली मनुष्य आदरसहित सुनकर, ममता और मद त्यागकर, भवसागर से तर जाएँगे। आदिशक्ति यह मेरी (स्वरूपभूता) माया भी, जिसने जगत को उत्पन्न किया है, अवतार लेगी॥2॥

पुरउब मैं अभिलाष तुम्हारा। सत्य सत्य पन सत्य हमारा॥
पुनि पुनि अस कहि कृपानिधाना। अन्तरधान भए भगवाना॥3॥

मूल

पुरउब मैं अभिलाष तुम्हारा। सत्य सत्य पन सत्य हमारा॥
पुनि पुनि अस कहि कृपानिधाना। अन्तरधान भए भगवाना॥3॥

भावार्थ

इस प्रकार मैं तुम्हारी अभिलाषा पूरी करूँगा। मेरा प्रण सत्य है, सत्य है, सत्य है। कृपानिधान भगवान बार-बार ऐसा कहकर अन्तरधान हो गए॥3॥

दम्पति उर धरि भगत कृपाला। तेहिं आश्रम निवसे कछु काला॥
समय पाइ तनु तजि अनयासा। जाइ कीन्ह अमरावति बासा॥4॥

मूल

दम्पति उर धरि भगत कृपाला। तेहिं आश्रम निवसे कछु काला॥
समय पाइ तनु तजि अनयासा। जाइ कीन्ह अमरावति बासा॥4॥

भावार्थ

वे स्त्री-पुरुष (राजा-रानी) भक्तों पर कृपा करने वाले भगवान को हृदय में धारण करके कुछ काल तक उस आश्रम में रहे। फिर उन्होन्ने समय पाकर, सहज ही (बिना किसी कष्ट के) शरीर छोडकर, अमरावती (इन्द्र की पुरी) में जाकर वास किया॥4॥

152

01 दोहा

यह इतिहास पुनीत अति उमहि कही बृषकेतु।
भरद्वाज सुनु अपर पुनि राम जनम कर हेतु॥152॥

मूल

यह इतिहास पुनीत अति उमहि कही बृषकेतु।
भरद्वाज सुनु अपर पुनि राम जनम कर हेतु॥152॥

भावार्थ

(याज्ञवल्क्यजी कहते हैं-) हे भरद्वाज! इस अत्यन्त पवित्र इतिहास को शिवजी ने पार्वती से कहा था। अब श्रीराम के अवतार लेने का दूसरा कारण सुनो॥152॥

मासपारायण, पाँचवाँ विश्राम

02 चौपाई

सुनु मुनि कथा पुनीत पुरानी। जो गिरिजा प्रति सम्भु बखानी॥
बिस्व बिदित एक कैकय देसू। सत्यकेतु तहँ बसइ नरेसू॥1॥

मूल

सुनु मुनि कथा पुनीत पुरानी। जो गिरिजा प्रति सम्भु बखानी॥
बिस्व बिदित एक कैकय देसू। सत्यकेतु तहँ बसइ नरेसू॥1॥

भावार्थ

हे मुनि! वह पवित्र और प्राचीन कथा सुनो, जो शिवजी ने पार्वती से कही थी। संसार में प्रसिद्ध एक कैकय देश है। वहाँ सत्यकेतु नाम का राजा रहता (राज्य करता) था॥1॥

धरम धुरन्धर नीति निधाना। तेज प्रताप सील बलवाना॥
तेहि कें भए जुगल सुत बीरा। सब गुन धाम महा रनधीरा॥2॥

मूल

धरम धुरन्धर नीति निधाना। तेज प्रताप सील बलवाना॥
तेहि कें भए जुगल सुत बीरा। सब गुन धाम महा रनधीरा॥2॥

भावार्थ

वह धर्म की धुरी को धारण करने वाला, नीति की खान, तेजस्वी, प्रतापी, सुशील और बलवान था, उसके दो वीर पुत्र हुए, जो सब गुणों के भण्डार और बडे ही रणधीर थे॥2॥

राज धनी जो जेठ सुत आही। नाम प्रतापभानु अस ताही॥
अपर सुतहि अरिमर्दन नामा। भुजबल अतुल अचल सङ्ग्रामा॥3॥

मूल

राज धनी जो जेठ सुत आही। नाम प्रतापभानु अस ताही॥
अपर सुतहि अरिमर्दन नामा। भुजबल अतुल अचल सङ्ग्रामा॥3॥

भावार्थ

राज्य का उत्तराधिकारी जो बडा लडका था, उसका नाम प्रतापभानु था। दूसरे पुत्र का नाम अरिमर्दन था, जिसकी भुजाओं में अपार बल था और जो युद्ध में (पर्वत के समान) अटल रहता था॥3॥

भाइहि भाइहि परम समीती। सकल दोष छल बरजित प्रीती॥
जेठे सुतहि राज नृप दीन्हा। हरि हित आपु गवन बन कीन्हा॥4॥

मूल

भाइहि भाइहि परम समीती। सकल दोष छल बरजित प्रीती॥
जेठे सुतहि राज नृप दीन्हा। हरि हित आपु गवन बन कीन्हा॥4॥

भावार्थ

भाई-भाई में बडा मेल और सब प्रकार के दोषों और छलों से रहित (सच्ची) प्रीति थी। राजा ने जेठे पुत्र को राज्य दे दिया और आप भगवान (के भजन) के लिए वन को चल दिए॥4॥

153

01 दोहा

जब प्रतापरबि भयउ नृप फिरी दोहाई देस।
प्रजा पाल अति बेदबिधि कतहुँ नहीं अघ लेस॥153॥

मूल

जब प्रतापरबि भयउ नृप फिरी दोहाई देस।
प्रजा पाल अति बेदबिधि कतहुँ नहीं अघ लेस॥153॥

भावार्थ

जब प्रतापभानु राजा हुआ, देश में उसकी दुहाई फिर गई। वह वेद में बताई हुई विधि के अनुसार उत्तम रीति से प्रजा का पालन करने लगा। उसके राज्य में पाप का कहीं लेश भी नहीं रह गया॥153॥

02 चौपाई

नृप हितकारक सचिव सयाना। नाम धरमरुचि सुक्र समाना॥
सचिव सयान बन्धु बलबीरा। आपु प्रतापपुञ्ज रनधीरा॥1॥

मूल

नृप हितकारक सचिव सयाना। नाम धरमरुचि सुक्र समाना॥
सचिव सयान बन्धु बलबीरा। आपु प्रतापपुञ्ज रनधीरा॥1॥

भावार्थ

राजा का हित करने वाला और शुक्राचार्य के समान बुद्धिमान धर्मरुचि नामक उसका मन्त्री था। इस प्रकार बुद्धिमान मन्त्री और बलवान तथा वीर भाई के साथ ही स्वयं राजा भी बडा प्रतापी और रणधीर था॥1॥

सेन सङ्ग चतुरङ्ग अपारा। अमित सुभट सब समर जुझारा॥
सेन बिलोकि राउ हरषाना। अरु बाजे गहगहे निसाना॥2॥

मूल

सेन सङ्ग चतुरङ्ग अपारा। अमित सुभट सब समर जुझारा॥
सेन बिलोकि राउ हरषाना। अरु बाजे गहगहे निसाना॥2॥

भावार्थ

साथ में अपार चतुरङ्गिणी सेना थी, जिसमें असङ्ख्य योद्धा थे, जो सब के सब रण में जूझ मरने वाले थे। अपनी सेना को देखकर राजा बहुत प्रसन्न हुआ और घमाघम नगाडे बजने लगे॥2॥

बिजय हेतु कटकई बनाई। सुदिन साधि नृप चलेउ बजाई॥
जहँ तहँ परीं अनेक लराईं। जीते सकल भूप बरिआईं॥3॥

मूल

बिजय हेतु कटकई बनाई। सुदिन साधि नृप चलेउ बजाई॥
जहँ तहँ परीं अनेक लराईं। जीते सकल भूप बरिआईं॥3॥

भावार्थ

दिग्विजय के लिए सेना सजाकर वह राजा शुभ दिन (मुहूर्त) साधकर और डङ्का बजाकर चला। जहाँ-तहाँ बहुतसी लडाइयाँ हुईं। उसने सब राजाओं को बलपूर्वक जीत लिया॥3॥

सप्त दीप भुजबल बस कीन्हे। लै लै दण्ड छाडि नृप दीन्हे॥
सकल अवनि मण्डल तेहि काला। एक प्रतापभानु महिपाला॥4॥

मूल

सप्त दीप भुजबल बस कीन्हे। लै लै दण्ड छाडि नृप दीन्हे॥
सकल अवनि मण्डल तेहि काला। एक प्रतापभानु महिपाला॥4॥

भावार्थ

अपनी भुजाओं के बल से उसने सातों द्वीपों (भूमिखण्डों) को वश में कर लिया और राजाओं से दण्ड (कर) ले-लेकर उन्हें छोड दिया। सम्पूर्ण पृथ्वी मण्डल का उस समय प्रतापभानु ही एकमात्र (चक्रवर्ती) राजा था॥4॥

154

01 दोहा

स्वबस बिस्व करि बाहुबल निज पुर कीन्ह प्रबेसु।
अरथ धरम कामादि सुख सेवइ समयँ नरेसु॥154॥

मूल

स्वबस बिस्व करि बाहुबल निज पुर कीन्ह प्रबेसु।
अरथ धरम कामादि सुख सेवइ समयँ नरेसु॥154॥

भावार्थ

संसारभर को अपनी भुजाओं के बल से वश में करके राजा ने अपने नगर में प्रवेश किया। राजा अर्थ, धर्म और काम आदि के सुखों का समयानुसार सेवन करता था॥154॥

02 चौपाई

भूप प्रतापभानु बल पाई। कामधेनु भै भूमि सुहाई॥
सब दुख बरजित प्रजा सुखारी। धरमसील सुन्दर नर नारी॥1॥

मूल

भूप प्रतापभानु बल पाई। कामधेनु भै भूमि सुहाई॥
सब दुख बरजित प्रजा सुखारी। धरमसील सुन्दर नर नारी॥1॥

भावार्थ

राजा प्रतापभानु का बल पाकर भूमि सुन्दर कामधेनु (मनचाही वस्तु देने वाली) हो गई। (उनके राज्य में) प्रजा सब (प्रकार के) दुःखों से रहित और सुखी थी और सभी स्त्री-पुरुष सुन्दर और धर्मात्मा थे॥1॥

सचिव धरमरुचि हरि पद प्रीती। नृप हित हेतु सिखव नित नीती॥
गुर सुर सन्त पितर महिदेवा। करइ सदा नृप सब कै सेवा॥2॥

मूल

सचिव धरमरुचि हरि पद प्रीती। नृप हित हेतु सिखव नित नीती॥
गुर सुर सन्त पितर महिदेवा। करइ सदा नृप सब कै सेवा॥2॥

भावार्थ

धर्मरुचि मन्त्री का श्री हरि के चरणों में प्रेम था। वह राजा के हित के लिए सदा उसको नीति सिखाया करता था। राजा गुरु, देवता, सन्त, पितर और ब्राह्मण- इन सबकी सदा सेवा करता रहता था॥2॥

भूप धरम जे बेद बखाने। सकल करइ सादर सुख माने॥
दिन प्रति देइ बिबिध बिधि दाना। सुनइ सास्त्र बर बेद पुराना॥3॥

मूल

भूप धरम जे बेद बखाने। सकल करइ सादर सुख माने॥
दिन प्रति देइ बिबिध बिधि दाना। सुनइ सास्त्र बर बेद पुराना॥3॥

भावार्थ

वेदों में राजाओं के जो धर्म बताए गए हैं, राजा सदा आदरपूर्वक और सुख मानकर उन सबका पालन करता था। प्रतिदिन अनेक प्रकार के दान देता और उत्तम शास्त्र, वेद और पुराण सुनता था॥3॥

नाना बापीं कूप तडागा। सुमन बाटिका सुन्दर बागा॥
बिप्रभवन सुरभवन सुहाए। सब तीरथन्ह विचित्र बनाए॥4॥

मूल

नाना बापीं कूप तडागा। सुमन बाटिका सुन्दर बागा॥
बिप्रभवन सुरभवन सुहाए। सब तीरथन्ह विचित्र बनाए॥4॥

भावार्थ

उसने बहुत सी बावलियाँ, कुएँ, तालाब, फुलवाडियाँ सुन्दर बगीचे, ब्राह्मणों के लिए घर और देवताओं के सुन्दर विचित्र मन्दिर सब तीर्थों में बनवाए॥4॥

155

01 दोहा

जहँ लजि कहे पुरान श्रुति एक एक सब जाग।
बार सहस्र सहस्र नृप किए सहित अनुराग॥155॥

मूल

जहँ लजि कहे पुरान श्रुति एक एक सब जाग।
बार सहस्र सहस्र नृप किए सहित अनुराग॥155॥

भावार्थ

वेद और पुराणों में जितने प्रकार के यज्ञ कहे गए हैं, राजा ने एक-एक करके उन सब यज्ञों को प्रेम सहित हजार-हजार बार किया॥155॥

02 चौपाई

हृदयँ न कछु फल अनुसन्धाना। भूप बिबेकी परम सुजाना॥
करइ जे धरम करम मन बानी। बासुदेव अर्पित नृप ग्यानी॥1॥

मूल

हृदयँ न कछु फल अनुसन्धाना। भूप बिबेकी परम सुजाना॥
करइ जे धरम करम मन बानी। बासुदेव अर्पित नृप ग्यानी॥1॥

भावार्थ

(राजा के) हृदय में किसी फल की टोह (कामना) न थी। राजा बडा ही बुद्धिमान और ज्ञानी था। वह ज्ञानी राजा कर्म, मन और वाणी से जो कुछ भी धर्म करता था, सब भगवान वासुदेव को अर्पित करते रहता था॥1॥

चढि बर बाजि बार एक राजा। मृगया कर सब साजि समाजा॥
बिन्ध्याचल गभीर बन गयऊ। मृग पुनीत बहु मारत भयऊ॥2॥

मूल

चढि बर बाजि बार एक राजा। मृगया कर सब साजि समाजा॥
बिन्ध्याचल गभीर बन गयऊ। मृग पुनीत बहु मारत भयऊ॥2॥

भावार्थ

एक बार वह राजा एक अच्छे घोडे पर सवार होकर, शिकार का सब सामान सजाकर विन्ध्याचल के घने जङ्गल में गया और वहाँ उसने बहुत से उत्तम-उत्तम हिरन मारे॥2॥

फिरत बिपिन नृप दीख बराहू। जनु बन दुरेउ ससिहि ग्रसि राहू॥
बड बिधु नहिं समात मुख माहीं। मनहुँ क्रोध बस उगिलत नाहीं॥3॥

मूल

फिरत बिपिन नृप दीख बराहू। जनु बन दुरेउ ससिहि ग्रसि राहू॥
बड बिधु नहिं समात मुख माहीं। मनहुँ क्रोध बस उगिलत नाहीं॥3॥

भावार्थ

राजा ने वन में फिरते हुए एक सूअर को देखा। (दाँतों के कारण वह ऐसा दिख पडता था) मानो चन्द्रमा को ग्रसकर (मुँह में पकडकर) राहु वन में आ छिपा हो। चन्द्रमा बडा होने से उसके मुँह में समाता नहीं है और मानो क्रोधवश वह भी उसे उगलता नहीं है॥3॥

कोल कराल दसन छबि गाई। तनु बिसाल पीवर अधिकाई॥
घुरुघुरात हय आरौ पाएँ। चकित बिलोकत कान उठाएँ॥4॥

मूल

कोल कराल दसन छबि गाई। तनु बिसाल पीवर अधिकाई॥
घुरुघुरात हय आरौ पाएँ। चकित बिलोकत कान उठाएँ॥4॥

भावार्थ

यह तो सूअर के भयानक दाँतों की शोभा कही गई। (इधर) उसका शरीर भी बहुत विशाल और मोटा था। घोडे की आहट पाकर वह घुरघुराता हुआ कान उठाए चौकन्ना होकर देख रहा था॥4॥

156

01 दोहा

नील महीधर सिखर सम देखि बिसाल बराहु।
चपरि चलेउ हय सुटुकि नृप हाँकि न होइ निबाहु॥156॥

मूल

नील महीधर सिखर सम देखि बिसाल बराहु।
चपरि चलेउ हय सुटुकि नृप हाँकि न होइ निबाहु॥156॥

भावार्थ

नील पर्वत के शिखर के समान विशाल (शरीर वाले) उस सूअर को देखकर राजा घोडे को चाबुक लगाकर तेजी से चला और उसने सूअर को ललकारा कि अब तेरा बचाव नहीं हो सकता॥156॥

02 चौपाई

आवत देखि अधिक रव बाजी। चलेउ बराह मरुत गति भाजी॥
तुरत कीन्ह नृप सर सन्धाना। महि मिलि गयउ बिलोकत बाना॥1॥

मूल

आवत देखि अधिक रव बाजी। चलेउ बराह मरुत गति भाजी॥
तुरत कीन्ह नृप सर सन्धाना। महि मिलि गयउ बिलोकत बाना॥1॥

भावार्थ

अधिक शब्द करते हुए घोडे को (अपनी तरफ) आता देखकर सूअर पवन वेग से भाग चला। राजा ने तुरन्त ही बाण को धनुष पर चढाया। सूअर बाण को देखते ही धरती में दुबक गया॥1॥

तकि तकि तीर महीस चलावा। करि छल सुअर सरीर बचावा॥
प्रगटत दुरत जाइ मृग भागा। रिस बस भूप चलेउ सँग लागा॥2॥

मूल

तकि तकि तीर महीस चलावा। करि छल सुअर सरीर बचावा॥
प्रगटत दुरत जाइ मृग भागा। रिस बस भूप चलेउ सँग लागा॥2॥

भावार्थ

राजा तक-तककर तीर चलाता है, परन्तु सूअर छल करके शरीर को बचाता जाता है। वह पशु कभी प्रकट होता और कभी छिपता हुआ भाग जाता था और राजा भी क्रोध के वश उसके साथ (पीछे) लगा चला जाता था॥2॥

गयउ दूरि घन गहन बराहू। जहँ नाहिन गज बाजि निबाहू॥
अति अकेल बन बिपुल कलेसू। तदपि न मृग मग तजइ नरेसू॥3॥

मूल

गयउ दूरि घन गहन बराहू। जहँ नाहिन गज बाजि निबाहू॥
अति अकेल बन बिपुल कलेसू। तदपि न मृग मग तजइ नरेसू॥3॥

भावार्थ

सूअर बहुत दूर ऐसे घने जङ्गल में चला गया, जहाँ हाथी-घोडे का निबाह (गमन) नहीं था। राजा बिलकुल अकेला था और वन में क्लेश भी बहुत था, फिर भी राजा ने उस पशु का पीछा नहीं छोडा॥3॥

कोल बिलोकि भूप बड धीरा। भागि पैठ गिरिगुहाँ गभीरा॥
अगम देखि नृप अति पछिताई। फिरेउ महाबन परेउ भुलाई॥4॥

मूल

कोल बिलोकि भूप बड धीरा। भागि पैठ गिरिगुहाँ गभीरा॥
अगम देखि नृप अति पछिताई। फिरेउ महाबन परेउ भुलाई॥4॥

भावार्थ

राजा को बडा धैर्यवान देखकर, सूअर भागकर पहाड की एक गहरी गुफा में जा घुसा। उसमें जाना कठिन देखकर राजा को बहुत पछताकर लौटना पडा, पर उस घोर वन में वह रास्ता भूल गया॥4॥

157

01 दोहा

खेद खिन्न छुद्धित तृषित राजा बाजि समेत।
खोजत ब्याकुल सरित सर जल बिनु भयउ अचेत॥157॥

मूल

खेद खिन्न छुद्धित तृषित राजा बाजि समेत।
खोजत ब्याकुल सरित सर जल बिनु भयउ अचेत॥157॥

भावार्थ

बहुत परिश्रम करने से थका हुआ और घोडे समेत भूख-प्यास से व्याकुल राजा नदी-तालाब खोजता-खोजता पानी बिना बेहाल हो गया॥157॥

02 चौपाई

फिरत बिपिन आश्रम एक देखा। तहँ बस नृपति कपट मुनिबेषा॥
जासु देस नृप लीन्ह छडाई। समर सेन तजि गयउ पराई॥1॥

मूल

फिरत बिपिन आश्रम एक देखा। तहँ बस नृपति कपट मुनिबेषा॥
जासु देस नृप लीन्ह छडाई। समर सेन तजि गयउ पराई॥1॥

भावार्थ

वन में फिरते-फिरते उसने एक आश्रम देखा, वहाँ कपट से मुनि का वेष बनाए एक राजा रहता था, जिसका देश राजा प्रतापभानु ने छीन लिया था और जो सेना को छोडकर युद्ध से भाग गया था॥1॥

समय प्रतापभानु कर जानी। आपन अति असमय अनुमानी॥
गयउ न गृह मन बहुत गलानी। मिला न राजहि नृप अभिमानी॥2॥

मूल

समय प्रतापभानु कर जानी। आपन अति असमय अनुमानी॥
गयउ न गृह मन बहुत गलानी। मिला न राजहि नृप अभिमानी॥2॥

भावार्थ

प्रतापभानु का समय (अच्छे दिन) जानकर और अपना कुसमय (बुरे दिन) अनुमानकर उसके मन में बडी ग्लानि हुई। इससे वह न तो घर गया और न अभिमानी होने के कारण राजा प्रतापभानु से ही मिला (मेल किया)॥2॥

रिस उर मारि रङ्क जिमि राजा। बिपिन बसइ तापस कें साजा॥
तासु समीप गवन नृप कीन्हा। यह प्रतापरबि तेहिं तब चीन्हा॥3॥

मूल

रिस उर मारि रङ्क जिमि राजा। बिपिन बसइ तापस कें साजा॥
तासु समीप गवन नृप कीन्हा। यह प्रतापरबि तेहिं तब चीन्हा॥3॥

भावार्थ

दरिद्र की भाँति मन ही में क्रोध को मारकर वह राजा तपस्वी के वेष में वन में रहता था। राजा (प्रतापभानु) उसी के पास गया। उसने तुरन्त पहचान लिया कि यह प्रतापभानु है॥3॥

राउ तृषित नहिं सो पहिचाना। देखि सुबेष महामुनि जाना॥
उतरि तुरग तें कीन्ह प्रनामा। परम चतुर न कहेउ निज नामा॥4॥

मूल

राउ तृषित नहिं सो पहिचाना। देखि सुबेष महामुनि जाना॥
उतरि तुरग तें कीन्ह प्रनामा। परम चतुर न कहेउ निज नामा॥4॥

भावार्थ

राजा प्यासा होने के कारण (व्याकुलता में) उसे पहचान न सका। सुन्दर वेष देखकर राजा ने उसे महामुनि समझा और घोडे से उतरकर उसे प्रणाम किया, परन्तु बडा चतुर होने के कारण राजा ने उसे अपना नाम नहीं बताया॥4॥

158

01 दोहा

भूपति तृषित बिलोकि तेहिं सरबरू दीन्ह देखाइ।
मज्जन पान समेत हय कीन्ह नृपति हरषाइ॥158॥

मूल

भूपति तृषित बिलोकि तेहिं सरबरू दीन्ह देखाइ।
मज्जन पान समेत हय कीन्ह नृपति हरषाइ॥158॥

भावार्थ

राजा को प्यासा देखकर उसने सरोवर दिखला दिया। हर्षित होकर राजा ने घोडे सहित उसमें स्नान और जलपान किया॥158॥

02 चौपाई

गै श्रम सकल सुखी नृप भयऊ। निज आश्रम तापस लै गयऊ॥
आसन दीन्ह अस्त रबि जानी। पुनि तापस बोलेउ मृदु बानी॥1॥

मूल

गै श्रम सकल सुखी नृप भयऊ। निज आश्रम तापस लै गयऊ॥
आसन दीन्ह अस्त रबि जानी। पुनि तापस बोलेउ मृदु बानी॥1॥

भावार्थ

सारी थकावट मिट गई, राजा सुखी हो गया। तब तपस्वी उसे अपने आश्रम में ले गया और सूर्यास्त का समय जानकर उसने (राजा को बैठने के लिए) आसन दिया। फिर वह तपस्वी कोमल वाणी से बोला- ॥1॥

को तुम्ह कस बन फिरहु अकेलें। सुन्दर जुबा जीव परहेलें॥
चक्रबर्ति के लच्छन तोरें। देखत दया लागि अति मोरें॥2॥

मूल

को तुम्ह कस बन फिरहु अकेलें। सुन्दर जुबा जीव परहेलें॥
चक्रबर्ति के लच्छन तोरें। देखत दया लागि अति मोरें॥2॥

भावार्थ

तुम कौन हो? सुन्दर युवक होकर, जीवन की परवाह न करके वन में अकेले क्यों फिर रहे हो? तुम्हारे चक्रवर्ती राजा के से लक्षण देखकर मुझे बडी दया आती है॥2॥

नाम प्रतापभानु अवनीसा। तासु सचिव मैं सुनहु मुनीसा॥
फिरत अहेरें परेउँ भुलाई। बडें भाग देखेउँ पद आई॥3॥

मूल

नाम प्रतापभानु अवनीसा। तासु सचिव मैं सुनहु मुनीसा॥
फिरत अहेरें परेउँ भुलाई। बडें भाग देखेउँ पद आई॥3॥

भावार्थ

(राजा ने कहा-) हे मुनीश्वर! सुनिए, प्रतापभानु नाम का एक राजा है, मैं उसका मन्त्री हूँ। शिकार के लिए फिरते हुए राह भूल गया हूँ। बडे भाग्य से यहाँ आकर मैन्ने आपके चरणों के दर्शन पाए हैं॥3॥

हम कहँ दुर्लभ दरस तुम्हारा। जानत हौं कछु भल होनिहारा॥
कह मुनि तात भयउ अँधिआरा। जोजन सत्तरि नगरु तुम्हारा॥4॥

मूल

हम कहँ दुर्लभ दरस तुम्हारा। जानत हौं कछु भल होनिहारा॥
कह मुनि तात भयउ अँधिआरा। जोजन सत्तरि नगरु तुम्हारा॥4॥

भावार्थ

हमें आपका दर्शन दुर्लभ था, इससे जान पडता है कुछ भला होने वाला है। मुनि ने कहा- हे तात! अँधेरा हो गया। तुम्हारा नगर यहाँ से सत्तर योजन पर है॥4॥

159

01 दोहा

निसा घोर गम्भीर बन पन्थ न सुनहु सुजान।
बसहु आजु अस जानि तुम्ह जाएहु होत बिहान॥1॥

मूल

निसा घोर गम्भीर बन पन्थ न सुनहु सुजान।
बसहु आजु अस जानि तुम्ह जाएहु होत बिहान॥1॥

भावार्थ

हे सुजान! सुनो, घोर अँधेरी रात है, घना जङ्गल है, रास्ता नहीं है, ऐसा समझकर तुम आज यहीं ठहर जाओ, सबेरा होते ही चले जाना॥1॥

तुलसी जसि भवतब्यता तैसी मिलइ सहाइ।
आपुनु आवइ ताहि पहिं ताहि तहाँ लै जाइ॥2॥

मूल

तुलसी जसि भवतब्यता तैसी मिलइ सहाइ।
आपुनु आवइ ताहि पहिं ताहि तहाँ लै जाइ॥2॥

भावार्थ

तुलसीदासजी कहते हैं- जैसी भवितव्यता (होनहार) होती है, वैसी ही सहायता मिल जाती है। या तो वह आप ही उसके पास आती है या उसको वहाँ ले जाती है॥2॥

02 चौपाई

भलेहिं नाथ आयसु धरि सीसा। बाँधि तुरग तरु बैठ महीसा॥
नृप बहु भाँति प्रसंसेउ ताही। चरन बन्दि निज भाग्य सराही॥1॥

मूल

भलेहिं नाथ आयसु धरि सीसा। बाँधि तुरग तरु बैठ महीसा॥
नृप बहु भाँति प्रसंसेउ ताही। चरन बन्दि निज भाग्य सराही॥1॥

भावार्थ

हे नाथ! बहुत अच्छा, ऐसा कहकर और उसकी आज्ञा सिर चढाकर, घोडे को वृक्ष से बाँधकर राजा बैठ गया। राजा ने उसकी बहुत प्रकार से प्रशंसा की और उसके चरणों की वन्दना करके अपने भाग्य की सराहना की॥1॥

पुनि बोलेउ मृदु गिरा सुहाई। जानि पिता प्रभु करउँ ढिठाई॥
मोहि मुनीस सुत सेवक जानी। नाथ नाम निज कहहु बखानी॥2॥

मूल

पुनि बोलेउ मृदु गिरा सुहाई। जानि पिता प्रभु करउँ ढिठाई॥
मोहि मुनीस सुत सेवक जानी। नाथ नाम निज कहहु बखानी॥2॥

भावार्थ

फिर सुन्दर कोमल वाणी से कहा- हे प्रभो! आपको पिता जानकर मैं ढिठाई करता हूँ। हे मुनीश्वर! मुझे अपना पुत्र और सेवक जानकर अपना नाम (धाम) विस्तार से बतलाइए॥2॥

तेहि न जान नृप नृपहि सो जाना। भूप सुहृद सो कपट सयाना॥
बैरी पुनि छत्री पुनि राजा। छल बल कीन्ह चहइ निज काजा॥3॥

मूल

तेहि न जान नृप नृपहि सो जाना। भूप सुहृद सो कपट सयाना॥
बैरी पुनि छत्री पुनि राजा। छल बल कीन्ह चहइ निज काजा॥3॥

भावार्थ

राजा ने उसको नहीं पहचाना, पर वह राजा को पहचान गया था। राजा तो शुद्ध हृदय था और वह कपट करने में चतुर था। एक तो वैरी, फिर जाति का क्षत्रिय, फिर राजा। वह छल-बल से अपना काम बनाना चाहता था॥3॥

समुझि राजसुख दुखित अराती। अवाँ अनल इव सुलगइ छाती॥
ससरल बचन नृप के सुनि काना। बयर सँभारि हृदयँ हरषाना॥4॥

मूल

समुझि राजसुख दुखित अराती। अवाँ अनल इव सुलगइ छाती॥
ससरल बचन नृप के सुनि काना। बयर सँभारि हृदयँ हरषाना॥4॥

भावार्थ

वह शत्रु अपने राज्य सुख को समझ करके (स्मरण करके) दुःखी था। उसकी छाती (कुम्हार के) आँवे की आग की तरह (भीतर ही भीतर) सुलग रही थी। राजा के सरल वचन कान से सुनकर, अपने वैर को यादकर वह हृदय में हर्षित हुआ॥4॥

160

01 दोहा

कपट बोरि बानी मृदल बोलेउ जुगुति समेत।
नाम हमार भिखारि अब निर्धन रहित निकेत॥160॥

मूल

कपट बोरि बानी मृदल बोलेउ जुगुति समेत।
नाम हमार भिखारि अब निर्धन रहित निकेत॥160॥

भावार्थ

वह कपट में डुबोकर बडी युक्ति के साथ कोमल वाणी बोला- अब हमारा नाम भिखारी है, क्योङ्कि हम निर्धन और अनिकेत (घर-द्वारहीन) हैं॥160॥

02 चौपाई

कह नृप जे बिग्यान निधाना। तुम्ह सारिखे गलित अभिमाना॥
सदा रहहिं अपनपौ दुराएँ। सब बिधि कुसल कुबेष बनाएँ॥1॥

मूल

कह नृप जे बिग्यान निधाना। तुम्ह सारिखे गलित अभिमाना॥
सदा रहहिं अपनपौ दुराएँ। सब बिधि कुसल कुबेष बनाएँ॥1॥

भावार्थ

राजा ने कहा- जो आपके सदृश विज्ञान के निधान और सर्वथा अभिमानरहित होते हैं, वे अपने स्वरूप को सदा छिपाए रहते हैं, क्योङ्कि कुवेष बनाकर रहने में ही सब तरह का कल्याण है (प्रकट सन्त वेश में मान होने की सम्भावना है और मान से पतन की)॥1॥

तेहि तें कहहिं सन्त श्रुति टेरें। परम अकिञ्चन प्रिय हरि केरें॥
तुम्ह सम अधन भिखारि अगेहा। होत बिरञ्चि सिवहि सन्देहा॥2॥

मूल

तेहि तें कहहिं सन्त श्रुति टेरें। परम अकिञ्चन प्रिय हरि केरें॥
तुम्ह सम अधन भिखारि अगेहा। होत बिरञ्चि सिवहि सन्देहा॥2॥

भावार्थ

इसी से तो सन्त और वेद पुकारकर कहते हैं कि परम अकिञ्चन (सर्वथा अहङ्कार, ममता और मानरहित) ही भगवान को प्रिय होते हैं। आप सरीखे निर्धन, भिखारी और गृहहीनों को देखकर ब्रह्मा और शिवजी को भी सन्देह हो जाता है (कि वे वास्तविक सन्त हैं या भिखारी)॥2॥

जोसि सोसि तव चरन नमामी। मो पर कृपा करिअ अब स्वामी॥
सहज प्रीति भूपति कै देखी। आपु बिषय बिस्वास बिसेषी॥3॥

मूल

जोसि सोसि तव चरन नमामी। मो पर कृपा करिअ अब स्वामी॥
सहज प्रीति भूपति कै देखी। आपु बिषय बिस्वास बिसेषी॥3॥

भावार्थ

आप जो हों सो हों (अर्थात्‌ जो कोई भी हों), मैं आपके चरणों में नमस्कार करता हूँ। हे स्वामी! अब मुझ पर कृपा कीजिए। अपने ऊपर राजा की स्वाभाविक प्रीति और अपने विषय में उसका अधिक विश्वास देखकर॥2॥

सब प्रकार राजहि अपनाई। बोलेउ अधिक सनेह जनाई॥
सुनु सतिभाउ कहउँ महिपाला। इहाँ बसत बीते बहु काला॥4॥

मूल

सब प्रकार राजहि अपनाई। बोलेउ अधिक सनेह जनाई॥
सुनु सतिभाउ कहउँ महिपाला। इहाँ बसत बीते बहु काला॥4॥

भावार्थ

सब प्रकार से राजा को अपने वश में करके, अधिक स्नेह दिखाता हुआ वह (कपट-तपस्वी) बोला- हे राजन्‌! सुनो, मैं तुमसे सत्य कहता हूँ, मुझे यहाँ रहते बहुत समय बीत गया॥4॥

161

01 दोहा

अब लगि मोहि न मिलेउ कोउ मैं न जनावउँ काहु।
लोकमान्यता अनल सम कर तप कानन दाहु॥1॥

मूल

अब लगि मोहि न मिलेउ कोउ मैं न जनावउँ काहु।
लोकमान्यता अनल सम कर तप कानन दाहु॥1॥

भावार्थ

अब तक न तो कोई मुझसे मिला और न मैं अपने को किसी पर प्रकट करता हूँ, क्योङ्कि लोक में प्रतिष्ठा अग्नि के समान है, जो तप रूपी वन को भस्म कर डालती है॥1॥

02 सोरठा

तुलसी देखि सुबेषु भूलहिं मूढ न चतुर नर।
सुन्दर केकिहि पेखु बचन सुधा सम असन अहि॥2॥

मूल

तुलसी देखि सुबेषु भूलहिं मूढ न चतुर नर।
सुन्दर केकिहि पेखु बचन सुधा सम असन अहि॥2॥

भावार्थ

तुलसीदासजी कहते हैं- सुन्दर वेष देखकर मूढ नहीं (मूढ तो मूढ ही हैं), चतुर मनुष्य भी धोखा खा जाते हैं। सुन्दर मोर को देखो, उसका वचन तो अमृत के समान है और आहार साँप का है॥2॥

03 चौपाई

तातें गुपुत रहउँ जग माहीं। हरि तजि किमपि प्रयोजन नाहीं॥
प्रभु जानत सब बिनहिं जनाए। कहहु कवनि सिधि लोक रिझाएँ॥1॥

मूल

तातें गुपुत रहउँ जग माहीं। हरि तजि किमपि प्रयोजन नाहीं॥
प्रभु जानत सब बिनहिं जनाए। कहहु कवनि सिधि लोक रिझाएँ॥1॥

भावार्थ

(कपट-तपस्वी ने कहा-) इसी से मैं जगत में छिपकर रहता हूँ। श्री हरि को छोडकर किसी से कुछ भी प्रयोजन नहीं रखता। प्रभु तो बिना जनाए ही सब जानते हैं। फिर कहो संसार को रिझाने से क्या सिद्धि मिलेगी॥1॥

तुम्ह सुचि सुमति परम प्रिय मोरें। प्रीति प्रतीति मोहि पर तोरें॥
अब जौं तात दुरावउँ तोही। दारुन दोष घटइ अति मोही॥2॥

मूल

तुम्ह सुचि सुमति परम प्रिय मोरें। प्रीति प्रतीति मोहि पर तोरें॥
अब जौं तात दुरावउँ तोही। दारुन दोष घटइ अति मोही॥2॥

भावार्थ

तुम पवित्र और सुन्दर बुद्धि वाले हो, इससे मुझे बहुत ही प्यारे हो और तुम्हारी भी मुझ पर प्रीति और विश्वास है। हे तात! अब यदि मैं तुमसे कुछ छिपाता हूँ, तो मुझे बहुत ही भयानक दोष लगेगा॥2॥

जिमि जिमि तापसु कथइ उदासा। तिमि तिमि नृपहि उपज बिस्वासा॥
देखा स्वबस कर्म मन बानी। तब बोला तापस बगध्यानी॥3॥

मूल

जिमि जिमि तापसु कथइ उदासा। तिमि तिमि नृपहि उपज बिस्वासा॥
देखा स्वबस कर्म मन बानी। तब बोला तापस बगध्यानी॥3॥

भावार्थ

ज्यों-ज्यों वह तपस्वी उदासीनता की बातें कहता था, त्यों ही त्यों राजा को विश्वास उत्पन्न होता जाता था। जब उस बगुले की तरह ध्यान लगाने वाले (कपटी) मुनि ने राजा को कर्म, मन और वचन से अपने वश में जाना, तब वह बोला- ॥3॥

नाम हमार एकतनु भाई। सुनि नृप बोलेउ पुनि सिरु नाई॥
कहहु नाम कर अरथ बखानी। मोहि सेवक अति आपन जानी॥4॥

मूल

नाम हमार एकतनु भाई। सुनि नृप बोलेउ पुनि सिरु नाई॥
कहहु नाम कर अरथ बखानी। मोहि सेवक अति आपन जानी॥4॥

भावार्थ

हे भाई! हमारा नाम एकतनु है। यह सुनकर राजा ने फिर सिर नवाकर कहा- मुझे अपना अत्यन्त (अनुरागी) सेवक जानकर अपने नाम का अर्थ समझाकर कहिए॥4॥

162

01 दोहा

आदिसृष्टि उपजी जबहिं तब उतपति भै मोरि।
नाम एकतनु हेतु तेहि देह न धरी बहोरि॥162॥

मूल

आदिसृष्टि उपजी जबहिं तब उतपति भै मोरि।
नाम एकतनु हेतु तेहि देह न धरी बहोरि॥162॥

भावार्थ

(कपटी मुनि ने कहा-) जब सबसे पहले सृष्टि उत्पन्न हुई थी, तभी मेरी उत्पत्ति हुई थी। तबसे मैन्ने फिर दूसरी देह नहीं धारण की, इसी से मेरा नाम एकतनु है॥162॥

02 चौपाई

जनि आचरजु करहु मन माहीं। सुत तप तें दुर्लभ कछु नाहीं॥
तप बल तें जग सृजइ बिधाता। तप बल बिष्नु भए परित्राता॥1॥

मूल

जनि आचरजु करहु मन माहीं। सुत तप तें दुर्लभ कछु नाहीं॥
तप बल तें जग सृजइ बिधाता। तप बल बिष्नु भए परित्राता॥1॥

भावार्थ

हे पुत्र! मन में आश्चर्य मत करो, तप से कुछ भी दुर्लभ नहीं है, तप के बल से ब्रह्मा जगत को रचते हैं। तप के ही बल से विष्णु संसार का पालन करने वाले बने हैं॥1॥

तपबल सम्भु करहिं सङ्घारा। तप तें अगम न कछु संसारा॥
भयउ नृपहि सुनि अति अनुरागा। कथा पुरातन कहै सो लागा॥2॥

मूल

तपबल सम्भु करहिं सङ्घारा। तप तें अगम न कछु संसारा॥
भयउ नृपहि सुनि अति अनुरागा। कथा पुरातन कहै सो लागा॥2॥

भावार्थ

तप ही के बल से रुद्र संहार करते हैं। संसार में कोई ऐसी वस्तु नहीं जो तप से न मिल सके। यह सुनकर राजा को बडा अनुराग हुआ। तब वह (तपस्वी) पुरानी कथाएँ कहने लगा॥2॥

करम धरम इतिहास अनेका। करइ निरूपन बिरति बिबेका॥
उदभव पालन प्रलय कहानी। कहेसि अमित आचरज बखानी॥3॥

मूल

करम धरम इतिहास अनेका। करइ निरूपन बिरति बिबेका॥
उदभव पालन प्रलय कहानी। कहेसि अमित आचरज बखानी॥3॥

भावार्थ

कर्म, धर्म और अनेकों प्रकार के इतिहास कहकर वह वैराग्य और ज्ञान का निरूपण करने लगा। सृष्टि की उत्पत्ति, पालन (स्थिति) और संहार (प्रलय) की अपार आश्चर्यभरी कथाएँ उसने विस्तार से कही॥3॥

सुनि महीप तापस बस भयऊ। आपन नाम कहन तब लयउ॥
कह तापस नृप जानउँ तोही। कीन्हेहु कपट लाग भल मोही॥4॥

मूल

सुनि महीप तापस बस भयऊ। आपन नाम कहन तब लयउ॥
कह तापस नृप जानउँ तोही। कीन्हेहु कपट लाग भल मोही॥4॥

भावार्थ

राजा सुनकर उस तपस्वी के वश में हो गया और तब वह उसे अपना नाम बताने लगा। तपस्वी ने कहा- राजन ! मैं तुमको जानता हूँ। तुमने कपट किया, वह मुझे अच्छा लगा॥4॥

163

01 सोरठा

सुनु महीस असि नीति जहँ तहँ नाम न कहहिं नृप।
मोहि तोहि पर अति प्रीति सोइ चतुरता बिचारि तव॥163॥

मूल

सुनु महीस असि नीति जहँ तहँ नाम न कहहिं नृप।
मोहि तोहि पर अति प्रीति सोइ चतुरता बिचारि तव॥163॥

भावार्थ

हे राजन्‌! सुनो, ऐसी नीति है कि राजा लोग जहाँ-तहाँ अपना नाम नहीं कहते। तुम्हारी वही चतुराई समझकर तुम पर मेरा बडा प्रेम हो गया है॥163॥

02 चौपाई

नाम तुम्हार प्रताप दिनेसा। सत्यकेतु तव पिता नरेसा॥
गुर प्रसाद सब जानिअ राजा। कहिअ न आपन जानि अकाजा॥1॥

मूल

नाम तुम्हार प्रताप दिनेसा। सत्यकेतु तव पिता नरेसा॥
गुर प्रसाद सब जानिअ राजा। कहिअ न आपन जानि अकाजा॥1॥

भावार्थ

तुम्हारा नाम प्रतापभानु है, महाराज सत्यकेतु तुम्हारे पिता थे। हे राजन्‌! गुरु की कृपा से मैं सब जानता हूँ, पर अपनी हानि समझकर कहता नहीं॥1॥

देखि तात तव सहज सुधाई। प्रीति प्रतीति नीति निपुनाई॥
उपजि परी ममता मन मोरें। कहउँ कथा निज पूछे तोरें॥2॥

मूल

देखि तात तव सहज सुधाई। प्रीति प्रतीति नीति निपुनाई॥
उपजि परी ममता मन मोरें। कहउँ कथा निज पूछे तोरें॥2॥

भावार्थ

हे तात! तुम्हारा स्वाभाविक सीधापन (सरलता), प्रेम, विश्वास और नीति में निपुणता देखकर मेरे मन में तुम्हारे ऊपर बडी ममता उत्पन्न हो गई है, इसीलिए मैं तुम्हारे पूछने पर अपनी कथा कहता हूँ॥2॥

अब प्रसन्न मैं संसय नाहीं। मागु जो भूप भाव मन माहीं॥
सुनि सुबचन भूपति हरषाना। गहि पद बिनय कीन्हि बिधि नाना॥3॥

मूल

अब प्रसन्न मैं संसय नाहीं। मागु जो भूप भाव मन माहीं॥
सुनि सुबचन भूपति हरषाना। गहि पद बिनय कीन्हि बिधि नाना॥3॥

भावार्थ

अब मैं प्रसन्न हूँ, इसमें सन्देह न करना। हे राजन्‌! जो मन को भावे वही माँग लो। सुन्दर (प्रिय) वचन सुनकर राजा हर्षित हो गया और (मुनि के) पैर पकडकर उसने बहुत प्रकार से विनती की॥3॥

कृपासिन्धु मुनि दरसन तोरें। चारि पदारथ करतल मोरें॥
प्रभुहि तथापि प्रसन्न बिलोकी। मागि अगम बर होउँ असोकी॥4॥

मूल

कृपासिन्धु मुनि दरसन तोरें। चारि पदारथ करतल मोरें॥
प्रभुहि तथापि प्रसन्न बिलोकी। मागि अगम बर होउँ असोकी॥4॥

भावार्थ

हे दयासागर मुनि! आपके दर्शन से ही चारों पदार्थ (अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष) मेरी मुट्ठी में आ गए। तो भी स्वामी को प्रसन्न देखकर मैं यह दुर्लभ वर माँगकर (क्यों न) शोकरहित हो जाऊँ॥4॥

164

01 दोहा

जरा मरन दुख रहित तनु समर जितै जनि कोउ।
एकछत्र रिपुहीन महि राज कलप सत होउ॥164॥

मूल

जरा मरन दुख रहित तनु समर जितै जनि कोउ।
एकछत्र रिपुहीन महि राज कलप सत होउ॥164॥

भावार्थ

मेरा शरीर वृद्धावस्था, मृत्यु और दुःख से रहित हो जाए, मुझे युद्ध में कोई जीत न सके और पृथ्वी पर मेरा सौ कल्पतक एकछत्र अकण्टक राज्य हो॥164॥

02 चौपाई

कह तापस नृप ऐसेइ होऊ। कारन एक कठिन सुनु सोऊ॥
कालउ तुअ पद नाइहि सीसा। एक बिप्रकुल छाडि महीसा॥1॥

मूल

कह तापस नृप ऐसेइ होऊ। कारन एक कठिन सुनु सोऊ॥
कालउ तुअ पद नाइहि सीसा। एक बिप्रकुल छाडि महीसा॥1॥

भावार्थ

तपस्वी ने कहा- हे राजन्‌! ऐसा ही हो, पर एक बात कठिन है, उसे भी सुन लो। हे पृथ्वी के स्वामी! केवल ब्राह्मण कुल को छोड काल भी तुम्हारे चरणों पर सिर नवाएगा॥1॥

तपबल बिप्र सदा बरिआरा। तिन्ह के कोप न कोउ रखवारा॥
जौं बिप्रन्ह बस करहु नरेसा। तौ तुअ बस बिधि बिष्नु महेसा॥2॥

मूल

तपबल बिप्र सदा बरिआरा। तिन्ह के कोप न कोउ रखवारा॥
जौं बिप्रन्ह बस करहु नरेसा। तौ तुअ बस बिधि बिष्नु महेसा॥2॥

भावार्थ

तप के बल से ब्राह्मण सदा बलवान रहते हैं। उनके क्रोध से रक्षा करने वाला कोई नहीं है। हे नरपति! यदि तुम ब्राह्मणों को वश में कर लो, तो ब्रह्मा, विष्णु और महेश भी तुम्हारे अधीन हो जाएँगे॥2॥

चल न ब्रह्मकुल सन बरिआई। सत्य कहउँ दोउ भुजा उठाई॥
बिप्र श्राप बिनु सुनु महिपाला। तोर नास नहिं कवनेहुँ काला॥3॥

मूल

चल न ब्रह्मकुल सन बरिआई। सत्य कहउँ दोउ भुजा उठाई॥
बिप्र श्राप बिनु सुनु महिपाला। तोर नास नहिं कवनेहुँ काला॥3॥

भावार्थ

ब्राह्मण कुल से जोर जबर्दस्ती नहीं चल सकती, मैं दोनों भुजा उठाकर सत्य कहता हूँ। हे राजन्‌! सुनो, ब्राह्मणों के शाप बिना तुम्हारा नाश किसी काल में नहीं होगा॥3॥

हरषेउ राउ बचन सुनि तासू। नाथ न होइ मोर अब नासू॥
तव प्रसाद प्रभु कृपानिधाना। मो कहुँ सर्बकाल कल्याना॥4॥

मूल

हरषेउ राउ बचन सुनि तासू। नाथ न होइ मोर अब नासू॥
तव प्रसाद प्रभु कृपानिधाना। मो कहुँ सर्बकाल कल्याना॥4॥

भावार्थ

राजा उसके वचन सुनकर बडा प्रसन्न हुआ और कहने लगा- हे स्वामी! मेरा नाश अब नहीं होगा। हे कृपानिधान प्रभु! आपकी कृपा से मेरा सब समय कल्याण होगा॥4॥

165

01 दोहा

एवमस्तु कहि कपट मुनि बोला कुटिल बहोरि।
मिलब हमार भुलाब निज कहहु त हमहि न खोरि॥165॥

मूल

एवमस्तु कहि कपट मुनि बोला कुटिल बहोरि।
मिलब हमार भुलाब निज कहहु त हमहि न खोरि॥165॥

भावार्थ

‘एवमस्तु’ (ऐसा ही हो) कहकर वह कुटिल कपटी मुनि फिर बोला- (किन्तु) तुम मेरे मिलने तथा अपने राह भूल जाने की बात किसी से (कहना नहीं, यदि) कह दोगे, तो हमारा दोष नहीं॥165॥

02 चौपाई

तातें मैं तोहि बरजउँ राजा। कहें कथा तव परम अकाजा॥
छठें श्रवन यह परत कहानी। नास तुम्हार सत्य मम बानी॥1॥

मूल

तातें मैं तोहि बरजउँ राजा। कहें कथा तव परम अकाजा॥
छठें श्रवन यह परत कहानी। नास तुम्हार सत्य मम बानी॥1॥

भावार्थ

हे राजन्‌! मैं तुमको इसलिए मना करता हूँ कि इस प्रसङ्ग को कहने से तुम्हारी बडी हानि होगी। छठे कान में यह बात पडते ही तुम्हारा नाश हो जाएगा, मेरा यह वचन सत्य जानना॥1॥

यह प्रगटें अथवा द्विजश्रापा। नास तोर सुनु भानुप्रतापा॥
आन उपायँ निधन तव नाहीं। जौं हरि हर कोपहिं मन माहीं॥2॥

मूल

यह प्रगटें अथवा द्विजश्रापा। नास तोर सुनु भानुप्रतापा॥
आन उपायँ निधन तव नाहीं। जौं हरि हर कोपहिं मन माहीं॥2॥

भावार्थ

हे प्रतापभानु! सुनो, इस बात के प्रकट करने से अथवा ब्राह्मणों के शाप से तुम्हारा नाश होगा और किसी उपाय से, चाहे ब्रह्मा और शङ्कर भी मन में क्रोध करें, तुम्हारी मृत्यु नहीं होगी॥2॥

सत्य नाथ पद गहि नृप भाषा। द्विज गुर कोप कहहु को राखा॥
राखइ गुर जौं कोप बिधाता। गुर बिरोध नहिं कोउ जग त्राता॥3॥

मूल

सत्य नाथ पद गहि नृप भाषा। द्विज गुर कोप कहहु को राखा॥
राखइ गुर जौं कोप बिधाता। गुर बिरोध नहिं कोउ जग त्राता॥3॥

भावार्थ

राजा ने मुनि के चरण पकडकर कहा- हे स्वामी! सत्य ही है। ब्राह्मण और गुरु के क्रोध से, कहिए, कौन रक्षा कर सकता है? यदि ब्रह्मा भी क्रोध करें, तो गुरु बचा लेते हैं, पर गुरु से विरोध करने पर जगत में कोई भी बचाने वाला नहीं है॥3॥

जौं न चलब हम कहे तुम्हारें। होउ नास नहिं सोच हमारें॥
एकहिं डर डरपत मन मोरा। प्रभु महिदेव श्राप अति घोरा॥4॥

मूल

जौं न चलब हम कहे तुम्हारें। होउ नास नहिं सोच हमारें॥
एकहिं डर डरपत मन मोरा। प्रभु महिदेव श्राप अति घोरा॥4॥

भावार्थ

यदि मैं आपके कथन के अनुसार नहीं चलूँगा, तो (भले ही) मेरा नाश हो जाए। मुझे इसकी चिन्ता नहीं है। मेरा मन तो हे प्रभो! (केवल) एक ही डर से डर रहा है कि ब्राह्मणों का शाप बडा भयानक होता है॥4॥

166

01 दोहा

होहिं बिप्र बस कवन बिधि कहहु कृपा करि सोउ।
तुम्ह तजि दीनदयाल निज हितू न देखउँ कोउ॥166॥

मूल

होहिं बिप्र बस कवन बिधि कहहु कृपा करि सोउ।
तुम्ह तजि दीनदयाल निज हितू न देखउँ कोउ॥166॥

भावार्थ

वे ब्राह्मण किस प्रकार से वश में हो सकते हैं, कृपा करके वह भी बताइए। हे दीनदयालु! आपको छोडकर और किसी को मैं अपना हितू नहीं देखता॥166॥

02 चौपाई

सुनु नृप बिबिध जतन जग माहीं। कष्टसाध्य पुनि होहिं कि नाहीं॥
अहइ एक अति सुगम उपाई। तहाँ परन्तु एक कठिनाई॥1॥

मूल

सुनु नृप बिबिध जतन जग माहीं। कष्टसाध्य पुनि होहिं कि नाहीं॥
अहइ एक अति सुगम उपाई। तहाँ परन्तु एक कठिनाई॥1॥

भावार्थ

(तपस्वी ने कहा-) हे राजन्‌ !सुनो, संसार में उपाय तो बहुत हैं, पर वे कष्ट साध्य हैं (बडी कठिनता से बनने में आते हैं) और इस पर भी सिद्ध हों या न हों (उनकी सफलता निश्चित नहीं है) हाँ, एक उपाय बहुत सहज है, परन्तु उसमें भी एक कठिनता है॥1॥

मम आधीन जुगुति नृप सोई। मोर जाब तव नगर न होई॥
आजु लगें अरु जब तें भयऊँ। काहू के गृह ग्राम न गयऊँ॥2॥

मूल

मम आधीन जुगुति नृप सोई। मोर जाब तव नगर न होई॥
आजु लगें अरु जब तें भयऊँ। काहू के गृह ग्राम न गयऊँ॥2॥

भावार्थ

हे राजन्‌! वह युक्ति तो मेरे हाथ है, पर मेरा जाना तुम्हारे नगर में हो नहीं सकता। जब से पैदा हुआ हूँ, तब से आज तक मैं किसी के घर अथवा गाँव नहीं गया॥2॥

जौं न जाउँ तव होइ अकाजू। बना आइ असमञ्जस आजू॥
सुनि महीस बोलेउ मृदु बानी। नाथ निगम असि नीति बखानी॥3॥

मूल

जौं न जाउँ तव होइ अकाजू। बना आइ असमञ्जस आजू॥
सुनि महीस बोलेउ मृदु बानी। नाथ निगम असि नीति बखानी॥3॥

भावार्थ

परन्तु यदि नहीं जाता हूँ, तो तुम्हारा काम बिगडता है। आज यह बडा असमञ्जस आ पडा है। यह सुनकर राजा कोमल वाणी से बोला, हे नाथ! वेदों में ऐसी नीति कही है कि- ॥3॥

बडे सनेह लघुन्ह पर करहीं। गिरि निज सिरनि सदा तृन धरहीं॥
जलधि अगाध मौलि बह फेनू। सन्तत धरनि धरत सिर रेनू॥4॥

मूल

बडे सनेह लघुन्ह पर करहीं। गिरि निज सिरनि सदा तृन धरहीं॥
जलधि अगाध मौलि बह फेनू। सन्तत धरनि धरत सिर रेनू॥4॥

भावार्थ

बडे लोग छोटों पर स्नेह करते ही हैं। पर्वत अपने सिरों पर सदा तृण (घास) को धारण किए रहते हैं। अगाध समुद्र अपने मस्तक पर फेन को धारण करता है और धरती अपने सिर पर सदा धूलि को धारण किए रहती है॥4॥

167

01 दोहा

अस कहि गहे नरेस पद स्वामी होहु कृपाल।
मोहि लागि दुख सहिअ प्रभु सज्जन दीनदयाल॥167॥

मूल

अस कहि गहे नरेस पद स्वामी होहु कृपाल।
मोहि लागि दुख सहिअ प्रभु सज्जन दीनदयाल॥167॥

भावार्थ

ऐसा कहकर राजा ने मुनि के चरण पकड लिए। (और कहा-) हे स्वामी! कृपा कीजिए। आप सन्त हैं। दीनदयालु हैं। (अतः) हे प्रभो! मेरे लिए इतना कष्ट (अवश्य) सहिए॥167॥

02 चौपाई

जानि नृपहि आपन आधीना। बोला तापस कपट प्रबीना॥
सत्य कहउँ भूपति सुनु तोही। जग नाहिन दुर्लभ कछु मोही॥1॥

मूल

जानि नृपहि आपन आधीना। बोला तापस कपट प्रबीना॥
सत्य कहउँ भूपति सुनु तोही। जग नाहिन दुर्लभ कछु मोही॥1॥

भावार्थ

राजा को अपने अधीन जानकर कपट में प्रवीण तपस्वी बोला- हे राजन्‌! सुनो, मैं तुमसे सत्य कहता हूँ, जगत में मुझे कुछ भी दुर्लभ नहीं है॥1॥

अवसि काज मैं करिहउँ तोरा। मन तन बचन भगत तैं मोरा॥
जोग जुगुति तप मन्त्र प्रभाऊ। फलइ तबहिं जब करिअ दुराऊ॥2॥

मूल

अवसि काज मैं करिहउँ तोरा। मन तन बचन भगत तैं मोरा॥
जोग जुगुति तप मन्त्र प्रभाऊ। फलइ तबहिं जब करिअ दुराऊ॥2॥

भावार्थ

मैं तुम्हारा काम अवश्य करूँगा, (क्योङ्कि) तुम, मन, वाणी और शरीर (तीनों) से मेरे भक्त हो। पर योग, युक्ति, तप और मन्त्रों का प्रभाव तभी फलीभूत होता है जब वे छिपाकर किए जाते हैं॥2॥

जौं नरेस मैं करौं रसोई। तुम्ह परुसहु मोहि जान न कोई॥
अन्न सो जोइ जोइ भोजन करई। सोइ सोइ तव आयसु अनुसरई॥3॥

मूल

जौं नरेस मैं करौं रसोई। तुम्ह परुसहु मोहि जान न कोई॥
अन्न सो जोइ जोइ भोजन करई। सोइ सोइ तव आयसु अनुसरई॥3॥

भावार्थ

हे नरपति! मैं यदि रसोई बनाऊँ और तुम उसे परोसो और मुझे कोई जानने न पावे, तो उस अन्न को जो-जो खाएगा, सो-सो तुम्हारा आज्ञाकारी बन जाएगा॥3॥

पुनि तिन्ह के गृह जेवँइ जोऊ। तव बस होइ भूप सुनु सोऊ॥
जाइ उपाय रचहु नृप एहू। सम्बत भरि सङ्कलप करेहू॥4॥

मूल

पुनि तिन्ह के गृह जेवँइ जोऊ। तव बस होइ भूप सुनु सोऊ॥
जाइ उपाय रचहु नृप एहू। सम्बत भरि सङ्कलप करेहू॥4॥

भावार्थ

यही नहीं, उन (भोजन करने वालों) के घर भी जो कोई भोजन करेगा, हे राजन्‌! सुनो, वह भी तुम्हारे अधीन हो जाएगा। हे राजन्‌! जाकर यही उपाय करो और वर्षभर (भोजन कराने) का सङ्कल्प कर लेना॥4॥

168

01 दोहा

नित नूतन द्विज सहस सत बरेहु सहित परिवार।
मैं तुम्हरे सङ्कलप लगि दिनहिं करबि जेवनार॥168॥

मूल

नित नूतन द्विज सहस सत बरेहु सहित परिवार।
मैं तुम्हरे सङ्कलप लगि दिनहिं करबि जेवनार॥168॥

भावार्थ

नित्य नए एक लाख ब्राह्मणों को कुटुम्ब सहित निमन्त्रित करना। मैं तुम्हारे सकंल्प (के काल अर्थात एक वर्ष) तक प्रतिदिन भोजन बना दिया करूँगा॥168॥

02 चौपाई

एहि बिधि भूप कष्ट अति थोरें। होइहहिं सकल बिप्र बस तोरें॥
करिहहिं बिप्र होममख सेवा। तेहिं प्रसङ्ग सहजेहिं बस देवा॥1॥

मूल

एहि बिधि भूप कष्ट अति थोरें। होइहहिं सकल बिप्र बस तोरें॥
करिहहिं बिप्र होममख सेवा। तेहिं प्रसङ्ग सहजेहिं बस देवा॥1॥

भावार्थ

हे राजन्‌! इस प्रकार बहुत ही थोडे परिश्रम से सब ब्राह्मण तुम्हारे वश में हो जाएँगे। ब्राह्मण हवन, यज्ञ और सेवा-पूजा करेङ्गे, तो उस प्रसङ्ग (सम्बन्ध) से देवता भी सहज ही वश में हो जाएँगे॥1॥

और एक तोहि कहउँ लखाऊ। मैं एहिं बेष न आउब काऊ॥
तुम्हरे उपरोहित कहुँ राया। हरि आनब मैं करि निज माया॥2॥

मूल

और एक तोहि कहउँ लखाऊ। मैं एहिं बेष न आउब काऊ॥
तुम्हरे उपरोहित कहुँ राया। हरि आनब मैं करि निज माया॥2॥

भावार्थ

मैं एक और पहचान तुमको बताए देता हूँ कि मैं इस रूप में कभी न आऊँगा। हे राजन्‌! मैं अपनी माया से तुम्हारे पुरोहित को हर लाऊँगा॥2॥\

तपबल तेहि करि आपु समाना। रखिहउँ इहाँ बरष परवाना॥
मैं धरि तासु बेषु सुनु राजा। सब बिधि तोर सँवारब काजा॥3॥

मूल

तपबल तेहि करि आपु समाना। रखिहउँ इहाँ बरष परवाना॥
मैं धरि तासु बेषु सुनु राजा। सब बिधि तोर सँवारब काजा॥3॥

भावार्थ

तप के बल से उसे अपने समान बनाकर एक वर्ष यहाँ रखूँगा और हे राजन्‌! सुनो, मैं उसका रूप बनाकर सब प्रकार से तुम्हारा काम सिद्ध करूँगा॥3॥

गै निसि बहुत सयन अब कीजे। मोहि तोहि भूप भेण्ट दिन तीजे॥
मैं तपबल तोहि तुरग समेता। पहुँचैहउँ सोवतहि निकेता॥4॥

मूल

गै निसि बहुत सयन अब कीजे। मोहि तोहि भूप भेण्ट दिन तीजे॥
मैं तपबल तोहि तुरग समेता। पहुँचैहउँ सोवतहि निकेता॥4॥

भावार्थ

हे राजन्‌! रात बहुत बीत गई, अब सो जाओ। आज से तीसरे दिन मुझसे तुम्हारी भेण्ट होगी। तप के बल से मैं घोडे सहित तुमको सोते ही में घर पहुँचा दूँगा॥4॥

169

01 दोहा

मैं आउब सोइ बेषु धरि पहिचानेहु तब मोहि।
जब एकान्त बोलाइ सब कथा सुनावौं तोहि॥169॥

मूल

मैं आउब सोइ बेषु धरि पहिचानेहु तब मोहि।
जब एकान्त बोलाइ सब कथा सुनावौं तोहि॥169॥

भावार्थ

मैं वही (पुरोहित का) वेश धरकर आऊँगा। जब एकान्त में तुमको बुलाकर सब कथा सुनाऊँगा, तब तुम मुझे पहचान लेना॥169॥

02 चौपाई

सयन कीन्ह नृप आयसु मानी। आसन जाइ बैठ छलग्यानी॥
श्रमित भूप निद्रा अति आई। सो किमि सोव सोच अधिकाई॥1॥

मूल

सयन कीन्ह नृप आयसु मानी। आसन जाइ बैठ छलग्यानी॥
श्रमित भूप निद्रा अति आई। सो किमि सोव सोच अधिकाई॥1॥

भावार्थ

राजा ने आज्ञा मानकर शयन किया और वह कपट-ज्ञानी आसन पर जा बैठा। राजा थका था, (उसे) खूब (गहरी) नीन्द आ गई। पर वह कपटी कैसे सोता। उसे तो बहुत चिन्ता हो रही थी॥1॥

कालकेतु निसिचर तहँ आवा। जेहिं सूकर होइ नृपहि भुलावा॥
परम मित्र तापस नृप केरा। जानइ सो अति कपट घनेरा॥2॥

मूल

कालकेतु निसिचर तहँ आवा। जेहिं सूकर होइ नृपहि भुलावा॥
परम मित्र तापस नृप केरा। जानइ सो अति कपट घनेरा॥2॥

भावार्थ

(उसी समय) वहाँ कालकेतु राक्षस आया, जिसने सूअर बनकर राजा को भटकाया था। वह तपस्वी राजा का बडा मित्र था और खूब छल-प्रपञ्च जानता था॥2॥

तेहि के सत सुत अरु दस भाई। खल अति अजय देव दुखदाई॥
प्रथमहिं भूप समर सब मारे। बिप्र सन्त सुर देखि दुखारे॥3॥

मूल

तेहि के सत सुत अरु दस भाई। खल अति अजय देव दुखदाई॥
प्रथमहिं भूप समर सब मारे। बिप्र सन्त सुर देखि दुखारे॥3॥

भावार्थ

उसके सौ पुत्र और दस भाई थे, जो बडे ही दुष्ट, किसी से न जीते जाने वाले और देवताओं को दुःख देने वाले थे। ब्राह्मणों, सन्तों और देवताओं को दुःखी देखकर राजा ने उन सबको पहले ही युद्ध में मार डाला था॥3॥

तेहिं खल पाछिल बयरु सँभारा। तापस नृप मिलि मन्त्र बिचारा॥
जेहिं रिपु छय सोइ रचेन्हि उपाऊ। भावी बस न जान कछु राऊ॥4॥

मूल

तेहिं खल पाछिल बयरु सँभारा। तापस नृप मिलि मन्त्र बिचारा॥
जेहिं रिपु छय सोइ रचेन्हि उपाऊ। भावी बस न जान कछु राऊ॥4॥

भावार्थ

उस दुष्ट ने पिछला बैर याद करके तपस्वी राजा से मिलकर सलाह विचारी (षड्यन्त्र किया) और जिस प्रकार शत्रु का नाश हो, वही उपाय रचा। भावीवश राजा (प्रतापभानु) कुछ भी न समझ सका॥4॥

170

01 दोहा

रिपु तेजसी अकेल अपि लघु करि गनिअ न ताहु।
अजहुँ देत दुख रबि ससिहि सिर अवसेषित राहु॥170॥

मूल

रिपु तेजसी अकेल अपि लघु करि गनिअ न ताहु।
अजहुँ देत दुख रबि ससिहि सिर अवसेषित राहु॥170॥

भावार्थ

तेजस्वी शत्रु अकेला भी हो तो भी उसे छोटा नहीं समझना चाहिए। जिसका सिर मात्र बचा था, वह राहु आज तक सूर्य-चन्द्रमा को दुःख देता है॥170॥

तापस नृप निज सखहि निहारी। हरषि मिलेउ उठि भयउ सुखारी॥
मित्रहि कहि सब कथा सुनाई। जातुधान बोला सुख पाई॥1॥

मूल

तापस नृप निज सखहि निहारी। हरषि मिलेउ उठि भयउ सुखारी॥
मित्रहि कहि सब कथा सुनाई। जातुधान बोला सुख पाई॥1॥

भावार्थ

तपस्वी राजा अपने मित्र को देख प्रसन्न हो उठकर मिला और सुखी हुआ। उसने मित्र को सब कथा कह सुनाई, तब राक्षस आनन्दित होकर बोला॥1॥

अब साधेउँ रिपु सुनहु नरेसा। जौं तुम्ह कीन्ह मोर उपदेसा॥
परिहरि सोच रहहु तुम्ह सोई। बिनु औषध बिआधि बिधि खोई॥2॥

मूल

अब साधेउँ रिपु सुनहु नरेसा। जौं तुम्ह कीन्ह मोर उपदेसा॥
परिहरि सोच रहहु तुम्ह सोई। बिनु औषध बिआधि बिधि खोई॥2॥

भावार्थ

हे राजन्‌! सुनो, जब तुमने मेरे कहने के अनुसार (इतना) काम कर लिया, तो अब मैन्ने शत्रु को काबू में कर ही लिया (समझो)। तुम अब चिन्ता त्याग सो रहो। विधाता ने बिना ही दवा के रोग दूर कर दिया॥2॥

कुल समेत रिपु मूल बहाई। चौथें दिवस मिलब मैं आई॥
तापस नृपहि बहुत परितोषी। चला महाकपटी अतिरोषी॥3॥

मूल

कुल समेत रिपु मूल बहाई। चौथें दिवस मिलब मैं आई॥
तापस नृपहि बहुत परितोषी। चला महाकपटी अतिरोषी॥3॥

भावार्थ

कुल सहित शत्रु को जड-मूल से उखाड-बहाकर, (आज से) चौथे दिन मैं तुमसे आ मिलूँगा। (इस प्रकार) तपस्वी राजा को खूब दिलासा देकर वह महामायावी और अत्यन्त क्रोधी राक्षस चला॥3॥

भानुप्रतापहि बाजि समेता। पहुँचाएसि छन माझ निकेता॥
नृपहि नारि पहिं सयन कराई। हयगृहँ बाँधेसि बाजि बनाई॥4॥

मूल

भानुप्रतापहि बाजि समेता। पहुँचाएसि छन माझ निकेता॥
नृपहि नारि पहिं सयन कराई। हयगृहँ बाँधेसि बाजि बनाई॥4॥

भावार्थ

उसने प्रतापभानु राजा को घोडे सहित क्षणभर में घर पहुँचा दिया। राजा को रानी के पास सुलाकर घोडे को अच्छी तरह से घुडसाल में बाँध दिया॥4॥

171

01 दोहा

राजा के उपरोहितहि हरि लै गयउ बहोरि।
लै राखेसि गिरि खोह महुँ मायाँ करि मति भोरि॥171॥

मूल

राजा के उपरोहितहि हरि लै गयउ बहोरि।
लै राखेसि गिरि खोह महुँ मायाँ करि मति भोरि॥171॥

भावार्थ

फिर वह राजा के पुरोहित को उठा ले गया और माया से उसकी बुद्धि को भ्रम में डालकर उसे उसने पहाड की खोह में ला रखा॥171॥

02 चौपाई

आपु बिरचि उपरोहित रूपा। परेउ जाइ तेहि सेज अनूपा॥
जागेउ नृप अनभएँ बिहाना। देखि भवन अति अचरजु माना॥1॥

मूल

आपु बिरचि उपरोहित रूपा। परेउ जाइ तेहि सेज अनूपा॥
जागेउ नृप अनभएँ बिहाना। देखि भवन अति अचरजु माना॥1॥

भावार्थ

वह आप पुरोहित का रूप बनाकर उसकी सुन्दर सेज पर जा लेटा। राजा सबेरा होने से पहले ही जागा और अपना घर देखकर उसने बडा ही आश्चर्य माना॥1॥

मुनि महिमा मन महुँ अनुमानी। उठेउ गवँहिं जेहिं जान न रानी॥
कानन गयउ बाजि चढि तेहीं। पुर नर नारि न जानेउ केहीं॥2॥

मूल

मुनि महिमा मन महुँ अनुमानी। उठेउ गवँहिं जेहिं जान न रानी॥
कानन गयउ बाजि चढि तेहीं। पुर नर नारि न जानेउ केहीं॥2॥

भावार्थ

मन में मुनि की महिमा का अनुमान करके वह धीरे से उठा, जिसमें रानी न जान पावे। फिर उसी घोडे पर चढकर वन को चला गया। नगर के किसी भी स्त्री-पुरुष ने नहीं जाना॥2॥

गएँ जाम जुग भूपति आवा। घर घर उत्सव बाज बधावा॥
उपरोहितहि देख जब राजा। चकित बिलोक सुमिरि सोइ काजा॥3॥

मूल

गएँ जाम जुग भूपति आवा। घर घर उत्सव बाज बधावा॥
उपरोहितहि देख जब राजा। चकित बिलोक सुमिरि सोइ काजा॥3॥

भावार्थ

दो पहर बीत जाने पर राजा आया। घर-घर उत्सव होने लगे और बधावा बजने लगा। जब राजा ने पुरोहित को देखा, तब वह (अपने) उसी कार्य का स्मरणकर उसे आश्चर्य से देखने लगा॥3॥

जुग सम नृपहि गए दिन तीनी। कपटी मुनि पद रह मति लीनी॥
समय जान उपरोहित आवा। नृपहि मते सब कहि समुझावा॥4॥

मूल

जुग सम नृपहि गए दिन तीनी। कपटी मुनि पद रह मति लीनी॥
समय जान उपरोहित आवा। नृपहि मते सब कहि समुझावा॥4॥

भावार्थ

राजा को तीन दिन युग के समान बीते। उसकी बुद्धि कपटी मुनि के चरणों में लगी रही। निश्चित समय जानकर पुरोहित (बना हुआ राक्षस) आया और राजा के साथ की हुई गुप्त सलाह के अनुसार (उसने अपने) सब विचार उसे समझाकर कह दिए॥4॥

172

01 दोहा

नृप हरषेउ पहिचानि गुरु भ्रम बस रहा न चेत।
बरे तुरत सत सहस बर बिप्र कुटुम्ब समेत॥172॥

मूल

नृप हरषेउ पहिचानि गुरु भ्रम बस रहा न चेत।
बरे तुरत सत सहस बर बिप्र कुटुम्ब समेत॥172॥

भावार्थ

(सङ्केत के अनुसार) गुरु को (उस रूप में) पहचानकर राजा प्रसन्न हुआ। भ्रमवश उसे चेत न रहा (कि यह तापस मुनि है या कालकेतु राक्षस)। उसने तुरन्त एक लाख उत्तम ब्राह्मणों को कुटुम्ब सहित निमन्त्रण दे दिया॥172॥

02 चौपाई

उपरोहित जेवनार बनाई। छरस चारि बिधि जसि श्रुति गाई॥
मायामय तेहिं कीन्हि रसोई। बिञ्जन बहु गनि सकइ न कोई॥1॥

मूल

उपरोहित जेवनार बनाई। छरस चारि बिधि जसि श्रुति गाई॥
मायामय तेहिं कीन्हि रसोई। बिञ्जन बहु गनि सकइ न कोई॥1॥

भावार्थ

पुरोहित ने छह रस और चार प्रकार के भोजन, जैसा कि वेदों में वर्णन है, बनाए। उसने मायामयी रसोई तैयार की और इतने व्यञ्जन बनाए, जिन्हें कोई गिन नहीं सकता॥1॥

बिबिध मृगन्ह कर आमिष राँधा। तेहि महुँ बिप्र माँसु खल साँधा॥
भोजन कहुँ सब बिप्र बोलाए। पद पखारि सादर बैठाए॥2॥

मूल

बिबिध मृगन्ह कर आमिष राँधा। तेहि महुँ बिप्र माँसु खल साँधा॥
भोजन कहुँ सब बिप्र बोलाए। पद पखारि सादर बैठाए॥2॥

भावार्थ

अनेक प्रकार के पशुओं का मांस पकाया और उसमें उस दुष्ट ने ब्राह्मणों का मांस मिला दिया। सब ब्राह्मणों को भोजन के लिए बुलाया और चरण धोकर आदर सहित बैठाया॥2॥

परुसन जबहिं लाग महिपाला। भै अकासबानी तेहि काला॥
बिप्रबृन्द उठि उठि गृह जाहू। है बडि हानि अन्न जनि खाहू॥3॥

मूल

परुसन जबहिं लाग महिपाला। भै अकासबानी तेहि काला॥
बिप्रबृन्द उठि उठि गृह जाहू। है बडि हानि अन्न जनि खाहू॥3॥

भावार्थ

ज्यों ही राजा परोसने लगा, उसी काल (कालकेतुकृत) आकाशवाणी हुई- हे ब्राह्मणों! उठ-उठकर अपने घर जाओ, यह अन्न मत खाओ। इस (के खाने) में बडी हानि है॥3॥

भयउ रसोईं भूसुर माँसू। सब द्विज उठे मानि बिस्वासू॥
भूप बिकल मति मोहँ भुलानी। भावी बस न आव मुख बानी॥4॥

मूल

भयउ रसोईं भूसुर माँसू। सब द्विज उठे मानि बिस्वासू॥
भूप बिकल मति मोहँ भुलानी। भावी बस न आव मुख बानी॥4॥

भावार्थ

रसोई में ब्राह्मणों का मांस बना है। (आकाशवाणी का) विश्वास मानकर सब ब्राह्मण उठ खडे हुए। राजा व्याकुल हो गया (परन्तु), उसकी बुद्धि मोह में भूली हुई थी। होनहारवश उसके मुँह से (एक) बात (भी) न निकली॥4॥

173

01 दोहा

बोले बिप्र सकोप तब नहिं कछु कीन्ह बिचार।
जाइ निसाचर होहु नृप मूढ सहित परिवार॥173॥

मूल

बोले बिप्र सकोप तब नहिं कछु कीन्ह बिचार।
जाइ निसाचर होहु नृप मूढ सहित परिवार॥173॥

भावार्थ

तब ब्राह्मण क्रोध सहित बोल उठे- उन्होन्ने कुछ भी विचार नहीं किया- अरे मूर्ख राजा! तू जाकर परिवार सहित राक्षस हो॥173॥

02 चौपाई

छत्रबन्धु तैं बिप्र बोलाई। घालै लिए सहित समुदाई॥
ईश्वर राखा धरम हमारा। जैहसि तैं समेत परिवारा॥1॥

मूल

छत्रबन्धु तैं बिप्र बोलाई। घालै लिए सहित समुदाई॥
ईश्वर राखा धरम हमारा। जैहसि तैं समेत परिवारा॥1॥

भावार्थ

रे नीच क्षत्रिय! तूने तो परिवार सहित ब्राह्मणों को बुलाकर उन्हें नष्ट करना चाहा था, ईश्वर ने हमारे धर्म की रक्षा की। अब तू परिवार सहित नष्ट होगा॥1॥

सम्बत मध्य नास तव होऊ। जलदाता न रहिहि कुल कोऊ॥
नृप सुनि श्राप बिकल अति त्रासा। भै बहोरि बर गिरा अकासा॥2॥

मूल

सम्बत मध्य नास तव होऊ। जलदाता न रहिहि कुल कोऊ॥
नृप सुनि श्राप बिकल अति त्रासा। भै बहोरि बर गिरा अकासा॥2॥

भावार्थ

एक वर्ष के भीतर तेरा नाश हो जाए, तेरे कुल में कोई पानी देने वाला तक न रहेगा। शाप सुनकर राजा भय के मारे अत्यन्त व्याकुल हो गया। फिर सुन्दर आकाशवाणी हुई-॥2॥

बिप्रहु श्राप बिचारि न दीन्हा। नहिं अपराध भूप कछु कीन्हा॥
चकित बिप्र सब सुनि नभबानी। भूप गयउ जहँ भोजन खानी॥3॥

मूल

बिप्रहु श्राप बिचारि न दीन्हा। नहिं अपराध भूप कछु कीन्हा॥
चकित बिप्र सब सुनि नभबानी। भूप गयउ जहँ भोजन खानी॥3॥

भावार्थ

हे ब्राह्मणों! तुमने विचार कर शाप नहीं दिया। राजा ने कुछ भी अपराध नहीं किया। आकाशवाणी सुनकर सब ब्राह्मण चकित हो गए। तब राजा वहाँ गया, जहाँ भोजन बना था॥3॥

तहँ न असन नहिं बिप्र सुआरा। फिरेउ राउ मन सोच अपारा॥
सब प्रसङ्ग महिसुरन्ह सुनाई। त्रसित परेउ अवनीं अकुलाई॥4॥

मूल

तहँ न असन नहिं बिप्र सुआरा। फिरेउ राउ मन सोच अपारा॥
सब प्रसङ्ग महिसुरन्ह सुनाई। त्रसित परेउ अवनीं अकुलाई॥4॥

भावार्थ

(देखा तो) वहाँ न भोजन था, न रसोइया ब्राह्मण ही था। तब राजा मन में अपार चिन्ता करता हुआ लौटा। उसने ब्राह्मणों को सब वृत्तान्त सुनाया और (बडा ही) भयभीत और व्याकुल होकर वह पृथ्वी पर गिर पडा॥4॥

174

01 दोहा

भूपति भावी मिटइ नहिं जदपि न दूषन तोर।
किएँ अन्यथा दोइ नहिं बिप्रश्राप अति घोर॥174॥

मूल

भूपति भावी मिटइ नहिं जदपि न दूषन तोर।
किएँ अन्यथा दोइ नहिं बिप्रश्राप अति घोर॥174॥

भावार्थ

हे राजन! यद्यपि तुम्हारा दोष नहीं है, तो भी होनहार नहीं मिटता। ब्राह्मणों का शाप बहुत ही भयानक होता है, यह किसी तरह भी टाले टल नहीं सकता॥174॥

02 चौपाई

अस कहि सब महिदेव सिधाए। समाचार पुरलोगन्ह पाए॥
सोचहिं दूषन दैवहि देहीं। बिरचत हंस काग किए जेहीं॥1॥

मूल

अस कहि सब महिदेव सिधाए। समाचार पुरलोगन्ह पाए॥
सोचहिं दूषन दैवहि देहीं। बिरचत हंस काग किए जेहीं॥1॥

भावार्थ

ऐसा कहकर सब ब्राह्मण चले गए। नगरवासियों ने (जब) यह समाचार पाया, तो वे चिन्ता करने और विधाता को दोष देने लगे, जिसने हंस बनाते-बनाते कौआ कर दिया (ऐसे पुण्यात्मा राजा को देवता बनाना चाहिए था, सो राक्षस बना दिया)॥1॥

उपरोहितहि भवन पहुँचाई। असुर तापसहि खबरि जनाई॥
तेहिं खल जहँ तहँ पत्र पठाए। सजि सजि सेन भूप सब धाए॥2॥

मूल

उपरोहितहि भवन पहुँचाई। असुर तापसहि खबरि जनाई॥
तेहिं खल जहँ तहँ पत्र पठाए। सजि सजि सेन भूप सब धाए॥2॥

भावार्थ

पुरोहित को उसके घर पहुँचाकर असुर (कालकेतु) ने (कपटी) तपस्वी को खबर दी। उस दुष्ट ने जहाँ-तहाँ पत्र भेजे, जिससे सब (बैरी) राजा सेना सजा-सजाकर (चढ) दौडे॥2॥

घेरेन्हि नगर निसान बजाई। बिबिध भाँति नित होइ लराई॥
जूझे सकल सुभट करि करनी। बन्धु समेत परेउ नृप धरनी॥3॥

मूल

घेरेन्हि नगर निसान बजाई। बिबिध भाँति नित होइ लराई॥
जूझे सकल सुभट करि करनी। बन्धु समेत परेउ नृप धरनी॥3॥

भावार्थ

और उन्होन्ने डङ्का बजाकर नगर को घेर लिया। नित्य प्रति अनेक प्रकार से लडाई होने लगी। (प्रताप भानु के) सब योद्धा (शूरवीरों की) करनी करके रण में जूझ मरे। राजा भी भाई सहित खेत रहा॥3॥

सत्यकेतु कुल कोउ नहिं बाँचा। बिप्रश्राप किमि होइ असाँचा॥
रिपु जिति सब नृप नगर बसाई। निज पुर गवने जय जसु पाई॥4॥

मूल

सत्यकेतु कुल कोउ नहिं बाँचा। बिप्रश्राप किमि होइ असाँचा॥
रिपु जिति सब नृप नगर बसाई। निज पुर गवने जय जसु पाई॥4॥

भावार्थ

सत्यकेतु के कुल में कोई नहीं बचा। ब्राह्मणों का शाप झूठा कैसे हो सकता था। शत्रु को जीतकर नगर को (फिर से) बसाकर सब राजा विजय और यश पाकर अपने-अपने नगर को चले गए॥4॥

175

01 दोहा

भरद्वाज सुनु जाहि जब होई बिधाता बाम।
धूरि मेरुसम जनक जम ताहि ब्यालसम दाम॥175॥

मूल

भरद्वाज सुनु जाहि जब होई बिधाता बाम।
धूरि मेरुसम जनक जम ताहि ब्यालसम दाम॥175॥

भावार्थ

(याज्ञवल्क्यजी कहते हैं-) हे भरद्वाज! सुनो, विधाता जब जिसके विपरीत होते हैं, तब उसके लिए धूल सुमेरु पर्वत के समान (भारी और कुचल डालने वाली), पिता यम के समान (कालरूप) और रस्सी साँप के समान (काट खाने वाली) हो जाती है॥175॥

02 चौपाई

काल पाइ मुनि सुनु सोइ राजा। भयउ निसाचर सहित समाजा॥
दस सिर ताहि बीस भुजदण्डा। रावन नाम बीर बरिबण्डा॥1॥

मूल

काल पाइ मुनि सुनु सोइ राजा। भयउ निसाचर सहित समाजा॥
दस सिर ताहि बीस भुजदण्डा। रावन नाम बीर बरिबण्डा॥1॥

भावार्थ

हे मुनि! सुनो, समय पाकर वही राजा परिवार सहित रावण नामक राक्षस हुआ। उसके दस सिर और बीस भुजाएँ थीं और वह बडा ही प्रचण्ड शूरवीर था॥1॥

भूप अनुज अरिमर्दन नामा। भयउ सो कुम्भकरन बलधामा॥
सचिव जो रहा धरमरुचि जासू। भयउ बिमात्र बन्धु लघु तासू॥2॥

मूल

भूप अनुज अरिमर्दन नामा। भयउ सो कुम्भकरन बलधामा॥
सचिव जो रहा धरमरुचि जासू। भयउ बिमात्र बन्धु लघु तासू॥2॥

भावार्थ

अरिमर्दन नामक जो राजा का छोटा भाई था, वह बल का धाम कुम्भकर्ण हुआ। उसका जो मन्त्री था, जिसका नाम धर्मरुचि था, वह रावण का सौतेला छोटा भाई हुआ ॥2॥

नाम बिभीषन जेहि जग जाना। बिष्नुभगत बिग्यान निधाना॥
रहे जे सुत सेवक नृप केरे। भए निसाचर घोर घनेरे॥3॥

मूल

नाम बिभीषन जेहि जग जाना। बिष्नुभगत बिग्यान निधाना॥
रहे जे सुत सेवक नृप केरे। भए निसाचर घोर घनेरे॥3॥

भावार्थ

उसका विभीषण नाम था, जिसे सारा जगत जानता है। वह विष्णुभक्त और ज्ञान-विज्ञान का भण्डार था और जो राजा के पुत्र और सेवक थे, वे सभी बडे भयानक राक्षस हुए॥3॥

कामरूप खल जिनस अनेका। कुटिल भयङ्कर बिगत बिबेका॥
कृपा रहित हिंसक सब पापी। बरनि न जाहिं बिस्व परितापी॥4॥

मूल

कामरूप खल जिनस अनेका। कुटिल भयङ्कर बिगत बिबेका॥
कृपा रहित हिंसक सब पापी। बरनि न जाहिं बिस्व परितापी॥4॥

भावार्थ

वे सब अनेकों जाति के, मनमाना रूप धारण करने वाले, दुष्ट, कुटिल, भयङ्कर, विवेकरहित, निर्दयी, हिंसक, पापी और संसार भर को दुःख देने वाले हुए, उनका वर्णन नहीं हो सकता॥4॥

176

01 दोहा

उपजे जदपि पुलस्त्यकुल पावन अमल अनूप।
तदपि महीसुर श्राप बस भए सकल अघरूप॥176॥

मूल

उपजे जदपि पुलस्त्यकुल पावन अमल अनूप।
तदपि महीसुर श्राप बस भए सकल अघरूप॥176॥

भावार्थ

यद्यपि वे पुलस्त्य ऋषि के पवित्र, निर्मल और अनुपम कुल में उत्पन्न हुए, तथापि ब्राह्मणों के शाप के कारण वे सब पाप रूप हुए॥176॥

02 चौपाई

कीन्ह बिबिध तप तीनिहुँ भाई। परम उग्र नहिं बरनि सो जाई॥
गयउ निकट तप देखि बिधाता। मागहु बर प्रसन्न मैं ताता॥1॥

मूल

कीन्ह बिबिध तप तीनिहुँ भाई। परम उग्र नहिं बरनि सो जाई॥
गयउ निकट तप देखि बिधाता। मागहु बर प्रसन्न मैं ताता॥1॥

भावार्थ

तीनों भाइयों ने अनेकों प्रकार की बडी ही कठिन तपस्या की, जिसका वर्णन नहीं हो सकता। (उनका उग्र) तप देखकर ब्रह्माजी उनके पास गए और बोले- हे तात! मैं प्रसन्न हूँ, वर माँगो॥1॥

करि बिनती पद गहि दससीसा। बोलेउ बचन सुनहु जगदीसा॥
हम काहू के मरहिं न मारें। बानर मनुज जाति दुइ बारें॥2॥

मूल

करि बिनती पद गहि दससीसा। बोलेउ बचन सुनहु जगदीसा॥
हम काहू के मरहिं न मारें। बानर मनुज जाति दुइ बारें॥2॥

भावार्थ

रावण ने विनय करके और चरण पकडकर कहा- हे जगदीश्वर! सुनिए, वानर और मनुष्य- इन दो जातियों को छोडकर हम और किसी के मारे न मरें। (यह वर दीजिए)॥2॥

एवमस्तु तुम्ह बड तप कीन्हा। मैं ब्रह्माँ मिलि तेहि बर दीन्हा॥
पुनि प्रभु कुम्भकरन पहिं गयऊ। तेहि बिलोकि मन बिसमय भयऊ॥3॥

मूल

एवमस्तु तुम्ह बड तप कीन्हा। मैं ब्रह्माँ मिलि तेहि बर दीन्हा॥
पुनि प्रभु कुम्भकरन पहिं गयऊ। तेहि बिलोकि मन बिसमय भयऊ॥3॥

भावार्थ

(शिवजी कहते हैं कि-) मैन्ने और ब्रह्मा ने मिलकर उसे वर दिया कि ऐसा ही हो, तुमने बडा तप किया है। फिर ब्रह्माजी कुम्भकर्ण के पास गए। उसे देखकर उनके मन में बडा आश्चर्य हुआ॥3॥

जौं एहिं खल नित करब अहारू। होइहि सब उजारि संसारू॥
सारद प्रेरि तासु मति फेरी। मागेसि नीद मास षट केरी॥4॥

मूल

जौं एहिं खल नित करब अहारू। होइहि सब उजारि संसारू॥
सारद प्रेरि तासु मति फेरी। मागेसि नीद मास षट केरी॥4॥

भावार्थ

जो यह दुष्ट नित्य आहार करेगा, तो सारा संसार ही उजाड हो जाएगा। (ऐसा विचारकर) ब्रह्माजी ने सरस्वती को प्रेरणा करके उसकी बुद्धि फेर दी। (जिससे) उसने छह महीने की नीन्द माँगी॥4॥

177

01 दोहा

गए बिभीषन पास पुनि कहेउ पुत्र बर मागु।
तेहिं मागेउ भगवन्त पद कमल अमल अनुरागु॥177॥

मूल

गए बिभीषन पास पुनि कहेउ पुत्र बर मागु।
तेहिं मागेउ भगवन्त पद कमल अमल अनुरागु॥177॥

भावार्थ

फिर ब्रह्माजी विभीषण के पास गए और बोले- हे पुत्र! वर माँगो। उसने भगवान के चरणकमलों में निर्मल (निष्काम और अनन्य) प्रेम माँगा॥177॥

02 चौपाई

तिन्हहि देइ बर ब्रह्म सिधाए। हरषित ते अपने गृह आए॥
मय तनुजा मन्दोदरि नामा। परम सुन्दरी नारि ललामा॥1॥

मूल

तिन्हहि देइ बर ब्रह्म सिधाए। हरषित ते अपने गृह आए॥
मय तनुजा मन्दोदरि नामा। परम सुन्दरी नारि ललामा॥1॥

भावार्थ

उनको वर देकर ब्रह्माजी चले गए और वे (तीनों भाई) हर्षित हेकर अपने घर लौट आए। मय दानव की मन्दोदरी नाम की कन्या परम सुन्दरी और स्त्रियों में शिरोमणि थी॥1॥

सोइ मयँ दीन्हि रावनहि आनी। होइहि जातुधानपति जानी॥
हरषित भयउ नारि भलि पाई। पुनि दोउ बन्धु बिआहेसि जाई॥2॥

मूल

सोइ मयँ दीन्हि रावनहि आनी। होइहि जातुधानपति जानी॥
हरषित भयउ नारि भलि पाई। पुनि दोउ बन्धु बिआहेसि जाई॥2॥

भावार्थ

मय ने उसे लाकर रावण को दिया। उसने जान लिया कि यह राक्षसों का राजा होगा। अच्छी स्त्री पाकर रावण प्रसन्न हुआ और फिर उसने जाकर दोनों भाइयों का विवाह कर दिया॥2॥

गिरि त्रिकूट एक सिन्धु मझारी। बिधि निर्मित दुर्गम अति भारी॥
सोइ मय दानवँ बहुरि सँवारा। कनक रचित मनि भवन अपारा॥3॥

मूल

गिरि त्रिकूट एक सिन्धु मझारी। बिधि निर्मित दुर्गम अति भारी॥
सोइ मय दानवँ बहुरि सँवारा। कनक रचित मनि भवन अपारा॥3॥

भावार्थ

समुद्र के बीच में त्रिकूट नामक पर्वत पर ब्रह्मा का बनाया हुआ एक बडा भारी किला था। (महान मायावी और निपुण कारीगर) मय दानव ने उसको फिर से सजा दिया। उसमें मणियों से जडे हुए सोने के अनगिनत महल थे॥3॥

भोगावति जसि अहिकुल बासा। अमरावति जसि सक्रनिवासा॥
तिन्ह तें अधिक रम्य अति बङ्का। जग बिख्यात नाम तेहि लङ्का॥4॥

मूल

भोगावति जसि अहिकुल बासा। अमरावति जसि सक्रनिवासा॥
तिन्ह तें अधिक रम्य अति बङ्का। जग बिख्यात नाम तेहि लङ्का॥4॥

भावार्थ

जैसी नागकुल के रहने की (पाताल लोक में) भोगावती पुरी है और इन्द्र के रहने की (स्वर्गलोक में) अमरावती पुरी है, उनसे भी अधिक सुन्दर और बाँका वह दुर्ग था। जगत में उसका नाम लङ्का प्रसिद्ध हुआ॥4॥

178

01 दोहा

खाईं सिन्धु गभीर अति चारिहुँ दिसि फिरि आव।
कनक कोट मनि खचित दृढ बरनि न जाइ बनाव॥1॥

मूल

खाईं सिन्धु गभीर अति चारिहुँ दिसि फिरि आव।
कनक कोट मनि खचित दृढ बरनि न जाइ बनाव॥1॥

भावार्थ

उसे चारों ओर से समुद्र की अत्यन्त गहरी खाई घेरे हुए है। उस (दुर्ग) के मणियों से जडा हुआ सोने का मजबूत परकोटा है, जिसकी कारीगरी का वर्णन नहीं किया जा सकता॥1॥

हरि प्रेरित जेहिं कलप जोइ जातुधानपति होइ।
सूर प्रतापी अतुलबल दल समेत बस सोइ॥2॥

मूल

हरि प्रेरित जेहिं कलप जोइ जातुधानपति होइ।
सूर प्रतापी अतुलबल दल समेत बस सोइ॥2॥

भावार्थ

भगवान की प्रेरणा से जिस कल्प में जो राक्षसों का राजा (रावण) होता है, वही शूर, प्रतापी, अतुलित बलवान्‌ अपनी सेना सहित उस पुरी में बसता है॥2॥

02 चौपाई

रहे तहाँ निसिचर भट भारे। ते सब सुरन्ह समर सङ्घारे॥
अब तहँ रहहिं सक्र के प्रेरे। रच्छक कोटि जच्छपति केरे॥1॥

मूल

रहे तहाँ निसिचर भट भारे। ते सब सुरन्ह समर सङ्घारे॥
अब तहँ रहहिं सक्र के प्रेरे। रच्छक कोटि जच्छपति केरे॥1॥

भावार्थ

(पहले) वहाँ बडे-बडे योद्धा राक्षस रहते थे। देवताओं ने उन सबको युद्द में मार डाला। अब इन्द्र की प्रेरणा से वहाँ कुबेर के एक करोड रक्षक (यक्ष लोग) रहते हैं॥1॥

दसमुख कतहुँ खबरि असि पाई। सेन साजि गढ घेरेसि जाई॥
देखि बिकट भट बडि कटकाई। जच्छ जीव लै गए पराई॥2॥

मूल

दसमुख कतहुँ खबरि असि पाई। सेन साजि गढ घेरेसि जाई॥
देखि बिकट भट बडि कटकाई। जच्छ जीव लै गए पराई॥2॥

भावार्थ

रावण को कहीं ऐसी खबर मिली, तब उसने सेना सजाकर किले को जा घेरा। उस बडे विकट योद्धा और उसकी बडी सेना को देखकर यक्ष अपने प्राण लेकर भाग गए॥2॥

फिरि सब नगर दसानन देखा। गयउ सोच सुख भयउ बिसेषा॥
सुन्दर सहज अगम अनुमानी। कीन्हि तहाँ रावन रजधानी॥3॥

मूल

फिरि सब नगर दसानन देखा। गयउ सोच सुख भयउ बिसेषा॥
सुन्दर सहज अगम अनुमानी। कीन्हि तहाँ रावन रजधानी॥3॥

भावार्थ

तब रावण ने घूम-फिरकर सारा नगर देखा। उसकी (स्थान सम्बन्धी) चिन्ता मिट गई और उसे बहुत ही सुख हुआ। उस पुरी को स्वाभाविक ही सुन्दर और (बाहर वालों के लिए) दुर्गम अनुमान करके रावण ने वहाँ अपनी राजधानी कायम की॥3॥

जेहि जस जोग बाँटि गृह दीन्हे। सुखी सकल रजनीचर कीन्हें॥
एक बार कुबेर पर धावा। पुष्पक जान जीति लै आवा॥4॥

मूल

जेहि जस जोग बाँटि गृह दीन्हे। सुखी सकल रजनीचर कीन्हें॥
एक बार कुबेर पर धावा। पुष्पक जान जीति लै आवा॥4॥

भावार्थ

योग्यता के अनुसार घरों को बाँटकर रावण ने सब राक्षसों को सुखी किया। एक बार वह कुबेर पर चढ दौडा और उससे पुष्पक विमान को जीतकर ले आया॥4॥

179

01 दोहा

कौतुकहीं कैलास पुनि लीन्हेसि जाइ उठाइ।
मनहुँ तौलि निज बाहुबल चला बहुत सुख पाइ॥179॥

मूल

कौतुकहीं कैलास पुनि लीन्हेसि जाइ उठाइ।
मनहुँ तौलि निज बाहुबल चला बहुत सुख पाइ॥179॥

भावार्थ

फिर उसने जाकर (एक बार) खिलवाड ही में कैलास पर्वत को उठा लिया और मानो अपनी भुजाओं का बल तौलकर, बहुत सुख पाकर वह वहाँ से चला आया॥179॥

02 चौपाई

सुख सम्पति सुत सेन सहाई। जय प्रताप बल बुद्धि बडाई॥
नित नूतन सब बाढत जाई। जिमि प्रतिलाभ लोभ अधिकाई॥1॥

मूल

सुख सम्पति सुत सेन सहाई। जय प्रताप बल बुद्धि बडाई॥
नित नूतन सब बाढत जाई। जिमि प्रतिलाभ लोभ अधिकाई॥1॥

भावार्थ

सुख, सम्पत्ति, पुत्र, सेना, सहायक, जय, प्रताप, बल, बुद्धि और बडाई- ये सब उसके नित्य नए (वैसे ही) बढते जाते थे, जैसे प्रत्येक लाभ पर लोभ बढता है॥1॥

अतिबल कुम्भकरन अस भ्राता। जेहि कहुँ नहिं प्रतिभट जग जाता॥
करइ पान सोवइ षट मासा। जागत होइ तिहूँ पुर त्रासा॥2॥

मूल

अतिबल कुम्भकरन अस भ्राता। जेहि कहुँ नहिं प्रतिभट जग जाता॥
करइ पान सोवइ षट मासा। जागत होइ तिहूँ पुर त्रासा॥2॥

भावार्थ

अत्यन्त बलवान्‌ कुम्भकर्ण सा उसका भाई था, जिसके जोड का योद्धा जगत में पैदा ही नहीं हुआ। वह मदिरा पीकर छह महीने सोया करता था। उसके जागते ही तीनों लोकों में तहलका मच जाता था॥2॥

जौं दिन प्रति अहार कर सोई। बिस्व बेगि सब चौपट होई॥
समर धीर नहिं जाइ बखाना। तेहि सम अमित बीर बलवाना॥3॥

मूल

जौं दिन प्रति अहार कर सोई। बिस्व बेगि सब चौपट होई॥
समर धीर नहिं जाइ बखाना। तेहि सम अमित बीर बलवाना॥3॥

भावार्थ

यदि वह प्रतिदिन भोजन करता, तब तो सम्पूर्ण विश्व शीघ्र ही चौपट (खाली) हो जाता। रणधीर ऐसा था कि जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता। (लङ्का में) उसके ऐसे असङ्ख्य बलवान वीर थे॥3॥

बारिदनाद जेठ सुत तासू। भट महुँ प्रथम लीक जग जासू॥
जेहि न होइ रन सनमुख कोई। सुरपुर नितहिं परावन होई॥4॥

मूल

बारिदनाद जेठ सुत तासू। भट महुँ प्रथम लीक जग जासू॥
जेहि न होइ रन सनमुख कोई। सुरपुर नितहिं परावन होई॥4॥

भावार्थ

मेघनाद रावण का बडा लडका था, जिसका जगत के योद्धाओं में पहला नम्बर था। रण में कोई भी उसका सामना नहीं कर सकता था। स्वर्ग में तो (उसके भय से) नित्य भगदड मची रहती थी॥4॥

180

01 दोहा

कुमुख अकम्पन कुलिसरद धूमकेतु अतिकाय।
एक एक जग जीति सक ऐसे सुभट निकाय॥180॥

मूल

कुमुख अकम्पन कुलिसरद धूमकेतु अतिकाय।
एक एक जग जीति सक ऐसे सुभट निकाय॥180॥

भावार्थ

(इनके अतिरिक्त) दुर्मुख, अकम्पन, वज्रदन्त, धूमकेतु और अतिकाय आदि ऐसे अनेक योद्धा थे, जो अकेले ही सारे जगत को जीत सकते थे॥180॥

02 चौपाई

कामरूप जानहिं सब माया। सपनेहुँ जिन्ह कें धरम न दाया॥
दसमुख बैठ सभाँ एक बारा। देखि अमित आपन परिवारा॥1॥

मूल

कामरूप जानहिं सब माया। सपनेहुँ जिन्ह कें धरम न दाया॥
दसमुख बैठ सभाँ एक बारा। देखि अमित आपन परिवारा॥1॥

भावार्थ

सभी राक्षस मनमाना रूप बना सकते थे और (आसुरी) माया जानते थे। उनके दया-धर्म स्वप्न में भी नहीं था। एक बार सभा में बैठे हुए रावण ने अपने अगणित परिवार को देखा-॥1॥

सुत समूह जन परिजन नाती। गनै को पार निसाचर जाती॥
सेन बिलोकि सहज अभिमानी। बोला बचन क्रोध मद सानी॥2॥

मूल

सुत समूह जन परिजन नाती। गनै को पार निसाचर जाती॥
सेन बिलोकि सहज अभिमानी। बोला बचन क्रोध मद सानी॥2॥

भावार्थ

पुत्र-पौत्र, कुटुम्बी और सेवक ढेर-के-ढेर थे। (सारी) राक्षसों की जातियों को तो गिन ही कौन सकता था! अपनी सेना को देखकर स्वभाव से ही अभिमानी रावण क्रोध और गर्व में सनी हुई वाणी बोला-॥2॥

सुनहु सकल रजनीचर जूथा। हमरे बैरी बिबुध बरूथा॥
ते सनमुख नहिं करहिं लराई। देखि सबल रिपु जाहिं पराई॥3॥

मूल

सुनहु सकल रजनीचर जूथा। हमरे बैरी बिबुध बरूथा॥
ते सनमुख नहिं करहिं लराई। देखि सबल रिपु जाहिं पराई॥3॥

भावार्थ

हे समस्त राक्षसों के दलों! सुनो, देवतागण हमारे शत्रु हैं। वे सामने आकर युद्ध नहीं करते। बलवान शत्रु को देखकर भाग जाते हैं॥3॥

तेन्ह कर मरन एक बिधि होई। कहउँ बुझाइ सुनहु अब सोई॥
द्विजभोजन मख होम सराधा। सब कै जाइ करहु तुम्ह बाधा॥4॥

मूल

तेन्ह कर मरन एक बिधि होई। कहउँ बुझाइ सुनहु अब सोई॥
द्विजभोजन मख होम सराधा। सब कै जाइ करहु तुम्ह बाधा॥4॥

भावार्थ

उनका मरण एक ही उपाय से हो सकता है, मैं समझाकर कहता हूँ। अब उसे सुनो। (उनके बल को बढाने वाले) ब्राह्मण भोजन, यज्ञ, हवन और श्राद्ध- इन सबमें जाकर तुम बाधा डालो॥4॥

181

01 दोहा

छुधा छीन बलहीन सुर सहजेहिं मिलिहहिं आइ।
तब मारिहउँ कि छाडिहउँ भली भाँति अपनाइ॥181॥

मूल

छुधा छीन बलहीन सुर सहजेहिं मिलिहहिं आइ।
तब मारिहउँ कि छाडिहउँ भली भाँति अपनाइ॥181॥

भावार्थ

भूख से दुर्बल और बलहीन होकर देवता सहज ही में आ मिलेङ्गे। तब उनको मैं मार डालूँगा अथवा भलीभाँति अपने अधीन करके (सर्वथा पराधीन करके) छोड दूँगा॥181॥

02 चौपाई

मेघनाद कहूँ पुनि हँकरावा। दीन्हीं सिख बलु बयरु बढावा॥
जे सुर समर धीर बलवाना। जिन्ह कें लरिबे कर अभिमाना॥1॥

मूल

मेघनाद कहूँ पुनि हँकरावा। दीन्हीं सिख बलु बयरु बढावा॥
जे सुर समर धीर बलवाना। जिन्ह कें लरिबे कर अभिमाना॥1॥

भावार्थ

फिर उसने मेघनाद को बुलवाया और सिखा-पढाकर उसके बल और देवताओं के प्रति बैरभाव को उत्तेजना दी। (फिर कहा-) हे पुत्र ! जो देवता रण में धीर और बलवान्‌ हैं और जिन्हें लडने का अभिमान है॥1॥

तिन्हहि जीति रन आनेसु बाँधी। उठि सुत पितु अनुसासन काँघी॥
एहि बिधि सबही अग्या दीन्हीं। आपुनु चलेउ गदा कर लीन्ही॥2॥

मूल

तिन्हहि जीति रन आनेसु बाँधी। उठि सुत पितु अनुसासन काँघी॥
एहि बिधि सबही अग्या दीन्हीं। आपुनु चलेउ गदा कर लीन्ही॥2॥

भावार्थ

उन्हें युद्ध में जीतकर बाँध लाना। बेटे ने उठकर पिता की आज्ञा को शिरोधार्य किया। इसी तरह उसने सबको आज्ञा दी और आप भी हाथ में गदा लेकर चल दिया॥2॥

चलत दसानन डोलति अवनी। गर्जत गर्भ स्रवहिं सुर रवनी॥
रावन आवत सुनेउ सकोहा। देवन्ह तके मेरु गिरि खोहा॥3॥

मूल

चलत दसानन डोलति अवनी। गर्जत गर्भ स्रवहिं सुर रवनी॥
रावन आवत सुनेउ सकोहा। देवन्ह तके मेरु गिरि खोहा॥3॥

भावार्थ

रावण के चलने से पृथ्वी डगमगाने लगी और उसकी गर्जना से देवरमणियों के गर्भ गिरने लगे। रावण को क्रोध सहित आते हुए सुनकर देवताओं ने सुमेरु पर्वत की गुफाएँ तकीं (भागकर सुमेरु की गुफाओं का आश्रय लिया)॥3॥

दिगपालन्ह के लोक सुहाए। सूने सकल दसानन पाए॥
पुनि पुनि सिङ्घनाद करि भारी। देइ देवतन्ह गारि पचारी॥4॥

मूल

दिगपालन्ह के लोक सुहाए। सूने सकल दसानन पाए॥
पुनि पुनि सिङ्घनाद करि भारी। देइ देवतन्ह गारि पचारी॥4॥

भावार्थ

दिक्पालों के सारे सुन्दर लोकों को रावण ने सूना पाया। वह बार-बार भारी सिंहगर्जना करके देवताओं को ललकार-ललकारकर गालियाँ देता था॥4॥

रन मद मत्त फिरइ गज धावा। प्रतिभट खोजत कतहुँ न पावा॥
रबि ससि पवन बरुन धनधारी। अगिनि काल जम सब अधिकारी॥5॥

मूल

रन मद मत्त फिरइ गज धावा। प्रतिभट खोजत कतहुँ न पावा॥
रबि ससि पवन बरुन धनधारी। अगिनि काल जम सब अधिकारी॥5॥

भावार्थ

रण के मद में मतवाला होकर वह अपनी जोडी का योद्धा खोजता हुआ जगत भर में दौडता फिरा, परन्तु उसे ऐसा योद्धा कहीं नहीं मिला। सूर्य, चन्द्रमा, वायु, वरुण, कुबेर, अग्नि, काल और यम आदि सब अधिकारी,॥5॥

किन्नर सिद्ध मनुज सुर नागा। हठि सबही के पन्थहिं लागा॥
ब्रह्मसृष्टि जहँ लगि तनुधारी। दसमुख बसबर्ती नर नारी॥6॥

मूल

किन्नर सिद्ध मनुज सुर नागा। हठि सबही के पन्थहिं लागा॥
ब्रह्मसृष्टि जहँ लगि तनुधारी। दसमुख बसबर्ती नर नारी॥6॥

भावार्थ

किन्नर, सिद्ध, मनुष्य, देवता और नाग- सभी के पीछे वह हठपूर्वक पड गया (किसी को भी उसने शान्तिपूर्वक नहीं बैठने दिया)। ब्रह्माजी की सृष्टि में जहाँ तक शरीरधारी स्त्री-पुरुष थे, सभी रावण के अधीन हो गए॥6॥

आयसु करहिं सकल भयभीता। नवहिं आइ नित चरन बिनीता॥7॥

मूल

आयसु करहिं सकल भयभीता। नवहिं आइ नित चरन बिनीता॥7॥

भावार्थ

डर के मारे सभी उसकी आज्ञा का पालन करते थे और नित्य आकर नम्रतापूर्वक उसके चरणों में सिर नवाते थे॥7॥

182

01 दोहा

भुजबल बिस्व बस्य करि राखेसि कोउ न सुतन्त्र।
मण्डलीक मनि रावन राज करइ निज मन्त्र॥1॥

मूल

भुजबल बिस्व बस्य करि राखेसि कोउ न सुतन्त्र।
मण्डलीक मनि रावन राज करइ निज मन्त्र॥1॥

भावार्थ

उसने भुजाओं के बल से सारे विश्व को वश में कर लिया, किसी को स्वतन्त्र नहीं रहने दिया। (इस प्रकार) मण्डलीक राजाओं का शिरोमणि (सार्वभौम सम्राट) रावण अपनी इच्छानुसार राज्य करने लगा॥1॥

देव जच्छ गन्धर्ब नर किन्नर नाग कुमारि।
जीति बरीं निज बाहु बल बहु सुन्दर बर नारि॥2॥

मूल

देव जच्छ गन्धर्ब नर किन्नर नाग कुमारि।
जीति बरीं निज बाहु बल बहु सुन्दर बर नारि॥2॥

भावार्थ

देवता, यक्ष, गन्धर्व, मनुष्य, किन्नर और नागों की कन्याओं तथा बहुत सी अन्य सुन्दरी और उत्तम स्त्रियों को उसने अपनी भुजाओं के बल से जीतकर ब्याह लिया॥2॥

02 चौपाई

इन्द्रजीत सन जो कछु कहेऊ। सो सब जनु पहिलेहिं करि रहेऊ॥
प्रथमहिं जिन्ह कहुँ आयसु दीन्हा। तिन्ह कर चरित सुनहु जो कीन्हा॥1॥

मूल

इन्द्रजीत सन जो कछु कहेऊ। सो सब जनु पहिलेहिं करि रहेऊ॥
प्रथमहिं जिन्ह कहुँ आयसु दीन्हा। तिन्ह कर चरित सुनहु जो कीन्हा॥1॥

भावार्थ

मेघनाद से उसने जो कुछ कहा, उसे उसने (मेघनाद ने) मानो पहले से ही कर रखा था (अर्थात्‌ रावण के कहने भर की देर थी, उसने आज्ञापालन में तनिक भी देर नहीं की।) जिनको (रावण ने मेघनाद से) पहले ही आज्ञा दे रखी थी, उन्होन्ने जो करतूतें की उन्हें सुनो॥1॥

देखत भीमरूप सब पापी। निसिचर निकर देव परितापी॥
करहिं उपद्रव असुर निकाया। नाना रूप धरहिं करि माया॥2॥

मूल

देखत भीमरूप सब पापी। निसिचर निकर देव परितापी॥
करहिं उपद्रव असुर निकाया। नाना रूप धरहिं करि माया॥2॥

भावार्थ

सब राक्षसों के समूह देखने में बडे भयानक, पापी और देवताओं को दुःख देने वाले थे। वे असुरों के समूह उपद्रव करते थे और माया से अनेकों प्रकार के रूप धरते थे॥2॥

जेहि बिधि होइ धर्म निर्मूला। सो सब करहिं बेद प्रतिकूला॥
जेहिं जेहिं देस धेनु द्विज पावहिं। नगर गाउँ पुर आगि लगावहिं॥3॥

मूल

जेहि बिधि होइ धर्म निर्मूला। सो सब करहिं बेद प्रतिकूला॥
जेहिं जेहिं देस धेनु द्विज पावहिं। नगर गाउँ पुर आगि लगावहिं॥3॥

भावार्थ

जिस प्रकार धर्म की जड कटे, वे वही सब वेदविरुद्ध काम करते थे। जिस-जिस स्थान में वे गो और ब्राह्मणों को पाते थे, उसी नगर, गाँव और पुरवे में आग लगा देते थे॥3॥

सुभ आचरन कतहुँ नहिं होई। देव बिप्र गुरु मान न कोई॥
नहिं हरिभगति जग्य तप ग्याना। सपनेहु सुनिअ न बेद पुराना॥4॥

मूल

सुभ आचरन कतहुँ नहिं होई। देव बिप्र गुरु मान न कोई॥
नहिं हरिभगति जग्य तप ग्याना। सपनेहु सुनिअ न बेद पुराना॥4॥

भावार्थ

(उनके डर से) कहीं भी शुभ आचरण (ब्राह्मण भोजन, यज्ञ, श्राद्ध आदि) नहीं होते थे। देवता, ब्राह्मण और गुरु को कोई नहीं मानता था। न हरिभक्ति थी, न यज्ञ, तप और ज्ञान था। वेद और पुराण तो स्वप्न में भी सुनने को नहीं मिलते थे॥4॥

03 छन्द

जप जोग बिरागा तप मख भागा श्रवन सुनइ दससीसा।
आपुनु उठि धावइ रहै न पावइ धरि सब घालइ खीसा॥
अस भ्रष्ट अचारा भा संसारा धर्म सुनिअ नहिं काना।
तेहि बहुबिधि त्रासइ देस निकासइ जो कह बेद पुराना॥

मूल

जप जोग बिरागा तप मख भागा श्रवन सुनइ दससीसा।
आपुनु उठि धावइ रहै न पावइ धरि सब घालइ खीसा॥
अस भ्रष्ट अचारा भा संसारा धर्म सुनिअ नहिं काना।
तेहि बहुबिधि त्रासइ देस निकासइ जो कह बेद पुराना॥

भावार्थ

जप, योग, वैराग्य, तप तथा यज्ञ में (देवताओं के) भाग पाने की बात रावण कहीं कानों से सुन पाता, तो (उसी समय) स्वयं उठ दौडता।

कुछ भी रहने नहीं पाता, वह सबको पकडकर विध्वंस कर डालता था। संसार में ऐसा भ्रष्ट आचरण फैल गया कि धर्म तो कानों में सुनने में नहीं आता था, जो कोई वेद और पुराण कहता, उसको बहुत तरह से त्रास देता और देश से निकाल देता था।

183

01 सोरठा

बरनि न जाइ अनीति घोर निसाचर जो करहिं।
हिंसा पर अति प्रीति तिन्ह के पापहि कवनि मिति॥183॥

मूल

बरनि न जाइ अनीति घोर निसाचर जो करहिं।
हिंसा पर अति प्रीति तिन्ह के पापहि कवनि मिति॥183॥

भावार्थ

राक्षस लोग जो घोर अत्याचार करते थे, उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। हिंसा पर ही जिनकी प्रीति है, उनके पापों का क्या ठिकाना॥183॥

मासपारायण, छठा विश्राम

02 चौपाई

बाढे खल बहु चोर जुआरा। जे लम्पट परधन परदारा॥
मानहिं मातु पिता नहिं देवा। साधुन्ह सन करवावहिं सेवा॥1॥

मूल

बाढे खल बहु चोर जुआरा। जे लम्पट परधन परदारा॥
मानहिं मातु पिता नहिं देवा। साधुन्ह सन करवावहिं सेवा॥1॥

भावार्थ

पराए धन और पराई स्त्री पर मन चलाने वाले, दुष्ट, चोर और जुआरी बहुत बढ गए। लोग माता-पिता और देवताओं को नहीं मानते थे और साधुओं (की सेवा करना तो दूर रहा, उल्टे उन) से सेवा करवाते थे॥1॥

जिन्ह के यह आचरन भवानी। ते जानेहु निसिचर सब प्रानी॥
अतिसय देखि धर्म कै ग्लानी। परम सभीत धरा अकुलानी॥2॥

मूल

जिन्ह के यह आचरन भवानी। ते जानेहु निसिचर सब प्रानी॥
अतिसय देखि धर्म कै ग्लानी। परम सभीत धरा अकुलानी॥2॥

भावार्थ

(श्री शिवजी कहते हैं कि-) हे भवानी! जिनके ऐसे आचरण हैं, उन सब प्राणियों को राक्षस ही समझना। इस प्रकार धर्म के प्रति (लोगों की) अतिशय ग्लानि (अरुचि, अनास्था) देखकर पृथ्वी अत्यन्त भयभीत एवं व्याकुल हो गई॥2॥

गिरि सरि सिन्धु भार नहिं मोही। जस मोहि गरुअ एक परद्रोही।
सकल धर्म देखइ बिपरीता। कहि न सकइ रावन भय भीता॥3॥

मूल

गिरि सरि सिन्धु भार नहिं मोही। जस मोहि गरुअ एक परद्रोही।
सकल धर्म देखइ बिपरीता। कहि न सकइ रावन भय भीता॥3॥

भावार्थ

(वह सोचने लगी कि) पर्वतों, नदियों और समुद्रों का बोझ मुझे इतना भारी नहीं जान पडता, जितना भारी मुझे एक परद्रोही (दूसरों का अनिष्ट करने वाला) लगता है। पृथ्वी सारे धर्मों को विपरीत देख रही है, पर रावण से भयभीत हुई वह कुछ बोल नहीं सकती॥3॥

धेनु रूप धरि हृदयँ बिचारी। गई तहाँ जहँ सुर मुनि झारी॥
निज सन्ताप सुनाएसि रोई। काहू तें कछु काज न होई॥4॥

मूल

धेनु रूप धरि हृदयँ बिचारी। गई तहाँ जहँ सुर मुनि झारी॥
निज सन्ताप सुनाएसि रोई। काहू तें कछु काज न होई॥4॥

भावार्थ

(अन्त में) हृदय में सोच-विचारकर, गो का रूप धारण कर धरती वहाँ गई, जहाँ सब देवता और मुनि (छिपे) थे। पृथ्वी ने रोककर उनको अपना दुःख सुनाया, पर किसी से कुछ काम न बना॥4॥

03 छन्द

सुर मुनि गन्धर्बा मिलि करि सर्बा गे बिरञ्चि के लोका।
सँग गोतनुधारी भूमि बिचारी परम बिकल भय सोका॥
ब्रह्माँ सब जाना मन अनुमाना मोर कछू न बसाई।
जा करि तैं दासी सो अबिनासी हमरेउ तोर सहाई॥

मूल

सुर मुनि गन्धर्बा मिलि करि सर्बा गे बिरञ्चि के लोका।
सँग गोतनुधारी भूमि बिचारी परम बिकल भय सोका॥
ब्रह्माँ सब जाना मन अनुमाना मोर कछू न बसाई।
जा करि तैं दासी सो अबिनासी हमरेउ तोर सहाई॥

भावार्थ

तब देवता, मुनि और गन्धर्व सब मिलकर ब्रह्माजी के लोक (सत्यलोक) को गए। भय और शोक से अत्यन्त व्याकुल बेचारी पृथ्वी भी गो का शरीर धारण किए हुए उनके साथ थी। ब्रह्माजी सब जान गए। उन्होन्ने मन में अनुमान किया कि इसमें मेरा कुछ भी वश नहीं चलने का। (तब उन्होन्ने पृथ्वी से कहा कि-) जिसकी तू दासी है, वही अविनाशी हमारा और तुम्हारा दोनों का सहायक है॥

184

01 सोरठा

धरनि धरहि मन धीर कह बिरञ्चि हरि पद सुमिरु।
जानत जन की पीर प्रभु भञ्जिहि दारुन बिपति॥184॥

मूल

धरनि धरहि मन धीर कह बिरञ्चि हरि पद सुमिरु।
जानत जन की पीर प्रभु भञ्जिहि दारुन बिपति॥184॥

भावार्थ

ब्रह्माजी ने कहा- हे धरती! मन में धीरज धारण करके श्री हरि के चरणों का स्मरण करो। प्रभु अपने दासों की पीडा को जानते हैं, वे तुम्हारी कठिन विपत्ति का नाश करेङ्गे॥184॥

02 चौपाई

बैठे सुर सब करहिं बिचारा। कहँ पाइअ प्रभु करिअ पुकारा॥
पुर बैकुण्ठ जान कह कोई। कोउ कह पयनिधि बस प्रभु सोई॥1॥

मूल

बैठे सुर सब करहिं बिचारा। कहँ पाइअ प्रभु करिअ पुकारा॥
पुर बैकुण्ठ जान कह कोई। कोउ कह पयनिधि बस प्रभु सोई॥1॥

भावार्थ

सब देवता बैठकर विचार करने लगे कि प्रभु को कहाँ पावें ताकि उनके सामने पुकार (फरियाद) करें। कोई बैकुण्ठपुरी जाने को कहता था और कोई कहता था कि वही प्रभु क्षीरसमुद्र में निवास करते हैं॥1॥

जाके हृदयँ भगति जसि प्रीती। प्रभु तहँ प्रगट सदा तेहिं रीती॥
तेहिं समाज गिरिजा मैं रहेऊँ। अवसर पाइ बचन एक कहेउँ॥2॥

मूल

जाके हृदयँ भगति जसि प्रीती। प्रभु तहँ प्रगट सदा तेहिं रीती॥
तेहिं समाज गिरिजा मैं रहेऊँ। अवसर पाइ बचन एक कहेउँ॥2॥

भावार्थ

जिसके हृदय में जैसी भक्ति और प्रीति होती है, प्रभु वहाँ (उसके लिए) सदा उसी रीति से प्रकट होते हैं। हे पार्वती! उस समाज में मैं भी था। अवसर पाकर मैन्ने एक बात कही-॥2॥

हरि ब्यापक सर्बत्र समाना। प्रेम तें प्रगट होहिं मैं जाना॥
देस काल दिसि बिदिसिहु माहीं। कहहु सो कहाँ जहाँ प्रभु नाहीं॥3॥

मूल

हरि ब्यापक सर्बत्र समाना। प्रेम तें प्रगट होहिं मैं जाना॥
देस काल दिसि बिदिसिहु माहीं। कहहु सो कहाँ जहाँ प्रभु नाहीं॥3॥

भावार्थ

मैं तो यह जानता हूँ कि भगवान सब जगह समान रूप से व्यापक हैं, प्रेम से वे प्रकट हो जाते हैं, देश, काल, दिशा, विदिशा में बताओ, ऐसी जगह कहाँ है, जहाँ प्रभु न हों॥3॥

अग जगमय सब रहित बिरागी। प्रेम तें प्रभु प्रगटइ जिमि आगी॥
मोर बचन सब के मन माना। साधु-साधु करि ब्रह्म बखाना॥4॥

मूल

अग जगमय सब रहित बिरागी। प्रेम तें प्रभु प्रगटइ जिमि आगी॥
मोर बचन सब के मन माना। साधु-साधु करि ब्रह्म बखाना॥4॥

भावार्थ

वे चराचरमय (चराचर में व्याप्त) होते हुए ही सबसे रहित हैं और विरक्त हैं (उनकी कहीं आसक्ति नहीं है), वे प्रेम से प्रकट होते हैं, जैसे अग्नि। (अग्नि अव्यक्त रूप से सर्वत्र व्याप्त है, परन्तु जहाँ उसके लिए अरणिमन्थनादि साधन किए जाते हैं, वहाँ वह प्रकट होती है। इसी प्रकार सर्वत्र व्याप्त भगवान भी प्रेम से प्रकट होते हैं।) मेरी बात सबको प्रिय लगी। ब्रह्माजी ने ‘साधु-साधु’ कहकर बडाई की॥4॥

185

01 दोहा

सुनि बिरञ्चि मन हरष तन पुलकि नयन बह नीर।
अस्तुति करत जोरि कर सावधान मतिधीर॥185॥

मूल

सुनि बिरञ्चि मन हरष तन पुलकि नयन बह नीर।
अस्तुति करत जोरि कर सावधान मतिधीर॥185॥

भावार्थ

मेरी बात सुनकर ब्रह्माजी के मन में बडा हर्ष हुआ, उनका तन पुलकित हो गया और नेत्रों से (प्रेम के) आँसू बहने लगे। तब वे धीरबुद्धि ब्रह्माजी सावधान होकर हाथ जोडकर स्तुति करने लगे॥185॥

02 छन्द

जय जय सुरनायक जन सुखदायक प्रनतपाल भगवन्ता।
गो द्विज हितकारी जय असुरारी सिन्धुसुता प्रिय कन्ता॥
पालन सुर धरनी अद्भुत करनी मरम न जानइ कोई।
जो सहज कृपाला दीनदयाला करउ अनुग्रह सोई॥1॥

मूल

जय जय सुरनायक जन सुखदायक प्रनतपाल भगवन्ता।
गो द्विज हितकारी जय असुरारी सिन्धुसुता प्रिय कन्ता॥
पालन सुर धरनी अद्भुत करनी मरम न जानइ कोई।
जो सहज कृपाला दीनदयाला करउ अनुग्रह सोई॥1॥

भावार्थ

हे देवताओं के स्वामी, सेवकों को सुख देने वाले, शरणागत की रक्षा करने वाले भगवान! आपकी जय हो! जय हो!! हे गो-ब्राह्मणों का हित करने वाले, असुरों का विनाश करने वाले, समुद्र की कन्या (श्री लक्ष्मीजी) के प्रिय स्वामी! आपकी जय हो! हे देवता और पृथ्वी का पालन करने वाले! आपकी लीला अद्भुत है, उसका भेद कोई नहीं जानता। ऐसे जो स्वभाव से ही कृपालु और दीनदयालु हैं, वे ही हम पर कृपा करें॥1॥

जय जय अबिनासी सब घट बासी ब्यापक परमानन्दा।
अबिगत गोतीतं चरित पुनीतं मायारहित मुकुन्दा॥
जेहि लागि बिरागी अति अनुरागी बिगत मोह मुनिबृन्दा।
निसि बासर ध्यावहिं गुन गन गावहिं जयति सच्चिदानन्दा॥2॥

मूल

जय जय अबिनासी सब घट बासी ब्यापक परमानन्दा।
अबिगत गोतीतं चरित पुनीतं मायारहित मुकुन्दा॥
जेहि लागि बिरागी अति अनुरागी बिगत मोह मुनिबृन्दा।
निसि बासर ध्यावहिं गुन गन गावहिं जयति सच्चिदानन्दा॥2॥

भावार्थ

हे अविनाशी, सबके हृदय में निवास करने वाले (अन्तर्यामी), सर्वव्यापक, परम आनन्दस्वरूप, अज्ञेय, इन्द्रियों से परे, पवित्र चरित्र, माया से रहित मुकुन्द (मोक्षदाता)! आपकी जय हो! जय हो!! (इस लोक और परलोक के सब भोगों से) विरक्त तथा मोह से सर्वथा छूटे हुए (ज्ञानी) मुनिवृन्द भी अत्यन्त अनुरागी (प्रेमी) बनकर जिनका रात-दिन ध्यान करते हैं और जिनके गुणों के समूह का गान करते हैं, उन सच्चिदानन्द की जय हो॥2॥

जेहिं सृष्टि उपाई त्रिबिध बनाई सङ्ग सहाय न दूजा।
सो करउ अघारी चिन्त हमारी जानिअ भगति न पूजा॥
जो भव भय भञ्जन मुनि मन रञ्जन गञ्जन बिपति बरूथा।
मन बच क्रम बानी छाडि सयानी सरन सकल सुरजूथा॥3॥

मूल

जेहिं सृष्टि उपाई त्रिबिध बनाई सङ्ग सहाय न दूजा।
सो करउ अघारी चिन्त हमारी जानिअ भगति न पूजा॥
जो भव भय भञ्जन मुनि मन रञ्जन गञ्जन बिपति बरूथा।
मन बच क्रम बानी छाडि सयानी सरन सकल सुरजूथा॥3॥

भावार्थ

जिन्होन्ने बिना किसी दूसरे सङ्गी अथवा सहायक के अकेले ही (या स्वयं अपने को त्रिगुणरूप- ब्रह्मा, विष्णु, शिवरूप- बनाकर अथवा बिना किसी उपादान-कारण के अर्थात्‌ स्वयं ही सृष्टि का अभिन्ननिमित्तोपादान कारण बनकर) तीन प्रकार की सृष्टि उत्पन्न की, वे पापों का नाश करने वाले भगवान हमारी सुधि लें। हम न भक्ति जानते हैं, न पूजा, जो संसार के (जन्म-मृत्यु के) भय का नाश करने वाले, मुनियों के मन को आनन्द देने वाले और विपत्तियों के समूह को नष्ट करने वाले हैं। हम सब देवताओं के समूह, मन, वचन और कर्म से चतुराई करने की बान छोडकर उन (भगवान) की शरण (आए) हैं॥3॥

सारद श्रुति सेषा रिषय असेषा जा कहुँ कोउ नहिं जाना।
जेहि दीन पिआरे बेद पुकारे द्रवउ सो श्रीभगवाना॥
भव बारिधि मन्दर सब बिधि सुन्दर गुनमन्दिर सुखपुञ्जा।
मुनि सिद्ध सकल सुर परम भयातुर नमत नाथ पद कञ्जा॥4॥

मूल

सारद श्रुति सेषा रिषय असेषा जा कहुँ कोउ नहिं जाना।
जेहि दीन पिआरे बेद पुकारे द्रवउ सो श्रीभगवाना॥
भव बारिधि मन्दर सब बिधि सुन्दर गुनमन्दिर सुखपुञ्जा।
मुनि सिद्ध सकल सुर परम भयातुर नमत नाथ पद कञ्जा॥4॥

भावार्थ

सरस्वती, वेद, शेषजी और सम्पूर्ण ऋषि कोई भी जिनको नहीं जानते, जिन्हें दीन प्रिय हैं, ऐसा वेद पुकारकर कहते हैं, वे ही श्री भगवान हम पर दया करें।

हे संसार रूपी समुद्र के (मथने के) लिए मन्दराचल रूप, सब प्रकार से सुन्दर, गुणों के धाम और सुखों की राशि नाथ! आपके चरण कमलों में मुनि, सिद्ध और सारे देवता भय से अत्यन्त व्याकुल होकर नमस्कार करते हैं॥4॥

186

01 दोहा

02 दोहा

जानि सभय सुर भूमि सुनि बचन समेत सनेह।
गगनगिरा गम्भीर भइ हरनि सोक सन्देह॥186॥

मूल

जानि सभय सुर भूमि सुनि बचन समेत सनेह।
गगनगिरा गम्भीर भइ हरनि सोक सन्देह॥186॥

भावार्थ

देवताओं और पृथ्वी को भयभीत जानकर और उनके स्नेहयुक्त वचन सुनकर शोक और सन्देह को हरने वाली गम्भीर आकाशवाणी हुई॥186॥

03 चौपाई

जनि डरपहु मुनि सिद्ध सुरेसा। तुम्हहि लागि धरिहउँ नर बेसा॥
अंसन्ह सहित मनुज अवतारा। लेहउँ दिनकर बंस उदारा॥1॥

मूल

जनि डरपहु मुनि सिद्ध सुरेसा। तुम्हहि लागि धरिहउँ नर बेसा॥
अंसन्ह सहित मनुज अवतारा। लेहउँ दिनकर बंस उदारा॥1॥

भावार्थ

हे मुनि, सिद्ध और देवताओं के स्वामियों! डरो मत। तुम्हारे लिए मैं मनुष्य का रूप धारण करूँगा और उदार (पवित्र) सूर्यवंश में अंशों सहित मनुष्य का अवतार लूँगा॥1॥

कस्यप अदिति महातप कीन्हा। तिन्ह कहुँ मैं पूरब बर दीन्हा॥
ते दसरथ कौसल्या रूपा। कोसलपुरीं प्रगट नर भूपा॥2॥

मूल

कस्यप अदिति महातप कीन्हा। तिन्ह कहुँ मैं पूरब बर दीन्हा॥
ते दसरथ कौसल्या रूपा। कोसलपुरीं प्रगट नर भूपा॥2॥

भावार्थ

कश्यप और अदिति ने बडा भारी तप किया था। मैं पहले ही उनको वर दे चुका हूँ। वे ही दशरथ और कौसल्या के रूप में मनुष्यों के राजा होकर श्री अयोध्यापुरी में प्रकट हुए हैं॥2॥

तिन्ह कें गृह अवतरिहउँ जाई। रघुकुल तिलक सो चारिउ भाई॥
नारद बचन सत्य सब करिहउँ। परम सक्ति समेत अवतरिहउँ॥3॥

मूल

तिन्ह कें गृह अवतरिहउँ जाई। रघुकुल तिलक सो चारिउ भाई॥
नारद बचन सत्य सब करिहउँ। परम सक्ति समेत अवतरिहउँ॥3॥

भावार्थ

उन्हीं के घर जाकर मैं रघुकुल में श्रेष्ठ चार भाइयों के रूप में अवतार लूँगा। नारद के सब वचन मैं सत्य करूँगा और अपनी पराशक्ति के सहित अवतार लूँगा॥3॥

हरिहउँ सकल भूमि गरुआई। निर्भय होहु देव समुदाई॥
गगन ब्रह्मबानी सुनि काना। तुरत फिरे सुर हृदय जुडाना॥4॥

मूल

हरिहउँ सकल भूमि गरुआई। निर्भय होहु देव समुदाई॥
गगन ब्रह्मबानी सुनि काना। तुरत फिरे सुर हृदय जुडाना॥4॥

भावार्थ

मैं पृथ्वी का सब भार हर लूँगा। हे देववृन्द! तुम निर्भय हो जाओ। आकाश में ब्रह्म (भगवान) की वाणी को कान से सुनकर देवता तुरन्त लौट गए। उनका हृदय शीतल हो गया॥4॥

तब ब्रह्माँ धरनिहि समुझावा। अभय भई भरोस जियँ आवा॥5॥

मूल

तब ब्रह्माँ धरनिहि समुझावा। अभय भई भरोस जियँ आवा॥5॥

भावार्थ

तब ब्रह्माजी ने पृथ्वी को समझाया। वह भी निर्भय हुई और उसके जी में भरोसा (ढाढस) आ गया॥5॥

187

01 दोहा

निज लोकहि बिरञ्चि गे देवन्ह इहइ सिखाइ।
बानर तनु धरि धरि महि हरि पद सेवहु जाइ॥187॥

मूल

निज लोकहि बिरञ्चि गे देवन्ह इहइ सिखाइ।
बानर तनु धरि धरि महि हरि पद सेवहु जाइ॥187॥

भावार्थ

देवताओं को यही सिखाकर कि वानरों का शरीर धर-धरकर तुम लोग पृथ्वी पर जाकर भगवान के चरणों की सेवा करो, ब्रह्माजी अपने लोक को चले गए॥187॥

02 चौपाई

गए देव सब निज निज धामा। भूमि सहित मन कहुँ बिश्रामा॥
जो कछु आयसु ब्रह्माँ दीन्हा। हरषे देव बिलम्ब न कीन्हा॥1॥

मूल

गए देव सब निज निज धामा। भूमि सहित मन कहुँ बिश्रामा॥
जो कछु आयसु ब्रह्माँ दीन्हा। हरषे देव बिलम्ब न कीन्हा॥1॥

भावार्थ

सब देवता अपने-अपने लोक को गए। पृथ्वी सहित सबके मन को शान्ति मिली। ब्रह्माजी ने जो कुछ आज्ञा दी, उससे देवता बहुत प्रसन्न हुए और उन्होन्ने (वैसा करने में) देर नहीं की॥1॥

बनचर देह धरी छिति माहीं। अतुलित बल प्रताप तिन्ह पाहीं॥
गिरि तरु नख आयुध सब बीरा। हरि मारग चितवहिं मतिधीरा॥2॥

मूल

बनचर देह धरी छिति माहीं। अतुलित बल प्रताप तिन्ह पाहीं॥
गिरि तरु नख आयुध सब बीरा। हरि मारग चितवहिं मतिधीरा॥2॥

भावार्थ

पृथ्वी पर उन्होन्ने वानरदेह धारण की। उनमें अपार बल और प्रताप था। सभी शूरवीर थे, पर्वत, वृक्ष और नख ही उनके शस्त्र थे। वे धीर बुद्धि वाले (वानर रूप देवता) भगवान के आने की राह देखने लगे॥2॥

गिरि कानन जहँ तहँ भरि पूरी। रहे निज निज अनीक रचि रूरी॥
यह सब रुचिर चरित मैं भाषा। अब सो सुनहु जो बीचहिं राखा॥3॥

मूल

गिरि कानन जहँ तहँ भरि पूरी। रहे निज निज अनीक रचि रूरी॥
यह सब रुचिर चरित मैं भाषा। अब सो सुनहु जो बीचहिं राखा॥3॥

भावार्थ

वे (वानर) पर्वतों और जङ्गलों में जहाँ-तहाँ अपनी-अपनी सुन्दर सेना बनाकर भरपूर छा गए। यह सब सुन्दर चरित्र मैन्ने कहा। अब वह चरित्र सुनो जिसे बीच ही में छोड दिया था॥3॥

अवधपुरीं रघुकुलमनि राऊ। बेद बिदित तेहि दसरथ नाऊँ॥
धरम धुरन्धर गुननिधि ग्यानी। हृदयँ भगति भति सारँगपानी॥4॥

मूल

अवधपुरीं रघुकुलमनि राऊ। बेद बिदित तेहि दसरथ नाऊँ॥
धरम धुरन्धर गुननिधि ग्यानी। हृदयँ भगति भति सारँगपानी॥4॥

भावार्थ

अवधपुरी में रघुकुल शिरोमणि दशरथ नाम के राजा हुए, जिनका नाम वेदों में विख्यात है। वे धर्मधुरन्धर, गुणों के भण्डार और ज्ञानी थे। उनके हृदय में शांर्गधनुष धारण करने वाले भगवान की भक्ति थी और उनकी बुद्धि भी उन्हीं में लगी रहती थी॥4॥

188

01 दोहा

कौसल्यादि नारि प्रिय सब आचरन पुनीत।
पति अनुकूल प्रेम दृढ हरि पद कमल बिनीत॥188॥

मूल

कौसल्यादि नारि प्रिय सब आचरन पुनीत।
पति अनुकूल प्रेम दृढ हरि पद कमल बिनीत॥188॥

भावार्थ

उनकी कौसल्या आदि प्रिय रानियाँ सभी पवित्र आचरण वाली थीं। वे (बडी) विनीत और पति के अनुकूल (चलने वाली) थीं और श्री हरि के चरणकमलों में उनका दृढ प्रेम था॥188॥

02 चौपाई

एक बार भूपति मन माहीं। भै गलानि मोरें सुत नाहीं॥
गुर गृह गयउ तुरत महिपाला। चरन लागि करि बिनय बिसाला॥1॥

मूल

एक बार भूपति मन माहीं। भै गलानि मोरें सुत नाहीं॥
गुर गृह गयउ तुरत महिपाला। चरन लागि करि बिनय बिसाला॥1॥

भावार्थ

एक बार राजा के मन में बडी ग्लानि हुई कि मेरे पुत्र नहीं है। राजा तुरन्त ही गुरु के घर गए और चरणों में प्रणाम कर बहुत विनय की॥1॥

निज दुख सुख सब गुरहि सुनायउ। कहि बसिष्ठ बहुबिधि समुझायउ॥
धरहु धीर होइहहिं सुत चारी। त्रिभुवन बिदित भगत भय हारी॥2॥

मूल

निज दुख सुख सब गुरहि सुनायउ। कहि बसिष्ठ बहुबिधि समुझायउ॥
धरहु धीर होइहहिं सुत चारी। त्रिभुवन बिदित भगत भय हारी॥2॥

भावार्थ

राजा ने अपना सारा सुख-दुःख गुरु को सुनाया। गुरु वशिष्ठजी ने उन्हें बहुत प्रकार से समझाया (और कहा-) धीरज धरो, तुम्हारे चार पुत्र होङ्गे, जो तीनों लोकों में प्रसिद्ध और भक्तों के भय को हरने वाले होङ्गे॥2॥

सृङ्गी रिषिहि बसिष्ठ बोलावा। पुत्रकाम सुभ जग्य करावा॥
भगति सहित मुनि आहुति दीन्हें। प्रगटे अगिनि चरू कर लीन्हें॥3॥

मूल

सृङ्गी रिषिहि बसिष्ठ बोलावा। पुत्रकाम सुभ जग्य करावा॥
भगति सहित मुनि आहुति दीन्हें। प्रगटे अगिनि चरू कर लीन्हें॥3॥

भावार्थ

वशिष्ठजी ने श्रृङ्गी ऋषि को बुलवाया और उनसे शुभ पुत्रकामेष्टि यज्ञ कराया। मुनि के भक्ति सहित आहुतियाँ देने पर अग्निदेव हाथ में चरु (हविष्यान्न खीर) लिए प्रकट हुए॥3॥

जो बसिष्ठ कछु हृदयँ बिचारा। सकल काजु भा सिद्ध तुम्हारा॥
यह हबि बाँटि देहु नृप जाई। जथा जोग जेहि भाग बनाई॥4॥

मूल

जो बसिष्ठ कछु हृदयँ बिचारा। सकल काजु भा सिद्ध तुम्हारा॥
यह हबि बाँटि देहु नृप जाई। जथा जोग जेहि भाग बनाई॥4॥

भावार्थ

(और दशरथ से बोले-) वशिष्ठ ने हृदय में जो कुछ विचारा था, तुम्हारा वह सब काम सिद्ध हो गया। हे राजन्‌! (अब) तुम जाकर इस हविष्यान्न (पायस) को, जिसको जैसा उचित हो, वैसा भाग बनाकर बाँट दो॥4॥

189

01 दोहा

तब अदृस्य भए पावक सकल सभहि समुझाइ।
परमानन्द मगन नृप हरष न हृदयँ समाइ॥189॥

मूल

तब अदृस्य भए पावक सकल सभहि समुझाइ।
परमानन्द मगन नृप हरष न हृदयँ समाइ॥189॥

भावार्थ

तदनन्तर अग्निदेव सारी सभा को समझाकर अन्तर्धान हो गए। राजा परमानन्द में मग्न हो गए, उनके हृदय में हर्ष समाता न था॥189॥

02 चौपाई

तबहिं रायँ प्रिय नारि बोलाईं। कौसल्यादि तहाँ चलि आईं॥
अर्ध भाग कौसल्यहि दीन्हा। उभय भाग आधे कर कीन्हा॥1॥

मूल

तबहिं रायँ प्रिय नारि बोलाईं। कौसल्यादि तहाँ चलि आईं॥
अर्ध भाग कौसल्यहि दीन्हा। उभय भाग आधे कर कीन्हा॥1॥

भावार्थ

उसी समय राजा ने अपनी प्यारी पत्नियों को बुलाया। कौसल्या आदि सब (रानियाँ) वहाँ चली आईं। राजा ने (पायस का) आधा भाग कौसल्या को दिया, (और शेष) आधे के दो भाग किए॥1॥

कैकेई कहँ नृप सो दयऊ। रह्यो सो उभय भाग पुनि भयऊ॥
कौसल्या कैकेई हाथ धरि। दीन्ह सुमित्रहि मन प्रसन्न करि॥2॥

मूल

कैकेई कहँ नृप सो दयऊ। रह्यो सो उभय भाग पुनि भयऊ॥
कौसल्या कैकेई हाथ धरि। दीन्ह सुमित्रहि मन प्रसन्न करि॥2॥

भावार्थ

वह (उनमें से एक भाग) राजा ने कैकेयी को दिया। शेष जो बच रहा उसके फिर दो भाग हुए और राजा ने उनको कौसल्या और कैकेयी के हाथ पर रखकर (अर्थात्‌ उनकी अनुमति लेकर) और इस प्रकार उनका मन प्रसन्न करके सुमित्रा को दिया॥2॥

एहि बिधि गर्भसहित सब नारी। भईं हृदयँ हरषित सुख भारी॥
जा दिन तें हरि गर्भहिं आए। सकल लोक सुख सम्पति छाए॥3॥

मूल

एहि बिधि गर्भसहित सब नारी। भईं हृदयँ हरषित सुख भारी॥
जा दिन तें हरि गर्भहिं आए। सकल लोक सुख सम्पति छाए॥3॥

भावार्थ

इस प्रकार सब स्त्रियाँ गर्भवती हुईं। वे हृदय में बहुत हर्षित हुईं। उन्हें बडा सुख मिला। जिस दिन से श्री हरि (लीला से ही) गर्भ में आए, सब लोकों में सुख और सम्पत्ति छा गई॥3॥

मन्दिर महँ सब राजहिं रानीं। सोभा सील तेज की खानीं॥
सुख जुत कछुक काल चलि गयऊ। जेहिं प्रभु प्रगट सो अवसर भयऊ॥4॥

मूल

मन्दिर महँ सब राजहिं रानीं। सोभा सील तेज की खानीं॥
सुख जुत कछुक काल चलि गयऊ। जेहिं प्रभु प्रगट सो अवसर भयऊ॥4॥

भावार्थ

शोभा, शील और तेज की खान (बनी हुई) सब रानियाँ महल में सुशोभित हुईं। इस प्रकार कुछ समय सुखपूर्वक बीता और वह अवसर आ गया, जिसमें प्रभु को प्रकट होना था॥4॥

190

01 दोहा

जोग लगन ग्रह बार तिथि सकल भए अनुकूल।
चर अरु अचर हर्षजुत राम जनम सुखमूल॥190॥

मूल

जोग लगन ग्रह बार तिथि सकल भए अनुकूल।
चर अरु अचर हर्षजुत राम जनम सुखमूल॥190॥

भावार्थ

योग, लग्न, ग्रह, वार और तिथि सभी अनुकूल हो गए। जड और चेतन सब हर्ष से भर गए। (क्योङ्कि) श्री राम का जन्म सुख का मूल है॥190॥

02 चौपाई

नौमी तिथि मधु मास पुनीता। सुकल पच्छ अभिजित हरिप्रीता॥
मध्यदिवस अति सीत न घामा। पावन काल लोक बिश्रामा॥1॥

मूल

नौमी तिथि मधु मास पुनीता। सुकल पच्छ अभिजित हरिप्रीता॥
मध्यदिवस अति सीत न घामा। पावन काल लोक बिश्रामा॥1॥

भावार्थ

पवित्र चैत्र का महीना था, नवमी तिथि थी। शुक्ल पक्ष और भगवान का प्रिय अभिजित्‌ मुहूर्त था। दोपहर का समय था। न बहुत सर्दी थी, न धूप (गरमी) थी। वह पवित्र समय सब लोकों को शान्ति देने वाला था॥1॥

सीतल मन्द सुरभि बह बाऊ। हरषित सुर सन्तन मन चाऊ॥
बन कुसुमित गिरिगन मनिआरा। स्रवहिं सकल सरिताऽमृतधारा॥2॥

मूल

सीतल मन्द सुरभि बह बाऊ। हरषित सुर सन्तन मन चाऊ॥
बन कुसुमित गिरिगन मनिआरा। स्रवहिं सकल सरिताऽमृतधारा॥2॥

भावार्थ

शीतल, मन्द और सुगन्धित पवन बह रहा था। देवता हर्षित थे और सन्तों के मन में (बडा) चाव था। वन फूले हुए थे, पर्वतों के समूह मणियों से जगमगा रहे थे और सारी नदियाँ अमृत की धारा बहा रही थीं॥2॥

सो अवसर बिरञ्चि जब जाना। चले सकल सुर साजि बिमाना॥
गगन बिमल सङ्कुल सुर जूथा। गावहिं गुन गन्धर्ब बरूथा॥3॥

मूल

सो अवसर बिरञ्चि जब जाना। चले सकल सुर साजि बिमाना॥
गगन बिमल सङ्कुल सुर जूथा। गावहिं गुन गन्धर्ब बरूथा॥3॥

भावार्थ

जब ब्रह्माजी ने वह (भगवान के प्रकट होने का) अवसर जाना तब (उनके समेत) सारे देवता विमान सजा-सजाकर चले। निर्मल आकाश देवताओं के समूहों से भर गया। गन्धर्वों के दल गुणों का गान करने लगे॥3॥

बरषहिं सुमन सुअञ्जुलि साजी। गहगहि गगन दुन्दुभी बाजी॥
अस्तुति करहिं नाग मुनि देवा। बहुबिधि लावहिं निज निज सेवा॥4॥

मूल

बरषहिं सुमन सुअञ्जुलि साजी। गहगहि गगन दुन्दुभी बाजी॥
अस्तुति करहिं नाग मुनि देवा। बहुबिधि लावहिं निज निज सेवा॥4॥

भावार्थ

और सुन्दर अञ्जलियों में सजा-सजाकर पुष्प बरसाने लगे। आकाश में घमाघम नगाडे बजने लगे। नाग, मुनि और देवता स्तुति करने लगे और बहुत प्रकार से अपनी-अपनी सेवा (उपहार) भेण्ट करने लगे॥4॥

191

01 दोहा

सुर समूह बिनती करि पहुँचे निज निज धाम।
जगनिवास प्रभु प्रगटे अखिल लोक बिश्राम॥191

मूल

सुर समूह बिनती करि पहुँचे निज निज धाम।
जगनिवास प्रभु प्रगटे अखिल लोक बिश्राम॥191

भावार्थ

देवताओं के समूह विनती करके अपने-अपने लोक में जा पहुँचे। समस्त लोकों को शान्ति देने वाले, जगदाधार प्रभु प्रकट हुए॥191॥

भए प्रगट कृपाला दीनदयाला कौसल्या हितकारी।
हरषित महतारी मुनि मन हारी अद्भुत रूप बिचारी॥
लोचन अभिरामा तनु घनस्यामा निज आयुध भुजचारी।
भूषन बनमाला नयन बिसाला सोभासिन्धु खरारी॥1॥

मूल

भए प्रगट कृपाला दीनदयाला कौसल्या हितकारी।
हरषित महतारी मुनि मन हारी अद्भुत रूप बिचारी॥
लोचन अभिरामा तनु घनस्यामा निज आयुध भुजचारी।
भूषन बनमाला नयन बिसाला सोभासिन्धु खरारी॥1॥

भावार्थ

दीनों पर दया करने वाले, कौसल्याजी के हितकारी कृपालु प्रभु प्रकट हुए। मुनियों के मन को हरने वाले उनके अद्भुत रूप का विचार करके माता हर्ष से भर गई। नेत्रों को आनन्द देने वाला मेघ के समान श्याम शरीर था, चारों भुजाओं में अपने (खास) आयुध (धारण किए हुए) थे, (दिव्य) आभूषण और वनमाला पहने थे, बडे-बडे नेत्र थे। इस प्रकार शोभा के समुद्र तथा खर राक्षस को मारने वाले भगवान प्रकट हुए॥1॥

कह दुइ कर जोरी अस्तुति तोरी केहि बिधि करौं अनन्ता।
माया गुन ग्यानातीत अमाना बेद पुरान भनन्ता॥
करुना सुख सागर सब गुन आगर जेहि गावहिं श्रुति सन्ता।
सो मम हित लागी जन अनुरागी भयउ प्रगट श्रीकन्ता॥2॥

मूल

कह दुइ कर जोरी अस्तुति तोरी केहि बिधि करौं अनन्ता।
माया गुन ग्यानातीत अमाना बेद पुरान भनन्ता॥
करुना सुख सागर सब गुन आगर जेहि गावहिं श्रुति सन्ता।
सो मम हित लागी जन अनुरागी भयउ प्रगट श्रीकन्ता॥2॥

भावार्थ

दोनों हाथ जोडकर माता कहने लगी- हे अनन्त! मैं किस प्रकार तुम्हारी स्तुति करूँ। वेद और पुराण तुम को माया, गुण और ज्ञान से परे और परिमाण रहित बतलाते हैं। श्रुतियाँ और सन्तजन दया और सुख का समुद्र, सब गुणों का धाम कहकर जिनका गान करते हैं, वही भक्तों पर प्रेम करने वाले लक्ष्मीपति भगवान मेरे कल्याण के लिए प्रकट हुए हैं॥2॥

ब्रह्माण्ड निकाया निर्मित माया रोम रोम प्रति बेद कहै।
मम उर सो बासी यह उपहासी सुनत धीर मति थिर न रहै॥
उपजा जब ग्याना प्रभु मुसुकाना चरित बहुत बिधि कीन्ह चहै।
कहि कथा सुहाई मातु बुझाई जेहि प्रकार सुत प्रेम लहै॥3॥

मूल

ब्रह्माण्ड निकाया निर्मित माया रोम रोम प्रति बेद कहै।
मम उर सो बासी यह उपहासी सुनत धीर मति थिर न रहै॥
उपजा जब ग्याना प्रभु मुसुकाना चरित बहुत बिधि कीन्ह चहै।
कहि कथा सुहाई मातु बुझाई जेहि प्रकार सुत प्रेम लहै॥3॥

भावार्थ

वेद कहते हैं कि तुम्हारे प्रत्येक रोम में माया के रचे हुए अनेकों ब्रह्माण्डों के समूह (भरे) हैं। वे तुम मेरे गर्भ में रहे- इस हँसी की बात के सुनने पर धीर (विवेकी) पुरुषों की बुद्धि भी स्थिर नहीं रहती (विचलित हो जाती है)। जब माता को ज्ञान उत्पन्न हुआ, तब प्रभु मुस्कुराए। वे बहुत प्रकार के चरित्र करना चाहते हैं। अतः उन्होन्ने (पूर्व जन्म की) सुन्दर कथा कहकर माता को समझाया, जिससे उन्हें पुत्र का (वात्सल्य) प्रेम प्राप्त हो (भगवान के प्रति पुत्र भाव हो जाए)॥3॥

माता पुनि बोली सो मति डोली तजहु तात यह रूपा।
कीजै सिसुलीला अति प्रियसीला यह सुख परम अनूपा॥
सुनि बचन सुजाना रोदन ठाना होइ बालक सुरभूपा।
यह चरित जे गावहिं हरिपद पावहिं ते न परहिं भवकूपा॥4॥

मूल

माता पुनि बोली सो मति डोली तजहु तात यह रूपा।
कीजै सिसुलीला अति प्रियसीला यह सुख परम अनूपा॥
सुनि बचन सुजाना रोदन ठाना होइ बालक सुरभूपा।
यह चरित जे गावहिं हरिपद पावहिं ते न परहिं भवकूपा॥4॥

भावार्थ

माता की वह बुद्धि बदल गई, तब वह फिर बोली- हे तात! यह रूप छोडकर अत्यन्त प्रिय बाललीला करो, (मेरे लिए) यह सुख परम अनुपम होगा। (माता का) यह वचन सुनकर देवताओं के स्वामी सुजान भगवान ने बालक (रूप) होकर रोना शुरू कर दिया। (तुलसीदासजी कहते हैं-) जो इस चरित्र का गान करते हैं, वे श्री हरि का पद पाते हैं और (फिर) संसार रूपी कूप में नहीं गिरते॥4॥

192

01 दोहा

बिप्र धेनु सुर सन्त हित लीन्ह मनुज अवतार।
निज इच्छा निर्मित तनु माया गुन गो पार॥192॥

मूल

बिप्र धेनु सुर सन्त हित लीन्ह मनुज अवतार।
निज इच्छा निर्मित तनु माया गुन गो पार॥192॥

भावार्थ

ब्राह्मण, गो, देवता और सन्तों के लिए भगवान ने मनुष्य का अवतार लिया। वे (अज्ञानमयी, मलिना) माया और उसके गुण (सत्‌, रज, तम) और (बाहरी तथा भीतरी) इन्द्रियों से परे हैं। उनका (दिव्य) शरीर अपनी इच्छा से ही बना है (किसी कर्म बन्धन से परवश होकर त्रिगुणात्मक भौतिक पदार्थों के द्वारा नहीं)॥192॥

02 चौपाई

सुनि सिसु रुदन परम प्रिय बानी। सम्भ्रम चलि आईं सब रानी॥
हरषित जहँ तहँ धाईं दासी। आनँद मगन सकल पुरबासी॥1॥

मूल

सुनि सिसु रुदन परम प्रिय बानी। सम्भ्रम चलि आईं सब रानी॥
हरषित जहँ तहँ धाईं दासी। आनँद मगन सकल पुरबासी॥1॥

भावार्थ

बच्चे के रोने की बहुत ही प्यारी ध्वनि सुनकर सब रानियाँ उतावली होकर दौडी चली आईं। दासियाँ हर्षित होकर जहाँ-तहाँ दौडीं। सारे पुरवासी आनन्द में मग्न हो गए॥1॥

दसरथ पुत्रजन्म सुनि काना। मानहु ब्रह्मानन्द समाना॥
परम प्रेम मन पुलक सरीरा। चाहत उठन करत मति धीरा॥2॥

मूल

दसरथ पुत्रजन्म सुनि काना। मानहु ब्रह्मानन्द समाना॥
परम प्रेम मन पुलक सरीरा। चाहत उठन करत मति धीरा॥2॥

भावार्थ

राजा दशरथजी पुत्र का जन्म कानों से सुनकर मानो ब्रह्मानन्द में समा गए। मन में अतिशय प्रेम है, शरीर पुलकित हो गया। (आनन्द में अधीर हुई) बुद्धि को धीरज देकर (और प्रेम में शिथिल हुए शरीर को सम्भालकर) वे उठना चाहते हैं॥2॥

जाकर नाम सुनत सुभ होई। मोरें गृह आवा प्रभु सोई॥
परमानन्द पूरि मन राजा। कहा बोलाइ बजावहु बाजा॥3॥

मूल

जाकर नाम सुनत सुभ होई। मोरें गृह आवा प्रभु सोई॥
परमानन्द पूरि मन राजा। कहा बोलाइ बजावहु बाजा॥3॥

भावार्थ

जिनका नाम सुनने से ही कल्याण होता है, वही प्रभु मेरे घर आए हैं। (यह सोचकर) राजा का मन परम आनन्द से पूर्ण हो गया। उन्होन्ने बाजे वालों को बुलाकर कहा कि बाजा बजाओ॥3॥

गुर बसिष्ठ कहँ गयउ हँकारा। आए द्विजन सहित नृपद्वारा॥
अनुपम बालक देखेन्हि जाई। रूप रासि गुन कहि न सिराई॥4॥

मूल

गुर बसिष्ठ कहँ गयउ हँकारा। आए द्विजन सहित नृपद्वारा॥
अनुपम बालक देखेन्हि जाई। रूप रासि गुन कहि न सिराई॥4॥

भावार्थ

गुरु वशिष्ठजी के पास बुलावा गया। वे ब्राह्मणों को साथ लिए राजद्वार पर आए। उन्होन्ने जाकर अनुपम बालक को देखा, जो रूप की राशि है और जिसके गुण कहने से समाप्त नहीं होते॥4॥

193

01 दोहा

नन्दीमुख सराध करि जातकरम सब कीन्ह।
हाटक धेनु बसन मनि नृप बिप्रन्ह कहँ दीन्ह॥193॥

मूल

नन्दीमुख सराध करि जातकरम सब कीन्ह।
हाटक धेनु बसन मनि नृप बिप्रन्ह कहँ दीन्ह॥193॥

भावार्थ

फिर राजा ने नान्दीमुख श्राद्ध करके सब जातकर्म-संस्कार आदि किए और ब्राह्मणों को सोना, गो, वस्त्र और मणियों का दान दिया॥193॥

02 चौपाई

ध्वज पताक तोरन पुर छावा। कहि न जाइ जेहि भाँति बनावा॥
सुमनबृष्टि अकास तें होई। ब्रह्मानन्द मगन सब लोई॥1॥

मूल

ध्वज पताक तोरन पुर छावा। कहि न जाइ जेहि भाँति बनावा॥
सुमनबृष्टि अकास तें होई। ब्रह्मानन्द मगन सब लोई॥1॥

भावार्थ

ध्वजा, पताका और तोरणों से नगर छा गया। जिस प्रकार से वह सजाया गया, उसका तो वर्णन ही नहीं हो सकता। आकाश से फूलों की वर्षा हो रही है, सब लोग ब्रह्मानन्द में मग्न हैं॥1॥

बृन्द बृन्द मिलि चलीं लोगाईं। सहज सिङ्गार किएँ उठि धाईं॥
कनक कलस मङ्गल भरि थारा। गावत पैठहिं भूप दुआरा॥2॥

मूल

बृन्द बृन्द मिलि चलीं लोगाईं। सहज सिङ्गार किएँ उठि धाईं॥
कनक कलस मङ्गल भरि थारा। गावत पैठहिं भूप दुआरा॥2॥

भावार्थ

स्त्रियाँ झुण्ड की झुण्ड मिलकर चलीं। स्वाभाविक श्रृङ्गार किए ही वे उठ दौडीं। सोने का कलश लेकर और थालों में मङ्गल द्रव्य भरकर गाती हुईं राजद्वार में प्रवेश करती हैं॥2॥

करि आरति नेवछावरि करहीं। बार बार सिसु चरनन्हि परहीं॥
मागध सूत बन्दिगन गायक। पावन गुन गावहिं रघुनायक॥3॥

मूल

करि आरति नेवछावरि करहीं। बार बार सिसु चरनन्हि परहीं॥
मागध सूत बन्दिगन गायक। पावन गुन गावहिं रघुनायक॥3॥

भावार्थ

वे आरती करके निछावर करती हैं और बार-बार बच्चे के चरणों पर गिरती हैं। मागध, सूत, वन्दीजन और गवैये रघुकुल के स्वामी के पवित्र गुणों का गान करते हैं॥3॥

सर्बस दान दीन्ह सब काहू। जेहिं पावा राखा नहिं ताहू॥
मृगमद चन्दन कुङ्कुम कीचा। मची सकल बीथिन्ह बिच बीचा॥4॥

मूल

सर्बस दान दीन्ह सब काहू। जेहिं पावा राखा नहिं ताहू॥
मृगमद चन्दन कुङ्कुम कीचा। मची सकल बीथिन्ह बिच बीचा॥4॥

भावार्थ

राजा ने सब किसी को भरपूर दान दिया। जिसने पाया उसने भी नहीं रखा (लुटा दिया)। (नगर की) सभी गलियों के बीच-बीच में कस्तूरी, चन्दन और केसर की कीच मच गई॥4॥

194

01 दोहा

गृह गृह बाज बधाव सुभ प्रगटे सुषमा कन्द।
हरषवन्त सब जहँ तहँ नगर नारि नर बृन्द॥194॥

मूल

गृह गृह बाज बधाव सुभ प्रगटे सुषमा कन्द।
हरषवन्त सब जहँ तहँ नगर नारि नर बृन्द॥194॥

भावार्थ

घर-घर मङ्गलमय बधावा बजने लगा, क्योङ्कि शोभा के मूल भगवान प्रकट हुए हैं। नगर के स्त्री-पुरुषों के झुण्ड के झुण्ड जहाँ-तहाँ आनन्दमग्न हो रहे हैं॥194॥

02 चौपाई

कैकयसुता सुमित्रा दोऊ। सुन्दर सुत जनमत भैं ओऊ॥
वह सुख सम्पति समय समाजा। कहि न सकइ सारद अहिराजा॥1॥

मूल

कैकयसुता सुमित्रा दोऊ। सुन्दर सुत जनमत भैं ओऊ॥
वह सुख सम्पति समय समाजा। कहि न सकइ सारद अहिराजा॥1॥

भावार्थ

कैकेयी और सुमित्रा- इन दोनों ने भी सुन्दर पुत्रों को जन्म दिया। उस सुख, सम्पत्ति, समय और समाज का वर्णन सरस्वती और सर्पों के राजा शेषजी भी नहीं कर सकते॥1॥

अवधपुरी सोहइ एहि भाँती। प्रभुहि मिलन आई जनु राती॥
देखि भानु जनु मन सकुचानी। तदपि बनी सन्ध्या अनुमानी॥2॥

मूल

अवधपुरी सोहइ एहि भाँती। प्रभुहि मिलन आई जनु राती॥
देखि भानु जनु मन सकुचानी। तदपि बनी सन्ध्या अनुमानी॥2॥

भावार्थ

अवधपुरी इस प्रकार सुशोभित हो रही है, मानो रात्रि प्रभु से मिलने आई हो और सूर्य को देखकर मानो मन में सकुचा गई हो, परन्तु फिर भी मन में विचार कर वह मानो सन्ध्या बन (कर रह) गई हो॥2॥

अगर धूप बहु जनु अँधिआरी। उडइ अबीर मनहुँ अरुनारी॥
मन्दिर मनि समूह जनु तारा। नृप गृह कलस सो इन्दु उदारा॥3॥

मूल

अगर धूप बहु जनु अँधिआरी। उडइ अबीर मनहुँ अरुनारी॥
मन्दिर मनि समूह जनु तारा। नृप गृह कलस सो इन्दु उदारा॥3॥

भावार्थ

अगर की धूप का बहुत सा धुआँ मानो (सन्ध्या का) अन्धकार है और जो अबीर उड रहा है, वह उसकी ललाई है। महलों में जो मणियों के समूह हैं, वे मानो तारागण हैं। राज महल का जो कलश है, वही मानो श्रेष्ठ चन्द्रमा है॥3॥

भवन बेदधुनि अति मृदु बानी। जनु खग मुखर समयँ जनु सानी॥
कौतुक देखि पतङ्ग भुलाना। एक मास तेइँ जात न जाना॥4॥

मूल

भवन बेदधुनि अति मृदु बानी। जनु खग मुखर समयँ जनु सानी॥
कौतुक देखि पतङ्ग भुलाना। एक मास तेइँ जात न जाना॥4॥

भावार्थ

राजभवन में जो अति कोमल वाणी से वेदध्वनि हो रही है, वही मानो समय से (समयानुकूल) सनी हुई पक्षियों की चहचहाहट है। यह कौतुक देखकर सूर्य भी (अपनी चाल) भूल गए। एक महीना उन्होन्ने जाता हुआ न जाना (अर्थात उन्हें एक महीना वहीं बीत गया)॥4॥

195

01 दोहा

मास दिवस कर दिवस भा मरम न जानइ कोइ।
रथ समेत रबि थाकेउ निसा कवन बिधि होइ॥195॥

मूल

मास दिवस कर दिवस भा मरम न जानइ कोइ।
रथ समेत रबि थाकेउ निसा कवन बिधि होइ॥195॥

भावार्थ

महीने भर का दिन हो गया। इस रहस्य को कोई नहीं जानता। सूर्य अपने रथ सहित वहीं रुक गए, फिर रात किस तरह होती॥195॥

02 चौपाई

यह रहस्य काहूँ नहिं जाना। दिनमनि चले करत गुनगाना॥
देखि महोत्सव सुर मुनि नागा। चले भवन बरनत निज भागा॥1॥

मूल

यह रहस्य काहूँ नहिं जाना। दिनमनि चले करत गुनगाना॥
देखि महोत्सव सुर मुनि नागा। चले भवन बरनत निज भागा॥1॥

भावार्थ

यह रहस्य किसी ने नहीं जाना। सूर्यदेव (भगवान श्री रामजी का) गुणगान करते हुए चले। यह महोत्सव देखकर देवता, मुनि और नाग अपने भाग्य की सराहना करते हुए अपने-अपने घर चले॥1॥

औरउ एक कहउँ निज चोरी। सुनु गिरिजा अति दृढ मति तोरी॥
काकभुसुण्डि सङ्ग हम दोऊ। मनुजरूप जानइ नहिं कोऊ॥2॥

मूल

औरउ एक कहउँ निज चोरी। सुनु गिरिजा अति दृढ मति तोरी॥
काकभुसुण्डि सङ्ग हम दोऊ। मनुजरूप जानइ नहिं कोऊ॥2॥

भावार्थ

हे पार्वती! तुम्हारी बुद्धि (श्री रामजी के चरणों में) बहुत दृढ है, इसलिए मैं और भी अपनी एक चोरी (छिपाव) की बात कहता हूँ, सुनो। काकभुशुण्डि और मैं दोनों वहाँ साथ-साथ थे, परन्तु मनुष्य रूप में होने के कारण हमें कोई जान न सका॥2॥

परमानन्द प्रेम सुख फूले। बीथिन्ह फिरहिं मगन मन भूले॥
यह सुभ चरित जान पै सोई। कृपा राम कै जापर होई॥3॥

मूल

परमानन्द प्रेम सुख फूले। बीथिन्ह फिरहिं मगन मन भूले॥
यह सुभ चरित जान पै सोई। कृपा राम कै जापर होई॥3॥

भावार्थ

परम आनन्द और प्रेम के सुख में फूले हुए हम दोनों मगन मन से (मस्त हुए) गलियों में (तन-मन की सुधि) भूले हुए फिरते थे, परन्तु यह शुभ चरित्र वही जान सकता है, जिस पर श्री रामजी की कृपा हो॥3॥

तेहि अवसर जो जेहि बिधि आवा। दीन्ह भूप जो जेहि मन भावा॥
गज रथ तुरग हेम गो हीरा। दीन्हे नृप नानाबिधि चीरा॥4॥

मूल

तेहि अवसर जो जेहि बिधि आवा। दीन्ह भूप जो जेहि मन भावा॥
गज रथ तुरग हेम गो हीरा। दीन्हे नृप नानाबिधि चीरा॥4॥

भावार्थ

उस अवसर पर जो जिस प्रकार आया और जिसके मन को जो अच्छा लगा, राजा ने उसे वही दिया। हाथी, रथ, घोडे, सोना, गायें, हीरे और भाँति-भाँति के वस्त्र राजा ने दिए॥4॥

196

01 दोहा

मन सन्तोषे सबन्हि के जहँ तहँ देहिं असीस।
सकल तनय चिर जीवहुँ तुलसिदास के ईस॥196॥

मूल

मन सन्तोषे सबन्हि के जहँ तहँ देहिं असीस।
सकल तनय चिर जीवहुँ तुलसिदास के ईस॥196॥

भावार्थ

राजा ने सबके मन को सन्तुष्ट किया। (इसी से) सब लोग जहाँ-तहाँ आशीर्वाद दे रहे थे कि तुलसीदास के स्वामी सब पुत्र (चारों राजकुमार) चिरजीवी (दीर्घायु) हों॥196॥

02 चौपाई

कछुक दिवस बीते एहि भाँती। जात न जानिअ दिन अरु राती॥
नामकरन कर अवसरु जानी। भूप बोलि पठए मुनि ग्यानी॥1॥

मूल

कछुक दिवस बीते एहि भाँती। जात न जानिअ दिन अरु राती॥
नामकरन कर अवसरु जानी। भूप बोलि पठए मुनि ग्यानी॥1॥

भावार्थ

इस प्रकार कुछ दिन बीत गए। दिन और रात जाते हुए जान नहीं पडते। तब नामकरण संस्कार का समय जानकर राजा ने ज्ञानी मुनि श्री वशिष्ठजी को बुला भेजा॥1॥

करि पूजा भूपति अस भाषा। धरिअ नाम जो मुनि गुनि राखा॥
इन्ह के नाम अनेक अनूपा। मैं नृप कहब स्वमति अनुरूपा॥2॥

मूल

करि पूजा भूपति अस भाषा। धरिअ नाम जो मुनि गुनि राखा॥
इन्ह के नाम अनेक अनूपा। मैं नृप कहब स्वमति अनुरूपा॥2॥

भावार्थ

मुनि की पूजा करके राजा ने कहा- हे मुनि! आपने मन में जो विचार रखे हों, वे नाम रखिए। (मुनि ने कहा-) हे राजन्‌! इनके अनुपम नाम हैं, फिर भी मैं अपनी बुद्धि के अनुसार कहूँगा॥2॥

जो आनन्द सिन्धु सुखरासी। सीकर तें त्रैलोक सुपासी॥
सो सुखधाम राम अस नामा। अखिल लोक दायक बिश्रामा॥3॥

मूल

जो आनन्द सिन्धु सुखरासी। सीकर तें त्रैलोक सुपासी॥
सो सुखधाम राम अस नामा। अखिल लोक दायक बिश्रामा॥3॥

भावार्थ

ये जो आनन्द के समुद्र और सुख की राशि हैं, जिस (आनन्दसिन्धु) के एक कण से तीनों लोक सुखी होते हैं, उन (आपके सबसे बडे पुत्र) का नाम ‘राम’ है, जो सुख का भवन और सम्पूर्ण लोकों को शान्ति देने वाला है॥3॥

बिस्व भरन पोषन कर जोई। ताकर नाम भरत अस होई॥
जाके सुमिरन तें रिपु नासा। नाम सत्रुहन बेद प्रकासा॥4॥

मूल

बिस्व भरन पोषन कर जोई। ताकर नाम भरत अस होई॥
जाके सुमिरन तें रिपु नासा। नाम सत्रुहन बेद प्रकासा॥4॥

भावार्थ

जो संसार का भरण-पोषण करते हैं, उन (आपके दूसरे पुत्र) का नाम ‘भरत’ होगा, जिनके स्मरण मात्र से शत्रु का नाश होता है, उनका वेदों में प्रसिद्ध ‘शत्रुघ्न’ नाम है॥4॥

197

01 दोहा

लच्छन धाम राम प्रिय सकल जगत आधार।
गुरु बसिष्ठ तेहि राखा लछिमन नाम उदार॥197॥

मूल

लच्छन धाम राम प्रिय सकल जगत आधार।
गुरु बसिष्ठ तेहि राखा लछिमन नाम उदार॥197॥

भावार्थ

जो शुभ लक्षणों के धाम, श्री रामजी के प्यारे और सारे जगत के आधार हैं, गुरु वशिष्ठजी ने उनका ‘लक्ष्मण’ ऐसा श्रेष्ठ नाम रखा है॥197॥

02 चौपाई

धरे नाम गुर हृदयँ बिचारी। बेद तत्व नृप तव सुत चारी॥
मुनि धन जन सरबस सिव प्राना। बाल केलि रस तेहिं सुख माना॥1॥

मूल

धरे नाम गुर हृदयँ बिचारी। बेद तत्व नृप तव सुत चारी॥
मुनि धन जन सरबस सिव प्राना। बाल केलि रस तेहिं सुख माना॥1॥

भावार्थ

गुरुजी ने हृदय में विचार कर ये नाम रखे (और कहा-) हे राजन्‌! तुम्हारे चारों पुत्र वेद के तत्त्व (साक्षात्‌ परात्पर भगवान) हैं। जो मुनियों के धन, भक्तों के सर्वस्व और शिवजी के प्राण हैं, उन्होन्ने (इस समय तुम लोगों के प्रेमवश) बाल लीला के रस में सुख माना है॥1॥

बारेहि ते निज हित पति जानी। लछिमन राम चरन रति मानी॥
भरत सत्रुहन दूनउ भाई। प्रभु सेवक जसि प्रीति बडाई॥2॥

मूल

बारेहि ते निज हित पति जानी। लछिमन राम चरन रति मानी॥
भरत सत्रुहन दूनउ भाई। प्रभु सेवक जसि प्रीति बडाई॥2॥

भावार्थ

बचपन से ही श्री रामचन्द्रजी को अपना परम हितैषी स्वामी जानकर लक्ष्मणजी ने उनके चरणों में प्रीति जोड ली। भरत और शत्रुघ्न दोनों भाइयों में स्वामी और सेवक की जिस प्रीति की प्रशंसा है, वैसी प्रीति हो गई॥2॥

स्याम गौर सुन्दर दोउ जोरी। निरखहिं छबि जननीं तृन तोरी॥
चारिउ सील रूप गुन धामा। तदपि अधिक सुखसागर रामा॥3॥

मूल

स्याम गौर सुन्दर दोउ जोरी। निरखहिं छबि जननीं तृन तोरी॥
चारिउ सील रूप गुन धामा। तदपि अधिक सुखसागर रामा॥3॥

भावार्थ

श्याम और गौर शरीर वाली दोनों सुन्दर जोडियों की शोभा को देखकर माताएँ तृण तोडती हैं (जिसमें दीठ न लग जाए)। यों तो चारों ही पुत्र शील, रूप और गुण के धाम हैं, तो भी सुख के समुद्र श्री रामचन्द्रजी सबसे अधिक हैं॥3॥

हृदयँ अनुग्रह इन्दु प्रकासा। सूचत किरन मनोहर हासा॥
कबहुँ उछङ्ग कबहुँ बर पलना। मातु दुलारइ कहि प्रिय ललना॥4॥

मूल

हृदयँ अनुग्रह इन्दु प्रकासा। सूचत किरन मनोहर हासा॥
कबहुँ उछङ्ग कबहुँ बर पलना। मातु दुलारइ कहि प्रिय ललना॥4॥

भावार्थ

उनके हृदय में कृपा रूपी चन्द्रमा प्रकाशित है। उनकी मन को हरने वाली हँसी उस (कृपा रूपी चन्द्रमा) की किरणों को सूचित करती है। कभी गोद में (लेकर) और कभी उत्तम पालने में (लिटाकर) माता ‘प्यारे ललना!’ कहकर दुलार करती है॥4॥

198

01 दोहा

ब्यापक ब्रह्म निरञ्जन निर्गुन बिगत बिनोद।
सो अज प्रेम भगति बस कौसल्या कें गोद॥198॥

मूल

ब्यापक ब्रह्म निरञ्जन निर्गुन बिगत बिनोद।
सो अज प्रेम भगति बस कौसल्या कें गोद॥198॥

भावार्थ

जो सर्वव्यापक, निरञ्जन (मायारहित), निर्गुण, विनोदरहित और अजन्मे ब्रह्म हैं, वही प्रेम और भक्ति के वश कौसल्याजी की गोद में (खेल रहे) हैं॥198॥

02 चौपाई

काम कोटि छबि स्याम सरीरा। नील कञ्ज बारिद गम्भीरा॥
अरुन चरन पङ्कज नख जोती। कमल दलन्हि बैठे जनु मोती॥1॥

मूल

काम कोटि छबि स्याम सरीरा। नील कञ्ज बारिद गम्भीरा॥
अरुन चरन पङ्कज नख जोती। कमल दलन्हि बैठे जनु मोती॥1॥

भावार्थ

उनके नीलकमल और गम्भीर (जल से भरे हुए) मेघ के समान श्याम शरीर में करोडों कामदेवों की शोभा है। लाल-लाल चरण कमलों के नखों की (शुभ्र) ज्योति ऐसी मालूम होती है जैसे (लाल) कमल के पत्तों पर मोती स्थिर हो गए हों॥1॥

रेख कुलिस ध्वज अङ्कुस सोहे। नूपुर धुनि सुनि मुनि मन मोहे॥
कटि किङ्किनी उदर त्रय रेखा। नाभि गभीर जान जेहिं देखा॥2॥

मूल

रेख कुलिस ध्वज अङ्कुस सोहे। नूपुर धुनि सुनि मुनि मन मोहे॥
कटि किङ्किनी उदर त्रय रेखा। नाभि गभीर जान जेहिं देखा॥2॥

भावार्थ

(चरणतलों में) वज्र, ध्वजा और अङ्कुश के चिह्न शोभित हैं। नूपुर (पेञ्जनी) की ध्वनि सुनकर मुनियों का भी मन मोहित हो जाता है। कमर में करधनी और पेट पर तीन रेखाएँ (त्रिवली) हैं। नाभि की गम्भीरता को तो वही जानते हैं, जिन्होन्ने उसे देखा है॥2॥

भुज बिसाल भूषन जुत भूरी। हियँ हरि नख अति सोभा रूरी॥
उर मनिहार पदिक की सोभा। बिप्र चरन देखत मन लोभा॥3॥

मूल

भुज बिसाल भूषन जुत भूरी। हियँ हरि नख अति सोभा रूरी॥
उर मनिहार पदिक की सोभा। बिप्र चरन देखत मन लोभा॥3॥

भावार्थ

बहुत से आभूषणों से सुशोभित विशाल भुजाएँ हैं। हृदय पर बाघ के नख की बहुत ही निराली छटा है। छाती पर रत्नों से युक्त मणियों के हार की शोभा और ब्राह्मण (भृगु) के चरण चिह्न को देखते ही मन लुभा जाता है॥3॥

कम्बु कण्ठ अति चिबुक सुहाई। आनन अमित मदन छबि छाई॥
दुइ दुइ दसन अधर अरुनारे। नासा तिलक को बरनै पारे॥4॥

मूल

कम्बु कण्ठ अति चिबुक सुहाई। आनन अमित मदन छबि छाई॥
दुइ दुइ दसन अधर अरुनारे। नासा तिलक को बरनै पारे॥4॥

भावार्थ

कण्ठ शङ्ख के समान (उतार-चढाव वाला, तीन रेखाओं से सुशोभित) है और ठोडी बहुत ही सुन्दर है। मुख पर असङ्ख्य कामदेवों की छटा छा रही है। दो-दो सुन्दर दँतुलियाँ हैं, लाल-लाल होठ हैं। नासिका और तिलक (के सौन्दर्य) का तो वर्णन ही कौन कर सकता है॥4॥

सुन्दर श्रवन सुचारु कपोला। अति प्रिय मधुर तोतरे बोला॥
चिक्कन कच कुञ्चित गभुआरे। बहु प्रकार रचि मातु सँवारे॥5॥

मूल

सुन्दर श्रवन सुचारु कपोला। अति प्रिय मधुर तोतरे बोला॥
चिक्कन कच कुञ्चित गभुआरे। बहु प्रकार रचि मातु सँवारे॥5॥

भावार्थ

सुन्दर कान और बहुत ही सुन्दर गाल हैं। मधुर तोतले शब्द बहुत ही प्यारे लगते हैं। जन्म के समय से रखे हुए चिकने और घुँघराले बाल हैं, जिनको माता ने बहुत प्रकार से बनाकर सँवार दिया है॥5॥

पीत झगुलिआ तनु पहिराई। जानु पानि बिचरनि मोहि भाई॥
रूप सकहिं नहिं कहि श्रुति सेषा। सो जानइ सपनेहुँ जेहिं देखा॥6॥

मूल

पीत झगुलिआ तनु पहिराई। जानु पानि बिचरनि मोहि भाई॥
रूप सकहिं नहिं कहि श्रुति सेषा। सो जानइ सपनेहुँ जेहिं देखा॥6॥

भावार्थ

शरीर पर पीली झँगुली पहनाई हुई है। उनका घुटनों और हाथों के बल चलना मुझे बहुत ही प्यारा लगता है। उनके रूप का वर्णन वेद और शेषजी भी नहीं कर सकते। उसे वही जानता है, जिसने कभी स्वप्न में भी देखा हो॥6॥

199

01 दोहा

सुख सन्दोह मोह पर ग्यान गिरा गोतीत।
दम्पति परम प्रेम बस कर सिसुचरित पुनीत॥199॥

मूल

सुख सन्दोह मोह पर ग्यान गिरा गोतीत।
दम्पति परम प्रेम बस कर सिसुचरित पुनीत॥199॥

भावार्थ

जो सुख के पुञ्ज, मोह से परे तथा ज्ञान, वाणी और इन्द्रियों से अतीत हैं, वे भगवान दशरथ-कौसल्या के अत्यन्त प्रेम के वश होकर पवित्र बाललीला करते हैं॥199॥

02 चौपाई

एहि बिधि राम जगत पितु माता। कोसलपुर बासिन्ह सुखदाता॥
जिन्ह रघुनाथ चरन रति मानी। तिन्ह की यह गति प्रगट भवानी॥1॥

मूल

एहि बिधि राम जगत पितु माता। कोसलपुर बासिन्ह सुखदाता॥
जिन्ह रघुनाथ चरन रति मानी। तिन्ह की यह गति प्रगट भवानी॥1॥

भावार्थ

इस प्रकार (सम्पूर्ण) जगत के माता-पिता श्री रामजी अवधपुर के निवासियों को सुख देते हैं, जिन्होन्ने श्री रामचन्द्रजी के चरणों में प्रीति जोडी है, हे भवानी! उनकी यह प्रत्यक्ष गति है (कि भगवान उनके प्रेमवश बाललीला करके उन्हें आनन्द दे रहे हैं)॥1॥

रघुपति बिमुख जतन कर कोरी। कवन सकइ भव बन्धन छोरी॥
जीव चराचर बस कै राखे। सो माया प्रभु सों भय भाखे॥2॥

मूल

रघुपति बिमुख जतन कर कोरी। कवन सकइ भव बन्धन छोरी॥
जीव चराचर बस कै राखे। सो माया प्रभु सों भय भाखे॥2॥

भावार्थ

श्री रघुनाथजी से विमुख रहकर मनुष्य चाहे करोडों उपाय करे, परन्तु उसका संसार बन्धन कौन छुडा सकता है। जिसने सब चराचर जीवों को अपने वश में कर रखा है, वह माया भी प्रभु से भय खाती है॥2॥

भृकुटि बिलास नचावइ ताही। अस प्रभु छाडि भजिअ कहु काही॥
मन क्रम बचन छाडि चतुराई। भजत कृपा करिहहिं रघुराई॥3॥

मूल

भृकुटि बिलास नचावइ ताही। अस प्रभु छाडि भजिअ कहु काही॥
मन क्रम बचन छाडि चतुराई। भजत कृपा करिहहिं रघुराई॥3॥

भावार्थ

भगवान उस माया को भौंह के इशारे पर नचाते हैं। ऐसे प्रभु को छोडकर कहो, (और) किसका भजन किया जाए। मन, वचन और कर्म से चतुराई छोडकर भजते ही श्री रघुनाथजी कृपा करेङ्गे॥3॥

एहि बिधि सिसुबिनोद प्रभु कीन्हा। सकल नगरबासिन्ह सुख दीन्हा॥
लै उछङ्ग कबहुँक हलरावै। कबहुँ पालने घालि झुलावै॥4॥

मूल

एहि बिधि सिसुबिनोद प्रभु कीन्हा। सकल नगरबासिन्ह सुख दीन्हा॥
लै उछङ्ग कबहुँक हलरावै। कबहुँ पालने घालि झुलावै॥4॥

भावार्थ

इस प्रकार से प्रभु श्री रामचन्द्रजी ने बालक्रीडा की और समस्त नगर निवासियों को सुख दिया। कौसल्याजी कभी उन्हें गोद में लेकर हिलाती-डुलाती और कभी पालने में लिटाकर झुलाती थीं॥4॥

200

01 दोहा

प्रेम मगन कौसल्या निसि दिन जात न जान।
सुत सनेह बस माता बालचरित कर गान॥200॥

मूल

प्रेम मगन कौसल्या निसि दिन जात न जान।
सुत सनेह बस माता बालचरित कर गान॥200॥

भावार्थ

प्रेम में मग्न कौसल्याजी रात और दिन का बीतना नहीं जानती थीं। पुत्र के स्नेहवश माता उनके बालचरित्रों का गान किया करतीं॥200॥

02 चौपाई

एक बार जननीं अन्हवाए। करि सिङ्गार पलनाँ पौढाए॥
निज कुल इष्टदेव भगवाना। पूजा हेतु कीन्ह अस्नाना॥1॥

मूल

एक बार जननीं अन्हवाए। करि सिङ्गार पलनाँ पौढाए॥
निज कुल इष्टदेव भगवाना। पूजा हेतु कीन्ह अस्नाना॥1॥

भावार्थ

एक बार माता ने श्री रामचन्द्रजी को स्नान कराया और श्रृङ्गार करके पालने पर पौढा दिया। फिर अपने कुल के इष्टदेव भगवान की पूजा के लिए स्नान किया॥1॥

करि पूजा नैबेद्य चढावा। आपु गई जहँ पाक बनावा॥
बहुरि मातु तहवाँ चलि आई। भोजन करत देख सुत जाई॥2॥

मूल

करि पूजा नैबेद्य चढावा। आपु गई जहँ पाक बनावा॥
बहुरि मातु तहवाँ चलि आई। भोजन करत देख सुत जाई॥2॥

भावार्थ

पूजा करके नैवेद्य चढाया और स्वयं वहाँ गईं, जहाँ रसोई बनाई गई थी। फिर माता वहीं (पूजा के स्थान में) लौट आई और वहाँ आने पर पुत्र को (इष्टदेव भगवान के लिए चढाए हुए नैवेद्य का) भोजन करते देखा॥2॥

गै जननी सिसु पहिं भयभीता। देखा बाल तहाँ पुनि सूता॥
बहुरि आइ देखा सुत सोई। हृदयँ कम्प मन धीर न होई॥3॥

मूल

गै जननी सिसु पहिं भयभीता। देखा बाल तहाँ पुनि सूता॥
बहुरि आइ देखा सुत सोई। हृदयँ कम्प मन धीर न होई॥3॥

भावार्थ

माता भयभीत होकर (पालने में सोया था, यहाँ किसने लाकर बैठा दिया, इस बात से डरकर) पुत्र के पास गई, तो वहाँ बालक को सोया हुआ देखा। फिर (पूजा स्थान में लौटकर) देखा कि वही पुत्र वहाँ (भोजन कर रहा) है। उनके हृदय में कम्प होने लगा और मन को धीरज नहीं होता॥3॥

इहाँ उहाँ दुइ बालक देखा। मतिभ्रम मोर कि आन बिसेषा॥
देखि राम जननी अकुलानी। प्रभु हँसि दीन्ह मधुर मुसुकानी॥4॥

मूल

इहाँ उहाँ दुइ बालक देखा। मतिभ्रम मोर कि आन बिसेषा॥
देखि राम जननी अकुलानी। प्रभु हँसि दीन्ह मधुर मुसुकानी॥4॥

भावार्थ

(वह सोचने लगी कि) यहाँ और वहाँ मैन्ने दो बालक देखे। यह मेरी बुद्धि का भ्रम है या और कोई विशेष कारण है? प्रभु श्री रामचन्द्रजी माता को घबडाई हुई देखकर मधुर मुस्कान से हँस दिए॥4॥

201

01 दोहा

देखरावा मातहि निज अद्भुत रूप अखण्ड।
रोम रोम प्रति लागे कोटि कोटि ब्रह्मण्ड॥201॥

मूल

देखरावा मातहि निज अद्भुत रूप अखण्ड।
रोम रोम प्रति लागे कोटि कोटि ब्रह्मण्ड॥201॥

भावार्थ

फिर उन्होन्ने माता को अपना अखण्ड अद्भुत रूप दिखलाया, जिसके एक-एक रोम में करोडों ब्रह्माण्ड लगे हुए हैं॥201॥

02 चौपाई

अगनित रबि ससि सिव चतुरानन। बहु गिरि सरित सिन्धु महि कानन॥
काल कर्म गुन ग्यान सुभाऊ। सोउ देखा जो सुना न काऊ॥1॥

मूल

अगनित रबि ससि सिव चतुरानन। बहु गिरि सरित सिन्धु महि कानन॥
काल कर्म गुन ग्यान सुभाऊ। सोउ देखा जो सुना न काऊ॥1॥

भावार्थ

अगणित सूर्य, चन्द्रमा, शिव, ब्रह्मा, बहुत से पर्वत, नदियाँ, समुद्र, पृथ्वी, वन, काल, कर्म, गुण, ज्ञान और स्वभाव देखे और वे पदार्थ भी देखे जो कभी सुने भी न थे॥1॥

देखी माया सब बिधि गाढी। अति सभीत जोरें कर ठाढी॥
देखा जीव नचावइ जाही। देखी भगति जो छोरइ ताही॥2॥

मूल

देखी माया सब बिधि गाढी। अति सभीत जोरें कर ठाढी॥
देखा जीव नचावइ जाही। देखी भगति जो छोरइ ताही॥2॥

भावार्थ

सब प्रकार से बलवती माया को देखा कि वह (भगवान के सामने) अत्यन्त भयभीत हाथ जोडे खडी है। जीव को देखा, जिसे वह माया नचाती है और (फिर) भक्ति को देखा, जो उस जीव को (माया से) छुडा देती है॥2॥

तन पुलकित मुख बचन न आवा। नयन मूदि चरननि सिरु नावा॥
बिसमयवन्त देखि महतारी। भए बहुरि सिसुरूप खरारी॥3॥

मूल

तन पुलकित मुख बचन न आवा। नयन मूदि चरननि सिरु नावा॥
बिसमयवन्त देखि महतारी। भए बहुरि सिसुरूप खरारी॥3॥

भावार्थ

(माता का) शरीर पुलकित हो गया, मुख से वचन नहीं निकलता। तब आँखें मूँदकर उसने श्री रामचन्द्रजी के चरणों में सिर नवाया। माता को आश्चर्यचकित देखकर खर के शत्रु श्री रामजी फिर बाल रूप हो गए॥3॥

अस्तुति करि न जाइ भय माना। जगत पिता मैं सुत करि जाना॥
हरि जननी बहुबिधि समुझाई। यह जनि कतहुँ कहसि सुनु माई॥4॥

मूल

अस्तुति करि न जाइ भय माना। जगत पिता मैं सुत करि जाना॥
हरि जननी बहुबिधि समुझाई। यह जनि कतहुँ कहसि सुनु माई॥4॥

भावार्थ

(माता से) स्तुति भी नहीं की जाती। वह डर गई कि मैन्ने जगत्पिता परमात्मा को पुत्र करके जाना। श्री हरि ने माता को बहुत प्रकार से समझाया (और कहा-) हे माता! सुनो, यह बात कहीं पर कहना नहीं॥4॥

202

01 दोहा

बार बार कौसल्या बिनय करइ कर जोरि।
अब जनि कबहूँ ब्यापै प्रभु मोहि माया तोरि॥202॥

मूल

बार बार कौसल्या बिनय करइ कर जोरि।
अब जनि कबहूँ ब्यापै प्रभु मोहि माया तोरि॥202॥

भावार्थ

कौसल्याजी बार-बार हाथ जोडकर विनय करती हैं कि हे प्रभो! मुझे आपकी माया अब कभी न व्यापे॥202॥

02 चौपाई

बालचरित हरि बहुबिधि कीन्हा। अति अनन्द दासन्ह कहँ दीन्हा॥
कछुक काल बीतें सब भाई। बडे भए परिजन सुखदाई॥1॥

मूल

बालचरित हरि बहुबिधि कीन्हा। अति अनन्द दासन्ह कहँ दीन्हा॥
कछुक काल बीतें सब भाई। बडे भए परिजन सुखदाई॥1॥

भावार्थ

भगवान ने बहुत प्रकार से बाललीलाएँ कीं और अपने सेवकों को अत्यन्त आनन्द दिया। कुछ समय बीतने पर चारों भाई बडे होकर कुटुम्बियों को सुख देने वाले हुए॥1॥

चूडाकरन कीन्ह गुरु जाई। बिप्रन्ह पुनि दछिना बहु पाई॥
परम मनोहर चरित अपारा। करत फिरत चारिउ सुकुमारा॥2॥

मूल

चूडाकरन कीन्ह गुरु जाई। बिप्रन्ह पुनि दछिना बहु पाई॥
परम मनोहर चरित अपारा। करत फिरत चारिउ सुकुमारा॥2॥

भावार्थ

तब गुरुजी ने जाकर चूडाकर्म-संस्कार किया। ब्राह्मणों ने फिर बहुत सी दक्षिणा पाई। चारों सुन्दर राजकुमार बडे ही मनोहर अपार चरित्र करते फिरते हैं॥2॥

मन क्रम बचन अगोचर जोई। दसरथ अजिर बिचर प्रभु सोई॥
भोजन करत बोल जब राजा। नहिं आवत तजि बाल समाजा॥3॥

मूल

मन क्रम बचन अगोचर जोई। दसरथ अजिर बिचर प्रभु सोई॥
भोजन करत बोल जब राजा। नहिं आवत तजि बाल समाजा॥3॥

भावार्थ

जो मन, वचन और कर्म से अगोचर हैं, वही प्रभु दशरथजी के आँगन में विचर रहे हैं। भोजन करने के समय जब राजा बुलाते हैं, तब वे अपने बाल सखाओं के समाज को छोडकर नहीं आते॥3॥

कौसल्या जब बोलन जाई। ठुमुकु ठुमुकु प्रभु चलहिं पराई॥
निगम नेति सिव अन्त न पावा। ताहि धरै जननी हठि धावा॥4॥

मूल

कौसल्या जब बोलन जाई। ठुमुकु ठुमुकु प्रभु चलहिं पराई॥
निगम नेति सिव अन्त न पावा। ताहि धरै जननी हठि धावा॥4॥

भावार्थ

कौसल्या जब बुलाने जाती हैं, तब प्रभु ठुमुक-ठुमुक भाग चलते हैं। जिनका वेद ‘नेति’ (इतना ही नहीं) कहकर निरूपण करते हैं और शिवजी ने जिनका अन्त नहीं पाया, माता उन्हें हठपूर्वक पकडने के लिए दौडती हैं॥4॥

धूसर धूरि भरें तनु आए। भूपति बिहसि गोद बैठाए॥5॥।

मूल

धूसर धूरि भरें तनु आए। भूपति बिहसि गोद बैठाए॥5॥।

भावार्थ

वे शरीर में धूल लपेटे हुए आए और राजा ने हँसकर उन्हें गोद में बैठा लिया॥5॥

203

01 दोहा

भोजन करत चपल चित इत उत अवसरु पाइ।
भाजि चले किलकत मुख दधि ओदन लपटाइ॥203॥

मूल

भोजन करत चपल चित इत उत अवसरु पाइ।
भाजि चले किलकत मुख दधि ओदन लपटाइ॥203॥

भावार्थ

भोजन करते हैं, पर चित चञ्चल है। अवसर पाकर मुँह में दही-भात लपटाए किलकारी मारते हुए इधर-उधर भाग चले॥203॥

02 चौपाई

बालचरित अति सरल सुहाए। सारद सेष सम्भु श्रुति गाए॥
जिन्ह कर मन इन्ह सन नहिं राता। ते जन बञ्चित किए बिधाता॥1॥

मूल

बालचरित अति सरल सुहाए। सारद सेष सम्भु श्रुति गाए॥
जिन्ह कर मन इन्ह सन नहिं राता। ते जन बञ्चित किए बिधाता॥1॥

भावार्थ

श्री रामचन्द्रजी की बहुत ही सरल (भोली) और सुन्दर (मनभावनी) बाललीलाओं का सरस्वती, शेषजी, शिवजी और वेदों ने गान किया है। जिनका मन इन लीलाओं में अनुरक्त नहीं हुआ, विधाता ने उन मनुष्यों को वञ्चित कर दिया (नितान्त भाग्यहीन बनाया)॥1॥

भए कुमार जबहिं सब भ्राता। दीन्ह जनेऊ गुरु पितु माता॥
गुरगृहँ गए पढन रघुराई। अलप काल बिद्या सब आई॥2॥

मूल

भए कुमार जबहिं सब भ्राता। दीन्ह जनेऊ गुरु पितु माता॥
गुरगृहँ गए पढन रघुराई। अलप काल बिद्या सब आई॥2॥

भावार्थ

ज्यों ही सब भाई कुमारावस्था के हुए, त्यों ही गुरु, पिता और माता ने उनका यज्ञोपवीत संस्कार कर दिया। श्री रघुनाथजी (भाइयों सहित) गुरु के घर में विद्या पढने गए और थोडे ही समय में उनको सब विद्याएँ आ गईं॥2॥

जाकी सहज स्वास श्रुति चारी। सो हरि पढ यह कौतुक भारी॥
बिद्या बिनय निपुन गुन सीला। खेलहिङ्खेल सकल नृपलीला॥3॥

मूल

जाकी सहज स्वास श्रुति चारी। सो हरि पढ यह कौतुक भारी॥
बिद्या बिनय निपुन गुन सीला। खेलहिङ्खेल सकल नृपलीला॥3॥

भावार्थ

चारों वेद जिनके स्वाभाविक श्वास हैं, वे भगवान पढें, यह बडा कौतुक (अचरज) है। चारों भाई विद्या, विनय, गुण और शील में (बडे) निपुण हैं और सब राजाओं की लीलाओं के ही खेल खेलते हैं॥3॥

करतल बान धनुष अति सोहा। देखत रूप चराचर मोहा॥
जिन्ह बीथिन्ह बिहरहिं सब भाई। थकित होहिं सब लोग लुगाई॥4॥

मूल

करतल बान धनुष अति सोहा। देखत रूप चराचर मोहा॥
जिन्ह बीथिन्ह बिहरहिं सब भाई। थकित होहिं सब लोग लुगाई॥4॥

भावार्थ

हाथों में बाण और धनुष बहुत ही शोभा देते हैं। रूप देखते ही चराचर (जड-चेतन) मोहित हो जाते हैं। वे सब भाई जिन गलियों में खेलते (हुए निकलते) हैं, उन गलियों के सभी स्त्री-पुरुष उनको देखकर स्नेह से शिथिल हो जाते हैं अथवा ठिठककर रह जाते हैं॥4॥

204

01 दोहा

कोसलपुर बासी नर नारि बृद्ध अरु बाल।
प्रानहु ते प्रिय लागत सब कहुँ राम कृपाल॥204॥

मूल

कोसलपुर बासी नर नारि बृद्ध अरु बाल।
प्रानहु ते प्रिय लागत सब कहुँ राम कृपाल॥204॥

भावार्थ

कोसलपुर के रहने वाले स्त्री, पुरुष, बूढे और बालक सभी को कृपालु श्री रामचन्द्रजी प्राणों से भी बढकर प्रिय लगते हैं॥204॥

02 चौपाई

बन्धु सखा सँग लेहिं बोलाई। बन मृगया नित खेलहिं जाई॥
पावन मृग मारहिं जियँ जानी। दिन प्रति नृपहि देखावहिं आनी॥1॥

मूल

बन्धु सखा सँग लेहिं बोलाई। बन मृगया नित खेलहिं जाई॥
पावन मृग मारहिं जियँ जानी। दिन प्रति नृपहि देखावहिं आनी॥1॥

भावार्थ

श्री रामचन्द्रजी भाइयों और इष्ट मित्रों को बुलाकर साथ ले लेते हैं और नित्य वन में जाकर शिकार खेलते हैं। मन में पवित्र समझकर मृगों को मारते हैं और प्रतिदिन लाकर राजा (दशरथजी) को दिखलाते हैं॥1॥

जे मृग राम बान के मारे। ते तनु तजि सुरलोक सिधारे॥
अनुज सखा सँग भोजन करहीं। मातु पिता अग्या अनुसरहीं॥2॥

मूल

जे मृग राम बान के मारे। ते तनु तजि सुरलोक सिधारे॥
अनुज सखा सँग भोजन करहीं। मातु पिता अग्या अनुसरहीं॥2॥

भावार्थ

जो मृग श्री रामजी के बाण से मारे जाते थे, वे शरीर छोडकर देवलोक को चले जाते थे। श्री रामचन्द्रजी अपने छोटे भाइयों और सखाओं के साथ भोजन करते हैं और माता-पिता की आज्ञा का पालन करते हैं॥2॥

जेहि बिधि सुखी होहिं पुर लोगा। करहिं कृपानिधि सोइ सञ्जोगा॥
बेद पुरान सुनहिं मन लाई। आपु कहहिं अनुजन्ह समुझाई॥3॥

मूल

जेहि बिधि सुखी होहिं पुर लोगा। करहिं कृपानिधि सोइ सञ्जोगा॥
बेद पुरान सुनहिं मन लाई। आपु कहहिं अनुजन्ह समुझाई॥3॥

भावार्थ

जिस प्रकार नगर के लोग सुखी हों, कृपानिधान श्री रामचन्द्रजी वही संयोग (लीला) करते हैं। वे मन लगाकर वेद-पुराण सुनते हैं और फिर स्वयं छोटे भाइयों को समझाकर कहते हैं॥3॥

प्रातकाल उठि कै रघुनाथा। मातु पिता गुरु नावहिं माथा॥
आयसु मागि करहिं पुर काजा। देखि चरित हरषइ मन राजा॥4॥

मूल

प्रातकाल उठि कै रघुनाथा। मातु पिता गुरु नावहिं माथा॥
आयसु मागि करहिं पुर काजा। देखि चरित हरषइ मन राजा॥4॥

भावार्थ

श्री रघुनाथजी प्रातःकाल उठकर माता-पिता और गुरु को मस्तक नवाते हैं और आज्ञा लेकर नगर का काम करते हैं।

उनके चरित्र देख-देखकर राजा मन में बडे हर्षित होते हैं॥4॥ब्यापक अकल अनीह अज निर्गुन नाम न रूप।

205

ब्यापक अकल अनीह अज निर्गुन नाम न रूप।
भगत हेतु नाना बिधि करत चरित्र अनूप॥205॥

मूल

ब्यापक अकल अनीह अज निर्गुन नाम न रूप।
भगत हेतु नाना बिधि करत चरित्र अनूप॥205॥

भावार्थ

जो व्यापक, अकल (निरवयव), इच्छारहित, अजन्मा और निर्गुण है तथा जिनका न नाम है न रूप, वही भगवान भक्तों के लिए नाना प्रकार के अनुपम (अलौकिक) चरित्र करते हैं॥205॥

01 चौपाई

यह सब चरित कहा मैं गाई। आगिलि कथा सुनहु मन लाई॥
बिस्वामित्र महामुनि ग्यानी। बसहिं बिपिन सुभ आश्रम जानी॥1॥

मूल

यह सब चरित कहा मैं गाई। आगिलि कथा सुनहु मन लाई॥
बिस्वामित्र महामुनि ग्यानी। बसहिं बिपिन सुभ आश्रम जानी॥1॥

भावार्थ

यह सब चरित्र मैन्ने गाकर (बखानकर) कहा। अब आगे की कथा मन लगाकर सुनो। ज्ञानी महामुनि विश्वामित्रजी वन में शुभ आश्रम (पवित्र स्थान) जानकर बसते थे,॥1॥

जहँ जप जग्य जोग मुनि करहीं। अति मारीच सुबाहुहि डरहीं॥
देखत जग्य निसाचर धावहिं। करहिं उपद्रव मुनि दुख पावहिं॥2॥

मूल

जहँ जप जग्य जोग मुनि करहीं। अति मारीच सुबाहुहि डरहीं॥
देखत जग्य निसाचर धावहिं। करहिं उपद्रव मुनि दुख पावहिं॥2॥

भावार्थ

जहाँ वे मुनि जप, यज्ञ और योग करते थे, परन्तु मारीच और सुबाहु से बहुत डरते थे। यज्ञ देखते ही राक्षस दौड पडते थे और उपद्रव मचाते थे, जिससे मुनि (बहुत) दुःख पाते थे॥2॥

गाधितनय मन चिन्ता ब्यापी। हरि बिनु मरहिं न निसिचर पापी॥
तब मुनिबर मन कीन्ह बिचारा। प्रभु अवतरेउ हरन महि भारा॥3॥

मूल

गाधितनय मन चिन्ता ब्यापी। हरि बिनु मरहिं न निसिचर पापी॥
तब मुनिबर मन कीन्ह बिचारा। प्रभु अवतरेउ हरन महि भारा॥3॥

भावार्थ

गाधि के पुत्र विश्वामित्रजी के मन में चिन्ता छा गई कि ये पापी राक्षस भगवान के (मारे) बिना न मरेङ्गे। तब श्रेष्ठ मुनि ने मन में विचार किया कि प्रभु ने पृथ्वी का भार हरने के लिए अवतार लिया है॥3॥

एहूँ मिस देखौं पद जाई। करि बिनती आनौं दोउ भाई॥
ग्यान बिराग सकल गुन अयना। सो प्रभु मैं देखब भरि नयना॥4॥

मूल

एहूँ मिस देखौं पद जाई। करि बिनती आनौं दोउ भाई॥
ग्यान बिराग सकल गुन अयना। सो प्रभु मैं देखब भरि नयना॥4॥

भावार्थ

इसी बहाने जाकर मैं उनके चरणों का दर्शन करूँ और विनती करके दोनों भाइयों को ले आऊँ। (अहा!) जो ज्ञान, वैराग्य और सब गुणों के धाम हैं, उन प्रभु को मैं नेत्र भरकर देखूँगा॥4॥

206

01 दोहा

बहुबिधि करत मनोरथ जात लागि नहिं बार।
करि मज्जन सरऊ जल गए भूप दरबार॥206॥

मूल

बहुबिधि करत मनोरथ जात लागि नहिं बार।
करि मज्जन सरऊ जल गए भूप दरबार॥206॥

भावार्थ

बहुत प्रकार से मनोरथ करते हुए जाने में देर नहीं लगी। सरयूजी के जल में स्नान करके वे राजा के दरवाजे पर पहुँचे॥206॥

02 चौपाई

मुनि आगमन सुना जब राजा। मिलन गयउ लै बिप्र समाजा॥
करि दण्डवत मुनिहि सनमानी। निज आसन बैठारेन्हि आनी॥1॥

मूल

मुनि आगमन सुना जब राजा। मिलन गयउ लै बिप्र समाजा॥
करि दण्डवत मुनिहि सनमानी। निज आसन बैठारेन्हि आनी॥1॥

भावार्थ

राजा ने जब मुनि का आना सुना, तब वे ब्राह्मणों के समाज को साथ लेकर मिलने गए और दण्डवत्‌ करके मुनि का सम्मान करते हुए उन्हें लाकर अपने आसन पर बैठाया॥1॥

चरन पखारि कीन्हि अति पूजा। मो सम आजु धन्य नहिं दूजा॥
बिबिध भाँति भोजन करवावा। मुनिबर हृदयँ हरष अति पावा॥2॥

मूल

चरन पखारि कीन्हि अति पूजा। मो सम आजु धन्य नहिं दूजा॥
बिबिध भाँति भोजन करवावा। मुनिबर हृदयँ हरष अति पावा॥2॥

भावार्थ

चरणों को धोकर बहुत पूजा की और कहा- मेरे समान धन्य आज दूसरा कोई नहीं है। फिर अनेक प्रकार के भोजन करवाए, जिससे श्रेष्ठ मुनि ने अपने हृदय में बहुत ही हर्ष प्राप्त किया॥2॥

पुनि चरननि मेले सुत चारी। राम देखि मुनि देह बिसारी॥
भए मगन देखत मुख सोभा। जनु चकोर पूरन ससि लोभा॥3॥

मूल

पुनि चरननि मेले सुत चारी। राम देखि मुनि देह बिसारी॥
भए मगन देखत मुख सोभा। जनु चकोर पूरन ससि लोभा॥3॥

भावार्थ

फिर राजा ने चारों पुत्रों को मुनि के चरणों पर डाल दिया (उनसे प्रणाम कराया)। श्री रामचन्द्रजी को देखकर मुनि अपनी देह की सुधि भूल गए। वे श्री रामजी के मुख की शोभा देखते ही ऐसे मग्न हो गए, मानो चकोर पूर्ण चन्द्रमा को देखकर लुभा गया हो॥3॥

तब मन हरषि बचन कह राऊ। मुनि अस कृपा न कीन्हिहु काऊ॥
केहि कारन आगमन तुम्हारा। कहहु सो करत न लावउँ बारा॥4॥

मूल

तब मन हरषि बचन कह राऊ। मुनि अस कृपा न कीन्हिहु काऊ॥
केहि कारन आगमन तुम्हारा। कहहु सो करत न लावउँ बारा॥4॥

भावार्थ

तब राजा ने मन में हर्षित होकर ये वचन कहे- हे मुनि! इस प्रकार कृपा तो आपने कभी नहीं की। आज किस कारण से आपका शुभागमन हुआ? कहिए, मैं उसे पूरा करने में देर नहीं लगाऊँगा॥4॥

असुर समूह सतावहिं मोही। मैं जाचन आयउँ नृप तोही॥
अनुज समेत देहु रघुनाथा। निसिचर बध मैं होब सनाथा॥5॥

मूल

असुर समूह सतावहिं मोही। मैं जाचन आयउँ नृप तोही॥
अनुज समेत देहु रघुनाथा। निसिचर बध मैं होब सनाथा॥5॥

भावार्थ

(मुनि ने कहा-) हे राजन्‌! राक्षसों के समूह मुझे बहुत सताते हैं, इसीलिए मैं तुमसे कुछ माँगने आया हूँ। छोटे भाई सहित श्री रघुनाथजी को मुझे दो। राक्षसों के मारे जाने पर मैं सनाथ (सुरक्षित) हो जाऊँगा॥5॥

207

01 दोहा

देहु भूप मन हरषित तजहु मोह अग्यान।
धर्म सुजस प्रभु तुम्ह कौं इन्ह कहँ अति कल्यान॥207॥

मूल

देहु भूप मन हरषित तजहु मोह अग्यान।
धर्म सुजस प्रभु तुम्ह कौं इन्ह कहँ अति कल्यान॥207॥

भावार्थ

हे राजन्‌! प्रसन्न मन से इनको दो, मोह और अज्ञान को छोड दो। हे स्वामी! इससे तुमको धर्म और सुयश की प्राप्ति होगी और इनका परम कल्याण होगा॥207॥

02 चौपाई

सुनि राजा अति अप्रिय बानी। हृदय कम्प मुख दुति कुमुलानी॥
चौथेम्पन पायउँ सुत चारी। बिप्र बचन नहिं कहेहु बिचारी॥1॥

मूल

सुनि राजा अति अप्रिय बानी। हृदय कम्प मुख दुति कुमुलानी॥
चौथेम्पन पायउँ सुत चारी। बिप्र बचन नहिं कहेहु बिचारी॥1॥

भावार्थ

इस अत्यन्त अप्रिय वाणी को सुनकर राजा का हृदय काँप उठा और उनके मुख की कान्ति फीकी पड गई। (उन्होन्ने कहा-) हे ब्राह्मण! मैन्ने चौथेपन में चार पुत्र पाए हैं, आपने विचार कर बात नहीं कही॥1॥

मागहु भूमि धेनु धन कोसा। सर्बस देउँ आजु सहरोसा॥
देह प्रान तें प्रिय कछु नाहीं। सोउ मुनि देउँ निमिष एक माहीं॥2॥

मूल

मागहु भूमि धेनु धन कोसा। सर्बस देउँ आजु सहरोसा॥
देह प्रान तें प्रिय कछु नाहीं। सोउ मुनि देउँ निमिष एक माहीं॥2॥

भावार्थ

हे मुनि! आप पृथ्वी, गो, धन और खजाना माँग लीजिए, मैं आज बडे हर्ष के साथ अपना सर्वस्व दे दूँगा। देह और प्राण से अधिक प्यारा कुछ भी नहीं होता, मैं उसे भी एक पल में दे दूँगा॥2॥

सब सुत प्रिय मोहि प्रान की नाईं। राम देत नहिं बनइ गोसाईं॥
कहँ निसिचर अति घोर कठोरा। कहँ सुन्दर सुत परम किसोरा॥3॥

मूल

सब सुत प्रिय मोहि प्रान की नाईं। राम देत नहिं बनइ गोसाईं॥
कहँ निसिचर अति घोर कठोरा। कहँ सुन्दर सुत परम किसोरा॥3॥

भावार्थ

सभी पुत्र मुझे प्राणों के समान प्यारे हैं, उनमें भी हे प्रभो! राम को तो (किसी प्रकार भी) देते नहीं बनता। कहाँ अत्यन्त डरावने और क्रूर राक्षस और कहाँ परम किशोर अवस्था के (बिलकुल सुकुमार) मेरे सुन्दर पुत्र! ॥3॥

सुनि नृप गिरा प्रेम रस सानी। हृदयँ हरष माना मुनि ग्यानी॥
तब बसिष्ट बहुबिधि समुझावा। नृप सन्देह नास कहँ पावा॥4॥

मूल

सुनि नृप गिरा प्रेम रस सानी। हृदयँ हरष माना मुनि ग्यानी॥
तब बसिष्ट बहुबिधि समुझावा। नृप सन्देह नास कहँ पावा॥4॥

भावार्थ

प्रेम रस में सनी हुई राजा की वाणी सुनकर ज्ञानी मुनि विश्वामित्रजी ने हृदय में बडा हर्ष माना। तब वशिष्ठजी ने राजा को बहुत प्रकार से समझाया, जिससे राजा का सन्देह नाश को प्राप्त हुआ॥4॥

अति आदर दोउ तनय बोलाए। हृदयँ लाइ बहु भाँति सिखाए॥
मेरे प्रान नाथ सुत दोऊ। तुम्ह मुनि पिता आन नहिं कोऊ॥5॥

मूल

अति आदर दोउ तनय बोलाए। हृदयँ लाइ बहु भाँति सिखाए॥
मेरे प्रान नाथ सुत दोऊ। तुम्ह मुनि पिता आन नहिं कोऊ॥5॥

भावार्थ

राजा ने बडे ही आदर से दोनों पुत्रों को बुलाया और हृदय से लगाकर बहुत प्रकार से उन्हें शिक्षा दी। (फिर कहा-) हे नाथ! ये दोनों पुत्र मेरे प्राण हैं। हे मुनि! (अब) आप ही इनके पिता हैं, दूसरा कोई नहीं॥5॥

208

01 दोहा

सौम्पे भूप रिषिहि सुत बहुबिधि देइ असीस।
जननी भवन गए प्रभु चले नाइ पद सीस॥1॥

मूल

सौम्पे भूप रिषिहि सुत बहुबिधि देइ असीस।
जननी भवन गए प्रभु चले नाइ पद सीस॥1॥

भावार्थ

राजा ने बहुत प्रकार से आशीर्वाद देकर पुत्रों को ऋषि के हवाले कर दिया। फिर प्रभु माता के महल में गए और उनके चरणों में सिर नवाकर चले॥1॥

02 सोरठा

पुरुष सिंह दोउ बीर हरषि चले मुनि भय हरन।
कृपासिन्धु मतिधीर अखिल बिस्व कारन करन॥2॥

मूल

पुरुष सिंह दोउ बीर हरषि चले मुनि भय हरन।
कृपासिन्धु मतिधीर अखिल बिस्व कारन करन॥2॥

भावार्थ

पुरुषों में सिंह रूप दोनों भाई (राम-लक्ष्मण) मुनि का भय हरने के लिए प्रसन्न होकर चले। वे कृपा के समुद्र, धीर बुद्धि और सम्पूर्ण विश्व के कारण के भी कारण हैं॥2॥

03 चौपाई

अरुन नयन उर बाहु बिसाला। नील जलज तनु स्याम तमाला॥
कटि पट पीत कसें बर भाथा। रुचिर चाप सायक दुहुँ हाथा॥1॥

मूल

अरुन नयन उर बाहु बिसाला। नील जलज तनु स्याम तमाला॥
कटि पट पीत कसें बर भाथा। रुचिर चाप सायक दुहुँ हाथा॥1॥

भावार्थ

भगवान के लाल नेत्र हैं, चौडी छाती और विशाल भुजाएँ हैं, नील कमल और तमाल के वृक्ष की तरह श्याम शरीर है, कमर में पीताम्बर (पहने) और सुन्दर तरकस कसे हुए हैं। दोनों हाथों में (क्रमशः) सुन्दर धनुष और बाण हैं॥1॥

स्याम गौर सुन्दर दोउ भाई। बिस्वामित्र महानिधि पाई॥
प्रभु ब्रह्मन्यदेव मैं जाना। मोहि निति पिता तजेउ भगवाना॥2॥

मूल

स्याम गौर सुन्दर दोउ भाई। बिस्वामित्र महानिधि पाई॥
प्रभु ब्रह्मन्यदेव मैं जाना। मोहि निति पिता तजेउ भगवाना॥2॥

भावार्थ

श्याम और गौर वर्ण के दोनों भाई परम सुन्दर हैं। विश्वामित्रजी को महान निधि प्राप्त हो गई। (वे सोचने लगे-) मैं जान गया कि प्रभु ब्रह्मण्यदेव (ब्राह्मणों के भक्त) हैं। मेरे लिए भगवान ने अपने पिता को भी छोड दिया॥2॥

चले जात मुनि दीन्हि देखाई। सुनि ताडका क्रोध करि धाई॥
एकहिं बान प्रान हरि लीन्हा। दीन जानि तेहि निज पद दीन्हा॥3॥

मूल

चले जात मुनि दीन्हि देखाई। सुनि ताडका क्रोध करि धाई॥
एकहिं बान प्रान हरि लीन्हा। दीन जानि तेहि निज पद दीन्हा॥3॥

भावार्थ

मार्ग में चले जाते हुए मुनि ने ताडका को दिखलाया। शब्द सुनते ही वह क्रोध करके दौडी। श्री रामजी ने एक ही बाण से उसके प्राण हर लिए और दीन जानकर उसको निजपद (अपना दिव्य स्वरूप) दिया॥3॥

तब रिषि निज नाथहि जियँ चीन्ही। बिद्यानिधि कहुँ बिद्या दीन्ही॥
जाते लाग न छुधा पिपासा। अतुलित बल तनु तेज प्रकासा॥4॥

मूल

तब रिषि निज नाथहि जियँ चीन्ही। बिद्यानिधि कहुँ बिद्या दीन्ही॥
जाते लाग न छुधा पिपासा। अतुलित बल तनु तेज प्रकासा॥4॥

भावार्थ

तब ऋषि विश्वामित्र ने प्रभु को मन में विद्या का भण्डार समझते हुए भी (लीला को पूर्ण करने के लिए) ऐसी विद्या दी, जिससे भूख-प्यास न लगे और शरीर में अतुलित बल और तेज का प्रकाश हो॥4॥

209

01 दोहा

आयुध सर्ब समर्पि कै प्रभु निज आश्रम आनि।
कन्द मूल फल भोजन दीन्ह भगति हित जानि॥209॥

मूल

आयुध सर्ब समर्पि कै प्रभु निज आश्रम आनि।
कन्द मूल फल भोजन दीन्ह भगति हित जानि॥209॥

भावार्थ

सब अस्त्र-शस्त्र समर्पण करके मुनि प्रभु श्री रामजी को अपने आश्रम में ले आए और उन्हें परम हितू जानकर भक्तिपूर्वक कन्द, मूल और फल का भोजन कराया॥209॥

02 चौपाई

प्रात कहा मुनि सन रघुराई। निर्भय जग्य करहु तुम्ह जाई॥
होम करन लागे मुनि झारी। आपु रहे मख कीं रखवारी॥1॥

मूल

प्रात कहा मुनि सन रघुराई। निर्भय जग्य करहु तुम्ह जाई॥
होम करन लागे मुनि झारी। आपु रहे मख कीं रखवारी॥1॥

भावार्थ

सबेरे श्री रघुनाथजी ने मुनि से कहा- आप जाकर निडर होकर यज्ञ कीजिए। यह सुनकर सब मुनि हवन करने लगे। आप (श्री रामजी) यज्ञ की रखवाली पर रहे॥1॥

सुनि मारीच निसाचर क्रोही। लै सहाय धावा मुनिद्रोही॥
बिनु फर बान राम तेहि मारा। सत जोजन गा सागर पारा॥2॥

मूल

सुनि मारीच निसाचर क्रोही। लै सहाय धावा मुनिद्रोही॥
बिनु फर बान राम तेहि मारा। सत जोजन गा सागर पारा॥2॥

भावार्थ

यह समाचार सुनकर मुनियों का शत्रु कोरथी राक्षस मारीच अपने सहायकों को लेकर दौडा। श्री रामजी ने बिना फल वाला बाण उसको मारा, जिससे वह सौ योजन के विस्तार वाले समुद्र के पार जा गिरा॥2॥

पावक सर सुबाहु पुनि मारा। अनुज निसाचर कटकु सँघारा॥
मारि असुर द्विज निर्भयकारी। अस्तुति करहिं देव मुनि झारी॥3॥

मूल

पावक सर सुबाहु पुनि मारा। अनुज निसाचर कटकु सँघारा॥
मारि असुर द्विज निर्भयकारी। अस्तुति करहिं देव मुनि झारी॥3॥

भावार्थ

फिर सुबाहु को अग्निबाण मारा। इधर छोटे भाई लक्ष्मणजी ने राक्षसों की सेना का संहार कर डाला। इस प्रकार श्री रामजी ने राक्षसों को मारकर ब्राह्मणों को निर्भय कर दिया। तब सारे देवता और मुनि स्तुति करने लगे॥3॥

तहँ पुनि कछुक दिवस रघुराया। रहे कीन्हि बिप्रन्ह पर दाया॥
भगति हेतु बहुत कथा पुराना। कहे बिप्र जद्यपि प्रभु जाना॥4॥

मूल

तहँ पुनि कछुक दिवस रघुराया। रहे कीन्हि बिप्रन्ह पर दाया॥
भगति हेतु बहुत कथा पुराना। कहे बिप्र जद्यपि प्रभु जाना॥4॥

भावार्थ

श्री रघुनाथजी ने वहाँ कुछ दिन और रहकर ब्राह्मणों पर दया की। भक्ति के कारण ब्राह्मणों ने उन्हें पुराणों की बहुत सी कथाएँ कहीं, यद्यपि प्रभु सब जानते थे॥4॥

तब मुनि सादर कहा बुझाई। चरित एक प्रभु देखिअ जाई॥
धनुषजग्य सुनि रघुकुल नाथा। हरषि चले मुनिबर के साथा॥5॥

मूल

तब मुनि सादर कहा बुझाई। चरित एक प्रभु देखिअ जाई॥
धनुषजग्य सुनि रघुकुल नाथा। हरषि चले मुनिबर के साथा॥5॥

भावार्थ

तदन्तर मुनि ने आदरपूर्वक समझाकर कहा- हे प्रभो! चलकर एक चरित्र देखिए। रघुकुल के स्वामी श्री रामचन्द्रजी धनुषयज्ञ (की बात) सुनकर मुनिश्रेष्ठ विश्वामित्रजी के साथ प्रसन्न होकर चले॥5॥

आश्रम एक दीख मग माहीं। खग मृग जीव जन्तु तहँ नाहीं॥
पूछा मुनिहि सिला प्रभु देखी। सकल कथा मुनि कहा बिसेषी॥6॥

मूल

आश्रम एक दीख मग माहीं। खग मृग जीव जन्तु तहँ नाहीं॥
पूछा मुनिहि सिला प्रभु देखी। सकल कथा मुनि कहा बिसेषी॥6॥

भावार्थ

मार्ग में एक आश्रम दिखाई पडा। वहाँ पशु-पक्षी, को भी जीव-जन्तु नहीं था। पत्थर की एक शिला को देखकर प्रभु ने पूछा, तब मुनि ने विस्तारपूर्वक सब कथा कही॥6॥

210

01 दोहा

गौतम नारि श्राप बस उपल देह धरि धीर।
चरन कमल रज चाहति कृपा करहु रघुबीर॥210॥

मूल

गौतम नारि श्राप बस उपल देह धरि धीर।
चरन कमल रज चाहति कृपा करहु रघुबीर॥210॥

भावार्थ

गौतम मुनि की स्त्री अहल्या शापवश पत्थर की देह धारण किए बडे धीरज से आपके चरणकमलों की धूलि चाहती है। हे रघुवीर! इस पर कृपा कीजिए॥210॥

02 छन्द

परसत पद पावन सोकनसावन प्रगट भई तपपुञ्ज सही।
देखत रघुनायक जन सुखदायक सनमुख होइ कर जोरि रही॥
अति प्रेम अधीरा पुलक शरीरा मुख नहिं आवइ बचन कही।
अतिसय बडभागी चरनन्हि लागी जुगल नयन जलधार बही॥1॥

मूल

परसत पद पावन सोकनसावन प्रगट भई तपपुञ्ज सही।
देखत रघुनायक जन सुखदायक सनमुख होइ कर जोरि रही॥
अति प्रेम अधीरा पुलक शरीरा मुख नहिं आवइ बचन कही।
अतिसय बडभागी चरनन्हि लागी जुगल नयन जलधार बही॥1॥

भावार्थ

श्री रामजी के पवित्र और शोक को नाश करने वाले चरणों का स्पर्श पाते ही सचमुच वह तपोमूर्ति अहल्या प्रकट हो गई। भक्तों को सुख देने वाले श्री रघुनाथजी को देखकर वह हाथ जोडकर सामने खडी रह गई। अत्यन्त प्रेम के कारण वह अधीर हो गई। उसका शरीर पुलकित हो उठा, मुख से वचन कहने में नहीं आते थे। वह अत्यन्त बडभागिनी अहल्या प्रभु के चरणों से लिपट गई और उसके दोनों नेत्रों से जल (प्रेम और आनन्द के आँसुओं) की धारा बहने लगी॥1॥

धीरजु मन कीन्हा प्रभु कहुँ चीन्हा रघुपति कृपाँ भगति पाई।
अति निर्मल बानी अस्तुति ठानी ग्यानगम्य जय रघुराई॥
मैं नारि अपावन प्रभु जग पावन रावन रिपु जन सुखदाई।
राजीव बिलोचन भव भय मोचन पाहि पाहि सरनहिं आई॥2॥

मूल

धीरजु मन कीन्हा प्रभु कहुँ चीन्हा रघुपति कृपाँ भगति पाई।
अति निर्मल बानी अस्तुति ठानी ग्यानगम्य जय रघुराई॥
मैं नारि अपावन प्रभु जग पावन रावन रिपु जन सुखदाई।
राजीव बिलोचन भव भय मोचन पाहि पाहि सरनहिं आई॥2॥

भावार्थ

फिर उसने मन में धीरज धरकर प्रभु को पहचाना और श्री रघुनाथजी की कृपा से भक्ति प्राप्त की। तब अत्यन्त निर्मल वाणी से उसने (इस प्रकार) स्तुति प्रारम्भ की- हे ज्ञान से जानने योग्य श्री रघुनाथजी! आपकी जय हो! मैं (सहज ही) अपवित्र स्त्री हूँ, और हे प्रभो! आप जगत को पवित्र करने वाले, भक्तों को सुख देने वाले और रावण के शत्रु हैं। हे कमलनयन! हे संसार (जन्म-मृत्यु) के भय से छुडाने वाले! मैं आपकी शरण आई हूँ, (मेरी) रक्षा कीजिए, रक्षा कीजिए॥2॥

मुनि श्राप जो दीन्हा अति भल कीन्हा परम अनुग्रह मैं माना।
देखेउँ भरि लोचन हरि भव मोचन इहइ लाभ सङ्कर जाना॥
बिनती प्रभु मोरी मैं मति भोरी नाथ न मागउँ बर आना।
पद कमल परागा रस अनुरागा मम मन मधुप करै पाना॥3॥

मूल

मुनि श्राप जो दीन्हा अति भल कीन्हा परम अनुग्रह मैं माना।
देखेउँ भरि लोचन हरि भव मोचन इहइ लाभ सङ्कर जाना॥
बिनती प्रभु मोरी मैं मति भोरी नाथ न मागउँ बर आना।
पद कमल परागा रस अनुरागा मम मन मधुप करै पाना॥3॥

भावार्थ

मुनि ने जो मुझे शाप दिया, सो बहुत ही अच्छा किया। मैं उसे अत्यन्त अनुग्रह (करके) मानती हूँ कि जिसके कारण मैन्ने संसार से छुडाने वाले श्री हरि (आप) को नेत्र भरकर देखा। इसी (आपके दर्शन) को शङ्करजी सबसे बडा लाभ समझते हैं। हे प्रभो! मैं बुद्धि की बडी भोली हूँ, मेरी एक विनती है। हे नाथ ! मैं और कोई वर नहीं माँगती, केवल यही चाहती हूँ कि मेरा मन रूपी भौंरा आपके चरण-कमल की रज के प्रेमरूपी रस का सदा पान करता रहे॥3॥

जेहिं पद सुरसरिता परम पुनीता प्रगट भई सिव सीस धरी।
सोई पद पङ्कज जेहि पूजत अज मम सिर धरेउ कृपाल हरी॥
एहि भाँति सिधारी गौतम नारी बार बार हरि चरन परी।
जो अति मन भावा सो बरु पावा गै पति लोक अनन्द भरी॥4॥

मूल

जेहिं पद सुरसरिता परम पुनीता प्रगट भई सिव सीस धरी।
सोई पद पङ्कज जेहि पूजत अज मम सिर धरेउ कृपाल हरी॥
एहि भाँति सिधारी गौतम नारी बार बार हरि चरन परी।
जो अति मन भावा सो बरु पावा गै पति लोक अनन्द भरी॥4॥

भावार्थ

जिन चरणों से परमपवित्र देवनदी गङ्गाजी प्रकट हुईं, जिन्हें शिवजी ने सिर पर धारण किया और जिन चरणकमलों को ब्रह्माजी पूजते हैं, कृपालु हरि (आप) ने उन्हीं को मेरे सिर पर रखा। इस प्रकार (स्तुति करती हुई) बार-बार भगवान के चरणों में गिरकर, जो मन को बहुत ही अच्छा लगा, उस वर को पाकर गौतम की स्त्री अहल्या आनन्द में भरी हुई पतिलोक को चली गई॥4॥

211

01 दोहा

अस प्रभु दीनबन्धु हरि कारन रहित दयाल।
तुलसिदास सठ तेहि भजु छाडि कपट जञ्जाल॥211॥

मूल

अस प्रभु दीनबन्धु हरि कारन रहित दयाल।
तुलसिदास सठ तेहि भजु छाडि कपट जञ्जाल॥211॥

भावार्थ

प्रभु श्री रामचन्द्रजी ऐसे दीनबन्धु और बिना ही कारण दया करने वाले हैं। तुलसीदासजी कहते हैं, हे शठ (मन)! तू कपट-जञ्जाल छोडकर उन्हीं का भजन कर॥211॥

मासपारायण, सातवाँ विश्राम

मूल

मासपारायण, सातवाँ विश्राम

02 चौपाई

चले राम लछिमन मुनि सङ्गा। गए जहाँ जग पावनि गङ्गा॥
गाधिसूनु सब कथा सुनाई। जेहि प्रकार सुरसरि महि आई॥1॥

मूल

चले राम लछिमन मुनि सङ्गा। गए जहाँ जग पावनि गङ्गा॥
गाधिसूनु सब कथा सुनाई। जेहि प्रकार सुरसरि महि आई॥1॥

भावार्थ

श्री रामजी और लक्ष्मणजी मुनि के साथ चले। वे वहाँ गए, जहाँ जगत को पवित्र करने वाली गङ्गाजी थीं। महाराज गाधि के पुत्र विश्वामित्रजी ने वह सब कथा कह सुनाई जिस प्रकार देवनदी गङ्गाजी पृथ्वी पर आई थीं॥1॥

तब प्रभु रिषिन्ह समेत नहाए। बिबिध दान महिदेवन्हि पाए॥
हरषि चले मुनि बृन्द सहाया। बेगि बिदेह नगर निअराया॥2॥

मूल

तब प्रभु रिषिन्ह समेत नहाए। बिबिध दान महिदेवन्हि पाए॥
हरषि चले मुनि बृन्द सहाया। बेगि बिदेह नगर निअराया॥2॥

भावार्थ

तब प्रभु ने ऋषियों सहित (गङ्गाजी में) स्नान किया। ब्राह्मणों ने भाँति-भाँति के दान पाए। फिर मुनिवृन्द के साथ वे प्रसन्न होकर चले और शीघ्र ही जनकपुर के निकट पहुँच गए॥2॥

पुर रम्यता राम जब देखी। हरषे अनुज समेत बिसेषी॥
बापीं कूप सरित सर नाना। सलिल सुधासम मनि सोपाना॥3॥

मूल

पुर रम्यता राम जब देखी। हरषे अनुज समेत बिसेषी॥
बापीं कूप सरित सर नाना। सलिल सुधासम मनि सोपाना॥3॥

भावार्थ

श्री रामजी ने जब जनकपुर की शोभा देखी, तब वे छोटे भाई लक्ष्मण सहित अत्यन्त हर्षित हुए। वहाँ अनेकों बावलियाँ, कुएँ, नदी और तालाब हैं, जिनमें अमृत के समान जल है और मणियों की सीढियाँ (बनी हुई) हैं॥3॥

गुञ्जत मञ्जु मत्त रस भृङ्गा। कूजत कल बहुबरन बिहङ्गा॥
बरन बरन बिकसे बनजाता। त्रिबिध समीर सदा सुखदाता॥4॥

मूल

गुञ्जत मञ्जु मत्त रस भृङ्गा। कूजत कल बहुबरन बिहङ्गा॥
बरन बरन बिकसे बनजाता। त्रिबिध समीर सदा सुखदाता॥4॥

भावार्थ

मकरन्द रस से मतवाले होकर भौंरे सुन्दर गुञ्जार कर रहे हैं। रङ्ग-बिरङ्गे (बहुत से) पक्षी मधुर शब्द कर रहे हैं। रङ्ग-रङ्ग के कमल खिले हैं। सदा (सब ऋतुओं में) सुख देने वाला शीतल, मन्द, सुगन्ध पवन बह रहा है॥4॥

212

01 दोहा

सुमन बाटिका बाग बन बिपुल बिहङ्ग निवास।
फूलत फलत सुपल्लवत सोहत पुर चहुँ पास॥212॥

मूल

सुमन बाटिका बाग बन बिपुल बिहङ्ग निवास।
फूलत फलत सुपल्लवत सोहत पुर चहुँ पास॥212॥

भावार्थ

पुष्प वाटिका (फुलवारी), बाग और वन, जिनमें बहुत से पक्षियों का निवास है, फूलते, फलते और सुन्दर पत्तों से लदे हुए नगर के चारों ओर सुशोभित हैं॥212॥

02 चौपाई

बनइ न बरनत नगर निकाई। जहाँ जाइ मन तहँइँ लोभाई॥
चारु बजारु बिचित्र अँबारी। मनिमय बिधि जनु स्वकर सँवारी॥1॥

मूल

बनइ न बरनत नगर निकाई। जहाँ जाइ मन तहँइँ लोभाई॥
चारु बजारु बिचित्र अँबारी। मनिमय बिधि जनु स्वकर सँवारी॥1॥

भावार्थ

नगर की सुन्दरता का वर्णन करते नहीं बनता। मन जहाँ जाता है, वहीं लुभा जाता (रम जाता) है। सुन्दर बाजार है, मणियों से बने हुए विचित्र छज्जे हैं, मानो ब्रह्मा ने उन्हें अपने हाथों से बनाया है॥1॥

धनिक बनिक बर धनद समाना। बैठे सकल बस्तु लै नाना।
चौहट सुन्दर गलीं सुहाई। सन्तत रहहिं सुगन्ध सिञ्चाई॥2॥

मूल

धनिक बनिक बर धनद समाना। बैठे सकल बस्तु लै नाना।
चौहट सुन्दर गलीं सुहाई। सन्तत रहहिं सुगन्ध सिञ्चाई॥2॥

भावार्थ

कुबेर के समान श्रेष्ठ धनी व्यापारी सब प्रकार की अनेक वस्तुएँ लेकर (दुकानों में) बैठे हैं। सुन्दर चौराहे और सुहावनी गलियाँ सदा सुगन्ध से सिञ्ची रहती हैं॥2॥

मङ्गलमय मन्दिर सब केरें। चित्रित जनु रतिनाथ चितेरें॥
पुर नर नारि सुभग सुचि सन्ता। धरमसील ग्यानी गुनवन्ता॥3॥

मूल

मङ्गलमय मन्दिर सब केरें। चित्रित जनु रतिनाथ चितेरें॥
पुर नर नारि सुभग सुचि सन्ता। धरमसील ग्यानी गुनवन्ता॥3॥

भावार्थ

सबके घर मङ्गलमय हैं और उन पर चित्र कढे हुए हैं, जिन्हें मानो कामदेव रूपी चित्रकार ने अङ्कित किया है। नगर के (सभी) स्त्री-पुरुष सुन्दर, पवित्र, साधु स्वभाव वाले, धर्मात्मा, ज्ञानी और गुणवान हैं॥3॥

अति अनूप जहँ जनक निवासू। बिथकहिं बिबुध बिलोकि बिलासू॥
होत चकित चित कोट बिलोकी। सकल भुवन सोभा जनु रोकी॥4॥

मूल

अति अनूप जहँ जनक निवासू। बिथकहिं बिबुध बिलोकि बिलासू॥
होत चकित चित कोट बिलोकी। सकल भुवन सोभा जनु रोकी॥4॥

भावार्थ

जहाँ जनकजी का अत्यन्त अनुपम (सुन्दर) निवास स्थान (महल) है, वहाँ के विलास (ऐश्वर्य) को देखकर देवता भी थकित (स्तम्भित) हो जाते हैं (मनुष्यों की तो बात ही क्या!)। कोट (राजमहल के परकोटे) को देखकर चित्त चकित हो जाता है, (ऐसा मालूम होता है) मानो उसने समस्त लोकों की शोभा को रोक (घेर) रखा है॥4॥

213

01 दोहा

धवल धाम मनि पुरट पट सुघटित नाना भाँति।
सिय निवास सुन्दर सदन सोभा किमि कहि जाति॥213॥

मूल

धवल धाम मनि पुरट पट सुघटित नाना भाँति।
सिय निवास सुन्दर सदन सोभा किमि कहि जाति॥213॥

भावार्थ

उज्ज्वल महलों में अनेक प्रकार के सुन्दर रीति से बने हुए मणि जटित सोने की जरी के परदे लगे हैं। सीताजी के रहने के सुन्दर महल की शोभा का वर्णन किया ही कैसे जा सकता है॥213॥

02 चौपाई

सुभग द्वार सब कुलिस कपाटा। भूप भीर नट मागध भाटा॥
बनी बिसाल बाजि गज साला। हय गय रख सङ्कुल सब काला॥1॥

मूल

सुभग द्वार सब कुलिस कपाटा। भूप भीर नट मागध भाटा॥
बनी बिसाल बाजि गज साला। हय गय रख सङ्कुल सब काला॥1॥

भावार्थ

राजमहल के सब दरवाजे (फाटक) सुन्दर हैं, जिनमें वज्र के (मजबूत अथवा हीरों के चमकते हुए) किवाड लगे हैं। वहाँ (मातहत) राजाओं, नटों, मागधों और भाटों की भीड लगी रहती है। घोडों और हाथियों के लिए बहुत बडी-बडी घुडसालें और गजशालाएँ (फीलखाने) बनी हुई हैं, जो सब समय घोडे, हाथी और रथों से भरी रहती हैं॥1॥

सूर सचिव सेनप बहुतेरे। नृपगृह सरिस सदन सब केरे॥
पुर बाहेर सर सरित समीपा। उतरे जहँ तहँ बिपुल महीपा॥2॥

मूल

सूर सचिव सेनप बहुतेरे। नृपगृह सरिस सदन सब केरे॥
पुर बाहेर सर सरित समीपा। उतरे जहँ तहँ बिपुल महीपा॥2॥

भावार्थ

बहुत से शूरवीर, मन्त्री और सेनापति हैं। उन सबके घर भी राजमहल सरीखे ही हैं। नगर के बाहर तालाब और नदी के निकट जहाँ-तहाँ बहुत से राजा लोग उतरे हुए (डेरा डाले हुए) हैं॥2॥

देखि अनूप एक अँवराई। सब सुपास सब भाँति सुहाई।
कौसिक कहेउ मोर मनु माना। इहाँ रहिअ रघुबीर सुजाना॥3॥

मूल

देखि अनूप एक अँवराई। सब सुपास सब भाँति सुहाई।
कौसिक कहेउ मोर मनु माना। इहाँ रहिअ रघुबीर सुजाना॥3॥

भावार्थ

(वहीं) आमों का एक अनुपम बाग देखकर, जहाँ सब प्रकार के सुभीते थे और जो सब तरह से सुहावना था, विश्वामित्रजी ने कहा- हे सुजान रघुवीर! मेरा मन कहता है कि यहीं रहा जाए॥3॥

भलेहिं नाथ कहि कृपानिकेता। उतरे तहँ मुनि बृन्द समेता॥
बिस्वामित्र महामुनि आए। समाचार मिथिलापति पाए॥4॥

मूल

भलेहिं नाथ कहि कृपानिकेता। उतरे तहँ मुनि बृन्द समेता॥
बिस्वामित्र महामुनि आए। समाचार मिथिलापति पाए॥4॥

भावार्थ

कृपा के धाम श्री रामचन्द्रजी ‘बहुत अच्छा स्वामिन्‌!’ कहकर वहीं मुनियों के समूह के साथ ठहर गए। मिथिलापति जनकजी ने जब यह समाचार पाया कि महामुनि विश्वामित्र आए हैं,॥4॥

214

01 दोहा

सङ्ग सचिव सुचि भूरि भट भूसुर बर गुर ग्याति।
चले मिलन मुनिनायकहि मुदित राउ एहि भाँति॥214॥

मूल

सङ्ग सचिव सुचि भूरि भट भूसुर बर गुर ग्याति।
चले मिलन मुनिनायकहि मुदित राउ एहि भाँति॥214॥

भावार्थ

तब उन्होन्ने पवित्र हृदय के (ईमानदार, स्वामिभक्त) मन्त्री बहुत से योद्धा, श्रेष्ठ ब्राह्मण, गुरु (शतानन्दजी) और अपनी जाति के श्रेष्ठ लोगों को साथ लिया और इस प्रकार प्रसन्नता के साथ राजा मुनियों के स्वामी विश्वामित्रजी से मिलने चले॥214॥

02 चौपाई

कीन्ह प्रनामु चरन धरि माथा। दीन्हि असीस मुदित मुनिनाथा॥
बिप्रबृन्द सब सादर बन्दे। जानि भाग्य बड राउ अनन्दे॥1॥

मूल

कीन्ह प्रनामु चरन धरि माथा। दीन्हि असीस मुदित मुनिनाथा॥
बिप्रबृन्द सब सादर बन्दे। जानि भाग्य बड राउ अनन्दे॥1॥

भावार्थ

राजा ने मुनि के चरणों पर मस्तक रखकर प्रणाम किया। मुनियों के स्वामी विश्वामित्रजी ने प्रसन्न होकर आशीर्वाद दिया। फिर सारी ब्राह्मणमण्डली को आदर सहित प्रणाम किया और अपना बडा भाग्य जानकर राजा आनन्दित हुए॥1॥

कुसल प्रस्न कहि बारहिं बारा। बिस्वामित्र नृपहि बैठारा॥
तेहि अवसर आए दोउ भाई। गए रहे देखन फुलवाई॥2॥

मूल

कुसल प्रस्न कहि बारहिं बारा। बिस्वामित्र नृपहि बैठारा॥
तेहि अवसर आए दोउ भाई। गए रहे देखन फुलवाई॥2॥

भावार्थ

बार-बार कुशल प्रश्न करके विश्वामित्रजी ने राजा को बैठाया। उसी समय दोनों भाई आ पहुँचे, जो फुलवाडी देखने गए थे॥2॥

स्याम गौर मृदु बयस किसोरा। लोचन सुखद बिस्व चित चोरा॥
उठे सकल जब रघुपति आए। बिस्वामित्र निकट बैठाए॥3॥

मूल

स्याम गौर मृदु बयस किसोरा। लोचन सुखद बिस्व चित चोरा॥
उठे सकल जब रघुपति आए। बिस्वामित्र निकट बैठाए॥3॥

भावार्थ

सुकुमार किशोर अवस्था वाले श्याम और गौर वर्ण के दोनों कुमार नेत्रों को सुख देने वाले और सारे विश्व के चित्त को चुराने वाले हैं। जब रघुनाथजी आए तब सभी (उनके रूप एवं तेज से प्रभावित होकर) उठकर खडे हो गए। विश्वामित्रजी ने उनको अपने पास बैठा लिया॥3॥

भए सब सुखी देखि दोउ भ्राता। बारि बिलोचन पुलकित गाता॥
मूरति मधुर मनोहर देखी भयउ बिदेहु बिदेहु बिसेषी॥4॥

मूल

भए सब सुखी देखि दोउ भ्राता। बारि बिलोचन पुलकित गाता॥
मूरति मधुर मनोहर देखी भयउ बिदेहु बिदेहु बिसेषी॥4॥

भावार्थ

दोनों भाइयों को देखकर सभी सुखी हुए।

सबके नेत्रों में जल भर आया (आनन्द और प्रेम के आँसू उमड पडे) और शरीर रोमाञ्चित हो उठे। रामजी की मधुर मनोहर मूर्ति को देखकर विदेह (जनक) विशेष रूप से विदेह (देह की सुध-बुध से रहित) हो गए॥4॥

215

01 दोहा

प्रेम मगन मनु जानि नृपु करि बिबेकु धरि धीर।
बोलेउ मुनि पद नाइ सिरु गदगद गिरा गभीर॥215॥

मूल

प्रेम मगन मनु जानि नृपु करि बिबेकु धरि धीर।
बोलेउ मुनि पद नाइ सिरु गदगद गिरा गभीर॥215॥

भावार्थ

मन को प्रेम में मग्न जान राजा जनक ने विवेक का आश्रय लेकर धीरज धारण किया और मुनि के चरणों में सिर नवाकर गद्गद् (प्रेमभरी) गम्भीर वाणी से कहा- ॥215॥

02 चौपाई

कहहु नाथ सुन्दर दोउ बालक। मुनिकुल तिलक कि नृपकुल पालक॥
ब्रह्म जो निगम नेति कहि गावा। उभय बेष धरि की सोइ आवा॥1॥

मूल

कहहु नाथ सुन्दर दोउ बालक। मुनिकुल तिलक कि नृपकुल पालक॥
ब्रह्म जो निगम नेति कहि गावा। उभय बेष धरि की सोइ आवा॥1॥

भावार्थ

हे नाथ! कहिए, ये दोनों सुन्दर बालक मुनिकुल के आभूषण हैं या किसी राजवंश के पालक? अथवा जिसका वेदों ने ‘नेति’ कहकर गान किया है कहीं वह ब्रह्म तो युगल रूप धरकर नहीं आया है?॥1॥

सहज बिरागरूप मनु मोरा। थकित होत जिमि चन्द चकोरा॥
ताते प्रभु पूछउँ सतिभाऊ। कहहु नाथ जनि करहु दुराऊ॥2॥

मूल

सहज बिरागरूप मनु मोरा। थकित होत जिमि चन्द चकोरा॥
ताते प्रभु पूछउँ सतिभाऊ। कहहु नाथ जनि करहु दुराऊ॥2॥

भावार्थ

मेरा मन जो स्वभाव से ही वैराग्य रूप (बना हुआ) है, (इन्हें देखकर) इस तरह मुग्ध हो रहा है, जैसे चन्द्रमा को देखकर चकोर। हे प्रभो! इसलिए मैं आपसे सत्य (निश्छल) भाव से पूछता हूँ। हे नाथ! बताइए, छिपाव न कीजिए॥2॥

इन्हहि बिलोकत अति अनुरागा। बरबस ब्रह्मसुखहि मन त्यागा॥
कह मुनि बिहसि कहेहु नृप नीका। बचन तुम्हार न होइ अलीका॥3॥

मूल

इन्हहि बिलोकत अति अनुरागा। बरबस ब्रह्मसुखहि मन त्यागा॥
कह मुनि बिहसि कहेहु नृप नीका। बचन तुम्हार न होइ अलीका॥3॥

भावार्थ

इनको देखते ही अत्यन्त प्रेम के वश होकर मेरे मन ने जबर्दस्ती ब्रह्मसुख को त्याग दिया है। मुनि ने हँसकर कहा- हे राजन्‌! आपने ठीक (यथार्थ ही) कहा। आपका वचन मिथ्या नहीं हो सकता॥3॥

ए प्रिय सबहि जहाँ लगि प्रानी। मन मुसुकाहिं रामु सुनि बानी॥
रघुकुल मनि दसरथ के जाए। मम हित लागि नरेस पठाए॥4॥

मूल

ए प्रिय सबहि जहाँ लगि प्रानी। मन मुसुकाहिं रामु सुनि बानी॥
रघुकुल मनि दसरथ के जाए। मम हित लागि नरेस पठाए॥4॥

भावार्थ

जगत में जहाँ तक (जितने भी) प्राणी हैं, ये सभी को प्रिय हैं। मुनि की (रहस्य भरी) वाणी सुनकर श्री रामजी मन ही मन मुस्कुराते हैं (हँसकर मानो सङ्केत करते हैं कि रहस्य खोलिए नहीं)। (तब मुनि ने कहा-) ये रघुकुल मणि महाराज दशरथ के पुत्र हैं। मेरे हित के लिए राजा ने इन्हें मेरे साथ भेजा है॥4॥

216

01 दोहा

रामु लखनु दोउ बन्धुबर रूप सील बल धाम।
मख राखेउ सबु साखि जगु जिते असुर सङ्ग्राम॥216॥

मूल

रामु लखनु दोउ बन्धुबर रूप सील बल धाम।
मख राखेउ सबु साखि जगु जिते असुर सङ्ग्राम॥216॥

भावार्थ

ये राम और लक्ष्मण दोनों श्रेष्ठ भाई रूप, शील और बल के धाम हैं। सारा जगत (इस बात का) साक्षी है कि इन्होन्ने युद्ध में असुरों को जीतकर मेरे यज्ञ की रक्षा की है॥216॥

02 चौपाई

मुनि तव चरन देखि कह राऊ। कहि न सकउँ निज पुन्य प्रभाऊ॥
सुन्दर स्याम गौर दोउ भ्राता। आनँदहू के आनँद दाता॥1॥

मूल

मुनि तव चरन देखि कह राऊ। कहि न सकउँ निज पुन्य प्रभाऊ॥
सुन्दर स्याम गौर दोउ भ्राता। आनँदहू के आनँद दाता॥1॥

भावार्थ

राजा ने कहा- हे मुनि! आपके चरणों के दर्शन कर मैं अपना पुण्य प्रभाव कह नहीं सकता। ये सुन्दर श्याम और गौर वर्ण के दोनों भाई आनन्द को भी आनन्द देने वाले हैं।

इन्ह कै प्रीति परसपर पावनि। कहि न जाइ मन भाव सुहावनि॥
सुनहु नाथ कह मुदित बिदेहू। ब्रह्म जीव इव सहज सनेहू॥2॥

मूल

इन्ह कै प्रीति परसपर पावनि। कहि न जाइ मन भाव सुहावनि॥
सुनहु नाथ कह मुदित बिदेहू। ब्रह्म जीव इव सहज सनेहू॥2॥

भावार्थ

इनकी आपस की प्रीति बडी पवित्र और सुहावनी है, वह मन को बहुत भाती है, पर (वाणी से) कही नहीं जा सकती। विदेह (जनकजी) आनन्दित होकर कहते हैं- हे नाथ! सुनिए, ब्रह्म और जीव की तरह इनमें स्वाभाविक प्रेम है॥2॥

पुनि पुनि प्रभुहि चितव नरनाहू। पुलक गात उर अधिक उछाहू॥
मुनिहि प्रसंसि नाइ पद सीसू। चलेउ लवाइ नगर अवनीसू॥3॥

मूल

पुनि पुनि प्रभुहि चितव नरनाहू। पुलक गात उर अधिक उछाहू॥
मुनिहि प्रसंसि नाइ पद सीसू। चलेउ लवाइ नगर अवनीसू॥3॥

भावार्थ

राजा बार-बार प्रभु को देखते हैं (दृष्टि वहाँ से हटना ही नहीं चाहती)। (प्रेम से) शरीर पुलकित हो रहा है और हृदय में बडा उत्साह है। (फिर) मुनि की प्रशंसा करके और उनके चरणों में सिर नवाकर राजा उन्हें नगर में लिवा चले॥3॥

सुन्दर सदनु सुखद सब काला। तहाँ बासु लै दीन्ह भुआला॥
करि पूजा सब बिधि सेवकाई। गयउ राउ गृह बिदा कराई॥4॥

मूल

सुन्दर सदनु सुखद सब काला। तहाँ बासु लै दीन्ह भुआला॥
करि पूजा सब बिधि सेवकाई। गयउ राउ गृह बिदा कराई॥4॥

भावार्थ

एक सुन्दर महल जो सब समय (सभी ऋतुओं में) सुखदायक था, वहाँ राजा ने उन्हें ले जाकर ठहराया। तदनन्तर सब प्रकार से पूजा और सेवा करके राजा विदा माँगकर अपने घर गए॥4॥

217

01 दोहा

रिषय सङ्ग रघुबंस मनि करि भोजनु बिश्रामु।
बैठे प्रभु भ्राता सहित दिवसु रहा भरि जामु॥217॥

मूल

रिषय सङ्ग रघुबंस मनि करि भोजनु बिश्रामु।
बैठे प्रभु भ्राता सहित दिवसु रहा भरि जामु॥217॥

भावार्थ

रघुकुल के शिरोमणि प्रभु श्री रामचन्द्रजी ऋषियों के साथ भोजन और विश्राम करके भाई लक्ष्मण समेत बैठे। उस समय पहरभर दिन रह गया था॥217॥

02 चौपाई

लखन हृदयँ लालसा बिसेषी। जाइ जनकपुर आइअ देखी॥
प्रभु भय बहुरि मुनिहि सकुचाहीं। प्रगट न कहहिं मनहिं मुसुकाहीं॥1॥

मूल

लखन हृदयँ लालसा बिसेषी। जाइ जनकपुर आइअ देखी॥
प्रभु भय बहुरि मुनिहि सकुचाहीं। प्रगट न कहहिं मनहिं मुसुकाहीं॥1॥

भावार्थ

लक्ष्मणजी के हृदय में विशेष लालसा है कि जाकर जनकपुर देख आवें, परन्तु प्रभु श्री रामचन्द्रजी का डर है और फिर मुनि से भी सकुचाते हैं, इसलिए प्रकट में कुछ नहीं कहते, मन ही मन मुस्कुरा रहे हैं॥1॥

राम अनुज मन की गति जानी। भगत बछलता हियँ हुलसानी॥
परम बिनीत सकुचि मुसुकाई। बोले गुर अनुसासन पाई॥2॥

मूल

राम अनुज मन की गति जानी। भगत बछलता हियँ हुलसानी॥
परम बिनीत सकुचि मुसुकाई। बोले गुर अनुसासन पाई॥2॥

भावार्थ

(अन्तर्यामी) श्री रामचन्द्रजी ने छोटे भाई के मन की दशा जान ली, (तब) उनके हृदय में भक्तवत्सलता उमड आई। वे गुरु की आज्ञा पाकर बहुत ही विनय के साथ सकुचाते हुए मुस्कुराकर बोले॥2॥

नाथ लखनु पुरु देखन चहहीं। प्रभु सकोच डर प्रगट न कहहीं॥
जौं राउर आयसु मैं पावौं। नगर देखाइ तुरत लै आवौं॥3॥

मूल

नाथ लखनु पुरु देखन चहहीं। प्रभु सकोच डर प्रगट न कहहीं॥
जौं राउर आयसु मैं पावौं। नगर देखाइ तुरत लै आवौं॥3॥

भावार्थ

हे नाथ! लक्ष्मण नगर देखना चाहते हैं, किन्तु प्रभु (आप) के डर और सङ्कोच के कारण स्पष्ट नहीं कहते। यदि आपकी आज्ञा पाऊँ, तो मैं इनको नगर दिखलाकर तुरन्त ही (वापस) ले आऊँ॥3॥

सुनि मुनीसु कह बचन सप्रीती। कस न राम तुम्ह राखहु नीती॥
धरम सेतु पालक तुम्ह ताता। प्रेम बिबस सेवक सुखदाता॥4॥

मूल

सुनि मुनीसु कह बचन सप्रीती। कस न राम तुम्ह राखहु नीती॥
धरम सेतु पालक तुम्ह ताता। प्रेम बिबस सेवक सुखदाता॥4॥

भावार्थ

यह सुनकर मुनीश्वर विश्वामित्रजी ने प्रेम सहित वचन कहे- हे राम! तुम नीति की रक्षा कैसे न करोगे, हे तात! तुम धर्म की मर्यादा का पालन करने वाले और प्रेम के वशीभूत होकर सेवकों को सुख देने वाले हो॥4॥

218

01 दोहा

जाइ देखि आवहु नगरु सुख निधान दोउ भाइ।
करहु सुफल सब के नयन सुन्दर बदन देखाइ॥218॥

मूल

जाइ देखि आवहु नगरु सुख निधान दोउ भाइ।
करहु सुफल सब के नयन सुन्दर बदन देखाइ॥218॥

भावार्थ

सुख के निधान दोनों भाई जाकर नगर देख आओ। अपने सुन्दर मुख दिखलाकर सब (नगर निवासियों) के नेत्रों को सफल करो॥218॥

02 चौपाई

मुनि पद कमल बन्दि दोउ भ्राता। चले लोक लोचन सुख दाता॥
बालक बृन्द देखि अति सोभा। लगे सङ्ग लोचन मनु लोभा॥1॥

मूल

मुनि पद कमल बन्दि दोउ भ्राता। चले लोक लोचन सुख दाता॥
बालक बृन्द देखि अति सोभा। लगे सङ्ग लोचन मनु लोभा॥1॥

भावार्थ

सब लोकों के नेत्रों को सुख देने वाले दोनों भाई मुनि के चरणकमलों की वन्दना करके चले। बालकों के झुण्ड इन (के सौन्दर्य) की अत्यन्त शोभा देखकर साथ लग गए। उनके नेत्र और मन (इनकी माधुरी पर) लुभा गए॥1॥

पीत बसन परिकर कटि भाथा। चारु चाप सर सोहत हाथा॥
तन अनुहरत सुचन्दन खोरी। स्यामल गौर मनोहर जोरी॥2॥

मूल

पीत बसन परिकर कटि भाथा। चारु चाप सर सोहत हाथा॥
तन अनुहरत सुचन्दन खोरी। स्यामल गौर मनोहर जोरी॥2॥

भावार्थ

(दोनों भाइयों के) पीले रङ्ग के वस्त्र हैं, कमर के (पीले) दुपट्टों में तरकस बँधे हैं। हाथों में सुन्दर धनुष-बाण सुशोभित हैं। (श्याम और गौर वर्ण के) शरीरों के अनुकूल (अर्थात्‌ जिस पर जिस रङ्ग का चन्दन अधिक फबे उस पर उसी रङ्ग के) सुन्दर चन्दन की खौर लगी है। साँवरे और गोरे (रङ्ग) की मनोहर जोडी है॥2॥

केहरि कन्धर बाहु बिसाला। उर अति रुचिर नागमनि माला॥
सुभग सोन सरसीरुह लोचन। बदन मयङ्क तापत्रय मोचन॥3॥

मूल

केहरि कन्धर बाहु बिसाला। उर अति रुचिर नागमनि माला॥
सुभग सोन सरसीरुह लोचन। बदन मयङ्क तापत्रय मोचन॥3॥

भावार्थ

सिंह के समान (पुष्ट) गर्दन (गले का पिछला भाग) है, विशाल भुजाएँ हैं। (चौडी) छाती पर अत्यन्त सुन्दर गजमुक्ता की माला है। सुन्दर लाल कमल के समान नेत्र हैं। तीनों तापों से छुडाने वाला चन्द्रमा के समान मुख है॥3॥

कानन्हि कनक फूल छबि देहीं। चितवत चितहि चोरि जनु लेहीं॥
चितवनि चारु भृकुटि बर बाँकी। तिलक रेख सोभा जनु चाँकी॥4॥

मूल

कानन्हि कनक फूल छबि देहीं। चितवत चितहि चोरि जनु लेहीं॥
चितवनि चारु भृकुटि बर बाँकी। तिलक रेख सोभा जनु चाँकी॥4॥

भावार्थ

कानों में सोने के कर्णफूल (अत्यन्त) शोभा दे रहे हैं और देखते ही (देखने वाले के) चित्त को मानो चुरा लेते हैं। उनकी चितवन (दृष्टि) बडी मनोहर है और भौंहें तिरछी एवं सुन्दर हैं। (माथे पर) तिलक की रेखाएँ ऐसी सुन्दर हैं, मानो (मूर्तिमती) शोभा पर मुहर लगा दी गई है॥4॥

219

01 दोहा

रुचिर चौतनीं सुभग सिर मेचक कुञ्चित केस।
नख सिख सुन्दर बन्धु दोउ सोभा सकल सुदेस॥219॥

मूल

रुचिर चौतनीं सुभग सिर मेचक कुञ्चित केस।
नख सिख सुन्दर बन्धु दोउ सोभा सकल सुदेस॥219॥

भावार्थ

सिर पर सुन्दर चौकोनी टोपियाँ (दिए) हैं, काले और घुँघराले बाल हैं। दोनों भाई नख से लेकर शिखा तक (एडी से चोटी तक) सुन्दर हैं और सारी शोभा जहाँ जैसी चाहिए वैसी ही है॥219॥

02 चौपाई

देखन नगरु भूपसुत आए। समाचार पुरबासिन्ह पाए॥
धाए धाम काम सब त्यागी। मनहुँ रङ्क निधि लूटन लागी॥1॥

मूल

देखन नगरु भूपसुत आए। समाचार पुरबासिन्ह पाए॥
धाए धाम काम सब त्यागी। मनहुँ रङ्क निधि लूटन लागी॥1॥

भावार्थ

जब पुरवासियों ने यह समाचार पाया कि दोनों राजकुमार नगर देखने के लिए आए हैं, तब वे सब घर-बार और सब काम-काज छोडकर ऐसे दौडे मानो दरिद्री (धन का) खजाना लूटने दौडे हों॥1॥

निरखि सहज सुन्दर दोउ भाई। होहिं सुखी लोचन फल पाई॥
जुबतीं भवन झरोखन्हि लागीं। निरखहिं राम रूप अनुरागीं॥2॥

मूल

निरखि सहज सुन्दर दोउ भाई। होहिं सुखी लोचन फल पाई॥
जुबतीं भवन झरोखन्हि लागीं। निरखहिं राम रूप अनुरागीं॥2॥

भावार्थ

स्वभाव ही से सुन्दर दोनों भाइयों को देखकर वे लोग नेत्रों का फल पाकर सुखी हो रहे हैं। युवती स्त्रियाँ घर के झरोखों से लगी हुई प्रेम सहित श्री रामचन्द्रजी के रूप को देख रही हैं॥2॥

कहहिं परसपर बचन सप्रीती। सखि इन्ह कोटि काम छबि जीती॥
सुर नर असुर नाग मुनि माहीं। सोभा असि कहुँ सुनिअति नाहीं॥3॥

मूल

कहहिं परसपर बचन सप्रीती। सखि इन्ह कोटि काम छबि जीती॥
सुर नर असुर नाग मुनि माहीं। सोभा असि कहुँ सुनिअति नाहीं॥3॥

भावार्थ

वे आपस में बडे प्रेम से बातें कर रही हैं- हे सखी! इन्होन्ने करोडों कामदेवों की छबि को जीत लिया है। देवता, मनुष्य, असुर, नाग और मुनियों में ऐसी शोभा तो कहीं सुनने में भी नहीं आती॥3॥

बिष्नु चारि भुज बिधि मुख चारी। बिकट बेष मुख पञ्च पुरारी॥
अपर देउ अस कोउ ना आही। यह छबि सखी पटतरिअ जाही॥4॥

मूल

बिष्नु चारि भुज बिधि मुख चारी। बिकट बेष मुख पञ्च पुरारी॥
अपर देउ अस कोउ ना आही। यह छबि सखी पटतरिअ जाही॥4॥

भावार्थ

भगवान विष्णु के चार भुजाएँ हैं, ब्रह्माजी के चार मुख हैं, शिवजी का विकट (भयानक) वेष है और उनके पाँच मुँह हैं। हे सखी! दूसरा देवता भी कोई ऐसा नहीं है, जिसके साथ इस छबि की उपमा दी जाए॥4॥

220

01 दोहा

बय किसोर सुषमा सदन स्याम गौर सुख धाम।
अङ्ग अङ्ग पर वारिअहिं कोटि कोटि सत काम॥220॥

मूल

बय किसोर सुषमा सदन स्याम गौर सुख धाम।
अङ्ग अङ्ग पर वारिअहिं कोटि कोटि सत काम॥220॥

भावार्थ

इनकी किशोर अवस्था है, ये सुन्दरता के घर, साँवले और गोरे रङ्ग के तथा सुख के धाम हैं। इनके अङ्ग-अङ्ग पर करोडों-अरबों कामदेवों को निछावर कर देना चाहिए॥220॥

02 चौपाई

कहहु सखी अस को तनु धारी। जो न मोह यह रूप निहारी॥
कोउ सप्रेम बोली मृदु बानी। जो मैं सुना सो सुनहु सयानी॥1॥

मूल

कहहु सखी अस को तनु धारी। जो न मोह यह रूप निहारी॥
कोउ सप्रेम बोली मृदु बानी। जो मैं सुना सो सुनहु सयानी॥1॥

भावार्थ

हे सखी! (भला) कहो तो ऐसा कौन शरीरधारी होगा, जो इस रूप को देखकर मोहित न हो जाए (अर्थात यह रूप जड-चेतन सबको मोहित करने वाला है)। (तब) कोई दूसरी सखी प्रेम सहित कोमल वाणी से बोली- हे सयानी! मैन्ने जो सुना है उसे सुनो-॥1॥

ए दोऊ दसरथ के ढोटा। बाल मरालन्हि के कल जोटा॥
मुनि कौसिक मख के रखवारे। जिन्ह रन अजिर निसाचर मारे॥2॥

मूल

ए दोऊ दसरथ के ढोटा। बाल मरालन्हि के कल जोटा॥
मुनि कौसिक मख के रखवारे। जिन्ह रन अजिर निसाचर मारे॥2॥

भावार्थ

ये दोनों (राजकुमार) महाराज दशरथजी के पुत्र हैं! बाल राजहंसों का सा सुन्दर जोडा है। ये मुनि विश्वामित्र के यज्ञ की रक्षा करने वाले हैं, इन्होन्ने युद्ध के मैदान में राक्षसों को मारा है॥2॥

स्याम गात कल कञ्ज बिलोचन। जो मारीच सुभुज मदु मोचन॥
कौसल्या सुत सो सुख खानी। नामु रामु धनु सायक पानी॥3॥

मूल

स्याम गात कल कञ्ज बिलोचन। जो मारीच सुभुज मदु मोचन॥
कौसल्या सुत सो सुख खानी। नामु रामु धनु सायक पानी॥3॥

भावार्थ

जिनका श्याम शरीर और सुन्दर कमल जैसे नेत्र हैं, जो मारीच और सुबाहु के मद को चूर करने वाले और सुख की खान हैं और जो हाथ में धनुष-बाण लिए हुए हैं, वे कौसल्याजी के पुत्र हैं, इनका नाम राम है॥3॥

गौर किसोर बेषु बर काछें। कर सर चाप राम के पाछें॥
लछिमनु नामु राम लघु भ्राता। सुनु सखि तासु सुमित्रा माता॥4॥

मूल

गौर किसोर बेषु बर काछें। कर सर चाप राम के पाछें॥
लछिमनु नामु राम लघु भ्राता। सुनु सखि तासु सुमित्रा माता॥4॥

भावार्थ

जिनका रङ्ग गोरा और किशोर अवस्था है और जो सुन्दर वेष बनाए और हाथ में धनुष-बाण लिए श्री रामजी के पीछे-पीछे चल रहे हैं, वे इनके छोटे भाई हैं, उनका नाम लक्ष्मण है। हे सखी! सुनो, उनकी माता सुमित्रा हैं॥4॥

221

01 दोहा

बिप्रकाजु करि बन्धु दोउ मग मुनिबधू उधारि।
आए देखन चापमख सुनि हरषीं सब नारि॥221॥

मूल

बिप्रकाजु करि बन्धु दोउ मग मुनिबधू उधारि।
आए देखन चापमख सुनि हरषीं सब नारि॥221॥

भावार्थ

दोनों भाई ब्राह्मण विश्वामित्र का काम करके और रास्ते में मुनि गौतम की स्त्री अहल्या का उद्धार करके यहाँ धनुषयज्ञ देखने आए हैं। यह सुनकर सब स्त्रियाँ प्रसन्न हुईं॥221॥

02 चौपाई

देखि राम छबि कोउ एक कहई। जोगु जानकिहि यह बरु अहई॥
जौं सखि इन्हहि देख नरनाहू। पन परिहरि हठि करइ बिबाहू॥1॥

मूल

देखि राम छबि कोउ एक कहई। जोगु जानकिहि यह बरु अहई॥
जौं सखि इन्हहि देख नरनाहू। पन परिहरि हठि करइ बिबाहू॥1॥

भावार्थ

श्री रामचन्द्रजी की छबि देखकर कोई एक (दूसरी सखी) कहने लगी- यह वर जानकी के योग्य है। हे सखी! यदि कहीं राजा इन्हें देख ले, तो प्रतिज्ञा छोडकर हठपूर्वक इन्हीं से विवाह कर देगा॥1॥

कोउ कह ए भूपति पहिचाने। मुनि समेत सादर सनमाने॥
सखि परन्तु पनु राउ न तजई। बिधि बस हठि अबिबेकहि भजई॥2॥

मूल

कोउ कह ए भूपति पहिचाने। मुनि समेत सादर सनमाने॥
सखि परन्तु पनु राउ न तजई। बिधि बस हठि अबिबेकहि भजई॥2॥

भावार्थ

किसी ने कहा- राजा ने इन्हें पहचान लिया है और मुनि के सहित इनका आदरपूर्वक सम्मान किया है, परन्तु हे सखी! राजा अपना प्रण नहीं छोडता। वह होनहार के वशीभूत होकर हठपूर्वक अविवेक का ही आश्रय लिए हुए हैं (प्रण पर अडे रहने की मूर्खता नहीं छोडता)॥2॥

कोउ कह जौं भल अहइ बिधाता। सब कहँ सुनिअ उचित फल दाता॥
तौ जानकिहि मिलिहि बरु एहू। नाहिन आलि इहाँ सन्देहू॥3॥

मूल

कोउ कह जौं भल अहइ बिधाता। सब कहँ सुनिअ उचित फल दाता॥
तौ जानकिहि मिलिहि बरु एहू। नाहिन आलि इहाँ सन्देहू॥3॥

भावार्थ

कोई कहती है- यदि विधाता भले हैं और सुना जाता है कि वे सबको उचित फल देते हैं, तो जानकीजी को यही वर मिलेगा। हे सखी! इसमें सन्देह नहीं है॥3॥

जौं बिधि बस अस बनै सँजोगू। तौ कृतकृत्य होइ सब लोगू॥
सखि हमरें आरति अति तातें। कबहुँक ए आवहिं एहि नातें॥4॥

मूल

जौं बिधि बस अस बनै सँजोगू। तौ कृतकृत्य होइ सब लोगू॥
सखि हमरें आरति अति तातें। कबहुँक ए आवहिं एहि नातें॥4॥

भावार्थ

जो दैवयोग से ऐसा संयोग बन जाए, तो हम सब लोग कृतार्थ हो जाएँ। हे सखी! मेरे तो इसी से इतनी अधिक आतुरता हो रही है कि इसी नाते कभी ये यहाँ आवेङ्गे॥4॥

222

01 दोहा

नाहिं त हम कहुँ सुनहु सखि इन्ह कर दरसनु दूरि।
यह सङ्घटु तब होइ जब पुन्य पुराकृत भूरि॥222॥

मूल

नाहिं त हम कहुँ सुनहु सखि इन्ह कर दरसनु दूरि।
यह सङ्घटु तब होइ जब पुन्य पुराकृत भूरि॥222॥

भावार्थ

नहीं तो (विवाह न हुआ तो) हे सखी! सुनो, हमको इनके दर्शन दुर्लभ हैं। यह संयोग तभी हो सकता है, जब हमारे पूर्वजन्मों के बहुत पुण्य हों॥222॥

02 चौपाई

बोली अपर कहेहु सखि नीका। एहिं बिआह अति हित सबही का।
कोउ कह सङ्कर चाप कठोरा। ए स्यामल मृदु गात किसोरा॥1॥

मूल

बोली अपर कहेहु सखि नीका। एहिं बिआह अति हित सबही का।
कोउ कह सङ्कर चाप कठोरा। ए स्यामल मृदु गात किसोरा॥1॥

भावार्थ

दूसरी ने कहा- हे सखी! तुमने बहुत अच्छा कहा। इस विवाह से सभी का परम हित है। किसी ने कहा- शङ्करजी का धनुष कठोर है और ये साँवले राजकुमार कोमल शरीर के बालक हैं॥1॥

सबु असमञ्जस अहइ सयानी। यह सुनि अपर कहइ मृदु बानी॥
सखि इन्ह कहँ कोउ कोउ अस कहहीं। बड प्रभाउ देखत लघु अहहीं॥2॥

मूल

सबु असमञ्जस अहइ सयानी। यह सुनि अपर कहइ मृदु बानी॥
सखि इन्ह कहँ कोउ कोउ अस कहहीं। बड प्रभाउ देखत लघु अहहीं॥2॥

भावार्थ

हे सयानी! सब असमञ्जस ही है। यह सुनकर दूसरी सखी कोमल वाणी से कहने लगी- हे सखी! इनके सम्बन्ध में कोई-कोई ऐसा कहते हैं कि ये देखने में तो छोटे हैं, पर इनका प्रभाव बहुत बडा है॥2॥

परसि जासु पद पङ्कज धूरी। तरी अहल्या कृत अघ भूरी॥
सो कि रहिहि बिनु सिव धनु तोरें। यह प्रतीति परिहरिअ न भोरें॥3॥

मूल

परसि जासु पद पङ्कज धूरी। तरी अहल्या कृत अघ भूरी॥
सो कि रहिहि बिनु सिव धनु तोरें। यह प्रतीति परिहरिअ न भोरें॥3॥

भावार्थ

जिनके चरणकमलों की धूलि का स्पर्श पाकर अहल्या तर गई, जिसने बडा भारी पाप किया था, वे क्या शिवजी का धनुष बिना तोडे रहेङ्गे। इस विश्वास को भूलकर भी नहीं छोडना चाहिए॥3॥

जेहिं बिरञ्चि रचि सीय सँवारी। तेहिं स्यामल बरु रचेउ बिचारी॥
तासु बचन सुनि सब हरषानीं। ऐसेइ होउ कहहिं मृदु बानीं॥4॥

मूल

जेहिं बिरञ्चि रचि सीय सँवारी। तेहिं स्यामल बरु रचेउ बिचारी॥
तासु बचन सुनि सब हरषानीं। ऐसेइ होउ कहहिं मृदु बानीं॥4॥

भावार्थ

जिस ब्रह्मा ने सीता को सँवारकर (बडी चतुराई से) रचा है, उसी ने विचार कर साँवला वर भी रच रखा है। उसके ये वचन सुनकर सब हर्षित हुईं और कोमल वाणी से कहने लगीं- ऐसा ही हो॥4॥

223

01 दोहा

हियँ हरषहिं बरषहिं सुमन सुमुखि सुलोचनि बृन्द।
जाहिं जहाँ जहँ बन्धु दोउ तहँ तहँ परमानन्द॥223॥

मूल

हियँ हरषहिं बरषहिं सुमन सुमुखि सुलोचनि बृन्द।
जाहिं जहाँ जहँ बन्धु दोउ तहँ तहँ परमानन्द॥223॥

भावार्थ

सुन्दर मुख और सुन्दर नेत्रों वाली स्त्रियाँ समूह की समूह हृदय में हर्षित होकर फूल बरसा रही हैं। जहाँ-जहाँ दोनों भाई जाते हैं, वहाँ-वहाँ परम आनन्द छा जाता है॥223॥

02 चौपाई

पुर पूरब दिसि गे दोउ भाई। जहँ धनुमख हित भूमि बनाई॥
अति बिस्तार चारु गच ढारी। बिमल बेदिका रुचिर सँवारी॥1॥

मूल

पुर पूरब दिसि गे दोउ भाई। जहँ धनुमख हित भूमि बनाई॥
अति बिस्तार चारु गच ढारी। बिमल बेदिका रुचिर सँवारी॥1॥

भावार्थ

दोनों भाई नगर के पूरब ओर गए, जहाँ धनुषयज्ञ के लिए (रङ्ग) भूमि बनाई गई थी। बहुत लम्बा-चौडा सुन्दर ढाला हुआ पक्का आँगन था, जिस पर सुन्दर और निर्मल वेदी सजाई गई थी॥1॥

चहुँ दिसि कञ्चन मञ्च बिसाला। रचे जहाँ बैठहिं महिपाला॥
तेहि पाछें समीप चहुँ पासा। अपर मञ्च मण्डली बिलासा॥2॥

मूल

चहुँ दिसि कञ्चन मञ्च बिसाला। रचे जहाँ बैठहिं महिपाला॥
तेहि पाछें समीप चहुँ पासा। अपर मञ्च मण्डली बिलासा॥2॥

भावार्थ

चारों ओर सोने के बडे-बडे मञ्च बने थे, जिन पर राजा लोग बैठेङ्गे। उनके पीछे समीप ही चारों ओर दूसरे मचानों का मण्डलाकार घेरा सुशोभित था॥2॥

कछुक ऊँचि सब भाँति सुहाई। बैठहिं नगर लोग जहँ जाई॥
तिन्ह के निकट बिसाल सुहाए। धवल धाम बहुबरन बनाए॥3॥

मूल

कछुक ऊँचि सब भाँति सुहाई। बैठहिं नगर लोग जहँ जाई॥
तिन्ह के निकट बिसाल सुहाए। धवल धाम बहुबरन बनाए॥3॥

भावार्थ

वह कुछ ऊँचा था और सब प्रकार से सुन्दर था, जहाँ जाकर नगर के लोग बैठेङ्गे। उन्हीं के पास विशाल एवं सुन्दर सफेद मकान अनेक रङ्गों के बनाए गए हैं॥3॥

जहँ बैठें देखहिं सब नारी। जथाजोगु निज कुल अनुहारी॥
पुर बालक कहि कहि मृदु बचना। सादर प्रभुहि देखावहिं रचना॥4॥

मूल

जहँ बैठें देखहिं सब नारी। जथाजोगु निज कुल अनुहारी॥
पुर बालक कहि कहि मृदु बचना। सादर प्रभुहि देखावहिं रचना॥4॥

भावार्थ

जहाँ अपने-अपने कुल के अनुसार सब स्त्रियाँ यथायोग्य (जिसको जहाँ बैठना उचित है) बैठकर देखेङ्गी। नगर के बालक कोमल वचन कह-कहकर आदरपूर्वक प्रभु श्री रामचन्द्रजी को (यज्ञशाला की) रचना दिखला रहे हैं॥4॥

224

01 दोहा

सब सिसु एहि मिस प्रेमबस परसि मनोहर गात।
तन पुलकहिं अति हरषु हियँ देखि देखि दोउ भ्रात॥224॥

मूल

सब सिसु एहि मिस प्रेमबस परसि मनोहर गात।
तन पुलकहिं अति हरषु हियँ देखि देखि दोउ भ्रात॥224॥

भावार्थ

सब बालक इसी बहाने प्रेम के वश में होकर श्री रामजी के मनोहर अङ्गों को छूकर शरीर से पुलकित हो रहे हैं और दोनों भाइयों को देख-देखकर उनके हृदय में अत्यन्त हर्ष हो रहा है॥224॥

02 चौपाई

सिसु सब राम प्रेमबस जाने। प्रीति समेत निकेत बखाने॥
निज निज रुचि सब लेहिं बोलाई। सहित सनेह जाहिं दोउ भाई॥1॥

मूल

सिसु सब राम प्रेमबस जाने। प्रीति समेत निकेत बखाने॥
निज निज रुचि सब लेहिं बोलाई। सहित सनेह जाहिं दोउ भाई॥1॥

भावार्थ

श्री रामचन्द्रजी ने सब बालकों को प्रेम के वश जानकर (यज्ञभूमि के) स्थानों की प्रेमपूर्वक प्रशंसा की। (इससे बालकों का उत्साह, आनन्द और प्रेम और भी बढ गया, जिससे) वे सब अपनी-अपनी रुचि के अनुसार उन्हें बुला लेते हैं और (प्रत्येक के बुलाने पर) दोनों भाई प्रेम सहित उनके पास चले जाते हैं॥1॥

राम देखावहिं अनुजहि रचना। कहि मृदु मधुर मनोहर बचना॥
लव निमेष महुँ भुवन निकाया। रचइ जासु अनुसासन माया॥2॥

मूल

राम देखावहिं अनुजहि रचना। कहि मृदु मधुर मनोहर बचना॥
लव निमेष महुँ भुवन निकाया। रचइ जासु अनुसासन माया॥2॥

भावार्थ

कोमल, मधुर और मनोहर वचन कहकर श्री रामजी अपने छोटे भाई लक्ष्मण को (यज्ञभूमि की) रचना दिखलाते हैं। जिनकी आज्ञा पाकर माया लव निमेष (पलक गिरने के चौथाई समय) में ब्रह्माण्डों के समूह रच डालती है,॥2॥

भगति हेतु सोइ दीनदयाला। चितवत चकित धनुष मखसाला॥
कौतुक देखि चले गुरु पाहीं। जानि बिलम्बु त्रास मन माहीं॥3॥

मूल

भगति हेतु सोइ दीनदयाला। चितवत चकित धनुष मखसाला॥
कौतुक देखि चले गुरु पाहीं। जानि बिलम्बु त्रास मन माहीं॥3॥

भावार्थ

वही दीनों पर दया करने वाले श्री रामजी भक्ति के कारण धनुष यज्ञ शाला को चकित होकर (आश्चर्य के साथ) देख रहे हैं। इस प्रकार सब कौतुक (विचित्र रचना) देखकर वे गुरु के पास चले। देर हुई जानकर उनके मन में डर है॥3॥

जासु त्रास डर कहुँ डर होई। भजन प्रभाउ देखावत सोई॥
कहि बातें मृदु मधुर सुहाईं। किए बिदा बालक बरिआईं॥4॥

मूल

जासु त्रास डर कहुँ डर होई। भजन प्रभाउ देखावत सोई॥
कहि बातें मृदु मधुर सुहाईं। किए बिदा बालक बरिआईं॥4॥

भावार्थ

जिनके भय से डर को भी डर लगता है, वही प्रभु भजन का प्रभाव (जिसके कारण ऐसे महान प्रभु भी भय का नाट्य करते हैं) दिखला रहे हैं। उन्होन्ने कोमल, मधुर और सुन्दर बातें कहकर बालकों को जबर्दस्ती विदा किया॥4॥

225

01 दोहा

सभय सप्रेम बिनीत अति सकुच सहित दोउ भाइ।
गुर पद पङ्कज नाइ सिर बैठे आयसु पाइ॥225॥

मूल

सभय सप्रेम बिनीत अति सकुच सहित दोउ भाइ।
गुर पद पङ्कज नाइ सिर बैठे आयसु पाइ॥225॥

भावार्थ

फिर भय, प्रेम, विनय और बडे सङ्कोच के साथ दोनों भाई गुरु के चरण कमलों में सिर नवाकर आज्ञा पाकर बैठे॥225॥

02 चौपाई

निसि प्रबेस मुनि आयसु दीन्हा। सबहीं सन्ध्याबन्दनु कीन्हा॥
कहत कथा इतिहास पुरानी। रुचिर रजनि जुग जाम सिरानी॥1॥

मूल

निसि प्रबेस मुनि आयसु दीन्हा। सबहीं सन्ध्याबन्दनु कीन्हा॥
कहत कथा इतिहास पुरानी। रुचिर रजनि जुग जाम सिरानी॥1॥

भावार्थ

रात्रि का प्रवेश होते ही (सन्ध्या के समय) मुनि ने आज्ञा दी, तब सबने सन्ध्यावन्दन किया। फिर प्राचीन कथाएँ तथा इतिहास कहते-कहते सुन्दर रात्रि दो पहर बीत गई॥1॥

मुनिबर सयन कीन्हि तब जाई। लगे चरन चापन दोउ भाई॥
जिन्ह के चरन सरोरुह लागी। करत बिबिध जप जोग बिरागी॥2॥

मूल

मुनिबर सयन कीन्हि तब जाई। लगे चरन चापन दोउ भाई॥
जिन्ह के चरन सरोरुह लागी। करत बिबिध जप जोग बिरागी॥2॥

भावार्थ

तब श्रेष्ठ मुनि ने जाकर शयन किया। दोनों भाई उनके चरण दबाने लगे, जिनके चरण कमलों के (दर्शन एवं स्पर्श के) लिए वैराग्यवान्‌ पुरुष भी भाँति-भाँति के जप और योग करते हैं॥2॥

तेइ दोउ बन्धु प्रेम जनु जीते। गुर पद कमल पलोटत प्रीते॥
बार बार मुनि अग्या दीन्ही। रघुबर जाइ सयन तब कीन्ही॥3॥

मूल

तेइ दोउ बन्धु प्रेम जनु जीते। गुर पद कमल पलोटत प्रीते॥
बार बार मुनि अग्या दीन्ही। रघुबर जाइ सयन तब कीन्ही॥3॥

भावार्थ

वे ही दोनों भाई मानो प्रेम से जीते हुए प्रेमपूर्वक गुरुजी के चरण कमलों को दबा रहे हैं। मुनि ने बार-बार आज्ञा दी, तब श्री रघुनाथजी ने जाकर शयन किया॥3॥

चापत चरन लखनु उर लाएँ। सभय सप्रेम परम सचु पाएँ॥
पुनि पुनि प्रभु कह सोवहु ताता। पौढे धरि उर पद जलजाता॥4॥

मूल

चापत चरन लखनु उर लाएँ। सभय सप्रेम परम सचु पाएँ॥
पुनि पुनि प्रभु कह सोवहु ताता। पौढे धरि उर पद जलजाता॥4॥

भावार्थ

श्री रामजी के चरणों को हृदय से लगाकर भय और प्रेम सहित परम सुख का अनुभव करते हुए लक्ष्मणजी उनको दबा रहे हैं।

प्रभु श्री रामचन्द्रजी ने बार-बार कहा- हे तात! (अब) सो जाओ। तब वे उन चरण कमलों को हृदय में धरकर लेटे रहे॥4॥

226

01 दोहा

उठे लखनु निसि बिगत सुनि अरुनसिखा धुनि कान।
गुर तें पहिलेहिं जगतपति जागे रामु सुजान॥226॥

मूल

उठे लखनु निसि बिगत सुनि अरुनसिखा धुनि कान।
गुर तें पहिलेहिं जगतपति जागे रामु सुजान॥226॥

भावार्थ

रात बीतने पर, मुर्गे का शब्द कानों से सुनकर लक्ष्मणजी उठे। जगत के स्वामी सुजान श्री रामचन्द्रजी भी गुरु से पहले ही जाग गए॥226॥

02 चौपाई

सकल सौच करि जाइ नहाए। नित्य निबाहि मुनिहि सिर नाए॥
समय जानि गुर आयसु पाई। लेन प्रसून चले दोउ भाई॥1॥

मूल

सकल सौच करि जाइ नहाए। नित्य निबाहि मुनिहि सिर नाए॥
समय जानि गुर आयसु पाई। लेन प्रसून चले दोउ भाई॥1॥

भावार्थ

सब शौचक्रिया करके वे जाकर नहाए। फिर (सन्ध्या-अग्निहोत्रादि) नित्यकर्म समाप्त करके उन्होन्ने मुनि को मस्तक नवाया। (पूजा का) समय जानकर, गुरु की आज्ञा पाकर दोनों भाई फूल लेने चले॥1॥

भूप बागु बर देखेउ जाई। जहँ बसन्त रितु रही लोभाई॥
लागे बिटप मनोहर नाना। बरन बरन बर बेलि बिताना॥2॥

मूल

भूप बागु बर देखेउ जाई। जहँ बसन्त रितु रही लोभाई॥
लागे बिटप मनोहर नाना। बरन बरन बर बेलि बिताना॥2॥

भावार्थ

उन्होन्ने जाकर राजा का सुन्दर बाग देखा, जहाँ वसन्त ऋतु लुभाकर रह गई है। मन को लुभाने वाले अनेक वृक्ष लगे हैं। रङ्ग-बिरङ्गी उत्तम लताओं के मण्डप छाए हुए हैं॥2॥

नव पल्लव फल सुमन सुहाए। निज सम्पति सुर रूख लजाए॥
चातक कोकिल कीर चकोरा। कूजत बिहग नटत कल मोरा॥3॥

मूल

नव पल्लव फल सुमन सुहाए। निज सम्पति सुर रूख लजाए॥
चातक कोकिल कीर चकोरा। कूजत बिहग नटत कल मोरा॥3॥

भावार्थ

नए, पत्तों, फलों और फूलों से युक्त सुन्दर वृक्ष अपनी सम्पत्ति से कल्पवृक्ष को भी लजा रहे हैं। पपीहे, कोयल, तोते, चकोर आदि पक्षी मीठी बोली बोल रहे हैं और मोर सुन्दर नृत्य कर रहे हैं॥3॥

मध्य बाग सरु सोह सुहावा। मनि सोपान बिचित्र बनावा॥
बिमल सलिलु सरसिज बहुरङ्गा। जलखग कूजत गुञ्जत भृङ्गा॥4॥

मूल

मध्य बाग सरु सोह सुहावा। मनि सोपान बिचित्र बनावा॥
बिमल सलिलु सरसिज बहुरङ्गा। जलखग कूजत गुञ्जत भृङ्गा॥4॥

भावार्थ

बाग के बीचोम्बीच सुहावना सरोवर सुशोभित है, जिसमें मणियों की सीढियाँ विचित्र ढङ्ग से बनी हैं। उसका जल निर्मल है, जिसमें अनेक रङ्गों के कमल खिले हुए हैं, जल के पक्षी कलरव कर रहे हैं और भ्रमर गुञ्जार कर रहे हैं॥4॥

227

01 दोहा

बागु तडागु बिलोकि प्रभु हरषे बन्धु समेत।
परम रम्य आरामु यहु जो रामहि सुख देत॥227॥

मूल

बागु तडागु बिलोकि प्रभु हरषे बन्धु समेत।
परम रम्य आरामु यहु जो रामहि सुख देत॥227॥

भावार्थ

बाग और सरोवर को देखकर प्रभु श्री रामचन्द्रजी भाई लक्ष्मण सहित हर्षित हुए। यह बाग (वास्तव में) परम रमणीय है, जो (जगत को सुख देने वाले) श्री रामचन्द्रजी को सुख दे रहा है॥227॥

02 चौपाई

चहुँ दिसि चितइ पूँछि मालीगन। लगे लेन दल फूल मुदित मन॥
तेहि अवसर सीता तहँ आई। गिरिजा पूजन जननि पठाई॥1॥

मूल

चहुँ दिसि चितइ पूँछि मालीगन। लगे लेन दल फूल मुदित मन॥
तेहि अवसर सीता तहँ आई। गिरिजा पूजन जननि पठाई॥1॥

भावार्थ

चारों ओर दृष्टि डालकर और मालियों से पूछकर वे प्रसन्न मन से पत्र-पुष्प लेने लगे। उसी समय सीताजी वहाँ आईं। माता ने उन्हें गिरिजाजी (पार्वती) की पूजा करने के लिए भेजा था॥1॥

सङ्ग सखीं सब सुभग सयानीं। गावहिं गीत मनोहर बानीं॥
सर समीप गिरिजा गृह सोहा। बरनि न जाइ देखि मनु मोहा॥2॥

मूल

सङ्ग सखीं सब सुभग सयानीं। गावहिं गीत मनोहर बानीं॥
सर समीप गिरिजा गृह सोहा। बरनि न जाइ देखि मनु मोहा॥2॥

भावार्थ

साथ में सब सुन्दरी और सयानी सखियाँ हैं, जो मनोहर वाणी से गीत गा रही हैं। सरोवर के पास गिरिजाजी का मन्दिर सुशोभित है, जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता, देखकर मन मोहित हो जाता है॥2॥

मज्जनु करि सर सखिन्ह समेता। गई मुदित मन गौरि निकेता॥
पूजा कीन्हि अधिक अनुरागा। निज अनुरूप सुभग बरु मागा॥3॥

मूल

मज्जनु करि सर सखिन्ह समेता। गई मुदित मन गौरि निकेता॥
पूजा कीन्हि अधिक अनुरागा। निज अनुरूप सुभग बरु मागा॥3॥

भावार्थ

सखियों सहित सरोवर में स्नान करके सीताजी प्रसन्न मन से गिरिजाजी के मन्दिर में गईं। उन्होन्ने बडे प्रेम से पूजा की और अपने योग्य सुन्दर वर माँगा॥3॥

एक सखी सिय सङ्गु बिहाई। गई रही देखन फुलवाई॥
तेहिं दोउ बन्धु बिलोके जाई। प्रेम बिबस सीता पहिं आई॥4॥

मूल

एक सखी सिय सङ्गु बिहाई। गई रही देखन फुलवाई॥
तेहिं दोउ बन्धु बिलोके जाई। प्रेम बिबस सीता पहिं आई॥4॥

भावार्थ

एक सखी सीताजी का साथ छोडकर फुलवाडी देखने चली गई थी। उसने जाकर दोनों भाइयों को देखा और प्रेम में विह्वल होकर वह सीताजी के पास आई॥4॥

228

01 दोहा

तासु दसा देखी सखिन्ह पुलक गात जलु नैन।
कहु कारनु निज हरष कर पूछहिं सब मृदु बैन॥228॥

मूल

तासु दसा देखी सखिन्ह पुलक गात जलु नैन।
कहु कारनु निज हरष कर पूछहिं सब मृदु बैन॥228॥

भावार्थ

सखियों ने उसकी दशा देखी कि उसका शरीर पुलकित है और नेत्रों में जल भरा है। सब कोमल वाणी से पूछने लगीं कि अपनी प्रसन्नता का कारण बता॥228॥

02 चौपाई

देखन बागु कुअँर दुइ आए। बय किसोर सब भाँति सुहाए॥
स्याम गौर किमि कहौं बखानी। गिरा अनयन नयन बिनु बानी॥1॥

मूल

देखन बागु कुअँर दुइ आए। बय किसोर सब भाँति सुहाए॥
स्याम गौर किमि कहौं बखानी। गिरा अनयन नयन बिनु बानी॥1॥

भावार्थ

(उसने कहा-) दो राजकुमार बाग देखने आए हैं। किशोर अवस्था के हैं और सब प्रकार से सुन्दर हैं। वे साँवले और गोरे (रङ्ग के) हैं, उनके सौन्दर्य को मैं कैसे बखानकर कहूँ। वाणी बिना नेत्र की है और नेत्रों के वाणी नहीं है॥1॥

सुनि हरषीं सब सखीं सयानी। सिय हियँ अति उतकण्ठा जानी॥
एक कहइ नृपसुत तेइ आली। सुने जे मुनि सँग आए काली॥2॥

मूल

सुनि हरषीं सब सखीं सयानी। सिय हियँ अति उतकण्ठा जानी॥
एक कहइ नृपसुत तेइ आली। सुने जे मुनि सँग आए काली॥2॥

भावार्थ

यह सुनकर और सीताजी के हृदय में बडी उत्कण्ठा जानकर सब सयानी सखियाँ प्रसन्न हुईं। तब एक सखी कहने लगी- हे सखी! ये वही राजकुमार हैं, जो सुना है कि कल विश्वामित्र मुनि के साथ आए हैं॥2॥

जिन्ह निज रूप मोहनी डारी। कीन्हे स्वबस नगर नर नारी॥
बरनत छबि जहँ तहँ सब लोगू। अवसि देखिअहिं देखन जोगू॥3॥

मूल

जिन्ह निज रूप मोहनी डारी। कीन्हे स्वबस नगर नर नारी॥
बरनत छबि जहँ तहँ सब लोगू। अवसि देखिअहिं देखन जोगू॥3॥

भावार्थ

और जिन्होन्ने अपने रूप की मोहिनी डालकर नगर के स्त्री-पुरुषों को अपने वश में कर लिया है। जहाँ-तहाँ सब लोग उन्हीं की छबि का वर्णन कर रहे हैं। अवश्य (चलकर) उन्हें देखना चाहिए, वे देखने ही योग्य हैं॥3॥

तासु बचन अति सियहि सोहाने। दरस लागि लोचन अकुलाने॥
चली अग्र करि प्रिय सखि सोई। प्रीति पुरातन लखइ न कोई॥4॥

मूल

तासु बचन अति सियहि सोहाने। दरस लागि लोचन अकुलाने॥
चली अग्र करि प्रिय सखि सोई। प्रीति पुरातन लखइ न कोई॥4॥

भावार्थ

उसके वचन सीताजी को अत्यन्त ही प्रिय लगे और दर्शन के लिए उनके नेत्र अकुला उठे। उसी प्यारी सखी को आगे करके सीताजी चलीं। पुरानी प्रीति को कोई लख नहीं पाता॥4॥

229

01 दोहा

सुमिरि सीय नारद बचन उपजी प्रीति पुनीत।
चकित बिलोकति सकल दिसि जनु सिसु मृगी सभीत॥229॥

मूल

सुमिरि सीय नारद बचन उपजी प्रीति पुनीत।
चकित बिलोकति सकल दिसि जनु सिसु मृगी सभीत॥229॥

भावार्थ

नारदजी के वचनों का स्मरण करके सीताजी के मन में पवित्र प्रीति उत्पन्न हुई। वे चकित होकर सब ओर इस तरह देख रही हैं, मानो डरी हुई मृगछौनी इधर-उधर देख रही हो॥229॥

02 चौपाई

कङ्कन किङ्किनि नूपुर धुनि सुनि। कहत लखन सन रामु हृदयँ गुनि॥
मानहुँ मदन दुन्दुभी दीन्ही। मनसा बिस्व बिजय कहँ कीन्ही॥1॥

मूल

कङ्कन किङ्किनि नूपुर धुनि सुनि। कहत लखन सन रामु हृदयँ गुनि॥
मानहुँ मदन दुन्दुभी दीन्ही। मनसा बिस्व बिजय कहँ कीन्ही॥1॥

भावार्थ

कङ्कण (हाथों के कडे), करधनी और पायजेब के शब्द सुनकर श्री रामचन्द्रजी हृदय में विचार कर लक्ष्मण से कहते हैं- (यह ध्वनि ऐसी आ रही है) मानो कामदेव ने विश्व को जीतने का सङ्कल्प करके डङ्के पर चोट मारी है॥1॥

अस कहि फिरि चितए तेहि ओरा। सिय मुख ससि भए नयन चकोरा॥
भए बिलोचन चारु अचञ्चल। मनहुँ सकुचि निमि तजे दिगञ्चल॥2॥

मूल

अस कहि फिरि चितए तेहि ओरा। सिय मुख ससि भए नयन चकोरा॥
भए बिलोचन चारु अचञ्चल। मनहुँ सकुचि निमि तजे दिगञ्चल॥2॥

भावार्थ

ऐसा कहकर श्री रामजी ने फिर कर उस ओर देखा। श्री सीताजी के मुख रूपी चन्द्रमा (को निहारने) के लिए उनके नेत्र चकोर बन गए। सुन्दर नेत्र स्थिर हो गए (टकटकी लग गई)। मानो निमि (जनकजी के पूर्वज) ने (जिनका सबकी पलकों में निवास माना गया है, लडकी-दामाद के मिलन-प्रसङ्ग को देखना उचित नहीं, इस भाव से) सकुचाकर पलकें छोड दीं, (पलकों में रहना छोड दिया, जिससे पलकों का गिरना रुक गया)॥2॥

देखि सीय शोभा सुखु पावा। हृदयँ सराहत बचनु न आवा॥
जनु बिरञ्चि सब निज निपुनाई। बिरचि बिस्व कहँ प्रगटि देखाई॥3॥

मूल

देखि सीय शोभा सुखु पावा। हृदयँ सराहत बचनु न आवा॥
जनु बिरञ्चि सब निज निपुनाई। बिरचि बिस्व कहँ प्रगटि देखाई॥3॥

भावार्थ

सीताजी की शोभा देखकर श्री रामजी ने बडा सुख पाया। हृदय में वे उसकी सराहना करते हैं, किन्तु मुख से वचन नहीं निकलते। (वह शोभा ऐसी अनुपम है) मानो ब्रह्मा ने अपनी सारी निपुणता को मूर्तिमान कर संसार को प्रकट करके दिखा दिया हो॥3॥

सुन्दरता कहुँ सुन्दर करई। छबिगृहँ दीपसिखा जनु बरई॥
सब उपमा कबि रहे जुठारी। केहिं पटतरौं बिदेहकुमारी॥4॥

मूल

सुन्दरता कहुँ सुन्दर करई। छबिगृहँ दीपसिखा जनु बरई॥
सब उपमा कबि रहे जुठारी। केहिं पटतरौं बिदेहकुमारी॥4॥

भावार्थ

वह (सीताजी की शोभा) सुन्दरता को भी सुन्दर करने वाली है। (वह ऐसी मालूम होती है) मानो सुन्दरता रूपी घर में दीपक की लौ जल रही हो। (अब तक सुन्दरता रूपी भवन में अँधेरा था, वह भवन मानो सीताजी की सुन्दरता रूपी दीपशिखा को पाकर जगमगा उठा है, पहले से भी अधिक सुन्दर हो गया है)। सारी उपमाओं को तो कवियों ने जूँठा कर रखा है। मैं जनकनन्दिनी श्री सीताजी की किससे उपमा दूँ॥4॥

230

01 दोहा

सिय शोभा हियँ बरनि प्रभु आपनि दसा बिचारि॥
बोले सुचि मन अनुज सन बचन समय अनुहारि॥230॥

मूल

सिय शोभा हियँ बरनि प्रभु आपनि दसा बिचारि॥
बोले सुचि मन अनुज सन बचन समय अनुहारि॥230॥

भावार्थ

(इस प्रकार) हृदय में सीताजी की शोभा का वर्णन करके और अपनी दशा को विचारकर प्रभु श्री रामचन्द्रजी पवित्र मन से अपने छोटे भाई लक्ष्मण से समयानुकूल वचन बोले-॥230॥

02 चौपाई

तात जनकतनया यह सोई। धनुषजग्य जेहि कारन होई॥
पूजन गौरि सखीं लै आईं। करत प्रकासु फिरइ फुलवाईं॥1॥

मूल

तात जनकतनया यह सोई। धनुषजग्य जेहि कारन होई॥
पूजन गौरि सखीं लै आईं। करत प्रकासु फिरइ फुलवाईं॥1॥

भावार्थ

हे तात! यह वही जनकजी की कन्या है, जिसके लिए धनुषयज्ञ हो रहा है। सखियाँ इसे गौरी पूजन के लिए ले आई हैं। यह फुलवाडी में प्रकाश करती हुई फिर रही है॥1॥

जासु बिलोकि अलौकिक सोभा। सहज पुनीत मोर मनु छोभा॥
सो सबु कारन जान बिधाता। फरकहिं सुभद अङ्ग सुनु भ्राता॥2॥

मूल

जासु बिलोकि अलौकिक सोभा। सहज पुनीत मोर मनु छोभा॥
सो सबु कारन जान बिधाता। फरकहिं सुभद अङ्ग सुनु भ्राता॥2॥

भावार्थ

जिसकी अलौकिक सुन्दरता देखकर स्वभाव से ही पवित्र मेरा मन क्षुब्ध हो गया है। वह सब कारण (अथवा उसका सब कारण) तो विधाता जानें, किन्तु हे भाई! सुनो, मेरे मङ्गलदायक (दाहिने) अङ्ग फडक रहे हैं॥2॥

रघुबंसिन्ह कर सहज सुभाऊ। मनु कुपन्थ पगु धरइ न काऊ॥
मोहि अतिसय प्रतीति मन केरी। जेहिं सपनेहुँ परनारि न हेरी॥3॥

मूल

रघुबंसिन्ह कर सहज सुभाऊ। मनु कुपन्थ पगु धरइ न काऊ॥
मोहि अतिसय प्रतीति मन केरी। जेहिं सपनेहुँ परनारि न हेरी॥3॥

भावार्थ

रघुवंशियों का यह सहज (जन्मगत) स्वभाव है कि उनका मन कभी कुमार्ग पर पैर नहीं रखता। मुझे तो अपने मन का अत्यन्त ही विश्वास है कि जिसने (जाग्रत की कौन कहे) स्वप्न में भी पराई स्त्री पर दृष्टि नहीं डाली है॥3॥

जिन्ह कै लहहिं न रिपु रन पीठी। नहिं पावहिं परतिय मनु डीठी॥
मङ्गन लहहिं न जिन्ह कै नाहीं। ते नरबर थोरे जग माहीं॥4॥

मूल

जिन्ह कै लहहिं न रिपु रन पीठी। नहिं पावहिं परतिय मनु डीठी॥
मङ्गन लहहिं न जिन्ह कै नाहीं। ते नरबर थोरे जग माहीं॥4॥

भावार्थ

रण में शत्रु जिनकी पीठ नहीं देख पाते (अर्थात्‌ जो लडाई के मैदान से भागते नहीं), पराई स्त्रियाँ जिनके मन और दृष्टि को नहीं खीञ्च पातीं और भिखारी जिनके यहाँ से ‘नाहीं’ नहीं पाते (खाली हाथ नहीं लौटते), ऐसे श्रेष्ठ पुरुष संसार में थोडे हैं॥4॥

231

01 दोहा

करत बतकही अनुज सन मन सिय रूप लोभान।
मुख सरोज मकरन्द छबि करइ मधुप इव पान॥231॥

मूल

करत बतकही अनुज सन मन सिय रूप लोभान।
मुख सरोज मकरन्द छबि करइ मधुप इव पान॥231॥

भावार्थ

यों श्री रामजी छोटे भाई से बातें कर रहे हैं, पर मन सीताजी के रूप में लुभाया हुआ उनके मुखरूपी कमल के छबि रूप मकरन्द रस को भौंरे की तरह पी रहा है॥231॥

02 चौपाई

चितवति चकित चहूँ दिसि सीता। कहँ गए नृप किसोर मनु चिन्ता॥
जहँ बिलोक मृग सावक नैनी। जनु तहँ बरिस कमल सित श्रेनी॥1॥

मूल

चितवति चकित चहूँ दिसि सीता। कहँ गए नृप किसोर मनु चिन्ता॥
जहँ बिलोक मृग सावक नैनी। जनु तहँ बरिस कमल सित श्रेनी॥1॥

भावार्थ

सीताजी चकित होकर चारों ओर देख रही हैं। मन इस बात की चिन्ता कर रहा है कि राजकुमार कहाँ चले गए। बाल मृगनयनी (मृग के छौने की सी आँख वाली) सीताजी जहाँ दृष्टि डालती हैं, वहाँ मानो श्वेत कमलों की कतार बरस जाती है॥1॥

लता ओट तब सखिन्ह लखाए। स्यामल गौर किसोर सुहाए॥
देखि रूप लोचन ललचाने। हरषे जनु निज निधि पहिचाने॥2॥

मूल

लता ओट तब सखिन्ह लखाए। स्यामल गौर किसोर सुहाए॥
देखि रूप लोचन ललचाने। हरषे जनु निज निधि पहिचाने॥2॥

भावार्थ

तब सखियों ने लता की ओट में सुन्दर श्याम और गौर कुमारों को दिखलाया। उनके रूप को देखकर नेत्र ललचा उठे, वे ऐसे प्रसन्न हुए मानो उन्होन्ने अपना खजाना पहचान लिया॥2॥

थके नयन रघुपति छबि देखें। पलकन्हिहूँ परिहरीं निमेषें॥
अधिक सनेहँ देह भै भोरी। सरद ससिहि जनु चितव चकोरी॥3॥

मूल

थके नयन रघुपति छबि देखें। पलकन्हिहूँ परिहरीं निमेषें॥
अधिक सनेहँ देह भै भोरी। सरद ससिहि जनु चितव चकोरी॥3॥

भावार्थ

श्री रघुनाथजी की छबि देखकर नेत्र थकित (निश्चल) हो गए। पलकों ने भी गिरना छोड दिया। अधिक स्नेह के कारण शरीर विह्वल (बेकाबू) हो गया। मानो शरद ऋतु के चन्द्रमा को चकोरी (बेसुध हुई) देख रही हो॥3॥

लोचन मग रामहि उर आनी। दीन्हे पलक कपाट सयानी॥
जब सिय सखिन्ह प्रेमबस जानी। कहि न सकहिं कछु मन सकुचानी॥4॥

मूल

लोचन मग रामहि उर आनी। दीन्हे पलक कपाट सयानी॥
जब सिय सखिन्ह प्रेमबस जानी। कहि न सकहिं कछु मन सकुचानी॥4॥

भावार्थ

नेत्रों के रास्ते श्री रामजी को हृदय में लाकर चतुरशिरोमणि जानकीजी ने पलकों के किवाड लगा दिए (अर्थात नेत्र मूँदकर उनका ध्यान करने लगीं)। जब सखियों ने सीताजी को प्रेम के वश जाना, तब वे मन में सकुचा गईं, कुछ कह नहीं सकती थीं॥4॥

232

01 दोहा

लताभवन तें प्रगट भे तेहि अवसर दोउ भाइ।
तकिसे जनु जुग बिमल बिधु जलद पटल बिलगाई॥232॥

मूल

लताभवन तें प्रगट भे तेहि अवसर दोउ भाइ।
तकिसे जनु जुग बिमल बिधु जलद पटल बिलगाई॥232॥

भावार्थ

उसी समय दोनों भाई लता मण्डप (कुञ्ज) में से प्रकट हुए। मानो दो निर्मल चन्द्रमा बादलों के परदे को हटाकर निकले हों॥232॥

02 चौपाई

सोभा सीवँ सुभग दोउ बीरा। नील पीत जलजाभ सरीरा॥
मोरपङ्ख सिर सोहत नीके। गुच्छ बीच बिच कुसुम कली के॥1॥

मूल

सोभा सीवँ सुभग दोउ बीरा। नील पीत जलजाभ सरीरा॥
मोरपङ्ख सिर सोहत नीके। गुच्छ बीच बिच कुसुम कली के॥1॥

भावार्थ

दोनों सुन्दर भाई शोभा की सीमा हैं। उनके शरीर की आभा नीले और पीले कमल की सी है। सिर पर सुन्दर मोरपङ्ख सुशोभित हैं। उनके बीच-बीच में फूलों की कलियों के गुच्छे लगे हैं॥1॥

भाल तिलक श्रम बिन्दु सुहाए। श्रवन सुभग भूषन छबि छाए॥
बिकट भृकुटि कच घूघरवारे। नव सरोज लोचन रतनारे॥2॥

मूल

भाल तिलक श्रम बिन्दु सुहाए। श्रवन सुभग भूषन छबि छाए॥
बिकट भृकुटि कच घूघरवारे। नव सरोज लोचन रतनारे॥2॥

भावार्थ

माथे पर तिलक और पसीने की बूँदें शोभायमान हैं। कानों में सुन्दर भूषणों की छबि छाई है। टेढी भौंहें और घुँघराले बाल हैं। नए लाल कमल के समान रतनारे (लाल) नेत्र हैं॥2॥

चारु चिबुक नासिका कपोला। हास बिलास लेत मनु मोला॥
मुखछबि कहि न जाइ मोहि पाहीं। जो बिलोकि बहु काम लजाहीं॥3॥

मूल

चारु चिबुक नासिका कपोला। हास बिलास लेत मनु मोला॥
मुखछबि कहि न जाइ मोहि पाहीं। जो बिलोकि बहु काम लजाहीं॥3॥

भावार्थ

ठोडी नाक और गाल बडे सुन्दर हैं और हँसी की शोभा मन को मोल लिए लेती है। मुख की छबि तो मुझसे कही ही नहीं जाती, जिसे देखकर बहुत से कामदेव लजा जाते हैं॥3॥

उर मनि माल कम्बु कल गीवा। काम कलभ कर भुज बलसींवा॥
सुमन समेत बाम कर दोना। सावँर कुअँर सखी सुठि लोना॥4॥

मूल

उर मनि माल कम्बु कल गीवा। काम कलभ कर भुज बलसींवा॥
सुमन समेत बाम कर दोना। सावँर कुअँर सखी सुठि लोना॥4॥

भावार्थ

वक्षःस्थल पर मणियों की माला है। शङ्ख के सदृश सुन्दर गला है। कामदेव के हाथी के बच्चे की सूँड के समान (उतार-चढाव वाली एवं कोमल) भुजाएँ हैं, जो बल की सीमा हैं। जिसके बाएँ हाथ में फूलों सहित दोना है, हे सखि! वह साँवला कुँअर तो बहुत ही सलोना है॥4॥

233

01 दोहा

केहरि कटि पट पीत धर सुषमा सील निधान।
देखि भानुकुलभूषनहि बिसरा सखिन्ह अपान॥233॥

मूल

केहरि कटि पट पीत धर सुषमा सील निधान।
देखि भानुकुलभूषनहि बिसरा सखिन्ह अपान॥233॥

भावार्थ

सिंह की सी (पतली, लचीली) कमर वाले, पीताम्बर धारण किए हुए, शोभा और शील के भण्डार, सूर्यकुल के भूषण श्री रामचन्द्रजी को देखकर सखियाँ अपने आपको भूल गईं॥233॥

02 चौपाई

धरि धीरजु एक आलि सयानी। सीता सन बोली गहि पानी॥
बहुरि गौरि कर ध्यान करेहू। भूपकिसोर देखि किन लेहू॥1॥

मूल

धरि धीरजु एक आलि सयानी। सीता सन बोली गहि पानी॥
बहुरि गौरि कर ध्यान करेहू। भूपकिसोर देखि किन लेहू॥1॥

भावार्थ

एक चतुर सखी धीरज धरकर, हाथ पकडकर सीताजी से बोली- गिरिजाजी का ध्यान फिर कर लेना, इस समय राजकुमार को क्यों नहीं देख लेतीं॥1॥

सकुचि सीयँ तब नयन उघारे। सनमुख दोउ रघुसिङ्घ निहारे॥
नख सिख देखि राम कै सोभा। सुमिरि पिता पनु मनु अति छोभा॥2॥

मूल

सकुचि सीयँ तब नयन उघारे। सनमुख दोउ रघुसिङ्घ निहारे॥
नख सिख देखि राम कै सोभा। सुमिरि पिता पनु मनु अति छोभा॥2॥

भावार्थ

तब सीताजी ने सकुचाकर नेत्र खोले और रघुकुल के दोनों सिंहों को अपने सामने (खडे) देखा। नख से शिखा तक श्री रामजी की शोभा देखकर और फिर पिता का प्रण याद करके उनका मन बहुत क्षुब्ध हो गया॥2॥

परबस सखिन्ह लखी जब सीता। भयउ गहरु सब कहहिं सभीता॥
पुनि आउब एहि बेरिआँ काली। अस कहि मन बिहसी एक आली॥3॥

मूल

परबस सखिन्ह लखी जब सीता। भयउ गहरु सब कहहिं सभीता॥
पुनि आउब एहि बेरिआँ काली। अस कहि मन बिहसी एक आली॥3॥

भावार्थ

जब सखियों ने सीताजी को परवश (प्रेम के वश) देखा, तब सब भयभीत होकर कहने लगीं- बडी देर हो गई। (अब चलना चाहिए)। कल इसी समय फिर आएँगी, ऐसा कहकर एक सखी मन में हँसी॥3॥

गूढ गिरा सुनि सिय सकुचानी। भयउ बिलम्बु मातु भय मानी॥
धरि बडि धीर रामु उर आने। फिरी अपनपउ पितुबस जाने॥4॥

मूल

गूढ गिरा सुनि सिय सकुचानी। भयउ बिलम्बु मातु भय मानी॥
धरि बडि धीर रामु उर आने। फिरी अपनपउ पितुबस जाने॥4॥

भावार्थ

सखी की यह रहस्यभरी वाणी सुनकर सीताजी सकुचा गईं।

देर हो गई जान उन्हें माता का भय लगा। बहुत धीरज धरकर वे श्री रामचन्द्रजी को हृदय में ले आईं और (उनका ध्यान करती हुई) अपने को पिता के अधीन जानकर लौट चलीं॥4॥

234

01 दोहा

देखन मिस मृग बिहग तरु फिरइ बहोरि बहोरि।
निरखि निरखि रघुबीर छबि बाढइ प्रीति न थोरि॥234॥

मूल

देखन मिस मृग बिहग तरु फिरइ बहोरि बहोरि।
निरखि निरखि रघुबीर छबि बाढइ प्रीति न थोरि॥234॥

भावार्थ

मृग, पक्षी और वृक्षों को देखने के बहाने सीताजी बार-बार घूम जाती हैं और श्री रामजी की छबि देख-देखकर उनका प्रेम कम नहीं बढ रहा है। (अर्थात्‌ बहुत ही बढता जाता है)॥234॥

02 चौपाई

जानि कठिन सिवचाप बिसूरति। चली राखि उर स्यामल मूरति॥
प्रभु जब जात जानकी जानी। सुख सनेह सोभा गुन खानी॥1॥

मूल

जानि कठिन सिवचाप बिसूरति। चली राखि उर स्यामल मूरति॥
प्रभु जब जात जानकी जानी। सुख सनेह सोभा गुन खानी॥1॥

भावार्थ

शिवजी के धनुष को कठोर जानकर वे विसूरती (मन में विलाप करती) हुई हृदय में श्री रामजी की साँवली मूर्ति को रखकर चलीं। (शिवजी के धनुष की कठोरता का स्मरण आने से उन्हें चिन्ता होती थी कि ये सुकुमार रघुनाथजी उसे कैसे तोडेङ्गे, पिता के प्रण की स्मृति से उनके हृदय में क्षोभ था ही, इसलिए मन में विलाप करने लगीं। प्रेमवश ऐश्वर्य की विस्मृति हो जाने से ही ऐसा हुआ, फिर भगवान के बल का स्मरण आते ही वे हर्षित हो गईं और साँवली छबि को हृदय में धारण करके चलीं।) प्रभु श्री रामजी ने जब सुख, स्नेह, शोभा और गुणों की खान श्री जानकीजी को जाती हुई जाना,॥1॥

परम प्रेममय मृदु मसि कीन्ही। चारु चित्त भीतीं लिखि लीन्ही॥
गई भवानी भवन बहोरी। बन्दि चरन बोली कर जोरी॥2॥

मूल

परम प्रेममय मृदु मसि कीन्ही। चारु चित्त भीतीं लिखि लीन्ही॥
गई भवानी भवन बहोरी। बन्दि चरन बोली कर जोरी॥2॥

भावार्थ

तब परमप्रेम की कोमल स्याही बनाकर उनके स्वरूप को अपने सुन्दर चित्त रूपी भित्ति पर चित्रित कर लिया। सीताजी पुनः भवानीजी के मन्दिर में गईं और उनके चरणों की वन्दना करके हाथ जोडकर बोलीं-॥2॥

जय जय गिरिबरराज किसोरी। जय महेस मुख चन्द चकोरी॥
जय गजबदन षडानन माता। जगत जननि दामिनि दुति गाता॥3॥

मूल

जय जय गिरिबरराज किसोरी। जय महेस मुख चन्द चकोरी॥
जय गजबदन षडानन माता। जगत जननि दामिनि दुति गाता॥3॥

भावार्थ

हे श्रेष्ठ पर्वतों के राजा हिमाचल की पुत्री पार्वती! आपकी जय हो, जय हो, हे महादेवजी के मुख रूपी चन्द्रमा की (ओर टकटकी लगाकर देखने वाली) चकोरी! आपकी जय हो, हे हाथी के मुख वाले गणेशजी और छह मुख वाले स्वामिकार्तिकजी की माता! हे जगज्जननी! हे बिजली की सी कान्तियुक्त शरीर वाली! आपकी जय हो! ॥3॥

नहिं तव आदि मध्य अवसाना। अमित प्रभाउ बेदु नहिं जाना॥
भव भव बिभव पराभव कारिनि। बिस्व बिमोहनि स्वबस बिहारिनि॥4॥

मूल

नहिं तव आदि मध्य अवसाना। अमित प्रभाउ बेदु नहिं जाना॥
भव भव बिभव पराभव कारिनि। बिस्व बिमोहनि स्वबस बिहारिनि॥4॥

भावार्थ

आपका न आदि है, न मध्य है और न अन्त है। आपके असीम प्रभाव को वेद भी नहीं जानते। आप संसार को उत्पन्न, पालन और नाश करने वाली हैं। विश्व को मोहित करने वाली और स्वतन्त्र रूप से विहार करने वाली हैं॥4॥

235

01 दोहा

पतिदेवता सुतीय महुँ मातु प्रथम तव रेख।
महिमा अमित न सकहिं कहि सहस सारदा सेष॥235॥

मूल

पतिदेवता सुतीय महुँ मातु प्रथम तव रेख।
महिमा अमित न सकहिं कहि सहस सारदा सेष॥235॥

भावार्थ

पति को इष्टदेव मानने वाली श्रेष्ठ नारियों में हे माता! आपकी प्रथम गणना है। आपकी अपार महिमा को हजारों सरस्वती और शेषजी भी नहीं कह सकते॥235॥

02 चौपाई

सेवत तोहि सुलभ फल चारी। बरदायनी पुरारि पिआरी॥
देबि पूजि पद कमल तुम्हारे। सुर नर मुनि सब होहिं सुखारे॥1॥

मूल

सेवत तोहि सुलभ फल चारी। बरदायनी पुरारि पिआरी॥
देबि पूजि पद कमल तुम्हारे। सुर नर मुनि सब होहिं सुखारे॥1॥

भावार्थ

हे (भक्तों को मुँहमाँगा) वर देने वाली! हे त्रिपुर के शत्रु शिवजी की प्रिय पत्नी! आपकी सेवा करने से चारों फल सुलभ हो जाते हैं। हे देवी! आपके चरण कमलों की पूजा करके देवता, मनुष्य और मुनि सभी सुखी हो जाते हैं॥1॥

मोर मनोरथु जानहु नीकें। बसहु सदा उर पुर सबही कें॥
कीन्हेउँ प्रगट न कारन तेहीं। अस कहि चरन गहे बैदेहीं॥2॥

मूल

मोर मनोरथु जानहु नीकें। बसहु सदा उर पुर सबही कें॥
कीन्हेउँ प्रगट न कारन तेहीं। अस कहि चरन गहे बैदेहीं॥2॥

भावार्थ

मेरे मनोरथ को आप भलीभाँति जानती हैं, क्योङ्कि आप सदा सबके हृदय रूपी नगरी में निवास करती हैं। इसी कारण मैन्ने उसको प्रकट नहीं किया। ऐसा कहकर जानकीजी ने उनके चरण पकड लिए॥2॥

बिनय प्रेम बस भई भवानी। खसी माल मूरति मुसुकानी॥
सादर सियँ प्रसादु सिर धरेऊ। बोली गौरि हरषु हियँ भरेऊ॥3॥

मूल

बिनय प्रेम बस भई भवानी। खसी माल मूरति मुसुकानी॥
सादर सियँ प्रसादु सिर धरेऊ। बोली गौरि हरषु हियँ भरेऊ॥3॥

भावार्थ

गिरिजाजी सीताजी के विनय और प्रेम के वश में हो गईं। उन (के गले) की माला खिसक पडी और मूर्ति मुस्कुराई। सीताजी ने आदरपूर्वक उस प्रसाद (माला) को सिर पर धारण किया। गौरीजी का हृदय हर्ष से भर गया और वे बोलीं-॥3॥

सुनु सिय सत्य असीस हमारी। पूजिहि मन कामना तुम्हारी॥
नारद बचन सदा सुचि साचा। सो बरु मिलिहि जाहिं मनु राचा॥4॥

मूल

सुनु सिय सत्य असीस हमारी। पूजिहि मन कामना तुम्हारी॥
नारद बचन सदा सुचि साचा। सो बरु मिलिहि जाहिं मनु राचा॥4॥

भावार्थ

हे सीता! हमारी सच्ची आसीस सुनो, तुम्हारी मनःकामना पूरी होगी। नारदजी का वचन सदा पवित्र (संशय, भ्रम आदि दोषों से रहित) और सत्य है। जिसमें तुम्हारा मन अनुरक्त हो गया है, वही वर तुमको मिलेगा॥4॥

03 छन्द

मनु जाहिं राचेउ मिलिहि सो बरु सहज सुन्दर साँवरो।
करुना निधान सुजान सीलु सनेहु जानत रावरो॥
एहि भाँति गौरि असीस सुनि सिय सहित हियँ हरषीं अली।
तुलसी भवानिहि पूजि पुनि पुनि मुदित मन मन्दिर चली॥

मूल

मनु जाहिं राचेउ मिलिहि सो बरु सहज सुन्दर साँवरो।
करुना निधान सुजान सीलु सनेहु जानत रावरो॥
एहि भाँति गौरि असीस सुनि सिय सहित हियँ हरषीं अली।
तुलसी भवानिहि पूजि पुनि पुनि मुदित मन मन्दिर चली॥

भावार्थ

जिसमें तुम्हारा मन अनुरक्त हो गया है, वही स्वभाव से ही सुन्दर साँवला वर (श्री रामचन्द्रजी) तुमको मिलेगा। वह दया का खजाना और सुजान (सर्वज्ञ) है, तुम्हारे शील और स्नेह को जानता है। इस प्रकार श्री गौरीजी का आशीर्वाद सुनकर जानकीजी समेत सब सखियाँ हृदय में हर्षित हुईं। तुलसीदासजी कहते हैं- भवानीजी को बार-बार पूजकर सीताजी प्रसन्न मन से राजमहल को लौट चलीं॥

236

01 सोरठा

जानि गौरि अनुकूल सिय हिय हरषु न जाइ कहि।
मञ्जुल मङ्गल मूल बाम अङ्ग फरकन लगे॥236॥

मूल

जानि गौरि अनुकूल सिय हिय हरषु न जाइ कहि।
मञ्जुल मङ्गल मूल बाम अङ्ग फरकन लगे॥236॥

भावार्थ

गौरीजी को अनुकूल जानकर सीताजी के हृदय को जो हर्ष हुआ, वह कहा नहीं जा सकता। सुन्दर मङ्गलों के मूल उनके बाएँ अङ्ग फडकने लगे॥236॥

02 चौपाई

हृदयँ सराहत सीय लोनाई। गुर समीप गवने दोउ भाई॥
राम कहा सबु कौसिक पाहीं। सरल सुभाउ छुअत छल नाहीं॥1॥

मूल

हृदयँ सराहत सीय लोनाई। गुर समीप गवने दोउ भाई॥
राम कहा सबु कौसिक पाहीं। सरल सुभाउ छुअत छल नाहीं॥1॥

भावार्थ

हृदय में सीताजी के सौन्दर्य की सराहना करते हुए दोनों भाई गुरुजी के पास गए। श्री रामचन्द्रजी ने विश्वामित्र से सब कुछ कह दिया, क्योङ्कि उनका सरल स्वभाव है, छल तो उसे छूता भी नहीं है॥1॥

सुमन पाइ मुनि पूजा कीन्ही। पुनि असीस दुहु भाइन्ह दीन्ही॥
सुफल मनोरथ होहुँ तुम्हारे। रामु लखनु सुनि भय सुखारे॥2॥

मूल

सुमन पाइ मुनि पूजा कीन्ही। पुनि असीस दुहु भाइन्ह दीन्ही॥
सुफल मनोरथ होहुँ तुम्हारे। रामु लखनु सुनि भय सुखारे॥2॥

भावार्थ

फूल पाकर मुनि ने पूजा की। फिर दोनों भाइयों को आशीर्वाद दिया कि तुम्हारे मनोरथ सफल हों। यह सुनकर श्री राम-लक्ष्मण सुखी हुए॥2॥

करि भोजनु मुनिबर बिग्यानी। लगे कहन कछु कथा पुरानी॥
बिगत दिवसु गुरु आयसु पाई। सन्ध्या करन चले दोउ भाई॥3॥

मूल

करि भोजनु मुनिबर बिग्यानी। लगे कहन कछु कथा पुरानी॥
बिगत दिवसु गुरु आयसु पाई। सन्ध्या करन चले दोउ भाई॥3॥

भावार्थ

श्रेष्ठ विज्ञानी मुनि विश्वामित्रजी भोजन करके कुछ प्राचीन कथाएँ कहने लगे। (इतने में) दिन बीत गया और गुरु की आज्ञा पाकर दोनों भाई सन्ध्या करने चले॥3॥

प्राची दिसि ससि उयउ सुहावा। सिय मुख सरिस देखि सुखु पावा॥
बहुरि बिचारु कीन्ह मन माहीं। सीय बदन सम हिमकर नाहीं॥4॥

मूल

प्राची दिसि ससि उयउ सुहावा। सिय मुख सरिस देखि सुखु पावा॥
बहुरि बिचारु कीन्ह मन माहीं। सीय बदन सम हिमकर नाहीं॥4॥

भावार्थ

(उधर) पूर्व दिशा में सुन्दर चन्द्रमा उदय हुआ। श्री रामचन्द्रजी ने उसे सीता के मुख के समान देखकर सुख पाया। फिर मन में विचार किया कि यह चन्द्रमा सीताजी के मुख के समान नहीं है॥4॥

237

01 दोहा

जनमु सिन्धु पुनि बन्धु बिषु दिन मलीन सकलङ्क।
सिय मुख समता पाव किमि चन्दु बापुरो रङ्क॥237॥

मूल

जनमु सिन्धु पुनि बन्धु बिषु दिन मलीन सकलङ्क।
सिय मुख समता पाव किमि चन्दु बापुरो रङ्क॥237॥

भावार्थ

खारे समुद्र में तो इसका जन्म, फिर (उसी समुद्र से उत्पन्न होने के कारण) विष इसका भाई, दिन में यह मलिन (शोभाहीन, निस्तेज) रहता है, और कलङ्की (काले दाग से युक्त) है। बेचारा गरीब चन्द्रमा सीताजी के मुख की बराबरी कैसे पा सकता है?॥237॥

02 चौपाई

घटइ बढइ बिरहिनि दुखदाई। ग्रसइ राहु निज सन्धिहिं पाई॥
कोक सोकप्रद पङ्कज द्रोही। अवगुन बहुत चन्द्रमा तोही॥1॥

मूल

घटइ बढइ बिरहिनि दुखदाई। ग्रसइ राहु निज सन्धिहिं पाई॥
कोक सोकप्रद पङ्कज द्रोही। अवगुन बहुत चन्द्रमा तोही॥1॥

भावार्थ

फिर यह घटता-बढता है और विरहिणी स्त्रियों को दुःख देने वाला है, राहु अपनी सन्धि में पाकर इसे ग्रस लेता है। चकवे को (चकवी के वियोग का) शोक देने वाला और कमल का बैरी (उसे मुरझा देने वाला) है। हे चन्द्रमा! तुझमें बहुत से अवगुण हैं (जो सीताजी में नहीं हैं।)॥1॥

बैदेही मुख पटतर दीन्हे। होइ दोषु बड अनुचित कीन्हे॥
सिय मुख छबि बिधु ब्याज बखानी। गुर पहिं चले निसा बडि जानी॥2॥

मूल

बैदेही मुख पटतर दीन्हे। होइ दोषु बड अनुचित कीन्हे॥
सिय मुख छबि बिधु ब्याज बखानी। गुर पहिं चले निसा बडि जानी॥2॥

भावार्थ

अतः जानकीजी के मुख की तुझे उपमा देने में बडा अनुचित कर्म करने का दोष लगेगा। इस प्रकार चन्द्रमा के बहाने सीताजी के मुख की छबि का वर्णन करके, बडी रात हो गई जान, वे गुरुजी के पास चले॥2॥

करि मुनि चरन सरोज प्रनामा। आयसु पाइ कीन्ह बिश्रामा॥
बिगत निसा रघुनायक जागे। बन्धु बिलोकि कहन अस लागे॥3॥

मूल

करि मुनि चरन सरोज प्रनामा। आयसु पाइ कीन्ह बिश्रामा॥
बिगत निसा रघुनायक जागे। बन्धु बिलोकि कहन अस लागे॥3॥

भावार्थ

मुनि के चरण कमलों में प्रणाम करके, आज्ञा पाकर उन्होन्ने विश्राम किया, रात बीतने पर श्री रघुनाथजी जागे और भाई को देखकर ऐसा कहने लगे-॥3॥

उयउ अरुन अवलोकहु ताता। पङ्कज कोक लोक सुखदाता॥
बोले लखनु जोरि जुग पानी। प्रभु प्रभाउ सूचक मृदु बानी॥4॥

मूल

उयउ अरुन अवलोकहु ताता। पङ्कज कोक लोक सुखदाता॥
बोले लखनु जोरि जुग पानी। प्रभु प्रभाउ सूचक मृदु बानी॥4॥

भावार्थ

हे तात! देखो, कमल, चक्रवाक और समस्त संसार को सुख देने वाला अरुणोदय हुआ है। लक्ष्मणजी दोनों हाथ जोडकर प्रभु के प्रभाव को सूचित करने वाली कोमल वाणी बोले-॥4॥

238

01 दोहा

अरुनोदयँ सकुचे कुमुद उडगन जोति मलीन।
जिमि तुम्हार आगमन सुनि भए नृपति बलहीन॥238॥

मूल

अरुनोदयँ सकुचे कुमुद उडगन जोति मलीन।
जिमि तुम्हार आगमन सुनि भए नृपति बलहीन॥238॥

भावार्थ

अरुणोदय होने से कुमुदिनी सकुचा गई और तारागणों का प्रकाश फीका पड गया, जिस प्रकार आपका आना सुनकर सब राजा बलहीन हो गए हैं॥238॥

02 चौपाई

नृप सब नखत करहिं उजिआरी। टारि न सकहिं चाप तम भारी॥
कमल कोक मधुकर खग नाना। हरषे सकल निसा अवसाना॥1॥

मूल

नृप सब नखत करहिं उजिआरी। टारि न सकहिं चाप तम भारी॥
कमल कोक मधुकर खग नाना। हरषे सकल निसा अवसाना॥1॥

भावार्थ

सब राजा रूपी तारे उजाला (मन्द प्रकाश) करते हैं, पर वे धनुष रूपी महान अन्धकार को हटा नहीं सकते। रात्रि का अन्त होने से जैसे कमल, चकवे, भौंरे और नाना प्रकार के पक्षी हर्षित हो रहे हैं॥1॥

ऐसेहिं प्रभु सब भगत तुम्हारे। होइहहिं टूटें धनुष सुखारे॥
उयउ भानु बिनु श्रम तम नासा। दुरे नखत जग तेजु प्रकासा॥2॥

मूल

ऐसेहिं प्रभु सब भगत तुम्हारे। होइहहिं टूटें धनुष सुखारे॥
उयउ भानु बिनु श्रम तम नासा। दुरे नखत जग तेजु प्रकासा॥2॥

भावार्थ

वैसे ही हे प्रभो! आपके सब भक्त धनुष टूटने पर सुखी होङ्गे। सूर्य उदय हुआ, बिना ही परिश्रम अन्धकार नष्ट हो गया। तारे छिप गए, संसार में तेज का प्रकाश हो गया॥2॥

रबि निज उदय ब्याज रघुराया। प्रभु प्रतापु सब नृपन्ह दिखाया॥
तव भुज बल महिमा उदघाटी। प्रगटी धनु बिघटन परिपाटी॥3॥

मूल

रबि निज उदय ब्याज रघुराया। प्रभु प्रतापु सब नृपन्ह दिखाया॥
तव भुज बल महिमा उदघाटी। प्रगटी धनु बिघटन परिपाटी॥3॥

भावार्थ

हे रघुनाथजी! सूर्य ने अपने उदय के बहाने सब राजाओं को प्रभु (आप) का प्रताप दिखलाया है। आपकी भुजाओं के बल की महिमा को उद्घाटित करने (खोलकर दिखाने) के लिए ही धनुष तोडने की यह पद्धति प्रकट हुई है॥3॥

बन्धु बचन सुनि प्रभु मुसुकाने। होइ सुचि सहज पुनीत नहाने॥
कनित्यक्रिया करि गरु पहिं आए। चरन सरोज सुभग सिर नाए॥4॥

मूल

बन्धु बचन सुनि प्रभु मुसुकाने। होइ सुचि सहज पुनीत नहाने॥
कनित्यक्रिया करि गरु पहिं आए। चरन सरोज सुभग सिर नाए॥4॥

भावार्थ

भाई के वचन सुनकर प्रभु मुस्कुराए। फिर स्वभाव से ही पवित्र श्री रामजी ने शौच से निवृत्त होकर स्नान किया और नित्यकर्म करके वे गुरुजी के पास आए। आकर उन्होन्ने गुरुजी के सुन्दर चरण कमलों में सिर नवाया॥4॥

सतानन्दु तब जनक बोलाए। कौसिक मुनि पहिं तुरत पठाए॥
जनक बिनय तिन्ह आइ सुनाई। हरषे बोलि लिए दोउ भाई॥5॥

मूल

सतानन्दु तब जनक बोलाए। कौसिक मुनि पहिं तुरत पठाए॥
जनक बिनय तिन्ह आइ सुनाई। हरषे बोलि लिए दोउ भाई॥5॥

भावार्थ

तब जनकजी ने शतानन्दजी को बुलाया और उन्हें तुरन्त ही विश्वामित्र मुनि के पास भेजा। उन्होन्ने आकर जनकजी की विनती सुनाई। विश्वामित्रजी ने हर्षित होकर दोनों भाइयों को बुलाया॥5॥

239

01 दोहा

सतानन्द पद बन्दि प्रभु बैठे गुर पहिं जाइ।
चलहु तात मुनि कहेउ तब पठवा जनक बोलाइ॥239॥

मूल

सतानन्द पद बन्दि प्रभु बैठे गुर पहिं जाइ।
चलहु तात मुनि कहेउ तब पठवा जनक बोलाइ॥239॥

भावार्थ

शतानन्दजी के चरणों की वन्दना करके प्रभु श्री रामचन्द्रजी गुरुजी के पास जा बैठे। तब मुनि ने कहा- हे तात! चलो, जनकजी ने बुला भेजा है॥239॥

मासपारायण, आठवाँ विश्राम
नवाह्न पारायण, दूसरा विश्राम

02 चौपाई

सीय स्वयम्बरू देखिअ जाई। ईसु काहि धौं देइ बडाई॥
लखन कहा जस भाजनु सोई। नाथ कृपा तव जापर होई॥1॥

मूल

सीय स्वयम्बरू देखिअ जाई। ईसु काहि धौं देइ बडाई॥
लखन कहा जस भाजनु सोई। नाथ कृपा तव जापर होई॥1॥

भावार्थ

चलकर सीताजी के स्वयंवर को देखना चाहिए। देखें ईश्वर किसको बडाई देते हैं। लक्ष्मणजी ने कहा- हे नाथ! जिस पर आपकी कृपा होगी, वही बडाई का पात्र होगा (धनुष तोडने का श्रेय उसी को प्राप्त होगा)॥1॥

हरषे मुनि सब सुनि बर बानी। दीन्हि असीस सबहिं सुखु मानी॥
पुनि मुनिबृन्द समेत कृपाला। देखन चले धनुषमख साला॥2॥

मूल

हरषे मुनि सब सुनि बर बानी। दीन्हि असीस सबहिं सुखु मानी॥
पुनि मुनिबृन्द समेत कृपाला। देखन चले धनुषमख साला॥2॥

भावार्थ

इस श्रेष्ठ वाणी को सुनकर सब मुनि प्रसन्न हुए। सभी ने सुख मानकर आशीर्वाद दिया। फिर मुनियों के समूह सहित कृपालु श्री रामचन्द्रजी धनुष यज्ञशाला देखने चले॥2॥

रङ्गभूमि आए दोउ भाई। असि सुधि सब पुरबासिन्ह पाई॥
चले सकल गृह काज बिसारी। बाल जुबान जरठ नर नारी॥3॥

मूल

रङ्गभूमि आए दोउ भाई। असि सुधि सब पुरबासिन्ह पाई॥
चले सकल गृह काज बिसारी। बाल जुबान जरठ नर नारी॥3॥

भावार्थ

दोनों भाई रङ्गभूमि में आए हैं, ऐसी खबर जब सब नगर निवासियों ने पाई, तब बालक, जवान, बूढे, स्त्री, पुरुष सभी घर और काम-काज को भुलाकर चल दिए॥3॥

देखी जनक भीर भै भारी। सुचि सेवक सब लिए हँकारी॥
तुरत सकल लोगन्ह पहिं जाहू। आसन उचित देहु सब काहू॥4॥

मूल

देखी जनक भीर भै भारी। सुचि सेवक सब लिए हँकारी॥
तुरत सकल लोगन्ह पहिं जाहू। आसन उचित देहु सब काहू॥4॥

भावार्थ

जब जनकजी ने देखा कि बडी भीड हो गई है, तब उन्होन्ने सब विश्वासपात्र सेवकों को बुलवा लिया और कहा- तुम लोग तुरन्त सब लोगों के पास जाओ और सब किसी को यथायोग्य आसन दो॥4॥

240

01 दोहा

कहि मृदु बचन बिनीत तिन्ह बैठारे नर नारि।
उत्तम मध्यम नीच लघु निज निज थल अनुहारि॥240॥

मूल

कहि मृदु बचन बिनीत तिन्ह बैठारे नर नारि।
उत्तम मध्यम नीच लघु निज निज थल अनुहारि॥240॥

भावार्थ

उन सेवकों ने कोमल और नम्र वचन कहकर उत्तम, मध्यम, नीच और लघु (सभी श्रेणी के) स्त्री-पुरुषों को अपने-अपने योग्य स्थान पर बैठाया॥240॥

02 चौपाई

राजकुअँर तेहि अवसर आए। मनहुँ मनोहरता तन छाए॥
गुन सागर नागर बर बीरा। सुन्दर स्यामल गौर सरीरा॥1॥

मूल

राजकुअँर तेहि अवसर आए। मनहुँ मनोहरता तन छाए॥
गुन सागर नागर बर बीरा। सुन्दर स्यामल गौर सरीरा॥1॥

भावार्थ

उसी समय राजकुमार (राम और लक्ष्मण) वहाँ आए। (वे ऐसे सुन्दर हैं) मानो साक्षात मनोहरता ही उनके शरीरों पर छा रही हो। सुन्दर साँवला और गोरा उनका शरीर है। वे गुणों के समुद्र, चतुर और उत्तम वीर हैं॥1॥

राज समाज बिराजत रूरे। उडगन महुँ जनु जुग बिधु पूरे॥
जिन्ह कें रही भावना जैसी। प्रभु मूरति तिन्ह देखी तैसी॥2॥

मूल

राज समाज बिराजत रूरे। उडगन महुँ जनु जुग बिधु पूरे॥
जिन्ह कें रही भावना जैसी। प्रभु मूरति तिन्ह देखी तैसी॥2॥

भावार्थ

वे राजाओं के समाज में ऐसे सुशोभित हो रहे हैं, मानो तारागणों के बीच दो पूर्ण चन्द्रमा हों। जिनकी जैसी भावना थी, प्रभु की मूर्ति उन्होन्ने वैसी ही देखी॥2॥

देखहिं रूप महा रनधीरा। मनहुँ बीर रसु धरें सरीरा॥
डरे कुटिल नृप प्रभुहि निहारी। मनहुँ भयानक मूरति भारी॥3॥

मूल

देखहिं रूप महा रनधीरा। मनहुँ बीर रसु धरें सरीरा॥
डरे कुटिल नृप प्रभुहि निहारी। मनहुँ भयानक मूरति भारी॥3॥

भावार्थ

महान रणधीर (राजा लोग) श्री रामचन्द्रजी के रूप को ऐसा देख रहे हैं, मानो स्वयं वीर रस शरीर धारण किए हुए हों। कुटिल राजा प्रभु को देखकर डर गए, मानो बडी भयानक मूर्ति हो॥3॥

रहे असुर छल छोनिप बेषा। तिन्ह प्रभु प्रगट कालसम देखा।
पुरबासिन्ह देखे दोउ भाई। नरभूषन लोचन सुखदाई॥4॥

मूल

रहे असुर छल छोनिप बेषा। तिन्ह प्रभु प्रगट कालसम देखा।
पुरबासिन्ह देखे दोउ भाई। नरभूषन लोचन सुखदाई॥4॥

भावार्थ

छल से जो राक्षस वहाँ राजाओं के वेष में (बैठे) थे, उन्होन्ने प्रभु को प्रत्यक्ष काल के समान देखा। नगर निवासियों ने दोनों भाइयों को मनुष्यों के भूषण रूप और नेत्रों को सुख देने वाला देखा॥4॥

241

01 दोहा

नारि बिलोकहिं हरषि हियँ निज-निज रुचि अनुरूप।
जनु सोहत सिङ्गार धरि मूरति परम अनूप॥241॥

मूल

नारि बिलोकहिं हरषि हियँ निज-निज रुचि अनुरूप।
जनु सोहत सिङ्गार धरि मूरति परम अनूप॥241॥

भावार्थ

स्त्रियाँ हृदय में हर्षित होकर अपनी-अपनी रुचि के अनुसार उन्हें देख रही हैं। मानो श्रृङ्गार रस ही परम अनुपम मूर्ति धारण किए सुशोभित हो रहा हो॥241॥

02 चौपाई

बिदुषन्ह प्रभु बिराटमय दीसा। बहु मुख कर पग लोचन सीसा॥
जनक जाति अवलोकहिं कैसें। सजन सगे प्रिय लागहिं जैसें॥1॥

मूल

बिदुषन्ह प्रभु बिराटमय दीसा। बहु मुख कर पग लोचन सीसा॥
जनक जाति अवलोकहिं कैसें। सजन सगे प्रिय लागहिं जैसें॥1॥

भावार्थ

विद्वानों को प्रभु विराट रूप में दिखाई दिए, जिसके बहुत से मुँह, हाथ, पैर, नेत्र और सिर हैं। जनकजी के सजातीय (कुटुम्बी) प्रभु को किस तरह (कैसे प्रिय रूप में) देख रहे हैं, जैसे सगे सजन (सम्बन्धी) प्रिय लगते हैं॥1॥

सहित बिदेह बिलोकहिं रानी। सिसु सम प्रीति न जाति बखानी॥
जोगिन्ह परम तत्वमय भासा। सान्त सुद्ध सम सहज प्रकासा॥2॥

मूल

सहित बिदेह बिलोकहिं रानी। सिसु सम प्रीति न जाति बखानी॥
जोगिन्ह परम तत्वमय भासा। सान्त सुद्ध सम सहज प्रकासा॥2॥

भावार्थ

जनक समेत रानियाँ उन्हें अपने बच्चे के समान देख रही हैं, उनकी प्रीति का वर्णन नहीं किया जा सकता। योगियों को वे शान्त, शुद्ध, सम और स्वतः प्रकाश परम तत्व के रूप में दिखे॥2॥

हरिभगतन्ह देखे दोउ भ्राता। इष्टदेव इव सब सुख दाता॥
रामहि चितव भायँ जेहि सीया। सो सनेहु सुखु नहिं कथनीया॥3॥

मूल

हरिभगतन्ह देखे दोउ भ्राता। इष्टदेव इव सब सुख दाता॥
रामहि चितव भायँ जेहि सीया। सो सनेहु सुखु नहिं कथनीया॥3॥

भावार्थ

हरि भक्तों ने दोनों भाइयों को सब सुखों के देने वाले इष्ट देव के समान देखा। सीताजी जिस भाव से श्री रामचन्द्रजी को देख रही हैं, वह स्नेह और सुख तो कहने में ही नहीं आता॥3॥

उर अनुभवति न कहि सक सोऊ। कवन प्रकार कहै कबि कोऊ॥
एहि बिधि रहा जाहि जस भाऊ। तेहिं तस देखेउ कोसलराऊ॥4॥

मूल

उर अनुभवति न कहि सक सोऊ। कवन प्रकार कहै कबि कोऊ॥
एहि बिधि रहा जाहि जस भाऊ। तेहिं तस देखेउ कोसलराऊ॥4॥

भावार्थ

उस (स्नेह और सुख) का वे हृदय में अनुभव कर रही हैं, पर वे भी उसे कह नहीं सकतीं। फिर कोई कवि उसे किस प्रकार कह सकता है। इस प्रकार जिसका जैसा भाव था, उसने कोसलाधीश श्री रामचन्द्रजी को वैसा ही देखा॥4॥

242

01 दोहा

राजत राज समाज महुँ कोसलराज किसोर।
सुन्दर स्यामल गौर तन बिस्व बिलोचन चोर॥242॥

मूल

राजत राज समाज महुँ कोसलराज किसोर।
सुन्दर स्यामल गौर तन बिस्व बिलोचन चोर॥242॥

भावार्थ

सुन्दर साँवले और गोरे शरीर वाले तथा विश्वभर के नेत्रों को चुराने वाले कोसलाधीश के कुमार राज समाज में (इस प्रकार) सुशोभित हो रहे हैं॥242॥

02 चौपाई

सहज मनोहर मूरति दोऊ। कोटि काम उपमा लघु सोऊ॥
सरद चन्द निन्दक मुख नीके। नीरज नयन भावते जी के॥1॥

मूल

सहज मनोहर मूरति दोऊ। कोटि काम उपमा लघु सोऊ॥
सरद चन्द निन्दक मुख नीके। नीरज नयन भावते जी के॥1॥

भावार्थ

दोनों मूर्तियाँ स्वभाव से ही (बिना किसी बनाव-श्रृङ्गार के) मन को हरने वाली हैं। करोडों कामदेवों की उपमा भी उनके लिए तुच्छ है। उनके सुन्दर मुख शरद् (पूर्णिमा) के चन्द्रमा की भी निन्दा करने वाले (उसे नीचा दिखाने वाले) हैं और कमल के समान नेत्र मन को बहुत ही भाते हैं॥1॥

चितवनि चारु मार मनु हरनी। भावति हृदय जाति नहिं बरनी॥
कल कपोल श्रुति कुण्डल लोला। चिबुक अधर सुन्दर मृदु बोला॥2॥

मूल

चितवनि चारु मार मनु हरनी। भावति हृदय जाति नहिं बरनी॥
कल कपोल श्रुति कुण्डल लोला। चिबुक अधर सुन्दर मृदु बोला॥2॥

भावार्थ

सुन्दर चितवन (सारे संसार के मन को हरने वाले) कामदेव के भी मन को हरने वाली है। वह हृदय को बहुत ही प्यारी लगती है, पर उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। सुन्दर गाल हैं, कानों में चञ्चल (झूमते हुए) कुण्डल हैं। ठोड और अधर (होठ) सुन्दर हैं, कोमल वाणी है॥2॥

कुमुदबन्धु कर निन्दक हाँसा। भृकुटी बिकट मनोहर नासा॥
भाल बिसाल तिलक झलकाहीं। कच बिलोकि अलि अवलि लजाहीं॥3॥

मूल

कुमुदबन्धु कर निन्दक हाँसा। भृकुटी बिकट मनोहर नासा॥
भाल बिसाल तिलक झलकाहीं। कच बिलोकि अलि अवलि लजाहीं॥3॥

भावार्थ

हँसी, चन्द्रमा की किरणों का तिरस्कार करने वाली है। भौंहें टेढी और नासिका मनोहर है। (ऊँचे) चौडे ललाट पर तिलक झलक रहे हैं (दीप्तिमान हो रहे हैं)। (काले घुँघराले) बालों को देखकर भौंरों की पङ्क्तियाँ भी लजा जाती हैं॥3॥

पीत चौतनीं सिरन्हि सुहाईं। कुसुम कलीं बिच बीच बनाईं॥
रेखें रुचिर कम्बु कल गीवाँ। जनु त्रिभुवन सुषमा की सीवाँ॥4॥

मूल

पीत चौतनीं सिरन्हि सुहाईं। कुसुम कलीं बिच बीच बनाईं॥
रेखें रुचिर कम्बु कल गीवाँ। जनु त्रिभुवन सुषमा की सीवाँ॥4॥

भावार्थ

पीली चौकोनी टोपियाँ सिरों पर सुशोभित हैं, जिनके बीच-बीच में फूलों की कलियाँ बनाई (काढी) हुई हैं। शङ्ख के समान सुन्दर (गोल) गले में मनोहर तीन रेखाएँ हैं, जो मानो तीनों लोकों की सुन्दरता की सीमा (को बता रही) हैं॥4॥

243

01 दोहा

कुञ्जर मनि कण्ठा कलित उरन्हि तुलसिका माल।
बृषभ कन्ध केहरि ठवनि बल निधि बाहु बिसाल॥243॥

मूल

कुञ्जर मनि कण्ठा कलित उरन्हि तुलसिका माल।
बृषभ कन्ध केहरि ठवनि बल निधि बाहु बिसाल॥243॥

भावार्थ

हृदयों पर गजमुक्ताओं के सुन्दर कण्ठे और तुलसी की मालाएँ सुशोभित हैं। उनके कन्धे बैलों के कन्धे की तरह (ऊँचे तथा पुष्ट) हैं, ऐण्ड (खडे होने की शान) सिंह की सी है और भुजाएँ विशाल एवं बल की भण्डार हैं॥243॥

02 चौपाई

कटि तूनीर पीत पट बाँधें। कर सर धनुष बाम बर काँधें॥
पीत जग्य उपबीत सुहाए। नख सिख मञ्जु महाछबि छाए॥1॥

मूल

कटि तूनीर पीत पट बाँधें। कर सर धनुष बाम बर काँधें॥
पीत जग्य उपबीत सुहाए। नख सिख मञ्जु महाछबि छाए॥1॥

भावार्थ

कमर में तरकस और पीताम्बर बाँधे हैं। (दाहिने) हाथों में बाण और बाएँ सुन्दर कन्धों पर धनुष तथा पीले यज्ञोपवीत (जनेऊ) सुशोभित हैं। नख से लेकर शिखा तक सब अङ्ग सुन्दर हैं, उन पर महान शोभा छाई हुई है॥1॥

देखि लोग सब भए सुखारे। एकटक लोचन चलत न तारे॥
हरषे जनकु देखि दोउ भाई। मुनि पद कमल गहे तब जाई॥2॥

मूल

देखि लोग सब भए सुखारे। एकटक लोचन चलत न तारे॥
हरषे जनकु देखि दोउ भाई। मुनि पद कमल गहे तब जाई॥2॥

भावार्थ

उन्हें देखकर सब लोग सुखी हुए। नेत्र एकटक (निमेष शून्य) हैं और तारे (पुतलियाँ) भी नहीं चलते। जनकजी दोनों भाइयों को देखकर हर्षित हुए। तब उन्होन्ने जाकर मुनि के चरण कमल पकड लिए॥2॥

करि बिनती निज कथा सुनाई। रङ्ग अवनि सब मुनिहि देखाई॥
जहँ जहँ जाहिं कुअँर बर दोऊ। तहँ तहँ चकित चितव सबु कोऊ॥3॥

मूल

करि बिनती निज कथा सुनाई। रङ्ग अवनि सब मुनिहि देखाई॥
जहँ जहँ जाहिं कुअँर बर दोऊ। तहँ तहँ चकित चितव सबु कोऊ॥3॥

भावार्थ

विनती करके अपनी कथा सुनाई और मुनि को सारी रङ्गभूमि (यज्ञशाला) दिखलाई। (मुनि के साथ) दोनों श्रेष्ठ राजकुमार जहाँ-जहाँ जाते हैं, वहाँ-वहाँ सब कोई आश्चर्यचकित हो देखने लगते हैं॥3॥

निज निज रुख रामहि सबु देखा। कोउ न जान कछु मरमु बिसेषा॥
भलि रचना मुनि नृप सन कहेऊ। राजाँ मुदित महासुख लहेऊ॥4॥

मूल

निज निज रुख रामहि सबु देखा। कोउ न जान कछु मरमु बिसेषा॥
भलि रचना मुनि नृप सन कहेऊ। राजाँ मुदित महासुख लहेऊ॥4॥

भावार्थ

सबने रामजी को अपनी-अपनी ओर ही मुख किए हुए देखा, परन्तु इसका कुछ भी विशेष रहस्य कोई नहीं जान सका। मुनि ने राजा से कहा- रङ्गभूमि की रचना बडी सुन्दर है (विश्वामित्र- जैसे निःस्पृह, विरक्त और ज्ञानी मुनि से रचना की प्रशंसा सुनकर) राजा प्रसन्न हुए और उन्हें बडा सुख मिला॥4॥

244

01 दोहा

सब मञ्चन्ह तें मञ्चु एक सुन्दर बिसद बिसाल।
मुनि समेत दोउ बन्धु तहँ बैठारे महिपाल॥244॥

मूल

सब मञ्चन्ह तें मञ्चु एक सुन्दर बिसद बिसाल।
मुनि समेत दोउ बन्धु तहँ बैठारे महिपाल॥244॥

भावार्थ

सब मञ्चों से एक मञ्च अधिक सुन्दर, उज्ज्वल और विशाल था। (स्वयं) राजा ने मुनि सहित दोनों भाइयों को उस पर बैठाया॥244॥

02 चौपाई

प्रभुहि देखि सब नृप हियँ हारे। जनु राकेश उदय भएँ तारे॥
असि प्रतीति सब के मन माहीं। राम चाप तोरब सक नाहीं॥1॥

मूल

प्रभुहि देखि सब नृप हियँ हारे। जनु राकेश उदय भएँ तारे॥
असि प्रतीति सब के मन माहीं। राम चाप तोरब सक नाहीं॥1॥

भावार्थ

प्रभु को देखकर सब राजा हृदय में ऐसे हार गए (निराश एवं उत्साहहीन हो गए) जैसे पूर्ण चन्द्रमा के उदय होने पर तारे प्रकाशहीन हो जाते हैं। (उनके तेज को देखकर) सबके मन में ऐसा विश्वास हो गया कि रामचन्द्रजी ही धनुष को तोडेङ्गे, इसमें सन्देह नहीं॥1॥

बिनु भञ्जेहुँ भव धनुषु बिसाला। मेलिहि सीय राम उर माला॥
अस बिचारि गवनहु घर भाई। जसु प्रतापु बलु तेजु गवाँई॥2॥

मूल

बिनु भञ्जेहुँ भव धनुषु बिसाला। मेलिहि सीय राम उर माला॥
अस बिचारि गवनहु घर भाई। जसु प्रतापु बलु तेजु गवाँई॥2॥

भावार्थ

(इधर उनके रूप को देखकर सबके मन में यह निश्चय हो गया कि) शिवजी के विशाल धनुष को (जो सम्भव है न टूट सके) बिना तोडे भी सीताजी श्री रामचन्द्रजी के ही गले में जयमाला डालेङ्गी (अर्थात दोनों तरह से ही हमारी हार होगी और विजय रामचन्द्रजी के हाथ रहेगी)। (यों सोचकर वे कहने लगे) हे भाई! ऐसा विचारकर यश, प्रताप, बल और तेज गँवाकर अपने-अपने घर चलो॥2॥

बिहसे अपर भूप सुनि बानी। जे अबिबेक अन्ध अभिमानी॥
तोरेहुँ धनुषु ब्याहु अवगाहा। बिनु तोरें को कुअँरि बिआहा॥3॥

मूल

बिहसे अपर भूप सुनि बानी। जे अबिबेक अन्ध अभिमानी॥
तोरेहुँ धनुषु ब्याहु अवगाहा। बिनु तोरें को कुअँरि बिआहा॥3॥

भावार्थ

दूसरे राजा, जो अविवेक से अन्धे हो रहे थे और अभिमानी थे, यह बात सुनकर बहुत हँसे। (उन्होन्ने कहा) धनुष तोडने पर भी विवाह होना कठिन है (अर्थात सहज ही में हम जानकी को हाथ से जाने नहीं देङ्गे), फिर बिना तोडे तो राजकुमारी को ब्याह ही कौन सकता है॥3॥

एक बार कालउ किन होऊ। सिय हित समर जितब हम सोऊ॥
यह सुनि अवर महिप मुसुकाने। धरमसील हरिभगत सयाने॥4॥

मूल

एक बार कालउ किन होऊ। सिय हित समर जितब हम सोऊ॥
यह सुनि अवर महिप मुसुकाने। धरमसील हरिभगत सयाने॥4॥

भावार्थ

काल ही क्यों न हो, एक बार तो सीता के लिए उसे भी हम युद्ध में जीत लेङ्गे। यह घमण्ड की बात सुनकर दूसरे राजा, जो धर्मात्मा, हरिभक्त और सयाने थे, मुस्कुराए॥4॥

245

01 सोरठा

सीय बिआहबि राम गरब दूरि करि नृपन्ह के।
जीति को सक सङ्ग्राम दसरथ के रन बाँकुरे॥245॥

मूल

सीय बिआहबि राम गरब दूरि करि नृपन्ह के।
जीति को सक सङ्ग्राम दसरथ के रन बाँकुरे॥245॥

भावार्थ

(उन्होन्ने कहा-) राजाओं के गर्व दूर करके (जो धनुष किसी से नहीं टूट सकेगा उसे तोडकर) श्री रामचन्द्रजी सीताजी को ब्याहेङ्गे। (रही युद्ध की बात, सो) महाराज दशरथ के रण में बाँके पुत्रों को युद्ध में तो जीत ही कौन सकता है॥245॥

02 चौपाई

ब्यर्थ मरहु जनि गाल बजाई। मन मोदकन्हि कि भूख बुताई॥
सिख हमारि सुनि परम पुनीता। जगदम्बा जानहु जियँ सीता॥1॥

मूल

ब्यर्थ मरहु जनि गाल बजाई। मन मोदकन्हि कि भूख बुताई॥
सिख हमारि सुनि परम पुनीता। जगदम्बा जानहु जियँ सीता॥1॥

भावार्थ

गाल बजाकर व्यर्थ ही मत मरो। मन के लड्डुओं से भी कहीं भूख बुझती है? हमारी परम पवित्र (निष्कपट) सीख को सुनकर सीताजी को अपने जी में साक्षात जगज्जननी समझो (उन्हें पत्नी रूप में पाने की आशा एवं लालसा छोड दो),॥1॥

जगत पिता रघुपतिहि बिचारी। भरि लोचन छबि लेहु निहारी॥
सुन्दर सुखद सकल गुन रासी। ए दोउ बन्धु सम्भु उर बासी॥2॥

मूल

जगत पिता रघुपतिहि बिचारी। भरि लोचन छबि लेहु निहारी॥
सुन्दर सुखद सकल गुन रासी। ए दोउ बन्धु सम्भु उर बासी॥2॥

भावार्थ

और श्री रघुनाथजी को जगत का पिता (परमेश्वर) विचार कर, नेत्र भरकर उनकी छबि देख लो (ऐसा अवसर बार-बार नहीं मिलेगा)। सुन्दर, सुख देने वाले और समस्त गुणों की राशि ये दोनों भाई शिवजी के हृदय में बसने वाले हैं (स्वयं शिवजी भी जिन्हें सदा हृदय में छिपाए रखते हैं, वे तुम्हारे नेत्रों के सामने आ गए हैं)॥2॥

सुधा समुद्र समीप बिहाई। मृगजलु निरखि मरहु कत धाई॥
करहु जाइ जा कहुँ जोइ भावा। हम तौ आजु जनम फलु पावा॥3॥

मूल

सुधा समुद्र समीप बिहाई। मृगजलु निरखि मरहु कत धाई॥
करहु जाइ जा कहुँ जोइ भावा। हम तौ आजु जनम फलु पावा॥3॥

भावार्थ

समीप आए हुए (भगवत्दर्शन रूप) अमृत के समुद्र को छोडकर तुम (जगज्जननी जानकी को पत्नी रूप में पाने की दुराशा रूप मिथ्या) मृगजल को देखकर दौडकर क्यों मरते हो? फिर (भाई!) जिसको जो अच्छा लगे, वही जाकर करो। हमने तो (श्री रामचन्द्रजी के दर्शन करके) आज जन्म लेने का फल पा लिया (जीवन और जन्म को सफल कर लिया)॥3॥

अस कहि भले भूप अनुरागे। रूप अनूप बिलोकन लागे॥
देखहिं सुर नभ चढे बिमाना। बरषहिं सुमन करहिं कल गाना॥4॥

मूल

अस कहि भले भूप अनुरागे। रूप अनूप बिलोकन लागे॥
देखहिं सुर नभ चढे बिमाना। बरषहिं सुमन करहिं कल गाना॥4॥

भावार्थ

ऐसा कहकर अच्छे राजा प्रेम मग्न होकर श्री रामजी का अनुपम रूप देखने लगे।

(मनुष्यों की तो बात ही क्या) देवता लोग भी आकाश से विमानों पर चढे हुए दर्शन कर रहे हैं और सुन्दर गान करते हुए फूल बरसा रहे हैं॥4॥

246

01 दोहा

जानि सुअवसरु सीय तब पठई जनक बोलाइ।
चतुर सखीं सुन्दर सकल सादर चलीं िलवाइ॥246॥

मूल

जानि सुअवसरु सीय तब पठई जनक बोलाइ।
चतुर सखीं सुन्दर सकल सादर चलीं िलवाइ॥246॥

भावार्थ

तब सुअवसर जानकर जनकजी ने सीताजी को बुला भेजा। सब चतुर और सुन्दर सखियाँ आरदपूर्वक उन्हें लिवा चलीं॥246॥

02 चौपाई

सिय सोभा नहिं जाइ बखानी। जगदम्बिका रूप गुन खानी॥
उपमा सकल मोहि लघु लागीं। प्राकृत नारि अङ्ग अनुरागीं॥1॥

मूल

सिय सोभा नहिं जाइ बखानी। जगदम्बिका रूप गुन खानी॥
उपमा सकल मोहि लघु लागीं। प्राकृत नारि अङ्ग अनुरागीं॥1॥

भावार्थ

रूप और गुणों की खान जगज्जननी जानकीजी की शोभा का वर्णन नहीं हो सकता। उनके लिए मुझे (काव्य की) सब उपमाएँ तुच्छ लगती हैं, क्योङ्कि वे लौकिक स्त्रियों के अङ्गों से अनुराग रखने वाली हैं (अर्थात्‌ वे जगत की स्त्रियों के अङ्गों को दी जाती हैं)। (काव्य की उपमाएँ सब त्रिगुणात्मक, मायिक जगत से ली गई हैं, उन्हें भगवान की स्वरूपा शक्ति श्री जानकीजी के अप्राकृत, चिन्मय अङ्गों के लिए प्रयुक्त करना उनका अपमान करना और अपने को उपहासास्पद बनाना है)॥1॥

सिय बरनिअ तेइ उपमा देई। कुकबि कहाइ अजसु को लेई॥
जौं पटतरिअ तीय सम सीया। जग असि जुबति कहाँ कमनीया॥2॥

मूल

सिय बरनिअ तेइ उपमा देई। कुकबि कहाइ अजसु को लेई॥
जौं पटतरिअ तीय सम सीया। जग असि जुबति कहाँ कमनीया॥2॥

भावार्थ

सीताजी के वर्णन में उन्हीं उपमाओं को देकर कौन कुकवि कहलाए और अपयश का भागी बने (अर्थात सीताजी के लिए उन उपमाओं का प्रयोग करना सुकवि के पद से च्युत होना और अपकीर्ति मोल लेना है, कोई भी सुकवि ऐसी नादानी एवं अनुचित कार्य नहीं करेगा।) यदि किसी स्त्री के साथ सीताजी की तुलना की जाए तो जगत में ऐसी सुन्दर युवती है ही कहाँ (जिसकी उपमा उन्हें दी जाए)॥2॥

गिरा मुखर तन अरध भवानी। रति अति दुखित अतनु पति जानी॥
बिष बारुनी बन्धु प्रिय जेही। कहिअ रमासम किमि बैदेही॥3॥

मूल

गिरा मुखर तन अरध भवानी। रति अति दुखित अतनु पति जानी॥
बिष बारुनी बन्धु प्रिय जेही। कहिअ रमासम किमि बैदेही॥3॥

भावार्थ

(पृथ्वी की स्त्रियों की तो बात ही क्या, देवताओं की स्त्रियों को भी यदि देखा जाए तो हमारी अपेक्षा कहीं अधिक दिव्य और सुन्दर हैं, तो उनमें) सरस्वती तो बहुत बोलने वाली हैं, पार्वती अंर्द्धाङ्गिनी हैं (अर्थात अर्ध-नारीनटेश्वर के रूप में उनका आधा ही अङ्ग स्त्री का है, शेष आधा अङ्ग पुरुष-शिवजी का है), कामदेव की स्त्री रति पति को बिना शरीर का (अनङ्ग) जानकर बहुत दुःखी रहती है और जिनके विष और मद्य-जैसे (समुद्र से उत्पन्न होने के नाते) प्रिय भाई हैं, उन लक्ष्मी के समान तो जानकीजी को कहा ही कैसे जाए॥3॥

जौं छबि सुधा पयोनिधि होई। परम रूपमय कच्छपु सोई॥
सोभा रजु मन्दरु सिङ्गारू। मथै पानि पङ्कज निज मारू॥4॥

मूल

जौं छबि सुधा पयोनिधि होई। परम रूपमय कच्छपु सोई॥
सोभा रजु मन्दरु सिङ्गारू। मथै पानि पङ्कज निज मारू॥4॥

भावार्थ

(जिन लक्ष्मीजी की बात ऊपर कही गई है, वे निकली थीं खारे समुद्र से, जिसको मथने के लिए भगवान ने अति कर्कश पीठ वाले कच्छप का रूप धारण किया, रस्सी बनाई गई महान विषधर वासुकि नाग की, मथानी का कार्य किया अतिशय कठोर मन्दराचल पर्वत ने और उसे मथा सारे देवताओं और दैत्यों ने मिलकर। जिन लक्ष्मी को अतिशय शोभा की खान और अनुपम सुन्दरी कहते हैं, उनको प्रकट करने में हेतु बने ये सब असुन्दर एवं स्वाभाविक ही कठोर उपकरण। ऐसे उपकरणों से प्रकट हुई लक्ष्मी श्री जानकीजी की समता को कैसे पा सकती हैं। हाँ, (इसके विपरीत) यदि छबि रूपी अमृत का समुद्र हो, परम रूपमय कच्छप हो, शोभा रूप रस्सी हो, श्रृङ्गार (रस) पर्वत हो और (उस छबि के समुद्र को) स्वयं कामदेव अपने ही करकमल से मथे,॥4॥

247

01 दोहा

एहि बिधि उपजै लच्छि जब सुन्दरता सुख मूल।
तदपि सकोच समेत कबि कहहिं सीय समतूल॥247॥

मूल

एहि बिधि उपजै लच्छि जब सुन्दरता सुख मूल।
तदपि सकोच समेत कबि कहहिं सीय समतूल॥247॥

भावार्थ

इस प्रकार (का संयोग होने से) जब सुन्दरता और सुख की मूल लक्ष्मी उत्पन्न हो, तो भी कवि लोग उसे (बहुत) सङ्कोच के साथ सीताजी के समान कहेङ्गे॥247॥

(जिस सुन्दरता के समुद्र को कामदेव मथेगा वह सुन्दरता भी प्राकृत, लौकिक सुन्दरता ही होगी, क्योङ्कि कामदेव स्वयं भी त्रिगुणमयी प्रकृति का ही विकार है। अतः उस सुन्दरता को मथकर प्रकट की हुई लक्ष्मी भी उपर्युक्त लक्ष्मी की अपेक्षा कहीं अधिक सुन्दर और दिव्य होने पर भी होगी प्राकृत ही, अतः उसके साथ भी जानकीजी की तुलना करना कवि के लिए बडे सङ्कोच की बात होगी। जिस सुन्दरता से जानकीजी का दिव्यातिदिव्य परम दिव्य विग्रह बना है, वह सुन्दरता उपर्युक्त सुन्दरता से भिन्न अप्राकृत है- वस्तुतः लक्ष्मीजी का अप्राकृत रूप भी यही है। वह कामदेव के मथने में नहीं आ सकती और वह जानकीजी का स्वरूप ही है, अतः उनसे भिन्न नहीं और उपमा दी जाती है भिन्न वस्तु के साथ। इसके अतिरिक्त जानकीजी प्रकट हुई हैं स्वयं अपनी महिमा से, उन्हें प्रकट करने के लिए किसी भिन्न उपकरण की अपेक्षा नहीं है। अर्थात शक्ति शक्तिमान से अभिन्न, अद्वैत तत्व है, अतएव अनुपमेय है, यही गूढ दार्शनिक तत्व भक्त शिरोमणि कवि ने इस अभूतोपमालङ्कार के द्वारा बडी सुन्दरता से व्यक्त किया है।)

02 चौपाई

चलीं सङ्ग लै सखीं सयानी। गावत गीत मनोहर बानी॥
सोह नवल तनु सुन्दर सारी। जगत जननि अतुलित छबि भारी॥1॥

मूल

चलीं सङ्ग लै सखीं सयानी। गावत गीत मनोहर बानी॥
सोह नवल तनु सुन्दर सारी। जगत जननि अतुलित छबि भारी॥1॥

भावार्थ

सयानी सखियाँ सीताजी को साथ लेकर मनोहर वाणी से गीत गाती हुई चलीं। सीताजी के नवल शरीर पर सुन्दर साडी सुशोभित है। जगज्जननी की महान छबि अतुलनीय है॥1॥

भूषन सकल सुदेस सुहाए। अङ्ग अङ्ग रचि सखिन्ह बनाए॥
रङ्गभूमि जब सिय पगु धारी। देखि रूप मोहे नर नारी॥2॥

मूल

भूषन सकल सुदेस सुहाए। अङ्ग अङ्ग रचि सखिन्ह बनाए॥
रङ्गभूमि जब सिय पगु धारी। देखि रूप मोहे नर नारी॥2॥

भावार्थ

सब आभूषण अपनी-अपनी जगह पर शोभित हैं, जिन्हें सखियों ने अङ्ग-अङ्ग में भलीभाँति सजाकर पहनाया है। जब सीताजी ने रङ्गभूमि में पैर रखा, तब उनका (दिव्य) रूप देखकर स्त्री, पुरुष सभी मोहित हो गए॥2॥

हरषि सुरन्ह दुन्दुभीं बजाईं। बरषि प्रसून अपछरा गाईं॥
पानि सरोज सोह जयमाला। अवचट चितए सकल भुआला॥3॥

मूल

हरषि सुरन्ह दुन्दुभीं बजाईं। बरषि प्रसून अपछरा गाईं॥
पानि सरोज सोह जयमाला। अवचट चितए सकल भुआला॥3॥

भावार्थ

देवताओं ने हर्षित होकर नगाडे बजाए और पुष्प बरसाकर अप्सराएँ गाने लगीं। सीताजी के करकमलों में जयमाला सुशोभित है। सब राजा चकित होकर अचानक उनकी ओर देखने लगे॥3॥

सीय चकित चित रामहि चाहा। भए मोहबस सब नरनाहा॥
मुनि समीप देखे दोउ भाई। लगे ललकि लोचन निधि पाई॥4॥

मूल

सीय चकित चित रामहि चाहा। भए मोहबस सब नरनाहा॥
मुनि समीप देखे दोउ भाई। लगे ललकि लोचन निधि पाई॥4॥

भावार्थ

सीताजी चकित चित्त से श्री रामजी को देखने लगीं, तब सब राजा लोग मोह के वश हो गए। सीताजी ने मुनि के पास (बैठे हुए) दोनों भाइयों को देखा तो उनके नेत्र अपना खजाना पाकर ललचाकर वहीं (श्री रामजी में) जा लगे (स्थिर हो गए)॥4॥

248

01 दोहा

गुरजन लाज समाजु बड देखि सीय सकुचानि।
लागि बिलोकन सखिन्ह तन रघुबीरहि उर आनि॥248॥

मूल

गुरजन लाज समाजु बड देखि सीय सकुचानि।
लागि बिलोकन सखिन्ह तन रघुबीरहि उर आनि॥248॥

भावार्थ

परन्तु गुरुजनों की लाज से तथा बहुत बडे समाज को देखकर सीताजी सकुचा गईं। वे श्री रामचन्द्रजी को हृदय में लाकर सखियों की ओर देखने लगीं॥248॥

02 चौपाई

राम रूपु अरु सिय छबि देखें। नर नारिन्ह परिहरीं निमेषें॥
सोचहिं सकल कहत सकुचाहीं। बिधि सन बिनय करहिं मन माहीं॥1॥

मूल

राम रूपु अरु सिय छबि देखें। नर नारिन्ह परिहरीं निमेषें॥
सोचहिं सकल कहत सकुचाहीं। बिधि सन बिनय करहिं मन माहीं॥1॥

भावार्थ

श्री रामचन्द्रजी का रूप और सीताजी की छबि देखकर स्त्री-पुरुषों ने पलक मारना छोड दिया (सब एकटक उन्हीं को देखने लगे)। सभी अपने मन में सोचते हैं, पर कहते सकुचाते हैं। मन ही मन वे विधाता से विनय करते हैं-॥1॥

हरु बिधि बेगि जनक जडताई। मति हमारि असि देहि सुहाई॥
बिनु बिचार पनु तजि नरनाहू। सीय राम कर करै बिबाहू॥2॥

मूल

हरु बिधि बेगि जनक जडताई। मति हमारि असि देहि सुहाई॥
बिनु बिचार पनु तजि नरनाहू। सीय राम कर करै बिबाहू॥2॥

भावार्थ

हे विधाता! जनक की मूढता को शीघ्र हर लीजिए और हमारी ही ऐसी सुन्दर बुद्धि उन्हें दीजिए कि जिससे बिना ही विचार किए राजा अपना प्रण छोडकर सीताजी का विवाह रामजी से कर दें॥2॥

जगु भल कहिहि भाव सब काहू। हठ कीन्हें अन्तहुँ उर दाहू॥
एहिं लालसाँ मगन सब लोगू। बरु साँवरो जानकी जोगू॥3॥

मूल

जगु भल कहिहि भाव सब काहू। हठ कीन्हें अन्तहुँ उर दाहू॥
एहिं लालसाँ मगन सब लोगू। बरु साँवरो जानकी जोगू॥3॥

भावार्थ

संसार उन्हें भला कहेगा, क्योङ्कि यह बात सब किसी को अच्छी लगती है। हठ करने से अन्त में भी हृदय जलेगा। सब लोग इसी लालसा में मग्न हो रहे हैं कि जानकीजी के योग्य वर तो यह साँवला ही है॥3॥तब बन्दीजन जनक बोलाए। बिरिदावली कहत चलि आए॥

कह नृपु जाइ कहहु पन मोरा। चले भाट हियँ हरषु न थोरा॥4॥

मूल

कह नृपु जाइ कहहु पन मोरा। चले भाट हियँ हरषु न थोरा॥4॥

भावार्थ

तब राजा जनक ने वन्दीजनों (भाटों) को बुलाया। वे विरुदावली (वंश की कीर्ति) गाते हुए चले आए। राजा ने कहा- जाकर मेरा प्रण सबसे कहो। भाट चले, उनके हृदय में कम आनन्द न था॥4॥

249

01 दोहा

बोले बन्दी बचन बर सुनहु सकल महिपाल।
पन बिदेह कर कहहिं हम भुजा उठाइ बिसाल॥249॥

मूल

बोले बन्दी बचन बर सुनहु सकल महिपाल।
पन बिदेह कर कहहिं हम भुजा उठाइ बिसाल॥249॥

भावार्थ

भाटों ने श्रेष्ठ वचन कहा- हे पृथ्वी की पालना करने वाले सब राजागण! सुनिए। हम अपनी भुजा उठाकर जनकजी का विशाल प्रण कहते हैं-॥249॥

02 चौपाई

नृप भुजबल बिधु सिवधनु राहू। गरुअ कठोर बिदित सब काहू॥
रावनु बानु महाभट भारे। देखि सरासन गवँहिं सिधारे॥1॥

मूल

नृप भुजबल बिधु सिवधनु राहू। गरुअ कठोर बिदित सब काहू॥
रावनु बानु महाभट भारे। देखि सरासन गवँहिं सिधारे॥1॥

भावार्थ

राजाओं की भुजाओं का बल चन्द्रमा है, शिवजी का धनुष राहु है, वह भारी है, कठोर है, यह सबको विदित है। बडे भारी योद्धा रावण और बाणासुर भी इस धनुष को देखकर गौं से (चुपके से) चलते बने (उसे उठाना तो दूर रहा, छूने तक की हिम्मत न हुई)॥1॥

सोइ पुरारि कोदण्डु कठोरा। राज समाज आजु जोइ तोरा॥
त्रिभुवन जय समेत बैदेही। बिनहिं बिचार बरइ हठि तेही॥2॥

मूल

सोइ पुरारि कोदण्डु कठोरा। राज समाज आजु जोइ तोरा॥
त्रिभुवन जय समेत बैदेही। बिनहिं बिचार बरइ हठि तेही॥2॥

भावार्थ

उसी शिवजी के कठोर धनुष को आज इस राज समाज में जो भी तोडेगा, तीनों लोकों की विजय के साथ ही उसको जानकीजी बिना किसी विचार के हठपूर्वक वरण करेङ्गी॥2॥

सुनि पन सकल भूप अभिलाषे। भटमानी अतिसय मन माखे॥
परिकर बाँधि उठे अकुलाई। चले इष्ट देवन्ह सिर नाई॥3॥

मूल

सुनि पन सकल भूप अभिलाषे। भटमानी अतिसय मन माखे॥
परिकर बाँधि उठे अकुलाई। चले इष्ट देवन्ह सिर नाई॥3॥

भावार्थ

प्रण सुनकर सब राजा ललचा उठे। जो वीरता के अभिमानी थे, वे मन में बहुत ही तमतमाए। कमर कसकर अकुलाकर उठे और अपने इष्टदेवों को सिर नवाकर चले॥3॥

तमकि ताकि तकि सिवधनु धरहीं। उठइ न कोटि भाँति बलु करहीं॥
जिन्ह के कछु बिचारु मन माहीं। चाप समीप महीप न जाहीं॥4॥

मूल

तमकि ताकि तकि सिवधनु धरहीं। उठइ न कोटि भाँति बलु करहीं॥
जिन्ह के कछु बिचारु मन माहीं। चाप समीप महीप न जाहीं॥4॥

भावार्थ

वे तमककर (बडे ताव से) शिवजी के धनुष की ओर देखते हैं और फिर निगाह जमाकर उसे पकडते हैं, करोडों भाँति से जोर लगाते हैं, पर वह उठता ही नहीं। जिन राजाओं के मन में कुछ विवेक है, वे तो धनुष के पास ही नहीं जाते॥4॥

250

01 दोहा

तमकि धरहिं धनु मूढ नृप उठइ न चलहिं लजाइ॥
मनहुँ पाइ भट बाहुबलु अधिकु अधिकु गरुआइ॥250॥

मूल

तमकि धरहिं धनु मूढ नृप उठइ न चलहिं लजाइ॥
मनहुँ पाइ भट बाहुबलु अधिकु अधिकु गरुआइ॥250॥

भावार्थ

वे मूर्ख राजा तमककर (किटकिटाकर) धनुष को पकडते हैं, परन्तु जब नहीं उठता तो लजाकर चले जाते हैं, मानो वीरों की भुजाओं का बल पाकर वह धनुष अधिक-अधिक भारी होता जाता है॥250॥

02 चौपाई

भूप सहस दस एकहि बारा। लगे उठावन टरइ न टारा॥
डगइ न सम्भु सरासनु कैसें। कामी बचन सती मनु जैसें॥1॥

मूल

भूप सहस दस एकहि बारा। लगे उठावन टरइ न टारा॥
डगइ न सम्भु सरासनु कैसें। कामी बचन सती मनु जैसें॥1॥

भावार्थ

तब दस हजार राजा एक ही बार धनुष को उठाने लगे, तो भी वह उनके टाले नहीं टलता। शिवजी का वह धनुष कैसे नहीं डिगता था, जैसे कामी पुरुष के वचनों से सती का मन (कभी) चलायमान नहीं होता॥1॥

सब नृप भए जोगु उपहासी। जैसें बिनु बिराग सन्न्यासी॥
कीरति बिजय बीरता भारी। चले चाप कर बरबस हारी॥2॥

मूल

सब नृप भए जोगु उपहासी। जैसें बिनु बिराग सन्न्यासी॥
कीरति बिजय बीरता भारी। चले चाप कर बरबस हारी॥2॥

भावार्थ

सब राजा उपहास के योग्य हो गए, जैसे वैराग्य के बिना सन्न्यासी उपहास के योग्य हो जाता है। कीर्ति, विजय, बडी वीरता- इन सबको वे धनुष के हाथों बरबस हारकर चले गए॥2॥

श्रीहत भए हारि हियँ राजा। बैठे निज निज जाइ समाजा॥
नृपन्ह बिलोकि जनकु अकुलाने। बोले बचन रोष जनु साने॥3॥

मूल

श्रीहत भए हारि हियँ राजा। बैठे निज निज जाइ समाजा॥
नृपन्ह बिलोकि जनकु अकुलाने। बोले बचन रोष जनु साने॥3॥

भावार्थ

राजा लोग हृदय से हारकर श्रीहीन (हतप्रभ) हो गए और अपने-अपने समाज में जा बैठे। राजाओं को (असफल) देखकर जनक अकुला उठे और ऐसे वचन बोले जो मानो क्रोध में सने हुए थे॥3॥

दीप दीप के भूपति नाना। आए सुनिहम जो पनु ठाना॥
देव दनुज धरि मनुज सरीरा। बिपुल बीर आए रनधीरा॥4॥

मूल

दीप दीप के भूपति नाना। आए सुनिहम जो पनु ठाना॥
देव दनुज धरि मनुज सरीरा। बिपुल बीर आए रनधीरा॥4॥

भावार्थ

मैन्ने जो प्रण ठाना था, उसे सुनकर द्वीप-द्वीप के अनेकों राजा आए। देवता और दैत्य भी मनुष्य का शरीर धारण करके आए तथा और भी बहुत से रणधीर वीर आए॥4॥

251

01 दोहा

कुअँरि मनोहर बिजय बडि कीरतिअति कमनीय।
पावनिहार बिरञ्चि जनु रचेउ न धनु दमनीय॥251॥

मूल

कुअँरि मनोहर बिजय बडि कीरतिअति कमनीय।
पावनिहार बिरञ्चि जनु रचेउ न धनु दमनीय॥251॥

भावार्थ

परन्तु धनुष को तोडकर मनोहर कन्या, बडी विजय और अत्यन्त सुन्दर कीर्ति को पाने वाला मानो ब्रह्मा ने किसी को रचा ही नहीं॥251॥

02 चौपाई

कहहु काहि यहु लाभु न भावा। काहुँ न सङ्कर चाप चढावा॥
रहउ चढाउब तोरब भाई। तिलु भरि भूमि न सके छडाई॥1॥

मूल

कहहु काहि यहु लाभु न भावा। काहुँ न सङ्कर चाप चढावा॥
रहउ चढाउब तोरब भाई। तिलु भरि भूमि न सके छडाई॥1॥

भावार्थ

कहिए, यह लाभ किसको अच्छा नहीं लगता, परन्तु किसी ने भी शङ्करजी का धनुष नहीं चढाया। अरे भाई! चढाना और तोडना तो दूर रहा, कोई तिल भर भूमि भी छुडा न सका॥1॥

अब जनि कोउ भाखे भट मानी। बीर बिहीन मही मैं जानी॥
तजहु आस निज निज गृह जाहू। लिखा न बिधि बैदेहि बिबाहू॥2॥

मूल

अब जनि कोउ भाखे भट मानी। बीर बिहीन मही मैं जानी॥
तजहु आस निज निज गृह जाहू। लिखा न बिधि बैदेहि बिबाहू॥2॥

भावार्थ

अब कोई वीरता का अभिमानी नाराज न हो। मैन्ने जान लिया, पृथ्वी वीरों से खाली हो गई। अब आशा छोडकर अपने-अपने घर जाओ, ब्रह्मा ने सीता का विवाह लिखा ही नहीं॥2॥

सुकृतु जाइ जौं पनु परिहरऊँ। कुअँरि कुआँरि रहउ का करऊँ॥
जौं जनतेउँ बिनु भट भुबि भाई। तौ पनु करि होतेउँ न हँसाई॥3॥

मूल

सुकृतु जाइ जौं पनु परिहरऊँ। कुअँरि कुआँरि रहउ का करऊँ॥
जौं जनतेउँ बिनु भट भुबि भाई। तौ पनु करि होतेउँ न हँसाई॥3॥

भावार्थ

यदि प्रण छोडता हूँ, तो पुण्य जाता है, इसलिए क्या करूँ, कन्या कुँआरी ही रहे। यदि मैं जानता कि पृथ्वी वीरों से शून्य है, तो प्रण करके उपहास का पात्र न बनता॥3॥जनक बचन सुनि सब नर नारी। देखि जानकिहि भए दुखारी॥

माखे लखनु कुटिल भइँ भौंहें। रदपट फरकत नयन रिसौंहें॥4॥

मूल

माखे लखनु कुटिल भइँ भौंहें। रदपट फरकत नयन रिसौंहें॥4॥

भावार्थ

जनक के वचन सुनकर सभी स्त्री-पुरुष जानकीजी की ओर देखकर दुःखी हुए, परन्तु लक्ष्मणजी तमतमा उठे, उनकी भौंहें टेढी हो गईं, होठ फडकने लगे और नेत्र क्रोध से लाल हो गए॥4॥

252

01 दोहा

कहि न सकत रघुबीर डर लगे बचन जनु बान।
नाइ राम पद कमल सिरु बोले गिरा प्रमान॥252॥

मूल

कहि न सकत रघुबीर डर लगे बचन जनु बान।
नाइ राम पद कमल सिरु बोले गिरा प्रमान॥252॥

भावार्थ

श्री रघुवीरजी के डर से कुछ कह तो सकते नहीं, पर जनक के वचन उन्हें बाण से लगे। (जब न रह सके तब) श्री रामचन्द्रजी के चरण कमलों में सिर नवाकर वे यथार्थ वचन बोले-॥252॥

02 चौपाई

रघुबंसिन्ह महुँ जहँ कोउ होई। तेहिं समाज अस कहइ न कोई॥
कही जनक जसि अनुचित बानी। बिद्यमान रघुकुल मनि जानी॥1॥

मूल

रघुबंसिन्ह महुँ जहँ कोउ होई। तेहिं समाज अस कहइ न कोई॥
कही जनक जसि अनुचित बानी। बिद्यमान रघुकुल मनि जानी॥1॥

भावार्थ

रघुवंशियों में कोई भी जहाँ होता है, उस समाज में ऐसे वचन कोई नहीं कहता, जैसे अनुचित वचन रघुकुल शिरोमणि श्री रामजी को उपस्थित जानते हुए भी जनकजी ने कहे हैं॥1॥

सुनहु भानुकुल पङ्कज भानू। कहउँ सुभाउ न कछु अभिमानू॥
जौं तुम्हारि अनुसासन पावौं। कन्दुक इव ब्रह्माण्ड उठावौं॥2॥

मूल

सुनहु भानुकुल पङ्कज भानू। कहउँ सुभाउ न कछु अभिमानू॥
जौं तुम्हारि अनुसासन पावौं। कन्दुक इव ब्रह्माण्ड उठावौं॥2॥

भावार्थ

हे सूर्य कुल रूपी कमल के सूर्य! सुनिए, मैं स्वभाव ही से कहता हूँ, कुछ अभिमान करके नहीं, यदि आपकी आज्ञा पाऊँ, तो मैं ब्रह्माण्ड को गेन्द की तरह उठा लूँ॥2॥

काचे घट जिमि डारौं फोरी। सकउँ मेरु मूलक जिमि तोरी॥
तव प्रताप महिमा भगवाना। को बापुरो पिनाक पुराना॥3॥

मूल

काचे घट जिमि डारौं फोरी। सकउँ मेरु मूलक जिमि तोरी॥
तव प्रताप महिमा भगवाना। को बापुरो पिनाक पुराना॥3॥

भावार्थ

और उसे कच्चे घडे की तरह फोड डालूँ। मैं सुमेरु पर्वत को मूली की तरह तोड सकता हूँ, हे भगवन्‌! आपके प्रताप की महिमा से यह बेचारा पुराना धनुष तो कौन चीज है॥3॥

नाथ जानि अस आयसु होऊ। कौतुकु करौं बिलोकिअ सोऊ॥
कमल नाल जिमि चाप चढावौं। जोजन सत प्रमान लै धावौं॥4॥

मूल

नाथ जानि अस आयसु होऊ। कौतुकु करौं बिलोकिअ सोऊ॥
कमल नाल जिमि चाप चढावौं। जोजन सत प्रमान लै धावौं॥4॥

भावार्थ

ऐसा जानकर हे नाथ! आज्ञा हो तो कुछ खेल करूँ, उसे भी देखिए। धनुष को कमल की डण्डी की तरह चढाकर उसे सौ योजन तक दौडा लिए चला जाऊँ॥4॥

253

01 दोहा

तोरौं छत्रक दण्ड जिमि तव प्रताप बल नाथ।
जौं न करौं प्रभु पद सपथ कर न धरौं धनु भाथ॥253॥

मूल

तोरौं छत्रक दण्ड जिमि तव प्रताप बल नाथ।
जौं न करौं प्रभु पद सपथ कर न धरौं धनु भाथ॥253॥

भावार्थ

हे नाथ! आपके प्रताप के बल से धनुष को कुकुरमुत्ते (बरसाती छत्ते) की तरह तोड दूँ। यदि ऐसा न करूँ तो प्रभु के चरणों की शपथ है, फिर मैं धनुष और तरकस को कभी हाथ में भी न लूँगा॥253॥

02 चौपाई

लखन सकोप बचन जे बोले। डगमगानि महि दिग्गज डोले॥
सकल लोग सब भूप डेराने। सिय हियँ हरषु जनकु सकुचाने॥1॥

मूल

लखन सकोप बचन जे बोले। डगमगानि महि दिग्गज डोले॥
सकल लोग सब भूप डेराने। सिय हियँ हरषु जनकु सकुचाने॥1॥

भावार्थ

ज्यों ही लक्ष्मणजी क्रोध भरे वचन बोले कि पृथ्वी डगमगा उठी और दिशाओं के हाथी काँप गए। सभी लोग और सब राजा डर गए। सीताजी के हृदय में हर्ष हुआ और जनकजी सकुचा गए॥1॥

गुर रघुपति सब मुनि मन माहीं। मुदित भए पुनि पुनि पुलकाहीं॥
सयनहिं रघुपति लखनु नेवारे। प्रेम समेत निकट बैठारे॥2॥

मूल

गुर रघुपति सब मुनि मन माहीं। मुदित भए पुनि पुनि पुलकाहीं॥
सयनहिं रघुपति लखनु नेवारे। प्रेम समेत निकट बैठारे॥2॥

भावार्थ

गुरु विश्वामित्रजी, श्री रघुनाथजी और सब मुनि मन में प्रसन्न हुए और बार-बार पुलकित होने लगे। श्री रामचन्द्रजी ने इशारे से लक्ष्मण को मना किया और प्रेम सहित अपने पास बैठा लिया॥2॥

बिस्वामित्र समय सुभ जानी। बोले अति सनेहमय बानी॥
उठहु राम भञ्जहु भवचापा। मेटहु तात जनक परितापा॥3॥

मूल

बिस्वामित्र समय सुभ जानी। बोले अति सनेहमय बानी॥
उठहु राम भञ्जहु भवचापा। मेटहु तात जनक परितापा॥3॥

भावार्थ

विश्वामित्रजी शुभ समय जानकर अत्यन्त प्रेमभरी वाणी बोले- हे राम! उठो, शिवजी का धनुष तोडो और हे तात! जनक का सन्ताप मिटाओ॥3॥

सुनि गुरु बचन चरन सिरु नावा। हरषु बिषादु न कछु उर आवा॥
ठाढे भए उठि सहज सुभाएँ। ठवनि जुबा मृगराजु लजाएँ॥4॥

मूल

सुनि गुरु बचन चरन सिरु नावा। हरषु बिषादु न कछु उर आवा॥
ठाढे भए उठि सहज सुभाएँ। ठवनि जुबा मृगराजु लजाएँ॥4॥

भावार्थ

गुरु के वचन सुनकर श्री रामजी ने चरणों में सिर नवाया। उनके मन में न हर्ष हुआ, न विषाद और वे अपनी ऐण्ड (खडे होने की शान) से जवान सिंह को भी लजाते हुए सहज स्वभाव से ही उठ खडे हुए ॥4॥

254

01 दोहा

उदित उदयगिरि मञ्च पर रघुबर बालपतङ्ग।
बिकसे सन्त सरोज सब हरषे लोचन भृङ्ग॥254॥

मूल

उदित उदयगिरि मञ्च पर रघुबर बालपतङ्ग।
बिकसे सन्त सरोज सब हरषे लोचन भृङ्ग॥254॥

भावार्थ

मञ्च रूपी उदयाचल पर रघुनाथजी रूपी बाल सूर्य के उदय होते ही सब सन्त रूपी कमल खिल उठे और नेत्र रूपी भौंरे हर्षित हो गए॥254॥

02 चौपाई

नृपन्ह केरि आसा निसि नासी। बचन नखत अवली न प्रकासी॥
मानी महिप कुमुद सकुचाने। कपटी भूप उलूक लुकाने॥1॥

मूल

नृपन्ह केरि आसा निसि नासी। बचन नखत अवली न प्रकासी॥
मानी महिप कुमुद सकुचाने। कपटी भूप उलूक लुकाने॥1॥

भावार्थ

राजाओं की आशा रूपी रात्रि नष्ट हो गई। उनके वचन रूपी तारों के समूह का चमकना बन्द हो गया। (वे मौन हो गए)। अभिमानी राजा रूपी कुमुद सङ्कुचित हो गए और कपटी राजा रूपी उल्लू छिप गए॥1॥

भए बिसोक कोक मुनि देवा। बरिसहिं सुमन जनावहिं सेवा॥
गुर पद बन्दि सहित अनुरागा। राम मुनिन्हसन आयसु मागा॥2॥

मूल

भए बिसोक कोक मुनि देवा। बरिसहिं सुमन जनावहिं सेवा॥
गुर पद बन्दि सहित अनुरागा। राम मुनिन्हसन आयसु मागा॥2॥

भावार्थ

मुनि और देवता रूपी चकवे शोकरहित हो गए। वे फूल बरसाकर अपनी सेवा प्रकट कर रहे हैं। प्रेम सहित गुरु के चरणों की वन्दना करके श्री रामचन्द्रजी ने मुनियों से आज्ञा माँगी॥2॥

सहजहिं चले सकल जग स्वामी। मत्त मञ्जु बर कुञ्जर गामी॥
चलत राम सब पुर नर नारी। पुलक पूरि तन भए सुखारी॥3॥

मूल

सहजहिं चले सकल जग स्वामी। मत्त मञ्जु बर कुञ्जर गामी॥
चलत राम सब पुर नर नारी। पुलक पूरि तन भए सुखारी॥3॥

भावार्थ

समस्त जगत के स्वामी श्री रामजी सुन्दर मतवाले श्रेष्ठ हाथी की सी चाल से स्वाभाविक ही चले। श्री रामचन्द्रजी के चलते ही नगर भर के सब स्त्री-पुरुष सुखी हो गए और उनके शरीर रोमाञ्च से भर गए॥3॥

बन्दि पितर सुर सुकृत सँभारे। जौं कछु पुन्य प्रभाउ हमारे॥
तौ सिवधनु मृनाल की नाईं। तोरहुँ रामु गनेस गोसाईं॥4॥

मूल

बन्दि पितर सुर सुकृत सँभारे। जौं कछु पुन्य प्रभाउ हमारे॥
तौ सिवधनु मृनाल की नाईं। तोरहुँ रामु गनेस गोसाईं॥4॥

भावार्थ

उन्होन्ने पितर और देवताओं की वन्दना करके अपने पुण्यों का स्मरण किया। यदि हमारे पुण्यों का कुछ भी प्रभाव हो, तो हे गणेश गोसाईं! रामचन्द्रजी शिवजी के धनुष को कमल की डण्डी की भाँति तोड डालें॥4॥

255

01 दोहा

रामहि प्रेम समेत लखि सखिन्ह समीप बोलाइ।
सीता मातु सनेह बस बचन कहइ बिलखाइ॥255॥

मूल

रामहि प्रेम समेत लखि सखिन्ह समीप बोलाइ।
सीता मातु सनेह बस बचन कहइ बिलखाइ॥255॥

भावार्थ

श्री रामचन्द्रजी को (वात्सल्य) प्रेम के साथ देखकर और सखियों को समीप बुलाकर सीताजी की माता स्नेहवश बिलखकर (विलाप करती हुई सी) ये वचन बोलीं-॥255॥

02 चौपाई

सखि सब कौतुक देख निहारे। जेउ कहावत हितू हमारे॥
कोउ न बुझाइ कहइ गुर पाहीं। ए बालक असि हठ भलि नाहीं॥1॥

मूल

सखि सब कौतुक देख निहारे। जेउ कहावत हितू हमारे॥
कोउ न बुझाइ कहइ गुर पाहीं। ए बालक असि हठ भलि नाहीं॥1॥

भावार्थ

हे सखी! ये जो हमारे हितू कहलाते हैं, वे भी सब तमाशा देखने वाले हैं। कोई भी (इनके) गुरु विश्वामित्रजी को समझाकर नहीं कहता कि ये (रामजी) बालक हैं, इनके लिए ऐसा हठ अच्छा नहीं। (जो धनुष रावण और बाण- जैसे जगद्विजयी वीरों के हिलाए न हिल सका, उसे तोडने के लिए मुनि विश्वामित्रजी का रामजी को आज्ञा देना और रामजी का उसे तोडने के लिए चल देना रानी को हठ जान पडा, इसलिए वे कहने लगीं कि गुरु विश्वामित्रजी को कोई समझाता भी नहीं)॥1॥

रावन बान छुआ नहिं चापा। हारे सकल भूप करि दापा॥
सो धनु राजकुअँर कर देहीं। बाल मराल कि मन्दर लेहीं॥2॥

मूल

रावन बान छुआ नहिं चापा। हारे सकल भूप करि दापा॥
सो धनु राजकुअँर कर देहीं। बाल मराल कि मन्दर लेहीं॥2॥

भावार्थ

रावण और बाणासुर ने जिस धनुष को छुआ तक नहीं और सब राजा घमण्ड करके हार गए, वही धनुष इस सुकुमार राजकुमार के हाथ में दे रहे हैं। हंस के बच्चे भी कहीं मन्दराचल पहाड उठा सकते हैं?॥2॥

भूप सयानप सकल सिरानी। सखि बिधि गति कछु जाति न जानी॥
बोली चतुर सखी मृदु बानी। तेजवन्त लघु गनिअ न रानी॥3॥

मूल

भूप सयानप सकल सिरानी। सखि बिधि गति कछु जाति न जानी॥
बोली चतुर सखी मृदु बानी। तेजवन्त लघु गनिअ न रानी॥3॥

भावार्थ

(और तो कोई समझाकर कहे या नहीं, राजा तो बडे समझदार और ज्ञानी हैं, उन्हें तो गुरु को समझाने की चेष्टा करनी चाहिए थी, परन्तु मालूम होता है-) राजा का भी सारा सयानापन समाप्त हो गया। हे सखी! विधाता की गति कुछ जानने में नहीं आती (यों कहकर रानी चुप हो रहीं)। तब एक चतुर (रामजी के महत्व को जानने वाली) सखी कोमल वाणी से बोली- हे रानी! तेजवान को (देखने में छोटा होने पर भी) छोटा नहीं गिनना चाहिए॥3॥

कहँ कुम्भज कहँ सिन्धु अपारा। सोषेउ सुजसु सकल संसारा॥
रबि मण्डल देखत लघु लागा। उदयँ तासु तिभुवन तम भागा॥4॥

मूल

कहँ कुम्भज कहँ सिन्धु अपारा। सोषेउ सुजसु सकल संसारा॥
रबि मण्डल देखत लघु लागा। उदयँ तासु तिभुवन तम भागा॥4॥

भावार्थ

कहाँ घडे से उत्पन्न होने वाले (छोटे से) मुनि अगस्त्य और कहाँ समुद्र? किन्तु उन्होन्ने उसे सोख लिया, जिसका सुयश सारे संसार में छाया हुआ है। सूर्यमण्डल देखने में छोटा लगता है, पर उसके उदय होते ही तीनों लोकों का अन्धकार भाग जाता है॥4॥

256

01 दोहा

मन्त्र परम लघु जासु बस बिधि हरि हर सुर सर्ब।
महामत्त गजराज कहुँ बस कर अङ्कुस खर्ब॥256॥

मूल

मन्त्र परम लघु जासु बस बिधि हरि हर सुर सर्ब।
महामत्त गजराज कहुँ बस कर अङ्कुस खर्ब॥256॥

भावार्थ

जिसके वश में ब्रह्मा, विष्णु, शिव और सभी देवता हैं, वह मन्त्र अत्यन्त छोटा होता है। महान मतवाले गजराज को छोटा सा अङ्कुश वश में कर लेता है॥256॥

02 चौपाई

काम कुसुम धनु सायक लीन्हे। सकल भुवन अपनें बस कीन्हे॥
देबि तजिअ संसउ अस जानी। भञ्जब धनुषु राम सुनु रानी॥1॥

मूल

काम कुसुम धनु सायक लीन्हे। सकल भुवन अपनें बस कीन्हे॥
देबि तजिअ संसउ अस जानी। भञ्जब धनुषु राम सुनु रानी॥1॥

भावार्थ

कामदेव ने फूलों का ही धनुष-बाण लेकर समस्त लोकों को अपने वश में कर रखा है। हे देवी! ऐसा जानकर सन्देह त्याग दीजिए। हे रानी! सुनिए, रामचन्द्रजी धनुष को अवश्य ही तोडेङ्गे॥1॥

सखी बचन सुनि भै परतीती। मिटा बिषादु बढी अति प्रीती॥
तब रामहि बिलोकि बैदेही। सभय हृदयँ बिनवति जेहि तेही॥2॥

मूल

सखी बचन सुनि भै परतीती। मिटा बिषादु बढी अति प्रीती॥
तब रामहि बिलोकि बैदेही। सभय हृदयँ बिनवति जेहि तेही॥2॥

भावार्थ

सखी के वचन सुनकर रानी को (श्री रामजी के सामर्थ्य के सम्बन्ध में) विश्वास हो गया। उनकी उदासी मिट गई और श्री रामजी के प्रति उनका प्रेम अत्यन्त बढ गया। उस समय श्री रामचन्द्रजी को देखकर सीताजी भयभीत हृदय से जिस-तिस (देवता) से विनती कर रही हैं॥2॥

मनहीं मन मनाव अकुलानी। होहु प्रसन्न महेस भवानी॥
करहु सफल आपनि सेवकाई। करि हितु हरहु चाप गरुआई॥3॥

मूल

मनहीं मन मनाव अकुलानी। होहु प्रसन्न महेस भवानी॥
करहु सफल आपनि सेवकाई। करि हितु हरहु चाप गरुआई॥3॥

भावार्थ

वे व्याकुल होकर मन ही मन मना रही हैं- हे महेश-भवानी! मुझ पर प्रसन्न होइए, मैन्ने आपकी जो सेवा की है, उसे सुफल कीजिए और मुझ पर स्नेह करके धनुष के भारीपन को हर लीजिए॥3॥

गननायक बरदायक देवा। आजु लगें कीन्हिउँ तुअ सेवा॥
बार बार बिनती सुनि मोरी। करहु चाप गुरुता अति थोरी॥4॥

मूल

गननायक बरदायक देवा। आजु लगें कीन्हिउँ तुअ सेवा॥
बार बार बिनती सुनि मोरी। करहु चाप गुरुता अति थोरी॥4॥

भावार्थ

हे गणों के नायक, वर देने वाले देवता गणेशजी! मैन्ने आज ही के लिए तुम्हारी सेवा की थी। बार-बार मेरी विनती सुनकर धनुष का भारीपन बहुत ही कम कर दीजिए॥4॥

257

01 दोहा

देखि देखि रघुबीर तन सुर मनाव धरि धीर।
भरे बिलोचन प्रेम जल पुलकावली सरीर॥257॥

मूल

देखि देखि रघुबीर तन सुर मनाव धरि धीर।
भरे बिलोचन प्रेम जल पुलकावली सरीर॥257॥

भावार्थ

श्री रघुनाथजी की ओर देख-देखकर सीताजी धीरज धरकर देवताओं को मना रही हैं। उनके नेत्रों में प्रेम के आँसू भरे हैं और शरीर में रोमाञ्च हो रहा है॥257॥

02 चौपाई

नीकें निरखि नयन भरि सोभा। पितु पनु सुमिरि बहुरि मनु छोभा॥
अहह तात दारुनि हठ ठानी। समुझत नहिं कछु लाभु न हानी॥1॥

मूल

नीकें निरखि नयन भरि सोभा। पितु पनु सुमिरि बहुरि मनु छोभा॥
अहह तात दारुनि हठ ठानी। समुझत नहिं कछु लाभु न हानी॥1॥

भावार्थ

अच्छी तरह नेत्र भरकर श्री रामजी की शोभा देखकर, फिर पिता के प्रण का स्मरण करके सीताजी का मन क्षुब्ध हो उठा। (वे मन ही मन कहने लगीं-) अहो! पिताजी ने बडा ही कठिन हठ ठाना है, वे लाभ-हानि कुछ भी नहीं समझ रहे हैं॥1॥

सचिव सभय सिख देइ न कोई। बुध समाज बड अनुचित होई॥
कहँ धनु कुलिसहु चाहि कठोरा। कहँ स्यामल मृदुगात किसोरा॥2॥

मूल

सचिव सभय सिख देइ न कोई। बुध समाज बड अनुचित होई॥
कहँ धनु कुलिसहु चाहि कठोरा। कहँ स्यामल मृदुगात किसोरा॥2॥

भावार्थ

मन्त्री डर रहे हैं, इसलिए कोई उन्हें सीख भी नहीं देता, पण्डितों की सभा में यह बडा अनुचित हो रहा है। कहाँ तो वज्र से भी बढकर कठोर धनुष और कहाँ ये कोमल शरीर किशोर श्यामसुन्दर!॥2॥

बिधि केहि भाँति धरौं उर धीरा। सिरस सुमन कन बेधिअ हीरा॥
सकल सभा कै मति भै भोरी। अब मोहि सम्भुचाप गति तोरी॥3॥

मूल

बिधि केहि भाँति धरौं उर धीरा। सिरस सुमन कन बेधिअ हीरा॥
सकल सभा कै मति भै भोरी। अब मोहि सम्भुचाप गति तोरी॥3॥

भावार्थ

हे विधाता! मैं हृदय में किस तरह धीरज धरूँ, सिरस के फूल के कण से कहीं हीरा छेदा जाता है। सारी सभा की बुद्धि भोली (बावली) हो गई है, अतः हे शिवजी के धनुष! अब तो मुझे तुम्हारा ही आसरा है॥3॥

निज जडता लोगन्ह पर डारी। होहि हरुअ रघुपतिहि निहारी॥
अति परिताप सीय मन माहीं। लव निमेष जुग सय सम जाहीं॥4॥

मूल

निज जडता लोगन्ह पर डारी। होहि हरुअ रघुपतिहि निहारी॥
अति परिताप सीय मन माहीं। लव निमेष जुग सय सम जाहीं॥4॥

भावार्थ

तुम अपनी जडता लोगों पर डालकर, श्री रघुनाथजी (के सुकुमार शरीर) को देखकर (उतने ही) हल्के हो जाओ। इस प्रकार सीताजी के मन में बडा ही सन्ताप हो रहा है। निमेष का एक लव (अंश) भी सौ युगों के समान बीत रहा है॥4॥

258

01 दोहा

प्रभुहि चितइ पुनि चितव महि राजत लोचन लोल।
खेलत मनसिज मीन जुग जनु बिधु मण्डल डोल॥258॥

मूल

प्रभुहि चितइ पुनि चितव महि राजत लोचन लोल।
खेलत मनसिज मीन जुग जनु बिधु मण्डल डोल॥258॥

भावार्थ

प्रभु श्री रामचन्द्रजी को देखकर फिर पृथ्वी की ओर देखती हुई सीताजी के चञ्चल नेत्र इस प्रकार शोभित हो रहे हैं, मानो चन्द्रमण्डल रूपी डोल में कामदेव की दो मछलियाँ खेल रही हों॥258॥

02 चौपाई

गिरा अलिनि मुख पङ्कज रोकी। प्रगट न लाज निसा अवलोकी॥
लोचन जलु रह लोचन कोना। जैसें परम कृपन कर सोना॥1॥

मूल

गिरा अलिनि मुख पङ्कज रोकी। प्रगट न लाज निसा अवलोकी॥
लोचन जलु रह लोचन कोना। जैसें परम कृपन कर सोना॥1॥

भावार्थ

सीताजी की वाणी रूपी भ्रमरी को उनके मुख रूपी कमल ने रोक रखा है। लाज रूपी रात्रि को देखकर वह प्रकट नहीं हो रही है। नेत्रों का जल नेत्रों के कोने (कोये) में ही रह जाता है। जैसे बडे भारी कञ्जूस का सोना कोने में ही गडा रह जाता है॥1॥

सकुची ब्याकुलता बडि जानी। धरि धींरजु प्रतीति उर आनी॥
तन मन बचन मोर पनु साचा। रघुपति पद सरोज चितु राचा॥2॥

मूल

सकुची ब्याकुलता बडि जानी। धरि धींरजु प्रतीति उर आनी॥
तन मन बचन मोर पनु साचा। रघुपति पद सरोज चितु राचा॥2॥

भावार्थ

अपनी बढी हुई व्याकुलता जानकर सीताजी सकुचा गईं और धीरज धरकर हृदय में विश्वास ले आईं कि यदि तन, मन और वचन से मेरा प्रण सच्चा है और श्री रघुनाथजी के चरण कमलों में मेरा चित्त वास्तव में अनुरक्त है,॥2॥

तौ भगवानु सकल उर बासी। करिहि मोहि रघुबर कै दासी॥
जेहि कें जेहि पर सत्य सनेहू। सो तेहि मिलइ न कछु सन्देहू॥3॥

मूल

तौ भगवानु सकल उर बासी। करिहि मोहि रघुबर कै दासी॥
जेहि कें जेहि पर सत्य सनेहू। सो तेहि मिलइ न कछु सन्देहू॥3॥

भावार्थ

तो सबके हृदय में निवास करने वाले भगवान मुझे रघुश्रेष्ठ श्री रामचन्द्रजी की दासी अवश्य बनाएँगे। जिसका जिस पर सच्चा स्नेह होता है, वह उसे मिलता ही है, इसमें कुछ भी सन्देह नहीं है॥3॥

प्रभु तन चितइ प्रेम तन ठाना। कृपानिधान राम सबु जाना॥
सियहि बिलोकि तकेउ धनु कैसें। चितव गरुरु लघु ब्यालहि जैसें॥4॥

मूल

प्रभु तन चितइ प्रेम तन ठाना। कृपानिधान राम सबु जाना॥
सियहि बिलोकि तकेउ धनु कैसें। चितव गरुरु लघु ब्यालहि जैसें॥4॥

भावार्थ

प्रभु की ओर देखकर सीताजी ने शरीर के द्वारा प्रेम ठान लिया (अर्थात्‌ यह निश्चय कर लिया कि यह शरीर इन्हीं का होकर रहेगा या रहेगा ही नहीं) कृपानिधान श्री रामजी सब जान गए। उन्होन्ने सीताजी को देखकर धनुष की ओर कैसे ताका, जैसे गरुडजी छोटे से साँप की ओर देखते हैं॥4॥

259

01 दोहा

लखन लखेउ रघुबंसमनि ताकेउ हर कोदण्डु।
पुलकि गात बोले बचन चरन चापि ब्रह्माण्डु॥259॥

मूल

लखन लखेउ रघुबंसमनि ताकेउ हर कोदण्डु।
पुलकि गात बोले बचन चरन चापि ब्रह्माण्डु॥259॥

भावार्थ

इधर जब लक्ष्मणजी ने देखा कि रघुकुल मणि श्री रामचन्द्रजी ने शिवजी के धनुष की ओर ताका है, तो वे शरीर से पुलकित हो ब्रह्माण्ड को चरणों से दबाकर निम्नलिखित वचन बोले-॥259॥

02 चौपाई

दिसिकुञ्जरहु कमठ अहि कोला। धरहु धरनि धरि धीर न डोला॥
रामु चहहिं सङ्कर धनु तोरा। होहु सजग सुनि आयसु मोरा॥1॥

मूल

दिसिकुञ्जरहु कमठ अहि कोला। धरहु धरनि धरि धीर न डोला॥
रामु चहहिं सङ्कर धनु तोरा। होहु सजग सुनि आयसु मोरा॥1॥

भावार्थ

हे दिग्गजो! हे कच्छप! हे शेष! हे वाराह! धीरज धरकर पृथ्वी को थामे रहो, जिससे यह हिलने न पावे। श्री रामचन्द्रजी शिवजी के धनुष को तोडना चाहते हैं। मेरी आज्ञा सुनकर सब सावधान हो जाओ॥1॥

चाप समीप रामु जब आए। नर नारिन्ह सुर सुकृत मनाए॥
सब कर संसउ अरु अग्यानू। मन्द महीपन्ह कर अभिमानू॥2॥

मूल

चाप समीप रामु जब आए। नर नारिन्ह सुर सुकृत मनाए॥
सब कर संसउ अरु अग्यानू। मन्द महीपन्ह कर अभिमानू॥2॥

भावार्थ

श्री रामचन्द्रजी जब धनुष के समीप आए, तब सब स्त्री-पुरुषों ने देवताओं और पुण्यों को मनाया। सबका सन्देह और अज्ञान, नीच राजाओं का अभिमान,॥2॥

भृगुपति केरि गरब गरुआई। सुर मुनिबरन्ह केरि कदराई॥
सिय कर सोचु जनक पछितावा। रानिन्ह कर दारुन दुख दावा॥3॥

मूल

भृगुपति केरि गरब गरुआई। सुर मुनिबरन्ह केरि कदराई॥
सिय कर सोचु जनक पछितावा। रानिन्ह कर दारुन दुख दावा॥3॥

भावार्थ

परशुरामजी के गर्व की गुरुता, देवता और श्रेष्ठ मुनियों की कातरता (भय), सीताजी का सोच, जनक का पश्चाताप और रानियों के दारुण दुःख का दावानल,॥3॥

सम्भुचाप बड बोहितु पाई। चढे जाइ सब सङ्गु बनाई॥
राम बाहुबल सिन्धु अपारू। चहत पारु नहिं कोउ कडहारू॥4॥

मूल

सम्भुचाप बड बोहितु पाई। चढे जाइ सब सङ्गु बनाई॥
राम बाहुबल सिन्धु अपारू। चहत पारु नहिं कोउ कडहारू॥4॥

भावार्थ

ये सब शिवजी के धनुष रूपी बडे जहाज को पाकर, समाज बनाकर उस पर जा चढे।

ये श्री रामचन्द्रजी की भुजाओं के बल रूपी अपार समुद्र के पार जाना चाहते हैं, परन्तु कोई केवट नहीं है॥4॥

260

01 दोहा

राम बिलोके लोग सब चित्र लिखे से देखि।
चितई सीय कृपायतन जानी बिकल बिसेषि॥260॥

मूल

राम बिलोके लोग सब चित्र लिखे से देखि।
चितई सीय कृपायतन जानी बिकल बिसेषि॥260॥

भावार्थ

श्री रामजी ने सब लोगों की ओर देखा और उन्हें चित्र में लिखे हुए से देखकर फिर कृपाधाम श्री रामजी ने सीताजी की ओर देखा और उन्हें विशेष व्याकुल जाना॥260॥

02 चौपाई

देखी बिपुल बिकल बैदेही। निमिष बिहात कलप सम तेही।
तृषित बारि बिनु जो तनु त्यागा। मुएँ करइ का सुधा तडागा॥1॥

मूल

देखी बिपुल बिकल बैदेही। निमिष बिहात कलप सम तेही।
तृषित बारि बिनु जो तनु त्यागा। मुएँ करइ का सुधा तडागा॥1॥

भावार्थ

उन्होन्ने जानकीजी को बहुत ही विकल देखा। उनका एक-एक क्षण कल्प के समान बीत रहा था। यदि प्यासा आदमी पानी के बिना शरीर छोड दे, तो उसके मर जाने पर अमृत का तालाब भी क्या करेगा?॥1॥

का बरषा सब कृषी सुखानें। समय चुकें पुनि का पछितानें॥
अस जियँ जानि जानकी देखी। प्रभु पुलके लखि प्रीति बिसेषी॥2॥

मूल

का बरषा सब कृषी सुखानें। समय चुकें पुनि का पछितानें॥
अस जियँ जानि जानकी देखी। प्रभु पुलके लखि प्रीति बिसेषी॥2॥

भावार्थ

सारी खेती के सूख जाने पर वर्षा किस काम की? समय बीत जाने पर फिर पछताने से क्या लाभ? जी में ऐसा समझकर श्री रामजी ने जानकीजी की ओर देखा और उनका विशेष प्रेम लखकर वे पुलकित हो गए॥2॥

गुरहि प्रनामु मनहिं मन कीन्हा। अति लाघवँ उठाइ धनु लीन्हा॥
दमकेउ दामिनि जिमि जब लयऊ। पुनि नभ धनु मण्डल सम भयऊ॥3॥

मूल

गुरहि प्रनामु मनहिं मन कीन्हा। अति लाघवँ उठाइ धनु लीन्हा॥
दमकेउ दामिनि जिमि जब लयऊ। पुनि नभ धनु मण्डल सम भयऊ॥3॥

भावार्थ

मन ही मन उन्होन्ने गुरु को प्रणाम किया और बडी फुर्ती से धनुष को उठा लिया। जब उसे (हाथ में) लिया, तब वह धनुष बिजली की तरह चमका और फिर आकाश में मण्डल जैसा (मण्डलाकार) हो गया॥3॥

लेत चढावत खैञ्चत गाढें। काहुँ न लखा देख सबु ठाढें॥
तेहि छन राम मध्य धनु तोरा। भरे भुवन धुनि घोर कठोरा॥4॥

मूल

लेत चढावत खैञ्चत गाढें। काहुँ न लखा देख सबु ठाढें॥
तेहि छन राम मध्य धनु तोरा। भरे भुवन धुनि घोर कठोरा॥4॥

भावार्थ

लेते, चढाते और जोर से खीञ्चते हुए किसी ने नहीं लखा (अर्थात ये तीनों काम इतनी फुर्ती से हुए कि धनुष को कब उठाया, कब चढाया और कब खीञ्चा, इसका किसी को पता नहीं लगा), सबने श्री रामजी को (धनुष खीञ्चे) खडे देखा। उसी क्षण श्री रामजी ने धनुष को बीच से तोड डाला। भयङ्कर कठोर ध्वनि से (सब) लोक भर गए॥4॥

03 छन्द

भे भुवन घोर कठोर रव रबि बाजि तजि मारगु चले।
चिक्करहिं दिग्गज डोल महि अहि कोल कूरुम कलमले॥
सुर असुर मुनि कर कान दीन्हें सकल बिकल बिचारहीं।
कोदण्ड खण्डेउ राम तुलसी जयति बचन उचारहीं॥

मूल

भे भुवन घोर कठोर रव रबि बाजि तजि मारगु चले।
चिक्करहिं दिग्गज डोल महि अहि कोल कूरुम कलमले॥
सुर असुर मुनि कर कान दीन्हें सकल बिकल बिचारहीं।
कोदण्ड खण्डेउ राम तुलसी जयति बचन उचारहीं॥

भावार्थ

घोर, कठोर शब्द से (सब) लोक भर गए, सूर्य के घोडे मार्ग छोडकर चलने लगे।

दिग्गज चिग्घाडने लगे, धरती डोलने लगी, शेष, वाराह और कच्छप कलमला उठे। देवता, राक्षस और मुनि कानों पर हाथ रखकर सब व्याकुल होकर विचारने लगे। तुलसीदासजी कहते हैं (जब सब को निश्चय हो गया कि) श्री रामजी ने धनुष को तोड डाला, तब सब ‘श्री रामचन्द्र की जय’ बोलने लगे।

261

01 सोरठा

सङ्कर चापु जहाजु सागरु रघुबर बाहुबलु।
बूड सो सकल समाजु चढा जो प्रथमहिं मोह बस॥261॥

मूल

सङ्कर चापु जहाजु सागरु रघुबर बाहुबलु।
बूड सो सकल समाजु चढा जो प्रथमहिं मोह बस॥261॥

भावार्थ

शिवजी का धनुष जहाज है और श्री रामचन्द्रजी की भुजाओं का बल समुद्र है। (धनुष टूटने से) वह सारा समाज डूब गया, जो मोहवश पहले इस जहाज पर चढा था। (जिसका वर्णन ऊपर आया है।)॥261॥

02 चौपाई

प्रभु दोउ चापखण्ड महि डारे। देखि लोग सब भए सुखारे॥
कौसिकरूप पयोनिधि पावन। प्रेम बारि अवगाहु सुहावन॥1॥

मूल

प्रभु दोउ चापखण्ड महि डारे। देखि लोग सब भए सुखारे॥
कौसिकरूप पयोनिधि पावन। प्रेम बारि अवगाहु सुहावन॥1॥

भावार्थ

प्रभु ने धनुष के दोनों टुकडे पृथ्वी पर डाल दिए। यह देखकर सब लोग सुखी हुए। विश्वामित्र रूपी पवित्र समुद्र में, जिसमें प्रेम रूपी सुन्दर अथाह जल भरा है,॥1॥

रामरूप राकेसु निहारी। बढत बीचि पुलकावलि भारी॥
बाजे नभ गहगहे निसाना। देवबधू नाचहिं करि गाना॥2॥

मूल

रामरूप राकेसु निहारी। बढत बीचि पुलकावलि भारी॥
बाजे नभ गहगहे निसाना। देवबधू नाचहिं करि गाना॥2॥

भावार्थ

राम रूपी पूर्णचन्द्र को देखकर पुलकावली रूपी भारी लहरें बढने लगीं। आकाश में बडे जोर से नगाडे बजने लगे और देवाङ्गनाएँ गान करके नाचने लगीं॥2॥

ब्रह्मादिक सुर सिद्ध मुनीसा। प्रभुहि प्रसंसहिं देहिं असीसा॥
बरिसहिं सुमन रङ्ग बहु माला। गावहिं किन्नर गीत रसाला॥3॥

मूल

ब्रह्मादिक सुर सिद्ध मुनीसा। प्रभुहि प्रसंसहिं देहिं असीसा॥
बरिसहिं सुमन रङ्ग बहु माला। गावहिं किन्नर गीत रसाला॥3॥

भावार्थ

ब्रह्मा आदि देवता, सिद्ध और मुनीश्वर लोग प्रभु की प्रशंसा कर रहे हैं और आशीर्वाद दे रहे हैं। वे रङ्ग-बिरङ्गे फूल और मालाएँ बरसा रहे हैं। किन्नर लोग रसीले गीत गा रहे हैं॥3॥

रही भुवन भरि जय जय बानी। धनुषभङ्ग धुनिजात न जानी॥
मुदित कहहिं जहँ तहँ नर नारी। भञ्जेउ राम सम्भुधनु भारी॥4॥

मूल

रही भुवन भरि जय जय बानी। धनुषभङ्ग धुनिजात न जानी॥
मुदित कहहिं जहँ तहँ नर नारी। भञ्जेउ राम सम्भुधनु भारी॥4॥

भावार्थ

सारे ब्रह्माण्ड में जय-जयकार की ध्वनि छा गई, जिसमें धनुष टूटने की ध्वनि जान ही नहीं पडती। जहाँ-तहाँ स्त्री-पुरुष प्रसन्न होकर कह रहे हैं कि श्री रामचन्द्रजी ने शिवजी के भारी धनुष को तोड डाला॥4॥

262

01 दोहा

बन्दी मागध सूतगन बिरुद बदहिं मतिधीर।
करहिं निछावरि लोग सब हय गय धन मनि चीर॥262॥

मूल

बन्दी मागध सूतगन बिरुद बदहिं मतिधीर।
करहिं निछावरि लोग सब हय गय धन मनि चीर॥262॥

भावार्थ

धीर बुद्धि वाले, भाट, मागध और सूत लोग विरुदावली (कीर्ति) का बखान कर रहे हैं। सब लोग घोडे, हाथी, धन, मणि और वस्त्र निछावर कर रहे हैं॥262॥

02 चौपाई

झाँझि मृदङ्ग सङ्ख सहनाई। भेरि ढोल दुन्दुभी सुहाई॥
बाजहिं बहु बाजने सुहाए। जहँ तहँ जुबतिन्ह मङ्गल गाए॥1॥

मूल

झाँझि मृदङ्ग सङ्ख सहनाई। भेरि ढोल दुन्दुभी सुहाई॥
बाजहिं बहु बाजने सुहाए। जहँ तहँ जुबतिन्ह मङ्गल गाए॥1॥

भावार्थ

झाँझ, मृदङ्ग, शङ्ख, शहनाई, भेरी, ढोल और सुहावने नगाडे आदि बहुत प्रकार के सुन्दर बाजे बज रहे हैं। जहाँ-तहाँ युवतियाँ मङ्गल गीत गा रही हैं॥1॥

सखिन्ह सहित हरषी अति रानी। सूखत धान परा जनु पानी॥
जनक लहेउ सुखु सोचु बिहाई। तैरत थकें थाह जनु पाई॥2॥

मूल

सखिन्ह सहित हरषी अति रानी। सूखत धान परा जनु पानी॥
जनक लहेउ सुखु सोचु बिहाई। तैरत थकें थाह जनु पाई॥2॥

भावार्थ

सखियों सहित रानी अत्यन्त हर्षित हुईं, मानो सूखते हुए धान पर पानी पड गया हो। जनकजी ने सोच त्याग कर सुख प्राप्त किया। मानो तैरते-तैरते थके हुए पुरुष ने थाह पा ली हो॥2॥

श्रीहत भए भूप धनु टूटे। जैसें दिवस दीप छबि छूटे॥
सीय सुखहि बरनिअ केहि भाँती। जनु चातकी पाइ जलु स्वाती॥3॥

मूल

श्रीहत भए भूप धनु टूटे। जैसें दिवस दीप छबि छूटे॥
सीय सुखहि बरनिअ केहि भाँती। जनु चातकी पाइ जलु स्वाती॥3॥

भावार्थ

धनुष टूट जाने पर राजा लोग ऐसे श्रीहीन (निस्तेज) हो गए, जैसे दिन में दीपक की शोभा जाती रहती है। सीताजी का सुख किस प्रकार वर्णन किया जाए, जैसे चातकी स्वाती का जल पा गई हो॥3॥

रामहि लखनु बिलोकत कैसें। ससिहि चकोर किसोरकु जैसें॥
सतानन्द तब आयसु दीन्हा। सीताँ गमनु राम पहिं कीन्हा॥4॥

मूल

रामहि लखनु बिलोकत कैसें। ससिहि चकोर किसोरकु जैसें॥
सतानन्द तब आयसु दीन्हा। सीताँ गमनु राम पहिं कीन्हा॥4॥

भावार्थ

श्री रामजी को लक्ष्मणजी किस प्रकार देख रहे हैं, जैसे चन्द्रमा को चकोर का बच्चा देख रहा हो। तब शतानन्दजी ने आज्ञा दी और सीताजी ने श्री रामजी के पास गमन किया॥4॥

263

01 दोहा

सङ्ग सखीं सुन्दर चतुर गावहिं मङ्गलचार।
गवनी बाल मराल गति सुषमा अङ्ग अपार॥263॥

मूल

सङ्ग सखीं सुन्दर चतुर गावहिं मङ्गलचार।
गवनी बाल मराल गति सुषमा अङ्ग अपार॥263॥

भावार्थ

साथ में सुन्दर चतुर सखियाँ मङ्गलाचार के गीत गा रही हैं, सीताजी बालहंसिनी की चाल से चलीं। उनके अङ्गों में अपार शोभा है॥263॥

02 चौपाई

सखिन्ह मध्य सिय सोहति कैसें। छबिगन मध्य महाछबि जैसें॥
कर सरोज जयमाल सुहाई। बिस्व बिजय सोभा जेहिं छाई॥1॥

मूल

सखिन्ह मध्य सिय सोहति कैसें। छबिगन मध्य महाछबि जैसें॥
कर सरोज जयमाल सुहाई। बिस्व बिजय सोभा जेहिं छाई॥1॥

भावार्थ

सखियों के बीच में सीताजी कैसी शोभित हो रही हैं, जैसे बहुत सी छवियों के बीच में महाछवि हो। करकमल में सुन्दर जयमाला है, जिसमें विश्व विजय की शोभा छाई हुई है॥1॥

तन सकोचु मन परम उछाहू। गूढ प्रेमु लखि परइ न काहू॥
जाइ समीप राम छबि देखी। रहि जनु कुअँरि चित्र अवरेखी॥2॥

मूल

तन सकोचु मन परम उछाहू। गूढ प्रेमु लखि परइ न काहू॥
जाइ समीप राम छबि देखी। रहि जनु कुअँरि चित्र अवरेखी॥2॥

भावार्थ

सीताजी के शरीर में सङ्कोच है, पर मन में परम उत्साह है। उनका यह गुप्त प्रेम किसी को जान नहीं पड रहा है। समीप जाकर, श्री रामजी की शोभा देखकर राजकुमारी सीताजी जैसे चित्र में लिखी सी रह गईं॥2॥

चतुर सखीं लखि कहा बुझाई। पहिरावहु जयमाल सुहाई॥
सुनत जुगल कर माल उठाई। प्रेम बिबस पहिराइ न जाई॥3॥

मूल

चतुर सखीं लखि कहा बुझाई। पहिरावहु जयमाल सुहाई॥
सुनत जुगल कर माल उठाई। प्रेम बिबस पहिराइ न जाई॥3॥

भावार्थ

चतुर सखी ने यह दशा देखकर समझाकर कहा- सुहावनी जयमाला पहनाओ। यह सुनकर सीताजी ने दोनों हाथों से माला उठाई, पर प्रेम में विवश होने से पहनाई नहीं जाती॥3॥

सोहत जनु जुग जलज सनाला। ससिहि सभीत देत जयमाला॥
गावहिं छबि अवलोकि सहेली। सियँ जयमाल राम उर मेली॥4॥

मूल

सोहत जनु जुग जलज सनाला। ससिहि सभीत देत जयमाला॥
गावहिं छबि अवलोकि सहेली। सियँ जयमाल राम उर मेली॥4॥

भावार्थ

(उस समय उनके हाथ ऐसे सुशोभित हो रहे हैं) मानो डण्डियों सहित दो कमल चन्द्रमा को डरते हुए जयमाला दे रहे हों। इस छवि को देखकर सखियाँ गाने लगीं। तब सीताजी ने श्री रामजी के गले में जयमाला पहना दी॥4॥

264

01 सोरठा

रघुबर उर जयमाल देखि देव बरिसहिं सुमन।
सकुचे सकल भुआल जनु बिलोकि रबि कुमुदगन॥264॥

मूल

रघुबर उर जयमाल देखि देव बरिसहिं सुमन।
सकुचे सकल भुआल जनु बिलोकि रबि कुमुदगन॥264॥

भावार्थ

श्री रघुनाथजी के हृदय पर जयमाला देखकर देवता फूल बरसाने लगे। समस्त राजागण इस प्रकार सकुचा गए मानो सूर्य को देखकर कुमुदों का समूह सिकुड गया हो॥264॥

02 चौपाई

पुर अरु ब्योम बाजने बाजे। खल भए मलिन साधु सब राजे॥
सुर किन्नर नर नाग मुनीसा। जय जय जय कहि देहिं असीसा॥1॥

मूल

पुर अरु ब्योम बाजने बाजे। खल भए मलिन साधु सब राजे॥
सुर किन्नर नर नाग मुनीसा। जय जय जय कहि देहिं असीसा॥1॥

भावार्थ

नगर और आकाश में बाजे बजने लगे। दुष्ट लोग उदास हो गए और सज्जन लोग सब प्रसन्न हो गए। देवता, किन्नर, मनुष्य, नाग और मुनीश्वर जय-जयकार करके आशीर्वाद दे रहे हैं॥1॥

नाचहिं गावहिं बिबुध बधूटीं। बार बार कुसुमाञ्जलि छूटीं॥
जहँ तहँ बिप्र बेदधुनि करहीं। बन्दी बिरिदावलि उच्चरहीं॥2॥

मूल

नाचहिं गावहिं बिबुध बधूटीं। बार बार कुसुमाञ्जलि छूटीं॥
जहँ तहँ बिप्र बेदधुनि करहीं। बन्दी बिरिदावलि उच्चरहीं॥2॥

भावार्थ

देवताओं की स्त्रियाँ नाचती-गाती हैं। बार-बार हाथों से पुष्पों की अञ्जलियाँ छूट रही हैं। जहाँ-तहाँ ब्रह्म वेदध्वनि कर रहे हैं और भाट लोग विरुदावली (कुलकीर्ति) बखान रहे हैं॥2॥

महिं पाताल नाक जसु ब्यापा। राम बरी सिय भञ्जेउ चापा॥
करहिं आरती पुर नर नारी। देहिं निछावरि बित्त बिसारी॥3॥

मूल

महिं पाताल नाक जसु ब्यापा। राम बरी सिय भञ्जेउ चापा॥
करहिं आरती पुर नर नारी। देहिं निछावरि बित्त बिसारी॥3॥

भावार्थ

पृथ्वी, पाताल और स्वर्ग तीनों लोकों में यश फैल गया कि श्री रामचन्द्रजी ने धनुष तोड दिया और सीताजी को वरण कर लिया। नगर के नर-नारी आरती कर रहे हैं और अपनी पूँजी (हैसियत) को भुलाकर (सामर्थ्य से बहुत अधिक) निछावर कर रहे हैं॥3॥

सोहति सीय राम कै जोरी। छबि सिङ्गारु मनहुँ एक ठोरी॥
सखीं कहहिं प्रभु पद गहु सीता। करति न चरन परस अति भीता॥4॥

मूल

सोहति सीय राम कै जोरी। छबि सिङ्गारु मनहुँ एक ठोरी॥
सखीं कहहिं प्रभु पद गहु सीता। करति न चरन परस अति भीता॥4॥

भावार्थ

श्री सीता-रामजी की जोडी ऐसी सुशोभित हो रही है मानो सुन्दरता और श्रृङ्गार रस एकत्र हो गए हों। सखियाँ कह रही हैं- सीते! स्वामी के चरण छुओ, किन्तु सीताजी अत्यन्त भयभीत हुई उनके चरण नहीं छूतीं॥4॥

265

01 दोहा

गौतम तिय गति सुरति करि नहिं परसति पग पानि।
मन बिहसे रघुबंसमनि प्रीति अलौकिक जानि॥265॥

मूल

गौतम तिय गति सुरति करि नहिं परसति पग पानि।
मन बिहसे रघुबंसमनि प्रीति अलौकिक जानि॥265॥

भावार्थ

गौतमजी की स्त्री अहल्या की गति का स्मरण करके सीताजी श्री रामजी के चरणों को हाथों से स्पर्श नहीं कर रही हैं। सीताजी की अलौकिक प्रीति जानकर रघुकुल मणि श्री रामचन्द्रजी मन में हँसे॥265॥

02 चौपाई

तब सिय देखि भूप अभिलाषे। कूर कपूत मूढ मन माखे॥
उठि उठि पहिरि सनाह अभागे। जहँ तहँ गाल बजावन लागे॥1॥

मूल

तब सिय देखि भूप अभिलाषे। कूर कपूत मूढ मन माखे॥
उठि उठि पहिरि सनाह अभागे। जहँ तहँ गाल बजावन लागे॥1॥

भावार्थ

उस समय सीताजी को देखकर कुछ राजा लोग ललचा उठे। वे दुष्ट, कुपूत और मूढ राजा मन में बहुत तमतमाए। वे अभागे उठ-उठकर, कवच पहनकर, जहाँ-तहाँ गाल बजाने लगे॥1॥

लेहु छडाइ सीय कह कोऊ। धरि बाँधहु नृप बालक दोऊ॥
तोरें धनुषु चाड नहिं सरई। जीवत हमहि कुअँरि को बरई॥2॥

मूल

लेहु छडाइ सीय कह कोऊ। धरि बाँधहु नृप बालक दोऊ॥
तोरें धनुषु चाड नहिं सरई। जीवत हमहि कुअँरि को बरई॥2॥

भावार्थ

कोई कहते हैं, सीता को छीन लो और दोनों राजकुमारों को पकडकर बाँध लो। धनुष तोडने से ही चाह नहीं सरेगी (पूरी होगी)। हमारे जीते-जी राजकुमारी को कौन ब्याह सकता है?॥2॥

जौं बिदेहु कछु करै सहाई। जीतहु समर सहित दोउ भाई॥
साधु भूप बोले सुनि बानी। राजसमाजहि लाज लजानी॥3॥

मूल

जौं बिदेहु कछु करै सहाई। जीतहु समर सहित दोउ भाई॥
साधु भूप बोले सुनि बानी। राजसमाजहि लाज लजानी॥3॥

भावार्थ

यदि जनक कुछ सहायता करें, तो युद्ध में दोनों भाइयों सहित उसे भी जीत लो। ये वचन सुनकर साधु राजा बोले- इस (निर्लज्ज) राज समाज को देखकर तो लाज भी लजा गई॥3॥

बलु प्रतापु बीरता बडाई। नाक पिनाकहि सङ्ग सिधाई॥
सोइ सूरता कि अब कहुँ पाई। असि बुधि तौ बिधि मुँह मसि लाई॥4॥

मूल

बलु प्रतापु बीरता बडाई। नाक पिनाकहि सङ्ग सिधाई॥
सोइ सूरता कि अब कहुँ पाई। असि बुधि तौ बिधि मुँह मसि लाई॥4॥

भावार्थ

अरे! तुम्हारा बल, प्रताप, वीरता, बडाई और नाक (प्रतिष्ठा) तो धनुष के साथ ही चली गई। वही वीरता थी कि अब कहीं से मिली है? ऐसी दुष्ट बुद्धि है, तभी तो विधाता ने तुम्हारे मुखों पर कालिख लगा दी॥4॥

266

01 दोहा

देखहु रामहि नयन भरि तजि इरिषा मदु कोहु॥
लखन रोषु पावकु प्रबल जानि सलभ जनि होहु॥266॥

मूल

देखहु रामहि नयन भरि तजि इरिषा मदु कोहु॥
लखन रोषु पावकु प्रबल जानि सलभ जनि होहु॥266॥

भावार्थ

ईर्षा, घमण्ड और क्रोध छोडकर नेत्र भरकर श्री रामजी (की छबि) को देख लो। लक्ष्मण के क्रोध को प्रबल अग्नि जानकर उसमें पतङ्गे मत बनो॥266॥

02 चौपाई

बैनतेय बलि जिमि चह कागू। जिमि ससु चहै नाग अरि भागू॥
जिमि चह कुसल अकारन कोही। सब सम्पदा चहै सिवद्रोही॥1॥

मूल

बैनतेय बलि जिमि चह कागू। जिमि ससु चहै नाग अरि भागू॥
जिमि चह कुसल अकारन कोही। सब सम्पदा चहै सिवद्रोही॥1॥

भावार्थ

जैसे गरुड का भाग कौआ चाहे, सिंह का भाग खरगोश चाहे, बिना कारण ही क्रोध करने वाला अपनी कुशल चाहे, शिवजी से विरोध करने वाला सब प्रकार की सम्पत्ति चाहे,॥1॥

लोभी लोलुप कल कीरति चहई। अकलङ्कता कि कामी लहई॥
हरि पद बिमुख परम गति चाहा। तस तुम्हार लालचु नरनाहा॥2॥

मूल

लोभी लोलुप कल कीरति चहई। अकलङ्कता कि कामी लहई॥
हरि पद बिमुख परम गति चाहा। तस तुम्हार लालचु नरनाहा॥2॥

भावार्थ

लोभी-लालची सुन्दर कीर्ति चाहे, कामी मनुष्य निष्कलङ्कता (चाहे तो) क्या पा सकता है? और जैसे श्री हरि के चरणों से विमुख मनुष्य परमगति (मोक्ष) चाहे, हे राजाओं! सीता के लिए तुम्हारा लालच भी वैसा ही व्यर्थ है॥2॥

कोलाहलु सुनि सीय सकानी। सखीं लवाइ गईं जहँ रानी॥
रामु सुभायँ चले गुरु पाहीं। सिय सनेहु बरनत मन माहीं॥3॥

मूल

कोलाहलु सुनि सीय सकानी। सखीं लवाइ गईं जहँ रानी॥
रामु सुभायँ चले गुरु पाहीं। सिय सनेहु बरनत मन माहीं॥3॥

भावार्थ

कोलाहल सुनकर सीताजी शङ्कित हो गईं। तब सखियाँ उन्हें वहाँ ले गईं, जहाँ रानी (सीताजी की माता) थीं। श्री रामचन्द्रजी मन में सीताजी के प्रेम का बखान करते हुए स्वाभाविक चाल से गुरुजी के पास चले॥3॥

रानिन्ह सहित सोच बस सीया। अब धौं बिधिहि काह करनीया॥
भूप बचन सुनि इत उत तकहीं। लखनु राम डर बोलि न सकहीं॥4॥

मूल

रानिन्ह सहित सोच बस सीया। अब धौं बिधिहि काह करनीया॥
भूप बचन सुनि इत उत तकहीं। लखनु राम डर बोलि न सकहीं॥4॥

भावार्थ

रानियों सहित सीताजी (दुष्ट राजाओं के दुर्वचन सुनकर) सोच के वश हैं कि न जाने विधाता अब क्या करने वाले हैं। राजाओं के वचन सुनकर लक्ष्मणजी इधर-उधर ताकते हैं, किन्तु श्री रामचन्द्रजी के डर से कुछ बोल नहीं सकते॥4॥

267

01 दोहा

अरुन नयन भृकुटी कुटिल चितवत नृपन्ह सकोप।
मनहुँ मत्त गजगन निरखि सिङ्घकिसोरहि चोप॥267॥

मूल

अरुन नयन भृकुटी कुटिल चितवत नृपन्ह सकोप।
मनहुँ मत्त गजगन निरखि सिङ्घकिसोरहि चोप॥267॥

भावार्थ

उनके नेत्र लाल और भौंहें टेढी हो गईं और वे क्रोध से राजाओं की ओर देखने लगे, मानो मतवाले हाथियों का झुण्ड देखकर सिंह के बच्चे को जोश आ गया हो॥267॥

02 चौपाई

खरभरु देखि बिकल पुर नारीं। सब मिलि देहिं महीपन्ह गारीं॥
तेहिं अवसर सुनि सिवधनु भङ्गा। आयउ भृगुकुल कमल पतङ्गा॥1॥

मूल

खरभरु देखि बिकल पुर नारीं। सब मिलि देहिं महीपन्ह गारीं॥
तेहिं अवसर सुनि सिवधनु भङ्गा। आयउ भृगुकुल कमल पतङ्गा॥1॥

भावार्थ

खलबली देखकर जनकपुरी की स्त्रियाँ व्याकुल हो गईं और सब मिलकर राजाओं को गालियाँ देने लगीं। उसी मौके पर शिवजी के धनुष का टूटना सुनकर भृगुकुल रूपी कमल के सूर्य परशुरामजी आए॥1॥

देखि महीप सकल सकुचाने। बाज झपट जनु लवा लुकाने॥
गौरि सरीर भूति भल भ्राजा। भाल बिसाल त्रिपुण्ड बिराजा॥2॥

मूल

देखि महीप सकल सकुचाने। बाज झपट जनु लवा लुकाने॥
गौरि सरीर भूति भल भ्राजा। भाल बिसाल त्रिपुण्ड बिराजा॥2॥

भावार्थ

इन्हें देखकर सब राजा सकुचा गए, मानो बाज के झपटने पर बटेर लुक (छिप) गए हों। गोरे शरीर पर विभूति (भस्म) बडी फब रही है और विशाल ललाट पर त्रिपुण्ड्र विशेष शोभा दे रहा है॥2॥

सीस जटा ससिबदनु सुहावा। रिस बस कछुक अरुन होइ आवा॥
भृकुटी कुटिल नयन रिस राते। सहजहुँ चितवत मनहुँ रिसाते॥3॥

मूल

सीस जटा ससिबदनु सुहावा। रिस बस कछुक अरुन होइ आवा॥
भृकुटी कुटिल नयन रिस राते। सहजहुँ चितवत मनहुँ रिसाते॥3॥

भावार्थ

सिर पर जटा है, सुन्दर मुखचन्द्र क्रोध के कारण कुछ लाल हो आया है। भौंहें टेढी और आँखें क्रोध से लाल हैं। सहज ही देखते हैं, तो भी ऐसा जान पडता है मानो क्रोध कर रहे हैं॥3॥

बृषभ कन्ध उर बाहु बिसाला। चारु जनेउ माल मृगछाला॥
कटि मुनिबसन तून दुइ बाँधें। धनु सर कर कुठारु कल काँधें॥4॥

मूल

बृषभ कन्ध उर बाहु बिसाला। चारु जनेउ माल मृगछाला॥
कटि मुनिबसन तून दुइ बाँधें। धनु सर कर कुठारु कल काँधें॥4॥

भावार्थ

बैल के समान (ऊँचे और पुष्ट) कन्धे हैं, छाती और भुजाएँ विशाल हैं। सुन्दर यज्ञोपवीत धारण किए, माला पहने और मृगचर्म लिए हैं। कमर में मुनियों का वस्त्र (वल्कल) और दो तरकस बाँधे हैं। हाथ में धनुष-बाण और सुन्दर कन्धे पर फरसा धारण किए हैं॥4॥

268

01 दोहा

सान्त बेषु करनी कठिन बरनि न जाइ सरूप।
धरि मुनितनु जनु बीर रसु आयउ जहँ सब भूप॥268॥

मूल

सान्त बेषु करनी कठिन बरनि न जाइ सरूप।
धरि मुनितनु जनु बीर रसु आयउ जहँ सब भूप॥268॥

भावार्थ

शान्त वेष है, परन्तु करनी बहुत कठोर हैं, स्वरूप का वर्णन नहीं किया जा सकता। मानो वीर रस ही मुनि का शरीर धारण करके, जहाँ सब राजा लोग हैं, वहाँ आ गया हो॥268॥

02 चौपाई

देखत भृगुपति बेषु कराला। उठे सकल भय बिकल भुआला॥
पितु समेत कहि कहि निज नामा। लगे करन सब दण्ड प्रनामा॥1॥

मूल

देखत भृगुपति बेषु कराला। उठे सकल भय बिकल भुआला॥
पितु समेत कहि कहि निज नामा। लगे करन सब दण्ड प्रनामा॥1॥

भावार्थ

परशुरामजी का भयानक वेष देखकर सब राजा भय से व्याकुल हो उठ खडे हुए और पिता सहित अपना नाम कह-कहकर सब दण्डवत प्रणाम करने लगे॥1॥

जेहि सुभायँ चितवहिं हितु जानी। सो जानइ जनु आइ खुटानी॥
जनक बहोरि आइ सिरु नावा। सीय बोलाइ प्रनामु करावा॥2॥

मूल

जेहि सुभायँ चितवहिं हितु जानी। सो जानइ जनु आइ खुटानी॥
जनक बहोरि आइ सिरु नावा। सीय बोलाइ प्रनामु करावा॥2॥

भावार्थ

परशुरामजी हित समझकर भी सहज ही जिसकी ओर देख लेते हैं, वह समझता है मानो मेरी आयु पूरी हो गई। फिर जनकजी ने आकर सिर नवाया और सीताजी को बुलाकर प्रणाम कराया॥2॥

आसिष दीन्हि सखीं हरषानीं। निज समाज लै गईं सयानीं॥
बिस्वामित्रु मिले पुनि आई। पद सरोज मेले दोउ भाई॥3॥

मूल

आसिष दीन्हि सखीं हरषानीं। निज समाज लै गईं सयानीं॥
बिस्वामित्रु मिले पुनि आई। पद सरोज मेले दोउ भाई॥3॥

भावार्थ

परशुरामजी ने सीताजी को आशीर्वाद दिया। सखियाँ हर्षित हुईं और (वहाँ अब अधिक देर ठहरना ठीक न समझकर) वे सयानी सखियाँ उनको अपनी मण्डली में ले गईं। फिर विश्वामित्रजी आकर मिले और उन्होन्ने दोनों भाइयों को उनके चरण कमलों पर गिराया॥3॥

रामु लखनु दसरथ के ढोटा। दीन्हि असीस देखि भल जोटा॥
रामहि चितइ रहे थकि लोचन। रूप अपार मार मद मोचन॥4॥

मूल

रामु लखनु दसरथ के ढोटा। दीन्हि असीस देखि भल जोटा॥
रामहि चितइ रहे थकि लोचन। रूप अपार मार मद मोचन॥4॥

भावार्थ

(विश्वामित्रजी ने कहा-) ये राम और लक्ष्मण राजा दशरथ के पुत्र हैं। उनकी सुन्दर जोडी देखकर परशुरामजी ने आशीर्वाद दिया। कामदेव के भी मद को छुडाने वाले श्री रामचन्द्रजी के अपार रूप को देखकर उनके नेत्र थकित (स्तम्भित) हो रहे॥4॥

269

01 दोहा

बहुरि बिलोकि बिदेह सन कहहु काह अति भीर।
पूँछत जानि अजान जिमि ब्यापेउ कोपु सरीर॥269॥

मूल

बहुरि बिलोकि बिदेह सन कहहु काह अति भीर।
पूँछत जानि अजान जिमि ब्यापेउ कोपु सरीर॥269॥

भावार्थ

फिर सब देखकर, जानते हुए भी अनजान की तरह जनकजी से पूछते हैं कि कहो, यह बडी भारी भीड कैसी है? उनके शरीर में क्रोध छा गया॥269॥

02 चौपाई

समाचार कहि जनक सुनाए। जेहि कारन महीप सब आए॥
सुनत बचन फिरि अनत निहारे। देखे चापखण्ड महि डारे॥1॥

मूल

समाचार कहि जनक सुनाए। जेहि कारन महीप सब आए॥
सुनत बचन फिरि अनत निहारे। देखे चापखण्ड महि डारे॥1॥

भावार्थ

जिस कारण सब राजा आए थे, राजा जनक ने वे सब समाचार कह सुनाए। जनक के वचन सुनकर परशुरामजी ने फिरकर दूसरी ओर देखा तो धनुष के टुकडे पृथ्वी पर पडे हुए दिखाई दिए॥1॥

अति रिस बोले बचन कठोरा। कहु जड जनक धनुष कै तोरा॥
बेगि देखाउ मूढ न त आजू। उलटउँ महि जहँ लहि तव राजू॥2॥

मूल

अति रिस बोले बचन कठोरा। कहु जड जनक धनुष कै तोरा॥
बेगि देखाउ मूढ न त आजू। उलटउँ महि जहँ लहि तव राजू॥2॥

भावार्थ

अत्यन्त क्रोध में भरकर वे कठोर वचन बोले- रे मूर्ख जनक! बता, धनुष किसने तोडा? उसे शीघ्र दिखा, नहीं तो अरे मूढ! आज मैं जहाँ तक तेरा राज्य है, वहाँ तक की पृथ्वी उलट दूँगा॥2॥

अति डरु उतरु देत नृपु नाहीं। कुटिल भूप हरषे मन माहीं॥
सुर मुनि नाग नगर नर नारी। सोचहिं सकल त्रास उर भारी॥3॥

मूल

अति डरु उतरु देत नृपु नाहीं। कुटिल भूप हरषे मन माहीं॥
सुर मुनि नाग नगर नर नारी। सोचहिं सकल त्रास उर भारी॥3॥

भावार्थ

राजा को अत्यन्त डर लगा, जिसके कारण वे उत्तर नहीं देते। यह देखकर कुटिल राजा मन में बडे प्रसन्न हुए। देवता, मुनि, नाग और नगर के स्त्री-पुरुष सभी सोच करने लगे, सबके हृदय में बडा भय है॥3॥

मन पछिताति सीय महतारी। बिधि अब सँवरी बात बिगारी॥
भृगुपति कर सुभाउ सुनि सीता। अरध निमेष कलप सम बीता॥4॥

मूल

मन पछिताति सीय महतारी। बिधि अब सँवरी बात बिगारी॥
भृगुपति कर सुभाउ सुनि सीता। अरध निमेष कलप सम बीता॥4॥

भावार्थ

सीताजी की माता मन में पछता रही हैं कि हाय! विधाता ने अब बनी-बनाई बात बिगाड दी। परशुरामजी का स्वभाव सुनकर सीताजी को आधा क्षण भी कल्प के समान बीतते लगा॥4॥

270

01 दोहा

सभय बिलोके लोग सब जानि जानकी भीरु।
हृदयँ न हरषु बिषादु कछु बोले श्रीरघुबीरु॥270॥

मूल

सभय बिलोके लोग सब जानि जानकी भीरु।
हृदयँ न हरषु बिषादु कछु बोले श्रीरघुबीरु॥270॥

भावार्थ

तब श्री रामचन्द्रजी सब लोगों को भयभीत देखकर और सीताजी को डरी हुई जानकर बोले- उनके हृदय में न कुछ हर्ष था न विषाद-॥270॥

मासपारायण नौवाँ विश्राम

02 चौपाई

नाथ सम्भुधनु भञ्जनिहारा। होइहि केउ एक दास तुम्हारा॥
आयसु काह कहिअ किन मोही। सुनि रिसाइ बोले मुनि कोही॥1॥

मूल

नाथ सम्भुधनु भञ्जनिहारा। होइहि केउ एक दास तुम्हारा॥
आयसु काह कहिअ किन मोही। सुनि रिसाइ बोले मुनि कोही॥1॥

भावार्थ

हे नाथ! शिवजी के धनुष को तोडने वाला आपका कोई एक दास ही होगा। क्या आज्ञा है, मुझसे क्यों नहीं कहते? यह सुनकर क्रोधी मुनि रिसाकर बोले-॥1॥

सेवकु सो जो करै सेवकाई। अरि करनी करि करिअ लराई॥
सुनहु राम जेहिं सिवधनु तोरा। सहसबाहु सम सो रिपु मोरा॥2॥

मूल

सेवकु सो जो करै सेवकाई। अरि करनी करि करिअ लराई॥
सुनहु राम जेहिं सिवधनु तोरा। सहसबाहु सम सो रिपु मोरा॥2॥

भावार्थ

सेवक वह है जो सेवा का काम करे। शत्रु का काम करके तो लडाई ही करनी चाहिए। हे राम! सुनो, जिसने शिवजी के धनुष को तोडा है, वह सहस्रबाहु के समान मेरा शत्रु है॥2॥

सो बिलगाउ बिहाइ समाजा। न त मारे जैहहिं सब राजा॥
सुनि मुनि बचन लखन मुसुकाने। बोले परसुधरहि अपमाने॥3॥

मूल

सो बिलगाउ बिहाइ समाजा। न त मारे जैहहिं सब राजा॥
सुनि मुनि बचन लखन मुसुकाने। बोले परसुधरहि अपमाने॥3॥

भावार्थ

वह इस समाज को छोडकर अलग हो जाए, नहीं तो सभी राजा मारे जाएँगे। मुनि के वचन सुनकर लक्ष्मणजी मुस्कुराए और परशुरामजी का अपमान करते हुए बोले-॥3॥

बहु धनुहीं तोरीं लरिकाईं। कबहुँ न असि रिस कीन्हि गोसाईं॥
एहि धनु पर ममता केहि हेतू। सुनि रिसाइ कह भृगुकुलकेतू॥4॥

मूल

बहु धनुहीं तोरीं लरिकाईं। कबहुँ न असि रिस कीन्हि गोसाईं॥
एहि धनु पर ममता केहि हेतू। सुनि रिसाइ कह भृगुकुलकेतू॥4॥

भावार्थ

हे गोसाईं! लडकपन में हमने बहुत सी धनुहियाँ तोड डालीं, किन्तु आपने ऐसा क्रोध कभी नहीं किया। इसी धनुष पर इतनी ममता किस कारण से है? यह सुनकर भृगुवंश की ध्वजा स्वरूप परशुरामजी कुपित होकर कहने लगे॥4॥

271

01 दोहा

रे नृप बालक काल बस बोलत तोहि न सँभार।
धनुही सम तिपुरारि धनु बिदित सकल संसार॥271॥

मूल

रे नृप बालक काल बस बोलत तोहि न सँभार।
धनुही सम तिपुरारि धनु बिदित सकल संसार॥271॥

भावार्थ

अरे राजपुत्र! काल के वश होने से तुझे बोलने में कुछ भी होश नहीं है। सारे संसार में विख्यात शिवजी का यह धनुष क्या धनुही के समान है?॥271॥

02 चौपाई

लखन कहा हँसि हमरें जाना। सुनहु देव सब धनुष समाना॥
का छति लाभु जून धनु तोरें। देखा राम नयन के भोरें॥1॥

मूल

लखन कहा हँसि हमरें जाना। सुनहु देव सब धनुष समाना॥
का छति लाभु जून धनु तोरें। देखा राम नयन के भोरें॥1॥

भावार्थ

लक्ष्मणजी ने हँसकर कहा- हे देव! सुनिए, हमारे जान में तो सभी धनुष एक से ही हैं। पुराने धनुष के तोडने में क्या हानि-लाभ! श्री रामचन्द्रजी ने तो इसे नवीन के धोखे से देखा था॥1॥

छुअत टूट रघुपतिहु न दोसू। मुनि बिनु काज करिअ कत रोसू॥
बोले चितइ परसु की ओरा। रे सठ सुनेहि सुभाउ न मोरा॥2॥

मूल

छुअत टूट रघुपतिहु न दोसू। मुनि बिनु काज करिअ कत रोसू॥
बोले चितइ परसु की ओरा। रे सठ सुनेहि सुभाउ न मोरा॥2॥

भावार्थ

फिर यह तो छूते ही टूट गया, इसमें रघुनाथजी का भी कोई दोष नहीं है। मुनि! आप बिना ही कारण किसलिए क्रोध करते हैं? परशुरामजी अपने फरसे की ओर देखकर बोले- अरे दुष्ट! तूने मेरा स्वभाव नहीं सुना॥2॥

बालकु बोलि बधउँ नहिं तोही। केवल मुनि जड जानहि मोही॥
बाल ब्रह्मचारी अति कोही। बिस्व बिदित छत्रियकुल द्रोही॥3॥

मूल

बालकु बोलि बधउँ नहिं तोही। केवल मुनि जड जानहि मोही॥
बाल ब्रह्मचारी अति कोही। बिस्व बिदित छत्रियकुल द्रोही॥3॥

भावार्थ

मैं तुझे बालक जानकर नहीं मारता हूँ। अरे मूर्ख! क्या तू मुझे निरा मुनि ही जानता है। मैं बालब्रह्मचारी और अत्यन्त क्रोधी हूँ। क्षत्रियकुल का शत्रु तो विश्वभर में विख्यात हूँ॥3॥

भुजबल भूमि भूप बिनु कीन्ही। बिपुल बार महिदेवन्ह दीन्ही॥
सहसबाहु भुज छेदनिहारा। परसु बिलोकु महीपकुमारा॥4॥

मूल

भुजबल भूमि भूप बिनु कीन्ही। बिपुल बार महिदेवन्ह दीन्ही॥
सहसबाहु भुज छेदनिहारा। परसु बिलोकु महीपकुमारा॥4॥

भावार्थ

अपनी भुजाओं के बल से मैन्ने पृथ्वी को राजाओं से रहित कर दिया और बहुत बार उसे ब्राह्मणों को दे डाला। हे राजकुमार! सहस्रबाहु की भुजाओं को काटने वाले मेरे इस फरसे को देख!॥4॥

272

01 दोहा

मातु पितहि जनि सोचबस करसि महीसकिसोर।
गर्भन्ह के अर्भक दलन परसु मोर अति घोर॥272॥

मूल

मातु पितहि जनि सोचबस करसि महीसकिसोर।
गर्भन्ह के अर्भक दलन परसु मोर अति घोर॥272॥

भावार्थ

अरे राजा के बालक! तू अपने माता-पिता को सोच के वश न कर। मेरा फरसा बडा भयानक है, यह गर्भों के बच्चों का भी नाश करने वाला है॥272॥

02 चौपाई

बिहसि लखनु बोले मृदु बानी। अहो मुनीसु महा भटमानी॥
पुनि पुनि मोहि देखाव कुठारू। चहत उडावन फूँकि पहारू॥1॥

मूल

बिहसि लखनु बोले मृदु बानी। अहो मुनीसु महा भटमानी॥
पुनि पुनि मोहि देखाव कुठारू। चहत उडावन फूँकि पहारू॥1॥

भावार्थ

लक्ष्मणजी हँसकर कोमल वाणी से बोले- अहो, मुनीश्वर तो अपने को बडा भारी योद्धा समझते हैं। बार-बार मुझे कुल्हाडी दिखाते हैं। फूँक से पहाड उडाना चाहते हैं॥1॥

इहाँ कुम्हडबतिया कोउ नाहीं। जे तरजनी देखि मरि जाहीं॥
देखि कुठारु सरासन बाना। मैं कछु कहा सहित अभिमाना॥2॥

मूल

इहाँ कुम्हडबतिया कोउ नाहीं। जे तरजनी देखि मरि जाहीं॥
देखि कुठारु सरासन बाना। मैं कछु कहा सहित अभिमाना॥2॥

भावार्थ

यहाँ कोई कुम्हडे की बतिया (छोटा कच्चा फल) नहीं है, जो तर्जनी (सबसे आगे की) अँगुली को देखते ही मर जाती हैं। कुठार और धनुष-बाण देखकर ही मैन्ने कुछ अभिमान सहित कहा था॥2॥

भृगुसुत समुझि जनेउ बिलोकी। जो कछु कहहु सहउँ रिस रोकी॥
सुर महिसुर हरिजन अरु गाई। हमरें कुल इन्ह पर न सुराई॥3॥

मूल

भृगुसुत समुझि जनेउ बिलोकी। जो कछु कहहु सहउँ रिस रोकी॥
सुर महिसुर हरिजन अरु गाई। हमरें कुल इन्ह पर न सुराई॥3॥

भावार्थ

भृगुवंशी समझकर और यज्ञोपवीत देखकर तो जो कुछ आप कहते हैं, उसे मैं क्रोध को रोककर सह लेता हूँ। देवता, ब्राह्मण, भगवान के भक्त और गो- इन पर हमारे कुल में वीरता नहीं दिखाई जाती॥3॥

बधें पापु अपकीरति हारें। मारतहूँ पा परिअ तुम्हारें॥
कोटि कुलिस सम बचनु तुम्हारा। ब्यर्थ धरहु धनु बान कुठारा॥4॥

मूल

बधें पापु अपकीरति हारें। मारतहूँ पा परिअ तुम्हारें॥
कोटि कुलिस सम बचनु तुम्हारा। ब्यर्थ धरहु धनु बान कुठारा॥4॥

भावार्थ

क्योङ्कि इन्हें मारने से पाप लगता है और इनसे हार जाने पर अपकीर्ति होती है, इसलिए आप मारें तो भी आपके पैर ही पडना चाहिए। आपका एक-एक वचन ही करोडों वज्रों के समान है। धनुष-बाण और कुठार तो आप व्यर्थ ही धारण करते हैं॥4॥

273

01 दोहा

जो बिलोकि अनुचित कहेउँ छमहु महामुनि धीर।
सुनि सरोष भृगुबंसमनि बोले गिरा गभीर॥273॥

मूल

जो बिलोकि अनुचित कहेउँ छमहु महामुनि धीर।
सुनि सरोष भृगुबंसमनि बोले गिरा गभीर॥273॥

भावार्थ

इन्हें (धनुष-बाण और कुठार को) देखकर मैन्ने कुछ अनुचित कहा हो, तो उसे हे धीर महामुनि! क्षमा कीजिए। यह सुनकर भृगुवंशमणि परशुरामजी क्रोध के साथ गम्भीर वाणी बोले-॥273॥

02 चौपाई

कौसिक सुनहु मन्द यहु बालकु। कुटिल कालबस निज कुल घालकु॥
भानु बंस राकेस कलङ्कू। निपट निरङ्कुस अबुध असङ्कू॥1॥

मूल

कौसिक सुनहु मन्द यहु बालकु। कुटिल कालबस निज कुल घालकु॥
भानु बंस राकेस कलङ्कू। निपट निरङ्कुस अबुध असङ्कू॥1॥

भावार्थ

हे विश्वामित्र! सुनो, यह बालक बडा कुबुद्धि और कुटिल है, काल के वश होकर यह अपने कुल का घातक बन रहा है। यह सूर्यवंश रूपी पूर्ण चन्द्र का कलङ्क है। यह बिल्कुल उद्दण्ड, मूर्ख और निडर है॥1॥

काल कवलु होइहि छन माहीं। कहउँ पुकारि खोरि मोहि नाहीं॥
तुम्ह हटकहु जौं चहहु उबारा। कहि प्रतापु बलु रोषु हमारा॥2॥

मूल

काल कवलु होइहि छन माहीं। कहउँ पुकारि खोरि मोहि नाहीं॥
तुम्ह हटकहु जौं चहहु उबारा। कहि प्रतापु बलु रोषु हमारा॥2॥

भावार्थ

अभी क्षण भर में यह काल का ग्रास हो जाएगा। मैं पुकारकर कहे देता हूँ, फिर मुझे दोष नहीं है। यदि तुम इसे बचाना चाहते हो, तो हमारा प्रताप, बल और क्रोध बतलाकर इसे मना कर दो॥2॥

लखन कहेउ मुनि सुजसु तुम्हारा। तुम्हहि अछत को बरनै पारा॥
अपने मुँह तुम्ह आपनि करनी। बार अनेक भाँति बहु बरनी॥3॥

मूल

लखन कहेउ मुनि सुजसु तुम्हारा। तुम्हहि अछत को बरनै पारा॥
अपने मुँह तुम्ह आपनि करनी। बार अनेक भाँति बहु बरनी॥3॥

भावार्थ

लक्ष्मणजी ने कहा- हे मुनि! आपका सुयश आपके रहते दूसरा कौन वर्णन कर सकता है? आपने अपने ही मुँह से अपनी करनी अनेकों बार बहुत प्रकार से वर्णन की है॥3॥

नहिं सन्तोषु त पुनि कछु कहहू। जनि रिस रोकि दुसह दुख सहहू॥
बीरब्रती तुम्ह धीर अछोभा। गारी देत न पावहु सोभा॥4॥

मूल

नहिं सन्तोषु त पुनि कछु कहहू। जनि रिस रोकि दुसह दुख सहहू॥
बीरब्रती तुम्ह धीर अछोभा। गारी देत न पावहु सोभा॥4॥

भावार्थ

इतने पर भी सन्तोष न हुआ हो तो फिर कुछ कह डालिए। क्रोध रोककर असह्य दुःख मत सहिए। आप वीरता का व्रत धारण करने वाले, धैर्यवान और क्षोभरहित हैं। गाली देते शोभा नहीं पाते॥4॥

274

01 दोहा

सूर समर करनी करहिं कहि न जनावहिं आपु।
बिद्यमान रन पाइ रिपु कायर कथहिं प्रतापु॥274॥

मूल

सूर समर करनी करहिं कहि न जनावहिं आपु।
बिद्यमान रन पाइ रिपु कायर कथहिं प्रतापु॥274॥

भावार्थ

शूरवीर तो युद्ध में करनी (शूरवीरता का कार्य) करते हैं, कहकर अपने को नहीं जनाते। शत्रु को युद्ध में उपस्थित पाकर कायर ही अपने प्रताप की डीङ्ग मारा करते हैं॥274॥

02 चौपाई

तुम्ह तौ कालु हाँक जनु लावा। बार बार मोहि लागि बोलावा॥
सुनत लखन के बचन कठोरा। परसु सुधारि धरेउ कर घोरा॥1॥

मूल

तुम्ह तौ कालु हाँक जनु लावा। बार बार मोहि लागि बोलावा॥
सुनत लखन के बचन कठोरा। परसु सुधारि धरेउ कर घोरा॥1॥

भावार्थ

आप तो मानो काल को हाँक लगाकर बार-बार उसे मेरे लिए बुलाते हैं। लक्ष्मणजी के कठोर वचन सुनते ही परशुरामजी ने अपने भयानक फरसे को सुधारकर हाथ में ले लिया॥1॥

अब जनि देइ दोसु मोहि लोगू। कटुबादी बालकु बधजोगू॥
बाल बिलोकि बहुत मैं बाँचा। अब यहु मरनिहार भा साँचा॥2॥

मूल

अब जनि देइ दोसु मोहि लोगू। कटुबादी बालकु बधजोगू॥
बाल बिलोकि बहुत मैं बाँचा। अब यहु मरनिहार भा साँचा॥2॥

भावार्थ

(और बोले-) अब लोग मुझे दोष न दें। यह कडुआ बोलने वाला बालक मारे जाने के ही योग्य है। इसे बालक देखकर मैन्ने बहुत बचाया, पर अब यह सचमुच मरने को ही आ गया है॥2॥

कौसिक कहा छमिअ अपराधू। बाल दोष गुन गनहिं न साधू॥
खर कुठार मैं अकरुन कोही। आगें अपराधी गुरुद्रोही॥3॥

मूल

कौसिक कहा छमिअ अपराधू। बाल दोष गुन गनहिं न साधू॥
खर कुठार मैं अकरुन कोही। आगें अपराधी गुरुद्रोही॥3॥

भावार्थ

विश्वामित्रजी ने कहा- अपराध क्षमा कीजिए। बालकों के दोष और गुण को साधु लोग नहीं गिनते। (परशुरामजी बोले-) तीखी धार का कुठार, मैं दयारहित और क्रोधी और यह गुरुद्रोही और अपराधी मेरे सामने-॥3॥

उतर देत छोडउँ बिनु मारें। केवल कौसिक सील तुम्हारें॥
न त एहि काटि कुठार कठोरें। गुरहि उरिन होतेउँ श्रम थोरें॥4॥

मूल

उतर देत छोडउँ बिनु मारें। केवल कौसिक सील तुम्हारें॥
न त एहि काटि कुठार कठोरें। गुरहि उरिन होतेउँ श्रम थोरें॥4॥

भावार्थ

उत्तर दे रहा है। इतने पर भी मैं इसे बिना मारे छोड रहा हूँ, सो हे विश्वामित्र! केवल तुम्हारे शील (प्रेम) से। नहीं तो इसे इस कठोर कुठार से काटकर थोडे ही परिश्रम से गुरु से उऋण हो जाता॥4॥

275

01 दोहा

गाधिसूनु कह हृदयँ हँसि मुनिहि हरिअरइ सूझ।
अयमय खाँड न ऊखमय अजहुँ न बूझ अबूझ॥275॥

मूल

गाधिसूनु कह हृदयँ हँसि मुनिहि हरिअरइ सूझ।
अयमय खाँड न ऊखमय अजहुँ न बूझ अबूझ॥275॥

भावार्थ

विश्वामित्रजी ने हृदय में हँसकर कहा- मुनि को हरा ही हरा सूझ रहा है (अर्थात सर्वत्र विजयी होने के कारण ये श्री राम-लक्ष्मण को भी साधारण क्षत्रिय ही समझ रहे हैं), किन्तु यह लोहमयी (केवल फौलाद की बनी हुई) खाँड (खाँडा-खड्ग) है, ऊख की (रस की) खाँड नहीं है (जो मुँह में लेते ही गल जाए। खेद है,) मुनि अब भी बेसमझ बने हुए हैं, इनके प्रभाव को नहीं समझ रहे हैं॥275॥

02 चौपाई

कहेउ लखन मुनि सीलु तुम्हारा। को नहिं जान बिदित संसारा॥
माता पितहि उरिन भए नीकें। गुर रिनु रहा सोचु बड जीकें॥1॥

मूल

कहेउ लखन मुनि सीलु तुम्हारा। को नहिं जान बिदित संसारा॥
माता पितहि उरिन भए नीकें। गुर रिनु रहा सोचु बड जीकें॥1॥

भावार्थ

लक्ष्मणजी ने कहा- हे मुनि! आपके शील को कौन नहीं जानता? वह संसार भर में प्रसिद्ध है। आप माता-पिता से तो अच्छी तरह उऋण हो ही गए, अब गुरु का ऋण रहा, जिसका जी में बडा सोच लगा है॥1॥

सो जनु हमरेहि माथे काढा। दिन चलि गए ब्याज बड बाढा॥
अब आनिअ ब्यवहरिआ बोली। तुरत देउँ मैं थैली खोली॥2॥

मूल

सो जनु हमरेहि माथे काढा। दिन चलि गए ब्याज बड बाढा॥
अब आनिअ ब्यवहरिआ बोली। तुरत देउँ मैं थैली खोली॥2॥

भावार्थ

वह मानो हमारे ही मत्थे काढा था। बहुत दिन बीत गए, इससे ब्याज भी बहुत बढ गया होगा। अब किसी हिसाब करने वाले को बुला लाइए, तो मैं तुरन्त थैली खोलकर दे दूँ॥2॥

सुनि कटु बचन कुठार सुधारा। हाय हाय सब सभा पुकारा॥
भृगुबर परसु देखावहु मोही। बिप्र बिचारि बचउँ नृपदोही॥3॥

मूल

सुनि कटु बचन कुठार सुधारा। हाय हाय सब सभा पुकारा॥
भृगुबर परसु देखावहु मोही। बिप्र बिचारि बचउँ नृपदोही॥3॥

भावार्थ

लक्ष्मणजी के कडुए वचन सुनकर परशुरामजी ने कुठार सम्हाला। सारी सभा हाय-हाय! करके पुकार उठी। (लक्ष्मणजी ने कहा-) हे भृगुश्रेष्ठ! आप मुझे फरसा दिखा रहे हैं? पर हे राजाओं के शत्रु! मैं ब्राह्मण समझकर बचा रहा हूँ (तरह दे रहा हूँ)॥3॥

मिले न कबहुँ सुभट रन गाढे। द्विज देवता घरहि के बाढे॥
अनुचित कहि सब लोग पुकारे। रघुपति सयनहिं लखनु नेवारे॥4॥

मूल

मिले न कबहुँ सुभट रन गाढे। द्विज देवता घरहि के बाढे॥
अनुचित कहि सब लोग पुकारे। रघुपति सयनहिं लखनु नेवारे॥4॥

भावार्थ

आपको कभी रणधीर बलवान्‌ वीर नहीं मिले हैं। हे ब्राह्मण देवता ! आप घर ही में बडे हैं। यह सुनकर ‘अनुचित है, अनुचित है’ कहकर सब लोग पुकार उठे। तब श्री रघुनाथजी ने इशारे से लक्ष्मणजी को रोक दिया॥4॥

276

01 दोहा

लखन उतर आहुति सरिस भृगुबर कोपु कृसानु।
बढत देखि जल सम बचन बोले रघुकुलभानु॥276॥

मूल

लखन उतर आहुति सरिस भृगुबर कोपु कृसानु।
बढत देखि जल सम बचन बोले रघुकुलभानु॥276॥

भावार्थ

लक्ष्मणजी के उत्तर से, जो आहुति के समान थे, परशुरामजी के क्रोध रूपी अग्नि को बढते देखकर रघुकुल के सूर्य श्री रामचन्द्रजी जल के समान (शान्त करने वाले) वचन बोले-॥276॥

02 चौपाई

नाथ करहु बालक पर छोहु। सूध दूधमुख करिअ न कोहू॥
जौं पै प्रभु प्रभाउ कछु जाना। तौ कि बराबरि करत अयाना॥1॥

मूल

नाथ करहु बालक पर छोहु। सूध दूधमुख करिअ न कोहू॥
जौं पै प्रभु प्रभाउ कछु जाना। तौ कि बराबरि करत अयाना॥1॥

भावार्थ

हे नाथ ! बालक पर कृपा कीजिए। इस सीधे और दूधमुँहे बच्चे पर क्रोध न कीजिए। यदि यह प्रभु का (आपका) कुछ भी प्रभाव जानता, तो क्या यह बेसमझ आपकी बराबरी करता ?॥1॥

जौं लरिका कछु अचगरि करहीं। गुर पितु मातु मोद मन भरहीं॥
करिअ कृपा सिसु सेवक जानी। तुम्ह सम सील धीर मुनि ग्यानी॥2॥

मूल

जौं लरिका कछु अचगरि करहीं। गुर पितु मातु मोद मन भरहीं॥
करिअ कृपा सिसु सेवक जानी। तुम्ह सम सील धीर मुनि ग्यानी॥2॥

भावार्थ

बालक यदि कुछ चपलता भी करते हैं, तो गुरु, पिता और माता मन में आनन्द से भर जाते हैं। अतः इसे छोटा बच्चा और सेवक जानकर कृपा कीजिए। आप तो समदर्शी, सुशील, धीर और ज्ञानी मुनि हैं॥2॥

राम बचन सुनि कछुक जुडाने। कहि कछु लखनु बहुरि मुसुकाने॥
हँसत देखि नख सिख रिस ब्यापी। राम तोर भ्राता बड पापी॥3॥

मूल

राम बचन सुनि कछुक जुडाने। कहि कछु लखनु बहुरि मुसुकाने॥
हँसत देखि नख सिख रिस ब्यापी। राम तोर भ्राता बड पापी॥3॥

भावार्थ

श्री रामचन्द्रजी के वचन सुनकर वे कुछ ठण्डे पडे। इतने में लक्ष्मणजी कुछ कहकर फिर मुस्कुरा दिए। उनको हँसते देखकर परशुरामजी के नख से शिखा तक (सारे शरीर में) क्रोध छा गया। उन्होन्ने कहा- हे राम! तेरा भाई बडा पापी है॥3॥

गौर सरीर स्याम मन माहीं। कालकूट मुख पयमुख नाहीं॥
सहज टेढ अनुहरइ न तोही। नीचु मीचु सम देख न मोही॥4॥

मूल

गौर सरीर स्याम मन माहीं। कालकूट मुख पयमुख नाहीं॥
सहज टेढ अनुहरइ न तोही। नीचु मीचु सम देख न मोही॥4॥

भावार्थ

यह शरीर से गोरा, पर हृदय का बडा काला है। यह विषमुख है, दूधमुँहा नहीं। स्वभाव ही टेढा है, तेरा अनुसरण नहीं करता (तेरे जैसा शीलवान नहीं है)। यह नीच मुझे काल के समान नहीं देखता॥4॥

277

01 दोहा

लखन कहेउ हँसि सुनहु मुनि क्रोधु पाप कर मूल।
जेहि बस जन अनुचित करहिं चरहिं बिस्व प्रतिकूल॥277॥

मूल

लखन कहेउ हँसि सुनहु मुनि क्रोधु पाप कर मूल।
जेहि बस जन अनुचित करहिं चरहिं बिस्व प्रतिकूल॥277॥

भावार्थ

लक्ष्मणजी ने हँसकर कहा- हे मुनि! सुनिए, क्रोध पाप का मूल है, जिसके वश में होकर मनुष्य अनुचित कर्म कर बैठते हैं और विश्वभर के प्रतिकूल चलते (सबका अहित करते) हैं॥277॥

02 चौपाई

मैं तुम्हार अनुचर मुनिराया। परिहरि कोपु करिअ अब दाया॥
टूट चाप नहिं जुरिहि रिसाने। बैठिअ होइहिं पाय पिराने॥1॥

मूल

मैं तुम्हार अनुचर मुनिराया। परिहरि कोपु करिअ अब दाया॥
टूट चाप नहिं जुरिहि रिसाने। बैठिअ होइहिं पाय पिराने॥1॥

भावार्थ

हे मुनिराज! मैं आपका दास हूँ। अब क्रोध त्यागकर दया कीजिए। टूटा हुआ धनुष क्रोध करने से जुड नहीं जाएगा। खडे-खडे पैर दुःखने लगे होङ्गे, बैठ जाइए॥1॥

जौं अति प्रिय तौ करिअ उपाई। जोरिअ कोउ बड गुनी बोलाई॥
बोलत लखनहिं जनकु डेराहीं। मष्ट करहु अनुचित भल नाहीं॥2॥

मूल

जौं अति प्रिय तौ करिअ उपाई। जोरिअ कोउ बड गुनी बोलाई॥
बोलत लखनहिं जनकु डेराहीं। मष्ट करहु अनुचित भल नाहीं॥2॥

भावार्थ

यदि धनुष अत्यन्त ही प्रिय हो, तो कोई उपाय किया जाए और किसी बडे गुणी (कारीगर) को बुलाकर जुडवा दिया जाए। लक्ष्मणजी के बोलने से जनकजी डर जाते हैं और कहते हैं- बस, चुप रहिए, अनुचित बोलना अच्छा नहीं॥2॥

थर थर काँपहिं पुर नर नारी। छोट कुमार खोट बड भारी॥
भृगुपति सुनि सुनि निरभय बानी। रिस तन जरइ होई बल हानी॥3॥

मूल

थर थर काँपहिं पुर नर नारी। छोट कुमार खोट बड भारी॥
भृगुपति सुनि सुनि निरभय बानी। रिस तन जरइ होई बल हानी॥3॥

भावार्थ

जनकपुर के स्त्री-पुरुष थर-थर काँप रहे हैं (और मन ही मन कह रहे हैं कि) छोटा कुमार बडा ही खोटा है। लक्ष्मणजी की निर्भय वाणी सुन-सुनकर परशुरामजी का शरीर क्रोध से जला जा रहा है और उनके बल की हानि हो रही है (उनका बल घट रहा है)॥3॥

बोले रामहि देइ निहोरा। बचउँ बिचारि बन्धु लघु तोरा॥
मनु मलीन तनु सुन्दर कैसें। बिष रस भरा कनक घटु जैसें॥4॥

मूल

बोले रामहि देइ निहोरा। बचउँ बिचारि बन्धु लघु तोरा॥
मनु मलीन तनु सुन्दर कैसें। बिष रस भरा कनक घटु जैसें॥4॥

भावार्थ

तब श्री रामचन्द्रजी पर एहसान जनाकर परशुरामजी बोले- तेरा छोटा भाई समझकर मैं इसे बचा रहा हूँ। यह मन का मैला और शरीर का कैसा सुन्दर है, जैसे विष के रस से भरा हुआ सोने का घडा!॥4॥

278

01 दोहा

सुनि लछिमन बिहसे बहुरि नयन तरेरे राम।
गुर समीप गवने सकुचि परिहरि बानी बाम॥278॥

मूल

सुनि लछिमन बिहसे बहुरि नयन तरेरे राम।
गुर समीप गवने सकुचि परिहरि बानी बाम॥278॥

भावार्थ

यह सुनकर लक्ष्मणजी फिर हँसे। तब श्री रामचन्द्रजी ने तिरछी नजर से उनकी ओर देखा, जिससे लक्ष्मणजी सकुचाकर, विपरीत बोलना छोडकर, गुरुजी के पास चले गए॥278॥

02 चौपाई

अति बिनीत मृदु सीतल बानी। बोले रामु जोरि जुग पानी॥
सुनहु नाथ तुम्ह सहज सुजाना। बालक बचनु करिअ नहिं काना॥1॥

मूल

अति बिनीत मृदु सीतल बानी। बोले रामु जोरि जुग पानी॥
सुनहु नाथ तुम्ह सहज सुजाना। बालक बचनु करिअ नहिं काना॥1॥

भावार्थ

श्री रामचन्द्रजी दोनों हाथ जोडकर अत्यन्त विनय के साथ कोमल और शीतल वाणी बोले- हे नाथ! सुनिए, आप तो स्वभाव से ही सुजान हैं। आप बालक के वचन पर कान न दीजिए (उसे सुना-अनसुना कर दीजिए)॥1॥

बररै बालकु एकु सुभाऊ। इन्हहि न सन्त बिदूषहिं काऊ ॥
तेहिं नाहीं कछु काज बिगारा। अपराधी मैं नाथ तुम्हारा॥2॥

मूल

बररै बालकु एकु सुभाऊ। इन्हहि न सन्त बिदूषहिं काऊ ॥
तेहिं नाहीं कछु काज बिगारा। अपराधी मैं नाथ तुम्हारा॥2॥

भावार्थ

बर्रै और बालक का एक स्वभाव है। सन्तजन इन्हें कभी दोष नहीं लगाते। फिर उसने (लक्ष्मण ने) तो कुछ काम भी नहीं बिगाडा है, हे नाथ! आपका अपराधी तो मैं हूँ॥2॥

कृपा कोपु बधु बँधब गोसाईं। मो पर करिअ दास की नाईं॥
कहिअ बेगि जेहि बिधि रिस जाई। मुनिनायक सोइ करौं उपाई॥3॥

मूल

कृपा कोपु बधु बँधब गोसाईं। मो पर करिअ दास की नाईं॥
कहिअ बेगि जेहि बिधि रिस जाई। मुनिनायक सोइ करौं उपाई॥3॥

भावार्थ

अतः हे स्वामी! कृपा, क्रोध, वध और बन्धन, जो कुछ करना हो, दास की तरह (अर्थात दास समझकर) मुझ पर कीजिए। जिस प्रकार से शीघ्र आपका क्रोध दूर हो। हे मुनिराज! बताइए, मैं वही उपाय करूँ॥3॥

कह मुनि राम जाइ रिस कैसें। अजहुँ अनुज तव चितव अनैसें॥
एहि कें कण्ठ कुठारु न दीन्हा। तौ मैं कहा कोपु करि कीन्हा॥4॥

मूल

कह मुनि राम जाइ रिस कैसें। अजहुँ अनुज तव चितव अनैसें॥
एहि कें कण्ठ कुठारु न दीन्हा। तौ मैं कहा कोपु करि कीन्हा॥4॥

भावार्थ

मुनि ने कहा- हे राम! क्रोध कैसे जाए, अब भी तेरा छोटा भाई टेढा ही ताक रहा है। इसकी गर्दन पर मैन्ने कुठार न चलाया, तो क्रोध करके किया ही क्या?॥4॥

279

01 दोहा

गर्भ स्रवहिं अवनिप रवनि सुनि कुठार गति घोर।
परसु अछत देखउँ जिअत बैरी भूपकिसोर॥279॥

मूल

गर्भ स्रवहिं अवनिप रवनि सुनि कुठार गति घोर।
परसु अछत देखउँ जिअत बैरी भूपकिसोर॥279॥

भावार्थ

मेरे जिस कुठार की घोर करनी सुनकर राजाओं की स्त्रियों के गर्भ गिर पडते हैं, उसी फरसे के रहते मैं इस शत्रु राजपुत्र को जीवित देख रहा हूँ॥279॥

02 चौपाई

बहइ न हाथु दहइ रिस छाती। भा कुठारु कुण्ठित नृपघाती॥
भयउ बाम बिधि फिरेउ सुभाऊ। मोरे हृदयँ कृपा कसि काऊ॥1॥

मूल

बहइ न हाथु दहइ रिस छाती। भा कुठारु कुण्ठित नृपघाती॥
भयउ बाम बिधि फिरेउ सुभाऊ। मोरे हृदयँ कृपा कसि काऊ॥1॥

भावार्थ

हाथ चलता नहीं, क्रोध से छाती जली जाती है। (हाय!) राजाओं का घातक यह कुठार भी कुण्ठित हो गया। विधाता विपरीत हो गया, इससे मेरा स्वभाव बदल गया, नहीं तो भला, मेरे हृदय में किसी समय भी कृपा कैसी?॥1॥

आजु दया दुखु दुसह सहावा। सुनि सौमित्रि बिहसि सिरु नावा॥
बाउ कृपा मूरति अनुकूला। बोलत बचन झरत जनु फूला॥2॥

मूल

आजु दया दुखु दुसह सहावा। सुनि सौमित्रि बिहसि सिरु नावा॥
बाउ कृपा मूरति अनुकूला। बोलत बचन झरत जनु फूला॥2॥

भावार्थ

आज दया मुझे यह दुःसह दुःख सहा रही है। यह सुनकर लक्ष्मणजी ने मुस्कुराकर सिर नवाया (और कहा-) आपकी कृपा रूपी वायु भी आपकी मूर्ति के अनुकूल ही है, वचन बोलते हैं, मानो फूल झड रहे हैं॥2॥

जौं पै कृपाँ जरिहिं मुनि गाता। क्रोध भएँ तनु राख बिधाता॥
देखु जनक हठि बालकु एहू। कीन्ह चहत जड जमपुर गेहू॥3॥

मूल

जौं पै कृपाँ जरिहिं मुनि गाता। क्रोध भएँ तनु राख बिधाता॥
देखु जनक हठि बालकु एहू। कीन्ह चहत जड जमपुर गेहू॥3॥

भावार्थ

हे मुनि ! यदि कृपा करने से आपका शरीर जला जाता है, तो क्रोध होने पर तो शरीर की रक्षा विधाता ही करेङ्गे। (परशुरामजी ने कहा-) हे जनक! देख, यह मूर्ख बालक हठ करके यमपुरी में घर (निवास) करना चाहता है॥3॥

बेगि करहु किन आँखिन्ह ओटा। देखत छोट खोट नृपु ढोटा॥
बिहसे लखनु कहा मन माहीं। मूदें आँखि कतहुँ कोउ नाहीं॥4॥

मूल

बेगि करहु किन आँखिन्ह ओटा। देखत छोट खोट नृपु ढोटा॥
बिहसे लखनु कहा मन माहीं। मूदें आँखि कतहुँ कोउ नाहीं॥4॥

भावार्थ

इसको शीघ्र ही आँखों की ओट क्यों नहीं करते? यह राजपुत्र देखने में छोटा है, पर है बडा खोटा। लक्ष्मणजी ने हँसकर मन ही मन कहा- आँख मूँद लेने पर कहीं कोई नहीं है॥4॥

280

01 दोहा

परसुरामु तब राम प्रति बोले उर अति क्रोधु।
सम्भु सरासनु तोरि सठ करसि हमार प्रबोधु॥280॥

मूल

परसुरामु तब राम प्रति बोले उर अति क्रोधु।
सम्भु सरासनु तोरि सठ करसि हमार प्रबोधु॥280॥

भावार्थ

तब परशुरामजी हृदय में अत्यन्त क्रोध भरकर श्री रामजी से बोले- अरे शठ! तू शिवजी का धनुष तोडकर उलटा हमीं को ज्ञान सिखाता है॥280॥

02 चौपाई

बन्धु कहइ कटु सम्मत तोरें। तू छल बिनय करसि कर जोरें॥
करु परितोषु मोर सङ्ग्रामा। नाहिं त छाड कहाउब रामा॥1॥

मूल

बन्धु कहइ कटु सम्मत तोरें। तू छल बिनय करसि कर जोरें॥
करु परितोषु मोर सङ्ग्रामा। नाहिं त छाड कहाउब रामा॥1॥

भावार्थ

तेरा यह भाई तेरी ही सम्मति से कटु वचन बोलता है और तू छल से हाथ जोडकर विनय करता है। या तो युद्ध में मेरा सन्तोष कर, नहीं तो राम कहलाना छोड दे॥1॥

छलु तजि करहि समरु सिवद्रोही। बन्धु सहित न त मारउँ तोही॥
भृगुपति बकहिं कुठार उठाएँ। मन मुसुकाहिं रामु सिर नाएँ॥2॥

मूल

छलु तजि करहि समरु सिवद्रोही। बन्धु सहित न त मारउँ तोही॥
भृगुपति बकहिं कुठार उठाएँ। मन मुसुकाहिं रामु सिर नाएँ॥2॥

भावार्थ

अरे शिवद्रोही! छल त्यागकर मुझसे युद्ध कर। नहीं तो भाई सहित तुझे मार डालूँगा। इस प्रकार परशुरामजी कुठार उठाए बक रहे हैं और श्री रामचन्द्रजी सिर झुकाए मन ही मन मुस्कुरा रहे हैं॥2॥

गुनह लखन कर हम पर रोषू। कतहुँ सुधाइहु ते बड दोषू॥
टेढ जानि सब बन्दइ काहू। बक्र चन्द्रमहि ग्रसइ न राहू॥3॥

मूल

गुनह लखन कर हम पर रोषू। कतहुँ सुधाइहु ते बड दोषू॥
टेढ जानि सब बन्दइ काहू। बक्र चन्द्रमहि ग्रसइ न राहू॥3॥

भावार्थ

(श्री रामचन्द्रजी ने मन ही मन कहा-) गुनाह (दोष) तो लक्ष्मण का और क्रोध मुझ पर करते हैं। कहीं-कहीं सीधेपन में भी बडा दोष होता है। टेढा जानकर सब लोग किसी की भी वन्दना करते हैं, टेढे चन्द्रमा को राहु भी नहीं ग्रसता॥3॥

राम कहेउ रिस तजिअ मुनीसा। कर कुठारु आगें यह सीसा॥
जेहिं रिस जाइ करिअ सोइ स्वामी। मोहि जानिअ आपन अनुगामी॥4॥

मूल

राम कहेउ रिस तजिअ मुनीसा। कर कुठारु आगें यह सीसा॥
जेहिं रिस जाइ करिअ सोइ स्वामी। मोहि जानिअ आपन अनुगामी॥4॥

भावार्थ

श्री रामचन्द्रजी ने (प्रकट) कहा- हे मुनीश्वर! क्रोध छोडिए। आपके हाथ में कुठार है और मेरा यह सिर आगे है, जिस प्रकार आपका क्रोध जाए, हे स्वामी! वही कीजिए। मुझे अपना अनुचर (दास) जानिए॥4॥

281

01 दोहा

प्रभुहि सेवकहि समरु कस तजहु बिप्रबर रोसु।
बेषु बिलोकें कहेसि कछु बालकहू नहिं दोसु॥281॥

मूल

प्रभुहि सेवकहि समरु कस तजहु बिप्रबर रोसु।
बेषु बिलोकें कहेसि कछु बालकहू नहिं दोसु॥281॥

भावार्थ

स्वामी और सेवक में युद्ध कैसा? हे ब्राह्मण श्रेष्ठ! क्रोध का त्याग कीजिए। आपका (वीरों का सा) वेष देखकर ही बालक ने कुछ कह डाला था, वास्तव में उसका भी कोई दोष नहीं है॥281॥

02 चौपाई

देखि कुठार बान धनु धारी। भै लरिकहि रिस बीरु बिचारी॥
नामु जान पै तुम्हहि न चीन्हा। बंस सुभायँ उतरु तेहिं दीन्हा॥1॥

मूल

देखि कुठार बान धनु धारी। भै लरिकहि रिस बीरु बिचारी॥
नामु जान पै तुम्हहि न चीन्हा। बंस सुभायँ उतरु तेहिं दीन्हा॥1॥

भावार्थ

आपको कुठार, बाण और धनुष धारण किए देखकर और वीर समझकर बालक को क्रोध आ गया। वह आपका नाम तो जानता था, पर उसने आपको पहचाना नहीं। अपने वंश (रघुवंश) के स्वभाव के अनुसार उसने उत्तर दिया॥1॥

जौं तुम्ह औतेहु मुनि की नाईं। पद रज सिर सिसु धरत गोसाईं॥
छमहु चूक अनजानत केरी। चहिअ बिप्र उर कृपा घनेरी॥2॥

मूल

जौं तुम्ह औतेहु मुनि की नाईं। पद रज सिर सिसु धरत गोसाईं॥
छमहु चूक अनजानत केरी। चहिअ बिप्र उर कृपा घनेरी॥2॥

भावार्थ

यदि आप मुनि की तरह आते, तो हे स्वामी! बालक आपके चरणों की धूलि सिर पर रखता। अनजाने की भूल को क्षमा कर दीजिए। ब्राह्मणों के हृदय में बहुत अधिक दया होनी चाहिए॥2॥

हमहि तुम्हहि सरिबरि कसि नाथा। कहहु न कहाँ चरन कहँ माथा॥
राम मात्र लघुनाम हमारा। परसु सहित बड नाम तोहारा॥3॥

मूल

हमहि तुम्हहि सरिबरि कसि नाथा। कहहु न कहाँ चरन कहँ माथा॥
राम मात्र लघुनाम हमारा। परसु सहित बड नाम तोहारा॥3॥

भावार्थ

हे नाथ! हमारी और आपकी बराबरी कैसी? कहिए न, कहाँ चरण और कहाँ मस्तक! कहाँ मेरा राम मात्र छोटा सा नाम और कहाँ आपका परशुसहित बडा नाम॥3॥

देव एकु गुनु धनुष हमारें। नव गुन परम पुनीत तुम्हारें॥
सब प्रकार हम तुम्ह सन हारे। छमहु बिप्र अपराध हमारे॥4॥

मूल

देव एकु गुनु धनुष हमारें। नव गुन परम पुनीत तुम्हारें॥
सब प्रकार हम तुम्ह सन हारे। छमहु बिप्र अपराध हमारे॥4॥

भावार्थ

हे देव! हमारे तो एक ही गुण धनुष है और आपके परम पवित्र (शम, दम, तप, शौच, क्षमा, सरलता, ज्ञान, विज्ञान और आस्तिकता ये) नौ गुण हैं। हम तो सब प्रकार से आपसे हारे हैं। हे विप्र! हमारे अपराधों को क्षमा कीजिए॥4॥

282

01 दोहा

बार बार मुनि बिप्रबर कहा राम सन राम।
बोले भृगुपति सरुष हसि तहूँ बन्धू सम बाम॥282॥

मूल

बार बार मुनि बिप्रबर कहा राम सन राम।
बोले भृगुपति सरुष हसि तहूँ बन्धू सम बाम॥282॥

भावार्थ

श्री रामचन्द्रजी ने परशुरामजी को बार-बार ‘मुनि’ और ‘विप्रवर’ कहा। तब भृगुपति (परशुरामजी) कुपित होकर (अथवा क्रोध की हँसी हँसकर) बोले- तू भी अपने भाई के समान ही टेढा है॥282॥

निपटहिं द्विज करि जानहि मोही। मैं जस बिप्र सुनावउँ तोही॥
चाप सुवा सर आहुति जानू। कोपु मोर अति घोर कृसानू॥1॥

मूल

निपटहिं द्विज करि जानहि मोही। मैं जस बिप्र सुनावउँ तोही॥
चाप सुवा सर आहुति जानू। कोपु मोर अति घोर कृसानू॥1॥

भावार्थ

तू मुझे निरा ब्राह्मण ही समझता है? मैं जैसा विप्र हूँ, तुझे सुनाता हूँ। धनुष को सु्रवा, बाण को आहुति और मेरे क्रोध को अत्यन्त भयङ्कर अग्नि जान॥1॥

समिधि सेन चतुरङ्ग सुहाई। महा महीप भए पसु आई॥
मैं एहिं परसु काटि बलि दीन्हे। समर जग्य जप कोटिन्ह कीन्हे॥2॥

मूल

समिधि सेन चतुरङ्ग सुहाई। महा महीप भए पसु आई॥
मैं एहिं परसु काटि बलि दीन्हे। समर जग्य जप कोटिन्ह कीन्हे॥2॥

भावार्थ

चतुरङ्गिणी सेना सुन्दर समिधाएँ (यज्ञ में जलाई जाने वाली लकडियाँ) हैं। बडे-बडे राजा उसमें आकर बलि के पशु हुए हैं, जिनको मैन्ने इसी फरसे से काटकर बलि दिया है। ऐसे करोडों जपयुक्त रणयज्ञ मैन्ने किए हैं (अर्थात जैसे मन्त्रोच्चारण पूर्वक ‘स्वाहा’ शब्द के साथ आहुति दी जाती है, उसी प्रकार मैन्ने पुकार-पुकार कर राजाओं की बलि दी है)॥2॥

मोर प्रभाउ बिदित नहिं तोरें। बोलसि निदरि बिप्र के भोरें॥
भञ्जेउ चापु दापु बड बाढा। अहमिति मनहुँ जीति जगु ठाढा॥3॥

मूल

मोर प्रभाउ बिदित नहिं तोरें। बोलसि निदरि बिप्र के भोरें॥
भञ्जेउ चापु दापु बड बाढा। अहमिति मनहुँ जीति जगु ठाढा॥3॥

भावार्थ

मेरा प्रभाव तुझे मालूम नहीं है, इसी से तू ब्राह्मण के धोखे मेरा निरादर करके बोल रहा है। धनुष तोड डाला, इससे तेरा घमण्ड बहुत बढ गया है। ऐसा अहङ्कार है, मानो संसार को जीतकर खडा है॥3॥

राम कहा मुनि कहहु बिचारी। रिस अति बडि लघु चूक हमारी॥
छुअतहिं टूट पिनाक पुराना। मैं केहि हेतु करौं अभिमाना॥4॥

मूल

राम कहा मुनि कहहु बिचारी। रिस अति बडि लघु चूक हमारी॥
छुअतहिं टूट पिनाक पुराना। मैं केहि हेतु करौं अभिमाना॥4॥

भावार्थ

श्री रामचन्द्रजी ने कहा- हे मुनि! विचारकर बोलिए। आपका क्रोध बहुत बडा है और मेरी भूल बहुत छोटी है। पुराना धनुष था, छूते ही टूट गया। मैं किस कारण अभिमान करूँ?॥4॥

283

01 दोहा

जौं हम निदरहिं बिप्र बदि सत्य सुनहु भृगुनाथ।
तौ अस को जग सुभटु जेहि भय बस नावहिं माथ॥283॥

मूल

जौं हम निदरहिं बिप्र बदि सत्य सुनहु भृगुनाथ।
तौ अस को जग सुभटु जेहि भय बस नावहिं माथ॥283॥

भावार्थ

हे भृगुनाथ! यदि हम सचमुच ब्राह्मण कहकर निरादर करते हैं, तो यह सत्य सुनिए, फिर संसार में ऐसा कौन योद्धा है, जिसे हम डरके मारे मस्तक नवाएँ?॥283॥

02 चौपाई

देव दनुज भूपति भट नाना। समबल अधिक होउ बलवाना॥
जौं रन हमहि पचारै कोऊ। लरहिं सुखेन कालु किन होऊ ॥1॥

मूल

देव दनुज भूपति भट नाना। समबल अधिक होउ बलवाना॥
जौं रन हमहि पचारै कोऊ। लरहिं सुखेन कालु किन होऊ ॥1॥

भावार्थ

देवता, दैत्य, राजा या और बहुत से योद्धा, वे चाहे बल में हमारे बराबर हों चाहे अधिक बलवान हों, यदि रण में हमें कोई भी ललकारे तो हम उससे सुखपूर्वक लडेङ्गे, चाहे काल ही क्यों न हो॥1॥

छत्रिय तनु धरि समर सकाना। कुल कलङ्कु तेहिं पावँर आना॥
कहउँ सुभाउ न कुलहि प्रसंसी। कालहु डरहिं न रन रघुबंसी॥2॥

मूल

छत्रिय तनु धरि समर सकाना। कुल कलङ्कु तेहिं पावँर आना॥
कहउँ सुभाउ न कुलहि प्रसंसी। कालहु डरहिं न रन रघुबंसी॥2॥

भावार्थ

क्षत्रिय का शरीर धरकर जो युद्ध में डर गया, उस नीच ने अपने कुल पर कलङ्क लगा दिया। मैं स्वभाव से ही कहता हूँ, कुल की प्रशंसा करके नहीं, कि रघुवंशी रण में काल से भी नहीं डरते॥2॥

बिप्रबंस कै असि प्रभुताई। अभय होइ जो तुम्हहि डेराई॥
सुनि मृदु गूढ बचन रघुपत के। उघरे पटल परसुधर मति के॥3॥

मूल

बिप्रबंस कै असि प्रभुताई। अभय होइ जो तुम्हहि डेराई॥
सुनि मृदु गूढ बचन रघुपत के। उघरे पटल परसुधर मति के॥3॥

भावार्थ

ब्राह्मणवंश की ऐसी ही प्रभुता (महिमा) है कि जो आपसे डरता है, वह सबसे निर्भय हो जाता है (अथवा जो भयरहित होता है, वह भी आपसे डरता है) श्री रघुनाथजी के कोमल और रहस्यपूर्ण वचन सुनकर परशुरामजी की बुद्धि के परदे खुल गए॥3॥

राम रमापति कर धनु लेहू। खैञ्चहु मिटै मोर सन्देहू॥
देत चापु आपुहिं चलि गयऊ। परसुराम मन बिसमय भयऊ॥4॥

मूल

राम रमापति कर धनु लेहू। खैञ्चहु मिटै मोर सन्देहू॥
देत चापु आपुहिं चलि गयऊ। परसुराम मन बिसमय भयऊ॥4॥

भावार्थ

(परशुरामजी ने कहा-) हे राम! हे लक्ष्मीपति! धनुष को हाथ में (अथवा लक्ष्मीपति विष्णु का धनुष) लीजिए और इसे खीञ्चिए, जिससे मेरा सन्देह मिट जाए। परशुरामजी धनुष देने लगे, तब वह आप ही चला गया। तब परशुरामजी के मन में बडा आश्चर्य हुआ॥4॥

284

01 दोहा

जाना राम प्रभाउ तब पुलक प्रफुल्लित गात।
जोरि पानि बोले बचन हृदयँ न प्रेमु अमात॥284॥

मूल

जाना राम प्रभाउ तब पुलक प्रफुल्लित गात।
जोरि पानि बोले बचन हृदयँ न प्रेमु अमात॥284॥

भावार्थ

तब उन्होन्ने श्री रामजी का प्रभाव जाना, (जिसके कारण) उनका शरीर पुलकित और प्रफुल्लित हो गया। वे हाथ जोडकर वचन बोले- प्रेम उनके हृदय में समाता न था-॥284॥

02 चौपाई

जय रघुबंस बनज बन भानू। गहन दनुज कुल दहन कृसानू॥
जय सुर बिप्र धेनु हितकारी। जय मद मोह कोह भ्रम हारी॥1॥

मूल

जय रघुबंस बनज बन भानू। गहन दनुज कुल दहन कृसानू॥
जय सुर बिप्र धेनु हितकारी। जय मद मोह कोह भ्रम हारी॥1॥

भावार्थ

हे रघुकुल रूपी कमल वन के सूर्य! हे राक्षसों के कुल रूपी घने जङ्गल को जलाने वाले अग्नि! आपकी जय हो! हे देवता, ब्राह्मण और गो का हित करने वाले! आपकी जय हो। हे मद, मोह, क्रोध और भ्रम के हरने वाले! आपकी जय हो॥1॥

बिनय सील करुना गुन सागर। जयति बचन रचना अति नागर॥
सेवक सुखद सुभग सब अङ्गा। जय सरीर छबि कोटि अनङ्गा॥2॥

मूल

बिनय सील करुना गुन सागर। जयति बचन रचना अति नागर॥
सेवक सुखद सुभग सब अङ्गा। जय सरीर छबि कोटि अनङ्गा॥2॥

भावार्थ

हे विनय, शील, कृपा आदि गुणों के समुद्र और वचनों की रचना में अत्यन्त चतुर! आपकी जय हो। हे सेवकों को सुख देने वाले, सब अङ्गों से सुन्दर और शरीर में करोडों कामदेवों की छबि धारण करने वाले! आपकी जय हो॥2॥

करौं काह मुख एक प्रसंसा। जय महेस मन मानस हंसा॥
अनुचित बहुत कहेउँ अग्याता। छमहु छमा मन्दिर दोउ भ्राता॥3॥

मूल

करौं काह मुख एक प्रसंसा। जय महेस मन मानस हंसा॥
अनुचित बहुत कहेउँ अग्याता। छमहु छमा मन्दिर दोउ भ्राता॥3॥

भावार्थ

मैं एक मुख से आपकी क्या प्रशंसा करूँ? हे महादेवजी के मन रूपी मानसरोवर के हंस! आपकी जय हो। मैन्ने अनजाने में आपको बहुत से अनुचित वचन कहे। हे क्षमा के मन्दिर दोनों भाई! मुझे क्षमा कीजिए॥3॥

कहि जय जय जय रघुकुलकेतू। भृगुपति गए बनहि तप हेतू॥
अपभयँ कुटिल महीप डेराने। जहँ तहँ कायर गवँहिं पराने॥4॥

मूल

कहि जय जय जय रघुकुलकेतू। भृगुपति गए बनहि तप हेतू॥
अपभयँ कुटिल महीप डेराने। जहँ तहँ कायर गवँहिं पराने॥4॥

भावार्थ

हे रघुकुल के पताका स्वरूप श्री रामचन्द्रजी! आपकी जय हो, जय हो, जय हो। ऐसा कहकर परशुरामजी तप के लिए वन को चले गए। (यह देखकर) दुष्ट राजा लोग बिना ही कारण के (मनः कल्पित) डर से (रामचन्द्रजी से तो परशुरामजी भी हार गए, हमने इनका अपमान किया था, अब कहीं ये उसका बदला न लें, इस व्यर्थ के डर से डर गए) वे कायर चुपके से जहाँ-तहाँ भाग गए॥4॥

285

01 दोहा

देवन्ह दीन्हीं दुन्दुभीं प्रभु पर बरषहिं फूल।
हरषे पुर नर नारि सब मिटी मोहमय सूल॥285॥

मूल

देवन्ह दीन्हीं दुन्दुभीं प्रभु पर बरषहिं फूल।
हरषे पुर नर नारि सब मिटी मोहमय सूल॥285॥

भावार्थ

देवताओं ने नगाडे बजाए, वे प्रभु के ऊपर फूल बरसाने लगे। जनकपुर के स्त्री-पुरुष सब हर्षित हो गए। उनका मोहमय (अज्ञान से उत्पन्न) शूल मिट गया॥285॥

02 चौपाई

अति गहगहे बाजने बाजे। सबहिं मनोहर मङ्गल साजे॥
जूथ जूथ मिलि सुमुखि सुनयनीं। करहिं गान कल कोकिलबयनीं॥1॥

मूल

अति गहगहे बाजने बाजे। सबहिं मनोहर मङ्गल साजे॥
जूथ जूथ मिलि सुमुखि सुनयनीं। करहिं गान कल कोकिलबयनीं॥1॥

भावार्थ

खूब जोर से बाजे बजने लगे। सभी ने मनोहर मङ्गल साज साजे। सुन्दर मुख और सुन्दर नेत्रों वाली तथा कोयल के समान मधुर बोलने वाली स्त्रियाँ झुण्ड की झुण्ड मिलकर सुन्दरगान करने लगीं॥1॥

सुखु बिदेह कर बरनि न जाई। जन्मदरिद्र मनहुँ निधि पाई॥
बिगत त्रास भइ सीय सुखारी। जनु बिधु उदयँ चकोरकुमारी॥2॥

मूल

सुखु बिदेह कर बरनि न जाई। जन्मदरिद्र मनहुँ निधि पाई॥
बिगत त्रास भइ सीय सुखारी। जनु बिधु उदयँ चकोरकुमारी॥2॥

भावार्थ

जनकजी के सुख का वर्णन नहीं किया जा सकता, मानो जन्म का दरिद्री धन का खजाना पा गया हो! सीताजी का भय जाता रहा, वे ऐसी सुखी हुईं जैसे चन्द्रमा के उदय होने से चकोर की कन्या सुखी होती है॥2॥

जनक कीन्ह कौसिकहि प्रनामा। प्रभु प्रसाद धनु भञ्जेउ रामा॥
मोहि कृतकृत्य कीन्ह दुहुँ भाईं। अब जो उचित सो कहिअ गोसाईं॥3॥

मूल

जनक कीन्ह कौसिकहि प्रनामा। प्रभु प्रसाद धनु भञ्जेउ रामा॥
मोहि कृतकृत्य कीन्ह दुहुँ भाईं। अब जो उचित सो कहिअ गोसाईं॥3॥

भावार्थ

जनकजी ने विश्वामित्रजी को प्रणाम किया (और कहा-) प्रभु ही की कृपा से श्री रामचन्द्रजी ने धनुष तोडा है। दोनों भाइयों ने मुझे कृतार्थ कर दिया। हे स्वामी! अब जो उचित हो सो कहिए॥3॥

कह मुनि सुनु नरनाथ प्रबीना। रहा बिबाहु चाप आधीना॥
टूटतहीं धनु भयउ बिबाहू। सुर नर नाग बिदित सब काहू॥4॥

मूल

कह मुनि सुनु नरनाथ प्रबीना। रहा बिबाहु चाप आधीना॥
टूटतहीं धनु भयउ बिबाहू। सुर नर नाग बिदित सब काहू॥4॥

भावार्थ

मुनि ने कहा- हे चतुर नरेश ! सुनो यों तो विवाह धनुष के अधीन था, धनुष के टूटते ही विवाह हो गया। देवता, मनुष्य और नाग सब किसी को यह मालूम है॥4॥

286

01 दोहा

तदपि जाइ तुम्ह करहु अब जथा बंस ब्यवहारु।
बूझि बिप्र कुलबृद्ध गुर बेद बिदित आचारु॥286॥

मूल

तदपि जाइ तुम्ह करहु अब जथा बंस ब्यवहारु।
बूझि बिप्र कुलबृद्ध गुर बेद बिदित आचारु॥286॥

भावार्थ

तथापि तुम जाकर अपने कुल का जैसा व्यवहार हो, ब्राह्मणों, कुल के बूढों और गुरुओं से पूछकर और वेदों में वर्णित जैसा आचार हो वैसा करो॥286॥

02 चौपाई

दूत अवधपुर पठवहु जाई। आनहिं नृप दसरथहिं बोलाई॥
मुदित राउ कहि भलेहिं कृपाला। पठए दूत बोलि तेहि काला॥1॥

मूल

दूत अवधपुर पठवहु जाई। आनहिं नृप दसरथहिं बोलाई॥
मुदित राउ कहि भलेहिं कृपाला। पठए दूत बोलि तेहि काला॥1॥

भावार्थ

जाकर अयोध्या को दूत भेजो, जो राजा दशरथ को बुला लावें। राजा ने प्रसन्न होकर कहा- हे कृपालु! बहुत अच्छा! और उसी समय दूतों को बुलाकर भेज दिया॥1॥

बहुरि महाजन सकल बोलाए। आइ सबन्हि सादर सिर नाए॥
हाट बाट मन्दिर सुरबासा। नगरु सँवारहु चारिहुँ पासा॥2॥

मूल

बहुरि महाजन सकल बोलाए। आइ सबन्हि सादर सिर नाए॥
हाट बाट मन्दिर सुरबासा। नगरु सँवारहु चारिहुँ पासा॥2॥

भावार्थ

फिर सब महाजनों को बुलाया और सबने आकर राजा को आदरपूर्वक सिर नवाया। (राजा ने कहा-) बाजार, रास्ते, घर, देवालय और सारे नगर को चारों ओर से सजाओ॥2॥

हरषि चले निज निज गृह आए। पुनि परिचारक बोलि पठाए॥
रचहु बिचित्र बितान बनाई। सिर धरि बचन चले सचु पाई॥3॥

मूल

हरषि चले निज निज गृह आए। पुनि परिचारक बोलि पठाए॥
रचहु बिचित्र बितान बनाई। सिर धरि बचन चले सचु पाई॥3॥

भावार्थ

महाजन प्रसन्न होकर चले और अपने-अपने घर आए। फिर राजा ने नौकरों को बुला भेजा (और उन्हें आज्ञा दी कि) विचित्र मण्डप सजाकर तैयार करो। यह सुनकर वे सब राजा के वचन सिर पर धरकर और सुख पाकर चले॥3॥

पठए बोलि गुनी तिन्ह नाना। जे बितान बिधि कुसल सुजाना॥
बिधिहि बन्दि तिन्ह कीन्ह अरम्भा। बिरचे कनक कदलि के खम्भा॥4॥

मूल

पठए बोलि गुनी तिन्ह नाना। जे बितान बिधि कुसल सुजाना॥
बिधिहि बन्दि तिन्ह कीन्ह अरम्भा। बिरचे कनक कदलि के खम्भा॥4॥

भावार्थ

उन्होन्ने अनेक कारीगरों को बुला भेजा, जो मण्डप बनाने में कुशल और चतुर थे। उन्होन्ने ब्रह्मा की वन्दना करके कार्य आरम्भ किया और (पहले) सोने के केले के खम्भे बनाए॥4॥

287

01 दोहा

हरित मनिन्ह के पत्र फल पदुमराग के फूल।
रचना देखि बिचित्र अति मनु बिरञ्चि कर भूल॥287॥

मूल

हरित मनिन्ह के पत्र फल पदुमराग के फूल।
रचना देखि बिचित्र अति मनु बिरञ्चि कर भूल॥287॥

भावार्थ

हरी-हरी मणियों (पन्ने) के पत्ते और फल बनाए तथा पद्मराग मणियों (माणिक) के फूल बनाए। मण्डप की अत्यन्त विचित्र रचना देखकर ब्रह्मा का मन भी भूल गया॥287॥

02 चौपाई

बेनु हरित मनिमय सब कीन्हे। सरल सपरब परहिं नहिं चीन्हे॥
कनक कलित अहिबेलि बनाई। लखि नहिं परइ सपरन सुहाई॥1॥

मूल

बेनु हरित मनिमय सब कीन्हे। सरल सपरब परहिं नहिं चीन्हे॥
कनक कलित अहिबेलि बनाई। लखि नहिं परइ सपरन सुहाई॥1॥

भावार्थ

बाँस सब हरी-हरी मणियों (पन्ने) के सीधे और गाँठों से युक्त ऐसे बनाए जो पहचाने नहीं जाते थे (कि मणियों के हैं या साधारण)। सोने की सुन्दर नागबेली (पान की लता) बनाई, जो पत्तों सहित ऐसी भली मालूम होती थी कि पहचानी नहीं जाती थी॥1॥

तेहि के रचि पचि बन्ध बनाए। बिच बिच मुकुता दाम सुहाए॥
मानिक मरकत कुलिस पिरोजा। चीरि कोरि पचि रचे सरोजा॥2॥

मूल

तेहि के रचि पचि बन्ध बनाए। बिच बिच मुकुता दाम सुहाए॥
मानिक मरकत कुलिस पिरोजा। चीरि कोरि पचि रचे सरोजा॥2॥

भावार्थ

उसी नागबेली के रचकर और पच्चीकारी करके बन्धन (बाँधने की रस्सी) बनाए। बीच-बीच में मोतियों की सुन्दर झालरें हैं। माणिक, पन्ने, हीरे और िफरोजे, इन रत्नों को चीरकर, कोरकर और पच्चीकारी करके, इनके (लाल, हरे, सफेद और फिरोजी रङ्ग के) कमल बनाए॥2॥

किए भृङ्ग बहुरङ्ग बिहङ्गा। गुञ्जहिं कूजहिं पवन प्रसङ्गा॥
सुर प्रतिमा खम्भन गढि काढीं। मङ्गल द्रब्य लिएँ सब ठाढीं॥3॥

मूल

किए भृङ्ग बहुरङ्ग बिहङ्गा। गुञ्जहिं कूजहिं पवन प्रसङ्गा॥
सुर प्रतिमा खम्भन गढि काढीं। मङ्गल द्रब्य लिएँ सब ठाढीं॥3॥

भावार्थ

भौंरे और बहुत रङ्गों के पक्षी बनाए, जो हवा के सहारे गूँजते और कूजते थे। खम्भों पर देवताओं की मूर्तियाँ गढकर निकालीं, जो सब मङ्गल द्रव्य लिए खडी थीं॥3॥

चौकें भाँति अनेक पुराईं। सिन्धुर मनिमय सहज सुहाईं॥4॥

मूल

चौकें भाँति अनेक पुराईं। सिन्धुर मनिमय सहज सुहाईं॥4॥

भावार्थ

गजमुक्ताओं के सहज ही सुहावने अनेकों तरह के चौक पुराए॥4॥

288

01 दोहा

सौरभ पल्लव सुभग सुठि किए नीलमनि कोरि।
हेम बौर मरकत घवरि लसत पाटमय डोरि॥288॥

मूल

सौरभ पल्लव सुभग सुठि किए नीलमनि कोरि।
हेम बौर मरकत घवरि लसत पाटमय डोरि॥288॥

भावार्थ

नील मणि को कोरकर अत्यन्त सुन्दर आम के पत्ते बनाए। सोने के बौर (आम के फूल) और रेशम की डोरी से बँधे हुए पन्ने के बने फलों के गुच्छे सुशोभित हैं॥288॥

02 चौपाई

रचे रुचिर बर बन्दनिवारे। मनहुँ मनोभवँ फन्द सँवारे॥
मङ्गल कलश अनेक बनाए। ध्वज पताक पट चमर सुहाए॥1॥

मूल

रचे रुचिर बर बन्दनिवारे। मनहुँ मनोभवँ फन्द सँवारे॥
मङ्गल कलश अनेक बनाए। ध्वज पताक पट चमर सुहाए॥1॥

भावार्थ

ऐसे सुन्दर और उत्तम बन्दनवार बनाए मानो कामदेव ने फन्दे सजाए हों। अनेकों मङ्गल कलश और सुन्दर ध्वजा, पताका, परदे और चँवर बनाए॥1॥

दीप मनोहर मनिमय नाना। जाइ न बरनि बिचित्र बिताना॥
जेहिं मण्डप दुलहिनि बैदेही। सो बरनै असि मति कबि केही॥2॥

मूल

दीप मनोहर मनिमय नाना। जाइ न बरनि बिचित्र बिताना॥
जेहिं मण्डप दुलहिनि बैदेही। सो बरनै असि मति कबि केही॥2॥

भावार्थ

जिसमें मणियों के अनेकों सुन्दर दीपक हैं, उस विचित्र मण्डप का तो वर्णन ही नहीं किया जा सकता, जिस मण्डप में श्री जानकीजी दुलहिन होङ्गी, किस कवि की ऐसी बुद्धि है जो उसका वर्णन कर सके॥2॥

दूलहु रामु रूप गुन सागर। सो बितानु तिहुँ लोग उजागर॥
जनक भवन कै सोभा जैसी। गृह गृह प्रति पुर देखिअ तैसी॥3॥

मूल

दूलहु रामु रूप गुन सागर। सो बितानु तिहुँ लोग उजागर॥
जनक भवन कै सोभा जैसी। गृह गृह प्रति पुर देखिअ तैसी॥3॥

भावार्थ

जिस मण्डप में रूप और गुणों के समुद्र श्री रामचन्द्रजी दूल्हे होङ्गे, वह मण्डप तीनों लोकों में प्रसिद्ध होना ही चाहिए। जनकजी के महल की जैसी शोभा है, वैसी ही शोभा नगर के प्रत्येक घर की दिखाई देती है॥3॥

जेहिं तेरहुति तेहि समय निहारी। तेहि लघु लगहिं भुवन दस चारी॥
जो सम्पदा नीच गृह सोहा। सो बिलोकि सुरनायक मोहा॥4॥

मूल

जेहिं तेरहुति तेहि समय निहारी। तेहि लघु लगहिं भुवन दस चारी॥
जो सम्पदा नीच गृह सोहा। सो बिलोकि सुरनायक मोहा॥4॥

भावार्थ

उस समय जिसने तिरहुत को देखा, उसे चौदह भुवन तुच्छ जान पडे। जनकपुर में नीच के घर भी उस समय जो सम्पदा सुशोभित थी, उसे देखकर इन्द्र भी मोहित हो जाता था॥4॥

289

01 दोहा

बसइ नगर जेहिं लच्छि करि कपट नारि बर बेषु।
तेहि पुर कै सोभा कहत सकुचहिं सारद सेषु॥289॥

मूल

बसइ नगर जेहिं लच्छि करि कपट नारि बर बेषु।
तेहि पुर कै सोभा कहत सकुचहिं सारद सेषु॥289॥

भावार्थ

जिस नगर में साक्षात्‌ लक्ष्मीजी कपट से स्त्री का सुन्दर वेष बनाकर बसती हैं, उस पुर की शोभा का वर्णन करने में सरस्वती और शेष भी सकुचाते हैं॥289॥

02 चौपाई

पहुँचे दूत राम पुर पावन। हरषे नगर बिलोकि सुहावन॥
भूप द्वार तिन्ह खबरि जनाई। दसरथ नृप सुनि लिए बोलाई॥1॥

मूल

पहुँचे दूत राम पुर पावन। हरषे नगर बिलोकि सुहावन॥
भूप द्वार तिन्ह खबरि जनाई। दसरथ नृप सुनि लिए बोलाई॥1॥

भावार्थ

जनकजी के दूत श्री रामचन्द्रजी की पवित्र पुरी अयोध्या में पहुँचे। सुन्दर नगर देखकर वे हर्षित हुए। राजद्वार पर जाकर उन्होन्ने खबर भेजी, राजा दशरथजी ने सुनकर उन्हें बुला लिया॥1॥

करि प्रनामु तिन्ह पाती दीन्ही। मुदित महीप आपु उठि लीन्ही॥
बारि बिलोचन बाँचत पाती। पुलक गात आई भरि छाती॥2॥

मूल

करि प्रनामु तिन्ह पाती दीन्ही। मुदित महीप आपु उठि लीन्ही॥
बारि बिलोचन बाँचत पाती। पुलक गात आई भरि छाती॥2॥

भावार्थ

दूतों ने प्रणाम करके चिट्ठी दी। प्रसन्न होकर राजा ने स्वयं उठकर उसे लिया। चिट्ठी बाँचते समय उनके नेत्रों में जल (प्रेम और आनन्द के आँसू) छा गया, शरीर पुलकित हो गया और छाती भर आई॥2॥

रामु लखनु उर कर बर चीठी। रहि गए कहत न खाटी मीठी॥
पुनि धरि धीर पत्रिका बाँची। हरषी सभा बात सुनि साँची॥3॥

मूल

रामु लखनु उर कर बर चीठी। रहि गए कहत न खाटी मीठी॥
पुनि धरि धीर पत्रिका बाँची। हरषी सभा बात सुनि साँची॥3॥

भावार्थ

हृदय में राम और लक्ष्मण हैं, हाथ में सुन्दर चिट्ठी है, राजा उसे हाथ में लिए ही रह गए, खट्टी-मीठी कुछ भी कह न सके। फिर धीरज धरकर उन्होन्ने पत्रिका पढी। सारी सभा सच्ची बात सुनकर हर्षित हो गई॥3॥

खेलत रहे तहाँ सुधि पाई। आए भरतु सहित हित भाई॥
पूछत अति सनेहँ सकुचाई। तात कहाँ तें पाती आई॥4॥

मूल

खेलत रहे तहाँ सुधि पाई। आए भरतु सहित हित भाई॥
पूछत अति सनेहँ सकुचाई। तात कहाँ तें पाती आई॥4॥

भावार्थ

भरतजी अपने मित्रों और भाई शत्रुघ्न के साथ जहाँ खेलते थे, वहीं समाचार पाकर वे आ गए। बहुत प्रेम से सकुचाते हुए पूछते हैं- पिताजी! चिट्ठी कहाँ से आई है?॥4॥

290

01 दोहा

कुसल प्रानप्रिय बन्धु दोउ अहहिं कहहु केहिं देस।
सुनि सनेह साने बचन बाची बहुरि नरेस॥290॥

मूल

कुसल प्रानप्रिय बन्धु दोउ अहहिं कहहु केहिं देस।
सुनि सनेह साने बचन बाची बहुरि नरेस॥290॥

भावार्थ

हमारे प्राणों से प्यारे दोनों भाई, कहिए सकुशल तो हैं और वे किस देश में हैं? स्नेह से सने ये वचन सुनकर राजा ने फिर से चिट्ठी पढी॥290॥

02 चौपाई

सुनि पाती पुलके दोउ भ्राता। अधिन सनेहु समात न गाता॥
प्रीति पुनीत भरत कै देखी। सकल सभाँ सुखु लहेउ बिसेषी॥1॥

मूल

सुनि पाती पुलके दोउ भ्राता। अधिन सनेहु समात न गाता॥
प्रीति पुनीत भरत कै देखी। सकल सभाँ सुखु लहेउ बिसेषी॥1॥

भावार्थ

चिट्ठी सुनकर दोनों भाई पुलकित हो गए। स्नेह इतना अधिक हो गया कि वह शरीर में समाता नहीं। भरतजी का पवित्र प्रेम देखकर सारी सभा ने विशेष सुख पाया॥1॥

तब नृप दूत निकट बैठारे। मधुर मनोहर बचन उचारे॥
भैया कहहु कुसल दोउ बारे। तुम्ह नीकें निज नयन निहारे॥2॥

मूल

तब नृप दूत निकट बैठारे। मधुर मनोहर बचन उचारे॥
भैया कहहु कुसल दोउ बारे। तुम्ह नीकें निज नयन निहारे॥2॥

भावार्थ

तब राजा दूतों को पास बैठाकर मन को हरने वाले मीठे वचन बाले- भैया! कहो, दोनों बच्चे कुशल से तो हैं? तुमने अपनी आँखों से उन्हें अच्छी तरह देखा है न?॥2॥

स्यामल गौर धरें धनु भाथा। बय किसोर कौसिक मुनि साथा॥
पहिचानहु तुम्ह कहहु सुभाऊ। प्रेम बिबस पुनि पुनि कह राऊ॥3॥

मूल

स्यामल गौर धरें धनु भाथा। बय किसोर कौसिक मुनि साथा॥
पहिचानहु तुम्ह कहहु सुभाऊ। प्रेम बिबस पुनि पुनि कह राऊ॥3॥

भावार्थ

साँवले और गोरे शरीर वाले वे धनुष और तरकस धारण किए रहते हैं, किशोर अवस्था है, विश्वामित्र मुनि के साथ हैं। तुम उनको पहचानते हो तो उनका स्वभाव बताओ। राजा प्रेम के विशेष वश होने से बार-बार इस प्रकार कह (पूछ) रहे हैं॥3॥

जा दिन तें मुनि गए लवाई। तब तें आजु साँचि सुधि पाई॥
कहहु बिदेह कवन बिधि जाने। सुनि प्रिय बचन दूत मुसुकाने॥4॥

मूल

जा दिन तें मुनि गए लवाई। तब तें आजु साँचि सुधि पाई॥
कहहु बिदेह कवन बिधि जाने। सुनि प्रिय बचन दूत मुसुकाने॥4॥

भावार्थ

(भैया!) जिस दिन से मुनि उन्हें लिवा ले गए, तब से आज ही हमने सच्ची खबर पाई है। कहो तो महाराज जनक ने उन्हें कैसे पहचाना? ये प्रिय (प्रेम भरे) वचन सुनकर दूत मुस्कुराए॥4॥

291

01 दोहा

सुनहु महीपति मुकुट मनि तुम्ह सम धन्य न कोउ।
रामु लखनु जिन्ह के तनय बिस्व बिभूषन दोउ॥291॥

मूल

सुनहु महीपति मुकुट मनि तुम्ह सम धन्य न कोउ।
रामु लखनु जिन्ह के तनय बिस्व बिभूषन दोउ॥291॥

भावार्थ

(दूतों ने कहा-) हे राजाओं के मुकुटमणि! सुनिए, आपके समान धन्य और कोई नहीं है, जिनके राम-लक्ष्मण जैसे पुत्र हैं, जो दोनों विश्व के विभूषण हैं॥291॥

02 चौपाई

पूछन जोगु न तनय तुम्हारे। पुरुषसिङ्घ तिहु पुर उजिआरे॥
जिन्ह के जस प्रताप कें आगे। ससि मलीन रबि सीतल लागे॥1॥

मूल

पूछन जोगु न तनय तुम्हारे। पुरुषसिङ्घ तिहु पुर उजिआरे॥
जिन्ह के जस प्रताप कें आगे। ससि मलीन रबि सीतल लागे॥1॥

भावार्थ

आपके पुत्र पूछने योग्य नहीं हैं। वे पुरुषसिंह तीनों लोकों के प्रकाश स्वरूप हैं। जिनके यश के आगे चन्द्रमा मलिन और प्रताप के आगे सूर्य शीतल लगता है॥1॥

तिन्ह कहँ कहिअ नाथ किमि चीन्हे। देखिअ रबि कि दीप कर लीन्हे॥
सीय स्वयम्बर भूप अनेका। समिटे सुभट एक तें एका॥2॥

मूल

तिन्ह कहँ कहिअ नाथ किमि चीन्हे। देखिअ रबि कि दीप कर लीन्हे॥
सीय स्वयम्बर भूप अनेका। समिटे सुभट एक तें एका॥2॥

भावार्थ

हे नाथ! उनके लिए आप कहते हैं कि उन्हें कैसे पहचाना! क्या सूर्य को हाथ में दीपक लेकर देखा जाता है? सीताजी के स्वयंवर में अनेकों राजा और एक से एक बढकर योद्धा एकत्र हुए थे॥2॥

सम्भु सरासनु काहुँ न टारा। हारे सकल बीर बरिआरा॥
तीनि लोक महँ जे भटमानी। सभ कै सकति सम्भु धनु भानी॥3॥

मूल

सम्भु सरासनु काहुँ न टारा। हारे सकल बीर बरिआरा॥
तीनि लोक महँ जे भटमानी। सभ कै सकति सम्भु धनु भानी॥3॥

भावार्थ

परन्तु शिवजी के धनुष को कोई भी नहीं हटा सका। सारे बलवान वीर हार गए। तीनों लोकों में जो वीरता के अभिमानी थे, शिवजी के धनुष ने सबकी शक्ति तोड दी॥3॥

सकइ उठाइ सरासुर मेरू। सोउ हियँ हारि गयउ करि फेरू॥
जेहिं कौतुक सिवसैलु उठावा। सोउ तेहि सभाँ पराभउ पावा॥4॥

मूल

सकइ उठाइ सरासुर मेरू। सोउ हियँ हारि गयउ करि फेरू॥
जेहिं कौतुक सिवसैलु उठावा। सोउ तेहि सभाँ पराभउ पावा॥4॥

भावार्थ

बाणासुर, जो सुमेरु को भी उठा सकता था, वह भी हृदय में हारकर परिक्रमा करके चला गया और जिसने खेल से ही कैलास को उठा लिया था, वह रावण भी उस सभा में पराजय को प्राप्त हुआ॥4॥

292

01 दोहा

तहाँ राम रघुबंसमनि सुनिअ महा महिपाल।
भञ्जेउ चाप प्रयास बिनु जिमि गज पङ्कज नाल॥292॥

मूल

तहाँ राम रघुबंसमनि सुनिअ महा महिपाल।
भञ्जेउ चाप प्रयास बिनु जिमि गज पङ्कज नाल॥292॥

भावार्थ

हे महाराज! सुनिए, वहाँ (जहाँ ऐसे-ऐसे योद्धा हार मान गए) रघुवंशमणि श्री रामचन्द्रजी ने बिना ही प्रयास शिवजी के धनुष को वैसे ही तोड डाला जैसे हाथी कमल की डण्डी को तोड डालता है!॥292॥

02 चौपाई

सुनि सरोष भृगुनायकु आए। बहुत भाँति तिन्ह आँखि देखाए॥
देखि राम बलु निज धनु दीन्हा। करिबहु बिनय गवनु बन कीन्हा॥1॥

मूल

सुनि सरोष भृगुनायकु आए। बहुत भाँति तिन्ह आँखि देखाए॥
देखि राम बलु निज धनु दीन्हा। करिबहु बिनय गवनु बन कीन्हा॥1॥

भावार्थ

धनुष टूटने की बात सुनकर परशुरामजी क्रोध में भरे आए और उन्होन्ने बहुत प्रकार से आँखें दिखलाईं। अन्त में उन्होन्ने भी श्री रामचन्द्रजी का बल देखकर उन्हें अपना धनुष दे दिया और बहुत प्रकार से विनती करके वन को गमन किया॥1॥

राजन रामु अतुलबल जैसें। तेज निधान लखनु पुनि तैसें॥
कम्पहिं भूप बिलोकत जाकें। जिमि गज हरि किसोर के ताकें॥2॥

मूल

राजन रामु अतुलबल जैसें। तेज निधान लखनु पुनि तैसें॥
कम्पहिं भूप बिलोकत जाकें। जिमि गज हरि किसोर के ताकें॥2॥

भावार्थ

हे राजन्‌! जैसे श्री रामचन्द्रजी अतुलनीय बली हैं, वैसे ही तेज निधान फिर लक्ष्मणजी भी हैं, जिनके देखने मात्र से राजा लोग ऐसे काँप उठते थे, जैसे हाथी सिंह के बच्चे के ताकने से काँप उठते हैं॥2॥

देव देखि तव बालक दोऊ। अब न आँखि तर आवत कोऊ ॥
दूत बचन रचना प्रिय लागी। प्रेम प्रताप बीर रस पागी॥3॥

मूल

देव देखि तव बालक दोऊ। अब न आँखि तर आवत कोऊ ॥
दूत बचन रचना प्रिय लागी। प्रेम प्रताप बीर रस पागी॥3॥

भावार्थ

हे देव! आपके दोनों बालकों को देखने के बाद अब आँखों के नीचे कोई आता ही नहीं (हमारी दृष्टि पर कोई चढता ही नहीं)। प्रेम, प्रताप और वीर रस में पगी हुई दूतों की वचन रचना सबको बहुत प्रिय लगी॥3॥

सभा समेत राउ अनुरागे। दूतन्ह देन निछावरि लागे॥
कहि अनीति ते मूदहिं काना। धरमु बिचारि सबहिं सुखु माना॥4॥

मूल

सभा समेत राउ अनुरागे। दूतन्ह देन निछावरि लागे॥
कहि अनीति ते मूदहिं काना। धरमु बिचारि सबहिं सुखु माना॥4॥

भावार्थ

सभा सहित राजा प्रेम में मग्न हो गए और दूतों को निछावर देने लगे। (उन्हें निछावर देते देखकर) यह नीति विरुद्ध है, ऐसा कहकर दूत अपने हाथों से कान मूँदने लगे। धर्म को विचारकर (उनका धर्मयुक्त बर्ताव देखकर) सभी ने सुख माना॥4॥

293

01 दोहा

तब उठि भूप बसिष्ट कहुँ दीन्हि पत्रिका जाई।
कथा सुनाई गुरहि सब सादर दूत बोलाइ॥293॥

मूल

तब उठि भूप बसिष्ट कहुँ दीन्हि पत्रिका जाई।
कथा सुनाई गुरहि सब सादर दूत बोलाइ॥293॥

भावार्थ

तब राजा ने उठकर वशिष्ठजी के पास जाकर उन्हें पत्रिका दी और आदरपूर्वक दूतों को बुलाकर सारी कथा गुरुजी को सुना दी॥293॥

02 चौपाई

सुनि बोले गुर अति सुखु पाई। पुन्य पुरुष कहुँ महि सुख छाई॥
जिमि सरिता सागर महुँ जाहीं। जद्यपि ताहि कामना नाहीं॥1॥

मूल

सुनि बोले गुर अति सुखु पाई। पुन्य पुरुष कहुँ महि सुख छाई॥
जिमि सरिता सागर महुँ जाहीं। जद्यपि ताहि कामना नाहीं॥1॥

भावार्थ

सब समाचार सुनकर और अत्यन्त सुख पाकर गुरु बोले- पुण्यात्मा पुरुष के लिए पृथ्वी सुखों से छाई हुई है। जैसे नदियाँ समुद्र में जाती हैं, यद्यपि समुद्र को नदी की कामना नहीं होती॥1॥

तिमि सुख सम्पति बिनहिं बोलाएँ। धरमसील पहिं जाहिं सुभाएँ॥
तुम्ह गुर बिप्र धेनु सुर सेबी। तसि पुनीत कौसल्या देबी॥2॥

मूल

तिमि सुख सम्पति बिनहिं बोलाएँ। धरमसील पहिं जाहिं सुभाएँ॥
तुम्ह गुर बिप्र धेनु सुर सेबी। तसि पुनीत कौसल्या देबी॥2॥

भावार्थ

वैसे ही सुख और सम्पत्ति बिना ही बुलाए स्वाभाविक ही धर्मात्मा पुरुष के पास जाती है। तुम जैसे गुरु, ब्राह्मण, गाय और देवता की सेवा करने वाले हो, वैसी ही पवित्र कौसल्यादेवी भी हैं॥2॥

सुकृती तुम्ह समान जग माहीं। भयउ न है कोउ होनेउ नाहीं॥
तुम्ह ते अधिक पुन्य बड काकें। राजन राम सरिस सुत जाकें॥3॥

मूल

सुकृती तुम्ह समान जग माहीं। भयउ न है कोउ होनेउ नाहीं॥
तुम्ह ते अधिक पुन्य बड काकें। राजन राम सरिस सुत जाकें॥3॥

भावार्थ

तुम्हारे समान पुण्यात्मा जगत में न कोई हुआ, न है और न होने का ही है। हे राजन्‌! तुमसे अधिक पुण्य और किसका होगा, जिसके राम सरीखे पुत्र हैं॥3॥

बीर बिनीत धरम ब्रत धारी। गुन सागर बर बालक चारी॥
तुम्ह कहुँ सर्ब काल कल्याना। सजहु बरात बजाइ निसाना॥4॥

मूल

बीर बिनीत धरम ब्रत धारी। गुन सागर बर बालक चारी॥
तुम्ह कहुँ सर्ब काल कल्याना। सजहु बरात बजाइ निसाना॥4॥

भावार्थ

और जिसके चारों बालक वीर, विनम्र, धर्म का व्रत धारण करने वाले और गुणों के सुन्दर समुद्र हैं। तुम्हारे लिए सभी कालों में कल्याण है। अतएव डङ्का बजवाकर बारात सजाओ॥4॥

294

01 दोहा

चलहु बेगि सुनि गुर बचन भलेहिं नाथ सिरु नाई।
भूपति गवने भवन तब दूतन्ह बासु देवाइ॥294॥

मूल

चलहु बेगि सुनि गुर बचन भलेहिं नाथ सिरु नाई।
भूपति गवने भवन तब दूतन्ह बासु देवाइ॥294॥

भावार्थ

और जल्दी चलो। गुरुजी के ऐसे वचन सुनकर, हे नाथ! बहुत अच्छा कहकर और सिर नवाकर तथा दूतों को डेरा दिलवाकर राजा महल में गए॥294॥

02 चौपाई

राजा सबु रनिवास बोलाई। जनक पत्रिका बाचि सुनाई॥
सुनि सन्देसु सकल हरषानीं। अपर कथा सब भूप बखानीं॥1॥

मूल

राजा सबु रनिवास बोलाई। जनक पत्रिका बाचि सुनाई॥
सुनि सन्देसु सकल हरषानीं। अपर कथा सब भूप बखानीं॥1॥

भावार्थ

राजा ने सारे रनिवास को बुलाकर जनकजी की पत्रिका बाँचकर सुनाई। समाचार सुनकर सब रानियाँ हर्ष से भर गईं। राजा ने फिर दूसरी सब बातों का (जो दूतों के मुख से सुनी थीं) वर्णन किया॥1॥

प्रेम प्रफुल्लित राजहिं रानी। मनहुँ सिखिनि सुनि बारिद बानी॥
मुदित असीस देहिं गुर नारीं। अति आनन्द मगन महतारीं॥2॥

मूल

प्रेम प्रफुल्लित राजहिं रानी। मनहुँ सिखिनि सुनि बारिद बानी॥
मुदित असीस देहिं गुर नारीं। अति आनन्द मगन महतारीं॥2॥

भावार्थ

प्रेम में प्रफुल्लित हुई रानियाँ ऐसी सुशोभित हो रही हैं, जैसे मोरनी बादलों की गरज सुनकर प्रफुल्लित होती हैं। बडी-बूढी (अथवा गुरुओं की) स्त्रियाँ प्रसन्न होकर आशीर्वाद दे रही हैं। माताएँ अत्यन्त आनन्द में मग्न हैं॥2॥

लेहिं परस्पर अति प्रिय पाती। हृदयँ लगाई जुडावहिं छाती॥
राम लखन कै कीरति करनी। बारहिं बार भूपबर बरनी॥3॥

मूल

लेहिं परस्पर अति प्रिय पाती। हृदयँ लगाई जुडावहिं छाती॥
राम लखन कै कीरति करनी। बारहिं बार भूपबर बरनी॥3॥

भावार्थ

उस अत्यन्त प्रिय पत्रिका को आपस में लेकर सब हृदय से लगाकर छाती शीतल करती हैं। राजाओं में श्रेष्ठ दशरथजी ने श्री राम-लक्ष्मण की कीर्ति और करनी का बारम्बार वर्णन किया॥3॥

मुनि प्रसादु कहि द्वार सिधाए। रानिन्ह तब महिदेव बोलाए॥
दिए दान आनन्द समेता। चले बिप्रबर आसिष देता॥4॥

मूल

मुनि प्रसादु कहि द्वार सिधाए। रानिन्ह तब महिदेव बोलाए॥
दिए दान आनन्द समेता। चले बिप्रबर आसिष देता॥4॥

भावार्थ

‘यह सब मुनि की कृपा है’ ऐसा कहकर वे बाहर चले आए। तब रानियों ने ब्राह्मणों को बुलाया और आनन्द सहित उन्हें दान दिए। श्रेष्ठ ब्राह्मण आशीर्वाद देते हुए चले॥4॥

295

01 सोरठा

जाचक लिए हँकारि दीन्हि निछावरि कोटि बिधि।
चिरु जीवहुँ सुत चारि चक्रबर्ति दसरत्थ के॥295॥

मूल

जाचक लिए हँकारि दीन्हि निछावरि कोटि बिधि।
चिरु जीवहुँ सुत चारि चक्रबर्ति दसरत्थ के॥295॥

भावार्थ

फिर भिक्षुकों को बुलाकर करोडों प्रकार की निछावरें उनको दीं। ‘चक्रवर्ती महाराज दशरथ के चारों पुत्र चिरञ्जीवी हों’॥295॥

02 चौपाई

कहत चले पहिरें पट नाना। हरषि हने गहगहे निसाना॥
समाचार सब लोगन्ह पाए। लागे घर-घर होन बधाए॥1॥

मूल

कहत चले पहिरें पट नाना। हरषि हने गहगहे निसाना॥
समाचार सब लोगन्ह पाए। लागे घर-घर होन बधाए॥1॥

भावार्थ

यों कहते हुए वे अनेक प्रकार के सुन्दर वस्त्र पहन-पहनकर चले। आनन्दित होकर नगाडे वालों ने बडे जोर से नगाडों पर चोट लगाई। सब लोगों ने जब यह समाचार पाया, तब घर-घर बधावे होने लगे॥1॥

भुवन चारिदस भरा उछाहू। जनकसुता रघुबीर बिआहू॥
सुनि सुभ कथा लोग अनुरागे। मग गृह गलीं सँवारन लागे॥2॥

मूल

भुवन चारिदस भरा उछाहू। जनकसुता रघुबीर बिआहू॥
सुनि सुभ कथा लोग अनुरागे। मग गृह गलीं सँवारन लागे॥2॥

भावार्थ

चौदहों लोकों में उत्साह भर गया कि जानकीजी और श्री रघुनाथजी का विवाह होगा। यह शुभ समाचार पाकर लोग प्रेममग्न हो गए और रास्ते, घर तथा गलियाँ सजाने लगे॥2॥

जद्यपि अवध सदैव सुहावनि। रामपुरी मङ्गलमय पावनि॥
तदपि प्रीति कै प्रीति सुहाई। मङ्गल रचना रची बनाई॥3॥

मूल

जद्यपि अवध सदैव सुहावनि। रामपुरी मङ्गलमय पावनि॥
तदपि प्रीति कै प्रीति सुहाई। मङ्गल रचना रची बनाई॥3॥

भावार्थ

यद्यपि अयोध्या सदा सुहावनी है, क्योङ्कि वह श्री रामजी की मङ्गलमयी पवित्र पुरी है, तथापि प्रीति पर प्रीति होने से वह सुन्दर मङ्गल रचना से सजाई गई॥3॥

ध्वज पताक पट चामर चारू। छावा परम बिचित्र बजारू॥
कनक कलस तोरन मनि जाला। हरद दूब दधि अच्छत माला॥4॥

मूल

ध्वज पताक पट चामर चारू। छावा परम बिचित्र बजारू॥
कनक कलस तोरन मनि जाला। हरद दूब दधि अच्छत माला॥4॥

भावार्थ

ध्वजा, पताका, परदे और सुन्दर चँवरों से सारा बाजा बहुत ही अनूठा छाया हुआ है। सोने के कलश, तोरण, मणियों की झालरें, हलदी, दूब, दही, अक्षत और मालाओं से-॥4॥

296

01 दोहा

मङ्गलमय निज निज भवन लोगन्ह रचे बनाइ।
बीथीं सीञ्चीं चतुरसम चौकें चारु पुराइ॥296॥

मूल

मङ्गलमय निज निज भवन लोगन्ह रचे बनाइ।
बीथीं सीञ्चीं चतुरसम चौकें चारु पुराइ॥296॥

भावार्थ

लोगों ने अपने-अपने घरों को सजाकर मङ्गलमय बना लिया। गलियों को चतुर सम से सीञ्चा और (द्वारों पर) सुन्दर चौक पुराए। (चन्दन, केशर, कस्तूरी और कपूर से बने हुए एक सुगन्धित द्रव को चतुरसम कहते हैं)॥296॥

02 चौपाई

जहँ तहँ जूथ जूथ मिलि भामिनि। सजि नव सप्त सकल दुति दामिनि॥
बिधुबदनीं मृग सावक लोचनि। निज सरूप रति मानु बिमोचनि॥1॥

मूल

जहँ तहँ जूथ जूथ मिलि भामिनि। सजि नव सप्त सकल दुति दामिनि॥
बिधुबदनीं मृग सावक लोचनि। निज सरूप रति मानु बिमोचनि॥1॥

भावार्थ

बिजली की सी कान्ति वाली चन्द्रमुखी, हरिन के बच्चे के से नेत्र वाली और अपने सुन्दर रूप से कामदेव की स्त्री रति के अभिमान को छुडाने वाली सुहागिनी स्त्रियाँ सभी सोलहों श्रृङ्गार सजकर, जहाँ-तहाँ झुण्ड की झुण्ड मिलकर,॥1॥

गावहिं मङ्गल मञ्जुल बानीं। सुनि कल रव कलकण्ठि लजानीं॥
भूप भवन किमि जाइ बखाना। बिस्व बिमोहन रचेउ बिताना॥2॥

मूल

गावहिं मङ्गल मञ्जुल बानीं। सुनि कल रव कलकण्ठि लजानीं॥
भूप भवन किमि जाइ बखाना। बिस्व बिमोहन रचेउ बिताना॥2॥

भावार्थ

मनोहर वाणी से मङ्गल गीत गा रही हैं, जिनके सुन्दर स्वर को सुनकर कोयलें भी लजा जाती हैं। राजमहल का वर्णन कैसे किया जाए, जहाँ विश्व को विमोहित करने वाला मण्डप बनाया गया है॥2॥

मङ्गल द्रब्य मनोहर नाना। राजत बाजत बिपुल निसाना॥
कतहुँ बिरिद बन्दी उच्चरहीं। कतहुँ बेद धुनि भूसुर करहीं॥3॥

मूल

मङ्गल द्रब्य मनोहर नाना। राजत बाजत बिपुल निसाना॥
कतहुँ बिरिद बन्दी उच्चरहीं। कतहुँ बेद धुनि भूसुर करहीं॥3॥

भावार्थ

अनेकों प्रकार के मनोहर माङ्गलिक पदार्थ शोभित हो रहे हैं और बहुत से नगाडे बज रहे हैं। कहीं भाट विरुदावली (कुलकीर्ति) का उच्चारण कर रहे हैं और कहीं ब्राह्मण वेदध्वनि कर रहे हैं॥3॥

गावहिं सुन्दरि मङ्गल गीता। लै लै नामु रामु अरु सीता॥
बहुत उछाहु भवनु अति थोरा। मानहुँ उमगि चला चहु ओरा॥4॥

मूल

गावहिं सुन्दरि मङ्गल गीता। लै लै नामु रामु अरु सीता॥
बहुत उछाहु भवनु अति थोरा। मानहुँ उमगि चला चहु ओरा॥4॥

भावार्थ

सुन्दरी स्त्रियाँ श्री रामजी और श्री सीताजी का नाम ले-लेकर मङ्गलगीत गा रही हैं। उत्साह बहुत है और महल अत्यन्त ही छोटा है। इससे (उसमें न समाकर) मानो वह उत्साह (आनन्द) चारों ओर उमड चला है॥4॥

297

01 दोहा

सोभा दसरथ भवन कइ को कबि बरनै पार।
जहाँ सकल सुर सीस मनि राम लीन्ह अवतार॥297॥

मूल

सोभा दसरथ भवन कइ को कबि बरनै पार।
जहाँ सकल सुर सीस मनि राम लीन्ह अवतार॥297॥

भावार्थ

दशरथ के महल की शोभा का वर्णन कौन कवि कर सकता है, जहाँ समस्त देवताओं के शिरोमणि रामचन्द्रजी ने अवतार लिया है॥297॥

02 चौपाई

भूप भरत पुनि लिए बोलाई। हय गयस्यन्दन साजहु जाई॥
चलहु बेगि रघुबीर बराता। सुनत पुलक पूरे दोउ भ्राता॥1॥

मूल

भूप भरत पुनि लिए बोलाई। हय गयस्यन्दन साजहु जाई॥
चलहु बेगि रघुबीर बराता। सुनत पुलक पूरे दोउ भ्राता॥1॥

भावार्थ

फिर राजा ने भरतजी को बुला लिया और कहा कि जाकर घोडे, हाथी और रथ सजाओ, जल्दी रामचन्द्रजी की बारात में चलो। यह सुनते ही दोनों भाई (भरतजी और शत्रुघ्नजी) आनन्दवश पुलक से भर गए॥1॥

भरत सकल साहनी बोलाए। आयसु दीन्ह मुदित उठि धाए॥
रचि रुचि जीन तुरग तिन्ह साजे। बरन बरन बर बाजि बिराजे॥2॥

मूल

भरत सकल साहनी बोलाए। आयसु दीन्ह मुदित उठि धाए॥
रचि रुचि जीन तुरग तिन्ह साजे। बरन बरन बर बाजि बिराजे॥2॥

भावार्थ

भरतजी ने सब साहनी (घुडसाल के अध्यक्ष) बुलाए और उन्हें (घोडों को सजाने की) आज्ञा दी, वे प्रसन्न होकर उठ दौडे। उन्होन्ने रुचि के साथ (यथायोग्य) जीनें कसकर घोडे सजाए। रङ्ग-रङ्ग के उत्तम घोडे शोभित हो गए॥2॥

सुभग सकल सुठि चञ्चल करनी। अय इव जरत धरत पग धरनी॥
नाना जाति न जाहिं बखाने। निदरि पवनु जनु चहत उडाने॥3॥

मूल

सुभग सकल सुठि चञ्चल करनी। अय इव जरत धरत पग धरनी॥
नाना जाति न जाहिं बखाने। निदरि पवनु जनु चहत उडाने॥3॥

भावार्थ

सब घोडे बडे ही सुन्दर और चञ्चल करनी (चाल) के हैं। वे धरती पर ऐसे पैर रखते हैं जैसे जलते हुए लोहे पर रखते हों। अनेकों जाति के घोडे हैं, जिनका वर्णन नहीं हो सकता। (ऐसी तेज चाल के हैं) मानो हवा का निरादर करके उडना चाहते हैं॥3॥

तिन्ह सब छयल भए असवारा। भरत सरिस बय राजकुमारा॥
सब सुन्दर सब भूषनधारी। कर सर चाप तून कटि भारी॥4॥

मूल

तिन्ह सब छयल भए असवारा। भरत सरिस बय राजकुमारा॥
सब सुन्दर सब भूषनधारी। कर सर चाप तून कटि भारी॥4॥

भावार्थ

उन सब घोडों पर भरतजी के समान अवस्था वाले सब छैल-छबीले राजकुमार सवार हुए। वे सभी सुन्दर हैं और सब आभूषण धारण किए हुए हैं। उनके हाथों में बाण और धनुष हैं तथा कमर में भारी तरकस बँधे हैं॥4॥

298

01 दोहा

छरे छबीले छयल सब सूर सुजान नबीन।
जुग पदचर असवार प्रति जे असिकला प्रबीन॥298॥

मूल

छरे छबीले छयल सब सूर सुजान नबीन।
जुग पदचर असवार प्रति जे असिकला प्रबीन॥298॥

भावार्थ

सभी चुने हुए छबीले छैल, शूरवीर, चतुर और नवयुवक हैं। प्रत्येक सवार के साथ दो पैदल सिपाही हैं, जो तलवार चलाने की कला में बडे निपुण हैं॥298॥

02 चौपाई

बाँधें बिरद बीर रन गाढे। निकसि भए पुर बाहेर ठाढे॥
फेरहिं चतुर तुरग गति नाना। हरषहिं सुनि सुनि पनव निसाना॥1॥

मूल

बाँधें बिरद बीर रन गाढे। निकसि भए पुर बाहेर ठाढे॥
फेरहिं चतुर तुरग गति नाना। हरषहिं सुनि सुनि पनव निसाना॥1॥

भावार्थ

शूरता का बाना धारण किए हुए रणधीर वीर सब निकलकर नगर के बाहर आ खडे हुए। वे चतुर अपने घोडों को तरह-तरह की चालों से फेर रहे हैं और भेरी तथा नगाडे की आवाज सुन-सुनकर प्रसन्न हो रहे हैं॥1॥

रथ सारथिन्ह बिचित्र बनाए। ध्वज पताक मनि भूषन लाए॥
चवँर चारु किङ्किनि धुनि करहीं। भानु जान सोभा अपहरहीं॥2॥

मूल

रथ सारथिन्ह बिचित्र बनाए। ध्वज पताक मनि भूषन लाए॥
चवँर चारु किङ्किनि धुनि करहीं। भानु जान सोभा अपहरहीं॥2॥

भावार्थ

सारथियों ने ध्वजा, पताका, मणि और आभूषणों को लगाकर रथों को बहुत विलक्षण बना दिया है। उनमें सुन्दर चँवर लगे हैं और घण्टियाँ सुन्दर शब्द कर रही हैं। वे रथ इतने सुन्दर हैं, मानो सूर्य के रथ की शोभा को छीने लेते हैं॥2॥

सावँकरन अगनित हय होते। ते तिन्ह रथन्ह सारथिन्ह जोते॥
सुन्दर सकल अलङ्कृत सोहे। जिन्हहि बिलोकत मुनि मन मोहे॥3॥

मूल

सावँकरन अगनित हय होते। ते तिन्ह रथन्ह सारथिन्ह जोते॥
सुन्दर सकल अलङ्कृत सोहे। जिन्हहि बिलोकत मुनि मन मोहे॥3॥

भावार्थ

अगणित श्यामवर्ण घोडे थे। उनको सारथियों ने उन रथों में जोत दिया है, जो सभी देखने में सुन्दर और गहनों से सजाए हुए सुशोभित हैं और जिन्हें देखकर मुनियों के मन भी मोहित हो जाते हैं॥3॥

जे जल चलहिं थलहि की नाईं। टाप न बूड बेग अधिकाईं॥
अस्त्र सस्त्र सबु साजु बनाई। रथी सारथिन्ह लिए बोलाई॥4॥

मूल

जे जल चलहिं थलहि की नाईं। टाप न बूड बेग अधिकाईं॥
अस्त्र सस्त्र सबु साजु बनाई। रथी सारथिन्ह लिए बोलाई॥4॥

भावार्थ

जो जल पर भी जमीन की तरह ही चलते हैं। वेग की अधिकता से उनकी टाप पानी में नहीं डूबती। अस्त्र-शस्त्र और सब साज सजाकर सारथियों ने रथियों को बुला लिया॥4॥

299

01 दोहा

चढि चढि रथ बाहेर नगर लागी जुरन बरात।
होत सगुन सुन्दर सबहि जो जेहि कारज जात॥299॥

मूल

चढि चढि रथ बाहेर नगर लागी जुरन बरात।
होत सगुन सुन्दर सबहि जो जेहि कारज जात॥299॥

भावार्थ

रथों पर चढ-चढकर बारात नगर के बाहर जुटने लगी, जो जिस काम के लिए जाता है, सभी को सुन्दर शकुन होते हैं॥299॥

02 चौपाई

कलित करिबरन्हि परीं अँबारीं। कहि न जाहिं जेहि भाँति सँवारीं॥
चले मत्त गज घण्ट बिराजी। मनहुँ सुभग सावन घन राजी॥1॥

मूल

कलित करिबरन्हि परीं अँबारीं। कहि न जाहिं जेहि भाँति सँवारीं॥
चले मत्त गज घण्ट बिराजी। मनहुँ सुभग सावन घन राजी॥1॥

भावार्थ

श्रेष्ठ हाथियों पर सुन्दर अम्बारियाँ पडी हैं। वे जिस प्रकार सजाई गई थीं, सो कहा नहीं जा सकता। मतवाले हाथी घण्टों से सुशोभित होकर (घण्टे बजाते हुए) चले, मानो सावन के सुन्दर बादलों के समूह (गरते हुए) जा रहे हों॥

बाहन अपर अनेक बिधाना। सिबिका सुभग सुखासन जाना॥
तिन्ह चढि चले बिप्रबर बृन्दा। जनु तनु धरें सकल श्रुति छन्दा॥2॥

मूल

बाहन अपर अनेक बिधाना। सिबिका सुभग सुखासन जाना॥
तिन्ह चढि चले बिप्रबर बृन्दा। जनु तनु धरें सकल श्रुति छन्दा॥2॥

भावार्थ

सुन्दर पालकियाँ, सुख से बैठने योग्य तामजान (जो कुर्सीनुमा होते हैं) और रथ आदि और भी अनेकों प्रकार की सवारियाँ हैं। उन पर श्रेष्ठ ब्राह्मणों के समूह चढकर चले, मानो सब वेदों के छन्द ही शरीर धारण किए हुए हों॥2॥

मागध सूत बन्धि गुनगायक। चले जान चढि जो जेहि लायक॥
बेसर ऊँट बृषभ बहु जाती। चले बस्तु भरि अगनित भाँती॥3॥

मूल

मागध सूत बन्धि गुनगायक। चले जान चढि जो जेहि लायक॥
बेसर ऊँट बृषभ बहु जाती। चले बस्तु भरि अगनित भाँती॥3॥

भावार्थ

मागध, सूत, भाट और गुण गाने वाले सब, जो जिस योग्य थे, वैसी सवारी पर चढकर चले। बहुत जातियों के खच्चर, ऊँट और बैल असङ्ख्यों प्रकार की वस्तुएँ लाद-लादकर चले॥3॥

कोटिन्ह काँवरि चले कहारा। बिबिध बस्तु को बरनै पारा॥
चले सकल सेवक समुदाई। निज निज साजु समाजु बनाई॥4॥

मूल

कोटिन्ह काँवरि चले कहारा। बिबिध बस्तु को बरनै पारा॥
चले सकल सेवक समुदाई। निज निज साजु समाजु बनाई॥4॥

भावार्थ

कहार करोडों काँवरें लेकर चले। उनमें अनेकों प्रकार की इतनी वस्तुएँ थीं कि जिनका वर्णन कौन कर सकता है। सब सेवकों के समूह अपना-अपना साज-समाज बनाकर चले॥4॥

300

01 दोहा

सब कें उर निर्भर हरषु पूरित पुलक सरीर।
कबहिं देखिबे नयन भरि रामु लखनु दोउ बीर॥300॥

मूल

सब कें उर निर्भर हरषु पूरित पुलक सरीर।
कबहिं देखिबे नयन भरि रामु लखनु दोउ बीर॥300॥

भावार्थ

सबके हृदय में अपार हर्ष है और शरीर पुलक से भरे हैं। (सबको एक ही लालसा लगी है कि) हम श्री राम-लक्ष्मण दोनों भाइयों को नेत्र भरकर कब देखेङ्गे॥300॥

02 चौपाई

गरजहिं गज घण्टा धुनि घोरा। रथ रव बाजि हिंस चहु ओरा॥
निदरि घनहि घुर्म्मरहिं निसाना। निज पराइ कछु सुनिअ न काना॥1॥

मूल

गरजहिं गज घण्टा धुनि घोरा। रथ रव बाजि हिंस चहु ओरा॥
निदरि घनहि घुर्म्मरहिं निसाना। निज पराइ कछु सुनिअ न काना॥1॥

भावार्थ

हाथी गरज रहे हैं, उनके घण्टों की भीषण ध्वनि हो रही है। चारों ओर रथों की घरघराहट और घोडों की हिनहिनाहट हो रही है। बादलों का निरादर करते हुए नगाडे घोर शब्द कर रहे हैं। किसी को अपनी-पराई कोई बात कानों से सुनाई नहीं देती॥1॥

महा भीर भूपति के द्वारें। रज होइ जाइ पषान पबारें॥
चढी अटारिन्ह देखहिं नारीं। लिएँ आरती मङ्गल थारीं॥2॥

मूल

महा भीर भूपति के द्वारें। रज होइ जाइ पषान पबारें॥
चढी अटारिन्ह देखहिं नारीं। लिएँ आरती मङ्गल थारीं॥2॥

भावार्थ

राजा दशरथ के दरवाजे पर इतनी भारी भीड हो रही है कि वहाँ पत्थर फेङ्का जाए तो वह भी पिसकर धूल हो जाए। अटारियों पर चढी स्त्रियाँ मङ्गल थालों में आरती लिए देख रही हैं॥2॥

गावहिं गीत मनोहर नाना। अति आनन्दु न जाइ बखाना॥
तब सुमन्त्र दुइ स्यन्दन साजी। जोते रबि हय निन्दक बाजी॥3॥

मूल

गावहिं गीत मनोहर नाना। अति आनन्दु न जाइ बखाना॥
तब सुमन्त्र दुइ स्यन्दन साजी। जोते रबि हय निन्दक बाजी॥3॥

भावार्थ

और नाना प्रकार के मनोहर गीत गा रही हैं। उनके अत्यन्त आनन्द का बखान नहीं हो सकता। तब सुमन्त्रजी ने दो रथ सजाकर उनमें सूर्य के घोडों को भी मात करने वाले घोडे जोते॥3॥

दोउ रथ रुचिर भूप पहिं आने। नहिं सारद पहिं जाहिं बखाने॥
राज समाजु एक रथ साजा। दूसर तेज पुञ्ज अति भ्राजा॥4॥

मूल

दोउ रथ रुचिर भूप पहिं आने। नहिं सारद पहिं जाहिं बखाने॥
राज समाजु एक रथ साजा। दूसर तेज पुञ्ज अति भ्राजा॥4॥

भावार्थ

दोनों सुन्दर रथ वे राजा दशरथ के पास ले आए, जिनकी सुन्दरता का वर्णन सरस्वती से भी नहीं हो सकता। एक रथ पर राजसी सामान सजाया गया और दूसरा जो तेज का पुञ्ज और अत्यन्त ही शोभायमान था,॥4॥

301

01 दोहा

तेहिं रथ रुचिर बसिष्ठ कहुँ हरषि चढाई नरेसु।
आपु चढेउ स्यन्दन सुमिरि हर गुर गौरि गनेसु॥301॥

मूल

तेहिं रथ रुचिर बसिष्ठ कहुँ हरषि चढाई नरेसु।
आपु चढेउ स्यन्दन सुमिरि हर गुर गौरि गनेसु॥301॥

भावार्थ

उस सुन्दर रथ पर राजा वशिष्ठजी को हर्ष पूर्वक चढाकर फिर स्वयं शिव, गुरु, गौरी (पार्वती) और गणेशजी का स्मरण करके (दूसरे) रथ पर चढे॥301॥

02 चौपाई

सहित बसिष्ठ सोह नृप कैसें। सुर गुर सङ्ग पुरन्दर जैसें॥
करि कुल रीति बेद बिधि राऊ। देखि सबहि सब भाँति बनाऊ॥1॥

मूल

सहित बसिष्ठ सोह नृप कैसें। सुर गुर सङ्ग पुरन्दर जैसें॥
करि कुल रीति बेद बिधि राऊ। देखि सबहि सब भाँति बनाऊ॥1॥

भावार्थ

वशिष्ठजी के साथ (जाते हुए) राजा दशरथजी कैसे शोभित हो रहे हैं, जैसे देव गुरु बृहस्पतिजी के साथ इन्द्र हों। वेद की विधि से और कुल की रीति के अनुसार सब कार्य करके तथा सबको सब प्रकार से सजे देखकर,॥1॥

सुमिरि रामु गुर आयसु पाई। चले महीपति सङ्ख बजाई॥
हरषे बिबुध बिलोकि बराता। बरषहिं सुमन सुमङ्गल दाता॥2॥

मूल

सुमिरि रामु गुर आयसु पाई। चले महीपति सङ्ख बजाई॥
हरषे बिबुध बिलोकि बराता। बरषहिं सुमन सुमङ्गल दाता॥2॥

भावार्थ

श्री रामचन्द्रजी का स्मरण करके, गुरु की आज्ञा पाकर पृथ्वी पति दशरथजी शङ्ख बजाकर चले। बारात देखकर देवता हर्षित हुए और सुन्दर मङ्गलदायक फूलों की वर्षा करने लगे॥2॥

भयउ कोलाहल हय गय गाजे। ब्योम बरात बाजने बाजे॥
सुर नर नारि सुमङ्गल गाईं। सरस राग बाजहिं सहनाईं॥3॥

मूल

भयउ कोलाहल हय गय गाजे। ब्योम बरात बाजने बाजे॥
सुर नर नारि सुमङ्गल गाईं। सरस राग बाजहिं सहनाईं॥3॥

भावार्थ

बडा शोर मच गया, घोडे और हाथी गरजने लगे। आकाश में और बारात में (दोनों जगह) बाजे बजने लगे। देवाङ्गनाएँ और मनुष्यों की स्त्रियाँ सुन्दर मङ्गलगान करने लगीं और रसीले राग से शहनाइयाँ बजने लगीं॥3॥

घण्ट घण्टि धुनि बरनि न जाहीं। सरव करहिं पाइक फहराहीं॥
करहिं बिदूषक कौतुक नाना। हास कुसल कल गान सुजाना॥4॥

मूल

घण्ट घण्टि धुनि बरनि न जाहीं। सरव करहिं पाइक फहराहीं॥
करहिं बिदूषक कौतुक नाना। हास कुसल कल गान सुजाना॥4॥

भावार्थ

घण्टे-घण्टियों की ध्वनि का वर्णन नहीं हो सकता। पैदल चलने वाले सेवकगण अथवा पट्टेबाज कसरत के खेल कर रहे हैं और फहरा रहे हैं (आकाश में ऊँचे उछलते हुए जा रहे हैं।) हँसी करने में निपुण और सुन्दर गाने में चतुर विदूषक (मसखरे) तरह-तरह के तमाशे कर रहे हैं॥4॥

302

01 दोहा

तुरग नचावहिं कुअँर बर अकनि मृदङ्ग निसान।
नागर नट चितवहिं चकित डगहिं न ताल बँधान॥302॥

मूल

तुरग नचावहिं कुअँर बर अकनि मृदङ्ग निसान।
नागर नट चितवहिं चकित डगहिं न ताल बँधान॥302॥

भावार्थ

सुन्दर राजकुमार मृदङ्ग और नगाडे के शब्द सुनकर घोडों को उन्हीं के अनुसार इस प्रकार नचा रहे हैं कि वे ताल के बन्धान से जरा भी डिगते नहीं हैं। चतुर नट चकित होकर यह देख रहे हैं॥302॥

02 चौपाई

बनइ न बरनत बनी बराता। होहिं सगुन सुन्दर सुभदाता॥
चारा चाषु बाम दिसि लेई। मनहुँ सकल मङ्गल कहि देई॥1॥

मूल

बनइ न बरनत बनी बराता। होहिं सगुन सुन्दर सुभदाता॥
चारा चाषु बाम दिसि लेई। मनहुँ सकल मङ्गल कहि देई॥1॥

भावार्थ

बारात ऐसी बनी है कि उसका वर्णन करते नहीं बनता। सुन्दर शुभदायक शकुन हो रहे हैं। नीलकण्ठ पक्षी बाईं ओर चारा ले रहा है, मानो सम्पूर्ण मङ्गलों की सूचना दे रहा हो॥1॥

दाहिन काग सुखेत सुहावा। नकुल दरसु सब काहूँ पावा॥
सानुकूल बह त्रिबिध बयारी। सघट सबाल आव बर नारी॥2॥

मूल

दाहिन काग सुखेत सुहावा। नकुल दरसु सब काहूँ पावा॥
सानुकूल बह त्रिबिध बयारी। सघट सबाल आव बर नारी॥2॥

भावार्थ

दाहिनी ओर कौआ सुन्दर खेत में शोभा पा रहा है। नेवले का दर्शन भी सब किसी ने पाया। तीनों प्रकार की (शीतल, मन्द, सुगन्धित) हवा अनुकूल दिशा में चल रही है। श्रेष्ठ (सुहागिनी) स्त्रियाँ भरे हुए घडे और गोद में बालक लिए आ रही हैं॥2॥

लोवा फिरि फिरि दरसु देखावा। सुरभी सनमुख सिसुहि पिआवा॥
मृगमाला फिरि दाहिनि आई। मङ्गल गन जनु दीन्हि देखाई॥3॥

मूल

लोवा फिरि फिरि दरसु देखावा। सुरभी सनमुख सिसुहि पिआवा॥
मृगमाला फिरि दाहिनि आई। मङ्गल गन जनु दीन्हि देखाई॥3॥

भावार्थ

लोमडी फिर-फिरकर (बार-बार) दिखाई दे जाती है। गायें सामने खडी बछडों को दूध पिलाती हैं। हरिनों की टोली (बाईं ओर से) घूमकर दाहिनी ओर को आई, मानो सभी मङ्गलों का समूह दिखाई दिया॥3॥

छेमकरी कह छेम बिसेषी। स्यामा बाम सुतरु पर देखी॥
सनमुख आयउ दधि अरु मीना। कर पुस्तक दुइ बिप्र प्रबीना॥4॥

मूल

छेमकरी कह छेम बिसेषी। स्यामा बाम सुतरु पर देखी॥
सनमुख आयउ दधि अरु मीना। कर पुस्तक दुइ बिप्र प्रबीना॥4॥

भावार्थ

क्षेमकरी (सफेद सिरवाली चील) विशेष रूप से क्षेम (कल्याण) कह रही है। श्यामा बाईं ओर सुन्दर पेड पर दिखाई पडी। दही, मछली और दो विद्वान ब्राह्मण हाथ में पुस्तक लिए हुए सामने आए॥4॥

303

01 दोहा

मङ्गलमय कल्यानमय अभिमत फल दातार।
जनु सब साचे होन हित भए सगुन एक बार॥303॥

मूल

मङ्गलमय कल्यानमय अभिमत फल दातार।
जनु सब साचे होन हित भए सगुन एक बार॥303॥

भावार्थ

सभी मङ्गलमय, कल्याणमय और मनोवाञ्छित फल देने वाले शकुन मानो सच्चे होने के लिए एक ही साथ हो गए॥303॥

02 चौपाई

मङ्गल सगुन सुगम सब ताकें। सगुन ब्रह्म सुन्दर सुत जाकें॥
राम सरिस बरु दुलहिनि सीता। समधी दसरथु जनकु पुनीता॥1॥

मूल

मङ्गल सगुन सुगम सब ताकें। सगुन ब्रह्म सुन्दर सुत जाकें॥
राम सरिस बरु दुलहिनि सीता। समधी दसरथु जनकु पुनीता॥1॥

भावार्थ

स्वयं सगुण ब्रह्म जिसके सुन्दर पुत्र हैं, उसके लिए सब मङ्गल शकुन सुलभ हैं। जहाँ श्री रामचन्द्रजी सरीखे दूल्हा और सीताजी जैसी दुलहिन हैं तथा दशरथजी और जनकजी जैसे पवित्र समधी हैं,॥1॥

सुनि अस ब्याहु सगुन सब नाचे। अब कीन्हे बिरञ्चि हम साँचे॥
एहि बिधि कीन्ह बरात पयाना। हय गय गाजहिं हने निसाना॥2॥

मूल

सुनि अस ब्याहु सगुन सब नाचे। अब कीन्हे बिरञ्चि हम साँचे॥
एहि बिधि कीन्ह बरात पयाना। हय गय गाजहिं हने निसाना॥2॥

भावार्थ

ऐसा ब्याह सुनकर मानो सभी शकुन नाच उठे (और कहने लगे-) अब ब्रह्माजी ने हमको सच्चा कर दिया। इस तरह बारात ने प्रस्थान किया। घोडे, हाथी गरज रहे हैं और नगाडों पर चोट लग रही है॥2॥

आवत जानि भानुकुल केतू। सरितन्हि जनक बँधाए सेतू॥
बीच-बीच बर बास बनाए। सुरपुर सरिस सम्पदा छाए॥3॥

मूल

आवत जानि भानुकुल केतू। सरितन्हि जनक बँधाए सेतू॥
बीच-बीच बर बास बनाए। सुरपुर सरिस सम्पदा छाए॥3॥

भावार्थ

सूर्यवंश के पताका स्वरूप दशरथजी को आते हुए जानकर जनकजी ने नदियों पर पुल बँधवा दिए। बीच-बीच में ठहरने के लिए सुन्दर घर (पडाव) बनवा दिए, जिनमें देवलोक के समान सम्पदा छाई है,॥3॥

असन सयन बर बसन सुहाए। पावहिं सब निज निज मन भाए॥
नित नूतन सुख लखि अनुकूले। सकल बरातिन्ह मन्दिर भूले॥4॥

मूल

असन सयन बर बसन सुहाए। पावहिं सब निज निज मन भाए॥
नित नूतन सुख लखि अनुकूले। सकल बरातिन्ह मन्दिर भूले॥4॥

भावार्थ

और जहाँ बारात के सब लोग अपने-अपने मन की पसन्द के अनुसार सुहावने उत्तम भोजन, बिस्तर और वस्त्र पाते हैं। मन के अनुकूल नित्य नए सुखों को देखकर सभी बारातियों को अपने घर भूल गए॥4॥

304

01 दोहा

आवत जानि बरात बर सुनि गहगहे निसान।
सजि गज रथ पदचर तुरग लेन चले अगवान॥304॥

मूल

आवत जानि बरात बर सुनि गहगहे निसान।
सजि गज रथ पदचर तुरग लेन चले अगवान॥304॥

भावार्थ

बडे जोर से बजते हुए नगाडों की आवाज सुनकर श्रेष्ठ बारात को आती हुई जानकर अगवानी करने वाले हाथी, रथ, पैदल और घोडे सजाकर बारात लेने चले॥304॥

मासपारायण दसवाँ विश्राम

मूल

मासपारायण दसवाँ विश्राम

02 चौपाई

कनक कलस भरि कोपर थारा। भाजन ललित अनेक प्रकारा॥
भरे सुधा सम सब पकवाने। नाना भाँति न जाहिं बखाने॥1॥

मूल

कनक कलस भरि कोपर थारा। भाजन ललित अनेक प्रकारा॥
भरे सुधा सम सब पकवाने। नाना भाँति न जाहिं बखाने॥1॥

भावार्थ

(दूध, शर्बत, ठण्डाई, जल आदि से) भरकर सोने के कलश तथा जिनका वर्णन नहीं हो सकता ऐसे अमृत के समान भाँति-भाँति के सब पकवानों से भरे हुए परात, थाल आदि अनेक प्रकार के सुन्दर बर्तन,॥1॥

फल अनेक बर बस्तु सुहाईं। हरषि भेण्ट हित भूप पठाईं॥
भूषन बसन महामनि नाना। खग मृग हय गय बहुबिधि जाना॥2॥

मूल

फल अनेक बर बस्तु सुहाईं। हरषि भेण्ट हित भूप पठाईं॥
भूषन बसन महामनि नाना। खग मृग हय गय बहुबिधि जाना॥2॥

भावार्थ

उत्तम फल तथा और भी अनेकों सुन्दर वस्तुएँ राजा ने हर्षित होकर भेण्ट के लिए भेजीं। गहने, कपडे, नाना प्रकार की मूल्यवान मणियाँ (रत्न), पक्षी, पशु, घोडे, हाथी और बहुत तरह की सवारियाँ,॥2॥

मङ्गल सगुन सुगन्ध सुहाए। बहुत भाँति महिपाल पठाए॥
दधि चिउरा उपहार अपारा। भरि भरि काँवरि चले कहारा॥3॥

मूल

मङ्गल सगुन सुगन्ध सुहाए। बहुत भाँति महिपाल पठाए॥
दधि चिउरा उपहार अपारा। भरि भरि काँवरि चले कहारा॥3॥

भावार्थ

तथा बहुत प्रकार के सुगन्धित एवं सुहावने मङ्गल द्रव्य और शगुन के पदार्थ राजा ने भेजे। दही, चिउडा और अगणित उपहार की चीजें काँवरों में भर-भरकर कहार चले॥3॥

अगवानन्ह जब दीखि बराता। उर आनन्दु पुलक भर गाता॥
देखि बनाव सहित अगवाना। मुदित बरातिन्ह हने निसाना॥4॥

मूल

अगवानन्ह जब दीखि बराता। उर आनन्दु पुलक भर गाता॥
देखि बनाव सहित अगवाना। मुदित बरातिन्ह हने निसाना॥4॥

भावार्थ

अगवानी करने वालों को जब बारात दिखाई दी, तब उनके हृदय में आनन्द छा गया और शरीर रोमाञ्च से भर गया। अगवानों को सज-धज के साथ देखकर बारातियों ने प्रसन्न होकर नगाडे बजाए॥4॥

305

01 दोहा

हरषि परसपर मिलन हित कछुक चले बगमेल।
जनु आनन्द समुद्र दुइ मिलत बिहाइ सुबेल॥305॥

मूल

हरषि परसपर मिलन हित कछुक चले बगमेल।
जनु आनन्द समुद्र दुइ मिलत बिहाइ सुबेल॥305॥

भावार्थ

(बाराती तथा अगवानों में से) कुछ लोग परस्पर मिलने के लिए हर्ष के मारे बाग छोडकर (सरपट) दौड चले और ऐसे मिले मानो आनन्द के दो समुद्र मर्यादा छोडकर मिलते हों॥305॥

02 चौपाई

बरषि सुमन सुर सुन्दरि गावहिं। मुदित देव दुन्दुभीं बजावहिं॥
बस्तु सकल राखीं नृप आगें। बिनय कीन्हि तिन्ह अति अनुरागें॥1॥

मूल

बरषि सुमन सुर सुन्दरि गावहिं। मुदित देव दुन्दुभीं बजावहिं॥
बस्तु सकल राखीं नृप आगें। बिनय कीन्हि तिन्ह अति अनुरागें॥1॥

भावार्थ

देवसुन्दरियाँ फूल बरसाकर गीत गा रही हैं और देवता आनन्दित होकर नगाडे बजा रहे हैं। (अगवानी में आए हुए) उन लोगों ने सब चीजें दशरथजी के आगे रख दीं और अत्यन्त प्रेम से विनती की॥1॥

प्रेम समेत रायँ सबु लीन्हा। भै बकसीस जाचकन्हि दीन्हा॥
करि पूजा मान्यता बडाई। जनवासे कहुँ चले लवाई॥2॥

मूल

प्रेम समेत रायँ सबु लीन्हा। भै बकसीस जाचकन्हि दीन्हा॥
करि पूजा मान्यता बडाई। जनवासे कहुँ चले लवाई॥2॥

भावार्थ

राजा दशरथजी ने प्रेम सहित सब वस्तुएँ ले लीं, फिर उनकी बख्शीशें होने लगीं और वे याचकों को दे दी गईं। तदनन्तर पूजा, आदर-सत्कार और बडाई करके अगवान लोग उनको जनवासे की ओर लिवा ले चले॥2॥

बसन बिचित्र पाँवडे परहीं। देखि धनदु धन मदु परिहरहीं॥
अति सुन्दर दीन्हेउ जनवासा। जहँ सब कहुँ सब भाँति सुपासा॥3॥

मूल

बसन बिचित्र पाँवडे परहीं। देखि धनदु धन मदु परिहरहीं॥
अति सुन्दर दीन्हेउ जनवासा। जहँ सब कहुँ सब भाँति सुपासा॥3॥

भावार्थ

विलक्षण वस्त्रों के पाँवडे पड रहे हैं, जिन्हें देखकर कुबेर भी अपने धन का अभिमान छोड देते हैं। बडा सुन्दर जनवासा दिया गया, जहाँ सबको सब प्रकार का सुभीता था॥3॥

जानी सियँ बरात पुर आई। कछु निज महिमा प्रगटि जनाई॥
हृदयँ सुमिरि सब सिद्धि बोलाईं। भूप पहुनई करन पठाईं॥4॥

मूल

जानी सियँ बरात पुर आई। कछु निज महिमा प्रगटि जनाई॥
हृदयँ सुमिरि सब सिद्धि बोलाईं। भूप पहुनई करन पठाईं॥4॥

भावार्थ

सीताजी ने बारात जनकपुर में आई जानकर अपनी कुछ महिमा प्रकट करके दिखलाई। हृदय में स्मरणकर सब सिद्धियों को बुलाया और उन्हें राजा दशरथजी की मेहमानी करने के लिए भेजा॥4॥

306

01 दोहा

सिधि सब सिय आयसु अकनि गईं जहाँ जनवास।
लिएँ सम्पदा सकल सुख सुरपुर भोग बिलास॥306॥

मूल

सिधि सब सिय आयसु अकनि गईं जहाँ जनवास।
लिएँ सम्पदा सकल सुख सुरपुर भोग बिलास॥306॥

भावार्थ

सीताजी की आज्ञा सुनकर सब सिद्धियाँ जहाँ जनवासा था, वहाँ सारी सम्पदा, सुख और इन्द्रपुरी के भोग-विलास को लिए हुए गईं॥306॥

02 चौपाई

निज निज बास बिलोकि बराती। सुर सुख सकल सुलभ सब भाँती॥
बिभव भेद कछु कोउ न जाना। सकल जनक कर करहिं बखाना॥1॥

मूल

निज निज बास बिलोकि बराती। सुर सुख सकल सुलभ सब भाँती॥
बिभव भेद कछु कोउ न जाना। सकल जनक कर करहिं बखाना॥1॥

भावार्थ

बारातियों ने अपने-अपने ठहरने के स्थान देखे तो वहाँ देवताओं के सब सुखों को सब प्रकार से सुलभ पाया। इस ऐश्वर्य का कुछ भी भेद कोई जान न सका। सब जनकजी की बडाई कर रहे हैं॥1॥

सिय महिमा रघुनायक जानी। हरषे हृदयँ हेतु पहिचानी॥
पितु आगमनु सुनत दोउ भाई। हृदयँ न अति आनन्दु अमाई॥2॥

मूल

सिय महिमा रघुनायक जानी। हरषे हृदयँ हेतु पहिचानी॥
पितु आगमनु सुनत दोउ भाई। हृदयँ न अति आनन्दु अमाई॥2॥

भावार्थ

श्री रघुनाथजी यह सब सीताजी की महिमा जानकर और उनका प्रेम पहचानकर हृदय में हर्षित हुए। पिता दशरथजी के आने का समाचार सुनकर दोनों भाइयों के हृदय में महान आनन्द समाता न था॥2॥

सकुचन्ह कहि न सकत गुरु पाहीं। पितु दरसन लालचु मन माहीं॥
बिस्वामित्र बिनय बडि देखी। उपजा उर सन्तोषु बिसेषी॥3॥

मूल

सकुचन्ह कहि न सकत गुरु पाहीं। पितु दरसन लालचु मन माहीं॥
बिस्वामित्र बिनय बडि देखी। उपजा उर सन्तोषु बिसेषी॥3॥

भावार्थ

सङ्कोचवश वे गुरु विश्वामित्रजी से कह नहीं सकते थे, परन्तु मन में पिताजी के दर्शनों की लालसा थी। विश्वामित्रजी ने उनकी बडी नम्रता देखी, तो उनके हृदय में बहुत सन्तोष उत्पन्न हुआ॥3॥

हरषि बन्धु दोउ हृदयँ लगाए। पुलक अङ्ग अम्बक जल छाए॥
चले जहाँ दसरथु जनवासे। मनहुँ सरोबर तकेउ पिआसे॥4॥

मूल

हरषि बन्धु दोउ हृदयँ लगाए। पुलक अङ्ग अम्बक जल छाए॥
चले जहाँ दसरथु जनवासे। मनहुँ सरोबर तकेउ पिआसे॥4॥

भावार्थ

प्रसन्न होकर उन्होन्ने दोनों भाइयों को हृदय से लगा लिया। उनका शरीर पुलकित हो गया और नेत्रों में (प्रेमाश्रुओं का) जल भर आया। वे उस जनवासे को चले, जहाँ दशरथजी थे। मानो सरोवर प्यासे की ओर लक्ष्य करके चला हो॥4॥

307

01 दोहा

भूप बिलोके जबहिं मुनि आवत सुतन्ह समेत।
उठे हरषि सुखसिन्धु महुँ चले थाह सी लेत॥307॥

मूल

भूप बिलोके जबहिं मुनि आवत सुतन्ह समेत।
उठे हरषि सुखसिन्धु महुँ चले थाह सी लेत॥307॥

भावार्थ

जब राजा दशरथजी ने पुत्रों सहित मुनि को आते देखा, तब वे हर्षित होकर उठे और सुख के समुद्र में थाह सी लेते हुए चले॥307॥

02 चौपाई

मुनिहि दण्डवत कीन्ह महीसा। बार बार पद रज धरि सीसा॥
कौसिक राउ लिए उर लाई। कहि असीस पूछी कुसलाई॥1॥

मूल

मुनिहि दण्डवत कीन्ह महीसा। बार बार पद रज धरि सीसा॥
कौसिक राउ लिए उर लाई। कहि असीस पूछी कुसलाई॥1॥

भावार्थ

पृथ्वीपति दशरथजी ने मुनि की चरणधूलि को बारम्बार सिर पर चढाकर उनको दण्डवत्‌ प्रणाम किया। विश्वामित्रजी ने राजा को उठाकर हृदय से लगा लिया और आशीर्वाद देकर कुशल पूछी॥1॥

पुनि दण्डवत करत दोउ भाई। देखि नृपति उर सुखु न समाई॥
सुत हियँ लाइ दुसह दुख मेटे। मृतक सरीर प्रान जनु भेण्टे॥2॥

मूल

पुनि दण्डवत करत दोउ भाई। देखि नृपति उर सुखु न समाई॥
सुत हियँ लाइ दुसह दुख मेटे। मृतक सरीर प्रान जनु भेण्टे॥2॥

भावार्थ

फिर दोनों भाइयों को दण्डवत्‌ प्रणाम करते देखकर राजा के हृदय में सुख समाया नहीं। पुत्रों को (उठाकर) हृदय से लगाकर उन्होन्ने अपने (वियोगजनित) दुःसह दुःख को मिटाया। मानो मृतक शरीर को प्राण मिल गए हों॥2॥

पुनि बसिष्ठ पद सिर तिन्ह नाए। प्रेम मुदित मुनिबर उर लाए॥
बिप्र बृन्द बन्दे दुहुँ भाईं। मनभावती असीसें पाईं॥3॥

मूल

पुनि बसिष्ठ पद सिर तिन्ह नाए। प्रेम मुदित मुनिबर उर लाए॥
बिप्र बृन्द बन्दे दुहुँ भाईं। मनभावती असीसें पाईं॥3॥

भावार्थ

फिर उन्होन्ने वशिष्ठजी के चरणों में सिर नवाया। मुनि श्रेष्ठ ने प्रेम के आनन्द में उन्हें हृदय से लगा लिया। दोनों भाइयों ने सब ब्राह्मणों की वन्दना की और मनभाए आशीर्वाद पाए॥3॥

भरत सहानुज कीन्ह प्रनामा। लिए उठाइ लाइ उर रामा॥
हरषे लखन देखि दोउ भ्राता। मिले प्रेम परिपूरित गाता॥4॥

मूल

भरत सहानुज कीन्ह प्रनामा। लिए उठाइ लाइ उर रामा॥
हरषे लखन देखि दोउ भ्राता। मिले प्रेम परिपूरित गाता॥4॥

भावार्थ

भरतजी ने छोटे भाई शत्रुघ्न सहित श्री रामचन्द्रजी को प्रणाम किया। श्री रामजी ने उन्हें उठाकर हृदय से लगा लिया। लक्ष्मणजी दोनों भाइयों को देखकर हर्षित हुए और प्रेम से परिपूर्ण हुए शरीर से उनसे मिले॥4॥

308

01 दोहा

पुरजन परिजन जातिजन जाचक मन्त्री मीत।
मिले जथाबिधि सबहि प्रभु परम कृपाल बिनीत॥308॥

मूल

पुरजन परिजन जातिजन जाचक मन्त्री मीत।
मिले जथाबिधि सबहि प्रभु परम कृपाल बिनीत॥308॥

भावार्थ

तदन्तर परम कृपालु और विनयी श्री रामचन्द्रजी अयोध्यावासियों, कुटुम्बियों, जाति के लोगों, याचकों, मन्त्रियों और मित्रों सभी से यथा योग्य मिले॥308॥

रामहि देखि बरात जुडानी। प्रीति कि रीति न जाति बखानी॥
नृप समीप सोहहिं सुत चारी। जनु धन धरमादिक तनुधारी॥1॥

मूल

रामहि देखि बरात जुडानी। प्रीति कि रीति न जाति बखानी॥
नृप समीप सोहहिं सुत चारी। जनु धन धरमादिक तनुधारी॥1॥

भावार्थ

श्री रामचन्द्रजी को देखकर बारात शीतल हुई (राम के वियोग में सबके हृदय में जो आग जल रही थी, वह शान्त हो गई)। प्रीति की रीति का बखान नहीं हो सकता। राजा के पास चारों पुत्र ऐसी शोभा पा रहे हैं, मानो अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष शरीर धारण किए हुए हों॥1॥

02 चौपाई

सुतन्ह समेत दसरथहि देखी। मुदित नगर नर नारि बिसेषी॥
सुमन बरिसि सुर हनहिं निसाना। नाकनटीं नाचहिं करि गाना॥2॥

मूल

सुतन्ह समेत दसरथहि देखी। मुदित नगर नर नारि बिसेषी॥
सुमन बरिसि सुर हनहिं निसाना। नाकनटीं नाचहिं करि गाना॥2॥

भावार्थ

पुत्रों सहित दशरथजी को देखकर नगर के स्त्री-पुरुष बहुत ही प्रसन्न हो रहे हैं। (आकाश में) देवता फूलों की वर्षा करके नगाडे बजा रहे हैं और अप्सराएँ गा-गाकर नाच रही हैं॥2॥

सतानन्द अरु बिप्र सचिव गन। मागध सूत बिदुष बन्दीजन॥
सहित बरात राउ सनमाना। आयसु मागि फिरे अगवाना॥3॥

मूल

सतानन्द अरु बिप्र सचिव गन। मागध सूत बिदुष बन्दीजन॥
सहित बरात राउ सनमाना। आयसु मागि फिरे अगवाना॥3॥

भावार्थ

अगवानी में आए हुए शतानन्दजी, अन्य ब्राह्मण, मन्त्रीगण, मागध, सूत, विद्वान और भाटों ने बारात सहित राजा दशरथजी का आदर-सत्कार किया। फिर आज्ञा लेकर वे वापस लौटे॥3॥

प्रथम बरात लगन तें आई। तातें पुर प्रमोदु अधिकाई॥
ब्रह्मानन्दु लोग सब लहहीं। बढहुँ दिवस निसि बिधि सन कहहीं॥4॥

मूल

प्रथम बरात लगन तें आई। तातें पुर प्रमोदु अधिकाई॥
ब्रह्मानन्दु लोग सब लहहीं। बढहुँ दिवस निसि बिधि सन कहहीं॥4॥

भावार्थ

बारात लग्न के दिन से पहले आ गई है, इससे जनकपुर में अधिक आनन्द छा रहा है। सब लोग ब्रह्मानन्द प्राप्त कर रहे हैं और विधाता से मनाकर कहते हैं कि दिन-रात बढ जाएँ (बडे हो जाएँ)॥4॥

309

रामु सीय सोभा अवधि सुकृत अवधि दोउ राज।
जहँ तहँ पुरजन कहहिं अस मिलि नर नारि समाज॥309॥

मूल

रामु सीय सोभा अवधि सुकृत अवधि दोउ राज।
जहँ तहँ पुरजन कहहिं अस मिलि नर नारि समाज॥309॥

भावार्थ

श्री रामचन्द्रजी और सीताजी सुन्दरता की सीमा हैं और दोनों राजा पुण्य की सीमा हैं, जहाँ-तहाँ जनकपुरवासी स्त्री-पुरुषों के समूह इकट्ठे हो-होकर यही कह रहे हैं॥309॥

01 चौपाई

जनक सुकृत मूरति बैदेही। दसरथ सुकृत रामु धरें देही॥
इन्ह सम काहुँ न सिव अवराधे। काहुँ न इन्ह समान फल लाधे॥1॥

मूल

जनक सुकृत मूरति बैदेही। दसरथ सुकृत रामु धरें देही॥
इन्ह सम काहुँ न सिव अवराधे। काहुँ न इन्ह समान फल लाधे॥1॥

भावार्थ

जनकजी के सुकृत (पुण्य) की मूर्ति जानकीजी हैं और दशरथजी के सुकृत देह धारण किए हुए श्री रामजी हैं। इन (दोनों राजाओं) के समान किसी ने शिवजी की आराधना नहीं की और न इनके समान किसी ने फल ही पाए॥1॥

इन्ह सम कोउ न भयउ जग माहीं। है नहिं कतहूँ होनेउ नाहीं॥
हम सब सकल सुकृत कै रासी। भए जग जनमि जनकपुर बासी॥2॥

मूल

इन्ह सम कोउ न भयउ जग माहीं। है नहिं कतहूँ होनेउ नाहीं॥
हम सब सकल सुकृत कै रासी। भए जग जनमि जनकपुर बासी॥2॥

भावार्थ

इनके समान जगत में न कोई हुआ, न कहीं है, न होने का ही है। हम सब भी सम्पूर्ण पुण्यों की राशि हैं, जो जगत में जन्म लेकर जनकपुर के निवासी हुए,॥2॥

जिन्ह जानकी राम छबि देखी। को सुकृती हम सरिस बिसेषी॥
पुनि देखब रघुबीर बिआहू। लेब भली बिधि लोचन लाहू॥3॥

मूल

जिन्ह जानकी राम छबि देखी। को सुकृती हम सरिस बिसेषी॥
पुनि देखब रघुबीर बिआहू। लेब भली बिधि लोचन लाहू॥3॥

भावार्थ

और जिन्होन्ने जानकीजी और श्री रामचन्द्रजी की छबि देखी है। हमारे सरीखा विशेष पुण्यात्मा कौन होगा! और अब हम श्री रघुनाथजी का विवाह देखेङ्गे और भलीभाँति नेत्रों का लाभ लेङ्गे॥3॥

कहहिं परसपर कोकिलबयनीं। एहि बिआहँ बड लाभु सुनयनीं॥
बडें भाग बिधि बात बनाई। नयन अतिथि होइहहिं दोउ भाई॥4॥

मूल

कहहिं परसपर कोकिलबयनीं। एहि बिआहँ बड लाभु सुनयनीं॥
बडें भाग बिधि बात बनाई। नयन अतिथि होइहहिं दोउ भाई॥4॥

भावार्थ

कोयल के समान मधुर बोलने वाली स्त्रियाँ आपस में कहती हैं कि हे सुन्दर नेत्रों वाली! इस विवाह में बडा लाभ है। बडे भाग्य से विधाता ने सब बात बना दी है, ये दोनों भाई हमारे नेत्रों के अतिथि हुआ करेङ्गे॥4॥

310

01 दोहा

बारहिं बार सनेह बस जनक बोलाउब सीय।
लेन आइहहिं बन्धु दोउ कोटि काम कमनीय॥310॥

मूल

बारहिं बार सनेह बस जनक बोलाउब सीय।
लेन आइहहिं बन्धु दोउ कोटि काम कमनीय॥310॥

भावार्थ

जनकजी स्नेहवश बार-बार सीताजी को बुलावेङ्गे और करोडों कामदेवों के समान सुन्दर दोनों भाई सीताजी को लेने (विदा कराने) आया करेङ्गे॥310॥

02 चौपाई

बिबिध भाँति होइहि पहुनाई। प्रिय न काहि अस सासुर माई॥
तब तब राम लखनहि निहारी। होइहहिं सब पुर लोग सुखारी॥1॥

मूल

बिबिध भाँति होइहि पहुनाई। प्रिय न काहि अस सासुर माई॥
तब तब राम लखनहि निहारी। होइहहिं सब पुर लोग सुखारी॥1॥

भावार्थ

तब उनकी अनेकों प्रकार से पहुनाई होगी। सखी! ऐसी ससुराल किसे प्यारी न होगी! तब-तब हम सब नगर निवासी श्री राम-लक्ष्मण को देख-देखकर सुखी होङ्गे॥1॥

सखि जस राम लखन कर जोटा। तैसेइ भूप सङ्ग हुइ ढोटा॥
स्याम गौर सब अङ्ग सुहाए। ते सब कहहिं देखि जे आए॥2॥

मूल

सखि जस राम लखन कर जोटा। तैसेइ भूप सङ्ग हुइ ढोटा॥
स्याम गौर सब अङ्ग सुहाए। ते सब कहहिं देखि जे आए॥2॥

भावार्थ

हे सखी! जैसा श्री राम-लक्ष्मण का जोडा है, वैसे ही दो कुमार राजा के साथ और भी हैं। वे भी एक श्याम और दूसरे गौर वर्ण के हैं, उनके भी सब अङ्ग बहुत सुन्दर हैं। जो लोग उन्हें देख आए हैं, वे सब यही कहते हैं॥2॥

कहा एक मैं आजु निहारे। जनु बिरञ्चि निज हाथ सँवारे॥
भरतु राम ही की अनुहारी। सहसा लखि न सकहिं नर नारी॥3॥

मूल

कहा एक मैं आजु निहारे। जनु बिरञ्चि निज हाथ सँवारे॥
भरतु राम ही की अनुहारी। सहसा लखि न सकहिं नर नारी॥3॥

भावार्थ

एक ने कहा- मैन्ने आज ही उन्हें देखा है, इतने सुन्दर हैं, मानो ब्रह्माजी ने उन्हें अपने हाथों सँवारा है। भरत तो श्री रामचन्द्रजी की ही शकल-सूरत के हैं। स्त्री-पुरुष उन्हें सहसा पहचान नहीं सकते॥3॥

लखनु सत्रुसूदनु एकरूपा। नख सिख ते सब अङ्ग अनूपा॥
मन भावहिं मुख बरनि न जाहीं। उपमा कहुँ त्रिभुवन कोउ नाहीं॥4॥

मूल

लखनु सत्रुसूदनु एकरूपा। नख सिख ते सब अङ्ग अनूपा॥
मन भावहिं मुख बरनि न जाहीं। उपमा कहुँ त्रिभुवन कोउ नाहीं॥4॥

भावार्थ

लक्ष्मण और शत्रुघ्न दोनों का एक रूप है। दोनों के नख से शिखा तक सभी अङ्ग अनुपम हैं। मन को बडे अच्छे लगते हैं, पर मुख से उनका वर्णन नहीं हो सकता। उनकी उपमा के योग्य तीनों लोकों में कोई नहीं है॥4॥

03 छन्द

उपमा न कोउ कह दास तुलसी कतहुँ कबि कोबिद कहैं।
बल बिनय बिद्या सील सोभा सिन्धु इन्ह से एइ अहैं॥
पुर नारि सकल पसारि अञ्चल बिधिहि बचन सुनावहीं॥
ब्याहिअहुँ चारिउ भाइ एहिं पुर हम सुमङ्गल गावहीं॥

मूल

उपमा न कोउ कह दास तुलसी कतहुँ कबि कोबिद कहैं।
बल बिनय बिद्या सील सोभा सिन्धु इन्ह से एइ अहैं॥
पुर नारि सकल पसारि अञ्चल बिधिहि बचन सुनावहीं॥
ब्याहिअहुँ चारिउ भाइ एहिं पुर हम सुमङ्गल गावहीं॥

भावार्थ

दास तुलसी कहता है कवि और कोविद (विद्वान) कहते हैं, इनकी उपमा कहीं कोई नहीं है।

बल, विनय, विद्या, शील और शोभा के समुद्र इनके समान ये ही हैं। जनकपुर की सब स्त्रियाँ आँचल फैलाकर विधाता को यह वचन (विनती) सुनाती हैं कि चारों भाइयों का विवाह इसी नगर में हो और हम सब सुन्दर मङ्गल गावें।

311

01 सोरठा

कहहिं परस्पर नारि बारि बिलोचन पुलक तन।
सखि सबु करब पुरारि पुन्य पयोनिधि भूप दोउ॥311॥

मूल

कहहिं परस्पर नारि बारि बिलोचन पुलक तन।
सखि सबु करब पुरारि पुन्य पयोनिधि भूप दोउ॥311॥

भावार्थ

नेत्रों में (प्रेमाश्रुओं का) जल भरकर पुलकित शरीर से स्त्रियाँ आपस में कह रही हैं कि हे सखी! दोनों राजा पुण्य के समुद्र हैं, त्रिपुरारी शिवजी सब मनोरथ पूर्ण करेङ्गे॥311॥

02 चौपाई

एहि बिधि सकल मनोरथ करहीं। आनँद उमगि उमगि उर भरहीं॥
जे नृप सीय स्वयम्बर आए। देखि बन्धु सब तिन्ह सुख पाए॥1॥

मूल

एहि बिधि सकल मनोरथ करहीं। आनँद उमगि उमगि उर भरहीं॥
जे नृप सीय स्वयम्बर आए। देखि बन्धु सब तिन्ह सुख पाए॥1॥

भावार्थ

इस प्रकार सब मनोरथ कर रही हैं और हृदय को उमङ्ग-उमङ्गकर (उत्साहपूर्वक) आनन्द से भर रही हैं। सीताजी के स्वयंवर में जो राजा आए थे, उन्होन्ने भी चारों भाइयों को देखकर सुख पाया॥1॥

कहत राम जसु बिसद बिसाला। निज निज भवन गए महिपाला॥
गए बीति कछु दिन एहि भाँती। प्रमुदित पुरजन सकल बराती॥2॥

मूल

कहत राम जसु बिसद बिसाला। निज निज भवन गए महिपाला॥
गए बीति कछु दिन एहि भाँती। प्रमुदित पुरजन सकल बराती॥2॥

भावार्थ

श्री रामचन्द्रजी का निर्मल और महान यश कहते हुए राजा लोग अपने-अपने घर गए। इस प्रकार कुछ दिन बीत गए। जनकपुर निवासी और बाराती सभी बडे आनन्दित हैं॥2॥

मङ्गल मूल लगन दिनु आवा। हिम रितु अगहनु मासु सुहावा॥
ग्रह तिथि नखतु जोगु बर बारू। लगन सोधि बिधि कीन्ह बिचारू॥3॥

मूल

मङ्गल मूल लगन दिनु आवा। हिम रितु अगहनु मासु सुहावा॥
ग्रह तिथि नखतु जोगु बर बारू। लगन सोधि बिधि कीन्ह बिचारू॥3॥

भावार्थ

मङ्गलों का मूल लग्न का दिन आ गया। हेमन्त ऋतु और सुहावना अगहन का महीना था। ग्रह, तिथि, नक्षत्र, योग और वार श्रेष्ठ थे। लग्न (मुहूर्त) शोधकर ब्रह्माजी ने उस पर विचार किया,॥3॥

पठै दीन्हि नारद सन सोई। गनी जनक के गनकन्ह जोई॥
सुनी सकल लोगन्ह यह बाता। कहहिं जोतिषी आहिं बिधाता॥4॥

मूल

पठै दीन्हि नारद सन सोई। गनी जनक के गनकन्ह जोई॥
सुनी सकल लोगन्ह यह बाता। कहहिं जोतिषी आहिं बिधाता॥4॥

भावार्थ

और उस (लग्न पत्रिका) को नारदजी के हाथ (जनकजी के यहाँ) भेज दिया। जनकजी के ज्योतिषियों ने भी वही गणना कर रखी थी। जब सब लोगों ने यह बात सुनी तब वे कहने लगे- यहाँ के ज्योतिषी भी ब्रह्मा ही हैं॥4॥

312

01 दोहा

धेनुधूरि बेला बिमल सकल सुमङ्गल मूल।
बिप्रन्ह कहेउ बिदेह सन जानि सगुन अनुकूल॥312॥

मूल

धेनुधूरि बेला बिमल सकल सुमङ्गल मूल।
बिप्रन्ह कहेउ बिदेह सन जानि सगुन अनुकूल॥312॥

भावार्थ

निर्मल और सभी सुन्दर मङ्गलों की मूल गोधूलि की पवित्र बेला आ गई और अनुकूल शकुन होने लगे, यह जानकर ब्राह्मणों ने जनकजी से कहा॥312॥

02 चौपाई

उपरोहितहि कहेउ नरनाहा। अब बिलम्ब कर कारनु काहा॥
सतानन्द तब सचिव बोलाए। मङ्गल सकल साजि सब ल्याए॥1॥

मूल

उपरोहितहि कहेउ नरनाहा। अब बिलम्ब कर कारनु काहा॥
सतानन्द तब सचिव बोलाए। मङ्गल सकल साजि सब ल्याए॥1॥

भावार्थ

तब राजा जनक ने पुरोहित शतानन्दजी से कहा कि अब देरी का क्या कारण है। तब शतानन्दजी ने मन्त्रियों को बुलाया। वे सब मङ्गल का सामान सजाकर ले आए॥1॥

सङ्ख निसान पनव बहु बाजे। मङ्गल कलस सगुन सुभ साजे॥
सुभग सुआसिनि गावहिं गीता। करहिं बेद धुनि बिप्र पुनीता॥2॥

मूल

सङ्ख निसान पनव बहु बाजे। मङ्गल कलस सगुन सुभ साजे॥
सुभग सुआसिनि गावहिं गीता। करहिं बेद धुनि बिप्र पुनीता॥2॥

भावार्थ

शङ्ख, नगाडे, ढोल और बहुत से बाजे बजने लगे तथा मङ्गल कलश और शुभ शकुन की वस्तुएँ (दधि, दूर्वा आदि) सजाई गईं। सुन्दर सुहागिन स्त्रियाँ गीत गा रही हैं और पवित्र ब्राह्मण वेद की ध्वनि कर रहे हैं॥2॥

लेन चले सादर एहि भाँती। गए जहाँ जनवास बराती॥
कोसलपति कर देखि समाजू। अति लघु लाग तिन्हहि सुरराजू॥3॥

मूल

लेन चले सादर एहि भाँती। गए जहाँ जनवास बराती॥
कोसलपति कर देखि समाजू। अति लघु लाग तिन्हहि सुरराजू॥3॥

भावार्थ

सब लोग इस प्रकार आदरपूर्वक बारात को लेने चले और जहाँ बारातियों का जनवासा था, वहाँ गए। अवधपति दशरथजी का समाज (वैभव) देखकर उनको देवराज इन्द्र भी बहुत ही तुच्छ लगने लगे॥3॥

भयउ समउ अब धारिअ पाऊ। यह सुनि परा निसानहिं घाऊ ॥
गुरहि पूछि करि कुल बिधि राजा। चले सङ्ग मुनि साधु समाजा॥4॥

मूल

भयउ समउ अब धारिअ पाऊ। यह सुनि परा निसानहिं घाऊ ॥
गुरहि पूछि करि कुल बिधि राजा। चले सङ्ग मुनि साधु समाजा॥4॥

भावार्थ

(उन्होन्ने जाकर विनती की-) समय हो गया, अब पधारिए। यह सुनते ही नगाडों पर चोट पडी। गुरु वशिष्ठजी से पूछकर और कुल की सब रीतियों को करके राजा दशरथजी मुनियों और साधुओं के समाज को साथ लेकर चले॥4॥

313

01 दोहा

भाग्य बिभव अवधेस कर देखि देव ब्रह्मादि।
लगे सराहन सहस मुख जानि जनम निज बादि॥313॥

मूल

भाग्य बिभव अवधेस कर देखि देव ब्रह्मादि।
लगे सराहन सहस मुख जानि जनम निज बादि॥313॥

भावार्थ

अवध नरेश दशरथजी का भाग्य और वैभव देखकर और अपना जन्म व्यर्थ समझकर, ब्रह्माजी आदि देवता हजारों मुखों से उसकी सराहना करने लगे॥313॥

02 चौपाई

सुरन्ह सुमङ्गल अवसरु जाना। बरषहिं सुमन बजाइ निसाना॥
सिव ब्रह्मादिक बिबुध बरूथा। चढे बिमानन्हि नाना जूथा॥1॥

मूल

सुरन्ह सुमङ्गल अवसरु जाना। बरषहिं सुमन बजाइ निसाना॥
सिव ब्रह्मादिक बिबुध बरूथा। चढे बिमानन्हि नाना जूथा॥1॥

भावार्थ

देवगण सुन्दर मङ्गल का अवसर जानकर, नगाडे बजा-बजाकर फूल बरसाते हैं। शिवजी, ब्रह्माजी आदि देववृन्द यूथ (टोलियाँ) बना-बनाकर विमानों पर जा चढे॥1॥

प्रेम पुलक तन हृदयँ उछाहू। चले बिलोकन राम बिआहू॥
देखि जनकपुरु सुर अनुरागे। निज निज लोक सबहिं लघु लागे॥2॥

मूल

प्रेम पुलक तन हृदयँ उछाहू। चले बिलोकन राम बिआहू॥
देखि जनकपुरु सुर अनुरागे। निज निज लोक सबहिं लघु लागे॥2॥

भावार्थ

और प्रेम से पुलकित शरीर हो तथा हृदय में उत्साह भरकर श्री रामचन्द्रजी का विवाह देखने चले। जनकपुर को देखकर देवता इतने अनुरक्त हो गए कि उन सबको अपने-अपने लोक बहुत तुच्छ लगने लगे॥2॥

चितवहिं चकित बिचित्र बिताना। रचना सकल अलौकिक नाना।
नगर नारि नर रूप निधाना। सुघर सुधरम सुसील सुजाना॥3॥

मूल

चितवहिं चकित बिचित्र बिताना। रचना सकल अलौकिक नाना।
नगर नारि नर रूप निधाना। सुघर सुधरम सुसील सुजाना॥3॥

भावार्थ

विचित्र मण्डप को तथा नाना प्रकार की सब अलौकिक रचनाओं को वे चकित होकर देख रहे हैं। नगर के स्त्री-पुरुष रूप के भण्डार, सुघड, श्रेष्ठ धर्मात्मा, सुशील और सुजान हैं॥3॥

तिन्हहि देखि सब सुर सुरनारीं। भए नखत जनु बिधु उजिआरीं॥
बिधिहि भयउ आचरजु बिसेषी। निज करनी कछु कतहुँ न देखी॥4॥

मूल

तिन्हहि देखि सब सुर सुरनारीं। भए नखत जनु बिधु उजिआरीं॥
बिधिहि भयउ आचरजु बिसेषी। निज करनी कछु कतहुँ न देखी॥4॥

भावार्थ

उन्हें देखकर सब देवता और देवाङ्गनाएँ ऐसे प्रभाहीन हो गए जैसे चन्द्रमा के उजियाले में तारागण फीके पड जाते हैं। ब्रह्माजी को विशेष आश्चर्य हुआ, क्योङ्कि वहाँ उन्होन्ने अपनी कोई करनी (रचना) तो कहीं देखी ही नहीं॥4॥

314

01 दोहा

सिवँ समुझाए देव सब जनि आचरज भुलाहु।
हृदयँ बिचारहु धीर धरि सिय रघुबीर बिआहु॥314॥

मूल

सिवँ समुझाए देव सब जनि आचरज भुलाहु।
हृदयँ बिचारहु धीर धरि सिय रघुबीर बिआहु॥314॥

भावार्थ

तब शिवजी ने सब देवताओं को समझाया कि तुम लोग आश्चर्य में मत भूलो। हृदय में धीरज धरकर विचार तो करो कि यह (भगवान की महामहिमामयी निजशक्ति) श्री सीताजी का और (अखिल ब्रह्माण्डों के परम ईश्वर साक्षात्‌ भगवान) श्री रामचन्द्रजी का विवाह है॥314॥

02 चौपाई

जिन्ह कर नामु लेत जग माहीं। सकल अमङ्गल मूल नसाहीं॥
करतल होहिं पदारथ चारी। तेइ सिय रामु कहेउ कामारी॥1॥

मूल

जिन्ह कर नामु लेत जग माहीं। सकल अमङ्गल मूल नसाहीं॥
करतल होहिं पदारथ चारी। तेइ सिय रामु कहेउ कामारी॥1॥

भावार्थ

जिनका नाम लेते ही जगत में सारे अमङ्गलों की जड कट जाती है और चारों पदार्थ (अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष) मुट्ठी में आ जाते हैं, ये वही (जगत के माता-पिता) श्री सीतारामजी हैं, काम के शत्रु शिवजी ने ऐसा कहा॥1॥

एहि बिधि सम्भु सुरन्ह समुझावा। पुनि आगें बर बसह चलावा॥
देवन्ह देखे दसरथु जाता। महामोद मन पुलकित गाता॥2॥

मूल

एहि बिधि सम्भु सुरन्ह समुझावा। पुनि आगें बर बसह चलावा॥
देवन्ह देखे दसरथु जाता। महामोद मन पुलकित गाता॥2॥

भावार्थ

इस प्रकार शिवजी ने देवताओं को समझाया और फिर अपने श्रेष्ठ बैल नन्दीश्वर को आगे बढाया। देवताओं ने देखा कि दशरथजी मन में बडे ही प्रसन्न और शरीर से पुलकित हुए चले जा रहे हैं॥2॥

साधु समाज सङ्ग महिदेवा। जनु तनु धरें करहिं सुख सेवा॥
सोहत साथ सुभग सुत चारी। जनु अपबरग सकल तनुधारी॥3॥

मूल

साधु समाज सङ्ग महिदेवा। जनु तनु धरें करहिं सुख सेवा॥
सोहत साथ सुभग सुत चारी। जनु अपबरग सकल तनुधारी॥3॥

भावार्थ

उनके साथ (परम हर्षयुक्त) साधुओं और ब्राह्मणों की मण्डली ऐसी शोभा दे रही है, मानो समस्त सुख शरीर धारण करके उनकी सेवा कर रहे हों। चारों सुन्दर पुत्र साथ में ऐसे सुशोभित हैं, मानो सम्पूर्ण मोक्ष (सालोक्य, सामीप्य, सारूप्य, सायुज्य) शरीर धारण किए हुए हों॥3॥

मरकत कनक बरन बर जोरी। देखि सुरन्ह भै प्रीति न थोरी॥
पुनि रामहि बिलोकि हियँ हरषे। नृपहि सराहि सुमन तिन्ह बरषे॥4॥

मूल

मरकत कनक बरन बर जोरी। देखि सुरन्ह भै प्रीति न थोरी॥
पुनि रामहि बिलोकि हियँ हरषे। नृपहि सराहि सुमन तिन्ह बरषे॥4॥

भावार्थ

मरकतमणि और सुवर्ण के रङ्ग की सुन्दर जोडियों को देखकर देवताओं को कम प्रीति नहीं हुई (अर्थात्‌ बहुत ही प्रीति हुई)। फिर रामचन्द्रजी को देखकर वे हृदय में (अत्यन्त) हर्षित हुए और राजा की सराहना करके उन्होन्ने फूल बरसाए॥4॥

315

01 दोहा

राम रूपु नख सिख सुभग बारहिं बार निहारि।
पुलक गात लोचन सजल उमा समेत पुरारि॥315॥

मूल

राम रूपु नख सिख सुभग बारहिं बार निहारि।
पुलक गात लोचन सजल उमा समेत पुरारि॥315॥

भावार्थ

नख से शिखा तक श्री रामचन्द्रजी के सुन्दर रूप को बार-बार देखते हुए पार्वतीजी सहित श्री शिवजी का शरीर पुलकित हो गया और उनके नेत्र (प्रेमाश्रुओं के) जल से भर गए॥315॥

02 चौपाई

केकि कण्ठ दुति स्यामल अङ्गा। तडित बिनिन्दक बसन सुरङ्गा॥
ब्याह बिभूषन बिबिध बनाए। मङ्गल सब सब भाँति सुहाए॥1॥

मूल

केकि कण्ठ दुति स्यामल अङ्गा। तडित बिनिन्दक बसन सुरङ्गा॥
ब्याह बिभूषन बिबिध बनाए। मङ्गल सब सब भाँति सुहाए॥1॥

भावार्थ

रामजी का मोर के कण्ठ की सी कान्तिवाला (हरिताभ) श्याम शरीर है। बिजली का अत्यन्त निरादर करने वाले प्रकाशमय सुन्दर (पीत) रङ्ग के वस्त्र हैं। सब मङ्गल रूप और सब प्रकार के सुन्दर भाँति-भाँति के विवाह के आभूषण शरीर पर सजाए हुए हैं॥1॥

सरद बिमल बिधु बदनु सुहावन। नयन नवल राजीव लजावन॥
सकल अलौकिक सुन्दरताई। कहि न जाई मनहीं मन भाई॥2॥

मूल

सरद बिमल बिधु बदनु सुहावन। नयन नवल राजीव लजावन॥
सकल अलौकिक सुन्दरताई। कहि न जाई मनहीं मन भाई॥2॥

भावार्थ

उनका सुन्दर मुख शरत्पूर्णिमा के निर्मल चन्द्रमा के समान और (मनोहर) नेत्र नवीन कमल को लजाने वाले हैं। सारी सुन्दरता अलौकिक है। (माया की बनी नहीं है, दिव्य सच्चिदानन्दमयी है) वह कहीं नहीं जा सकती, मन ही मन बहुत प्रिय लगती है॥2॥

बन्धु मनोहर सोहहिं सङ्गा। जात नचावत चपल तुरङ्गा।
राजकुअँर बर बाजि देखावहिं। बंस प्रसंसक बिरिद सुनावहिं॥3॥

मूल

बन्धु मनोहर सोहहिं सङ्गा। जात नचावत चपल तुरङ्गा।
राजकुअँर बर बाजि देखावहिं। बंस प्रसंसक बिरिद सुनावहिं॥3॥

भावार्थ

साथ में मनोहर भाई शोभित हैं, जो चञ्चल घोडों को नचाते हुए चले जा रहे हैं। राजकुमार श्रेष्ठ घोडों को (उनकी चाल को) दिखला रहे हैं और वंश की प्रशंसा करने वाले (मागध भाट) विरुदावली सुना रहे हैं॥3॥

जेहि तुरङ्ग पर रामु बिराजे। गति बिलोकि खगनायकु लाजे॥
कहि न जाइ सब भाँति सुहावा। बाजि बेषु जनु काम बनावा॥4॥

मूल

जेहि तुरङ्ग पर रामु बिराजे। गति बिलोकि खगनायकु लाजे॥
कहि न जाइ सब भाँति सुहावा। बाजि बेषु जनु काम बनावा॥4॥

भावार्थ

जिस घोडे पर श्री रामजी विराजमान हैं, उसकी (तेज) चाल देखकर गरुड भी लजा जाते हैं, उसका वर्णन नहीं हो सकता, वह सब प्रकार से सुन्दर है। मानो कामदेव ने ही घोडे का वेष धारण कर लिया हो॥4॥

03 छन्द

जनु बाजि बेषु बनाइ मनसिजु राम हित अति सोहई।
आपनें बय बल रूप गुन गति सकल भुवन बिमोहई॥
जगमगत जीनु जराव जोति सुमोति मनि मानिक लगे।
किङ्किनि ललाम लगामु ललित बिलोकिसुर नर मुनि ठगे॥

मूल

जनु बाजि बेषु बनाइ मनसिजु राम हित अति सोहई।
आपनें बय बल रूप गुन गति सकल भुवन बिमोहई॥
जगमगत जीनु जराव जोति सुमोति मनि मानिक लगे।
किङ्किनि ललाम लगामु ललित बिलोकिसुर नर मुनि ठगे॥

भावार्थ

मानो श्री रामचन्द्रजी के लिए कामदेव घोडे का वेश बनाकर अत्यन्त शोभित हो रहा है।

वह अपनी अवस्था, बल, रूप, गुण और चाल से समस्त लोकों को मोहित कर रहा है। उसकी सुन्दर घुँघरू लगी ललित लगाम को देखकर देवता, मनुष्य और मुनि सभी ठगे जाते हैं।

316

01 दोहा

प्रभु मनसहिं लयलीन मनु चलत बाजि छबि पाव।
भूषित उडगन तडित घनु जनु बर बरहि नचाव॥316॥

मूल

प्रभु मनसहिं लयलीन मनु चलत बाजि छबि पाव।
भूषित उडगन तडित घनु जनु बर बरहि नचाव॥316॥

भावार्थ

प्रभु की इच्छा में अपने मन को लीन किए चलता हुआ वह घोडा बडी शोभा पा रहा है। मानो तारागण तथा बिजली से अलङ्कृत मेघ सुन्दर मोर को नचा रहा हो॥316॥

02 चौपाई

जेहिं बर बाजि रामु असवारा। तेहि सारदउ न बरनै पारा॥
सङ्करु राम रूप अनुरागे। नयन पञ्चदस अति प्रिय लागे॥1॥

मूल

जेहिं बर बाजि रामु असवारा। तेहि सारदउ न बरनै पारा॥
सङ्करु राम रूप अनुरागे। नयन पञ्चदस अति प्रिय लागे॥1॥

भावार्थ

जिस श्रेष्ठ घोडे पर श्री रामचन्द्रजी सवार हैं, उसका वर्णन सरस्वतीजी भी नहीं कर सकतीं। शङ्करजी श्री रामचन्द्रजी के रूप में ऐसे अनुरक्त हुए कि उन्हें अपने पन्द्रह नेत्र इस समय बहुत ही प्यारे लगने लगे॥1॥

हरि हित सहित रामु जब जोहे। रमा समेत रमापति मोहे॥
निरखि राम छबि बिधि हरषाने। आठइ नयन जानि पछिताने॥2॥

मूल

हरि हित सहित रामु जब जोहे। रमा समेत रमापति मोहे॥
निरखि राम छबि बिधि हरषाने। आठइ नयन जानि पछिताने॥2॥

भावार्थ

भगवान विष्णु ने जब प्रेम सहित श्री राम को देखा, तब वे (रमणीयता की मूर्ति) श्री लक्ष्मीजी के पति श्री लक्ष्मीजी सहित मोहित हो गए। श्री रामचन्द्रजी की शोभा देखकर ब्रह्माजी बडे प्रसन्न हुए, पर अपने आठ ही नेत्र जानकर पछताने लगे॥2॥

सुर सेनप उर बहुत उछाहू। बिधि ते डेवढ लोचन लाहू॥
रामहि चितव सुरेस सुजाना। गौतम श्रापु परम हित माना॥3॥

मूल

सुर सेनप उर बहुत उछाहू। बिधि ते डेवढ लोचन लाहू॥
रामहि चितव सुरेस सुजाना। गौतम श्रापु परम हित माना॥3॥

भावार्थ

देवताओं के सेनापति स्वामि कार्तिक के हृदय में बडा उत्साह है, क्योङ्कि वे ब्रह्माजी से ड्योढे अर्थात बारह नेत्रों से रामदर्शन का सुन्दर लाभ उठा रहे हैं। सुजान इन्द्र (अपने हजार नेत्रों से) श्री रामचन्द्रजी को देख रहे हैं और गौतमजी के शाप को अपने लिए परम हितकर मान रहे हैं॥3॥

देव सकल सुरपतिहि सिहाहीं। आजु पुरन्दर सम कोउ नाहीं॥
मुदित देवगन रामहि देखी। नृपसमाज दुहुँ हरषु बिसेषी॥4॥

मूल

देव सकल सुरपतिहि सिहाहीं। आजु पुरन्दर सम कोउ नाहीं॥
मुदित देवगन रामहि देखी। नृपसमाज दुहुँ हरषु बिसेषी॥4॥

भावार्थ

सभी देवता देवराज इन्द्र से ईर्षा कर रहे हैं (और कह रहे हैं) कि आज इन्द्र के समान भाग्यवान दूसरा कोई नहीं है। श्री रामचन्द्रजी को देखकर देवगण प्रसन्न हैं और दोनों राजाओं के समाज में विशेष हर्ष छा रहा है॥4॥

03 छन्द

अति हरषु राजसमाज दुहु दिसि दुन्दुभीं बाजहिं घनी।
बरषहिं सुमन सुर हरषि कहि जय जयति जय रघुकुलमनी॥
एहि भाँति जानि बरात आवत बाजने बहु बाजहीं।
रानी सुआसिनि बोलि परिछनि हेतु मङ्गल साजहीं॥

मूल

अति हरषु राजसमाज दुहु दिसि दुन्दुभीं बाजहिं घनी।
बरषहिं सुमन सुर हरषि कहि जय जयति जय रघुकुलमनी॥
एहि भाँति जानि बरात आवत बाजने बहु बाजहीं।
रानी सुआसिनि बोलि परिछनि हेतु मङ्गल साजहीं॥

भावार्थ

दोनों ओर से राजसमाज में अत्यन्त हर्ष है और बडे जोर से नगाडे बज रहे हैं। देवता प्रसन्न होकर और ‘रघुकुलमणि श्री राम की जय हो, जय हो, जय हो’ कहकर फूल बरसा रहे हैं। इस प्रकार बारात को आती हुई जानकर बहुत प्रकार के बाजे बजने लगे और रानी सुहागिन स्त्रियों को बुलाकर परछन के लिए मङ्गल द्रव्य सजाने लगीं॥

317

01 दोहा

सजि आरती अनेक बिधि मङ्गल सकल सँवारि।
चलीं मुदित परिछनि करन गजगामिनि बर नारि॥317॥

मूल

सजि आरती अनेक बिधि मङ्गल सकल सँवारि।
चलीं मुदित परिछनि करन गजगामिनि बर नारि॥317॥

भावार्थ

अनेक प्रकार से आरती सजकर और समस्त मङ्गल द्रव्यों को यथायोग्य सजाकर गजगामिनी (हाथी की सी चाल वाली) उत्तम स्त्रियाँ आनन्दपूर्वक परछन के लिए चलीं॥317॥

02 चौपाई

बिधुबदनीं सब सब मृगलोचनि। सब निज तन छबि रति मदु मोचनि॥
पहिरें बरन बरन बर चीरा। सकल बिभूषन सजें सरीरा॥1॥

मूल

बिधुबदनीं सब सब मृगलोचनि। सब निज तन छबि रति मदु मोचनि॥
पहिरें बरन बरन बर चीरा। सकल बिभूषन सजें सरीरा॥1॥

भावार्थ

सभी स्त्रियाँ चन्द्रमुखी (चन्द्रमा के समान मुख वाली) और सभी मृगलोचनी (हरिण की सी आँखों वाली) हैं और सभी अपने शरीर की शोभा से रति के गर्व को छुडाने वाली हैं। रङ्ग-रङ्ग की सुन्दर साडियाँ पहने हैं और शरीर पर सब आभूषण सजे हुए हैं॥1॥

सकल सुमङ्गल अङ्ग बनाएँ। करहिं गान कलकण्ठि लजाएँ॥
कङ्कन किङ्किनि नूपुर बाजहिं। चालि बिलोकि काम गज लाजहिं॥2॥

मूल

सकल सुमङ्गल अङ्ग बनाएँ। करहिं गान कलकण्ठि लजाएँ॥
कङ्कन किङ्किनि नूपुर बाजहिं। चालि बिलोकि काम गज लाजहिं॥2॥

भावार्थ

समस्त अङ्गों को सुन्दर मङ्गल पदार्थों से सजाए हुए वे कोयल को भी लजाती हुई (मधुर स्वर से) गान कर रही हैं। कङ्गन, करधनी और नूपुर बज रहे हैं। स्त्रियों की चाल देखकर कामदेव के हाथी भी लजा जाते हैं॥2॥

बाजहिं बाजने बिबिध प्रकारा। नभ अरु नगर सुमङ्गलचारा॥
सची सारदा रमा भवानी। जे सुरतिय सुचि सजह सयानी॥3॥

मूल

बाजहिं बाजने बिबिध प्रकारा। नभ अरु नगर सुमङ्गलचारा॥
सची सारदा रमा भवानी। जे सुरतिय सुचि सजह सयानी॥3॥

भावार्थ

अनेक प्रकार के बाजे बज रहे हैं, आकाश और नगर दोनों स्थानों में सुन्दर मङ्गलाचार हो रहे हैं। शची (इन्द्राणी), सरस्वती, लक्ष्मी, पार्वती और जो स्वभाव से ही पवित्र और सयानी देवाङ्गनाएँ थीं,॥3॥

कपट नारि बर बेष बनाई। मिली सकल रनिवासहिं जाई॥
करहिं गान कल मङ्गल बानीं। हरष बिबस सब काहुँ न जानीं॥4॥

मूल

कपट नारि बर बेष बनाई। मिली सकल रनिवासहिं जाई॥
करहिं गान कल मङ्गल बानीं। हरष बिबस सब काहुँ न जानीं॥4॥

भावार्थ

वे सब कपट से सुन्दर स्त्री का वेश बनाकर रनिवास में जा मिलीं और मनोहर वाणी से मङ्गलगान करने लगीं। सब कोई हर्ष के विशेष वश थे, अतः किसी ने उन्हें पहचाना नहीं॥4॥

03 छन्द

को जान केहि आनन्द बस सब ब्रह्मु बर परिछन चली।
कल गान मधुर निसान बरषहिं सुमन सुर सोभा भली॥
आनन्दकन्दु बिलोकि दूलहु सकलहियँ हरषित भई।
अम्भोज अम्बक अम्बु उमगि सुअङ्ग पुलकावलि छई॥

मूल

को जान केहि आनन्द बस सब ब्रह्मु बर परिछन चली।
कल गान मधुर निसान बरषहिं सुमन सुर सोभा भली॥
आनन्दकन्दु बिलोकि दूलहु सकलहियँ हरषित भई।
अम्भोज अम्बक अम्बु उमगि सुअङ्ग पुलकावलि छई॥

भावार्थ

कौन किसे जाने-पहिचाने! आनन्द के वश हुई सब दूलह बने हुए ब्रह्म का परछन करने चलीं। मनोहर गान हो रहा है। मधुर-मधुर नगाडे बज रहे हैं, देवता फूल बरसा रहे हैं, बडी अच्छी शोभा है। आनन्दकन्द दूलह को देखकर सब स्त्रियाँ हृदय में हर्षित हुईं। उनके कमल सरीखे नेत्रों में प्रेमाश्रुओं का जल उमड आया और सुन्दर अङ्गों में पुलकावली छा गई॥

318

01 दोहा

जो सुखु भा सिय मातु मन देखि राम बर बेषु।
सो न सकहिं कहि कलप सत सहस सारदा सेषु॥318॥

श्री रामचन्द्रजी का वर वेश देखकर सीताजी की माता सुनयनाजी के मन में जो सुख हुआ, उसे हजारों सरस्वती और शेषजी सौ कल्पों में भी नहीं कह सकते (अथवा लाखों सरस्वती और शेष लाखों कल्पों में भी नहीं कह सकते)॥318॥

मूल

जो सुखु भा सिय मातु मन देखि राम बर बेषु।
सो न सकहिं कहि कलप सत सहस सारदा सेषु॥318॥

श्री रामचन्द्रजी का वर वेश देखकर सीताजी की माता सुनयनाजी के मन में जो सुख हुआ, उसे हजारों सरस्वती और शेषजी सौ कल्पों में भी नहीं कह सकते (अथवा लाखों सरस्वती और शेष लाखों कल्पों में भी नहीं कह सकते)॥318॥

02 चौपाई

नयन नीरु हटि मङ्गल जानी। परिछनि करहिं मुदित मन रानी॥
बेद बिहित अरु कुल आचारू। कीन्ह भली बिधि सब ब्यवहारू॥1॥

मूल

नयन नीरु हटि मङ्गल जानी। परिछनि करहिं मुदित मन रानी॥
बेद बिहित अरु कुल आचारू। कीन्ह भली बिधि सब ब्यवहारू॥1॥

भावार्थ

मङ्गल अवसर जानकर नेत्रों के जल को रोके हुए रानी प्रसन्न मन से परछन कर रही हैं। वेदों में कहे हुए तथा कुलाचार के अनुसार सभी व्यवहार रानी ने भलीभाँति किए॥1॥

पञ्च सबद धुनि मङ्गल गाना। पट पाँवडे परहिं बिधि नाना॥
करि आरती अरघु तिन्ह दीन्हा। राम गमनु मण्डप तब कीन्हा॥2॥

मूल

पञ्च सबद धुनि मङ्गल गाना। पट पाँवडे परहिं बिधि नाना॥
करि आरती अरघु तिन्ह दीन्हा। राम गमनु मण्डप तब कीन्हा॥2॥

भावार्थ

पञ्चशब्द (तन्त्री, ताल, झाँझ, नगारा और तुरही- इन पाँच प्रकार के बाजों के शब्द), पञ्चध्वनि (वेदध्वनि, वन्दिध्वनि, जयध्वनि, शङ्खध्वनि और हुलूध्वनि) और मङ्गलगान हो रहे हैं। नाना प्रकार के वस्त्रों के पाँवडे पड रहे हैं। उन्होन्ने (रानी ने) आरती करके अर्घ्य दिया, तब श्री रामजी ने मण्डप में गमन किया॥2॥

दसरथु सहित समाज बिराजे। बिभव बिलोकि लोकपति लाजे॥
समयँ समयँ सुर बरषहिं फूला। सान्ति पढहिं महिसुर अनुकूला॥3॥

मूल

दसरथु सहित समाज बिराजे। बिभव बिलोकि लोकपति लाजे॥
समयँ समयँ सुर बरषहिं फूला। सान्ति पढहिं महिसुर अनुकूला॥3॥

भावार्थ

दशरथजी अपनी मण्डली सहित विराजमान हुए। उनके वैभव को देखकर लोकपाल भी लजा गए। समय-समय पर देवता फूल बरसाते हैं और भूदेव ब्राह्मण समयानुकूल शान्ति पाठ करते हैं॥3॥

नभ अरु नगर कोलाहल होई। आपनि पर कछु सुनइ न कोई॥
एहि बिधि रामु मण्डपहिं आए। अरघु देइ आसन बैठाए॥4॥

मूल

नभ अरु नगर कोलाहल होई। आपनि पर कछु सुनइ न कोई॥
एहि बिधि रामु मण्डपहिं आए। अरघु देइ आसन बैठाए॥4॥

भावार्थ

आकाश और नगर में शोर मच रहा है। अपनी-पराई कोई कुछ भी नहीं सुनता। इस प्रकार श्री रामचन्द्रजी मण्डप में आए और अर्घ्य देकर आसन पर बैठाए गए॥4॥

03 छन्द

बैठारि आसन आरती करि निरखि बरु सुखु पावहीं।
मनि बसन भूषन भूरि वारहिं नारि मङ्गल गावहीं॥
ब्रह्मादि सुरबर बिप्र बेष बनाइ कौतुक देखहीं।
अवलोकि रघुकुल कमल रबि छबि सुफल जीवन लेखहीं॥

मूल

बैठारि आसन आरती करि निरखि बरु सुखु पावहीं।
मनि बसन भूषन भूरि वारहिं नारि मङ्गल गावहीं॥
ब्रह्मादि सुरबर बिप्र बेष बनाइ कौतुक देखहीं।
अवलोकि रघुकुल कमल रबि छबि सुफल जीवन लेखहीं॥

भावार्थ

आसन पर बैठाकर, आरती करके दूलह को देखकर स्त्रियाँ सुख पा रही हैं।

वे ढेर के ढेर मणि, वस्त्र और गहने निछावर करके मङ्गल गा रही हैं। ब्रह्मा आदि श्रेष्ठ देवता ब्राह्मण का वेश बनाकर कौतुक देख रहे हैं। वे रघुकुल रूपी कमल को प्रफुल्लित करने वाले सूर्य श्री रामचन्द्रजी की छबि देखकर अपना जीवन सफल जान रहे हैं।

319

01 दोहा

नाऊ बारी भाट नट राम निछावरि पाइ।
मुदित असीसहिं नाइ सिर हरषु न हृदयँ समाइ॥319॥

मूल

नाऊ बारी भाट नट राम निछावरि पाइ।
मुदित असीसहिं नाइ सिर हरषु न हृदयँ समाइ॥319॥

भावार्थ

नाई, बारी, भाट और नट श्री रामचन्द्रजी की निछावर पाकर आनन्दित हो सिर नवाकर आशीष देते हैं, उनके हृदय में हर्ष समाता नहीं है॥319॥

02 चौपाई

मिले जनकु दसरथु अति प्रीतीं। करि बैदिक लौकिक सब रीतीं॥
मिलत महा दोउ राज बिराजे। उपमा खोजि खोजि कबि लाजे॥1॥

मूल

मिले जनकु दसरथु अति प्रीतीं। करि बैदिक लौकिक सब रीतीं॥
मिलत महा दोउ राज बिराजे। उपमा खोजि खोजि कबि लाजे॥1॥

भावार्थ

वैदिक और लौकिक सब रीतियाँ करके जनकजी और दशरथजी बडे प्रेम से मिले। दोनों महाराज मिलते हुए बडे ही शोभित हुए, कवि उनके लिए उपमा खोज-खोजकर लजा गए॥1॥

लही न कतहुँ हारि हियँ मानी। इन्ह सम एइ उपमा उर आनी॥
सामध देखि देव अनुरागे। सुमन बरषि जसु गावन लागे॥2॥

मूल

लही न कतहुँ हारि हियँ मानी। इन्ह सम एइ उपमा उर आनी॥
सामध देखि देव अनुरागे। सुमन बरषि जसु गावन लागे॥2॥

भावार्थ

जब कहीं भी उपमा नहीं मिली, तब हृदय में हार मानकर उन्होन्ने मन में यही उपमा निश्चित की कि इनके समान ये ही हैं। समधियों का मिलाप या परस्पर सम्बन्ध देखकर देवता अनुरक्त हो गए और फूल बरसाकर उनका यश गाने लगे॥2॥

जगु बिरञ्चि उपजावा जब तें। देखे सुने ब्याह बहु तब तें॥
सकल भाँति सम साजु समाजू। सम समधी देखे हम आजू॥3॥

मूल

जगु बिरञ्चि उपजावा जब तें। देखे सुने ब्याह बहु तब तें॥
सकल भाँति सम साजु समाजू। सम समधी देखे हम आजू॥3॥

भावार्थ

(वे कहने लगे-) जबसे ब्रह्माजी ने जगत को उत्पन्न किया, तब से हमने बहुत विवाह देखे- सुने, परन्तु सब प्रकार से समान साज-समाज और बराबरी के (पूर्ण समतायुक्त) समधी तो आज ही देखे॥3॥

देव गिरा सुनि सुन्दर साँची। प्रीति अलौकिक दुहु दिसि माची॥
देत पाँवडे अरघु सुहाए। सादर जनकु मण्डपहिं ल्याए॥4॥

मूल

देव गिरा सुनि सुन्दर साँची। प्रीति अलौकिक दुहु दिसि माची॥
देत पाँवडे अरघु सुहाए। सादर जनकु मण्डपहिं ल्याए॥4॥

भावार्थ

देवताओं की सुन्दर सत्यवाणी सुनकर दोनों ओर अलौकिक प्रीति छा गई। सुन्दर पाँवडे और अर्घ्य देते हुए जनकजी दशरथजी को आदरपूर्वक मण्डप में ले आए॥4॥

03 छन्द

मण्डपु बिलोकि बिचित्र रचनाँ रुचिरताँ मुनि मन हरे।
निज पानि जनक सुजान सब कहुँ आनि सिङ्घासन धरे॥
कुल इष्ट सरिस बसिष्ट पूजे बिनय करि आसिष लही।
कौसिकहि पूजन परम प्रीति कि रीति तौ न परै कही॥

मूल

मण्डपु बिलोकि बिचित्र रचनाँ रुचिरताँ मुनि मन हरे।
निज पानि जनक सुजान सब कहुँ आनि सिङ्घासन धरे॥
कुल इष्ट सरिस बसिष्ट पूजे बिनय करि आसिष लही।
कौसिकहि पूजन परम प्रीति कि रीति तौ न परै कही॥

भावार्थ

मण्डप को देखकर उसकी विचित्र रचना और सुन्दरता से मुनियों के मन भी हरे गए (मोहित हो गए)। सुजान जनकजी ने अपने हाथों से ला-लाकर सबके लिए सिंहासन रखे। उन्होन्ने अपने कुल के इष्टदेवता के समान वशिष्ठजी की पूजा की और विनय करके आशीर्वाद प्राप्त किया। विश्वामित्रजी की पूजा करते समय की परम प्रीति की रीति तो कहते ही नहीं बनती॥

320

01 दोहा

बामदेव आदिक रिषय पूजे मुदित महीस॥
दिए दिब्य आसन सबहि सब सन लही असीस॥320॥

मूल

बामदेव आदिक रिषय पूजे मुदित महीस॥
दिए दिब्य आसन सबहि सब सन लही असीस॥320॥

भावार्थ

राजा ने वामदेव आदि ऋषियों की प्रसन्न मन से पूजा की। सभी को दिव्य आसन दिए और सबसे आशीर्वाद प्राप्त किया॥320॥

02 चौपाई

बहुरि कीन्हि कोसलपति पूजा। जानि ईस सम भाउ न दूजा॥
कीन्हि जोरि कर बिनय बडाई। कहि निज भाग्य बिभव बहुताई॥1॥

मूल

बहुरि कीन्हि कोसलपति पूजा। जानि ईस सम भाउ न दूजा॥
कीन्हि जोरि कर बिनय बडाई। कहि निज भाग्य बिभव बहुताई॥1॥

भावार्थ

फिर उन्होन्ने कोसलाधीश राजा दशरथजी की पूजा उन्हें ईश (महादेवजी) के समान जानकर की, कोई दूसरा भाव न था। तदन्तर (उनके सम्बन्ध से) अपने भाग्य और वैभव के विस्तार की सराहना करके हाथ जोडकर विनती और बडाई की॥1॥

पूजे भूपति सकल बराती। समधी सम सादर सब भाँती॥
आसन उचित दिए सब काहू। कहौं काह मुख एक उछाहू॥2॥

मूल

पूजे भूपति सकल बराती। समधी सम सादर सब भाँती॥
आसन उचित दिए सब काहू। कहौं काह मुख एक उछाहू॥2॥

भावार्थ

राजा जनकजी ने सब बारातियों का समधी दशरथजी के समान ही सब प्रकार से आदरपूर्वक पूजन किया और सब किसी को उचित आसन दिए। मैं एक मुख से उस उत्साह का क्या वर्णन करूँ॥2॥

सकल बरात जनक सनमानी। दान मान बिनती बर बानी॥
बिधि हरि हरु दिसिपति दिनराऊ। जे जानहिं रघुबीर प्रभाऊ॥3॥

मूल

सकल बरात जनक सनमानी। दान मान बिनती बर बानी॥
बिधि हरि हरु दिसिपति दिनराऊ। जे जानहिं रघुबीर प्रभाऊ॥3॥

भावार्थ

राजा जनक ने दान, मान-सम्मान, विनय और उत्तम वाणी से सारी बारात का सम्मान किया। ब्रह्मा, विष्णु, शिव, दिक्पाल और सूर्य जो श्री रघुनाथजी का प्रभाव जानते हैं,॥3॥

कपट बिप्र बर बेष बनाएँ। कौतुक देखहिं अति सचु पाएँ॥
पूजे जनक देव सम जानें। दिए सुआसन बिनु पहिचानें॥4॥

मूल

कपट बिप्र बर बेष बनाएँ। कौतुक देखहिं अति सचु पाएँ॥
पूजे जनक देव सम जानें। दिए सुआसन बिनु पहिचानें॥4॥

भावार्थ

वे कपट से ब्राह्मणों का सुन्दर वेश बनाए बहुत ही सुख पाते हुए सब लीला देख रहे थे। जनकजी ने उनको देवताओं के समान जानकर उनका पूजन किया और बिना पहिचाने भी उन्हें सुन्दर आसन दिए॥4॥

03 छन्द

पहिचान को केहि जान सबहि अपान सुधि भोरी भई।
आनन्द कन्दु बिलोकि दूलहु उभय दिसि आनँदमई॥
सुर लखे राम सुजान पूजे मानसिक आसन दए।
अवलोकि सीलु सुभाउ प्रभु को बिबुध मन प्रमुदित भए॥

मूल

पहिचान को केहि जान सबहि अपान सुधि भोरी भई।
आनन्द कन्दु बिलोकि दूलहु उभय दिसि आनँदमई॥
सुर लखे राम सुजान पूजे मानसिक आसन दए।
अवलोकि सीलु सुभाउ प्रभु को बिबुध मन प्रमुदित भए॥

भावार्थ

कौन किसको जाने-पहिचाने! सबको अपनी ही सुध भूली हुई है।

आनन्दकन्द दूलह को देखकर दोनों ओर आनन्दमयी स्थिति हो रही है। सुजान (सर्वज्ञ) श्री रामचन्द्रजी ने देवताओं को पहिचान लिया और उनकी मानसिक पूजा करके उन्हें मानसिक आसन दिए। प्रभु का शील-स्वभाव देखकर देवगण मन में बहुत आनन्दित हुए।

321

01 दोहा

रामचन्द्र मुख चन्द्र छबि लोचन चारु चकोर।
करत पान सादर सकल प्रेमु प्रमोदु न थोर॥321॥

मूल

रामचन्द्र मुख चन्द्र छबि लोचन चारु चकोर।
करत पान सादर सकल प्रेमु प्रमोदु न थोर॥321॥

भावार्थ

श्री रामचन्द्रजी के मुख रूपी चन्द्रमा की छबि को सभी के सुन्दर नेत्र रूपी चकोर आदरपूर्वक पान कर रहे हैं, प्रेम और आनन्द कम नहीं है (अर्थात बहुत है)॥321॥

02 चौपाई

समउ बिलोकि बसिष्ठ बोलाए। सादर सतानन्दु सुनि आए॥
बेगि कुअँरि अब आनहु जाई। चले मुदित मुनि आयसु पाई॥1॥

मूल

समउ बिलोकि बसिष्ठ बोलाए। सादर सतानन्दु सुनि आए॥
बेगि कुअँरि अब आनहु जाई। चले मुदित मुनि आयसु पाई॥1॥

भावार्थ

समय देखकर वशिष्ठजी ने शतानन्दजी को आदरपूर्वक बुलाया। वे सुनकर आदर के साथ आए। वशिष्ठजी ने कहा- अब जाकर राजकुमारी को शीघ्र ले आइए। मुनि की आज्ञा पाकर वे प्रसन्न होकर चले॥1॥

रानी सुनि उपरोहित बानी। प्रमुदित सखिन्ह समेत सयानी॥
बिप्र बधू कुल बृद्ध बोलाईं। करि कुल रीति सुमङ्गल गाईं॥2॥

मूल

रानी सुनि उपरोहित बानी। प्रमुदित सखिन्ह समेत सयानी॥
बिप्र बधू कुल बृद्ध बोलाईं। करि कुल रीति सुमङ्गल गाईं॥2॥

भावार्थ

बुद्धिमती रानी पुरोहित की वाणी सुनकर सखियों समेत बडी प्रसन्न हुईं। ब्राह्मणों की स्त्रियों और कुल की बूढी स्त्रियों को बुलाकर उन्होन्ने कुलरीति करके सुन्दर मङ्गल गीत गाए॥2॥

नारि बेष जे सुर बर बामा। सकल सुभायँ सुन्दरी स्यामा॥
तिन्हहि देखि सुखु पावहिं नारी। बिनु पहिचानि प्रानहु ते प्यारीं॥3॥

मूल

नारि बेष जे सुर बर बामा। सकल सुभायँ सुन्दरी स्यामा॥
तिन्हहि देखि सुखु पावहिं नारी। बिनु पहिचानि प्रानहु ते प्यारीं॥3॥

भावार्थ

श्रेष्ठ देवाङ्गनाएँ, जो सुन्दर मनुष्य-स्त्रियों के वेश में हैं, सभी स्वभाव से ही सुन्दरी और श्यामा (सोलह वर्ष की अवस्था वाली) हैं। उनको देखकर रनिवास की स्त्रियाँ सुख पाती हैं और बिना पहिचान के ही वे सबको प्राणों से भी प्यारी हो रही हैं॥3॥

बार बार सनमानहिं रानी। उमा रमा सारद सम जानी॥
सीय सँवारि समाजु बनाई। मुदित मण्डपहिं चलीं लवाई॥4॥

मूल

बार बार सनमानहिं रानी। उमा रमा सारद सम जानी॥
सीय सँवारि समाजु बनाई। मुदित मण्डपहिं चलीं लवाई॥4॥

भावार्थ

उन्हें पार्वती, लक्ष्मी और सरस्वती के समान जानकर रानी बार-बार उनका सम्मान करती हैं। (रनिवास की स्त्रियाँ और सखियाँ) सीताजी का श्रृङ्गार करके, मण्डली बनाकर, प्रसन्न होकर उन्हें मण्डप में लिवा चलीं॥4॥

03 छन्द

चलि ल्याइ सीतहि सखीं सादर सजि सुमङ्गल भामिनीं।
नवसप्त साजें सुन्दरी सब मत्त कुञ्जर गामिनीं॥
कल गान सुनि मुनि ध्यान त्यागहिं काम कोकिल लाजहीं।
मञ्जीर नूपुर कलित कङ्कन ताल गति बर बाजहीं॥

मूल

चलि ल्याइ सीतहि सखीं सादर सजि सुमङ्गल भामिनीं।
नवसप्त साजें सुन्दरी सब मत्त कुञ्जर गामिनीं॥
कल गान सुनि मुनि ध्यान त्यागहिं काम कोकिल लाजहीं।
मञ्जीर नूपुर कलित कङ्कन ताल गति बर बाजहीं॥

भावार्थ

सुन्दर मङ्गल का साज सजकर (रनिवास की) स्त्रियाँ और सखियाँ आदर सहित सीताजी को लिवा चलीं।

सभी सुन्दरियाँ सोलहों श्रृङ्गार किए हुए मतवाले हाथियों की चाल से चलने वाली हैं। उनके मनोहर गान को सुनकर मुनि ध्यान छोड देते हैं और कामदेव की कोयलें भी लजा जाती हैं। पायजेब, पैञ्जनी और सुन्दर कङ्कण ताल की गति पर बडे सुन्दर बज रहे हैं।

322

01 दोहा

सोहति बनिता बृन्द महुँ सहज सुहावनि सीय।
छबि ललना गन मध्य जनु सुषमा तिय कमनीय॥322॥

मूल

सोहति बनिता बृन्द महुँ सहज सुहावनि सीय।
छबि ललना गन मध्य जनु सुषमा तिय कमनीय॥322॥

भावार्थ

सहज ही सुन्दरी सीताजी स्त्रियों के समूह में इस प्रकार शोभा पा रही हैं, मानो छबि रूपी ललनाओं के समूह के बीच साक्षात परम मनोहर शोभा रूपी स्त्री सुशोभित हो॥322॥

02 चौपाई

सिय सुन्दरता बरनि न जाई। लघु मति बहुत मनोहरताई॥
आवत दीखि बरातिन्ह सीता। रूप रासि सब भाँति पुनीता॥1॥

मूल

सिय सुन्दरता बरनि न जाई। लघु मति बहुत मनोहरताई॥
आवत दीखि बरातिन्ह सीता। रूप रासि सब भाँति पुनीता॥1॥

भावार्थ

सीताजी की सुन्दरता का वर्णन नहीं हो सकता, क्योङ्कि बुद्धि बहुत छोटी है और मनोहरता बहुत बडी है। रूप की राशि और सब प्रकार से पवित्र सीताजी को बारातियों ने आते देखा॥1॥

सबहिं मनहिं मन किए प्रनामा। देखि राम भए पूरनकामा॥
हरषे दसरथ सुतन्ह समेता। कहि न जाइ उर आनँदु जेता॥2॥

मूल

सबहिं मनहिं मन किए प्रनामा। देखि राम भए पूरनकामा॥
हरषे दसरथ सुतन्ह समेता। कहि न जाइ उर आनँदु जेता॥2॥

भावार्थ

सभी ने उन्हें मन ही मन प्रणाम किया। श्री रामचन्द्रजी को देखकर तो सभी पूर्णकाम (कृतकृत्य) हो गए। राजा दशरथजी पुत्रों सहित हर्षित हुए। उनके हृदय में जितना आनन्द था, वह कहा नहीं जा सकता॥2॥

सुर प्रनामु करि बरिसहिं फूला। मुनि असीस धुनि मङ्गल मूला॥
गान निसान कोलाहलु भारी। प्रेम प्रमोद मगन नर नारी॥3॥

मूल

सुर प्रनामु करि बरिसहिं फूला। मुनि असीस धुनि मङ्गल मूला॥
गान निसान कोलाहलु भारी। प्रेम प्रमोद मगन नर नारी॥3॥

भावार्थ

देवता प्रणाम करके फूल बरसा रहे हैं। मङ्गलों की मूल मुनियों के आशीर्वादों की ध्वनि हो रही है। गानों और नगाडों के शब्द से बडा शोर मच रहा है। सभी नर-नारी प्रेम और आनन्द में मग्न हैं॥3॥

एहि बिधि सीय मण्डपहिं आई। प्रमुदित सान्ति पढहिं मुनिराई॥
तेहि अवसर कर बिधि ब्यवहारू। दुहुँ कुलगुर सब कीन्ह अचारू॥4॥

मूल

एहि बिधि सीय मण्डपहिं आई। प्रमुदित सान्ति पढहिं मुनिराई॥
तेहि अवसर कर बिधि ब्यवहारू। दुहुँ कुलगुर सब कीन्ह अचारू॥4॥

भावार्थ

इस प्रकार सीताजी मण्डप में आईं। मुनिराज बहुत ही आनन्दित होकर शान्तिपाठ पढ रहे हैं। उस अवसर की सब रीति, व्यवहार और कुलाचार दोनों कुलगुरुओं ने किए॥4॥

03 छन्द

आचारु करि गुर गौरि गनपति मुदित बिप्र पुजावहीं।
सुर प्रगटि पूजा लेहिं देहिं असीस अति सुखु पावहीं॥
मधुपर्क मङ्गल द्रब्य जो जेहि समय मुनि मन महुँ चहें।
भरे कनक कोपर कलस सो तब लिएहिं परिचारक रहैं॥1॥

मूल

आचारु करि गुर गौरि गनपति मुदित बिप्र पुजावहीं।
सुर प्रगटि पूजा लेहिं देहिं असीस अति सुखु पावहीं॥
मधुपर्क मङ्गल द्रब्य जो जेहि समय मुनि मन महुँ चहें।
भरे कनक कोपर कलस सो तब लिएहिं परिचारक रहैं॥1॥

भावार्थ

कुलाचार करके गुरुजी प्रसन्न होकर गौरीजी, गणेशजी और ब्राह्मणों की पूजा करा रहे हैं (अथवा ब्राह्मणों के द्वारा गौरी और गणेश की पूजा करवा रहे हैं)। देवता प्रकट होकर पूजा ग्रहण करते हैं, आशीर्वाद देते हैं और अत्यन्त सुख पा रहे हैं। मधुपर्क आदि जिस किसी भी माङ्गलिक पदार्थ की मुनि जिस समय भी मन में चाह मात्र करते हैं, सेवकगण उसी समय सोने की परातों में और कलशों में भरकर उन पदार्थों को लिए तैयार रहते हैं॥1॥

कुल रीति प्रीति समेत रबि कहि देत सबु सादर कियो।
एहि भाँति देव पुजाइ सीतहि सुभग सिङ्घासनु दियो॥
सिय राम अवलोकनि परसपर प्रेमु काहुँ न लखि परै।
मन बुद्धि बर बानी अगोचर प्रगट कबि कैसें करै॥2॥

मूल

कुल रीति प्रीति समेत रबि कहि देत सबु सादर कियो।
एहि भाँति देव पुजाइ सीतहि सुभग सिङ्घासनु दियो॥
सिय राम अवलोकनि परसपर प्रेमु काहुँ न लखि परै।
मन बुद्धि बर बानी अगोचर प्रगट कबि कैसें करै॥2॥

भावार्थ

स्वयं सूर्यदेव प्रेम सहित अपने कुल की सब रीतियाँ बता देते हैं और वे सब आदरपूर्वक की जा रही हैं। इस प्रकार देवताओं की पूजा कराके मुनियों ने सीताजी को सुन्दर सिंहासन दिया। श्री सीताजी और श्री रामजी का आपस में एक-दूसरे को देखना तथा उनका परस्पर का प्रेम किसी को लख नहीं पड रहा है, जो बात श्रेष्ठ मन, बुद्धि और वाणी से भी परे है, उसे कवि क्यों कर प्रकट करे?॥2॥

323

01 दोहा

होम समय तनु धरि अनलु अति सुख आहुति लेहिं।
बिप्र बेष धरि बेद सब कहि बिबाह बिधि देहिं॥323॥

मूल

होम समय तनु धरि अनलु अति सुख आहुति लेहिं।
बिप्र बेष धरि बेद सब कहि बिबाह बिधि देहिं॥323॥

भावार्थ

हवन के समय अग्निदेव शरीर धारण करके बडे ही सुख से आहुति ग्रहण करते हैं और सारे वेद ब्राह्मण वेष धरकर विवाह की विधियाँ बताए देते हैं॥323॥

02 चौपाई

जनक पाटमहिषी जग जानी। सीय मातु किमि जाइ बखानी॥
सुजसु सुकृत सुख सुन्दरताई। सब समेटि बिधि रची बनाई॥1॥

मूल

जनक पाटमहिषी जग जानी। सीय मातु किमि जाइ बखानी॥
सुजसु सुकृत सुख सुन्दरताई। सब समेटि बिधि रची बनाई॥1॥

भावार्थ

जनकजी की जगविख्यात पटरानी और सीताजी की माता का बखान तो हो ही कैसे सकता है। सुयश, सुकृत (पुण्य), सुख और सुन्दरता सबको बटोरकर विधाता ने उन्हें सँवारकर तैयार किया है॥1॥

समउ जानि मुनिबरन्ह बोलाईं। सुनत सुआसिनि सादर ल्याईं॥
जनक बाम दिसि सोह सुनयना। हिमगिरि सङ्ग बनी जनु मयना॥2॥

मूल

समउ जानि मुनिबरन्ह बोलाईं। सुनत सुआसिनि सादर ल्याईं॥
जनक बाम दिसि सोह सुनयना। हिमगिरि सङ्ग बनी जनु मयना॥2॥

भावार्थ

समय जानकर श्रेष्ठ मुनियों ने उनको बुलवाया। यह सुनते ही सुहागिनी स्त्रियाँ उन्हें आदरपूर्वक ले आईं। सुनयनाजी (जनकजी की पटरानी) जनकजी की बाईं ओर ऐसी सोह रही हैं, मानो हिमाचल के साथ मैनाजी शोभित हों॥2॥

कनक कलस मनि कोपर रूरे। सुचि सुगन्ध मङ्गल जल पूरे॥
निज कर मुदित रायँ अरु रानी। धरे राम के आगें आनी॥3॥

मूल

कनक कलस मनि कोपर रूरे। सुचि सुगन्ध मङ्गल जल पूरे॥
निज कर मुदित रायँ अरु रानी। धरे राम के आगें आनी॥3॥

भावार्थ

पवित्र, सुगन्धित और मङ्गल जल से भरे सोने के कलश और मणियों की सुन्दर परातें राजा और रानी ने आनन्दित होकर अपने हाथों से लाकर श्री रामचन्द्रजी के आगे रखीं॥3॥

पढहिं बेद मुनि मङ्गल बानी। गगन सुमन झरि अवसरु जानी॥
बरु बिलोकि दम्पति अनुरागे। पाय पुनीत पखारन लागे॥4॥

मूल

पढहिं बेद मुनि मङ्गल बानी। गगन सुमन झरि अवसरु जानी॥
बरु बिलोकि दम्पति अनुरागे। पाय पुनीत पखारन लागे॥4॥

भावार्थ

मुनि मङ्गलवाणी से वेद पढ रहे हैं। सुअवसर जानकर आकाश से फूलों की झडी लग गई है। दूलह को देखकर राजा-रानी प्रेममग्न हो गए और उनके पवित्र चरणों को पखारने लगे॥4॥

03 छन्द

लागे पखारन पाय पङ्कज प्रेम तन पुलकावली।
नभ नगर गान निसान जय धुनि उमगि जनु चहुँ दिसि चली॥
जे पद सरोज मनोज अरि उर सर सदैव बिराजहीं।
जे सुकृत सुमिरत बिमलता मन सकल कलि मल भाजहीं॥1॥

मूल

लागे पखारन पाय पङ्कज प्रेम तन पुलकावली।
नभ नगर गान निसान जय धुनि उमगि जनु चहुँ दिसि चली॥
जे पद सरोज मनोज अरि उर सर सदैव बिराजहीं।
जे सुकृत सुमिरत बिमलता मन सकल कलि मल भाजहीं॥1॥

भावार्थ

वे श्री रामजी के चरण कमलों को पखारने लगे, प्रेम से उनके शरीर में पुलकावली छा रही है। आकाश और नगर में होने वाली गान, नगाडे और जय-जयकार की ध्वनि मानो चारों दिशाओं में उमड चली, जो चरण कमल कामदेव के शत्रु श्री शिवजी के हृदय रूपी सरोवर में सदा ही विराजते हैं, जिनका एक बार भी स्मरण करने से मन में निर्मलता आ जाती है और कलियुग के सारे पाप भाग जाते हैं,॥1॥

जे परसि मुनिबनिता लही गति रही जो पातकमई।
मकरन्दु जिन्ह को सम्भु सिर सुचिता अवधि सुर बरनई॥
करि मधुप मन मुनि जोगिजन जे सेइ अभिमत गति लहैं।
ते पद पखारत भाग्यभाजनु जनकु जय जय सब कहैं॥2॥

मूल

जे परसि मुनिबनिता लही गति रही जो पातकमई।
मकरन्दु जिन्ह को सम्भु सिर सुचिता अवधि सुर बरनई॥
करि मधुप मन मुनि जोगिजन जे सेइ अभिमत गति लहैं।
ते पद पखारत भाग्यभाजनु जनकु जय जय सब कहैं॥2॥

भावार्थ

जिनका स्पर्श पाकर गौतम मुनि की स्त्री अहल्या ने, जो पापमयी थी, परमगति पाई, जिन चरणकमलों का मकरन्द रस (गङ्गाजी) शिवजी के मस्तक पर विराजमान है, जिसको देवता पवित्रता की सीमा बताते हैं, मुनि और योगीजन अपने मन को भौंरा बनाकर जिन चरणकमलों का सेवन करके मनोवाञ्छित गति प्राप्त करते हैं, उन्हीं चरणों को भाग्य के पात्र (बडभागी) जनकजी धो रहे हैं, यह देखकर सब जय-जयकार कर रहे हैं॥2॥

बर कुअँरि करतल जोरि साखोचारु दोउ कुलगुर करैं।
भयो पानिगहनु बिलोकि बिधि सुर मनुज मुनि आनँद भरैं॥
सुखमूल दूलहु देखि दम्पति पुलक तन हुलस्यो हियो।
करि लोक बेद बिधानु कन्यादानु नृपभूषन कियो॥3॥

मूल

बर कुअँरि करतल जोरि साखोचारु दोउ कुलगुर करैं।
भयो पानिगहनु बिलोकि बिधि सुर मनुज मुनि आनँद भरैं॥
सुखमूल दूलहु देखि दम्पति पुलक तन हुलस्यो हियो।
करि लोक बेद बिधानु कन्यादानु नृपभूषन कियो॥3॥

भावार्थ

दोनों कुलों के गुरु वर और कन्या की हथेलियों को मिलाकर शाखोच्चार करने लगे। पाणिग्रहण हुआ देखकर ब्रह्मादि देवता, मनुष्य और मुनि आनन्द में भर गए। सुख के मूल दूलह को देखकर राजा-रानी का शरीर पुलकित हो गया और हृदय आनन्द से उमङ्ग उठा। राजाओं के अलङ्कार स्वरूप महाराज जनकजी ने लोक और वेद की रीति को करके कन्यादान किया॥3॥

हिमवन्त जिमि गिरिजा महेसहि हरिहि श्री सागर दई।
तिमि जनक रामहि सिय समरपी बिस्व कल कीरति नई॥
क्यों करै बिनय बिदेहु कियो बिदेहु मूरति सावँरीं।
करि होमु बिधिवत गाँठि जोरी होन लागीं भावँरीं॥4॥

मूल

हिमवन्त जिमि गिरिजा महेसहि हरिहि श्री सागर दई।
तिमि जनक रामहि सिय समरपी बिस्व कल कीरति नई॥
क्यों करै बिनय बिदेहु कियो बिदेहु मूरति सावँरीं।
करि होमु बिधिवत गाँठि जोरी होन लागीं भावँरीं॥4॥

भावार्थ

जैसे हिमवान ने शिवजी को पार्वतीजी और सागर ने भगवान विष्णु को लक्ष्मीजी दी थीं, वैसे ही जनकजी ने श्री रामचन्द्रजी को सीताजी समर्पित कीं, जिससे विश्व में सुन्दर नवीन कीर्ति छा गई। विदेह (जनकजी) कैसे विनती करें! उस साँवली मूर्ति ने तो उन्हें सचमुच विदेह (देह की सुध-बुध से रहित) ही कर दिया। विधिपूर्वक हवन करके गठजोडी की गई और भाँवरें होने लगीं॥4॥

324

01 दोहा

जय धुनि बन्दी बेद धुनि मङ्गल गान निसान।
सुनि हरषहिं बरषहिं बिबुध सुरतरु सुमन सुजान॥324॥

मूल

जय धुनि बन्दी बेद धुनि मङ्गल गान निसान।
सुनि हरषहिं बरषहिं बिबुध सुरतरु सुमन सुजान॥324॥

भावार्थ

जय ध्वनि, वन्दी ध्वनि, वेद ध्वनि, मङ्गलगान और नगाडों की ध्वनि सुनकर चतुर देवगण हर्षित हो रहे हैं और कल्पवृक्ष के फूलों को बरसा रहे हैं॥324॥

02 चौपाई

कुअँरु कुअँरि कल भावँरि देहीं। नयन लाभु सब सादर लेहीं॥
जाइ न बरनि मनोहर जोरी। जो उपमा कछु कहौं सो थोरी॥1॥

मूल

कुअँरु कुअँरि कल भावँरि देहीं। नयन लाभु सब सादर लेहीं॥
जाइ न बरनि मनोहर जोरी। जो उपमा कछु कहौं सो थोरी॥1॥

भावार्थ

वर और कन्या सुन्दर भाँवरें दे रहे हैं। सब लोग आदरपूर्वक (उन्हें देखकर) नेत्रों का परम लाभ ले रहे हैं। मनोहर जोडी का वर्णन नहीं हो सकता, जो कुछ उपमा कहूँ वही थोडी होगी॥1॥

राम सीय सुन्दर प्रतिछाहीं। जगमगात मनि खम्भन माहीं
मनहुँ मदन रति धरि बहु रूपा। देखत राम बिआहु अनूपा॥2॥

मूल

राम सीय सुन्दर प्रतिछाहीं। जगमगात मनि खम्भन माहीं
मनहुँ मदन रति धरि बहु रूपा। देखत राम बिआहु अनूपा॥2॥

भावार्थ

श्री रामजी और श्री सीताजी की सुन्दर परछाहीं मणियों के खम्भों में जगमगा रही हैं, मानो कामदेव और रति बहुत से रूप धारण करके श्री रामजी के अनुपम विवाह को देख रहे हैं॥2॥

दरस लालसा सकुच न थोरी। प्रगटत दुरत बहोरि बहोरी॥
भए मगन सब देखनिहारे। जनक समान अपान बिसारे॥3॥

मूल

दरस लालसा सकुच न थोरी। प्रगटत दुरत बहोरि बहोरी॥
भए मगन सब देखनिहारे। जनक समान अपान बिसारे॥3॥

भावार्थ

उन्हें (कामदेव और रति को) दर्शन की लालसा और सङ्कोच दोनों ही कम नहीं हैं (अर्थात बहुत हैं), इसीलिए वे मानो बार-बार प्रकट होते और छिपते हैं। सब देखने वाले आनन्दमग्न हो गए और जनकजी की भाँति सभी अपनी सुध भूल गए॥3॥

प्रमुदित मुनिन्ह भावँरीं फेरीं। नेगसहित सब रीति निवेरीं॥
राम सीय सिर सेन्दुर देहीं। सोभा कहि न जाति बिधि केहीं॥4॥

मूल

प्रमुदित मुनिन्ह भावँरीं फेरीं। नेगसहित सब रीति निवेरीं॥
राम सीय सिर सेन्दुर देहीं। सोभा कहि न जाति बिधि केहीं॥4॥

भावार्थ

मुनियों ने आनन्दपूर्वक भाँवरें फिराईं और नेग सहित सब रीतियों को पूरा किया। श्री रामचन्द्रजी सीताजी के सिर में सिन्दूर दे रहे हैं, यह शोभा किसी प्रकार भी कही नहीं जाती॥4॥

अरुन पराग जलजु भरि नीकें। ससिहि भूष अहि लोभ अमी कें॥
बहुरि बसिष्ठ दीन्हि अनुसासन। बरु दुलहिनि बैठे एक आसन॥5॥

मूल

अरुन पराग जलजु भरि नीकें। ससिहि भूष अहि लोभ अमी कें॥
बहुरि बसिष्ठ दीन्हि अनुसासन। बरु दुलहिनि बैठे एक आसन॥5॥

भावार्थ

मानो कमल को लाल पराग से अच्छी तरह भरकर अमृत के लोभ से साँप चन्द्रमा को भूषित कर रहा है। (यहाँ श्री राम के हाथ को कमल की, सेन्दूर को पराग की, श्री राम की श्याम भुजा को साँप की और सीताजी के मुख को चन्द्रमा की उपमा दी गई है।) फिर वशिष्ठजी ने आज्ञा दी, तब दूलह और दुलहिन एक आसन पर बैठे॥5॥

03 छन्द

बैठे बरासन रामु जानकि मुदित मन दसरथु भए।
तनु पुलक पुनि पुनि देखि अपनें सुकृत सुरतरु पल नए॥
भरि भुवन रहा उछाहु राम बिबाहु भा सबहीं कहा।
केहि भाँति बरनि सिरात रसना एक यहु मङ्गलु महा॥1॥

मूल

बैठे बरासन रामु जानकि मुदित मन दसरथु भए।
तनु पुलक पुनि पुनि देखि अपनें सुकृत सुरतरु पल नए॥
भरि भुवन रहा उछाहु राम बिबाहु भा सबहीं कहा।
केहि भाँति बरनि सिरात रसना एक यहु मङ्गलु महा॥1॥

भावार्थ

श्री रामजी और जानकीजी श्रेष्ठ आसन पर बैठे, उन्हें देखकर दशरथजी मन में बहुत आनन्दित हुए। अपने सुकृत रूपी कल्प वृक्ष में नए फल (आए) देखकर उनका शरीर बार-बार पुलकित हो रहा है। चौदहों भुवनों में उत्साह भर गया, सबने कहा कि श्री रामचन्द्रजी का विवाह हो गया। जीभ एक है और यह मङ्गल महान है, फिर भला, वह वर्णन करके किस प्रकार समाप्त किया जा सकता है॥1॥

तब जनक पाइ बसिष्ठ आयसु ब्याह साज सँवारि कै।
माण्डवी श्रुतकीरति उरमिला कुअँरि लईं हँकारि कै॥
कुसकेतु कन्या प्रथम जो गुन सील सुख सोभामई।
सब रीति प्रीति समेत करि सो ब्याहि नृप भरतहि दई॥2॥

मूल

तब जनक पाइ बसिष्ठ आयसु ब्याह साज सँवारि कै।
माण्डवी श्रुतकीरति उरमिला कुअँरि लईं हँकारि कै॥
कुसकेतु कन्या प्रथम जो गुन सील सुख सोभामई।
सब रीति प्रीति समेत करि सो ब्याहि नृप भरतहि दई॥2॥

भावार्थ

तब वशिष्ठजी की आज्ञा पाकर जनकजी ने विवाह का सामान सजाकर माण्डवीजी, श्रुतकीर्तिजी और उर्मिलाजी इन तीनों राजकुमारियों को बुला लिया। कुश ध्वज की बडी कन्या माण्डवीजी को, जो गुण, शील, सुख और शोभा की रूप ही थीं, राजा जनक ने प्रेमपूर्वक सब रीतियाँ करके भरतजी को ब्याह दिया॥2॥

जानकी लघु भगिनी सकल सुन्दरि सिरोमनि जानि कै।
सो तनय दीन्ही ब्याहि लखनहि सकल बिधि सनमानि कै॥
जेहि नामु श्रुतकीरति सुलोचनि सुमुखि सब गुन आगरी।
सो दई रिपुसूदनहि भूपति रूप सील उजागरी॥3॥

मूल

जानकी लघु भगिनी सकल सुन्दरि सिरोमनि जानि कै।
सो तनय दीन्ही ब्याहि लखनहि सकल बिधि सनमानि कै॥
जेहि नामु श्रुतकीरति सुलोचनि सुमुखि सब गुन आगरी।
सो दई रिपुसूदनहि भूपति रूप सील उजागरी॥3॥

भावार्थ

जानकीजी की छोटी बहिन उर्मिलाजी को सब सुन्दरियों में शिरोमणि जानकर उस कन्या को सब प्रकार से सम्मान करके, लक्ष्मणजी को ब्याह दिया और जिनका नाम श्रुतकीर्ति है और जो सुन्दर नेत्रों वाली, सुन्दर मुखवाली, सब गुणों की खान और रूप तथा शील में उजागर हैं, उनको राजा ने शत्रुघ्न को ब्याह दिया॥3॥

अनुरूप बर दुलहिनि परस्पर लखि सकुच हियँ हरषहीं।
सब मुदित सुन्दरता सराहहिं सुमन सुर गन बरषहीं॥
सुन्दरीं सुन्दर बरन्ह सह सब एक मण्डप राजहीं।
जनु जीव उर चारिउ अवस्था बिभुन सहित बिराजहीं॥4॥

मूल

अनुरूप बर दुलहिनि परस्पर लखि सकुच हियँ हरषहीं।
सब मुदित सुन्दरता सराहहिं सुमन सुर गन बरषहीं॥
सुन्दरीं सुन्दर बरन्ह सह सब एक मण्डप राजहीं।
जनु जीव उर चारिउ अवस्था बिभुन सहित बिराजहीं॥4॥

भावार्थ

दूलह और दुलहिनें परस्पर अपने-अपने अनुरूप जोडी को देखकर सकुचाते हुए हृदय में हर्षित हो रही हैं। सब लोग प्रसन्न होकर उनकी सुन्दरता की सराहना करते हैं और देवगण फूल बरसा रहे हैं। सब सुन्दरी दुलहिनें सुन्दर दूल्हों के साथ एक ही मण्डप में ऐसी शोभा पा रही हैं, मानो जीव के हृदय में चारों अवस्थाएँ (जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीय) अपने चारों स्वामियों (विश्व, तैजस, प्राज्ञ और ब्रह्म) सहित विराजमान हों॥4॥

325

01 दोहा

मुदित अवधपति सकल सुत बधुन्ह समेत निहारि।
जनु पाए महिपाल मनि क्रियन्ह सहित फल चारि॥325॥

मूल

मुदित अवधपति सकल सुत बधुन्ह समेत निहारि।
जनु पाए महिपाल मनि क्रियन्ह सहित फल चारि॥325॥

भावार्थ

सब पुत्रों को बहुओं सहित देखकर अवध नरेश दशरथजी ऐसे आनन्दित हैं, मानो वे राजाओं के शिरोमणि क्रियाओं (यज्ञक्रिया, श्रद्धाक्रिया, योगक्रिया और ज्ञानक्रिया) सहित चारों फल (अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष) पा गए हों॥325॥

02 चौपाई

जसि रघुबीर ब्याह बिधि बरनी। सकल कुअँर ब्याहे तेहिं करनी॥
कहि न जा कछु दाइज भूरी। रहा कनक मनि मण्डपु पूरी॥1॥

मूल

जसि रघुबीर ब्याह बिधि बरनी। सकल कुअँर ब्याहे तेहिं करनी॥
कहि न जा कछु दाइज भूरी। रहा कनक मनि मण्डपु पूरी॥1॥

भावार्थ

श्री रामचन्द्रजी के विवाह की जैसी विधि वर्णन की गई, उसी रीति से सब राजकुमार विवाहे गए। दहेज की अधिकता कुछ कही नहीं जाती, सारा मण्डप सोने और मणियों से भर गया॥1॥

कम्बल बसन बिचित्र पटोरे। भाँति भाँति बहु मोल न थोरे॥
गज रथ तुरगदास अरु दासी। धेनु अलङ्कृत कामदुहा सी॥2॥

मूल

कम्बल बसन बिचित्र पटोरे। भाँति भाँति बहु मोल न थोरे॥
गज रथ तुरगदास अरु दासी। धेनु अलङ्कृत कामदुहा सी॥2॥

भावार्थ

बहुत से कम्बल, वस्त्र और भाँति-भाँति के विचित्र रेशमी कपडे, जो थोडी कीमत के न थे (अर्थात बहुमूल्य थे) तथा हाथी, रथ, घोडे, दास-दासियाँ और गहनों से सजी हुई कामधेनु सरीखी गायें-॥2॥

बस्तु अनेक करिअ किमि लेखा। कहि न जाइ जानहिं जिन्ह देखा॥
लोकपाल अवलोकि सिहाने। लीन्ह अवधपति सबु सुखु माने॥3॥

मूल

बस्तु अनेक करिअ किमि लेखा। कहि न जाइ जानहिं जिन्ह देखा॥
लोकपाल अवलोकि सिहाने। लीन्ह अवधपति सबु सुखु माने॥3॥

भावार्थ

(आदि) अनेकों वस्तुएँ हैं, जिनकी गिनती कैसे की जाए। उनका वर्णन नहीं किया जा सकता, जिन्होन्ने देखा है, वही जानते हैं। उन्हें देखकर लोकपाल भी सिहा गए। अवधराज दशरथजी ने सुख मानकर प्रसन्नचित्त से सब कुछ ग्रहण किया॥3॥

दीन्ह जाचकन्हि जो जेहि भावा। उबरा सो जनवासेहिं आवा॥
तब कर जोरि जनकु मृदु बानी। बोले सब बरात सनमानी॥4॥

मूल

दीन्ह जाचकन्हि जो जेहि भावा। उबरा सो जनवासेहिं आवा॥
तब कर जोरि जनकु मृदु बानी। बोले सब बरात सनमानी॥4॥

भावार्थ

उन्होन्ने वह दहेज का सामान याचकों को, जो जिसे अच्छा लगा, दे दिया। जो बच रहा, वह जनवासे में चला आया। तब जनकजी हाथ जोडकर सारी बारात का सम्मान करते हुए कोमल वाणी से बोले॥4॥

03 छन्द

सनमानि सकल बरात आदर दान बिनय बडाइ कै।
प्रमुदित महामुनि बृन्द बन्दे पूजि प्रेम लडाइ कै॥
सिरु नाइ देव मनाइ सब सन कहत कर सम्पुट किएँ।
सुर साधु चाहत भाउ सिन्धु कि तोष जल अञ्जलि दिएँ॥1॥

मूल

सनमानि सकल बरात आदर दान बिनय बडाइ कै।
प्रमुदित महामुनि बृन्द बन्दे पूजि प्रेम लडाइ कै॥
सिरु नाइ देव मनाइ सब सन कहत कर सम्पुट किएँ।
सुर साधु चाहत भाउ सिन्धु कि तोष जल अञ्जलि दिएँ॥1॥

भावार्थ

आदर, दान, विनय और बडाई के द्वारा सारी बारात का सम्मान कर राजा जनक ने महान आनन्द के साथ प्रेमपूर्वक लडाकर (लाड करके) मुनियों के समूह की पूजा एवं वन्दना की। सिर नवाकर, देवताओं को मनाकर, राजा हाथ जोडकर सबसे कहने लगे कि देवता और साधु तो भाव ही चाहते हैं, (वे प्रेम से ही प्रसन्न हो जाते हैं, उन पूर्णकाम महानुभावों को कोई कुछ देकर कैसे सन्तुष्ट कर सकता है), क्या एक अञ्जलि जल देने से कहीं समुद्र सन्तुष्ट हो सकता है॥1॥

कर जोरि जनकु बहोरि बन्धु समेत कोसलराय सों।
बोले मनोहर बयन सानि सनेह सील सुभाय सों॥
सम्बन्ध राजन रावरें हम बडे अब सब बिधि भए।
एहि राज साज समेत सेवक जानिबे बिनु गथ लए॥2॥

मूल

कर जोरि जनकु बहोरि बन्धु समेत कोसलराय सों।
बोले मनोहर बयन सानि सनेह सील सुभाय सों॥
सम्बन्ध राजन रावरें हम बडे अब सब बिधि भए।
एहि राज साज समेत सेवक जानिबे बिनु गथ लए॥2॥

भावार्थ

फिर जनकजी भाई सहित हाथ जोडकर कोसलाधीश दशरथजी से स्नेह, शील और सुन्दर प्रेम में सानकर मनोहर वचन बोले- हे राजन्‌! आपके साथ सम्बन्ध हो जाने से अब हम सब प्रकार से बडे हो गए। इस राज-पाट सहित हम दोनों को आप बिना दाम के लिए हुए सेवक ही समझिएगा॥2॥

ए दारिका परिचारिका करि पालिबीं करुना नई।
अपराधु छमिबो बोलि पठए बहुत हौं ढीट्यो कई॥
पुनि भानुकुलभूषन सकल सनमान निधि समधी किए।
कहि जाति नहिं बिनती परस्पर प्रेम परिपूरन हिए॥3॥

मूल

ए दारिका परिचारिका करि पालिबीं करुना नई।
अपराधु छमिबो बोलि पठए बहुत हौं ढीट्यो कई॥
पुनि भानुकुलभूषन सकल सनमान निधि समधी किए।
कहि जाति नहिं बिनती परस्पर प्रेम परिपूरन हिए॥3॥

भावार्थ

इन लडकियों को टहलनी मानकर, नई-नई दया करके पालन कीजिएगा। मैन्ने बडी ढिठाई की कि आपको यहाँ बुला भेजा, अपराध क्षमा कीजिएगा। फिर सूर्यकुल के भूषण दशरथजी ने समधी जनकजी को सम्पूर्ण सम्मान का निधि कर दिया (इतना सम्मान किया कि वे सम्मान के भण्डार ही हो गए)। उनकी परस्पर की विनय कही नहीं जाती, दोनों के हृदय प्रेम से परिपूर्ण हैं॥3॥

बृन्दारका गन सुमन बरिसहिं राउ जनवासेहि चले।
दुन्दुभी जय धुनि बेद धुनि नभ नगर कौतूहल भले॥
तब सखीं मङ्गल गान करत मुनीस आयसु पाइ कै।
दूलह दुलहिनिन्ह सहित सुन्दरि चलीं कोहबर ल्याइ कै॥4॥

मूल

बृन्दारका गन सुमन बरिसहिं राउ जनवासेहि चले।
दुन्दुभी जय धुनि बेद धुनि नभ नगर कौतूहल भले॥
तब सखीं मङ्गल गान करत मुनीस आयसु पाइ कै।
दूलह दुलहिनिन्ह सहित सुन्दरि चलीं कोहबर ल्याइ कै॥4॥

भावार्थ

देवतागण फूल बरसा रहे हैं, राजा जनवासे को चले। नगाडे की ध्वनि, जयध्वनि और वेद की ध्वनि हो रही है, आकाश और नगर दोनों में खूब कौतूहल हो रहा है (आनन्द छा रहा है), तब मुनीश्वर की आज्ञा पाकर सुन्दरी सखियाँ मङ्गलगान करती हुई दुलहिनों सहित दूल्हों को लिवाकर कोहबर को चलीं॥4॥

326

01 दोहा

पुनि पुनि रामहि चितव सिय सकुचति मनु सकुचै न।
हरत मनोहर मीन छबि प्रेम पिआसे नैन॥326॥

मूल

पुनि पुनि रामहि चितव सिय सकुचति मनु सकुचै न।
हरत मनोहर मीन छबि प्रेम पिआसे नैन॥326॥

भावार्थ

सीताजी बार-बार रामजी को देखती हैं और सकुचा जाती हैं, पर उनका मन नहीं सकुचाता। प्रेम के प्यासे उनके नेत्र सुन्दर मछलियों की छबि को हर रहे हैं॥326॥

मासपारायण, ग्यारहवाँ विश्राम

मूल

मासपारायण, ग्यारहवाँ विश्राम

02 चौपाई

स्याम सरीरु सुभायँ सुहावन। सोभा कोटि मनोज लजावन॥
जावक जुत पद कमल सुहाए। मुनि मन मधुप रहत जिन्ह छाए॥1॥

मूल

स्याम सरीरु सुभायँ सुहावन। सोभा कोटि मनोज लजावन॥
जावक जुत पद कमल सुहाए। मुनि मन मधुप रहत जिन्ह छाए॥1॥

भावार्थ

श्री रामचन्द्रजी का साँवला शरीर स्वभाव से ही सुन्दर है। उसकी शोभा करोडों कामदेवों को लजाने वाली है। महावर से युक्त चरण कमल बडे सुहावने लगते हैं, जिन पर मुनियों के मन रूपी भौंरे सदा छाए रहते हैं॥1॥

पीत पुनीत मनोहर धोती। हरति बाल रबि दामिनि जोती॥
कल किङ्किनि कटि सूत्र मनोहर। बाहु बिसाल बिभूषन सुन्दर॥2॥

मूल

पीत पुनीत मनोहर धोती। हरति बाल रबि दामिनि जोती॥
कल किङ्किनि कटि सूत्र मनोहर। बाहु बिसाल बिभूषन सुन्दर॥2॥

भावार्थ

पवित्र और मनोहर पीली धोती प्रातःकाल के सूर्य और बिजली की ज्योति को हरे लेती है। कमर में सुन्दर किङ्किणी और कटिसूत्र हैं। विशाल भुजाओं में सुन्दर आभूषण सुशोभित हैं॥2॥

पीत जनेउ महाछबि देई। कर मुद्रिका चोरि चितु लेई॥
सोहत ब्याह साज सब साजे। उर आयत उरभूषन राजे॥3॥

मूल

पीत जनेउ महाछबि देई। कर मुद्रिका चोरि चितु लेई॥
सोहत ब्याह साज सब साजे। उर आयत उरभूषन राजे॥3॥

भावार्थ

पीला जनेऊ महान शोभा दे रहा है। हाथ की अँगूठी चित्त को चुरा लेती है। ब्याह के सब साज सजे हुए वे शोभा पा रहे हैं। चौडी छाती पर हृदय पर पहनने के सुन्दर आभूषण सुशोभित हैं॥3॥

पिअर उपरना काखासोती। दुहुँ आँचरन्हि लगे मनि मोती॥
नयन कमल कल कुण्डल काना। बदनु सकल सौन्दर्ज निदाना॥4॥

मूल

पिअर उपरना काखासोती। दुहुँ आँचरन्हि लगे मनि मोती॥
नयन कमल कल कुण्डल काना। बदनु सकल सौन्दर्ज निदाना॥4॥

भावार्थ

पीला दुपट्टा काँखासोती (जनेऊ की तरह) शोभित है, जिसके दोनों छोरों पर मणि और मोती लगे हैं। कमल के समान सुन्दर नेत्र हैं, कानों में सुन्दर कुण्डल हैं और मुख तो सारी सुन्दरता का खजाना ही है॥4॥

सुन्दर भृकुटि मनोहर नासा। भाल तिलकु रुचिरता निवासा॥
सोहत मौरु मनोहर माथे। मङ्गलमय मुकुता मनि गाथे॥5॥

मूल

सुन्दर भृकुटि मनोहर नासा। भाल तिलकु रुचिरता निवासा॥
सोहत मौरु मनोहर माथे। मङ्गलमय मुकुता मनि गाथे॥5॥

भावार्थ

सुन्दर भौंहें और मनोहर नासिका है। ललाट पर तिलक तो सुन्दरता का घर ही है, जिसमें मङ्गलमय मोती और मणि गुँथे हुए हैं, ऐसा मनोहर मौर माथे पर सोह रहा है॥5॥

03 छन्द

गाथे महामनि मौर मञ्जुल अङ्ग सब चित चोरहीं।
पुर नारि सुर सुन्दरीं बरहि बिलोकि सब तिन तोरहीं॥
मनि बसन भूषन वारि आरति करहिं मङ्गल गावहीं।
सुर सुमन बरिसहिं सूत मागध बन्दि सुजसु सुनावहीं॥1॥

मूल

गाथे महामनि मौर मञ्जुल अङ्ग सब चित चोरहीं।
पुर नारि सुर सुन्दरीं बरहि बिलोकि सब तिन तोरहीं॥
मनि बसन भूषन वारि आरति करहिं मङ्गल गावहीं।
सुर सुमन बरिसहिं सूत मागध बन्दि सुजसु सुनावहीं॥1॥

भावार्थ

सुन्दर मौर में बहुमूल्य मणियाँ गुँथी हुई हैं, सभी अङ्ग चित्त को चुराए लेते हैं। सब नगर की स्त्रियाँ और देवसुन्दरियाँ दूलह को देखकर तिनका तोड रही हैं (उनकी बलैयाँ ले रही हैं) और मणि, वस्त्र तथा आभूषण निछावर करके आरती उतार रही और मङ्गलगान कर रही हैं। देवता फूल बरसा रहे हैं और सूत, मागध तथा भाट सुयश सुना रहे हैं॥1॥

कोहबरहिं आने कुअँर कुअँरि सुआसिनिन्ह सुख पाइ कै।
अति प्रीति लौकिक रीति लागीं करन मङ्गल गाइ कै॥
लहकौरि गौरि सिखाव रामहि सीय सन सारद कहैं।
रनिवासु हास बिलास रस बस जन्म को फलु सब लहैं॥2॥

मूल

कोहबरहिं आने कुअँर कुअँरि सुआसिनिन्ह सुख पाइ कै।
अति प्रीति लौकिक रीति लागीं करन मङ्गल गाइ कै॥
लहकौरि गौरि सिखाव रामहि सीय सन सारद कहैं।
रनिवासु हास बिलास रस बस जन्म को फलु सब लहैं॥2॥

भावार्थ

सुहागिनी स्त्रियाँ सुख पाकर कुँअर और कुमारियों को कोहबर (कुलदेवता के स्थान) में लाईं और अत्यन्त प्रेम से मङ्गल गीत गा-गाकर लौकिक रीति करने लगीं। पार्वतीजी श्री रामचन्द्रजी को लहकौर (वर-वधू का परस्पर ग्रास देना) सिखाती हैं और सरस्वतीजी सीताजी को सिखाती हैं। रनिवास हास-विलास के आनन्द में मग्न है, (श्री रामजी और सीताजी को देख-देखकर) सभी जन्म का परम फल प्राप्त कर रही हैं॥2॥

निज पानि मनि महुँ देखिअति मूरति सुरूपनिधान की।
चालति न भुजबल्ली बिलोकनि बिरह भय बस जानकी॥
कौतुक बिनोद प्रमोदु प्रेमु न जाइ कहि जानहिं अलीं।
बर कुअँरि सुन्दर सकल सखीं लवाइ जनवासेहि चलीं॥3॥

मूल

निज पानि मनि महुँ देखिअति मूरति सुरूपनिधान की।
चालति न भुजबल्ली बिलोकनि बिरह भय बस जानकी॥
कौतुक बिनोद प्रमोदु प्रेमु न जाइ कहि जानहिं अलीं।
बर कुअँरि सुन्दर सकल सखीं लवाइ जनवासेहि चलीं॥3॥

भावार्थ

‘अपने हाथ की मणियों में सुन्दर रूप के भण्डार श्री रामचन्द्रजी की परछाहीं दिख रही है। यह देखकर जानकीजी दर्शन में वियोग होने के भय से बाहु रूपी लता को और दृष्टि को हिलाती-डुलाती नहीं हैं। उस समय के हँसी-खेल और विनोद का आनन्द और प्रेम कहा नहीं जा सकता, उसे सखियाँ ही जानती हैं। तदनन्तर वर-कन्याओं को सब सुन्दर सखियाँ जनवासे को लिवा चलीं॥3॥

तेहि समय सुनिअ असीस जहँ तहँ नगर नभ आनँदु महा।
चिरु जिअहुँ जोरीं चारु चार्‌यो मुदित मन सबहीं कहा॥
जोगीन्द्र सिद्ध मुनीस देव बिलोकि प्रभु दुन्दुभि हनी।
चले हरषि बरषि प्रसून निज निज लोक जय जय जय भनी॥4॥

मूल

तेहि समय सुनिअ असीस जहँ तहँ नगर नभ आनँदु महा।
चिरु जिअहुँ जोरीं चारु चार्‌यो मुदित मन सबहीं कहा॥
जोगीन्द्र सिद्ध मुनीस देव बिलोकि प्रभु दुन्दुभि हनी।
चले हरषि बरषि प्रसून निज निज लोक जय जय जय भनी॥4॥

भावार्थ

उस समय नगर और आकाश में जहाँ सुनिए, वहीं आशीर्वाद की ध्वनि सुनाई दे रही है और महान आनन्द छाया है। सभी ने प्रसन्न मन से कहा कि सुन्दर चारों जोडियाँ चिरञ्जीवी हों। योगीराज, सिद्ध, मुनीश्वर और देवताओं ने प्रभु श्री रामचन्द्रजी को देखकर दुन्दुभी बजाई और हर्षित होकर फूलों की वर्षा करते हुए तथा ‘जय हो, जय हो, जय हो’ कहते हुए वे अपने-अपने लोक को चले॥4॥

327

01 दोहा

सहित बधूटिन्ह कुअँर सब तब आए पितु पास।
सोभा मङ्गल मोद भरि उमगेउ जनु जनवास॥327॥

मूल

सहित बधूटिन्ह कुअँर सब तब आए पितु पास।
सोभा मङ्गल मोद भरि उमगेउ जनु जनवास॥327॥

भावार्थ

तब सब (चारों) कुमार बहुओं सहित पिताजी के पास आए। ऐसा मालूम होता था मानो शोभा, मङ्गल और आनन्द से भरकर जनवासा उमड पडा हो॥327॥

02 चौपाई

पुनि जेवनार भई बहु भाँती। पठए जनक बोलाइ बराती॥
परत पाँवडे बसन अनूपा। सुतन्ह समेत गवन कियो भूपा॥1॥

मूल

पुनि जेवनार भई बहु भाँती। पठए जनक बोलाइ बराती॥
परत पाँवडे बसन अनूपा। सुतन्ह समेत गवन कियो भूपा॥1॥

भावार्थ

फिर बहुत प्रकार की रसोई बनी। जनकजी ने बारातियों को बुला भेजा। राजा दशरथजी ने पुत्रों सहित गमन किया। अनुपम वस्त्रों के पाँवडे पडते जाते हैं॥1॥

सादर सब के पाय पखारे। जथाजोगु पीढन्ह बैठारे॥
धोए जनक अवधपति चरना। सीलु सनेहु जाइ नहिं बरना॥2॥

मूल

सादर सब के पाय पखारे। जथाजोगु पीढन्ह बैठारे॥
धोए जनक अवधपति चरना। सीलु सनेहु जाइ नहिं बरना॥2॥

भावार्थ

आदर के साथ सबके चरण धोए और सबको यथायोग्य पीढों पर बैठाया। तब जनकजी ने अवधपति दशरथजी के चरण धोए। उनका शील और स्नेह वर्णन नहीं किया जा सकता॥2॥

बहुरि राम पद पङ्कज धोए। जे हर हृदय कमल महुँ गोए॥
तीनिउ भाइ राम सम जानी। धोए चरन जनक निज पानी॥3॥

मूल

बहुरि राम पद पङ्कज धोए। जे हर हृदय कमल महुँ गोए॥
तीनिउ भाइ राम सम जानी। धोए चरन जनक निज पानी॥3॥

भावार्थ

फिर श्री रामचन्द्रजी के चरणकमलों को धोया, जो श्री शिवजी के हृदय कमल में छिपे रहते हैं। तीनों भाइयों को श्री रामचन्द्रजी के समान जानकर जनकजी ने उनके भी चरण अपने हाथों से धोए॥3॥

आसन उचित सबहि नृप दीन्हे। बोलि सूपकारी सब लीन्हे॥
सादर लगे परन पनवारे। कनक कील मनि पान सँवारे॥4॥

मूल

आसन उचित सबहि नृप दीन्हे। बोलि सूपकारी सब लीन्हे॥
सादर लगे परन पनवारे। कनक कील मनि पान सँवारे॥4॥

भावार्थ

राजा जनकजी ने सभी को उचित आसन दिए और सब परसने वालों को बुला लिया। आदर के साथ पत्तलें पडने लगीं, जो मणियों के पत्तों से सोने की कील लगाकर बनाई गई थीं॥4॥

328

01 दोहा

सूपोदन सुरभी सरपि सुन्दर स्वादु पुनीत।
छन महुँ सब कें परुसि गे चतुर सुआर बिनीत॥328॥

मूल

सूपोदन सुरभी सरपि सुन्दर स्वादु पुनीत।
छन महुँ सब कें परुसि गे चतुर सुआर बिनीत॥328॥

भावार्थ

चतुर और विनीत रसोइए सुन्दर, स्वादिष्ट और पवित्र दाल-भात और गाय का (सुगन्धित) घी क्षण भर में सबके सामने परस गए॥328॥

02 चौपाई

पञ्च कवल करि जेवन लागे। गारि गान सुनि अति अनुरागे।
भाँति अनेक परे पकवाने। सुधा सरिस नहिं जाहिं बखाने॥1॥

मूल

पञ्च कवल करि जेवन लागे। गारि गान सुनि अति अनुरागे।
भाँति अनेक परे पकवाने। सुधा सरिस नहिं जाहिं बखाने॥1॥

भावार्थ

सब लोग पञ्चकौर करके (अर्थात ‘प्राणाय स्वाहा, अपानाय स्वाहा, व्यानाय स्वाहा, उदानाय स्वाहा और समानाय स्वाहा’ इन मन्त्रों का उच्चारण करते हुए पहले पाँच ग्रास लेकर) भोजन करने लगे। गाली का गाना सुनकर वे अत्यन्त प्रेममग्न हो गए। अनेकों तरह के अमृत के समान (स्वादिष्ट) पकवान परसे गए, जिनका बखान नहीं हो सकता॥1॥

परुसन लगे सुआर सुजाना। बिञ्जन बिबिध नाम को जाना॥
चारि भाँति भोजन बिधि गाई। एक एक बिधि बरनि न जाई॥2॥

मूल

परुसन लगे सुआर सुजाना। बिञ्जन बिबिध नाम को जाना॥
चारि भाँति भोजन बिधि गाई। एक एक बिधि बरनि न जाई॥2॥

भावार्थ

चतुर रसोइए नाना प्रकार के व्यञ्जन परसने लगे, उनका नाम कौन जानता है। चार प्रकार के (चर्व्य, चोष्य, लेह्य, पेय अर्थात चबाकर, चूसकर, चाटकर और पीना-खाने योग्य) भोजन की विधि कही गई है, उनमें से एक-एक विधि के इतने पदार्थ बने थे कि जिनका वर्ण नहीं किया जा सकता॥2॥

छरस रुचिर बिञ्जन बहु जाती। एक एक रस अगनित भाँती॥
जेवँत देहिं मधुर धुनि गारी। लै लै नाम पुरुष अरु नारी॥3॥

मूल

छरस रुचिर बिञ्जन बहु जाती। एक एक रस अगनित भाँती॥
जेवँत देहिं मधुर धुनि गारी। लै लै नाम पुरुष अरु नारी॥3॥

भावार्थ

छहों रसों के बहुत तरह के सुन्दर (स्वादिष्ट) व्यञ्जन हैं। एक-एक रस के अनगिनत प्रकार के बने हैं। भोजन के समय पुरुष और स्त्रियों के नाम ले-लेकर स्त्रियाँ मधुर ध्वनि से गाली दे रही हैं (गाली गा रही हैं)॥3॥

समय सुहावनि गारि बिराजा। हँसत राउ सुनि सहित समाजा॥
एहि बिधि सबहीं भोजनु कीन्हा। आदर सहित आचमनु दीन्हा॥4॥

मूल

समय सुहावनि गारि बिराजा। हँसत राउ सुनि सहित समाजा॥
एहि बिधि सबहीं भोजनु कीन्हा। आदर सहित आचमनु दीन्हा॥4॥

भावार्थ

समय की सुहावनी गाली शोभित हो रही है। उसे सुनकर समाज सहित राजा दशरथजी हँस रहे हैं। इस रीति से सभी ने भोजन किया और तब सबको आदर सहित आचमन (हाथ-मुँह धोने के लिए जल) दिया गया॥4॥

329

01 दोहा

देइ पान पूजे जनक दसरथु सहित समाज।
जनवासेहि गवने मुदित सकल भूप सिरताज॥329॥

मूल

देइ पान पूजे जनक दसरथु सहित समाज।
जनवासेहि गवने मुदित सकल भूप सिरताज॥329॥

भावार्थ

फिर पान देकर जनकजी ने समाज सहित दशरथजी का पूजन किया। सब राजाओं के सिरमौर (चक्रवर्ती) श्री दशरथजी प्रसन्न होकर जनवासे को चले॥329॥

02 चौपाई

नित नूतन मङ्गल पुर माहीं। निमिष सरिस दिन जामिनि जाहीं॥
बडे भोर भूपतिमनि जागे। जाचक गुन गन गावन लागे॥1॥

मूल

नित नूतन मङ्गल पुर माहीं। निमिष सरिस दिन जामिनि जाहीं॥
बडे भोर भूपतिमनि जागे। जाचक गुन गन गावन लागे॥1॥

भावार्थ

जनकपुर में नित्य नए मङ्गल हो रहे हैं। दिन और रात पल के समान बीत जाते हैं। बडे सबेरे राजाओं के मुकुटमणि दशरथजी जागे। याचक उनके गुण समूह का गान करने लगे॥1॥

देखि कुअँर बर बधुन्ह समेता। किमि कहि जात मोदु मन जेता॥
प्रातक्रिया करि गे गुरु पाहीं। महाप्रमोदु प्रेमु मन माहीं॥2॥

मूल

देखि कुअँर बर बधुन्ह समेता। किमि कहि जात मोदु मन जेता॥
प्रातक्रिया करि गे गुरु पाहीं। महाप्रमोदु प्रेमु मन माहीं॥2॥

भावार्थ

चारों कुमारों को सुन्दर वधुओं सहित देखकर उनके मन में जितना आनन्द है, वह किस प्रकार कहा जा सकता है? वे प्रातः क्रिया करके गुरु वशिष्ठजी के पास गए। उनके मन में महान आनन्द और प्रेम भरा है॥2॥

करि प्रनामु पूजा कर जोरी। बोले गिरा अमिअँ जनु बोरी॥
तुम्हरी कृपाँ सुनहु मुनिराजा। भयउँ आजु मैं पूरन काजा॥3॥

मूल

करि प्रनामु पूजा कर जोरी। बोले गिरा अमिअँ जनु बोरी॥
तुम्हरी कृपाँ सुनहु मुनिराजा। भयउँ आजु मैं पूरन काजा॥3॥

भावार्थ

राजा प्रणाम और पूजन करके, फिर हाथ जोडकर मानो अमृत में डुबोई हुई वाणी बोले- हे मुनिराज! सुनिए, आपकी कृपा से आज मैं पूर्णकाम हो गया॥3॥

अब सब बिप्र बोलाइ गोसाईं। देहु धेनु सब भाँति बनाईं॥
सुनि गुर करि महिपाल बडाई। पुनि पठए मुनिबृन्द बोलाई॥4॥

मूल

अब सब बिप्र बोलाइ गोसाईं। देहु धेनु सब भाँति बनाईं॥
सुनि गुर करि महिपाल बडाई। पुनि पठए मुनिबृन्द बोलाई॥4॥

भावार्थ

हे स्वामिन्‌! अब सब ब्राह्मणों को बुलाकर उनको सब तरह (गहनों-कपडों) से सजी हुई गायें दीजिए। यह सुनकर गुरुजी ने राजा की बडाई करके फिर मुनिगणों को बुलवा भेजा॥4॥

330

01 दोहा

बामदेउ अरु देवरिषि बालमीकि जाबालि।
आए मुनिबर निकर तब कौसिकादि तपसालि॥330॥

मूल

बामदेउ अरु देवरिषि बालमीकि जाबालि।
आए मुनिबर निकर तब कौसिकादि तपसालि॥330॥

भावार्थ

तब वामदेव, देवर्षि नारद, वाल्मीकि, जाबालि और विश्वामित्र आदि तपस्वी श्रेष्ठ मुनियों के समूह के समूह आए॥330॥

02 चौपाई

दण्ड प्रनाम सबहि नृप कीन्हे। पूजि सप्रेम बरासन दीन्हे॥
चारि लच्छ बर धेनु मगाईं। काम सुरभि सम सील सुहाईं॥1॥

मूल

दण्ड प्रनाम सबहि नृप कीन्हे। पूजि सप्रेम बरासन दीन्हे॥
चारि लच्छ बर धेनु मगाईं। काम सुरभि सम सील सुहाईं॥1॥

भावार्थ

राजा ने सबको दण्डवत्‌ प्रणाम किया और प्रेम सहित पूजन करके उन्हें उत्तम आसन दिए। चार लाख उत्तम गायें मँगवाईं, जो कामधेनु के समान अच्छे स्वभाव वाली और सुहावनी थीं॥1॥

सब बिधि सकल अलङ्कृत कीन्हीं। मुदित महिप महिदेवन्ह दीन्हीं॥
करत बिनय बहु बिधि नरनाहू। लहेउँ आजु जग जीवन लाहू॥2॥

मूल

सब बिधि सकल अलङ्कृत कीन्हीं। मुदित महिप महिदेवन्ह दीन्हीं॥
करत बिनय बहु बिधि नरनाहू। लहेउँ आजु जग जीवन लाहू॥2॥

भावार्थ

उन सबको सब प्रकार से (गहनों-कपडों से) सजाकर राजा ने प्रसन्न होकर भूदेव ब्राह्मणों को दिया। राजा बहुत तरह से विनती कर रहे हैं कि जगत में मैन्ने आज ही जीने का लाभ पाया॥2॥

पाइ असीस महीसु अनन्दा। लिए बोलि पुनि जाचक बृन्दा॥
कनक बसन मनि हय गय स्यन्दन। दिए बूझि रुचि रबिकुलनन्दन॥3॥

मूल

पाइ असीस महीसु अनन्दा। लिए बोलि पुनि जाचक बृन्दा॥
कनक बसन मनि हय गय स्यन्दन। दिए बूझि रुचि रबिकुलनन्दन॥3॥

भावार्थ

(ब्राह्मणों से) आशीर्वाद पाकर राजा आनन्दित हुए। फिर याचकों के समूहों को बुलवा लिया और सबको उनकी रुचि पूछकर सोना, वस्त्र, मणि, घोडा, हाथी और रथ (जिसने जो चाहा सो) सूर्यकुल को आनन्दित करने वाले दशरथजी ने दिए॥3॥

चले पढत गावत गुन गाथा। जय जय जय दिनकर कुल नाथा॥
एहि बिधि राम बिआह उछाहू। सकइ न बरनि सहस मुख जाहू॥4॥

मूल

चले पढत गावत गुन गाथा। जय जय जय दिनकर कुल नाथा॥
एहि बिधि राम बिआह उछाहू। सकइ न बरनि सहस मुख जाहू॥4॥

भावार्थ

वे सब गुणानुवाद गाते और ‘सूर्यकुल के स्वामी की जय हो, जय हो, जय हो’ कहते हुए चले। इस प्रकार श्री रामचन्द्रजी के विवाह का उत्सव हुआ, जिन्हें सहस्र मुख हैं, वे शेषजी भी उसका वर्णन नहीं कर सकते॥4॥

331

01 दोहा

बार बार कौसिक चरन सीसु नाइ कह राउ।
यह सबु सुखु मुनिराज तव कृपा कटाच्छ पसाउ॥331॥

मूल

बार बार कौसिक चरन सीसु नाइ कह राउ।
यह सबु सुखु मुनिराज तव कृपा कटाच्छ पसाउ॥331॥

भावार्थ

बार-बार विश्वामित्रजी के चरणों में सिर नवाकर राजा कहते हैं- हे मुनिराज! यह सब सुख आपके ही कृपाकटाक्ष का प्रसाद है॥331॥

02 चौपाई

जनक सनेहु सीलु करतूती। नृपु सब भाँति सराह बिभूती॥
दिन उठि बिदा अवधपति मागा। राखहिं जनकु सहित अनुरागा॥1॥

मूल

जनक सनेहु सीलु करतूती। नृपु सब भाँति सराह बिभूती॥
दिन उठि बिदा अवधपति मागा। राखहिं जनकु सहित अनुरागा॥1॥

भावार्थ

राजा दशरथजी जनकजी के स्नेह, शील, करनी और ऐश्वर्य की सब प्रकार से सराहना करते हैं। प्रतिदिन (सबेरे) उठकर अयोध्या नरेश विदा माँगते हैं। पर जनकजी उन्हें प्रेम से रख लेते हैं॥1॥

नित नूतन आदरु अधिकाई। दिन प्रति सहस भाँति पहुनाई॥
नित नव नगर अनन्द उछाहू। दसरथ गवनु सोहाइ न काहू॥2॥

मूल

नित नूतन आदरु अधिकाई। दिन प्रति सहस भाँति पहुनाई॥
नित नव नगर अनन्द उछाहू। दसरथ गवनु सोहाइ न काहू॥2॥

भावार्थ

आदर नित्य नया बढता जाता है। प्रतिदिन हजारों प्रकार से मेहमानी होती है। नगर में नित्य नया आनन्द और उत्साह रहता है, दशरथजी का जाना किसी को नहीं सुहाता॥2॥

बहुत दिवस बीते एहि भाँती। जनु सनेह रजु बँधे बराती॥
कौसिक सतानन्द तब जाई। कहा बिदेह नृपहि समुझाई॥3॥

मूल

बहुत दिवस बीते एहि भाँती। जनु सनेह रजु बँधे बराती॥
कौसिक सतानन्द तब जाई। कहा बिदेह नृपहि समुझाई॥3॥

भावार्थ

इस प्रकार बहुत दिन बीत गए, मानो बाराती स्नेह की रस्सी से बँध गए हैं। तब विश्वामित्रजी और शतानन्दजी ने जाकर राजा जनक को समझाकर कहा-॥3॥

अब दसरथ कहँ आयसु देहू। जद्यपि छाडि न सकहु सनेहू॥
भलेहिं नाथ कहि सचिव बोलाए। कहि जय जीव सीस तिन्ह नाए॥4॥

मूल

अब दसरथ कहँ आयसु देहू। जद्यपि छाडि न सकहु सनेहू॥
भलेहिं नाथ कहि सचिव बोलाए। कहि जय जीव सीस तिन्ह नाए॥4॥

भावार्थ

यद्यपि आप स्नेह (वश उन्हें) नहीं छोड सकते, तो भी अब दशरथजी को आज्ञा दीजिए। ‘हे नाथ! बहुत अच्छा’ कहकर जनकजी ने मन्त्रियों को बुलवाया। वे आए और ‘जय जीव’ कहकर उन्होन्ने मस्तक नवाया॥4॥

332

01 दोहा

अवधनाथु चाहत चलन भीतर करहु जनाउ।
भए प्रेमबस सचिव सुनि बिप्र सभासद राउ॥332॥

मूल

अवधनाथु चाहत चलन भीतर करहु जनाउ।
भए प्रेमबस सचिव सुनि बिप्र सभासद राउ॥332॥

भावार्थ

(जनकजी ने कहा-) अयोध्यानाथ चलना चाहते हैं, भीतर (रनिवास में) खबर कर दो। यह सुनकर मन्त्री, ब्राह्मण, सभासद और राजा जनक भी प्रेम के वश हो गए॥332॥

02 चौपाई

पुरबासी सुनि चलिहि बराता। बूझत बिकल परस्पर बाता॥
सत्य गवनु सुनि सब बिलखाने। मनहुँ साँझ सरसिज सकुचाने॥1॥

मूल

पुरबासी सुनि चलिहि बराता। बूझत बिकल परस्पर बाता॥
सत्य गवनु सुनि सब बिलखाने। मनहुँ साँझ सरसिज सकुचाने॥1॥

भावार्थ

जनकपुरवासियों ने सुना कि बारात जाएगी, तब वे व्याकुल होकर एक-दूसरे से बात पूछने लगे। जाना सत्य है, यह सुनकर सब ऐसे उदास हो गए मानो सन्ध्या के समय कमल सकुचा गए हों॥1॥

जहँ जहँ आवत बसे बराती। तहँ तहँ सिद्ध चला बहु भाँती॥
बिबिध भाँति मेवा पकवाना। भोजन साजु न जाइ बखाना॥2॥

मूल

जहँ जहँ आवत बसे बराती। तहँ तहँ सिद्ध चला बहु भाँती॥
बिबिध भाँति मेवा पकवाना। भोजन साजु न जाइ बखाना॥2॥

भावार्थ

आते समय जहाँ-जहाँ बाराती ठहरे थे, वहाँ-वहाँ बहुत प्रकार का सीधा (रसोई का सामान) भेजा गया। अनेकों प्रकार के मेवे, पकवान और भोजन की सामग्री जो बखानी नहीं जा सकती-॥2॥

भरि भरि बसहँ अपार कहारा। पठईं जनक अनेक सुसारा॥
तुरग लाख रथ सहस पचीसा। सकल सँवारे नख अरु सीसा॥3॥

मूल

भरि भरि बसहँ अपार कहारा। पठईं जनक अनेक सुसारा॥
तुरग लाख रथ सहस पचीसा। सकल सँवारे नख अरु सीसा॥3॥

भावार्थ

अनगिनत बैलों और कहारों पर भर-भरकर (लाद-लादकर) भेजी गई। साथ ही जनकजी ने अनेकों सुन्दर शय्याएँ (पलङ्ग) भेजीं। एक लाख घोडे और पचीस हजार रथ सब नख से शिखा तक (ऊपर से नीचे तक) सजाए हुए,॥3॥

मत्त सहस दस सिन्धुर साजे। जिन्हहि देखि दिसिकुञ्जर लाजे॥
कनक बसन मनि भरि भरि जाना। महिषीं धेनु बस्तु बिधि नाना॥4॥

मूल

मत्त सहस दस सिन्धुर साजे। जिन्हहि देखि दिसिकुञ्जर लाजे॥
कनक बसन मनि भरि भरि जाना। महिषीं धेनु बस्तु बिधि नाना॥4॥

भावार्थ

दस हजार सजे हुए मतवाले हाथी, जिन्हें देखकर दिशाओं के हाथी भी लजा जाते हैं, गाडियों में भर-भरकर सोना, वस्त्र और रत्न (जवाहरात) और भैंस, गाय तथा और भी नाना प्रकार की चीजें दीं॥4॥

333

01 दोहा

दाइज अमित न सकिअ कहि दीन्ह बिदेहँ बहोरि।
जो अवलोकत लोकपति लोक सम्पदा थोरि॥333॥

मूल

दाइज अमित न सकिअ कहि दीन्ह बिदेहँ बहोरि।
जो अवलोकत लोकपति लोक सम्पदा थोरि॥333॥

भावार्थ

(इस प्रकार) जनकजी ने फिर से अपरिमित दहेज दिया, जो कहा नहीं जा सकता और जिसे देखकर लोकपालों के लोकों की सम्पदा भी थोडी जान पडती थी॥333॥

02 चौपाई

सबु समाजु एहि भाँति बनाई। जनक अवधपुर दीन्ह पठाई॥
चलिहि बरात सुनत सब रानीं। बिकल मीनगन जनु लघु पानीं॥1॥

मूल

सबु समाजु एहि भाँति बनाई। जनक अवधपुर दीन्ह पठाई॥
चलिहि बरात सुनत सब रानीं। बिकल मीनगन जनु लघु पानीं॥1॥

भावार्थ

इस प्रकार सब सामान सजाकर राजा जनक ने अयोध्यापुरी को भेज दिया। बारात चलेगी, यह सुनते ही सब रानियाँ ऐसी विकल हो गईं, मानो थोडे जल में मछलियाँ छटपटा रही हों॥1॥

पुनि पुनि सीय गोद करि लेहीं। देह असीस सिखावनु देहीं॥
होएहु सन्तत पियहि पिआरी। चिरु अहिबात असीस हमारी॥2॥

मूल

पुनि पुनि सीय गोद करि लेहीं। देह असीस सिखावनु देहीं॥
होएहु सन्तत पियहि पिआरी। चिरु अहिबात असीस हमारी॥2॥

भावार्थ

वे बार-बार सीताजी को गोद कर लेती हैं और आशीर्वाद देकर सिखावन देती हैं- तुम सदा अपने पति की प्यारी होओ, तुम्हारा सोहाग अचल हो, हमारी यही आशीष है॥2॥

सासु ससुर गुर सेवा करेहू। पति रुख लखि आयसु अनुसरेहू॥
अति सनेह बस सखीं सयानी। नारि धरम सिखवहिं मृदु बानी॥3॥

मूल

सासु ससुर गुर सेवा करेहू। पति रुख लखि आयसु अनुसरेहू॥
अति सनेह बस सखीं सयानी। नारि धरम सिखवहिं मृदु बानी॥3॥

भावार्थ

सास, ससुर और गुरु की सेवा करना। पति का रुख देखकर उनकी आज्ञा का पालन करना। सयानी सखियाँ अत्यन्त स्नेह के वश कोमल वाणी से स्त्रियों के धर्म सिखलाती हैं॥3॥

सादर सकल कुअँरि समुझाईं। रानिन्ह बार बार उर लाईं॥
बहुरि बहुरि भेटहिं महतारीं। कहहिं बिरञ्चि रचीं कत नारीं॥4॥

मूल

सादर सकल कुअँरि समुझाईं। रानिन्ह बार बार उर लाईं॥
बहुरि बहुरि भेटहिं महतारीं। कहहिं बिरञ्चि रचीं कत नारीं॥4॥

भावार्थ

आदर के साथ सब पुत्रियों को (स्त्रियों के धर्म) समझाकर रानियों ने बार-बार उन्हें हृदय से लगाया। माताएँ फिर-फिर भेण्टती और कहती हैं कि ब्रह्मा ने स्त्री जाति को क्यों रचा॥4॥

334

01 दोहा

तेहि अवसर भाइन्ह सहित रामु भानु कुल केतु।
चले जनक मन्दिर मुदित बिदा करावन हेतु॥334॥

मूल

तेहि अवसर भाइन्ह सहित रामु भानु कुल केतु।
चले जनक मन्दिर मुदित बिदा करावन हेतु॥334॥

भावार्थ

उसी समय सूर्यवंश के पताका स्वरूप श्री रामचन्द्रजी भाइयों सहित प्रसन्न होकर विदा कराने के लिए जनकजी के महल को चले॥334॥

02 चौपाई

चारिउ भाइ सुभायँ सुहाए। नगर नारि नर देखन धाए॥
कोउ कह चलन चहत हहिं आजू। कीन्ह बिदेह बिदा कर साजू॥1॥

मूल

चारिउ भाइ सुभायँ सुहाए। नगर नारि नर देखन धाए॥
कोउ कह चलन चहत हहिं आजू। कीन्ह बिदेह बिदा कर साजू॥1॥

भावार्थ

स्वभाव से ही सुन्दर चारों भाइयों को देखने के लिए नगर के स्त्री-पुरुष दौडे। कोई कहता है- आज ये जाना चाहते हैं। विदेह ने विदाई का सब सामान तैयार कर लिया है॥1॥

लेहु नयन भरि रूप निहारी। प्रिय पाहुने भूप सुत चारी॥
को जानै केहिं सुकृत सयानी। नयन अतिथि कीन्हे बिधि आनी॥2॥

मूल

लेहु नयन भरि रूप निहारी। प्रिय पाहुने भूप सुत चारी॥
को जानै केहिं सुकृत सयानी। नयन अतिथि कीन्हे बिधि आनी॥2॥

भावार्थ

राजा के चारों पुत्र, इन प्यारे मेहमानों के (मनोहर) रूप को नेत्र भरकर देख लो। हे सयानी! कौन जाने, किस पुण्य से विधाता ने इन्हें यहाँ लाकर हमारे नेत्रों का अतिथि किया है॥2॥

मरनसीलु जिमि पाव पिऊषा। सुरतरु लहै जनम कर भूखा॥
पाव नार की हरिपदु जैसें। इन्ह कर दरसनु हम कहँ तैसें॥3॥

मूल

मरनसीलु जिमि पाव पिऊषा। सुरतरु लहै जनम कर भूखा॥
पाव नार की हरिपदु जैसें। इन्ह कर दरसनु हम कहँ तैसें॥3॥

भावार्थ

मरने वाला जिस तरह अमृत पा जाए, जन्म का भूखा कल्पवृक्ष पा जाए और नरक में रहने वाला (या नरक के योग्य) जीव जैसे भगवान के परमपद को प्राप्त हो जाए, हमारे लिए इनके दर्शन वैसे ही हैं॥3॥

निरखि राम सोभा उर धरहू। निज मन फनि मूरति मनि करहू॥
एहि बिधि सबहि नयन फलु देता। गए कुअँर सब राज निकेता॥4॥

मूल

निरखि राम सोभा उर धरहू। निज मन फनि मूरति मनि करहू॥
एहि बिधि सबहि नयन फलु देता। गए कुअँर सब राज निकेता॥4॥

भावार्थ

श्री रामचन्द्रजी की शोभा को निरखकर हृदय में धर लो। अपने मन को साँप और इनकी मूर्ति को मणि बना लो। इस प्रकार सबको नेत्रों का फल देते हुए सब राजकुमार राजमहल में गए॥4॥

335

01 दोहा

रूप सिन्धु सब बन्धु लखि हरषि उठा रनिवासु।
करहिं निछावरि आरती महा मुदित मन सासु॥335॥

मूल

रूप सिन्धु सब बन्धु लखि हरषि उठा रनिवासु।
करहिं निछावरि आरती महा मुदित मन सासु॥335॥

भावार्थ

रूप के समुद्र सब भाइयों को देखकर सारा रनिवास हर्षित हो उठा। सासुएँ महान प्रसन्न मन से निछावर और आरती करती हैं॥335॥

02 चौपाई

देखि राम छबि अति अनुरागीं। प्रेमबिबस पुनि पुनि पद लागीं॥
रही न लाज प्रीति उर छाई। सहज सनेहु बरनि किमि जाई॥1॥

मूल

देखि राम छबि अति अनुरागीं। प्रेमबिबस पुनि पुनि पद लागीं॥
रही न लाज प्रीति उर छाई। सहज सनेहु बरनि किमि जाई॥1॥

भावार्थ

श्री रामचन्द्रजी की छबि देखकर वे प्रेम में अत्यन्त मग्न हो गईं और प्रेम के विशेष वश होकर बार-बार चरणों लगीं। हृदय में प्रीति छा गई, इससे लज्जा नहीं रह गई। उनके स्वाभाविक स्नेह का वर्णन किस तरह किया जा सकता है॥1॥

भाइन्ह सहित उबटि अन्हवाए। छरस असन अति हेतु जेवाँए॥
बोले रामु सुअवसरु जानी। सील सनेह सकुचमय बानी॥2॥

मूल

भाइन्ह सहित उबटि अन्हवाए। छरस असन अति हेतु जेवाँए॥
बोले रामु सुअवसरु जानी। सील सनेह सकुचमय बानी॥2॥

भावार्थ

उन्होन्ने भाइयों सहित श्री रामजी को उबटन करके स्नान कराया और बडे प्रेम से षट्रस भोजन कराया। सुअवसर जानकर श्री रामचन्द्रजी शील, स्नेह और सङ्कोचभरी वाणी बोले-॥2॥

राउ अवधपुर चहत सिधाए। बिदा होन हम इहाँ पठाए॥
मातु मुदित मन आयसु देहू। बालक जानि करब नित नेहू॥3॥

मूल

राउ अवधपुर चहत सिधाए। बिदा होन हम इहाँ पठाए॥
मातु मुदित मन आयसु देहू। बालक जानि करब नित नेहू॥3॥

भावार्थ

महाराज अयोध्यापुरी को चलाना चाहते हैं, उन्होन्ने हमें विदा होने के लिए यहाँ भेजा है। हे माता! प्रसन्न मन से आज्ञा दीजिए और हमें अपने बालक जानकर सदा स्नेह बनाए रखिएगा॥3॥

सुनत बचन बिलखेउ रनिवासू। बोलि न सकहिं प्रेमबस सासू॥
हृदयँ लगाई कुअँरि सब लीन्ही। पतिन्ह सौम्पि बिनती अति कीन्ही॥4॥

मूल

सुनत बचन बिलखेउ रनिवासू। बोलि न सकहिं प्रेमबस सासू॥
हृदयँ लगाई कुअँरि सब लीन्ही। पतिन्ह सौम्पि बिनती अति कीन्ही॥4॥

भावार्थ

इन वचनों को सुनते ही रनिवास उदास हो गया। सासुएँ प्रेमवश बोल नहीं सकतीं। उन्होन्ने सब कुमारियों को हृदय से लगा लिया और उनके पतियों को सौम्पकर बहुत विनती की॥4॥

03 छन्द

करि बिनय सिय रामहि समरपी जोरि कर पुनि पुनि कहै।
बलि जाउँ तात सुजान तुम्ह कहुँ बिदित गति सब की अहै॥
परिवार पुरजन मोहि राजहि प्रानप्रिय सिय जानिबी।
तुलसीस सीलु सनेहु लखि निज किङ्करी करि मानिबी॥

मूल

करि बिनय सिय रामहि समरपी जोरि कर पुनि पुनि कहै।
बलि जाउँ तात सुजान तुम्ह कहुँ बिदित गति सब की अहै॥
परिवार पुरजन मोहि राजहि प्रानप्रिय सिय जानिबी।
तुलसीस सीलु सनेहु लखि निज किङ्करी करि मानिबी॥

भावार्थ

विनती करके उन्होन्ने सीताजी को श्री रामचन्द्रजी को समर्पित किया और हाथ जोडकर बार-बार कहा- हे तात! हे सुजान! मैं बलि जाती हूँ, तुमको सबकी गति (हाल) मालूम है।

परिवार को, पुरवासियों को, मुझको और राजा को सीता प्राणों के समान प्रिय है, ऐसा जानिएगा। हे तुलसी के स्वामी! इसके शील और स्नेह को देखकर इसे अपनी दासी करके मानिएगा।

336

01 सोरठा

तुम्ह परिपूरन काम जान सिरोमनि भावप्रिय।
जन गुन गाहक राम दोष दलन करुनायतन॥336॥

मूल

तुम्ह परिपूरन काम जान सिरोमनि भावप्रिय।
जन गुन गाहक राम दोष दलन करुनायतन॥336॥

भावार्थ

तुम पूर्ण काम हो, सुजान शिरोमणि हो और भावप्रिय हो (तुम्हें प्रेम प्यारा है)। हे राम! तुम भक्तों के गुणों को ग्रहण करने वाले, दोषों को नाश करने वाले और दया के धाम हो॥336॥

02 चौपाई

अस कहि रही चरन गहि रानी। प्रेम पङ्क जनु गिरा समानी॥
सुनि सनेहसानी बर बानी। बहुबिधि राम सासु सनमानी॥1॥

मूल

अस कहि रही चरन गहि रानी। प्रेम पङ्क जनु गिरा समानी॥
सुनि सनेहसानी बर बानी। बहुबिधि राम सासु सनमानी॥1॥

भावार्थ

ऐसा कहकर रानी चरणों को पकडकर (चुप) रह गईं। मानो उनकी वाणी प्रेम रूपी दलदल में समा गई हो। स्नेह से सनी हुई श्रेष्ठ वाणी सुनकर श्री रामचन्द्रजी ने सास का बहुत प्रकार से सम्मान किया॥1॥

राम बिदा मागत कर जोरी। कीन्ह प्रनामु बहोरि बहोरी॥
पाइ असीस बहुरि सिरु नाई। भाइन्ह सहित चले रघुराई॥2॥

मूल

राम बिदा मागत कर जोरी। कीन्ह प्रनामु बहोरि बहोरी॥
पाइ असीस बहुरि सिरु नाई। भाइन्ह सहित चले रघुराई॥2॥

भावार्थ

तब श्री रामचन्द्रजी ने हाथ जोडकर विदा माँगते हुए बार-बार प्रणाम किया। आशीर्वाद पाकर और फिर सिर नवाकर भाइयों सहित श्री रघुनाथजी चले॥2॥

मञ्जु मधुर मूरति उर आनी। भईं सनेह सिथिल सब रानी॥
पुनि धीरजु धरि कुअँरि हँकारीं। बार बार भेटहि महतारीं॥3॥

मूल

मञ्जु मधुर मूरति उर आनी। भईं सनेह सिथिल सब रानी॥
पुनि धीरजु धरि कुअँरि हँकारीं। बार बार भेटहि महतारीं॥3॥

भावार्थ

श्री रामजी की सुन्दर मधुर मूर्ति को हृदय में लाकर सब रानियाँ स्नेह से शिथिल हो गईं। फिर धीरज धारण करके कुमारियों को बुलाकर माताएँ बारम्बार उन्हें (गले लगाकर) भेण्टने लगीं॥3॥

पहुँचावहिं फिरि मिलहिं बहोरी। बढी परस्पर प्रीति न थोरी॥
पुनि पुनि मिलत सखिन्ह बिलगाई। बाल बच्छ जिमि धेनु लवाई॥4॥

मूल

पहुँचावहिं फिरि मिलहिं बहोरी। बढी परस्पर प्रीति न थोरी॥
पुनि पुनि मिलत सखिन्ह बिलगाई। बाल बच्छ जिमि धेनु लवाई॥4॥

भावार्थ

पुत्रियों को पहुँचाती हैं, फिर लौटकर मिलती हैं। परस्पर में कुछ थोडी प्रीति नहीं बढी (अर्थात बहुत प्रीति बढी)। बार-बार मिलती हुई माताओं को सखियों ने अलग कर दिया। जैसे हाल की ब्यायी हुई गाय को कोई उसके बालक बछडे (या बछिया) से अलग कर दे॥4॥

337

01 दोहा

प्रेमबिबस नर नारि सब सखिन्ह सहित रनिवासु।
मानहुँ कीन्ह बिदेहपुर करुनाँ बिरहँ निवासु॥337॥

मूल

प्रेमबिबस नर नारि सब सखिन्ह सहित रनिवासु।
मानहुँ कीन्ह बिदेहपुर करुनाँ बिरहँ निवासु॥337॥

भावार्थ

सब स्त्री-पुरुष और सखियों सहित सारा रनिवास प्रेम के विशेष वश हो रहा है। (ऐसा लगता है) मानो जनकपुर में करुणा और विरह ने डेरा डाल दिया है॥337॥

02 चौपाई

सुक सारिका जानकी ज्याए। कनक पिञ्जरन्हि राखि पढाए॥
ब्याकुल कहहिं कहाँ बैदेही। सुनि धीरजु परिहरइ न केही॥1॥

मूल

सुक सारिका जानकी ज्याए। कनक पिञ्जरन्हि राखि पढाए॥
ब्याकुल कहहिं कहाँ बैदेही। सुनि धीरजु परिहरइ न केही॥1॥

भावार्थ

जानकी ने जिन तोता और मैना को पाल-पोसकर बडा किया था और सोने के पिञ्जडों में रखकर पढाया था, वे व्याकुल होकर कह रहे हैं- वैदेही कहाँ हैं। उनके ऐसे वचनों को सुनकर धीरज किसको नहीं त्याग देगा (अर्थात सबका धैर्य जाता रहा)॥1॥

भए बिकल खग मृग एहि भाँती। मनुज दसा कैसें कहि जाती॥
बन्धु समेत जनकु तब आए। प्रेम उमगि लोचन जल छाए॥2॥

मूल

भए बिकल खग मृग एहि भाँती। मनुज दसा कैसें कहि जाती॥
बन्धु समेत जनकु तब आए। प्रेम उमगि लोचन जल छाए॥2॥

भावार्थ

जब पक्षी और पशु तक इस तरह विकल हो गए, तब मनुष्यों की दशा कैसे कही जा सकती है! तब भाई सहित जनकजी वहाँ आए। प्रेम से उमडकर उनके नेत्रों में (प्रेमाश्रुओं का) जल भर आया॥2॥

सीय बिलोकि धीरता भागी। रहे कहावत परम बिरागी॥
लीन्हि रायँ उर लाइ जानकी। मिटी महामरजाद ग्यान की॥3॥

मूल

सीय बिलोकि धीरता भागी। रहे कहावत परम बिरागी॥
लीन्हि रायँ उर लाइ जानकी। मिटी महामरजाद ग्यान की॥3॥

भावार्थ

वे परम वैराग्यवान कहलाते थे, पर सीताजी को देखकर उनका भी धीरज भाग गया। राजा ने जानकीजी को हृदय से लगा लिया। (प्रेम के प्रभाव से) ज्ञान की महान मर्यादा मिट गई (ज्ञान का बाँध टूट गया)॥3॥

समुझावत सब सचिव सयाने। कीन्ह बिचारु न अवसर जाने॥
बारहिं बार सुता उर लाईं। सजि सुन्दर पालकीं मगाईं॥4॥

मूल

समुझावत सब सचिव सयाने। कीन्ह बिचारु न अवसर जाने॥
बारहिं बार सुता उर लाईं। सजि सुन्दर पालकीं मगाईं॥4॥

भावार्थ

सब बुद्धिमान मन्त्री उन्हें समझाते हैं। तब राजा ने विषाद करने का समय न जानकर विचार किया। बारम्बार पुत्रियों को हृदय से लगाकर सुन्दर सजी हुई पालकियाँ मँगवाई॥4॥

338

01 दोहा

प्रेमबिबस परिवारु सबु जानि सुलगन नरेस।
कुअँरि चढाईं पालकिन्ह सुमिरे सिद्धि गनेस॥338॥

मूल

प्रेमबिबस परिवारु सबु जानि सुलगन नरेस।
कुअँरि चढाईं पालकिन्ह सुमिरे सिद्धि गनेस॥338॥

भावार्थ

सारा परिवार प्रेम में विवश है। राजा ने सुन्दर मुहूर्त जानकर सिद्धि सहित गणेशजी का स्मरण करके कन्याओं को पालकियों पर चढाया॥338॥

02 चौपाई

बहुबिधि भूप सुता समुझाईं। नारिधरमु कुलरीति सिखाईं॥
दासीं दास दिए बहुतेरे। सुचि सेवक जे प्रिय सिय केरे॥1॥

मूल

बहुबिधि भूप सुता समुझाईं। नारिधरमु कुलरीति सिखाईं॥
दासीं दास दिए बहुतेरे। सुचि सेवक जे प्रिय सिय केरे॥1॥

भावार्थ

राजा ने पुत्रियों को बहुत प्रकार से समझाया और उन्हें स्त्रियों का धर्म और कुल की रीति सिखाई। बहुत से दासी-दास दिए, जो सीताजी के प्रिय और विश्वास पात्र सेवक थे॥1॥

सीय चलत ब्याकुल पुरबासी। होहिं सगुन सुभ मङ्गल रासी॥
भूसुर सचिव समेत समाजा। सङ्ग चले पहुँचावन राजा॥2॥

मूल

सीय चलत ब्याकुल पुरबासी। होहिं सगुन सुभ मङ्गल रासी॥
भूसुर सचिव समेत समाजा। सङ्ग चले पहुँचावन राजा॥2॥

भावार्थ

सीताजी के चलते समय जनकपुरवासी व्याकुल हो गए। मङ्गल की राशि शुभ शकुन हो रहे हैं। ब्राह्मण और मन्त्रियों के समाज सहित राजा जनकजी उन्हें पहुँचाने के लिए साथ चले॥2॥

समय बिलोकि बाजने बाजे। रथ गज बाजि बरातिन्ह साजे॥
दसरथ बिप्र बोलि सब लीन्हे। दान मान परिपूरन कीन्हे॥3॥

मूल

समय बिलोकि बाजने बाजे। रथ गज बाजि बरातिन्ह साजे॥
दसरथ बिप्र बोलि सब लीन्हे। दान मान परिपूरन कीन्हे॥3॥

भावार्थ

समय देखकर बाजे बजने लगे। बारातियों ने रथ, हाथी और घोडे सजाए। दशरथजी ने सब ब्राह्मणों को बुला लिया और उन्हें दान और सम्मान से परिपूर्ण कर दिया॥3॥

चरन सरोज धूरि धरि सीसा। मुदित महीपति पाइ असीसा॥
सुमिरि गजाननु कीन्ह पयाना। मङ्गल मूल सगुन भए नाना॥4॥

मूल

चरन सरोज धूरि धरि सीसा। मुदित महीपति पाइ असीसा॥
सुमिरि गजाननु कीन्ह पयाना। मङ्गल मूल सगुन भए नाना॥4॥

भावार्थ

उनके चरण कमलों की धूलि सिर पर रखकर और आशीर्वाद पाकर राजा प्रसन्न हुए। गणेश जी का स्मरण कर के यात्रा की, नाना प्रकार के मङ्गल के मूल सगुन हुए॥4॥

339

01 दोहा

सुर प्रसून बरषहि हरषि करहिं अपछरा गान। चले अवधपति अवधपुर मुदित बजाइ निसान॥३३९॥

मूल

सुर प्रसून बरषहि हरषि करहिं अपछरा गान। चले अवधपति अवधपुर मुदित बजाइ निसान॥३३९॥

भावार्थ

ः-देवता प्रसन्न होकर पुष्पवर्षा करते हैं और अप्सराएँ गान करती हैं। अवधनरेश प्रसन्नतापूर्वक (जनकपुर से) नगाडे बजा कर अयोध्यापुरी को चले॥339॥

02 चौपाई

नृप करि बिनय महाजन फेरे। सादर सकल मागने टेरे॥
भूषन बसन बाजि गज दीन्हे। प्रेम पोषि ठाढ़े सब कीन्हे॥1॥

मूल

नृप करि बिनय महाजन फेरे। सादर सकल मागने टेरे॥
भूषन बसन बाजि गज दीन्हे। प्रेम पोषि ठाढ़े सब कीन्हे॥1॥

भावार्थ

राजा दशरथजी नें बिनती कर के प्रतिष्ठितजनों को लौटाया और सम्पूर्ण मंगनों को बुलवाया। आभूषण, वस्त्र, हाथी, घोडे दिए और प्रेम से सब को सन्तुष्ट कर के खडा किया॥1॥

बार बार बिरिदावलि भाषी। फिरे सकल रामहि उर राखी॥
बहुरि बहुरि कोसलपति कहहीं। जनकु प्रेमबस फिरै न चहहीं॥2॥

मूल

बार बार बिरिदावलि भाषी। फिरे सकल रामहि उर राखी॥
बहुरि बहुरि कोसलपति कहहीं। जनकु प्रेमबस फिरै न चहहीं॥2॥

भावार्थ

बारम्बार नामवरी (वंश की बडाई) बखान कर सब रामचन्द्रजी को हृदय में रख कर फिरे। अयोध्यानरेश फिर फिर कहते हैं परन्तु प्रेम के अधीन हुए जनकजी नहीं चाहते हैं।

पुनि कह भूपति बचन सुहाए। फिरिअ महीस दूरि बड़ि आए॥
राउ बहोरि उतरि भए ठाढ़े। प्रेम प्रबाह बिलोचन बाढ़े॥3॥

मूल

पुनि कह भूपति बचन सुहाए। फिरिअ महीस दूरि बड़ि आए॥
राउ बहोरि उतरि भए ठाढ़े। प्रेम प्रबाह बिलोचन बाढ़े॥3॥

भावार्थ

दशरथजी ने फिर सुहावने वचन कहे- हे राजन्! बहुत दूर आ गए, अब लौटिए। फिर राजा दशरथजी रथ से उतरकर खडे हो गए। उनके नेत्रों में प्रेम प्रवाह बढ आया (प्रेमाश्रुओं की धारा बह चली)॥3॥

तब बिदेह बोले कर जोरी। बचन सनेह सुधाँ जनु बोरी॥
करौ कवन बिधि बिनय बनाई। महाराज मोहि दीन्हि बड़ाई॥4॥

मूल

तब बिदेह बोले कर जोरी। बचन सनेह सुधाँ जनु बोरी॥
करौ कवन बिधि बिनय बनाई। महाराज मोहि दीन्हि बड़ाई॥4॥

भावार्थ

तब जनकजी हाथ जोडकर मानो स्नेह रूपी अमृत में डुबोकर वचन बोले- मैं किस तरह (किन शब्दों में) विनती करूँ। हे महाराज! आपने मुझे बडी बडाई दी है॥4॥

340

01 दोहा

कोसलपति समधी सजन सनमाने सब भाँति।
मिलनि परसपर बिनय अति प्रीति न हृदयँ समाति॥३४०॥

मूल

कोसलपति समधी सजन सनमाने सब भाँति।
मिलनि परसपर बिनय अति प्रीति न हृदयँ समाति॥३४०॥

भावार्थ

कोशलनाथ दशरथजी ने अपने स्वजन समधी का सब प्रकार से सम्मान किया। उनके आपस के मिलने में अत्यन्त विनय था और इतनी प्रीति थी जो हृदय में समाती न थी॥340॥

02 चौपाई

मुनि मंडलिहि जनक सिरु नावा। आसिरबादु सबहि सन पावा॥
सादर पुनि भेंटे जामाता। रूप सील गुन निधि सब भ्राता॥1॥

मूल

मुनि मंडलिहि जनक सिरु नावा। आसिरबादु सबहि सन पावा॥
सादर पुनि भेंटे जामाता। रूप सील गुन निधि सब भ्राता॥1॥

भावार्थ

जनक जी ने मुनि मण्डली को सिर नवाया और सभी से आशीर्वाद पाया।

फिर आदर के साथ वे रूप, शील और गुणों के निधान सब भाइयों से, अपने दामादों से मिले॥1॥

जोरि पंकरुह पानि सुहाए। बोले बचन प्रेम जनु जाए॥
राम करौ केहि भाँति प्रसंसा। मुनि महेस मन मानस हंसा॥2॥

मूल

फिर आदर के साथ वे रूप, शील और गुणों के निधान सब भाइयों से, अपने दामादों से मिले॥1॥

जोरि पंकरुह पानि सुहाए। बोले बचन प्रेम जनु जाए॥
राम करौ केहि भाँति प्रसंसा। मुनि महेस मन मानस हंसा॥2॥

भावार्थ

सुन्दर कमल के समान हाथों को जोडकर वचन बोले जो मानो प्रेम से ही उत्पन्न हुए(स्नेह से पुत्र) हों। हे रामजी! आपकी प्रशंसा मैं किस प्रकार करूँ! आप मुनि और शिवजी के मन रूपी मानसरोवर के हंस हैं॥2॥

करहिं जोग जोगी जेहि लागी। कोहु मोहु ममता मदु त्यागी॥
ब्यापकु ब्रह्मु अलखु अबिनासी। चिदानंदु निरगुन गुनरासी॥3॥

मूल

करहिं जोग जोगी जेहि लागी। कोहु मोहु ममता मदु त्यागी॥
ब्यापकु ब्रह्मु अलखु अबिनासी। चिदानंदु निरगुन गुनरासी॥3॥

भावार्थ

योगी लोग जिनके लिए क्रोध, मोह, ममत्व और घमण्ड त्यागकर योग करते हैं। जो सब में स्थित, परब्रह्म, अप्रकट, नाशरहित, चैतन्य, आनन्दस्वरूप निर्गुण एवम् गुणों की राशि हैं॥3॥

मन समेत जेहि जान न बानी। तरकि न सकहिं सकल अनुमानी॥
महिमा निगमु नेति कहि कहई। जो तिहुँ काल एकरस रहई॥4॥

मूल

मन समेत जेहि जान न बानी। तरकि न सकहिं सकल अनुमानी॥
महिमा निगमु नेति कहि कहई। जो तिहुँ काल एकरस रहई॥4॥

भावार्थ

मन के सहित जिनको वाणी नहीं जानती और समस्त अनुमान करने वाले जिनका तर्कना नहीं कर सकते, जिनकी महिमा को वेद नेति कहकर वर्णन करता है और जो (सच्चिदानन्द) तीनों कालों में एकरस (सर्वदा और सर्वथा निर्विकार) रहते हैं॥4॥

341

01 दोहा

नयन बिषय मो कहुँ भयउ सो समस्त सुख मूल।
सबइ लाभु जग जीव कहँ भएँ ईसु अनुकुल॥३४१॥

मूल

नयन बिषय मो कहुँ भयउ सो समस्त सुख मूल।
सबइ लाभु जग जीव कहँ भएँ ईसु अनुकुल॥३४१॥

भावार्थ

वे ही समस्त सुखों के मूल (आप) मेरे नेत्रों के विषय हुए। ईश्वर के अनुकूल होने पर जगत में जीव को सब लाभ ही लाभ है॥341॥

02 चौपाई

सबहि भाँति मोहि दीन्हि बड़ाई। निज जन जानि लीन्ह अपनाई॥
होहिं सहस दस सारद सेषा। करहिं कलप कोटिक भरि लेखा॥1॥

मूल

सबहि भाँति मोहि दीन्हि बड़ाई। निज जन जानि लीन्ह अपनाई॥
होहिं सहस दस सारद सेषा। करहिं कलप कोटिक भरि लेखा॥1॥

भावार्थ

आपने मुझे सभी प्रकार से बडाई दी और अपना जन जानकर अना लिया। यदि दस हजार सरस्वती और शेष हों और करोडों कल्पों तक गणना करते हैं॥1॥

मोर भाग्य राउर गुन गाथा। कहि न सिराहिं सुनहु रघुनाथा॥
मै कछु कहउँ एक बल मोरें। तुम्ह रीझहु सनेह सुठि थोरें॥2

मूल

मोर भाग्य राउर गुन गाथा। कहि न सिराहिं सुनहु रघुनाथा॥
मै कछु कहउँ एक बल मोरें। तुम्ह रीझहु सनेह सुठि थोरें॥2

भावार्थ

तो भी हे रघुनाथ! मेरे सौभाग्य और आपके गुणों की कथा कहकर समाप्त नहीं की जा सकती। मैं जो कुछ कह रहा हूँ, वह अपने इस एक ही बल पर कि आप अत्यन्त थोडे प्रेम से प्रसन्न हो जाते हैं॥2॥

बार बार मागउँ कर जोरें। मनु परिहरै चरन जनि भोरें॥
सुनि बर बचन प्रेम जनु पोषे। पूरनकाम रामु परितोषे॥3॥

मूल

बार बार मागउँ कर जोरें। मनु परिहरै चरन जनि भोरें॥
सुनि बर बचन प्रेम जनु पोषे। पूरनकाम रामु परितोषे॥3॥

भावार्थ

मैं बार बार हाथ जोडकर यह माँगता हूँ कि मेरा मन भूलकर भी आपके चरणों को न छोडे। जनकजी के श्रेष्ठ वचनों को सुनकर, जो मानो प्रेम से पुष्ट किए हुए थे, पूर्ण काम श्री रामचन्द्र जी सन्तुष्ट हुए॥3॥

करि बर बिनय ससुर सनमाने। पितु कौसिक बसिष्ठ सम जाने॥
बिनती बहुरि भरत सन कीन्ही। मिलि सप्रेमु पुनि आसिष दीन्ही॥4॥

मूल

करि बर बिनय ससुर सनमाने। पितु कौसिक बसिष्ठ सम जाने॥
बिनती बहुरि भरत सन कीन्ही। मिलि सप्रेमु पुनि आसिष दीन्ही॥4॥

भावार्थ

उन्होंने सुन्दर विनती करके पिता दशरथजी, गुरु विश्वामित्र और कुलगुरु वशिष्ठजी के समान जानकर ससुर जनकजी का सम्मान किया। फिर जनकजी ने भरतजी से विनती की और प्रेम के साथ मिलकर उन्हें आशीर्वाद दिया॥4॥

342

01 दोहा

मिले लखन रिपुसूदनहि दीन्हि असीस महीस।
भए परस्पर प्रेमबस फिरि फिरि नावहिं सीस॥३४२॥

मूल

मिले लखन रिपुसूदनहि दीन्हि असीस महीस।
भए परस्पर प्रेमबस फिरि फिरि नावहिं सीस॥३४२॥

भावार्थ

फिर राजा ने लक्ष्मण और शत्रुघ्न से मिलकर उन्हें आशीर्वाद दिया। वे परस्पर प्रेम के वश होकर बार-बार आपस में सिर नवाने लगे॥342॥

02 चौपाई

बार बार करि बिनय बड़ाई। रघुपति चले संग सब भाई॥ जनक गहे कौसिक पद जाई। चरन रेनु सिर नयनन्ह लाई॥1॥

मूल

बार बार करि बिनय बड़ाई। रघुपति चले संग सब भाई॥ जनक गहे कौसिक पद जाई। चरन रेनु सिर नयनन्ह लाई॥1॥

भावार्थ

जनकजी की बार बार विनती और बडाई करके श्री रघुनाथजी सब भाइयों के साथ चले। जनकजी ने जाकर विश्वामित्रजी के चरण पकड लिए और उनके चरणों की रज को सिर और नेत्रों में लगाया॥1॥

सुनु मुनीस बर दरसन तोरें। अगमु न कछु प्रतीति मन मोरें॥ जो सुखु सुजसु लोकपति चहहीं। करत मनोरथ सकुचत अहहीं॥2॥

मूल

सुनु मुनीस बर दरसन तोरें। अगमु न कछु प्रतीति मन मोरें॥ जो सुखु सुजसु लोकपति चहहीं। करत मनोरथ सकुचत अहहीं॥2॥

भावार्थ

(उन्होंने कहा-) हे मुनीश्वर! सुनिए, आपके सुन्दर दर्शन से कुछ भी दुर्लभ नहीं है, मेरे मन में ऐसा विश्वास है, जो सुख और सुयश लोकपाल चाहते हैं, परन्तु (असम्भव समझकर) मनोरथ करते हुए सकुचाते हैं।॥2॥

सो सुखु सुजसु सुलभ मोहि स्वामी। सब सिधि तव दरसन अनुगामी॥
कीन्हि बिनय पुनि पुनि सिरु नाई। फिरे महीसु आसिषा पाई॥3॥

मूल

सो सुखु सुजसु सुलभ मोहि स्वामी। सब सिधि तव दरसन अनुगामी॥
कीन्हि बिनय पुनि पुनि सिरु नाई। फिरे महीसु आसिषा पाई॥3॥

भावार्थ

हे स्वामि! वही सुख और सुयश मुझे सुलभ हो गया, सारी सिद्धियाँ आपके दर्शनों की अनुगामिनी अर्थात् पीछे पीछे चलने वाली हैं। इस प्रकार बार बार विनती की और सिर नवाकर तथा उनसे आशीर्वाद पाकर राजा जनक लौटे॥3॥

चली बरात निसान बजाई। मुदित छोट बड़ सब समुदाई॥
रामहि निरखि ग्राम नर नारी। पाइ नयन फलु होहिं सुखारी॥4॥

मूल

चली बरात निसान बजाई। मुदित छोट बड़ सब समुदाई॥
रामहि निरखि ग्राम नर नारी। पाइ नयन फलु होहिं सुखारी॥4॥

भावार्थ

डङ्का बजाकर बारात चली। छोटे-बडे सभी समुदाय प्रसन्न हैं। (रास्ते के) गाँव के स्त्री-पुरुष श्री रामचन्द्रजी को देखकर नेत्रों का फल पाकर सुखी होते हैं॥4॥

343

01 दोहा

बीच बीच बर बास करि मग लोगन्ह सुख देत।
अवध समीप पुनीत दिन पहुँची आइ जनेत॥343॥

मूल

बीच बीच बर बास करि मग लोगन्ह सुख देत।
अवध समीप पुनीत दिन पहुँची आइ जनेत॥343॥

भावार्थ

बीच-बीच में सुन्दर मुकाम करती हुई तथा मार्ग के लोगों को सुख देती हुई वह बारात पवित्र दिन में अयोध्यापुरी के समीप आ पहुँची॥343॥

02 चौपाई

हने निसान पनव बर बाजे। भेरि सङ्ख धुनि हय गय गाजे॥
झाँझि बिरव डिण्डिमीं सुहाई। सरस राग बाजहिं सहनाई॥1॥

मूल

हने निसान पनव बर बाजे। भेरि सङ्ख धुनि हय गय गाजे॥
झाँझि बिरव डिण्डिमीं सुहाई। सरस राग बाजहिं सहनाई॥1॥

भावार्थ

नगाडों पर चोटें पडने लगीं, सुन्दर ढोल बजने लगे। भेरी और शङ्ख की बडी आवाज हो रही है, हाथी-घोडे गरज रहे हैं। विशेष शब्द करने वाली झाँझें, सुहावनी डफलियाँ तथा रसीले राग से शहनाइयाँ बज रही हैं॥1॥

पुर जन आवत अकनि बराता। मुदित सकल पुलकावलि गाता॥
निज निज सुन्दर सदन सँवारे। हाट बाट चौहटपुर द्वारे॥2॥

मूल

पुर जन आवत अकनि बराता। मुदित सकल पुलकावलि गाता॥
निज निज सुन्दर सदन सँवारे। हाट बाट चौहटपुर द्वारे॥2॥

भावार्थ

बारात को आती हुई सुनकर नगर निवासी प्रसन्न हो गए। सबके शरीरों पर पुलकावली छा गई। सबने अपने-अपने सुन्दर घरों, बाजारों, गलियों, चौराहों और नगर के द्वारों को सजाया॥2॥

गलीं सकल अरगजाँ सिञ्चाईं। जहँ तहँ चौकें चारु पुराईं॥
बना बजारु न जाइ बखाना। तोरन केतु पताक बिताना॥3॥

मूल

गलीं सकल अरगजाँ सिञ्चाईं। जहँ तहँ चौकें चारु पुराईं॥
बना बजारु न जाइ बखाना। तोरन केतु पताक बिताना॥3॥

भावार्थ

सारी गलियाँ अरगजे से सिञ्चाई गईं, जहाँ-तहाँ सुन्दर चौक पुराए गए। तोरणों ध्वजा-पताकाओं और मण्डपों से बाजार ऐसा सजा कि जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता॥3॥

सफल पूगफल कदलि रसाला। रोपे बकुल कदम्ब तमाला॥
लगे सुभग तरु परसत धरनी। मनिमय आलबाल कल करनी॥4॥

मूल

सफल पूगफल कदलि रसाला। रोपे बकुल कदम्ब तमाला॥
लगे सुभग तरु परसत धरनी। मनिमय आलबाल कल करनी॥4॥

भावार्थ

फल सहित सुपारी, केला, आम, मौलसिरी, कदम्ब और तमाल के वृक्ष लगाए गए। वे लगे हुए सुन्दर वृक्ष (फलों के भार से) पृथ्वी को छू रहे हैं। उनके मणियों के थाले बडी सुन्दर कारीगरी से बनाए गए हैं॥4॥

344

01 दोहा

बिबिध भाँति मङ्गल कलस गृह गृह रचे सँवारि।
सुर ब्रह्मादि सिहाहिं सब रघुबर पुरी निहारि॥344॥

मूल

बिबिध भाँति मङ्गल कलस गृह गृह रचे सँवारि।
सुर ब्रह्मादि सिहाहिं सब रघुबर पुरी निहारि॥344॥

भावार्थ

अनेक प्रकार के मङ्गल-कलश घर-घर सजाकर बनाए गए हैं। श्री रघुनाथजी की पुरी (अयोध्या) को देखकर ब्रह्मा आदि सब देवता सिहाते हैं॥344॥

02 चौपाई

भूप भवनु तेहि अवसर सोहा। रचना देखि मदन मनु मोहा॥
मङ्गल सगुन मनोहरताई। रिधि सिधि सुख सम्पदा सुहाई॥1॥

मूल

भूप भवनु तेहि अवसर सोहा। रचना देखि मदन मनु मोहा॥
मङ्गल सगुन मनोहरताई। रिधि सिधि सुख सम्पदा सुहाई॥1॥

भावार्थ

उस समय राजमहल (अत्यन्त) शोभित हो रहा था। उसकी रचना देखकर कामदेव भी मन मोहित हो जाता था। मङ्गल शकुन, मनोहरता, ऋद्धि-सिद्धि, सुख, सुहावनी सम्पत्ति॥1॥

जनु उछाह सब सहज सुहाए। तनु धरि धरि दसरथ गृहँ छाए॥
देखन हेतु राम बैदेही। कहहु लालसा होहि न केही॥2॥

मूल

जनु उछाह सब सहज सुहाए। तनु धरि धरि दसरथ गृहँ छाए॥
देखन हेतु राम बैदेही। कहहु लालसा होहि न केही॥2॥

भावार्थ

और सब प्रकार के उत्साह (आनन्द) मानो सहज सुन्दर शरीर धर-धरकर दशरथजी के घर में छा गए हैं। श्री रामचन्द्रजी और सीताजी के दर्शनों के लिए भला कहिए, किसे लालसा न होगी॥2॥

जूथ जूथ मिलि चलीं सुआसिनि। निज छबि निदरहिं मदन बिलासिनि॥
सकल सुमङ्गल सजें आरती। गावहिं जनु बहु बेष भारती॥3॥

मूल

जूथ जूथ मिलि चलीं सुआसिनि। निज छबि निदरहिं मदन बिलासिनि॥
सकल सुमङ्गल सजें आरती। गावहिं जनु बहु बेष भारती॥3॥

भावार्थ

सुहागिनी स्त्रियाँ झुण्ड की झुण्ड मिलकर चलीं, जो अपनी छबि से कामदेव की स्त्री रति का भी निरादर कर रही हैं। सभी सुन्दर मङ्गलद्रव्य एवं आरती सजाए हुए गा रही हैं, मानो सरस्वतीजी ही बहुत से वेष धारण किए गा रही हों॥3॥

भूपति भवन कोलाहलु होई। जाइ न बरनि समउ सुखु सोई॥
कौसल्यादि राम महतारीं। प्रेमबिबस तन दसा बिसारीं॥4॥

मूल

भूपति भवन कोलाहलु होई। जाइ न बरनि समउ सुखु सोई॥
कौसल्यादि राम महतारीं। प्रेमबिबस तन दसा बिसारीं॥4॥

भावार्थ

राजमहल में (आनन्द के मारे) शोर मच रहा है। उस समय का और सुख का वर्णन नहीं किया जा सकता। कौसल्याजी आदि श्री रामचन्द्रजी की सब माताएँ प्रेम के विशेष वश होने से शरीर की सुध भूल गईं॥4॥

345

01 दोहा

दिए दान बिप्रन्ह बिपुल पूजि गनेस पुरारि।
प्रमुदित परम दरिद्र जनु पाइ पदारथ चारि॥345॥

मूल

दिए दान बिप्रन्ह बिपुल पूजि गनेस पुरारि।
प्रमुदित परम दरिद्र जनु पाइ पदारथ चारि॥345॥

भावार्थ

गणेशजी और त्रिपुरारि शिवजी का पूजन करके उन्होन्ने ब्राह्मणों को बहुत सा दान दिया। वे ऐसी परम प्रसन्न हुईं, मानो अत्यन्त दरिद्री चारों पदार्थ पा गया हो॥345॥

02 चौपाई

मोद प्रमोद बिबस सब माता। चलहिं न चरन सिथिल भए गाता॥
राम दरस हित अति अनुरागीं। परिछनि साजु सजन सब लागीं॥1॥

मूल

मोद प्रमोद बिबस सब माता। चलहिं न चरन सिथिल भए गाता॥
राम दरस हित अति अनुरागीं। परिछनि साजु सजन सब लागीं॥1॥

भावार्थ

सुख और महान आनन्द से विवश होने के कारण सब माताओं के शरीर शिथिल हो गए हैं, उनके चरण चलते नहीं हैं। श्री रामचन्द्रजी के दर्शनों के लिए वे अत्यन्त अनुराग में भरकर परछन का सब सामान सजाने लगीं॥1॥

बिबिध बिधान बाजने बाजे। मङ्गल मुदित सुमित्राँ साजे॥
हरद दूब दधि पल्लव फूला। पान पूगफल मङ्गल मूला॥2॥

मूल

बिबिध बिधान बाजने बाजे। मङ्गल मुदित सुमित्राँ साजे॥
हरद दूब दधि पल्लव फूला। पान पूगफल मङ्गल मूला॥2॥

भावार्थ

अनेकों प्रकार के बाजे बजते थे। सुमित्राजी ने आनन्दपूर्वक मङ्गल साज सजाए। हल्दी, दूब, दही, पत्ते, फूल, पान और सुपारी आदि मङ्गल की मूल वस्तुएँ,॥2॥

अच्छत अङ्कुर लोचन लाजा। मञ्जुल मञ्जरि तुलसि बिराजा॥
छुहे पुरट घट सहज सुहाए। मदन सकुन जनु नीड बनाए॥3॥

मूल

अच्छत अङ्कुर लोचन लाजा। मञ्जुल मञ्जरि तुलसि बिराजा॥
छुहे पुरट घट सहज सुहाए। मदन सकुन जनु नीड बनाए॥3॥

भावार्थ

तथा अक्षत (चावल), अँखुए, गोरोचन, लावा और तुलसी की सुन्दर मञ्जरियाँ सुशोभित हैं। नाना रङ्गों से चित्रित किए हुए सहज सुहावने सुवर्ण के कलश ऐसे मालूम होते हैं, मानो कामदेव के पक्षियों ने घोंसले बनाए हों॥3॥

सगुन सुगन्ध न जाहिं बखानी। मङ्गल सकल सजहिं सब रानी॥
रचीं आरतीं बहतु बिधाना। मुदित करहिं कल मङ्गल गाना॥4॥

मूल

सगुन सुगन्ध न जाहिं बखानी। मङ्गल सकल सजहिं सब रानी॥
रचीं आरतीं बहतु बिधाना। मुदित करहिं कल मङ्गल गाना॥4॥

भावार्थ

शकुन की सुगन्धित वस्तुएँ बखानी नहीं जा सकतीं। सब रानियाँ सम्पूर्ण मङ्गल साज सज रही हैं। बहुत प्रकार की आरती बनाकर वे आनन्दित हुईं सुन्दर मङ्गलगान कर रही हैं॥4॥

346

01 दोहा

कनक थार भरि मङ्गलन्हि कमल करन्हि लिएँ मात।
चलीं मुदित परिछनि करन पुलक पल्लवित गात॥346॥

मूल

कनक थार भरि मङ्गलन्हि कमल करन्हि लिएँ मात।
चलीं मुदित परिछनि करन पुलक पल्लवित गात॥346॥

भावार्थ

सोने के थालों को माङ्गलिक वस्तुओं से भरकर अपने कमल के समान (कोमल) हाथों में लिए हुए माताएँ आनन्दित होकर परछन करने चलीं। उनके शरीर पुलकावली से छा गए हैं॥346॥

02 चौपाई

धूप धूम नभु मेचक भयऊ। सावन घन घमण्डु जनु ठयऊ॥
सुरतरु सुमन माल सुर बरषहिं। मनहुँ बलाक अवलि मनु करषहिं॥1॥

मूल

धूप धूम नभु मेचक भयऊ। सावन घन घमण्डु जनु ठयऊ॥
सुरतरु सुमन माल सुर बरषहिं। मनहुँ बलाक अवलि मनु करषहिं॥1॥

भावार्थ

धूप के धुएँ से आकाश ऐसा काला हो गया है मानो सावन के बादल घुमड-घुमडकर छा गए हों। देवता कल्पवृक्ष के फूलों की मालाएँ बरसा रहे हैं। वे ऐसी लगती हैं, मानो बगुलों की पाँति मन को (अपनी ओर) खीञ्च रही हो॥1॥

मञ्जुल मनिमय बन्दनिवारे। मनहुँ पाकरिपु चाप सँवारे॥
प्रगटहिं दुरहिं अटन्ह पर भामिनि। चारु चपल जनु दमकहिं दामिनि॥2॥

मूल

मञ्जुल मनिमय बन्दनिवारे। मनहुँ पाकरिपु चाप सँवारे॥
प्रगटहिं दुरहिं अटन्ह पर भामिनि। चारु चपल जनु दमकहिं दामिनि॥2॥

भावार्थ

सुन्दर मणियों से बने बन्दनवार ऐसे मालूम होते हैं, मानो इन्द्रधनुष सजाए हों। अटारियों पर सुन्दर और चपल स्त्रियाँ प्रकट होती और छिप जाती हैं (आती-जाती हैं), वे ऐसी जान पडती हैं, मानो बिजलियाँ चमक रही हों॥2॥

दुन्दुभि धुनि घन गरजनि घोरा। जाचक चातक दादुर मोरा॥
सुर सुगन्ध सुचि बरषहिं बारी। सुखी सकल ससि पुर नर नारी॥3॥

मूल

दुन्दुभि धुनि घन गरजनि घोरा। जाचक चातक दादुर मोरा॥
सुर सुगन्ध सुचि बरषहिं बारी। सुखी सकल ससि पुर नर नारी॥3॥

भावार्थ

नगाडों की ध्वनि मानो बादलों की घोर गर्जना है। याचकगण पपीहे, मेण्ढक और मोर हैं। देवता पवित्र सुगन्ध रूपी जल बरसा रहे हैं, जिससे खेती के समान नगर के सब स्त्री-पुरुष सुखी हो रहे हैं॥3॥

समउ जानि गुर आयसु दीन्हा। पुर प्रबेसु रघुकुलमनि कीन्हा॥
सुमिरि सम्भु गिरिजा गनराजा। मुदित महीपति सहित समाजा॥4॥

मूल

समउ जानि गुर आयसु दीन्हा। पुर प्रबेसु रघुकुलमनि कीन्हा॥
सुमिरि सम्भु गिरिजा गनराजा। मुदित महीपति सहित समाजा॥4॥

भावार्थ

(प्रवेश का) समय जानकर गुरु वशिष्ठजी ने आज्ञा दी। तब रघुकुलमणि महाराज दशरथजी ने शिवजी, पार्वतीजी और गणेशजी का स्मरण करके समाज सहित आनन्दित होकर नगर में प्रवेश किया॥4॥

347

01 दोहा

होहिं सगुन बरषहिं सुमन सुर दुन्दभीं बजाइ।
बिबुध बधू नाचहिं मुदित मञ्जुल मङ्गल गाइ॥347॥

मूल

होहिं सगुन बरषहिं सुमन सुर दुन्दभीं बजाइ।
बिबुध बधू नाचहिं मुदित मञ्जुल मङ्गल गाइ॥347॥

भावार्थ

शकुन हो रहे हैं, देवता दुन्दुभी बजा-बजाकर फूल बरसा रहे हैं। देवताओं की स्त्रियाँ आनन्दित होकर सुन्दर मङ्गल गीत गा-गाकर नाच रही हैं॥347॥

02 चौपाई

मागध सूत बन्दि नट नागर। गावहिं जसु तिहु लोक उजागर॥
जय धुनि बिमल बेद बर बानी। दस दिसि सुनिअ सुमङ्गल सानी॥1॥

मूल

मागध सूत बन्दि नट नागर। गावहिं जसु तिहु लोक उजागर॥
जय धुनि बिमल बेद बर बानी। दस दिसि सुनिअ सुमङ्गल सानी॥1॥

भावार्थ

मागध, सूत, भाट और चतुर नट तीनों लोकों के उजागर (सबको प्रकाश देने वाले परम प्रकाश स्वरूप) श्री रामचन्द्रजी का यश गा रहे हैं। जय ध्वनि तथा वेद की निर्मल श्रेष्ठ वाणी सुन्दर मङ्गल से सनी हुई दसों दिशाओं में सुनाई पड रही है॥1॥

बिपुल बाज ने बाजन लागे। नभ सुर नगर लोग अनुरागे॥
बने बराती बरनि न जाहीं। महा मुदित मन सुख न समाहीं॥2॥

मूल

बिपुल बाज ने बाजन लागे। नभ सुर नगर लोग अनुरागे॥
बने बराती बरनि न जाहीं। महा मुदित मन सुख न समाहीं॥2॥

भावार्थ

बहुत से बाजे बजने लगे। आकाश में देवता और नगर में लोग सब प्रेम में मग्न हैं। बाराती ऐसे बने-ठने हैं कि उनका वर्णन नहीं हो सकता। परम आनन्दित हैं, सुख उनके मन में समाता नहीं है॥2॥

पुरबासिन्ह तब राय जोहारे। देखत रामहि भए सुखारे॥
करहिं निछावरि मनिगन चीरा। बारि बिलोचन पुलक सरीरा॥3॥

मूल

पुरबासिन्ह तब राय जोहारे। देखत रामहि भए सुखारे॥
करहिं निछावरि मनिगन चीरा। बारि बिलोचन पुलक सरीरा॥3॥

भावार्थ

तब अयोध्यावसियों ने राजा को जोहार (वन्दना) की। श्री रामचन्द्रजी को देखते ही वे सुखी हो गए। सब मणियाँ और वस्त्र निछावर कर रहे हैं। नेत्रों में (प्रेमाश्रुओं का) जल भरा है और शरीर पुलकित हैं॥3॥।

आरति करहिं मुदित पुर नारी। हरषहिं निरखि कुअँर बर चारी॥
सिबिका सुभग ओहार उघारी। देखि दुलहिनिन्ह होहिं सुखारी॥4॥

मूल

आरति करहिं मुदित पुर नारी। हरषहिं निरखि कुअँर बर चारी॥
सिबिका सुभग ओहार उघारी। देखि दुलहिनिन्ह होहिं सुखारी॥4॥

भावार्थ

नगर की स्त्रियाँ आनन्दित होकर आरती कर रही हैं और सुन्दर चारों कुमारों को देखकर हर्षित हो रही हैं। पालकियों के सुन्दर परदे हटा-हटाकर वे दुलहिनों को देखकर सुखी होती हैं॥4॥

348

01 दोहा

एहि बिधि सबही देत सुखु आए राजदुआर।
मुदित मातु परिछनि करहिं बधुन्ह समेत कुमार॥348॥

मूल

एहि बिधि सबही देत सुखु आए राजदुआर।
मुदित मातु परिछनि करहिं बधुन्ह समेत कुमार॥348॥

भावार्थ

इस प्रकार सबको सुख देते हुए राजद्वार पर आए। माताएँ आनन्दित होकर बहुओं सहित कुमारों का परछन कर रही हैं॥348॥

02 चौपाई

करहिं आरती बारहिं बारा। प्रेमु प्रमोदु कहै को पारा॥
भूषन मनि पट नाना जाती। करहिं निछावरि अगनित भाँती॥1॥

मूल

करहिं आरती बारहिं बारा। प्रेमु प्रमोदु कहै को पारा॥
भूषन मनि पट नाना जाती। करहिं निछावरि अगनित भाँती॥1॥

भावार्थ

वे बार-बार आरती कर रही हैं। उस प्रेम और महान आनन्द को कौन कह सकता है! अनेकों प्रकार के आभूषण, रत्न और वस्त्र तथा अगणित प्रकार की अन्य वस्तुएँ निछावर कर रही हैं॥1॥

बधुन्ह समेत देखि सुत चारी। परमानन्द मगन महतारी॥
पुनि पुनि सीय राम छबि देखी। मुदित सफल जग जीवन लेखी॥2॥

मूल

बधुन्ह समेत देखि सुत चारी। परमानन्द मगन महतारी॥
पुनि पुनि सीय राम छबि देखी। मुदित सफल जग जीवन लेखी॥2॥

भावार्थ

बहुओं सहित चारों पुत्रों को देखकर माताएँ परमानन्द में मग्न हो गईं। सीताजी और श्री रामजी की छबि को बार-बार देखकर वे जगत में अपने जीवन को सफल मानकर आनन्दित हो रही हैं॥2॥

सखीं सीय मुख पुनि पुनि चाही। गान करहिं निज सुकृत सराही॥
बरषहिं सुमन छनहिं छन देवा। नाचहिं गावहिं लावहिं सेवा॥3॥

मूल

सखीं सीय मुख पुनि पुनि चाही। गान करहिं निज सुकृत सराही॥
बरषहिं सुमन छनहिं छन देवा। नाचहिं गावहिं लावहिं सेवा॥3॥

भावार्थ

सखियाँ सीताजी के मुख को बार-बार देखकर अपने पुण्यों की सराहना करती हुई गान कर रही हैं। देवता क्षण-क्षण में फूल बरसाते, नाचते, गाते तथा अपनी-अपनी सेवा समर्पण करते हैं॥3॥

देखि मनोहर चारिउ जोरीं। सारद उपमा सकल ढँढोरीं॥
देत न बनहिं निपट लघु लागीं। एकटक रहीं रूप अनुरागीं॥4॥

मूल

देखि मनोहर चारिउ जोरीं। सारद उपमा सकल ढँढोरीं॥
देत न बनहिं निपट लघु लागीं। एकटक रहीं रूप अनुरागीं॥4॥

भावार्थ

चारों मनोहर जोडियों को देखकर सरस्वती ने सारी उपमाओं को खोज डाला, पर कोई उपमा देते नहीं बनी, क्योङ्कि उन्हें सभी बिलकुल तुच्छ जान पडीं। तब हारकर वे भी श्री रामजी के रूप में अनुरक्त होकर एकटक देखती रह गईं॥4॥

349

01 दोहा

निगम नीति कुल रीति करि अरघ पाँवडे देत।
बधुन्ह सहित सुत परिछि सब चलीं लवाइ निकेत॥349॥

मूल

निगम नीति कुल रीति करि अरघ पाँवडे देत।
बधुन्ह सहित सुत परिछि सब चलीं लवाइ निकेत॥349॥

भावार्थ

वेद की विधि और कुल की रीति करके अर्घ्य-पाँवडे देती हुई बहुओं समेत सब पुत्रों को परछन करके माताएँ महल में लिवा चलीं॥349॥

02 चौपाई

चारि सिङ्घासन सहज सुहाए। जनु मनोज निज हाथ बनाए॥
तिन्ह पर कुअँरि कुअँर बैठारे। सादर पाय पुनीत पखारे॥1॥

मूल

चारि सिङ्घासन सहज सुहाए। जनु मनोज निज हाथ बनाए॥
तिन्ह पर कुअँरि कुअँर बैठारे। सादर पाय पुनीत पखारे॥1॥

भावार्थ

स्वाभाविक ही सुन्दर चार सिंहासन थे, जो मानो कामदेव ने ही अपने हाथ से बनाए थे। उन पर माताओं ने राजकुमारियों और राजकुमारों को बैठाया और आदर के साथ उनके पवित्र चरण धोए॥1॥

धूप दीप नैबेद बेद बिधि। पूजे बर दुलहिनि मङ्गल निधि॥
बारहिं बार आरती करहीं। ब्यजन चारु चामर सिर ढरहीं॥2॥

मूल

धूप दीप नैबेद बेद बिधि। पूजे बर दुलहिनि मङ्गल निधि॥
बारहिं बार आरती करहीं। ब्यजन चारु चामर सिर ढरहीं॥2॥

भावार्थ

फिर वेद की विधि के अनुसार मङ्गल के निधान दूलह की दुलहिनों की धूप, दीप और नैवेद्य आदि के द्वारा पूजा की। माताएँ बारम्बार आरती कर रही हैं और वर-वधुओं के सिरों पर सुन्दर पङ्खे तथा चँवर ढल रहे हैं॥2॥

बस्तु अनेक निछावरि होहीं। भरीं प्रमोद मातु सब सोहीं॥
पावा परम तत्व जनु जोगीं। अमृतु लहेउ जनु सन्तत रोगीं॥3॥

मूल

बस्तु अनेक निछावरि होहीं। भरीं प्रमोद मातु सब सोहीं॥
पावा परम तत्व जनु जोगीं। अमृतु लहेउ जनु सन्तत रोगीं॥3॥

भावार्थ

अनेकों वस्तुएँ निछावर हो रही हैं, सभी माताएँ आनन्द से भरी हुई ऐसी सुशोभित हो रही हैं मानो योगी ने परम तत्व को प्राप्त कर लिया। सदा के रोगी ने मानो अमृत पा लिया॥3॥

जनम रङ्क जनु पारस पावा। अन्धहि लोचन लाभु सुहावा॥
मूक बदन जनु सारद छाई। मानहुँ समर सूर जय पाई॥4॥

मूल

जनम रङ्क जनु पारस पावा। अन्धहि लोचन लाभु सुहावा॥
मूक बदन जनु सारद छाई। मानहुँ समर सूर जय पाई॥4॥

भावार्थ

जन्म का दरिद्री मानो पारस पा गया। अन्धे को सुन्दर नेत्रों का लाभ हुआ। गूँगे के मुख में मानो सरस्वती आ विराजीं और शूरवीर ने मानो युद्ध में विजय पा ली॥4॥

350

01 दोहा

एहि सुख ते सत कोटि गुन पावहिं मातु अनन्दु।
भाइन्ह सहित बिआहि घर आए रघुकुलचन्दु॥1॥

मूल

एहि सुख ते सत कोटि गुन पावहिं मातु अनन्दु।
भाइन्ह सहित बिआहि घर आए रघुकुलचन्दु॥1॥

भावार्थ

इन सुखों से भी सौ करोड गुना बढकर आनन्द माताएँ पा रही हैं, क्योङ्कि रघुकुल के चन्द्रमा श्री रामजी विवाह कर के भाइयों सहित घर आए हैं॥1॥

लोक रीति जननीं करहिं बर दुलहिनि सकुचाहिं।
मोदु बिनोदु बिलोकि बड रामु मनहिं मुसुकाहिं॥2॥

मूल

लोक रीति जननीं करहिं बर दुलहिनि सकुचाहिं।
मोदु बिनोदु बिलोकि बड रामु मनहिं मुसुकाहिं॥2॥

भावार्थ

माताएँ लोकरीति करती हैं और दूलह-दुलहिनें सकुचाते हैं। इस महान आनन्द और विनोद को देखकर श्री रामचन्द्रजी मन ही मन मुस्कुरा रहे हैं॥2॥

02 चौपाई

देव पितर पूजे बिधि नीकी। पूजीं सकल बासना जी की॥
सबहि बन्दि माँगहिं बरदाना। भाइन्ह सहित राम कल्याना॥1॥

मूल

देव पितर पूजे बिधि नीकी। पूजीं सकल बासना जी की॥
सबहि बन्दि माँगहिं बरदाना। भाइन्ह सहित राम कल्याना॥1॥

भावार्थ

मन की सभी वासनाएँ पूरी हुई जानकर देवता और पितरों का भलीभाँति पूजन किया। सबकी वन्दना करके माताएँ यही वरदान माँगती हैं कि भाइयों सहित श्री रामजी का कल्याण हो॥1॥

अन्तरहित सुर आसिष देहीं। मुदित मातु अञ्चल भरि लेहीं॥
भूपति बोलि बराती लीन्हे। जान बसन मनि भूषन दीन्हे॥2॥

मूल

अन्तरहित सुर आसिष देहीं। मुदित मातु अञ्चल भरि लेहीं॥
भूपति बोलि बराती लीन्हे। जान बसन मनि भूषन दीन्हे॥2॥

भावार्थ

देवता छिपे हुए (अन्तरिक्ष से) आशीर्वाद दे रहे हैं और माताएँ आनन्दित हो आँचल भरकर ले रही हैं। तदनन्तर राजा ने बारातियों को बुलवा लिया और उन्हें सवारियाँ, वस्त्र, मणि (रत्न) और आभूषणादि दिए॥2॥

आयसु पाइ राखि उर रामहि। मुदित गए सब निज निज धामहि॥
पुर नर नारि सकल पहिराए। घर घर बाजन लगे बधाए॥3॥

मूल

आयसु पाइ राखि उर रामहि। मुदित गए सब निज निज धामहि॥
पुर नर नारि सकल पहिराए। घर घर बाजन लगे बधाए॥3॥

भावार्थ

आज्ञा पाकर, श्री रामजी को हृदय में रखकर वे सब आनन्दित होकर अपने-अपने घर गए। नगर के समस्त स्त्री-पुरुषों को राजा ने कपडे और गहने पहनाए। घर-घर बधावे बजने लगे॥3॥

जाचक जन जाचहिं जोइ जोई। प्रमुदित राउ देहिं सोइ सोई॥
सेवक सकल बजनिआ नाना। पूरन किए दान सनमाना॥4॥

मूल

जाचक जन जाचहिं जोइ जोई। प्रमुदित राउ देहिं सोइ सोई॥
सेवक सकल बजनिआ नाना। पूरन किए दान सनमाना॥4॥

भावार्थ

याचक लोग जो-जो माँगते हैं, विशेष प्रसन्न होकर राजा उन्हें वही-वही देते हैं। सम्पूर्ण सेवकों और बाजे वालों को राजा ने नाना प्रकार के दान और सम्मान से सन्तुष्ट किया॥4॥

351

01 दोहा

देहिं असीस जोहारि सब गावहिं गुन गन गाथ।
तब गुर भूसुर सहित गृहँ गवनु कीन्ह नरनाथ॥351॥

मूल

देहिं असीस जोहारि सब गावहिं गुन गन गाथ।
तब गुर भूसुर सहित गृहँ गवनु कीन्ह नरनाथ॥351॥

भावार्थ

सब जोहार (वन्दन) करके आशीष देते हैं और गुण समूहों की कथा गाते हैं। तब गुरु और ब्राह्मणों सहित राजा दशरथजी ने महल में गमन किया॥351॥

02 चौपाई

जो बसिष्ट अनुसासन दीन्ही। लोक बेद बिधि सादर कीन्ही॥
भूसुर भीर देखि सब रानी। सादर उठीं भाग्य बड जानी॥1॥

मूल

जो बसिष्ट अनुसासन दीन्ही। लोक बेद बिधि सादर कीन्ही॥
भूसुर भीर देखि सब रानी। सादर उठीं भाग्य बड जानी॥1॥

भावार्थ

वशिष्ठजी ने जो आज्ञा दी, उसे लोक और वेद की विधि के अनुसार राजा ने आदरपूर्वक किया। ब्राह्मणों की भीड देखकर अपना बडा भाग्य जानकर सब रानियाँ आदर के साथ उठीं॥1॥

पाय पखारि सकल अन्हवाए। पूजि भली बिधि भूप जेवाँए॥
आदर दान प्रेम परिपोषे। देत असीस चले मन तोषे॥2॥

मूल

पाय पखारि सकल अन्हवाए। पूजि भली बिधि भूप जेवाँए॥
आदर दान प्रेम परिपोषे। देत असीस चले मन तोषे॥2॥

भावार्थ

चरण धोकर उन्होन्ने सबको स्नान कराया और राजा ने भली-भाँति पूजन करके उन्हें भोजन कराया! आदर, दान और प्रेम से पुष्ट हुए वे सन्तुष्ट मन से आशीर्वाद देते हुए चले॥2॥

बहु बिधि कीन्हि गाधिसुत पूजा। नाथ मोहि सम धन्य न दूजा॥
कीन्हि प्रसंसा भूपति भूरी। रानिन्ह सहित लीन्हि पग धूरी॥3॥

मूल

बहु बिधि कीन्हि गाधिसुत पूजा। नाथ मोहि सम धन्य न दूजा॥
कीन्हि प्रसंसा भूपति भूरी। रानिन्ह सहित लीन्हि पग धूरी॥3॥

भावार्थ

राजा ने गाधि पुत्र विश्वामित्रजी की बहुत तरह से पूजा की और कहा- हे नाथ! मेरे समान धन्य दूसरा कोई नहीं है। राजा ने उनकी बहुत प्रशंसा की और रानियों सहित उनकी चरणधूलि को ग्रहण किया॥3॥

भीतर भवन दीन्ह बर बासू। मन जोगवत रह नृपु रनिवासू॥
पूजे गुर पद कमल बहोरी। कीन्हि बिनय उर प्रीति न थोरी॥4॥

मूल

भीतर भवन दीन्ह बर बासू। मन जोगवत रह नृपु रनिवासू॥
पूजे गुर पद कमल बहोरी। कीन्हि बिनय उर प्रीति न थोरी॥4॥

भावार्थ

उन्हें महल के भीतर ठहरने को उत्तम स्थान दिया, जिसमें राजा और सब रनिवास उनका मन जोहता रहे (अर्थात जिसमें राजा और महल की सारी रानियाँ स्वयं उनकी इच्छानुसार उनके आराम की ओर दृष्टि रख सकें) फिर राजा ने गुरु वशिष्ठजी के चरणकमलों की पूजा और विनती की। उनके हृदय में कम प्रीति न थी (अर्थात बहुत प्रीति थी)॥4॥

352

01 दोहा

बधुन्ह समेत कुमार सब रानिन्ह सहित महीसु।
पुनि पुनि बन्दत गुर चरन देत असीस मुनीसु॥352॥

मूल

बधुन्ह समेत कुमार सब रानिन्ह सहित महीसु।
पुनि पुनि बन्दत गुर चरन देत असीस मुनीसु॥352॥

भावार्थ

बहुओं सहित सब राजकुमार और सब रानियों समेत राजा बार-बार गुरुजी के चरणों की वन्दना करते हैं और मुनीश्वर आशीर्वाद देते हैं॥352॥

02 चौपाई

बिनय कीन्हि उर अति अनुरागें। सुत सम्पदा राखि सब आगें॥
नेगु मागि मुनिनायक लीन्हा। आसिरबादु बहुत बिधि दीन्हा॥1॥

मूल

बिनय कीन्हि उर अति अनुरागें। सुत सम्पदा राखि सब आगें॥
नेगु मागि मुनिनायक लीन्हा। आसिरबादु बहुत बिधि दीन्हा॥1॥

भावार्थ

राजा ने अत्यन्त प्रेमपूर्ण हृदय से पुत्रों को और सारी सम्पत्ति को सामने रखकर (उन्हें स्वीकार करने के लिए) विनती की, परन्तु मुनिराज ने (पुरोहित के नाते) केवल अपना नेग माँग लिया और बहुत तरह से आशीर्वाद दिया॥1॥

उर धरि रामहि सीय समेता। हरषि कीन्ह गुर गवनु निकेता॥
बिप्रबधू सब भूप बोलाईं। चैल चारु भूषन पहिराईं॥1॥

मूल

उर धरि रामहि सीय समेता। हरषि कीन्ह गुर गवनु निकेता॥
बिप्रबधू सब भूप बोलाईं। चैल चारु भूषन पहिराईं॥1॥

भावार्थ

फिर सीताजी सहित श्री रामचन्द्रजी को हृदय में रखकर गुरु वशिष्ठजी हर्षित होकर अपने स्थान को गए। राजा ने सब ब्राह्मणों की स्त्रियों को बुलवाया और उन्हें सुन्दर वस्त्र तथा आभूषण पहनाए॥2॥

बहुरि बोलाइ सुआसिनि लीन्हीं। रुचि बिचारि पहिरावनि दीन्हीं॥
नेगी नेग जोग जब लेहीं। रुचि अनुरूप भूपमनि देहीं॥3॥

मूल

बहुरि बोलाइ सुआसिनि लीन्हीं। रुचि बिचारि पहिरावनि दीन्हीं॥
नेगी नेग जोग जब लेहीं। रुचि अनुरूप भूपमनि देहीं॥3॥

भावार्थ

फिर अब सुआसिनियों को (नगर की सौभाग्यवती बहिन, बेटी, भानजी आदि को) बुलवा लिया और उनकी रुचि समझकर (उसी के अनुसार) उन्हें पहिरावनी दी। नेगी लोग सब अपना-अपना नेग-जोग लेते और राजाओं के शिरोमणि दशरथजी उनकी इच्छा के अनुसार देते हैं॥3॥

प्रिय पाहुने पूज्य जे जाने। भूपति भली भाँति सनमाने॥
देव देखि रघुबीर बिबाहू। बरषि प्रसून प्रसंसि उछाहू॥4॥

मूल

प्रिय पाहुने पूज्य जे जाने। भूपति भली भाँति सनमाने॥
देव देखि रघुबीर बिबाहू। बरषि प्रसून प्रसंसि उछाहू॥4॥

भावार्थ

जिन मेहमानों को प्रिय और पूजनीय जाना, उनका राजा ने भलीभाँति सम्मान किया। देवगण श्री रघुनाथजी का विवाह देखकर, उत्सव की प्रशंसा करके फूल बरसाते हुए-॥4॥

353

01 दोहा

चले निसान बजाइ सुर निज निज पुर सुख पाइ।
कहत परसपर राम जसु प्रेम न हृदयँ समाइ॥353॥

मूल

चले निसान बजाइ सुर निज निज पुर सुख पाइ।
कहत परसपर राम जसु प्रेम न हृदयँ समाइ॥353॥

भावार्थ

नगाडे बजाकर और (परम) सुख प्राप्त कर अपने-अपने लोकों को चले। वे एक-दूसरे से श्री रामजी का यश कहते जाते हैं। हृदय में प्रेम समाता नहीं है॥353॥

02 चौपाई

सब बिधि सबहि समदि नरनाहू। रहा हृदयँ भरि पूरि उछाहू॥
जहँ रनिवासु तहाँ पगु धारे। सहित बहूटिन्ह कुअँर निहारे॥1॥

मूल

सब बिधि सबहि समदि नरनाहू। रहा हृदयँ भरि पूरि उछाहू॥
जहँ रनिवासु तहाँ पगु धारे। सहित बहूटिन्ह कुअँर निहारे॥1॥

भावार्थ

सब प्रकार से सबका प्रेमपूर्वक भली-भाँति आदर-सत्कार कर लेने पर राजा दशरथजी के हृदय में पूर्ण उत्साह (आनन्द) भर गया। जहाँ रनिवास था, वे वहाँ पधारे और बहुओं समेत उन्होन्ने कुमारों को देखा॥1॥

लिए गोद करि मोद समेता। को कहि सकइ भयउ सुखु जेता॥
बधू सप्रेम गोद बैठारीं। बार बार हियँ हरषि दुलारीं॥2॥

मूल

लिए गोद करि मोद समेता। को कहि सकइ भयउ सुखु जेता॥
बधू सप्रेम गोद बैठारीं। बार बार हियँ हरषि दुलारीं॥2॥

भावार्थ

राजा ने आनन्द सहित पुत्रों को गोद में ले लिया। उस समय राजा को जितना सुख हुआ उसे कौन कह सकता है? फिर पुत्रवधुओं को प्रेम सहित गोदी में बैठाकर, बार-बार हृदय में हर्षित होकर उन्होन्ने उनका दुलार (लाड-चाव) किया॥2॥

देखि समाजु मुदित रनिवासू। सब कें उर अनन्द कियो बासू॥
कहेउ भूप जिमि भयउ बिबाहू। सुनि सुनि हरषु होत सब काहू॥3॥

मूल

देखि समाजु मुदित रनिवासू। सब कें उर अनन्द कियो बासू॥
कहेउ भूप जिमि भयउ बिबाहू। सुनि सुनि हरषु होत सब काहू॥3॥

भावार्थ

यह समाज (समारोह) देखकर रनिवास प्रसन्न हो गया। सबके हृदय में आनन्द ने निवास कर लिया। तब राजा ने जिस तरह विवाह हुआ था, वह सब कहा। उसे सुन-सुनकर सब किसी को हर्ष होता है॥3॥

जनक राज गुन सीलु बडाई। प्रीति रीति सम्पदा सुहाई॥
बहुबिधि भूप भाट जिमि बरनी। रानीं सब प्रमुदित सुनि करनी॥4॥

मूल

जनक राज गुन सीलु बडाई। प्रीति रीति सम्पदा सुहाई॥
बहुबिधि भूप भाट जिमि बरनी। रानीं सब प्रमुदित सुनि करनी॥4॥

भावार्थ

राजा जनक के गुण, शील, महत्व, प्रीति की रीति और सुहावनी सम्पत्ति का वर्णन राजा ने भाट की तरह बहुत प्रकार से किया। जनकजी की करनी सुनकर सब रानियाँ बहुत प्रसन्न हुईं॥4॥

354

01 दोहा

सुतन्ह समेत नहाइ नृप बोलि बिप्र गुर ग्याति।
भोजन कीन्ह अनेक बिधि घरी पञ्च गइ राति॥354॥

मूल

सुतन्ह समेत नहाइ नृप बोलि बिप्र गुर ग्याति।
भोजन कीन्ह अनेक बिधि घरी पञ्च गइ राति॥354॥

भावार्थ

पुत्रों सहित स्नान करके राजा ने ब्राह्मण, गुरु और कुटुम्बियों को बुलाकर अनेक प्रकार के भोजन किए। (यह सब करते-करते) पाँच घडी रात बीत गई॥354॥

02 चौपाई

मङ्गलगान करहिं बर भामिनि। भै सुखमूल मनोहर जामिनि॥
अँचइ पान सब काहूँ पाए। स्रग सुगन्ध भूषित छबि छाए॥1॥

मूल

मङ्गलगान करहिं बर भामिनि। भै सुखमूल मनोहर जामिनि॥
अँचइ पान सब काहूँ पाए। स्रग सुगन्ध भूषित छबि छाए॥1॥

भावार्थ

सुन्दर स्त्रियाँ मङ्गलगान कर रही हैं। वह रात्रि सुख की मूल और मनोहारिणी हो गई। सबने आचमन करके पान खाए और फूलों की माला, सुगन्धित द्रव्य आदि से विभूषित होकर सब शोभा से छा गए॥1॥

रामहि देखि रजायसु पाई। निज निज भवन चले सिर नाई॥
प्रेम प्रमोदु बिनोदु बडाई। समउ समाजु मनोहरताई॥2॥

मूल

रामहि देखि रजायसु पाई। निज निज भवन चले सिर नाई॥
प्रेम प्रमोदु बिनोदु बडाई। समउ समाजु मनोहरताई॥2॥

भावार्थ

श्री रामचन्द्रजी को देखकर और आज्ञा पाकर सब सिर नवाकर अपने-अपने घर को चले। वहाँ के प्रेम, आनन्द, विनोद, महत्व, समय, समाज और मनोहरता को-॥2॥

कहि न सकहिं सतसारद सेसू। बेद बिरञ्चि महेस गनेसू॥
सो मैं कहौं कवन बिधि बरनी। भूमिनागु सिर धरइ कि धरनी॥3॥

मूल

कहि न सकहिं सतसारद सेसू। बेद बिरञ्चि महेस गनेसू॥
सो मैं कहौं कवन बिधि बरनी। भूमिनागु सिर धरइ कि धरनी॥3॥

भावार्थ

सैकडों सरस्वती, शेष, वेद, ब्रह्मा, महादेवजी और गणेशजी भी नहीं कह सकते। फिर भला मैं उसे किस प्रकार से बखानकर कहूँ? कहीं केञ्चुआ भी धरती को सिर पर ले सकता है?॥3॥

नृप सब भाँति सबहि सनमानी। कहि मृदु बचन बोलाईं रानी॥
बधू लरिकनीं पर घर आईं। राखेहु नयन पलक की नाई॥4॥

मूल

नृप सब भाँति सबहि सनमानी। कहि मृदु बचन बोलाईं रानी॥
बधू लरिकनीं पर घर आईं। राखेहु नयन पलक की नाई॥4॥

भावार्थ

राजा ने सबका सब प्रकार से सम्मान करके, कोमल वचन कहकर रानियों को बुलाया और कहा- बहुएँ अभी बच्ची हैं, पराए घर आई हैं। इनको इस तरह से रखना जैसे नेत्रों को पलकें रखती हैं (जैसे पलकें नेत्रों की सब प्रकार से रक्षा करती हैं और उन्हें सुख पहुँचाती हैं, वैसे ही इनको सुख पहुँचाना)॥4॥

355

01 दोहा

लरिका श्रमित उनीद बस सयन करावहु जाइ।
अस कहि गे बिश्रामगृहँ राम चरन चितु लाइ॥355॥

मूल

लरिका श्रमित उनीद बस सयन करावहु जाइ।
अस कहि गे बिश्रामगृहँ राम चरन चितु लाइ॥355॥

भावार्थ

लडके थके हुए नीन्द के वश हो रहे हैं, इन्हें ले जाकर शयन कराओ। ऐसा कहकर राजा श्री रामचन्द्रजी के चरणों में मन लगाकर विश्राम भवन में चले गए॥355॥

02 चौपाई

भूप बचन सुनि सहज सुहाए। जरित कनक मनि पलँग डसाए॥
सुभग सुरभि पय फेन समाना। कोमल कलित सुपेतीं नाना॥1॥

मूल

भूप बचन सुनि सहज सुहाए। जरित कनक मनि पलँग डसाए॥
सुभग सुरभि पय फेन समाना। कोमल कलित सुपेतीं नाना॥1॥

भावार्थ

राजा के स्वाभव से ही सुन्दर वचन सुनकर (रानियों ने) मणियों से जडे सुवर्ण के पलँग बिछवाए। (गद्दों पर) गो के फेन के समान सुन्दर एवं कोमल अनेकों सफेद चादरें बिछाईं॥1॥

उपबरहन बर बरनि न जाहीं। स्रग सुगन्ध मनिमन्दिर माहीं॥
रतनदीप सुठि चारु चँदोवा। कहत न बनइ जान जेहिं जोवा॥2॥

मूल

उपबरहन बर बरनि न जाहीं। स्रग सुगन्ध मनिमन्दिर माहीं॥
रतनदीप सुठि चारु चँदोवा। कहत न बनइ जान जेहिं जोवा॥2॥

भावार्थ

सुन्दर तकियों का वर्णन नहीं किया जा सकता। मणियों के मन्दिर में फूलों की मालाएँ और सुगन्ध द्रव्य सजे हैं। सुन्दर रत्नों के दीपकों और सुन्दर चँदोवे की शोभा कहते नहीं बनती। जिसने उन्हें देखा हो, वही जान सकता है॥2॥

सेज रुचिर रचि रामु उठाए। प्रेम समेत पलँग पौढाए॥
अग्या पुनि पुनि भाइन्ह दीन्ही। निज निज सेज सयन तिन्ह कीन्ही॥3॥

मूल

सेज रुचिर रचि रामु उठाए। प्रेम समेत पलँग पौढाए॥
अग्या पुनि पुनि भाइन्ह दीन्ही। निज निज सेज सयन तिन्ह कीन्ही॥3॥

भावार्थ

इस प्रकार सुन्दर शय्या सजाकर (माताओं ने) श्री रामचन्द्रजी को उठाया और प्रेम सहित पलँग पर पौढाया। श्री रामजी ने बार-बार भाइयों को आज्ञा दी। तब वे भी अपनी-अपनी शय्याओं पर सो गए॥3॥

देखि स्याम मृदु मञ्जुल गाता। कहहिं सप्रेम बचन सब माता॥
मारग जात भयावनि भारी। केहि बिधि तात ताडका मारी॥4॥

मूल

देखि स्याम मृदु मञ्जुल गाता। कहहिं सप्रेम बचन सब माता॥
मारग जात भयावनि भारी। केहि बिधि तात ताडका मारी॥4॥

भावार्थ

श्री रामजी के साँवले सुन्दर कोमल अँगों को देखकर सब माताएँ प्रेम सहित वचन कह रही हैं- हे तात! मार्ग में जाते हुए तुमने बडी भयावनी ताडका राक्षसी को किस प्रकार से मारा?॥4॥

356

01 दोहा

घोर निसाचर बिकट भट समर गनहिं नहिं काहु।
मारे सहित सहाय किमि खल मारीच सुबाहु॥356॥

मूल

घोर निसाचर बिकट भट समर गनहिं नहिं काहु।
मारे सहित सहाय किमि खल मारीच सुबाहु॥356॥

भावार्थ

बडे भयानक राक्षस, जो विकट योद्धा थे और जो युद्ध में किसी को कुछ नहीं गिनते थे, उन दुष्ट मारीच और सुबाहु को सहायकों सहित तुमने कैसे मारा?॥356॥

02 चौपाई

मुनि प्रसाद बलि तात तुम्हारी। ईस अनेक करवरें टारी॥
मख रखवारी करि दुहुँ भाईं। गुरु प्रसाद सब बिद्या पाईं॥1॥

मूल

मुनि प्रसाद बलि तात तुम्हारी। ईस अनेक करवरें टारी॥
मख रखवारी करि दुहुँ भाईं। गुरु प्रसाद सब बिद्या पाईं॥1॥

भावार्थ

हे तात! मैं बलैया लेती हूँ, मुनि की कृपा से ही ईश्वर ने तुम्हारी बहुत सी बलाओं को टाल दिया। दोनों भाइयों ने यज्ञ की रखवाली करके गुरुजी के प्रसाद से सब विद्याएँ पाईं॥1॥

मुनितिय तरी लगत पग धूरी। कीरति रही भुवन भरि पूरी॥
कमठ पीठि पबि कूट कठोरा। नृप समाज महुँ सिव धनु तोरा॥2॥

मूल

मुनितिय तरी लगत पग धूरी। कीरति रही भुवन भरि पूरी॥
कमठ पीठि पबि कूट कठोरा। नृप समाज महुँ सिव धनु तोरा॥2॥

भावार्थ

चरणों की धूलि लगते ही मुनि पत्नी अहल्या तर गई। विश्वभर में यह कीर्ति पूर्ण रीति से व्याप्त हो गई। कच्छप की पीठ, वज्र और पर्वत से भी कठोर शिवजी के धनुष को राजाओं के समाज में तुमने तोड दिया!॥2॥

बिस्व बिजय जसु जानकि पाई। आए भवन ब्याहि सब भाई॥
सकल अमानुष करम तुम्हारे। केवल कौसिक कृपाँ सुधारे॥3॥

मूल

बिस्व बिजय जसु जानकि पाई। आए भवन ब्याहि सब भाई॥
सकल अमानुष करम तुम्हारे। केवल कौसिक कृपाँ सुधारे॥3॥

भावार्थ

विश्वविजय के यश और जानकी को पाया और सब भाइयों को ब्याहकर घर आए। तुम्हारे सभी कर्म अमानुषी हैं (मनुष्य की शक्ति के बाहर हैं), जिन्हें केवल विश्वामित्रजी की कृपा ने सुधारा है (सम्पन्न किया है)॥3॥

आजु सुफल जग जनमु हमारा। देखि तात बिधुबदन तुम्हारा॥
जे दिन गए तुम्हहि बिनु देखें। ते बिरञ्चि जनि पारहिं लेखें॥4॥

मूल

आजु सुफल जग जनमु हमारा। देखि तात बिधुबदन तुम्हारा॥
जे दिन गए तुम्हहि बिनु देखें। ते बिरञ्चि जनि पारहिं लेखें॥4॥

भावार्थ

हे तात! तुम्हारा चन्द्रमुख देखकर आज हमारा जगत में जन्म लेना सफल हुआ। तुमको बिना देखे जो दिन बीते हैं, उनको ब्रह्मा गिनती में न लावें (हमारी आयु में शामिल न करें)॥4॥

357

01 दोहा

राम प्रतोषीं मातु सब कहि बिनीत बर बैन।
सुमिरि सम्भु गुरु बिप्र पद किए नीदबस नैन॥357॥

मूल

राम प्रतोषीं मातु सब कहि बिनीत बर बैन।
सुमिरि सम्भु गुरु बिप्र पद किए नीदबस नैन॥357॥

भावार्थ

विनय भरे उत्तम वचन कहकर श्री रामचन्द्रजी ने सब माताओं को सन्तुष्ट किया। फिर शिवजी, गुरु और ब्राह्मणों के चरणों का स्मरण कर नेत्रों को नीन्द के वश किया। (अर्थात वे सो रहे)॥357॥

02 चौपाई

नीदउँ बदन सोह सुठि लोना। मनहुँ साँझ सरसीरुह सोना॥
घर घर करहिं जागरन नारीं। देहिं परसपर मङ्गल गारीं॥1॥

मूल

नीदउँ बदन सोह सुठि लोना। मनहुँ साँझ सरसीरुह सोना॥
घर घर करहिं जागरन नारीं। देहिं परसपर मङ्गल गारीं॥1॥

भावार्थ

नीन्द में भी उनका अत्यन्त सलोना मुखडा ऐसा सोह रहा था, मानो सन्ध्या के समय का लाल कमल सोह रहा हो। स्त्रियाँ घर-घर जागरण कर रही हैं और आपस में (एक-दूसरी को) मङ्गलमयी गालियाँ दे रही हैं॥1॥

पुरी बिराजति राजति रजनी। रानीं कहहिं बिलोकहु सजनी॥
सुन्दर बधुन्ह सासु लै सोईं। फनिकन्ह जनु सिरमनि उर गोईं॥2॥

मूल

पुरी बिराजति राजति रजनी। रानीं कहहिं बिलोकहु सजनी॥
सुन्दर बधुन्ह सासु लै सोईं। फनिकन्ह जनु सिरमनि उर गोईं॥2॥

भावार्थ

रानियाँ कहती हैं- हे सजनी! देखो, (आज) रात्रि की कैसी शोभा है, जिससे अयोध्यापुरी विशेष शोभित हो रही है! (यों कहती हुई) सासुएँ सुन्दर बहुओं को लेकर सो गईं, मानो सर्पों ने अपने सिर की मणियों को हृदय में छिपा लिया है॥2॥

प्रात पुनीत काल प्रभु जागे। अरुनचूड बर बोलन लागे॥
बन्दि मागधन्हि गुनगन गाए। पुरजन द्वार जोहारन आए॥3॥

मूल

प्रात पुनीत काल प्रभु जागे। अरुनचूड बर बोलन लागे॥
बन्दि मागधन्हि गुनगन गाए। पुरजन द्वार जोहारन आए॥3॥

भावार्थ

प्रातःकाल पवित्र ब्रह्म मुहूर्त में प्रभु जागे। मुर्गे सुन्दर बोलने लगे। भाट और मागधों ने गुणों का गान किया तथा नगर के लोग द्वार पर जोहार करने को आए॥3॥

बन्दि बिप्र सुर गुर पितु माता। पाइ असीस मुदित सब भ्राता॥
जननिन्ह सादर बदन निहारे। भूपति सङ्ग द्वार पगु धारे॥4॥

मूल

बन्दि बिप्र सुर गुर पितु माता। पाइ असीस मुदित सब भ्राता॥
जननिन्ह सादर बदन निहारे। भूपति सङ्ग द्वार पगु धारे॥4॥

भावार्थ

ब्राह्मणों, देवताओं, गुरु, पिता और माताओं की वन्दना करके आशीर्वाद पाकर सब भाई प्रसन्न हुए। माताओं ने आदर के साथ उनके मुखों को देखा। फिर वे राजा के साथ दरवाजे (बाहर) पधारे॥4॥

358

01 दोहा

कीन्हि सौच सब सहज सुचि सरित पुनीत नहाइ।
प्रातक्रिया करि तात पहिं आए चारिउ भाइ॥358॥

मूल

कीन्हि सौच सब सहज सुचि सरित पुनीत नहाइ।
प्रातक्रिया करि तात पहिं आए चारिउ भाइ॥358॥

भावार्थ

स्वभाव से ही पवित्र चारों भाइयों ने सब शौचादि से निवृत्त होकर पवित्र सरयू नदी में स्नान किया और प्रातःक्रिया (सन्ध्या वन्दनादि) करके वे पिता के पास आए॥358॥

नवाह्नपारायण, तीसरा विश्राम

मूल

नवाह्नपारायण, तीसरा विश्राम

02 चौपाई

भूप बिलोकि लिए उर लाई। बैठे हरषि रजायसु पाई॥
देखि रामु सब सभा जुडानी। लोचन लाभ अवधि अनुमानी॥1॥

मूल

भूप बिलोकि लिए उर लाई। बैठे हरषि रजायसु पाई॥
देखि रामु सब सभा जुडानी। लोचन लाभ अवधि अनुमानी॥1॥

भावार्थ

राजा ने देखते ही उन्हें हृदय से लगा लिया। तदनन्तर वे आज्ञा पाकर हर्षित होकर बैठ गए। श्री रामचन्द्रजी के दर्शन कर और नेत्रों के लाभ की बस यही सीमा है, ऐसा अनुमान कर सारी सभा शीतल हो गई। (अर्थात सबके तीनों प्रकार के ताप सदा के लिए मिट गए)॥1॥

पुनि बसिष्टु मुनि कौसिकु आए। सुभग आसनन्हि मुनि बैठाए॥
सुतन्ह समेत पूजि पद लागे। निरखि रामु दोउ गुर अनुरागे॥2॥

मूल

पुनि बसिष्टु मुनि कौसिकु आए। सुभग आसनन्हि मुनि बैठाए॥
सुतन्ह समेत पूजि पद लागे। निरखि रामु दोउ गुर अनुरागे॥2॥

भावार्थ

फिर मुनि वशिष्ठजी और विश्वामित्रजी आए। राजा ने उनको सुन्दर आसनों पर बैठाया और पुत्रों समेत उनकी पूजा करके उनके चरणों लगे। दोनों गुरु श्री रामजी को देखकर प्रेम में मुग्ध हो गए॥2॥

कहहिं बसिष्टु धरम इतिहासा। सुनहिं महीसु सहित रनिवासा॥
मुनि मन अगम गाधिसुत करनी। मुदित बसिष्ठ बिपुल बिधि बरनी॥3॥

मूल

कहहिं बसिष्टु धरम इतिहासा। सुनहिं महीसु सहित रनिवासा॥
मुनि मन अगम गाधिसुत करनी। मुदित बसिष्ठ बिपुल बिधि बरनी॥3॥

भावार्थ

वशिष्ठजी धर्म के इतिहास कह रहे हैं और राजा रनिवास सहित सुन रहे हैं, जो मुनियों के मन को भी अगम्य है, ऐसी विश्वामित्रजी की करनी को वशिष्ठजी ने आनन्दित होकर बहुत प्रकार से वर्णन किया॥3॥

बोले बामदेउ सब साँची। कीरति कलित लोक तिहुँ माची॥
सुनि आनन्दु भयउ सब काहू। राम लखन उर अधिक उछाहू॥4॥

मूल

बोले बामदेउ सब साँची। कीरति कलित लोक तिहुँ माची॥
सुनि आनन्दु भयउ सब काहू। राम लखन उर अधिक उछाहू॥4॥

भावार्थ

वामदेवजी बोले- ये सब बातें सत्य हैं। विश्वामित्रजी की सुन्दर कीर्ति तीनों लोकों में छाई हुई है। यह सुनकर सब किसी को आनन्द हुआ। श्री राम-लक्ष्मण के हृदय में अधिक उत्साह (आनन्द) हुआ॥4॥

359

01 दोहा

मङ्गल मोद उछाह नित जाहिं दिवस एहि भाँति।
उमगी अवध अनन्द भरि अधिक अधिक अधिकाति॥359॥

मूल

मङ्गल मोद उछाह नित जाहिं दिवस एहि भाँति।
उमगी अवध अनन्द भरि अधिक अधिक अधिकाति॥359॥

भावार्थ

नित्य ही मङ्गल, आनन्द और उत्सव होते हैं, इस तरह आनन्द में दिन बीतते जाते हैं। अयोध्या आनन्द से भरकर उमड पडी, आनन्द की अधिकता अधिक-अधिक बढती ही जा रही है॥359॥

02 चौपाई

सुदिन सोधि कल कङ्कन छोरे। मङ्गल मोद बिनोद न थोरे॥
नित नव सुखु सुर देखि सिहाहीं। अवध जन्म जाचहिं बिधि पाहीं॥1॥

मूल

सुदिन सोधि कल कङ्कन छोरे। मङ्गल मोद बिनोद न थोरे॥
नित नव सुखु सुर देखि सिहाहीं। अवध जन्म जाचहिं बिधि पाहीं॥1॥

भावार्थ

अच्छा दिन (शुभ मुहूर्त) शोधकर सुन्दर कङ्कण खोले गए। मङ्गल, आनन्द और विनोद कुछ कम नहीं हुए (अर्थात बहुत हुए)। इस प्रकार नित्य नए सुख को देखकर देवता सिहाते हैं और अयोध्या में जन्म पाने के लिए ब्रह्माजी से याचना करते हैं॥1॥

बिस्वामित्रु चलन नित चहहीं। राम सप्रेम बिनय बस रहहीं॥
दिन दिन सयगुन भूपति भाऊ। देखि सराह महामुनिराऊ॥2॥

मूल

बिस्वामित्रु चलन नित चहहीं। राम सप्रेम बिनय बस रहहीं॥
दिन दिन सयगुन भूपति भाऊ। देखि सराह महामुनिराऊ॥2॥

भावार्थ

विश्वामित्रजी नित्य ही चलना (अपने आश्रम जाना) चाहते हैं, पर रामचन्द्रजी के स्नेह और विनयवश रह जाते हैं। दिनोन्दिन राजा का सौ गुना भाव (प्रेम) देखकर महामुनिराज विश्वामित्रजी उनकी सराहना करते हैं॥2॥

मागत बिदा राउ अनुरागे। सुतन्ह समेत ठाढ भे आगे॥
नाथ सकल सम्पदा तुम्हारी। मैं सेवकु समेत सुत नारी॥3॥

मूल

मागत बिदा राउ अनुरागे। सुतन्ह समेत ठाढ भे आगे॥
नाथ सकल सम्पदा तुम्हारी। मैं सेवकु समेत सुत नारी॥3॥

भावार्थ

अन्त में जब विश्वामित्रजी ने विदा माँगी, तब राजा प्रेममग्न हो गए और पुत्रों सहित आगे खडे हो गए। (वे बोले-) हे नाथ! यह सारी सम्पदा आपकी है। मैं तो स्त्री-पुत्रों सहित आपका सेवक हूँ॥3॥

करब सदा लरिकन्ह पर छोहू। दरसनु देत रहब मुनि मोहू॥
अस कहि राउ सहित सुत रानी। परेउ चरन मुख आव न बानी॥4॥

मूल

करब सदा लरिकन्ह पर छोहू। दरसनु देत रहब मुनि मोहू॥
अस कहि राउ सहित सुत रानी। परेउ चरन मुख आव न बानी॥4॥

भावार्थ

हे मुनि! लडकों पर सदा स्नेह करते रहिएगा और मुझे भी दर्शन देते रहिएगा। ऐसा कहकर पुत्रों और रानियों सहित राजा दशरथजी विश्वामित्रजी के चरणों पर गिर पडे, (प्रेमविह्वल हो जाने के कारण) उनके मुँह से बात नहीं निकलती॥4॥

दीन्हि असीस बिप्र बहु भाँति। चले न प्रीति रीति कहि जाती॥
रामु सप्रेम सङ्ग सब भाई। आयसु पाइ फिरे पहुँचाई॥5॥

मूल

दीन्हि असीस बिप्र बहु भाँति। चले न प्रीति रीति कहि जाती॥
रामु सप्रेम सङ्ग सब भाई। आयसु पाइ फिरे पहुँचाई॥5॥

भावार्थ

ब्राह्मण विश्वमित्रजी ने बहुत प्रकार से आशीर्वाद दिए और वे चल पडे।

प्रीति की रीति कही नहीं जीती। सब भाइयों को साथ लेकर श्री रामजी प्रेम के साथ उन्हें पहुँचाकर और आज्ञा पाकर लौटे॥5॥

360

01 दोहा

राम रूपु भूपति भगति ब्याहु उछाहु अनन्दु।
जात सराहत मनहिं मन मुदित गाधिकुलचन्दु॥360॥

मूल

राम रूपु भूपति भगति ब्याहु उछाहु अनन्दु।
जात सराहत मनहिं मन मुदित गाधिकुलचन्दु॥360॥

भावार्थ

गाधिकुल के चन्द्रमा विश्वामित्रजी बडे हर्ष के साथ श्री रामचन्द्रजी के रूप, राजा दशरथजी की भक्ति, (चारों भाइयों के) विवाह और (सबके) उत्साह और आनन्द को मन ही मन सराहते जाते हैं॥360॥

02 चौपाई

बामदेव रघुकुल गुर ग्यानी। बहुरि गाधिसुत कथा बखानी॥
सुनि मुनि सुजसु मनहिं मन राऊ। बरनत आपन पुन्य प्रभाऊ॥1॥

मूल

बामदेव रघुकुल गुर ग्यानी। बहुरि गाधिसुत कथा बखानी॥
सुनि मुनि सुजसु मनहिं मन राऊ। बरनत आपन पुन्य प्रभाऊ॥1॥

भावार्थ

वामदेवजी और रघुकुल के गुरु ज्ञानी वशिष्ठजी ने फिर विश्वामित्रजी की कथा बखानकर कही। मुनि का सुन्दर यश सुनकर राजा मन ही मन अपने पुण्यों के प्रभाव का बखान करने लगे॥1॥

बहुरे लोग रजायसु भयऊ। सुतन्ह समेत नृपति गृहँ गयऊ॥
जहँ तहँ राम ब्याहु सबु गावा। सुजसु पुनीत लोक तिहुँ छावा॥2॥

मूल

बहुरे लोग रजायसु भयऊ। सुतन्ह समेत नृपति गृहँ गयऊ॥
जहँ तहँ राम ब्याहु सबु गावा। सुजसु पुनीत लोक तिहुँ छावा॥2॥

भावार्थ

आज्ञा हुई तब सब लोग (अपने-अपने घरों को) लौटे। राजा दशरथजी भी पुत्रों सहित महल में गए। जहाँ-तहाँ सब श्री रामचन्द्रजी के विवाह की गाथाएँ गा रहे हैं। श्री रामचन्द्रजी का पवित्र सुयश तीनों लोकों में छा गया॥2॥

आए ब्याहि रामु घर जब तें। बसइ अनन्द अवध सब तब तें॥
प्रभु बिबाहँ जस भयउ उछाहू। सकहिं न बरनि गिरा अहिनाहू॥3॥

मूल

आए ब्याहि रामु घर जब तें। बसइ अनन्द अवध सब तब तें॥
प्रभु बिबाहँ जस भयउ उछाहू। सकहिं न बरनि गिरा अहिनाहू॥3॥

भावार्थ

जब से श्री रामचन्द्रजी विवाह करके घर आए, तब से सब प्रकार का आनन्द अयोध्या में आकर बसने लगा। प्रभु के विवाह में आनन्द-उत्साह हुआ, उसे सरस्वती और सर्पों के राजा शेषजी भी नहीं कह सकते॥3॥

कबिकुल जीवनु पावन जानी। राम सीय जसु मङ्गल खानी॥
तेहि ते मैं कछु कहा बखानी। करन पुनीत हेतु निज बानी॥4॥

मूल

कबिकुल जीवनु पावन जानी। राम सीय जसु मङ्गल खानी॥
तेहि ते मैं कछु कहा बखानी। करन पुनीत हेतु निज बानी॥4॥

भावार्थ

श्री सीतारामजी के यश को कविकुल के जीवन को पवित्र करने वाला और मङ्गलों की खान जानकर, इससे मैन्ने अपनी वाणी को पवित्र करने के लिए कुछ (थोडा सा) बखानकर कहा है॥4॥

03 छन्द

निज गिरा पावनि करन कारन राम जसु तुलसीं कह्यो।
रघुबीर चरित अपार बारिधि पारु कबि कौनें लह्यो॥
उपबीत ब्याह उछाह मङ्गल सुनि जे सादर गावहीं।
बैदेहि राम प्रसाद ते जन सर्बदा सुखु पावहीं॥

मूल

निज गिरा पावनि करन कारन राम जसु तुलसीं कह्यो।
रघुबीर चरित अपार बारिधि पारु कबि कौनें लह्यो॥
उपबीत ब्याह उछाह मङ्गल सुनि जे सादर गावहीं।
बैदेहि राम प्रसाद ते जन सर्बदा सुखु पावहीं॥

भावार्थ

अपनी वाणी को पवित्र करने के लिए तुलसी ने राम का यश कहा है।

(नहीं तो) श्री रघुनाथजी का चरित्र अपार समुद्र है, किस कवि ने उसका पार पाया है? जो लोग यज्ञोपवीत और विवाह के मङ्गलमय उत्सव का वर्णन आदर के साथ सुनकर गावेङ्गे, वे लोग श्री जानकीजी और श्री रामजी की कृपा से सदा सुख पावेङ्गे।

361

01 सोरठा

सिय रघुबीर बिबाहु जे सप्रेम गावहिं सुनहिं।
तिन्ह कहुँ सदा उछाहु मङ्गलायतन राम जसु॥361॥

मूल

सिय रघुबीर बिबाहु जे सप्रेम गावहिं सुनहिं।
तिन्ह कहुँ सदा उछाहु मङ्गलायतन राम जसु॥361॥

भावार्थ

श्री सीताजी और श्री रघुनाथजी के विवाह प्रसङ्ग को जो लोग प्रेमपूर्वक गाएँ-सुनेङ्गे, उनके लिए सदा उत्साह (आनन्द) ही उत्साह है, क्योङ्कि श्री रामचन्द्रजी का यश मङ्गल का धाम है॥361॥

मासपारायण, बारहवाँ विश्राम
इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने प्रथमः सोपानः समाप्तः।
कलियुग के सम्पूर्ण पापों को विध्वंस करने वाले श्री रामचरित मानस का यह पहला सोपान समाप्त हुआ॥

(बालकाण्ड समाप्त)