१५ सन्नन्त

समस्त धातुओं के सन्नन्त रूप बनाने की विधि

धातोः कर्मणः समानकर्तृकादिच्छायां वा - इच्छा क्रिया का जो कर्म, उसका वाचक जो धातु, उसका तथा इच्छा क्रिया का कर्ता यदि एक ही हो, तो इच्छा क्रिया के कर्म के वाचक धातु से, इच्छा अर्थ में सन् प्रत्यय विकल्प से लगता है। जैसे -

. देवदत्तः कर्तुं इच्छति = देवदत्त करना चाहता है। इस वाक्य में, इच्छा क्रिया का कर्म है ‘कर्तुम्’। इस ‘करना’ क्रिया का तथा इच्छा क्रिया का कर्ता एक

ही है। इसलिये इच्छति क्रिया समानकर्तृक है। इस करना’ क्रिया के वाचक ‘कृ’ धातु से विकल्प से सन् प्रत्यय लगता है।

__विकल्प से’ कहने का तात्पर्य यह है कि हम देवदत्त करना चाहता है’, इस वाक्य को देवदत्तः कर्तुम् इच्छति’ भी कह सकते हैं, तथा उसी के बदले कृ धातु में सन् लगाकर देवदत्तः चिकीर्षति’ भी कह सकते हैं।

देवदत्त जाना चाहता है’ इस वाक्य को हम दवदत्तः गन्तुम् इच्छति’ भी कह सकते हैं, तथा उसी के बदले गम् धातु में सन् लगाकर दवदत्तः जिगमिषति’ भी कह सकते हैं।

देवदत्त देखना चाहता है’ इस वाक्य को हम देवदत्तः द्रष्टुम् इच्छति’ भी कह सकते हैं. तथा उसी के बदले दृश् धातु में सन् लगाकर देवदत्तः दिदृक्षति’ भी कह सकते हैं।

धातुओं में सन् प्रत्यय को लगाने में महान् प्रपञ्च है अतः इस कार्य को हमें खण्ड खण्ड में ही सीखना चाहिये। पूरा धातुरूप एक साथ बना लेने का प्रयास नहीं करना चाहिये।

धातुओं में सन् प्रत्यय लगाकर धातुरूप बनाने का भी जो कार्य होता है उसके अनेक खण्ड होते हैं। ये खण्ड इस प्रकार हैं -

धात्वादेश, षत्व विधि, इडागम विधि, अतिदेश सूत्र, अङ्गकार्य, सन्धि, द्वित्वविधि तथा अभ्यासकार्य। इन्हें हम एक एक करके जानें -

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अष्टाध्यायी सहजबोध .

धात्वादेश

सन् प्रत्यय परे होने पर इन धातुओं के स्थान पर इस प्रकार आदेश (परिवर्तन) कीजिये -

लुङ्सनोर्घस्लु - लुङ् तथा सन् प्रत्यय परे होने पर, अद् धातु को घस्लु (घस्) आदेश होता है।

सनि च - सन् प्रत्यय परे होने पर, अबोधनार्थक इण् धातु को गम् आदेश होता है।

इङश्च - सन् प्रत्यय परे होने पर, अबोधनार्थक इङ् धातु को भी गम् आदेश होता है।

__ अस्तेर्भूः - सारे आर्धधातुक प्रत्यय परे होने पर अस् धातु को भू आदेश होता है।

ब्रुवो वचि - सारे आर्धधातुक प्रत्यय परे होने पर ब्रू धातु को वच् आदेश होता है।

चक्षिङ् ख्याञ् - सारे आर्धधातुक प्रत्यय परे होने पर चक्ष् धातु को ख्या आदेश होता है।

__ अजेळघञपोः- घञ्, अप् इन दो आर्धधातुक प्रत्ययों को छोड़कर शेष सारे आर्धधातुक प्रत्यय परे होने पर अज् धातु को वी आदेश होता है।

आदेच उपदेशेऽशिति - शित् प्रत्यय परे न होने पर सारे एजन्त धातुओं को ‘आ’ अन्तादेश होता है। अतः सन् प्रत्यय परे होने पर सारे एजन्त धातुओं को ‘आ’ अन्तादेश होगा। ग्लै - ग्ला, म्लै - म्ला, ध्यै - ध्या, शो - शा, सो - सा, वे - वा छो - छा आदि।

__ जब भी सन् प्रत्यय परे हो, इन धातुओं को ये आदेश अवश्य करें।

इडागम विधि

आर्धधातुकं शेषः - धातुओं से लगने वाले जो भी प्रत्यय हैं, उन प्रत्ययों में से तिङ् शित् प्रत्ययों को छोड़ दिया जाये, तो जो प्रत्यय बचते हैं, उनका नाम आर्धधातुक प्रत्यय होता है। अतः ‘सन्’, यह आर्धधातुक प्रत्यय है, यह जानिये।

__ आर्धधातुकस्येड् वलादेः - वलादि आर्धधातुक प्रत्यय को इट् = इ का आगम होता है। जिसे इट का आगम होता है, उसे सेट् प्रत्यय कहते हैं।

‘सन्’ प्रत्यय भी वलादि आर्धधातुक होने से सेट् प्रत्यय है, किन्तु केवल प्रत्यय के सेट हो जाने से ही प्रत्यय को इडागम नहीं हो जाता है।

यदि प्रत्यय सेट है तो फिर यहाँ हमें यह विचार करना चाहिये कि क्या

समस्त धातुओं के सन्नन्त के रूप बनाने की विधि

वह धातु भी सेट है जिससे यह सेट् प्रत्यय लगाया गया है ?

यदि धातु भी सेट् हो, तभी उस धातु से लगे हुए वलादि आर्धधातुक सेट् प्रत्यय को इडागम कीजिये। इसी का नाम इडागम विचार है। जैसे -

‘बुभूषति’ को देखिये । यहाँ सन् प्रत्यय के पूर्व में आकर ‘इट’ नहीं बैठा है। ‘लिलेखिषति’ को देखिये । यहाँ सन् प्रत्यय के पूर्व में आकर ‘इट् - इ’ बैठा है। प्रत्यय के पूर्व में ‘इट’ बैठने को ही इडागम होना कहते हैं।

जिन धातुओं के बाद आने वाले सन् प्रत्यय को ‘आर्धधातुकस्येड् वलादेः’ सूत्र से यह ‘इडागम’ होता है, उन्हें सेट् धातु कहते हैं।

जिन धातुओं के बाद आने वाले सन् प्रत्यय को ‘आर्धधातुकस्येड् वलादेः’ सूत्र से यह ‘इडागम’ नहीं होता है, उन्हें अनिट् धातु कहते हैं।

कब हम सन् प्रत्यय को इडागम करें, कब न करें, यह जानने के लिये हम सेट् अनिट् धातु पहिचानने की विधि बतला रहे हैं ताकि यह निर्णय हो सके कि किस धातु से परे आने वाले सन् प्रत्यय को इट का आगम करना है तथा किस धातु से परे आने वाले सन् प्रत्यय को इट् का आगम नहीं करना है।

सेट तथा अनिट् धातुओं को पहिचानने की विधि

पहिले हम यह विधि विस्तार से बतलायेंगे, उसके बाद उसका निष्कर्ष अन्त में देंगे।

१. जिन धातुओं में एक से अधिक अच् होते हैं, उन्हें अनेकाच् धातु कहते हैं। ऐसे अनेकाच् धातु सदा सेट होते हैं, जैसे - जागृ, चकास् आदि।

जब किसी एकाच् धातु में णिच् आदि कोई प्रत्यय लगाकर उसे अनेकाच् बना दिया जाता है, तब वह एकाच् धातु भी अनेकाच् हो जाने से सेट हो जाता है, जैसे - कृ धातु अनिट् है, किन्तु जब इसमें णिच् प्रत्यय लगकर यह कृ + णिच् - बन जाता है, तब यह सेट हो जाता है।

इसी प्रकार सारे प्रत्ययान्त धातु अनेकाच् हो जाने से सेट हो जाते हैं। अतः जो एकाच अर्थात् एक अच् वाले धातु हैं, वे ही अनिट् हो सकते हैं, किन्तु सब नहीं।

अतः अब हम एकाच धातुओं के अन्तिम वर्ण को क्रम से रखकर, धातुओं का सेट, अनिट् विभाजन दे रहे हैं, इन्हें याद करके जानिये कि कौन से धातु सेट हैं और कौन से अनिट् ।।

सेट तथा अनिट् अजन्त धातुओं को पहिचानने की विधि १. एकाच आकारान्त धातु - सारे एकाच आकारान्त धातु अनिट् ही [[४९६]]

होते हैं।

२. एकाच् ह्रस्व इकारान्त धातु - इनमें शिव, श्रि धातु सेट होते हैं तथा इनके अलावा, शेष सारे एकाच् ह्रस्व इकारान्त धातु अनिट् ही होते हैं।

३. एकाच दीर्घ ईकारान्त धातु - इनमें डीङ्, शीङ् धातु सेट होते हैं तथा इनके अलावा, शेष सारे एकाच् दीर्घ ईकारान्त धातु अनिट् ही होते

४. एकाच ह्रस्व उकारान्त धातु - इनमें स्नु, नु, क्षु, यु, रु, क्ष्णु ये छह धातु सेट होते हैं तथा इन ६ को छोड़कर, शेष सारे एकाच उकारान्त धातु अनिट् ही होते हैं।

५. एकाच् दीर्घ ऊकारान्त धातु - इनमें सू, धू, वेट होते हैं, शेष सारे एकाच ऊकारान्त धातु सेट ही होते हैं।

६. एकाच् ह्रस्व ऋकारान्त धातु - इनमें वृङ्, वृञ् सेट होते हैं। स्वृ धातु वेट होता है। शेष सारे एकाच् ह्रस्व ऋकारान्त धातु अनिट् होते हैं।

७. एकाच दीर्घ ऋकारान्त धातु - ये सभी सेट होते हैं।

८. एजन्त धातु - शित् प्रत्यय परे न रहने पर एजन्त धातु ‘आदेच उपदेशेऽशिति’ सूत्र से आकारान्त बन जाते हैं। जैसे - गै = गा, धे = धा, ग्लै = ग्ला, ध्यै = ध्या आदि। ये सभी अनिट् ही होते हैं।

यह एकाच अजन्त धातुओं में से सेट तथा अनिट् धातुओं को अलग अलग पहिचानने की विधि पूर्ण हुई। अब एकाच् हलन्त धातुओं में से, सेट तथा अनिट् धातुओं को कैसे अलग अलग पहिचाना जाये, यह विधि बतला रहे हैं।

सेट तथा अनिट् हलन्त धातुओं को पहिचानने की विधि

नीचे १०२ हलन्त एकाच धातु दिये जा रहे हैं। ये सब उपदेशावस्था में एकाच तथा अनुदात्त होने के कारण अनिट् हैं। इनके अतिरिक्त जो भी एकाच् हलन्त धातु आप पाएँगे, वे सब सेट ही होंगे, यह जानना चाहिए।

१. एकाच् ककारान्त धातुओं में - ककारान्त धातुओं में स्वादिगण का शक्ल, यह १ धातु ही अनिट् है। शेष सारे ककारान्त धातु सेट हैं।

२. एकाच् चकारान्त धातुओं में - पच्, मुच्, रिच्, वच्, विच्, सिच्, ये ६ धातु अनिट् हैं। शेष सारे चकारान्त धातु सेट हैं।

३. एकाच् छकारान्त धातुओं में - प्रच्छ्, यह १ धातु अनिट् है। शेष सारे छकारान्त धातु सेट हैं।

४. एकाच जकारान्त धातुओं में - त्यज्, निजिर्, भज्, भञ्ज्, भुज्,

समस्त धातुओं के सन्नन्त के रूप बनाने की विधि

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भ्रस्ज्, मस्ज्, यज्, युज्, रुज्, रज्, विजिर् (रुधादि), स्वज्, सज्, सृज् - ये १५ धातु अनिट् हैं। शेष सभी जकारान्तं धातु सेट हैं।

५. एकाच् दकारान्त धातुओं में - अद्, क्षुद्, खिद्, छिद्, तुद्, नुद्, पद् (दिवादिगण), भिद्, विद् (दिवादिगण), विद् (रुधादिगण), शद्, सद्, स्विद्, स्कन्द्, और हद् ये १५ धातु अनिट् हैं। शेष सभी दकारान्त धातु सेट हैं।

विशेष - दिवादिगण तथा रुधादिगण के विद् धातु अनिट् होते हैं और अदादिगण तथा तुदादिगण के विद् धातु सेट होते हैं।

__६. एकाच धकारान्त धातुओं में - क्रुध्, क्षुध्, बुध् (दिवादिगण), बन्ध्, युध्, रुध्, राध्, व्यध्, साध्, शुध्, सिध् ( दिवादिगण) ये ११ धातु अनिट् हैं। शेष सभी धकारान्त धातु सेट हैं।

विशेष - यहाँ यह ध्यान देना चाहिये कि बुध् धातु दो हैं। इनमें से भ्वादिगण का बुध् धातु सेट होता है। दिवादिगण का बुध् धातु अनिट् होता है।

७. एकाच नकारान्त धातुओं में - मन् ( दिवादिगण) तथा हन्, ये २ धातु अनिट् हैं। शेष सारे नकारान्त धातु सेट हैं।

८. एकाच पकारान्त धातुओं में - आप्, छुप्, क्षिप्, तप्, तिप्, तृप् (दिवादिगण), दृप् (दिवादिगण), लिप्, लुप्, वप्, शप, स्वप्, सृप्, ये १३ धातु अनिट् हैं। शेष सारे पकारान्त धातु सेट हैं।

विशेष - यहाँ यह ध्यान देना चाहिये कि तृप् धातु तीन हैं। इनमें से स्वादिगण तथा तुदादिगण के तृप् धातु सेट होते हैं। दिवादिगण का तृप् धातु वेट होता है।

९. एकाच भकारान्त धातुओं में - यम्, रभ्, लभ, ये ३ धातु अनिट होते हैं। शेष सारे भकारान्त धातु सेट होते हैं।

१०. एकाच मकारान्त धातुओं में - गम्, नम्, यम्, रम्, ये ४ धातु अनिट् हैं। शेष सारे मकारान्त धातु सेट हैं।

११. एकाच शकारान्त धातुओं में - क्रुश्, दंश्, दिश्, दृश्, मृश्, रिश्, रुश्, लिश्, विश्, स्पृश्, ये १० धातु अनिट् हैं। शेष शकारान्त धातु सेट हैं।

__१२. एकाच षकारान्त धातुओं में - कृष्, त्विष्, तुष्, द्विष्, दुष्, पुष् (दिवादि गण), पिष्, विष्, शिष्, शुष्, श्लिष् (दिवादिगण), ये ११ धातु अनिट् हैं। शेष सभी षकारान्त धातु सेट हैं।

१३. एकाच सकारान्त धातुओं में - वस्, घस्, ये २ धातु अनिट् हैं।

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अष्टाध्यायीं सहजबोध

शेष सारे सकारान्त धातु सेट हैं।

१४. एकाच हकारान्त धातुओं में - दह्, दिह, दुह, नह, मिह, रुह्, लिह, वह, ये ८ धातु अनिट् हैं। शेष सारे हकारान्त धातु सेट हैं।

सेट, अनिट् के अलावा कुछ धातु वेट भी होते हैं, जिनसे परे आने वाले सेट आर्धधातुक प्रत्ययों को भी विकल्प से इट् का आगम होता है।

ये वेट धातु इस प्रकार हैं -

वेट धातु स्वरतिसूतिसूयतिधूजूदितो वा - स्वृ धातु, अदादिगण का सू धातु, दिवादिगण का सू धातु, स्वादि तथा क्रयादिगण का धूञ् धातु तथा सारे ऊदित् धातुओं से परे आने वाले सेट् आर्धधातुक प्रत्ययों को विकल्प से इडागम होता है।

ऊदित् धातु - ‘ऊदित्’ का अर्थ होता है, ऐसे धातु जिनमें ‘ऊ’ की इत् संज्ञा हुई हो। धातुपाठ में पढ़े गये सारे ‘ऊदित् धातु’ इस प्रकार हैं - असू तस् त्वक्षू गृहू. मृजू अशू वृहू तृन्हू क्षमू क्लिदू अजू क्लिशू षिधू त्रपूष् क्षमूष् गाहू गुहू स्यन्दू कृपू गुपू ओव्रश्चू तृहू स्तृहू तृन्हू।

विशेष - यहाँ यह ध्यान देना चाहिये कि स्वादि, क्यादि तथा चुरादिगण में धूञ् कम्पने धातु हैं। तुदादिगण में धू विधूनने धातु है।

इनमें से स्वादिगण तथा क्रयादिगण के धूञ् कम्पने धातु ही वेट होते हैं। इनसे परे आने वाले सेट् आर्धधातुक प्रत्ययों को विकल्प से इडागम होता है।

तुदादिगण का धू विधूनने धातु तथा चुरादिगण का धूञ् कम्पने धातु सेट होता है। इनसे परे आने वाले सेट् आर्धधातुक प्रत्ययों को नित्य इडागम होता

रधादिभ्यश्च - रध्, नश्, तृप्, दृप्, द्रुह, मुह, स्निह, स्नुह, ये ८ धातु वेट होते हैं। इन आठ धातुओं से परे आने वाले सेट् प्रत्ययों को विकल्प से इडागम होता है।

निरः कुषः - निर् उपसर्गपूर्वक कुष् धातु से परे आने वाले सेट् प्रत्ययों को विकल्प से इडागम हाता है।

__ इस प्रकार ३७ धातु वेट हैं। इन ३७ वेट् धातुओं से परे आने वाले सेट् आर्धधातुक प्रत्ययों को विकल्प से इडागम होता है। यह सेट, अनिट् तथा वेट धातुओं को पहिचानने की औत्सर्गिक अर्थात् मूलभूत सामान्य व्यवस्था है।

समस्त धातुओं के सन्नन्त के रूप बनाने की विधि

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इसे कण्ठस्थ कर लीजिये।

किन्तु अनेक बार इस व्यवस्था का उल्लङ्घन होकर इनके सेट् धातु अनिट् हो जाते हैं। अनिट् धातु सेट हो जाते हैं। यह जिन सूत्रों के कारण होता है, वे सूत्र बतला रहे हैं -

सन् प्रत्यय के लिये विशेष इडाग़म व्यवस्था

सनि ग्रहगुहोश्च - यद्यपि ग्रह धातु सेट है, तथा गुह् धातु वेट है, किन्तु इनसे परे आने वाले सन् प्रत्यय को इडागम नहीं होता है। उगन्त धातुओं से परे आने वाले सन् प्रत्यय को भी इडागम नहीं होता है। ग्रह - जिघृक्षति गुह् - जुघुक्षति भू - बुभूषति

इट् सनि वा - वृङ्, वृञ् तथा दीर्घ ऋकारान्त धातु यद्यपि सारे के सारे सेट हैं तथापि इनसे परे आने वाले सन् प्रत्यय को विकल्प से इडागम होता है। वृङ् - वुवूर्षति / विवरिषते वृञ् - वुवूर्षति । विवरिषते तृ - तितीर्षति । तितरिषति / तितरीषति

सनीवन्तर्धभ्रस्जदम्भुश्रिस्वयूर्णभरज्ञपिसनाम् - जिन धातुओं के अन्त में इव् है जैसे - दिव्, सिव्, ष्ठिव् आदि ऐसे इवन्त धातुओं से, तथा ऋधु, भ्रस्ज्, दम्भु, श्रि, स्वृ, यु, ऊर्गु, भृ, ज्ञप्, सन् इन धातुओं से परे आने वाले सन् प्रत्यय को विकल्प से इडागम होता है। जैसे - दिव्

दिदेविषति ऋध् - अर्दिधिषति

ईत्सति भ्रस्ज्

बिभ्रज्जिषति बिभ्रक्षति बिभजिषति बिभक्षति

दिदम्भिषति धिप्सति श्रि - उच्छिश्रयिषति उच्छिश्रीषति

सिस्वरिषति

सुस्वर्षति यियविषति प्रोर्णनविषति प्रोणुनुविषति / प्रोणुनूषति बिभरिषति

बुभूर्षति जिज्ञपयिषति

ज्ञीप्सति सिसनिषति

सिषासति

दुद्यूषति

युयूषति [[५००]]

तनिपतिदरिद्राणामुपसंख्यानम् - कुछ लोग यहाँ तन्, पत्, तथा दरिद्रा धातुओं को भी स्वीकार करते हैं। अतः इनके रूप विकल्प से इडागम होकर इस प्रकार बनेंगे। तन् - तितनिषति, तितंसति / तितांसति पत् - पिपतिषति

पित्सति दरिद्रा - दिदरिद्रिषति

दिदरिद्रासति सेऽसिचि कृतचूतच्छृदतृदनृतः - हम पढ़ चुके हैं कि कृत्, चुत्, छद्, तृद्, नृत् इन ५ धातुओं से परे आने वाले सकारादि आर्धधातुक प्रत्यय को विकल्प से इडागम होता है।

सन् चूँकि सकारादि आर्धधातुक प्रत्यय है, अतः इसके परे होने पर इन पाँचों धातुओं को विकल्प से इडागम कीजिये - कृत् - चिकृत्सति चिकर्तिषति चुत् - चिचुत्सति चिचर्तिषति छूद् - चिच्छ्रत्सति चिच्छर्दिषति तृद् -

तितृत्सति तितर्दिषति नृत् - निनृत्सति निनर्तिषति

गमेरिट परस्मैपदेषु - गम् धातु यद्यपि अनिट् है तथापि उससे परस्मैपदी सकारादि आर्धधातुक प्रत्यय परे होने पर उसे इडागम होता है किन्तु आत्मनेपदी सकारादि प्रत्यय परे होने पर उसे इडागम नहीं होता है। यथा -

  • परस्मैपद आत्मनेपद

  • गम् - जिगमिषति संजिगंसते

न वृद्भ्यश्चतुर्थ्यः - वृत्, वृध्, शृध्, स्यन्द् ये चारों धातु यद्यपि आत्मनेपदी हैं, किन्तु वृद्भ्यः स्यसनोः’ सूत्र से स्य, सन् प्रत्यय परे होने पर ये धातु विकल्प से परस्मैपदी हो जाते हैं।

जब ये धातु परस्मैपदी हो जाते हैं तब इनसे परे आने वाले सकारादि आर्धधातुक प्रत्यय को इडागम नहीं होता। आत्मनेपद में इडागम हो जाता है।

  • परस्मैपद आत्मनेपद

  • विवर्तिषते विवृत्सति

  • विवर्धिषते

  • शृध् - शिशृत्सति शिशर्धिषते

  • स्यन्द् - सिस्यन्त्सति सिस्यन्दिषते

तासि च क्लुपः - क्लृप् धातु यद्यपि आत्मनेपदी है किन्तु स्य, सन्,

वृत्

विवृत्सति

वृध्

समस्त धातुओं के सन्नन्त के रूप बनाने की विधि

५०१

प्रत्यय परे होने पर यह धातु ‘लुटि च क्लपः’ सूत्र से विकल्प से परस्मैपदी हो जाता है। जब यह परस्मैपदी हो जाता है तब इससे परे आने वाले परस्मैपद संज्ञक सकारादि आर्धधातुक प्रत्ययों को तथा तास् प्रत्यय को इडागम नहीं होता है।

परस्मैपद

आत्मनेपद क्लृप् - चिक्ट्रप्सति चिकल्पिषते

स्मिपूज्वशां सनि - स्मि धातु तथा ऋ धातु अनिट् हैं। अञ्जू धातु तथा अशू धातु ऊदित् होने से वेट हैं। ‘पू’ धातु दीर्घ ऊकारान्त होने से सेट है। किन्तु इनसे परे आने वाले सन् प्रत्यय को नित्य इडागम होता है। यथा - ऋ - अरिरिषति स्मि - सिस्मयिषते अञ्जू - अजिजिषति अशू - अशिशिषते

सूत्र में ‘पू’ धातु भी कहा है। ‘पू’ धातु तो दीर्घ ऊकारान्त होने से सेट ही होता है, यह हम जानते हैं, किन्तु सन् प्रत्यय में इसकी व्यवस्था यह है कि सन् प्रत्यय परे होने पर पूङ् धातु तो सेट होता है, और पूञ् धातु अनिट् होता है - पूङ् - पिपविषते / पूञ् - पुपूषति।।

किरश्च पञ्चभ्यः - कृ, गृ, दृङ्, धृङ, प्रच्छ इन पाँच धातुओं से परे आने वाले सन् प्रत्यय को नित्य इडागम होता है - कृ - चिकरिषति

गृ - जिगरिषति दिदरिषते

धृङ् - दिधरिषते प्रच्छ - पिपृच्छिषति।

__ ध्यान दीजिये कि ‘इट् सनि वा’ सूत्र से दीर्घ ऋकारान्त कृ, गृ धातु वेट थे। उन्हें इस सूत्र से नित्य इट् हो गया। दृङ्, धृङ् धातु अनिट् थे उन्हें भी इस सूत्र से इट हो गया।

अजन्त धातुओं की इडागम व्यवस्था का निष्कृष्टार्थ

सेट् अजन्त धातु - सन् प्रत्यय परे होने पर ऋ, स्मि, शिव, डीङ्, शीङ्, पूङ, दृङ्, धृङ् कृ, गृ, ये दस एकाच अजन्त धातु सेट होते हैं।

वेट अजन्त धातु - कृ, गृ को छोड़कर सारे दीर्घ ऋकारान्त धातु तथा ऊर्गु, श्रि, यु, दरिद्रा, वृङ्, वृञ्, स्वृ, भृ, ये आठ एकाच अजन्त धातु सन् प्रत्यय परे होने पर वेट होते हैं।

अनिट् अजन्त धातु - इन सेट, वेट से जो बचे, वे सारे अजन्त धातु सन् प्रत्यय परे होने पर अनिट् होते हैं।

ध्यान रहे कि सन् प्रत्यय में पूङ् धातु सेट है, पूञ् धातु अनिट् है।

दृङ५०२

आनद

हलन्त धातुओं की इडागम व्यवस्था का निष्कृष्टार्थ

अनिट् हलन्त धातु - हमने १०२ हलन्त अनिट् धातु पढ़े हैं। इनमें से प्रच्छ धातु जो कि अनिट् है, वह सन् प्रत्यय परे होने पर सेट हो जाता है।

भ्रस्ज् धातु अनिट् है, वह सन् प्रत्यय परे होने पर वेट हो जाता है।

गम् धातु जो अनिट् है, वह परस्मैपद में सेट हो जाता है, आत्मनेपद में अनिट् ही रहता है। इस प्रकार इन १०२ में से तीन को छोड़कर ९९ हलन्त धातु ही सन् प्रत्यय परे होने पर अनिट् होते हैं।

ग्रह धातु, जो कि सेट है वह, तथा गुह् धातु जो कि वेट है वह, इस प्रकार ये दो धातु भी सन् प्रत्यय परे होने पर अनिट् हो जाते हैं। इस प्रकार ९९ + २ = १०१ हलन्त धातु सन् प्रत्यय परे होने पर अनिट् होते हैं।

वेट हलन्त धातु - ऊपर जो ३७ वेट हलन्त धातु कहे गये हैं, इनमें से अजू, अशू धातु सन् प्रत्यय परे होने पर सेट हो जाते हैं और गुहू धातु सन् प्रत्यय परे होने पर अनिट् हो जाता है।

अतः ३७ में से तीन धातुओं के कम हो जाने पर ३४ वेट हलन्त धातु ही सन् प्रत्यय परे होने पर वेट रहते हैं।

__इनके अलावा दिव्, सिव्, ष्ठिव्, स्रिव् धातु, तथा ऋध्, दम्भ, ज्ञप्, सन्, कृत्, चुत्, छ्रद्, तृद्, नृत्, तन्, पत् धातु ये १५ सेट् धातु भी सन् प्रत्यय परे होने पर वेट हो जाते हैं। इस प्रकार ३४ + १५ = ४९ धातु सन् प्रत्यय परे होने पर वेट होते हैं।

वृत्, वृध्, शृध्, स्यन्द, कल्प ये पाँच सेट् धातु, परस्मैपद में अनिट् होते हैं, तथा आत्मनेपद में सेट हो जाते हैं। गम् धातु परस्मैपद में सेट हो जाता है, आत्मनेपद में अनिट् ही रहता है।

इस प्रकार इनकी संख्या ४९ + ५ = ५४ हुई।

सेट हलन्त धातु - इन १०१ अनिट् + ५४ वेट के अलावा जितने भी एकाच हलन्त धातु हैं, वे सन् प्रत्यय परे रहने पर सेट् ही रहते हैं, यह जानिये।

अतिदेश सूत्र

देखिये कि सन् प्रत्यय न तो कित् है, न गित्, न ङित् । तथापि यह कुछ सूत्रों के प्रभाव से यह सन् प्रत्यय, कभी कहीं कित् जैसा और कभी कहीं डित् जैसा मान लिया जाता है।

जो जैसा नहीं है, उसे वैसा मान लेने को ही अतिदेश कहते हैं। लोक में भी ऐसा होता है कि जब गुरुजी न हों, तो उनके स्थान में गुरुपुत्र को गुरु

समस्त धातुओं के सन्नन्त के रूप बनाने की विधि

५०३

जैसा मान लिया जाता है। इसी प्रकार शास्त्र में भी अनेक जगह ऐसा करना पड़ता है कि जो जैसा नहीं होता उसे वैसा मान लेना पड़ता है।

जो जैसा नहीं है, उसे वैसा मान लेने को ही अतिदेश कहते हैं। यह मानने का कार्य जिन सूत्रों के कारण होता है, उन सूत्रों को हम अतिदेश सूत्र कहते हैं। ये इस प्रकार हैं -

गाङ्कुटादिम्योऽञ्णिन्डित् - गाङ् धातु से तथा तुदादिगण के अन्तर्गत जो कुट से लेकर कुङ् तक ३६ धातुओं का कुटादिगण है, उस कुटादिगण के धातुओं से परे आने वाले, जित् णित् से भिन्न सारे प्रत्यय, डित्वत् मान लिये जाते हैं। कुटादि धातु इस प्रकार हैं - कु गु ध्रु नू धू कड् डिप् कुच् गुज् कुट घुट चुट् छुट जुट तुट पुट मुट् त्रुट लुट् स्फुट कुड् क्रुड् गुड् चुड् तुड् थुड् पुड् छड् स्थुड् स्फुड् गुर् छुर् स्फुर् स्फुल् कृड् मृड्। .

सन् प्रत्यय भी जित् णित् से भिन्न प्रत्यय है, अतः यह जब गाङ् धातु या कुटादि धातुओं के बाद आता है, तब इस सन् प्रत्यय को डित् प्रत्यय जैसा मान लिया जाता है।

विज इट् - विज् धातु से परे आने वाले सेट् आर्धधातुक प्रत्यय डित्वत् माने जाते हैं।

विभाषोर्णोः - ऊर्गु धातु से परे आने वाले सेट् आर्धधातुक प्रत्यय, विकल्प से डित्वत् माने जाते हैं।

रुदविदमुषग्रहिस्वपिप्रच्छः संश्च - रुद्, विद्, मुष्, ग्रह, स्वप्, प्रच्छ् इतने धातुओं से परे होने पर, सन् प्रत्यय तथा क्त्वा प्रत्यय कित्वत् होते हैं।

इको झल् - इगन्त धातुओं से परे आने वाला, झलादि सन् प्रत्यय कितवत् होता है। झलादि सन् का अर्थ अनिट् सन् होता है।

हलन्ताच्च - ऐसे हलन्त अनिट् धातु जिनमें कहीं भी इक् हो, उनसे परे आने वाला झलादि सन् प्रत्यय तथा अनिट् दम्भ धातु से परे आने वाला झलादि सन् प्रत्यय, कितवत् होता है। झलादि सन् का अर्थ अनिट् सन् होता

रलो व्युपधाद् हलादेः संश्च - यदि धातु के आदि में हल् हो, और अन्त में य, व, को छोड़कर अन्य कोई भी व्यञ्जन (रल) हो तथा उपधा में इ, या उ हों, तब ऐसे धातुओं से परे आने वाला सन् प्रत्यय विकल्प से कितवत् [[५०४]]

है। जब सन् प्रत्यय कित्वत् या डित्वत् होता है, तब इसके लगने पर वे ही अङ्गकार्य होते हैं, जो अङ्गकार्य कित्, ङित् प्रत्यय लगने पर किये जाते हैं। ये अङ्गकार्य आगे बतलाये जा रहे हैं।

अङ्ग . यस्मात् प्रत्ययविधिस्तदादिप्रत्ययेऽङ्गम् - जब हम धातुओं से प्रत्यय लगाते हैं, तब उस प्रत्यय के परे होने पर, उस प्रत्यय के पूर्व में जो भी होता है, वह पूरा का पूरा, उस प्रत्यय का अङ्ग कहलाता है। जैसे - भू + सन् में, ‘सन्’ प्रत्यय का अङ्ग ‘भू’ होता है। इ + सन् में, ‘सन्’ प्रत्यय का अङ्ग ‘इ’ होता है। ऊर्गु + सन् में, ‘सन्’ प्रत्यय का अङ्ग ‘ऊर्जु’ होता है।

अङ्गकार्य

प्रत्यय लगने पर धातु पर प्रत्यय का जो प्रभाव पड़ता है, उस प्रभाव का नाम ही अङ्गकार्य है। अङ्गकार्य कैसा हो, यह प्रत्यय पर ही निर्भर है।

जैसा प्रत्यय होगा, वैसा ही अङ्गकार्य होगा। अतः अङ्गकार्य करने के लिये प्रत्यय की सही पहिचान सबसे आवश्यक है।

जब सन् प्रत्यय प्रत्यय कित् या डित् होगा, तो अङ्गकार्य अलग प्रकार का होगा। जब सन् प्रत्यय कित्, डित्, नहीं होगा, तो अङ्गकार्य अलग प्रकार का होगा। कुछ अङ्गकार्य बतला रहे हैं, कुछ आगे बतलायेंगे।

सार्वधातुकार्धधातुकयोः - धातु के अन्त में आने वाले इक् को गुण होता है, कित्, डित्, जित्, णित् से भिन्न सार्वधातुक अथवा आर्धधातुक प्रत्यय परे होने पर। गुण का अर्थ होता है इ, ई के स्थान पर ए, उ, ऊ के स्थान पर ओ, ऋ, ऋ के स्थान पर अर् हो जाना। ऊर्गु + इ + सन् / ऊर्गुनो + इस।

पुगन्तलघूपधस्य च - धातु की उपधा में स्थित लघु इक् के स्थान पर गुण होता है, कित् डित् से भिन्न सार्वधातुक अथवा आर्धधातुक प्रत्यय परे होने पर। जैसे - ऋध् + इट् + सन् - गुण करके, अध् + इट् + स - अर्धिस।

क्डिति च - यदि धातु से लगने वाला प्रत्यय कित्, डित्, गित् हो, तब न तो अगों के अन्त में आने वाले इक् को गुण होता है, और न ही उपधा में स्थित लघु इक् को गुण होता है। इ + सन् / इको झल् सूत्र से अनिट् सन् प्रत्यय के कितवत् होने के कारण इस सूत्र से गुणनिषेध करके - इ + स।

__ अज्झनगमां सनि - अजन्त धातुओं को, तथा हन्, गम् धातुओं को दीर्घ होता है, अनिट् सन् प्रत्यय परे होने पर।

समस्त धातुओं के सन्नन्त के रूप बनाने की विधि

५०५

इ + सन् / इस सूत्र से अन्तिम इ को दीर्घ करके - ईस। उ + सन् / इस सूत्र से अन्तिम उ को दीर्घ करके - ऊस।

आज्ञप्यधामीत् - अनिट् सन् प्रत्यय परे रहने पर आप् धातु, ज्ञप् धातु, ऋध् धातुओं के अच् को ‘ई’ आदेश होता है।

आप् + सन् / आ को ई करके - ईप् + सन् - ईप्स।

ऋध् + सन् / ध्यान रहे कि ऋ के स्थान पर होने वाला ‘ई’ उरण रपरः सूत्र से ईर् हो जाता है। ईध् + स / खरि च सूत्र से ध् को चर्व करके - ईर्त + स = ईहूँ । इन सूत्रों के अर्थों को यहीं याद करके ही आगे बढ़ें।

षत्व विधि

आदेशप्रत्यययोः - इण् अर्थात् इ, उ, ऋ, लु, ए, ओ, ऐ, औ, ह, य, व, र, ल तथा कवर्ग के बाद आने वाले, आदेश के सकार को तथा प्रत्यय के सकार को ‘षकार’ आदेश होता है।

__ ईसिसति को देखिये। इसमें दो सकार हैं। पहिला ‘स’ ई के बाद आया है। यह ‘ई’ इण है। अतः ‘इण्’ प्रत्याहार के बाद आने के कारण, इस ‘स’ को ‘ष’ होगा। दूसरा ‘स’ ‘इ’ के बाद आया है। यह ‘इ’ भी इण् है। अतः इण्’ प्रत्याहार के बाद आने के कारण इस ‘स’ को भी ‘ष’ होगा। ईसिसति = ईषिषति ।

इसी प्रकार ऊसिसति = ऊषिषति आदि बनाइये।

मुमुक् + स + ति में प्रत्यय के ‘स’ के पूर्व में कवर्ग है, अतः इस ‘स’ को भी ‘ष’ होगा - ममक + स + ति - ममक + षति। क + ष मिलकर क्षु बनता है (संयोगे क्षः) - मुमुक् + षति = मुमुक्षति।

ध्यान दें कि पिपास + ति = पिपासति में स के पूर्व में ‘आ’ है। यह ‘आ’ ‘इण’ प्रत्याहार में नहीं आता है। अतः इस ‘आ’ से परे आने वाला ‘स’. ‘स’ ही रहेगा।

जिघत् + सति = जिघत्सति में स के पूर्व में ‘त्’ है। यह त्’ ‘इण्’ में नहीं आता है। अतः इस त्’ से परे आने वाला ‘स’ भी ‘स’ ही रहेगा।

अष्टाध्यायी में षत्व के सारे सूत्र ८.३.५५ से लेकर ८.३.११९ तक हैं। इन्हें अष्टाध्यायी की काशिकावृत्ति में एक साथ देख लेना चाहिये।

ध्यान रहे कि षत्व, त्रिपादी के सूत्रों से होता है। अतः इसे सारे कार्य हो जाने के बाद सबसे अन्त में ही करना चाहिये।

अब हम धातुओं के सन्नन्त रूप बनायें। यह कार्य हम दो हिस्सों में करें।

५०६

अष्टाध्यायी सहजबोध .

अजादि धातुओं के सन्नन्त रूप बनाने की विधि

जिन धातुओं के आदि में ‘अच्’ अर्थात् स्वर हो, उन्हें ‘अजादि धातु’ कहते हैं। द्वित्व करने के लिये इन ‘अजादि धातुओं’ के तीन वर्ग बनाइये।

१. एकाच अजादि धातु । जैसे - अट, अत्, इख्, इङ्, इण, उङ् आदि।

२. ऊर्गु धातु। ३. अनेकाच् अजादि धातु। अजादि एकाच् धातुओं को इस प्रकार द्वित्व कीजिये -

१. अजादि एकाच धातुओं में सन् प्रत्यय लगते ही, सब कार्यों को रोककर, सबसे पहिले इडागम विधि पढ़कर सन् प्रत्यय को इडागम का विचार कीजिये।

यदि सन् प्रत्यय को इट् का आगम प्राप्त है, तो सन् प्रत्यय को इट का आगम कर लीजिये। अब धातु + इट् + सन् को यथानिर्दिष्ट अङ्गकार्य आदि करके जोड़ लीजिये। जैसे - एध् + इट् + सन् - एधिस / अत् + इट + सन् - अतिस / उन्द् + इट् + सन् - उन्दिस / अज् + इट् + सन् - अजिस / अद्य् + इट् + सन् - अघिस / उब्ज् + इट् + सन् - उब्जिस।

इष् + इट् + सन् / उपधा के इ को पुगन्तलघूपधस्य च सूत्र से गुण करके - एष् - इ + स - एषिस /

उख् + इट् + सन् / उपधा के उ को पुगन्तलघूपधस्य च सूत्र से गुण करके - ओखिस।

ऋध् + इट् + सन् / उपधा के इ को पुगन्तलघूपधस्य च सूत्र से गुण करके - अर्ध - इ + स - अर्धिस।

ऋ + इट् + सन् / ऋ को सार्वधातुकार्धधातुकयोः सूत्र से गुण करके - अर् - इ + स - अरिस।।

__यदि सन् प्रत्यय को इट का आगम नहीं प्राप्त है, तो सन् प्रत्यय को इट का आगम किये बिना धातु + सन् को यथानिर्दिष्ट अङ्गकार्य करके जोड़ लीजिये। जैसे - इ + सन् को देखिये। यह धातु अनिट् है। अतः अज्झनगमां सनि सूत्र से ‘इ’ को दीर्घ करके ई + स - ईस।

इसी प्रकार उ + सन् को देखिये। यह धातु भी अनिट् है। अतः अज्झनगमां सनि सूत्र से ‘उ’ को दीर्घ करके ऊ + स - ऊस बनाइये।

__ आप् + सन् को देखिये। यह धातु भी अनिट् है। आप्ज्ञप्यधामीत् सूत्र से आ को ई बनाकर - ईप् + सन् - ईप्स।

( विशेष - सन् प्रत्यय परे होने पर किस धातु को क्या अङ्गकार्य

समस्त धातुओं के सन्नन्त के रूप बनाने की विधि

होंगे, यह आगे यथास्थान बतलाते चलेंगे।)

धातु + सन् को जोड़ने के बाद इसकी ‘धातुसंज्ञा’ कीजिये -

सनाद्यन्ता धातवः - सन्, क्यच् ,काम्यच्, क्यष्, क्यङ्, क्विप्, णिङ्, ईयङ्, णिच्, यक, आय, यङ् ये १२ प्रत्यय जिसके भी अन्त में लगते हैं उनका नाम धातु हो जाता है।

__ अतः एध् की भी धातु संज्ञा है तथा एध् + इ + सन् - एधिस की भी ‘सनाद्यन्ता धातवः’ सूत्र से धातुसंज्ञा है। उख् की भी धातु संज्ञा है तथा उख् + इ + सन् - ओखिस की भी ‘सनाद्यन्ता धातवः’ सूत्र से धातुसंज्ञा है।

इसी प्रकार इ + सन् - ईस, उ + सन् - ऊस, आप् + सन् - ईप्स आदि की धातुसंज्ञा है।

__देखिये कि इन अजादि धातुओं में पहिले एक ही अच् था, किन्तु सन् प्रत्यय के मिल जाने से अब ये धातु अजादि अनेकाच् धातु हो चुके हैं। इन अजादि अनेकाच् धातुओं को अब द्वित्व कीजिये -

अजादि धातुओं को द्वित्व करने की विधि

सन्यडोः / अजादेर्द्वितीयस्य - सन्नन्त तथा यङन्त हलादि धातुओं के प्रथम अवयव एकाच् को द्वित्व होता है तथा अजादि अनेकाच् धातुओं के द्वितीय अवयव एकाच् को द्वित्व होता है। द्वित्व करने का अर्थ होता है, एक धातु को दो बना देना। यह द्वित्व इस प्रकार करें -

एध् + इट् + सन् - एधिस / इसे देखिये, इसमें द्वितीय अच् ‘इ’ है। वह ध् के साथ मिलकर ‘धि’ बना है। अतः इस द्वितीयाक्षर धि को ‘सन्यङोः’ सूत्र से द्वित्व होकर बनेगा - एधिस - एधिधिस ।

. अत् + इट् + सन् - अतिस। इसे देखिये, इसमें द्वितीय अच् है ‘इ’। यह त् के साथ मिलकर ‘ति’ बना है। अतः इस द्वितीयाक्षर ‘ति’ को ‘सन्यडोः’ सूत्र से द्वित्व होकर बनेगा - अतिस - अतितिस।

इष् + इट् + सन् - एषिस / द्वितीयाक्षर ‘षि’ को ‘सन्यडोः’ सूत्र से द्वित्व होकर बनेगा - एषिस - एषिषिस।

उख् + इट् + सन् - ओखिस । इसे देखिये, इसमें द्वितीय अच् है ‘इ’। यह ख के साथ मिलकर खि’ बना है। अतः इस द्वितीयाक्षर ‘खि’ को ‘सन्यङोः’ सूत्र से द्वित्व होकर बनेगा - ओखिस - ओखिखिस।।

ऋ + इट् + सन् - अरिस। द्वितीयाक्षर ‘रि’ को ‘सन्यङोः’ सूत्र से द्वित्व होकर बनेगा - अरिरिस। [[५०८]]

इ + सन् - ईस। इसमें द्वितीय अच् ‘अ’, स् के साथ मिलकर ‘स’ बना है। अतः इस द्वितीयाक्षर ‘स’ को ‘सन्यङोः’ सूत्र से द्वित्व होकर बनेगा - ईसस।

उ + सन् - ऊस । इसमें द्वितीय अच् ‘अ’, स् के साथ मिलकर ‘स’ बना है। अतः इस द्वितीयाक्षर ‘स’ को ही सन्यडोः’ सूत्र से द्वित्व होकर बनेगा - ऊसस।

नन्द्राः संयोगादयः - यदि द्वितीय अवयव एकाच के आदि में ऐसा संयोग हो जिसके आदि में न्, द्, र हों, तो इन न्, द्, र् को छोड़कर बचे हुए द्वितीय अवयव एकाच् को द्वित्व होता है। यथा -

ऋध् + इट् + सन् - अर्धिस । इसमें द्वितीय अवयव एकाच है ‘र्धि’ । इस द्वितीयाक्षर ‘र्धि’ में से र् को छोड़कर केवल ‘धि’ को द्वित्व होकर बनेगा - अर्धिस - अधिधिस। .

उन्द् + इट् + सन् - उन्दिस। इसमें द्वितीय अवयव एकाच है ‘न्दि’ । इस द्वितीयाक्षर ‘न्दि’ में से न को छोड़कर केवल ‘दि’ को द्वित्व होकर बनेगा - उन्दिदिस।

अर्च् + इ + स = अर्चिष। इसमें द्वितीय अवयव एकाच है र्चि। इसमें र् को छोड़कर केवल चि को द्वित्व होकर बनेगा - अर्चिचिष।

इसी प्रकार अड्ड् + इट् + सन् - अड्डिष में केवल डि को द्वित्व करके - अड्डिडिष / अङ्ग् + इट् + सन् - अजिस से अजिजिस / अङ्घ + इट् + सन् - अघिस से अघिघिस / उब्ज् + इट् + सन् - उब्जिस से उब्जिजिस, आदि बनाइये।

इसके अपवाद - १. ईर्षु धातु को इस प्रकार द्वित्व कीजिये -

ईर्ष्णतेस्तृतीयस्य द्वे - ईर्ष्या + इट् + सन् = ईjिस। इसमें यि को भी द्वित्व हो सकता है - ईयियिस।

‘स’ को भी द्वित्व हो सकता है - ईjिसस । २. ऊर्गु धातु को इस प्रकार द्वित्व कीजिये -

ऊर्गु धातु - यदि अजादि धातु में पहिले से ही अनेक अच् हों, तब उनमें सन् तथा इट् को मिलाकर उन्हें अनेकाच् बनाने की आवश्यकता नहीं होती। ऐसे अजादि अनेकाच् धातुओं में सन् तथा इट् को मिलाये बिना ही उनके द्वितीय अवयव एकाच् को ‘सन्यडोः’ सूत्र से द्वित्व कर दिया जाता है।

समस्त धातुओं के सन्नन्त के रूप बनाने की विधि

५०९

__ ध्यान दें कि धातुपाठ में अजादि धातुओं में केवल ‘ऊ’ धातु ही ऐसा है, जिसमें एक से अधिक अच् हैं। इसे इस प्रकार द्वित्व कीजिये -

__ ऊर्गु + सन् / इट् का आगम करके - ऊर्गु + इट् + सन् / इसके द्वितीय अवयव एकाच ‘नु’ को द्वित्व करके - ऊर्जुनु + इट् + सन्।

ध्यान दें कि इसमें ‘र’ के बाद आने के कारण ‘रषाभ्यां नो णः’ सूत्र से ‘नु’ ही ‘णु’ बन गया था।

३. अजादि णिजन्त धातुओं को इस प्रकार द्वित्व कीजिये -

  • धातुओं से णिच् प्रत्यय लगाकर जो धातु बनते हैं, उनहें णिजन्त धातु कहा जाता है। इनके अन्त में णिच् प्रत्यय का ‘इ’ होता है। णिच् प्रत्यय के मिल जाने से धातु अनेकाच् हो जाते हैं और अनेकाच् हो जाने से सारे णिजन्त धातु सेट हो जाते हैं। धातुओं में णिच् प्रत्यय लगाने की विधि विस्तार से णिजन्त प्रकरण में देखें। यहाँ अजादि णिजन्त धातुओं के कुछ उदाहरणों से समझें -

उख् + णिच् + इट् + सन् / उपधा के उ को पुगन्तलघूपधस्य च सूत्र से गुण करके - ओखि + इट् + सन् / द्वितीयाक्षर ‘खि’ को ‘सन्यडोः’ सूत्र से द्वित्व करके - ओखिखि + इट् + सन्।

अत् + णिच् + इट् + सन् / अत उपधायाः सूत्र से उपधा को वृद्धि करके - आति + इट् + सन् / द्वितीयाक्षर ‘ति’ को ‘सन्यङोः’ सूत्र से द्वित्व करके - आतिति + इट् + सन् ।

ऋध् + णिच् + इट् + सन् / उपधा के इ को पुगन्तलघूपधस्य च सूत्र से गुण करके - अर्धि + इट् + सन् । द्वितीयाक्षर ‘धि’ को ‘सन्यडोः’ सूत्र से द्वित्व करके - अर्धिधि + इट + सन्।

इष् + णिच् + इट् + सन् / उपधा के इ को पुगन्तलघूपधस्य च सूत्र से गुण करके - एषि + इट् + सन् / द्वितीयाक्षर ‘षि’ को ‘सन्यडोः’ सूत्र से द्वित्व करके - एषिषि + इट् + सन्।

ऋ + णिच् + इट् + सन् / अर्तिह्रीब्ली. सूत्र से पुक् का आगम करके अत् - ऋ + पुक् + णिच् + सन् / पुगन्तलघूपधस्य च सूत्र से गुण करके - अर् + प् + इ + सन् - अर्पिष। इसमें र् को छोड़कर द्वितीय अवयव एकाच ‘पि’ को द्वित्व करके - अपिीप + इट् + सन्।।।

__ इसी प्रकार इ + णिच् + इट् + सन् को देखिये। इ को ‘अचो णिति’ सूत्र से वृद्धि करके - ऐ + णिच् + इट् + सन् - आयि + णिच् + इट + [[५१०]]

सन् / द्वितीयाक्षर ‘यि’ को ‘सन्यडोः’ सूत्र से द्वित्व करके - आयियि + इट् + सन्।

उ + णिच् + इट् + सन् को देखिये। उ को ‘अचो णिति’ सूत्र से वृद्धि करके - औ + णिच् + इट् + सन् - आवि + णिच् + इट् + सन् / द्वितीयाक्षर ‘वि’ को ‘सन्यडोः’ सूत्र से द्वित्व करके - आविवि + इट् + सन्। __ यह अजादि सन्नन्त धातुओं को द्वित्व करने की विधि पूर्ण हुई।

अभ्यास संज्ञा तथा अभ्यासकार्य पूर्वोऽभ्यासः - द्वित्व प्रकरण में जब भी जिस भी धातु को द्वित्व होता है, उसमें पूर्व वाले का नाम अभ्यास होता है। यथा -

एध् - एधिष - एधिधिष में पूर्व वाला ‘धि अभ्यास है, अट् - अटिष - अटिटिष में पूर्व वाला ‘टि’, अत् - अतिष - अतितिष में पूर्व वाला ति, इख् - एखिष - एखिखिष में पूर्व वाला खि, इष् - एषिष - एषिषिस में पूर्व वाला षि, ऋच्छ् - ऋच्छिष - ऋच्छिछिष में पूर्व वाला छि, उन्द् - उन्दिष - उन्दिदिष में पूर्व वाला दि, ईक्षिष - ईकिक्षिष में पूर्व वाला कि, ईर्ष्या - ईjिसस में पूर्व वाला स, ईर्घ्य - ईयियिष में पूर्व वाला यि अभ्यास हैं, यह जानिये।

ई - ईस - ईसस, में पूर्व वाला स, ऊ - ऊस - ऊसस में पूर्व वाला स, अभ्यास हैं, यह जानिये।

अब इन अभ्यासों में इस प्रकार अभ्यासकार्य कीजिये -

१. कुहाश्चुः - अब अभ्यास को देखिये। यदि अभ्यास में कवर्ग का कोई वर्ण हो, तो इस सूत्र से अभ्यास के उस कवर्ग के वर्ण को आप उसी क्रम से चवर्ग का वर्ण बना दीजिये।

यदि अभ्यास में ‘ह’ हो तो उसे ‘ज’ बना दीजिये। इसे चुत्व करना कहते हैं। यदि षत्व’ प्राप्त हो तो सब कार्य हो जाने के बाद अन्त में कीजिये। अक् - अकिस अङ्किकिस अञ्चिकिष ईक्ष् - ईक्षिस

ईकिक्षिस

ईचिक्षिष अङ्ग् - अङ्गिस अगिगिस

अजिगिष ऊह् - ऊहिस ऊहिहिस

ऊजिहिष ईह - ईहिस

ईहिहिस

ईजिहिष २. अभ्यासे चर्च - अभ्यास के झश् को जश् और खय् को चर् आदेश होते हैं।

समस्त धातुओं के सन्नन्त के रूप बनाने की विधि

५११

अतः यदि अभ्यास में वर्ग का चतुर्थाक्षर अर्थात् झ, भ, घ, ढ, ध हों, तो उन्हें उसी वर्ग का तृतीयाक्षर अर्थात् ज, ब, ग, ड, द बना दीजिये, इसे जश्त्व करना कहते हैं।

जश्त्व इस प्रकार होता है - उज्झ् - उज्झिस उज्झिझिस कर उज्जिझिष उम्भ - उम्भिस उम्भिभिसा उम्बिभिष एध्- - एधिस एधिधिस एदिधिष

यदि अभ्यास में वर्ग के द्वितीयाक्षर हों अर्थात् ख, फ, छ, ठ, थ हों, तो उनको उसी वर्ग का प्रथमाक्षर बना दीजिये। इसे चर्व करना कहते हैं।

चर्व इस प्रकार होता है - ऋम्फ् - ऋम्फिस ऋम्फिफिस ऋम्पिफिष उञ्छ - उञ्छिस उञ्छिच्छिस उञ्चिच्छिष अण्ठ - अण्ठिस अण्ठिठिसा अण्टिठिष

  • विशेष - यदि अभ्यास में कुहोश्चुः और अभ्यासे चर्च सूत्र एक साथ प्राप्त हों तब आप पहिले पहिले कुहोश्चुः सूत्र से कार्य करें और बाद में अभ्यासे चर्च से। जैसे - अझ् - अघिस अघिघिस अञ्झिघिस अञ्जिघिष उख् - ओखिस . ओखिखिस ओछिखिस ओचिखिष इले - इङ्लिस इङ्खिखिस इञ्छिखिस इञ्चिखिष

हमने देखा कि अभ्यास में रहने वाले कवर्ग के सारे व्यञ्जनों में, तथा अन्य वर्गों के केवल दूसरे, चौथे व्यञ्जनों में, तथा हकार में ही ये ऊपर कहे हुए परिवर्तन होते हैं।

__ यदि अभ्यास में दूसरे, चौथे व्यञ्जनों कवर्ग और हकार के अलावा कोई भी व्यञ्जन हैं तब आप उन्हें कुछ मत कीजिये। जैसे -

अतितिष अतितिष

अरिरिष अरिरिष

अट

अटिटिष अटिटिष

एषिषिष एषिषिस उन्द्

उन्दिदिष उन्दिदिष उब्ज्

उब्जिजिष . उब्जिजिष

अत्

इष् [[५१२]]

अञ् - अजिजिष अजिजिष

अब हम अजादि धातुओं के सन्नन्त रूप बनायें

१. अतिदेश का विचार - ध्यान रहे कि विभाषोर्णोः’ सूत्र से ऊर्गु धातु से परे आने वाले सेट आर्धधातुक प्रत्यय, विकल्प से डित्वत् माने जाते हैं।

__ तथा इको झल् सूत्र से अनिट् इगन्त धातुओं से परे आने वाला, झलादि अर्थात् अनिट् सन् प्रत्यय कितवत् होता है। यह बुद्धिस्थ रखें।

२. इडागम का विचार - यह भी बुद्धि में रखना चाहिये कि इस सन् प्रत्यय को इट् का आगम करना है या नहीं। अर्थात् धातु सेट है या अनिट् ?

. अजादि इकारान्त धातुओं के सन्नन्त रूप -

इक् धातु - यह धातु अनिट् है। इसमें हलन्त्यम् सूत्र से क् की इत् संज्ञा करके - इ + सन् / इको झल् सूत्र से अनिट् सन् प्रत्यय के कितवत् होने के कारण अज्झनगमां सनि’ सूत्र से अन्तिम इ को दीर्घ करके - ई + स - ईस । सनाद्यन्ता धातवः सूत्र से धातुसंज्ञा करके, ‘सन्यडोः’ सूत्र से द्वितीय अवयव एकाच् को द्वित्व करके - ईस - ईसस।

ध्यान दें कि इसमें पूर्व वाला ‘स’ अभ्यास है। इसके अन्त में ‘अ’ है।

अभ्यास के ‘अ’ को ‘ई’ बनाना -

. सन्यतः - यदि अभ्यास के अन्त में ‘अ’ हो, तो अभ्यास के इस अन्तिम ‘अ’ को ‘इ’ हो जाता है सन प्रत्यय परे होने पर। जैसे - ईसस - ईसिस / अब दोनों ‘स’ को ‘आदेशप्रत्यययोः’ सूत्र से षत्व करके - ईषिष।

पूर्ववत्सनः - यदि सन्नन्त धातु परस्मैपदी है, तो उसमें सन् लगने के बाद भी परस्मैपद के ही प्रत्यय लगाइये

और यदि आत्मनेपदी है तो उसमें आत्मनेपद के प्रत्यय लगाइये।

इक् धातु परस्मैपदी है अतः सन् लगने के बाद भी यह परस्मैपदी ही रहेगा। अतः इसमें परस्मैपदी प्रत्यय लगाइये। ईषिष + ति।

कर्तरि शप् - कर्बर्थक सार्वधातुक प्रत्यय परे होने पर धातुओं से शप् होता है। ईषिष + शप् + ति / ईषिष + अ + ति / अतो गुणे से पूर्व वाले अ’ को पररूप होकर - ईषिष + ति = ईषिषति। पूरे रूप इस प्रकार बने -

लट् लकार प्र.पु. ईषिषति ईषिषतः ईषिषन्ति म.पु. ईषिषसि ईषिषथः ईषिषथ उ.पु. ईषिषामि

ईषिषावः

ईषिषामः

समस्त धातुओं के सन्नन्त के रूप बनाने की विधि

५१३

स ईङ् (आत्मनेपदी) धातु - यह धातु अनिट् है तथा ङ् की इत् संज्ञा होने से आत्मनेपदी है। इ + सन् - इ को अज्झनगमां सनि सूत्र से दीर्घ करके - ईस / ‘सन्यडोः’ सूत्र से धातु के द्वितीय अवयव एकाच् ‘स’ को द्वित्व करके - ईसस / सन्यतः सूत्र से अभ्यास के अ को इ बनाकर - ईसिस / दोनों ‘स’ को आदेशप्रत्यययोः सूत्र से षत्व करके - ईषिष - पूर्ववत् ईषिषते।

यहाँ इण्, इङ् धातुओं का विचार यहाँ क्यों नहीं किया ?

आरम्भ में ही धात्वादेश में हमने पढ़ा है कि ‘सनि च’ सूत्र से सन् प्रत्यय परे होने पर, अबोधनार्थक इण् धातु को गम् आदेश होता है तथा ‘इङश्च’ सूत्र से सन् प्रत्यय परे होने पर, अबोधनार्थक इङ् धातु को भी गम् आदेश होता है।

गम् आदेश हो जाने से ये इण, इङ् धातु अजादि नहीं रह जाते हैं, अतः इनका विचार यहाँ नहीं किया। इनका विचार हम हलादि धातुओं के अदुपध वर्ग में करेंगे।

अजादि उकारान्त धातुओं के सन्नन्त रूप -

उङ् धातु - यह धातु अनिट् है तथा ङ् की इत् संज्ञा होने से आत्मनेपदी है। उ + सन् - उ को अज्झनगमां सनि सूत्र से दीर्घ करके, ऊ + स - ऊस।

‘सन्यङोः’ सूत्र से धातु के द्वितीय अवयव एकाच स को द्वित्व करके - ऊसस / सन्यतः सत्र से अभ्यास के अ को इ बनाकर - ऊसिस / दोनों ‘स’ को आदेशप्रत्यययोः सूत्र से षत्व करके - ऊषिष - ऊषिषते।

ऊर्गु धातु - यह धातु वेट है, तथा ‘विभाषोर्णोः’ सूत्र से इससे परे आने वाला सेट् सन् प्रत्यय विकल्प से ङित्वत् माना जाता है, अतः इसके रूप तीन प्रकार से बनेंगे -

१. जहाँ इडागम होगा, और सन् प्रत्यय डित् नहीं होगा, वहाँ -

ऊर्गु + इट् + सन् / ऊर्गु + इ + स / ऊर्जुनु + इस । सार्वधातुकार्धधातुकयोः सूत्र से गुण करके - ऊर्गुनो - इस / एचोऽयवायावः से ‘ओ’ को अव् आदेश करके - ऊर्जुनव् + इ + स, प्रत्यय के स को आदेशप्रत्यययोः सूत्र से षत्व करके - ऊर्जुनविष। ऊर्गु धातु परस्मैपदी है अतः ऊर्जुनविष धातु भी परस्मैपदी ही होगा और इसके रूप इस प्रकार बनेंगे -

लट् लकार प्र.पु. ऊर्जुनविषति ऊर्जुनविषतः ऊर्जुनविषन्ति म.पु. ऊर्जुनविषसि ऊर्जुनविषथः ऊर्जुनविषथ उ.पु. ऊर्जुनविषामि ऊर्जुनविषावः ऊर्जुनविषामः [[५१४]]

२. जहाँ इडागम होगा, और सन् प्रत्यय विभाषोर्णोः’ सूत्र से डित्वत् होगा, वहाँ - ऊर्जुनु + इस / क्ङिति च सूत्र से गुणनिषेध होने के कारण -

अचिश्नुधातुभ्रुवां य्वोरियडुवङौ - जब गुण नहीं होता है, तब धातु के अन्त में आने वाले इ को इयङ् तथा उ को उवङ् आदेश होते हैं अजादि कित् या ङित् प्रत्यय परे होने पर।

इस सूत्र से अन्तिम ‘उ’ को उवङ् करके - ऊर्णनुव् - इस / प्रत्यय के ‘स’ को आदेशप्रत्यययोः सूत्र से षत्व करके - ऊर्जुनविष - ऊर्जुनविषति ।

३. जहाँ इडागम नहीं होगा, और सन् प्रत्यय ‘इको झल्’ सूत्र से कित् होगा, वहाँ - ऊर्णनु + सन् - ऊर्जुनु + स, अन्तिम उ को ‘अज्झनगमां सनि’ सूत्र से दीर्घ करके - ऊर्णनू + स / प्रत्यय के स को ‘आदेशप्रत्यययोः’ सूत्र से षत्व करके - ऊर्जुनूष - ऊर्णनूषति बनाइये।

अजादि हलन्त धातुओं के सन्नन्त रूप -

आप् धातु - आप् अनिट् परस्मैपदी धातु है। आप् + सन् / ‘आप्ज्ञप्यधामीत्’ सूत्र से आ को ई बनाकर - ईप् + सन् - ईप्स । द्वितीय अवयव

एकाच स को ‘सन्यङोः’ सूत्र से द्वित्व करके - ईप्सस।

अत्र लोपोऽभ्यासस्य - आप्ज्ञप्यधामीत् सूत्र में आप् धातु, ज्ञप् धातु, ऋध् धातु कहे गये हैं। इन धातुओं के अभ्यास का लोप हो जाता है। ईप्सस - अभ्यास का लोप करके - ईप्स - ईप्सति।

ऋध् धातु - यह वेट धातु है। इसे विकल्प से इडागम होता है।

इडागम न होने पर - ऋध् + सन् / अब आप्ज्ञप्यधामीत् सूत्र से अच् को ई आदेश कीजिये । ध्यान रहे कि ऋ के स्थान पर होने वाला ‘ई’ उरण रपरः सूत्र से ईर् हो जाता है। ऋध् + सन् - ईध् + स - खरि च सूत्र से चर्व करके - ईर्ल्स । द्वितीय अवयव एकाच स को ‘सन्यङोः’ सूत्र से द्वित्व करके - ईर्ल्सस । अत्र लोपोऽभ्यासस्य सूत्र से अभ्यास का लोप करके - ईर्ल्स - ईर्त्यति।

इडागम होने पर - ऋध् + सन् / ऋध् + इट् + सन् / पुगन्तलघूपधस्य च सूत्र से गुण करके, अध् + इट् + स - अर्धिस ।

द्वितीय अवयव एकाच् ‘धि’ को ‘सन्यङोः’ सूत्र से द्वित्व करके - अर्धिधिस / अभ्यास को अभ्यासे चर्च से जश्त्व करके - अदिधिष - अर्दिधिषति।

न शेष अजादि हलन्त धातुओं के सन्नन्त रूप -

द्वित्व तथा अभ्यासकार्य करके अजादि धातु का जो भी रूप बना है, उसमें यदि कोई अन्य कार्य प्राप्त न हो, तब उसमें परस्मैपद, आत्मनेपद का विचार

समस्त धातुओं के सन्नन्त के रूप बनाने की विधि

अङ्ग

एध्

5 करके ‘ति’ ‘ते’ लगा लीजिये, बस। जैसे - अ - अञ्चिकिष

अञ्चिकिषति ईक्ष् - ईचिक्षिष

ईचिक्षिषते अजिगिष

अञ्जिगिषते ऊह - ऊजिहिष

ऊजिहिषते ईह - ईजिहिष

ईजिहिषते

उज्झ्

उज्जिझिष

उज्जिझिषति उम्भ उम्बिभिष

उम्बिभिषति एदिधिष

एदिधिषते

उख -

ओचिखिष

ओचिखिषति

इव

इञ्चिखिष

इञ्चिखिषति ऋम्प ऋम्पिफिष

ऋम्पिफिषति उञ्छ्

उञ्चिच्छिष

उञ्चिच्छिषति अण्ठ

अण्टिठिष

अण्टिठिषति अङ्घ अञ्जिघिष

अजिघिषति

अञ्ज

अजिजिष

अजिजिषति अत् - अतितिष

अतितिषति अरिरिष

अरिरिषति अट्

अटिटिष

अटिटिषति

इष्

एषिषिष

एषिषिषति उन्द् - उन्दिदिष

उन्दिदिषति उब्जिजिष

उब्जिजिषति

अब हम अजादि णिजन्त धातुओं के सन्नन्त रूप बनायें

ध्यान रहे कि णिच् प्रत्यय से बने हुए धातु सदा अनेकाच् होते हैं। अतः सेट होते हैं। हम पढ़ चुके है कि यदि अजादि धातु के बाद णिच्’ प्रत्यय हो. तथा उसके बाद सन’ प्रत्यय हो. तब धात में ‘णिच’ प्रत्यय के ‘इ’ को मिलाकर उसे अनेकाच् बना लिया जाता है, उसके बाद उसके द्वितीय अवयव एकाच् को ‘सन्यङोः’ सूत्र से द्वित्व कर दिया जाता है।

जैसे - एध् + णिच् - एधि / एधि + इट् + सन् - एधि धि + इट् +सन्-अभ्यास के ध् को जश्त्व करके - एदिधि + इस - सार्वधातुकार्धधातुकयोः सूत्र से एधि के अन्त के इ को गुण करके - एदिधे + इस - एचोऽयवायावः से

उब्ज् [[५१६]]

अयादेश करके एदिधय् + इस / प्रत्यय के स को षत्व करके - एदिधयिष = एदिधयिषति।

धातुओं में णिजन्त कैसे जोड़ें यह णिजन्त प्रक्रिया में विस्तार से बतलाया गया है, उसे वहीं देखें।

यह सारे अजादि धातुओं के सन्नन्त रूप बनाने की विधि पूर्ण हुई।

हलादि धातुओं के सन्नन्त रूप बनाने की विधि अत्यावश्यक -

हलादि धातुओं के सन्नन्त रूप बनाते समय यह ध्यान रखिये कि यदि धातु अनिट् है, तो पहिले अङ्गादिकार्य करना चाहिये तथा बाद में द्वित्वाभ्यासकार्य। यदि धातु सेट है तो पहिले द्वित्वाभ्यासकार्य करना चाहिये, बाद में अङ्गादिकार्य ।

वे कौन से अङ्गादिकार्य हैं, जो कि द्वित्व करने के पहिले अनिट् धातुओं को किये जाते हैं -

अगादिकार्य

१. ऋकारान्त धातुओं को छोड़कर अन्य अजन्त धातुओं को तथा हन् गम् धातुओं को दीर्घ करना -

अज्झनगमां सनि - अजन्त धातुओं को, तथा हन्, गम् धातुओं को दीर्घ होता है, अनिट् सन् प्रत्यय परे होने पर। जैसे - चि + सन् - अज्झनगमां सनि सूत्र से दीर्घ करके - ची + स / इसी प्रकार - हु + सन् - हु + स / कृ + सन् - कृ + स / गम् + सन् - गाम् + स / हन् + सन् - हान् + स आदि। ध्यान रहे कि सेट् सन् प्रत्यय परे होने पर यह दीर्घ न किया जाये।

ध्यान रहे कि अनिट् अजन्त धातुओं को तथा अनिट् गम्, हन् धातुओं को यह दीर्घ करके ही इन्हें द्वित्व किया जाये।

२. जिस ऋ के पूर्व में ओष्ठ्यवर्ण नहीं है, उसे इर् बनाना -

ऋत इद् धातोः - धातु के अन्त में आने वाले दीर्घ ऋ को इ आदेश होता है कित् या ङित् प्रत्यय परे होने पर।

उरण रपरः - जब भी किसी सूत्र से ऋ के स्थान पर, अ, इ, या उ होना कहा जाये तब उन्हें अ, इ, या उ न करके अर्, इर्, उर् करना चाहिये।

_ अतः ऋत इद् धातोः सूत्र से जो दीर्घ ऋ के स्थान पर इ आदेश कहा गया है वह ‘इ’ न होकर इर् हो जायेगा। तृ + सन् - तिर् + स -

हलि च - यदि धातु के अन्त में र् या व् हो और उपधा में इक् हो तो उस इक् को दीर्घ हो जाता है, हल् परे रहने पर। तिर् + स - तीर् + स।

समस्त धातुओं के सन्नन्त के रूप बनाने की विधि

ध्यान रहे कि अनिट् सन् प्रत्यय परे होने पर ऋकारान्त धातुओं के ऋ को इर् बनाकर ही इन्हें द्वित्व किया जाये।

३. जिस ऋ के पूर्व में ओष्ठ्यवर्ण है, उसे उर् बनाना -

उदोष्ठ्यपूर्वस्य - कित् या डित् प्रत्यय परे होने पर धातु के अन्त में आने वाले दीर्घ ऋ को उ आदेश होता है यदि उस दीर्घ ऋ के पूर्व में आने वाला वर्ण पवर्ग या व् हो तो।

यह उ आदेश उरण रपरः सूत्र से उर् हो जाता है। और हलि च सूत्र से दीर्घ होकर ऊर् हो जाता है। पृ + सन् - पुर् + सन् - पूर् + स / वृ + सन् - वुर् + सन् - वूर् + सन्।

__ ध्यान रहे कि अनिट् सन् प्रत्यय परे होने पर ओष्ठ्यवर्णपूर्वक ऋकारान्त धातुओं के ऋ को उर् बनाकर ही इन्हें द्वित्व किया जाये।

४. ग्रह्, स्वप्, प्रच्छ् धातुओं को सम्प्रसारण करना -

यद्यपि सम्प्रसारणकार्य अङ्गकार्य नहीं है, तथापि उसे यहाँ जानना आवश्यक है, अतः बतला रहे हैं।

५०३ पृष्ठ पर ‘रुदविदमुषग्रहिस्वपिप्रच्छः संश्च’ सूत्र को पढ़िये। इसके अनुसार देखिये कि इनमें केवल ग्रह, स्वप्, प्रच्छ धातुओं से परे आने वाला सन् प्रत्यय कित् होता है। अतः सन् प्रत्यय परे होने पर ग्रह, प्रच्छ् धातुओं को ‘ग्रहिज्यावयिव्यधिवष्टिविचतिवृश्चतिपृच्छतिभृज्जतीनां डिति च’ सूत्र से सम्प्रसारण करके ही इन्हें द्वित्व कीजिये। ग्रह + सन् - गृह + सन् - गृह गृह + सन् / प्रच्छ + सन् - पृच्छ + सन् - पृच्छ पृच्छ + सन् ।

स्वप् धातु को ‘वचिस्वपियजादीनाम् किति’ सूत्र से सम्प्रसारण करके ही इसे द्वित्व कीजिये। स्वप् + सन् - सुप् + सन् - सुप् सुप् + सन्।

५. अनिट् तृन्ह, दम्भ धातुओं के न् का लोप करना -

अनिदितां हल उपधायाः क्डिति - कित् या डित् प्रत्यय परे होने पर, अनिदित् हलन्त धातुओं की उपधा के ‘न्’ का लोप होता है।

ध्यान रहे कि अनिदित् हलन्त धातुओं में से केवल तृन्ह, दम्भ धातु से परे आने वाला सन् प्रत्यय ही कित् है अतः इससे अनिट् सन् प्रत्यय परे होने । पर इनकी उपधा के ‘न्’ का लोप होगा। न् का लोप करके ही इन्हें द्वित्व होगा।

तृन्ह् + सन् - तृह् + सन् - तृह तृह् + सन् ’ दम्भ् + सन् - दभ् + सन् - दभ् दभ् + सन्

  • ध्यान रहे कि इडागम हो जाने पर इन्हें कित्वत्भाव नहीं होगा। अतः

५१८

अष्टाध्यायी सहजबोध ।

सेट् सन् प्रत्यय परे होने इनकी उपधा के ‘न्’ का लोप भी नहीं होगा। तृन्ह् + इट् + सन् - तुंह तुंह् + इ + सन् दम्भ् + इट् + सन् - दम्भ दम्भ् + इ + सन्

६. छ् को श् तथा व् को ऊठ आदेश करना -

च्छवोः शूडनुनासिके च - क्वि प्रत्यय परे होने पर झलादि कित् डित् प्रत्यय परे होने पर तथा अनुनासिक प्रत्यय परे होने पर, च्छ को श् तथा व् को ऊ आदेश होता है। ध्यान रहे कि अनिट् सन् प्रत्यय परे होने पर धातुओं के अन्त में आने वाले छ् को श् तथा व् को ऊठ आदेश करके ही इन्हें द्वित्व किया जाये। यथा - दिव् + सन् - दि ऊठ् + सन् = यू + सन् सिव् + सन् - सि ऊठ् + सन् = स्यू + सन् त्रिव् + सन् - स्रि ऊठ् + सन् = यू + सन् ष्ठिव् + सन् - ष्ठि ऊठ् + सन् = ष्ठ्यू + सन्

७. सनि मीमाघुरभलभशकपतपदामच इस् - सन् प्रत्यय परे रहने पर मी धातु, मा धातु, घु धातु, रभ् धातु, लभ् धातु, शक् धातु, पत् धातु, पद् धातुओं के अच् को इस आदेश होता है।

__ध्यान रहे कि अनिट् सन् प्रत्यय परे होने पर मी धातु, मा धातु, घु धातु, रभ् धातु, लभ् धातु, शक् धातु, पत् धातु, पद् धातुओं के अच् को इस् आदेश करके ही इन्हें द्वित्व किया जाये।

८. आप्ज्ञप्यधामीत् - सन् प्रत्यय परे रहने पर आप् धातु, ज्ञप् धातु, ऋध् धातुओं के अच् को ई आदेश होता है।

ध्यान रहे कि अनिट् सन् प्रत्यय परे होने पर ज्ञप् धातु के अच् को ‘ई’ आदेश करके ही इसे द्वित्व किया जाये । आप और ऋध् धातु अजादि धातुओं के वर्ग में बतलाये जा चुके हैं।

९. दम्भ इच्च - सन प्रत्यय परे रहने पर दम्भ धात के अच को विकल्प से इ, ई आदेश होता है। ध्यान रहे कि अनिट् सन् प्रत्यय परे होने पर दम्भ धातु के अच् को विकल्प से ‘ई’ ‘ई’ आदेश करके ही इसे द्वित्व किया जाये।

१०. मुचोऽकर्मकस्य गुणो वा - सन् प्रत्यय परे रहने पर अकर्मक मुच् धातु के अच् को विकल्प से गुण होता है सकारादि सन् प्रत्यय परे होने पर।

ध्यान रहे कि अनिट् सन् प्रत्यय परे होने पर मुच् धातु के अच् को विकल्प से गुण करके ही इसे द्वित्व किया जाये।

समस्त धातुओं के सन्नन्त के रूप बनाने की विधि

५१९

११. अत्र लोपोऽभ्यासस्य - सनि मीमाघुरभलभशकपतपदामच इस्, आप्ज्ञप्यधामीत्, दम्भ इच्च, मुचोऽकर्मकस्यगुणो वा, इन चार सूत्रों में जितने भी धातु कहे गये हैं, उन धातुओं को द्वित्व करने के बाद उनके अभ्यास का लोप हो जाता है।

अतः इन्हें द्वित्व करके इनके अभ्यास का लोप कर दें। इन सबके उदाहरण आगे देंगे। इन सूत्रों के अर्थों को बुद्धिस्थ करके ही अब हलादि धातुओं के सन्नन्त रूप बनाइये।

हलादि धातुओं को द्वित्व कैसे करें ?

सन्यडोः / एकाचो द्वे प्रथमस्य - सन्नन्त तथा यङन्त हलादि अनभ्यास धातु के प्रथम अवयव एकाच् को द्वित्व होता है।

द्वित्व करने में बहुत सावधानी यह रखना चाहिये कि -

१. हमने अजादि धातुओं में पहिले इट, सन् को जोड़कर, उन्हें अनेकाच् बना लिया है, तब उन्हें ‘सन्यडोः’ सूत्र से द्वित्व किया है। जैसे -

एध् + इट् + सन् - एधिस - द्वितीय अवयव एकाच् ‘धि’ को द्वित्व करके - एधिधिष / उख् + इट् + सन् - ओखिस - ओखिखिष आदि।

किन्तु हलादि धातुओं में ऐसा नहीं होता। यहाँ सन्, धातु से दूर ही बैठा रहता है और इट, सन् को छोड़कर, यह द्वित्व केवल धातु को ही होता है। यथा - यु + इट् + सन् - यु यु + इट् + सन् आदि।

२. दूसरी बात यह कि हमने अजादि सन्नन्त धातु के द्वितीय अवयव एकाच् को द्वित्व किया है। किन्तु यदि धातु हलादि हो, तब उसके प्रथम अवयव एकाच को ही द्वित्व होता है। अजादि तथा हलादि, दोनों ही प्रकार के धातुओं को द्वित्व करने में यह सावधानी रखना चाहिये कि -

द्विर्वचनेऽचि - यदि धातु अनिट् है, तो पहिले अगादिकार्य किये जाते हैं, तथा बाद में द्वित्वाभ्यासकार्य । यदि धातु सेट है तो पहिले द्वित्वाभ्यासकार्य किये जाते हैं, बाद में अगादिकार्य । यही ‘द्विर्वचनेऽचि’ सूत्र का तात्पर्य है। __ अतः द्वित्व करने के लिये हलादि धातुओं के दो वर्ग बनाइये।

१. हलादि अनिट् धातु - हलादि धातु यदि अनिट् हो तब उसमें पहिले ऊपर कहे हुए कार्यों में से जो भी अगादिकार्य प्राप्त हों, उन्हें कर लीजिये। उसके बाद ही द्वित्व तथा अभ्यासकार्य कीजिये। जैसे -

कृ + सन् - अज्झनगमां सनि सूत्र से दीर्घ करके - कृ + स / ऋत इद् धातोः सूत्र से ऋ को इर् करके - किर् + स / अब इस ‘किर्’ को द्वित्व [[५२०]]

कीजिये।

तृ + सन् / ऋत इद् धातोः सूत्र से ऋ को इर् करके - तिर् + स / अब इस ‘तिर्’ को द्वित्व कीजिये।

वृ + सन् अज्झनगमां सनि सूत्र से दीर्घ करके - वृ + स / उदोष्ठ्यपूर्वस्य सूत्र से ऋ को उर् करके - वुर् + स / अब इस वुर्’ को द्वित्व कीजिये।

मृ + सन् - अज्झनगमां सनि सूत्र से दीर्घ करके - मृ + स / उदाष्ठ्यपूर्वस्य सूत्र से ऋ को उर् करके - मुर् + स / अब इस ‘मुर्’ को द्वित्व कीजिये।

भृ + सन् - अज्झनगमां सनि सूत्र से दीर्घ करके - भृ + स ./ उदाष्ठ्यपूर्वस्य सूत्र से ऋ को उर् करके - भुर् + स / अब इस ‘भुर्’ को द्वित्व कीजिये।

स्वप् + सन् - वचिस्वपियजादीनां किति सूत्र से सम्प्रसारण करके - सुप् + स / अब इस ‘सुप्’ को द्वित्व कीजिये।

२. हलादि सेट् धातु - हलादि धातु यदि सेट हो तब उसे पहिले द्वित्व तथा अभ्यासकार्य कीजिये। उसके बाद जो भी अगादिकार्य प्राप्त हों, उन्हें कीजिये।

जैसे - यु + इट् + सन् में पहिले यु को द्वित्व तथा अभ्यासकार्य करके यियु + इस बनाइये। उसके बाद ही सार्वधातुकार्धधातुकयोः सूत्र से गुण करके - यियो + इस आदि बनाइये। यह सावधानी रखकर ही हलादि धातुओं को इस प्रकार द्वित्व कीजिये -

यदि हलादि धातु में एक ही अच् हो तब आप पूरे के पूरे धातु को द्वित्व कर दीजिये क्योंकि उस धातु में वही प्रथम अवयव एकाच है। जैसे पठ् + सन् - पठ् पठ् + सन् वद् + सन् - वद् वद् + सन् लिख + सन् - लिख लिख + सन्

खाद् + सन् - खाद खाद + सन आदि।

__ यदि हलादि धातु में एक से अधिक अच् हों, तब आप उस धातु के पहिले हल और पहिले अच् को मिलाकर जो भी अक्षर बने उसको द्वित्व कर दीजिये क्योंकि उस धातु में वही प्रथम अवयव एकाच् है। जैसे - चकास् + = सन् - च चकास् + सन् - जागृ + सन् - जा जागृ + सन् -

समस्त धातुओं के सन्नन्त के रूप बनाने की विधि

__५२१

सन्

          • EEEEEEEEE

दरिद्रा + सन् - द दरिद्रा + सन् - आदि।

यदि धातु अनिट् हो तो पहिले ऊपर कहे हुए अङ्गादिकार्य करके, उसके बाद ही द्वित्व कीजिये। कृ + सन् - किर् + सन् - किर् किर् + सन्

  • सन मुर् + सन् - मुर् मुर् + सन् तृ + सन् -
  • तिर् तिर् + सन् सन् -

  • वुर् वुर् + सन्

  • दिस् दिस् + सन् मा +

मिस् + सन् - मिस् मिस् + सन्

  • पद् +

  • पिस् पिस् + सन् गम् सन् -

  • गाम् गाम् + सन् हन् सन् -

  • हान् हान् + सन् दिव् + सन् -

  • यू यू + सन् सिव् + सन् स्यू + सन् - स्यू स्यू + सन् स्रिव् + सन् - + सन् - यू यू + सन् ष्ठिव् + सन् - + सन् - ष्ठ्यू ष्ठ्यू + सन् ग्रह + सन् -

  • गृह गृह् + सन् प्रच्छ + सन् -

  • पृच्छ् पृच्छ् + सन् स्वप् + सन् सुप् . + सन् - सुप् सुप् + सन् ज्ञप् + सन् - शिप् + सन् - शिप् शिप् + सन् गुंह् + सन् - तृह् + सन् - तृह् तृह् + सन् दम्भ + सन् - दभ् + सन् - दभ् दभ् . + सन्

पूर्वोऽभ्यासः - हम जानते हैं कि जिसे द्वित्व किया जाता है, उन दो में जो पूर्व वाला अंश होता है, उसका नाम अभ्यास होता है।

द्वित्व करने के बाद इस प्रकार अभ्यासकार्य कीजिये -

अभ्यासकार्य

१. हलादिः शेषः - अभ्यास के धातु में जो हल् आदि में है, वह शेष रहता है, तथा जो हल आदि में नहीं हैं, उन हलों का लोप हो जाता है।

अब अभ्यास के धातुओं को देखिये, इनमें जो पहिला हल् तथा पहिला अच् है उसे बचा लीजिये, शेष का लोप कर दीजिये। जैसे - पठ् पठ् को देखिये, इसमें पूर्व वाला पठ् अभ्यास है, इस अभ्यास में पहिला हल प् है तथा पहिला अच्

  • सन्

  • [[५२२]]

पठ्

को

पठ् पठ्

वद्

व वद्

खाद्

मष्

अ है, इन्हें मिलाकर बना ‘प’। इसे बचा लीजिये तथा शेष का हलादिः शेषः से लोप कर दीजिये, तो बनेगा - पपठ् ।

हलादिः शेषः’ सूत्र से, आदि हल के अलावा, अन्य हलों का लोप कर देना अभ्यासकार्य है।

ज्ञा ज्ञा को देखिये, इसमें पूर्व वाला ज्ञा’ अभ्यास है। इस अभ्यास में पहिला हल् ‘ज्’ है तथा पहिला अच् ‘आ’ है, इन्हें मिलाकर बना ‘जा’ । इसे बचा लीजिये तथा शेष का हलादिः शेषः से लोप कर दीजिये, तो बनेगा - जाज्ञा।

अब कुछ धातुओं को द्वित्व करके, अभ्यास के ‘पहिले हल् + पहिले अच्’ को बचाकर शेष का लोप करके देखिये -

प पठ्

वद् वद् लिख

लिख लिख

लि लिख खाद् खाद्

खा खाद् मूष् मूष्

मू मूष् भुज् भुज्

भु भुज् भूष् भूष मील मील

मी मील ज्ञा ज्ञा श्रि श्रि स्रु त्रु

द्यू द्यू दा - दिस्

दिस् दिस्

दि दिस पद् - पिस् वृ - वुर्

__ तुर् वुर्

वु वुर् कृ - किर्

किर किर

कि किर मृ - मुर्

मुर् मुर्

मु मुर् पा सन् - पा पा + सन् / नी + सन् - नी नी + सन् आदि में अभ्यास जो ‘पा’ ‘नी’ हैं, उनमें एक ही हल्’ है, अतः यहाँ किसी का लोप मत कीजिये। जैसे - नी - नी नी / पा - पा पा / भू - भू भू आदि।

हलादिः शेषः के अपवाद - शपूर्वाः खयः - यदि ऐसे हलादि धातु हों जिनके आदि में स्, श्, या

भू भूष्

5

) 1940

पिस्

पि पिस्

समस्त धातुओं के सन्नन्त के रूप बनाने की विधि

५२३

ए हों तथा उन स्, श्, ष् के बाद, किसी भी वर्ग का प्रथम या द्वितीय अक्षर हो, जैसे स्था, स्फुल्, स्तुभ्, स्तम्भ, स्पर्ध, स्पृश्, श्च्युत् आदि में है, तब इन धातुओं के अभ्यासों में से, द्वितीय हल् तथा प्रथम अच् को मिलाकर जो भी अक्षर बने उसे बचा लीजिये, और शेष का लोप कर दीजिये। इसे करके देखिये -

स्पर्ध - स्पर्ध स्पर्ध को देखिये। यहाँ अभ्यास के आदि में स् है, उस स् के बाद में पवर्ग का प्रथम अक्षर प् है। अतः इस अभ्यास के द्वितीय हल ‘प्’ तथा प्रथम अच् ‘अ’, इन दोनों को मिलाकर बने हुए ‘प’ को बचा लीजिये। और शेष का शपूर्वाः खयः से लोप कर दीजिये - स्पर्ध - स्पर्ध स्पर्ध को पस्पर्ध । न

  • इसी प्रकार स्था - स्था स्था को देखिये। यहाँ अभ्यास के आदि में स् है, उस स् के बाद में तवर्ग का द्वितीय अक्षर थ् है, अतः इस अभ्यास के द्वितीय हल् थ् तथा प्रथम अच् आ, इन दोनों को मिलाकर बने हुए ‘था’ को बचा लीजिये। और शेष का शपूर्वाः खयः से लोप कर दीजिये - स्था - स्था स्था को थास्था।

इसी प्रकार स्तम्भ - स्तम्भ स्तम्भ को देखिये। यहाँ अभ्यास के आदि में स् है, उस स् के बाद में तवर्ग का प्रथम अक्षर त् है, अतः इस अभ्यास के द्वितीय हल त तथा प्रथम अच् अ, इन दोनों को मिलाकर बने हुए ‘त’ को बचा लीजिये । और शेष का शपूर्वाः खयः से लोप कर दीजिये - स्तम्भ - स्तम्भ स्तम्भ को तस्तम्भ ।

इसी प्रकार स्फुल् को देखिये। यहाँ अभ्यास के आदि में स् है, उस स् के बाद में पवर्ग का द्वितीय अक्षर फ् है। अतः इस अभ्यास के द्वितीय हल् फ् तथा प्रथम अच् उ, इन दोनों को मिलाकर बने हुए ‘फु’ को बचा लीजिये। और शेष का शपूर्वाः खयः से लोप कर दीजिये - स्फुल् को फुस्फुल।

इसी प्रकार श्च्युत् को देखिये । यहाँ अभ्यास के आदि में श् है, उस श् के बाद में चवर्ग का प्रथम अक्षर च है। अतः इस अभ्यास के द्वितीय हल च तथा प्रथम अच् उ, इन दोनों को मिलाकर बने हुए ‘चु’ को बचा लीजिये। और शेष का शपूर्वाः खयः से लोप कर दीजिये - श्च्युत् को चुश्च्युत् ।

ऐसे धातु इस प्रकार हैं - स्पः - पस्पर्ध

स्कुन्द् - कु स्कुन्द् स्पन्द् - पस्पन्द्

स्तुच् - तु स्तुच् । स्फू

स्फुट

फु स्फुट स्तम्भ तस्तम्भ

स्कम्भ - क स्कम्भ स्तुभ् - . तुस्तुभ्

स्खद् - ख स्खद्

फूस्फू [[५२४]]

स्थल

स्थुड् स्फुल

स्फुड्

स्फिट्ट स्तन्

ते स्तेन्

स्खल

खस्खल

थ स्थल

स्पश्

पस्पश्

स्कन्द

क स्कन्द् स्तिघ् तिस्तिघ्

थु स्थुड् स्फुर्

फुस्फुर्

फु स्फुल् फुस्फुड्

स्फुड् फु स्फुड् फिस्फिट्ट

स्तुप् - तु स्तुप् तस्तन्

स्तेन् - स्कु - कु स्कु

स्तृ - तृस्तृ स्तु -

स्ता - ता स्ता स्था - थास्था

स्त्या - ता स्त्या। __२. उरत् - अभ्यास के अन्त में आने वाले, ऋ, ऋ, को ‘अ’ होता है। यह ‘अ’ उरण रपरः सूत्र की सहायता से ‘अर्’ हो जाता है।

अतः यदि हलादिः शेषः’ सूत्र से अभ्यास के हलों का लोप करने के बाद किसी अभ्यास के अन्त में ऋ, ऋ, आ गये हों, जैसे - वृत् - वृत् वृत् - व वृत् में है / तो ऐसे अभ्यासों के अन्तिम ऋ ऋ को भी इस सूत्र से अर् बनाइये

और हलादिः शेषः सूत्र से ‘र’ का लोप कर दीजिये। यथा - वृष् - वृष् वृष् - वृ वृष् - वर् वृष् - व वृष् कृष् - कृष् कृष् - कृ कृष् - कर् कृष् - क कृष् हृष् - हृष् हृष्’ - ह हृष् - हर् हृष् - ह हृष् वृत् - वृत् वृत् - वृ वृत् - वर् वृत् - व वृत्

३. ह्रस्वः - धातु को द्वित्व तथा ‘हलादिः शेषः’ करने के बाद देखिये, कि जो अभ्यास है, उसमें यदि दीर्घ स्वर है, तो उसे ह्रस्व हो जाता है।

हस्व इस प्रकार होते हैं - आ का ह्रस्व अ - यथा - खा खाद् - ख खाद् ई का हस्व इ - यथा - नी नी - नि नी ऊ का ह्रस्व उ - यथा - भू भू - भु भू ए का हस्व इ - यथा - से सेव् - सि सेव् ओ का ह्रस्व उ - यथा - गो गोष्ट - गु गोष्ट औ का ह्रस्व उ - यथा - ढौ ढौक् - ढु ढौक्

४. कुहाश्चुः - अब अभ्यास को देखिये। यदि अभ्यास में कवर्ग का कोई वर्ण हो, तो इस सूत्र से अभ्यास के उस कवर्ग के वर्ण को आप, चवर्ग का वर्ण

समस्त धातुओं के सन्नन्त के रूप बनाने की विधि

५२५

गम्

बना दीजिये। ध्यान रहे कि वर्ण का कमाङ्क वही रहे - जैसे क को च / ख को छ / ग को ज / घ को झ। इसे चुत्व करना कहते हैं। यदि अभ्यास में ‘ह’ हो तो उस ‘ह’ को चुत्व करके ‘ज’ बना दीजिये। कुछ उदाहरण -

कृ कि किर् कि किर् चि किर् खन् खन् खन् ख खन् छ खन्

गम् गम्ग गम् ज गम् हस् हस् हस् ह हस् ज हस्

हान् हान् ह हान् ज हान्

अभ्यासाच्च - अभ्यास से परे जो हन् धातु का हकार उसे कवर्गादेश होकर घ् हो जाता है। जैसे - हन् - जहान् - जघान्

५. अभ्यासे चर्च - यदि अभ्यास में वर्ग का चतुर्थाक्षर है तो इसे उसी वर्ग का तृतीयाक्षर बना दीजिये, इसे जश्त्व करना कहते हैं, तथा यदि अभ्यास में वर्ग का द्वितीयाक्षर है तो उसे उसी वर्ग का प्रथमाक्षर बना दीजिये। इसे चर्व करना कहते हैं। उदाहरण -

चव

जश्त्व थु थुड् तु थुड्

भ भ्रज्ज् ब भ्रज्ज् छ खन् च खन्

झ झर्ड्स ज झर्ड्स फ फल्

प फल्

ढु ढौक् डु ढौक् फ फण्. प फण्

भु भू बु भू आदि। हमने देखा कि अभ्यास में रहने वाले कवर्ग के सारे व्यञ्जनों में तथा अन्य वर्गों के केवल दूसरे, चौथे व्यञ्जनों में, तथा हकार में ही ये ऊपर कहे हुए परिवर्तन होते हैं।

यदि अभ्यास में दूसरे, चौथे व्यञ्जनों, कवर्ग और हकार के अलावा कोई भी व्यञ्जन हैं, तब आप उन्हें कुछ मत कीजिये। जैसे - चल्

च चल् - च चल जप्

ज जप्

ज जप् टि टीक डि डी

डि डी त तृ

त तृ द दल

न नम्

टीक

टि टीक

2 DEF

द दल्

न नम् [[५२६]]

पत

मील

प पत्

  • प पत्

बाध

ब बाध्

ब बाध् मि मील

मि मील य यम्

य यम् व वृध्

व वृध् र रम्

र रम् ल लप् - ल लप् शास् - श शास् - श शास्

६. द्युतिस्वाप्योः सम्प्रसारणम् - द्युत् धातु तथा ण्यन्त स्वप् धातु के अभ्यास को सम्प्रसारण होता है। जैसे - द्युत् - द्वित्व करके द्युत् द्युत् - अभ्यास को सम्प्रसारण करके - दिद्युत्।

७. अभ्यास के ‘अ’ को ‘ई’ बनाना - ये सारे कार्य हो चुकने के बाद हम देखें कि क्या अभ्यास में ‘अ’ है, यदि है तो उसे ‘इ’ बना दीजिये।

सन्यतः - यदि अभ्यास के अन्त में अ हो, तो अभ्यास के उस अन्तिम ‘अ’ को ‘इ’ हो जाता है, सन् प्रत्यय परे होने पर। जैसे -

स्पः - पस्पर्ध - पिस्पर्ध स्पन्द - पस्पन्द् - स्खल

चस्खल

चिस्खल

स्थल -

तस्थल

पस्पश् स्कन्द् - चस्कन्द्

चिस्कन्द्

स्तन्

तस्तन्

तिस्तन् व वृष्

वि वृष् च खन्

चि खन् च चल ज जप् द दल

दि दल प पत्

पि पत्

बाध

ब बाध्

वृध्

व वृध् ल लप्

लि लप्

पिस्पन्द्

तिस्थल पिस्पश्

स्पश्

खन्

चल

चि चल् जि जप्

P494

बि बाध्

वि वृध्

लपसमस्त धातुओं के सन्नन्त के रूप बनाने की विधि

५२७

हन्

शास् - श शास् - शि शास्

__- जघान् - जि घान् आदि।

हमने जाना कि - धातु में सन् प्रत्यय जोड़ते समय हमारी दृष्टि में चार बातें एकदम स्पष्ट होना चाहिये।

१. पहिली बात यह स्पष्ट होना चाहिये कि सन् प्रत्यय को देखकर कहीं किसी धातु को धात्वादेश होकर धातु की आकृति तो नहीं बदल रही है ? धात्वादेश हमने प्रारम्भ में ही दे दिये हैं।

२. दूसरी बात यह स्पष्ट होना चाहिये कि जिस धातु में हम प्रत्यय जोड़ रहे हैं, वह धातु सेट है या अनिट् या वेट ?

यदि धातु सेट है तो सन् प्रत्यय को इट् का आगम कीजिये। यदि धातु अनिट् है तो सन् प्रत्यय को इट् का आगम मत कीजिये । यदि धातु वेट है तो सन् प्रत्यय को इट् का आगम विकल्प से कीजिये।

धातुओं की इडागम व्यवस्था का निष्कृष्टार्थ प्रारम्भ में दिया जा चुका है, उसे वहीं देखकर तथा समझकर ही यहाँ प्रविष्ट हों।

३. तीसरी बात यह स्पष्ट होना चाहिये कि कहीं किसी अतिदेश सूत्र के प्रभाव से यह सन् प्रत्यय कित् जैसा अथवा कहीं ङित् जैसा तो नहीं मान लिया गया है ?

४. यह भी स्पष्ट होना चाहिये कि जब सन् प्रत्यय को इडागम हो, तब हमें द्वित्वकार्य पहिले करना है। जब सन् प्रत्यय को इडागम न हो, तब हमें अगादिकार्य पहिले करना है।

इन चार निर्णयों पर ही हमारी सारी सन्नन्त प्रक्रिया आधारित है। ये चारों कार्य ऊपर बतलाये जा चुके हैं।

अब हम हलादि धातुओं के सन्नन्त रूप इस क्रम से बनायें - १. हलादि अजन्त धातु। २. हलादि हलन्त धातु।

हलादि अजन्त धातुओं के रूप बनाने की विधि

इनका इस प्रकार वर्गीकरण कीजिये - हलादि आकारान्त तथा एजन्त धातु, हलादि इकारान्त धातु, हलादि ईकारान्त धातु, हलादि उकारान्त धातु, हलादि ऊकारान्त धातु, हलादि ऋकारान्त धातु, हलादि ऋकारान्त धातु।

१. आकारान्त तथा एजन्त धातुओं के सन्नन्त रूप

इडागम विचार - सन् प्रत्यय परे होने पर सारे के सारे आकारान्त तथा एजन्त धातु अनिट् हैं। दरिद्रा धातु वेट है। इनके रूप इस प्रकार बनाइये [[५२८]]

पा + सन् / हलन्त्यम् सूत्र से न् की इत् संज्ञा करके बना - पा ः + स / द्वित्व तथा अभ्यासकार्य करके - पपा + स / सन्यतः से अभ्यास को इत्व करके पिपा + स - पिपास - पिपासति। इसी प्रकार -

घ्रा + सन् - घ्रा + स - द्वित्वाभ्यासकार्य करके - जघ्रा + स / सन्यतः से अभ्यास को इत्व करके जिघ्रास - जिघ्रासति।

भा + सन् - द्वित्वाभ्यासकार्य करके - बभा + स / सन्यतः से अभ्यास को इत्व करके - बिभास - बिभासति आदि बनाइये।

हम जानते हैं कि शित् प्रत्ययों को छोड़कर, आदेच उपदेशेऽशिति सूत्र से सारे एजन्त धातुओं को ‘आ’ अन्तादेश होता है।

अतः सन् प्रत्यय परे होने पर सारे एजन्त धातुओं को ‘आ’ अन्तादेश कीजिये - ग्लै - ग्ला, म्लै - म्ला, ध्यै - ध्या, शो - शा, सो - सा, वे - वा

छो - छा आदि।

आकारान्त होने के कारण ये एजन्त धातु भी अनिट् हैं। अतः इनके रूप भी ठीक इसी प्रकार बनेंगे। म्लै - म्ला - मम्ला - मिम्ला - मिम्लासति।

इसके अपवाद - घु संज्ञक दा, धा धातु तथा मा धातु -

सनि मीमाधुरभलभशकपतपदामच इस् - सन् प्रत्यय परे रहने पर मी धातु, मा धातु, घु संज्ञक दा, धा धातु, रभ धातु, लभ् धातु, शक् धातु, पत् धातु तथा पद् धातु के अच् को इस आदेश होता है।

दा + सन्, आ को इस् होकर = दिस् + स / द्वित्वाभ्यासकार्य करके - दिदिस् + स / अत्र लोपोऽभ्यासस्य सूत्र से अभ्यास का लोप करके - दिस् + स -

सः स्यार्धधातुके - स् को त् आदेश होता है सकारादि आर्धधातुक प्रत्यय परे होने पर। दिस् + स - दित्स - दित्सति। इसी प्रकार - धा + सन् - धिस् + स = धित्स - धित्सति मा + सन् - मिस् + स = मित्स - मित्सति

दरिद्रा धातु - हम जानते है कि दरिद्रा धातु सन् प्रत्यय परे होने पर वेट होता है। अतः इसके रूप इस प्रकार बनाइये -

__इडागम होने न होने पर - दरिद्रा + सन् / द्वित्वाभ्यासकार्य करके - ददरिद्रा + स / सन्यतः से अभ्यास को इत्व करके दिदरिद्रा + स - दिदरिद्रास – दिदरिद्रासति।

समस्त धातुओं के सन्नन्त के रूप बनाने की विधि

५२९

इडागम होने होने पर - दरिद्रा + इट् + सन् - दरिद्रा + इस / द्वित्वाभ्यासकार्य करके तथा सन्यतः से अभ्यास के अ को इत्व करके दिदरिद्रा + इस / ‘दरिद्रातरार्धधातुके विवक्षिते आलोपो वाच्यः’ इस वार्तिक से ‘आ’ का लोप करके दिदरिद् + इस / प्रत्यय के स को षत्व करके दिदरिद्र + इष - दिदरिद्रिष - दिदरिद्रिषति।

हृञ् धातु - आदेच उपदेशेऽशिति सूत्र से हृञ् धातु को ह्वा बनाइये।

अभ्यस्तस्य च - इस हा धातु को द्वित्व के पहले ही सम्प्रसारण हो जाता है। अतः इसे पहले सम्प्रसारण करके हु बनाइये।

हे + सन् / सम्प्रसारण होकर - हु + स / अज्झनगमां सनि सूत्र से दीर्घ करके - हू + स / अब द्वित्वाभ्यासकार्य करके - जुहूष - जुहूषति

यह आकारान्त धातुओं में सन् प्रत्यय जोड़ने की विधि पूर्ण हुई। __

सेट् इकारान्त, ईकारान्त धातुओं के सन्नन्त रूप

इडागम विचार - स्मि, शिव, डी, शी, को छोड़कर शेष इकारान्त, ईकारान्त धातु सन् प्रत्यय में अनिट् होते हैं। श्रि धातु वेट होता है, शेष इकारान्त, ईकारान्त धातु अनिट् होते हैं।

सेट् धातुओं को पहिले द्वित्व कीजिये, बाद में इनमें सन् प्रत्यय को देखकर अङ्गकार्य कीजिये। अङ्गकार्य करने के लिये यह ध्यान रखिये कि इन धातुओं से परे आने वाला सन् प्रत्यय सेट होने के कारण कित् नहीं होता है।

रिम- सिस्मि + सन् - सिस्मि + इ + स / ‘सार्वधातुकार्धधातुकयोः’ सूत्र से गुण होकर सिस्मे + इ + स / एचोऽयवायावः से अयादेश होकर सिस्मय + इ + स / आदेशप्रत्यययोः सूत्र से प्रत्यय के स को षत्व होकर सिस्मय् + इ + ष = सिस्मयिष - सिस्मयिषते।

इसी प्रकार - श्वि - शिश्वि + इट् + सन् से शिश्वयिषति / शी - शिशी + इट् + सन् से शिशयिषते / डी - डिडी + इट् + सन् से डिडयिषते बनाइये। श्रि धातु वेट है, अतः इससे शिश्रयिषति और शिश्रीषति बनेंगे।

अनिट् इकारान्त, ईकारान्त धातुओं के सन्नन्त रूप

इको झल् - अनिट् इगन्त धातुओं से परे आने वाला अनिट् सन् प्रत्यय कित् होता है। अनिट् धातुओं में पहिले अङ्गकार्य कीजिये बाद में द्वित्व कीजिये।

डिति च - कित्, डित्, गित् प्रत्यय परे होने पर, इक् के स्थान पर [[५३०]]

चि + स = ची + स / द्वित्वादि करके - चिची + स - चिचीस - चिचीष - चिचीषति। नी + सन् - निनी + स = निनीष - निनीषति । इसी प्रकार सारे अनिट् इकारान्त, ईकारान्त धातुओं के रूप बनाइये।

इसके अपवाद - मी धातु -

सनि मीमाधुरभलभशकपतपदामच इस् - सन् प्रत्यय परे रहने पर मी धातु,मा धातु, घु संज्ञक दा, धा धातु, रभ् धातु, लभ् धातु, शक् धातु, पत् धातु तथा पद् धातु के अच् को इस आदेश होता है।

मी - मी + सन् / ई को इस् होकर = मिस् + स / द्वित्वाभ्यासकार्य करके - मिमिस् + स / अत्र लोपोऽभ्यासस्य सूत्र से अभ्यास का लोप करके - मिस् + स /

सः स्यार्धधातुके - स् को त् आदेश होता है सकारादि आर्धधातुक प्रत्यय परे होने पर। मिस् + स - मित्स - मित्सति।

यह इकारान्त, ईकारान्त धातुओं में सन् प्रत्यय जोड़ने की विधि पूर्ण

सेट् उकारान्त, ऊकारान्त धातुओं के सन्नन्त रूप

उकारान्त, ऊकारान्त धातुओं में पूङ् धातु सेट है। ऊर्गु, यु धातु वेट हैं, शेष धातु अनिट् हैं।

धातु के सेट होने पर पहिले द्वित्व कीजिये - पूङ् + इट् + सन् - पु पू + इट् + सन् / सार्वधातुकार्धधातुकयोः से गुण करके - पु पो + इ + स / एचोऽयवायावः से अवादेश करके - पुपव् + इ + स -

अभ्यास के ‘उ’ को ‘ई’ बनाना -

ओः पुयण्ज्यपरे - यदि अभ्यास के अन्त में ‘उ’ हो, और उस ‘उ’ के बाद पवर्ग, यण् या जकार हों, तथा उन पवर्ग, यण, जकार के बाद अवर्ण हो तो अभ्यास के ‘उ’ को ‘इ’ आदेश होता है सन् प्रत्यय परे होने पर। हमने जाना कि अभ्यास के ‘उ’ को ‘इ’ बनाने के लिये दो बातें होना चाहिये -

१. अभ्यास के बाद का अक्षर पवर्ग, य, र, ल, व, या ज हो।

२. इनके बाद ‘अ’ हो । . पुपव् + इ + स - इसमें अभ्यास के अन्त में ‘उ’ है, और उस ‘उ’ के बाद पवर्ग, है, तथा उस पवर्ग के बाद अवर्ण है, तथा सन् प्रत्यय परे है, अतः

समस्त धातुओं के सन्नन्त के रूप बनाने की विधि

५३१

अभ्यास के अन्तिम ‘उ’ को ‘इ’ आदेश होकर - पिपविष - पिपविषते बनाइये।

इसी प्रकार - यु से यियविषति बनाइये। इडागम न होने पर यु से युयूषति बनाइये।

विशेष - यद्यपि उकारान्त धातुओं में से पूञ्, भू, मू, रु, लू, जु, इतने धातुओं में भी उकार के बाद पवर्ग, यण् या जकार है, किन्तु अनिट् होने के कारण इन्हें गुण नहीं होता, अतः पवर्ग, यण, जकार के बाद ‘अ’ न मिलने से इनके अभ्यास के ‘उ’ को ‘इ’ नहीं होता। किन्तु जब ये धातु णिजन्त होकर अनेकाच् होने से सेट हो जाते हैं, तब गुण होकर अकार मिल जाने से वहाँ अभ्यास के ‘उ’ को ‘इ’ हो जाता है। यथा - पिपावयिषति, मिमावयिषति, बिभावयिषति, रिरावयिषति, यियावयिषति, लुलावयिषति, जिजावयिषति ।

अनिट् उकारान्त, ऊकारान्त धातुओं के सन्नन्त रूप

उकारान्त, ऊकारान्त धातुओं में पूङ् धातु सेट् है। ऊर्गु, यु वेट हैं, शेष अनिट् हैं।

अनिट् धातुओं में पहिले अङ्गादिकार्य कीजिये बाद में द्वित्व कीजिये।

अनिट् उकारान्त, ऊकारान्त धातुओं से परे आने वाला सन् प्रत्यय ‘इको झल्’ सूत्र से कित्वत् होता है।

सन् प्रत्यय के कित् होने के कारण क्डिति च’ सूत्र से गुण का निषेध होने से - द्रु + सन् - द्रु + स / अज्झनगमां सनि से दीर्घ करके - द्रू + स / द्वित्व, अभ्यासकार्य, षत्वादि करके - दुद्रूष - दुद्रूषति। इसी प्रकार -

भू + सन् - बुभूषति / पूञ् + सन् - पुपूषति, पुपूषते / लूञ् + सन् - लुलूषति, लुलूषते / हु + सन् - जुहूषति / ध्रु + सन् - दुधूषति / नू + सन् - नुनूषति / धू + सन् - दुधूषति / गु + सन् - जुगूषति / कु + सन् - चुकूषति, आदि बनाइये। यह उकारान्त, ऊकारान्त धातुओं के सन्नन्त रूप बनाने की विधि पूर्ण हुई।

सेट् ऋकारान्त धातुओं के सन्नन्त रूप

__ ऋकारान्त धातुओं में से ऋ, दृङ्, धृङ, धातु ही सेट होते हैं। सेट धातुओं को पहिले द्वित्व कीजिये, बाद में अङ्गकार्य कीजिये।

इनमें से ‘ऋ’ धातु अजादि है। इससे अरिरिषति बनाना हम लोग अजादि धातुओं में सीख चुके है। उसे वहीं देखिये। यहाँ हम दृङ, धृङ, के रूप बनायें। [[५३२]]

दृ + इट् + सन्, द्वित्व करके - दृ दृ + इ + स / उरत् से अभ्यास को उर् करके और हलादिः शेषः करके - ददृ + इ + स / सन्यतः से अभ्यास के ‘अ’ को ‘इ’ करके - दिदृ + इ + स / सार्वधातुकार्धधातुकयोः सूत्र से गुण करके = दिदर् + इ + स - प्रत्यय के स को षत्व करके - दिदरिष – दिदरिषते। इसी प्रकार - धृङ् से दिधरिषते बनाइये।

वेट् ऋकारान्त धातु - वृ, वृञ्, भृञ्, स्वृ धातु, वेट होते हैं। वृङ्, वृञ्, धातुओं के सेट होने पर -

ये धातु जब सेट हों तब इन्हें पहिले द्वित्व कीजिये, बाद में अङ्गकार्य कीजिये। सेट् ऋकारान्त धातु से सन् लगने पर चूँकि सन् प्रत्यय इको झल् सूत्र से कित् नहीं होगा अतः सार्वधातुकार्धधातुकयोः सूत्र से गुण कीजिये।

__ ध्यान दें कि वृञ् धातु उभयपदी है।

वृञ् + इट् + सन् / पूर्वोक्त दिदरिषते के समान - विवरिषति, विवरिषते। भृञ् + इट् + सन् - बिभरिषति, बिभरिषते।

वृङ् धातु आत्मनेपदी है । वृङ् + इट् + सन् । इसी प्रकार - विवरिषते। स्वृ धातु परस्मैपदी है। स्वृ + इट् + सन् । इसी प्रकार - सिस्वरिषति । ‘वृतो वा’ सूत्र से होने वाला इट् को दीर्घ सन् में नहीं होता है।

वृङ् वृञ्, धातुओं के अनिट् होने पर - ये धातु जब अनिट् हों, तब पहिले अङ्गकार्य कीजिये और बाद में उसे द्वित्व कीजिये।

यह ध्यान रखिये कि अनिट् इगन्त धातु से परे आने वाला सन् प्रत्यय इको झल् सूत्र से कित्वत् होता है, अतः गुण निषेध होगा।

वृञ् + सन्, अज्झनगमां सनि से दीर्घ करके - वृ + स / देखिये कि अब यह धातु दीर्घ ऋकारान्त है।

__ उदोष्ठ्यपूर्वस्य - कित् या डित् प्रत्यय परे होने पर, धातु के अन्त में आने वाले, दीर्घ ऋ को ‘उ’ आदेश होता है, यदि उस दीर्घ ऋ के पूर्व में आने वाला वर्ण ओष्ठ्य अर्थात् पवर्ग या वकार हो तो।

_यह ‘उ’ आदेश उरण रपरः सूत्र से उर् हो जाता है। और ‘हलि च’ सूत्र से दीर्घ होकर ऊर् हो जाता है। वृ + सन् - वुर् + स - वुवूर् + स - वुवूर्ष - वुवूर्षति / वुवूर्षते । आत्मनेपदी वृङ् धातु से वुवूषते। उभयपदी भृञ् से बुभूषति, बुभूषते। परस्मैपदी स्व से सुस्वूर्षति।

समस्त धातुओं के सन्नन्त के रूप बनाने की विधि

५३३

अनिट् ऋकारान्त धातुओं के सन्नन्त रूप

__इन सेट, वेट धातुओं से जो बचे वे ऋकारान्त धातु सन् प्रत्यय परे होने पर अनिट् होते हैं। चूँकि ये धातु अनिट् हैं, इसलिये इनमें पहिले अङ्गकार्य

कीजिये और बाद में इन्हें द्वित्व कीजिये।

अङ्गकार्य करते समय ध्यान रखिये कि अनिट् ऋकारान्त, ऋकारान्त धातुओं से परे आने वाला सन् प्रत्यय ‘इको झल्’ सूत्र से कित्वत् होता है। सन् प्रत्यय के कित् होने के कारण ‘क्डिति च’ सूत्र से गुणनिषेध होता है -

कृ + सन् / अज्झनगमां सनि से दीर्घ करके - कृ + स / देखिये कि अब यह धातु दीर्घ ऋकारान्त हो गया है।

ऋत इद् धातोः - धातु के अन्त में आने वाले दीर्घ ऋ को इ आदेश होता है कित् या डित् प्रत्यय परे होने पर।

उरण रपरः - जब भी किसी सूत्र से ऋ के स्थान पर, अ, इ, या उ होना कहा जाये, तब उन्हें अ, इ, या उ न करके अर्, इर्, उर् करना चाहिये।

__अतः ऋत इद् धातोः सूत्र से जो दीर्घ ऋ के स्थान पर ‘इ’ आदेश कहा गया है वह ‘इ’ न होकर इर् हो जायेगा। कृ + सन् - किर् + स -

हलि च - यदि धातु के अन्त में र् या व् हो और उपधा में इक् हो, तो उस उपधा के इक् को दीर्घ होता है, हल् परे होने पर।

किर् + स - हलि च से इ को दीर्घ करके कीर् + स / द्वित्वादि करके - चिकीर्ष - चिकीर्षति बनाइये। इसी प्रकार ह से जिहीर्षति आदि बनाइये।

मृङ् धातु - मृ + स, अज्झनगमां सनि से दीर्घ करके - मृ + स / अब देखिये कि ऋ के पूर्व में व् है। यह ओष्ठ्य वर्ण है।

__अतः ऋ को ऋत इद् धातोः सूत्र से इर् न होकर उदोष्ठ्यपूर्वस्य सूत्र से उर् होगा। मृ + स = मुर् + स / हलि च से उ को दीर्घ करके मूर् + स / द्वित्वादि करके - मुमूर्ष - मुमूर्षति।

यह ऋकारान्त धातुओं में सन् प्रत्यय जोड़ने की विधि पूर्ण हुई।

दीर्घ ऋकारान्त धातुओं के सन्नन्त रूप

सेट् धातु - ऋकारान्त धातुओं में से गृ, कृ धातु सेट होते हैं। सेट होने के कारण इन्हें पहिले द्वित्व कीजिये, बाद में अङ्गकार्य कीजिये। [[५३४]]

गृ, कृ धातु - गृ + इट् + सन् / द्वित्व करके गृ गृ + इट् + सन्। अभ्यासकार्य करके - जगृ + इट् + सन् / सन्यतः से अभ्यास को इत्व करके - जिगृ + इ + से / सार्वधातुकार्धधातुकयोः से गुण करके - जि गर् + इ + स / आदेशप्रत्यययोः सूत्र से प्रत्यय के स को षत्व करके - जिगर् + इ + ष - जिगरिष = जिगरिषति बनाइये। ठीक इसी प्रकार कृ - चिकरिषति ।

अचि विभाषा - अजादि प्रत्यय परे होने पर गृ धातु के र को विकल्प से ल आदेश होता है। जिगरिषति, जिगलिषति।

  • वेट धातु - गृ, कृ धातुओं से बचे हुए सारे ऋकारान्त धातु ‘इट् सनि वा’ सूत्र से वेट होते हैं। इनके रूप इस प्रकार बनाइये -

पृ धातु - इडागम होने पर - गृ के समान पिपरिषति बनाइये।।

इडागम न होने पर - पृ + सन् / अज्झनगमां सनि से दीर्घ करके - पृ + स / अब देखिये कि ऋ के पूर्व में प् है, यह ओष्ठ्य वर्ण है।

__अतः ऋ को ऋत इद् धातोः सूत्र से इर् न होकर उदोष्ठ्यपूर्वस्य सूत्र से उर् होगा। पृ + स = पुर् + स / हलि च से उ को दीर्घ करके - पूर् + स / द्वित्वादि करके - पुपूर्ष - पुपूर्षति बनाइये।

इसी प्रकार - तृ से तितरिषति, तितीर्षति आदि बनाइये। स्तु से - तिस्तरिषति, तिस्तीर्षति आदि बनाइये।

तृ, स्तृ आदि में ऋ के पूर्व में ओष्ठ्यवर्ण न होने के कारण ऋ को इर् ही होता है।

यह हलादि अजन्त धातुओं के सन्नन्त रूप बनाने की विधि पूर्ण हुई।

अब उन धातुओं के रूप बनायें जिनके आदि में हल हो और अन्त में भी हल् हो। ऐसे धातुओं को हम हलादि हलन्त कहेंगे।

२. सेट् हलन्त धातुओं के सन्नन्त रूप बनाने की विधि

प्रारम्भ में कहे गये, सन् प्रत्यय के कित्व डित्व विचार को बुद्धि में स्पष्ट रखें। इसका संक्षेप इस प्रकार है -

१. गाङ्कुटादिभ्योऽग्णिन्डित् सूत्र से कुटादि धातुओं से परे आने वाला सन् प्रत्यय ङित् होता है।

२. ‘विज इट’ सूत्र से विज् धातु से परे आने वाला सन् प्रत्यय ङित् होता है।

समस्त धातुओं के सन्नन्त के रूप बनाने की विधि

५३५

३. ‘रुदविदमुषग्रहिस्वपिप्रच्छः संश्च’ सूत्र से रुद् धातु, विद् धातु, मुष् धातु, ग्रह धातु तथा प्रच्छ् धातुओं से परे आने वाला सन् प्रत्यय कित् होता है।

४. धातु सेट् हो, उसके आदि में हल हो, अन्त में रल् अर्थात् य, व्, को छोड़कर अन्य कोई भी व्यञ्जन हो, तथा उपधा में ‘इ’ या ‘उ’ हों, तब ऐसे सेट् धातुओं से परे आने वाला सन् प्रत्यय विकल्प से कितवत् होता है।

सेट् अदुपध धातु -

वद् धातु - द्वित्व तथा अभ्यासकार्य करके - विवद् + इट् + सन् - विवद् + इस - आदेशप्रत्यययोः सूत्र से प्रत्यय को षत्व करके - विवदिषति । इसी प्रकार जन् - जिजनिषति / खन् - चिखनिषति / पठ् - पिपठिषति आदि सारे सेट् अदुपध हलन्त धातुओं के रूप बनाइये।

सन् धातु - यह धातु वेट है।

जनसनखनां सझलोः - सन् धातु को झलादि सन् प्रत्यय अर्थात् अनिट् सन् प्रत्यय परे होने पर ‘आ’ आदेश होता है।

इडागम न होने पर - इसके न् को आ होता है - सन् + सन् / सा + सन् / द्वित्व होकर सा सा + स / अभ्यास के अ को इत्व करके - सिषा + स - सिषास - सिषासति।

इडागम होने पर - सन् प्रत्यय झलादि नहीं रह जाता, अतः वहाँ आत्व भी नहीं होता - सन् + इट् + सन् / द्वित्वादि होकर - सिसन् + इस / षत्व होकर - सिसनिष - सिसनिषति।

__ अब इदुपध, उदुपध, ऋदुपध धातुओं के रूप बनाते समय बहुत सावधानी से प्रत्यय के कित्त्व, अकित्त्व का विचार करते चलें।

सेट् इदुपध धातुओं के सन्नन्त रूप डिप् धातु- यह कुटादि धातु है। ध्यान रहे कि गाङ्कुटादिभ्योऽञ्णिन्डित्’ सूत्र से कुटादि धातुओं से परे आने वाला सन् प्रत्यय ङित् होता है। ङित्वत् होने का फल क्ङिति च से गुणनिषेध करना होता है।

डिप् + इट् + सन् / द्वित्व तथा अभ्यासकार्य करके - डि डिप् + इट् + सन् / क्डिति च सूत्र से उपधा के गुण का निषेध करके तथा प्रत्यय को षत्व करके - डिडिपिषति । [[५३६]]

विज् धातु - विज् धातु से परे आने वाला सेट् सन् प्रत्यय ‘विज इट’ सूत्र से ङिद्वत् होता है।

विज् + इट् + सन् - द्वित्व तथा अभ्यासकार्य करके - वि विज् + इस / क्डिति च सूत्र से उपधा के गुण का निषेध करके तथा प्रत्यय को षत्व करके - विविजिष - विविजिषति।

इसका प्रयोग उत् उपसर्ग के साथ कीजिये - उद्विविजिषति।

विद् धातु - विद् + इट् + सन् / द्वित्व तथा अभ्यासकार्य करके - विविद् + इट् + सन् - विविद् + इ + स / ‘रुदविदमुषग्रहिस्वपिप्रच्छः संश्च’ सूत्र से विद् धातु से परे आने वाले सन् प्रत्यय के कित्वत् होने से क्डिति च सूत्र से उपधा के गुण का निषेध करके तथा प्रत्यय को षत्व करके - विविदिष - विविदिषति।

शेष सेट् इदुपध धातु -

रलो व्युपधाद् हलादेः संश्च - यदि धातु सेट हो, उसके आदि में हल् हो, अन्त में रल् अर्थात् य, व, को छोड़कर अन्य कोई भी व्यञ्जन हो, तथा उपधा में ‘इ’ या ‘उ’ हो, तब ऐसे सेट् धातुओं से परे आने वाला सन् प्रत्यय विकल्प से कितवत् होता है। जैसे -

सन् प्रत्यय के कितवत् होने पर उपधा को गुण न करके -

लिख + इट् + सन् / द्वित्व तथा अभ्यासकार्य करके - लिलिख + इ + स / डिति च सूत्र से उपधा के गुण का निषेध करके तथा प्रत्यय को षत्व करके - लिलिखिष - लिलिखिषति ।

सन् प्रत्यय के कितवत् न होने पर उपधा को गुण करके -

लिख + इट + सन् / द्वित्व तथा अभ्यासकार्य करके - लिलिख + इट् + सन् – लिलिख् + इ + स / पुगन्तलघूपधस्य च सूत्र से उपधा को गुण करके तथा प्रत्यय को षत्व करके - लिलेखिष - लिलेखिषति।

__ यदि धातु रलन्त न हो तो कित्त्व न होने से गुण हो जायेगा - दिव् - दिदेविषति।

__सेट् उदुपध धातुओं के सन्नन्त रूप

कुटादि उदुपध धातु - कुच् गुज् कुट घुट चुट छुट् जुट तुट पुट्

समस्त धातुओं के सन्नन्त के रूप बनाने की विधि

५३७

मुट् त्रुट् लुट् स्फुट कुड् क्रुड् गुड् चुड् तुड्

थुड् पुड् ठुड् स्थुड् स्फुड् गुर् छुर् स्फुर् स्फुल्

इनसे परे आने वाला सन् प्रत्यय ‘गाकुटादिभ्योऽञ्णिन्डित्’ सूत्र से कित् होता है। चूंकि ये धातु सेट हैं। इसलिये इन्हें पहिले द्वित्व कीजिये, बाद में अङ्गकार्य कीजिये।

कुट् धातु - द्वित्व तथा अभ्यासकार्य करके - चुकुट + इट् + सन् / चुकुट + इस / गााकुटादिभ्योऽञ्णिन्ङित् सूत्र से सन् प्रत्यय के डित्वत् होने के कारण किङति च सूत्र से गुणनिषेध करके, आदेशप्रत्यययोः सूत्र से प्रत्यय

को षत्व करके - चुकुटिष - चुकुटिषति।

इसी प्रकार इन सारे उदुपध कुटादि धातुओं के रूप बनाइये।

रुद् विद् मुष् धातु - रुद् विद् मुष् इन उदुपध धातुओं से परे आने वाला सन् प्रत्यय रुदविदमुषग्रहिस्वपिप्रच्छः संश्च इस सूत्र से कित्वत् होता है।

चूँकि रुद्, मुष् धातु सेट हैं इसलिये इन्हें पहिले द्वित्व तथा अभ्यासकार्य कीजिये, बाद में अङ्गकार्य कार्य कीजिये। अङ्गकार्य करने के लिये यह ध्यान रखिये कि इससे परे आने वाला सन् प्रत्यय कित् होता है। यहाँ कित्वत् होने के कारण क्डिति च सूत्र से गुणनिषेध करके इनके रूप इस प्रकार बनाइये -

रुद् - द्वित्व तथा अभ्यासकार्य करके - रुरुद् + इट् + सन् / रुरुद् + इ + स - प्रत्यय को षत्व करके - रुरुदिष - रुरुदिषति।

मुष् - द्वित्व तथा अभ्यासकार्य करके - मुमुष् + इट् + सन् - मुमुष् + इ + स - प्रत्यय को षत्व करके - मुमुषिष - मुमुषिषति

शेष सेट् उदुपध धातु -

रलो व्युपधाद् हलादेः संश्च - यदि धातु सेट हो, उसके आदि में हल् हो, अन्त में रल् अर्थात् य, व्, को छोड़कर अन्य कोई भी व्यञ्जन हो, तथा उपधा में ‘इ’ या ‘उ’ हो, तब ऐसे सेट् धातुओं से परे आने वाला सन् प्रत्यय विकल्प से कितवत् होता है। जैसे -

कितवत् होने पर उपधा को गुण न करके - मुद् इट् + सन् - द्वित्व तथा अभ्यासकार्य करके - मुमुद् + इट् + सन् / क्डिति च सूत्र से उपधा के गुण का निषेध करके तथा प्रत्यय को षत्व करके - मुमुदिष - मुमुदिषते ।

कितवत् न होने पर उपधा को गुण करके - मुमोदिषते। [[५३८]]

सेट् ऋदुपध धातुओं के सन्नन्त रूप कृड्, मृड् धातु - ये दो सेट् ऋदुपध धातु कुटादि धातु है। इनसे परे आने वाला सन् प्रत्यय गााङ्कुटादिभ्योऽञ्णिन्डित् सूत्र से डित् होता है।

कृड् + इट् + सन् / द्वित्व तथा अभ्यासकार्य करके - चिकृड् + इट् + सन् - चिकृड् + इस / प्रत्यय के ङित्वत् होने के कारण क्डिति च सूत्र से गुणनिषेध करके, आदेशप्रत्यययोः सूत्र से प्रत्यय को षत्व करके - चिकृडिष - चिकृडिषति। इसी प्रकार - मृड् से मिमृडिषति बनाइये।

शेष ऋदुपध सेट् धातु -

वृष धातु - वृष् + इट् + सन् / द्वित्व तथा अभ्यासकार्य करके - विवृष् + इस - पुगन्तलघूपधस्य च सूत्र से उपधा के ऋ को गुण करके तथा प्रत्यय के स को आदेशप्रत्यययोः सूत्र से षत्व करके - विवर्षिष - विवर्षिषति।

इसी प्रकार सेट हृष् धातु से जिहर्षिषति / सेट तृष् धातु से तितर्षिषति / सेट् गृज् धातु से जिगर्जिषति / सेट वृत् धातु से विवर्तिषते / सेट वृध् धातु से विवर्धिषते / सेट वृत् धातु से विवर्तिषते आदि बनाइये।

शेष सेट् हलादि धातुओं के सन्नन्त रूप प्रच्छ् धातु - प्रच्छ् + इट् + सन् / रुदविदमुषग्रहिस्वपिप्रच्छः संश्च सूत्र से प्रच्छ् धातु से परे आने वाला सन् प्रत्यय कित् होता है। कित् होने के कारण ग्रहिज्यावयिव्यधिवष्टिविचतिवृश्चतिपृच्छतिभृज्जतीनां डिति च सूत्र से सम्प्रसारण होकर - पृच्छ् + इस / द्वित्वादि होकर - पिपृच्छिष - पिपृच्छिषति ।

अब जो सेट हलन्त धातु बचे, उन्हें कोई भी अङ्गकार्य मत कीजिये। जैसे - बुक्क् + इट् + सन् - बुबुक्किषति आदि।

३. अनिट् तथा वेट हलन्त धातुओं के सन्नन्त रूप बनाने की विधि

अब अनिट् हलन्त धातु बचे हैं। इनके रूप इस प्रकार बनाइये -

१. ये धातु अनिट् हैं। अतः इन अनिट् धातुओं में पहिले अङ्गकार्य कीजिये। उसके बाद धातु को द्वित्व तथा अभ्यासकार्य कीजिये।

२. यदि अभ्यास के अन्त में ‘अ’ दिखे, तो उसे ‘सन्यतः सूत्र से ‘इ’ अवश्य बनाइये।

३. इट् न होने के कारण इन अनिट् धातुओं की उपधा को कभी

समस्त धातुओं के सन्नन्त के रूप बनाने की विधि

५३९

भी ‘पुगन्तलघूपधस्य च’ सूत्र से गुण मत कीजिये क्योंकि इनसे परे आने वाला सन् प्रत्यय हलन्ताच्च’ सूत्र से कित्वत् होता है।

४. अन्त में हलन्त धातु + सन् प्रत्यय को सन्धि करके जोड़ दीजिये। कवर्गान्त धातु - शक् धातु -

सनि मीमाधुरभलभशकपतपदामच इस् - सन् प्रत्यय परे रहने पर मी धातु, मा धातु, घु संज्ञक दा, धा धातु, रभ् धातु, लभ् धातु, शक् धातु, पत् धातु, पद् धातुओं के अच् को इस् आदेश होता है।

शक् + सन् / अच् को इस आदेश करके - शिस् क् + स / स्कोः संयोगाद्योरन्ते च सूत्र से स् का लोप करके - शिक् + स / अब द्वित्व तथा अभ्यासकार्य करके शिशिक् + स -

अत्र लोपोऽभ्यासस्य -

५०६ - ५०७ पृष्ठ पर सनि मीमाघुरभलभशकपतपदामच इस्, आप्ज्ञप्य॒धामीत्, दम्भ इच्च मुचोऽकर्मकस्यगुणो वा, इन चार सूत्रों में जितने भी धातु कहे गये हैं, उनके अभ्यास का लोप हो जाता है -

शिशिक् + स - शिक् + स / अब प्रत्यय के स् को आदेशप्रत्यययोः सूत्र से ए बनाइये। अब क् + ष् को मिलाकर क्ष् बनाइये - शिक्ष - शिक्षति ।

चवर्गान्त धातु -

अनिट् चकारान्त धातु - सकारादि प्रत्यय परे होने पर, धातु के अन्त में आने वाले ‘च’ को चोः कुः सूत्र से ‘क्’ बनाइये। प्रत्यय के ‘स्’ को आदेशप्रत्यययोः सूत्र से ‘ए’ बनाइये। क् + ए को मिलाकर क्ष् बनाइये। वच् + सन् - विवक्ष = विवक्षति रिच् + सन् - रिरिक्ष = रिरिक्षति विच् + सन् - विविक्ष = विविक्षति सिच् + सन् - सिसिक्ष = सिसिक्षति

विशेष चकारान्त मुच् धातु -

मुचोऽकर्मकस्य गुणो वा - अकर्मक मुच् धातु को विकल्प से गुण होता है, अनिट् सन् प्रत्यय परे होने पर। गुण होने पर अत्र लोपोऽभ्यासस्य सूत्र से अभ्यासलोप होगा, गुण न होने पर अभ्यासलोप भी नहीं होगा।

  • [[५४०]]

..

मुच् + सन्, गुण होने पर - मोच् + स / द्वित्व करके अभ्यासकार्य करके - मुमोच् + स - अत्र लोपोऽभ्यासस्य से अभ्यास का लोप करके - मोच् + स - मोक्ष - मोक्षते।

गुण न होने पर - मुच् + सन् / द्वित्व तथा अभ्यासकार्य करके - मुमुक्ष - मुमुक्षते।

व्रश्च् धातु - यह धातु वेट है। इडागम न होने पर व्रश्च के रूप इस प्रकार बनाइये

व्रश्च् + सन् - द्वित्वाभ्यासकार्य करके - विव्रश्च् + स / ‘स्कोः संयोगाद्योरन्ते च’ सूत्र से संयोग के आदि में स्थित ‘स्’ का लोप करके - विव्रच् + स / अब अन्त में आने वाले ‘च’ को व्रश्चभ्रस्जसृजमजयजराजभ्राजच्छशां षः’ सूत्र से ‘ष’ बनाकर - विव्रष् + स / ‘ए’ को ‘षढोः कः सि’ सूत्र से ‘क्’ बनाकर - विक् + स / प्रत्यय के ‘स’ को ‘आदेशप्रत्यययोः’ सूत्र से ‘ष’ बनाकर - विव्रक् + ष - विव्रक्ष = विव्रक्षति।

इडागम होने पर - व्रश्च् + इ + सन् / द्वित्वाभ्यासकार्य करके - विव्रश्चिषति ।

अनिट् जकारान्त धातु - द्वित्व तथा अभ्यासादि कार्य करने के बाद ज्’ को पहिले चोः कुः’ सूत्र से कुत्व करके ‘ग्’ बनाइये। उसके बाद उस ‘ग्’ को ‘खरि च’ सूत्र से उसी कवर्ग का प्रथमाक्षर क् बनाइये। प्रत्यय के ‘स्’ को ‘आदेशप्रत्यययोः’ सूत्र से ‘ष्’ बनाइये। त्यज् + सन् - तित्यक्ष = तित्यक्षति भज् + सन् - बिभक्ष = बिभक्षति

सन् - यियक्ष = यियक्षति

निनिक्ष निनिक्षति विज् + सन् - विविक्ष = विविक्षति

सन् - सन् - रुरुक्ष

रुरुक्षति युज् + सन् - युयुक्ष = । युयुक्षति सृज् + सन् - सिसृक्ष = सिसृक्षति

सबसे अन्त में अनुस्वारस्य ययि परसवर्णः से अनुस्वार को परसवर्ण कीजिये।

यज

निज

भूज

बुभुक्ष

बुभुक्षति

रुज

समस्त धातुओं के सन्नन्त के रूप बनाने की विधि

भञ्ज् + सन् - बिभंक्ष = बिभङ्क्षति रञ्ज् + सन् - रिरंक्ष = रिरङ्क्षति स्वङ् + सन् - सिस्वंक्ष = सिस्वङ्क्षति सङ्ग् + सन् - सिसंक्ष = सिसङ्क्षति

विशेष जकारान्त मस्ज् धातु - मस्ज् + सन् - द्वित्वाभ्यासकार्य करके - मिमस्ज् + सन् /

मस्जिनशोझलि - मस्ज् तथा नश् धातु को झलादि प्रत्यय अर्थात् अनिट स्य प्रत्यय, परे होने पर नुम् का आगम होता है।

इस सूत्र से नुमागम करके - मिमंस्ज् + स / ‘स्कोः संयोगाद्योरन्ते च’ सूत्र से संयोग के आदि में स्थित ‘स्’ का लोप करके - मिमंज् + स / ज् को चोः कुः से कुत्व करके - मिमंग् + स / ग् को खरि च से चर्व करके - मिमंक् + स / प्रत्यय के ‘स्’ को ‘आदेशप्रत्यययोः’ सूत्र से ‘ष’ बनाकर - मिमंक् + ष - मिमक्ष - मिमक्षति / अनुस्वार को ‘अनुस्वारस्य ययि परसवर्णः’ से परसवर्ण करके = मिमंङ्क्षति।

विशेष जकारान्त भ्रस्ज् धातु -

भ्रस्जो रोपधयोः रमन्यतरस्याम् - आर्धधातुक प्रत्यय परे होने पर भ्रस्ज् धातु के ‘र’ तथा उपधा के स्थान पर, विकल्प से ‘रम्’ आदेश होता है। ‘रम्’ आदेश होकर भ्रस्ज् को भर्ज हो जाता है।

‘रम्’ का आगम होने पर पर - भ्रस्ज् + सन् - भञ्ज् + स / द्वित्वाभ्यासकार्य करके - बिभर्ज + स / बिभर्भ - बिभक्षति।

‘रम्’ का आगम न होने पर पर - भ्रस्ज् + सन् / बिभ्रस्ज् + स / ‘स्कोः संयोगाद्योरन्ते च’ सूत्र से संयोग के आदि में स्थित ‘स्’ का लोप करके - बिभ्रज् + स - बिभ्रक्ष - बिभ्रक्षति।

वेट् मृज् धातु - मृजेर्वृद्धिः - मृज् धातु के इक् के स्थान पर वृद्धि होती है।

इडागम न होने पर - मृज् + सन् - मार्च् + स / द्वित्वाभ्यासकार्य करके - मिमा + स / व्रश्चभ्रस्जसृजमृजयजराजभ्राजच्छशां षः’ सूत्र से अन्त में आने वाले ‘ज्’ को ‘ए’ बनाकर - मिमा; + स / ‘ए’ को ‘षढोः कः सि’ सूत्र से ‘क्’ बनाकर - मिमा + स / प्रत्यय के ‘स’ को ‘आदेशप्रत्यययोः’ [[५४२]]

सूत्र से ‘ष’ बनाकर - मिमा + ष = मिमार्क्षति ।

इडागम होने पर - मिमार्जिषति। तवर्गान्त धातु -

वेट पत् धातु - पत् + सन् - सनि मीमाघुरभलभशकपतपदामच इस् सूत्र से इसके अच् को इस आदेश करके - पिस् त् + सन् / स्कोः संयोगाद्योरन्ते च सूत्र से स् का लोप करके - पित् + स / द्वित्व तथा अभ्यासकार्य करके पिपित् + स / ‘अत्र लोपोऽभ्यासस्य’ सूत्र अभ्यास का लोप करके - पित्स - पित्सति । इडागम होने पर - पिपतिषति।

दकारान्त अनिट् पद् धातु - पूर्ववत् अनिट् पत् धातु के ही समान पद् + सन् - पित्सते, बनाइये।

कृत्, चुत्, छूद्, तृद्, नृत् धातु - इन ५ धातुओं से परे आने वाले सन् प्रत्यय को ‘सेऽसिचि कृतचूतच्छृदतृदनृतः’ को विकल्प से इडागम होता है। कृत् - चिकर्तिषति / चिकृत्सति चुत् - चिचर्तिषति / चिचूत्सति

चिच्छर्दिषति / चिच्छ्रुत्सति

तितर्दिषति / तितृत्सति नृत् - निनतिषति / निनृत्सति

वृत् तथा स्यन्द् धातु - इन्हें इसी वर्ग में आगे देखिये। शेष अनिट् दकारान्त धातु -

द्वित्व तथा अभ्यासादि कार्य करने के बाद त् थ् द् ध् को ‘खरि च’ सूत्र से उसी वर्ग का प्रथमाक्षर त् बनाइये प्रत्यय के स् को कुछ मत कीजिये - छिद् + सन् - चिच्छित्स = चिच्छित्सति सद् + सन् - सिसत्स = सिसत्सति शद् + सन् - शिशत्स शिशत्सति हद्

जिहत्स

जिहत्सते

स्कन्द्

चिस्कन्त्स चिस्कन्त्सति खिद्

चिखित्स चिखित्सति छिद्

सन् – चिच्छित्स चिच्छित्सति भिद् +

बिभित्स = बिभित्सति

छूद्

सन् -

सन् -

समस्त धातुओं के सन्नन्त के रूप बनाने की विधि

५४३

__ +

क्रुध

साध्

सिध्

विद् + सन् - विवित्स = विवित्सति स्विद् + सन् - सिस्वित्स = सिस्वित्सति

अनिट् धकारान्त धातु - __ + सन् - चुक्रुत्स

चुक्रुत्सति व्यध् __ + सन् - विव्यत्स विव्यत्सति __ + सन् - सिसात्स सिसात्सति

  • सन् - सिसित्स = सिसित्सति विशेष धकारान्त बुध्, बन्ध् धातु -

बुध् + सन् / कित्त्वात् गुण निषेध करके, द्वित्वाभ्यासकार्य करके - बुबुध् + स / ‘एकाचो बशो भष् झषन्तस्य स्ध्वोः’ सूत्र से बकार के स्थान पर भकार आदेश करके - बुभुध् + स / ‘खरि च’ सूत्र से ‘ध्’ को चर्व करके - बुभुत् + स / प्रत्यय को षत्व करके - बुभुत्स = बुभुत्सति।।

बन्ध् + सन् में अभ्यास के अ को इ करके पूर्ववत् - बिभन्त्सति विशेष धकारान्त रध् धातु -

राधो हिंसायाम् सनि इस् वाच्यः - अनिट् सन् प्रत्यय परे होने पर, हिंसार्थक राध् धातु के अच् को इस होता है।

इडागम न होने पर - रध् + सन् - रिध् + स - रिरित्स - अभ्यासलोप होकर - रित्स = रित्सति।

ध्यान रहे कि रध् धातु वेट है, अतः इडागम होने पर इस् नहीं होगा। अतः रध् + सन् - रध् + इट् + सन् - रधिष = रिरधिषति बनेगा।

वेट् तवर्गान्त वृत्, वृध्, शृध्, स्यन्द् धातु - __ ये धातु आत्मनेपदी हैं किन्तु स्य, सन् प्रत्यय परे होने पर ये धातु वृद्भ्यः स्यसनोः’ सूत्र से परस्मैपदी हो जाते हैं। जब ये धातु परस्मैपदी हो जाते हैं तब इनसे परे आने वाले सकारादि आर्धधातुक प्रत्यय को ‘न वृद्भ्यश्चतुर्थ्यः’ सूत्र से इडागम नहीं होता। आत्मनेपद में इडागम हो जाता है। यथा - धातु परस्मैपद । आत्मनेपद वृत् - विवृत्सति । विवर्तिषते वृध् - विवृत्सति

विवर्धिषते शृध् - शिशृत्सति

शिशर्धिषते [[५४४]]

स्यन्द् - सिस्यन्त्सति । सिस्यन्दिषते

वेट धकारान्त षिध् धातु - इडागम न होकर - सिसित्सति / इडागम होकर - सिसेधिषति।

वेट क्लिद् धातु - इडागम न होने पर - चिक्लित्सति / इडागम होने पर - चिक्लेदिषति बनाइये।

नकारान्त धातु -

मन् धातु - न् को अनुस्वार बनाइये, प्रत्यय के स को कुछ मत कीजिये - मन् + सन् - मिमंस = मिमंसते।

तन् धातु - यह धातु वेट है। इसके रूप तीन प्रकार से बनते हैं -

इडागम होने पर - इसे पहिले द्वित्व तथा अभ्यासकार्य कीजिये, बाद में अङ्गकार्य कीजिये। तन् + इट् + सन् - तितन् + इस - तितनिष - तितनिषति।

इडागम न होने पर - पहिले अङ्गकार्य कीजिये, बाद में द्वित्व कीजिये।

तन् + सन् - तन् + स / द्वित्व तथा अभ्यासकार्य करके - तितंस - तिंसति।

तनोतेर्विभाषा - तन् धातु की उपधा को विकल्प से दीर्घ होता है अनिट सन् प्रत्यय परे होने पर। तन् + सन् - तान् + स / द्वित्व तथा अभ्यासकार्य करके - तितांस - तितांसति।

__हन् धातु - हन् + सन् / अज्झनगमां सनि सूत्र से दीर्घ करके - हान् + स / द्वित्व तथा अभ्यासकार्य करके जिहांस - अब अभ्यासाच्च सूत्र से अभ्यास के बाद वाले ‘ह’ को कुत्व करके - जिघांस - जिघांसति

पवर्गान्त धातु -

प् फ् ब् भ् को खरि च सूत्र से उसी वर्ग का प्रथमाक्षर प् बनाइये प्रत्यय के स् को कुछ मत कीजिये - छुप् + सन् - चुच्छुप्स = चुच्छुप्सति तिप् + सन् - तितिप्स = तितिप्सते लिप + सन् - लिलिप्स = लिलिप्सति छुप् + सन् - चुच्छुप्स =

चुक्षुप्स =

छप

चुच्छुप्सति चुक्षुप्सति

सन -

समस्त धातुओं के सन्नन्त के रूप बनाने की विधि

५४

.

लुलुप्सति

लुप् + सन् - लुलुप्स = सृप् + सन् - सिसृप्स = सिसृप्सति तप् + सन् - तितप्स = तितप्सति वप् + सन् - विवप्स = विवप्सति शप् + सन् - शिशप्स = - शिशप्सति

स्वप् धातु - रुदविदमुषग्रहिस्वपिप्रच्छः संश्च सूत्र से स्वप् धातु से परे आने वाला सन् प्रत्यय कित्वत् होता है।

स्वप् + सन् - प्रत्यय के कित् होने के कारण ‘वचिस्वपियजादीनां किति’ सूत्र से सम्प्रसारण करके - सुप् + स / द्वित्व तथा अभ्यासकार्य करके सु सुप्स / आदेश के स को षत्व करके - सु षुप्स - सुषुप्सति।

क्लुप् धातु - क्लुप् धातु यद्यपि सेट् आत्मनेपदी है किन्तु स्य, सन्, तास् प्रत्यय परे होने पर यह ‘लुटि च क्लृपः’ सूत्र से विकल्प से परस्मैपदी हो जाता है। परस्मैपदी होने पर इससे परे आने वाले परस्मैपद संज्ञक सकारादि आर्धधातुक प्रत्ययों को ‘तासि च क्लृपः’ सूत्र से इडागम नहीं होता है।

परस्मैपद में इडागम न होकर - क्लृप् - चिक्लप्सति। आत्मनेपद में इडागम होकर - चिकल्पिषते।

वेट् तृप्, दृप् धातु - इडागम न होने पर - तृप् + सन् - तितृप् + स - तितृप्सति।

इडागम होने पर - तृप् + इट् + सन् / गुण होकर - तप् + इ + स = तर्पिष - तितर्पिषति । इसी प्रकार दृप् से दिदृप्सति तथा दिदर्पिषति बनाइये।

भकारान्त धातु - यभ् + सन् – यियप्स = यियप्सति । दम्भ धातु - इसके रूप तीन प्रकार से बनते हैं -

इडागम होने पर - दम्भ् + इट् + सन् - द्वित्व तथा अभ्यासकार्य करके दिदम्भ् + इस / प्रत्यय के स को षत्व करके दिदम्भिष - दिदम्भिषति ।

इडागम न होने पर -

हम जानते हैं कि जब धातु अनिट् होता है, तब पहिले अङ्गकार्य करते हैं, बाद में द्वित्व तथा अभ्यासकार्य करते हैं। ध्यान रहे कि सन्धिकार्य सबसे ..

अन्त में किया जाता है। दम्भ + सन् - [[५४६]]

__ दम्भ इच्च - सन् प्रत्यय परे रहने पर दम्भ धातु के अच् को विकल्प से इ, ई आदेश होते हैं।

अच् को इ आदेश होने पर - दम्भ + स - दिम्भ् + स

हलन्ताच्च सूत्र से झलादि सन् प्रत्यय के कितवत् होने से ‘अनिदितां हल उपधायाः क्ङिति’ सूत्र से इसकी उपधा के न् का लोप करके - दिम्भ + सन् - दिभ् + सन् / ‘द’ को एकाचो बशो भष् झषन्तस्य स्ध्वोः सूत्र से उसी वर्ग का चतुर्थाक्षर ध् बनाकर - धिभ् + स / अब द्वित्वादि करके - धि धिभ् + स - ‘अत्र लोपोऽभ्यासस्य’ सूत्र से अभ्यास का लोप करके - धि धिप्स - धिप्स - धिप्सति।

दम्भ धातु के अच् को विकल्प से ‘ई’ आदेश होने पर इसी प्रकार धीप्सति बनाइये।

रभ, लभ् धातु -

सनि मीमाघुरभलभशकपतपदामच इस् सूत्र से इनके अच् को इस आदेश करके - रभ् + सन् - रिस् भ् + स / स्कोः संयोगाद्योरन्ते च सूत्र से रिस्भ, के स् का लोप होकर रिभ् + स / द्वित्व तथा अभ्यासकार्य करके रिरिप्स / अत्र लोपोऽभ्यासस्य सूत्र से अभ्यास का लोप करके - रिप्स - रिप्सते।

इसी प्रकार लभ् + सन् से लिप्सते बनाइये। मकारान्त धातु -

द्वित्वाभ्यासकार्य करके म् को अनुस्वार बनाइये, प्रत्यय के स को कुछ मत कीजिये - रम् + सन् - रिरंस = रिरंसते

नम् + सन् - निनंस = निनंसति यम् + सन् - पियंस = यियंसति

गम् धातु -

गमेरिट परस्मैपदेषु - गम् धातु से परे आने वाले सेट् प्रत्ययों को परस्मैपद में इडागम होता है, आत्मनेपद में नहीं।

परस्मैपद में इडागम होने पर -

इसे पहिले द्वित्व तथा अभ्यासकार्य कीजिये, बाद में अङ्गकार्य कीजिये। गम् + इट् + सन् / द्वित्व तथा अभ्यासकार्य करके – जिगम् + इस - जिगमिष

समस्त धातुओं के सन्नन्त के रूप बनाने की विधि

५४७

  • जिगमिषति।

आत्मनेपद में इडागम न होने पर - पहिले अङ्गकार्य कीजिये। बाद में द्वित्व तथा अभ्यासकार्य कीजिये। अधि गम् + सन् / अज्झनगमां सनि सूत्र से दीर्घ होकर - अधिगाम् + स / द्वित्वाभ्यासकार्य अधिजिगांस - अधिजिगांसते।

ऐसे वकारान्त धातु जिनके अन्त में ‘इव्’ है। जैसे - दिव्, सिव्, स्रिव्, ष्ठिव् आदि - ये धातु वेट हैं।

इडागम न होने पर - दिव् + सन् / क्ङिति च से गुण निषेध करके - दिव् + सन् / अब च्छवोः शूडनुनासिके च सूत्र से व् को ऊ बनाया तो दि ऊठ् स / ठ की इत् संज्ञा करके दि ऊ स / इको यणचि से इ को यण् आदेश करके - द् य् ऊ स - यू + स / अब द्वित्व तथा अभ्यासकार्य करके - दुयूष - दुयूषति बनाइये।

इसी प्रकार - स्रिव् + सन् = म्यू + स / द्वित्व तथा अभ्यासकार्य करके - सिम्यूष - सिम्यूषति बनाइये।

सित् + सन् = स्यू + स / द्वित्व तथा अभ्यासकार्य करके - सिस्यूष - सिस्यूषति बनाइये।

ष्ठिव् + सन् = ष्ठ्यू + स / द्वित्व तथा अभ्यासकार्य करके - टुठ्यूष - टुट्यूषति बनाइये।

इडागम होने पर - सेट होने के कारण इन्हें पहिले द्वित्व तथा अभ्यासकार्य कीजिये, उसके बाद अङ्गकार्य करके इनके रूप इस प्रकार बनाइये

दिव् + इट् + सन् / द्वित्व तथा अभ्यासकार्य करके - दिदिव् + इट् + सन् / प्रत्यय के कित् न होने के कारण पुगन्तलघूपधस्य च सूत्र से उपधा को गुण करके - दिदेविषति बनेगा। इसी प्रकार -

सिव् + इट् + सन् से सिसेविषति बनाइये। ष्ठिव् + इट् + सन् से टिष्ठेविषति बनाइये। त्रिव् + इट् + सन् से सिझेविषति बनाइये।

__ ऊष्मान्त धातु अनिट् शकारान्त धातु - सकारादि प्रत्यय परे होने पर धातु के अन्त में आने वाले श्, को ‘व्रश्चभ्रस्जसृजमृजयजराजभ्राजच्छशां षः’ सूत्र से ‘ए’ बनाइये। इस ‘ए’ को ‘षढोः कः सि’ सूत्र से ‘क्’ बनाइये तथा प्रत्यय के स् [[५४८]]

मृश्

FREE

सन

को आदेशप्रत्यययोः सूत्र से ए बनाइये। क् + को मिलाकर क्ष् बनाइये। दृश् + सन् - दिदृक्ष = दिदृक्षति स्पृश् + सन् - पिस्पृक्ष = पिस्पृक्षति

सन् - मिमृक्ष = मिमृक्षति

दिदंक्ष = दिदंक्षति क्रुश् + सन् - चुक्रुक्ष = चुक्रुक्षति

दिदिक्ष

दिदिक्षति रिरिक्ष रिरिक्षति सन् - लिलिक्ष

लिलिक्षति विश् + सन् - विविक्ष

विविक्षति रुश् + सन् - रुरुक्ष = रुरुक्षति

नश् धातु - यह धातु वेट है।

मस्जिनशोझलि - अनिट् मस्ज् धातु तथा अनिट् नश् धातु को अनिट् सकारादि प्रत्यय परे होने पर ‘मस्जिनशोझलि’ सूत्र से नुम् का आगम कीजिये।

अनिट् सन् प्रत्यय लगाने पर - नश् + सन् - नंश् + स / द्वित्व तथा अभ्यासकार्य करके - निनक्ष - निनक्षति।

सेट् सन् प्रत्यय लगाने पर - यह नुमागम नहीं होगा। नश् + सन् - नश् + इट् + स - निनशिष - निनशिषति।

षकारान्त धातु - कृष् + सन् - चिकृक्ष = चिकृक्षति त्विष् __ + सन् - ‘तित्विक्ष

तित्विक्षति द्विष् + सन् - दिद्विक्ष

दिद्विक्षति पिष् +

पिपिक्ष

पिपिक्षति विष्

विविक्ष

विविक्षति शिशिक्ष

शिशिक्षति श्लिष

शिश्लिक्ष शिश्लिक्षति तुष् + . सन् - तुतुक्ष = । तुतुक्षति दुष् +

दुदुक्ष

दुदुक्षति पुष् + सन् - पुपुक्ष = पुपुक्षति

शिष्

阿阿阿阿阿阿阿

समस्त धातुओं के सन्नन्त के रूप बनाने की विधि

शुष् + सन् - शुशुक्ष = शुशुक्षति कृष् + सन् - चिकृक्ष = चिकृक्षति

सकारान्त धातु - स् के बाद सकारादि आर्धधातुक प्रत्यय आने पर ‘सः स्यार्धधातुके’ सूत्र से अङ्ग के अन्तिम स् को त् बना दीजिये। यथा - वस् + सन् - विवत्स = विवत्सति घस् + सन् - जिघत्स = जिघत्सति

अनिट् हकारान्त धातु - हकारान्त धातुओं के चार वर्ग बनाइये -

१. गाह्, गृह, गुह् धातु - इन गकारादि हकारान्त धातुओं के बाद सकारादि प्रत्यय आने पर, इन धातुओं के अन्तिम ‘ह’ को, हो ढः’ सूत्र से ‘ढ्’ बनाइये - गाह् + सन् / गाढ् + स / द्वित्वादि करके - जिगाढ् + स - अब धातु के आदि में जो वर्ग क ा तृतीयाक्षर ‘ग’ है, उसे ‘एकाचो बशो भष् झषन्तस्य स्ध्वोः’ सूत्र से उसी वर्ग का चतुर्थाक्षर ‘घ’ बना दीजिये - जिघाढ् + स / अब षढोः कः सि’ सूत्र से, ‘द’ को ‘क्’ बनाइये प्रत्यय के स् को ष बनाइये - जिघाक्ष - जिघाक्षते। इसी प्रकार - गृह् + सन् - जिघृक्ष = जिघृक्षते गुह् + सन् - जुघुक्ष = जुघुक्षति / जुघुक्षते

जब स्य प्रत्यय सेट होगा, तब धातु के आदि में स्थित द, ब, ग को कभी भी वर्ग के चतुर्थाक्षर ध, भ, घ नहीं होंगे।

अतः इनके रूप इस प्रकार बनेंगे - __ये तीनों धातु वेट हैं, अतः इडागम होने पर - गाह् + इ + सन् - जिगाहिषते गुह् + इ + सन् - जुगूहिषते गृह् + इ + सन् - जिगर्हिषते

गुह् धातु की उपधा को ऊदुपधायाः गोहः सूत्र से दीर्घ हुआ है। २. दुह्, दिह्, द्रुह् धातु -

इनके अन्तिम ह को ‘दादेर्धातोर्घः’ सूत्र से घ् बनाइये। ‘एकाचो बशो भष् झषन्तस्य स्ध्वोः’ सूत्र से धातु के ‘आदि द’ को उसी वर्ग का चतुर्थाक्षर ‘ध्’ बनाइये। प्रत्यय के स् को षत्व करके -

५५०

अष्टाध्यायी सहजबोध .

दुह् + सन् - दुधुक्ष = दुधुक्षति दह् + सन् - दिधक्ष = दिधक्षति दिह् + सन् - दिधिक्ष = दिधिक्षति द्रुह् + सन् - दुधुक्ष = दुधुक्षति

३. नह धातु - नहो धः - नह धातु के ह को ध् होता है, झल् परे होने पर तथा पदान्त में। इस सूत्र से नह के अन्तिम ‘ह’ को ‘ध्’ बनाइये। ६ I को खरि च से चर्व करके त् बनाइये। प्रत्यय के स् को कुछ मत कीजिये नह् + सन् - निनत्स = निनत्सति ।

ऊपर कहे गये आठ धातुओं से बचे हुए हकारान्त धातु -

इनके बाद सकारादि प्रत्यय आने पर इनके अन्तिम ‘ह’ को हो ढः सूत्र से ढ् बनाकर षढोः कः सि सूत्र से ‘क्’ बनाइये । तथा प्रत्यय के स् को ष् बनाइये। क् + ए को मिलाकर क्ष् बनाइये। वह् + सन् - विवक्ष = विवक्षति लिह् + सन् - लिलिक्ष = लिलिक्षति

मिमिक्ष = मिमिक्षति दिह् + सन् = दिधिक्ष = दिधिक्षति रुह् + सन् - रुरुक्ष = रुरुक्षति दुह् + सन् - दुधुक्ष = दुधुक्षति

वेट स्निह्, द्रुह्, स्नुह्, मुह् धातु - नह + सन् - निनत्स= निनत्सति ऊपर कहे गये आठ धातुओं से बचे हुए हकारान्त धातु -

इनके बाद सकारादि प्रत्यय आने पर इनके अन्तिम ‘ह’ को हो ढः सूत्र से ढ् बनाकर षढोः कः सि सूत्र से ‘क्’ बनाइये । तथा प्रत्यय के स् को ष् बनाइये। क् + ए को मिलाकर क्ष् बनाइये। वह् + सन् - विवक्ष = विवक्षति लिह् + सन् - लिलिक्ष = लिलिक्षति मिह + सन् मिमिक्ष = मिमिक्षति दिह् + सन् दिधिक्ष = दिधिक्षति

  • सन् रुरुक्ष = रुरुक्षति दुह् + सन् - दुधुक्ष = दुधुक्षति

समस्त धातुओं के सन्नन्त के रूप बनाने की विधि

वेट स्निह्, द्रुह्, स्नुह्, मुह् धातु -

इडागम न होने पर - सन् प्रत्यय कित् होगा तो क्ङिति च सूत्र से गुण निषेध होगा। स्निह् + सन् - सिस्निक्षति ।

इडागम होने पर - रलो व्युपधाद् हलादेः संश्च सूत्र से सन् प्रत्यय विकल्प से कित् होगा।

प्रत्यय के कित् होने पर क्ङिति च सूत्र से गुण निषेध होकर - सिस्निहिषति बनेगा।

प्रत्यय के कित् न होने पर पुगन्तलघूपधस्य च सूत्र से उपधा को गुण करके - सिस्नेहिषति बनेगा। ठीक इसी प्रकार -

द्रुह् धातु से दुधुक्षति / दुद्रुहिषति / दुद्रोहिषति बनाइये। स्नुह् धातु से सुस्नुक्षति / सुस्नुहिषति / सुस्नोहिषति बनाइये। मुह् धातु से मुमुक्षति / मुमुहिषति / मुमोहिषति बनाइये। तृन्ह् धातु - यह वेट है। इडागम होने पर - तृन्ह् + इट् + सन्

हम जानते हैं कि जब धातु सेट् होता तब उसे पहिले द्वित्व तथा अभ्यासकार्य करते हैं, उसके बाद यदि कोई अङ्गकार्य प्राप्त हो तो उसे करते हैं। तृन्ह + इट् + सन् - द्वित्व तथा अभ्यासकार्य करके - ति तृन्ह् + इस / यहाँ कोई अङ्गकार्य प्राप्त नहीं है, अतः प्रत्यय के स को षत्व करके तितुंहिष - तिmहिषति।

इडागम न होने पर -

हम जानते हैं कि जब धातु अनिट् होता है तब पहिले अङ्गकार्य करते हैं, बाद में द्वित्व तथा अभ्यासकार्य करते हैं। तृन्ह् + सन्।

हलन्ताच्च - ऐसे हलन्त अनिट् धातु जिनमें इक है, और इक् के बाद कोई अच् नहीं है, ऐसे धातुओं से परे आने वाला झलादि सन् प्रत्यय कितवत् होता है।

कित्वत् होने से - अनिदितां हल उपधायाः क्डिति से इसकी उपधा के न् का लोप करके - तृन्ह् + सन् - तृह् + स / द्वित्व तथा अभ्यासकार्य करके तितृक्ष - तितृक्षति।

हलादि णिजन्त धातुओं के सन्नन्त रूप बनाने की विधि

चुरादिगण के प्रत्येक धातु से कोई भी प्रत्यय लगाने के पहिले स्वार्थिक५५२

अष्टाध्यायी सहजबोध भाग २

णिच् प्रत्यय लगता है। णिच् प्रत्यय लग जाने के बाद ही चुरादिगण के धातुओं में अन्य कोई प्रत्यय लगाना चाहिये। इसी प्रकार जब प्रेरणा अर्थ अर्थात् प्रयोजक व्यापार वाच्य हो, तब किसी भी धातु से णिच् प्रत्यय लगता है। यहाँ भी णिच् प्रत्यय लग जाने के बाद ही धात से अन्य कोई प्रत्यय लगाना चाहिये।

णिच् प्रत्यय लगने पर सारे धातु अनेकाच् हो जाते हैं। अनेकाच् हो जाने से ये सेट हो जाते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि णिजन्त धातुओं से सन् प्रत्यय लगने पर यहाँ हमें चार खण्ड मिलते हैं।

धातु + णिच् + इट् + सन् । इन्हें किस क्रम से जोड़ें ?

१. हलादि णिजन्त धातु से सन् प्रत्यय परे होने पर, आप सबसे पहिले सन्यङोः सूत्र से धातु के प्रथम अवयव एकाच को द्वित्व तथा अभ्यासकार्य कीजिये - चुर् + णिच् + इट् + सन् / चु चुर् + णिच् + इस।

२. अब धातु में णिच् प्रत्यय को जोड़िये। जैसे -

चु चुर् + णिच् + सन् / णिच् में ण, च् इन अनुबन्धों का लोप करके इ बचाइये। पुगन्तलघूधस्य च सूत्र से चुर् को गुण करके - चु चोर् + इ + स - चुचोरि + इस / अब सार्वधातुकार्धधातुकयोः सूत्र से चोरि के अन्त को गुण करके चु चोरे + इ + इस /

__ एचोऽयवायावः से अयादेश करके चु चोरय् + इ + इस / प्रत्यय के स को षत्व करके = चुचोरयिष - चुचोरयिषति ।

इसी प्रकार - हु + णिच् + इट् + सन् - हु को द्वित्व करके हु हु + णिच् + इट् + सन्। द्वित्वाभ्यासकार्य करके - जुहु + इ + इस / अचो णिति सूत्र से वृद्धि करके - जु हौ + इ + इस / एचोऽयवायावः से आवादेश करके जुहाव् + इ + इस - जुहावि + इस /

अब जुहावि + इस में सार्वधातुकार्धधातुकयोः सूत्र से गुण करके - जुहावे + इस / एचोऽयवायावः से अवादेश करके जुहावय् + इस / प्रत्यय के स को षत्व करके - जुहावयिष - जुहावयिषति।

द्युतिस्वाप्योः सम्प्रसारणम् - द्युत् धातु तथा ण्यन्त स्वप् धातु के अभ्यास को सम्प्रसारण होता है। जैसे -

स्वप् + णिच् + इट् + सन् / स्वप् + इ + इस / द्वित्वाभ्यासकार्य करके - स्वप् स्वप् + इ + इस / अभ्यास को सम्प्रसारण करके - सु स्वप् + इ + इष / अत उपधायाः सूत्र से उपधा के ‘अ’ को वृद्धि करके - सु स्वाप् +

समस्त धातुओं के सन्नन्त के रूप बनाने की विधि

५५३

इ + इस /

सार्वधातुकार्धधातुकयोः सूत्र से इ को गुण करके - सु स्वाप् + ए +

इस / एचोऽयवायावः सूत्र से अयादेश करके - सु स्वाप् + अय् + इस - प्रत्यय के स को षत्व करके - सुस्वापयिष - सुस्वापयिषति।

इसी प्रकार - द्युत् + णिच् + इट् + सन् = दिद्योतयिषति।

धातु में णिच् प्रत्यय कैसे जोड़ें यह णिजन्त प्रक्रिया में विस्तार से बतलाया गया है, उसे वहीं देखें।

कण्ड्वादि धातुओं के सन्नन्त रूप कण्ड्वादीनां तृतीयस्य - कण्ड्वादि गण में जो धातु पढ़े गये हैं उनमें सन् प्रत्यय लगाने पर जो तृतीय अच् के साथ मिला हुआ व्यञ्जन है उसके सहित तृतीय अच् को द्वित्व होता है - कण्डूयिष - कण्डूयियिष - कण्डूयियिषति / असूयिष - असूयियिष - असूयियिषति।

__नामधातुओं के सन्नन्त रूप यथेष्टं नामधातुषु - यदि नामधातु से सन् प्रत्यय लगा हो, तब प्रथम, द्वितीय, तृतीय में से किसी भी अवयव एकाच् को द्वित्व कर सकते हैं। यथा - पुत्रीय + सन् / यहाँ पु को द्वित्व करके - पुपुत्रीयिष - पुपुत्रीयिषति / ति को द्वित्व करके - पुतित्रीयिष - पुतित्रीयिषति / यि को द्वित्व करके - पुत्रीयियिष -

पुत्रीयियिषति बनाइये।

यह समस्त धातुओं में सन् प्रत्यय जोड़ने की विधि पूर्ण हुई।