अथ तृतीयोऽध्यायः विवामिला का विलय प्रथमः पादः उबाला प्रत्ययः ॥३॥१॥१॥ प्रत्ययः १.१॥ अर्थः- इतोऽग्रे प्रापञ्चमाध्यायपरिसमाप्तेः (५४११६० इति यावत् ) ‘प्रत्ययः’ इति संज्ञात्वेनाधिक्रियते ॥ उदा०-कर्त्तव्यम, करणीयम् ॥ भाषार्थ:-यहाँ से लेकर पञ्चमाध्याय की समाप्ति (५।४।१६०) पर्यन्त [प्रत्ययः] प्रत्यय संज्ञा का अधिकार जायेगा। यह अधिकार तथा संज्ञा सूत्र दोनों 7 उदा०–कर्तव्यम्, करणीयम् (करना चाहिए) ॥ परश्च ॥३॥१२॥ पर: १.१॥ च अ० ॥ अनु०-प्रत्ययः । अर्थः –यस्य प्रत्ययसंज्ञा विहितास प्रत्ययः परश्च भवति, इत्यधिकारो वेदितव्य आपञ्चमाध्यायपरिसमाप्तेः ॥ उदा. कर्त्तव्यम् । तैत्तिरीयम् ॥ भाषार्थ:-जिसको प्रत्यय संज्ञा कही है, [च] वह जिससे (धातु या प्राति पदिक से) विधान किया जावे, उससे [परः] परे होता है । यह अधिकार भी पञ्च माध्याय की समाप्ति (५४१६०) पर्यन्त जानना चाहिए। अगले सूत्र ३।१।३ के परि० में उदाहरणों की सिद्धि स्वरसहित देखें। याद प्राद्युदात्तश्च ।।३।१॥३॥ प्रादयुदात्त: ११॥ च अ० ॥ स०-पादिरुदात्तो यस्य स आयुदात्तः, बहुव्रीहिः ॥ अन०-प्रत्ययः ॥ अर्थ:-यस्य प्रत्ययसंज्ञा विहिता सः प्रत्यय आद्यदा तोऽपि भवति ॥ अधिकारसूत्रमिदं पञ्चमाध्यायपर्यन्तम्, परिभाषासूत्र वा।। उदा कर्तव्यम् , तैत्तिरीयम् । भाषार्थ:-जिसकी प्रत्यय संज्ञा कही है, वह [पायुदात्तः] प्रायुदात्त [च] भी होता है। यह भी अधिकारसूत्र है, पञ्चमाध्याय की समाप्तिपर्यन्त जायेगा। पादः] तृतीयोऽध्यायः जहाँ जो प्रत्यय विधान किया जायेगा, उसको यह प्राादान भी करता जायेगा। अथवा इसको परिभाषासूत्र भी माना जा सकता है। अनुदात्तौ सुप्पिती ॥३॥१४॥ अनुदात्तौ १।२॥ सुप्पिती १२॥ स०-सुप्च पिच्च सुप्पिती, इतरेतरयोग द्वन्द्वः ॥ अनु०– प्रत्ययः ॥ अर्थः- सुप्पिती प्रत्ययौ अनुदात्तौ भवतः ॥ पूर्वेणाधुदात्ते प्राप्ते,अनुदात्तो विधीयते ॥ उदा०-दषदौ, दृषदः पित्-पचति, पठति || भाषार्थः-पूर्व सूत्र का यह अपवाद है। [सुप्पितौ] सुप् तथा पित् प्रत्यय [अनुदात्तौ] अनुदात्त होते है ॥ यह भी अधिकार पञ्चमाध्यायपर्यन्त जानना चाहिए । अथवा-यह भी परिभाषासूत्र माना जा सकता है। सन गुप्तिजिकद्भ्यः सन् ॥३१॥५॥ गुप्,तिज, किसन गुप्तिज्किदभ्य: ५।३॥ सन् १।१॥ स०-गुप च तिज् च कित् च गुप्तिज्कितः, तेभ्यो गुप्तिज्किद्भ्यः , इतरेतरयोगद्वन्द्वः ।। अनु०-प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थ:- गुप गोपने, तिज निशाने, कित निवासे रोगापनय ने च, एतेभ्यो धातुभ्यः सन् प्रत्ययः परश्च भवति ॥ उदा०-जुगुप्सते । तितिक्षते । चिकित्सति ।। _ भाषार्थः- [गुप्तिकिझ्य:] गुप तिज वित् इन धातुओं से स्वार्थ में [सन्] सन् प्रत्यय होता है, और वह परे होता है। लावालिका उदा०-जगुप्सते (निन्दा करता है), तितिक्षते (क्षमा करता है)। चिकित्सति (रोग का इलाज करता है) ॥ इस सूत्र में कहे हुए वात्तिकों के कारण इन निर्दिष्ट अर्थों में ही इन धातुओं से सन् प्रत्यय होता है ।। सन्नन्त की सिद्धि हम बहुत बार दिखा चुके हैं, उसी प्रकार यहाँ भी जानें । म (अभास दी ) ०३) यहाँ से ‘सन्’ की अनुवृत्ति ३३१७ तक जायेगी। मान ,बंध,दाल, श्रीन _मान्बधदान्शान्म्यो दीर्घश्चाभ्यासस्य ॥३१॥६॥ + सन माम्बधदान्शान्भ्यः ५।३।। दीर्घः ११।। च प्र०॥ अभ्यासस्य ६॥१॥स0-55 मान् च बधश्च दान च मान्बधदान्शान:, तेभ्य:, इतरेतरयोगद्वन्द्वः॥ अभ्यासस्य विकार:=पाभ्यासस्तस्य आभ्यासस्य ॥ अनु०-सन, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थ:- मान पूजायाम, बघ बन्धने, दान खण्डने, शान तेजने इत्येतेभ्यो धातुभ्यः सन प्रत्ययो भवति, अभ्यासविकारस्य च दीर्घादेशो भवति ॥ उदा.-मीमांसते । बीभत्सते । दीदांसते । शीशांसते॥ २८० अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [प्रथमः विरहीकोहण भाषार्थ:-[मान्.. भ्य:] मान् बध दान और शान् धातुओं से सन प्रत्यय होता है, [च] तथा [आभ्यासस्य] अभ्यास के विकार को अर्थात् अभ्यास को सन्यतः (१४७६) से इत्व करने के पश्चात् [दीर्घ:] दीर्घ प्रादेश हो जाता है ।
- धातोः कर्मणः समानकर्तृकादिच्छायां वा ॥३॥१७॥ धातोः ५॥१॥ कर्मणः ६।१॥ समानकर्तृकात ५॥१॥ इच्छायाम् ७।१॥ वा अ०॥ स०-समान: कर्ता यस्य स समानक कः, तस्मात् समानकर्तृकात्, बहुव्रीहिः ।। अनु० - सन, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः- इषिकर्मणोऽवयवो यो धातुः इषिणा समान कर्तृकः तस्मादिच्छायामर्थे वा सन प्रत्ययो भवति ॥ उदा.-कत्त मिच्छति = चिकीर्षति । हत्तु मिच्छति = जिहीर्षति । पठितुमिच्छति=पिपठिषति ॥ + भाषार्थः - इच्छा क्रिया के [कर्मण:] कर्म का अवयव जो [धातो:] धातु [समानकर्तृकात् ] इच्छा क्रिया का समानकर्तृक अर्थात् इष धातु के साथ समान कर्त्तावाला हो, उससे [इच्छायाम्] इच्छा अर्थ में सन् प्रत्यय [वा] विकल्प करके होता है। उदाहरण में ‘कत्तु म’ इच्छति क्रिया का कर्म है । सो कृ धातु से सन् प्रत्यय हुना ह । यहाँ ‘कर्म का अवयव’ कहने का प्रयोजन यह है कि ‘प्रकतम इच्छति’ प्रादि में जहाँ ‘प्र’ प्रावि विशेषण से युक्त ‘कृ’ कर्म हो, वहां कर्म के अवयव केवल कृ धातु से सन् प्रत्यय हो, सोपसर्ग से न हो। कत्तु तथा इच्छति क्रिया का कर्ता एक ही देवदत्त है, इसलिए कृ धातु समानक क भी है। ‘वा’ कहने से पक्ष में ‘कत्तु मिच्छति’ ऐसा वाक्य भी प्रयोग में प्राता है। ऐसे ही अन्य उदाहरणों में भी समझ लेना चाहिए । यो चिकीर्षति की सिद्धि परिशिष्ट ११११५७ के चिकीर्षक: के समान ‘चिकीर्ष’ बनाकर शर तिप् लाकर जानें । अथवा-परि० ११२०६ में देखें। कार यहाँ से ‘वा’ की अनुवृत्ति ३॥१॥२२ तक, तथा ‘कर्मणः’ की अनुवत्ति ३।१।१० तक, और ‘इच्छायाम्’ की ३।१६ तक जायेगी। क्यच काय सुपार सुप प्रात्मनः क्यच् ॥३॥१८॥ सुपः ५॥१॥ प्रात्मनः ६॥१॥ क्यच ११॥ अनु-कर्मणः, इच्छायाम्, वा, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः-एषितुः आत्मसम्बन्धिन: इषिकर्मणः सुबन्ताद इच्छायामर्थे वा क्यच् प्रत्ययो भवति परश्च ॥ उदा०-आत्मनः पुत्रमिच्छति पुत्रीयति ॥ भाषार्थः- इच्छा करनेवाले के [आत्मन:] आत्मसम्बन्धी इच्छा के [सुपः] DTO पाद:] तृतीयोऽध्यायः २८१ सुबन्त कर्म से इच्छा अर्थ में विकल्प से [क्यच] क्यच् प्रत्यय होता है । सिद्धि परिशिष्ट २।४१७१ में देखें ॥ यहां से ‘सुप:’ की अनुवृत्ति ३।१।११ तक, तथा ‘पात्मनः’ की राह तक, एवं ‘क्यच्’ को अनुवृत्ति ३।१।१० तक जायेगी। काम्यच्च ।।३।११।। काम्यच १३१॥ च अ० ॥अनु०-सुपः, प्रात्मनः, कर्मणः, इच्छायाम, वा, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थ:-आत्मसम्बन्धिन: सुबन्तात्कर्मणः इच्छायामर्थे वा काम्यच प्रत्ययो भवात परश्च ॥ उदा.-प्रात्मनः पुत्रमिच्छति पुत्रकाम्यति । वस्त्रकाम्यति ॥ भाषार्थ:-प्रात्मसम्बन्धी सुबन्त कर्म से इच्छा अर्थ में विकल्प से [काम्यच्] काम्यच् प्रत्यय [च] भी होता है। जब काम्यच् प्रत्यय पक्ष में नहीं होगा, तो विग्रहवाक्य रह जावेगा ॥ उदा०-प्रात्मनः पुत्रमिच्छति == पुत्रकाम्यति (अपने पुत्र को इच्छा करता है)। बस्त्रकाम्यति (अपने वस्त्र को चाहता है) ॥ पुत्रकाम्य की सनाद्यन्ता० (३।१।३२) से धातु संज्ञा होकर पूर्ववत् शप् तिप् प्राकर-पुत्रकाम्यति बना है ।। उपमानादाचारे ॥३॥१॥१०॥ उपमानात् ५३१॥ प्राचारे ७॥१॥ अनु०-सुपः, क्यच, कर्मणः, वा, प्रत्यय:, परश्च ॥ अर्थः-उपमानवाचिन: सुबन्तात्कर्मण आचारेऽर्थे वा क्यच प्रत्ययः परश्च भवति ॥ उदा०-पुत्रमिवाचरति अध्यापक: शिष्यम् = पुत्रीयति शिष्यम् । गर्दभमिवा चरति अश्वम् =गर्दभीयति ॥ भाषार्थः- [उपमानात् ] उपमानवाची सुबन्त कर्म से [प्राचारे] प्राचार अर्थ में विकल्प से क्यच् प्रत्यय होता है ।। उदा०- पुत्रमिवाचरति अध्यापकः शिष्यम् = पुत्रीयति शिष्यम् (अध्यापक पुत्र के समान शिष्य में आचरण करता है) । गर्दभमिवा चरति प्रश्वम् = गर्दभीयति (घोड़े के साथ गधे जैसा बरतता है) । सिद्धि २।४७१ की तरह ही समझे ।। , यहाँ से ‘सम्पूर्ण सूत्र’ की अनुवृत्ति ३।१।११ तक जायेगी। कत्तुं : क्यङ् सलोपश्च ॥३१।११।। - कत्तु: ५॥१॥ क्यङ ११॥ सलोप: ११॥ च अ० ॥ स०-सस्य लोपः २८२ अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [प्रथम: AMS सलोपः, षष्ठीतत्पुरुषः ॥ अन-उपमानादाचारे, सुपः, वा, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः–उपमानवाचिनः कर्तृ: सुबन्तादाचारेऽर्थे वा क्यङ प्रत्यय: परश्च भवति, तत्र च सकारान्तो यः शब्दस्तस्य सकारस्य वा लोपो भवति ॥ उदा०-श्येन इवाच रति काक:- श्येनायते । पण्डित इवाचरति मूर्खः पण्डितायते। पुष्करमिवाचरति कुमुदं = कृमुदं पुष्करायते । पयायते तक्रम्, पयस्यते वा ॥ _भाषार्थ:- उपमानवाची सुबन्त [कत्तु:] कर्ता से प्राचार अर्थ में [क्यङ] क्यङ प्रत्यय विकल्प से होता है, तथा जो सकारान्त शब्द हों, उनके [सलोपः] सकार का लोप [च] भी विकल्प से हो जाता है ॥ उदा० - श्येनायते (कौना बाज के समान पाचरण करता है) । पण्डितायते (मूर्ख पण्डित के समान पाचरण करता है) । पुष्करायते (नीला कमल सफेद कमल के समान खिल रहा है)। पयायते (मट्ठा दूध के समान माचरण करता है), पयस्यते । पयस के सकार का लोप विकल्प से हो गया है । सिद्धि पुत्रीयति के समान ही है । क्यङ के ङित् होने से प्रात्मनेपद अनुदात्तङित० (१॥३॥१२) से हो जाता है । यहां से क्यङ’ को अनुवृत्ति ३।१।१८ तक जायेगी । भृशादिभ्यो भुव्यच्वेर्लोपश्च हलः ॥३॥१॥१२॥ भृशादिभ्यः ५॥३॥ भवि ७१॥ अच्वे: ॥१॥ लोप: ११॥ च अ०॥ हल: ६१॥ स०-भृश आदिर्येषां ते भृशादयः, तेभ्यः, बहुव्रीहिः । न चिः अच्चि:, तस्मात अच्चे:, नञ्तत्पुरुषः । अनु०-वा, क्यङ, प्रत्यय:, परश्च ।। अर्थः-अच्व्य न्तेभ्यो भृशादिभ्य: शब्देभ्य: भविभवत्यर्थे क्यङ प्रत्ययः परश्च भवति, यश्च हलन्तः शब्दस्तस्य हलो लोपो भवति ।। उदा०-अभृशो भयो भवति =भृशायते । अशीघ्र: शीघ्रो भवति =शीघ्रायते, । अनुन्मन: उन्मनो भवति = उम्मनायते ॥ भाषार्थ:-[अच्वे:] अच्च्यन्त [भृशादिभ्य:] भृशादि शब्दों से [भुवि भू धातु के अर्थ में क्यङ प्रत्यय होता है, और उन भूशादि शब्दों के अन्तर्गत जो हलन्त शब्द हैं, उनके [हलः] हल का [लोप:] लोप [च] भी होता है । उदाहरणों में च्चि प्रत्यय का अर्थ अभूततभाव (२४५०) है, अर्थात् जो भृश नहीं वह भृश होता है । सो यहाँ च्वि का अर्थ तो विद्यमान है, परन्तु ये शब्द च्व्यन्त नहीं हैं, अतः क्यङ प्रत्यय हो गया है । उदा०-अभृशो भृशो भवति = भूशायते (जो अधिक नहीं वह अधिक होता है) । अशीघ्रः शीघ्रो भवति शीघ्रायते (जो शीघ्रकारी नहीं वह शीघ्रकारी बनता है) । अनुन्मनः उन्मनो भवति =उन्मनायते (जिसका मन उखड़ा नहीं था, वह उखड़ सा गया है। पाद:] तृतीयोऽध्यायः यहाँ से ‘अच्चेः, भुवि’ की अनुवृत्ति ३३१३१३ तक जायेगी। लोहितादिडाज्भ्यः क्यष् ॥३१॥१३॥ लोहितादिडाज्भ्यः ५।३॥ क्यष १.१॥ स०-लोहित प्रादिर्येषां ते लोहितादयः, लोहितादयश्च डाच् च लोहितादिडाचः, तेभ्यः, बहुव्रीहि गर्भतरेतरयोगद्वन्द्वः ।। अन०-भवि, अच्चे:, वा, प्रत्यय:, परश्च ॥ अर्थः-अच्च्यन्तेभ्यो लोहितादिभ्य: शब्देभ्यो डाजन्तेभ्यश्च भवत्यर्थे क्यष प्रत्ययः परश्च भवति ॥ उदा०-अलोहितो लोहितो भवति लोहितायते, लोहितायति । डाच-पटपटायते, पटपटायति ।। भाषार्थ: -अच्व्यन्त [लोहितादिडाज्भ्यः] लोहितादि शब्दों से तथा डाच् प्रत्ययान्त शब्दों से भू धातु के अर्थ में [क्यष ] क्यष् प्रत्यय होता है। परि० १।३।६० में सिद्धियां देखें ।। कष्टाय क्रमणे ॥३।१।१४।। कष्टाय ४११॥ क्रमणे ७१॥ अनु०-क्यङ, वा, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थः चतुर्थीसमर्थात् कष्टशब्दात क्रमणे = अनार्जवेऽर्थे वर्तमानात क्यङ प्रत्ययो भवति ।। उदा.-कष्टाय (कर्मणे) क्रामति=कष्टायते ॥ भाषार्थ:-चतुर्थी समर्थ [कष्टाय] कष्ट शब्द से [क्रमणे] क्रमण = कुटिलता अर्थ में क्या प्रत्यय होता है । कष्ट शब्द के चतुर्थी विभक्ति से निर्दिष्ट होने से ही चतुर्थी-समर्थ ऐसा अर्थ यहाँ लिया गया है ।। उदा०- कष्टाय (कर्मणे) क्रामति कष्टायते (क्लिष्ट कार्य में कुटिलतापूर्वक प्रवृत्त होता है)। कर्मणो रोमन्थतपोभ्यां वत्तिचरोः ॥३।१।१५।। - ___ कर्मण: ५॥१॥ रोमन्थतपोभ्यां ॥२॥ वत्तिचरो: ७.२॥ स०-रोमन्थश्च तपश्च रोमन्थतपसी, ताभ्यां ………", इतरेतरयोगद्वन्द्वः । वत्तिश्च चर् च वत्तिचरी, तयोः वत्तिचरोः, इतरेतरयोगद्वन्द्वः ॥अनु०-क्यङ, वा, प्रत्ययः, परश्च ॥अर्थ: रोमन्थशब्दात्तप:शब्दाच्च कर्मणो यथाक्रमं वत्तिचरोरर्थयोः क्यङ प्रत्ययो भवति ।। उदा०-रोमन्थं वर्त्तयति =रोमन्थायते गौः । तपश्चरति तपस्यति ।। PLE भाषार्थ:-[रोमन्थतपोभ्याम् ] रोमन्थ तथा तप [कर्मण:] कर्म से यथासङ्ख्य करके = वत्तिचरो:] बत्ति (वर्तनं बत्तिः)तथा चरि(=चरणं चरिः) अर्थ में क्या प्रत्यय होता है ।। अकृत्सार्वधातु० (७।४।२५) से रोमन्थायते में दीर्घ होगा ॥ क्यङ के जित होने से तपस्यति में अनुदात्तङित० (१।३।१२) से प्रात्मनेपद ही प्राप्त था, २८४ अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती प्रथमः सो तपसः परस्मैपदं च (वा० ११३।१५) इस वात्तिक से परस्मैपद हो गया है। उदा०-रोमन्थायते गौः (गौ जुगाली करती है)। तपस्यति (तपस्या करता है)। यहाँ से ‘कर्मण:’ को अनुवृत्ति ३।१।२१ तक जायेगी। साधी वाष्पोष्मभ्यामुद्वमने ॥३।१।१६॥ वाष्पोष्मभ्याम ५।२।। उद्वमने ७।१।। स०-वाष्पश्च ऊष्मा च वाष्पोष्माणौ, ताभ्याम्, इतरेतरयोगद्वन्द्वः ।। अन-कर्मणः, क्यङ, वा, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः कर्मभ्यां वाष्पोष्मशब्दाभ्यामुट्ठमनेऽर्थे क्यङ प्रत्ययो भवति ॥ उदा०-वाष्पमुद्वमति == वाष्पायते कूप: । ऊष्माणमुद्वमति =ऊष्मायते मनुष्यः ।।। . भाषार्थ:- [वाष्पोष्मभ्याम् ] वाष्प और ऊष्म कर्म से [उद्वमने] उद्वमन अर्थ में क्यङ प्रत्यय होता है ।। उदा०-वाष्पायते कूप (कमा भाप को ऊपर फेंकता है) । ऊष्मायते मनुष्यः (मनुष्य मुख से गरम वायु निकालता है)।। उदाहरणों में अकृत्सार्वधातुकयो० (७।४।२५) से दीर्घ होता है । ऊष्मायते में ऊष्मन् को न: क्ये: (१।४।१५) से पद संज्ञा होकर न लोपः प्राति० (८।२७) से नकार का लोप हो जाता है । शब्दवैरकलहाभ्रकण्वमेघेभ्यः करणे ॥३।१।१७।। शब्दवैरकलहाभ्रकण्वमेधेभ्यः ५।३।। करणे ७१।। स०- शब्दश्च वैरं च कलहश्च अभ्रश्च कण्वञ्च मेघश्च शब्दवैरकलहाभ्रकण्वमेघाः, तेभ्यः, इतरेत रयोग द्वन्द्वः ॥ अनु०-कर्मणः, क्यङ, वा, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थ:-शब्द: वैर कलह अभ्र कण्व मेघ इत्येतेभ्यः कर्मभ्य: करणे = करोत्यर्थे क्यङ प्रत्ययो भवति ।। उदा० शब्दं करोति =शब्दायते । वरं करोति =वैरायते । कलहं करोति= कलहायते । अभ्रायते सूर्य: । कण्वायते । मेघायते सूर्यः ।।निकिका भाषार्थ:- [शब्दवैरकलहाभ्रक ण्वमेघेभ्यः] शब्द, वैर, कलह, अभ्र, कण्व, मेघ, इन कर्म शब्दों से [करणे ] करण अर्थात् करोति के अर्थ में क्या प्रत्यय होता है । उदाo-शब्दायते ( शब्द करता है)। वैरायते (वैर करता है) । कलहायते कलह करता है) । अभ्रायते सूर्यः (सूर्य बादल बनाता है) । कण्वायते (पाप करता है) । मेघायते सूर्यः (सूर्य बादल बनाता है)। यहां सर्वत्र सनाद्यन्ता धातवः (३।१।३२) से धातु संज्ञा, तथा क्यङ के डित होने से प्रात्मनेपद होता है । इसी प्रकार सर्वत्र दीर्घ भी जानें।
- यहाँ से ‘करणे’ की अनुवृत्ति ३।११२१ तक जायेगी। पादः] तृतीयोऽध्यायः २८५ ही सुखादिभ्यः कर्तृ वेदनायाम् ॥३।१।१८॥ सुखादिभ्यः ५।३।। कत्तुं लुप्तषष्ठ्यन्तनिर्देशः ॥ वेदनायाम् ७१॥ स० सुखम् आदि येषां तानि सुखादीनि, तेभ्यः, बहुव्रीहिः ॥ अनु०-कर्मणः, क्यङ, वा, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थ:-सुखादिभ्यः कर्मभ्यः वेदनायाम् = अनुभवेऽर्थे क्यङ प्रत्ययो भवति, वेदयितुश्चेत् कत्तु : सम्बन्धीनि सुखादीनि भवन्ति ॥ उदा०-सुखं वेदय ते = सुखायते । दुःखायते ॥ भाषार्थ:- [सुखादिभ्यः] सुखादि कर्मों से [वेदनायाम्] वेदना अर्थात् अनुभव करने अर्थ में क्या प्रत्यय होता है, यदि सुखादि वेदयिता [कर्तृ] कर्ता सम्बन्धी ही हों, अर्थात् जिसको सुख हो अनुभव करनेवाला भी वही हो, कोई अन्य नहीं ॥ उदाहरण में उसी देवदत्त को सुख है, और अनुभव करनेवाला भी वही है। पूर्ववत् उदाहरणों में दीर्घ होता है । उदा०-सुखायते (सुख का अनुभव करता है) । दुःखायते (दु:ख का अनुभव करता है)। नमोवरिवश्चित्रकः क्यच् ॥३॥ १॥१६॥ नमोवरिवश्चित्रङः ५॥१॥ क्यच शशा स०-नमश्च वरिवश्च चित्रङ, च नमोवरिवश्चित्रङ, तस्मात, समाहारो द्वन्द्वः ॥ अनु०-करणे, कर्मणः, वा, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः-नमस् वरिवस् चित्रङ इत्येतेभ्यः कर्मभ्य: करोत्यर्थे क्यच् प्रत्ययो भवति ॥ उदा० नमः करोति देवेभ्यः=नमस्यति देवान् । वरिवः करोति = वरिवस्यति गुरून् । चित्रं करोति=चित्रीयते ॥ .. भाषार्थ:-[नमोवरिवश्चित्रङ:] नमस, वरिवस, चित्रा इन कर्मों से करोति के अर्थ में [क्यच् ] क्यच् प्रत्यय होता है । क्यच् तथा क्यङ् प्रत्यय में यही भेद है कि क्यच करने से परस्मैपद, तथा क्यङ में प्रात्मनेपद होगा । चित्रङ शब्द में डित् करने से प्रात्मनेपद ही होता है । उदा०-नमस्यति देवान् (देवों को नमस्कार करता है) । वरिवस्यति गुरून् (गुरुओं की सेवा करता है) । चित्रीयते (अाश्चर्य करता है) ॥ पुच्छभाण्डचीवराणिङ् ॥३।१।२०) पुच्छभाण्डचीवरात् ५॥१॥ णिङ् १।१॥ स०-पुच्छञ्च भाण्डश्च चीवरच पुच्छ भाण्डचीवरम, तस्मात्, समाहारो द्वन्द्वः । अनु०-करणे, कर्मणः, वा, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थ:-पुच्छ भाण्ड चीवर इत्येतेभ्यः कर्मभ्यो णिङ् प्रत्ययो भवति करण विशेषे ।। २८६ अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [प्रथम: उदा० -पुच्छं उदस्थति उत्पुच्छयने गौः। परिपुच्छयते । भाण्डं समाचिनोति = सम्भाण्डयते । चीवरं परिदधाति = सञ्चीवरयते भिक्षुः॥ भाषार्थ:-[पुच्छभाण्डचीवरात् ] पुच्छ, भाण्ड, चीवर इन कर्मों से [णिङ्] णि प्रत्यय होता है, क्रियाविशेष को कहने में ॥ उदा०-उत्पुच्छयते गौः (गौ पूछ उठाती है)। परिपुच्छयते (गौ पूछ चारों तरफ चलाती है)। सम्भाण्डयते (बर्तनों को ठीक से रखता है) । सञ्चीवरयते भिक्षुः (भिक्षु कपड़े पहनता है)। उदाहरणों में जित होने से प्रात्मनेपद होता है । सिद्धि णिजन्न की सिद्धियों के समान है। मुण्डमिश्रश्लक्ष्णलवणवतवस्त्रहलकलकृततस्तेभ्यो ORDी वणिच ।।३.१२॥ पाहा मुण्ड …. तूस्तेभ्य: ५।३॥ णिच् ११॥ स०–मुण्डश्च मिश्रश्च श्लक्ष्णश्च लवणञ्च व्रतञ्च वस्त्रञ्च हलश्च कलश्च कृतञ्च तूस्तञ्च मुण्ड ……तूस्तानि, तेभ्यः, इतरेतरयोगद्वन्द्वः । अनु०-कर्मण:, करणे, वा, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थः-मुण्ड, मिश्र, इलक्ष्ण, लवण, व्रत, वस्त्र, हल, कल, कृत, तूम्त इत्येतेभ्यः कर्मभ्य: करोत्यर्थे णिच् प्रत्ययो भवति ।। उदा० - मुण्डं करोति =मुण्डयति । मिश्रयति । इलक्षणयति । लवणयति । पयो व्रतयति । वस्त्रमाच्छादयति = संवस्त्रयति । हलि गृह्णाति =हलयति । कलिं गृह्णाति =कलयति । निपातनादकारः, स च सन्वभावनिषेधार्थः । कृतं गृह्णाति = कृतयति । तूस्तानि विहन्ति ==वितूस्तयति केशान् । भारत भाषार्थ:-[मुण्ड….. तूस्तेभ्यः] मुण्ड, मिश्र, श्लक्ष्ण, लवण, व्रत, वस्त्र, हल, कल, कृत, तूस्त इन कर्मों से करोत्यर्थ में [णिच्] णिच् प्रत्यय होता है । लवण व्रत वस्त्रादि शब्द प्रकारान्त हैं । सो अतो लोपः (६।४।४८) से प्रकार लोप होकर यथाप्राप्त वृद्धि या गुण जब करने लगेंगे, तो प्रकार स्थानिवत् (१।११५५) हो जायेगा ॥ उदा०–मुण्डयति (मुण्डन करता है)। मिश्रयति मिश्रण करता है)। श्लक्ष्णयति (चिकना करता है) । लवणयति (नमकीन बनाता है)। पयो वतयति (दूध का व्रत करता है) । संवस्त्रयति (वस्त्र से ढाँपता है )। हलयति (बड़े हल को पकड़ता है।। कलयति(कलि नामक पाश को पकड़ता है)। कृतयति (फल को ग्रहण करता है)। विस्तूस्तयति केशान् (जटाओं को अलग-अलग करता है) ॥ धातोरेकाचो हलादेः क्रियासमभिहारे यङ् ।।३।११२२॥ धातो: ५॥१॥ एकाच: ५॥१॥ हलादे: ५।१।। क्रियासमभिहारे ७।१।। यङ १।१॥ स–एकोऽच यस्मिन् स एकाच, तस्मात्, बहुव्रीहिः । हल आदिर्यस्य स हलादिः, तस्मात् हलादे:, बहुव्रीहिः । क्रियायाः समभिहारः क्रियासमभिहारः, तस्मिन, है पादः ] तृतीयोऽध्यायः २८७ षष्ठीतत्पुरुषः ॥ अनु०-वा, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थ:-एकाज यो धातुहलादिः तस्मात् क्रियासमभिहारे पौन:पुन्येऽर्थे भृशार्थे . वा वर्तमानाद् यङ् प्रत्ययो विकल्पेन भवति ॥ उदा०-पुनः पनः पचति =पापच्यते, पापठ्यते। भृशं ज्वलति= जाज्वल्यते, देदीप्यते ॥ भाषार्थ:-[क्रियासमभिहारे] क्रियासमभिहार अर्थात् बार-बार करने अर्थ में, वा भृशार्थ =अतिशय में वर्तमान [एकाचः] एक अच्वाली जो [हलादेः] हलादि [धातो:] धातु उससे विकल्प से [यङ] यङ् प्रत्यय होता है । यहाँ से ‘याङ’ की अनुवृत्ति ३।१।२४ तक जायेगी, तथा ‘घातो:’ का अधिकार ३।१६० तक जायेगा। जोशी ही नित्यं कौटिल्ये गतौ ॥३१॥२३॥ जो नित्यम् १२१॥ कौटिल्ये ७१॥ मतो ७॥१॥ अनु०–धातो:, यङ, प्रत्यय:, परश्च ॥ अर्थ:-गत्यर्थेभ्यो धातुभ्यो नित्यं कौटिल्ये गम्यमाने यङ् प्रत्ययो भवति, न तु समभिहारे । उदा०-कुटिलं कामति = चङ क्रम्यते । दन्द्रम्यते ॥ काय भाषार्थः- [गतौ] गत्यर्थक धातुओं से [नित्याम] नित्य [कौटिल्गे] कुटिल गति गम्यमान होने पर ही या प्रत्यय होता है, समभिहार में नहीं ॥ यहाँ से ‘नित्यम्’ को अनुवृत्ति ३।१।२४ तक जायेगी। TOP लुपसदचरजपजभदहदशगृभ्यो भावगीयाम् ।।३।१।२४॥ को लुपसद गृभ्य: ५॥३॥ भावगर्हायाम् ॥१॥ स० - लुपसद० इत्यत्रेतरेतरयोग द्वन्द्वः। भावस्य गर्दा भावगर्हा, तस्यां भावगर्हायाम, षष्ठीतत्पुरुषः ।। अनु०-नित्यं, धातोः, यङ, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थ:-लुप, सद, चर, जप, जभ, दह, दश, गू इत्येतेभ्यो धातुभ्यो नित्यं भावगर्हायां धात्वर्थगर्हायां यङ् प्रत्ययो भवति ॥ उदा० गहितं लुम्पति-लोलुप्यते । सासद्यते । चञ्चूर्यते । जञप्यते । जञ्जभ्यते । दन्दह्यते। दन्दश्यते । निजेगिल्यते ॥ भाषार्थ:-[लुपसद…..“गृभ्यः ] लुप, सद, चर, जप, जभ, दह, दश, ग इन धातुओं से नित्य [भावगर्हायाम् ] भाव को निन्दा अर्थात् धात्वर्थ की निन्दा में ही यङ प्रत्यय होता है । लोलुप्यते में लोप करनेवाला अर्थात् काटनेवाला निन्दित नहीं है, अपितु उसके काटने में ही निन्दा है। वह काटना क्रिया खराब ढंग से करता है, सो भावगर्हा है। २८८ अष्टाध्यायो-प्रथमावृत्ती [प्रथमः सत्यापपाशरूपवीणातूलश्लोकसेनालोमत्वचवर्मवर्णचूर्ण चुरादिभ्यो णिच् ॥३१॥२५॥ सत्याप…….-चूर्गचुरादिभ्यः ५॥३॥ णिच् ११| स०-चर आदिर्येषां ते चुरादयः । सत्यापश्च पाशश्च रूपं च वीणा च तूलश्च श्लोकश्च सेना च लोम च त्वचं च वम च वर्ण च चूर्णं च चुरादयश्च सत्यापपाश………. चुरादयः, तेभ्य:, बहुव्रीहिगर्भतरेतरयोगद्वन्द्वः । अनु०-धातो:, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थ:-सत्याप, पाश, रूप, वीणा, तूल, श्लोक, सेना, लोम, त्वच, वर्म, वर्ण, चूर्ण इत्येतेभ्य: शब्देभ्यः, चुरादिभ्यश्च घातुभ्यो’ णिच् प्रत्ययो भवति ॥ उदा०–सत्यम् आचष्टे सत्यापयति । विगाशयति । रूपयति । वीणया उपगायति=उपवीणयति । तूलेन अनुकुष्णाति == अनु तूलयति । श्लोकरुपस्तौति = उपश्लोकयति, सेनयाऽभियाति = अभिषेणयति। लोमान्यनु माष्टि = अनुलोमयति । त्वचं गृह्णाति = वचयति । वर्मणा संनह्यति संवर्मयति । वर्ण गृह्णाति = वर्णयति । चण रवध्वंसयति = प्रवचूर्ण यति ॥ चुरादिभ्यः-चोरयति । चिन्तयति ।। भाषार्थ:- [सत्याप…-“चुरादिभ्यः] सत्याप, पाश, रूप, वीणा, तूल, श्लोक, सेना, लोम, त्वच, वर्म, वर्ण, चूर्ण इन शब्दों, तथा चुरादि (धातुपाठ में पढ़ी) धातुओं से [णिच् ] णिच् प्रत्यय होता है। उदा.–सत्यापयति (सत्य कहता है)। विपाशयति (बन्धन से छुड़ाता है) । रूपयति (दर्शाता है) । उपवीणयति (वीणा से गाता है)। अनुतूलयति (रूई के द्वारा कान के मैल आदि को खींचता है)। उपश्लो कयति (श्लोकों से स्तुति करता है) । अभिषेणयति (सेना से चढ़ाई करता है)। अनुलोमयति (बालों को साफ करता है) । त्वचयति (दालचीनी को पकड़ता है)। संवर्मयति (कवच सहित तैयार होता है) । वर्णयति (रंग पकड़ता है) । प्रवचूर्णयति (चूर्ण से किसी वस्तु का नाश करता है। ।। चरादियों से -चोरयति (चुराता है)। चिन्तयति (चिन्ता करता है) ॥ चर् की प्रथम भूवादयो० (१।३।१) से धातु संज्ञा करके ‘चोरि’ बनाकर, पुनः सनादयन्ता. (३।१।३२) से धातु संज्ञा हुई। तत्पश्चात पूर्ववत् शप् तिप् पाकर शप को निमित्त मानकर सार्वघातु ० (७।३।८४)से ‘रि’ को ‘रे गुण, तथा अयादेश होकर ‘चोरयति’ बना ।। चुरादिगण में सर्वत्र एक बार भूवादयो० से धातु संज्ञा होकर, णिच् प्रत्यय लाकर, पुनः सनाद्यन्ता धातवः से धातु संज्ञा हा करेगी। सत्यापयति आदि में तो पूर्ववत् ही प्रथम प्रातिपदिक संज्ञा होकर णिच् लाकर १. धातो: का अधिकार प्राते हुए भी यहाँ चुगदियों के साथ ही घातु का सम्बन्ध बैठता है, सत्यापपाश० आदि के साथ नहीं। क्योंकि सत्याप आदि शब्द प्रातिपदिक हैं, तथा चुरादि धातुएं हैं। tage तृतीयोऽध्यायः २८६ ई सनाद्यन्ता० (३।१।३२) से धातु संज्ञा “सत्यापि” की हुई है । पूर्ववत शप तिप् प्राकर, गुण अयादेश करके ‘सत्यापयति’ प्रादि बनेगा ॥ यहाँ से णिच्’ की अनुवृत्ति ३।१।२६ तक जायेगी। ___ हेतुमति च ।।३।१।२६॥ हेतुमति ७।१।। च अ०॥ अन–णिच, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः-स्वतन्त्रस्य कत्तु : प्रयोजको हेतुः । तत्प्रयोजको हेतुदच (१।४।५५) इत्यनेन हेतुसंज्ञा भवति । हेतुरस्यास्तीति हेतुमान्, हेतोः व्यापारः प्रेषणादिलक्षणः । तस्मिन् हेतुमति अभिधेये धातोणिच प्रत्ययो भवति ॥ उदा०-देवदत्तः कटं करोति यज्ञदत्तः तं प्रेरयति = कटं कारयति देवदत्तन यज्ञदत्तः । प्रोदनं पाचयति ।। ) भाषार्थ:-स्वत्रन्त्र कर्त्ता के प्रयोजक को ‘हेतु’ कहते हैं । उसका जो प्रेषणादि लक्षण व्यापार वह हेतुमान हुआ, उसके अर्थात् [हेतुमति ] हेतुमान के अभिधेय होने पर [च] भी धातु से णिच प्रत्यय होता है ।। चटाई बनाते हुए देवदत्त को यज्ञदत्त के द्वारा प्रेषण(=प्रेरणा)दिया जा रहा है कि चटाई बनायो । सो उदाहरण में हेतुमत् अभिधेय है, अतः णिच् प्रत्यय कृ तथा पच धातुओं से हो गया । उदा०-देवदत्तः कटं करोति यज्ञदत्तः तं प्रेरयति =कटं कारयति देवदत्तेन यज्ञदत्तः (यज्ञदत्त देवदत्त से चटाई बनवा रहा है) । प्रोदनं पाचयति (चावल पकवा रहा है) ॥ सिद्धियों में कुछ भी विशेष नहीं है । कण्डवादिभ्यो यक् ।।३।१।२७॥ RS कण्ड वादिभ्यः ५॥३॥ यक ११॥ स०-कण्डू: आदिर्येषां ते ऋण्ड वादयः, तेभ्य: कण्डवादिभ्यः, बहुव्रीहिः ॥ अनु०-धातो:, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः-कण्डवादिभ्यो धातुभ्यो यक प्रययो भवति ॥ उदा०–कण्डूयति, कण्डूयते । मन्तूयति ॥ भाषार्थ:-[कण्ड्वादिभ्यः] कण्डवादि धातुओं से [यक] या प्रत्यय होता है । कण्डवादि धातु तथा प्रातिपदिक दोनों हैं । सो धातोः का अधिकार होने से यहाँ कण्डवादि धातु ही ली गई हैं । उदा०-कण्डूयति (खुजली करता है), कण्डूयते । मन्तूयति (अपराध करता है) ॥ स्वरितजितः० (१३३७२) से कण्डूयति में उभयपद होता है ।। मन्तु को दीर्घ प्रकृत्सार्व० (७।४।२५) से होता है । कण्डूय, मन्तूय की सनाद्यन्ता० (३।१।३२) से धातु संज्ञा होकर शप तिप् प्रा हो जायेंगे। २६० अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्तो [प्रथमः को अगर गुपूधूपविच्छिपणिपनिभ्य आयः ॥३॥१२८॥ IFE गुपूधूपविच्छिपणिपनिभ्यः ॥३॥ प्राय: १११॥ स०–गुपूश्च धूपश्च विच्छिश्च पणिश्च पनिश्च गुपूधूपविच्छिपणिपनयः, तेभ्य:……, इतरेतरयोगद्वन्द्वः ।। अनु०– धातो:, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थ:-गुपू, धूप, विच्छ, पण व्यवहारे स्तुतौ च, पन च इत्येतेभ्यो घातुभ्य प्रायः प्रत्ययो भवति ॥ उदा०-गोपायति । धूपायति । विच्छायति । पणायति । पनायति ।। ही भाषार्थ:-[गुपूधूपविच्छिपणिपनिभ्य:] गुपू, धूप, विच्छि, पणि, पनि इन धातुओं से [प्रायः] प्राय प्रत्यय होता है ॥ उदा०-गोपायति (रक्षा करता है)। धूपायति (पीड़ा देता है) । विच्छायति (चलता है) । पणायति (स्तुति करता है)। पनायति (स्तुति करता है) ॥ गुपू में ऊकार अनुबन्ध है । लघूपध गुण होकर ‘गोपाय’ धातु बन गई । पुनः शप् तिप् प्राकर गोपायति बना है ॥ काही ऋतेरीयङ् ॥३१२६॥ Pers ऋतेः ५॥१॥ ईयङ् १११॥ अनु०-धातो:, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः-ऋतिघातो. ईयङ प्रत्ययो भवति ॥ उदा०-ऋतीयते, ऋतीयेते ॥ 1 भाषार्थ:- [ऋते:] ऋति धातु से [ईयङ्] ईयङ प्रत्यय होता है ।उदा. ऋतीयते (घृणा करता हैं) ॥ ऋत् + ईय=ऋतीय को (३॥१॥३२) से घातु संज्ञा होकर शप् त आ गये हैं । प्रात्मनेपद अनुदात्तङित. (१।३।१२) से हो गया है । विशेष:-ऋति धातु धातुपाठ में नहीं पढ़ी हैं । यह सौत्र धातु घृणा अर्थ में है । जो धातु सूत्रपाठ (अष्टाध्यायी) में पढ़ी होती हैं, धातुपाठ में नहीं, उसे सौत्र धातु कहते हैं । जी कमेणिङ, ॥३॥१॥३०॥ कमेः ५॥१॥ णिङ ११॥ अनु०-धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थ:-कमुघाता णिङ प्रत्ययो भवति ॥ उदा०-कामयते, कामयेते, कामयन्ते ॥ पिट भाषार्थ:-[कमे:] कमु कान्तौ पातु से [णिङ्] णिङ प्रत्यय होता है । कार अनुबन्ध प्रात्मनेपदार्थ हैं, तथा णकार अत उपधायाः (७।२।११६) से वृद्धि करने के लिये है ॥ कम में उकार अनुबन्ध है ॥ उदा.-कामयते (कामना करता है)। पायादय आर्धधातुके वा ॥३१॥३१॥ आयादयः १॥३॥ आर्धधातुके ७।१॥ वा अ०॥ स०-प्राय आदिर्येषां ते पाद:] तृतीयोऽध्यायः २६१ आयादय:, बहुव्रीहिः ॥ अनु०-प्रत्ययः ॥ अर्थः-पायादयः प्रत्यया: आर्धधातुकविषये विकल्पेन भवन्ति ॥ नित्यप्रत्ययप्रसङ्ग तदुत्पत्तिरार्धधातुकविषये विकल्प्यते ॥ उदा० गोप्ता, गोपिता, गोपायिता। अतिता, ऋतीयिता। कमिता, कामयिता ।। भाषार्थ:- [पायादय:] प्रायादि प्रत्यय अर्थात प्राय ईयङ् णिङ, प्रत्यय जिन-जिन धातुओं से कहे हैं, उनसे [आर्धधातुके] प्रार्धधातुक विषय को विवक्षा हो, तो वे प्रत्यय [वा] विकल्प से होंगे । नित्य प्रत्यय को उत्पत्ति प्राप्त थी, सो विकल्प कर दिया । यहाँ ‘पार्षधातुके’ में विषयसप्तमी है ॥ सनाद्यन्ता धातवः।।३।१॥३२॥ सनाद्यन्ताः । ॥ धातवः ११३॥ स–सन आदिर्गेषां ते सनादयः, बहुव्रीहिः। सनादयोऽन्ते येषां ते सनाद्यन्ता:, बहुव्रीहिः ।। अर्थः-सनाद्यन्ता समुदाया: धातुसंज्ञका भवन्ति ॥ उदा०—चिकीर्षति, पुबीयति, पुत्रकाम्यति ।। क भाषार्थ:-सन् जिनके आदि में हैं, वे सनादि प्रत्यय कहलाए । अर्थात् गुप्तिज्कि द्भ्यः सन् (३।१।५) के सन् से लेकर प्रकृत सूत्र तक जितने क्यच काम्यच् क्यङ णि आदि प्रत्यय हैं, वे सब सनादि हुए । वे सनादि प्रत्यत्र हैं अन्त में जिस शब्द के, वह सारा समुदाय (=सनादि अन्तवाला) सनाद्यन्त हुआ । उस [सनाद्यन्ताः] सनाद्यन्त समुदाय की [धातवः] धातु संज्ञा होती है ॥ पिछले सारे सूत्रों के उदाहरण इस सूत्र के उदाहरण बनेंगे। इस प्रकरण में प्रातिपदिकों एवं सुबन्तों से भी (यथा लोहित, भूश, पुत्र प्रादि से) प्रत्यय की उत्पत्ति करके, पुनः प्रत्ययान्त की प्रकृत सूत्र से धातु संज्ञा कर दी जाती है, जिससे प्रातिपदिक भी तिङन्त बन जाते हैं । अतः उन्हें नामधातु कहते हैं, क्योंकि वे नाम से ही तिङन्त बनते हैं । स्यतासी लुलुटोः ॥३१॥३३॥ स्यतासी १।२।। लुलुटो: ७।२।। स०–स्याश्च तासिश्च स्यतासी, इतरेतरयोग द्वन्द्वः । लु च लुट च लुलुटौ, तयोः लुलुटोः, इनरेतरयोगद्वन्द्वः ।। अनु०-धातो:, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थ:-ल इत्यनेन लुटलुङोः द्वयोरपि ग्रहणम् ॥ लुलुटोः परतो धातोः स्मतासी प्रत्ययौ यथाक्रम भवतः ॥ उदा०–करिष्यति प्रकरिष्यत् । लुट कर्ता, पठिता ॥ भाषार्थ:-लू से यहाँ लूट लुङ, दोनों लकारों का ग्रहण है । धातु से [लुलुटो:] ल (=लुट, लुङ्) तथा लुट् परे रहते यथासंख्य करके [स्यतासी] स्य तास् प्रत्यय हो जाते हैं ।। सिद्धियाँ पहले कई बार आ चुकी हैं । ૨૯૨ अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [प्रथमः सिब्बहुलं लेटि ॥३।१॥३४॥ सिप् ११॥ बहुलम् ॥१॥ लेटि ७।१।। अनु०-धातोः, प्रत्य य:, परश्च ॥ अर्थः-लेटि परतो घातोर्बहुलं सिप् प्रत्ययो भवति ।। उदा०-भविषति, भविषाति । भविषत्, भविषात् । भविषद, भविषाद ॥ भाविषति, भाविषाति । भाविषत्, भावि षात् । भाविषद्, भाविषाद् ॥ न च भवति–भवति, भवाति । भवत, भवात् । भवद, भवाद ।। एवं तसि-भविषतः, भविषातः । भाविषतः, भाविषातः । भवतः, भवातः ॥ झि-भविषन्ति, भविषान्ति । भविषन्, भविषान् । भाविषन्ति, भावि षान्ति । भाविषन, भाविषान । भवन्ति, भवान्ति । भवन, भवान् ।। सिपि भविषसि, भविषासि । भविषः, भविषा: । भाविषसि, भाविषासि । भाविष:, भाविषाः । भवसि, भवासि । भवः, भवाः । थसि-भविषथः, भविषाथ:। भाविषथ!, भाविषाथः । भवथः, भवाथ: ।। थ-भविषथ, भविषाथ । भाविषथ, भाविषाथ । भवथ, भवाथ ॥ मिपि-भविषमि, भविषामि । भविषम्, भविषाम् । भाविषमि, भाविषामि । भाविषम् । भाविषाम् । भवमि, भवामि । भवम, भवाम् ॥ वसि भविषवः, भविषावः । भविषव, भविषाव । भाविषवः, भाविषाव: । भाविषव, भाविषाव । भववः, भवावः । भवव, भवाव ॥ मसि-भविषमः, भविषाम: । भविषम, भविषाम । माविषमः, भाविषामः । भाविषम, भाविषाम । भवमः, भवामः । भवम, भवाम ॥ जोषिषत, तारिषत्, मन्दिषत् । न च भवति-पताति विद्युत । (ऋ० ७॥२५१) । उदधि च्यावयाति (तुलना-अथर्व० ११११३;ते. ब्रा० १०६।४।५; तां० ब्रा० ६।१०।१६, ११३८।११, १३॥५॥१३ सर्वत्र तत्सदृश एव पाठो न तु पूर्णः) । जीवाति शरदः शतम् (ऋ० १०॥८॥३९)। स देवाँ एह वक्षति (ऋ० ११।२)॥ भाषार्थः-[लेटि] लेट् लकार परे रहते धातु से [बहुलम् ] बहुल करके [सिप्] सिप् प्रत्यय होता है ।। उदाहरणों में भू धातु के सम्भावित रूप दिखाये गये हैं । जोषिषत् प्रादि उपलभ्यमान उदाहरण हैं । कास्प्रत्ययादाममन्त्रे लिटि ॥३॥१॥३५॥ कास्प्रत्ययात् ५॥१॥ आम १।१।। अमन्त्रे ७।१।। लिटि ७शा स०-कास् च प्रत्ययश्च कास्प्रत्ययम्, तस्मात्, समाहारो द्वन्द्वः। न मन्त्र: अमन्त्रः, तस्मिन, नजतत्पुरुषः । अनु०-धातो:, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थः–कोसृ शब्दकुत्सायाम् तस्मात् प्रत्ययान्ताच्च धातोः ‘ग्राम’ प्रत्ययो भवति लिटि परत: अमन्त्रविषये = लौकिकप्रयोग विषये ॥ उदा०-कासाञ्चक्र। लोलूयाञ्चक्र, पोपूयाञ्चक्रे ॥ भाषार्थ:-[कास्प्रत्ययात् ] ‘कास शब्दकुत्सायाम्’ धातु से, तथा प्रत्ययान्त पादः] तृतीयोऽध्यायः धातुओं से [लिटि] लिट् लकार परे रहते [अाम्] पाम् प्रत्यय होता है, यदि [अमन्त्र] मन्त्रविषयक अर्थात् वेदविषयक प्रयोग न हो ॥ उदा०—कासाञ्चक्रे (वह खाँसा) । लोलूयाञ्चके (उसने बार-बार काटा), पोपूयाञ्चके (बार-बार पवित्र किया) | सिद्धि परिशिष्ट १।३।६३ के समान समझे । परले लोलूय को सनाद्यन्ता० (३।१।३२) से धातु संज्ञा करके, परि० १३१२४ के समान सिद्धि कर ली जावेगी। अब यह लोलूय धातु यङ् प्रत्ययान्त हो गई । सो आम् प्रत्यय प्रकृत सूत्र से प्राकर लोलू याञ्चके परि० १।३।६३ के समान बनेगा ॥ यहाँ से ‘ग्राम’ की अनुवृत्ति ३।११४० तक, तथा ‘अमन्त्र लिटि’ को अनुवृत्ति ३।११३६ तक जावेगी ॥ PE इजादेश्च गुरुमतोऽनृच्छः ॥३॥१॥३६॥ णा को _इजादे: ५।१॥ च अ०॥ गुरुमतः ५।१।। अनुच्छः ५।१॥ स०- इच् प्रादिर्यस्य स इजादिः, तस्मात्, बहुव्रीहिः । गुरुः वर्णो विद्यतेऽस्मिन् इति गुरुमान, तस्मात् गुरुमतः, तदस्यास्त्य० (५।२।९४) इत्यनेन मतुप् प्रत्ययः । न ऋच्छ अनृच्छ्, तस्मात, नञ्तत्पुरुषः ॥ अनु०-आममन्त्रे लिटि, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थः इजादियों धातुर्गुरुमान् तस्मात आम् प्रत्ययो भवति, अमन्त्रे लिटि परतः ऋच्छधातु वर्जयित्वा ॥ उदा०-ईहाङचक्र, ऊहाञ्चक्रे ॥ भाषार्थः- [इजादेः] इजादि [च] तथा [गुरुमतः] गुरुमान् जो धातु उससे प्राम् प्रत्यय हो जाता है, लौकिक प्रयोग विषय में लिट् परे रहते, [अनृच्छः] ऋच्छ धातु को छोड़कर ॥ ईह चेष्टायाम्, ऊह वितर्के धातुएं इजादि हैं, तथा दीर्घ च (१।४।१२) से गुरु संज्ञा होने से गुरुमान भी हैं । सो आम् प्रत्यय प्रकृत सूत्र से हो गया। ऋच्छ् धातु भी इजादि, तथा संयोगे गुरु (१।४।११) से गुरु संज्ञा होने से गुरुमान भी थी, सो पाम् प्रत्यय की प्राप्ति थी, पर अनुच्छः कहने से निषेध हो गया । परि० १३०६३ में सिद्धि देखें ॥ जो कि दयायासश्च ॥३॥१॥३७॥ 50 से दियायास: ५॥१॥ च अ०॥ स०-दयश्च अयश्च प्राप्त च दयायाम, तस्मात्, समाहारो द्वन्द्वः ।। अन०–आममन्त्रे लिटि, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः-‘दय दानगतिरक्षणेष’, ‘अय गतौ’, ‘पास उपवेशने’ इत्येतेभ्यो धातुभ्यो लिटि परतोऽमन्त्रे विषये माम् प्रत्ययो भवति ॥ उदा० -दयाञ्चक्र । पलायाञ्चके । पासाञ्चक्रे ॥ २६४ अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्तो [प्रथमः 51 a भाषार्थः- [दयायासः] दय प्रय तथा प्रास धातुओं से [च] भी अमन्त्रविषयक लिट् लकार परे रहते प्राम् प्रत्यय हो जाता है । इन धातुओं के इजादि एवं गुरुमान न होने से पूर्व सूत्र से प्राम की प्राप्ति नहीं थी, सो विधान कर दिया ।। उदा० बयाञ्चके (उसने रक्षा को)। पलायाञ्चक्रे (वह भाग गया) । पासाञ्चक्र (वह बैठा) ॥ पलायाञ्चक्रे में परा पूर्वक प्रय धातु से आम प्रत्यय हुआ है । उपसर्ग स्यायती (८।२।१६) से र् को ल हो गया है । शेष सब सिद्धि परि० १।३।६३ के समान ही जानें ॥ उपविदजागृभ्योऽन्यतरस्याम् ।।३।११३८॥ उविदजागृभ्यः ५॥३॥ अन्यतरस्याम् अ०॥ स०- उषश्च विदश्च जागृ च उषविदजाग्रः, तेभ्यः, इतरेतरयोगद्वन्द्वः ॥ अनु०-आममन्त्रे लिटि, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ।।अर्थः-‘उष दाहे’, ‘विद ज्ञाने’, ‘जाग निद्राक्षये’ इत्येतेभ्यो धातुभ्योऽमन्त्र विषये लिटि परत आम् प्रत्ययो विकल्पेन भवति ॥ उदा०-पोषाञ्चकार, उवोष । विदाञ्च कार, विवेद । जागराञ्चकार, जजागार अधिकार क भाषार्थः-[उषविदजागभ्यः] उष विद तथा जाग धातुओं से [ अभ्यतरस्याम्] विकल्प से अमन्त्र विषय में लिट् परे रहते पाम् प्रत्यय होता है । 25
- यहाँ से ‘बहुलम्’ को अनुवृत्ति ३॥१॥३६ तक जाती है । अपन, भीहीभृहुवां श्लुवच्च ॥३।११३६॥ P aler भीह्रीभृहुवाम् ॥३॥ श्लुवत् अ० ॥ च अ० ॥ स०- भीश्च ह्रीश्च भृ च हुश्च भीहीभृहुव:, तेषां, इतरेतरयोगद्वन्द्वः ॥ श्लौ इव श्लुवत ॥ अनु०-अन्यतर स्याम्, प्राममन्त्रे लिटि, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थ:-‘निभी भये’, ‘ह्री लज्जायाम’, ‘डुभृञ् धारणपोषणयोः, ‘हु दानादनयोः’ इत्येतेभ्यो धातुभ्योऽमन्त्रे लिटि परतो विकल्पेन अाम् प्रत्ययो भवति, श्लवच्च एषां कार्यं भवति ॥ उदा०-बिभयाञ्चकार, बिभाय । जिह्रयाञ्चकार, जिह्राय। बिभराञ्चकार, बभार । जुहवाञ्चकार, जुहाव ॥ भाषार्थ:- [भी ह्री हुवाम्] भी, ह्री, भू, हु इन धातुओं से अमन्त्रविषयक लिट् परे रहते विकल्प से प्राम् प्रत्यय होता है, [च] तथा इनको [श्लु वत्] श्लुवत् कार्य, अर्थात् श्लू के परे रहते जो कार्य होने चाहिये, वे भी हो जाते हैं ।। श्लो (६।१।१०)से द्वित्व, तथा भवामित् (७।४।७६) से इत्व करना ही श्लुवत् कार्य हैं ।। उदा.-बिभयाञ्चकार, बिभाय (वह डर गया था) । जिह्रयाञ्चकार, जिह्राय (वह लज्जित हो गया था) । बिभराञ्चकार, बभार (उसने पालन किया था)। पादः] (ay तृतीयोऽध्यायः २६५ जुहवाञ्चकार, जुहाव (उसने हवन किया था) ॥ ‘भी’ इत्यादि धातुओं को श्लो (६।१।१०) से द्वित्व, अभ्यासकार्य प्रादि सब पूर्ववत् होगा । भू के अभ्यास को भृनामित (७।४।७६) से इत्व होगा । जब आम् प्रत्यय नहीं होगा, तो तिप् के स्थान में परस्मैपदानाम् ० (३।४।८२) से जल होगा, तथा लिटि धातोरनभ्यासस्य (६।१८) से द्वित्व होगा । ग्राम पक्ष में लिट् के पूर्व ग्राम प्रत्यय का व्यवधान होने से लिटि घातोरनभ्यास्य से द्वित्व प्राप्त नहीं होता था, अतः श्लुवत् कर दिया ।। ना कञ्चानुप्रयुज्यते लिटि ॥३१॥४०॥ कृञ् १।१।। च अ० ॥ अनुप्रयुज्यते तिङ् ॥ लिटि ७॥१॥ अनुप्रयुज्यते इत्यत्र पश्चादर्थे ‘अनु’ ॥ अनु०-आम्, धातो:, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः—ाम्प्रत्ययस्य पश्चात् कृञ् अनुप्रयुज्यते लिटि परत: ॥ कृन इत्यनेन प्रत्याहारग्रहणम-कृम्वस्तियोगे० (५१४१५०) इत्यत: प्रभृत्याऽकृनो द्वितीयतृतीय ० (५।४।५८) इत्यस्य बकारात् ।। उदा०–पाठयाञ्चकार, पाठयाम्बभूव, पाठयामास || 1810 भाषार्थ:-प्राम्प्रत्यय के पश्चात् [कृन] कृञ् प्रत्याहार (=कृ भू अस्) का [च] भी [अनुप्रयुज्यते] अनुप्रयोग होता है, [लिटि] लिट् परे रहते ॥ ‘कृञ्’ से कृञ् प्रत्याहार लिया गया है-कृभ्वस्तियोगे० (५१४१५०) के ‘कृ’ से लेकर कुनो द्वितीयतृतीय० (५।४।५८) के अकारपर्यन्त ‘कृ, भू, अस्’ तीन धातुओं का इससे ग्रहण होता है । ऊपर से ही यहाँ ‘लिटि’ की अनुवृत्ति पा सकती थी, पुनः यहाँ जो ‘लिटि’ ग्रहण किया है, उसका यह प्रयोजन है कि आम: (२।४८१) से लिट् का लुक करने के पश्चात् कृ भू अस का अनुप्रयोग करने पर उस लिट् को पुनरुत्पत्ति हो जावे । जैसा कि परि० १।३।६३ की सिद्धियों में भी दिखा पाये हैं । की विदाकुर्वन्त्वित्यन्यतरस्याम् ॥३।११४१॥ PDF मा विदाङकुर्वन्तु तिङ् ।। इति अ० ॥ अन्यतरस्याम अ०॥ अर्थ:-विदाङकुर्वन्तु इत्येतद् रूपं विकल्पेन निपात्यते, पक्षे विदन्तु ।। अत्र विदधातोर्लोटि प्रथमपुरुषस्य बहुवचने ‘प्राम्’ प्रत्ययः, गुणाभावः, लोट प्रत्ययस्य लुक्, लोट परस्य कृत्रोऽनुप्रयोगो निपात्यते ॥ भाषार्थ:-[विदाङ कुर्वन्तु] विदाङकुर्वन्तु [इति] यह रूप लोट् के प्रथम पुरुष के बहुवचन में निपातन किया जाता है, [अन्यतरस्याम् ] विकल्प करके । पक्ष में विदन्तु भी बनेगा ॥ विद धातु को लोट लकार प्रथम पुरुष बहुवचन के परे रहते आम् प्रत्यय तथा उस पाम् प्रत्यय को निमित्त मानकर विन् को जो पुगन्तलघूपघस्य २६६ अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [प्रथमः १ च (७।३।८६) से गुण पाता है उसका प्रभाव, उस लोट का लुक, तथा लोटपरक
- कृञ् धातु का अनुप्रयोग यह सब निपातन से यहाँ सिद्ध किया जाता है ।। शेष कुर्वन्तु में झि को अन्तादेश, एरुः (३।४।८६) से इ को उ, तनादिकृञ्भ्य: उ: (३।११७६) से उ विकरण, सार्वधातुकाधंधातुकयो: (७,४१८४), उरणरपरः(१।१।५०) से गुण होकर-कर उ अन्त’ बना । अत उत्सार्वधातुके (६।४११०) से उत्व, तथा यणादेश होकर कुर्वन्तु बन ही जावेगा। विदाङ कुर्वन्तु =स्वीकुर्वन्तु ॥ विशेषजो कार्य लक्षणों से अर्थात् सूत्रों से सिद्ध नहीं होते, उन्हें सिद्ध करना “निपातन” कहा जाता है । यहाँ से ‘अन्यतरस्याम’ की अनवृत्ति ३।११४२ तक जायेगी। अभ्युत्सादयाम्प्रजनयाञ्चिकयांरमयामकः पावयां क्रियाद्विदामक्रन्नितिच्छन्दसि ॥३॥१॥४२॥ मोड अभ्युत्सादयां प्रजनयां चिकयां रमयाम इति चत्वारि प्रथमान्तानि ॥ अक: तिङ ।। पावयांक्रियात तिङ ॥ विदामक्रन तिङ ।। इति अ० ॥ छन्दसि ७१।। अनु० -अन्यतरस्याम् । अत्र ‘अक:’ शब्दः अभ्युत्सादयां प्रजनयां चिकयां रमयाम इत्येतैः सर्वैः सह सम्बध्यते ॥ अर्थः-अभ्युत्सादयामक:, प्रजनयामकः, चिकयामकः, रमयामकः, पावयांक्रियात, विदामक्रन् इत्येते शब्दा: छन्दसि विषये विकल्पेन निपात्यन्ते । सद जन रम इत्येतेषां ण्यन्तानां घातूनां लडि अाम प्रत्ययो निपात्यते । चिकथामक: इत्यत्रापि चित्र धातोल डि परत पाम निपात्यते, द्विवचनं कुत्वञ्चात्र विशेषः । पावयाँक्रियादिति पवतेः पुनाते ण्यन्तस्य लिङि ‘ग्राम्’ निपात्यते । क्रियादिति चास्यानुप्रयोगः। विदामन्निति विदेल ङि आम निपात्य ते गुणाभावश्च, अक्रन्नित्यस्य चानुप्रयोगः । उदा०—अभ्युत्सादयामकः, भाषायां विषये -अभ्युदसीषदत । प्रजन यामकः, अपरपक्षे-प्राजीजनत् । चिकयापकः, पक्षे-अचषीत । रमयामकः, पक्षे अरीरमत् । पावयाँक्रियात, पक्षे- पाव्यात् । विदामक्रन्, पक्षे— अवेदिषुः ॥ ___भाषार्थ:-[अभ्यु… मक: पावयांक्रियात् विदामक्रन] अभ्युत्सादयामकः, प्रजनयामकः, चिकयामकः, रमयामकः, पावयांक्रियात, विदामक्रन् [इति] ये शब्द [छन्दसि] वेदविषय में विकल्प करके निपातन किये जाते हैं । रमयाम के पश्चात रखा हुआ ‘अकः’ शब्द ‘अभ्यत्सादयाम्’ प्रादि चारों शब्दों के साथ अभिसम्बद्ध होता है. अर्थात अभ्युत्सादयाम आदि चारों शब्दों में प्रकः’ का अनुप्रयोग निपातन से होता है । इन शब्दों में क्या क्या कार्य निपातन से सिद्ध किये गये हैं, यह यहां बताते हैं सद जन रम णिजन्त धातुओं से लुङ लकार में ग्राम निपातन किया गया है। तत्पश्चात ‘अकः’ का अनुप्रयोग निपातन है । यथाप्राप्त वृद्धि आदि सर्वत्र होती पादः] तृतीयोऽध्यायः २६७ जायेगी। चिकयामकः, यहाँ चिञ् धातु से लुङ परे रहते आम् प्रत्यय, चि धातु को द्विवचन एवं कुत्व निपातन है, तत्पश्चात् ‘अक:’ का अनुप्रयोग भी निपातित है । ण्यन्त में अयामन्ताल्वाय्येत् ० (६।४१५५) से णि को प्रयादेश हो ही जायेगा । पावयां क्रियात्, यहां पूङ या पूज् ण्यन्त धातुओं से लिङ परे रहते पाम् प्रत्यय निपातन है, तथा क्रियात् का अनुप्रयोग भी निपातन है । विदामक्रन्, यहाँ विद धातु से लुङ परे रहते पाम् प्रत्यय, विद प्रातु को गुणाभाव, एवं अक्रन का अनुप्रयोग निपातन हैं ।। पक्ष में अभ्युदसीषदत प्रादि बनेंगे, जिनको सिद्धियाँ परिशिष्ट में देखें। जनक च्लि लुङि ॥३१॥४३॥ रिस 15. चिल लुप्तप्रथमान्तनिर्देशः ।। लुङि ७।१॥ अनु०-धातो:, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थः-लुङि परतो धातो: चिलप्रत्ययो भवति ॥ च्ले: स्थानेऽने सिजादीनादेशान् वक्ष्यति, तत्रैवोदाहरिष्याम: ॥ _ भाषार्थ:-धातु से [लुङि] लुङ, लकार परे रहते [ चिल ] चिल प्रत्यय होता है । यहाँ से ‘लुङि’ की अनुवत्ति ३।१।६६ तक जायेगी। च्ले: सिच ॥३॥१॥४४॥ च्ले: ६।१।। सिच १११॥ अनु०–लुङि ।। अर्थः-च्ले: स्थाने सिज आदेशो भवति लुङि परत: ॥ उदा०-अकार्षीत्, अहार्षीत् ॥ भाषाथ:-[च्नेः] चिल के स्थान में [सिच्] सिच् प्रादेश होता है ।। सिद्धियाँ परि० १।१।१ में देख लें। यहाँ से ‘च्नेः’ की अनुवृत्ति ३।१।६६ तक जायेगी ।। शल इगुपधादनिट: क्सः ।।३।१।४५।। शल: ५।१।। इगुपधात् ५॥१॥ अनिटः ६॥१॥ क्स: १११॥ स०-इक उपधा यस्य स इगुपधः, तस्माद् दृगुपधाद, बहुव्रीहिः । न विद्यते इट् यस्य सोऽनिट, तस्य, बहुव्रीहिः ॥ अनु०-च्ले:, लुङि, धातोः ॥ अर्थ:- शलन्तो यो घातु: इगुपध: तस्मा दनिट: च्ले: स्थाने ‘क्स’ आदेशो भवति लुङि परत: ॥ उदा०-अधक्षत्, अलिक्षत् ।। जिस भाषार्थ:-[शल:] शलन्त [इगुपधात् ] इक उपधावाली जो धातु उससे [अनिटः] अनिट च्लि के स्थान में [क्स:] क्स प्रादेश होता है, लुङ परे रहते ॥ ___ यहां से ‘क्स:’ को अनुवृत्ति ३।१।४७ तक जायेगी ॥ ३८ २६८ अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [प्रथम: शिलष प्रालिङ्गने ॥३॥१॥४६॥ व श्लिष: ५॥१॥ आलिङ्गने ७।१॥ अनु०-क्स:, च्ले:, लुङि, धातोः ॥ अर्थः श्लिषधातो: आलिङ्गनेऽर्थे च्लेः स्थाने ‘क्स’ आदेशो भवति लुङि परतः ॥ उदा० आश्लिक्षत माता पुत्रीम् ॥ भाषार्थ:-[श्लिषः] श्लिष धातु से [आलिङ्गने] प्रालिङ्गन अर्थ में लि के स्थान में क्स प्रादेश होता है लुङ परे रहते ।। उदा०-पाश्लिक्षत् माता पुत्रीम् (माता ने अपनी पुत्री का प्रालिङ्गन किया) || प्राश्लिक्षत् में षढो: क: सि (८॥ २०४१) से श्लिष् के ष को क् हुआ है, क्स के स को आदेशप्रत्यययो: (८।३।५६) से षत्व होकर पूर्ववत् प्राश्लिक्षत् बन ही जावेगा । न दृशः ।।३।१॥४७॥ न अ० ॥ दृश: ५।१।। अनु०-क्सः, च्ले:, लुङि, घातोः। अर्थः-दृशधातो: परस्य च्लेः ‘क्स’ प्रादेशो न भवति लङि परत: ॥ शल इगुपधादनिटः क्सः (३।१।४५) इत्यनेन क्स आदेशे प्राप्ते प्रतिषिध्यते । तस्मिन् प्रतिषिद्धे असिचौ भवतः । उदा०-प्रदर्शत्, अद्राक्षीत ॥ महत भाषार्थ:-[दृशः] दश धातु से उत्तर चिल के स्थान में क्स मादेश [न] नहीं होता लुङ परे रहते ॥ शल इगुपधा० (३।११४५) सूत्र से क्स प्राप्त होने पर निषेध है । क्स के प्रतिषेध हो जाने पर इरितो वा (३।११५७) से अङ्, तथा पक्ष में सिच आदेश हो जाते हैं ॥ देवी ३ णिश्रिद्न भ्यः कर्तरि चङ् ॥३१४८॥ णिश्रिद्र स्र भ्य: ५।३॥ कर्तरि ७१।। चङ् १३१॥स०-णिश्रिद ० इत्यत्रेतरेतरयोग द्वन्द्वः॥ अनु०-च्ले:, लुङि, धातोः ॥ अर्थः-ण्यन्तेभ्यः, श्रि द्रु स इत्येतेभ्यश्च धातुभ्य उत्तरस्य च्ले: स्थाने चङ् आदेशो भवति कर्तरि लुङि परत: ॥ उदा०–ण्यन्तेभ्यः अचीकरत, अजीहरत् । अशिश्रियत् । अदुद्र वत् । असुस्र वत् ॥ भाषार्थ:-[णिश्रिद्र स भ्यः] ण्यन्त, तथा श्रिञ् सेवायाम्, दु गतौ, स्त्र, गतौ घातुओं से चिल के स्थान में [चङ ] चा प्रादेश होता है [कर्तरि] कर्तवाची लुङ परे रहते ॥ यहाँ से ‘चङ’ को अनुवृत्ति ३।१५६ तक, तथा ‘कर्त्तरि’ की अनुवृत्ति ३॥१॥ ६१ तक जायेगी ॥ पाद:] तृतीयोऽध्यायः २९६ विभाषा धेश्व्योः ।।३।११४६।। 3विभाषा १।१।। घेटश्व्यो : ६।२।। स०-धेटच श्विश्च धेट श्वी, तयोः, इतरेतर योगद्वन्द्वः ।। अनु०-कर्तरि चङ्, च्ले:, लुङि, धातोः ॥ अर्थः- ‘धेट पाने’, ‘टप्रोश्वि गतिवृद्धयोः’ इत्येताभ्यां धातुभ्याम् उत्तरस्य च्ले: स्थाने विभाषा चङ प्रादेशो भवति कर्तृवाचिनि लुङि परतः ॥ उदा०-प्रदधत्, अधात्, अधासीत् । श्वि-अशिश्वियत, अश्वत्, अश्वयीत् ॥ की। डी । भाषार्थ:-[घेट्श्व्योः ] घेट तथा टुप्रोश्वि धातुओं से उत्तर चिल के स्थान में चङ आदेश [विभाषा] विकल्प से होता है, कत्तवाची लुङ परे रहते ।।। यहां से विभाषा’ की अनुवृत्ति ३।११५० तक जायेगी । शाजार गुपेश्छन्दसि ।।३।११५०॥ मजकीय “गुपे: ५।१॥ छन्दसि ७।१॥ अनु०-विभाषा, कर्तरि चङ्, च्लेः, लङि,धातोः ।। अर्थ:-गुपू धातोरुत्तरस्य च्लेविभाषा चङ् आदेशो भवति छन्दसि विषये कत्तृवाचिनि लुङि परतः ॥ उदा० - इमान्नौ मित्रावरुणौ गृहानगुपतम्, अगौप्तम्, अगोपिष्टम्, अगोपायिष्टम् ॥ 5 भाषार्थ:- [ गुपेः] गप धातु से उत्तर चिल के स्थान में विकल्प से चङ प्रादेश होता है, [छन्दसि] वेदविषय में, कर्तृवाची लुङ् परे रहते ॥ यहां से ‘छन्दसि’ को अनुवृत्ति ३।११५१ तक जायेगी। नोनयतिध्वनयत्येलयत्यर्दयतिभ्यः ॥३॥१॥५१॥ वाण गह न प्र० ।। ऊनयतिध्वनयत्येलयत्यर्दयतिभ्यः ५।३।। स०-ऊनयतिश्च ध्वनयतिश्च एलयतिश्च अर्दयतिश्च ऊनयतिध्वनयत्येलयत्यर्दयतयः, तेभ्यः, इतरेतरयोगद्वन्द्वः ।। अनु०-छन्दसि,कर्तरि चङ्, च्ले:,लुङि,धातोः ॥ अर्य:- ‘ऊन परिहाणे’, ‘ध्वन शब्दे’, ‘इल प्रेरणे’, ‘अर्द गतौ याचने च’ इत्येतेभ्यो धातुभ्यो ण्यन्तेभ्य उत्तरस्य छन्दसि विषये चले: स्थाने चङ् आदेशो न भवति, कर्तरि लुङि परतः । उदा०-मा त्वायतो जरितुः काममूनयीः (ऋ० ११५३।३), औनिनः इति भाषायाम् । मा त्वाग्निलनयीत (ऋ० १।१६२।१५), अदिध्वनत् इति भाषायाम् । काममैलयी:, ऐलिलः इति भाषायाम् । मैनमर्दयीत, आदिदत् इति भाषायाम् ॥ भाषार्थ:-[ऊनयतिध्वनयत्येलयत्यर्दयतिभ्यः] ऊन, ध्वन, इल, अर्द इन ण्यण्त धातुओं से उत्तर वेदविषय में चिल के स्थान में चङ् प्रादेश [न] नहीं होता है ।। चङ का निषेध करने से सिच हो जावेगा । ण्यन्त होने से णिश्रिद्र • अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [प्रथम: है (३।११४८) से चङ् प्राप्त था, उसका अपवाद यह सूत्र है । भाषा-प्रयोग में चङ हो ही जायेगा । ऊनयो: ऐलयोः, मध्यम पुरुष सिप के रूप हैं। उदाहरणों की सिद्धियां परिशिष्ट श११ के अलावीत इत्यादि के समान ही जानें ॥ ऊनयोः प्रर्दयीत ध्वनयीत् इन प्रयोगों में आडजादीनाम् तथा लङलङ लुङ क्ष्वडुदात्त: (६।४।७२, ७१) से प्राट एवं अट का आगम नहीं होता। क्योंकि यहाँ माङ का योग होने से ‘न माङयोगे’ (६।४१७४) से निषेध हो जाता है । ऐलयीः में प्राट तथा ‘इल’ के इ को प्राटश्च (६।१।८७) से वृद्धि होती है ॥ भाषाविषय में चढ़ होकर चङि (६।१।११) से द्वित्वादि हो जावेगा। अस्यतिवक्तिख्यातिभ्योऽङ् ॥३१॥५२॥ अस्यति वक्तिख्यातिभ्यः ॥३॥ अङ ११॥ स०-अस्यात. इत्यत्रेतरेतरयोग द्वन्द्वः ॥ अनु० –कर्त्तरि, च्ले:, लुङि,धातोः ॥ अर्थः-‘असु क्षेपणे’, ‘वच परिभाषणे’, ख्याज प्रकथने’ इत्येतेभ्यो घातुभ्य उत्तरस्य च्लेः स्थाने अङादेशो भवति कर्तरि लुडि परतः ।। उदा०–पर्यास्थत, पर्यास्थेताम, पर्यास्थन्त । अवोचत्, अवोचताम्, अवोचन् । ग्राख्यत, पाख्यताम्, प्राख्यन् ॥ भाषार्थ:- [अस्यतिवक्तिख्यातिभ्यः] असु वच ख्याञ् इन धातुओं से उत्तर च्लि के स्थान में [अङ] अङ प्रादेश होता है, कर्तृवाची लुङ् परे रहते ।। ‘वच’ से ब्रूज के स्थान में जो वच प्रादेश (२।४।५३ से),तथा ‘वच परिभाषणे’ धातु, दोनों लिये गये हैं। इसी प्रकार ख्याञ् से चक्षिङ को जो ख्याउ आदेश (२।४।५४ से),तथा ‘ख्याज प्रकथने’ धातु, दोनों ही लिये गये हैं । जह यहाँ से ‘अङ’ को अनुवृत्ति ३।११५६ तक जायेगी। लिपिसिचिह्वश्च ॥३।११५३॥ लिपिसिचिह्वः ५॥१॥ च अ० ॥ स०-लिपिश्च सिचिश्च ह्वाश्च लिपि सिचिह्वाः, तस्मात्, समाहारो द्वन्द्वः ।। अनु०-अङ्, कत्र्तरि, च्ले:, लुङि, धातोः ।। अर्थ:-‘लिप उपदेहे’, ‘षिच क्षरणे’, ‘हज स्पर्धायाम’ इत्येतेभ्यो धातुभ्य उत्तरस्य च्ले: स्थाने अङ आदेशो भवति कर्तरि लङि परतः ।। उदा०–अलिपत् । असिचत् । अाह्वत् ॥ भाषार्थ:-[लिपिसिचिह्वः] लिप सिच ह्वज इन धातुओं से [च] भी कत्तुं - वाची लुङ परे रहते चिल के स्थान में प्रङ आदेश होता है | अ यहाँ से ‘लिपिसिचिह्वः की अनुवृत्ति ३३११५४ तक जायेगी। पादः] तृतीयोऽध्यायः प्रात्मनेपदेष्वन्यतरस्याम् ॥३।१५४॥” OS आत्मनेपदेषु ७।३।। अन्यतरस्याम् प०॥ अनु०-लिपिसिचिह्वः, अङ, कर्त्तरि, च्लेः, लुङि, धातोः ॥ अर्थः-लिप्यादिभ्यो धातुभ्यः कर्तृवाचिनि लुङि आत्मनेपदेषु परत: च्ले: ‘अ’ आदेशो विकल्पेन भवति ॥ उदा०–अलिपत, अलिप्त । असिचत, असिक्त । अह्वत, अह्वास्त ॥ भाषार्थ:-लिप इत्यादि धातुओं से कत्तवाची लुङ [अात्मनेपदेषु ] आत्मने पद परे रहते [अन्यतरस्याम् ] विकल्प से च्लि के स्थान में अङ प्रादेश होता है। पूर्व सूत्र से नित्य अङ प्राप्त था, यहाँ विकल्प कर दिया गया है। जब अङ नहीं होगा, तो सिच हो जायेगा। पुषादिद्य ताद्य तृदितः परस्मैपदेषु ॥३।१।५५।। पुषादिद्युताद्य लुदित: ५॥१॥ परमैपदेषु ७।३।। स०-पुष आदिर्येषां ते पुषादय:, द्युतः आदिर्येषां ते द्युतादयः, लुत् इत् यस्य स लुदित, पुषादयश्च द्युतादयश्च लुदित् च इति पुषादिद्युताद्यलदित, तस्मात् पुषादिद्युताद्यलदितः, बहुव्री हिगर्भसमाहारो द्वन्द्वः ॥ अनु० -अङ, कर्त्तरि, च्ले:, लुङि, धातोः ॥ अर्थः-पुषादिभ्य: द्युतादिभ्यः लुदिदभ्यश्च धातुभ्यः कर्तृवाचिनि- लङि परमपदेष परत: च्ले: ‘अङ’आदेशो भवति ।। दिवादिषु ‘पुष पुष्टौ’ इत्यारभ्य ‘गृधु अभिकाङ्क्षायाम्’ इति यावत् पुषादिर्गणः । भ्वादिषु ‘द्युत दीप्तौ’ इत्यारम्य ‘कृपू सामर्थ्य’ इति यावत् द्युतादिर्गणः ॥ उदा० पुषादिभ्यः–अपुषत, अशुषत् । द्युतादिभ्यः- अद्युतत, अश्वितत् । लुदिभ्यः अगमत, अशकत् ।। भाषार्थ:–[पुषादियुताद्य लुदित:] पुषादि द्युतादि तथा लुदित् धातुओं से च्लि के स्थान में अङ होता है, कल वाची लुङ [परस्मैपदेषु ] परस्मैपद परे रहते । दिवादिगण के अन्तर्गत जो ‘पुष पुष्टौ” धातु है, वहीं से लेकर ‘गुधु अभिकांक्षायाम’ तक पुषादिगण माना गया है । तथा ‘शु त दीप्तौ’ (भ्वादिगण के अन्तर्गत) से लेकर ‘कृपू सामर्थ्य’ तक द्युतादि धातुयें मानी गई हैं । अङ के ङित होने से सर्वत्र विङति च (१।१५) से गुण-निषेध होता है। उदा.—पुषादियों से-अपुषत् (वह पुष्ट हुआ), अशुषत् (वह सूख गया) । द्युतादियों से- अद्युतत् (वह चमका), अश्वितत् (वह सफेद हो गया) । लुदितों से-अगमत् (वह गया), अशकत (वह समर्थ हो गया) ॥ यहाँ से ‘परस्मैपदेषु’ की अनुवत्ति ३।११५७ तक जायेगी । ३०२ अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [प्रथम: सत्तिशास्यत्तिभ्यश्च ॥३॥१॥५६॥ हो सत्तिशास्त्यतिभ्य: ५॥३॥ च अ० ।। स०-सत्तिशा० इत्यत्रेतरेतरयोगद्वन्द्वः ।। अनु०–परस्मैपदेषु, अङ, कर्त्तरि, च्लेः, लुङि, धातोः ॥ अर्थ:- ‘सृ गतो’, ‘शासु अनुशिष्टौ’, ‘ऋ गती’ इत्येतेभ्यो धातुभ्य उत्तरस्य च्ले: स्थाने अङ आदेशो भवति, कर्तृवाचिनि लुङि परस्मैपदेषु परतः ॥ उदा०-असरत । अशिषत । भारत ॥ भाषार्थः- [सति शास्त्यत्तिभ्यः] स शासु तथा ऋ धातुओं से उत्तर [च] भी चिल के स्थान में प्रङ, आदेश होता है, कत्तुं वाची लुङ् परस्मैपद परे रहते ॥ का इरितो वा ॥३।११५७॥ 3 इरित: ५।१॥ वा अ० ।। स०–इर् इद् यस्य स इरित, तस्माद् इरितः, बहुव्रीहिः ॥ अन०-परमैपदेषु, अङ, कर्तरि, च्ले:, लुङि, धातोः ॥ अर्थः-इरितो धातो रुत्तरस्य च्ले: स्थाने अङ प्रादेशो वा भवति, कर्तृवाचिनि लङि परस्मैपदेषु परतः ॥ उदा०-रुधिर् -अरुघत्, अरौत्सीत् । भिदिर्-अभिदत, अभेत्सीत् । छिदिर अच्छिदत्, अच्छत्सीत् ।। भाषार्थ:-[इरितः] इरित धातुओं से उत्तर च्लि के स्थान में [वा] विकल्प करके प्रङ आदेश होता है, कर्तृवाची परस्मैपद लुङ परे रहते ॥ रुधिर् इत्यादि धातुओं का इर् इत्संज्ञक है, अतः ये सब धातुयें इरित हैं । ‘इर्’ समुदाय की इत् संज्ञा इस सूत्र में किये गये निर्देश से समझनी चाहिए। यहां से ‘वा’ की अनुवृत्ति ३।११५८ तक जायेगी । जस्तम्भुम्रचुम्लुचुचुग्लुचग्लुञ्चश्विभ्यश्च ॥३॥१५८।। जस्त….. भ्य: ५।३।। च अ० ॥ स०-जस्तम्भु० इत्यत्रेतरेतरयोगद्वन्द्वः ।। अनु०-वा, अङ, कर्त्तरि, च्ने:, लुङि, धातोः ॥ अर्थ:-जष् वयोहानौ, स्तम्भुः सौत्रो धातुः, म्र च म्लुचु गत्यथौं, चु ग्लुच स्तेयकरणे, ग्लुञ्च गत्यर्थः, टप्रोश्वि गतिवृद्ध्योः इत्येतेभ्यो धातुभ्य उत्तरस्य चनेः स्थाने वा अङ आदेशो भवति कत. वाचिनि लुङि परतः ॥ उदा०-अजरत्, अजारीत् । अस्तभत , अस्तम्भीत । अम्र. चत , अम्रोचीत् । अम्लुचत , अम्लोचीत । अग्र चत, अग्रोचीत । अग्लचत , अग्लोचीत । अग्लचत , अग्लुञ्चीत् । अश्वत्, अश्वयीत्, प्रशिश्वियत् ॥ भाषार्थ:- [जस्तम्भु ..“भ्य:]जष, स्तम्भ, न चु, म्लुचु, गुचु, ग्लुचु, ग्लुञ्चु, शिव इन धातुओं से उत्तर [च] भी च्लि के स्थान में प्रङ आदेश विकल्प से होता है, कवाची लुङ परे रहते ॥ जिस पक्ष में प्रङ् नहीं होता, उस पक्ष में सिच होता है ।। कृमदृरुहिम्यश्छन्दसि ॥३१॥५६॥ कृमृदहिभ्यः ॥३॥ छन्दसि ॥१।। स०-कृ च द च मृ च रुहिश्च पाद:] तृतीयोऽध्यायः कृमृदरुहयः, तेभ्यः, इतरेत रयोगद्वन्द्वः ॥ अन०-अङ्, कर्तरि, ग्ले:, लुङि, धातोः ॥ अर्थः- डुकृञ् करणे, मृङ प्राणत्यागे, दृ विदारणे, रुह बीजजन्मनि प्रादु र्भावे च इत्येतेभ्यो धातुभ्य उत्तरस्य च्ले: स्थाने ‘अङ’ आदेशो भवति छन्दसि विषये कर्तृवाचिनि लुङि परत: ॥ उदा०-शकलाऽङ्गुष्ठकोऽकरत् । अयोऽमरत् । अदरत अर्थान् । पर्वतमारुहत, अन्तरिक्षाविमारुहम् ।। भाषार्थ:-[कृमृदृरुहिभ्यः] कृ, म, द, रुह इन धातुनों से उत्तर चिल के स्थान में अमावेश होता है, कत्तुं वाची लुङ परे रहते, [छन्दसि ] वेदविषय में । अमरत, यहाँ व्यत्ययो बहुलम् (३।१।८५) से व्यत्यय से परस्मैपद हो गया है ॥ चिण्ते पदः ।।३।१२६०॥ जय चिण १३१॥ ते ७.१॥ पद: ५।१।। अनु०-कर्त्तरि, च्ले:, लङि, धातोः ।। अर्थः- ‘पद गतौ’ इत्येतस्माद् धातोरुत्तरस्य म्ले: स्थाने चिण आदेशो भवति, कर्तृ वाचिनि लुङि तशब्दे परतः ॥ उदा०-उदपादि सस्यम्, समपादि भैक्षम् ॥ भाषार्थः- [पद:] पद धातु से उत्तर च्लि के स्थान में [चिण्] चिण् प्रादेश होता है, कत्र्तृवाची लुङ[ते] त शब्द परे रहते ॥ उदा०–उदपादि सस्यम् (उसने फसल को उत्पन्न किया), समपादि भैक्षम् (उसने भिक्षा को) ॥ उत् पूर्वक पद धातु से ‘उद् अट् पद चिल त, ऐसा पूर्ववत् होकर प्रकृत सूत्र से चिण् होकर, चिणो लुक (६।४।१०४) से त का लुक हो गया है । ‘उद् अट पद् चिण =इ’, अब इस अवस्था में प्रत उपधायाः (७।२।११६) से वृद्धि होकर उदपादि बन गया ॥ यहाँ से ‘चिण’ को अनुवृत्ति ३।१६६५ तक, तथा ‘ते’ को ३।१६६६ तक जायेगी । और दीपजनबुधपूरितायिप्यायिभ्योऽन्यतरस्याम् ॥३।१।६१॥ दीपजनबुधपूरितायिष्यायिभ्यः ५॥३॥ अन्यतरस्याम् प० । स०-दीपजन० इत्यत्रेतरेतरयोगद्वन्द्वः ॥ अनु० –चिण, ते, कर्त्तरि, च्लेः, लुङि, धातोः॥ अर्थः ‘दीपी दीप्तौ’, ‘जनी प्रादुर्भावे’, ‘बुध अवगमने’, ‘पूरी प्राप्यायने, ‘ताय सन्तान पालनयोः’, ‘अोप्यायी वृद्धौ’ इत्येतेभ्यो धातुभ्य उत्तरस्य च्ले: स्थाने चिण् आदेशो, विकल्पेन भवति, कर्तृवाचिनि लुङि तशब्दे परतः ॥ उदा०-अदीपि, अदीपिष्ट । अजनि, अजनिष्ट । प्रबोधि, अबुद्ध । अपूरि, अपूरिष्ट । अतायि, प्रतायिष्ट । अप्यायि, अप्यायिष्ट ॥ भाषार्थः-[दीपजनबुधपूरितायिप्यायिभ्यः] दीप, जन, बुध, पूरि, ताय, प्रोप्यायो इन धातुओं से उत्तर चिल के स्थान में, चिण प्रादेश [अन्यतरस्याम्] ३०४ अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [प्रथमः विकल्प से हो जाता है, कत्तुं वाची लुङ, त शब्द परे रहते ॥ उदा०-अदीपि, अदीपिष्ट (वह प्रदीप्त हुना) । अजनि, अजनिष्ट (वह उत्पन्न हुआ)। अबोधि, प्रबुद्ध (उसने जाना) । अपूरि, अपूरिष्ट (उसने पूर्ण किया) । अतायि, प्रताविष्ट (उसने पूजा को) । अप्यायि, अप्यायिष्ट (वह बढ़ा) ॥ अजनि में जनिबध्योश्च (७।३।३५) से वृद्धि-निषेध होता है। चिण-पक्ष में सिद्धि पूर्व सूत्र के अनुसार जानें । जिस पक्ष में चिण नहीं होगा, उस पक्ष में सिच होकर पूर्ववत् प्रात्मनेपद में ‘अट दीप इट् सिच् त’ होकर सिच के स् को ष तथा ष्टुत्व होकर अदीपिष्ट श्रादि बनेगा ॥ प्रबुद्ध की सिद्धि परिशिष्ट १।२।११ में देखें ॥ बुध धातु अनिट् है, सो इडागम भी नहीं हुआ है ॥ __ यहाँ से ‘अन्यतरस्याम्’ को अनुवृत्ति ३।१।६३ तक जायेगी ।। दिन > चिण (विकाय )
- प्रचः कर्मकत्तार ॥३।१।६२॥ अच: ५॥१॥ कर्मकर्तरि ७।१।। स०-कर्म चासौ कर्ता च कर्मकर्ता, तस्मिन, कर्मधारयस्तत्पुरुषः ॥ अनु०-अन्यतरस्याम, चिण, ते, च्ले:, लङि॥ अर्थ: अजन्ताद्धातोरुत्तरस्य कर्मकर्तरि लडि तशब्दे परत: च्ले: स्थाने चिण आदेशो विकल्पेन भवति ।। उदा०-अकारि कट: स्वयमेव, अकृत कट: स्वयमेव । अलावि केदार: स्वयमेव, अलविष्ट केदार: स्वयमेव ।। 9 भाषार्थ:-[अचः] अजन्त धातुओं से कर्मकर्तरि कर्मकर्ता लङ में त शब्द परे रहते च्लि के स्थान में चिण प्रादेश विकल्प से होता है । उदा० –प्रकारि कटः स्वयमेव (चटाई स्वयमेव बन गई), अकृत कटः स्वयमेव । अलावि केदारः स्वयमेव (खेत स्वयं कट गया), अलविष्ट केदारः स्वयमेव । चिणपक्ष में अचो ञ्णिति (७१२.११५) से वृद्धि प्रादि कार्य होंगे । सिच् पक्ष में प्रकृत की सिद्धि परि शिष्ट १०१२ में देखें । अलविष्ट में कुछ भी विशेष नहीं है ॥ सौकर्य के अति शय में कर्म को कर्ता के समान विवक्षा हो जाती है, अर्थात् कर्म कर्ता बन जाता है। सो कर्ता को कर्मवद्भाव कर्म वत्कर्मणा तुल्यक्रियः (३।११८७) से होकर कर्माश्रित कार्य चिण्भावकर्मणोः (३॥१॥६६) से जो चिण होना है, वह नित्य प्राप्त ही था। अजन्त धातुओं से विकल्प करके चिण हो, इसलिये यह सूत्र है ।। कर्मकर्ता किसे कहते हैं ? वह कब होता है ? इसकी विशेष व्याख्या ३३१४८७ सूत्र पर ही देखें। कर्मवाच्य को कहे हुए कार्य ३।११८७ सूत्र से कर्मवद्भाव होने से कमकर्ता में भी होते हैं। अतः यहाँ भावकर्मणोः (१।३।१३) से प्रात्मनेपद सर्वत्र होगा। यहां से ‘कर्मकर्तरि’ को अनुवृत्ति ३।१।६५ तक जावेगी ॥ TUL पाद:] विका तृतीयोऽध्यायः लिचिग (ना) दुहश्च ॥३१॥६३॥ दुहः ५॥१॥च अ० ॥ अनु०-कर्मकतरि, अन्यतरस्याम्, चिण, ते, ब्ले:, लुङि, घातोः ।। अर्थः–‘दुह प्रपूरणे इत्यस्माद् धातोरुत्तरस्य च्ले: स्थाने चिण प्रादेशो विकल्पेन भवति कर्मकर्तरि तशब्दे परतः ॥ उदा०-प्रदोहि गौः स्वयमेव, अदुग्ध गौः स्वयमेव ॥ श मी हिड Pe भाषार्थ:-[दुहः] दुह धातु से उत्तर [च] भी चिल के स्थान में चिण् आदेश विकल्प से होता है कर्मकर्ता में त शब्द परे रहते ॥ न दुहस्नुनमा यक्चिणी (३।१।८६) से कर्मकर्ता में दुह धातु से चिण का नित्य ही प्रतिषेध प्राप्त था, यहाँ विकल्प कर दिया है । कर्मकर्ता में कर्मवद्भाव होकर कर्मवाच्य में कहे हुए कार्य पूर्वोक्त प्रकार से प्राप्त होते हैं । क्लिचिण वानरुधः ॥३।११६४॥ न प्र० ॥ रुधः ५।१।। अनु० -कर्म कर्तरि, चिण, ते, च्लेः, लुङि, धातोः ।। अर्थः–‘रुधिर् प्रावरणे’ इत्यस्माद धातोरुत्तरस्य च्लेः स्थाने चिण आदेशो न भवति कर्मकर्तरि तशब्दे परतः ॥ उदा०-अन्ववारुद्ध गौः स्वयमेव ॥ भाषार्थ:- [रुधः] रुधिर् धातु से उत्तर चिल के स्थान में चिण आदेश [न] नहीं होता, कर्मकर्ता में त शब्द परे रहते ॥ कर्मकर्ता में ३।१।८७ से कर्मवद्भाव होकर चिण्भावकर्मणोः (३।१।६६) से चिण की प्राप्ति थी, यहां निषेध कर दिया है ॥ उदा०-अन्ववारुद्ध गौः स्वयमेव (गौ अपने पाप रुक गई)। अनु अव पूर्वक रुधिर् धातु से सिच् होकर, पूर्ववत् झनो झलि (८।२।२६) से सिच् के स का लोप, झषस्तथो?o (८।२।४०) से त को ध, तथा झलां जश् झशि (८।४।५२) से रुष के ‘घ’ को ’’ होकर अन्ववारुद्ध बना है। यहाँ से ‘न’ को अनुवृत्ति ३।१।६५ तक जायेगी ।। चिलचिन न तपोऽनुतापे च ॥३।१।६।। तपः ५॥१॥ अनुतापे ७१।। च प्र०॥ अनु०–न, कर्मकर्तरि, चिण, ते, च्ले:, लङि, धातोः ॥ अर्थ:-अनुतापः पश्चात्तापः, ‘तप संतापे’ इत्यस्माद् धातोरुत्तरस्य च्लेः स्थाने चिण् आदेशो न भवति, कर्मकर्तरि अनुतापे च तशब्दे परतः । उदा० कर्मकर्त्तरि-अतप्त तपस्तापसः । अनुतापे-अन्ववातप्त पापेन कर्मणा ॥ वा भाषार्थ:- [तपः] तप धातु से उत्तर च्लि के स्थान में चिण् प्रादेश नहीं [प्रथमा अष्टाध्यायो-प्रथमावृत्ती होता है ,कर्मकर्ता में [च] तथा [अनुतापे] अनुताप अर्थ में त शब्द परे रहते ।। ‘अनुताप’ पश्चात्ताप को कहते हैं । -प्रतप्त तपस्तायसः (तपस्वी ने स्वयमेव स्वर्गादि कामना के लिये तप को प्राप्त किया) में तपस्तपःकर्मकस्यैव (३।१।८८) से तप को कर्मवद्भाव होने से चिण प्राप्त था, सो यहाँ निषेध कर लिया है । अनुताप अर्थ में कर्तृस्थभावक तप धातु अकर्मक है, अतः इसको कर्मवद्भाव प्राप्त ही नहीं था। सो अन्ववातप्त पापेन कर्मणा (जो पहले पाप किया है, उससे अनुतप्त हुआ) में कर्म में (शुद्ध कर्मवाच्य में) लकार हुआ है, न कि कर्मकर्त्ता में। यहां दोनों ही स्थानों में प्रकृत सूत्र से चिण का निषेध हो गया है । चिण का निषेध होने से सिच हो जाता है, जिसका झलो झलि (८।२।२६) से लोप हो जाता है । शेष सिद्धि पूर्ववत् है ॥ कमिट गित साठ-काले चलचिा या चिण्भावकर्मणोः ॥३॥१॥६६॥ चिण ११॥ भावकर्मणो: ७१२।। स०-भावश्च कर्म च भावकर्मणी, तयोः, इतरेतरयोगद्वन्द्वः ॥ अनु०-ते, च्लेः, लुङि, धातोः ॥ अर्थ:-धातोरुत्तरस्य च्ले: चिण आदेशो भवति भावे कर्मणि च लुङि तशब्दे परतः ॥ उदा०-भावे-प्रशायि भवता । कर्मणि-अकारि कटो देवदत्तेन ॥ राजा भाषार्थः-धातुमात्र से उत्तर चिल के स्थान में [चिण] चिण प्रादेश होता है [भावकर्मणोः] भाव और कर्म में, लुङ त शब्द परे रहते ॥ भाव और कर्म क्या है, यह सब हमने ‘भावकर्मणोः’ (१।३।१३) सूत्र पर लिखा है। उदा०–भाव में-प्रशायि भवता (ग्राप सो गये) । कर्म में अकारि कटो देवदत्तेन (देवदत्त के द्वारा चटाई बनाई गई) ॥ अचो णिति (७।२।११५) से वृद्धि प्रादि होकर सिद्धि पूर्ववत् जानें ॥ यहाँ से ‘भावकर्मणोः’ की अनुवृत्ति ३।११६७ तक जायेगी। थक सार्वधातुके यक् ॥३।१।६७॥ सार्वधातुके ७॥१॥ यक् १११॥ अनु०-भावकर्मणोः, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थः–भावकर्मवाचिनि सार्वधातुके प्रत्यये परत: धातोर्यक प्रत्ययो भवति ॥ उदा० भावे-प्रास्यते भवता, पाय्यते भवता । कर्मणि-क्रियते कटः, गम्यते ग्रामः॥ भाषार्थ:-भाव और कर्म में विहित [सार्वधातुके ] सार्वधातुक प्रत्यय परे हो तो, धातुमात्र से [यक्] यक् प्रत्यय होता है। उदा.-भाव में-प्रास्यते भवता पादः] तृतीयोऽध्यायः जागा ३०७ (आप के द्वारा बैठा जाता है), शय्यते भवता (आपके द्वारा सोया जाता है) । कर्म में-कियते कट: (चटाई बनाई जाती है), गम्यते ग्रामः (गाँव को जाया जाता है) ॥ सिद्धियाँ परिशिष्ट १।३।१३ में देखें ॥ शय्यते में केवल यह विशेष है कि अयङ् यि विङति (७।४।२२) से प्रयङ प्रादेश भी होता है । या यहां से ‘सार्वधातुके’ की अनुवृत्ति ३।०२ तक जायेगी। कर्तरि शप् ॥३।१।६८॥ शप कर्तरि ७१॥ शप् ११॥ मन०-सार्वधातुके, धातो:, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः – कर्तृवाचिनि सार्वधातुके परतो धातोः शप् प्रत्ययो भवति ।। उदा०-भवति, पठति । भवतु, पठतु। अभवत्, अपठत् । भवेत्, पठेत् ॥ भाषार्थः-[कर्तरि] कर्तृवाची सार्वधातुक के परे रहते धातु से [शप्] शप् प्रत्यय होता है । लिट् तथा प्राशीलिङ को छोड़कर सब लकार (=तिङ) सार्वधातुकसंज्ञक (३।४।११३) से होते हैं । परन्तु लुट्, लु (लुट्, लुङ), लेट, लुङ में क्रमशः तास, स्य, सिप, चिल विकरण हो जाते हैं, जो शप के अपवाद हैं। प्रतः लट्, लोट, लङ, विधिलिङ इन्हीं चार लकारों में शप् प्रत्यय होता है ।। यहाँ से ‘कतरि’ को अनुवृत्ति ३।११८८ तक जायेगी। है श्यन पह दिवादिभ्यः श्यन् ॥३।१॥६६॥ दिवादिभ्यः ५॥३॥ श्यन् १।१।। स०-दिव आदिर्येषां ते दिवादयः, तेभ्यः, बहुव्रीहिः ॥ अनु०-सार्वधातुके, कर्तरि, धातो:, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थ:-दिवा दिभ्यो धातुभ्यः श्यन् प्रत्ययो भवति, कर्तरि सार्वधातुके परत: ॥ उदा.-दीव्यति, सीव्यति ॥ भाषार्थ:-[दिवादिभ्य:] दिवादिगण को धातुओं से [श्यन] श्यन् प्रत्यय होता है, कर्तृवाची सार्वधातुक परे रहते । धातुमात्र से शप् प्रत्यय प्राप्त था, उसके अपवाद ये सब सूत्र विधान किये हैं ॥ हतियार पर यहां से ‘श्यन्’ की अनुवृत्ति ३।११७२ तक जायेगी । कनारी श्यनावा।
- वा भ्राशमलाशनमुक्रमुक्लमुत्रसित्रुटिलषः ॥३॥१७॥ वा प्र० ॥ भ्राशभ्लाशभ्रमुक्रमुक्लमुत्रसित्रुटिलषः ५॥१॥ स०-भ्राशश्च म्लाश श्च भ्रमुश्च क्रमुश्च क्लमुश्च त्रसिश्च त्रुटिश्च लष् च इति भ्राशम्लाश……लष, तस्मात्, समाहारो द्वन्द्वः॥ अनु०-३यन्, कर्तरि, सार्वधातुके, धातोः, प्रत्ययः, ३०८ अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [प्रथमः परश्च ॥ अर्थः-टुभ्रा टुम्लाशृ दीप्ती, भ्रमु अनवस्थाने, भ्रमु चलने द्वयोरपि प्रहणम्, क्रमु पादविक्षेपे, क्लमु ग्लानौ, त्रसी उद्वेगे, त्रुटी छेदने, लष कान्तौ इत्येतेभ्यो धातुभ्यो वा श्यन प्रत्ययः परश्च भवति कर्तरि सार्वधातुके परतः।। उदा–भ्राशते, भ्राश्यते । म्लाशते, मलाश्यते । भ्रमति, भ्राम्यति । कामति, काम्यति । क्लामति, क्लाम्यति । त्रसति, त्रस्यति । त्रुटति, त्रुटयति । अभिलषति अभिलष्यति ॥ भाषार्थ:- [भ्राशम्लाशभ्रमुक्रमुक्लमुत्रसित्रुटिलष:] टुभ्रा, टुभ्लाशृ, भ्रम, क्रम, क्लम, सि, त्रुटि, लष इन धातुनों से [वा] विकल्प से श्यन् प्रत्यय होता है, कर्तवाची सार्वधातुक परे रहते । पक्ष में शप् प्रत्यय होगा। उदा० भ्राशते, भ्राश्यते (चमकता है) । भ्लाशते, म्लाश्यते (चमकता है) । भ्रमति, भ्राम्यति (घूमता है)। क्रामति, काम्यति (चलता है) । क्लामति, क्लाम्यति (ग्लानि करता है)। त्रसति, त्रस्यति (डरता है) । त्रुटति, त्रुटयति (टूटता है) । अभिलषति, अभिलष्यति (चाहता है) ॥ शमामष्टानां दीर्घः श्यनि (१३७५) से भ्राम्यति में श्यन् परे रहते दोघं होता है। ष्ठिवुक्लमुचमां० (७॥३॥३५) से क्लामति क्लाम्यति दोनों में (शप् तथा श्यन् दोनों पक्षों में शित परे होने से) दीर्घ होता है। क्रमः परस्मैपदेषु (७:३७६) से कामति, काम्यति में दीर्घ होता है । त्रुट धातु तुदादिगण में पढ़ी है, अतः पक्ष में शा प्रत्यय होगा ॥ यहाँ से ‘वा’ की अनुवृत्ति ३।१।७२ तक जायेगी। श्यन वा यसोऽनुपसर्गात् ॥३।१७१॥ ला!
- यसः ५॥१॥ अनुपसर्गात ५॥१॥ स०-न विद्यते उपसर्गों यस्य सोऽनुपसर्गः, तस्मात्, बहुव्रीहिः॥ अनु०-वा, श्यन्, सार्वधातुके, कर्तरि,धातो:, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थ:-अनुपसर्गाद्यसु प्रयत्ने’ इत्यस्माद् धातो: विकल्पेन श्यन् प्रत्ययो भवति, कर्त्तरि सार्वधातुके परतः ॥ ‘यसु प्रयत्ने’ देवादिकः तस्मिन्नित्ये श्यनि प्राप्ते विकल्पेन विधीयते ॥उदा०–यस्यति, यसति | MPETES 5 भाषार्थ:-[अनुपसर्गात् ] अनुपसर्ग [यसः] यस धातु से विकल्प से श्यन् प्रत्यय होता है, कर्तृवाची सार्वधातुक परे रहते ॥ ‘यसु प्रयत्ने’ दिवादिगण की धातु है। उससे नित्य श्यन प्राप्त था, विकल्प विधान कर दिया है । पक्ष में शप होगा । उदा० - यस्यति, यसति (प्रयत्न करता है) ॥ सं+सि + चत वा] संयसश्च ।।३।१।७२॥
- संयसः ५॥१॥ च प्र० ॥ अनु०-वा, श्यन, सार्वधातुके, कर्तरि, धातो:, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः-सम्पूर्वाद् यस्धातो: श्यन् प्रत्ययो वा भवति, कर्तृवाचिनि सार्वधातुके परतः ।। उदा०-संयस्यति, संयसति ॥ अनुपा बस + पादः ] तृतीयोऽध्यायः ३०६ _भाषार्थ:- [संयसः] सम् पूर्वक यस् धातु से [च] भी श्यन् प्रत्यय विकल्प से होता है, कत्तू वाची सार्वधातुक परे रहते ॥ पूर्व सूत्र में अनुपसर्ग यस धातु से विकल्प कहा था, प्रतः सम्पूर्वक से प्राप्त नहीं था, सो विधान कर दिया है। उदा. संयस्यति, संयसति (अच्छी तरह प्रयत्न करता है)। को कि स्वादिभ्यः श्नुः ॥३१॥७३॥ सु-आदि। स्वादिभ्य: ५।३।। श्नुः १।१।। स०-सु (पुत्र ) आदिर्येषां ते स्वादयः, तेभ्यः, बहुव्रीहिः ॥ अनु०-सार्वधातुके, कर्त्तरि, धातो:, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः-‘षुञ् अभिषवे’ इत्येवमादिभ्यो धातुभ्यः इनु प्रत्ययो भवति कर्तृवाचिनि सार्वधातुके परतः ।। उदा०-सुनोति । सिनोति । । भाषार्थ:- [स्वादिभ्यः] ‘पुत्र अभिषवे’ इत्यादि धातुओं से [श्नुः] इन प्रत्यय होता है, कर्तृवाची सार्वधातुक परे रहते ॥ यहां से ‘इनुः’ की अनुवृत्ति ३.१७६ तक जायेगी॥ATE भामा श्रुवः शृ च ।।३।१।७४॥ d+2013 श्रुवः ६।१॥ शृ लुप्तप्रथमान्तनिर्देशः॥ च अ० ।। अनु०-३नुः, सार्वधातुके, कतरि, धातोः प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थ:–‘श्रु श्रवगे’ अस्माद् धातो: श्नुप्रत्ययो भवति कर्तृवाचिनि सार्वधातुके परतः, शृ आदेशश्च श्रुधातोर्भवति ॥ उदा०-शृणोति, शृणुतः ।।
- भाषार्थ:-[भुवः] श्रु धातु से इनु प्रत्यय होता है कर्तृवाची सार्वधातुक परे रहते, साथ ही श्रु धातु को [शृ] श आदेश [च] भी हो जाता है ॥ उदा० शृणोति (सुनता है), शृणुतः ॥ जोक या प्रक्षोऽन्यतरस्याम् ।।३।१।७५॥ + 4 अक्ष: ५।१। अन्यतरस्याम् अ०॥ अन् - अनुः, सार्वधातुके, कर्त्तरि, धातो:, प्रत्ययः, परश्च ॥ प्रय:-‘अक्ष व्याप्ती’ इत्येतस्माद् धातोः अनुः प्रत्ययो विकल्पेन भवति, कतरि सार्वधातुके परत: ॥ उदा०-अक्ष्णोति, अक्षति ॥श भर ‘भाषार्थ:- [अक्षः] अक् धातु से [अन्यतरस्याम] विकल्प से इनु प्रत्यय होता है, कर्तृवाची सार्वधातुक परे रहते ॥ अक्षु धातु भ्वादिगण की है, सो नित्य शप प्राप्त था, विकल्प कर दिया है ॥ उदा.-प्रक्ष्णोति, अक्षति (च्याप्त होता है) । यस प्रकार यहां से ‘अन्यतरस्याम’ को अनुवृत्ति ३।११७६ तक जायेगी ॥ काम TU ३१० an [प्रथम: अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्तौ काही मतहा की तनूकरणे तक्षः ॥३।१७६॥ शाणा । तनूकरणे ७॥१॥ तक्षः ५।१॥ अनु० –अन्यतरस्याम, श्नुः, सार्वधातुके, कर्त्तरि, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः-तनुकरणे =सूक्ष्मीकरणेऽर्थे वर्तमानात तर्धातोः विकल्पेन श्नु: प्रत्ययो भवति ॥ उदा०-तक्ष्णोति काष्ठम्, तक्षति ॥ देश, भाषार्थ:-[तक्षः] तक्षु धातु [तनूकरणे] तनूकरण अर्थात्, छीलने अर्थ में वर्तमान हो, तो इन प्रत्यय विकल्प से हो जाता है, कत्त वाची सार्वधातक परे रहते ॥ तखु धातु भी म्वादिगण को है, सो नित्य शप् प्राप्त था, विकल्प कर दिया है ।। उदा०–तक्ष्णोति काप्ठम (लकड़ी छोलता है), तक्षति ॥ तुदादिभ्यः शः ॥३।१७७॥ तुदादिभ्यः ५॥३॥ शः १।१।। स०-तुद आदिर्येषां ते तुदादयः, तेभ्य:,बहुव्रीहिः ॥ अनु०-सार्वधातुके, कर्त्तरि, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थ:-‘तुद व्यथने’ इत्येव मादिभ्यो धातुभ्यः शः प्रत्ययो भवति कर्तृवाचिनि सार्वधातुके परतः ॥ उदा० तुदति । नुदति ॥
- भाषार्थ:-[तुदादिभ्यः] तुदादि धातुओं से [शः] श प्रत्यय होता है, कत्तुं - वाची सार्वधातुक परे रहते ॥ श प्रत्यय सार्वधातुकम० (१।२।४) से ङितवत् है । सो विङति च (१।११५) से तुद को गुण का निषेध हो जाता है ॥ उदा०-तुदति (पीड़ा देता है) । नुदति (प्रेरणा करता है) ॥ सोपी म रुधादिभ्यः श्नम् ॥३।१७८॥ रुधादिभ्यः ५।३।। इनम् ११॥ स०–रुध् ादिर्येषां ते रुधादयः, तेभ्यः, बहुव्रीहिः ॥ अनु०-सार्वधातुके, कर्तरि, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थ:-रुधादिभ्यो धातुभ्यः श्नम् प्रत्ययो भवति कर्तृवाचिनि सार्वधातुके परतः ॥ उदा०–रुणद्धि । भिनत्ति ॥ ___ भाषार्थः- [रुधादिभ्य:] रुधादिगण को धातुओं से [श्नम्] श्नम् प्रत्यय होता है, कतृ वाची सार्वधातुक परे रहते ॥ सिद्धियाँ परिशिष्ट ११११४६ में देखें ॥ आमही तनादिकृभ्य उः ॥३।१७६॥ नलिना
- सनादिकृभ्यः ५॥३॥ उः ११॥ स०-तन प्रादिर्येषां ते तनादयः, तनादयश्च कृन च तनादिकृञः, तेभ्यः, बहुव्रीहिगर्भतरेतरयोगद्वन्द्वः । अनु०-सार्वधातुके,कर्तरि, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः–तनादिभ्यो धातुम्यः कृत्रश्च उ: प्रत्यवो भवति कर्तृवाचिनि सार्वधातुके परतः ।। उदा०-तनोति, सनोति । करोति ॥ ह पादः ] तृतीयोऽध्यायः भाषार्थ:-[तनादिकृञ्भ्यः ] तनादिगण को धातुओं से, तथा कृञ् धातु से [उः] उ प्रत्यय होता है कर्तवाची सार्वधातुक परे रहते ॥ उदा.–तनोति (विस्तार करता है), सनोति (देता है)। करोति (करता है) ॥ तन् उ ति’ पूर्ववत होकर, सार्वधातुका० (७॥३॥८४) से ‘उ’ को ‘प्रो’ गुण होकर तनोति बन जायेगा ॥amविशिकरोजवासाकार यहाँ से ‘उः’ को अनुवृत्ति ३।१।८० तक जायेगी ।। । धिन्विकृण्व्योर च ॥३॥११८०॥ थिवि कृषि +3 धिन्विकृण्व्यो: ६।२॥ अ लुप्तप्रथमान्तनिर्देशः ॥ च अ० ॥ स०-धिन्विश्च कृण्विश्च घिन्विकृण्वी, तयोः धिस्विकृण्व्योः , इतरेतरयोगद्वन्द्वः ।। अनु०-उः, सार्व धातुके, कतरि, धातो:, प्रत्ययः, परश्च । अर्थः-धिवि कृवि इत्येताभ्यां धातुभ्याम् उ: प्रत्ययो भवति कर्तृवाचिनि सार्वधातुके परतः, अकारश्चान्तादेशो भवति ॥ उदा० घिनोति । कृणोति ॥ भाषार्थ:-[धिन्विकृण्व्यो] घिवि कृवि धातुओं से उ प्रत्यय, [च] तथा उनको [अ] अकार अन्तादेश भी हो जाता है, कर्त्तवाची सार्वधातुक परे रहते ।। ये भ्वादिगण की धातुयें हैं, सो शप् प्राप्त था, ‘उ’ विधान कर दिया है। PA ऋ यादिभ्यःना ॥१८॥ * ऋयादिभ्यः ५॥३॥ श्ना लुप्तप्रथमान्तनिर्देशः । स०–क्री: आदिर्येषां ते क्रया दय:,तेभ्य:, बहुव्रीहिः ॥ अनु०-सार्वधातुके, कर्त्तरि, धातोः, प्रत्ययः,परश्च ॥ अर्थः डक्रीज इत्येवमादिभ्यो धातुभ्यः श्नाप्रत्ययो भवति कर्तृवाचिनि सार्वधातुके परत: ।। उदा०-क्रीणाति, क्रीणीतः ॥ PATE, भाषार्थः- [क्रयादिभ्यः] ‘डुक्रीन द्रव्यविनिमये’ इत्यादि धातुओं से [श्ना] श्ना प्रत्यय होता है कर्तृवाची सार्वधातुक परे रहते ॥ उदा०–क्रोणाति (खरी दता है), कोणीतः ॥‘की ना ति’, अटकुप्वाङ नुम्व्यवायेऽपि (८।४।२) से न को ण होकर क्रोणाति बन गया। क्रीणीत: में ईहल्यघोः (६।४।११३) से ईत्व हो गया हैं। __ यहाँ से ‘इना’ को अनुवृत्ति ३।१।८२ तक जायेगी। स्तम्भुस्तुम्भुस्कम्भुस्कुम्भुस्कुञ्भ्यः श्नुश्च ॥३॥१८॥ ___ स्तम्भुस्तुम्भुस्कम्भुस्कुम्भुस्कुञ्भ्यः ५॥३॥ श्नुः १॥१॥ च अ० ॥ स० स्तम्भु० इत्यत्रेतरेतरयोगद्वन्द्वः । अनु०–इना, सार्वधातुके, कर्त्तरि, घातोः, प्रत्ययः, ३१२ अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्तों [प्रथम: परश्च ।। अर्थ:–स्तम्भु, स्तुम्भु, स्कम्भु, स्कुम्भु इति चत्वार: सौत्रा धातवः, ‘स्कुञ प्राप्रवणे’ इत्येतेभ्यः श्नु प्रत्ययो भवति, चकारात् श्ना च कर्तृवाचिनि सार्वधातुके परतः ॥ उदा०–स्तम्नाति, स्तम्नोति । स्तुभ्नाति, स्तुभ्नोति । स्कम्नाति, स्कभ्नोति । स्कुनाति, स्कुभ्नाति । स्कुनाति, स्कुनोति ॥ als भाषार्थ:-[स्तम्भस्तुम्भुस्कम्भुस्कुम्भुस्कुञ्भ्यः] स्तम्भादि धातुओं से [३नु:]श्नु प्रत्यय होता है, [च]तथा इना प्रत्यय भी होता है, कर्तृवाची सार्वधातुक परे रहते ॥ स्तम्भादि ४ सौत्र धातुयें रोकने अर्थ में हैं । स्कुञ् क्रयादिगण में पढ़ी हैं, सो इससे श्ना प्रत्यय सिद्ध ही था, पुनः इनु विधान करने के लिये वचन है। उदा० स्तम्नाति (रोकता है), स्तम्नोति । स्तुभ्नाति (रोकता है), स्तुम्नोति । स्कम्नाति (रोकता है), स्कभ्नोति । स्कुभ्नाति (रोकता है), स्कुभ्नोति । स्कुनाति (कूदता ह), स्कुनोति ॥ :→शानची हलः इनः शानज्झौ ॥३।११८३॥ हल: ५॥१॥ श्नः ६।१।। शानच १।१॥ हौ ७१॥ अर्थ:-हलन्ताद धातोरुत्तरस्य श्नाप्रत्ययस्य स्थाने श न च आदेशो भवंति हो परत: ।। उदा० -मुषाण रत्नानि । पुषाण ॥ । भाषार्थ:– [हलः ] हलन्त धातु से उत्तर [श्न:] इना प्रत्यय के स्थान में [शानच्] शीनच प्रादेश हो जाता है [हौ] हि परे रहते ।। उदा० - मुषाण रत्नानि (रत्नों को चुरा लो) । पुषाण (पुष्ट करो) ॥ मुष् पुष हलन्त धातुयें हैं, सो पूर्ववत् लोट् लकार में ‘मुष श्ना सिप’ बन कर सेहयपिच्च (३।४।८७) से सिप को हि, तथा प्रकृत सूत्र से श्ना को शानच् प्रावेश होकर ‘मुष् शानच हि’ बना । अतो हे: (६।४।१०५) से हि का लुक होकर मुषाण बन गया है ॥ विकिपमा ट यहाँ से ‘इनः’ को अनुवृत्ति ३।१८४ तक जायेगी ॥ यति सानच शायच् छन्दसि शायजपि ॥३।११८४॥jal शारी 2छन्दसि ७१॥ शायच् ११॥ अपि अ० ॥ अनु० -श्न: ।। अर्थः - छन्दसि विषये इनः स्थाने ‘शायच’ आदेशो भवति, शानजपि ।। उदा०-गृभाय जिह्वया मघ (ऋ० ८.१७५५) । शानच् – बधान पशुम् ।। । भाषार्थ:-[छन्दसि वेदविषय में श्ना के स्थान में [शायच शायच प्रादेश होता है, तथा शानच् [अपि] भी होता है ॥ ना को शायच् प्रादेश होकर गृभ शायच् =गृभाय बनेगा।
- यहाँ से ‘छन्दसि’ की अनुवृत्ति ३।१।८६ तक जायेगी। सुप ,तिउ., वर्ण , जिङ, chlor, व्यत्यय पादा] और तृतीयोऽध्यायः पुरुष, आत्मनेपद, परसौपद व्यत्ययो बहुलम् ।।३।११८५।। व्यत्ययः ११। बहुलम् १२१॥ अन-छन्दसि ।। अर्थः-छन्दसि विषये सर्वेषां विधीनां बहुलप्रकारेण व्यत्ययो भवति ॥ अत्र महाभाष्यकार: प्रकरण नर विहितानां स्यादिविकरणानामपि व्यत्ययसिद्धयर्थं योगविभागं करोति । यथा ‘व्यत्ययः’ इत्येको योग: । तस्यायमर्थः-व्यत्ययो भवति स्यादिविकरणानाम् । ततश्च ‘बहुलम्’ । व्यत्यय इत्यनुवर्तते । तस्यायमर्थ:-बहुलं छन्दसि सर्वे विधयो भवन्तीति ।। किं पुनरिदं व्यत्ययो नाम ? उत्तरयति-व्यतिगमनं व्यत्ययः । यस्य प्राप्तिः स न स्यादन्य एव स्याद, अथवा कोऽपि न स्यात् ॥ के च ते विधयो येषां व्यत्ययो भवति ? उच्यते -सुपां व्यत्ययः, तिङां व्यत्ययः, वर्णव्यत्ययः, लिङ्गव्यत्ययः, कालव्यत्ययः,ार पुरुषव्यत्ययः, आत्मनेपदव्यत्ययः, परस्मैपदव्यत्ययः । तत्र क्रमेणोदाह्रियते ॥ उदा० - सुपां व्यत्ययः–युक्ता मातासीद् धुरि दक्षिणायाः (ऋक ० १११६४।६) । दक्षिणाया मिति प्राप्ते, सप्तम्या विषये व्यत्य येन षष्ठी । तिङां व्यत्यय:–चषालं ये अश्वयूपाय तक्षति (ऋ० १११६२।६)। तक्षन्तीति प्राप्ते, झिविषये व्यत्ययेन तिप् । वर्णव्यत्यय: त्रिष्ट भौजः शुभितमुग्रवीरम् । शुधितमिति प्राप्ते, धकारस्य विषये भकारो वर्ण व्यत्ययः । लिङ्गव्यत्यय:-मघोर्गह्णाति ; मधोस्तृप्ता इवासते । मधुन इति प्राप्ते, नपुंसकलिङ्गविषये पुल्लिङ्गव्यत्ययः । कालव्यत्यय:-श्वोऽग्नीनाधास्यमानेन; श्वः सोमेन यक्ष्यमाणेन । प्राधाता यष्टेत्येवं प्राप्ते, अनद्यतनभविष्यत्काल विहितलुट्लकार विषये व्यत्ययेन लूट लकारः। पुरुषव्यत्ययः-अधा स वीरैर्दशभिवियूया: (ऋ० ७।१०४।१५)। वियूयादिति प्राप्ते, प्रथमपुरुषविषये व्यत्ययेन मध्य मपुरुषः । प्रात्मने पदव्यत्ययः - ब्रह्मचारिण मिच्छते (अथर्व ११।५।१७)। इच्छतीति प्राप्ते, परस्मैपद विषये आत्मनेपदव्यत्ययः । परस्मैपदव्यत्ययः-प्रतीपमन्य ऊर्मियुध्यति । युध्यते’ इति प्राप्ते, आत्मनेपदविषये परस्मैपदव्यत्ययः॥ छो भाषार्थ:–वेदविषय में [बहुलम् ] बहुल करके सब विधियों का [व्यत्ययः] व्यत्यय होता है। यहाँ महाभाष्यकार ने ‘व्यत्यय:’ ऐसा सूत्र का योगविभाग करके प्रकरणान्तर विहित जो स्यादिविकरण उनका भी व्यत्यय सिद्ध किया है । तथा द्वितीय योगविभाग ‘बहुलम्’ से वेदविषय में सभी विधियों का व्यत्यय सिद्ध किया है। वे कौन-कौनसी विधियां हैं, इसका भी सङ्कलन महाभाष्य में निम्न प्रकार से है सुप्तिङपग्रहलिङ्गनराणां कालहलचस्व रकर्तृयङां च । TREET व्यत्यय मिच्छति शास्त्रकृदेषां सोऽपि च सिद्धयति बाहुल केन । PP१४. ३ मा अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [प्रथमः ‘उपग्रह’ परस्मैपद आत्मनेपद को कहते हैं । नर अर्थात् पुरुषव्यत्यय । इन सब के उदाहरण ऊपर संस्कृतभाग में दिखा ही दिये हैं । तथा यह भी बता दिया है कि कहाँ पर क्या व्यत्यय हुअा है, और क्या प्राप्त था। अतः यहाँ पुनः उदाहरण देने की आवश्यकता नहीं है । व्यत्यय’ व्यतिगमन को कहते हैं, अर्थात् किसी विषय में प्राप्त कुछ हो और हो कुछ जाना, अथवा कुछ न होना, यही व्यत्यय है । अगि लिङ्याशिष्यङ ॥३।११८६॥ काय लिङि ७१॥ आशिषि १॥ प्रङ ११॥ अनु०-छन्दसि, धातो:, प्रत्ययः, स१. यहां व्यत्यय के विषय में लोगों में बड़ी भ्रान्ति है । अज्ञानवश कुछ लोग कहते हैं कि ‘बाउला छन्दसि’ ऐसा सूत्र बनाना चाहिए। तथा कुछ लोग कहते हैं कि वेद में व्यत्यय हो ही क्यों ? जब परमात्मा ने वेद बनाया, तो उसे पहले ही पूरा पूरा ठीक क्यों न बना दिया? इसका समाधान यह है कि जो व्यक्ति शास्त्र की मर्यादा एवं प्रक्रिया को पढ़ा नहीं, या जिसकी बुद्धि कुण्ठित होने से उसके मस्तिष्क में यह बात ठीक बैठी नहीं, ऐसे ज्ञानलवदुर्विदग्ध लोगों के होते हुए, जब कि मूर्ख जनता उनको पण्डित या विद्वान् पुकारने लग जावे, ऐसी अवस्था में उनको समझाना भी बहुत कठिन है । तो भी हम जनता के अज्ञान की निवृत्ति के लिए कुछ थोड़ा कहते हैं निरुक्तकार ने चौथे पांचवे छठे अध्याय में अनवगत-संस्कार( =जिनका प्रकृति प्रत्यय स्पष्ट ज्ञात नहीं होता) शब्दों का निर्वचन दिखाया है, जो पूर्वोत्तरपदाधिकार, प्रकरण, शब्दसारूप्य तथा अर्थोपपत्ति इन चार बातों के आधार पर होता है । अर्थात् उनमें प्रकृति-प्रत्यय की कल्पना ही पूर्वोक्तानुसार अनिवार्य मानी गई है । ‘अर्थनित्यः परीक्षेत’ अर्थात अर्थ को प्रधान मानकर निर्वचन करना ही निरुक्तकार का सिद्धान्त हैं। सो इसी प्रकार वेद में जहाँ पूर्वापरप्रकरणादि के अनुसार कोई शब्द सामान्य व्याकरण की दृष्टि से ठीक नहीं प्रतीत होता, वहीं के लिए पाणिनि मुनि एवं महा भाष्यकार पतञ्जलि मुनि ने भी व्यत्यय के सिद्धान्त को मानकर वेदमन्त्रों के व्यापक अर्थ का प्रतिपादन किया है, नहीं तो मन्त्र संकुचित अर्थ में ही रह जाते। जैसा कि “हिरण्यगर्भः समवर्तता भूतस्य जातः पतिरेक प्रासीत्। स दाधार पृथिवीम्” यहां ‘दाधार’ का अर्थ धारण करता है, धारण किया, धारण करेगा, तीनों कालों में होता है, केवल भूतकाल में ही नहीं। यह भी एक प्रकार का व्यत्यय ही है, जो कि छन्दसि लुङ लङ लिटः (३।४१६) से कहा है । इस व्यत्यय से मन्त्र के अर्थ की व्यापकता सिद्ध होती है । केवल भूतकालिक अर्थ करने से अर्थ सङ कुचित हो जाता अत: व्यत्यय वेद का एक मूलभूत अनिवार्य एवं महत्त्वपूर्ण विधान है। इस पर उपहास करनेवाले स्वयं उपहास के पात्र हैं। पादः] तृतीयोऽध्यायः ३१५ परश्च ॥ अर्थः-छन्दसि विषये आशिषि यो लिङ विधीयते, तस्मिन परतोऽङ प्रत्ययो भवति ॥ उदा०-उपस्थेयं वृषभं तुप्रियाणाम् । सत्यमुपगेयम् । गमेम जानतो गृहान । मन्त्रं वोचेमाग्नये (यजु० ३.११) । विदेयमेनां मनसि प्रविष्टाम् (अथर्व १६।४।२) व्रतं चरिष्यामि तच्छकेयम् । शकेम त्वा समिधम् (ऋ० १६४।३)। अस्रवन्तीमा रुहेमा स्वस्तये (ऋ० १०॥६३।१०) ॥ का भाषार्थ:-वेदविषय में [लिङि आशिषि] आशिषि लिङ के परे रहते [अङ] अङ प्रत्यय होता है । छन्द में प्राशीलिङ सार्वधातुक भी होता है, अतः शप् प्रादि विकरणों के अपवाद अङ का विधान यहाँ किया गया है । अङ करने का प्रयोजन स्था, गा, गम, वच, विद, शक, रुह इन्हीं धातुओं में है, सो इसी प्रकार संस्कृतभाग में उदाहरण दिये हैं । यह कमेवत कर्मवत्कर्मणा तुल्यक्रियः ॥३।१।८७॥ व कर्मवत अ०॥ कर्मणा ३।१।। तुल्यक्रिय: १३१॥ स - तुल्या क्रिया यस्य स तुल्यक्रियः (कर्ता), बहुव्रीहिः ॥ कर्मणा तुल्यं वर्तत इति कर्मवत्, तेन तुल्यं क्रिया चेद्वतिः (५।१।११४) इति वति: प्रत्ययः ॥ अनु० –कर्तरि ॥ अर्थः –कर्मणा= कर्मस्थया क्रियया तुल्यक्रियः कर्ता कर्मवद्भवति, अर्थात् यस्मिन् कर्मणि कर्तु भूतेऽपि क्रिया तद्वल्लक्ष्यते यथा कर्मणि, स कर्ता कर्म वद्भवति =कर्माश्रयाणि कार्याणि प्रति. पद्यते ॥ कर्तरि शप (३।१।६८) इत्यतोऽत्र कर्तृ ग्रहणं मण्डूकप्लुतगत्याऽनुवर्तते, तच्च प्रथमया विपरिणम्यते ॥ यग्-प्रात्मनेपद-चिण-चिण्वद्भावा: प्रयोजनम् ॥ उदा० भिद्यते काष्ठं स्वयमेव । अभेदि काष्ठं स्वयमेव । कारिष्यते कटः स्वयमेव ।। हार भाषार्थः—जिस कर्म के कर्ता हो जाने पर भी क्रिया वैसी ही लक्षित हो, जैसी कि कर्मावस्था में थी, उस [कर्मणा] कर्म के साथ [तुल्यक्रियः] तुल्य क्रियावाले कर्ता को [कर्मवत् ] कर्मवद्भाव होता हैं । इस सूत्र में कर्तरि शप (३।१६८) से कर्तरि की अनुवृत्ति मण्डूकप्लुतगति से आ रही है, जिसका प्रथमा में विपरिणाम हो जाता है । की ‘देवदत्तः काष्ठं भिनत्ति’यहाँ देवदत्त कर्ता तथा काष्ठ कर्म है । जब वही काष्ठ अत्यन्त सूखा हुमा हो, फाड़ने में कोई कठिनाई न पड़े, तो सौकर्यातिशय विवक्षा में वह कर्म ही कर्ता बन जाता है, अर्थात् कर्म को ही कर्तृत्व-विवक्षा होती है । जैसे ‘काष्ठं भिद्यते स्वयमेव’, यहाँ लकड़ी स्वयं फटी जा रही है । सो ऐसी अवस्था में उस कर्ता को कम के समान माना जाये, कवद्भाव हो जाये, इसलिये यह सूत्र है। कर्मवद्भाव करने के चार प्रयोजन है -सार्वधातुके यक (३।१।६७) से यक्, भाव [प्रथम: ३१६ अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्तौ कर्मणोः (१।३।१३) से आत्मनेपद, चिण्भावकर्मणोः (३।११६६) से चिण्, स्यसिच्सीयुट्० (६।४।६२) से चिण्वभाव । इन चारों प्रयोजनोंवाले उदाहरण ऊपर संस्कृतभाग में दिखा दिये हैं। याना ( jhantra सूत्र में ‘कर्मणा’ शब्द कर्म स्थक्रिया का वाचक है । इसी से जाना जाता है कि धातुयें चार प्रकार की होती हैं-(१) कर्मस्थक्रियक, (२) कर्मस्थभावक, (३) कर्तु स्थक्रियक, (४) क स्थभावक । जिन धातुओं की क्रिया (= व्यापार) कर्म में ही स्थित रहे, वह कर्मस्थक्रियक हैं । जैसे-‘देवदत्त लकड़ी फाड़ता है, यहाँ फटना रूपी व्यापार लकड़ी-कर्म में हो रहा है, न कि कर्ता देवदत में । सो फाड़ना (=भिनत्ति) क्रिया कर्मस्थक्रियक है । जिनका धात्वर्थ कर्म में हो, वह कर्मस्थभावक हैं । यथा-‘अग्निः घट पचति’ (अग्नि घट को पकाता है) । यहाँ पकनारूपी धात्वर्थ कर्म घट में है, अतः पकना क्रिया कर्मस्थभावक है। इसी प्रकार जिन धातुओं का व्यापार कर्ता में स्थित हो,वह कर्त स्थक्रियक हैं।यथा-‘देवदत्त गांव को जाता है, यहाँ जानारूपी व्यापार कर्ता में है, न कि कर्म में । इसी प्रकार कर्ता में स्थित धात्वर्थ को कर्त स्थभावक कहते है।यया-‘देवदत्तः प्रास्ते- देवदत्त बैठता है। यहाँ बैठना रूपी धात्वर्थ देवदत्त में है ।सामान्यरूप में क्रिया एवं भाव में इतना ही अन्तर माना गया है कि-“अपरिस्पन्दनसाधनसाध्यो धास्वर्थों भावः"अर्थात जिसमें हिलना-जुलना= चेष्टा न हो, ऐसे साधनों से सिद्ध करने योग्य धात्वर्थ भाव है। तथा — सपरिस्पन्दन साधनसाध्यस्तु क्रिया” अर्थात जिसमें चेष्टा हिलना-जुलना पाया जावे, ऐसे साधनों से सिद्ध करने योग्य धात्वर्थ का नाम क्रिया है । इस प्रकार जहाँ कुछ क्रियाकृत विशेष हो, वह कर्मस्थक्रियक और कर्तृ स्थक्रियक, जहाँ न हो वह कर्म स्थभावक और कर्तृस्थभावक है, जैसा कि उदाहरणों से स्पष्ट है । इस तरह सूत्र में ‘कर्मणा’ शब्द ‘कर्मस्थक्रिया’ का वाचक होने से यह निष्कर्ष निकला कि कर्मवद्भाव कर्मस्थक्रियक एवं कर्मस्थभावक को ही होता है, कर्तृ स्थक्रियक एवं कर्तृ स्थ भावक को नहीं होता ।। ।। यहाँ ‘तुल्यक्रियः’ में तुल्य शब्द सादृश्य अर्थ का वाचक है, न कि साधारण अर्थ का । सो सूत्र का अर्थ हुआ-जिस कर्म के कर्ता बन जाने पर भी (अर्थात् उदाहरण में काष्ठ पहले कर्म था, उसके कर्ता बन जाने पर भी किया तद्वत् लक्षित हो, जैसी कि कर्मावस्था में थी, ऐसे तुल्यक्रियावाले कर्ता को कर्मवद्भाव = कर्म के सदृश कार्य होता है। उदाहरण में जो भेदनक्रिया काष्ठ की कर्मावस्था में थी, वही भेवनक्रिया काष्ठ के कर्ता बन जाने पर भी है, अतः तुल्यक्रियत्व है ही । लकारसम्बन्धी कार्यों में ही यह कर्मवद्भाव होता है । अतः कर्मवाच्य में कहे हुए लकारसम्बन्धी बार कार्य कर्मकर्ता में भी हो जाते हैं, यही कर्मवभाव का प्रयोजन है ।। पादः for तृतीयोऽध्यायः Dharam " “पणाराता म यहाँ से ‘कर्मवत’ की अनवृत्ति ३।१६० तक जायेंगी। कमेवट मा तपस्तपःकर्मकस्यैव ।।३।१।८८॥ ga तपः ॥१॥ तप:कर्मकस्य ६।१॥ एव अ०॥ स०-तपः कर्म यस्य स तपः कर्मकः, तस्य, बहुव्रीहिः । अनु०-कर्मवत ॥ अर्थ:–‘तप सन्तापे’ अस्य धातोः कर्ता कर्मवद्भवति, स च तपःकर्मकस्यैव नान्यकर्मकस्य ॥ तुल्यक्रियाऽभावात्पूर्वेणाऽप्राप्तः कर्मवद्भावो विधीयते ॥ उदा०-तप्यते तपस्तापसः, अतप्त तपस्तापंसः ॥ pe भाषार्थ:- [तपः] ‘तप सन्ता’ धातु के कर्ता को कर्मवदभाव हो जाता है, यदि वह तप धातु [तपःकर्मकस्य] तप कर्मवाली [एव] ही हो, अन्य किसी कर्मवाली न हो । यदि सकर्मक धातुओं को कर्मवद्भाव हो, तो तप को ही हो, ऐसा द्वितीय नियम भी महाभाष्य में इस सूत्र के योगविभाग से निकाला है ।। काय सत्याचरणादि तप कर्म हैं। तपांसि तापस तपन्ति (तपस्वी को सदाचारादि व्रत के पालनरूपी तपकर्म दुःख दे रहे हैं)। यहाँ तप धातु का तपाँसि कर्ता, तथा तापसम् कर्म है। यही तापसम् कर्म जब पूर्वोक्त रीति से कर्ता बन जासा है, तो तप्यते तपस्तापसः (तपस्वी स्वयमेव स्वर्गादि कामना के लिये तप को प्राप्त करता है) यहाँ । कर्मवद्भाव हो जाता है । कर्णावस्था में “तपन्ति” का अर्थ “दुःख देना” है, तथा कर्मकर्ता बन जाने पर प्राप्त होना” है । अतः तुल्यक्रियत्व–सदृशक्रियत्व न होने से पूर्व सूत्र से कर्मवद्भाव प्राप्त नहीं था, यह अप्राप्त-विधान है ॥ ‘तप्यते’ में कर्म वभाव होने से पूर्ववत् यक और प्रात्मनेपद हो गये हैं। तथा ‘प्रतप्त’ में चिण भावकर्मणोः (३।१।६६) से प्राप्त चिण का तपोऽनुतापे च (३।१।६५) से निषेध हो जाने से सिच ही हो जाता हैं, जिसका झलो झलि (८।२।२६) से लोप हो जाता है। शेष सिद्धियाँ पूर्ववत ही हैं। कि तट का ताली विमान दुहस्नुनमा यक्चिणौ ॥३।१८।।। न अ० ॥ दुहस्नुनमाम् ६॥३॥ यक्चिणौ १।२॥ स०-दुहश्च स्नुश्च नम च दुहस्नुनमः, तेषां, इतरेतरयोगद्वन्द्वः । यक च चिण च यक्षिणी, इतरेतरयोगद्वन्द्वः ।। अनु० –कर्मवत् ॥ अर्थः-दुह स्नु नम इत्येतेषां धातूनां कर्मकर्तरि कर्मवद्भावाप दिष्टौ यक्चिणी न भवतः ॥ दुहेरनेन यक प्रतिषिध्यते, चिण तु दुहश्च (३।११६३) इत्यनेन पूर्वमेव विभाषितः । उदा०-दुग्घे गौः स्वयमेव, अदुग्ध गौः स्वयमेव, अदोहि गौः स्वयमेव । प्रस्नुते शोणितं स्वयमेव, प्रास्नोष्ट शोणितं स्वयमेव । नमते दण्डः स्वयमेव, अनस्त दण्डः स्वयमेव ॥ भाषार्थः- [दुहस्नुनमाम्] दुह, स्नु, नम इन धातुओं को कर्मवद्भाव में कहे अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [प्रथमः हुये कार्य [यक्चिणी] यक् और चिण [न] नहीं होते हैं । कर्मवद्भाव =कर्मकर्ता में यक, चिण, आत्मनेपद, चिण्वभाव यह चार कार्य होते है । उनमें से यक् और चिण का प्रकृत सूत्र से प्रतिषेध हो जाने से यहाँ आत्मनेपद और चिण्वद्भाव ही होता है । चिण्वद्भाव भी अजन्त (६।४।६२ से) अङ्ग को ही कहा है। अतः दुह और नम् के अजन्त अङ्ग न होने से इनको चिण्वभाव नहीं होता। केवल स्नु जो कि अजन्त है, उसे पक्ष में चिण्वस्भाव होकर लुङ् लकार में ‘प्रास्नाविष्ट” रूप भी बनता है ॥ ‘गां दोग्धि पयः’ यहाँ गां कर्म है। जब गौ स्वयमेव दोहन-क्रिया कराने की इच्छा से खड़ी हो जाती है, तब सौकर्यातिशय विवक्षा में गां कर्म, कर्ता बन जाता है । उस अवस्था में कर्म वत्कर्मणा० (३।१।८७) से कर्मबद्भाव होकर सब कार्य प्राप्त थे, उन्हें निषेध कर दिया है। इसी प्रकार औरों में भी समझे । दुह धातु को कर्म कर्ता में केवल यक् का निषेध ही इस सूत्र से होता है, चिण तो दुहश्च (३।११६३) से विकल्प करके प्राप्त ही है । यक का निषेध होने पर यथाप्राप्त शप् हो जाता है, तथा चिण् का निषेध होने पर सिच हो जाता है । कर्मवद ,श्चन कुषिरजोः प्राचां श्यन्परस्मैपदं च ॥३॥१६॥ कुषिरजोः ६।२।। प्राचाम् ६ ३॥ श्यन १२१॥ परस्मैपदम् १॥१॥ च अ० ॥ स०-कुषिश्च रज च कुषिरजौ, तयोः कुषिरजोः इतरेतरयोगद्वन्द्वः ॥ अनु०-कर्मवत्, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थः –‘कुष निष्कर्षे’, ‘रज रागे’ अनयोर्धात्वोः कर्म कर्तरि श्यन प्रत्ययो भवति, परस्मैपदं च प्राचामाचार्याणां मतेन ॥ कर्मवद्भावेन यक्प्राप्तः, तस्यापवाद: श्यन, एवमात्मनेपदस्थापबाद: परस्मैपदम् ।प्राचां ग्रहणं विकल्पार्थम,अन्येषां मते यगात्मनेपदे भवत एव ।। उदा०-कुध्यति पाद: स्वयमेव । रज्यति वस्त्रं स्वयमेव । अन्येषां मते-कुष्यते, रज्यते ॥ीही। भाषार्थ:-[कुषिरजोः] कुष और रज धातु को कर्मवभाव में [श्यन ] श्यन् प्रत्यय, [च] और [परस्मैपदम् ] परस्मैपद होता है, [प्राचाम् ] प्राचीन प्राचार्यों के मत में ।। कर्मवत्कर्मणा तुल्यक्रिय: (३।११८७) से कर्मवद्भाव होकर कर्मकर्ता में यक् और आत्मनेपद प्राप्त था, उसका अपवाद यह श्यन् और परस्मैपद का विधान है। ‘प्राचाम् ’ ग्रहण यहां विकल्पार्थ है, अर्थात् प्राचीन प्राचार्यों के मत में श्यन् और परस्मैपर होगा, अन्यों के मत में यक एवं आत्मनेपद ही होगा। उदा.-कुष्यति पावः स्वयमेव (पैर स्वयं खिचता है)। रज्यति वस्त्रं स्वयमेव (कपड़ा स्वयं रंगा जा रहा) है । पक्ष में कुष्यते, रज्यते ॥ सिद्धियों में कुछ भी विशेष नहीं। यह पादः] ततीयोऽध्यायः ३१६ धात धातोः ।।३।१।६१॥ घातोः ५।१।। अर्थ: - या तृतीयाध्यायपरिसमाप्तेः (३१४१११७) घातोरित्य यमधिकारो वेदितव्यः ॥ तव्यत्तव्यानीयरः (३.११६६). इत्यादीनि वक्ष्यति, तानि घातोरेव विधास्यन्ते ।। __ भाषार्थ:- यहाँ से [घातोः] धातोः का अधिकार तृतीयाध्याय की समाप्ति पर्यन्त जायेगा, ऐसा जानना चाहिये ।। अतः तृतीयाध्याय की समाप्तिपर्यन्त तव्यत् तव्य अनीयर् प्रादि जो प्रत्यय कहेंगे, वे धातु से ही होंगे ॥ का तत्रोपपदं सप्तमीस्थम् ॥३।१६२॥ 3444. तत्र अ० ॥ उपपदम ११॥ सप्तमीस्थम् १।१॥ समीपोच्चारितं पदम उपपदम् । स०-सप्तम्यां विभक्तौ तिष्ठतीति सप्तमीस्थम्, तत्पुरुषः । अनु० धातोः ।। अर्थः-तत्र=एतस्मिन् धात्वधिकारे सप्तमीस्थम् =सप्तमीनिर्दिष्टं यत्पदं तदुपपदसंज्ञं भवति ॥ उदा० - कुम्भकारः, नगरकारः॥ की मार भाषार्थः- [तत्र] इस धातु के अधिकार में जो [सप्तमीस्थम् ] सप्तमी विभक्ति से निर्दिष्ट पद हैं, उनकी [उपपदम् ] उपपदसंज्ञा होती है ॥ कर्मण्यण (३।२।१) में ‘कर्मणि’ सप्तमीनिर्दिष्ट पद है, सो इसकी उपपद संज्ञा होने से ‘कर्म उपपद रहते’ ऐसा सूत्र का अर्थ बनकर, उपपदमतिङ् (२।२।१६) से समास हो गया है ।। सप्तमीनिर्दिष्ट पद कहीं उपपदसंज्ञक, तथा कहीं अर्थवाचक भी हैं, सो यह भेद तत्तत् सूत्र में ही विदित होगा । सिद्धियाँ २।२।१६ सूत्र में देखें ॥ FE यहां से ‘तत्र’ को अनवत्ति ३३१४ तक जायेगी। कृदतिङ् ॥३।१।६३॥ कृत - कृत् ११|| अतिङ् १।१।। स०-न तिङ अतिङ, नञ्तत्पुरुषः ॥ अनु० तत्र, धातोः, प्रत्ययः ॥ अर्थः-अस्मिन् घात्वधिकारे तिङ भिन्ना: प्रत्ययाः कृतसंज्ञका भवन्ति ।। उदा० –कर्ता, कारकः । कर्त्तव्यम् ।। ___ भाषार्थ:- इस धातु के अधिकार में [अतिङ ] तिङ भिन्न जो प्रत्यय उनकी [कृत] कृत्संज्ञा होती है । कृत संज्ञा होने से कृत्तद्धितसमासाश्च (१।२१४६) से कृत प्रत्ययान्त शब्दों की प्रातिपदिक संज्ञा हो जाती है, जो कि अर्थवदधातु० (१॥२॥ ४५) में ‘अप्रत्ययः’ निषेध करने से प्राप्त नहीं थी । एवं कर्ता कारकः में ण्वुल तथा तृच् प्रत्यय भी कृत्संज्ञक होने से कर्तरि कृत् (३।४१६७) से कर्ता में हो जाते ६.३२० अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [प्रथमः p है हैं ॥ कर्ता, कारकः की सिद्धि परि० १३११,२ में देखें, तथा कर्त्तव्यम् की सिद्धि
- परि० ३।१।३ में देखें। अपनी सखी-असरूप प्रत्यय वासरूपोऽस्त्रियाम् ।।३।१.१४॥ विकल्प से होते हैं। वा अ० ।। असरूप: ११॥ अस्त्रियाम् ७१॥ स०-समानं रूपं यस्य स सरूपः, बहुव्रीहिः । न सरूप: असरूपः, नञ्तत्पुरुषः । न स्त्री अस्त्री, तस्यां, नत्र - तत्पूरुषः । प्रन०-तत्र, धातोः, प्रत्ययः ।। अर्थः -अस्मिन्धात्वधिकारे असरूप: असमानरूपोआबाद-प्रत्ययो विकल्पेन बाधको भवति, स्त्र्यधिकारविहितप्रत्ययं वर्ज यित्वा ॥ सर्वत्र अपवादैनित्यम् उत्सर्गा बाध्यन्ते इति नियमः । तत्र योऽसरूपोऽयवादः प्रत्ययः स विकल्पेन बाधक: स्यात् नतु नित्यम्, एतदर्थं सूत्रमिदमारभ्यते ॥ उदा० ण्वुल्तचौ (३।१।१३३)उत्सर्गसूत्रम् – “विक्षेपकः, विक्षेप्ता”, तस्य इगपघज्ञाप्रीकिरः कः ( ३।१।१३५) इत्ययमपवादः, स विकल्पेन बाधको भवति-विक्षिप: ॥ भाषार्थ:-इस धातु के अधिकार में [असरूपः] असमानरूपवाले अपवाद प्रत्यय [वा] विकल्प से बाधक होते हैं. [अस्त्रियाम् ] ‘स्त्री’ अधिकार में विहित प्रत्ययों को छोड़कर ॥ अपवादसूत्र उत्सर्ग सूत्रों को नित्य ही बाधकर हो जाते हैं। अत: विकल्प से बाधक हों, पक्ष में प्रौत्सगिक प्रत्यय भी हो जायें, इसीलिये यह सूत्र बनाया है ।। ण्वुल्तृ चौ (३।१।१३३) यह उत्सर्गसूत्र है, तथा इगुपधज्ञा० (३।१।१३५) यह उसका अपवाद है । सो इगुपध क्षिप धातु से क प्रत्यय भी हुमा, तथा प्लुल तृच भी विकल्प से हो गये, क्योंकि ये परस्पर असरूप थे ।। यहाँ यह बात ध्यान देने योग्य है कि अनुबन्धों को हटाकर परस्पर प्रत्ययों की असरूपता देखनी होगी । ‘क’ प्रत्यय अनुबन्धरहित ‘न’ है, तथा ण्डुल और तृच, व तथा त हैं । सो ये परस्पर असरूप =समानरूपवाले नहीं हैं ॥ उदा०-विक्षे. पकः, विक्षेप्ता, विक्षिपः (विघ्न डालनेवाला) ॥ कलयम - कृत्याः ।।३।११॥ कृत्या: १॥३॥ अन-प्रत्ययः ॥ अर्थः-अधिकारोऽयम् । वुल्तचौ(३।१।१३३) इति यावत ये प्रत्यया विधास्यन्ते, ते कृत्यसंज्ञका भविष्यन्तीति वेदितव्यम् ।। उदा० गन्तव्यो ग्रामो देवदत्तस्य देवदत्तेन वा ॥ भाषार्थ:-यहाँ से आगे ण्वल्तृचौ’ ( ३।१।११३) सूत्र तक जो भी प्रत्यय कहेंगें वे [कृत्या.] कृत्यसंज्ञक होंगे,ऐसा अधिकार जानना चाहिये ॥ गम्ल धातु से तव्यय प्रत्यय हुआ है, जिसकी कृत्य संज्ञा है । अतः कृत्यानां कर्तरि वा(२३३१७१)से देवदत्त में विकल्प तृतीयोऽध्यायः ३२१ सो षष्ठी विभक्ति हो गई है । कृत्य संज्ञा करने से कृत् संज्ञा की निवृत्ति नहीं होती है, अपितु कृत संज्ञा भी कृत्यों की होती है । प्रतः कृत्तद्धित० (११२.४६ ) से प्राति पदिक संज्ञा सिद्ध हो जाती है ॥ धातु में प्रत्यत्त त्य, अनीयर सातव्यत्तव्यानीयरः ॥३।१।९६॥ (१० तव्यत्तव्यानीयरः ॥३॥ स०-तव्यच्च तव्यश्च अनीयर् च तव्यत्तव्यानीयर:, इतरेतरयोगद्वन्द्वः ॥ अनु०-धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थ:- घातो: तव्यत तव्य अनीयर् इत्येते प्रत्ययाः भवन्ति॥ उदा०-कर्त्तव्यम् । कत्र्तव्यम् । करणीयम् ।। भाषार्थ:-धातु से [तव्यत्तव्यानीयरः] तव्यत् तव्य और अनीयर् प्रत्यय होते हैं ॥ तव्यत् में तित् स्वरार्थ है । अतः तित्स्वरितम् (६।१।१७६) से तव्य का ‘य’ स्वरित होता है । तथा तव्य प्रत्यय प्रायुदात्तश्च (३॥१॥३) से प्राद्युदात्त होता है, शेष अनुदात्त हो ही जायेगा। अनीयर् में रित उपोत्तमं रिति (६।१।२११) से मध्योदत्त करने के लिये है॥ 1pE कुरा काचो यत ॥३॥ शकायत अच: ५।१।। यत्’ ११॥ अनु०-धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थ:-अजन्ता द्वातोर्यत् प्रत्यय: परश्च भवति ।। उदा०-गेयम्, पेयम्, चेयम् , जेयम् ॥ भाषार्थ:-[अच:] अजन्त घातु से [यत् ] यत् प्रत्यय होता है, और वह परे होता है। माचार 1 . यहाँ से ‘यत्’ को अनवृत्ति ३।१।१०५ तक जायेगी। पू-अन्त, अतरका गया यह प्रयया पोरदुपधात् ॥३॥१६॥ पो: ५।१।। अदुपधात ५॥१॥ स०-अत् उपधा यस्य स अदुपधः, तस्मात्, बहुव्रीहिः ।। अनु-यत, धातो:, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थः- अदुपधात पवर्गान्ताद्धातो यंत् प्रत्ययो भवति ।। उदा०-शप-शप्यम् । जप्-जप्यम् । रभ-रभ्यम् । डुलभप् - लभ्यम् । गम्ल-गम्यम् ॥ भाषाथ:- [अदुपधात्] प्रकार उपधावाली [पोः] पवर्गान्त धातु से यत प्रत्यय होता है । उदा० —शप्यम् (शाप के योग्य), जप्यम् (जपने योग्य), रम्यम् (शीघ्रता से करने योग्य), लम्यम् (प्राप्त करने योग्य), गम्यम् (जाने योग्य) ॥ उदाहरणों में अनुबन्ध हटा देने पर सब धातुएं अदुपष तथा पवर्गान्त हैं, सो यत् प्रत्यय TERI ३२२ अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [प्रथमः साहिडिया हो गया हैं ॥ ऋलोर्ण्यत् (३।१।१२४) से ण्यत् प्राप्त था, उसका यह अपवाद सूत्र है । imateी संकीर शकिसहोश्च ॥३॥१॥६६ पर शाशकिसहो: ६।२।। च अ०॥ स-शकिश्च सह च शकिसहो, तयोः, इतरेतर योगद्वन्द्वः ।। अनु०-यत, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थः-‘शक्ल शक्तो’, ‘षह मर्षणे’ इत्येताभ्यां धातुभ्यां यत् प्रत्ययो भवति ॥ उदा० -शक्यम् । सह्यम् ॥ भाषार्थ:-[शकिसहो:]‘शक्ल शक्तो’, ‘षह मर्षणे’ इन धातुओं से [च] भी यत् प्रत्यय होता है । यह भी ण्यत् का अपवादसूत्र है। यहां पञ्चम्यर्थ में षष्ठी का प्रयोग है ।। उदा०-शक्यम (हो सकने योग्य) । सह्यम् (सहन करने योग्य) ॥ (ii) गदमदचरयमश्चानुपसर्गे ॥३॥१॥१००॥ था गदमदचरयम: ५॥१॥ च अ० ॥ अनुपसर्गे ७॥१॥ स०-गदश्च मदश्च चरश्च यम् चेति गदमदचरयम, तस्मात्, समाहारो द्वन्द्वः । न विद्यते उपसर्गो यस्य सोऽनु पसर्गः, तस्मिन्, बहुव्रीहिः ॥ अनु०-यत्, धातो:, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थ:-गद व्यक्तायां वाचि, मदी हर्षे, चर गतिभक्षणयोः, यम उपरमे ‘इत्येतेभ्य उपसर्गरहितेभ्यो धातुभ्यो यत् प्रत्ययो भवति । उदा०-गद्यम् । मद्यम् । चर्यम् । यम्यम् ।। भाषार्थ:-[गदमदचरयम:] गव, मव, चर, यम् इन [अनुपसर्गे] उपसर्ग रहित धातुओं से [५] भी यत् प्रत्यय होता है । यह भी पूर्ववत् ण्यत् का अपवाद हैं । उदा०- गद्यम् (बोलने योग्य) । मद्यम् (हर्ष करने योग्य) । चर्यम् (खाने योग्य) । यम्यम् (शान्त करने योग्य) वाफा या चत उनको अवधपण्यवर्यां मु पणितव्यानिरोधेषु ॥३।१।१०१।। - अवधपण्यवर्याः १॥३॥ गह्य पणितव्यानिरोधेषु ७३॥ स०-अवद्यपण्यवर्याः, गह्य पणितव्या० उभयत्रापि इतरेतरयोगद्वन्द्वः ॥ अनु०-यत्, घातोः, प्रत्यय:, परश्च ॥ अर्थ:- गद्यम् =निन्द्यम्, पणितव्यम् =क्रेतव्यम्, अनिरोध: अप्रति बन्धः इत्येतेष्वर्थेषु यथासङ्खयम् अवद्यपण्यवर्या इत्येते शब्दा यत्प्रत्ययान्ता निपा त्यन्ते ॥ उदा०–अवयं पापम् । पण्यः कम्बलः, पण्या गौः। शतेन वर्या, सहस्रण वर्या ॥ सा (पिलिया ) गामि पिता का REP :-[अवधपण्यवः ] अवद्य पण्य वर्या (वङ सम्भक्तौ से ) ये शब्द सङ्घन करके गर्दा पणितव्यानिरोधेषु गर्दा पणितव्य और अनिरोध अर्थों में ययान्त निपातन किये जाते हैं । उदा.- अवयं पापम् (निन्दनीय, न करने है पादः] तृतीयोऽध्यायः ३२३ योग्य) । पण्यः कम्बल: (खरीदने योग्य कम्बल), पण्या गौः (खरीदने योग्य गौ)। शतेन वर्या, सहस्र ण वर्या (सौ या सहस्र से सेवन करने योग्य) ॥ अवद्यम में बदः । सुपि क्यप् च (३।१।१०६) से वद धातु से क्यप की प्राप्ति में यत् निपातन किया है । अनिरोध से भिन्न अर्थों में वृञ् पातु से एतिस्तुशास्व० (३।१।१०६) से क्यप् प्रत्यय होगा। अनस R EIL वाशी वह्य करणम् ।।३।११०२॥ यत वाम १।१। करणम् ॥१॥ अनु०-यत, घातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः—वह्यम् इत्यत्र वह धातो: करणे यत् प्रत्ययो निपात्यते ॥ उदा०-वहत्यने नेति वह्य शकटम् ।। माको माया र मिpिpy भाषार्थः- [वह्यम् ] वह्य शब्द में वह धातु से [करणम् ] करण कारक में यत् प्रत्यय निपातन किया जाता है । कृत्य प्रत्यय भाव तथा कर्म(३।४।७०)में ही होते हैं, क. सो यहां करण में भी निपातन कर दिया है ॥ Bी अर्यः स्वामिवैश्ययोः ॥३।१।१०३॥ + : अर्थ अर्थः ११॥ स्वामिवैश्ययोः ७।२।। स०-स्वामी च वैश्याश्च स्वामिवंश्यो, तयोः स्वामिवश्यायोः, इतरेतरयोगद्वन्द्वः ।। अनुयत, धातो:, प्रत्यायः, परश्च ।। अर्थ:- अर्थ इत्यत्र स्वामिवैश्ययोरभिधेययो: ‘ऋ गतौ’ अस्मात् धातोर्यत प्रत्ययो निपालयते ॥ उदा०–अर्य: स्वामी । अर्यो वैश्यः ।। भाषार्थ:- [स्वामिवैश्ययो:] स्वामी और वैश्य अभिधेय हों, तो [अर्यः] अयं । शब्द ऋ धातु से यत्प्रत्ययान्त निपातन है ॥ ऋहलोमेत् (३।१२१२४) से ण्यत् प्राप्त था, उसका यह अपवाद है ॥ PIPE PAL उपसर्या काल्या प्रजने ॥३।१।१०४॥ 34+ + चत उपसर्या १।१।। काल्या १।१।। प्रजने ७१॥ अनु०-यत, धातोः, प्रत्यायः, परश्च ॥ अर्थः-उपपूर्वात् ‘मृ गतौ’ इत्यस्माद् धातोर्यंत प्रत्ययान्तः स्त्रीलिङ्गः ‘उप सर्या’ शब्दो निपात्याते,काल्या चेत् सा(= उपसर्गा)प्रजने भवति ॥ कालः प्राप्तोऽस्या: । सा काल्या, कालाद्यत् (१।१।१०६) इति यत् प्रत्यायः ॥ उपसर्या गौ: । उपसर्या वडवा ।। रूपवान नाचते ती काय सभाषार्थ:- [उपसर्या ] उपसर्या शब्द उपपूर्वक स धातु से यत्प्रत्ययान्त निपातन किया जाता है, [प्रजने] प्रजन अर्थात् प्रथम गर्भग्रहण का [काल्या] समय जिसका हो गया है, इस अर्थ में ॥ पूर्ववत् ण्यत् प्राप्त था, उसका यह अपवाद ३२४ अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [प्रथम: है ॥ उदा०-उपसर्या गौः (प्रथम बार गर्भग्रहण का समय जिसका प्रा गया हो, ऐसी गौ)। उपसर्या वडवा ॥ नम+जष+पर 6ि (9881510), अजयं सङ्गतम् ॥३।१।१०५॥ अजर्गम् १११॥ सङ्गतम् ॥ अनु०-यत्, धातो:, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः-प्रजर्यमित्यत्र नपूर्वात् ‘जष् वयोहानौ’ इत्यस्माद घातोः सङ्गतेऽभिधेये यत्प्रत्ययो निपात्यते कर्तरि वाच्ये ॥ उदा०-अजर्यमार्गसङ्गतम् । अजय नोऽस्तु सङ्गतम् ॥ भाषार्थः-नपूर्वक जा पातु से [अजर्णम् ] अजयं शब्द [सङ्गतम्] सङ्गत अभिधेय हो, तो कत्त वाच्य में यत्प्रत्ययान्त निपातन किया जाता है। उदा. अजर्यमार्यसङ्गतम् (कभी पुरानी न होनेवाली प्रार्यसङ्गति) । अजयं नोऽस्तु सङ्ग तम् (हमारी सङ्गति कभी पुरानी न हो) ।। पूर्ववत् ण्यत् प्राप्त था, यत् निपातन कर दिया है । तथा कृत्यसंज्ञक होने से तयोरेव कृत्यक्तखलाः (३।४७०) से भाव कर्म में ही यत् प्राप्त था, कर्ता में निपातन कर दिया है ॥ दिया है “कासगों लोन वद+साथ+ 4 वदः सुपि क्यप् च ॥३।१।१०६॥
- ७ क्य प बम वदः ५॥१॥ सुपि ७।१।। क्यप् १११॥ च अ० ॥ अनु०-यत्, घातो:, प्रत्यय:, परश्च ॥ गदमदचर० (३।१।१००) इत्यतः ‘अनुपसर्गे’ अप्यनुवर्तते मण्डूकप्लुतगत्या ॥ अर्थः-वद धातोरुपसर्गरहिते सुबन्त उपपदे क्यप् प्रत्ययो भवति, चकाराद् यत् च ॥ उदा० –ब्रह्मणः वदनम् = ब्रह्मोद्यम्, ब्रह्मवद्यम् । सत्योद्यम्, सत्यवद्यम् ॥ भाषार्थः-अनुपसर्ग [वदः] वद धातु से [सुपि] सुबन्त उपपद होने पर [क्यप्] क्यप् प्रत्यय होता है, तथा [च] चकार से यत भी होता है । क्यप होने पर वचिस्वपि० (६।१।१५) से संप्रसारण भी हो गया है। कुम्भकारः को सिद्धि के समान यहाँ भी उपपद संज्ञा होकर समासादि कार्य हो गये हैं ।। उदा.-ब्रह्मोद्यम (ब्रह्म का कथन), ब्रह्मवद्यम । सत्योद्यम (सत्य का कथन), सत्यवद्यम् ॥ यहाँ से ‘सुपि’ की अनुवृत्ति ३.१११०८ तक जायेगी । तथा ‘क्यप्’ की अनुवृत्ति ३।१।१२१ तक जायेगी। सूप यम् भुवो भावे ॥३।१।१०७।। या भुवः ५।१॥ भावे ॥१॥ अनु०-सुपि, क्यप्, धातो:, प्रत्यय:, परश्च, अनुपसर्गे॥ अर्थः-अनुपसर्गे सुप्युपपदे भूधातो वे क्यप् प्रत्ययो भवति ॥ उदा० ब्रह्मभूयं गतः, देवभूयं गतः ॥ भाषार्थः-अनुपसर्ग [भुवः] भू धातु से सुबन्त उपपद होने पर [ भावे] भाव पाद:] तृतीयोऽध्यायः ३२५ में क्यप् प्रत्यय होता है ।। उदा०–ब्रह्मभूयं गतः (ब्रह्मता को प्राप्त हुआ), देवभूयं गतः (देवत्व को प्राप्त हुआ)॥ोरोशिpin कार यहाँ से ‘भावे’ की अनुवृत्ति ३।१।१०८ तक जायेगी || by हनस्तच ॥३।१।१०८।। राम हनः ६१॥ त लुप्तप्रथमान्तनिर्देशः ।। च अ..।। अनु०-भावे, सुपि, क्यप, अनुपसर्गे, घातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः-अनुपसर्गे सुबन्त उपपदे हन्धातो वे क्यप् प्रत्ययो भवति, तकारश्चान्तादेश: ॥ उदा०–ब्रह्मणो हननं = ब्रह्महत्या, दस्युहत्या । भाषार्थ:-अनुपसर्ग [हनः] हन् धातु से सुबन्त उपपद रहते भाव में क्यप् प्रत्यय होता है, [च] तथा [त] तकार अन्तादेश भी अलोऽन्त्यस्य (१३१३५१)से हो जाता है ।। उदा०–ब्रह्महत्या (ईश्वर वा वेद की आज्ञा का उल्लङघन करना), दस्युहत्या (दस्यु का हनन) ॥ MAHARI क्यप एतिस्तुशास्वृदृजुषः क्यप् ॥३।१।१०६॥ एतिस्तुशास्वृद्जुष: ५॥१॥ क्यप् १।१॥ स०-एतिश्च स्तुश्च शास् च वृ च द च जुष च एतिस्तुशास्वृदृजुष, तस्मात, समाहारो द्वन्द्वः ।। अनु०-क्यप, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः-इण, ष्टुञ, शासु, वृञ्, दृङ, जुषी इत्येतेभ्यो धातुभ्यः क्यप् प्रत्ययो भवति ॥ उदा०–इत्यः । स्त यः। शिष्यः । वृत्यः । प्रादृत्यः । जुष्यः॥ भाषार्थ:-[एतिस्तुशास्वृदृजुष:] इण, ष्टुञ, शासु, वृज, दृङ, जुषी इन धातुओं से [क्यप्] क्यप् प्रत्यय होता है ।। उदा०-इत्यः (प्राप्त होने योग्य) । स्तुत्यः (स्तुति के योग्य) । शिष्यः (शासन करने योग्य) । वृत्यः (स्वीकार करने योग्य) । प्रादृत्यः (आदर करने योग्य) । जुष्यः (सेवन करने योग्य) ॥ ‘इत्यः’ आदि में ह्रस्वस्य पिति० (६।१।६६) से तुक आगम हो जायेगा, शेष पूर्ववत् है । “शिष्यः’ में शास इदङ्हलो: (६।४।३४) से उपधा को इत्व, एवं शासिवसिघ० (८।३।६०) से षत्व होता है ॥ दूध+ क्या मासिको ऋदुपधाच्चाक्लूपिचतेः ॥३।१।११०॥ छिन्यो ऋदुपधात् ५।१॥ च अ०॥ अक्लूपिचूते: ५।१॥ स०-ऋकार उपधा यस्य स ऋदुपधः, तस्मात्, बहुव्रीहिः । क्लृपिश्च वृतिश्च क्लूपिचतिः, न क्लपिचूति: अक्लपि वृतिः, तस्मात्, द्वन्द्वगर्भो नञ्तत्पुरुषः । अनु०-क्यप, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः-ऋकारोपधाद्धातोः क्यप् प्रत्ययो भवति, क्लूपिचती वर्जयित्वा ॥ उदा. वृतु-वृत्यम्, वृधु-वृध्यम् ||DEOB (FAIR) बाकी अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्तो [प्रथम: PER भाषार्थ:–[ऋदुपधात्] ऋकार उपधावाली धातुओं से [च] भी क्यप् प्रत्यय होता है, [अक्लपिचतेः] क्लपि और चूति धातुओं को छोड़कर । हलन्त धातु होने से पूर्ववत ण्यत् प्राप्त था, उसका यह अपवाद है । क्लुप, चूत धातुयें भी ऋदु पध हैं. सो इस सूत्र से अतिव्याप्ति होने पर उनका निषेध कर दिया है ।। उदा० वृत्यम् (बरतने योग्य), वृध्यम (बढ़ने योग्य) ॥ ई च खनः ॥३।१११११॥खन्+क्यपदाप्रत्ययों मई लप्तप्रथमान्तनिर्देश: ॥च अ०॥ खन: ५।१।। अनु०-क्यप, धातोः, प्रत्यायः, परश्च ॥ अर्थः-खन् धातो: क्यप् प्रत्ययो भवति, ईकारश्चान्तादेशः ॥ उदा. खेयम् ॥ 9 भाषार्थ:-[खनः] ‘खनु अवदारणे’ धातु से क्यप् प्रत्यय होता है, [च] तथा [ई] ईकारादेश भी अन्त्य अल न्’ को हो जाता है ॥ उदा.–खेयम (खोदने योग्य)। ख ई क्यप्, आद्गुण:(६।१।८४) से पूर्व पर को गुण एकादेश होकर खेयम, बन गया है । JIBI3111 POSTED arl + क्यप भृञोऽसंज्ञायाम् ।।३।१।११२॥ मगर भृजः ५३१।। असंज्ञायाम् ७।१।। स०- असंज्ञायामित्यत्र नजतत्पुरुषः ।। अनु० क्यप, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थ:-प्रसंज्ञायां विषये भृन धातोः क्यप् प्रत्ययो भवति ॥ उदा०-भृत्याः कर्मकरा: ॥ FT भाषार्थः- [भृञः] भृन धातु से [असंज्ञायाम ] असंज्ञाविषय में क्यप् प्रत्यय । होता है ।। उदा०-भृत्याः कर्मकराः / पालने योग्य सेवक) ॥ पूर्ववत् उदाहरण में तुक पागम हो जायेगा । मज + क्या मृविभाषा ॥३।१।११३॥ - मजे: ५॥१॥ विभाषा ११॥ अनु०-यप्, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थः ‘मजष शुद्धौ’ इत्यस्माद् घातोः विकल्पेन क्यप प्रत्ययो भवति, पक्षे ण्यद् भवति ॥ + उदा०-परिमृज्य:, परिमार्य: ॥ भाषार्थ:-[मृजेः] मृज् धातु से [विभाषा] विकल्प से क्यप् प्रत्यय होता है ॥ ऋदुपध होने से नित्य ऋदुपधाच्चा० (३।१।११०) से क्यप् प्राप्त था, यहां -विकल्प विधान कर दिया है ॥ उदा०-परिमृज्य: (शुद्ध करने योग्य), परिमार्यः ।। । ऋदुपधाच्चा० सूत्र भी ऋहलोर्ण्यत् (३।१।१२४) का अपवाद है, अतः पक्ष में यहाँ ण्यत् होता है । जिस पक्ष में ण्यत् होगा, उस पक्ष में मृजेर्वृद्धिः (७।२।११४) से वृद्धि, तथा चजो: कु० (७॥३॥५२) से कुत्व भी हो जाता है । न काम पाद:] तृतीयोऽध्यायः स्वप ३२७ राजसूयसूर्यमृषोद्यरुच्यकुप्यकृष्टपच्याव्यथ्याः॥३।१।११४॥ ) राजसूयसूर्य मषोद्यरुच्यकुप्यकृष्टपच्याव्यथ्याः १॥ स०–राजसूयः इत्यत्रतरे तरयोगद्वन्द्वः ॥ अनु०-क्यप, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थ:-राजसूय, सूर्य, मृषोद्य, रुच्य, कुप्य, कृष्टपच्य, अव्यथ्य इत्येते शब्दा: क्यपप्रत्ययान्ता निपात्यन्ते ॥ ‘राजसूय:’ राजन शब्दपूर्वात् षुञ, धातोः कर्मणि अधिकरणे वा क्यप् प्रत्ययः तुगभावो दीर्घत्वञ्च निपात्यते । ‘सूर्यः’ इति षू प्रेरणे इत्यस्मात, स गतौ इत्येतस्माद्वा कर्तरि क्यप् निपात्यते । स गतो’ इत्येतस्मात् क्यपि परत उत्वम् । एवं ‘धू प्रेरणे’ अस्मात् क्यपि परतो रुडागमो निपात्यते । मृषोद्यम् इति-मृषापूर्वस्य वदधातो: क्यप् निपात्यते। बद: सुपि० (३।१।१०६) इति यत्क्यपोः प्राप्तयोः नित्यां क्यप निपात्यते । ‘रुच्यः’ इति रुच् धातोः कर्तरि क्यप् निपात्यते, ण्यतोऽपवादः । ‘कुप्यम्’- इत्यत्र गुप् धातोः क्यप् आदेः गकारस्य च कत्वं निपात्यते संज्ञायां विषये । ण्यतोऽपवादः । ‘कृष्टपच्या’ इति कृष्टपूर्वात् पच्धातो: संज्ञायां विषये कर्म कर्तरि क्यप् निपात्यते । ‘अव्यथ्यः’ इति:-न पूर्वाद् व्यथ धातोः कर्तरि क्यप् निपात्यते ।। उदा० –राज्ञा सोतव्यो- राजसूयो यज्ञः । सरति निरन्तरं लोकैः सह गच्छतीति सूर्यः; अथवा-कर्मणि स्रियते विज्ञायते विज्ञा प्यते वा विद्वदभिः (यजु: ७१४१) सूर्यः; यद्वा-धू धातोः सुवति प्रेरयतीति सूर्यः। मृषोद्यं वाक्यम् । रोचतेऽसौ रुच्यः । कुप्यम् । कृष्टे पच्यन्ते कृष्टपच्याः। न व्यथते अव्यथ्यः॥ भाषार्थ:- [राजसूयसूर्यमृषोद्यरुच्याकुप्याकृष्टापच्याव्याथ्या:] राजसूय, सूर्य, मृषोद्य, रुच्य, कुप्य, कुष्टपच्य, अव्यथ्य ये शब्द क्यप्प्रत्ययान्त निपातन हैं ॥‘राज सूयः’ (राजसूय नामक यज्ञ), यहां राजन् शब्द पूर्वक षुञ् धातु से कर्म या अधिकरण में क्यप् प्रत्यय, तुक् का प्रभाव, एवं दीर्घत्व का निपातन है । ‘सूर्य’ पू प्रेरणे तथा सू गतौ दोनों धातुओं से बन सकता है । स धातु से क्यप् परे रहते उकार निपातन से कर दिया है, तत्पश्चात हलि च (८।२।७७) से दीर्घ हो जायेगा, अथवा पू घीतु से करें तो रुट प्रागम निपातन से करना होगा। ‘मृषोद्यम्’ मृषा उपपद रहते बद् धातु से ण्यत् की प्राप्ति में क्यप् निपातन करके ‘मृषोद्यम’ (झूठा वचन) बना है । ‘रुच्यम्’ की (सुन्दर) में भी रुच् धातु से क्यप् का निपातन है। ‘कुप्यम्’ (सोने चांदी से भिन्न जो धातु) में संज्ञाविषय में गुप् पातु से क्यप प्रत्यय, तथा प्रावि ‘ग’ को ‘क्’ निपा तन किया है। ‘कृष्टपच्या’ (हल चली हुई भूमि में स्वयं जो पक जाते हैं) में कृष्ट पूर्वक पच धातु से संज्ञाविषय में कर्मर्ता में क्या निपातन है । ‘अव्यथ्यः’ (जो व्य थित नहीं होता) में नअपूर्वक व्यथ धातु से क्यप् निपातन है ॥ सब शब्दों के विग्रह संस्कृत उदाहरण के साथ हैं ॥ की कमी की ४३२८ अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [प्रथम: मिद,ऽन्दी पप भिद्योद्धयौ नदे ॥३॥१॥११५॥ ज भिद्योद्धयो १॥२॥ नदे ७।१॥ स०-भिद्यश्च उद्धधश्च भिद्योद्धयो, इतरेतर योगद्वन्द्वः ॥ अनु०-क्यप, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थ:-भिद्य उद्धय इत्येतो - शब्दो नदेऽभिधेये कर्तरि वाच्ये क्यप्प्रत्ययान्तौ निपात्येते ॥ उदा०-भिद्धातो: कूलानि भिनत्तीति =भिद्योनदः । उज्झ उत्सर्ग, उन्दी क्लेदने इत्येतस्माद्वा-उज्झति, उत्सृजति जलानीत्युद्धपो नदः ॥ Py भाषार्थ:-[भिदधोद्धयो] भिद्य उद्ध य शब्दों में [नदे] नद(नदी) अभि २ घेय हो, तो कर्ता में क्यप् प्रत्यय भिन् तथा उन्दी धातु से निपातन किया जाता है । उद्धघः में उन्दी धातु से नकार का लोप, तथा धकार निपातन से हो जाता है । अथवा PM ‘उज्झ उत्सर्गे’ धातु से क्यप् परे रहते, झकार को धत्व भी निपातन से होता है। उदा०-भिद्यः (किनारों को तोड़नेवाली नदी)। उद्धयो नदः (तटों को गीला करनेवाला नद)। मारी पुष+व्यय पुष्यसिद्धयौ नक्षत्रे ॥३।१।११६॥ nिg upasiy खेदप पुष्यसिद्धयो १॥२॥ नक्षत्रे ७।१।। स०-‘पुष्यसिद्धयो’ इत्यत्रेतरेतरयोगद्वन्द्वः ॥ अनु०-क्यप, धातो:, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थ:- नक्षत्रेऽभिधेये पुष: सिधेश्च धातोः क्यप् निपात्यतेऽधिकरणे कारके ॥ उदा-पुष्यन्त्यस्मिन् कार्याणि स पुष्य: । सिद्ध चन्त्यस्मिन् कार्याणि स सिद्धयः ॥ भाषार्थ:- [नक्षत्रे] नक्षत्र अभिधेय हो, तो अधिकरण कारक में पुष सिध धातुओं से क्यपप्रत्ययान्त [पुष्यसिद्धयो] पुष्य सिद्धय शब्द निपातन किये गये हैं । उदा०—पुष्यः (नक्षत्रविशेष) । सिद्धयः (नक्षत्रविशेष) ॥गा प्राण व+ विपूयविनीयजित्या मुञ्जकल्कहलिषु ॥३।१।११७।। 14 - विषयविनीयजित्याः ११३॥ मुञ्जकल्कहलिषु ७१३॥ स०-उभयत्रेतरेतरयोग द्वन्द्वः ॥ अनु०-क्यप, धातोः, प्रत्यायः, परश्च ।। अर्थः-विषय विनीय जित्य इत्येते शब्दा यथासङ्ख्य मुञ्ज कल्क हलि इत्येतेष्वर्थेषु निपात्यन्ते । विपूयेत्यत्र विपूर्वात् ‘पूज् पवने’ इत्येतस्माद्धातोः, विनीयेत्यात्र विपूर्वान्नीधातो:, जित्येत्यत्र च ‘जि जये’ इत्यास्माद् धातो: कर्मणि क्यप निपात्याते ॥ उदा०-विपूयो मुञ्जः। विनीय: कल्क: । जित भाषार्थ:- [विपूयविनीयजित्या: मुञ्जकल्कहलिष] विपूर्वक पूज् पातु से मुञ्ज अर्थ में “विपूर्य’; विपूर्वक नी धातु से कल्क अर्थ में ‘विनीय’, तथा ‘जि’ धातु से हलि अर्थ में जित्य शब्द निपातन किये जाते हैं । जित्यः’ में तुक आगम ह्रस्वस्थ पाद:] तृतीयोऽध्यायः ३२९ पिति ० (६।१।६६) से होता है ।। उदा-विपूयो मुञ्ज: (मूज) । विनीयः कल्क: (ोषधि को पीठी) । जित्यो हलि:(बड़ा हल)।। जब मुञ्ज कल्क हलि ये अर्थ नहीं होंगे,तब इन धातुओं के अजन्त होने से अचो यत् (३।१।६८) से यत् प्रत्यय होता है ।। प्रत्यपिभ्यां ग्रहेः ॥३।१।११८॥ प्रति ग्रह पप पि+ OC” प्रत्यपिभ्यां ५२॥ ग्रहे: ५॥१॥ स०-प्रतिश्च अपिश्च प्रत्यपी, ताभ्याम्, इतरेतरयोगद्वन्द्वः ॥ अनु०-क्यप,धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः-प्रति अति इत्येवं पूर्वाद ग्रहेर्धातोः क्यप् प्रत्ययो भवति ।। उदा०-मत्तस्य न प्रतिगृह्यम् (ले० ब्रा० १।३।२।७)। तस्मान्नापिगृह्यम् (का० सं० १४१५) ॥ भाषार्थ:- [प्रत्यपिभ्याम् ] प्रति अपि पूर्वक [ग्रहेः] ग्रह धातु से क्यप् प्रत्यय होता है । प्रत्यपिभ्यां ग्रहेश्छन्दसि (वा० ३।१।११८) इस भाष्यवातिक से छन्द में ही ये प्रयोग बनेंगे। यहाँ से ‘ग्रहे:’ को अनुवृत्ति ३।१।११६ तक जायेगी॥ aru [editी वा पदास्वैरिबाह्यापक्ष्येषु च ॥३।१।११६॥ चनु पर मापदास्वैरिबाह्यापक्ष्येषु ७३॥ च अ० ॥ स०-पदञ्च अस्वैरी च बाह्या च पक्ष्यश्च पदास्वैरिबाह्यापक्ष्याः, तेष, इतरेतरयोगद्वन्द्वः ॥ अनु० -ग्रहः, क्यप, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः-पदम, अस्वैरी परतन्त्रः, बाह्या=बहिर्भूता, पक्षे भव:= पक्ष्यः इत्येतेष्वर्थेषु ग्रहधातोः क्यप् प्रत्ययो भवति ॥ उदा०-पद-प्रगृह्य पदम्, अवगृह्य पदम् । अस्वैरी-गृह्य का इमे । बाह्या– ग्रामगृह्या सेना, नगरगृह्या सेना । पक्ष्य –वासुदेवगृह्या:, अर्जुनगृह्याः ।। भाषार्थ:-[पदास्वैरिबाह्यापक्ष्येषु ] पद, अस्वैरी, बाह्या, पक्ष्य इस अर्थों में [च] भी ग्रह धातु से क्यप् प्रत्यय होता है । उदा०-पद-प्रगृह्य पदम् (प्रगृह्य संज्ञक पद), अवगृह्य पदम् (अवग्रह के योग्य पद) । अस्वैरी-गृह्मका इमे (ये पराधीन हैं)। बाह्या-ग्रामगृह्या सेना (गाँव से बाहर की सेना), नगरगृह्या सेना । पक्ष्य–वासुदेवगृह्याः (वासुदेव के पक्षवाले), अर्जुनगृह्याः ॥ विभाषा कवषोः ॥३१॥१२०॥ विभाषा ११॥ कृवृषोः ६॥२॥ स०-कृ च वृषु च कृवृषौ, तयोः, इतरेतरयोगद्वन्द्वः। अनु०-क्यप, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः-कृ वृष इत्येताभ्यां की कमाया नया निपातन ३३० अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [प्रथम: धातुभ्यां विकल्पेन क्यप् प्रत्ययो भवति, पक्षे ण्यदेव ।। उदा०-कृत्यम्, कार्यम् । वृष्यम, वाम् ॥ होता है,पक्ष में ण्यत होता है ।। कृ धातु से ऋह नोर्ण्यत् (३।१।१२४)से ण्यत् प्राप्त था, क्यप विकल्प से विधान कर दिया है । सो पक्ष में ण्यत् होगा। इसी प्रकार वृष धातु से ऋदुपधाच्चा० (३।१।११०) से नित्य क्यप् प्राप्त था, यहाँ विकल्प कर दिया है ।। उदा.-कृत्यम् (करने योग्य) में तुक् आगम, एवं कार्यम में अचो णिति (७।२। ११५) सो वृद्धि होती है । वृष्यम् (सन्तानोत्पत्ति के योग्य ) यहाँ क्यप, तथा वय॑म् में ण्यत् हुना है । यह प्रया(सिर प.क्या युग्यं च पत्रे ॥३।१।१२१॥ युग्यम् १।१।। च अ० ।। पत्रे ७१।। अनु०–क्यप्, धातो:, प्रत्ययः, परश्च ।। पतति गच्छति अनेनेति पत्रं वाहनमुच्यते ॥ अर्थः-युग्यमित्यत्र पत्रे वाच्ये युज्धातो: क्यप, जकारस्य च कुत्वं निपात्यते ॥ उदा० –योक्तुमर्हः= युग्यो गौः, युग्योऽश्वः ।। भाषार्थः- [पत्रे] पत्र अर्थात् वाहन को कहना हो, तो युज् धातु से [च] भी क्यप् प्रत्यय, तथा जकार को कुत्व [ युग्यम् ] युग्य शब्द में निपातन किया गया है ।। उदा०-युग्यो गौः (जोतने योग्य बैल), युग्योऽश्वः (जोतने योग्य घोड़ा)। कालिन शायरी अमावस्यदन्यतरस्याम् ।।३।१।१२२॥ माना । अमामावस्यत १३शा अन्यतरस्याम अ० ॥ अनु०-धातोः, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थ:-अमावस्यदित्यत्र अमापूर्वाद् वस् धातोः कालेऽधिकरणे वर्तमानाद ण्यति परतो विभाषा वृद्धयभावो निपात्यते ॥ उदा०-सह वसतोऽस्मिन् काले सूर्यचन्द्रमसौ– अमावस्या, अमावास्या ।। शिवीगा या भाषार्थः- [अमावस्यत् ] अमावस्या में अमापूर्वक वस् धातु से काल अधि करण में वर्तमान होने पर ण्यत् प्रत्यय परे रहते [अन्यतरस्याम् ] विकल्प से वृद्धि निपातन किया है ।। ण्यत् परे रहते नित्य वृद्धि प्राप्त थी, विकल्प कर दिया है । ‘अमा’ शब्द सह अर्थ में वर्तमान है । जिस काल में सूर्य-चन्द्रमा साथ-साथ रहते हैं, वह काल अमावास्या है । वृद्धि का अभाव निपातन करने से अमावस्या भी बन जाता है॥ r ning 1919 मारी छन्दसि निष्टर्यदेवहूयप्रणीयोन्नीयोच्छिष्यमर्यस्तर्याध्वर्यखन्यखान्यदेवयज्या पृच्छ्यप्रतिषीव्य ब्रह्मवाद्यभाव्यस्ताव्योपचाय्यपृडानि ॥३।१।१२३।। में छन्दसि ७/१॥ निष्टा … पृडानि १।३।। स० –निष्टळ० इत्यत्रेतरे पादः तृतीयोऽध्यायः गया तरयोगद्वन्द्वः ॥ अन०-धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः -छन्दसि विषये निष्टा , देवहूय, प्रणीय, उन्नीय, उच्छिष्य, मय’, स्तर्या, ध्वयं’, खन्य, खान्य, देवयज्या, प्रापृच्छय, प्रतिषीव्य, ब्रह्मवाद्य, भाव्य, स्ताब्य,उपचाय्यपृड इत्येते शब्दा निपात्यन्ते ।। तत्र ‘निष्टक्यं इत्यत्र निस्पूर्वात् ‘कृती छेदने’ अस्माद्धातो: ऋदुपधत्वात् (३१११११०) क्यपि प्राप्ते ण्यद निपात्यते; कृतेः प्राद्यन्तविपर्ययो निस: षत्वञ्चापि निपात्यते । निष्टक्र्यं चिन्वीत पशुकामः । प्रदक्षिणं पर्यस्योर्ध्वग्रन्थि निष्टा बध्नाति (ऐ० प्रा० ५.१।३); गर्भाणां घृत्यौ निष्टयं बध्नाति प्रजानाम् (त० सं०६।१।७२); गर्भाणां धृत्या अप्रपादाय निष्टयं बध्नाति (का० २४१५) । ‘देवहूय’ इत्यत्र देवशब्द उपपदे हु दानादनयोरित्येतस्माद्धातोः क्यप् प्रत्ययो दीर्घत्वं तुगभावश्च निपात्यते । यद्वा-ह्वञ् धातो: क्यप् निपात्यते । य जादित्वात् (६।१।१५) सम्प्रसारणं, हलः (६।४।२) इति दीर्घः । स्पर्धन्ते वा उ देवहूये (ऋ०७१८५२) । प्रपूर्वान्नयते: क्यप् =प्रणीयः । उतपूर्वाच्च नयते: क्यप् =उन्नीयः । त्रिभ्यो धातुभ्योऽजन्तत्वाद्य ति प्राप्ते क्यप् निपात्यते । उत् पूर्वात ‘शिष्ल विशेषणे’ इत्येतस्माद् घातोर्णाति प्राप्ते क्यप निपात्यते । उच्छिष्यः (प्रा० श्रौ० १११॥३)। मर्य, स्तर्या, ध्वर्ग, खन्य इति चत्वारो यदन्ताः शब्दाः । ‘मृङ् प्राणत्यागे’, ‘स्तृञ् आच्छादने’, ‘ध्व हूई ने’, ‘खनु अव दारणे’ इत्येतेभ्यो धातुभ्यो यथाक्रमं पति प्राप्ते यत् निपात्यते । स्तर्या स्त्रियामेव । खनु धातोर्पोदपि भवति–खान्यः । ‘देवयज्या’ इति देवपूर्वाद् यज्धातोर्ण्यति प्राप्ते य प्रत्ययो निपात्यते । स्त्रीलिङ्ग निपातनमेतत् । ‘आपृच्छ्यः , प्रतिषीव्यः’ एतौ क्यबन्तौ । पापर्वात् ‘प्रच्छ ज्ञीप्सायाम’, प्रतिपूर्वात् ‘षिवु तन्तुसन्ताने’ इत्येताभ्यां यथाक्रमं क्यप् भवति । ब्रह्मणि उपपदे वदतेय॑त् =ब्रह्मवाद्यः । भवते: स्तौतेश्च ण्यत् निपात्यते, पावादेशश्च भवति धातोस्तन्नि० (६।११७७) इत्यनेन-भाव्य:, स्ताव्यः । उपपूर्वात् चिधातोर्ण्यत् निपात्यते । पृड उत्तरपदे वृद्धौ कृतायाम् अायादेशश्च निपातनाद भवति-उपचाय्यपृडम् ।। न भाषार्थः- [छन्दसि] वेदविषय में [निष्टा …….पृडा नि] निष्टादि शब्दों का निपातन किया जाता है । किस शब्द में क्या निपातन है, यह प्रागे दिखाते हैं । ‘निष्टवर्य’ में निस पूर्वक ‘कृती छेदने’ धातु से ण्यत् प्रत्यय निपातन से करके, लघूपधगुण होकर ‘निस् कर्त य’ बना । कर्त को प्राद्यन्तविपर्यय तथा, निस के स को ‘ष निपातन से होकर ‘निष तक्यं’ बना, पुन: ष्टुत्व होकर ‘निष्टक्र्य’ बना है। ‘देवहूय’ में देव शब्द उपपद रहते हु धातु से क्या निपातन करते हैं । तथा तुक आगम का प्रभाव और धातु को दीर्घ भी निपातन से होता है । अथवा-हज धातु से क्यप निपातन से करके यजादि (६।१।१५से ) संप्रसारण कर लेने के पश्चात् हल:(६।४।२) से दीर्घ होगा। ‘प्रणीयः’, ‘उन्नीय:’ में प्रपूर्वक तथा उत्पूर्वक नी धातु से क्यप् निपातन ३३२ अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [प्रथमः है। यरोऽनुनासिकेऽनुनासिको वा (0|४|४४) से ‘द’ को ‘न’ हो ही जायेगा । ‘उच्छिष्यः’ में उत्पूर्वक शिष् धातु से क्यप निपातन है। यहाँ शश्छोऽटि (८।४।६२) से ‘श’ को ‘छ’, एवं स्तो: श्चुना० (८४१३६) से श्चुत्व होकर ‘उच्छिष्यः’ बनता है। मृङ्,स्तन , ध्व, खनु इन चारों धातुओं से ण्यत् की प्राप्ति में यत्प्रत्यय निपातन से करके यथाक्रम चार शब्द मर्ग, सर्या, ध्वर्य, खन्य बनते हैं । स्तर्या में यत्प्रत्यय स्त्री लिङ्ग में ही निपातन है। खनु से ण्यत् प्रत्यय करके ‘खान्य’ भी बनेगा । ‘देवयज्या’ में देव उपपद रहते यज् धातु से ‘य’ प्रत्यय स्त्रीलिङ्ग में निपातन है। आङ्पूर्वक प्रच्छ धातु से क्या निपातन करके ‘आपृच्छयः’ बनता है । यहाँ ‘अहि ज्याव० (६।१।१६) से सम्प्रसारण होता है । प्रति पूर्वक षिवु धातु से भी क्यप् तथा षत्व निपातन से करके ‘प्रतिषीव्यः’ बनता है। यहाँ धात्वादे षः सः (६।१। ६२) से षिव के ‘ष’ को ‘स’, तथा हलि च (८।२१७७) से प्रतिषीव्य: में दीर्घ भी होता है । ब्रह्म उपपद रहते वद धातु से ण्यत करके ‘ब्रह्मबाद यः’ बनता है। यहां वद: सुपि क्यप् च (३।१।१०६) से क्या प्राप्त था । भू तथा स्तु धातु से ण्यत् प्रत्यय निपातन से करके,अचो णिति (७।२।११५)से वृद्धि होकर-‘भौ यस्तौ य’बना । पुनः धातोस्तन्नि० (६।११७७) से आवादेश करके भाव्य:, स्ताव्य: बना है। उप पूर्वक चिञ् धातु से पृड उत्तरपद होने पर ण्यत् प्रत्यय निपातन से किया है। पूर्ववत वृद्धि होकर पायादेश निपातन से करके ‘उपचाय्यपृडं हिरण्यम्’ बनता है । लियत ऋहलोर्ण्यत ॥३१॥१२५॥ ज्या ऋहलो: ६।२॥ ण्यत् ११॥ स०-ऋ च हल् च ऋहली, तयोः, इतरेतरयोग द्वन्द्वः ॥ अनु० –धातो:, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थः-ऋवर्णान्ताद्धलन्ताच्च धातोर्ण्यत प्रत्ययो भवति ॥ उदा०-कृ-कार्यम्, हृ-हार्यम्, धू-धार्यम, स्मृ-स्मार्यम् । हलन्तात-पठ-पाठयम्, पच्-पाक्यम्, वच् -वाक्यम् ॥ भाषार्थ:-[ऋहलो:] ऋवर्णान्त तथा हलन्त धातुओं से [ण्यत् ] ण्यत् प्रत्यय होता है। उदा०-कार्यम्, (करने योग्य),हार्यम्(हरण करने योग्य),धार्यम् (धारण करने योग्य), स्मार्यम् (स्मरण करने योग्य) । हलन्तों से-पाठयम् (पढ़ने योग्य), पाक्यम् (पकने योग्य), वाक्यम (कहने योग्य) ॥ ऋकारान्त धातुओं को अचो ञ्णिति (७।२।११५) से वृद्धि होती है, तथा हलन्त धातुओं को अत उपधाया: (७॥ २।११६) से वृद्धि होती है । पच् तथा वच् धातुओं को चजो: कु० (७।३।५२) से कुत्व हो जायेगा | tam विशेष:- ऋहलोः में पञ्चम्यर्थ में षष्ठी है ॥ोलिटि शो का यहां से ‘ण्यत्’ की अनुवृत्ति ३।११३१ तक जायेगी ॥ 2 पादः] तृतीयोऽध्यायः3+047 अोरावश्यके ॥३।१।१२५॥ ओ: ५।१।। श्रावश्यके ७।१।। अनु०–ण्यत्, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थ:-उवर्णान्ताद्धातोरावश्यके द्योत्ये ण्यत प्रत्ययो भवति ॥ उदा०-लाव्यम, पाव्यम ॥ भाषार्थः- [ो:] उवर्णान्त धातुओं से [आवश्यके] अावश्यक द्योतित होने पर ण्यत् प्रत्यय होता है । य मितव्यतर प्रणयामा प्रास्यवपिरपिलपित्रपिचमश्च ।।३।११२६॥ ALI प्रासुयुवपिरपिलपित्रपिचम : ५॥१॥ च अ० ॥ स०-पासुश्च युश्च वपिश्व रपिश्च लपिश्च पिश्च चम् च प्रासुयुवपिरपिलपित्रपिचम्, तस्मात, समाहारो द्वन्द्वः ।। अर्थः-प्राङपूर्वात सुनोतेः, यु, वपि, रपि, लपि, त्रपि, चम् इत्येतेभ्यो धातुभ्यश्च ण्यत् प्रत्ययो भवति ॥ उदा०-प्रासाव्यम् । याव्यम् । वाप्यम् । राप्यम् । लाप्यम् । त्राप्यम् । प्राचाम्यम् ॥E PाकोशFTER भाषार्थ:-[आसुयुवपिरपिलपित्रपिचम:] अापूर्वक षुञ्, यु, व, र, लप, त्रप और चम् इन धातुओं से [च] भी ण्यत् प्रत्यय होता है। उदा०-पासाव्यम् (उत्पन्न करने योग्य )। याव्यम् (मिलाने योग्य)। वाप्यम् (बीज बोने योग्य)। राप्यम् (बोलने योग्य) । लाप्यम् (बोलने योग्य) । त्राप्यम् (लज्जा करने योग्य) । प्राचा म्यम (प्राचमन करने योग्य) ॥ प्रासाव्यम , याव्यम में प्रचो णिति (७॥२॥ ११५) से वृद्धि होकर, धातोस्तन्नि० (६।१।७७) से वान्तादेश होता है। अन्यत्र अत उपधाया: (७।२।११६) से वृद्धि होगी ।। 1 ____प्रानाय्योऽनित्ये ॥३११११२लायती हा अानाय्यः ११॥ अनित्ये ७।१।। स०-न नित्योऽनित्यः,तस्मिन्, नञ्तत्पुरुषः ।। अन०-ण्यत्, धातो: प्रत्ययः, परश्च । अर्थः-पानाय्य इति निपात्यतेऽनित्येऽभिधेये। प्राङपूर्वान्नयतेः ‘प्रयत्’ आयादेशश्च भवति निपातनात ॥ उदा०-यानाय्यो दक्षिणाग्निः ॥ १. यज्ञ की अग्नियाँ तीन होती हैं - गार्हपत्या, पाहवनीय, दक्षिणाग्नि । ये तीनों अग्नियाँ सतत प्रज्वलित रहती हैं । परन्तु प्रतिदिन यज्ञ के प्रारम्भ में आहवनीय अग्नि के संस्कारार्थ गार्हपत्य अग्नि से दो चार अङ्गार लाकर पाहवनीय में रखे जाते हैं । दक्षिणाग्नि के संस्कारार्थ गार्हपत्य वैश्यकुल या भ्राष्ट्र (भाड़ या चूल्हा) से अग्नि लाकर दक्षिणाग्नि में रखी जाती है । दक्षिणाग्नि में संस्कारार्थ लाई हुई ३३४ अष्टाध्यायौ-प्रथमावृत्ती [प्रथमा भाषार्थ:- [अानाय्य:] आनाय्यः शब्द प्रापूर्वक णीञ् धातु से ण्यत् प्रत्य पान्त [अनित्ये] अनित्य अर्थ को कहना हो तो निपातन किया जाता है ॥ वृद्धि करने पर पायादेश भी निपातन से हो जाता है । मकस्लम समाप्रणाय्योऽसमतो ॥३।१।१२८॥ प्रणाय्याः ॥१॥ असंमती ७।१।। संमननं संमतिः ।। स०–अविद्यमाना संम तिरस्मिन सोऽस मतिः,तस्मिन्, बहुव्रीहिः ।। धन-धातोः, प्रत्ययाः, परश्च ।। अर्थ - संमति:–पूजा। असं मतावभिधेये प्रपून्नियते: ण्यत प्रत्ययः, अायादेशश्च निपात्यते ।। उदा०—प्रणाय्यश्चौरः ।। बाद का भाषार्थः-प्र पूर्व क णीज धातु से [असमतौ] अपूजित अभिधेय हो, तो ण्यत प्रत्यय तथा वृद्धि कर लेने पर प्रायादेश [प्रणाय्य:] प्रणाय्य शब्द में निपातन किया जाता है । चोर निन्दित है, अतः उसको प्रणाय्य कहा गया है । उपमर्गाद समा०(८।४।१४) से प्रणाय्य में णत्व हो जाता है । निपातन में पाय्य सान्नाय्य निकाय्यधाय्या मानहविनिवास- या हाको नाम सामिधनीषु ।।३।१।१२६॥ कापाय्यसान्नाय्य निकाय्यधाय्या: १॥३॥ मानहविनिवाससामिधेनीष ७१३।। स० पाय्यञ्च सान्नाय्यञ्च निकाय्यश्च धाय्या च इति पारपसान्नाय्यनिकाय्यधाय्याः, इतरेतरयोगद्वन्द्वः । मानञ्च हविश्च निबासश्च सामिधेनी च मानहविनिवास सामिधेन्यः, तासु, इतरेतरयोग द्वन्द्वः ॥ अन०-ण्यत, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थ: - पाय्य, सान्नाय्य, निकाय्य, धाय्या इत्येते शब्दाः यथाक्रमं मान, हविः, निवास, सामिधेनी इत्येतेष्वभिधेयेष निपात्यान्ते ॥ पाय्यम्’ इति माङ धातोः ण्ट त’ प्रत्ययः, आदेम कारस्टा पत्वञ्च मानेऽभिधेये निपात्याते । ‘सान्नाय्यम्’ इति संपून्नियाते: ण्यात प्रत्ययः, वृद्धौ कृतायाम आयादेशः, उपसर्गस्या दीर्घत्वञ्च निपात्याते हविरभिधेये। ‘निकाय्यः’ इति निपूर्वाच्चिञ् घातो: एटात् प्रत्ययः, वृद्धौ कृता यामायादेशः, प्रादेश्च कारस्या कुत्वञ्च निपात्याते निवासेऽभिधेये । ‘धाय्या’ इति डुबाञ् बातोर्णात् प्रत्ययो F Pामा निपात्याते सामिधेन्याभिधेये ॥ यो पा भाषार्थ:- [पाय्यसान्नाय्यनिकाय्यधाय्या:] पाय्य, सान्नाय्य, निकाय्य, धाय्या अग्नि का स्थान नियत न होने से वह अनियत = अनित्य कही जाती है। यह पानाय्य’ निपातन वहीं होता है, जहाँ दक्षिणाग्नि में गार्हपत्य से अग्नि लाई जाती है । जहाँ अन्य स्थान (वैश्य कुल या भ्राष्ट्र) से अग्नि लाई जाती है, वहाँ ‘पानेय’ का प्रयोग होना है। पादः] तृतीयोऽध्यायः किए शब्द यथासङ खय करके [मानहविर्निवास सामीधेनीष] मान, हवि, निवास, तथा सामिनी यभिधेय में निपातन किये जाते हैं । ‘पाय्य’ में माङ माने धातु से ण्यत् , तथा प्रादि मकार को पकार निपातन से किया है, मान कहना हो तो। ‘सान्नाय्य’ में सम पूर्वक णीज् धातु से ण्यत , उपसर्ग को दीर्घ, तथा वृद्धि करने के पश्चात् आयादेश निपातन से किया है, हवि को कहने में । ‘निकाय्य’ में चिञ् धातु से ण्यत , तथा आदि ‘च’ को ‘क’, एवं पायादेश निवास अभिधेय होने पर निपातन से किया है । ‘घाय्या’ में डुधाञ् धातु से ण्यत् निपातन किया है, सामिधेनी को कहने में ॥ पाय्य एवं धाय्या में प्रातो युक० (७।३।३३) से युक् पागम हो ही जायेगा । सब उदाहरणों में अजन्त धातुओं के होने से यत् प्रत्यय की प्राप्ति थी, ण्यत् निपातन कर दिया है, मान प्रादि अर्थों में । सो इन अर्थों से अतिरिक्त स्थल में यत ही होगा ।। उदा.-पाय्यं मानम (तोलने के बाट), मेयम अन्य अर्थों में बनेगा । सान्नाय्यं हविः (हवि का नाम), ‘सन्नेयम’ अन्यत्र बनेगा । निकाय्यो निवासः (निकाय्य निवास को कहते हैं), निचेयम अन्यत्र बनेगा। धाय्या सामिधेनी (ऋचा का नाम), धेयम् अन्यत्र बनेगा || मोना किमत कृतौ कुण्डपाय्यसंचाय्यौ ॥३।१।१३०॥ यत पर क्रती ७।१।। कुण्डपाय्यसंचाय्यो १२॥ स.-कुण्डपाय्यश्च सञ्चाय्यश्च कुण्ड पाय्यसञ्चाय्यो, इतरेतरयोगद्वन्द्वः ।। अनु०-ण्यत, धातो:, प्रत्ययः, परश्च ।। अथः कुण्डपाय्य संचाय्य इत्येतौ शब्दो क्रताव भिधेये निपात्येते ॥ ‘कुण्डपाय्य, इत्यत्र कुण्डशब्दे तृतीयान्त उपपदे पिबतेर्धातोरधिकरणे यत्प्रत्ययो निपात्यते, युक चागमः । ‘संचाय्य’ इत्यत्र सम्पूर्वात् चिधातो: ‘ण्यत’ प्रत्ययः, पायादेशश्च निपात्यते अधिकरणे कारके । उदा०-कुण्डेन पीयतेऽस्मिन् सोम इति कुण्डपाय्यः ऋतु: । संचीयतेऽस्मिन् सोम इति संचाय्य: ऋतुः ।। भाषार्थ:-ऋतु यज्ञविशेषों की संज्ञा है । [ऋतौ] ऋतु अभिधेय हो, तो [कुण्डपाय्य संचाय्यौ] कुण्डपाय्य तथा संचाय्य शब्द निपातन किये जाते हैं । कुण्ड शब्द तृतीयान्त उपपद रहते ‘पा पाने’ धातु से अधिकरण में यत् प्रत्यय, तथा युक का आगम निपातन करके ‘कुण्डपाय्य’ शब्द बनाते हैं । सम पूर्वक चिञ् धातु से ण्यत प्रत्यय तथा वृद्धि कर लेने पर पायादेश निपातन करके ‘संचाय्य’ बनता है ॥ उदा०-कुण्डपाय्यः क्रतुः (कुण्ड के द्वारा सोम पिया जाता हैं जिस यज्ञ में)। संचाय्यः क्रतुः, (जिसमें सोम का सङग्रह किया जाता है ऐसा यज्ञ) ॥ म :- अग्नौ परिचाय्योपचाय्यसमूह्याः॥३।१।१३१॥ - व्या अग्नौ ७।१।। परिचाय्योपचाय्यास मू ह्याः १।३।। स-परिचाया. इत्यात्रेत रेतर अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [प्रथम: योगद्वन्द्वः ।। अनु -टात्, धातोः, प्रत्यय:, परश्च ।। अर्थः-परिचाय्टा, उपचाय्या, समूह्य इत्येते शब्दा निपात्यान्ते अग्नावभिधेये ॥ परिचाय्रा उपचाय्य इत्यात्र पूरिपूर्वाद उपपूर्वाच्च चित्र धातोः ण्यात प्रत्यय अायादेशश्च निपात्यते-परिचाय्य:, उपचाय्यः । समय इत्यत्र सम पूर्वात बहधातोर्णाति सम्प्रसारणं दीर्घत्वञ्च निपात्यते-समय उनकी भाषार्थः–[परिचा…“ह्या:] परिचाय्य उपचाय्य समूह्य ये शब्द [अग्नौ] अग्नि अभिधेय हो, तो निपातन किये जाते हैं । परिपूर्वक उपपूर्वक चिञ् धातु से ण्यत् प्रत्यय, तथा प्रायादेश निपातन सो करके परिचाय्य उपचाय्य शब्द बनते हैं। सम पूर्वक वह धात से ण्यत प्रत्यय, एवं सम्प्रसारण निपातन के करके ‘सम ऊह य-समहा बन गया है ।। उदा०-परिचीयतेऽस्मिन् परिचाय्यः (यज्ञ की अग्नि जहाँ स्थापित की जाती है)। उपचीयते असौ उपचाय्यः (यज्ञ में संस्कार की गई प्राग)। समूह चिन्वीत पशुकाम: (पशु की कामनाकरने वाला समूह्य यज्ञ की अग्नि का चयन करे) | किए की कि काही मला) यहां से ‘अग्नौ’ की अनवत्ति ३।११३२ तक जायेगी || SAPNA चित्याग्निचित्ये च ॥३।१।१३२॥ चित्याग्निचित्ये १।२॥ च अ०॥ स०–चित्यश्च अग्निचित्या च चित्याग्नि चित्ये, इतरेतरयोगद्वन्द्रः ।। अनु०-अग्नौ, धातो:, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थ:-चित्यशब्द अग्निचित्याशब्दश्न निपात्येते अग्नावभिधेये ।। ‘चित्यः’ इति चित्र घातो: कर्मणि क्यप प्रत्यायो निपात्याते । ‘ग्निचित्या’ इति अग्निपूर्वात चित्रधातो: भावे टाकारप्रत्याया: गुणाभावः तुगागमश्च निपात्यते ।। उदा०–चीयतेऽसौ चित्यः। अग्निचयानमेव अग्निचित्याPANSARसार शेतमाम भाषार्थ:-[चित्याग्निचित्ये] चित्य तथा अग्निचित्या शब्द [च ] भी निपातन किये जाते हैं, अग्नि अभिघोय हो तो || चित्य में चित्र धातु से कर्म में क्यप प्रत्यय निपातन है । तुक अागम ह्रस्वस्या पिति० (६।११६६) से हो ही जायेगा । अग्निचित्या शब्द में अग्नि शब्द उपपद रहते चिज धातु से भाव में यकार प्रत्यय, तुक पागम, एवं गणाभाव निपातन है । य प्रत्यय निपातन करने से अाधुदात्तश्च (३॥१॥३) से यह शब्द अन्तोदात्त है । यहाँ गतिकारको० (६।२११३६) से उत्तरपद का प्रकृति स्वर हुआ है । ये नई लतचौ ॥३।१।१३३॥ होण्वल्तचौ ११२॥ स०-ज्वल च तच्च ण्वलतृचौ, इतरेतरटाोगद्वन्द्वः । अनु० पाद:] तृतीयोऽध्यायः ल च ३३७ घातो:, प्रत्यायः परश्च ।। अर्थ:-धातो: ण्वलतृचौ प्रत्ययो भवतः ।। उदा० - कारक:, हारकः, पाठकः। कर्ता, हर्ता, पठिता ॥ सहा भाषार्थ:-धातुमात्र से [ण्वुल्तृचौ]ण्वुल तथा तृच् प्रत्यय होते हैं । सिद्धियाँ परिशिष्ट १।११, २ में देखें। का नन्दि +ल्यु eg नन्दिग्नहिपचादिभ्यो ल्युणिन्यचः ॥३।१।१३४। Je + णिनि पच +अच नन्दिग्रहिपचादिभ्यः ५॥३॥ ल्युणिन्यचः ११३॥ स०-नन्दिश्च हिश्च पच च नन्दिग्रहिपच:, नन्दिग्रहिपचः पादयो येषां ते नन्दिग्रहिपचादयः, तेभ्यः, द्वन्द्वगर्भो बहुव्रीहिः । प्रादिशब्द: प्रत्येकमभिसंबध्यते । ल्युश्च णिनिश्च अच्च ल्युणिन्यचः, इतरेत तरयोगद्वन्द्वः ।। अनु०-धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थ:-नन्द्यादिभ्यो ग्रहादिभ्यः पचादिभ्यश्च धातुभ्यो यथासङ्ख्यं ल्यु णिनि अच् इत्येते प्रत्यया भवन्ति ॥ उदा० नन्द्यादि-नन्दयतीति नन्दनः । वाशयतीति वाशनः । ग्रहादि-गलातीति ग्राही, उत्माही, उदासी । पचादि-पचतीति पचः, वपतीति वपः, वदः॥ fic,जिला _भाषार्थ:-[नन्दिग्रहिपचादिभ्यः] नन्द्यादि ग्रहादि तथा पचादि धातुओं से यथासङ खय करके [ल्युणिन्यचः] ल्य णिनि तथा अच् प्रत्यय होते हैं । इस प्रकार तीनों गणों से तीन प्रत्यय यथासङख्य करके, अर्थात नन्द्यादियों से ल्य, ग्रहादियों से णिनि, तथा पचादियों से अच् प्रत्यय होते हैं । उदा०-नन्द्यादियों से-नन्दनः (प्रसन्न करनेवाला), वाशनः (शब्द करनेवाला पक्षी) । ग्रहादियों से-ग्राही (ग्रहण करने वाला), उत्साही (उत्साह करनेवाला), उद्वासी (निकलनेवाला) । पचादियों से पचः (पकानेवाला), वपः (बोनेवाला), वदः (बोलनेवाला) ॥ नन्दनः वाशन: में नन्दिवाशिमदि० (वा० ३।१।१३४) इस वात्तिक के कारण हेतुमति च (३॥१॥ २६) से णिच् लाकर ही ल्यु प्रत्यय होता है, पुनः उस णिच् का रनिटि (६।४। ५१) से लोप हो जाता है । ग्रह से णिनि प्रत्यय करके ग्राहिन बना । स्वायत्पत्ति होकर प्राहिन सु बना । अब सौ च (६।४।१३) से दीर्घ, तथा हलङ्याभ्यो० (६। १।६६) से सुलोप, एवं नलोप: प्रा० (८।२१७) से न का लोप होकर ‘ग्राही’ बन गया है । अजपि सर्वधातुभ्यः (भा० वा० ३।१।१३४) इस महाभाष्य के वात्तिक से पचादि प्राकृतिगण माना जाता है । इक-उपधा , प्री, के+क इगुपधज्ञाप्रीकिरः कः ॥३।१।१३।। ज इगुपधज्ञाप्रोकिरः ५॥१॥क: शास०-इक् उपधा यस्य स इगुपयः, बहुव्रीहिः । ३३८ to अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [प्रथम: इगुपधश्च ज्ञा च प्री च क च इगुपधज्ञाप्रीकिर, तस्मात, समाहारो द्वन्द्वः ॥ अनु० घातोः,प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थ:- इगुपधेभ्यो, ज्ञा, प्रीन्, क (तुदादि) इत्येतेभ्यो धातुभ्य: क: प्रत्ययो भवति ॥ उदा०—विक्षिपतीति विक्षिपः, विलिख:, बुधः । जानातीति ज्ञ: । प्रियः। किरः ॥ वहया भाषार्थ:- [इगुपधज्ञाप्रीकिर:] इक प्रत्याहार उपधावाली धातुओं से, तथा ज्ञा, प्री, क इन धातुओं से [क:] क प्रत्यय होता है । उदा.-विक्षिपः (विघ्न डालनेवाला), विलिखः (कुरेदनेवाला), बुधः (विद्वान ) । ज्ञः (जाननेवाला)। प्रियः (प्रेम करनेवाला) । किरः (सुअर) ॥ आतो लोप० (६।४१६४) से ज्ञा के प्रा का लोप होकर ज्ञः बना है । प्रियः में अचि श्नु० (६।४।७७) से इयङ् होता है । किरः में ऋत इद् (७।१।१००) से इकार हुआ है ॥ _यहाँ से ‘कः’ की अनुवृत्ति ३।१।१३६ तक जायेगी । पसो+आतक पातश्चोपसर्गे ॥३।१।१३६॥ । प्रात: ५॥१॥ च अ०॥ उपसर्गे ७११॥ अनु०-कः, घातो:, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थ:-आकारान्तेभ्यो धातुभ्य उपसर्ग उपपदे कः प्रत्ययो भवति ।। उदा०-प्रतिष्ठत इति प्रस्थः, सुष्ठ ग्लायतीति सुग्ल:, सुम्लः ॥ POP F भाषार्थ:-[प्रातः] प्राकारान्त धातुओं से [च] भी [उपसर्गे] उपसर्ग उपपद रहते क प्रत्यय होता है ।। उदा०-प्रस्थः (प्रस्थान करनेवाला), सुग्लः (बहुत ग्लानि करनेवाला), सुम्लः (उदास होवेवाला) || सिद्धि में ग्लै म्ल पातुनों को आदेच उपदेशे० (६१२४४) से प्रात्व हो गया है। प्रातो लोप इटि च (६।४।६४) से स्था ग्ला म्ला धातुओं के आकार का लोप कित प्रत्यय परे रहते हो ही जायेगा ।। H श पाघ्रामाधेट्दश: शः ॥३।१।१३७॥
- पाघ्राध्माघेट्दशः ५॥१॥ श: ११॥ स०-पाश्च घ्राश्च ध्माश्च धेट् च दश च पाघ्रा दृश्, तस्मात, समाहारो द्वन्द्वः॥ अनु०-धातोः, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थः–पा, घ्रा, ध्मा, धेट, दृश इत्येतेभ्यो धातुभ्यः श: प्रत्ययो भवति ॥ उदा० उत्पिबः, विपिबः । उज्जिघ्रः, विजिघ्रः। उद्धमः, विधमः । उद्धयः, विधयः । उत्पश्य:, विपश्य: । अनुपसर्गेभ्योऽपि-जिघ्रः। धयः । पश्यः॥ भाषार्थ:-[पाघ्राध्माघेटदृशः] पा माने, घ्रा, ध्मा, घेट, वृशिर् इन धातुओं से (उपसर्ग उपपद हो या न हो तो भी) [शःश प्रत्यय होता है | सोपसर्ग पा, घ्रा, घ्मा, धेट से पूर्वसूत्र से क प्रत्यय प्राप्त था। तथा अनुपसर्ग पा, घ्रा, घ्मा, घेट से पादः] तृतीयोऽध्यायः गया ३३६ ॥३।१११३८॥ श ही श्याद्वयधास्र ० (३।१।१४१) से प्राकारान्त मानकर ण प्रत्यय प्राप्त था । एवं दृश् धातु से इगुपध होने से इगुपधज्ञा० (३३१३१३५) से क प्रत्यय प्राप्त था, उनका यह अपपाद है। यहाँ से ‘श:’ की अनुवृत्ति ३।१।१३६ तक जायेगी । अनुपसर्गाल्लिम्पविन्दधारिपारिवेद्यदेजिचेति सातिसाहिभ्यश्च ॥३।१११३८॥ अनुपसर्गात् ५॥१।। लिम्पविन्दधारिपारिवेद्यदेजिचेतिसातिसाहिभ्य: ५।३॥ च अ० ॥ स०-अनुपसर्गाद् इत्यत्र बहुव्रीहिः । लिम्पविन्द० इत्यत्रेतरेतरयोगद्वन्द्वः ॥ अनु०-शः, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः-उपसर्गरहितेभ्यो लिम्प, विन्द, धारि, पारि, वेदि, उदेजि, चेति, साति, साहि इत्येतेभ्यो धातुभ्यः शः प्रत्ययो भवति । उदा०-लिम्पतीति लिम्प: । विन्दतीति विन्दः । धारयः। पारयः । वेदयः। उदेजयः । चेतर : । सातयः । साहयः ॥ न भाषार्थ:- [अनुपसर्गात् ] उपसर्गरहित [लिम्पविन्दधारिपारिवेद्य देजिचेति सातिसाहिभ्यः] लिप उपदेहे, विदल लाभे, तथा णिच्प्रत्ययान्त धज धारणे,, पृ पालनपूरणयोः, विद चेतनाख्याननिवासेषु (चुरा०), उदपूर्वक एज़ कम्पने, चिती संज्ञाने, साति (सौत्रधातु), षह मर्षणे इन धातुओं से [च] भी श प्रत्यय होता है । आ यहाँ से ‘अनुपसर्गात्’ की अनुवृत्ति ३।१।१४० तक जायेगी। दातिदधात्योविभाषा कायदा+श Can ददातिदधात्योः ५॥२॥ विभाषा १११॥ स०-ददातिश्च दधातिश्च ददाति दधाती, तयोः, इतरेतरयोगद्वन्द्वः ।। अनु-अनुपसर्गात, श:, धातो:, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थ:-अनुपसर्गाभ्यां डुदान डुधाञ् इत्येताभ्यां धातुभ्यां श: प्रत्ययो विकल्पेन भवति । णस्यापवादः । तेन पक्षे सोऽपि भवति ॥ उदा०-ददः, दायः । दधः, धायः॥ भाषार्थ:-अनुपसर्ग [ददातिदघात्योः] डुदाञ् और डुधाञ् धातुओं से [विभाषा] विकल्प से श प्रत्यय होता है । प्राकारान्त होने से श्याद्वपघास्र ० (३॥१॥ १४१) से ‘ण’ नित्य प्राप्त था, सो पक्ष में वह भी हो जायेगा। यहां से ‘विभाषा’ की अनुवृत्ति ३।१११४० तक जायेगी। ज्वलितिकसन्तेभ्यो णः ।।३।१।१४०॥ ज्वलितिकसन्तेभ्य: ५।३।। ण: १।१।। स०-ज्वल इति =पादिर्येषां ते ज्वलितयः, बहुव्रीहिः । करा शन्ते येषां ते कसन्ताः, बहुव्रीहिः । ज्वलितयश्च ते कसन्ताश्चेति ३४० अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्तौ । [प्रथमः ज्वलितिकसन्ताः, तेभ्य:, कर्मधारयस्तत्पुरुषः । अनु०-विभाषा, अनुपसर्गात, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थ:-इतिशब्दोऽत्राद्यर्थवाची ॥ ज्वल इति = ‘ज्वल दीप्तौ’ इत्यारभ्य कस् अन्तः= ‘कस गतौ’ इत्यन्तेभ्योऽनुपसर्गेभ्यो घातुभ्यो विकल्पेन णः प्रत्ययो भवति, पक्षे सामान्यविहितोऽच् ॥ उदा०-ज्वलतीति ज्वालः, ज्वल: । चालः, चल: ॥ भाषार्थ:- [ज्वलितिकसन्तेभ्यः] ‘ज्वल दीप्तौ’ धातु से लेकर ‘कस गतौ’ पर्यन्त जितनी धातुएं हैं, उनसे [णः] ण प्रत्यय होता है ।। यहाँ ‘ज्वल इति’ में इति शब्द आदि अर्थ का वाचक है । सो ‘ज्वलिति’ से अर्थ हुआ-ज्वल जिनके आदि में है’; तथा कसन्त का अर्थ हुआ–‘कस गतौ पर्यन्त’ । इस प्रकार ज्वल से लेकर कस पर्यन्त धातुओं से विकल्प से ण प्रत्यय होगा। पक्ष में अच् प्रत्यय अजपि सर्वधातुभ्यः (वा० ३।१।१३४) इस वात्तिक से हो गया है ॥ उदा०–ज्वालः (जलनेवाला), ज्वल: । चाल: (चलनेवाला), चलः ।। यहाँ से ‘ण’ की अनुवृत्ति ३।१।१४३ तक जायेगी ॥माणका श्याद्वयधास्त्र संस्त्र वतीणवसावहुलिहश्लिषश्वसश्च ॥३।१।१४१॥ शव श्याद्वघधास्र संस्र वतीणवसावहलिहश्लिषश्वस: ५॥१॥ च अ०॥०-श्याश्च आच्च व्यधश्च पास्र श्च संस्र श्च प्रतीण च अवसाश्च अवह च लिहश्च श्लिषश्च श्वस् च श्याद्वय श्वस, तस्मात, समाहारो द्वन्द्वः ॥ अनु० - णः, धातो:, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः-श्यङ गतौ इत्यस्माद्, आकारान्तेभ्यो धातुभ्यः, व्यध ताडने, पाङ् संपूर्वक स गती, अतिपूर्वक इण, अवपूर्वक षोऽन्तकर्मणि, अवपूर्वक हृञ्, लिह आस्वादने, श्लिष आलिङ्गने, श्वस प्राणने इत्येतेभ्यश्च धातुभ्यो णः प्रत्ययो भवति ।। उदा०-अवश्यायः । प्रतिश्याय: । प्राकारान्तेभ्यः-दायः, धायः । व्याधः । प्रास्राव: । संस्रावः । अत्याय: । अवसायः। अवहार: । लेहः । श्लेषः । श्वासः ।। भाषार्थ:- [श्याद्वय….. श्वसः] श्यङ प्रात् =प्राकारान्त, व्यध, प्राङ और संपूर्वक स्त्र, प्रतिपूर्णक इण, अवपूर्वक षो, अवपूर्वक ह, लिह, श्लिष्, श्वस् इन धातुओं से [च] भी ण प्रत्यय होता है । दुन्योरनुपसर्गे ॥३।१।१४२॥ ॐ दुन्यो: ६॥२॥ अनुपसर्गे ७१॥ स०-दुश्च, नीश्च दुन्यौ, तयोः, इतरेतरयोग द्वन्द्वः ।। न उपसर्गो यस्य सः अनुपसर्गः, तस्मिन्, बहुव्रीहिः ॥ अनु०-ण:, धातो:, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः-टुदु उपतापे, णीज प्रापणे इत्येताभ्यामुपसर्गरहिताभ्या धातुभ्यां ण: प्रत्ययो भवति ॥ उदा०-दुनोतीति दाव: । नयतीति नायः॥ भाषार्थ:- [अनुपसर्गे] उपसर्गरहित [दुन्योः] ‘दृदु उपतापे’ तथा ‘णीज पाद:] तृतीयोऽध्यायः ३४१ प्रापणे’ धातुओं से ण प्रत्यय होता है । अचो णिति से वृद्धि, पावादेशादि पूर्ववत् होकर दावः (वन) तथा नायः (नेता) की सिद्धि जानें ॥271105 विभाषा ग्रहः ॥३।२१४३॥ ग्रह+ [व] विभाषा १११॥ प्रहः ५॥१॥ अनु० –णः, धातो:,प्रत्यय:, परश्च ।। अर्थः-ग्रह धातोविकल्पेन णः प्रत्ययो भवति ॥ पक्षे सामान्यविहितोऽच् ॥ उवा०-ग्राहः, ग्रहः ॥ भाषार्थ:- [ग्रहः] ग्रह धातु से [धिभाषा] विकल्प से ण प्रत्यय होता है । पक्ष में सामान्यविहित पचाद्यच् (३।१।१३४) होगा ॥ उदा०-ग्राहः (मकर),ग्रहः (नक्षत्र) ॥ यहाँ से ‘ग्रहः’ को अनुवृत्ति ३।१।१४४ तक जायेगी। सा गेहे कः ॥३।१।१४४॥ 26+क are गेहे ७१।। कः १।१।। अनु०-ग्रहः, घातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः-ग्रह घातोर्गेहे कर्तरि वाच्ये कः प्रत्ययो भवति ॥ उदा०-गृह्णातीति गृहम् ; गृहा: दाराः।। *धा भाषार्थः-ग्रह धातु से [गेहे] गेह =गृह कर्ता वाच्य होने पर [क:] क प्रत्यय होता है ॥ उदा०-गृहम् (घर); गृहाः दाराः (घर में स्थित स्त्रियाँ)॥ शिल्पनि वुन् ॥३।१।१४५॥ धून शिल्पिनि ७१॥ वन् १॥१॥ अनु०-धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थ:-धातो: वन् प्रत्ययो भवति शिल्पिनि कर्तरि वाच्ये ॥ उदा०-नर्तकः, खनकः, रजकः । नर्तकी, रजकी, खनकी । भाषार्थः–धातु से [शिल्पिनि] शिल्प कर्ता अभिधेय हो, तो [ध्वन] वुन् प्रत्यय होता है । परिशिष्ट १।३।६ में नर्तकी, रजको, खनको की सिद्धि की है, सो उसी प्रकार पुल्लिङ्ग में डोष न होकर नर्तकः, रजकः, खनक: बनेगा। यहाँ से ‘शिल्पिनि’ की अनुवृत्ति ३।१।१४७ तक जायेगी। गस्थकन् ॥३।१।१४६॥ 1+थकन. गः ५॥१॥ यकन ११॥ अनु०-शिल्पिनि, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थ: गायतेर्धातोस्थकन् प्रत्ययो भवति, शिल्पिनि कर्तरि वाच्ये । उदा०-गाथकः, गाथिका ।। ॐ भाषार्थ:- [गः] गै धातु से [थकन्] यकन प्रत्यय होता है, शिल्पी कर्ता वाच्य हो तो ॥ उदा०-गाथकः (गवैया), गाषिका ॥ स्त्रीलिङ्ग में टाप् प्रत्यय होकर, प्रत्ययस्थात् कात्० (७॥३॥४४ ) से इत्व होकर गाथिका बन गया है । ग’ की प्रतवत्ति ३।१।१४७ तक जायेगी ॥ अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [प्रथम: ण्युट् च ॥३।१।१४७॥ २॥+ युट पाए ___ण्युट २१।। च अ० ॥ अनु०-गः, शिल्पिनि, धातो:, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः शिल्पिन्यभिधेये गाघातोयुट् प्रत्ययो भवति ॥ उदा०-गायनः, गायनी ॥ अनः न_भाषार्थः-शिल्पी कर्ता वाच्य हो, तो [च] गा धातु से [ण्युट] ण्युत् प्रत्यय होता है । यहाँ चकार से गा धातु का अनुकर्षण है । ग्युट के टित होने से स्त्री लिङ्ग में टिड्ढाणन्० (४।१।१५) से डीप होकर गायनी (गानेवाली) बना है ॥ यहाँ से ‘ण्युट्’ को अनुवृत्ति ३।१।१४८ तक जायेगी । हीरो हा यूटी हश्च व्रीहिकालयोः ।।३।१।१४८।। हः ५३१।। च अ० ॥ व्रीहिकालयो: ७।२।। स०–व्रीहिश्च कालश्च व्रीहिकालौ, तयोः, इतरेतरयोगद्वन्द्वः । अनु०-युट, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थ:-व्रीहिकाल योरभिधेययोः ‘हः’ धातोण्युट् प्रत्ययो भवति ।। ‘हा’ इत्यनेन सामान्यग्रहणात् ‘योहाङ गतो, अोहाक त्यागे’ इति द्वयोरपि ग्रहणं भवति ॥ उदा०-हायना। हायनः॥ भाषार्थ:-[व्रीहिकालयो:] व्रीहि और काल अभिधेय हों, तो [हः] ‘हा’ धातु से [च] ण्युट् प्रत्यय होता है ।। हा से प्रोहाक तथा प्रोहाङ दोनों घातुओं का ग्रहण है, क्योंकि अनुबन्ध हटा देने पर दोनों का ‘हा’ रूप रह जाता है । चकार से यहाँ ण्युट का अनुकर्षण है ॥ उदा०-हायना (हायना नाम को व्रीहि धान्यविशेष)। हायनः (संवत्सर वर्ष) ॥ प्र.स.ल +तून प्रसृल्वः समभिहारे वुन् ॥३।१।१४६॥ प्रसल्व: ११३, अत्र पञ्चम्या: स्थाने जस् । समभिहारे ७।१॥ वन १५१।। स०-घुश्च स च लू च प्रसृल्वः, इतरेतरयोगद्वन्द्वः ॥ अनु०-घातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ इह सम्यग्विचारेण क्रियाकरणं समभिहारशब्देन गृह्यते ॥ अर्थः-, सू, ल इत्येतेभ्यो धातुभ्यो वन प्रत्ययो भवति समभिहारे गम्यमाने ॥ उदा०-प्रवतीति =प्रवकः । सरतीति सरकः । लुनातीति लवकः ।। भाषार्थ:-[असल्वः] प्र., स, लू इन धातुओं से [समभिहारे] समभिहार गम्यमान होने पर [वुन] वुन् प्रत्यय होता है । यहाँ समभिहार शब्द से ठीक-ठीक कार्य करना अर्थ लिया गया है, न कि क्रिया का बार-बार करना। सो जो अच्छी प्रकार क्रिया न करे, वहाँ प्रत्यय नहीं होगा ।। उदा०-प्रवकः (अच्छे प्रकार चलने वाला)। सरकः (अच्छी प्रकार सरकनेवाला)। लवक:(अच्छी प्रकार काटनेवाला)॥ यहाँ से ‘वन्’ को अनुवृत्ति ३।१।१५० तक जायेगी। पादः] तृतीयोऽध्यायः ३४३ प्राशिषि च ॥३॥१४१५०॥ आशिषि ७।१।। च अ०॥ अनु०-वन, धातो:,प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थ:-प्राशिषि गम्यमाने धातुमात्राद् वुन् प्रत्ययो भवति ॥ चकाराद् वुन्ननुकृष्यते ॥ उदा०-जीवतात् =जीवकः । नन्दतात् = नन्दक: ।। भाषार्थ:-[आशिषि] आशीर्वाद प्रर्थ गम्यमान हो, तो धातुमात्र से [च] बुन प्रत्यय होता है । यहाँ चकार से वुन का अनुकर्षण हैं । उदा०-जीवकः (जो चिरकाल तक जीवे) । नन्दकः (जो प्रसन्न होवे) ॥ सिद्धियां ण्वुल की सिद्धियों (देखो-परिशिष्ट १।१।१) के समान हैं । ॥ इति प्रथमः पादः ॥ नायक जीता द्वितीयः पादः अण कर्मण्यण ॥३॥२॥१॥ कर्मणि ७।१।। अण १३१॥ अनु०-धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थ:-कर्मण्युप पदे धातोरण् प्रत्ययो भवति ॥ उदा०-कुम्भं करोतीति = कुम्भकारः, नगरकारः। काण्डं लुनातीति =काण्डलाव:, शरलावः । वेदमधीते वेदाध्यायः। चर्चा पठतीति= चर्चापाठः॥ भाषार्थ:-[कर्मणि] कर्म उपपद रहते धातुमात्र से [अण] अण् प्रत्यय होता है । उदाहरण में कुम्भ प्रादि कर्म उपपद हैं, सो ‘कृ’ इत्यादि धातुओं से अण प्रत्यय हो गया है । उदा०-कुम्भकारः, नगरकारः । काण्डलाव: (शाखा को काटने वाला), शरलावः । वेदाध्यायः (वेद को पढ़नेवाला)। चर्चापाठः । (पदच्छेद विभक्ति पढनेवाला) । परिशिष्ट १२११३८ के स्वादुङ्कारम के समान ही सब सिद्धियाँ हैं । यहाँ उपपदमतिङ् (२।२।१६) से समास होता है, यही विशेष हैं । वेदान् कर्म उप पद् रहते अधिपूर्वक इङ् धातु से अण् होकर, वृद्धि आयादेश यणादेश होकर वेदा ध्यायः बन गया है ।गामा । यहाँ से ‘कर्मणि’ की अनुवृत्ति ३।२।५८ तक, तथा ‘अण’ की अनुवृत्ति ३।२।२ तक जायेगी। ३४४ अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [द्वितीयः अग हावामश्च ॥३।२२।। हावाम: ५५१॥ च अ० ॥ स.-ह्वाश्च वाश्च माश्च हावामा:, तस्मात्, समाहारो द्वन्द्वः ॥ अनु०-कर्मण्यण, धातो:, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः– स्पर्द्धयां शब्दे च, वेन तन्तुसन्ताने, माङ् माने इत्येतेभ्यश्च धातुभ्य: कर्मण्युपपदे अण प्रत्ययो भवति ॥ उदा०-पुत्रं ह्वयति =पुत्राय: । तन्तुवाय: । धान्य मायः ॥ भाषार्थ:-[ह्वावामः] ह्व, वे, माङ् इन धातुनों से [च] भी कर्म उप पद रहते अण् प्रत्यय होता है ॥ ह्वञ् वेञ् इन धातुओं को प्रात्व करके सूत्र में निर्देश किया है ।। उदा०-पुत्रह्वायः (पुत्र को बुलानेवाला) । तन्तुवायः (जुलाहा) । धान्यमायः (धान मापनेवाला) ॥ प्रातोऽनुपसर्गे कः ( ३।२।३) से क प्रत्यय प्राप्त था, उसका यह अपवाद है । प्रातो युक्चिण्कृतो: (७।३।३३) से पुत्रह्वाय: प्रादि में युक् का प्रागम हा की मातोऽनुपसर्गे कः ॥३२॥३॥ प्रात: ५॥१॥ अनुपसर्गे ७॥१॥ कः १।१।। स०-अनुपसर्गे इत्यत्र बहुव्रीहिः॥ अनु०-कर्मणि, धातो:, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थ:-अनुपसर्गेभ्य आकारान्तेभ्यो धातुभ्यः कर्मण्युपपदे कः प्रत्ययो भवति ॥ उदा०-गां ददातीति= गोदः, कम्बलद: ।पाणि त्रायते =पार्णित्रम्, अङ्गुलित्रम् ॥ भाषार्थः- [अनुपसर्गे] अनुपसर्ग [प्रातः] प्राकारान्त धातुमों से कर्म उप पद रहते [क:] क प्रत्यय होता है। उदा०-गोदः (गौ देनेवाला), कम्बलदः (कम्बल देनेवाला) । पाणित्रम् (मोजा), अङ गलित्रम् (दस्ताना) ॥ दा के प्राकार का लोप आतो लोप इटि च (६।४।६४) से हो गया है । सर्वत्र कुम्भकारः के समान ही सिद्धि जाने । कहाँ से ‘कः’ की अनवृत्ति ३।२७ तक जायेगी। की सुपि स्थः ॥३॥२॥४॥ सुपि ७॥ स्थः ॥१॥ अनु०-कः, घातोः, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थः-सुबन्त उपपदे स्थाधातो: क: प्रत्ययो भवति ॥ उदा०–समे तिष्ठतीति समस्थः, विषमस्थः ।। भाषार्थ:-[सुपि]सुबन्त उपपद रहते [स्थ:] स्था धातु से क प्रत्यय होता है । उदा०-समस्थः (सम में ठहरनेवाला), विषमस्थः (विषम में ठहरनेवाला) ॥ उदाहरण में प्रातो लोप इटि च (६।४।६४) से स्था के आकार का लोप हो जायेगा। विशेषः- यहाँ से माये ‘सुपि तथा ‘कर्मणि’ दोनों पदों की अनुवृत्ति चलती है । पादः] तृतीयोऽध्यायः सो जिन सूत्रों में सकर्मक धातों का सम्बन्ध होगा, वहां कर्मणि की अनुवृत्ति लगानी होगी। तथा जहाँ अकर्मक धातुओं का सम्बन्ध होगा, वहाँ ‘सुपि’ को अनुवृत्ति लगानी होगी । ऐसा सर्वत्र समझे, जैसा कि सूत्रों में सर्वत्र दिखाया भी है ॥ यहाँ से ‘सुपि’ को अनुवृत्ति ३।२।८३ तक जायेगी ।। कि तुन्दशोकयोः परिमृजापनुदोः ॥३॥२॥५॥ तुन्दशोकयो: ७।२।। परिमृजापनुदो: ६।२॥ स०-उभयत्रापि इतरेतरयोग द्वन्द्वः ॥ अनु०-कः, कर्मणि, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थ:-तुन्द शोक इत्येतयो: कर्मणोरुपपदयोः यथासङ्ख्यं परिपूर्वात ‘मृज’ धातो:, अपपूर्वाच्च ‘नुद’ धातो: क: प्रत्ययो भवति ।। उदा० -तुन्दं परिमाष्टि= तुन्दपरिमृज प्रास्ते । शोकम् अपनुदति =शोकापनुदः पुत्रो जातः ।। भाषार्थ:- [तुन्दशोकयोः] तुन्द तथा शोक कर्म उपपद रहते यथासङ ख्य करके [परिमृजापनुदो:] परिपूर्वक मज तथा अपपूर्वक नुद धातु से क प्रत्यय होता है । उदा०-तुन्दपरिमृज प्रास्ते (मालसी बैठता है) । शोकापन्दः पुत्रो जात: (शोक दूर करनेवाला पुत्र उत्पन्न हुआ) ॥ प्रे दाज्ञः ।।३।२।६॥ प्रे ७१।। दाज्ञः ५॥१॥ स०-दाश्च ज्ञाश्च दाज्ञाः, तस्मात, समाहारो द्वन्द्वः ।। अनु०-क:, कर्मणि, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः-प्रपूर्वाभ्यां ददाति जानाति इत्येताभ्यां धातुभ्यां कर्मण्युपपदे क: प्रत्ययो भवति ॥ उदा०-विद्यां प्रददाति = विद्याप्रदः । शास्त्राणि प्रकर्षण जानातीति =शास्त्रप्रज्ञः, पथिप्रज्ञः॥ ।। भाषार्थः-[A] प्रपूर्वक [दाज्ञः] दा तथा ज्ञा धातु से कर्म उपपद रहते क प्रत्यय होता है। उदा० -विद्याप्रदः (विद्या को देनेवाला) । शास्त्रप्रज्ञः (शास्त्रों को जाननेवाला), पथिप्रज्ञः (मार्ग को जाननेवाला)। पूर्ववत् उदाहरणों में दा तथा ज्ञा के आकार का लोप हो जायेगा। समि ख्यः ॥३॥२७॥ । समि ७।१॥ ख्य: ५।१।। अनु०-क:, कर्मणि, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थः सम्पूर्वात ख्याज् धातोः कर्मण्युपपदे कः प्रत्ययो भवति ॥ उदा०-गां सञ्चष्टे= गोसंख्यः, अविसंख्य: ॥ विनयक को मन अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [द्वितीयः अन हरतेरनुद्यम डोट्र भाषार्थ:-कर्म उपपद रहते [समि] सम्पूर्वक [ख्य:] ख्याञ् धातु से क प्रत्यय होता है ।। उदा.–गोसंख्यः (गौत्रों को गिनने वाला), अविसंख्यः (भेड़ों को गिननेवाला) ॥ सिद्धि में प्राकार का लोप पूर्ववत् ही होगा। टकत गापोष्टक् ॥३॥२८॥ गापोः ६।६॥ टक् १२१॥ स०-गाश्च पाश्च गापौ, तयोः, इतरेतरयोगद्वन्द्वः ।। अनु० –कर्मणि, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः-कर्मण्युपपदे गा पा इत्येताभ्यां धातुभ्यां टक प्रत्ययो भवति ॥ उदा०-शक्र गायति =शक्रगः; साम गायति = सामगः । शक्रगी, सामगी। सुरां पिबति =सुरापः, शीधुपः । सुरापी, शीधुपी ॥ भाषार्थ:-कर्म उपपद रहते [गापोः] गा तथा पा धातुओं से [टक] टक् प्रत्यय होता है। उदा०–शक्रगः (इन्द्र अर्थात् ईश्वर का गान करनेवाला); सामगः (साम को गानेवाला) । शक्रगी, सामगी । सुरापः (सुरा को पीनेवाला); शोधुपः (ईख का रस पीनेवाला) । सुरापी, शीधुपी ॥ टक् प्रत्यय के टित होने से स्त्रीलिङ्ग में टिड्ढाणन ० (४११।१५) से डीप हो जायेगा ।। हरतेरनुद्यमनेऽच ।।३।२।६॥ हरते: ५।१।। अनुद्य मने ७१।। अच् १।१।। स०-अनुद्यमन इत्यत्र नजतत्पुरुषः॥ अनु०-कर्मणि, धातोः, प्रत्यय:, परइच ।। अनुद्य मनं =पुरुषार्थेन कार्याऽसम्पादनम् ।। अर्थः-हरतेर्धातोः अनुद्य मनेऽर्थे वर्तमानात् कर्मण्युपपदेऽच प्रत्ययो भवति ।। उदा० भागं हरति= भागहरः, रिक्थहरः, अंशहरः॥ भाषार्थः-[अनुद्यमाने] अनुद्यमन अर्थ में वर्तमान [हरतेः] हुन धातु से कर्म उपपद रहते [अच] अच प्रत्यय होता है ॥ उदा०-भागहरः (अपने हिस्से को ले जानेवाला), रिक्थहरः (धन को ले जानेवाला), अंशहरः (अपना हिस्सा ले जानेवाला)॥ यहाँ से ‘हरते:’ की अनुवृत्ति ३।२।११ तक, तथा ‘अच्’ की अनुवृत्ति ३।२। १५ तक जायेगी। कमी अब वयसि च ॥३।२।१०॥ वयसि ७।१॥ च अ० ॥ अनु०-हरते:, अच, कर्मणि, घातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः-हरतेर्धातोः कर्मण्युपपदे वयसि गम्यमाने अच प्रत्ययो भवति ॥ उदा०-अस्थिहरः’ श्वा, कवचहर: क्षत्रियकुमारः ॥ १. कुत्ते के हड्डी ले जाने से उसकी अवस्था की प्रतीति हो रही है, अर्थात् वह मांस खानेयोग्य हो गया है। ____२. यहां भी क्षत्रिय के कवच धारण करने से उसकी अवस्था की प्रतीति हो रही है, अर्थात वह कबच धारण करने योग्य हो गया है ।। पाद:] तृतीयोऽध्यायः ३४७ भाषार्थ:-[वयसि ] वयस् = अवस्था प्राय गम्यमान हो, तो [च] भी कर्म उपपद रहते हुन धातु से अच् प्रत्यय होता है । उदा०–अस्थिहरः श्वा (हड्डी ले जानेवाला कुत्ता ), कवचहर: क्षत्रियकुमारः ( कवच धारण करनेवाला क्षत्रियकुमार)॥ प्राङि ताच्छील्ये ॥३।२।११॥ आ+म+अव प्राङि ७।१॥ ताच्छील्ये ७१।। अनु०-हरतेः, अच, कर्मणि, धातो:, प्रत्ययः, परश्च ॥ तच्छीलस्य भाव: ताच्छील्यम् =तत्स्वभावता ॥ अर्थ:-ताच्छील्ये गम्य मान प्राङपूर्वाद् हृधातोः कर्मण्युपपदेऽच् प्रत्ययो भवति ॥ उदा० –फलानि पाह रति=फलाहरः, पुष्पाहरः ॥ भाषार्थ:-[आङि] प्राङ पूर्वक हृञ् धातु से कर्म उपपद रहते [ताच्छील्ये] ताच्छोल्य तत्स्वभावता (ऐसा उसका स्वभाव ही है) गम्यमान हो, तो अच् प्रत्यय होता है । उदा०-फलाहरः (फलों को लानेवाला), पुष्पाहरः (पुष्पों को लानेवाला) ॥ जा अर्हः ॥३॥२॥१२॥ अह अच अहः ५॥१॥ अनु०-प्रच, कर्मणि, धातो:, प्रत्यय:, परश्च ॥ अर्थः - ‘अर्ह पूजायाम्’ अस्माद् धातोः कर्मण्युपपदेऽच प्रत्ययो भवति ॥ उदा०-पूजाम् अर्हति= पूजार्हा, गन्धार्हा, मालार्हा, आदरार्हा ॥ _भाषार्थः- [अर्हः] ‘अर्ह पूजायाम्’धातु से कर्म उपपद रहते ‘अच्’ प्रत्यय होता है । उदा०—पूजार्हा (पूजा के योग्य), गन्धार्हा (सुगन्धित द्रव्य प्रयोग करने योग्य), मालार्हा (माला डालने योग्य), आदराही (अादर के योग्य) ॥ स्त्रीलिङ्ग में सर्वत्र ‘टाप्’ प्रत्यय हो गया है । अण् प्रत्यय होता, तो टिड्ढाणा ० (४।१।११५) से ङोप होता, अच् प्रत्यय का यही फल है ॥ का स्तिो + म स्तम्बकर्णयोः रमिजपोः ।।३।२।१३॥ पाप स्तम्बकर्णयोः ७।२।। रमिजपोः ६।२।। स०-उभयत्रेतरेतरयोगद्वन्द्वः ॥ अनु० अच्, सुपि, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः-स्तम्ब कर्ण इत्येतयोः सुबन्तयोरुपपदयो: यथासङ्ख्यं रम जप इत्येताभ्यां धातुभ्यामच प्रत्ययो भवति ।। उदा०-स्तम्बे रमते =स्तम्बेरमः । कर्णे जपति =कर्णजपः॥ १. स्तम्ब घास को कहते हैं। जो घास में घूमने से सुख माने, वह ‘स्तम्बेरम: है । हाथी विशेषतया घूमने पर ही सुखी रहता है, सो हाथी को ही स्तम्बेरमः रूढ़ि रूप से कहते हैं। ३४८ अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्तो [द्वितीयः भाषार्थः- [स्तम्बकर्णयो:] स्तम्ब और कर्ण सुबन्त उपपद रहते [रमिजपो:] रम तथा जप धातुओं से अच् प्रत्यय होता है ।। उदा०-स्तम्बेरमः (हाथी) । कर्णे जपः (जो कान में कुछ कहता रहे, अर्थात् ‘चुगलखोर’) ॥ उदाहरणों में हलदन्ता सप्तम्या: (६।३।७) से सप्तमी विभक्ति का अलुक हो गया है । इस सूत्र में रम धातु अकर्मक है, तथा जप धातु शब्दकर्मक है । अतः कर्ण जप घातु का कम नहीं बन सकता । सो ‘सुपि’ का सम्बन्ध लगाया है ।। राम + अच शमि धातोः संज्ञायाम् ।।३।२।१४॥ शमि ७.१॥ धातोः ॥१॥ संज्ञायाम् ७१।। अत्र शम इत्यव्ययम्, तस्मात प्रातिपदिकानुकरणत्वाद् विभक्तेरुत्पत्ति: । एवम् सर्वत्राव्ययस्थले बोध्यम् ॥ अनु०– अच्. प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थः- शम्यव्यय उपपदे धातुमात्रात संज्ञायाम विषयेऽच् प्रत्ययो भवति ।। उदा०-शम् करोति=शङ्करः, शंभवः, शंवदः ।। भाषार्थः - [शमि] शम् अव्यय के उपपद रहते [धातो:] धातुमात्र से [संज्ञा याम ] संज्ञाविषय में अच् प्रत्यय होता है । उदा०-शङ्करः (कल्याण करनेवाला), शंभवः (कल्याणवाला), शंवदः (कल्याण की बातें करनेवाला) ॥ इस सूत्र में शम् अव्यय है, सो यहां प्रातिपदिक-अनुकरण में सप्तमी विभक्ति हुई है । शी+ अन अधिकरणे शेतेः॥३।२।१५।। अधिकरणे ७१।। शेतेः ५॥१॥ अनु०-अच, सुपि, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थ:-अधिकरणे सुबन्त उपपदे शोधातो: अच् प्रत्ययो भवति ॥ उदा०-खे शेते =खशयः, गर्ते शेते गर्तशयः ॥ प्रश्न भाषार्थ:- [अधिकरणे] अधिकरण सुबन्त उपपद रहते [शेतः] शीङ् धातु से अच् प्रत्यय होता है ।। उदा०-खशयः (आकाश में सोनेवाला=पक्षी), गर्त शयः (गड्ढे में सोनेवाला) ॥ यहाँ से ‘अधिकरणे’ को अनुवृत्ति ३।१।१६ तक जायेगी। चर+ ट चरेष्टः ॥३२॥१६॥ चरेः ५॥१॥ ट: १३१॥ अनु०-अधिकरणे, सुपि, धातोः, प्रत्ययः, परश्च । अर्थ:-चरधातोरधिकरणे सुबन्त उपपदे ट: प्रत्ययो भवति ॥ उदा०-कुरुष चरति =कुरुचरः, मद्रचरः। कुरुचरी, मद्रचरी ॥ भाषार्थ:-अधिकरण सुबन्त उपपद रहते [चरे:]चर धातु से [ट.] ‘ट’ प्रत्यय होता है ।। उदा०-कुरुचरः (कुरु देश में भ्रमण करनेवाला), मद्रचरः (मद्र देश LUT पाद:] तृतीयोऽध्यायः ३४६ में घूमनेवाला) । कुरुचरी, मद्र वरी ॥ ‘ट’ के टित होने से स्त्रीलिङ्ग में टिड्ढा णज० (४।१।१५) से ङीप् होकर कुरुचरी आदि भी बनेगा।” यहाँ से ‘ट:’ को अनुवृत्ति ३।२।२३, तथा ‘चरे:’ को ३।२।१७ तक जायेगी । भिक्षासेनादायेष च ॥३१२११७॥ शासन अादाय +ट भिक्षासेनादायेषु ७॥३॥ च अ० ॥ स०-भिक्षा च सेना च पादाय च भिक्षा सेवादाया:, तेषु, इतरेतरयोगद्वन्द्वः ॥ अनु०-चरेष्टः, सुपि, धातो:, प्रत्या यः,परश्च ।। अर्थः-भिक्षा सेना प्रादाय इत्येतेष शब्देषपपदेष चरधातोः टः प्रत्ययो भवति ॥ उदा० -भिक्षया चरति =भिक्षाचर: । सेनया चरति =सेनाचरः। प्रादाय चरति = आदायचरः । भाषार्थः-[भिक्षासेनादायेष] भिक्षा, सेना, प्रादाय शब्द उपपद रहते [च] भी चर धातु से ट प्रत्यय होता है। ऊपर सूत्र में अधिकरण सुबन्त उपपद रहते ट प्रत्यय किया था । यहाँ सामान्य कोई सुबन्त उपपद रहते कह दिया है । उदा०–भिक्षाचरः (भिक्षा के हेतु से घूमता है) । सेनाचरः (सेना के हेतु से घूमता है)। प्रादायचरः (लेकर घूमता है) ॥ सिद्धियाँ तो सर्वत्र कुम्भकारः के समान ही समझते जायें। केवल अनुबन्ध-विशेष देखकर वृद्धि गुण को प्राप्ति पर ही ध्यान देना है ॥ का विस्तार पुरससकट कि पुरोऽग्रतोऽग्रेषु सतः ॥३।२।१८ गत पुरोऽग्रतोऽग्रेषु ७।३।। सत्तः ५३१।। स०-पुरश्च अग्रतश्च अग्रे च पुरोऽग्रतोऽ ग्रयः, तेषु, इतरेतरयोगद्वन्द्वः । अनु०-टः, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थः-पुरस्, अग्रतस्, अग्रे इत्येतेपूपपदेष सधानो: ट: प्रत्यायो भवति ॥ उदा०-पुरः सरति= पुरस्सरः । अग्रत: सरति = अग्रतस्सर: । अग्रेसर: ॥ भाषार्थ:-[पुरोऽग्रतोऽग्रषु] पुरस, अग्रतस , अग्ने ये अव्यय उपपद रहते [सर्ते:] स धातु से ट प्रत्यय होता है ।। उदा०–पुरस्सरः (आगे चलनेवाला) । अग्रतस्सरः (आगे चलनेवाला) । अग्रेसरः (आगे जानेवाला) ॥ यहाँ से ‘सत्र्तेः’ को अनुवृत्ति ३।२।१६ तक जायेगी। पूर्वे कर्तरि ॥३।२।१६॥ पूव+सट पूर्व ७१॥ कर्तरि ७।१।। अनु० -सर्तेः, ट:, सुपि, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः- कत्तवाचिनि पूर्व सुबन्त उपपदे सृधातो: टः प्रत्ययो भवति ॥ उदा.-पूर्वः सरति पूर्वसरः ॥ ३५० अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [द्वितीय: भाषार्थ:–[कर्तरि ] कर्त्तावाची [पूर्वे ] पूर्व सुबन्त उपपद हो, तो सघातु से ट प्रत्यय होता है । पूर्व शब्द प्रथमान्त कर्त्तावाची है । उदा० - पूर्व सरः (पहला सरकनेवाला) ॥
- ट को हेतुताच्छील्यानुलोम्येषु ॥३।२।२०॥ ___ कृत्रः ५॥१॥ हेतुताच्छील्यानुलोम्येषु ७।३।। स०-हेतुश्च ताच्छील्यञ्च प्रानु लोम्यञ्च हेतुताच्छील्यानुलोम्यानि, तेषु, इतरेतरयोगद्वन्द्वः ॥ अनु० -टः, कर्मणि, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थ:-हेतु: कारणम, ताच्छील्यम् = तत्स्वभावता, प्रानुलोम्यम् = अनुकूलता इत्येतेषु गम्यमानेष कर्मण्युपपदे कृञ्धातोः ‘ट:’ प्रत्ययो भवति ।। उदा०-हेतो-शोककरी अविद्या, यशस्करी विद्या । ताच्छील्ये-धर्म करोति =धर्मकरः, अर्थकरः। आनुलोम्ये -वचनं करोति =वचनकरः पुत्रः, आज्ञाकरः शिष्यः, प्रेषकरः ॥ीही 23 भाषार्थ:-कर्म उपपद रहते [कृञः] कृञ् धातु से [हेतु …..’] हेतु ताच्छीय प्रानुलोम्य गम्यमान हो, तो ट प्रत्यय होता है । टित होने से स्त्रीलिङ्ग में डीप हो जाता है। उदा.–हेतु में शोककरी अविद्या (शोक करनेवाली अविद्या), यशस्करी विद्या (यश देने वाली विद्या) । ताच्छील्य में–धर्मकरः (धर्म करने के स्वभाववाला), अर्थकरः (धन कमाने के स्वभाववाला) । प्रानुलोम्य में -वचनकरः पुत्रः (वचन के अनुकूल कार्य करनेवाला पुत्र), प्राज्ञाकरः शिष्यः (आज्ञाकारी शिष्य) । प्रेषकरः (प्रेरणा के अनुकूल करनेवाला सेवक) । अनि यहाँ से ‘कृ’ को अनुवृत्ति ३।२।२४ तक जायेगी । दिवाविभानिशाप्रभाभास्कारान्तादिबहुनान्दीकिलिपि क+ट लिबिबलिभक्तिकर्त चित्रक्षेत्रसख्याजका बाह्वयत्तद्धनुररुष्प ॥३।२।२१॥ दिवाविभा….. धनुररुष्षु ७।३।। स०-दिवाविभा० इत्यत्रेतरेतरयोगद्वन्द्वः ॥ अन०-कर्मणि, सुपि इति च द्वयमभिसम्बध्यतेऽत्र यथायथम, कृञः, टः, घातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्यः-दिवा, विभा, निशा, प्रभा, भास, कार, अन्त, अनन्त, आदि, बहु, नान्दी, किम्, लिपि, लिबि, बलि, भक्ति, कत्तु , चित्र, क्षेत्र, संख्या, जवा, बाहु, अहन, यत, तत्, धनुस्, अरुस् इत्येतेषु सुबन्तेषु अथवा कर्म सूपपदेषु कृञ् धातो: ट: प्रत्ययो भवति ॥ उदा०—दिवा करोति =दिवाकरः । विभां करोति = विभाकरः । निशां करोति =निशाकरः । प्रभां करोति =प्रभाकरः । भासं करोति = भास्करः। कारकरः। अन्तकर: । अनन्तकर: । प्रादिकरः। बहुकरः। नान्दीकरः। पाद:] तृतीयोऽध्याय: किङ्करः । लिपिकरः। लिबिकरः। बलिकरः। भक्निकरः। कर्तृ कर: । चित्रकरः । क्षेत्रकरः । सङ्ख्या-एककरः, द्विकरः, त्रिकर: । जङ्घाकरः । बाहुकरः । अहस्करः। यत्करः । तत्करः। धनुष्करः । अरुष्करः ।। भाषार्थ:-[दिवावि….. रुष्षु] दिवा, विभा, निशा इत्यादि सुबन्त अथवा कर्म उपपद रहते कृन धातु से ट प्रत्यय होता है ॥ उदा०-दिवाकरः (सूर्य) । विभाकरः (सूर्य)। निशाकरः (चन्द्रमा)। प्रभाकरः (सूर्य)। भास्करः (सूर्य)। कार करः (काम करनेवाला) । अन्तकरः (समाप्त करनेवाला)। अनन्तकर: (अनन्त कार्य करनेवाला) । प्रादिकरः ( प्रारम्भ करनेवाला ) । बहुकरः (बहुत करनेवाला) । नान्दीकरः (मङ्गलाचरण करनेवाला)। किङ्करः (नौकर)। लिपिकरः (प्रतिलिपि करनेवाला)। लिबिकरः (प्रतिलिपि करनेवाला)। बलि करः (बलि देनेवाला)। भक्तिकरः (भक्ति करनेवाला) । कर्तृ करः (कर्ता को बनानेवाला)। चित्रकरः (चित्र बनानेवाला) । क्षेत्रकरः (किसान) । सङ ख्याची -एककरः (एक बनानेवाला), द्विकरः, त्रिकरः । जङ्घाकरः (दौड़नेवाला)। बाहुकरः (पुरुषार्थी) । अहस्करः (सूर्य) । यत्करः (जिसको करनेवाला) । तत्करः (उसको करनेवाला) । धनुष्करः (धनुर्धारी, अथवा धनुष बनानेवाला) । अरुष्करः (घाव बनानेवाला) ॥ अहस्करः में अहन के नकार को रेफ रोऽसुपि (८। २।६६) से होकर, उस रेफ ‘को खरवसानयोवि० (८।३।१५) से विसर्जनीय हो गया है। पुन: उस विसर्जनीय को अतः कृकमि० (८।३।४६) से सत्व होकर अहस्करः बना है । अरुष्कर: में अरुस् के स को षत्व नित्यं समासेऽनु ० (८।३।४५) से होता है । शेष पूर्ववत् ही है ॥ का++7 कर्मणि भृतौ ॥३।२।२२॥ __ कर्मणि ७१॥ भृतौ ७।१॥ अनु०-कृञः, टः, कर्मणि, धातो:, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थः- कर्मवाचिनि कर्मशब्द उपपदे कृअधातोः टप्रत्ययो भवति भृतो गम्यमाना याम् ।। उदा०-कर्म करोतीति=कर्मकरः॥ का भाषार्थ:-कर्मवाची [कर्मणि] कर्म शब्द उपपद रहते कृत्र धातु से ट प्रत्यय होता है, [भृतौ ] भृति (=वेतन) गम्यमान हो तो ॥ सूत्र में ‘कमणि’ शब्द का स्व रूप से ग्रहण है ॥ उदा०—कर्मकरः (नौकर) ॥ प्राचिन ___न शब्दश्लोककलहगाथावरचाटुसूत्रमन्त्रपदेषु ॥३।२।२२॥ न अ० ॥ शब्दश्लोक …… पदेषु ७।३॥ स०-शब्दश्लोक ० इत्यत्रेतरेतरयोग द्वन्द्वः ॥ अनु०-कृञः, टः, कर्मणि, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थ:- शब्द, श्लोक, कलह, गाथा, वैर, चाटु, सूत्र, मन्त्र, पद इत्येतेषु कर्मसूपपदेषु कृञ् धातोष्टः प्रत्ययो है ३५२ अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [द्वितीय: न भवति ।। कृञो हेतु० (३।२।२०) इति टप्रत्ययः प्राप्तः प्रतिषिध्यते । तत प्रौत्सर्गि कोऽण (३।२।१) भवति ॥ उदा०-शब्दं करोति = शब्दकारः । श्लोक करोति= श्लोककारः । कलहकारः । गाथाकार: । वरकारः । चाटुकारः । सूत्रकारः । मन्त्र कार:। पदकार:॥ भाषार्थ:-[शब्द ….. पदेषु ] शब्द श्लोक प्रादि कर्म उपपद रहते कृञ धातु से ट प्रत्यय [न] नहीं होता है। हेत्वादि अर्थों में ‘ट’ प्रत्यय प्राप्त था प्रतिषेध कर दिया। उसके प्रतिषेध हो जाने पर कर्मण्यण से औत्सगिक ‘अण’ हो जाता है ॥ उदा०-शब्दकारः (शब्द बनानेवाला वैयाकरण)। श्लोककारः (श्लोक बनानेवाला)। कलहकारः (झगड़ालू) । गाथाकारः (प्राख्यायिका बनानेवाला) । वरकारः (शत्र ।। चाटुकरः (चापलूस) । सूत्रकारः (सूत्र बनानेवाला)। मन्त्रकारः (मन्त्रद्रष्टा) । पदकारः (पदविभाग करनेवाला) ॥ सतावत + ग स्तम्बशकृतोरिन् ॥३।२।२४॥ स्तम्बशकृतो: ७।२।। इन् १११॥ स० -स्तम्बश्च शकृत च स्तम्बशकृतो, तयोः, इतरेतरयोगद्वन्द्वः ॥ अनु०-कृत्रः, कर्मणि, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थः-स्तम्ब शकृत इत्येतयोः कर्मणोरुपपदगो कृन धातोरिन् प्रत्ययो भवति ॥ उदा-स्तम्बकरिः। शकृत्करिः॥ भाषार्थ:-स्तम्बशकृतोः]स्तम्ब तथा शकृत कर्म उपपद हों, तो कृ धातु से [इन् ] इन् प्रत्यय होता है । व्रीहिवत्सयोरिति वक्तव्यम् (वा० ३।२।२४) इस वात्तिक से व्रीहि और वत्स कहना हो तभी यथाक्रम से इन् प्रत्यय होगा ॥ उदा०–स्तम्ब करिः (धानविशेष) । शकृत्करिः (बछड़ा) ॥ दिया र यहां से ‘इन्’ को अनुवृत्ति ३।२।२७ तक जायेगी ॥ निको इन हरते तिनाथयो: पशौ ॥३।२।२५॥ हरते: ५॥१॥ दृतिनाथयो: ७।२॥ पशौ ७।१॥ अनु० - इन्, कर्मणि, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ।। स०-दृति० इत्यत्रेतरेतरयोगद्वन्द्वः ।। अर्थ:-दृति नाथ इत्येतयोः कर्मणोरुपपदयोहअधातो: पशो कर्तरि इन् प्रत्ययो भवति ॥ उदा०– दृति हरति == दृतिहरि: पशुः । नाथहरि: पशुः ॥ भाषार्थ:–[दृतिनाथयोः] दृति तथा नाय कर्म उपपद रहते [हरते:] हज धातु से [पशौ] पशु कर्ता होने पर इन् प्रत्यय होता है । उदा०-दृतिहरिः पशुः (मशक ले जानेवाला पशु)। नायहरिः पशः (स्वामी को ले जानेवाला पश) ।। पाद:] तृतीयोऽध्यायः म ३५३ फलेग्रहिरात्मम्भरिश्च ॥३।२।२६॥ - फलेग्रहिः १११॥ प्रात्मम्भरि: १।१।। च अ०॥ अनु०-इन्, कर्मणि, धातो:, प्रत्यय:, परश्च ॥ अर्थः-फलेग्नहिः आत्मम्भरिः इत्येतो शब्दो इन प्रत्ययान्ती निपात्येते ॥ फलशब्दस्योपपदस्य कारान्तत्वं ग्रहधातोरिन् प्रत्ययो निपात्यते । फलानि गृह्णाति = फलेग्रहिवृक्ष: । प्रात्मन्शब्दस्योपपदस्य मुमागमो डुभृञ् धातोरिन् प्रत्ययश्च निपात्यते । प्रात्मानं बिभत्ति प्रात्मम्भरिः ॥ भाषार्थ:–[फलेग्रहिः] फलेग्रहि [च] और [प्रात्मम्भरिः] प्रात्मम्भरि शब्द इन प्रत्ययान्त निपातन किये जाते हैं ।। ‘फलेग्रहिः’ में फल शब्द उपपद रहते फल को एकारान्तत्व,तथा ग्रह धातु से इन् प्रत्यय निपातन है । ‘प्रात्मम्भरिः’ में प्रात्मन शब्द उपपद रहते प्रात्मन शब्द को मम पागम, तथा डुभृन धातु से इन प्रत्यय निपातन किया गया है ॥ उदा०-फलेग्रहिवक्षः (फलों को ग्रहण करनेवाला वृक्ष)। प्रात्मम्भरिः (जो अपना भरण-पोषण करता है) ॥ छन्दसि वनसनरक्षिमथाम् ॥३॥२॥२७॥ छन्दसि ७॥१॥ वनसनरक्षिमथाम ६३।। स०-वनसन० इत्यत्रतरेतरयोगद्वन्द्वः ।। अनु० - इन्, कर्मणि, धातो:, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः–वन षण सम्भक्ती, रक्ष पालने, मथे विलोडने इत्येतेभ्यो धातुभ्यः कर्मण्युपपदे छन्दसि विषये इन प्रत्ययो भवति ।। उदा०-ब्रह्मवनि त्वा क्षत्रवनिम् (यजु० १।१७)। गोसनि: (यजु० ८।१२) । यो पथिरक्षी श्वानी (अथर्व ० ८.१६) । हविर्मथीनाम् (ऋक्० ७.१०४।२१) ॥ भाषार्थ:–[छन्दसि] वेदविषय में [वनसनरक्षिमथाम] वन, षण, रक्ष, मथ इन धातुओं से कर्म उपपद रहते इन प्रत्यय होता है ।। धात्वादेः ष: स: (६।१। ६२) से ‘षण’ धातु के ‘ष’ को ‘स’ हो गया है । अब अट कुप्वा० (८।४।२) से जो ष के योग से णत्व हुआ था, वह भी ष के स हो जाने से हट गया,तो सन धातु बन गई । शेष सिद्धि में भी कुछ भी विशेष नहीं है । एजे: खश् ।।३।२।२८ शाला एजेः ५॥१॥ खश १।१॥ अनु०-कर्मणि, धातो:, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थ: ‘एज़ कम्पने’ इत्येतस्माद् ण्यन्ताद धातोः कर्मण्युपपदे खश् प्रत्ययो भवति । उदा० अङ्गमेजयति = अङ्गमेजय:, जनान् एजयति =जनमेजयः, वृक्षमेजयः ।। APPR एजे: खश् ।।३।२।२८ PR5. ३५४ अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [द्वितीयः भाषार्थ:–[एजे:] ‘एज़ कम्पने ण्यन्त पातु से कर्म उपपद रहते [खश] खश प्रत्यय होता है। यहाँ से ‘खश्’ की अनुवृत्ति ३।२।३७ तक जायेगी। सा । खरा नासिकास्तनयोधेिटोः ।।३।२।२६।। नासिकास्तनयोः ७२॥ माघेटो: ६॥२॥ स०-उभयत्रेतरेतरयोगद्वन्द्वः ॥ अनु०-खश, कर्मणि, धातोः, प्रत्यय:, परश्च । अर्थ:-नासिका स्तन इत्येतयो: कर्मणोरुपपदयोः ध्मा घेट इत्येतयोर् धात्वो: खश प्रत्ययो भवति ॥ उदा० नासिकन्धमः । नासिकन्धयः । स्तनन्धयः ॥ भाषार्थ:- [नासिकास्तनयोः] नासिका तथा स्तन कर्म उपपद रहते [ध्मा घेटो:] ध्मा तथा घेट् पातुओं से खश प्रत्यय होता है । यथासङख्य यहाँ इष्ट नहीं है। अतः नासिका उपपद रहते ध्मा तथा घेट दोनों धातुओं से प्रत्यय होगा । पर स्तन उपपद रहते केवल घेट से ही होता है ॥ यहाँ से ‘माघेटो’ को अनुवृत्ति ३।२।३० तक जायेगी। _ नाडीमुष्टयोश्च ॥३॥२॥३०॥ fo नाडीमुष्टयो: ७।२।। च अ० ॥स०-नाडी च मुष्टिश्च नाडीमष्टयो, तयोः, इतरेतरयोगद्वन्द्वः ॥ अनु०-ध्माघेटोः, खश, कर्मणि, धातो:, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थः-ध्मा घेट इत्येताभ्यां धातुभ्यां नाडीमुष्टयो: कर्मणोरुपपदयोः खश् प्रत्ययो भवति ॥ उदा०-नाडिन्धम: । नाडिन्धय: । मुष्टिन्धमः । मुष्टिन्धयः ।। पन भाषार्थ:-[नाडीमुष्टयो:] नाडी और मुष्टि कर्म उपपद रहते [च] भी घ्मा तथा घेट् धातुओं खश से प्रत्यय होता है । यथासङख्य यहां भी इष्ट नहीं है ॥ उदा०–नाडिन्धमः (नाडी को बजानेवाला)। नाडिन्धयः (नाडी को पीने वाला) । मुष्टिन्धमः (मुट्ठी को बजानेवाला)। मुष्टिन्धयः (मुट्ठी को पीनेवाला)। प्रदि ० (६।३।६६) से मुम् का प्रागम, तथा घ्मा को धम प्रादेश सिद्धि में समझे । रना उदि कूले रुजिवहोः ।।३।२॥३१॥ उदि ७१॥ कूले ७१॥ रुजिवहो: ६।२।। स०-रुजि• इत्यत्रेतरेतरयोगद्वन्द्वः ।। अनु०-खश, कर्मणि, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः-उत्पूर्वाभ्यां रुजि वह इत्येताभ्यां धातुभ्यां कूले कर्मण्युपपदे खश प्रत्ययो भवति ॥ उदा.-कूलमुद्र जति = कूलमुद्र जो रथः । कुलमुबहति=कूलमुद्वहः ।। भाषार्थ:-[उदि] उत् पूर्वक [रुजिवहो:] रुज् तथा वह, धातुओं से [कूले] पाद:] तृतीयोऽध्यायः ३५५ कुल कर्म उपपद रहते खश प्रत्यय होता है । उदा०-कूलमुगुजो रथः (किनारों को काटनेवाला रथ)। कूलमद्वहः (किनारे को प्राप्त करानेवाला)॥ (६॥३॥६६ से) मुम् का आगम पूर्ववत् हो ही जायेगा। खश के शित होने से सर्वत्र शप होकर अतो गुणे (६॥ ११६४) से पररूप हो जायेगा । रुज् धातु तुदादिगण को है, सो उससे शप् के स्थान में ‘श’ प्रत्यय होगा ॥ EHAPATRA PH वहाभ्रे लिहः ॥३॥२॥३२॥ वहाभ्रे ७१। लिहः ॥११॥ स०-वहश्च अभ्रश्च वहाभ्रम, तस्मिन्, समाहारो द्वन्द्वः । अनु०-खश्, कर्मणि, धातो:, प्रत्यायः, परश्च ।। अर्थः-वह अभ्र इत्येतयोः कर्मणोरुपपदयो: लिहधातोः खश् प्रत्ययो भवति ।। उदा०-वहं लेढि =वहंलिहो गौः । अभ्र लिहो वायु: ॥ मामि भाषार्थः - [वहाभ्रे] वह तथा अभ्र कर्म उपपद रहते [लिहः] लिह धातु से खश प्रत्यय होता है । उदा०–वहलिहो गौः (कंधे को चाटनेवाला बैल) । अभ्र लिहो वायुः (बादल तक पहुंचने वाला वायु) ॥ पूर्ववत मुम् प्रागम होकर हो सिद्धियां जानें ॥ यो परिमाणे पचः ।।३।२।३३॥ यचास परिमाणे ७।१।। पच: ५॥१॥ अनु०-खश्, कर्मणि, धातो:, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः-परिमाणं प्रस्थादि । परिमाणवाचिनि कर्मण्युपपदे पचधातो: खश प्रत्ययो भवति ॥ उदा०-प्रस्थं पचति प्रस्थंपचा स्थाली। द्रोणम्पचः । खारिम्पच: कटाहः ॥ भाषार्थ:–[परिमाणे] परिमाणवाची कर्म उपपद हो, तो [पच:] पच धातु से खश् प्रत्यय होता है ॥ प्रस्थ द्रोणादि परिमाणवाची शब्द हैं । उदा०–प्रस्थं पचा स्थालो (सेरभर अन्न पका सकनेवाली बटलोई)। द्रोणम्पचः (द्रोणभर पका सकनेवाला बर्तन) । खारिम्पचः कटाहः (खारीभर पका सकनेवाली कड़ाही) ॥ कार यहाँ से ‘पच:’ को अनुवृत्ति ३।२।३४ तक जायेगी। शामित, नरव ५ADA मितनखे च ॥३।२।३४॥ मितनखे ७१॥ च प्र० स० -मितं च नखं च मितनखम, तस्मिन्, समाहारो द्वन्द्वः ।। अनु०-पच:, खश्, कर्मणि, धातो:, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थ: मित नख इत्येतयोः कर्मणोरुपपदयोः पचधातोः खश प्रत्ययो भवति ॥ उदा०-मितं पचति =मितम्पचा ब्राह्मणी । नखम्पचा यवागः ॥ ३५६ अष्ट अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [द्वितीयः भाषार्थ:-[मितनखे] मित और नख कर्म उपपद हों, तो[च] भी पच धातु से खश् प्रत्यय होता है ।। उदा०–मितम्पचा ब्राह्मणी (परिमित अन्न पकानेवाली ब्राह्मणी) । नखम्पचा यवागू: (गरम-गरम गीली लप्सी) । तद + २२ विध्वरुषोस्तुदः ॥३।२।३५॥ MS विध्वरुषोः ७॥२॥ तुद: ॥१॥ स०-विधश्च अरुश्च विध्वरुषी, तयोः, इतरेतरयोगद्वन्द्वः ॥ अनु०-खश, कर्मणि, धातो:, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थः-विध अरुस् इत्येतयोः कर्मणोरुपपदयो: ‘तुद’ धातो: खश् प्रत्ययो भवति ॥ उदा० विधुन्तुदः । अरुन्तुदः ॥ कीpps भाषार्थः- [विध्वरुषो:] विधु और अरुस कर्म उपपद हों, तो [तुद:] तुद धातु से खश प्रत्यय होता है ।। उदा०–विधुन्तुदः (चांद को व्यथित करनेवाला)। अरुन्तुदः (मर्मपीडक) ॥ अरुन्तुद में पूर्ववत् मुम् प्रागम होकर-‘अरु मुम स तुद् श खश् =अरु म स. तुद् प्रअ’ रहा । पुनः संयोगान्तस्य लोपः (८।२।२३) से स का लोप होकर-अरुम् तुद् प्र अ रहा । मोऽनुस्वारः (८।३।२३),तथा वा पदान्तस्य (८। ४१५८) लगकर अरुन्तुद: बन गया ॥ शल 08 असूर्यललाटयो शितपोः ।।३।२।३६॥ असूर्यललाटयोः ७।२॥ दृशितपो: ६।२॥ स० - असूर्यश्च ललाटं च असूर्यललाटे, तयो:, इतरेतरयोगद्वन्द्वः। दृशिश्च तप् च दृशितपौ, तयोः, इतरेतरयोगद्वन्द्वः ।। अनु०-खश, कर्मणि, धातोः, प्रत्यायः, परश्च ॥ अर्थः-असूर्य ललाट इत्येतयोः कर्मणोरुपपदयोः यथासंख्यं दृशि तप इत्येताभ्यां धातुभ्यां खश प्रत्ययो भवति ॥ उदा०-असूर्यम्पश्या राजदारा: । ललाटन्तप आदित्यः॥ T भाषार्थ:–[असूर्यललाटयो:] असूर्य तथा ललाट कर्म उपपद हों, तो यथा सङ ख्य करके [दृशितपोः] दृशिर तथा तप धातुओं से खश प्रत्यय होता है । उदा०-असूर्यम्पश्या राजदारा: (जो सूर्य को भी नहीं देखतीं ऐसी पर्देनशीन राजाओं की स्त्रियाँ) । ललाटन्तपः आदित्यः (माथे को तपा देनेवाला सूर्य) ॥ सिद्धि में खश के शित होने से सार्वधातुक संज्ञा होकर शप् प्रत्यय हुआ, जिस के परे रहते दश को पाघ्राध्मा० (७।३।७८) से पश्य आदेश हो जाता है, शेष पूर्ववत ही है । खश उग्रम्पश्येरम्मदपाणिन्धमाश्च ॥३।२।३७।। उग्रम्पदयेरम्मदपाणिन्धमा: १।३।। च अ० ।। स०-उग्रम्प ० इत्यत्रेतरेतरयोगद्वन्द्वः ।। अन०-खश्, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थ:- उग्रम्पश्य इरम्मद पाणिन्धम इत्येते पादः] जा तृतीयोऽध्यायः शब्दा: खशप्रत्ययान्ता निपात्यन्ते ॥ उदा०-उग्रं पश्यतीति उग्रम्पश्यः । उग्रम्पश्येन सुग्रीवस्तेन भ्रात्रा निराकृतः । इरया माद्यति =इरम्मदः । पाणयो ध्मायन्ते एष्विति पाणिन्धमाः पन्थानः ।। 1. भाषार्थ:-[उग्र….. धमाः] उग्रम्पश्य इरम्मद तथा पाणिन्धम ये शब्द [च] भी खशप्रत्ययान्त निपातन किये जाते हैं ॥ उदा०-उग्रम्पश्यः (घूरकर देखने वाला) । इरम्मदः (मेघ को ज्योति, बिजली) । पाणिन्धमाः पन्थानः (अन्धकारपूर्ण ऐसे रास्ते जहाँ जीव-जन्तुओं से बचने के लिये ताली बजाकर या आवाज करके चला जाता है)। इरम्मदः में श्यन् प्रभाव निपातन से हुआ है । पाणिन्धमः में अधिकरण कारक में करणाधिक० (३।३।११७) से ल्युट प्राप्त था, अतः खश निपातन कर दिया है । शेष (६।३।६६से) मुम् प्रागमादि सिद्धि में पूर्ववत् हैं ॥ PARDAR प्रियवशे वदः खच ॥३।२॥३८॥ प्रियवशे ७१॥ वद: ५॥१॥ खच १११॥ स-प्रियश्च वशश्च प्रियवशम्, तस्मिन, समाहारो द्वन्द्वः ॥ अनु०-कर्मणि, धातोः प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थ:-प्रिय वश इत्येतयो: कर्मोपपदयोंर्वदधातोः खच् प्रत्ययो भवति ॥ उदा०-प्रियं वदति = प्रियंवदः । वशंवदः ॥ भाषार्थ:-[प्रियवशे] प्रिय तथा वश कर्म उपपद हों, तो [वद:] वद धातु से [खच] खच प्रत्यय होता है ॥ सिद्धि परि० १।३।८ में देखें। यहाँ से ‘खच्’ को अनुवृत्ति ३।२।४७ तक जायेगी ॥ स्वच म य द्विषत्परयोस्तापेः।।३।२।३६॥ द्विषत्परयोः ७।२।। तापे: ५।१॥ स०-द्विषंश्च परश्च द्विषत्परौ, तयोः इतरेतरयोगद्वन्द्वः ॥ अनु०-खच, कर्मणि, घातो:, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थः द्विषत् पर इत्येतयोः कर्मणोरुपपदयोः तपो ण्यन्ताद् धातो: खच प्रत्ययो भवति । उदा०-द्विषन्तं तापयति=द्विषन्तपः। परन्तपः ।। भाषार्थ:–[द्विषत्परयो:] द्विषत तथा पर कर्म उपपद हों, तो ण्यन्त [तापेः] तप धातु से खच प्रत्यय होता है ॥ तापेः’ णिजन्त निर्देश है, अतः णिजन्त तप धात से ही खच् प्रत्यय होता है। उदा०-द्विषन्तपः (शत्रुओं को तपाने जलाने वाला)। परन्तपः (दूसरों शत्रुओं को तपानेवाला)। द्विष मुम् त् तप् णिच् खच = ‘द्विष म् त ताप् इ में रहा । खचि ह्रस्व: (६।४।६४) से उपधा का ह्रस्वत्व, जेर निटि (६।४५१) से णि का लोप, तथा संयोगान्तस्य० (८।२।२३) से त, का लोप होकर द्विषन्तपः बन गया है । ३५८ अष्टाध्यायो-प्रथमावृत्ती [द्वितीय: लिए TE वाचि यमो व्रते ॥३॥२॥४०॥ कण वाचि ७१।। यमः ५॥१॥ व्रते ७।१॥ अनु०-खच्, कर्मणि, धातो:, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थः-वाक शब्दे कर्मण्युपपदे यमधातो: व्रते गम्यमाने खच प्रत्ययो भवति ।। उदा०-वाचंयम पास्ते ॥ भाषार्थ:–[वाचि] वाच कर्म उपपद हो, तो [यम:] यम धातु से [व्रते] व्रत गम्यमान होने पर खच प्रत्यय होता है। उदा०–वाचंयम प्रास्ते (वाणी को संयम में करनेवाला व्रती बैठा है) ॥ वाचंयमपुरन्दरो च (६।३।६८) से निपातन से पूर्व पद का अमन्तत्व यहाँ हुआ है, शेष पूर्ववत् है ॥ 4. दार+2018) पू.सर्वयोर्दारिसहोः॥३॥२॥४१॥ सर्व+AE+ पु:सर्वयोः ६।२॥ दारिसहो: ६।२॥ स०-पूश्च सर्वश्च पूःसवी, तयोः, इतरेतरयोग द्वन्द्वः । दारि० इत्यत्रापि इतरेतरयोगद्वन्द्वः ॥ अनु०-खच, कर्मणि, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः-पुर् सर्व इत्येतयो: कर्मोपपदयोः यथासंख्यं दारि सह इत्येताभ्यां धातुभ्यां खच प्रत्ययो भवति ॥ उदा०–पुर दारयति =पुरन्दरः । सर्वसहः ॥ भाषार्थ:-[पू:सर्वयोः]पुर् सर्व ये कर्म उपपद हों, तो [दारिसहोः] ‘द विदा. रणे’ ण्यन्त धातु से तथा सह धातु से यथासंख्य करके खच प्रत्यय होता है ।। उदा० पुरन्दरः (किले को तोड़नेवाला)। सर्वसहः (सब सहन करनेवाला) ॥ वाचंयम पुरन्दरौ च (६।३६८) से पुरन्धरः में पूर्व पद का प्रमन्तत्व निपातन किया है। सर्वसहः में तो अद्विषद० (६।३।६६) से अजन्त मानकर मुम पागम हो ही जायेगा । खचि ह्रस्वः (६४१६४) से उपधा का ह्रस्वत्व, तथा णेरनिटि (६।४। ५१) से णिच् का लोप पुरग्दरः में पूर्ववत हो ही जायेगा। ल खना सर्वकूलाभ्रकरीषेषु कषः ॥३॥२॥४२॥ । सर्वकूलाभ्रकरीषेषु ७।३।। कष: ५॥१॥ स०-सर्व० इत्यत्रेतरेतरयोगद्वन्द्वः ॥ अनु०-खच, कर्मणि, धातोः, प्रत्यय:, परश्च ॥ अर्थ:-सर्व कल अभ्र करीष इत्येतेष कर्म सूपपदेष कषधातो: खच प्रत्ययो भवति ॥ उदा.-सर्व कषति = सर्वकष: खलः । कूलंकषा नदी । मभ्र कषो गिरिः । करीषकषा वात्या ॥ न भाषार्थ:-[सर्वकलाभ्रकरीषषु] सर्व, कूल, अभ्र, करीष ये कर्म उपपद रहते [कष:] कष धातु से खच् प्रत्यय होता है । उदा.-सर्वकषः खलः (सब को पीड़ा देनेवाला दुष्ट) । कूलंकषा नबी (किनारे को तोड़नेवाली नदी) । अभ्रकषो गिरिः (गगनचुम्बी पर्वत)। करीषंकषा वात्या (सूखे गोबर को भी उड़ा ले जाने वाली आंधी) ॥ पादः] तृतीयोऽध्यायः मेत्तिभयेष काः॥३२॥४३॥ M+रव। मेत्तिभयेषु ७॥३॥ कृन५।१।। स०-मेघश्च ऋतिश्च भयञ्च मेघत्ति भयानि, तेषु, इतरेतरयोगद्वन्द्वः ॥ अनु०- खच, कर्मणि, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थ:-मेघ ऋति भय इत्येतेषु कर्म सूपपदेषु कृञ धातोः खच् प्रत्ययो भवति॥ उदा०–मेधं करोति =मेघंकरः । ऋतिकरः। भयंकरः॥ भाषार्थ:- [मेघत्ति भयेषु] मेघ ऋति भय ये कर्म उपपद हों, तो [कृत्रः] कृन धातु से खच् प्रत्यय होता है । उदा०-मेघंकरः (बादल बनानेवाला) । ऋतिकरः (स्पर्धा करनेवाला) । भयंकरः (भीषण) । यहाँ से ‘कृञः’ को अनुवृत्ति ३।२।४४ तक जायेगी । की । अ सम क्षेमप्रियमद्रेऽण् च ॥३॥२॥४४॥ । क्षेमप्रियमद्र ७।१॥ अण ११॥ च अ०॥ स०-क्षेमश्च प्रियश्च मद्रश्च क्षेमप्रियमद्रम्, तस्मिन्, समाहारो द्वन्द्वः ।। अनु०-कृत्रः,खच्, कर्मणि,घातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थ:-क्षेम प्रिय मद्र इत्येतेषु कर्म सूपपदेषु कृत्र धातो: अण् प्रत्ययो भवति चकारात खच च ।। उदा०-क्षेमं करोति-क्षेमकारः, क्षेमंकरः। प्रियकार:, प्रियं करः । मद्रकारः, मद्रकरः॥ भाषार्थः-[क्षेमप्रियमद्र] क्षेम प्रिय मद्र ये कर्म उपपद रहते कृञ् धातु से [अण] अण् प्रत्यय होता है, तथा [च] चकार से खच् भी होता है ।। उदा० क्षेमकारः (कुशलता करनेवाला), क्षेभंकरः । प्रियकार: (प्रिय करनेवाला), प्रियं करः । मद्रकारः (भला करनेवाला), मद्रंकरः ।। अण पक्ष में वृद्धि, तथा खच पक्ष में मुम् प्रागम होकर पूर्ववत ही सिद्धि जानें ॥ र प्राशिते भुवः करणभावयोः ।।३।२।४५॥ आशिते ७१।। भुवः ५॥१॥ करणभावयोः ७१२॥ स०-करण० इत्यत्रतरेतर गोगद्वन्द्वः ॥ अनु०-खच, सुपि, धातो:, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थ:–प्राशिते सुबन्त उपपदे भूधातो: करणे भावे चार्थे खच् प्रत्ययो भवति ॥ कर्तरि कृत् (३।४१६७) इत्यनेन कर्तरि प्राप्ते करणे भावे च विधीयते ॥ उदा. पाशित: तृप्तो भवत्य नेन =ाशितंभवः प्रोदनः । भावे-प्राशितस्य भवनम् = आशितंभवं वर्त्तते ॥ भाषार्थ:- [प्राशिते] आशित सुबन्त उपपद हो, तो [भुव: भू धातु से [करण भावयो:]करण और भाव में खच् प्रत्यय होता हैं । कर्तरि कृत् (३।४।६७) से कर्ता में ही खच प्रत्यय प्राप्त था, अतः करण और भाव में विधान कर दिया है । भि+ खच ALL AND ३६० अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [द्वितीय: उदा०–प्राशितंभवः प्रोदनः (जिसके द्वारा तृप्त हुना जाता है ऐसा चावल)। भाव में प्राशितं भवं वर्तते (तृप्त होना हो रहा है) ॥ बचा संज्ञायां भृतवृजिधारिसहितपिवमः ॥३।२।४६॥ जिस संज्ञायाम् ७॥१॥ भृतवृजिधारिसहितपिदम: ५॥१॥ स०-भृ च त च वश्च जिश्च धारिश्च सहिश्च तपिश्च दम् च मृत, दम् तस्मात, समाहारो द्वन्द्वः ।। अन० खच, कर्मणि, धातो:, प्रत्यय:, परश्च ।। अर्थ:-कर्मणि सुबन्ते वोपपदे भृ, त, वृ, जि, धारि, सहि, तपि, दम् इत्येतेभ्यो धातुभ्यः खच् प्रत्ययो भवति संज्ञायां विषये ।। उदा.-विश्वं बित्ति=विश्वम्भरः परमेश्वरः । रथेन तरति = रथन्तरं साम । पति वणुते =पतिवरा कन्या । शत्र जयति =शत्रजयः । युगं धारयति युगन्धरः। शत्रु सहते =शत्रु सहः । शत्रु तपति = शत्रुतपः । अरि दाम्यति = अरिंदमः ॥ भाषार्थः- [संज्ञायाम् ] संज्ञा गम्यमान हो, तो कर्म अथवा सुबन्त उपपद रहते [भृत …… दमः] भृ, त, वृ, जि, पारि, सहि, तपि, दम् इन धातुओं से खच प्रत्यय होता है ॥ उदा०-विश्वम्भरः परमेश्वरः (विश्व का भरण करनेवाला परमेश्वर)। रथन्तरं साम (सामगान विशेष] । पतिवरा कन्या (पति का वरण करनेवाली कन्या) । शत्रुञ्जयः (हाथी) । युगन्धरः (पर्वत) । शत्रु सहः (शत्रु को सहन करने वाला)। शत्रुतप (शत्रु को तपानेवाला) । अरिंदमः (शत्रु का दमन करनेवाला)॥ सिद्धयां पूर्ववत् हैं । कर्मणि तथा सुपि दोनों को अनुवृति होने से यथासम्भव कर्म वा सुबन्त उपपद होने पर प्रत्यय उत्पन्न होता है । रथन्तर सामविषेष को संज्ञा है, यहाँ अवयवार्थ सम्भव नहीं है ।’ ‘रथेन तरति’ यह व्युत्पत्तिमात्र दिखाई गई है । ध धातु का ण्यन्त से निर्देश किया है, अतः ण्यन्त से ही प्रत्यय होगा। खचि ह्रस्वः (६।४।६४ से इगुपयाहस्वत्व, तथा णेरनिटि (१४५१) से णिच का लोप हो जायेगा। दम धातु अन्तर्भावितण्यर्थ होने से सकर्मक हो गई है ॥ यहाँ से ‘संज्ञायाम’ की अनुवृत्ति ३।२।४७ तक जायेगी । च गमश्च ॥३॥२॥४७॥ गमः ५।१।। च अ. ॥ अनु०-संज्ञायाम, खच्, सुपि, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः-संज्ञायाँ गम्यमानायां कर्मण्युपपदे गम धातो: खच प्रत्ययो भवति । उदा०-सुतं गच्छति =सुतङ्गमः॥ भाषार्थ:-संज्ञा गम्यमान होने पर कर्म उपपद रहते [गमः] गम धातु से [च] भी खच् प्रत्यय होता है । उदा०-सुतङ्गमः (यह किसी व्यक्ति विशेष का नाम है)। यहां से ‘गम:’ की अनुवृत्ति ३।२।४८ तक जायेगी॥या नारा म पादः ] तृतीयोऽध्यायः वजार र ३६१ अन्तात्यन्ताध्वदूरपारसर्वानन्तेषु डः ॥३।२।४८|| ADH अन्तात्यन्ताध्वदूरपारसर्वानन्तेषु ७।३॥ड: १।१।। स०-अन्तश्च प्रत्यन्तं च अध्वा च दूरं च पारश्च सर्वश्च अनन्तश्च अन्ता…ताः, तेषु, इतरेतरयोगद्वन्द्वः ।। अनु० गमः, कर्मणि, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थ:-अन्त, अत्यन्त, अध्व, दूर, पार, सर्व, अनन्त इत्येतेषु कर्मसूपपदेषु गमधातोर्ड: प्रत्ययो भवति ॥ उदा०-अन्तं गच्छति = अन्तगः । अत्यन्तगः। अध्वगः । दूरगः । पारगः । सर्वगः । अनन्तगः ॥ भाषार्थ:- [अन्ता……] अन्त, प्रत्यन्त, अध्व, दूर, पार, सर्व, अनन्त कम उपपद रहते गम धातु से [ड:] ड प्रत्यय होता है । उदा०-अन्तगः (अन्त को प्राप्त होनेवाला) । अत्यन्तगः (अत्यन्त जानेवाला) । प्रध्वगः (रास्ते में चलने वाला) । दूरगः (दूर जानेवाला) । पारगः (पार जानेवाला)। सर्वगः (सब को प्राप्त होनेवाला)। अनन्तगः (अनन्त को प्राप्त होनेवाला) || ‘ड’ प्रत्यय के डित होने से डित्यभस्याप्यनुबन्धकरणसामर्थ्यात् (वा० ६।४।१४३) इस भाष्य-वार्तिक से गम पातु के टि भाग (गम् के अम्) का लोप हो जायेगा, शेष सिद्धि में कुछ भी विशेष नहीं है। यहाँ से ‘ड:’ की अनुवृत्ति ३।२।५० तक जायेगी ॥ आशिषि हनः ॥३।२४६॥हन र आशिषि ७१॥ हन: ५।१॥ अनु०-डः, कर्मणि, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः-आशिषि गम्यमानायां कर्मण्युपपदे हनधातोर्डः प्रत्ययो भवति ।। उदा० शत्रुन् वध्यात् =शत्रुहस्ते पुत्रो भूयात् । दुःखहस्त्वं भूया: ॥ sh भाषार्थ:-[आशिषि] आशीर्वचन गम्यमान होने पर [हन:] हन धातु से कर्म उपपद रहते ड प्रत्यय होता है । उदा०-शत्रून वध्यात् =शत्रुहस्ते पुत्रो भूयात् (तेरा पुत्र शत्रु को मारनेवाला हो) । दुःखहस्त्वं भूयाः (तुम दुःख को नष्ट करने वाले बनो)। यहाँ डित होने से पूर्ववत् हन धातु के टि भाग का लोप हो जायेगा । यहाँ से ‘हन:’ की अनुवृत्ति ३।२१५५ तक जायेगी ॥ (की अपे क्लेशतमसोः ॥३॥२॥५०॥ अपे ७११॥ क्लेशतमसो: ७२॥ स०-क्लेशश्च तमश्च क्लेशतमसी, तयोः, इतरेतरयोगद्वन्द्वः ॥ अनु०-हनः, ड:, कर्मणि, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ पर्यः ४६ ३६२ अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [द्वितीयः क्लेश तमस् इत्येतयोः कर्मोपपदयो: अपपूर्वाद हनधातोर्ड: प्रत्ययो भवति ॥ उदा. क्लेशापहः पुत्रः । तमोपहः सूर्यः॥ भाषार्थ:-[क्लेशतमसो:] क्लेश तथा तमस कर्म उपपद रहते [अपे] अप पूर्वक हन धातु से ड प्रत्यय होता है ॥ उदा०-क्लेशापहः पुत्रः (क्लेश को दूर करनेवाला पुत्र) । तमोपहः सूर्यः ।। यहाँ भी पूर्ववत् टि का लोप समझे। तमस के ‘स’ को ससजुषो रु: (८।२।६६) से रु होकर तमर बना । पुनः अतो रोर० (६। १।१०६) से र् को ‘उ’ होकर, प्राद्गुणः (६।१।८४) से गुण एकादेश होकर-‘तमो अपहः’ बना, एङ: पदान्ता० (६।१।१०५) से अपहः के प्रकार का पूर्वरूप एकादेश होकर तमोपहः बन गया है । शेष सिद्धि पूर्ववत् ही है ॥ जान कुमारशीर्षयोणिनिः ।।३।२।५१॥ को कुमारशीर्षयो: ७।२।। णिनिः १११॥ स०-कुमारश्च शीर्ष च कुमारशीर्षे, तयोः,इतरेतरयोगद्वन्द्वः । अनु० –हन:, कर्मणि, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः कुमार शीर्ष इत्येतयोः कर्मोपपदयोः हनधातो: णिनिः प्रत्ययो भवति ॥ उदा० कुमारघाती। शीर्षघाती ॥ स भाषार्थ:- [कुमार शीर्षयो:] कुमार तथा शीर्ष कर्म उपपद हों,तो हन धातु से [णिनिः] णिनि प्रत्यय होता है । यहाँ निपातन से शिरस् को शीर्ष भाव हो गया है। एक लक्षणे जायापत्योष्टक् ॥३॥२॥५२॥ लक्षणे ७१॥ जायापत्योः ७१२॥ टक १।१।। स०-जाया च पतिश्च जाया पती, तयोः, इतरेतरयोगद्वन्द्वः ॥ अनु०-हन:, कर्मणि, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ।। लक्षणमस्यास्तीति लक्षण:,तस्मिन् लक्षणे, अर्शप्रादिभ्योऽच (५।२।१२७) इत्यनेन मतुबर्थेऽच् प्रत्ययः ।। अर्थः-जाया पति इत्येतयोः कर्मोपपदयोः ‘हन्’ धातो: लक्षणवति कर्तरि वाच्ये टक प्रत्ययो भवति ।। उदा०-जायाघ्नो वृषलः । पतिघ्नी वृषली॥ भाषार्थः- [जायापत्योः] जाया तथा पति कर्म उपपद हों, तो [लक्षणे] लक्षणवान कर्ता अभिधेय होने पर हन धातु से [टक] टक प्रत्यय होता है। उदा०-जायाध्नो वृषलः (स्त्री को मारने के लक्षणवाला नीच पुरुष)। पतिघ्नी वृषली (पति को मारने के लक्षणवाली नीच स्त्री) ॥ उदाहरणों में गमहनजन० (६।४।६८) से हन धातु की उपधा का लोप होकर, ‘ह’ को हो हन्तेणिन्नेषु (७३। ५४) से ‘घ’ होने पर पति घन अ’ बना । टित होने से स्त्रीलिङ्ग में टिडढाणञ्० (४।१।१५) से डोप होकर पतिघ्नी बना है ॥ पाद:] तृतीयोऽध्यायः यहाँ से ‘टक’ की अनुवृत्ति ३।२१५४ तक जायेगी माय अमनुष्यकर्तृ के च ॥३२॥५३॥ Chi अमनुष्यकत्तू के ७।१॥ च अ० ॥ स०-न मनुष्योऽमनुष्यः,नञ्तत्पुरुषः । अमनुष्यः कर्ता यस्य सोऽमनुष्यकर्तृकः, तस्मिन्, बहुव्रीहिः ॥ अनु०-टक्, हन:, कर्मणि, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्यः-मनुष्यभिन्नकर्तु के वर्तमानाद हन धातो: कर्मण्युपपदे टक् प्रत्ययो भवति ।। उदा०–श्लेष्मघ्नं मधु ; पित्तघ्नं घृतम् ।। भाषार्थ:-[प्रमनुष्यकत्तू के मनुष्य से भिन्न कर्ता है जिसका, उस हन धातु से [च] भी कर्म उपपद रहते टक् प्रत्यय होता है । उदा०-श्लेष्मघ्नं मधु (कफ को नष्ट करनेवाला मबु); पित्तघ्नं घुतम् । (पित्त को मारनेवाला घो) ॥ पूर्व वत् ही सिद्धि समझे ॥ शक्तौ हस्तिकपाटयोः ॥३॥२॥५४॥ टक _ शक्तौ ७।१॥ हस्तिकपाटयोः ७२॥ स०-हस्ती च कपाटं च हस्तिकपाटे, तयोः, इतरेतरयोगद्वन्द्वः ।। अनु-टक्, हनः, कर्मणि, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः हस्ति कपाट इत्येतयोः कर्मोपपदयोर् हन्धातो: टक प्रत्ययो भवति शक्तो गम्यमाना याम् ।। उदा०-हस्तिनं हन्तु शक्नोति हस्तिघ्नो मनुष्य: । कपाटं हन्तुं शक्नोति = कपाटघ्नश्चौरः ।। भाषार्थ:–[हस्तिकपाटयो:] हस्ति तथा कपाट कर्म उपपद रहते [शक्तौ] शक्ति गम्यमान हो,तो हन धातु से टक् प्रत्यय होता है । पूर्व सूत्र में अमनुष्य कर्ता अभिधेय होने पर प्रत्यय विधान था, यहाँ मनुष्य कर्ता अभिधेय होने पर भी प्रत्यय हो जाये इसलिये यह सूत्र है ॥ उदा०–हस्तिघ्नो मनुष्यः (हाथी को मार सकने वाला मनुष्य) । कपाटघ्नश्चौरः (किवाड़ तोड़ने में समर्थ चोर)॥). समय पाणिघताडघौ शिल्पिनि ।।३।२।५५॥ कामाएर पाणिघताडघो ११२॥ शिल्पिनि ७।१।। स०-पाणि० इत्यत्रेतरेतरयोगद्वन्द्वः ।। अनु०-हन:, कर्मणि, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थ:-पाणि ताड इत्येतयोः कर्मणो रुपपदयोः हन्धातो: क: प्रत्ययः, तस्मिश्च परतो हन्धातोष्टिलोपो घत्वं च निपात्यते, शिल्पिनि कर्तरि वाच्ये ॥ उदा०-पाणिघः । ताडघः ।। भाषार्थः- [पाणिघताडघौ] पाणिघ ताडघ शब्दों में पाणि तथा ताउ कर्म उपपद रहते हन धातु से क प्रत्यय, तथा हन धातु के टि अर्थात अन् भाग का लोप, एवं ‘ह’ को ‘घ’ निपातन किया जाता है, [शिल्पिनि] शिल्पि कर्ता वाच्य हो तो ।। उदा०-पाणिघः (मृदङ्ग बजानेवाला) । ताडघः (शिल्पी) ॥ ३६४ नयन अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [द्वितीयः प्राढ्यसुभगस्थूलपलितनग्नान्धप्रियेषु च्व्यर्थेष्वच्छौ । कृत्रः करणे ख्युन् ॥३॥२॥५६॥ कुमा आढधसुभग …… प्रियेषु ७।३।। च्व्यर्थेषु ७।३।। अच्चौ ७.१॥ कृञः ॥१॥ करणे ७१॥ ख्युन् १११॥ स०-पाढयश्च सुभगश्च स्थलश्च पलितश्च नग्नश्च अन्धश्च प्रियश्च पाढयसुभग …. प्रियाः, तेषः, इतरेतरयोगद्वन्द्वः । च्वे: अर्थ: च्व्यर्थः, षष्ठीतत्पुरुषः । व्यर्थ इव अर्थो येषां ते च्व्यर्थाः, तेषु, बहुव्रीहिः । न च्विः अच्चि:, तस्मिन्, नञ्तत्पुरुषः ॥ अनु०-कर्मणि, घातो:, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः-पाढय, सुभग, स्थूल, पलित, नग्न, अन्ध, प्रिय इत्येतेषु कर्म सूपपदेषु व्यर्थेष्वच्व्यन्तेषु करणे कारके कृधातो: ख्युन् प्रत्ययो भवति ॥ अभूततद्भावश्च्व्यर्थः ॥ उदा०-अनाढयम् प्राढ्यं कुर्वन्त्यनेन = पाढय करणम् । सुभगंकरणम् । स्थूलंकरणम् । पलितंकरणम् । नग्नकरणम् । अन्धकरणम् । प्रियंकरणम् ॥ में भाषार्थ:-[पाढय… .. प्रियेष] पाढय सुभगादि [च्व्यर्थेषु] च्व्यर्थ में वर्त्त मान, किन्तु [अच्वौ] विप्रत्ययान्त न हों, ऐसे कर्म उपपद रहते [कृत्रः] कृञ् धातु से [करणे] करण कारक में [ख्युन् ] ख्युन प्रत्यय होता है । च्चि का अथ प्रभूततद्भाव (जो नहीं था वह होना) है । सो यहाँ सर्वत्र अभूततद्भाव होने से कृभ्वस्तियोगे० (५१४१५० ) से वि प्रत्यय प्राप्त था। अतः यहाँ कह दिया कि च्च्यर्थ =अभूततभाव अर्थ तो हो, पर च्वि प्रत्यय न पाया हो, तब ख्युन प्रत्यय हो । उदा०–अाढय करणम् (जो धनवान नहीं उसको धनवान बनाया जाता है जिसके द्वारा) । सुभगंकरणम् (जो कल्याणयुक्त नहीं उसको कल्याणयुक्त बनाया जाता है जिसके द्वारा) । स्थूलंकरणम् (जो स्थूल नहीं उसको स्थूल बनाया जाता है जिसके द्वारा) । पलितंकरणम् (जो बूढ़ा नहीं उसको बूढ़ा बनाया जाता है जिसके द्वारा) । नग्नकरणम् (जो नग्न नहीं उसको नग्न बनाया जाता है जिसके द्वारा)। अन्य करणम् (जो अन्धा नहीं उसको अन्धा बनाया जाता है जिसके द्वारा) । प्रियंकरणम् (जो प्रिय नहीं उसको प्रिय बनाया जाता है जिसके द्वारा) ॥ सिद्धि में मुम् का प्रागम (६.३।६६) ही विशेष है ॥ - यहाँ से ‘पाढयसुभगस्थूलपलितनग्नान्धप्रियेषु च्व्यर्थेष्वच्चो” की अनुवृत्ति ३।२। ५७ तक जायेगी। नाम कर्तरि भुवः खिष्णुच्छुकत्रौ ॥३।२।५७॥ खका कत्तरि ७॥१॥ भुव: ५॥१॥ खिष्णुच्खुको १।२॥ स०-खिष्णुच्० इत्येवेतरेतर योगद्वन्द्वः ॥ अन०-पाढयसुभगस्थूलपलितनग्नान्धप्रियेषु च्व्यर्थेष्वच्वी, सुपि, धातो:, पाद:] तृतीयोऽध्यायः ३६५ BHIMR प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थ:-व्यर्थेष्वच्च्यन्तेष आढाचादिषु सुबन्तेषूपपदेष भूधातो: कर्त्तरि कारके खिष्णुच्खुकत्रो प्रत्ययौ भवत: ।। उदा० -अनाढय पाढयो भवति =पाढय भविष्णु:, पाढ्य भावुकः । सुभगंभविष्णुः, सुभगंभावुकः । स्थूलभविष्णु:,स्थूलभावुकः। पलितं भविष्णुः, पलितंभावकः । नग्नं भविष्णुः, नग्नं भावकः । अन्धंभविष्णुः, अन्धं. भावुकः । प्रियं भविष्णुः, प्रियंभावकः ॥ भाषार्थ:-व्यर्थ में वर्तमान अव्यन्त आढयादि सुबन्त उपपद हों, तो [कर्तरि] कर्ता कारक में [भुव:] भू धातु से [खिष्णच्खुको] खिष्णुच तथा खका प्रत्यय होते हैं । कर्तरि कृत (३।४।६७) से सभी कृत् कर्त्ता में ही होते हैं । पुनः यहाँ ‘कर्तरि’ ग्रहण पूर्व सूत्र में जो ‘करणे’ कहा है, उसकी अनुवृत्ति प्रा कर यहाँ भी करण में न होने लग जाये, इसलिए विस्पष्टार्थ है ॥ खित होने से सर्वत्र मुम पागम, तथा खु कञ् के जित् होने से भू धातु को वृद्धि हो जाती है। खिष्णुच परे रहते गुण ही होता है । ‘पाढय भविष्णु:’ का अर्थ “जो प्राढय नहीं वह प्राढ्य होता है"ऐसा है । इसी प्रकार औरों में भी जानें ॥ स्पृशोऽनुदके क्विन् ॥३।२।५८ । क्वन स्पृशः ५।१।। अनुदके ७।१।। क्विन् १।१॥ स०-अनुदक इत्यत्र नञ्तत्पुरुषः॥ अन० - सुपि, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः- अनुदके सुबन्त उपषदे स्पृश धातो: क्विन् प्रत्ययो भवति ॥ उदा-मन्त्रेण स्पृशति == मन्त्रस्पृक् । जलेन स्पृशति = जलस्पृक । घृतं स्पृशति ==घृतस्पृक् ।।
- भाषार्थ:- [अनुदके ] उदक-भिन्न सुबन्त उपपद हो, तो [स्पृश:] स्पृश् धातु से [क्विन् ] क्विन प्रत्यय होता है । क्विन में इकार उच्चारणार्थ है ॥ उदा०-मन्त्र स्पक (मन्त्र बोलकर स्पर्श करनेवाला)। जलस्पक (जल के द्वारा स्पर्श करनेवाला)। घृतस्पक (घो को छूनेवाला)॥ अनुबन्ध हटाकर क्विन का ‘व’ रहता है । उस वकार का भी वेरपृक्तस्य ( ६।१।६५) से लोप हो जाता है । हल्ङ याब्भ्यो ० (६।१।६६) से सु का लोप हो हो जायेगा । क्विन्प्रत्ययस्य कुः ( ८।२।६२) से स्पृश् के श को कुत्व हो कर आन्तरतम्य से खकार होता है । झलां जशो० (८।२।३६) से गकार, तथा वावसाने (८।४।५५) से ककार होता है | यहाँ से ‘क्विन्’ की अनुवृत्ति ३।२।६० तक जायेगी। ऋत्विग्दधृस्रग्दिगुष्णिगञ्चुयुजिक्रुञ्चां च ।।३।२।५६।। - ऋत्विग - ऋञ्चाम् ६।३।। च अ० ॥ स.-ऋत्विग० इत्यत्रेतरेतरयोगद्वन्द्वः ।। अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [द्वितीय: अनु०-क्विन्, सुपि, धातो:, प्रत्यय:, परश्च ।। अर्थः-ऋत्विक, दधक, स्रक, दिक, उष्णिक इत्येते पञ्चशब्दा: क्विन् प्रत्ययान्ता: निपात्यन्ते। अञ्चु युजि क्रुञ्च धातुभ्यश्च क्विन् प्रत्ययो भवति ।। ऋतुशब्द उपपदे यजते: क्विन निपात्यते, ऋतौ यजति, ऋतु वा यजति, ऋतुप्रयुक्तो वा यजति = ऋत्विक् । घर्षः क्विन् प्रत्यय:,द्विवचनमन्तोदात्तत्वं च निपात्यते=दधक । सज धातोः कर्मणि कारके क्विन् प्रत्ययोऽमागमश्च निपात्यते । ‘सृ अम् ज् क्विन्’ यणादेशं कृत्वा, सृजन्ति यां सा= स्रक् । दिशेः कर्मणि क्विन् निपात्यते । दिशन्ति यां सा=दिक् । उत्पूर्वांत स्निहबातो; क्विन, उपसर्गान्त्यलोप: षत्वञ्च निपात्यते । अत्र णत्वं तु रषाभ्यां० (८।४।१) इत्यनेन भवति =उष्णिक् । अञ्चु युजि क्रञ्च इत्येतेभ्य: क्विन् भवति =प्राङ्, प्रत्यङ्, उदङ । युनक्तीति =युङ युजौ, युञ्जः । ऋङ्, कुञ्चौ, क्रुञ्चः ॥ ___भाषार्थ:-[ऋत्विग्द ऋञ्चाम् ] ऋत्विक, दधक, सक्, दिक्, उष्णिक ये पांच शब्द क्विन प्रत्ययान्त निपातन किये जाते हैं, [च] तथा अञ्च युजि कुञ्च धातुओं से भी क्विन् प्रत्यय होता है ।। ऋत्विक शब्द में -ऋतु शब्द उपपद रहते यज धातु से क्विन प्रत्यय निपातन से हुआ है । पीछे वचिस्वपियजादीनां किति(६॥१॥ १५) से ‘य’ को सम्प्रसारण होकर ‘ऋतु इज्’ बना, और यणादेश होकर ऋत्विज् बना । पुनः सु विभक्ति परे रहते ‘क्विन्प्रत्ययस्य कुः (८।२।६२) से ‘ज्’ को ‘ग्’, और वाऽवसाने (८।४।५५) से ग को क होकर ऋत्विक बना है । दधृक (शत्रु को परास्त करनेवाला)-यहाँ घुष घातु से क्विन , तथा घृष को द्वित्व और अन्तोदा त्तत्व निपातन से किया है। द्वित्व करके अभ्यासकार्य उरत् (७१४६६) आदि हो जायेगा। स्त्रक् (माला)-यहां सृज धातु से कर्म कारक में क्विन् प्रत्यय, तथा अम् प्रागम निपातन किया है। मिदचोन्त्या० (१।१।४६ ) से अम् प्रागम अन्त्य अच् से परे होकर ‘सृ अम् ज् क्विन’ बना । यगादेश तथा क्विन का सर्वापहारी लोप होकर ‘स्रज’ बना । पूर्ववत् क्विन्प्रत्ययस्य कुः और वाऽवसाने लगकर स्रक बना है । दिक (दिशा)-यहाँ दिश धातु से कर्म कारक में क्विन् प्रत्यय निपातन है । पूर्ववत् ही कु त्वादि यहाँ भी जानें । उष्णिक (छन्दविशेष)-यहाँ उत पूर्वक स्निह धातु से क्विन प्रत्यय उपसर्ग के अन्तिम वर्ण का लोप,तथा षत्व निपातन किया जाता है । षत्व किये पोछे रषाभ्यां० (८।४।१) से णत्व भी हो जायेगा। यहां भी क्विन्प्र० (८।२।६२) से हकार के स्थान में अन्तरतम धकार हुआ, तथा पूर्ववत् जश्त्व एवं चत्व होकर ककार हुआ । अञ्चु युज ऋञ्च् पातुओं से भी क्विन प्रत्यय इस सूत्र स कहा है, सो उनको सिद्धियाँ परिशिष्ट में ही देखें ॥ त्यदादिषु दशोऽनालोचने कञ्च ॥३२॥६॥ त्यदादिषु ॥३॥ दशः ५॥१॥ अनालोचने ७१।। कञ् ॥१॥ च प० ।। स० पादः]] तृतीयोऽध्यायः प्याज का पवन त्यद् आदियेषां ते त्यदादयः, तेषु, बहुव्रीहिःः। न आलोचनम् अनालोचनं, तस्मिन , नजतत्पुरुषः ।। अनु–क्विन, सुपि, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः-त्यदादिषु सुबन्तेषुपपदेष्वनालोचनेऽर्थे वर्तमानाद दशधातो: कब प्रत्ययो भवति, चकारात् क्विन् च ।। उदा०–त्यादृक, त्यादृशः । तादृक्ः, तादृश: । यादृक, यादृशः॥ me भाषार्थ:- [त्यदादिषु] त्यदादि शब्द उपपद रहते [अनालोचने] अनालोचन =न देखना अर्थ में वर्तमान [दृशः] दृश् धातु से [कञ्] कञ् प्रत्यय होता है, [च] तथा चकार से क्विन भी होता है ॥ उदा० -त्यादृक् (उस जैसा), त्यादृशः । तादृक् (वैसा), तादृशः । यावृक् (जैसा), यादृशः ।। आ सर्वनाम्नः (६।३।८६) से दश परे रहते त्यद् इत्यादि सर्वनाम शब्दों के अन्त्य (१।११५१) अल को प्रात्व हो गया है । क्विन् पक्ष में क्विन्प्रत्ययस्य कुः (८।२।६२) से कुत्वादि होकर त्यादृक बना । कञ् पक्ष में त्यादृश कञ्=त्यादृश अत्यादृशः बन गया है ।। भा सत्सूद्विषद्रुहदुहयुजविदभिदच्छिदजिनीराजामुप उहाल सर्गेऽपि क्विप ॥३१ व रिप सत्सूद्विष राजाम् ६॥३॥ उपसर्गे ७॥१॥ अपि अ० ॥ क्विप ११॥ स०-सत्सू० इत्येत्रेतरेतरयोगद्वन्द्वः ॥ अनु०-सुपि, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थ:- सद्, सू, द्विष, द्रुह, दुह, युज, विद, भिद, छिद, जि, णीज, राज़ इत्येतेभ्य: सोपसर्गभ्यो निरुपसर्गभ्योऽपि धातुभ्यः सुबन्त उपपदे क्विप् प्रत्ययो भवति ।। ‘धूङ, प्राणिगर्भ विमोचने’ इति प्रादादिकस्यात्र ग्रहण, न तु सुवतेस्तौदादिकस्य । ‘युजिर योगे, युज समाधौ’ द्वयोरपि ग्रहणम्, एवं विद ज्ञाने,विद सत्तायाम्, विद विचारणे’ त्रयाणां ग्रह णम, न तु विद्लु लाभे इत्यस्य ।। उदा०-सद् वेद्यां सीदति = वेदिषत, शुचि पत, अन्तरिक्षे सीदति = अन्तरिक्षसत् । प्रसत् । सू-वत्सं सूते = वत्ससूः गौः, अण्डसूः, शतमूः । प्रसूः । द्विष-मित्रं द्वेष्टि =मित्रद्विट। प्रद्विट् । द्रह-मित्रध्र क् । प्रध्र क् । दुह – गोधुक । प्रधुक । युज-अश्वयुक् । प्रयुक । विद-वेदान् वेत्ति = वेद वित, ब्रह्म वेत् । प्रवित् । भिद्-काष्ठं भिनत्ति = काष्ठभित् । प्रभित् । छिद्– रज्जुच्छिद् । प्रच्छिद् । जि-शत्रून जयति = शत्रुजित् । प्रजित् । णी-सेनां नयति= सेनानीः, अग्रगी:, ग्रामणीः। प्रणी: । राज–विश्वं राजयति =विश्वराट् । विराट, सम्राट् ॥ FEpiका भाषार्थः- [सत्सू राजाम् ] सद्, सू, द्विष इत्यादि धातुओं से [उपसर्गे] सोपसर्ग हों तो [अपि ] भी तथा निरुपसर्ग हों तो भी सुबन्त उपपद रहते [क्विप] क्विप् प्रत्यय होता है || Tase यहाँ से ‘उपसर्गेऽपि’ को अनुवृत्ति ३।२६७७ तक जायेगी ॥ (12133 ) अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [द्वितीय: -मि भजो ण्विः ॥३।२।६२॥ भजः ५॥१॥ ण्विः १११॥ अनु०–उपसर्गेऽपि, सुपि, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थः–भजधातो: सुबन्त उपपदे उपसर्गेप्यनुपसर्गेऽप्युपपदे ण्वि: प्रत्ययो भवति ॥ उदा०–अधू भजते = अर्घभाक् । प्रभाक् ॥ हि भाषार्थ:-[भजः]भज धातु से सुबन्त उपपद रहते सोपसर्ग हो या निरुपसर्ग, तो भी [ण्विः] वि प्रत्यय होता है ।। प्रर्षभाक् की सिद्धि परि० १।२।४१ में देखें। यहाँ से ‘ण्विः’ की अनुवृत्ति ३।२।६४ तक जायेगी ।-PAPPAL छन्दसि सहः ॥३।२।६३।। काम छन्दसि ७शा सहः ५३॥ अनु०–ण्विः, सुपि, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थ:–छन्दसि विषये सुबन्त उपपदे सह धातोण्विः प्रत्ययो भवति ॥ उदा०-तुरा पाट (ऋक० ३।४८।४) ॥ भाषार्थ:-[छन्दसि] वेदविषय में सुबन्त उपपद रहते [सहः] सह पातु से ण्वि प्रत्यय होता है । सिद्धि में अन्येषामपि० (६।३।१३५) से तुर को दीर्घ होकर तुरा बना । सहेः साडः सः (८।३।५६) से सह के ‘स’ को षत्व होता है। हो ढः (८।२।३१) से ‘ह’ को ‘ढ’, झलां जशोऽन्ते (८।२।३६) से ढ़ को ड, तथा वावसाने (८४१५५) से चवं होकर, तुराबाट बना है, शेष पूर्ववत है। यहां से ‘छन्दसि’ को अनुवृत्ति ३।२।६७ तक जायेगी। भावशाली वहश्च ।।३।२।६४।। वहः ।।। च अ० ॥ अनु०–छन्दसि, ण्विः, सुपि, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थ:-वेदविषये सुबन्त उपपदे वह धातोण्विः प्रत्ययो भवति ॥ उदा०-प्रष्ठं वहति = प्रष्ठवाट । दित्यवाट (यजु० १४१०)। भाषार्थः- [वहः] वह धातु से [च] भी वेदविषय में सुबन्त उपपद रहते ण्वि प्रत्यय होता हैं । यहाँ से ‘वहः’ की अनुवृत्ति ३।२।६६ तक जायेगी। न्यूटनम कव्यपुरीषपुरीष्येषु ज्युट ।।३।२।६५। [1 कव्यपुरीषपुरीष्येषु ७॥३॥ ञ्युट् १।१।। स०-कव्य० इत्यत्रेतरेतरयोगद्वन्द्वः ॥ अन०-वहः, छन्दसि, सुपि,धातोः, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थ:-कव्य,पुरीष,पुरीष्य इत्येतेष सुबन्तेषूपपदेषु छन्दसि विषये वहघातोञ्यु ट् प्रत्ययो भवति ॥ उदा०-कव्यवाहनः (यजुः १६६५) । पुरीषवाहनः । पुरीष्यवाहनः॥ पादः ] a तृतीयोऽध्यायः ३६६ भाषार्थः- [कव्यपुरीषपुरीव्येषु ] कव्य, पुरीष, पुरीष्य ये सुबन्त उपपद हों, तो वेदविषय में वह धातु से [ञ्युट] ज्युट प्रत्यय होता है ।। अकार अनुबन्ध वृद्धि के लिये है । युवोरनाको (७।१।१ ) से य को ‘मन’ हो गया है । यहाँ से ‘ब्युट’ की अनुवृत्ति ३।२।६६ तक जायेगी ॥ नक्स हव्येऽनन्तःपादम् ।।३।२।६६॥ हव्ये ७११॥ अनन्तःपादम १०१।। स०-अन्त: मध्ये पादस्येति अन्तःपादम, अव्ययं विभक्ति० (२।११६) इत्यनेन अव्ययीभावसमास: । न अन्तःपादम अनन्त: पादम्, नतत्पुरुषः । अनु०-वहः, छन्दसि, ञ्युट, सुपि, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थः-हव्यसुबन्त उपपदे छन्दसि विषयेऽनन्त:पादं वर्तमानात् वहधातोञ्युट प्रत्ययो भवति ॥ उदा०–दूतश्च हव्यवाहन: (ऋक ० ६।१६।२३) ॥ भाषार्थ:-[हव्ये ] हव्य सुबन्त उपपद रहते वेदविषय में वह धातु से ज्युट प्रत्यय होता है, यदि ‘वह’ धातु [अनन्तःपादम्] पाद के अन्तर अर्थात् मध्य में वर्तमान न हो तो । यहाँ पाद शब्द से ऋचा का पाद अभिप्रेत है । उदाहरण में वह धातु ऋचा के पाद के अन्त में है, मध्य में नहीं । सो युट् प्रत्यय हो गया है । पाद के मध्य में ‘वह’ धातु होती हैं, तो वहश्च (६।२०६४) से ण्वि प्रत्यय ही होता है । . जनसनखनक्रमगमो विट् ॥३।२।६७॥ विट जनसनखनक्रमगम: ५।१।। विट १०१।। स०-जनश्च सनश्च खनश्च क्रमश्च गम च जन “गम्, तस्मात्, समाहारो द्वन्द्वः ॥ अनु०-छन्दसि, सुपि, घातोः, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थ:-जन, सन, खन, क्रम, गम इत्येतेभ्यो धातुभ्य: सुबन्त उपपदे छन्दसि विषये विट्प्रत्ययो भवति ॥ जन जनने, जनी प्रादुर्भावे द्वयोरपि ग्रहणम, एवं षण दाने षण सम्भक्तौ द्वयोरपि ग्रहणम् ॥ उदा.–अप्सु जायते =अब्जाः; उपस्थाय प्रथम जामृतस्यात्मनात्मानमभि संविवेश (यजु० ३२।११); गोष जायते =गोजा: । सन गा (इन्द्रियाणि) सनोति =गोषाः; इन्द्रो नृषा प्रसि; जून सनोतीति नृपाः । खन विसखा:, कूपखाः । क्रम:-दधिक्रा: (ऋक्० ४।३८।६)। गम–प्रनेगा: (यजु० २७।३१) । भाषार्थ:-[जनसनखनक्रमगम:]जन, सन, खन, क्रम, गम इन धातुओं से सबन्त उपपद रहते वेदविषय में [विट] विट् प्रत्यय होता है ॥ विड्वनोरनु० (६।४।४१) से अनुनासिक नकार मकार को प्रात्व सर्वत्र हो जाता है । विट् प्रत्यय के छ
- अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [द्वितीयः का भी वेरपृक्तस्य ( ६।१।६५) लगकर सर्वापहारी लोप हो जाता है । ‘अप् ज पा सु’ यहाँ झलां जशोऽन्ते (८।२।३६) से ‘प’ को ‘ब’ होकर, तथा सवर्ण दीर्घ होकर पूर्ववत् अब्जाः बना है। प्रथमजाम् द्वितीयान्त पद है । सनोतेरन: (८।३।१०८) से गोषाः में सन धातु को षत्व हो गया है, शेष सब पूर्ववत् ही समझे ॥ ___यहाँ से ‘विट्’ की अनुवृत्ति ३।२।६६ तक जायेगी। अंद+वट प्रदोऽनन्ने ॥३।२।६८॥ अद: ५।१।। अनन्ने ७१।। स०-न अन्नम् अनन्नम्, तस्मिन, नञ्तत्पुरुषः ।। अनु० -विट, सुपि, धातो:, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थ:-अद घातोरनग्ने सुबन्त उपपदे विट् प्रत्ययो भवति ।। उदा०-प्रामम् अत्ति प्रामात् । सस्यम् अत्ति =सस्यात् ॥ ___भाषार्थ:-[अनन्ने] अनन्न सुबन्त उपपद रहते [अद:] अव धातु से विट् प्रत्यय होता है ।। उदा०-प्रामात् (कच्चा खानेवाला) । सस्यात् (पौधे को खाने वाला)॥ ___ यहाँ से ‘अद:’ को अनुवृत्ति ३।२।६६ तक जायेगी। S क्रव्ये च ॥३।२६ अदभवान क्रव्ये ७१।। च अ०॥ अनु०-प्रदः, विट, सुपि, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थ:-क्रव्ये सुबन्त उपपदे अदधातोविट् प्रत्ययो भवति ॥ उदा०-क्रव्यम् अत्ति = ऋव्यात् ।। भाषार्थ:–[क्रव्ये] क्रव्य सुबन्त उपपद रहते [च] भी पद धातु से विट प्रत्यय होता है। उदा०-क्रव्यात् (मांस खानेवाला, राक्षस) ॥ दह + काला दुहः कब् घश्च ॥३।२।७०।। दुह: ५॥१॥ कप् १।१।। घः १११॥ च अ० ॥अनु०-सुपि, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः-दुहेर्धातो: सुबन्त उपपदे कप् प्रत्ययो भवति धकारश्चान्तादेशो भवति ।। उदा० –कामदुघा घेनु: । धर्मदुघा ॥ भाषार्थ:-[दुहः] वुह धातु से सुबन्त उपपद रहते [कप्] कप् प्रत्यय होता है, [च] तथा अन्त्य हकार को (११११५१) [घ:] घकारावेश होता है । उदा० कामदुधा धेनुः (इच्छा पूर्ण करनेवाली गौ)। धर्मदुघा (धर्म को ग्रहण करने वाली) ॥ स्त्रीलिङ्ग में टाप् (४।१।४) हो गया है।” विन मन्त्रे श्वेतवहोक्थशस्पुरोडाशो ण्विन् ।।३।२।७१॥ मन्त्रे ७।१॥ श्वेतवहो डाशः ५।१। ण्विन १।१।। स०-श्वेतवाश्च उक्थ पादः) तृतीयोऽध्यायः ३७१ शाश्च पुरोडाश्च श्वेत “डाश, तस्मात, समाहारो द्वन्द्वः ॥ अनु०-सुपि, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थः-श्वेतवह, उक्थशस्, पुरोडाश इत्येते शब्दा: ण्विन प्रत्ययान्ता निपात्यन्ते मन्त्रे =वैदिके प्रयोगे । श्वेतशब्दे कर्तृवाचिन्युपपदे वहेर्धातोः कर्मणि कारके ण्विन् प्रत्ययो भवति । श्वेता एनं वहन्ति = श्वेतवा इन्द्रः । उक्थशस् – इत्यत्र उक्थशब्दे कर्मणि करणे वा कारके उपपदे शंसुधातोण्विन् प्रत्ययो भवति नलोपश्च निपात्यते । उक्थानि शंसति, उक्तथैर्वा शंसति = उक्थशा: । पुरोडाश् – इत्यत्र पुरा पूर्वस्य ‘दाश् दाने’ धातोः कर्मणि ण्विन् प्रत्ययो धातोरादेः दकारस्य च डत्वं निपात्यते । पुरो दाशन्त एनम् = पुरोडा: ॥ भाषार्थ:-[मन्त्र] वैविक प्रयोग विषय में [श्वेत ‘श:] श्वेतवह उक्थशस् पुरोडा ये शब्द [ण्विन् ] ण्विन् प्रत्ययान्त निपातन किये जाते हैं । कर्तृवाची श्वेत शब्द उपपद रहते वह धातु से कर्मकारक में ण्विन प्रत्यय श्वेतवह शब्द में हुआ है। पीछे श्वेतवहादीनां डस् पदस्य च (भा० वा० ३।२।७१) इस महाभाष्य वातिक से ण्विन के स्थान में डस् आदेश होकर श्वेतवह उस रहा । डित्यभस्यापि टेर्लोपः इस वात्तिक से टि भाग का लोप होकर ‘श्वेतव अस=श्वेतवस् सु’ रहा । प्रत्वसन्तस्य चाधातो:(६।४।१४)से दीर्घ होकर श्वेतवास स रहा । हल्याब्भ्यो० (६।१।६६)से सु का लोप, एवं रुत्व विसर्जनीय होकर श्वेतवाः बना । उक्थशस् शब्द में कर्म या करण वाची उक्य शब्द उपपद हो, तो शंसु धातु से ण्विन् प्रत्यय होता है, तथा शंसु के नकार का लोप भी यहां निपातन से ही होता है । शेष सिद्धि डस् प्रादेश होकर पूर्ववत हो जाने । पुरोडाश शब्द में भी पुरस् उपपद रहते वाश धातु से कर्मकारक में ण्विन प्रत्यय, तथा धातु के प्रादि वकार को डत्व निपातन है । शेष सिद्धि डस् प्रादेश होकर पूर्ववत् यहां से ‘मन्त्रे ण्विन’ को अनवत्ति ३।२।७२ तक जायेगी। प्रवे यजः ॥३॥२॥७२॥ यावंन अवे ७११॥ यजः ५॥१॥ अनु०-मन्त्रे, विन्, धातो:, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः -अव उपपदे यजघातोमन्त्रविषये ण्विन् प्रत्ययो भवति ॥ उदा०–त्वं यज्ञे वरुणस्यावया असि ॥ भाषार्थ:-[अवे] अव उपपद रहते [यजः] यज पातु से ण्विन प्रत्यय होता है मन्त्रविषय में । ण्विन को डस मावेश होकर पूर्ववत हो सूत्र लगकर सिद्धि जाने । यहाँ से ‘यज:’ को अनुवृत्ति ३।२।७३ तक जायेगी। ३७२ अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [द्वितीयः 34+ धज +विच विजुपे छन्दसि ॥३॥२॥७३॥ विच् ११॥ उपे ७१॥ छन्दसि ७१॥ अनु०-यजः, धातो:, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः-उप उपपदे यजधातोः छन्दसि विषये विच प्रत्ययो भवति ॥ उदा० उपयड्भीरूवं वहन्ति । उपयड्भ्यः (श० ३।८।३।१८) ।। का भाषार्थ:-[उपे]उप उपपद रहते यज धातु से [छन्दसि ] वेदविषय में [विच] विच प्रत्यय होता है । विच् का सर्वापहारी लोप हो जाता है। व्रश्चभ्रस्ज (८।२।३६) से यज् के ज को , तथा झलां जशोऽन्ते (८।२।३६) से को ड् हो गया है । यहाँ से ‘छन्दसि’ को अनुवृत्ति ३।२१७४ तक, तथा ‘विच्’ को अनवृत्ति ३।२०७५ तक जायेगी ॥ भनिन मय प्रातो मनिन्क्वनिब्वनिपश्च ॥३।२।७४।। । क्वनिप प्रातः ५॥१॥ मनिनक्वनिब्वनिपः ११३।। च अ० ।। स०–मनिन् ० इत्यत्रेतरे तरयोगद्वन्द्वः ॥ अनु०-छन्दसि, विच्, सुपि, धातो:, प्रत्ययः परश्च ॥ अर्थः– आकारान्तेभ्यो धातुभ्यः सुबन्त उपपदे छन्दसि विषये मनिन क्वनिप् वनिप चकारात् विच विच् च प्रत्यया भवन्ति ।। उदा०-शोभनं ददातीति = सुदामा, सुधामा। क्वनिप -सुधीवा, सुपीवा । वनिप-भूरिदावा, घृतपावा। विच-कीलालं पिबति = कीलालपाः, शुभंया: ॥ भाषार्थ:- [प्रात:] आकारान्त धातुओं से सुबन्त उपपद रहते वेदविषय में [मनि " - पः] मनिन क्वनिप् वनिप, [च] तथा विच् प्रत्यय होते हैं ।। उदा०-सुदामा (अच्छा देनेवाला), सुधामा (अच्छा धारण करनेवाला)। क्वनिप् – सुधीवा, सुपीवा (अच्छा पान करनेवाला) । वनिप-भूरिदावा (बहुत देने वाला), घृतपावा (घृत पीनेवाला) । विच्–कोलालपाः (खून पीनेवाला=राक्षस)। शुभंया: (कल्याण को प्राप्त होनेवाला)। सुदामन् सु बनकर सर्वनामस्थाने० (६।४।८) से दीर्घ, तथा नलोपः० (८।२१७) से नकारलोप, हल्ङयाब्भ्यो . (६॥१॥६६) से सु लोपादि सब होकर सुदामा बनेगा । इसी प्रकार सब में समझे। सुधीवा सुपीवा में क्वनिप के कित होने से घुमास्थागा० (६।४।६६) से ईत्व हो गया है । कोलालपाः प्रादि में विच् का पूर्ववत् सर्वापहारी लोप होकर ‘सु’ को रुत्व विसर्जनीय हो गया है ।। । यहाँ से ‘मनिनक्वनिब्वनिप’ की अनुवृत्ति ३।२।७५ तक जायेगी । पनिन क्वनि वनि अन्येभ्योऽपि दृश्यन्ते ॥३।२।७५।। __ अन्येभ्य: ५१३॥ अपि अ० ॥ दृश्यन्ते क्रियापदम ॥ अनु०-मनिनक्वनिब्वनिपः, बिच विच, धातो:, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थ:- अन्येभ्योऽपि धातुभ्यो मनिन क्वनिप् पादः] ही तृतीयोऽध्यायः वनिप् विच् इत्येते प्रत्यया: दृश्यन्ते ॥ उदा०–सुशर्मा । क्वनिप्-प्रातरित्वा । वनिप् –विजावा, प्रजावा, अग्रेगावा । विच-रेडसि पणं नयेः ।। शिया कल भाषार्थः- [अन्येभ्य:] प्राकारान्त धातुओं से जो अन्य धातुएँ उनसे [अपि] भी मनिन , क्वनिप, वनिप् तथा विच ये प्रत्यय [दृश्यन्ते] देखे जाते हैं । पूर्व सूत्र से आकारान्त धातुओं से ही ये प्रत्यय प्राप्त थे, यहाँ अन्यों से भी देखे जाते हैं, ऐसा कह दिया । ‘दृश्यन्ते’ इस क्रियापद से यहां यह जाना जाता है कि प्राचीन शिष्ट ऋषि मुनिकृत ग्रन्थों में यदि उक्त प्रत्ययान्त शब्द दीखें, तो उन्हें साधु अर्थात् शुद्ध समझना || क्विप् च ॥३॥२७६।। क्वेिप __क्विप् ११॥ च अ० ॥ अनु०-धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः-सर्वेभ्यो धातुभ्य: सोपपदेभ्यो निरुपपदेभ्यश्च क्विप् प्रत्ययो भवति ॥ उदा०-उखायाः स्रसते = उखास्रत् । पर्णध्वत् । वाहाद् भ्रश्यति=वाहाभ्रट्, अन्येषामपि० (६।३।१३६) इति दीर्घः॥ __ भाषार्थः-सब धातुओं से सोपपद हों चाहे निरुपपद [क्विप्] क्विप् प्रत्यय [च] भी होता है। यहाँ से ‘क्विप्’ को अनुवृत्ति ३।२।७७ तक जायेगी । स्थः क च ॥३॥२७७॥ या+क, क्वेप स्थ: ५।१॥ क लुप्तप्रथमान्तनिर्देशः ।। च अ० ॥ अनु०-क्विप, सुपि, उप सर्गेऽपि, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थ:-सुपि उपपदे स्थाधातो: सोपसर्गात् निरुप सर्गाच्च कः प्रत्यायो भवति, चकारात् क्विप् च ॥ उदा०- शंस्थः, शंस्थाः ॥ भाषार्थ:-सुबन्त उपपद रहते सोपसर्ग या निरुपसर्ग [स्थ:]स्था धातु से [क] क [च] तथा क्विप् प्रत्यय होता है । शम् अव्यय उपपद रहते स्था धातु से क प्रत्यय करने पर प्रातो लोप० (६।४।६४) से आकार का लोप होकर शस्थः (कल्याणवाला) बना। क्विप् पक्ष में-शंस्था, बनेगा AP (VE सुप्यजातो णिनिस्ताच्छील्ये ॥३॥२१७८।। सुपि ७॥१॥ अजातो ७:१॥ णिनिः ११॥ ताच्छील्ये ७१।। स०-न जाति रजातिः, तस्याम्, नतत्पुरुषः । तत् शीलं यस्य तत तच्छीलं, बहुव्रीहिः । तच्छीलस्य भाव: ताच्छील्यं, तस्मिन् ॥ अनु०-धातोः, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थ:-अजातिवाचिनि सुबन्त उपपदे ताच्छील्ये गम्यमाने धातुमात्रात् णिनिः प्रत्यायो भवति ॥ उदा० उष्णं भोक्तु शीलमस्य =उष्णभोजी । शीत भोजी । प्रियवादी । धर्मोपदेशी ॥ १ णिनि अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती ३७४ अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [द्वितीयः 9 भाषार्थः-[प्रजाती] प्रजातिवाची [सुपि] सुबन्त उपपद हो, तो [ताच्छी ल्ये] ताच्छील्य =ऐसा उसका स्वभाव है, गम्यमान होने पर सब धातुओं से णिनि प्रत्यय होता है । उदा०- उष्णभोजी (गरम-गरम खाने के स्वभाववाला)। शीत भोजी । प्रियवादी (जिसका स्वभाव ही प्रिय बोलने का हो)। धर्मोपदेशी (धर्म का उपदेश करने का जिसका स्वभाव हो) ॥ णिनि में णित्करण वृद्धि के लिये है। उष्ण भुज णिनि =उष्ण भुज् इन सु, ऐसी अवस्था में गुण, तथा सौ च ( ६।४.१३) से दीर्घ होकर ‘उष्णभोजीन सु’ बन गया। शेष नकारलोप, तथा हल्ङयादि लोप पूर्व के समान ही होकर उष्णभोजी बन गया। इसी प्रकार सब में समझे। यहाँ से “णिनिः’ की अनुवृत्ति ३।२।८६ तक जायेगी। गिनिका कर्त्तयुपमाने ॥३॥२॥७९॥RSipat कर्तरि ७१॥ उपमाने ७१॥ अन-णिनि:, घातोः, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थः–उपमानवाचिनि कर्तयुपपदे धातुमात्रात णिनिः प्रत्ययो भवति ॥ उदा० उष्ट्र इव क्रोशति =उष्ट्रकोशी, ध्वाङ्क्ष इव रौति =ध्वाङ्क्षरावी ।। भाषार्थ:-[उपमाने] उपमानवाची [कर्त्तरि] कर्ता उपपद हो, तो धातु मात्र से णिनि प्रत्यय होता है । उदा०-उष्ट्रकोशी (ऊंट के समान आवाज करने वाला), ध्वाक्षरावी (कौवे के समान आवाज करनेवाला) ॥ उदाहरणों में उष्ट्र इत्यादि उपमानवाची कर्ता उपपद हैं । सो क्रुश आदि धातुओं से णिनि प्रत्यय हो गया है । व्रते ।।३।२।८०॥ व्रते ७।१॥ अनु०-सुपि, णिनिः, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः-व्रते गम्यमाने सुबन्त उपपदे घातुमात्रात् णिनि प्रत्ययो भवति ॥ उदा.– स्थण्डिले शयितु व्रतमस्य =स्थण्डिलशायी, अश्राद्धभोजी ॥ भाषार्थ:-[व्रते] व्रत गम्यमान हो, तो सुबन्त उपपद रहते धातु से णिनि प्रत्यय होता है ॥ उदा०–स्थण्डिलशायी (चबूतरे पर सोने का व्रत जिसका है); प्रश्राद्धभोजी (श्राद्ध को न खाने का व्रत जिसका है) ॥ अचो णिति (७।२।११५) से शीङ धातु को वृद्धि तथा प्रायादेश हुआ है, शेष सिद्धि पूर्ववत् है ॥ बहुलमाभीक्ष्ण्ये ॥३।२।८१॥ बहुलम् १२१॥ आभीक्ष्ण्ये ७३१॥ अनु- सुपि, णिनि:, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः—ाभीक्ष्ण्यं =पोन:पुन्यं, तस्मिन् गम्यमाने धातोर्बहुलं णिनि प्रत्ययो णिम पाद: तृतीयोऽध्यायः भवति ।। उदा०–कषायपायिणो गान्धाराः । क्षीरपायिण उशीनराः। सौवीरपायिणो बाह लीका: । बहुलग्रहणात् ‘कुल्माषखादः’ अत्र णिनिर्न भवति ॥ भाषार्थः-[भाभीक्ष्ण्ये] भाभीक्ष्ण्य अर्थात् पौनःपुन्य गम्यमान हो, तो धातु से [बहुलम् ] बहुल करके णिनि प्रत्यय होता है । उदा० कषायपायिणो गान्धारा: (बार-बार एक विशेष रस को पीनेवाले गान्धार) । क्षीरपायिण उशीनराः (बार बार दूध पीनेवाले उशीनर लोग)। सौवीरपायिणो बाह लीका: (कॉजी विशेष के पीनेवाले बाह लीक लोग) । बहुल ग्रहण करने से -कुल्माषखादः (उबले हुये अन्न को खानेवाला) यहाँ णिनि नहीं होता ॥र सके । मनः॥२.८२॥ मन: ५॥१॥ अनु०-सुपि, णिनिः, धातो:, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थ:-सुबन्त उपपदे मन धातो: णिनि प्रत्ययो भवति ।। उदा०-दर्शनीयं मन्यते = दर्शनीयमानी, शोभनमानी, सुरूपमानी॥ 2 भाषार्थ:-सुबन्त उपपद रहते [मन:] मन् घात से णिनि प्रत्यय होता है ।। मन धातु यहाँ दिवादिगण की ली गई हैं, तनादि को ‘मनु’ नहीं। उदा०-दर्शनीय मानी (देखने योग्य माननेवाला), शोभनमानी (शोभन माननेवाला), सुरूपमानी (सुरूप माननेवाला)॥ यहाँ से ‘मन:’ को अनुवृत्ति ३.२।८३ तक जायेगी। वश णम प्रात्ममाने खश्च ॥३।२।०३।।शाही - प्रात्ममाने ७१।। खश १.१॥ च प्र० ॥ स-प्रात्मन:=स्वस्य मानः प्रात्ममान:, तस्मिन्, षष्ठीतत्पुरुषः ॥ अनु०-मन:, णिनिः, सुपि, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः - प्रात्ममानेऽर्थे वर्तमानात मन्य तेर्धातोः सुबन्त उपपदे खश् प्रत्ययो भवति, चकारात् णिनिश्च ।। उदा०-आत्मानं पण्डितं मन्यते पण्डितं मन्यः पण्डित मानी। दर्शनीयं मन्यः, दर्शनीयमानी ॥ भाषार्थ:- [प्रात्ममाने] ‘अपने आप को मानना’ इस अर्थ में वर्तमान मन धातु से [खश ] खश प्रत्यय होता है, [च] चकार से णिनि भी होता है । उदा० पण्डितंमन्यः (अपने आप को पण्डित माननेवाला), पण्डितमानी। दर्शनीयंमन्यः (अपने आपको दर्शनीय माननेवाला), दर्शनीयमानी । खश पक्ष में शित् होने से सार्वधातुक संज्ञा को मानकर दिवादिभ्यः श्यन् (३।१।६६) से श्यन् विकरण भी होगा, तथा मुम् प्रागम भी खित् होने से अद्विष० (६।३।६६) से होगा । सो ‘पण्डित ३७६ अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [द्वितीय: मुम् मन् श्यन खश्’ बना, अनुबन्ध लोप होकर ‘पण्डितंमन्य असु, रहा । पूर्ववत् सब होकर पण्डितं मन्यः बना ॥ अकालीन प्रत्यय मूते ।।३।२।८४॥ भूते ७।१॥ अर्थः-वर्तमाने लट (३।२।१२३) इत्यतः पूर्वं पूर्वं ये प्रत्ययाः विधीयन्ते ते भूते काले भवन्ति, इत्यधिकारो वेदितव्यः ।। अग्रे उदाहरिष्यामः ॥ भाषार्थ:-यहां से प्रागे ३।२।१२३ तक [भूते] भूते का अधिकार जाता है । अर्थात् वहाँ तक जितने प्रत्यय विधान करेंगे, वे सब भूतकाल में होंगे, ऐसा जानना चाहिये । बजगिन करणे यजः ॥३।२।८५॥ करणे ७॥१॥ यज: ५॥१॥ अनु०-भूते, णिनिः, धातो:, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः-करणे कारके उपपदे यजधातोणिनि प्रत्ययो भवति भूते काले ॥ उदा० अग्निष्टोमेन इष्टवान् =अग्निष्टोमयाजी ॥ भाषार्थ:-[करणे] करण कारक उपपद होने पर [यजः] यज घातु से णिनि प्रत्यय भूतकाल में होता है ।। उदा०-अग्निष्टोमयाजी (अग्निष्टोम के द्वारा यज्ञ किया) ॥ सिद्धि पूर्ववत् ही है ।। हन+णिनि कर्मणि हनः ॥३॥२॥८६॥ कर्मणि ७।१॥ हन: ५॥१॥ अनु०-भूते, णिनिः, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थ:-कर्मणि कारक उपपदे हन्धातोणिनि प्रत्ययो भवति भूते काले ॥ उदा०—पित व्यं हतवान् =पितृव्यघाती, मातुलघाती ॥ भाषार्थ:-[कर्मणि] कर्म उपपद रहते [हनः] हन पातु से णिनि प्रत्यय भतकाल में होता है । उदा.-पितृव्यघाती (जिसने चाचा को मारा); मातुल घाती (जिसने मामा को मारा) ॥ सिद्धि के लिये परि० ३।२।५१ देखें। यहां से ‘हन:’ की अनुवृत्ति ३।२।८८ तक, तथा ‘कर्मणि’ की अनुवृत्ति ३।२। ६५ तक जायेगी। का विवेप ब्रह्मभ्र णवत्रेषु विवप् ॥३।२।८७॥
- ब्रह्मभ्र णवत्रेषु ७।३॥ क्विप् ॥१॥ स०-ब्रह्म० इत्यत्रेतरेतरयोगद्वन्द्वः ॥ अनु०-कर्मणि, हनः, भूते, धातोः, प्रत्ययः परश्च ।। अर्थः-ब्रह्म, भ्रूण, वृत्र इत्येतेष्वेव कर्मसुपपदेषु हन्धातो: भूतेकाले क्विबेव प्रत्ययो भवति । नियमार्थोऽय. मारम्भः ॥ उदा.-ब्रह्महा । भ्रूणहा । वृत्रहा || पादः] तृतीयोऽध्यायः ब्रह्म हन+स्विप ३७७ भाषार्थ:- [ब्रह्मभ्र णवृत्रेष] ब्रह्म, भ्रूण, वृत्र ये ही कर्म उपपद रहते हन धातु से भूतकाल में [क्विप्] क्विप् प्रत्यय होता है । यह सूत्र नियमार्थ है। इससे दो प्रकार का नियम निकलता है-धातु नियम और काल नियम, जो कि अर्थ में प्रद शित कर ही दिया है । उदा० -ब्रह्महा (ब्राह्मण को मारनेवाला) । भ्रूणहा (गर्भ को गिरानेवाला) । वृत्रहा (वृत्र को मारनेवाला) । सिद्धि में ‘ब्रह्मन हन क्वि’ =ब्रह्म हन सु, पूर्ववत् ही होकर, सौ च (६।४।१३) से दीर्घ, तथा नलोप:० (८। २७) से न लोप,एवं अन्य कार्य पूर्ववत् ही जाने । यहाँ से ‘क्विप’ की अनुवत्ति ३।२।६२ तक जायेगी। बहुलं छन्दसि ॥३२॥१८॥ ववव बहुलम् १११॥ छन्दसि ७१।। अनु०-क्विप, कर्मणि, हन:, भूते, धातो:, प्रत्ययः,परश्च ॥ अर्य:-छन्दसि विषये कर्मण्युपपदे हन्धातो: भूते काले क्विप प्रत्यायो बहुलं भवति ॥ उदा०-मातृहा सप्तमं नरकं प्रविशेत्, पितृहा । न च भवति मातृघातः, पितृघातः॥ भाषार्थ:-[छन्दसि] वेदविषय में कर्म उपपद रहते भूतकाल में हन धातु से [बहुलम् ] बहुल करके क्विप् प्रत्यय होता है ।। पितृघातः में कर्मण्यण (३।२।१)से अण् प्रत्यय होता है । सिद्धि में परि० ३।२०५१ के समान ही हुन के ‘ह’ को ‘घ’, तथा ‘ल’ को ‘त्’ इत्यादि जाने । पितृघात् अण् ==पितृघातः बना ॥ ___सुकर्मपापमन्त्रपुण्येषु कृत्रः ॥३॥२॥८६॥ कन+क्वेप सुकर्मपापमन्त्रपुण्येषु ७॥३॥ कृञः ५।१।। स०-सुश्च कर्म च पापञ्च मन्त्रश्च पुण्यञ्च सु. पुण्यानि, तेषु, इतरेतरयोगद्वन्द्व ॥ अनु०-क्विप, कर्मणि, भूते, धातो:, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थः-सु, कर्म, पाप, मन्त्र, पुण्य इत्येतेषु कर्मसूपपदेषु कृन धातो: भूतेकाले क्विप् प्रत्ययो भवति ।। उदा०-सुष्ठ कृतवान् = सुकृत् । कर्मकृत् । पापकृत् । मन्त्रकृत् । पुण्यकृत् ॥ सपा pe भाषार्थ:-[सुकर्मपापमन्त्रपुण्येषु ] सु, कर्म, पाप, मन्त्र, पुण्य ये कर्म उपपद हों, तो [कृष:] कृन घातु से भूतकाल में क्विप् प्रत्यय होता है । यहाँ काल-उपपद प्रत्यय नियम समझने चाहियें ॥ सर्वत्र ह्रस्वस्य पिति० (६।१।६६) से तुक् प्रागम हुआ है । उदा०-सुकृत, (अच्छा करनेवाला) । कर्मकृत् (कर्म करनेवाला) । पाप ४ किमि का काम कर लिया ३७८ प्रष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [द्वितीय: कृत (पाप करनेवाला) । मन्त्रकृत् (मन्त्रद्रष्टा) । पुण्यकृत् (पुण्य करनेवाला) । परि० १।१।६१ की तरह सिद्धि समझे ॥ PPR की ए क किराम का भणी कि सोम + बुञ् + विवय सोमे सुत्रः ॥३।२।६०॥ सोमे ७।१॥ सुत्रः ५।१।। अनु०-क्विप, कर्मणि, भते, धातो:, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थ:-सोमे कर्मण्युपपदे ‘पुत्र अभिषवे’ इत्यस्माद् धातो: क्विप् प्रत्ययो भवति भूते काले । उदा०-सोमसुत्, सोमसुतौ ॥ भाषार्थ:-[सोमे] सोम कर्म उपपद रहते [सुञः] पुन धातु से भूतकाल में क्विप् प्रत्यय होता है। यहां धातु काल-उपपद-प्रत्यय नियम है । सिद्धि परि० १।१।६१ में देखें ॥ अग्नि चिन+विभव अग्नौ चेः ॥३।२।६१॥ अग्नौ ७।१॥ चे: ५।१।। अनु०-क्विप, कर्मणि, भूते, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थ:-अग्नी कर्मण्युपपदे चित्रधातो: क्विप् प्रत्ययो भवति भूते काले ॥ उदा०–अग्निम् अचैषीत् =अग्निचित, अग्निचितौ ।। भाषार्थ:- [अग्नौ ] अग्नि कर्म उपपद रहते [:] चिम् धातु से भूतकाल में क्विप् प्रत्यय होता है। यहां भी पूर्वसूत्र के समान चारों नियम हैं ॥ सिद्धि परि० १।११६१ में देखें ॥ यहाँ से ‘चे.’ की अनुवृत्ति ३।२।६२ तक जायेगी। वेष कर्मण्यग्न्याख्यायाम् ॥३।२।१२।। कर्मणि ७॥१॥ अग्न्याख्यायाम ७।१।। स०-अग्नेराख्या अग्न्याख्या, तस्याम, षष्ठीतत्पुरुषः ।। अनु०-चे:, क्विप, कर्मणि, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थ:-कर्म ण्युपपदे चिधातो: कर्मणि कारके क्विप् प्रत्ययो भवति अग्न्याख्यायाम् ॥ उदा० श्येन इव चीयतेऽग्निः =श्येनचित्, कङ्कचित् ।। भाषार्थ:-[कर्मणि] कर्म उपपद रहते चिञ् धातु से कर्म कारक में क्विप् प्रत्यय होता है [अग्न्याख्यायाम् ] अग्नि की प्राख्या अभिधेय हो तो ॥ उदा० । श्येनचित् (श्येन के आकार की तरह जो अग्नि की वेदी ईंटों से चुनी गई), कङ्क चित् (कंक पक्षी के आकार की तरह जो अग्नि को वेदी चुनी गई) ॥ इस सूत्र में ‘भूते’ की अनवृत्ति का सम्बन्ध नहीं लगता है । इसमें “श्येनचितं चिन्वीत” प्रादि श्रौत ग्रन्थों के वचन प्रमाण हैं । अतः सामान्य करके तीनों कालों में प्रत्यय होगा। पाद:] तृतीयोऽध्यायः कर्मणोनि विक्रियः ॥३।२।६३॥ कर्मणि ७।१॥ इनि लुप्तप्रथमान्तनिर्देश: ॥ विक्रय: ५॥१॥ स०-वे: क्री विक्री, तस्मात्, पञ्चमीतत्पुरुषः ।। अनु०-भूते, धातो:, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः– कर्मण्युपपदे विपूर्वात् क्रीब्धातोः इनि प्रत्ययो भवति भूते काले॥ उदा०-सोमं विक्रीत वान् =सोमविक्रयी’, रसविक्रयी, मद्यविक्रयी ॥ र भाषार्थ:-[कर्मणि] कर्म उपपद रहते [विक्रिय:] वि पूर्वक क्रीञ् धातु से भूत काल में [इनि]. इनि प्रत्यय होता है । उदा०-सोमविक्रयो (सोम को बेचनेवाला), रसविक्रयी (रस को बेचनेवाला), मद्यविक्रयी (शराब बेचनेवाला)॥ सिद्धि में की धातु को इनि प्रत्यय परे रहते गुण (७३।८४),तथा प्रयादेश जाने । शेष दीर्घत्व न लोपादि पूर्ववत् ही णिनिप्रत्ययान्त की सिद्धि के समान हैं ।। दृशेः क्वनिप ।।३।२।६४॥ दृशेः ५॥१॥ क्वनिप ११॥ अनु०-कर्मणि, भूते, धातोः, प्रत्यय:, परश्च ॥ अर्थः-कर्मण्युपपदे दृशधातो: भूते काले क्वनिप् प्रत्ययो भवति ।। उदा-परलोकं दृष्टवान् =परलोकदृश्वा, पाटलिपुत्रदृश्वा, वाराणसी दृष्टवान् =वाराणसीदृश्वा ।। भाषार्थ:-कर्म उपपद रहते भूतकाल में [दृशेः] वृश धातु से [क्वनिप्] क्वनिप् प्रत्यय होता है ।। उदा०-परलोकदश्वा (जिसने परलोक देखा); पाटिलपुत्र दृश्वा (जिसने पाटलिपुत्र को देखा); वाराणसीदृश्वा (जिसने वाराणसी को देखा)। क्वनिप् का ‘वन’ शेष रहेगा, पुनः दीर्घादि (१।४१८) पूर्ववत होंगे ॥ __ यहाँ से ‘क्वनिप’ को अनुवृत्ति ३।२।६६ तक जायेगी । राजनि यधिकृतः ॥३॥२६५॥ राजनि ७१॥ युधिकृन: ५॥१॥ स०-युधिश्च कृञ् च युधिकृत्र, तस्मात, समाहारो द्वन्द्वः ।। अन-क्वनिप, कर्मणि, भूते, धातो:, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थ: राजनकर्मोपपदे युध् कृञ् इत्येताभ्यां धातुभ्यां भूते काले क्वनिप् प्रत्ययो भवति ॥ उदा०-राजानं योधितवान =राजयुध्वा । राजकृत्वा । भाषार्थ:- [राजनि] राजन कर्म उपपद रहते [युधिकृत्रः] युध् तथा कृज् पातुओं से भूतकाल में क्वनिप् प्रत्यय होता है । उदा०-राजयुध्वा (राजा को १. सोम, रस(=लवण) तथा मद्य बेचना बुरा समझा जाता है। अतः ये सब उदाहरण कुत्सा=निन्दा में हैं ॥eirakshi ३६० अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [द्वितीयः जिसने लड़वाया) । राजकृत्वा (राजा को जिसने बनाया) | युध् धातु यहाँ अन्तर्भावितण्यर्थ होने से सकर्मक है ॥ सिद्धि ३।२।७४ सूत्र के समान ही दीर्घत्व नलोपादि होकर जाने ॥ यहाँ से ‘युधिकृय:’ की अनुवृत्ति ३।२।६६ तक जायेगी ॥
- सहे च ॥३॥२॥६६॥ * सहे ७१॥ च अ० ॥ अनु०-युधिकृत्रः, क्वनिप, भूते, धातो:, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः-सहशब्द उपपदे युधि कृन इत्येताभ्यां धातुभ्यां क्वनिप् प्रत्ययो भवति भूते काले ॥ उदा०-सहयुध्वा । सहकृत्वा ॥ – भाषार्थः - [सहे] सह शब्द उपपद रहते [च] भी युध तथा कृ धातुओं से भूत काल में क्वनिप् प्रत्यय होता है । उदा०-सहयध्वा (साथ-साथ जिसने युद्ध किया) । सहकृत्वा (साथ-साथ जिसने कार्य किया) ॥ सप्तम्यां जनेर्डः ॥३।२।९७॥ सप्तम्याम् ७१|| जने: ५॥१॥ डः १११।। अन०-भूते, धातो:: प्रत्यय: परश्च ॥ अर्यः-सप्तम्यन्त उपपदे जनेर्धातोर्डः प्रत्ययो भवति भूते काले ॥ उदा० उपसरे जात:= उपसरजः । सन्दुरायां जातः= मन्दुरजः । कटजः । वारिणि जात: वारिजः।। निमी) FE __ भाषार्थ:- [सप्तम्याम् ] सप्तम्यन्त उपपद हो, तो [जने:] जन धातु से [ड:] ड प्रत्यय होता है। उदा०-उपसरजः (प्रथम बार में गर्भ धारण से उत्पन्न हुआ) । मन्दुरजः (घोड़ों की शाला में पैदा होनेवाला) । कटजः (चटाई में पैदा होनेवाला) : वारिज: (कमल) ॥ प्रत्यय के डित होने से डित्यभस्यापि टेर्लोप: इस वात्तिक से जन धातु के टि भाग (=अन ) का लोप हो जायेगा । मन्दुरा को ह्रस्व ड्यापोः संज्ञा० (६।३।६१) से होता है । सिद्धि में यही विशेष है ॥ यहाँ से ‘जनेर्ड:’ की अनुवृत्ति ३।२।१०१ तक जायेगी। पञ्चम्यामजातौ ॥३।२।१८।। पञ्चम्याम ७।१।। अजातौ ७१।। स०-न जातिः प्रजातिः, तस्याम्, नत्र तत्पुरुषः ॥ अनु०-जनेर्डः, भूते, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः-अजातिवाचिनि पञ्चम्यन्त उपपदे जनेर्धातोर्डः प्रत्ययो भवति भूते काले । उदा०-शोकात जात:= शोकजो रोग: । संस्कारजः । दुःखजः । बुद्धः जात:= बुद्धिजः ॥ साये भाषार्थ:- [अजातौ] अजातिवाची [पञ्चम्याम्] पञ्चम्यन्त उपपद हो, तो पाद:] तृतीयोऽध्यायः जन धातु से ड प्रत्यय होता है भूतकाल में ॥ उदा.-शोकजो रोगः (शोक से उत्पन्न होनेवाला रोग) । संस्कारजः (संस्कार से उत्पन्न होनेवाला)। दुःखजः (दुःख से उत्पन्न होनेवाला) । बुद्धिजः (बुद्धि से उत्पन्न होनेवाला) ॥ पूर्ववत् सिद्धि में टि भाग का लोप होगा ॥ माया। दि उपसर्ग च संज्ञायाम् ॥३।२।१६ मक उपसर्गे ७१।। च अ० ।। संज्ञायाम ७३१॥ अन०–जनेर्ड:, भूते, धातो:, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थः-उपसर्गे चोपपदे जनेर्धातो: भूते काले डः प्रत्ययो भवति संज्ञायां विषये ॥ उदा०-प्रथेमा मानवी: प्रजाः । वयं प्रजापतेः प्रजा अभूम । प्रजाता इति प्रजाः ॥ भाषार्थ:-[उपसर्गे] उपसर्ग उपपद रहते [च] भी [संज्ञायाम् ] संज्ञाविषय में जन धातु से भूतकाल में ड प्रत्यय होता है ॥ उदा०-अर्थमा मानवीः प्रजाः (यह मानवी प्रजा है)। वयं प्रजापतेः प्रजा अभूम (हम प्रजापति की प्रजा होवें) !! ____ अनौ कर्मणि ॥३।२।१००।। अनौ ७।१॥ कर्मणि ७।१॥ अनु०-जनेर्डः, भूते, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थ:-कर्मण्युपपदे अनुपूर्वात जनेर्ड: प्रत्ययो भवति भूते काले ॥ उदा०-पुमांसमनु जातः पुमनुजः । स्त्र्यनुजः ॥ भाषार्थ:-[कर्मणि] कर्म उपपद रहते [अनौ] अनपूर्वक जन घातु से उ प्रत्यय होता है । उदा०-पुमनुजः (भाई के पश्चात् पैदा हुना भाई)। स्त्र्य नुजः (बहन के पश्चात् पैदा हुआ भाई) ॥ र अन्येष्वपि दृश्यते ॥३।२।१०१॥ अन्येष ७।३।। अपि अ. ॥ दृश्यते क्रियापदम् ॥ अनु०-जनेर्डः, भूते, धातो , प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थः-अन्येषु कारकेषूपपदेष्वपि जनेर्ड : प्रत्ययो दृश्यते ॥ उदा० सप्तम्यामुपपदे उक्तम असप्तम्यामपि भवति- न जायते इति अजः । द्विर्जाता द्विजाः । पञ्चम्यामजातौ इत्युक्तं, जातावपि दृश्यते - ब्राह्मणजो धर्मः। क्षत्रिय युद्धम् । उपसर्गे च संज्ञायाम् इत्युक्तम्, असंज्ञायामपि दृश्यते-अभिजाः । परिजाः । अनौ कर्मणि इत्युक्तम, अकर्मण्यपि दृश्यते = अनुजातः= अनुजः । अपि ग्रहणादन्येभ्यो धातुभ्योऽपि भवति –परित: खाता=परिखा ॥ म भाषार्थः-पूर्व सूत्रों में जिनके उपपद रहते जन धातु से ड विधान किया है. उनसे [अन्येषु] अन्य कोई उपपद हों. तो [अपि] भी जन धातु से ड प्रत्यय AS अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [द्वितीयः [दृश्यते] देखा जाता है । यहाँ सूत्र में अपि’ कहा है,अतः जन धातु से अन्य धातुओं से भी ड प्रत्यय होता है, यह बात निकलती है ।। उदा०-सप्तमी उपपद रहते कहा है, पर सप्तमी से भिन्न में भी देखा जाता है - अजः (परमेश्वर)। द्विजा: (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य) । पञ्चभ्यामजातो में प्रजाति कहा है, पर जाति में भी देखा जाता है -ब्राह्मणजो धर्मः (ब्राह्मण से पैदा हुआ धर्म)। क्षत्रियज युद्धम् (क्षत्रिय से उत्पन्न होनेवाला युद्ध) । उपसणे च संज्ञायाम् से संज्ञा में कहा है पर असंज्ञा में भी देखा जाता है-अभिजाः (पैदा होनेवाला) । परिजाः (केश) । अनौ कर्मणि में कर्म उपपद रहते कहा है, पर अकर्म में भी देखा जाता है-अनुजः (छोटा भाई)। ‘अपि’ ग्रहण करने से अन्य धातुओं से भी देखा जाता है-परिखा (खाई) ॥ निष्ठा ॥३।२।१०२।। निष्ठा ११॥ अनु०-भूते, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥अर्थ:-धातो: भूते काले निष्ठाप्रत्ययः परश्च भवति ॥ क्तक्तवतु निष्ठा (१।१।२५) इत्यनेध निष्ठा संज्ञा कृता तो निष्ठासंज्ञको प्रत्ययौ भूते काले भवतः ॥ उदा०—भिन्नः, भिन्नवान । भुक्तः, भक्तवान् । कृतः, कृतवान् ॥ भाषार्थ:-धातुमात्र से भूतकाल में [निष्ठा] निष्ठासंज्ञक प्रत्यय (=क्त क्ववतु) होते हैं, और वे परे होते हैं । सिद्धियाँ परि० ॥१४५ में देखें ।। भुज् धातु के ज को क चोः कुः (८।२।३०), तथा खरि च (८।४।५४) से हो गया है। _ सुयजोवनिप् ॥३।२।१०३॥ अन्य सुयजोः ६।२।। वनिप् ११॥ स०-सुयजो: इत्यत्रेतरेतरयोगद्वन्द्वः ।। अन भूते, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थः-पज यज् इत्येताभ्यां धातुभ्यां वनिप् प्रत्ययो भवति भूते काले । उदा०-सुतवान इति =सुत्वा । इष्टवान् इति यज्वा ॥ भाषार्थ:- [सुयजोः] षुज, तथा यज् धातु से भूतकाल में [वनिप्] ङव निप् प्रत्यय होता है ।। वनिप् का अनुबन्ध हटने पर ‘वन्’ रह जाता है । सु बन सु, पूर्ववत् ह्रस्वस्य ० (६।१।६६) से तुक् प्रागम, तथा दीर्घत्व और नलोपादि होकर सुत्वा (जिसने सोमरस निचोड़ा) । यज्वा (जिसने यज्ञ किया) बना है ॥ जीयंतेरतन् ॥३।२।१०४॥ जीर्यते: ५।१॥ अतन १।१।। अनु०-भूते,घातोः, प्रत्यय:, परश्च ॥ अर्थ:-‘जष वयोहानौ’ इत्यस्माद् धातो: भूते काले अतन् प्रत्ययो भवति ।। उदा०-जरन्, जरती ॥ भाषार्थ:- [जीर्यतेः] ‘जष् वयोहानौ’ धातु से भूतकाल में [अतॄन् ] अतुन पादः] तृतीयोऽध्यायः ३८३ प्रत्यय होता है ॥ अतन का अनुबन्ध हटकर अत रह जाता है । उगिदचां० (७१। ७ ) से नुम् प्रागम १।१४६ से अन्त्य अच् से परे होकर जर अनुम् त =जरन्त बना, संयोगान्त लोप होकर जरन (वृद्ध) बन गया ॥ छन्दसि लिट् ॥३।२।१०५॥ गा. छन्दसि ७।१।। लिट १११॥ अनु०-भूते, धातो:, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थ: छन्दसि विषये धातो: भूते काले लिट् प्रत्ययो भवति ।। उदा०-अहं सूर्यमुभयतो ददर्श (यजु० ८।६)। यो भानुना पृथिवीं चामुतेमामाततान (ऋक्० १०।०८।३) ॥ भाषार्थः- [छन्दसि] वेदविषय में भूतकाल सामान्य में धातुमात्र से [लिट् ] लिट प्रत्यय होता है । प्राङ पूर्वक ‘तनु विस्तारे’ धातु से आततान बना, तथा दृश् धातु से ददर्श बना है। लिट लकार में सिद्धियाँ हम बहुत बार दिखा पाये हैं। उसी प्रकार यहाँ भी समझे । पुनरपि परि० ११११५७ देखें ।। यहाँ से ‘छन्दसि’ को अनुवत्ति ३।२।१०७ तक जायेगी। लिटः कान वा ३२।१०६।। लिट: ६।१॥ कानच १।१।। वा अ० ।। अनु० -भूते, छन्दसि, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः—छन्दसि विषये लिटः स्थाने कानच् प्रादेशो वा भवति ॥ उदा० अग्निं चिक्यानः (ले० सं० ५।२।३।६)। सुषवाणः (मै० म० ३।४।३)। न च भवति – अहं सूर्य मुभयतो ददर्श (यजु० ८६)। भाषार्थः-वेदविषय में भूतकाल में विहित जो [लिट:] लिट उसके स्थान में [कानच] कानच् प्रादेश [वा] विकल्प से होता है । जी , apी यहाँ से ‘लिटः, वा’ को अनुवृत्ति ३।१।१०६ तक जायेगी। क्वसुश्च ।।३।२।१०७॥ TR क्वसुः ११॥ च अ० ॥ अनु० -भूते, लिटः, वा, छन्दसि, धातो:, प्रत्यय:, परश्च ॥ अर्थः-छन्दसि विषये लिट: स्थाने क्वमुरादेशो वा भवति ।। उदा. जक्षिवान्, पपिवान् (ऋक्० १।६१७)। पक्षे न च भवति-अहं सूर्य मुभयतो ददर्श ॥ भाषार्थ:-वेदविषय में लिट के स्थान में [क्वसुः] क्वसु प्रादेश [च] भी विकल्प से होता है ।। लिट् के स्थान में वसु आदि आदेश होते हैं । अतः यहां क्वसु को स्थानिवत् (१।१।५५ से)मानकर द्वित्वादि कार्य होते ही हैं। जक्षिवान् अव धातु से बना है । प्रतः परि० १।१।५७ के जक्षतुः की सिद्धि के समान जक्ष बना। इडा गम वस्वेकाजादघसोम् (७।२।६७) से करके जक्षिवस बना । शेष क्तवतु प्रत्ययान्त ३ ३८४ अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [द्वितीयः की सिद्धि के समान जानें, जो कि परि० १३११५ में दर्शाई है। पपिवान, पा धातु सो बना है। यहाँ भी पूर्ववत इडागम होकर पातो लोप इटि च (६१४१६४) से प्राकारलोप होगा। पश्चात् द्विवचनेऽचि (१२११५८) से रूपातिदेश होकर ‘पा प इ वस’ बना, ह्रस्वः (७।४।५६) प्रादि होकर पपिवान् बना ।। यहाँ से ‘क्वसु::’ को अनुवृत्ति ३।२।१०८ तक जायेगी ॥ भाषायां सदवसश्रुवः ।।३।२।१०८॥ भाषायाम् ७१|| सदवसभुव: ५॥१॥ स-सदश्च वसश्च श्रश्च सदवसथु , तस्मात, समाहारो द्वन्द्वः ॥ अन०-लिटः, वा, क्वसुः, घातो:, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थः-भाषायां =लौकिके प्रयोगे सद वस श्रु इत्येतेभ्यो धातुभ्यः परो विकल्पेन लिट प्रत्ययो भवति, लिटश्च स्थाने नित्यं क्वसुगदेशो भवति भूते काले ॥ लिट आदेशविघानादेव लिडपि भूतकालसामान्ये भाषायां विषये भवतीत्यनुमीयते । पक्षे यथा यथं भूते विहिता: लङ लङ लिट इत्यादयो लकारा भवन्ति ।। उदा० - उपसे दिवान् कौत्स: पाणिनिम् । उपास दत् (लुङ), उपासीदत् (लङ्),उपससाद (लिट)। अनूषिवान् कौत्स: पाणिनिम् । अन्ववात्सीत् (लुङ्), अन्ववसत् (लङ), अनूबास (लिट) । उपशुश्रु वान् कौत्स: पाणिनिम् । उपाश्रौषीत् (लुङ), उपाथ णोत (लङ), उपशुश्राव (लिट्) ।। भाषार्थ:-[भाषायाम] लौकिकप्रयोग विषय में [सदवसश्रुवः] सद, वस, श्र इन धातुओं से परे भूतकाल में विकल्प से लिट् प्रत्यय होता है, और लिट के स्थान में नित्य क्वसु प्रादेश हो जाता है ॥ भूतकालमात्र (सामान्यभूत लुङ, तथा विशेषभूत लड लिट) में यहाँ लिट विधान किया है । अतः पक्ष में अपने-अपने विषय में लुङ, लङ, लिट तीनों होंगे। उपेयिवाननाश्वाननूचानश्च ।।३।२।१०६॥ उपेयिवान् ११॥ अनाश्वान् ॥१॥ अनूचानः ११॥ च अ० ।। अन लिटः, वा, भूते, घातो, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थ:-उपेयिवान्, अनाश्वान अनूचान इत्येते शब्दा विकल्पेन सामान्यभूतकाले निपात्यन्ते ।। उपेयिवानित्यत्र उपपूर्वाद इण धातोः क्वसुप्रत्यये परतो द्विवंचन मभ्यासदीर्घत्वमभ्यासस्य हलादौ परतो यणादेशो निपात्यते । ततश्चैकाच्वात वस्त्रेकाजा० (७।२।६७) इत्यनेन ‘इड्’ भविष्यति । पक्ष पूर्ववल्लुङादयोऽपि भवन्ति-उपागात, उपत्, उपेयाय । अनाश्वान -नपूर्वाद् ‘अश भोजने’ इत्येतस्माद् धातो: क्वसुप्रत्यय: इडभावश्च निपात्यते । पक्षे-नाशीत, नाश्नात्, नाश । अन चान:-अनुपूर्वाद वच् धातो: (ब्रू अस्थानिकस्य) कर्तरि कानच निपात्यते, सम्प्रसारणं तु भवत्येव । पक्षे यथाप्राप्तम-अन्ववोचत्, अन्वब्रवीत, अनूवाच ॥ पाद:] तु ततीयोऽध्यायः भाषार्थ:–[उपेयि…चान:] उपेयिवान , अनाश्वान , अनूचान ये शब्द [च भी निपातन किये जाते हैं। भूतसामान्य में इन सब निपातनों में विकल्प से लिट होकर, नित्य ही श्वसु प्रादि प्रादेश होते हैं । अतः पक्ष में यथाप्राप्त भूतकाल के प्रत्यय लुङ (सामान्य भूत), लङ, लिट् (विशेषभूत) हो जाते हैं | उपेयिबान् (वह वहाँ पहुंचा)-यहाँ ‘इण् गौ’ धातु से क्वसु प्रत्यय के परे रहते द्विवचन, दीर्घ इणः० (७।४।६६) से अभ्यास को दीर्घ होकर ‘उप ई इ वस्’ रहा । अब यहाँ व्यञ्जन के परे रहते यणादेश प्राप्त नहीं था, सो वह निपातन से हुआ है । तत्पश्चात् ‘उप ईय वस’ होकर वस्वेकाजाद्घसाम् (७।२।६७) से इट् प्रागम, तथा प्राद्गुण: (६।१८४) लगकर ‘उपेय इ वस सु’ रहा । उगिदचां० (७।१७०) से नुम् आगम तथा पूर्ववत् दीर्घत्व एवं संयोगान्त लोप (८।२।२३) होकर उपेयिवान बन गया। पक्ष में भूतकाल-विहित लुङ, लङ्, लिट् लकार होकर उपागात (लुङ), उपत (लङ), उपेयाय (लिट) बन गया ।। अनाश्वान्–में न पूर्वक प्रश धातु से क्वसु प्रत्यय, तथा इट् अभाव निपातन है । ‘नञ् प्रश् प्रश वस्’=अनुबन्धलोप, हलादि शेष, तथा एकादेश होकर ‘न प्राश वस’ इस अवस्था में एकाच होने से पूर्ववत् इट प्रागम प्राप्त था, निपातन से निषेध हो गया। नलोपो० (६।३।७२) से न का लोप, तथा तस्मान्नुडचि (१।३।७३) से नुट प्रागम होकर ‘अ नुट प्राश् व नुम स सुप्रन पाश वन स सु । शेष सब पूर्ववत् होकर अनाश्वान बन गया। पक्ष में लङ लङ लिट् लकार हो ही जायेंगे ॥ अनूचान:-में अनु पूर्वक वच् धातु से कर्ता में कानच प्रत्यय निपातन है। सम्प्रसारण तो वचिस्वपि० (६।१।१५) से हो ही जायेगा। अनु उ उच कानच = अनूच प्रान सु=अनूचानः बन गया । पक्ष में यथा प्राप्त भूतकाल के प्रत्यय हुए हैं, सो अन्ववोचत्, अन्वनवीत, अनूवाच रूप बनेंगे। इनकी सिद्धियां परिशिष्ट में देखें ।।श्रीव लुङ ।।३।२।११०॥ _लुङ् १।१।। अनु०-भूते, घातोः, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थः- भूतेऽर्थे वर्तमानाद् धातो: लुङप्रत्ययः परश्च भवति ।। उदा-अकार्षीत् । अहार्षीत् ॥ भाषार्थ:-सामान्य भूतकाल में वर्तमान धातु से [लुङ्] लुङ् प्रत्यय होता है, और वह परे होता है । सिद्धि परि० १११११ में देखें। अनद्यतने लङ॥३।२।१११॥ शता समान अनद्यतने ७१॥ लङ् ११॥ स०- न विद्यतेऽद्यतनो यस्मिन् सोऽनद्यतन:, ४६ अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [द्वितीयः तस्मिन्, बहुव्रीहिः ॥ अनु-घातोः, प्रत्ययः, परश्च, भूते ॥ प्रर्थः–अनद्यतने भूतेऽयें वर्नमानाद् धातो: लङ्प्रत्यय: परश्च भवति ।। उदा०–अकरोत् । अहरत् ॥ भाषार्थ:-[अनद्यतने] अनद्यतन (=जो प्राज का नहीं) भूतकाल में वर्तमान धातु से [लङ] लङ प्रत्यय होता है, और वह परे होता है ।। “अकुरुताम्’ की सिद्धि परि० ११११५५ में की है । यहां भी उसी प्रकार ‘अट् कृ उ तिप्’ पाकर कृ को ‘उ’ परे मानकर गुण, तथा उरणरपरः (१११।५०) से रपर हुआ । एवं तिप् को मानकर ‘उ’ को. ‘प्रो’ गुण होकर अकरोत् (उसने किया) बना है ।। यहां से ‘अनद्यतने’ को अनुवृत्ति ३।२।११६ तक जायेगी ॥ीन अभिज्ञावचने लृट् ॥३।२।११२॥ अभिज्ञावचने ७१।। लृट् १।१।। स०-अभिज्ञाया: वचनम् अभिज्ञावचनम्, तस्मिन्, षष्ठीतत्पुरुषः ।। अनु०-अनद्यतने, भूते, घातो:, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः अभिज्ञा स्मृति:, अभिज्ञावचन उपपदे सति धातोरनद्यतने भूते काले लट् प्रत्ययो भवति ॥ लङि प्राप्ते लुट् विधीयते ॥ उदा०-अभिजानासि देवदत्त कश्मीरेषु वत्स्यामः । स्मरसि बुध्यसे चेतयसे वा देवदत्त कश्मीरेषु वत्स्यामः ॥ भाषार्थः-[अभिज्ञावचने] अभिज्ञावचन अर्थात् स्मृति को कहनेवाला कोई शब्द उपपद हो, तो धातु से अनद्यतन भूतकाल में [लट्] लुट् प्रत्यय होता है ।। लङ का अपवाद यह सूत्र है । उदा०-अभिजानासि देवदत्त कश्मीरेषु वत्स्यामः (याद है देवदत्त कि पहले कश्मीर में रहे थे) । स्मरसि बुध्यसे चेतयसे वा देवदत्त कश्मीरेषु वत्स्यामः ॥ परि० १।४।१३ के करिष्यामः के समान वस धातु से स्य’ इत्यादि सब प्राकर ‘वस स्य मस’ बना । सः स्यार्धधातुके (७।४।४६) से धातु के सकार को त होकर ‘वत् स्य मस’ बना ।अतो दीर्घो० (७।३।१०१) से दीर्घ, तथा रुत्व विसर्जनीय होकर वत्स्याम: बन गया ॥ यहाँ से ‘अभिज्ञावचने लट’ की अनुवृत्ति ३।२।११४ तक जायेगी ।। न यदि ॥३।२।११३॥ न अ०॥ यदि ७१॥ अन०- अभिज्ञावचने लुट, अनद्यतने, भूते, धातो:, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः–यत शब्दसहिते अभिज्ञावचने उपपदे अनद्यतने भूते काले धातोलट् प्रत्ययो न भवति ।। पूर्वेण प्राप्त: प्रतिषिध्यते ॥ उदा०– अभिजानासि देवदत्त यत् कश्मीरेषु अवसाम । स्मरसि देवदत्त यत् कश्मीरेषु अगच्छाम ।। भाषार्थ:- [यदि] यत् शब्द सहित अभिज्ञावचन उपपद हो, तो अनद्यतन भूत पादः] तृतीयोऽध्यायः ३८७ काल में धातु से लृट् प्रत्यय [न] नहीं होता ।। पूर्व सूत्र से लट् प्रत्यय प्राप्त था, इस सूत्र ने प्रतिषेध कर दिया, तो यथाप्राप्त अनद्यतने लङ (३।२।१११) से लङ हो गया । अट वस. शप् मस, ऐसी स्थिति में पूर्ववत दीर्धादि होकर, नित्यं ङितः (३।४१६६) से मस के सकार का लोप होकर अवसाम बन गया । अगच्छाम में इषगमियमां छ: (७।३७७) से गम के अन्त्य प्रल को छ, तथा छे च (६॥१॥ ७१) से तुक् प्रागम, और श्चुत्व हुआ है, शेष पूर्ववत् है ॥ विभाषा साकाङ्क्ष ॥३।२।११४॥ शांचा कि विभाषा १११॥ साकाङ्क्ष ७।१॥ स०-पाकाङ्क्षया सह वर्तत इति साकाङ्क्षः, बहुव्रीहिः ॥ अन-अभिज्ञावचने लुट्, अनद्यतने, भूते, धातो:, प्रत्ययः, परश्च । अर्थः - अभिज्ञावचन उपपदे यद्योगे अयद्योगे च भूतानद्यतने काले धातोर्विकल्पेन लृट् प्रत्ययो भवति, साकाङ्क्षश्चेत् प्रयोक्ता भवेत्, पक्षे लङ् भवति ॥ उदा० अभिजानासि देवदत्त कश्मीरेषु वत्स्यामस्तत्रौदनं भोक्ष्यामहे । स्मरसि देवदत्त मगधेषु वत्स्यामस्तत्र सक्तून् पास्यामः ॥ यत्प्रयोगेऽपि-अभिजानासि देवदत्त यत् कश्मीरेषु वत्स्यामस्तत्रोदनं भोक्ष्यामहे । स्मरसि देवदत्त यत् मगधेषु वत्स्याम स्तत्र सक्तून पास्यामः । पक्षे लङ–अभिजानासि देवदत्त कश्मीरेष्ववसाम तत्री दनमभुमहि । अभिजानासि देवदत्त कश्मीरेष्ववसाम तत्र सक्तून् अपिबाम । यत प्रयोगेऽपि -अभिजानासि देवदत्त यत् कश्मीरेष्ववसाम तत्रोदनमभञ्जमहि ॥ भाषार्थ:-अभिज्ञावचन शब्द उपपद हो, तो यत का प्रयोग हो या न हो तो भी अनद्यतन भूत काल में धातु से लट् प्रत्यय [विभाषा] विकल्प से होता है, यदि प्रयोक्ता [साकक्षे] साकाङक्ष हो ।। कश्मीर में रहते थे, और क्या करते थे, यहाँ यह बतलाने की प्राकाङ्क्षा प्रयोक्ता को है, अतः ये सब उदाहरणवाक्य साकाङक्ष हैं। सो लृट् तथा पक्ष में लङ भी हो गया है । यत् शब्द का प्रयोग हो या न हो, दोनों में ही विकल्प से लृट् होगा, सो यहाँ उभयत्र विभाषा है । वहाँ रहते थे (वत्स्यामः), तथा प्रोदन खाते थे (भोक्ष्यामहे) वाक्य को इन दोनों क्रियाओं में लूट और लङ हुना करेगा ॥ परोक्षे लिट् ॥३।२।११५॥ परोक्षे ७१॥ लिट् १।१।। अनु०-धातोः, प्रत्ययः, परश्च, भूते, अनद्यतने ॥ अर्थः-अनद्यतने परोक्षे भूतेऽर्थे वर्तमानाद घातो: लिट प्रत्ययः परश्च भवति ॥ उदा०-चकार कटं देवदत्तः । जहार सीतां रावण: ॥ शान भाषार्थ:- अनद्यतन =जो आज का नहीं ऐसे [परोक्षे] परोक्ष (=जो अपनी ३८५ अष्टाध्यायो-प्रथमावृत्ती [द्वितीयः इन्द्रियों से न देखा गया हो, ऐसे भूतकाल में वर्तमान धातु से [लिट] लिट् प्रत्यय होता है, और वह परे होता है । उदा०–चकार कटं देवदत्तः (देवदत्त ने चटाई बनाई)। जहार सीतां रावणः (रावण ने सीता का हरण किया) । चक्रतुः चक्र: की सिद्धियाँ परि० १॥१॥५८ में दिखा चुके हैं । उसी प्रकार यहाँ णल् के परे रहते ‘कृ’ ‘ह’ को वृद्धि होकर ‘चकार जहार’ समझे। अक्षि= इन्द्रिय को कहते हैं, पर अर्थात परे । सो परोक्ष का अभिप्राय है-जो इन्द्रियों द्वारा जाना न गया हो। यहाँ से ‘परोक्ष’ को अनुवृत्ति ३।२।११८ तक, तथा ‘लिट’ की अनुवृत्ति ३।२। ११७ तक जायेगी | लीका हशश्वतालच ॥३।२।११६॥ीकर क हशश्वतो: ७।२॥ लङ ॥१॥ च अ० ॥ स०-हश० इत्यत्रेतरेतरयोगद्वन्द्वः ।। अन-परोक्षे, अनद्यतने, भूते, लिट्, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थ:-ह शश्वत् इत्येतयोरुपपदयोर्धातोः परोक्षे अनद्यतने भूते काले लङ् प्रत्ययो भवति, चकारात लिट च ॥ नित्यं लिटि प्राप्ते लङपि विधीयते ॥ उदा०-इति हाकरोत् । इति ह चकार । शश्वदकरोत् । शश्वत् चकार । भाषार्थ:- [हशश्वतो:] ह शश्वत ये शब्द उपपद हों, तो धातु से अनद्यतन परोक्ष भूतकाल में [लङ] लङ प्रत्यय होता है, [च] और चकार से लिट भी होता है। उदा०-इति हाकरोत (उसने ऐसा निश्चय से किया) । इति ह चकार । शश्वदकरोत (उसने यह सदा किया) । शश्वत चकार ||
- यहाँ से ‘लङ’ को अनुवृत्ति ३।२।११७ तक जायेगी ॥ समका प्रश्ने चासन्नकाले ॥३।२।११७|| प्रश्ने ७१॥ च अ० ॥ आसन्नकाले ७:१॥ स०-यासन्नः कालो यस्य स आसन्नकालः, तस्मिन, बहुव्रीहिः ॥ अनु०- परोक्षे, अनद्यतने, भूते, लङ्, लिट, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः-आसन्नकाले प्रश्ने (=प्रष्टव्ये ) अनद्यतने परोक्षे भूतेऽर्थे वर्तमानाद् घातोर्ललिटौ प्रत्ययो भवतः ।। उदा०-देवदत्तोऽगच्छत् किम् ? देवदत्तो जगाम किम् ? ॥ भाषार्थ:- [आसन्नकाले] समीपकालिक [प्रश्ने] प्रष्टव्य अनद्यतन परोक्ष भूतकाल में वर्तमान घातु से [च] भी लङ् तथा लिट् प्रत्यय होते हैं । उदा०-देवदत्तो ऽगच्छत् किम् ? देवदत्तो जगाम किम्? (देवदत्त अभी गया क्या) ॥ यहाँ प्रश्न शब्द पादा तृतीयोऽध्यायः गया ३८६ में कर्म में नङ् प्रत्यय हुआ है, अत: प्रश्न का अर्थ है प्रष्टव्य । पांच वर्ष के अभ्यन्तर काल को आसन्न काल माना जाता है ।त्यय. लट स्मे ।।३।२।११८॥ीमारली लट् १।१।। स्मे ७१॥ अनु०-परोक्षे, अनद्यतने, भूते, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थः–परोक्षेऽनद्यतने भूते काले वर्तमानाद घातोः स्मशब्द उपपदे लट् प्रत्ययो भवति ।। उदा० -युधिष्ठिरो यजते स्म । धर्मेण कुरवो युध्यन्ते स्म ॥ NCE भाषार्थः-परोक्ष अनद्यतन भूतकाल में वर्तमान धातु से [स्मे] स्म शब्द उप पर रहते [लट] लट् प्रत्यय होता है ॥ लिट लकार प्राप्त था, लट विधान कर दिया है । उदा०-युधिष्ठिरो यजते स्म (युधिष्ठिर यज्ञ करते थे)। धर्मेण कुरवो युध्यन्ते स्म (कौरव धर्म से युद्ध करते थे) । युध धातु दिवादिगण की है, सो श्यन् विकरण हो जायेगा। यहाँ से ‘लट’ की अनुवृत्ति ३।२।१२२ तक, तथा ‘स्मे’ को ३।२।११६ तक जायेगी। TEEN अपरोक्षे च ।।३।२।११६॥श E R जि अपरोक्षे ७१।। च अ० ।। स०-न परोक्षः अपरोक्षः, तस्मिन्, नत्र तत्पुरुषः ।। अनु०-अनद्यतने, भूते, लट् स्मे, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थ:- अपरोक्षेऽनद्यतने भूते च काले वर्तमानाद् घातो: स्मशब्द उपपदे सति लट् प्रत्ययो भवति ॥ पूर्वेण परोक्षेऽनद्यतने भूते लट प्राप्तोऽत्रापरोक्षेऽनद्यतनेऽपि विधीयते ॥ उदा० -अध्यापर्यति स्म गुरुमि । पिता मे ब्रवीति स्म । मया सह पुत्रो गच्छति स्म ।। भाषार्थ:- [अपरोक्षे] अपरोक्ष अनद्यतन भूतकाल में [च] भी वर्तमान धातु से स्म उपपद रहते लट् प्रत्यय होता है । पूर्व सूत्र से परोक्ष भूतकाल में लट प्राप्त था, यहाँ अपरोक्ष में भी विधान कर दिया है ।। उदा.- अध्यापयति स्म गरुर्माम् (मुझको गुरु जी पढ़ाया करते थे)। पिता मे ब्रवीति स्म (मेरे पिता कहा करते थे) । मया सह पुत्रो गच्छति स्म (मेरे साथ पुत्र जाता था) ॥ परि० २।४।५१ के अध्यापिपत् के समान ‘अध्यापि’ धातु बनाकर ‘अध्यापयति’ की सिद्धि जानें। ‘ब्रवीति’ में ब्र व ईट (७:३।६३) से ‘ईट्’ भागम होता है ।। हमा ननौ पृष्टप्रतिवचने ॥३।२।१२०॥ ननौ ७।१॥ पृष्टप्रतिवचने ७१॥ स०-पृष्टस्य प्रतिवचन पृष्टप्रतिवचनम, तस्मिन्, षष्ठीतत्पुरुष: ।। अनु०-लट, भूते, धातोः, प्रत्ययः,परश्च ।। अर्थ:– ननु ३६० अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [द्वितीय: शब्दोपपदे पृष्टप्रतिवचनेऽर्थे भूते काले लट् प्रत्ययो भवति ॥ उदा०-अकार्षीः कटं देवदत्त ? ननु करोमि भोः॥ का भाषार्थ:-सामान्य भूतकाल में लुङ प्राप्त था, लट् विधान कर दिया है। [पृष्टप्रतिवचने] पृष्टप्रतिवचन अर्थात् पूछे जाने पर जो उत्तर दिया जाये, इस अर्थ में धातु से [ननौ] ननु शब्द उपपद रहते सामान्य भूतकाल में लट् प्रत्यय होता है ॥ देवदत्त तूने चटाई बना ली? यह पूछे जाने पर ‘ननु करोमि भोः’ (हाँ जी, बनाई है), यह पृष्टप्रतिवचन हुआ। ननु उपपद में है ही, अतः करोमि में लट् लकार हो गया है। यहाँ से ‘पृष्टप्रतिवचने’ को अनुवृत्ति ३।२।१२१ तक जायेगी ।। हिन न्वविभाषा ॥३॥२॥१२॥ FROTHER -मन्वो: ७।२॥ विभाषा ११॥ स०-नश्च नुश्च ननू, तयोः, इतरेतरयोगद्वन्द्वः ।। अन-पृष्टप्रतिवचने, लट्, भूते, घातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थ:-न नु इत्येतयो रुपपदयोः पृष्टप्रतिवचनेऽर्थे धातोभू ते काले विकल्पेन लट प्रत्ययो भवति ॥ लङि प्राप्ते लट विधीयते, तेन पक्षे लङ अपि भवति ।। उदा.-अकार्षी: कटं देवदत्त ? न करोमि भोः, नाकार्षम् । अकार्षीः कटं देवदत्त ? अहं न करोमि, अहं वकार्षम् ।। भाषार्थ:-पृष्टप्रतिवचन अर्थ में धातु से [नन्वोः] न तथा नु उपपद रहते सामान्य भूतकाल में [विभाषा] विकल्प से लट् प्रत्यय होता है । सामान्य भूत में लुङ लकार की प्राप्ति थी, लट् विकल्प से विधान कर दिया है । सो पक्ष में लुङ भी होगा । उदा०-अकार्षीः कटं देवदत्त? न करोमि भोः, नाकार्षम (देवदत्त तूने चटाई बनाई क्या? नहीं बनाई) अकार्षीः कटं देवदत्त ? अहं न करोमि, अहं न्वकार्षम् (हां मैंने बनाई)॥ अकार्षीत की सिद्धि परि० १।१।१ में की है, उसी प्रकार जानें । केवल यहां मिय् पाकर उसको तस्थस्थमिपां० (३।४।१०१) से अम् हो जायेगा। यहाँ से ‘विभाषा’ को अनुवृत्ति ३।२।१२२ तक जायेगी। की पुरि लुङ् चास्मे ॥३।२।१२२॥ PPR तो पूरि ७१।। लुङ १॥१॥ च अ० ॥अस्मे ७१।। स०-न स्मः अस्मः, तस्मिन, नबतत्पुरुषः ॥ अनु०-विभाषा, लट्, भूते, धातोः, प्रत्यय:, परश्च ।। मण्डुकप्लतगत्या पनद्यतने प्रप्यनुवर्तते ॥ अर्थ:-स्मशब्दरहिते पुराशब्द उपपदे अनद्यतने भूते काले घातोलुङ, प्रत्ययो विकल्पेन भवति, चकारात् लट् च, पक्षे ललिटौ भवतः ॥ उदा०–रथेनायं पुराऽयासीत् (लुङ) । रथेनायं पुरा याति । पक्षे-रथेनायं पुराऽयात (लङ)। रथेनायं पुरा ययौ (लिट्) ॥ पादः] तृतीयोऽध्यायः ३६१ भाषार्थ:–[अस्मे] स्म शब्द रहित [पुरि] पुरा शब्द उपपद हो, तो अनद्य तन भूतकाल में धातु से [लुङ] लङ प्रत्यय विकल्प से होता है, [च] चकार से लट भी होता है । उदा०- रथेनायं पुराऽयासीत् । रथेनायं पुरा याति (यह पहले रथ से गया था)। पक्ष में–रथेनायं पुराज्यात् । रथेनार्य पुरा ययौ ॥ लुङ का विकल्प होने से पक्ष में भूतकाल के प्रत्यय लङ और लिट भी होंगे ॥ प्रयासोत की सिद्धि २।४।७८ सूत्र में देखें। ययौ की सिद्धि परि० १।१।५८ के पपी की तरह समझे । लङ लकार में लुङ लङ टुङ्० (६।४१७१) से अट आगम, एवं सब कार्य होकर ‘अट् या शप् तिप’=अयात् बना है ॥ वर्तमाने लट् ॥३।२।१२३॥ वर्तमाने ७॥ लट १११॥ अनु०-धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थ: वर्तमानेऽर्थे वर्तमानाद घातो: लट् प्रत्ययः परश्च भवति ॥ उदा०-पचति, भवति, पठति ॥ भाषार्थ:–[वर्तमाने] वर्तमान काल में विद्यमान घातु से [लट्] लट प्रत्यय होता हैं, और वह परे होता है । मामा विशेष:-क्रिया के प्रारम्भ से लेकर समाप्त न होने तक उस क्रिया का वर्त काल माना जाता है ।। म यहाँ से ‘वर्तमाने’ की अनुवृत्ति ३।३।१ तक जायेगी। लट: शतृशानचावप्रथमासमानाधिकरणे ॥३।२।१२४॥ लटः ६।१॥ शतृशानचौ १।२।। अप्रथमासमानाधिकरणे ७१॥ स०–शत च शानच च शतृशानचौ, इतरेतरयोगद्वन्द्वः । न प्रथमा अप्रथमा, नञ्तत्पुरुषः । समानम् अधिकरणम् यस्य तत समानाधिकरणम्, बहुव्रीहिः। अप्रथमया समानाधिकरणम्, अप्रथमासमानाधिकरणम्,तस्मिन्, तृतीयातत्पुरुषः । अनु०-वर्तमाने, धातोः॥ अर्थः धातोलेट: स्थाने शतृशानचावादेशो भवतः, अप्रथमान्तेन चेत् तस्य सामानाधिकरण्यं स्यात ॥ उदा०-पचन्तं देवदत्तं पश्य । पचमानं देवदत्तं पश्य । पठता कृतम । आसीनाय देहि ।। भाषार्थ:-[लट:] धातु से लट के स्थान में [शतृशानचौ] शत तथा शानच आदेश होते हैं, यदि [अप्रथमासमानाधिकरणे] अप्रथमान्त के साथ उस लट् का सामानाधिकरण्य हो ॥ तङानावात्मनेपदम् (१।४।६६) से प्रान=शानच् की प्रात्मनेपद संज्ञा होती है । अत: शानच् प्रात्मनेपदी धातों से ही होगा। तथा शत परस्मैपदी धातुओं से ही होगा ॥ उदा०-पचन्तं देवदत्तं पश्य (पकाते हुए देवदत्त को १ ३६२ अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्तो [द्वितीय:
- देखो)। पचमानं देवदत्तं पश्य । पठता कृतम् (पढ़ते हुए ने किया) । प्रासीनाय देहि (बठे हुए के लिए दो) | यहां से ‘लट: शतशानची’ की अनवत्ति शश१२६ तक जायेगी। सम्बोधने च ॥३।२।१२५॥ esiलडको सिम्बोधने ७१।। च प्र० ॥ अनु०-लट:, शत शानची, वर्तमाने, धातोः ।। अर्थः-सम्बोधने च विषये धातोर्लटः स्थाने शतृशानचावादेशौ भवतः ।। उदा० हे पचन् । हे पचमान ।। PRIES भाषार्थः- [सम्बोधने] सम्बोधन विषय में [च] भी धातु से लट् के स्थान में शतृ शानच आदेश होते हैं । सम्बोधने च (२।३।४७) से सम्बोधन में प्रथमा विभक्ति होती है । अतः प्रथमासमानाधिकरण होने से शत शानच् प्राप्त नहीं थे, विधान कर दिया है ॥ उदा०-हे पचन (हे पकाते हुए) । हे पचमान ।। लक्षणहेत्वोः क्रियायाः ॥३।२।१२६।। गायक लक्षणहेत्वोः ७३२॥ क्रियाया: ६।१॥ स०-लक्षणञ्च हेतुश्च लक्षणहेतु, तयोः, इतरेतरयोगद्वन्द्वः ॥ अनु०-लटः, शतृशानचौ, धातोः, वर्तमाने ।। लक्ष्यते चिह्नयते येन तल्लक्षणम् । हेतु: कारणम् ।। अर्थ:-क्रियाया: लक्षणहेत्वोरर्थयोर्वर्तमानाद घातोर्लट: स्थाने शतृशानचावादेशौ भवतः ।। उदा०-लक्षणे-शयानो भुङ्क्ते बालः । तिष्ठन् मूत्रयति पाश्चात्य: । हेतो-अधीयानो वसति । उपदिशन् भ्रमति ॥ होगा भाषार्थः-[क्रियाया:] क्रिया के [लक्षणहेत्वोः] लक्षण तथा हेतु अर्थों में वर्तमान धातु से लट के स्थान में शतृ शानच आदेश होते हैं ॥ उदा०-लक्षण में-शयानो भुङ्क्ते बालः (लेटा हुआ बालक खा रहा है)। तिष्ठन मूत्रयति पाश्चात्यः (खड़ा हुआ पाश्चात्य लघुशङ्का करता है) । हेतु में–प्रधीयानो वसति (पढ़ने के कारण से रहता है) । उपदिशन भ्रमति (उपदेश करने के हेतु से धमता है)। उदाहरण में शयानः क्रिया भुङ क्ते क्रिया को लक्षित कर रही है। इसी प्रकार तिष्ठन से मूत्रयति क्रिया लक्षित हो रही है । अत: यहाँ क्रिया के लक्षण में वर्तमान शीङ इत्यादि धातुएं हैं । सो लट के स्थान में शतृ शानच अादेश हुए हैं । इसी प्रकार वास करने का हेतु पठन क्रिया है, घूमने का हेतु उपदेश करना है । अत: अधी यानः तथा उपदिशन् हेतु अर्थ में वर्तमान हैं, सो शतृ शानच हो गये हैं। तो सत् ॥३।२।१२७॥ तो १२॥ सत् ११॥ तौ इत्यनेन शतृशानची निदिश्यते ।। अर्थ:– तो शतृ पादः] ततीयोऽध्यायः शानचौ सत्संज्ञको भवतः ॥ उदा०-ब्राह्मणस्य कुर्वन् । ब्राह्मणस्य कुर्वाणः । ब्राह्मणस्य करिष्यन् । ब्राह्मणस्य करिष्यमाणः ।। = भाषार्थ:- [तौ] वे शतृ तथा शानच [सत्] सत संज्ञक होते हैं ॥ सत संज्ञा होने से पूरणगुणसुहितार्थसद० (२।२।११) से षष्ठी-समास ‘ब्राह्मणस्य कुर्वाणः’ प्रादि में नहीं हुआ है । सारी सिद्धि यहाँ परि० ३।२।१२४ के समान होगी, केवल करिष्यन, करिष्यमाण: यहाँ लुटः सद्वा (३।३।१४) से लट् लकार के स्थान में शत शानच् हुए हैं, अतः लुट् लकार का प्रत्यय स्य (विकरण) भी पायेगा। शेष सार्व धातुका० (७।३।८४) से गुण इत्यादि पूर्ववत ही होगा । कुर्वन कुर्वाणः, यहाँ ‘उ’ तथा विकरण अत उत्० (६।४।११०) से उत्व हो जायेगा। कुरु प्रान, णत्व यणादेश होकर कुर्वाणः बन गया ॥ पूङ यजोः शानन् ॥३।२।१२८।। पूङ्यजोः ६॥२॥ शानन् १।१।। स०-पूङ० इत्यत्रेतरेतरयोगद्वन्द्वः ।। अनु० वर्तमाने, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थ:–पूङ यज इत्येताभ्यां धातुभ्यां वर्तमाने काले शानन् प्रत्ययो भवति ।। उदा०-पवमानः । यजमानः ।। भाषार्थ:-[पूयजो:] पूङ तथा यज धातुओं से वर्तमान काल में [शानन] शानन प्रत्यय होता है । शानन् प्रादि लट् के स्थान में नहीं होते, अत: लादेश नहीं हैं । उदा०-पवमानः (पवित्र करता हुआ) । यजमानः (यज्ञ करता हुआ) ॥ सिद्धि परि० ३।२।१२४ की तरह जानें । केवल यहाँ पूङ धातु को गुण होकर अवादेश भी होगा, यही विशेष है ।। 155 (OTH OF ताच्छील्यवयोवचनशक्तिषु नानश् ।।३।२।१२६॥ जजश ताच्छील्यवयोवचनशक्तिषु ७.३।। चानश् १।१।। स०-ताच्छील्यञ्च वयो वचनञ्च शक्तिश्च ताच्छील्यवयोवचनशक्तयः, तासु, इतरेतरयोगद्वन्द्वः ॥ अनु० वर्तमाने, घातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः–ताच्छील्यं = तत्स्वभावता, वयः= शरीरावस्था यौवनादिः, शक्तिः सामर्थ्यम् । ताच्छील्यादिध्वर्थेषु द्योत्येष धातोर्वर्त्तमाने काले चानश् प्रत्ययो भवति ॥ उदा०-कतीह मुण्डयमानाः । कतीह भषयमाणा:। वयोवचने–कतीह कवचं पर्यस्यमानाः । कतीह शिखण्डं वहमाना: । शक्ती-कतीह निघ्नानाः । कतीह पचमाना:॥ हालात भाषार्थ:-[ताच्छी ..] ताच्छील्य, वयोवचन, शक्ति इन अर्थों के द्योतित अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [द्वितीयः ३६४ होने पर धातु से वर्तमान काल में [चानश्] चानश् प्रत्यय होता है ।। उदा० ताच्छील्य में-कतीह मुण्डयमानाः (कितने यहाँ मण्डन किये हुए हैं)। कतीह भूषयमाणाः (कितने यहां सजे हुए है) । वयोवचन में-कतीह कवचं पर्यस्यमाना: (कितने यहाँ कवच धारण कर सकते हैं ? कवच धारण करने से शरीर की अवस्था यौवन का पता चलता है, क्योंकि बच्चे या बुड्ढे कवच नहीं धारण कर सकते) । कतीह शिखण्डं वहमानाः (कितने यहाँ शिखा धारण करनेवाले हैं)। शक्ति में कतीह निघ्नानाः (कितने यहाँ मारनेवाले हैं)। कतीह पचमानाः (कितने यहाँ पकानेवाले इधार्योः शत्रकृच्छ्रिणि ।।३।२।१३०॥ इधार्यो: ६।२।। शत, लुप्तप्रथमान्तनिर्देश: ॥ अकृच्चिणि ७१॥ स०-इङ च धारिश्च इधारी, तयोः, इतरेतरयोगद्वन्द्वः । न कृच्छ: प्रकृच्छः, नञ्तत्पुरुषः । अकृच्छः (धात्वर्थः) अस्यास्तीति अकृच्छी (कर्ता), तस्मिन् । प्रत इनि० (५।१।११५) इति इनिः प्रत्ययः॥ अनु०–वर्तमाने, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः- इङ धारि इत्येताभ्यां धातुभ्यां वर्तमाने काले शत प्रत्ययो भवति अकृच्छिणि कर्तरि वाच्ये ॥ उदा०–अधीयन पारायणम् । धारयन् उपनिषदम् ॥ भाषार्थः- [इधार्यो:] इङ् तथा धारि धातु से वर्तमानकाल में [शतृ] शतृ प्रत्यय होता है, यदि [अकृच्छिणि ] जिसके लिए किया कष्टसाध्य न हो, ऐसा कर्ता वाच्य हो तो ॥ उदा०-अधीयन पारायणम (पारायण ग्रंथ को सरलता से पढ़नेवाला)। धारयन् उपनिषदम् (उपनिषद् को सरलता से धारण करनेवाला)। अधि इङ् अनुम् त, यहाँ इयङ् (६।४१७७ से),तथा सवर्णदीर्घ होकर,अघीय अन त् रहा । संयोगान्तलोप होकर अधीयन् बन गया। इसी प्रकार ‘धृङ् अवस्थाने’ (तुदा० प्रा० ) धातु से धारयन भी बनेगा । हेतुमति च (३।१।२६) से यहां णिच हो ही जायेगा। यहाँ से ‘शतृ’ को अनुवृत्ति ३।२।१३३ तक जायेगी ।। द्विषोऽमित्रे ॥३।२।१३१॥ शान करीत द्विष: ५।१॥ अमित्रे ७१।। स०-न मित्रम् अमित्रं, तस्मिन, नञ्तत्पुरुषः ।। अनु०-शतृ, वर्तमाने, घातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः- अमित्रे कर्तरि वाच्ये द्विष धातो: शतृप्रत्ययो भवति वर्तमाने काले ॥ उदा०-द्विषन, द्विषन्तौ ॥ all भाषार्थ:-[द्विषः] द्विष धातु से [अमित्रे ] अमित्र-शत्रु कर्ता वाच्य हो, तो शतृ प्रत्यय वर्तमानकाल में होता है । उदा० -द्विषन् (शत्रु), द्विषन्तौ ।। पादः] ततीयोऽध्यायः ३६५ सुत्रो यज्ञसंयोगे ॥३।२।१३२॥ । सुञः ॥१॥ यज्ञसंयोगे ७।१॥ स०-यज्ञेन संयोगः यज्ञसंयोगः, तस्मिन, तृतीयातत्पुरुषः ॥ अन्-शत, वर्तमाने, घातोः, प्रत्ययः,परश्च ॥ अर्थ:-यज्ञसंयुक्ते ऽभिषवे वर्तमानात ‘षुञः’ धातोः शतृप्रत्ययो भवति वर्तमाने काले ॥ उदा० यजमाना: सुन्वन्तः ॥ भाषार्थ:-[यज्ञसंयोगे] यज्ञ से संयुक्त अभिषव में वर्तमान [सुञ:] षुञ् धातु से वर्तमानकाल में शत प्रत्यय होता है ।। उदा०-यजमानाः सुन्वन्तः (सोम रस निचोड़ते हुए यजमान) | सिद्धि परि० ११११५ के चिनुतः चिन्वन्ति की तरह जार्ने । शत के सार्वधातुक होने से इनु विकरण होगा, भेद केवल इतना ही है कि यहाँ शतृ प्रत्यय हैं, अत: पूर्व प्रदर्शित की हुई सिद्धियों के समान नुम् अागम होकर ‘सुन्वन्त’ बन गया । अब ‘जस्’ विभक्ति पाकर रुत्व विसर्जनीयादि होकर सुन्वन्तः बन गया । म ला कीवsh REE अर्हः प्रशंसायाम् ॥३।२।१३३॥ - अर्हः ५॥१॥ प्रशंसायाम् ७॥१॥ अनु०–शत, वर्तमाने, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः-अह धातोः प्रशंसायां गम्यमानायां वर्तमाने काले शतृप्रत्ययो भवति ।। उदा०–अर्हन् इह भवान् विद्याम् । अहंन् इह भवान् पूजाम् ॥ भाषार्थ:-[अहं धातु से [प्रशंसायाम् ] प्रशंसा गम्यमान हो, तो वर्तमानकाल में शतृ प्रत्यय होता है ।। उदा०–अर्हन् इह भवान् विद्याम् (आप विद्या पढ़ने के योग्य हैं) । अर्हन् इह भवान् पूजाम् (ग्राप सत्कार के योग्य हैं) । सिद्धि पूर्ववत् है।।
- प्रा क्वेस्तच्छीलतद्धर्मतत्साधुकारिषु ॥३।२।१३४॥ आ अ० ॥ क्वे: ५॥१॥ तच्छीलतद्धर्मतत्साधुकारिषु ७॥३॥ स०-स घात्वर्थ: शीलं यस्य स तच्छील:, बहुव्रीहिः । स धात्वर्थो धर्मो यस्य स तद्धर्मा, बहुव्रीहिः । साधु करोतीति साधुकारी, तस्य धात्वर्थस्य साघुकर्ता तत्साधुकारी, तत्पुरुषः। तच्छील श्च तद्धर्मा च तत्साधुकारी च तच्छीलतद्धर्मतत्साधुकारिणः, तेष, इतरेतरयोगद्वन्द्वः । अर्थः-अधिकारसूत्रमिदम् । आ एतस्मात् क्विप्संशब्दनाद्यानित ऊर्ध्वमनुक्रमिष्यामः, तच्छीलादिष कर्तृष ते वेदितव्याः ॥ तच्छील:= यः स्वभावतः फलनिरपेक्षस्तत्र प्रवर्त्तते । तद्धर्मा=यो विनाऽपि स्वभावेन ममायं धर्म इति प्रवर्तते । तत्साधुकारी= तत्कार्यकरणे कुशलः । उत्तरत्रवोदाहरिष्यामः ॥ भाषार्थ:-यह अधिकारसूत्र है । भ्राजभास० (३।२।१७७) इस सूत्र से विहित [पा क्वे:] क्विपपर्यन्त जितने प्रत्यय कहे हैं, वे सब [तच्छी ……रिष] है अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [द्वितीयः तच्छीलादि कर्ता अर्थों में जानने चाहिए । यहाँ अभिविधि में प्राङ है, सो अन्ये भ्योऽपि० (३।२।१७८) तक यह अधिकार जायेगा ।। तच्छील फल की आकांक्षा बिना किये स्वभाव से ही उस क्रिया में प्रवृत्त होनेवाला । तद्धर्मा=स्वभाव के बिना भी, अपना धर्म समझकर उस क्रिया में प्रवृत्त होनेवाला। तत्साधुकारी=उस क्रिया को कुशलता से करनेवाला ॥ तृन् ॥३।२।१३।। मग तृन् १॥१॥ अनु०-तच्छीलतद्धर्मतत्साधकारिषु, वर्तमाने, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थः-तच्छीलादिषु कर्तृषु वर्तमाने काले धातुमात्रात् तृन प्रत्ययो भवति ।। उदा०-परुषं वदिता । मृदु वक्ता । तद्धर्मणि-वेदान् उपदेष्टा । धर्मम् उपदेष्टा । तत्साधुकारिणि-प्रोदनं पक्ता । कटं कर्ता ॥ भाषार्थ:-तच्छीलादि कर्ता हों, तो वर्तमानकाल में धातुमात्र से [तृन्] तन प्रत्यय होता है । उदा०-परुषं वदिता (कठोर बोलने के स्वभाववाला), मदु वक्ता (नरम बोलने के स्वभाववाला)। तद्धर्म-वेदान् उपदेष्टा (वेदों का उपदेश करनेवाला) । धर्मम् उपदेष्टा । तत्साधुकारी-प्रोदनं पक्ता (चावल अच्छी तरह पकानेवाला) । कटं कर्ता ॥ तृजन्त की सिद्धि हमने परि० १११।२ में दिखाई है, उसी प्रकार वदिता आदि में जानें । वक्ता में च को क् चोः कु: (८।२।३०) से होता है । एकाच उपदेशे० (७१२।१०) से इट् प्रागम का निषेध होता है । उपपूर्वक दिश धातु से पूर्ववत् सब होकर, तथा व्रश्चभ्रस्ज० (८।२।३६) से श को ष,एवं ष्टुना ष्टुः (८१४/४० ) से त् को ट् होकर उपदेष्टा भी इसी प्रकार बनेगा। कृदतिङ् (३।१।३३) से इन सब प्रत्ययों की कृत् संज्ञा है । अतः कर्तरि कृत् (३।४।६७)से सब कर्ता में होंगे। इसीलिए ‘तच्छीलादि कर्ता हों, तो ऐसा सर्वत्र अर्थ किया जायेगा। अलंकृनिराकञ्प्रजनोत्पचोत्पतोन्मदरच्यपत्रपवृतु वृधुसहचर हष्णुच् ॥३।२।१३६॥ अलंकन…“चरः ५॥१॥ इष्णच शशा स०-अलंकृ० इत्यत्र समाहारो द्वन्द्वः ॥ अनु० - तच्छीलतद्धर्मतत्साधुकारिष, वर्तमाने, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः- अलंपूर्वक कञ्, निर् प्राङपूर्वक कृ, प्रपूर्वक जन, उत्पूर्वक पच, उतपूर्वक मद, रुचि, अपपूर्वक त्रा, वृतु, वृधु, सह, चर इत्येतेभ्यो धातुभ्य इष्णुच् प्रत्ययो भवति वर्त्तमाने काले तच्छीलादिषु कर्तष ।। उदा.-अलंकरिष्णुः । निराकरिष्णः । प्रजनिष्णुः । उत्पचिष्णु;। उन्मदिष्णुः। रोचिष्णुः । अपत्रपिष्णुः । वत्तिष्णुः । वर्धिष्णुः । सहिष्णुः । चरिष्णुः ।। जाकिरण ]ि पादः ] तृतीयोऽध्यायः ३६७ भाषार्थ:- [अलंकृ.“चर:] अलंपूर्वक कृञ्, निर् प्राङ् पूर्वक कृन्, प्र पूर्वक जन, उत् पूर्वक पच, उत् पूर्वक पत, उत् पूर्वक मद, रुचि, अप पूर्वक अप, वृतु, वृधु, सह, चर इन धातुओं से वर्तमान काल में तच्छीलादि कर्ता हों, तो [इष्णच] इष्णुच् प्रत्यय होता है ॥ उदा.- अलंकरिष्णुः (सजाने के स्वभाववाला)। निराकरिष्णुः (हटानेवाला) । प्रजनिष्णुः (पैदा करने के स्वभाववाला)। उत्पचिष्णुः (अच्छा पकानेवाला)। उत्पतिष्णु: (ऊपर जाने के स्वभाववाला)। उन्मदिष्णुः (उन्माद शील)। रोचिष्णुः (चमकने वाला)। अपत्रपिष्णुः (लज्जा-रहित) । वत्तिष्णुः (रहनेवाला) । वर्षिष्णुः (बढ़ने के स्वभाववाला) । सहिष्णुः (साहसी) । चरिष्णुः (घूमने के स्वभाववाला) । इष्णुच का अनुबन्ध हटा देने पर ‘इष्णु’ रहेगा । जहाँ गुण सम्भव है, वहाँ गुण होकर सारी सिद्धियाँ होंगी। अलंकृइष्णु =अलंकष्णु = अलंकरिष्णुः बना ॥ अ यहाँ से ‘इष्णुच’ को अनुवृत्ति ३।२।१३८ तक जायेगी। णेश्छन्दसि ॥३।२।१३७॥ जणे: शछन्दसि ७३१।। अनु०-इष्णुच, तच्छीलतद्धर्मतत्साधकारिषु, वर्त माने, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः-भयन्ताद् धातोर्वेदविषये तच्छीलादिषु कर्त्तष वर्तमाने काल इष्णच प्रत्ययो भवति ।। उदा०-दषदं धारयिष्णवः । वीरुधः पार यिष्णव: (ऋक १०६७।३) ॥ AL भाषार्थ:-[णेः] ण्यन्त धातुओं से [छन्दसि] वेदविषय में तच्छीलादि कर्ता हों, तो वर्तमानकाल में इष्णुच् प्रत्यय होता है । जिसस तर यहाँ से ‘छन्दसि’ की अनुवृत्ति ३।२।१३८ तक जायेगी। मन की भुवश्च ।।३।२।१३८॥ भुवः ५॥१॥ च अ०॥ अनु०-छन्दसि, इष्ण च, तच्छीलतद्धर्मतत्साधुकारिष, वर्तमाने, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थः-भूधातोः छन्दसि विषये तच्छीलादिषु कर्तृषु वर्तमाने काले इष्णुच् प्रत्ययो भवति ॥ उदा०-भविष्णुः ॥ भाषार्थ:- [भुव:] भू धातु से [च] भी वेदविषय में तच्छीलादि कर्ता हों, तो वर्तमानकाल में इष्णुच् प्रत्यय होता है । यहाँ से ‘भवः’ को अनुवृत्ति ३।२।१३६ तक जायेगी। ग्लाजिस्थश्च ग्स्नुः ।।३।२।१३६॥ ग्लाजिस्थ: ५।१।। च अ०॥ रस्नुः १११।। स०-ग्लाश्च जिश्च स्थाश्न ३६८ प्रष्टाध्यायी-प्रश [द्वितीयः ग्लाजिस्थाः, तस्मात, समाहारो द्वन्द्वः ॥ अनु०-भुवः, तच्छीलतद्धर्मतत्साधुकारिष, वर्त्तमाने, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थ:-ग्ला जि स्था इत्येतेभ्यो धातुभ्यश्चकारात भुवश्च ग्स्नुप्रत्ययो भवति तच्छीलादिषु कर्त्त षु वर्तमाने काले । उदा०– ग्लास्नुः । जिष्णः । स्थास्नुः । भूष्णुः ॥ मार भाषार्थ:- [ग्लाजिस्थ:] ग्ला, जि, स्था, तथा [च] चकार से भू धातु से भी [ग्स्नुः] पस्नु प्रत्यय वर्तमानकाल में होता है, तच्छोलादि कर्ता हों तो । उदा०-ग्लास्नुः (ग्लानि करनेवाला)। जिष्णुः । स्थास्नुः (ठहरनेवाला) । भूष्णुः ।। सिद्धियाँ परि० १३११५ में देखें ॥ त्रसिगृधिषिक्षिपेः क्नुः ॥३।२।१४०॥ त्रसिगृधिषिक्षिपेः ५॥१॥ क्नुः १११॥ स०-त्रसिश्च गधिश्च घृषिश्च क्षिपि श्च त्रसि…… क्षिपिः, तस्मात्, समाहारो द्वन्द्वः ॥ अनु०-तच्छीलतद्धर्मतत्साधु कारिषु, वर्तमाने, धातो:,प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः-त्रसी उद्वेगे, गृध अभिकाङक्षायाम, जिवृषा प्रागल्भ्ये, क्षिप प्ररणे इत्येतेभ्यो धातुभ्यस्तच्छीलादिषु कर्तष क्नुः प्रत्ययो भवति वर्तमाने काले । उदा०-त्रस्नुः । गृघ्नुः। धृष्णुः । क्षिप्नुः ॥ भाषार्थ:-[त्रसिगृधिधृषिक्षिपे:] त्रसि, गृधि, घृषि, तथा क्षिप धातुओं से तच्छीलादि कर्ता हों, तो वर्तमानकाल में [क्नुः] क्नु प्रत्यय होता है । उदा. त्रस्नुः, (डरनेवाला) | गृध्नुः (लालची) । धृष्णुः (ढीठ) । क्षिप्नुः (प्रेरक)॥ अनुबन्ध हटने पर क्नु का नु’ रह जायेगा। सिद्धियों में कुछ भी विशेष नहीं है । कित होने से गुण का विङति च (१।११५) से निषेध हो जायेगा। शमित्यष्टाभ्यो घिनुण ।।३।२।१४१॥ Pा शमिति लप्तपञ्चम्यन्तनिर्देशः ।। अष्टाभ्यः ५॥३॥ घिनुण १११॥ स-शम् इति =आदिः येषाम्, बहुव्रीहिः ।। अनु०-तच्छीलतद्धर्मतत्साधुकारिपु, वर्तमाने, घातोः, प्रत्यय:, परश्च ॥ अर्थः-शमादिभ्योऽष्टाभ्यो धातुभ्यस्तच्छीलादिषु कर्तष घिनुण प्रत्ययो भवति वर्तमाने काले । ‘शमु उपशमे’ इत्यारभ्य’मदी हर्षे’ इति यावत शमादयो दिवादिप वर्तन्ते ॥ उदा० - शमी । तमी। दमी । श्रमी। भ्रमी । क्षमी। क्लमी। प्रमादी, उन्मादी ।। भाषार्थ:-[शमिति ] शमादि [अष्टाभ्यः] पाठ धातुओं से [घिनुण] घिनुण प्रत्यय तच्छीलादि कर्ता हों, तो वर्तमानकाल में होता है ।। यहाँ से ‘घिनुण’ को अनुवृत्ति ३।२।१४५ तक जायेगी। पाद:] तृतीयोऽध्यायः सम्पृचानुरुधाङ्य माङ्यसपरिसृसंसृजपरिदेविसंज्वरपरिक्षिप- - Tी परिरटपरिवदपरिदहपरिमुहदुषद्विषद्रुहदुहयुजाक्रीड ( विविचत्यजरजभजातिचरापचरामुषाभ्याह- SAY नश्च ।।३।२।१४२॥ मान) के सम्पृचा….“हन: ॥१॥ च अ० ॥ स०-सम्पृचा० इत्यत्र समाहारो द्वन्द्वः ।। अनु० -घिनुण, तच्छोलतद्धर्मतत्साधुकारिषु, वर्तमाने, धातो:, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थ-सम् +पृच, अनु+रुध, आङ+ यम्, प्राङ+यस, परि+सृ, सम+सृज, परि+देवि, सम् + ज्वर, परि+क्षिप, परि + रट, परि+वद, परि+दह, परि + मुह, दुष, द्विष, द्रुह, दुह, युज, प्राङ+ क्रीड, वि+विच, त्यज, रज, भज, अति + चर, अप+चर, प्राङ+मुष, अभि प्राङ्+हन इत्येतेभ्यो धातुभ्यस्तच्छीला. दिपु कत्तषु वर्तमाने काले घिनुण प्रत्ययो भवति !! उदा.- सम्पर्की। अनुरोधी । आयामी । प्रायासी । परिसारी । संसर्गी। परिदेवी। संज्वारी। परिक्षेपी । परि राटी। परिवादी। परिदाही । परिमोही। दोषी । द्वेषी । द्रोही। दोही । योगी। आक्रोडी। विवेकी । त्यागी। रागी। भागी । अतिचारी । अपचारी। ग्रामोषी । अभ्याघाती॥ भाषार्थ:–[सम्पृचाहन:] सम् पूर्वक पची सम्पर्के (रुधा० प०), अनु पूर्वक रुधिर् प्रावरणे (रुधा० उ०), प्राङ् पूर्वक यम उपरमे (भ्वा० प०),प्राङ, पूर्वक यसु प्रयत्ने (दिवा० प०), परि पूर्वक सृ गतौ (भ्वा० ५०), सम् पूर्वक सृज विसर्गे (दिवा० प्रा०), परि पूर्वक देव देवने (भ्वा० प्रा०), सम् पूर्वक ज्वर रोगे (भ्वा०प०), परि पूर्वक क्षिप प्रेरणे (तुदा० उ०, दिवा० ५०), परि पूर्वक रट परिभाषणे (भ्वा प०), परि पूर्वक वद (भ्वा० ५०), परि पूर्वक दह भस्मीकरणे (भ्वा० ५०), परि पूर्वक मुह वैचित्ये (दिवा०प०), दुष वैकृत्ये (दिवा० ५०), द्विष अप्रीती (अदा० उ०), द्रुह जिघांसायाम् (दिवा० ५०), दुह प्रपूरणे (अदा० उ०), युजिर् योगे अथवा युज समाधौ (रुधा० उ०, दिवा० प्रा०), प्राङ, पूर्वक क्रीड़ विहारे (भ्वा० प०), वि पूर्वक विचिर् पृथग्भावे (रुघा० उ०), त्यज हानौ (भ्वा० ५०),रज रागे (दिवा० उ०), भज सेवायाम् (भ्वा० उ०), प्रति पूर्वक चर गती (भ्वा० प०), तथा अप पूर्वक चर मुष स्तेये (क्रया० ५०),अभि प्राङ पूर्वक हन (प्रदा० प०) इन धातुओं से [च] भी तच्छीलादि कर्ता हों, तो वर्तमानकाल में घिनुण प्रत्यय होता है। उदा०- सम्पर्को (सम्पर्क करनेवाला) । अनुरोधी (अनुरोध करनेवाला) । प्रायामी (विस्तार करनेवाला)। प्रायासी (प्रयत्न करनेवाला)। परिसारी (सब जगह जानेवाला)। संसर्गी (संसर्ग करनेवाला)। परिदेवी (शोक करनेवाला)। अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [द्वितीय: FIRTE संज्वारी (रोगी)। परिक्षेपी (चारों ओर फेंकनेवाला) । परिराटी (खूब रटने वाला)। परिवादी (खूब बोलनेवाला)। परिदाही (जलानेवाला)। परिमोही (खूब मोह करनेवाला)। दोषी (दोषयुक्त) । द्वषो (हष करनेवाला) । द्रोही (द्रोह करनेवाला) । दोही (दुहने वाला)। योगी (योग करनेवाला) । प्राक्रोडी (खब खेलनेवाला) । विवेकी (विवेकशील) । त्यागी (त्याग करनेवाला)। रागी (राग करनेवाला) । भागो (सेवन करनेवाला)। अतिचारी (खूब घूमने वाला)। अपचारी (व्यभिचारी) । आमोषी (चोर)। अभ्याघाती (हिंसक) ॥ रज धातु के अनुनासिक का लोप निपातन से होकर रागी बनता है । सम्पर्की, रागी, त्यागी प्रादि में पूर्ववत् चजो: कु० (७।३।५२) से कुत्व हो जायेगा । अत उपधाया: (७।२।११६) से प्रायासी प्रादि में घिनुण के णित होने से वृद्धि भी हो जायेगी। सब सिद्धियाँ पूर्वसूत्र के समान ही जानें ॥ ॥ औ र वो कषलसकत्थरम्भः ॥३।२।१४३।। । अति वौ ७१॥ कषल सकत्थस्रम्भः ५.१॥ स०-कष० इत्यत्र समाहारो द्वन्द्वः ॥ अनु०-घिनुण, तच्छीलतद्धर्मतत्साधुकारिष, वर्तमाने, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः –कष हिंसार्थः (म्वा०प०), लस श्लेषणक्रीडनयो? (म्वा०प०),कत्य श्लाघा याम् (भ्वा० प्रा०) स्रम्भ विश्वासे (भ्वा० प्रा०) इत्येतेभ्यो घातुभ्यो विशब्द उपपदे तच्छीलादिष कर्त्तषु वर्त्तमाने काले घिनुण प्रत्ययो भवति ॥ उदा. विकाषी । विलासी । विकत्थी । विस्रम्भी ( भाषार्थः- [वौ] वि पूर्वक [कपलसकत्यस्रम्भ:] कष, लस, कत्थ, स्त्रम्भ इन धातुओं से तच्छोलादि कर्ता हों, तो वर्तमानकाल में घिनण प्रत्यय होता है ।। उदा०—विकाषी (मारनेवाला)। विलासी (विलास करनेवाला) । विकत्थी (आत्मश्लाघा करनेवाला)। विनम्भी (विश्वास करनेवाला) ॥ RIP र यहाँ से ‘वो’ को अनुवृत्ति ३।२।१४४ तक जायेगी । YP अपे च लषः ॥३।२।१४४॥ अपे ७॥१॥ च अ० ॥ लष: ५।१।। अनु० -वौ, घिनुण्,तच्छीलतद्ध मंतत्साध कारिष, वर्तमाने, धातो:, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः–अपपूर्वांत्, चकारात् विपूर्वाच्च लष कान्तौ इत्येतस्माद् धातो: वर्तमाने काले घिनुण प्रत्ययो भवति तच्छीलादिष कर्तृषु ।। उदा-अपलाषी। विलाषी।” छ भापार्थ:- [अपे] अप पूर्वक [च] तथा चकार से वि पूर्वक [लष:] लष धातु से भी घिनुण प्रत्यय होता है ॥ उदा.-अपलाषी (लालची) । विलाषी (लालची) ॥ प्रतिको पाद:] तृतीयोऽध्यायः TRA ___प्रे लपसृद्रुमथवदवसः ॥३।२।१४५॥ी प्रे ७१।। लपसृद्र मथवदवस: ५।१॥ स०-लप० इत्यत्र समाहारो द्वन्द्वः ।। अनु०-घिनुण, तच्छीलतद्धर्मतत्साधुकारिष, वर्तमाने, धातो:, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थः–प्र उपपदे लप व्यक्तायां वाचि (भ्वा०प०), स, द्र. गतो (भ्वा०प०), मथे विलोडने (भ्वा०प०), वद व्यक्तायां वाचि (म्वा०प०), वस पाच्छादने (अदा० प्रा०) इत्येतेभ्यो धातुभ्यस्तच्छीलादिषु कत्तषु वर्तमाने काले घिनुण प्रत्ययो भवति ।। उदा०-प्रलापी। प्रसारी। प्रद्रावी । प्रमाथी । प्रवादी । प्रवासी ॥ भाषार्थ:-[प्रे] प्र पूर्वक [लपसद् मथवदवसः] लप, स, द्रु, मथ, वव, वस इन धातुओं से तच्छीलादि कर्ता हों, तो वर्तमानकाल में घिनुण प्रत्यय होता है ।। उदा०-प्रलापी (प्रलाप करनेवाला)। प्रसारी (घूमनेवाला)। प्रदावी (दौड़नेवाला)। प्रमाथी (मथनेवाला) । प्रवादी (खूब बोलनेवाला) । प्रवासी (विदेश में रहनेवाला)। निन्दहिसक्लिशखादविनाशपरिक्षिपपरिरटपरिवादि व्याभाषासूयो वुञ् ॥३।२।१४६॥ निन्द… - सूयः १।१, पञ्चम्यर्थे प्रथमा ॥ वञ् ११॥ स०-निन्द० इत्यत्र समाहारो द्वन्द्वः ॥ अनु-तच्छीलतद्धर्मतत्साधुकारिषु, वर्तमाने, धातोः, प्रत्यय: परश्च ॥ अर्थः-णिदि कुत्सायाम् (भ्वा० ५०), हिसि हिंसायाम् (रुधा०प०),क्लिशू विबाधने (क्रया०प०), खादृ भक्षणे (म्वा०प०), वि+णश प्रदर्शने ण्यन्त (दिवा० प०), परि+क्षिप, परि+रट, परि+वादि, वि+मा+भाष व्यक्तायां वाचि, असूय (कण्डवा) इत्येतेभ्यो धातुभ्यस्तच्छीलादिषु कत्तषु वर्तमाने काले वुन् प्रत्ययो भवति ॥ उदा०-निन्दकः । हिंसकः । क्लेशकः । खादक: । विनाशकः । परिक्षेपकः। परिराटकः । परिवादकः । व्याभाषक: । असूयक: ॥ भाषार्थ:-[निन्द–सूयः] निन्द, हिंस इत्यादि धातुओं से तच्छीलादि कर्ता हों, तो वर्तमानकाल में [वुञ्] वञ् प्रत्यय होता है । वुभ में जितकरण वृद्धि के लिये है ॥ उदा०-निन्दक: (निन्दा करनेवाला) । हिंसक: (हिंसा करनेवाला)। क्लेशकः (कष्ट देनेवाला) । खादकः (खानेवाला) । विनाशकः (नाश करनेवाला)। परिक्षेपकः (चारों प्रोर फैकनेवाला) । परिराटक: (अच्छी तरह रटनेवाला) । परिवादक: (चारों ओर से बजानेवाला)। व्याभाषक: (विविध बोलनेवाला) । असूयक: (निन्दक) ॥ णश तथा वद ण्यन्त धातुओं से यूज होता है, उस णि का ४०२ अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्तो [द्वितीयः णेरनिटि (६।४।५१) से लोप हो जायेगा। निदि हिसि धातुओं को इदितो नुम् ० (७१।५८) से नुम् प्रागम होकर निन्द हिंस बनता है । असूयकः में अतो लोप: (६.४।४८) से प्रकार का लोप होता है ।। यहाँ से ‘बु’ की अनुवृत्ति ३।२।१४८ तक जायेगी। 15 दिन पुस देविक्रुशोश्चोपसर्गे।।३।२।१४७॥ माया _देविक्रुशोः ६।२॥ च अ० ॥ उपसर्ग ७॥१॥ स०-देवि० इत्यत्रेतरेतरयोग द्वन्द्वः ॥ अनु०-वुन, तच्छीलतद्धर्म तत्साधकारिष, वर्तमाने, धातो:,प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थः-दिव कूजने (चुरा० उ०), अथवा दिवु क्रीडाद्यर्थकः (दिवा०प०), कुश अाह्वाने इत्येताभ्यां सोपसर्गाभ्यां धातुभ्यां तच्छीलादिषु कत्तषु वर्तमाने काले बुञ् प्रत्ययो भवति ॥ उदा.-प्रादेवकः, परिदेवकः । आक्रोशकः, परिक्रोशकः ॥ पर भाषार्थ:- [उपसर्गे] सोपसर्ग [देबिक्रुशो:] दिव तथा क्रुश धातुओं से [च] भी तच्छोलादि कर्ता हों, तो वर्तमानकाल में वञ् प्रत्यय होता है । दिव धातु चुरादि अथवा दिवादिगण को ली गई है। चुरादिवाली से तो चरादिभ्यो णिच् (३११॥ २५) से णिच हो ही जायेगा, तथा दिवादिवाली से हेतुमति च (३।१।२६) से णिच् लाकर णिजन्त से प्रत्यय लावेंगे। पुनः णिच का पूर्ववत लोप हो जायेगा ।। उदा०-प्रादेवकः (जमा खेलनेवाला), परिदेवका (खेलनेवाला)। प्राक्रोशकः (क्रुद्ध होकर चिल्लानेवाला), परिक्रोशकः (सब अोर से चिल्लानेवाला)। चलनशब्दार्थादकर्मकाधुच् ॥३।२।१४८।। 17 चलनशब्दार्थात् ५।१।। अकर्मकात् ५॥१॥ युच १।१।। स०-चलनं च शब्दश्च चलनशब्दो, तो अथों यस्य (जातौ एकवचनम् ) स चलनशब्दार्थः ( धातुः), तस्मात्, द्वन्द्वगर्भो बहुव्रीहिः । न विद्यते कर्म यस्य सोऽकर्मकः, तस्मात, बहुव्रीहिः ॥ अनु० तच्छीलतद्धर्मतत्साधुकारिषु, वर्तमाने, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः-अकर्म केभ्य इचलनार्थेभ्यश्च धातुभ्यस्तच्छीलादिषु कर्तृषु वर्तमाने काले युच् प्रत्ययो भवति ॥ उदा०-चलन: । चोपनः । शब्दार्थेभ्य:-शब्दनः । रवणः ॥ 30) 1 (5 भाषार्थ:-[अकर्मकात्] अकर्मक जो [चलनशब्दार्थात्] चलनार्थक और शब्दार्थक धातुएं उनसे तच्छोलादि कर्ता हों, तो वर्तमानकाल में [यच] युच् प्रत्यय होता है ।। उदा०-चलनः (चलनेवाला)। चोपनः (मन्द गति करनेवाला) शब्दार्थकों से-शब्दनः (शब्द करनेवाला)। रवण: (शब्द करनेवाला) ॥ यु को अन युवौरनाको( १)से हो ही जायेगा। रु को गुण तथा अवादेश होकर रवणः बनेगा। पादः] तृतीयोऽध्यायः .४०३ यहां से ‘अकर्मकात्’ की अनुवृत्ति ३।२।१४६ तक, तथा ‘युच्’ को अनुवृत्ति ३।२।१५३ तक जायेगी। को अनुदात्तेतश्च हलादेः ॥३।२।१४६।। अनुदात्तेतः ५॥१॥ च अ०॥ हलादेः ५॥१॥ स०-अनुदात्त इत् यस्य स अनुदात्तेत, तस्मात्, बहुव्रीहिः । हल् आदिः यस्य स हलादिः, तस्मात्, बहुव्रीहिः ॥ अन – अकर्मकात, युच, तच्छीलतद्धर्मतत्साधुकारिषु, वर्तमाने, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थः-अनुदात्तेत यो हलादिरकर्मको धातुस्तस्माद् युच प्रत्ययो भवति तच्छीलादिषु कत्तष वर्तमाने काले ॥ उदा०–वर्तनः । वर्द्धनः । स्पर्धनः ॥ भाषार्थ:- [अनुदात्तेत:] अनुदात्तेत् जो [हलादे:] हल् प्रादिवाली प्रकर्मक धातुएं उनसे [च] भी तच्छोलादि कर्ता हों, तो वर्तमानकाल में युच् प्रत्यय होता है । वृतु वृधु तथा स्पर्ध धातुएं, अनुदात्तेत हलादि तथा अकर्मक हैं, अतः इनसे युच प्रत्यय हो गया है ।। उदा०-वर्तनः (बरतनेवाला) । वर्द्धन: (बढ़नेवाला)। स्पर्धनः (स्पर्धा करनेवाला)॥ जुचक्रम्यदन्द्रम्यसृगृधिज्वलशुचलषपतपदः ॥३।२।१५०॥ जुच.. पद: ५॥१॥ स०-जुच० इत्यत्र समाहारो द्वन्द्वः । अनु०-युच्, तच्छील तद्धर्मतत्साधकारिष, वर्तमाने, धातोः, प्रत्यय:, परश्च ॥ अर्थः-‘जु’ इति सौत्रो घातुः । चक्रम्य दन्द्रम्य इति द्वौ यङन्तौ । जु, चङ क्रम्य, दन्द्रम्य, सृ, गृधु अभि काङ्क्षायां, ज्वल दीप्तो, शुच शोके, लष कान्तो, पल्लु गतो, पद गतौ इत्येतेभ्यो धातुभ्यतच्छीलादिषु कर्तृषु वर्तमाने काले युच् प्रत्ययो भवति ॥ उदा.-जवनः। चक्रमण: । दन्द्रमणः । सरणः । गर्द्धनः । ज्वलनः । शोचनः । लषणः । पतनः । पदनः ॥318 जो शाशक हिम शिर ___भाषार्थ:-‘ज’ यह मौत्र धातु है । चङ क्रम्य, दन्द्रम्य, ये यङन्त धातुयें हैं। [जुचपद:] जु, चङक्रम्ब, दन्द्रम्य, सू, गृधु, ज्वल, शुच, लष, पत, पद इन धातुओं से तच्छीलादि कर्ता हों, तो वर्तमानकाल में युच् प्रत्यय होता है । उदा० जवनः (गति करनेवाला)। चङक्रमण: (टेढ़े-मेढ़े गति करनेवाला)। दन्द्रमणः (टेढ़ी गति करनेवाला) । सरणः (गति करनेवाला) । गर्धनः (लालची)। ज्वलनः (जलनेवाला) । शोचनः (शोक करनेवाला)। लषण: (लालची) । पतनः (गिरने वाला) । पदनः (गति करनेवाला) ॥ क्रम तथा द्रम धातुओं से ‘या’ होकर चङ क्रम्य दन्द्रम्य नई धातुयें बनेंगी, जिनकी सिद्धि परि० ३१॥२३ पर देखें । आगे ४०४ अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [द्वितीयः TEEJEpp: FEES चङ कम्य और दन्द्रम्य से युच् होकर यु को ‘अन’ हो जाता है । यस्य हल:(६।४।४६) से ‘य’ का लोप भी यहाँ हो जायेगा॥ र क्रुधमण्डार्थेभ्यश्च ॥३।२।१५१।। क्र घमण्डार्थेभ्यः ५।३।। च अ० ॥ स०–क्रधश्च मण्डश्च धमण्डौ, तो प्रौँ येषां ते घमण्डार्थाः,तेभ्यः, द्वन्द्वगर्भो बहुव्रीहिः ।। अनु०-युच, तच्छीलतद्धर्म तत्साधुकारिष, वर्तमाने, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थ:-क्रुधार्थेभ्यो मण्डार्थेभ्यश्च धातुभ्य: तच्छीलादिषु कर्त्तषु वर्तमाने काले युच् प्रत्ययो भवति ॥ उदा.-क्रोधनः । रोषणः । मण्डार्थेभ्यः-मण्डनः । भूषणः ॥ . भाषार्थ:-[ऋधमण्डार्थेभ्य:] ऋधार्थक तथा मण्डार्थक धातुओं से [च] भी तच्छोलादि कर्ता हों, तो वर्तमानकाल में युच् प्रत्यय होता है ॥ उदा. क्रोषनः (कोष करनेवाला) । रोषणः (रोष करनेवाला) । मण्डार्थकों से-मण्डन: (सजानेवाला) । भूषणः (सजानेवाला) ॥ न यः ॥३।२।१५२॥ न अ० ॥ यः ५॥१॥ अनु०-युच्, तच्छीलतद्धर्मतत्साधुकारिषु, वर्तमाने, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थ:–यकारान्ताद् घातोयुच प्रत्ययो न भवति तच्छी लादिषु कर्तृषु वर्तमाने काले ।। उदा०-क्नूयिता । मायिता ।। " भाषार्थः-[य:] यकारान्त धातुओं से तच्छीलादि कर्ता हों, तो वर्तमानकाल में यच् प्रत्यय [न | नहीं होता है । सामान्य करके अनुदात्ते० (३।२।१४६) इत्यादि से युच की प्राप्ति में यह निषेध है ॥ उदा०-क्नूयिता (शब्द करनेवाला)। क्ष्मायिता (कम्पित होनेवाला) । उदाहरण में अनुदात्ते. (३।२।१४६) से क्नूयी क्ष्मायो से युच् प्राप्त था, वह नहीं हुमा, तो औसगिक तुन् (३।२।१३५) से तून प्रत्यय हो गया। सेट होने से इट् पागम हो ही जायेगा। परि० १।१।२ की तरह सिद्धि जान ॥ माफी पछि यहाँ से ‘न’ की अनुवृत्ति ३।२।१५३ तक जायेगी । असा रय (Tronm सूददापदाक्षश्च ।।३।२।१५३॥
- सूददीपदीक्ष: ५।१।। च अ०॥ स-सूद० इत्यत्र समाहारो द्वन्द्वः ॥ अनु० न, युच्, तच्छीलतद्धर्मतत्साधुकारिषु वर्तमाने, घातोः, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्णः षूद क्षरणे (भ्वा० प्रा०), दीपी दीप्तौ (दिवा० प्रा०), दीक्ष मौण्डये (म्वा० प्रा०) इत्येतेभ्यो धातुभ्यस्तच्छीलादिष कत्तृ ष वर्त्तमाने काले युच् प्रत्ययो न भवति ।। उदा०-सूदिता। दीपिता । दीक्षिता ।। पाद:] । तृतीयोऽध्यायः ४०५ भाषार्थ:-[सूददीपदीक्षः] खूद, दीपी, दीक्ष इन धातुओं से [च] भी तच्छी लादि कर्ता हों, तो वर्तमानकाल में युच् प्रत्यय नहीं होता। यह भी अनुदात्तेतश्च हलादे: (३।२।१४९) का अपवादसूत्र है। युच का प्रतिषेध हो जाने पर पूर्ववत औत्सगिक तृन हो जाता है ।। उदा०-सूदिता (क्षरित होनेवाला)। बीपिता (प्रदीप्त होनेवाला दीक्षिता (दीक्षित होनवाला) लषपतपदस्थाभूवषहनकमगमशभ्य उकञ् ॥३।२।१५४॥ लषपत · शभ्य: ५।३। उकञ् २१॥ स०-लष० इत्यत्रेतरेतरयोगद्वन्द्वः।। अन० तच्छीलतद्धर्मतत्साधकारिषु, वर्तमाने, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थः-लष, पत, पद, स्था, भू, वृषु सेचने (म्वा० प.), हन, कमु कान्तौ (भ्वा० प्रा०), गम, श हिंसायाम् (ऋया. प०) इत्येतेभ्यो धातुभ्यस्तच्छीलादिषु कर्तष वर्तमाने काले उकन प्रत्ययो भवति ॥ उदा०-अपलाषुकं वृषलसङ्गतम् । प्रपातुका गर्भा भवन्ति । उपपादुकं सत्त्वम् । उपस्थायुका एनं पशवो भवन्ति । प्रभावुकमन्न भवति । प्रवर्ष का: पर्जन्याः । प्राघातुक: । कामुकः । आगामुकं वाराणसी रक्ष पाहुः। किंशारुकं तीक्ष्णमाहुः ॥ भाषार्थ:-[लष …. शभ्यः] लष, पत इत्यादि धातुओं से तच्छीलादि कर्ता हों, तो वर्तमानकाल में [उकञ्] उकञ् प्रत्यय होता है ॥ उदा०-अपला षुकं वृषलसङ्गतम् (वृषल की सङ्गति अनुचित होती है) । प्रपातुका मर्भा भवन्ति (गर्भ पतनशील होते हैं)। उपपादुकं सत्त्वम् (उपपादन करनेवाला पदार्थ) । उपस्थायुका एनं पशवो भवन्ति (इसके प्रति पशु उपस्थित होते हैं)। प्रभावुकमन्न भवति (प्रभाव करनेवाला अन्न होता है)। प्रवर्ष काः पर्जन्याः (बरसनेवाले बादल)। प्राघातुकः (हिंसक) । कामुकः (काम से पीडित)। आगामुकं वाराणसी रक्ष पाहुः । किंशारुक तीक्ष्णमाहुः (तीर को तीक्ष्ण कहते हैं) ॥ उकञ् के मित् होने से वृद्धि हो जाती है । उपस्थायुकः में आतो युक० (७३।२३) से युक का आगम भी हुआ है । जल्पभिक्षकुट्टलुण्ठवृङः षाकन् ।।३।२।१५५।। जल्य वृङ: ५॥१॥षाकन् ११॥ स०- जल्प० इत्यत्र समाहारो द्वन्द्वः ॥ अनु०-तच्छीलतद्धर्मतत्साधुकारिषु, वर्त्तमाने, धातो:, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः– जल्प व्यक्तायां वाचि (भ्वा०प०), भिक्ष भिक्षायाम् (भ्वा० प्रा०), कुट्ट छेदन भर्त्सनयोः (चुरा०प०)। लुण्ठ स्तेये (चुरा०प०), वृङ् सम्भक्तो (क्रया० प्रा०) इत्येतेभ्यो धातुभ्यस्तच्छीलादिष कर्तृषु षाकन् प्रत्ययो भवति वर्तमाने काले ॥ उदा. जल्पाकः । भिक्षाकः । कुटटाक: । लण्ठाकः, लण्टाक इत्येके । वराकः, वराकी । अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [द्वितीय: _भाषार्थ:-[जल……वृङः] जल्पादि धातुओं से तच्छीलादि कर्ता हों, तो वर्तमानकाल में [षाकन] षाकन प्रत्यय होता है ॥ उदा०-जल्पाकः (व्यर्थ बोलनेवाला) । भिक्षाकः (भिक्षा मांगनेवाला) । कुट्टाकः (छेद करनेवाला)। लुण्ठाकः (लटनेवाला) । वराकः (बेचारा, दीन) ।। षाकन का अनुबन्ध हट जाने पर ‘पाक’ रह जाता है । षाकन में षित होने से स्त्रीलिङ्ग की विवक्षा में षिद् गौरादिभ्यश्च (४।११४१)से डोष होगा। वृ प्राक=वर् पाक = बराक डोष = वराकी बना है || ममि PERATI क . प्रजोरिनि: ॥३।२।१५६॥ सनम - प्रजोः ५॥१॥ इनिः ११॥ अनु०-तच्छीलतद्धर्मतत्साधुकारिषु, वर्तमाने, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्णः-प्रपूर्वाद् ‘जु’ धातो: तच्छीलादिषु कर्त्तषु वर्त्त माने काल इनिः प्रत्ययो भवति ॥ उदा०-प्रजवी, प्रजविनौ ॥ कि भाषार्थ:-[प्रजोः] प्र पूर्वक जु धातु से तच्छीलादि कर्ता हों, तो वर्तमान काल में [इनिः] इनि प्रत्यय होता है । प्र जु इन == जो इन =प्रजब इन सु, पूर्ववत होकर सौ च (६।४।१३)से दीर्घ, तथा नकारलोप प्रादि पूर्ववत होकर प्रजवी (भागनेवाला) बना है ।। जीना यहाँ से ‘इनिः’ को अनुवृत्ति ३।२।१५७ तक जायेगी ॥ जिदृक्षिविधीण्वमाव्यथाभ्यमपरिभूप्रसूभ्यश्च ॥३।२।१५७।। जिद- सुभ्यः ५॥३॥ च अ० ॥ स०-जिदृ० इत्यत्रेतरेतरयोगद्वन्द्वः ।। अनु०-इनि:, तच्छीलतद्धर्मतत्साधकारिषु, वर्तमाने, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः-जि जये, दृङ प्रादरे, क्षि क्षये, अथवा क्षि निवासगत्योः, वि+श्रिा सेवा याम, इण गती, टुवम उद्गिरणे, नत्र पूर्वक व्यथ भयसञ्चलनयोः, अभिपूर्वक अम रोगे, परिपूर्वक भू, प्रपूर्वक पू प्रेरणे इत्येतेभ्यो धातुभ्यस्तच्छीलादिषु कर्तष वर्तमाने ऽर्थे इनिः प्रत्ययो भवति ॥ उदा०-जयी । दरी । क्षयी। विश्रयी। प्रत्ययी । वमी। अव्यथी। अभ्यमी । परिभवी। प्रसवी।। sagroripos भाषार्थ:-[जिदृ…-प्रसूभ्यः] जि, द, क्षि प्रावि धातुओं से [च] भी तच्छीलादि कर्ता हों, तो वर्तमानकाल में इनि प्रत्यय होता है । उदा०-जयी (जीतनेवाला) । वरी (पादर करनेवाला) । क्षयी (राजयक्ष्मा का रोगी) । विश्रयी (सेवा करनेवाला)। प्रत्ययी (उल्लङ्घन करनेवाला) । वमी (वमन करने वाला) । अन्यथी (अभय) । अम्यमी (रोगी)। परिभवी (पैदा होनेवाला) । प्रसवो (प्रेरणा देनेवाला) ॥ जयो क्षयी प्रादि में गुण होकर अयादेश हो जायेगा, पादः] तृतीयोऽध्यायः शेष पूर्ववत् है । अति पूर्वक इण धातु को गुण अयादेश करके ‘प्रति अयो’, पणादेश होकर प्रत्ययी बन गया है । अभि श्रम इनि,यहाँ यणादेशादि होकर अभ्यमी बना है।। स्पृहिगृहिपतिदयिनिद्रातन्द्राश्रद्धाभ्य पालुच् ॥३।२।१५८॥ रिमा - स्पृहि …… श्रद्धाभ्यः ॥३॥ आलच ११॥ स०-स्पहि० इत्यत्रेतरेतरयोग द्वन्द्वः ।। अनु०-तच्छीलतद्धर्मतत्साधुकारिष, वर्तमाने, धातो; प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थ:–स्पृह ईप्सायाम्, गृह ग्रहणे, पत गतो, दय दानगतिरक्षणेषु, निपूर्वः तत्पूर्वश्च द्रा कुत्सायां गतो, श्रतपूर्व: डधान इत्येतेभ्यो धातुभ्यस्तच्छीलादिषु कर्तुषु वर्तमाने काल अालुच प्रत्ययो भवति ॥ उदा०-स्पृहयालुः । गृहयालः । पतयालुः। दयालुः । निद्रालुः । तन्द्रालुः । श्रद्धालुः ॥ काय भाषार्थ:- [स्पृहि ……. श्रद्धाभ्य:] स्पृह गृह आदि धातुओं से तच्छीलादि कर्ता हों, तो वर्तमानकाल में [पालुच ] पालच् प्रत्यय होता है । उदा० -स्पृहयालुः (इच्छा करनेवाला) । गृहयालुः (ग्रहण करनेवाला)। पतयालु (पतनशील)। दयालु: (दयाशील)। निद्रालु:(अधिक सोनेवाला)। तन्द्रालुः (प्रालसी)। श्रद्धालुः (श्रद्धावान् )। स्पृह गृह पत ये तीन धातुयें चुरादिगण में प्रदन्त पढ़ी हैं, सो णिच् होकर सना द्यन्ता धातवः (३।१।३२) से नयी धातु बनकर पालुच होगा । स्पृह आदि में णिच् परे रहते अतो लोप: (६।४१४८) से इन तीनों के प्रकार का लोप होगा। अतः स्पृह गृह में पुगन्तलपू० (७।३।८६) से जब उपधा को गण, तथा पत में प्रत उप घाया: (७२।११६) से वृद्धि होने लगेगी, तब यह अकार स्थानिवत् हो जायेगा। तो लघु एवं प्रकार उपघा न मिलने से गुण वृद्धि भी नहीं होंगी। पालुच परे रहते ‘स्पृह’ प्रादि धातुओं को अयादेश होकर स्पृहयालुः प्रादि बनेगा । तन्द्रालु में तत् के अन्तिम तकार का नकार निपातन से हुआ है ।। दाधेसिशदसदो रुः ॥३।२।१५६॥ दाधेट … - सद: ५।१॥ रु: १।१।। स०-दाश्च धेट च सिश्च शदश्च सद् च दाधेसिशदसद, तस्मात्, समाहारो द्वन्द्वः॥ अनु०-तच्छीलतद्धर्मतत्साधु कारिषु, वर्तमाने, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः-दा, घेट, पिन बन्धने, शल शातने, षद्ल विशरणगत्यवसादनेषु इत्येतेभ्यो धातुभ्यस्तच्छीलादिषु कर्तृषु वर्त्तमाने काले रु; प्रत्ययो भवति ।। उदा०-दारुः । घारु । सेरुः । शद्र । सद्रः॥ भाषार्थ :- [दाघेट्सिशदसद:] दा, घेट, सि, शद, सद् इन धातुओं से तच्छी लादि कर्ता हों, तो वर्तमानकाल में [रु:] रु प्रत्यय हो जाता है ॥ षिञ् तथा षद्ल के को धात्वादे: (६।१।६२) से स् हो जायेगा ॥ उदा०-दारु: (दानी): घारु: (पान करनेवाला) । सेरु: (बांधनेवाला) । शद्र : ( तेज करनेवाला) । सन् : (दुःख माननेवाला) ॥ ४.८ अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [द्वितीयः सृघस्यदः क्मरच ॥३।२।१६०॥ सृघस्यद: ५॥१॥ क्मरच् १११॥ स०-८० इत्यत्र समाहारो द्वन्द्वः ॥ अनु० तच्छी जतद्धर्मतत्साधु कारिषु, वर्तमाने, घातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्यः-स्, घसि, अद इत्येतेभ्यो धातुभ्यस्तच्छीलादिषु कर्त्तषु वर्तमाने काले क्मरच् प्रत्ययो भवति । उदा०-समरः । घस्मरः । अमरः ।। ri भाषार्थ:-[सृघस्यदः] स, घसि, अद् धातुओं से तच्छीलादि कर्ता हों, तो वर्तमानकाल में [क्मरच्] क्मरच् प्रत्यय होता है ।। उदा०-सृमरः (मृगविशेष)। घस्मरः (खाने के स्वभाववाला, खाऊ) । अमरः (खाने के स्वभाववाला) ॥ क्म रच् का अनुबन्ध हटने पर ‘मर’ रूप रह जाता है । कित होने से गुण निषेध (१॥ १५ से) होता है ।
- भञ्जभासमिदो घुरच ॥३।२।१६१॥ भञ्जभासमिद: ५१।। घुरच १११॥ स०-भञ्जश्च भासश्च मिद च भञ्ज भासमिद्, तस्मात, समाहारो द्वन्द्वः ॥ अनु०-तच्छीलतद्धर्मतत्साधुकारिषु, वर्तमाने, घातो:, प्रत्यय:, परश्च ॥ अर्थ:-भञ्ज, भास, मिद इत्येतेभ्यो धातुभ्यस्त च्छीलादिषु कर्त्तषु वर्तमाने काले घुरच प्रत्ययो भवति ।। उदा०-भङ्गुरं काष्ठम् । भासुरं ज्योतिः । मेदुर: पशुः ॥ __ भाषार्थः-[भजभासमिद:] भञ्ज, भास, मिद इन धातुओं से तच्छोलादि कर्ता हों, तो वर्तमानकाल में [घुरच् ] प्रत्यय होता है ।। उदा०-भङ गुरं काष्ठम् (टूटनेवाली लकड़ी) । भासुरं ज्योति: (दीप्तिशील ज्योति) । मेदुरः पशः (चर्बी वाला=मोटा पशु) ।। भङ गुरम् की सिद्धि परि० १।३।८ में देखें। शेष सिद्धि में कुछ भी विशेष नहीं है । विदिभिदिच्छिदेः कुरच् ॥३।२।१६२।। विदिभिदिच्छिदे: ५॥१॥ कुरच् ११॥ स०-विदि० इत्यत्र समाहारो द्वन्द्वः ॥ अनु०-तच्छीलतद्धर्मतत्साधुकारिषु, वर्तमाने, घातो:, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थः-विद् भिद्, छिद इत्येतेभ्यो धातुभ्यस्तच्छीलादिषु कर्त्तषु वत्त’माने काले कुरच् प्रत्ययो भवति ।। उदा०-विदुरः। भिदुरं काष्ठम् । छिदुरा रज्जु: ॥ ____भाषार्थ:-[विदिभिदिच्छिदे:] विद्, भिदिर्, छिदिर् इन धातुओं से तच्छी लादि कर्ता हों, तो वर्तमानकाल में [कुरच] कुरुच प्रत्यय होता है । यहाँ विद से ज्ञानार्थक विद का ग्रहण है, न कि विद्ल लाभे का । उदा०-विदुरः (पण्डित) । भिदुरं काष्ठम् (फटनेवाली लकड़ी)। छिदुरा रज्जुः (टुटनेवाली रस्सी) । कुरुच का अनुबन्ध लोप होकर ‘उर’ रह जाता है । पादः] तृतीयोऽध्यायः का Is इनशजिसत्तिभ्यः क्वरप् ॥३।२।१६३॥ गात सा इण् सत्तिभ्यः ५॥३॥ क्वरप १३॥ स०–इण इत्यत्रेतरेतरयोगद्वन्द्वः ॥ अनु०-तच्छीलतद्धर्मतत्साधुकारिषु, वर्तमाने, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थ: इण णश, जि, सृ इत्येतेभ्यो धातुभ्यतच्छीलादिषु कर्तषु वर्तमाने काले क्वरप प्रत्ययो भवति ॥ उदा०-इत्वरः, इत्वरी । नश्वरः, नश्वरी। जित्वरः, जित्वरी। सृत्वरः, सृत्वरी ॥ - भाषार्थ:- [इनशजिसत्ति भ्य:] इण, णश, जि, स इन धातुओं से तच्छी लादि कर्ता हों, तो वर्तमानकाल में [क्वरप] क्वरप् प्रत्यय होता है ॥ उदा० इत्वरः (गमनशील), इत्वरी । नश्वरः (नाशवान ), नश्वरी । जित्वरः (जयशील), जित्वरी। सत्वरः (गमनशील), सत्वरी।। क्वरप का अनुबन्ध हटकर ‘वर’ शेष रहता है । इत्वरः,जित्वरः,सृत्वरः में क्वरप के पित् होने से ह्रस्वस्य पिति कृति तुक (६।१।६९) से तुक् प्रागम होता है । कित होने से उदाहरणों में गुण निषेध हो जायेगा । स्त्रीलिङ्ग में टिड्ढाणञ्० (४।१।१५) से डोप होकर इत्वरी आदि रूप भी जाने । यहाँ से ‘क्वरप्’ को अनुवृत्ति ३।२।१६४ तक जायेगी। गत्वरश्च ।।३।२।१६४॥ गत्वरः १।१।। च अ०॥ अनु०-क्वरप, तच्छीलतद्धर्मतत्साधुकारिषु, वर्तमाने, धातो:, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः-गत्वर इति निपात्यते । गमधातो: क्वरप प्रत्ययः अनुनासिकलोपश्च निपात्यते तच्छीलादिष्वर्थेषु वर्त्तमाने काले ॥ भाषार्थः-[गत्वरः] गत्वर यह शब्द [च] भी क्वरप्प्रत्ययान्त निपातन किया जाता है । गम्ल धातु से क्वरप प्रत्यय तथा अनुनासिक का लोप तच्छीलादि अर्थों में वर्तमानकाल में निपातन किया है । झल् परे रहते अनुनासिक का लोप(६॥ ४।३७ से) कहा है । सो क्वरप् परे रहते प्राप्त नहीं था, अतः निपातन कर दिया । अनुनासिक का लोप हो जाने पर पूर्ववत् तुक आगम हो ही जायेगा। ग तुक् क्वरप् =गत्वरः (गमनशील) बना ॥ साह जागुरूकः ।।३।२।१६५॥ माहाशा जागु: ५।१॥ ऊक: ११॥ अनु० -तच्छीलतद्धर्मतत्साधुकारिषु, वर्तमाने, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः-तच्छीलादिषु कर्तुषु वर्तमाने काले जागर्तेर्धातो: ‘ऊक:’ प्रत्ययो भवति ॥ उदा०-जागरूकः ॥ ४१० अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [द्वितीयः __भाषार्थः- [जागुः] जागृ धातु से [ऊकः] ऊक प्रत्यय होता है, तच्छीलादि कर्ता हों तो वर्तमानकाल में ॥ ऊक परे रहते जाग को जागर गुण होकर जागरूकः (जागरणशील) बना है । इस सूत्र का ‘जागरूकः’ पाठ प्रायः उपलब्ध होता है। Tyo यहां से ‘ऊक:’ की अनुवत्ति ३।२।१६६ तक जायेगी ।। राम AU यजजपदशां यङः ॥३।२।१६६।। न. यजजपदशां ६।३॥ यङ: ५।१।। स०-यज० इत्यत्रेतरेतरयोगद्वन्द्वः ॥ अनु० ऊकः, तच्छीलतद्धर्मतत्साधकारिषु, वर्त्तमाने, धातो:, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः-यज, जप, दश इत्येतेभ्यो यङन्तेभ्यो धातुभ्य ऊकः प्रत्ययो भवति, तच्छीलादिषु कत्तु ष वर्तमाने काले ॥ उदा०-यायजूकः । जञ्जपूकः। दन्दशूक:॥ न । भाषार्थः- [यजजपदशाम्] यज, जप, दश इन [यङ:] यङन्त धातुओं सो तच्छीलादि कर्ता हों, तो वर्तमानकाल में ऊक प्रत्यय होता है। यायज्य जञ्जप्य दन्दश्य यङन्त धातु बनकर आगे इनसे ‘ऊक’ प्रत्यय होगा। जञ्जप्य दन्दश्य की सिद्धि परि० ३११२४ में देखें । आगे अक प्रत्यय के परे रहते यस्य हलः (६।४।४६) से यङ, के य का लोप होकर यायजूक: (खूब यज्ञ करने वाला) । जञ्जपूकः (खूब जप करनेवाला) । दन्दशूकः (खूब काटनेवाला) बना है । ‘यायज्य’ की सिद्धि परि० ३।१।२२ के पापठ्यते की तरह जानें। नमिकम्पिस्म्यजसकहिंसदीपो रः ॥३।२।१६७।। नमि …. दीपः ॥१॥रः ११॥ स०-नमिश्च कम्पिश्च स्मिश्च अजस श्च कमश्च हिंसश्च दीप् च इति नमि दीप, तस्मात्, समाहारो द्वन्दः॥ अनु० - तच्छीलतद्धर्मतत्साधकारिषु, वर्तमाने घातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः- णम प्रह्वत्वे शब्दे च, कपि चलने, ष्मिङ् ईषद्धसने नपूर्व जसु, मोक्षणे कमु कान्ती, हिसि हिंसा याम (दिवा०प०),दीपी दीप्त इत्येतेभ्यो धातोभ्यो वर्तमाने काले तच्छीलादिषु कर्तष ‘र:’ प्रत्ययो भवति ।। उदा०-नम्र काष्ठम कम्प्र। शाखा स्मेरं मुखम् । अजस्र जुहोति । कम्रा युवतिः । हिंस्री दस्यु दीप्र काष्ठम् ।। भाषार्थ:- [नमि….. दोप.] नमि कम्पि इत्यादि धातुओं से तच्छीलादि कर्ता हों, तो वर्तमानकाल में [रः] • प्रत्यय होता हैं ॥ कपि हिसि धातुयें इदित् हैं । सो इदितो नुम्धातो: (७॥१॥५८) से नुम् प्रागम होकर कम्प् हिस बनता है ।। उदा०-नम्र काष्ठम् (नरम काष्ठ)। कम्प्रा शाखा (हिलनेवाली शाखा) । स्मेर मुखम् (हंसनेवाला मख) । अजस्र जुहोति (निरन्तर याग करता है)। कम्रा युवतिः (सुन्दर युवती)। हिंस्रो दस्युः (हिंसक दस्यु)। दीनं काष्ठम् (जलती हुई लकड़ी)। AR पादः] ततीयोऽध्यायः सनाशंस भिक्ष उः ॥३।२।१६८।। सनाशंसभिक्षः ५३१॥ उ: १११॥ स०-सन च प्राशंसश्च भिक्षु च सनाशंस भिक्ष, तस्मात, समाहारो द्वन्द्वः ॥ अनु०-तच्छीलतद्धर्मतत्साधुकारिषु, वर्तमाने, घातो:, प्रत्ययः, परश्चः ॥ अर्थ:-सन इति सन्नन्तस्य ग्रहणं, न तु सन् धातोः। सन्नन्तेभ्यो धातुभ्य आङः शसि इच्छायाम् (भ्वा० प्रा०), भिक्ष भिक्षायां लाभे अलाभे च (म्वा० प्रा० ) इत्येताभ्यां च धातुभ्याम् उः प्रत्ययो भवति तच्छीलादिषु कर्तृषु वर्तमाने काले ॥ उदा०-चिकीर्षः कटम् । वेदं जिज्ञासुः। व्याकरणं पिप ठिषुः । प्राशंसुः । भिक्षुः ।। भाषार्थ:-[सनाशंसभिक्षः] सन्नन्त धातुओं से, तथा प्राङ पूर्वक शसि, एवं भिक्ष धातुओं से तच्छोलादि कर्ता हों, तो वर्तमानकाल में[उः]उ प्रत्यय होता है । उदा०-चिकीर्ष: कटम् (चटाई बनाने की इच्छावाला)। वेदं जिज्ञासुः (वेद को जानने की इच्छावाला) । व्याकरणं पिपठिषुः (व्याकरण पढ़ने की इच्छावाला)। प्राशंसुः (इच्छा करने के स्वभाववाला) । भिक्षः (भिक्षा करने के स्वभाववाला) ॥ परि० १।११५७ की तरह ‘चिकीर्ष’ की सिद्धि होकर उ प्रत्यय होगा । इसी प्रकार ज्ञा पातु से सन्नन्त जिज्ञास पातु परि० १॥३॥५७ को तरह बनेगी । पठ धातु से सन्नत में पिपठिष धातु बनकर पिपठिषः बन जायेगा। सर्वत्र सन के स के ‘न’ का लोप ‘उ’ प्रत्यय के परे रहते अतो लोपः (६।४।४८) से होगा ।। प्राङ् पूर्वक शसि धातु के इदित् होने से इदितो नुम्धातो:(७।१।५८) से नम होकर ‘प्राशंस्’ बना। प्राशंस् उ सु=प्राशंसुः । भिक्ष उ सु=भिक्षुः बन गया । g” यहाँ से ‘उ:’ की अन वत्ति ३।२।१७० तक जायेगी। व्यायाम शोक विन्दुरिच्छुः ॥३।२।१६६॥ माशा २३ विन्दुः १३१॥ इच्छः १११॥ अनु०-उः, तच्छीलतद्धर्मतत्साघुकारिषु, वर्तमाने, धातो:, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थ:-विन्दुरित्यत्र ‘विद ज्ञाने’ इत्यस्माद घातोरः प्रत्ययः तच्छीलादिषु कर्तृषु वर्तमाने काले निपात्यते नुमागमश्च । एवम् इच्छ:, इत्यत्र ‘इषु इच्छायाम’ (तुदा० ५०) इत्येतस्माद् धातोः उकारप्रत्यय: छत्वं च निपात्यते, छत्वे कृते छे च (६।१७१) इति तुगागमः श्चुत्वं च भवत्येव ।। भी भाषार्थः-[विन्दुः] विन्दुः, यहाँ विद् पातु से तच्छीलादि अर्थों में वर्तमानकाल में उ प्रत्यय, तथा विद को नम का पागम निपातन से किया जाता है । इसी प्रकार [इच्छुः] इच्छु, यहां भी इषु षातु से ‘उ’ प्रत्यय, तथा इष् के ‘ए’ को ‘छ’ निपातन से हुन्मा है। छत्व करने के पश्चात् छे च’से तुक मागम, तथा श्चुत्व ८।४।३६ से हो हो जायेगा । उदा०-वेदनशीलो विन्दुः (ज्ञानशील)। एषणशीलो इच्छुः (इच्छुक) ॥ ४१२ अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [द्वितीय: क्याच्छन्दसि ॥३॥२॥१७॥ क्यात ५॥१॥ छन्दसि ७।१॥ अनु०-उ:,तच्छीलतद्धर्मतत्साधुकारिषु, वर्तमाने, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थ:-क्य: इत्यनेन क्यच (३।१८), क्यङ् (३।१।११), क्यष (३।१।१३) इत्येतेषां सामान्येन ग्रहणम् । क्यप्रत्ययान्ताद धातोः तच्छीलादिषु कर्तेषु वर्तमाने काले छन्दसि विषये उ: प्रत्ययो भवति ॥ उदा०-देवयुः (ऋ० ४॥१॥ ७) । सुम्नयु: (ऋ० ११७६।१०; २।३०।११; ६।२।३)। अघायव: (य० ४१३४, १११७६) ॥ भाषार्थ:-[क्यात ] क्यप्रत्ययान्त धातुओं से तच्छीलादि कर्ता हों, तो वर्त मानकाल में [छन्दसि] वेदविषय में उ प्रत्यय होता है । क्य से यहां क्यच् क्यङ क्यष् इन तीनों का ग्रहण है । देव सुम्न तथा अघ शब्द से सुप प्रात्मनः क्यच् (३। १८) से क्यच् प्रत्यय होकर ‘देवय’ ‘सुम्नय’ ‘अघाय’ सनाद्यन्ता धातवः (३॥१॥ ३२) से घातुर्य बन गई । पुनः प्रकृत सूत्र से देवयुः सुम्नयुः, तथा बहुवचन में अघा यवः बना । देवय सुम्नय, यहां क्यचि च (७४।३३) से ईत्व प्राप्त था, पर न च्छ न्दस्यपुत्रस्य (७।४।३५) से निषेध हो गया। ‘प्रघाय’, यहाँ क्यच् परे रहते अश्वाघ स्यात् (७४।३७) से ‘अघ’ के ‘घ’ को प्रात्व हो जाता है ।। म यहाँ से ‘छन्दसि’ की अनुवृत्ति ३।२।१७१ तक जायेगी ॥ प्रति प्रादगमहनजन: किकिनौ लिट् च ॥३२।१७१॥ आद्गमहनजनः ॥१॥ किकिनी १२२॥ लिट् १३॥ च अ० ॥ स०-प्रादृ० इत्यत्र समाहारो द्वन्द्वः । किकिनी इत्यत्रेतरेतरयोगद्वन्द्वः ॥ अनु०-छन्दसि, तच्छील तद्धर्मतत्साधुकारिषु, वर्तमाने, घातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थ:-छन्दसि विषये आत =आकारान्तेभ्यः, ऋ=ऋकारान्तेभ्यः, गम, हन, जन इत्येतेभ्यश्च धातुभ्यः तच्छीलादिषु कर्तृषु वर्त्तमाने काले किकिनौ प्रत्ययो भवतः, लिड्वत् च तो प्रत्ययौ भवतः ॥ लिडवदिति कार्यातिदेशः ।। उदा०-पपिः सोमं ददिर्गाः (ऋ० ६।२३। ४) । मित्रावरुणौ ततुरिः । दूरे ह्यब्वा जगुरिः (ऋ० १०॥१०८।१)। जग्मियुवा (ऋ० ७॥२०॥१)। जनित्रम् (ऋ० ६।६१।२०)। जज्ञिर्बीजम् ॥ म भाषार्थ:-[पादृगमहनजन:] मात् =ाकारान्त, ऋ=ऋकारान्त, तथा गम, हन जन धातुओं से तच्छीलादि कर्ता हों, तो वेदविषय में वर्तमानकाल में [किकिनौ] कि तथा किन् प्रत्यय होते हैं, [च] और उन कि किन् प्रत्ययों को [लिट्] लिट्बत् कार्य होता है । कि तथा किन् प्रत्ययों में स्वर में ही विशेष है, रूप तो इनका एक जैसा ही बनेगा | अतः उदाहरण पृथक-पृथक् नहीं दिखाये हैं। पाद:] तृतीयोऽध्यायः आकर पक्ष भनी स्वपितृषोर्नजिङ् ॥३।२।१७२॥ स्वपितृषोः ६॥२॥ नजिङ ११॥ स०-स्वपि० इत्यत्रेतरेतरयोगद्वन्द्वः ।। अनु०-तच्छीलतद्धर्मतत्साधुकारिषु, वत्त माने, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः जिष्वप् शये, अितृषा पिपासायाम इत्येताभ्यां धातुभ्यां तच्छीलादिषु कर्तृष वत्त माने काले नजिङ प्रत्ययो भवति ।। उदा०-स्वप्नक । तृष्णक ॥ ___ भाषार्थ:- [स्वपितृषोः] स्वप् तथा तृष धातुओं से तच्छीलादि कर्ता हों, तो वर्तमानकाल में [नजिङ ] नजिङ प्रत्यय होता है ।। ‘स्वप्+नज’, ‘तृष+नज्’, यहाँ चो: कुः (८।२।३०) से ज् को ग, तथा वाऽवसाने (८४५५) से क्, एवं रषाभ्यां नो० (८४१) से णत्व होकर स्वप्नक (सोने के स्वभाववाला), तृष्णक (पिपासु) बना है ॥ शवन्धोरारुः ॥३।२।१७३॥ शवन्द्योः ६२॥ प्रारुः ११११॥ स०-श च वन्दिश्च शवन्दी, तयाः, इतरेतर योगद्वन्द्वः ।। अनु०-तच्छीलतद्धर्मतत्साधुकारिष, वर्तमाने, घातो:, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थ:- शू हिंसायाम, वदि अभिवादनस्तुत्योः इत्येताभ्यां धातुभ्यां तच्छीलादिष कर्त्तषु वर्तमाने काले प्रारु: प्रत्ययो भवति ॥ उदा०-शरारुः । वन्दारुः॥ भाषार्थ:-[शवन्द्यो:] श तथा वदि धातुओं से तच्छीलादि कर्ता हों, तो वर्तमानकाल में [मारुः] मारु प्रत्यय होता है । वदि से इदितो नुम् ० (॥१॥ ५८) से नुम् होकर वन्द बनेगा । श को अर् गुण होकर शर् प्रारु =शरारु: (हिंसा करनेवाला) । वन्द मार=बन्दारः (बन्दना करनेवाला) बनेगा ॥ anderigi भियः क्रुक्लुकनौ ॥३।२।१७४।। हामी भिय: ५।१॥ ऋ क्लुकनौ ॥२॥ स०-ऋश्च क्लुकन च क क्लुकनौ, इतरेतर योगद्वन्द्वः ॥ अनु०-तच्छीलतद्धर्मतत्साधकारिषु, वर्तमाने, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः-निभी भये इत्येतस्माद् धातो: तच्छीलादिषु कर्त्तष वर्तमाने काले क्रु क्लु कन् इत्येतो प्रत्ययो भवतः ।। उदा०-भीरुः । भीलुकः ॥ भाषार्थ:-[भियः ] भी धातु से तच्छोलादि कर्ता हों, तो वर्तमानकाल में [ऋक्लकनौ] ऋ तथा क्लुकन् प्रत्यय हो जाते हैं । उदा०- भीरुः (डरपोक) । भीलुकः (डरपोक) ॥ अनुबन्ध हटने पर क्रु का ‘ह’, तथा क्लुकन का ‘लुक’ रूप शेष रहता है । उभयत्र कित होने से गुण-निषेध हो जाता है । अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [द्वितीयः स्थेशभासपिसकसो वरच् ॥३।२।१७५॥ स्थे कस: २१॥ वरच् ॥१॥ स०-स्थाश्च ईशश्च भासश्च पिसश्च कस् च स्थेशभासपिसकत, तस्मात, समाहारो द्वन्द्वः ॥ अनु०-तच्छीलतद्धर्मतत्साधु कारिषु, वर्तमाने, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः-ष्ठा गतिनिवृत्ती, ईश ऐश्वर्ये, भास दीप्तौ, पिसृ गतो, कस गतौ इत्येतेभ्यो धातुभ्यस्तच्छीलादिषु कर्तृषु वर्तमाने काले वरच प्रत्ययो भवति ॥ उदा०-स्थावरः। ईश्वरः। भास्वरः। पेस्वरः । कस्वरः ॥TIOPEE NAT IS न शा भाषार्थ:- [स्थेशभासपिसकसः] स्था, ईश प्रादि धातुओं से तच्छीलादि कर्ता हों, तो वर्तमानकाल में [वरच्] वरच प्रत्यय होता है । उदा०-स्थावरः (जड़) । ईश्वरः (स्वामी) । भास्वरः (सूर्य)। पेस्वरः (गतिशील)। कस्वर। (गतिशील) ॥ वरच् का’वर’रूप शेष रहेगा । स्थावरः,यहाँ एकाच उपदेशे० (७॥२॥ १०) से इट् निषेध होता है । तथा ईश्वरः इत्यादि शेष शब्दों में नेड् वशि कृति (७।२।८) से निषेध होता है । या यहाँ से ‘वरच्’ को अनुवृत्ति ३।२।१७६ तक जायेगो ॥ 11 Thane का -ope || कामी निमयश्च यडः ॥शरा१७६” मी .. कर य: ५।१।। च अ०॥ यङः ॥१॥ अनु०-वरच, तच्छीलतद्धर्मतत्साधुकारिषु, वर्तमाने, धातो:, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थ:-या प्रापणे, अस्मात् यङन्ताद् धातो स्तच्छीलादिषु कर्तृष वर्तमाने काले वरच प्रत्ययो भवति ॥ उदा०—यायावरः॥ भाषार्थ:-[यङ:] यन्त [यः] या प्रापणे धातु से [च] भी तच्छोलादि कर्ता हों, तो वर्तमानकाल में वरच प्रत्यय होता है। सिद्धि परि० ११११५७ में देखें ॥ भ्राजभासधुर्विद्युतोजिजुप्रावस्तुवः क्विप् ॥३।२।१७७॥ 9 भ्राज-स्तुवः ५॥१॥ क्विप् १।१।।स०-भ्राज० इत्यत्र समाहारो द्वन्द्वः।। अनु० तच्छीलतद्धर्मतत्साधुकारिषु, वर्तमाने, घातो:, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थ:-भ्राज दीप्तो, भास दीप्तौ, धुर्वी हिंसार्थः, द्युत दीप्तो, ऊर्ज बलप्राणनयोः, पृ पालनपूरणयोः, जु सौत्रो धातुः, ग्रावपूर्व ष्टुन स्तुती इत्येतेभ्यो धातुभ्यः क्विप् प्रत्ययो भवति तच्छीलादिषु कर्तृषु वर्तमाने काले । उदा०-विभ्राट, विभ्राजौ । भा:, भासौ। धूः. धुरौ । विद्युत् । ऊर्क, ऊजौ । पू:, पुरौ। जूः, जुवौ । ग्रावस्तुत्, ग्रावस्तुतौ ॥ भाषार्थ:-[भ्राजभा. स्तुव:] भ्राज भास आदि धातुओं से तच्छीलादि कर्ता हों, तो वर्तमानकाल में [क्विप्] क्विप् प्रत्यय होता है ॥) ) पाद:] तृतीयोऽध्यायः ४१५ द । यहाँ से ‘क्विप्’ को अनुवृत्ति ३।२।१७६ तक जायेगी ॥ अन्येभ्योऽपि दृश्यते ।।३।२।१७८॥ अन्येभ्यः ५।३।। अपि प्र० ॥ दृश्यते क्रियापदम् ॥ अन-क्विप्, तच्छील तद्धर्मतत्साधुकारिष, वर्तमाने, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः-अन्येभ्योऽपि धातुभ्यस्तच्छीलादिषु कर्तष वर्तमाने काले क्विप् प्रत्ययो दृश्यते ॥ यतो विहितस्ततो ऽन्यत्रात्रि दृश्यते ।। उदा०-पचतीति पक । भिनत्तीति भित् । छित् । युक् ॥ भाषार्थ:- [अन्येभ्यः] अन्य धातुओं से [अपि] भी तच्छीलादि कर्ता हों, तो वर्तमानकाल में क्विप् प्रत्यय [दृश्यते] देखा जाता है । अर्थात् पूर्वसूत्र में जिन घातुनों से क्विप विधान किया है, उनसे अन्य धातुओं से भी देखा जाता है । उदा०-पक् (पकानेवाला) । भित् (तोड़नेवाला)। छित् (छेदनेवाला) । युक् जोड़नेवाला) ॥ पच युज धातुओं को चो: कु: (८।२।३०) से कुत्व हो जायेगा। भिदिर् छिदिर के द् को त वाऽवसाने (८।४।५५) से हो जायेगा। ____ भुवः संज्ञान्तरयोः ।।३।२।१७६॥ (शा भव: ५।१।। संज्ञान्तरयोः ७।२॥ स०–संज्ञा० इत्यत्रेतरेतरयोगद्वन्द्वः ॥ अनु०-क्विप, वर्तमाने, घातोः, प्रत्ययः,परश्च ॥ अर्थः-भूधातो: संज्ञायाम, अन्तरे च गम्यमाने क्विप् प्रत्ययो भवति ।। उदा०-विभूः । स्वयम्भूः । अन्तरे-प्रतिभूः ।। म भाषार्थ:-[भुव:] भू धातु से [संज्ञान्तरयोः] संज्ञा तथा अन्तर गम्यमान हो, तो क्विप प्रत्यय होता है । अन्तर का अर्थ है-मध्य । ऋण देनेवाले तथा लेने वाले के मध्य स्थित,दोनों के विश्वासपात्र व्यक्ति को प्रतिभूः कहा जाता है।। उदा० विभूः (किसी का नाम है) । स्वयम्भूः (ईश्वर) । अन्तर में-प्रतिभूः (जा.मन)। यहां से ‘भुव:’ को अनुवृत्ति ३।२।१८० तक जायेगी। क क पा विप्रसंभ्यो ड्वसंज्ञायाम् ॥३।२।१८०॥ या तीन विप्रसम्भ्यः ५॥३॥ डु १।१।। असंज्ञायाम ७१॥ स०–विप्र ० इत्यत्रेतरेतर योगद्वन्द्वः । न संज्ञा असंज्ञा, तस्याम्, नञ्तत्पुरुषः ।अनु०-भुवः, वर्तमाने, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थ:-वि प्र सम् इत्येवंपूर्वाद् भूधातोः डुः प्रत्ययो भवत्यसंज्ञायां गम्यमानायां वर्तमाने काले ॥ उदा०-विभुः । प्रभुः । सम्भुः ॥ हितमा am भाषार्थ:- [असंज्ञायाम] संज्ञा गम्यमान न हो, तो [विप्रसंभ्य:] वि प्र तथा सम् पूर्वक भू धातु से [डुः] डु प्रत्यय होता है वर्तमानकाल में ॥ डित् होने से डित्यभस्यापि टेर्लोप: इस वात्तिक से भू के टि भाग ऊ का लोप होकर विभ उ= अष्टाध्यायो-प्रथमावृत्ती [द्वितीयः विभुः (व्यापक) । प्रभुः (स्वामी) । सम्भुः (उत्पन्न होनेवाला) प्रादि बन गये ॥ धः कर्मणि ष्ट्रन् ।।३।२।१८१॥ ध: ५३१॥ कर्मणि ७१॥ष्ट्रन १०॥ अनु०-वर्तमाने, धातोः, प्रत्यय:. परश्च ॥ अर्थः-‘धः’ इत्यनेन घेट डधान इति द्वौ निर्दिश्यते । ‘धा’ धातोः कर्मणि कारके ष्ट्रन प्रत्ययो भवति वर्तमाने काले ॥ उदा०-धीयते असो घात्री ॥
- भाषार्थ:- [ध:] धा धातु से [कर्मणि] कर्मकारक में [ष्ट्रन् ] ष्ट्रन, प्रत्यय होता है वर्तमानकाल में ॥धा से यहाँ घेट तथा डुधाञ् दोनों का ग्रहण है ।। ष्ट्रन में षितकरण षिद्गौ० (४११.४१) से ङीष् करने के लिये है । ष्ट्रन के षकार को इत संज्ञा हो जाने पर ष्टुत्व होकर जो ‘त’ को ट हो गया था, वह भी हटकर त् रह जाता है । सो ष्ट्रन का ‘त्र’ शेष रहता है। घेट से धात्री बनाने में प्रादेच उपदे० (६।११४४) से ‘धे’ को प्रात्व हो जायेगा । धात्र ई, यहाँ यस्येति च (६॥४॥ १४८) से त्र के प्र का लोप होकर धात्री (स्तनपान करानेवाली, तथा रोगी को परिचर्या करनेवाली) बना है ॥ यहां से ‘ष्ट्रन्’ को अनुवृत्ति ३।२।१८३ तक जायेगी। अपना दाम्नीशसयुयुजस्तुतुदसिसिचमिहपतदशनहः आण करणे ।।३।२।१८२॥ नित PHदाम्नी नहः ॥१॥ करणे ७।१॥ स… दाप च नीश्च शसश्च युश्च युजश्च म्तुश्च तुदश्च सिश्च सिचश्च मिहश्च पतश्च दशश्च नह च-दाम नह, तस्मात्, समाहारो द्वन्द्वः ॥ अन-ष्ट्रन, वर्तमाने, धातो; प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थः– दाप लवने, णीज प्रापणे, शसु हिंसायाम, यु मिश्रणे. यजिर योगे, ष्टा स्तुतो, तुद व्यथने, पिन बन्धने, षिच क्षरणे, मिह सेचने, पत्लु गतो, दंश दशने, णह बन्धने, इत्येतेभ्यो धातुभ्य: करणे कारके ष्ट्रन प्रत्ययो भवति। उदा०-दान्त्यनेनेति दात्रम् । नयन्ति प्राप्नुवन्त्यनेनेति नेत्रम् । शस्त्रम् । योत्रम् । योक्त्रम्। स्तोत्रम् । तोत्रम् । सेत्रम् । सेक्त्रम् । मेढ़म । पतन्यनेन पत्रम् । दंष्ट्रा । नभ्रम् ॥ भाषार्थ:-[दाम्नी-नह:] दाप, णी, शसु प्रादि धातुओं से [करणे ] करण कारक में ष्ट्रन प्रत्यय होता है । उदा०-दात्रम् (दरांती) ! नेत्रम् (आँख) । शस्त्रम् (प्रौजार) । योत्रम् । योक्त्रम् (जुए को हल से बांधने को रस्सो) । स्त्रोत्रम् (स्तुतिमन्त्र) । तोत्रम् (जिससे पीड़ा दी जाय । सेत्रम् (बन्धन) । सेक्त्रम् (जिससे सींचा जाय)। मेढम् (बादल)। पत्रम् (वाहन)। दंष्ट्रा (बाढ़)। नद्धम् (बन्धन) ॥ यहाँ से ‘करणे’ को अनुवृत्ति ३।२।१८६ तक जायेगी । पाद: तृतीयोऽध्यायः ४१७ हलसूकरयोः पुवः ।।३।२।१८३॥ हलसूकरयोः ७२।। पुव: ॥१॥ स०-हल० इत्यत्रेतरेतरयोगद्वन्द्वः ।। अनु० करणे, ष्ट्रन , वर्तमाने, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्णः-पू इति पूङपूजो: सामान्येन ग्रहणम् । पू धातो: करणे कारके ष्ट्रन प्रत्ययो भवति, तच्चेत् करणं हलसूकरयोर वयवो भवति ।। उदा०-हलस्य पोत्रम् । सूकरस्य पोत्रम् ॥ भाषार्थ:-[पुवः] पूधातु से करण कारक में ष्ट्रन प्रत्यय होता है, यदि वह करण कारक [हलसूकरयोः] हल तथा सूकर का अवयव हो तो ॥ पू से पूङ पूज दोनों का ग्रहण है ॥ उदा०-हलस्य पोत्रम् (हल का अगला भाग) । सूकरस्य पोत्रम् (सुअर के मुख का अगला भाग)। वस्त अत्तिलूधूसूखनसहचर इत्रः ॥३।२।१८४।। अत्तिः घर: ५।१॥ इत्र: ११॥ स०-अत्तिश्च लूश्च धूश्च सूश्च खनश्च सहश्च चर् च अत्ति …चर, तस्मात, समाहारो द्वन्द्वः ॥ अनु०-करणे, वर्तमाने, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्णः-ऋ गतौ, लूज छेदने, धू विघूनने, षू प्रेरणे, खनु अवदारणे, षह मर्षण, चर गति भक्षणयोः इत्येतेभ्यो धातुभ्यः करणे कारके इत्रप्रत्ययो भवति वर्तमान काले ॥ उदा० - इयर्त्यनेन = अरित्रम् । लवित्रम् । घवित्रम् । सवि त्रम् । खनित्रम् । सहित्रम् । चरित्रम् ॥ भाषार्थ:-[अतिलू · चर:] ऋ, लू, घू आदि धातुओं से करण कारक में [इत्रः] इत्र प्रत्यय वर्तमान काल में होता है । कृतसंज्ञक होने से ये सब प्रत्यय कर्ता (३।४।६७) में प्राप्त थे, करण में विधान कर दिये हैं ।। उदा०-अरित्रम् (चप्पू) । लवित्रम् (चाकू)। पवित्रम् (पङ्खा) । सवित्रम् (प्रेरणा देनेवाला) । खनित्रम् (रम्बा, फावड़ा) । सहित्रम् (सहन करनेवाला)। चरित्रम् (चरित्र) । यथाप्राप्त गुण प्रवादि प्रादेश होकर ‘लवित्रम्’ प्रादि की सिद्धि जानें ॥ति कति [ यहाँ से ‘इत्रः’ की अवत्ति ३।२।१८६ तक जायेगी। कार में पुवः संज्ञायाम् ॥३।२।१८॥ पुव: ५।१।। संज्ञायाम् ७३१॥ अनु०-इत्रा, करणे, वर्तमाने, धातो:, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः-संज्ञायां गम्यमानायां पूधातो: करणे कारके इत्र: प्रत्ययो भवति ।। उदा.-पवित्रं दर्भः। पवित्रं प्राणापानौ । भाषार्थ:- [पुव:] पू धातु से [संज्ञायाम् ] संज्ञा गम्यमान हो, तो करण शिक्षा के काम मा मिठाशाय शिमला सामान ४१८ अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [द्वितीयः कारक में इत्र प्रत्यय होता है ॥ उदा०-पवित्रं दर्भः (यज्ञ का विशेष दर्भ जो अंगूठे में पहना जाता है) । पवित्रं प्राणापानौ ॥ “यहां से ‘पुव:’ की अनुवृत्ति ३।२।१८६ तक जायेगी। कर्तरि चषिदेवतयोः ॥३।२।१८६॥ म कर्तरि ७१।। च अ॥ ऋषिदेवतयोः ७२॥ स०-ऋषि० इत्यत्रेतरेतरयोग द्वन्द्वः ॥ अनु०-पुवः, इत्रः, करणे, वर्तमाने, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थः पूधातो: ‘ऋषो’ करणे, देवतायाञ्च कतरि इत्र: प्रत्ययो भवति ।। यथासङ्ख्यं ऋषि देवतयोः सम्बन्धः ॥ उदा०-पूयतेऽनेनति पवित्रोऽयम् ऋषिः । देवतायाम्-अग्निः पवित्रं स मां पुनातु ॥ भाषार्थ:-पू धातु से [ऋषिदेवतयोः] ऋषि को कहना हो तो करण कारक में, [च] तथा देवता को कहना हो तो [कर्त्तरि] कर्ता में इत्र प्रत्यय होता है ॥ यहां करण तथा कर्ता के साथ ऋषि देवता का यथासङख्य करके सम्बन्ध है। उदा०-पवित्रोऽयम् ऋषिः (जिसके द्वारा पवित्र किया जाये, वह मन्त्र)। देवता में अग्निः पवित्रं स मां पुनातु (अग्नि पवित्र है, वह मेरी रक्षा करे)। जीतः क्तः ॥३।२।१८७॥ जीत: ५।१।। क्तः १।१।। स०-जि इत यस्य स जीत, तस्मात, बहुव्रीहिः ॥ अनु०-वर्तमाने, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थः-जीतो धातोर्वर्त्तमाने काले क्तः प्रत्ययो भवति ॥ सर्वधातुभ्यो भूते निष्ठा विहिता सा वर्तमाने न प्राप्नोति, अतोऽय मारभ्यते योगः ॥ उदा०—जिमिदा-मिन्न: । निविदा-क्ष्विण्णः । बिधृषा-धष्टः।। भाषार्थ:-[जीत:] जि जिसका इत् संज्ञक हो, ऐसी धातु से वर्तमानकाल में [क्त:] क्त प्रत्यय होता है ॥ भूतकाल में सब धातुओं से क्त (३।२।१०२ से) प्रत्यय कहा है। सो वर्तमानकाल में नहीं प्राप्त था, अतः यह सूत्र बनाया ॥ सिद्धियां परि० १२३१५ में देखें।। 38FIRTHISE कि यहां से ‘क्त:’ की अनवृत्ति ३।२।१८८ तक जायेगी| MIRRY । मतिबुद्धिपूजार्थेभ्यश्च ॥३।२।१८८॥ मतिबुद्धिपूजार्थेभ्य: ५।३॥ च अ० ॥ स०-मतिश्च बुद्धिश्ज पूजा च मति बुद्धिपूजा:, मतिबुद्धिपूजा अर्था येषां ते मतिबुद्धिपूजार्थाः, तेभ्यः द्वन्द्वगर्भो बहुव्रीहिः ।। अनु०-क्तः, वर्तमाने,धातो: प्रत्ययः, परश्च ॥ प्रर्थः-मतिः इच्छा, बुद्धिर्ज्ञानम्, पूजा सत्कारः । मत्यर्थेभ्यो बुद्धयर्थेभ्यः पूजार्थेभ्यश्च धातुभ्यो वर्तमाने काले क्तः प्रत्ययो पादः] तृतीयोऽध्यायः ४१६ भवति ॥ उदा०-मत्यर्थेभ्य:-राज्ञां मतः। राज्ञाम् इष्टः । बुद्धयर्थेभ्यः- राज्ञां बुद्धः । राज्ञां ज्ञातः । पूजार्थेभ्यः-राज्ञां पूजितः ।।। भाषार्थ:- [मतिबुद्धिपूजार्थेभ्य:] मत्यर्थक, बुद्धयर्थक तथा पूजार्थक धातुनों से [च भी वर्तमानकाल में क्त प्रत्यय होता है । मति= इच्छा । बुद्धि =ज्ञान । पूजा=सत्कार ।। राज्ञाम् में क्तस्य च वर्त्तमाने (२।३।६७) से षष्ठी विभक्ति होती है, तथा क्त न च पूजायाम (२।२।१२)से षष्ठी-समास का निषेध होता है । मत:– मन् धातु से क्त प्रत्यय होकर एकाच उपदेशे० (७।२।१०) से इट् निषेध, तथा अनु दात्तो पदेश० (६४१३७)से अनुनासिकलोप होकर मत: बनेगा । इष्ट:-‘इषु इच्छा याम्’ से क्त प्रत्यय होता है । यहां उदितो वा (७।२।५६) से विकल्प होने से यस्य विभाषा (७१२।१५) से इट् निषेध होकर ष्टुत्व हुआ है । बुद्ध-बुध धातु से क्त को झषस्त० (८।२।४०) से धत्व, तथा झलां जश् झशि (८।४१५२) से घ को द् होकर बुद्धः बना है । पूजितः- पूज् धातु से पूज् इट् क्त पूजितः। तथा ज्ञातः-ज्ञा धातु से ज्ञा क्त=ज्ञातः बन हो जायेगा । यस ॥ इति द्वितीयः पादः॥ कोशिश होतृतीयः पादःजानकारी उणादयो बहुलम् ॥३।३।१॥ उणादय: १।३।। बहुलम १।१॥ स०-उण् ादिर्येषां ते उणादय:, बहुव्रीहिः ॥ अन०-वर्तमाने, धातो:, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः-उणादया प्रत्यया वर्तमाने काले धातुभ्यो बहुलं भवन्ति ॥ उदा० -करोतीति कारुः । वाति गच्छति जानाति वेति वायुः । पाति रक्षतीति पायु: । जायुः । मायुः । स्वादुः । साधुः । प्राशुः ।।
- भाषार्थ:-धातुओं से [उणादय:] उणादि प्रत्यय वर्तमानकाल में [बहुलम] बहुल करके होते हैं । उदा०-कारः (शिल्पी)। वायुः (पवन अथवा परमेश्वर)। पायः (गुदा) । जाय: (प्रौषध) । मायुः (पित्त) । स्वादुः (खाने योग्य अन्न)। साधुः (सज्जन) । प्राशः (शीघ्र चलनेवाला) ॥ उदाहरणों में कृवापाजिमिस्वदि साध्यशूभ्य उण (उणा० १५१) से उण प्रत्यय हुआ है । वा, पा, मा (मि) धातुओं को पातो युक्चिण्कृतो: (७।३।३३ ) से युक् प्रागम होकर वायः, पायु:, मायः बना है। कृ, जि धातुओं को अचो णिति (७।२।११५) से वृद्धि, एवं पायादेश होकर कारुः जायुः बना ह ।। ४२० अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [तृतीयः र उणादि प्रत्ययों का विधान थोडीसी धातुओं से किया है । पर इष्ट औरों से भी है, अतः यहाँ बहुल कहा है । सो बहुल कहने से प्रयोग देखकर जिन बातों से किसी प्रत्यय का विधान नहीं भी किया गया, तो भी वह हो जायेगा । यथा हृषेरुलच (उणा० १।९६) से हृष् धातु से उलच् प्रत्यय कहा है । परन्तु बहुल कहने से शङ कुला शब्द सिद्ध करने के लिये शकि पातु से भी उलच् प्रत्यय हो गया है । इसी प्रकार जो प्रत्यय नहीं भी कहे, उनका भी प्रयोग (शिष्टप्रयोग) देखकर बहुल कहने से विधान हो जायेगा । यथा-ऋषातु से फिड और फिडड प्रत्यय नहीं कहे, तो भी ये प्रत्यय होकर ऋफिड और ऋफिड्ड प्रयोग बनते हैं। महाभाष्य में इसका विशदरूप से व्याख्यान किया है। अप यहाँ से ‘उणादय:’ की अनुवृत्ति ३।३।३ तक जायेगी ॥ काभतेऽपि दश्यन्ते ॥३।३।२।। भतेऽपि यन्ते ॥ ३ SAPP भूते ७.१॥ अपि ० ॥ दृश्यन्ते क्रियापदम् ।। अनु०-उणादयः, धातोः, प्रत्यय: परश्च ॥ अर्थः-भूते कालेऽप्यणादयः प्रत्यया दृश्यन्ते । पूर्वत्र वर्तमाने काले विहिता:, भूतेऽपि विधीयन्ते ॥ उदा०-वृत्तमिदं वर्त्म । चरितं तच्चर्म । भसितं तदिति भस्म ॥ - भाषार्थ:-उणादि प्रत्यय धातु से [भूते भूतकाल में [अपि] भी [दृश्यन्ते] देखे जाते हैं । पूर्वसूत्र से वर्तमानकाल में प्रत्यय प्राप्त थे । भूत में भी हों, इसीलिये यह सूत्र बनाया ॥ उदा०-वम (मार्ग) । चर्म (चमड़ा) । भस्म (राख) ॥ सर्व. धातुभ्यो मनिन् (उणा० ४।१४५) से वृतु चर प्रादि घातुनों से मनिन् प्रत्यय भूतकाल में हुआ है। वर्त्मन सु, स्वमोर्नपुसकात् (११।२३) से सु का लुक, तथा न लोप:० (८।२७) से नकारलोप हो जायेगा। दल का भविष्यति गम्यादयः ॥३॥३॥३॥ जयकार भविष्यति ७।१।। गम्यादयः १॥३॥ स०-गमी आदिर्येषां ते गम्यादयः, बहु व्रीहिः ॥ अन०-उणादयः, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ प्रयः-उणादिष ये गम्यादयः शब्दास्ते भविष्यति काले साधवो भवन्ति । अर्थाद् गम्यादयः शब्दा भविष्यति काले भवन्ति ॥ उदा०-गमी ग्रामम । आगामी। प्रस्थायी। प्रतिरोधी । प्रतिबोधी। प्रतियोधी । प्रतियोगी । प्रतियायी। आयायी । भावी ॥ पहराया भाषार्थ:-उणादिप्रत्ययान्त [गम्यादयः] गम्यादि शब्दों में जो प्रत्यय विधान किये हैं, वे [भविष्यति] भविष्यत् काल में होते हैं ॥ दिया यहाँ से ‘भविष्यति’ को अनुवृत्ति ३।३।१५ तक जायेगी। काका पादः पादः] तृतीयोऽध्याय: यम ४२१ यावत्पुरानिपातयोर्लट् ॥३३॥४॥ गया यावत्पुरानिपातयो: ७।२॥ लट् १।१।। स०-यावत् च पुरा च यावत्पुरी, याव पुरी च तो निपातौ च =यावत्पुरानिपाती, तयोः, द्वन्द्वगर्भकर्मधारयतत्पुरुषः ॥ अनु० भविष्यति, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थ: यावत्पुराशब्दयोनिपातयोरुपपदयो भविष्यति काले धातोर्लट् प्रत्ययो भवति ॥ उदा०-यावद् भुङ्क्ते । पुरा भुङ्क्त ॥ भाषार्थ:–[यावत्पुरानिपातयो:] यावत् तथा पुरा निपात उपपद हों, तो भविष्यत् काल में धातु से [लट् ] लट् प्रत्यय होता है ॥ भुङ्क्ते की सिद्धि परिशिष्ट १।३।६४ के प्रयङक्ते के समान ही जानें ।।। यहाँ से ‘लट्’ की अनुवृत्ति ३।३।६ तक जायेगी । या विभाषा कदाकोः ॥३॥३॥ नीलामी विभाषा ११॥ कदाकोः ७१२॥ स०-कदा च कहि च कदाकी, तयोः, इत्यत्रेतरेतरयोगद्वन्द्वः ।। अनु०-लट, भविष्यति, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः कदा कहि इत्येतयोरुपपदयोर्धातोर्मविष्यति काले विभाषा लट् प्रत्ययो भवति ।। उदा०-कदा भुङ्क्ते, कदा भोक्ष्यते, कदा भोक्ता । कहि भुङ क्ते, कहि भोक्ष्यते, chc कहि भोक्ता ॥ भाषार्थ:-[कदाकों :] कदा तथा कहि उपपद हों, तो घातु से भविष्यत् काल में [विभाषा] विकल्प से लट् प्रत्यय होता है । विभाषा कहने से पक्ष में भविष्यत् काल के लकार लुट तथा लुट हो जायेंगे।। उदा०-कदा भुङक्ते (कब खायेगा), कदा भोक्यते, कदा भोक्ता । कहि भुङ्क्ते (कब खायेगा), कहि भोक्ष्यते, कहि भोक्ता ॥ भोज् स्य ते’ पूर्ववत् (३।१।३३ से)होकर, चो: कुः (पा२।३० ) तथा खरि च (८।४।५४) से कुत्व, तथा प्रादेश प्र० (८।३।५६) से षत्व होकर ‘भोक्ष्यते’ बनेगा। भोक्ता के लिये परिशिष्ट १।१०६ देखें ॥ यहाँ से ‘विभाषा’ की अनुवृत्ति ३।३ ६ तक जायेगी किवृत्ते लिप्सायाम् ॥३।३।६।। किंवृत्ते ७॥१॥ लिप्सायाम् ७१। स०-किर्मो वृत्तं किंवृत्तं, तस्मिन, षष्ठी तत्पुरुषः ॥ अनु०–विभाषा, लट्, भविष्यति, धातो:, प्रत्ययः,परश्च ।। अर्थः - लब्धुमिच्छा=लिप्सा। लिप्सायाम् =अभिलाषे गम्यमाने किंवृत्त उपपदे भवि ष्यति काले घातोर्विकल्पेन लट प्रत्ययो भवति ॥ उदा०-कं कतरं कतमं वा भवान् भोजयति, भोजयिष्यति, भोजयिता वा। कस्मै भवानिदं पुस्तकं ददाति, दास्यति, दाता वा ॥ ४२२ अष्टाध्यायौ-प्रथमावृत्ती [तृतीयः भाषार्थ:-[लिप्सायाम] लिप्सा गम्यमान होने पर [किवृत्ते] किंवृत्त उपपद हो, तो भविष्यत्काल में धातु से विकल्प करके लट् प्रत्यय होता है । किसी वस्तु को प्राप्त करने की इच्छा का नाम लिप्सा है ॥ किंवृत्त से किम शब्द को सारी विभक्ति सहित, तथा डतर डतम प्रत्ययान्त जो कतर कतम (२३६२-६३) शब्द ये सब लिये जायेंगे ।। उदा०—कं कतरं कतमं वा भवान् भोजयति (किसको प्राप खिलायेंगे), भोजयिष्यति भोजयिता वा। कस्मै भवानिदं पुस्तकं दास्यति ददाति दाता वा (किसको पाप यह पुस्तक देंगे) ॥ लेने की इच्छावाला कोई पूछता है कि आप किसको देंगे वा किसे खिलायेंगे,अर्थात् मुझे दे दो। सो यहाँ लिप्सा है । पक्ष में लुट एवं लुट होते है । भुज णिजन्त धातु से लट् प्रादि लकार आये हैं ॥ 1
- लिप्स्यमानसिद्धौ च ॥३॥३७॥ लिप्स्यमानसिद्धौ ७१॥ च अ० ॥ लिप्स्यते प्राप्तुमिष्यते तल्लिप्स्यमानम् कर्मणि शानच ।। स०-लिप्स्यमानात सिद्धिः लिप्स्यमानसिद्धिः, तस्मिन्, पञ्चमी तत्पुरुषः ।। अनु०-विभाषा, लट्, भविष्यति, धातोः,प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थ:-लिप्स्य मानात् (अभीप्सितपदार्थात् ) सिद्धौ गम्यमानायां धातोर्भविष्यति काले विकल्पेन लट प्रत्ययो भवति ॥ उदा०-यो भक्तं ददाति स स्वर्गं गच्छति । यो भक्त दास्यति दाता वा स स्वर्ग गमिष्यति गन्ता वा ॥ भाषार्थः-[लिप्स्यमानसिद्धौ] लिप्स्यमान =चाहे जाते हुए अभीष्ट पदार्थ से सिद्धि गम्यमान हो, तो [च] भी भविष्यत् काल में पातु से विकल्प से लट् प्रत्यय होता है । उदा०-यो भक्तं ददाति स स्वर्ग गच्छति (जो चावल देगा वह स्वर्ग को जायेगा) । यो भक्तं दास्यति दाता वा स स्वर्ग गमिष्यति गन्ता वा ॥ उदाहरण में अभीष्ट लिप्स्यमान पदार्थ भात है। उस से स्वर्ग की सिद्धि होगी ऐसा कोई भिक्षक कह रहा है, ताकि मुझे लोग भात दे दें।सो लिप्स्यमान से सिद्धि है । भविष्यत् काल में लुट तथा लुट् लकार ही प्राप्त थे, लट् भी विधान कर दिया है । लिप्स्यमान में कर्म में शानद हुमा है । गमेरिट परस्मैपदेषु (७१२।५८) से गमिष्यति में इट् हुमा है ॥ लोडणलक्षणे च ॥३।३।८।। लोडर्थलक्षणे ७।१॥ च अ० ॥ स०-लोटोऽर्थः लोडर्थ:–प्रेषादिः, षष्ठी तत्पुरुष: । लक्ष्यते अनेनेति लक्षणम् । लोडर्थस्य लक्षणं लोडर्थलक्षणम, तस्मिन,षष्ठी तत्पुरुषः ॥ अनु०-विभाषा, लट, भविष्यति, धातोः, प्रत्यय:, परश्च ॥ अर्थः लोडर्थलक्षणे वर्तमानाद् धातोर्भविष्यति काले लट् प्रत्ययो भवति विकल्पेन ॥ उदा०-उपाध्यायश्चेदागच्छति प्रागमिष्यति आगन्ता वा, अथ त्वं छन्दोऽधीष्व, व्याकरणमधीष्व ॥ है che ३ पाद:] तृतीयोऽध्याय: ४२३ भाषार्थ:-[लोडर्थलक्षणे] लोडर्थलक्षण में वर्तमान घातु से [च] भी भवि ष्यत्काल में विकल्प से लट् प्रत्यय होता है ॥ लोट का अर्थ है-प्रेषादि (करो, करो ऐसा प्रेरित करना), वह लोडर्थ प्रेषादि लक्षित हो जिसके द्वारा वह लोडर्थलक्षण धातु हुई, सो ऐसी धातु से जो लोड को लक्षित करे, उससे लट् प्रत्यय विकल्प से होगा । अतः उदाहरणों में लोडर्थ (प्रेष) अधीष्त्र है । वह आगमन क्रिया से लक्षित किया जा रहा है । सो गम धातु से पक्ष में लुट् तथा लुट् लकार हो गये हैं ॥ उदा०-उपा घ्यायश्चेदा गच्छति प्रागमिष्यति पागन्ता वा, अथ त्वं छन्दोऽधीष्व, व्याकरणणधीष्व (उपाध्याय जी यदि पा जावेंगे, तो तुम छन्द तथा व्याकरण पढ़ना) ॥ यहां से लोडीलक्षणे’ को अनुवृत्ति ३।३।६ तक जायेगी। तो असा मीनिक लिङ् चोर्ध्वमौहूत्तिके ॥३॥३६॥ लिङ १॥१॥ च अ० ॥ ऊर्ध्वमौहूत्तिके ७१॥ स.-मुहूर्ताद ऊध्वं ऊध्वमुहू तम्,निपातनात् पञ्चमीतत्पुरुषः ॥ ऊर्ध्वमुहूर्ते भवम् ऊर्ध्वमौहूतिकम्, तस्मिन् । काला टुञ् (४।३।११) इति ठा प्रत्ययः, उत्तरपदवृद्धिश्च निपातनात् ॥ अनु०-लोडर्थ लक्षणे, विभाषा, लट, भविष्यति, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थ:-ऊर्ध्वमोहूत्तिके भविष्यति काले लोडर्थलक्षणे वर्तमानाद घातोर्विकल्पेन लिङ, चकारात् लट प्रत्ययो भवति ॥ उदा०- मुहूर्तस्य पश्चाद् उपाध्यायश्चेद् आगच्छेत् आगच्छति भाग मिष्यति आगन्ता वा, अथ त्वं छन्दोऽधीष्व ॥ antarsiति भाषार्थ:-[ऊर्ध्वमोहूत्तिके ] महत=दो घड़ी से ऊपर के भविष्यत्काल को कहना हो, तो लोडलक्षण में वर्तमान धातु से [लिङ्] लिङ प्रत्यय विकल्प से होता है, [च] चकार से लट् भी होता है । उदाहरण में मुहूर्त्तभर से ऊपर भविष्यत्काल को कहना है, प्रत लिङ, तथा पक्ष में भविष्यत काल के लट् एवं लुट प्रत्यय होंगे, चकार से लट भी होगा। अतः चारों लकार इस विषय में बोले जा सकते हैं । लोडी अधीष्व है, सो वह प्रागमन क्रिया से लक्षित हो रहा है। अत: गम धातु से लिङ आदि लकार हो गये हैं । अपाय तुमुन्ण्वुलो क्रियायां क्रियार्थायाम् ॥३३॥१०॥ तुमुन्ण्वुलौ १।२।। क्रियायाम ७१॥ क्रियायाम ७।१॥ स०-तुमुन च ण्वुल च तुमुन्ण्वुलो, इतरेतरयोगद्वन्द्वः । क्रियाय इयं क्रियार्था, तस्यां क्रियार्थायाम, चतुर्थी तत्पुरुषः ।। अनु०-भविष्यति, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थ:-क्रियार्थायां क्रियाया मुपपदे धातोभविष्यति काले तुमुन्ण्वुलो प्रत्ययौ भवतः॥ उदा.-भोक्तु व्रजति । भोजको व्रजति ।। ४२४ अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [तृतीयः भाषार्थ:-[क्रियार्थायां क्रियायाम ] क्रिया क्रिया उपपद हो, तो धातु से [तुमुन्ण्व लौ] तुमुन तथा ण्वुल प्रत्यय भविष्यत्काल में होते हैं । क्रिया के लिये जो क्रिया हो वह क्रिया क्रिया होती है। उदाहरण में, खाने के लिए जा रहा है, सो जाना क्रिया इसलिए हो रही है कि वह खाये । अत: ‘व्रजति’ क्रिया क्रिया है। अब ऐसी क्रिया क्रिया उपपद हो, तो किसी अन्य धातु से तुमन प्रवल प्रत्यय होंगे। सो व्रजति क्रियार्थ क्रिया के उपपद रहते भुज धातु से तुमुन् ण्वुल प्रत्यय हो गये हैं। उदा०–भोक्तुं व्रजति । भोजको व्रजति (खाने के लिये जाता है) ॥ भोक्त में चो: कुः (८।२।३०) से कुत्व हो जाता है । यहाँ से ‘क्रियायां क्रियार्थाम’ को अनुवृत्ति ३।३।१३ तक जायेगी ।। भाववचनाश्च ।।३।३।११।। भाववचनाः १॥३॥ च अ० ॥ व वन्तीति वचनाः,निपातनात्कर्तरि ल्युट् ॥ स. भावस्य वचना: भाववचनाः, षष्ठीतत्पुरुषः ॥ अनु० –क्रियायां क्रियार्थायाम्, भवि ष्यति, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थ:-क्रियार्थायां क्रियायामुपपदे भविष्यति काले धातोर्भाववचना:=भाववाचकाः (घनादय:) प्रत्यया भवन्ति ॥ भावे (३।३।१८) इति प्रकृत्य ये घनादय: प्रत्यया विहितास्ते भावव वना: ॥ उदा०-पाकाय व्रजति । भूतये व्रजति । पुष्टये व्रजति ॥ीला शामिल भाषार्थ:-क्रियाक्रिया उपपद हो, तो भविष्यकाल में धातु से [भाववचना:] भाववचन, अर्थात् भाववाचक (भाव को कहनेवाले) प्रत्यय [च] भी होते हैं । भावे (३।३।१८) के अधिकार में जो घज्ञादि प्रत्यय कहे हैं, वे भाववचन हैं। भाव को जो कहते हैं, वे भाववचन प्रत्यय होते हैं ।। उदा० -पाकाय व्रजति (भोजन बनाने के लिये जाता है) । भूतये व्रजति (संपत्ति के लिए जाता है) । पुष्टये व्रजति (पुष्टि के लिये जाता है) ॥ व्रजति यहाँ किया क्रिया उपपद है । सो पच् धातु से भविष्यत काल में घञ् होकर पाक बना । सिद्धि परिशिष्ट १२०१ में देखें । पाकाय इत्यादि में चतुर्थी विभक्ति ‘तुमर्थाच्च० (२।३।१५) से होगी। भू तथा पुष घातुओं से भाववचन क्तिन् प्रत्यय स्त्रियां क्तिन् (३।३।६४) से होगा, सो भूतिः । तथा पुष क्तिन् =पुष् ति, ष्टुत्व होकर पुष्टि: बन गया ॥ अण्कर्मणि च ।।३।३।१२।। अण ॥१॥ कर्मणि ७॥१॥ च अ० ।। अनु० -क्रियायां क्रियार्थायाम, भवि ष्यति, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थ:-क्रियार्थायां क्रियायां कर्मणि चोपपदे धातो भविष्यति कालेऽण प्रत्ययो भवति ।। उदा०-काण्डलावो व्रजति । गोदायो ब्रजति । अश्वदायो व्रजति ॥ पाद:] तृतीयोऽध्यायः जाज ४२५४ भाषार्थ:-क्रिया क्रिया [च] एवं [कर्मणि] कर्म उपपद रहते धातु से भविष्यत्काल में [अण] अण् प्रत्यय होता है ॥ उदा०-काण्डलावो व्रजति । (शाखा को काटेगा, इसलिए जाता है)। गोदायो व्रजति(गौ देगा, इसलिए जाता है। प्रश्वदायो व्रजति (अश्व देगा, इसलिए जाता है) । उदाहरणों में लवन एवं दान क्रिया के लिये वजि क्रियार्थ क्रिया उपपद है। सो ३।३।१० सूत्र से बल प्राप्त था, प्रण कह दिया है। ल धातु के ‘काण्ड’ तथा दा धातु के ‘गो’ कर्म उपपद में है, इमी प्रकार दा के ‘अश्व’ उपपद में है । सो क्रियार्थ क्रिया एवं कर्म दोनों उपपद हैं । सिद्धि में लू को लौ वृद्धि एवं पावादेश, तथा दा को आतो युक्० (७।३।३३) से युक् प्रागम हो जायेगा। । निमा लुट शेषं च ॥३।३।१३॥ (D ) लुट ११॥ शेषे ७।१॥ च अ०॥ अनु०-क्रियायाम, क्रियायाम, भवि-: ष्यति, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थः-शेषे अर्थात केवले भविष्यति काले, चका रात क्रियार्थायां क्रियायामुपपदे भविष्यति काले च धातोलृट् प्रत्ययो भवति ॥ उदा-शेषे–करिष्यति, हरिष्यति । करिष्यामीति व्रजति, हरिष्यामीति व्रजति ॥ भाषार्थ:-धातु से [शेषे] शेष केवल भविष्यत काल में तथा [च] चकार से क्रियार्थ क्रिया उपपद रहते भी भविष्यत्काल में [लट ] लुट् प्रत्यय होता है ।। शेष कहने से बिना क्रियार्थ क्रिया उपपद रहते भी लट हो जाता है। उदा० शेष में-करिष्यति, हरिष्यति । क्रियार्थ क्रिया-करिष्यामीति व्रजति (करूंगा, इसलिए जाता है), हरिष्यामीति व्रजति (हरण करूगा, इसलिए जाता है) । सिद्धि परि० १।४।१३ में देखें ।। लुटः सदा ।।३।३।१४॥ लटः ६।१॥ सत् १११॥ वा अ० ॥ अनु०-क्रियायाम, क्रियार्थायाम, भविष्यति, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः - भविष्यति काले विहितस्य लुटः स्थाने सत्संज्ञको शतशानचावादेशौ वा भावतः ।। उदा०–करिष्यन्तं देवदत्तं पश्य । करिष्यमाणं देवदत्तं पश्य । हे करिष्यन, हे करिष्यमाण । अर्जयिष्यमाणो वसति ।। __भाषार्थ:-भविष्यत्काल में विहित जो [लुटः] लुट् उसके स्थान में [सत्] सत् (३।२।१२७) संज्ञक शतृ शानच् प्रत्यय [वा] विकल्प से होते हैं । उदा० करिष्यन्तं देवदत्तं पश्य (जो करेगा, ऐसे देवदत्त को देखो)। करिष्यमाणं देवदत्तं पश्य । हे करिष्यन्, हे करिष्यमाण । अर्जयिष्यमाणो वसति ।। उदाहरणों अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [तृतीयः में करिष्न्यतं करिष्यमाणं में अप्रथमासमानाधिकरण में; हे करिष्यन् हे करिष्यमाण में सम्बोधन में; और अजयिष्यमाणः में क्रिया के हेतु में सद्-प्रादेश हुए हैं। इन्हीं विषयों में तो सत् (३।२।१२७) से सत् संज्ञा का विधान है ।। गायक ) अनद्यतने लुट् ॥३॥३॥१५॥ - अनद्यतने ७।१॥ लट ११॥ स०-न विद्यतेऽद्यतनो यस्मिन सोऽनद्यतनः, तस्मिन्, बहुव्रीहिः ॥ अनु०-भविष्यति, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः-अनद्यतने भविष्यति काले धातोलट प्रत्ययः परश्च भवति ।। उदा०-श्व: कर्ता, श्वो भोक्ता ।। _भाषार्थः- [अनद्यतने] अनद्यतन भविष्यत् काल में धातु से [लुट] लुट् प्रत्यय होता है, और वह परे होता है। उदा.- श्वः कर्ता (कल करेगा), श्वो भोक्ता (कल खायेगा) ॥ लुट लकार में सिद्धि परिशिष्ट १०५ की तरह समझे । केवल यहाँ एकाच उपदे० (१२।१०) से इट् निषेध होगा। भुज् को कुत्व चो: कु: (८।२।३०) से होता है ।। कोकाशि पदरुजविशस्पृशो घञ् ॥३॥३॥१६॥ “पदरुजविशस्पृशः ५॥१॥ घन ११॥ स०पदश्च रुजश्च विशश्च स्पृश च पदस्पृश, तस्मात्, समाहारो द्वन्द्वः ॥ अनु०-धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः– पद, रुज, विश, स्पृश इत्येतेभ्यो धातुभ्यो घञ् प्रत्ययो भवति ॥ उदा०-पद्यतेऽसौ पादः । रुजत्यसो रोगः । विशत्यसौ वेश: । स्पृशतीति स्पर्शः ।। या भाषार्थ:-[पदरुजविशस्पृशः] पद, रुज, विश, स्पृश इन धातुओं से [घञ्] घञ् प्रत्यय होता है । इस सूत्र में कोई काल नहीं कहा, तो सामान्य करके तीनों कालों में घञ् होगा। तथा सामान्य विधान होने से कर्तरि कृत् (३।४।६७) से कर्ता में ही होगा ॥ उदा.–पादः (पर)। रोगः (रोग)। वेशः (प्रवेश करनेवाला)। स्पर्शः (रोग)। स्पृश उपताप इति वक्तव्यम (वा० ३।३।१६) इस वात्तिक से उप ताप=रोग अर्थ में स्पर्शः बनता है ।। घनन्त की सिद्धि सर्वत्र परिशिष्ट शश के भाग: आदि के समान जाने । जहाँ कुछ विशेष होगा लिखा जायेगा । यहाँ से ‘घञ्’ को अनुवृत्ति ३।३।५५ तक जायेगी ॥ वामली सृ स्थिरे ॥३।३।१७।। स लुप्तपञ्चम्यन्तनिर्देशः । स्थिरे ७१॥ अन-घन , धातोः, प्रत्ययः, पर. श्च ॥ अर्थ:— सृ धातो; स्थिरे कालान्तरस्थायिनि कत्तं रि घत्र प्रत्ययो भवति ।। उदा.-चन्दनस्य सार: चन्दनसारः, खदिरसारः॥ की भाषार्थः- [स] सृ धातु से [स्थिरे ] स्थिर अर्थात् चिरस्थायी कर्ता वाच्य हो, तो घन प्रत्यय होता है ।। उदा०-चन्दनसारः (चन्दन का चूरा), खदिरसारः पाद:] तृतीयोऽध्यायः ४२७ है वापरा. ALU (कत्था) ॥ उदाहरण में चन्दन तथा खदिर के साथ ‘सार’ का षष्ठीतत्पुरुष समास हुआ है । वृद्धि आदि कार्य घनन्त के समान हो जानें ॥ ETTE भावे ॥३॥३॥१८॥ भावे ७॥१॥ अनु०-घन, धातो: प्रत्यय:, परश्च ।। अर्थ:–भावे धात्वर्थ वाच्ये धातोर्घन प्रत्ययो भवति ॥ उदा०-पाकः, त्यागः, रागः ॥ ) भाषार्थ:-[भावे] भाव अर्थात् धात्वर्ण वाच्य हो, तो धातुमात्र से घञ् प्रत्यय होता है । सिद्धि परिशिष्ट १११११ में देखें। पर यहां से ‘भावे’ का अधिकार ३।३।११२ तक जायेगा ॥ ___प्रकर्तरि च कारके संज्ञायाम् ॥३३॥१६॥ अकर्तरि ७।१॥ च अ० ॥ कारके ७।१॥ संज्ञायाम ७१।। स०–न कर्ता अकर्ता, तस्मिन, नञ्तत्पुरुषः ॥ अनु०-घ, घातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः कवजिते कारके संज्ञायां विषये धातोर्घञ् प्रत्ययो भवति ॥ उदा०-पावाह , विवाहः । प्रास्यन्ति तं प्रासः । प्रसोव्यन्ति तं प्रसेवः । प्राहरन्ति तस्माद् रसमिति आहारः ।। भाषार्थ:- [अकर्त्तरि] कर्ताभिन्न [कारके] कारक में [च] भी घातु से [संज्ञायाम् ] संज्ञाविषय में घञ् प्रत्यय होता है ॥ उदा०-आवाहः (कन्या को विवाह करके लाना), विवाहः । प्रासः (भाला)। प्रसेवः (थैला)। प्राहारः (भोजन)। यह भी अधिकारसूत्र है, ३।३।११२ तक जायेगा । परिमाणाख्यायां सर्वेभ्यः ॥३।३।२०।। परिमाणाख्यायाम १॥ सर्वेभ्य: ५।३।। स-परिमाणस्य प्राख्या परिमाणा. ख्या, तस्याम, षष्ठीतत्पुरुषः ॥ अन–अकर्तरि च कारके संज्ञायाम, भावे, घन, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः-परिमाणाख्यायां गम्यमानायां सर्वेभ्यो धातुभ्यो घन प्रत्ययो भवति ॥ उदा०–एकस्तण्डुलनिचाय: । द्वौ शूर्पनिष्पावौ। द्वौ कारौ, त्रय: काराः॥ भाषार्थः-[सर्वेभ्य:] सब धातुओं से [परिमाणाख्यायाम] परिमाण की पाख्या=कथन गम्यमान हो तो घञ् प्रत्यय होता है | निचीयते यः स निचायः = कि १. यहाँ से ‘भावे’ तथा ‘अकर्तरि च कारके संज्ञायाम्’ दोनों की अनुवृत्ति चलती है। सो हमने अनुवृत्ति तथा अर्थ में दोनों को ही दिखाया है। पाठक उदाहरण देखकर यथासम्भव स्वयं ही लगा लें, क्योंकि यह उदाहरणाधीन विषय है । ४२८ अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्तौ [तृतीयः राशिः, तण्डुलानां निचायः तण्डुलनिचायः । यहां एकराशिरूप से तण्डुलों के परिमाण का कथन है । निचायः में एरच (३।३।५६) से कर्म में अच् प्राप्त था, घञ् विधान कर दिया। निष्पूयते यः स निष्पावः तण्डुलादिः, शूर्पण निष्पावः शूर्पनिष्पावः । द्वौ शूर्पनिष्पावो में शूर्प= सूप की संख्या से निष्पाव (तण्डुलादि) के परिमाण की प्रतीति हो रही है । ‘निर् पाव’ यहाँ खरवसान० (८।३।१५) से रेफ का विसर्जनीय, तथा इदुदुपध० (८।३।४१) से षत्व होकर निष्पाव बना है। यहाँ ऋदोरप् (३।३।५७) से कर्म में अप की प्राप्ति में घञ् का विधान है । ‘कृ विक्षेपे’से कीर्यते यः सः कारः= तण्डुलादिः । द्वौ कारौ आदि में भी संख्या के द्वारा विक्षिप्त द्रव्य के परिमाण का कथन है ।। यहाँ भी पूर्ववत् कर्म में अप् प्रत्यय की प्राप्ति में घन का विधान हुमा है ।। इङश्च ॥३।३।२१॥ इङः ५॥१॥ च अ० ॥ अनु०-अकर्त्तरि च कारके संज्ञायाम, भावे, घन, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थ:-इधातो: कत भिन्ने कारके संज्ञायां विषये भावे च घन प्रत्ययो भवति ।। उदा०-प्रधीयते यः सः अध्यायः । उपेत्याधीते यस्मात् सः उपाध्यायः॥ भाषार्थः- [इङ ] इङ, धातु से [च] भी कर्तृभिन्न कारक संज्ञाविषय में, तथा भाव में घा प्रत्यय होता है । उदा०- अध्यायः (जिसका अध्ययन किया जाता है)। उपाध्याय: (जिसके समीप जाकर पढ़ा जाता है) । अधि इ घन , वृद्धि तथा पायादेश होकर ‘अधि प्राय अ बना, यणादेश होकर अध्यायः बन गया है। एरच् (३।३।५६) सूत्र से अच् प्रत्यय की प्राप्ति में यह सूत्र है । उपसर्गे रुवः ॥३।३।२२॥ उपसर्गे ७१॥ रुव: ५१॥ अन-अकर्तरि च कारके संज्ञायाम्, भावे, घन, धातोः, प्रत्यय:, परश्च ॥ अर्थः-उपसर्ग उपपदे रु धातोः घञ् प्रत्ययो भवति कर्तृ भिन्ने कारके संज्ञायां विषये भावे च ।। उदा०-सरावः । उपराव: । विरावः ।। भाषार्थ:- [उपसर्गे]उपसर्ग उपपद रहते [रुवः] रु धातु से घञ् प्रत्यय होता है, कर्तृभिन्न कारक संज्ञाविषय में, तथा भाव में ॥ उवर्णान्त होने से ऋदोरप(३।३।५७) से अप् प्राप्त था,तदपवाद यह सूत्र है । ये सारे सूत्र आगे के प्रौत्सर्गिक सूत्रों से विधान किये हुए अप अच् प्रादि प्रत्ययों के ही अपवाद हैं। सो अौगिकों से पहले ही ये अपवाद विधान कर देने से ये सब पुरस्तादपवाद हैं । अन्यथा घञ् विधान करने की अावश्यकता ही नहीं थी । भावे, अकर्तरि च० इन प्रौत्सगिकों से हो सब धातुओं से घन हो ही जाता ॥ उदा०-संरावः(आवाज)। उपरावः (आवाज)। विरावः (आवाज)। पादः] तृतीयोऽध्यायः Bा समि यद्रवः ।।३।३।२३॥ समि ७१॥ युद्र दुवः ५॥१॥ स०-युश्च द्रुश्च दुश्च युद् दु, तस्मात्, समाहारो द्वन्द्वः ॥ अनु०-प्रकर्त्तरि च कारके संज्ञायाम, भावे, घञ् , धातो:, प्रत्यय:, परश्च ॥ अर्थः-सम्पूर्वेभ्यो यु मिश्रणे, दुद्र गतौ इत्येतेभ्यो धातुभ्यः कर्तृभिन्ने कारके संज्ञायां विषये भावे च घन प्रत्ययो भवति ॥ उदा०–संयूयते मिश्रीक्रियते य: स: संयावः । सन्द्रावः। सन्दावः ॥ 3 भाषार्थः-[समि] सम् पूर्वक [युद्र दुव:] यु द्रु तथा दु धातुओं से कर्तृ भिन्न कारक संज्ञाविषय में, तथा भाव में घन प्रत्यय होता है ॥ ऋदोरप (३॥३॥५७) से अप प्राप्त था,उसका यह अपवाद है ।। उदा०-संयावः (हलुवा)। सन्द्रावः (भागना)। सन्दावः (भागना) ॥ सर्वत्र वृद्धि तथा प्रावादि आदेश होकर सिद्धि जानें ॥ मिति पनि श्रिणीभुवोऽनुपसर्गे ॥३।३।२४।। श्रिणीभव: ५॥१॥ अनुपसर्गे ॥१॥ स.-ख्रिश्च णीश्च भूश्च श्रिणीभूः, तस्मात, समाहारो द्वन्द्रः । न उपसर्गो यस्य सः अनुपसर्गः, तस्मिन, (पञ्चम्यर्थ) बहुव्रीहिः ॥ अनु०-अकर्तरि च कारके संज्ञायाम, भावे, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थः-श्रि, णी, भू इत्येतेभ्योऽनुपसर्गेभ्यो धातुभ्यो घन प्रत्ययो भवति कर्तृभिन्ने कारके संज्ञायां विषये भावे च ।। उदा०-श्राय: । नायः । भाव: ॥ भाषार्थः - [अनुपसर्गे] उपसर्गरहित [श्रिणीभुवः] श्रि, णी, भू इन धातुओं से कर्तृभिन्न कारक संज्ञाविषय में, तथा भाव में घञ् प्रत्यय होता है ॥ उदा० श्रायः (माश्रय) । नायः (ले जाना) । भाव: (होना) ॥ इवर्णान्तों से अच् प्रत्यय (३।३।५६),तथा उवर्णान्त से अप् (३।३:५७) प्राप्त था, सो उनका यह अपवाद है ।। का विशन वो क्षुश्रुवः ॥३।३।२५॥ वो ७१॥ क्षश्रुवः ५॥१॥ स० -क्षुश्च श्रुश्च क्षुश्र, तस्मात समाहारो द्वन्द्वः ।। अन-अकर्तरि च कारके संज्ञायाम्, भावे, घन, धातो:, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थ: कत्त भिन्ने कारके संज्ञायां विषये भावे च विपूर्वाभ्यां टुक्षु शब्दे श्र श्रवणे इत्येताभ्यां धातुभ्यां घञ् प्रत्ययो भवति ।। उदा०-विक्षावः । विश्राव: ॥ भाषार्थ:-[बी] वि पूर्वक [क्षुश्र वः] क्षु तथा श्रु धातुओं से कत्तुं भिन्न कारक संज्ञाविषय में भाव में घन प्रत्यय होता है । पूर्ववत् यह भी अप का अप वाद है ।। उदा०-विक्षावः (शब्द करना) । विश्रावः (प्रति प्रसिद्धि होना) ॥ अवोदोनियः ॥३॥३॥२६॥ प्रवोदोः ७।२॥ निय: ५।१।। स०-अवश्च उद् च अवोदौ, तयोः, इतरेतर ३ अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [तृतीयः योगद्वन्द्वः ।। अनु०-अकर्तरि च कारके संज्ञायाम्, भावे, घन, धातो:, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः-कत भिन्ने कारके संज्ञायां विषये भावे च अव उद इत्येतयोरुप सर्गोपपदयोीन धातोर्घन प्रत्ययो भवति ।। उदा०-अवनायः । उन्नायः ।। भाषार्थ:-[अवोदोः] अव तथा उद् पूर्वक [नियः] णी धातु से कर्तृ भिन्न कारक संज्ञाविषय में तथा भाव में घञ् प्रत्यय होता है ।। एरच (३।३।५६) से अच प्राप्त था यह उसका अपवाद है ॥ उदा०–प्रवनायः (अवनति) । उन्नायः (उन्नति) ॥ उद् नाय, ऐसी अवस्था में यहाँ यरोऽनु० (८:४।४४) लगकर उन्नायः बन गया है कि प्रार प्रे द्रुस्तुस्र वः ॥३।३।२७॥ प्रे ७॥१॥द्र स्तुस्र वः ॥१॥ स०-द्रश्च स्तुश्च स्र श्च द्रु स्तुस्र, तस्मात्, समाहारो द्वन्द्वः ॥ अन०– अकर्तरि च कारके संज्ञायाम, भावे, घन, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थ:-प्रोपसर्ग उपपदे द्रु गतो, ष्ट अ स्तुतौ, स्र गतौ इत्येतेभ्यो धातुभ्यो घञ् प्रत्ययो भवति अकर्तरि च कारके संज्ञायां विषये भावे च ॥ उदा.-प्रद्रावः । प्रस्तावः । प्रस्रावः ॥ जस भाषार्थः-[प्रे] प्र पूर्वक [P स्तुत्र वः] द्रु, स्तु, स्त्र इन धातुओं से कर्तृ भिन्न कारक संज्ञाविषय में तथा भाव में घञ् प्रत्यय होता है । यह भी पूर्ववत् अप प्रत्यय का अपवाद हैं ।। उदा० –प्रद्रावः (भागना) । प्रस्तावः (प्रस्ताव) । प्रस्रावः (बहना, मूत्र) । निरभ्योः पूल्वोः ।।३।३।२८॥ निरभ्यो: ७॥२॥ पूल्वोः ६।२।। स०-उभयत्रेतरेतरयोगद्वन्द्वः ॥ अनु० अकर्तरि च कारके संज्ञायाम, भावे, घञ्, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः-निर अभि पूर्वाभ्यां यथासंख्यं ५ लू इत्येताभ्यां धातुभ्यां कर्तृभिन्ने कारके संज्ञायां विषये भावे ।’ च घञ् प्रत्ययो भवति ॥ पू इत्यनेन पूपूजोः सामान्येन ग्रहणम् ॥ उदा०-निष्पावः । अभिलाव: ॥ भाषार्थ:-[निरभ्यो:] निर् अभि पूर्वक क्रमशः [पूल्वोः] पू लू धातुओं से कर्तृभिन्न कारक संज्ञा विषय में तथा भाव में घञ् प्रत्यय होता है ॥ पू से सामा न्य करके पूङ तथा पूञ् दोनों धातुओं का ग्रहण है ॥ उदा०-निष्पावः (पवित्र – करना)। अभिलावः (काटना) ॥ निष्पाव: में इदुदुपधस्य ० (८।३।४१) से निर् के विसर्जनीय को षत्व हो गया है । यह सूत्र भी पूर्ववत् अप का अपवाद है ॥ । उन्योः ।।३।३।२६॥ - उन्न्योः ७।२॥ ग्र: ५॥१॥ स०-उद् च नि चेति उन्न्यौ , तयोः, इत्यत्रेतरेतर पाद:] र तृतीयोऽध्यायः योगद्वन्द्वः ॥ अनु०-अकर्तरि च कारके संज्ञायाम, भावे, घन, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थ:-कर्तृभिन्ने कारके संज्ञायां विषये भावे च उद् नि इत्येतयोरुप पदयो: ‘ग’ धातोर्घञ् प्रत्ययो भवति ॥ उदा०-उदगार: । निगारः ।। भाषार्थः-[उन्न्योः ] उद् नि उपपद रहते [ग्नः] गृ धातु से कर्तृ भिन्न कारक सज्ञाविषय में तथा भाव में घञ् प्रत्यय होता है । ऋवर्णान्त धातुओं से ३।३।५७ से अप् प्राप्त था, तदपवाद यह सूत्र है। यहां ग से ‘ग शब्दे’ तथा ‘ग निगरणे’ दोनों धातुओं का ग्रहण है ।। उदा०-उद्गारः (वमन, अावाज) । निगारः (भोजनः) । यहाँ से ‘उन्न्यो:’ की अनुवृत्ति ३।३।३० तक जायेगी ॥ प्रती अना कधान्ये ॥३॥३॥३०॥ क लुप्तपञ्चम्यन्तनिर्देशः ॥ धान्ये ७१॥ अनु०-उन्न्योः, अकर्तरि च कारके संज्ञायाम, भावे, घन, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः-उद नि इत्येतयोरुपपदयो: ‘क’ विक्षेपे इत्यस्माद् धातोर्धान्यविषये घन प्रत्ययो भवति कर्तृभिन्ने कारके संज्ञायां विषये भावे च ॥ उदा०-उत्कारो धान्यस्य । निकारो धान्यस्य ॥ भाषार्थः उद नि पूर्वक [क] क धातु से [धान्ये ] धान्यविषय में घन प्रत्यय होता है, कर्तृभिन्न कारक संज्ञाविषय में तथा भाव में ॥ यह भी अप का अपवाद है । उदा०-उत्कारो घान्यस्य (धानों को इकट्ठा करना, और ऊपर उछालना)। निकारो धान्यस्य (धान का ऊपर फेंकना) ॥ यज्ञे समि स्तुवः ॥३।३।३१॥ यज्ञे ७।१॥ समि ७१।। स्तुव: ५॥१॥ अनु०- अकर्तरि च कारके संज्ञायाम्, घन, घातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः–यज्ञविषये समपूर्वात् ष्टुअधातोः कर्तृभिन्ने कारके संज्ञायां विषये घन प्रत्ययो भवति ॥ उदा०–समेत्य संस्तुवन्ति यस्मिन् देश छन्दोगा सः सस्तावः ॥ नान किया की भाषार्थ:- [यज्ञे] यज्ञविषय में [समि) सम्पूर्वक [स्तुवः] स्तु धातु से कर्तृभिन्न कारक संज्ञाविषय में घञ् प्रत्यय होता है । यह सूत्र अधिकरण में ल्युट् (३।३।११७) का अपवाद है । उदा०-सांस्तावः (सामगान करनेवाले ऋत्विजों का स्तुति करने का स्थान) ॥ 5 शानो । प्रेस्त्रोऽयज्ञे ॥३॥३॥३२॥ । प्रे ७॥१॥ स्त्र: ५॥१॥ अयज्ञे ७१॥ स०- न यज्ञ: अयज्ञः, तस्मिन, नत्र - तत्तुरुषः ॥ अनु० — अकर्तरि च कारके संज्ञायाम्, भावे, घञ् धातोः,प्रत्ययः, परश्च ।। ४३२ अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [तृतीयः अर्थ:-प्रपूर्वात् ‘स्तृन आच्छादने’ अस्माद् धातोर्यज्ञविषयं विहाय कर्तृभिन्ने कारके संज्ञायां विषये भावे च घज प्रत्ययो भवति ॥ उदा०-शङ्खप्रस्तारः, छन्दःप्रस्तारः, __ भाषार्थ:–[प्रे] प्र पूर्वक [स्त्र:] ‘स्ता आच्छादने’ धातु से [अयज्ञ] यज्ञ विषय को छोड़कर कर्त भिन्न कारक संज्ञाविषय में तथा भाव में घञ् प्रत्यय होता है ॥ ऋवर्णान्त होने से अप् प्राप्त था, तदपवाद है। उदा०-शङ खप्रस्तारः (शङखों का फैलाव, विस्तार), छन्दःप्रस्तारः (छन्द का विस्तार) ॥ प्रस्तारः में वृद्धि प्रादि करके पुनः शङख या छन्दः शब्द के साथ शङ खानां प्रस्तारः, छन्दसा प्रस्तारः ऐसा विग्रह करके षष्ठीसमास होगा ॥ यहाँ से ‘स्त्रः’ को अनुवृत्ति ३।३।३४ तक जायेगी। प्रथने वावशब्दे ॥३॥३॥३३॥ प्रथने ७।१।। वौ ७१॥ अशब्दे ७।१॥ स०-न शब्दोऽशब्दः, तस्मिन्, नत्र तत्पुरुषः ॥ अनु० -स्त्रः, अकर्तरि च कारके संज्ञायाम, भावे, घत्र, धातो:, प्रत्यय:, परश्च ॥ अर्थ:-विशब्द उपपदे स्तृञ् धातोरशब्दे प्रथनेऽभिधेये घञ् प्रत्ययो भवति, कर्तृ भिन्ने कारके सज्ञायां विषये भावे च ।। उदा० –पटस्य विस्तारः॥ र भाषार्थ:- [वौ] वि पूर्वक स्तृञ् धातु से [अशब्दे] प्रशब्दविषयक [प्रथने] प्रथन =विस्तार, अर्थात शब्दविषयक विस्तार को न कहना हो, तो कर्तृ भिन्न कारक संज्ञाविषय में तथा भाव में घञ् प्रत्यय होता है । उदा.-पटस्य विस्तारः (कपड़े का फैलाव) ॥ यहाँ से ‘वो’ को अनुवृत्ति ३।३।३४ तक जायेगी। छन्दोनाम्नि च ॥३॥३३४॥ की छन्दोनाम्नि ७।१।। च अ०॥ स०-छन्दस: नाम छन्दोनाम, तस्मिन् षष्ठी तत्पुरुषः ॥ अन०-वौ, स्त्रः, अकर्तरि च कारके संज्ञायाम, भावे,घज, धातोः, प्रत्यय:, परश्च ॥ अर्थः-विपूर्वात स्तृधातोः छन्दोनाम्नि कर्त भिन्ने कारके संज्ञायां विषये भावे च घञ् प्रत्ययो भवति ।। उदा०-विष्टारपक्तिश्छन्दः, विष्टारबृहती छन्दः ।। भाषार्थ:-वि पूर्वक स्तृज घातु से [छन्दोनाम्नि छन्द का नाम कहना हो, तो [च] भी कर्तृभिन्न कारक सज्ञाविषय में, तथा भाव में घज प्रत्यय होता है ॥ छन्दोनाम से यहाँ विष्टारपक्ति प्रादि छन्द लिये हैं न कि वेद ।। विस्तार बनकर छन्दोनाम्नि च (८।३।९४) से षत्व, तथा ष्टुना ष्टुः (८।४।४) से ष्टुत्व होकर विष्टारः बन गया है ।। த | पादः] तृतीयोऽध्यायः MY उने यस दि ग्रहः ॥३।३॥३५॥पार में शामिनट उदि ७।१।। ग्रहः ५॥१॥ अनु०-अकर्तरि च कारके संज्ञायाम्, भावे, घन, धातो:, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थः-उत्पूर्वाद ग्रहधातोः कर्तृभि-ने कारके संज्ञायां विषये भावे च घञ् प्रत्ययो भवति ।। उदा०-उदग्राहः ॥ पोकामगरको भाषार्थ:-[उदि] उत् पूर्वक [ग्रह:] ग्रह धातु से, कर्तृभिन्न कारक संज्ञा विषय में तथा भाव में घञ् प्रत्यय होता है ॥ ग्रहवदनिश्चि० (३।३।५८) से अप प्रत्यय प्राप्त था, उसका यह अपवाद है ॥ उदा०–उद्ग्राहः (विद्या का विचार) ।। यहाँ से ‘ग्रहः’ को अनुवृत्ति ३।३।३६ तक जायेगी । समि मुष्टौ ।।३।३।३६॥ –STE TIPTE समि ७१॥ मुष्टौ ७१॥ अनु०-ग्रहः, अकर्तरि च हारके संज्ञायाम्, भावे, घज, धातोः, प्रत्ययः, परश्चः ॥ अर्थ:-समपूर्वाद ग्रहयातोर्मुष्टिविषये घञ् प्रत्ययो भवति, कत्र्तृ भिन्ने कारके संज्ञायां विषये भावे च ॥ उदा०-अहो! मल्लस्य संग्राहः ।। भाषार्थ:-[समि] सम्पूर्वक ग्रह धातु से कतृ भिन्न कारक संज्ञा तथा भाव में [मुष्टो] मुष्टि =मुट्ठीविषय में घञ् प्रत्यय होता है । यह भी अप् का अपवाद है ।। उदा०-ग्रहो ! मल्तस्य संग्राहः (ोहो ! पहलवान को मुठ्ठी को पकड़) ॥ ___परिन्योर्नीणो ताभ्रेषयोः ॥३॥३॥३७॥ परिन्योः ७।२॥ नीणो: ६॥२॥ द्यूताभ्रेषयोः ७१२॥ स०-परिश्च निश्च परिनी, तयोः, इतरेतरयोगद्वन्द्वः ॥ नी च इण्च नीणो, तयोः, इतरेतरयोगद्वन्द्वः । द्यूतं च अभ्रषश्च द्यूताभ्रषौ, तयोः, इतरेतरयोगद्वन्द्वः ॥ अनु० -अकर्तरि च कारके संज्ञा याम, भावे, घ, धातोः, प्रत्यय:, परश्च ॥ अथः-परि शब्दे नि शब्दे चोपपदे यथा संख्यं नी इण इत्येताभ्यां धातुभ्याम् अकर्तरि च कारके संज्ञायां भावे च घन प्रत्ययो भवति, द्यूताभ्रषयोविषययोः ॥ अत्रापि यथासङ्ख्यमेव सम्बन्धः॥ उदा०–छूते परिणायेन शारान हन्ति । अभ्रेषे-एषोऽत्र न्यायः ।। पा भाषार्थ:–[परिन्योः] परि तथा नि उपपद रहते यथासंख्य करके [नीणोः] नी तथा इण् धातु से कर्तृभिन्न कारक संज्ञा तथा भाव में [द्यूताभ्रे पयोः] द्यूत तथा अभ्रष विषय में घञ् प्रत्यय होता है । यहां भी यथासंख्य का सम्बन्ध लगता है । सो परि पूर्वक् नी धातु से द्य तविषय में, तथा नि पूर्वक इण् घात से अभ्रष (उचित पाचरण करना) विषय में घञ् प्रत्यय होता है ।। उदा०—द्यूत में परिणायेन अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [तृतीयः शारान् हन्ति (चारों ओर से जाकर छू तक्रीडा के पासों को मारता है) । अभ्रष में–एषोऽत्र न्यायः (यही यहां उचित है)॥ परिणायः में उपसर्गाद० (८। ४।१४) से णत्व होता है । ‘नि इ अ’ यहाँ वृद्धि होकर ‘नि ऐ में’, आयादेश होकर नि प्राय अ, पश्चात् यणावेश होकर न्याय: बन गया है ।। नामपि परावनुपात्यय इणः ॥३।३।३८॥ ॥२॥२८॥ इजिपरी ७१।। अनुपात्यये ७११॥ इण: ५१॥ अनु० –अकर्तरि च कारके संज्ञा. याम्, भावे, घज, धातो:, प्रत्ययः परश्च ।। अर्थ:-परिपूर्वाद इण्धातो: अनुगत्यये= क्रमप्राप्तस्यानतिपातेऽर्थे गम्यमाने कर्तृभिन्ने कारके संज्ञायां भावे च घा प्रत्ययो भवति ।। उदा०-तव पर्यायः, मम पर्यायः ॥ AP भाषार्थ:–[परौ] परि पूर्वक [इण:] इण् धातु से [अनुपात्यये] अनुपात्यय =क्रम, परिपाटी गम्यमान होने पर कर्तृ भिन्न कारक संज्ञा विषय में, तथा भाव में घञ् प्रत्यय होता है। उदा०–तव पर्याय: (तेरी बारी), मम पर्याय: (मेरी बारी) ॥ इवर्णान्त धातु होने से पूर्ववत एरच (३३३६५६) सूत्र का अपवाद यह सूत्र है ॥ पूर्ववत वृद्धि प्रायादेश होकर ‘परि प्राय घन’, यणादेश होकर पर्यायः बना है। व्युपयो: शेतेः पर्याये ॥३।३।३६॥ व्युपयो: ७।२।। शेते: ५॥१॥ पर्याये ७१।। स०–विश्च उपश्च व्युपो, तयोः, इतरेतरयोगद्वन्द्व. ॥ अनु०-अकर्तरि च कारके संज्ञायाम, भावे, घञ्, धातो: प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थ:-पर्याये गम्यमाने वि उप इत्येतयोरुपपदयोः शीधातोः, कतभिन्ने कारके संज्ञायां विषये भावे च घन प्रत्ययो भवति ॥ उदा.-तव विशायः । ममोपशायः॥ भाषार्थः-[व्युपयो:] वि उप पूर्वक [शेतेः] शीङ, धातु से [पर्याये] पर्याय गम्यमान होने पर कर्तृभिन्न कारफ संज्ञाविषय में, तथा भाव में घञ् प्रत्यय होता है । पूर्ववत् अच् प्राप्त था, तदपवाद है। सिद्धि में पूर्ववत् ही वृद्धि आदि जानें। मम उपशायः, यहाँ प्रादः गुणः (६।१।८४) से पूर्व पर को गण होकर ममोपशायः (मेरे सोने की बारी)। तव विशायः (तेरे सोने की बारी) बना है ।। हस्तादाने चेरस्तेये ॥३३॥४०॥ हस्तादाने ७।१॥ चे: ५।१।। अस्तेये ७१॥ स०-हस्तेन प्रादानं ग्रहणं हस्ता दानं, तस्मिन्, तृतीयातत्पुरुषः । न स्तेयम् अस्तेयम्, तस्मिन्, नञ्तत्पुरुषः । अनु० अकर्तरि च कारके संज्ञायाम, भावे, घन्, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थः-अस्तेये पाद:] तृतीयोऽध्याय: ४३५ गुहार =चौर्य रहिते इस्तादाने गम्यमाने चित्र घातोः कर्तृभिन्ने कारके संज्ञायां भावे च घन प्रत्ययो भवति ।। उदा०-पुष्पप्रचायः, फलप्रचायः ॥ भाषार्थ: –[अस्तेये ] चोरीरहित [हस्तादाने] हाथ से ग्रहण करना गम्य- तो मान हो, तो [चे ] चित्र धातु से कर्तृभिन्न कारक और भाव में घन प्रत्यय होता। है । हस्तादान कहने से पुष्प या फल को समीपता प्रतीत होती है, तभी हस्तादान सम्भव है । पूर्ववत् अच् का अपवाद यह सूत्र है ॥ उदा०-पुष्पप्रचायः (हाथ से फूल तोड़ना), फलप्रचायः (हाथ से फल तोड़ना) ॥ सिद्धि में पूर्ववत वृद्धि प्रायादेश होकर ‘प्रचायः’ बनकर, पश्चात् पुष्प एवं फल के साथ षष्ठीतत्पुरुष समास हुआ है ।। यहां से ‘चेः’ को अनुवृत्ति ३।३।४२ तक जायेगी ॥ कशि निवासचितिशरीरोपसमाधानेष्वादेश्च कः ।।३।३।४१॥ निवास ‘घानेष ७।३।। आदे: ६३१॥ च अ० ॥ कः ११॥ स०-निवासाच चितिश्च शरीरं च उपसमाधानं च निवास समाधानानि, तेषु, इतरेतरयोगद्वन्द्वः ।। अनु०–चे:, अकर्तरि च कारके संज्ञायाम्, भावे, घन, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ।। निवसन्त्यस्मिन्निति निवासः । चीयतेऽसौ चितिः । राशीक रणमुपसमाधानम् ।। अर्थ: निवास, चिति, शरीर, उपसमाधान इत्येतेष्वर्थेषु चिञ्धातोर्घज प्रत्ययो भवति, धातोरादेश्च ककारादेशो भवति, कर्तृभिन्ने कारके संज्ञायां भावे च ।। उदा०-निवासः -एषोऽस्य निकायः । चिति:-पाकायमग्नि चिन्वीत । शरीरम्-अनित्यकायः,P अकायं ब्रह्म । उपसमाधानम-महान् फलनिकाय: ।। अमदार भाषार्थ:-[निवास - नेष] निवास, चिति (=जो चुना जाय), शरीर, उप समाधान ( =राशि) इन अर्थों में चित्र धातु से घञ् प्रत्यय होता है, [च] तथा चित्र के [प्रादे:] प्रादि चकार को [क:] ककारादेश हो जाता है, कर्तृ भिन्न कारक संज्ञा विषय में तथा भाव में ॥ उदा०-निवास-एषोऽस्य निकायः (यह इसका निवास स्थान है)। चिति-आकायमग्नि चिन्वीत (श्मशान की प्राग का चयन किया जाय)। शरीर-अनित्यकायः (शरीर अनित्य हैं)। प्रकायं ब्रह्म (ब्रह्म शरीररहित है)। उप समाधान-महान फलनिकायः (बड़ा भारी फलों का ढेर)। आकायम में प्राङ् पूर्वक चिञ् धातु है ॥ यहां से ‘प्रादेश्च क:’ को अनवत्ति ३।३।४२ तक जायेगी। सङ्घ चानौत्तराधयें ॥३॥३॥४२॥ सधे ७।१॥ च अ० ॥ अनौत्तराधर्ये ७।१।। उत्तरे च प्रघरे च उत्तराधराः, तेषां भाव: प्रौत्तराधर्यम् ॥ स०-न प्रौत्तराधर्यम् अनौत्तराधर्य, तस्मिन्, नञ्तत्पुरुषः।। अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [तृतीयः अन–प्रादेश्च कः, चे:, अकर्तरि च कारके संज्ञायाम, भावे, घन धातो:, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थः- अनौत्तराधर्ये सधे वाच्ये चिञ् धातोर्घज’ प्रत्ययो भवति, आदेश्च कारस्य स्थाने ककारादेशोऽपि भवति, कर्तृभिन्ने कारके संज्ञायां विषये भावे च ॥ उदा०-भिक्षुकनिकायः । ब्राह्मणनिकायः । वैयाकरणनिकायः ॥ [] the भाषार्थ:- [अनौत्तराधर्ये] अनौत्तराधर्य [सधे] सङ्घ वाच्य हो, तो [च] भी चित्र धातु से घञ् प्रत्यय होता है, तथा आदि चकार को ककारादेश हो जाता है, कर्तृभिन्न कारक संज्ञा में एवं भाव में ॥ प्राणियों के समुदाय को संघ कहा जाता है। वह दो प्रकार से बनता है-एक धर्म के अन्वय से, तथा दूसरा ऊपर-नीचे बैठने से । सूत्र में प्रौत्तराधर्य (= ऊपर-नीचे स्थित होने) का प्रतिषेध होने से एकधर्मान्वय से बननेवाले संघ का ग्रहण यहाँ किया गया है । उदा०-भिक्षुकनिकायः (भिक्षुकों का समुदाय)। ब्राह्मणनिकायः (ब्राह्मणों का समुदाय)। वैयाकरणनिकायः ।। निकायः बना कर पीछे षष्ठीसमास भिक्षुक प्रादि के साथ होता है । सिद्धि पूर्ववत् है ॥ कर्मव्यतिहारे णच स्त्रियाम् ॥३॥३॥४३॥ कर्मव्यतिहारे ७॥१॥ णच १२१॥ स्त्रियाम् ॥१॥ स०-कर्मणो व्यतिहारः कर्मव्यतिहारः, तस्मिन्, षष्ठीतत्पुरुषः ॥ अनु०-अकर्तरि च कारके संज्ञायाम, भावे, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः-कर्मव्यतिहारे गम्यमाने स्त्रियामभिधेयायां धातोणंच प्रत्ययो भवति कर्तृ भिन्ने कारके संज्ञायां भावे च ।। उदा०-व्यावक्रोशी, व्यावलेखी, व्यावहासी। _____ भाषार्थः- [कर्मव्यतिहारे] कर्मव्यतिहार=क्रिया का अदल-बदल गम्यमान हो, तो [स्त्रियाम] स्त्रीलिङ्ग में धातु से कर्तृ भिन्न कारक संज्ञा विषय में तथा भाव में [णच् ] णच् प्रत्यय होता है || [] हि बोलना tam Bा अभिविधौ भाव इनण ४ PEPAR WE अभिविधौ ७॥१॥ भावे ७१।। इनुण ११॥ अनु०-धातोः, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थ:-अभिविधि =अभिव्याप्तिः, तस्यां गम्यमानायां भावे धातोरिनुण प्रत्ययो भवति ॥ उदा०-सांकूटिनम्, सांराविणम् ॥ वृक्ष भाषार्थ:-[अभिविघौ] अभिविधि अर्थात अभिव्याप्ति गम्यमान हो, तो धातु से [भावे] भाव में [इनुण ] इनुण् प्रत्यय होता है ॥ प्राक्रोशेऽवन्योर्ग्रहः ॥३।३।४५॥ मतं आक्रोशे ७।१॥ अवन्योः ७१२॥ ग्रहः ॥१॥ स०–अव० इत्यत्रेतरेतरयोग द्वन्द्वः ॥ अनु० –अकर्तरि च कारके संज्ञायाम, भावे, घन, धातो:, प्रत्ययः, परश्च ॥ पाद:] कि तृतीयोऽध्यायः अर्थः-अव नि इत्येतयोरुपपदयोराक्रोशे गम्यमाने ग्रहधातोः कर्तृभिन्ने कारके सज्ञायां विषये भावे च घञ् प्रत्ययो भवति ।। उदा.-अवग्राहो दुष्ट ! ते भूयात् । निग्राहो दुष्ट ! ते भूयात् ॥ भाषार्थः - ‘आक्रोश’ क्रोध से कुछ कहने को कहते हैं । [आक्रोशे] आक्रोश गम्यमान हो, तो [अवन्यो:] अव तथा नि पूर्वक [ग्रहः] ग्रह धातु से कर्तृभिन्न कारक संज्ञा में तथा भाव में घञ् प्रत्यय होता है। उदा०-अवग्राहो दुष्ट ! ते भूयात् (हे दुष्ट ! तेरा अभिभव हो जाये) । निग्राहो दुष्ट ! ते भूयात् (हे दुष्ट ! तेरा बाध हो)॥ोहर TE TO THE SPI आर यहाँ से ‘ग्रहः’ की अनुवृत्ति ३।३।४७ तक जायेगी। प्रेलिप्सायाम् ॥३।३।४६॥ प्रे ७१॥ लिप्सायाम् ७१॥ अनु०-ग्रहः, अकर्तरि च कारके संज्ञायाम्, भावे, धन, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थ:-लिप्सायाम =लब्धुमिच्छायां गम्यमानायां प्रपूति ग्रहधातोर्घन प्रत्ययो भवति, कतभिन्ने कारके संज्ञायां विषये भावे च ॥ उदा०—पात्रप्रनाहेण चरति भिक्षुकोऽन्नार्थी। स्र बप्रग्राहेण चरति द्विजो दक्षिणार्थी ॥ भाषार्थ:-[लिप्सायाम] लिप्सा प्राप्त करने की इच्छा गम्यमान हो, तो [प्रे] प्र पूर्वक ग्रह धातु से कर्तृभिन्न कारक संज्ञाविषय में तथा भाव में घञ् प्रत्यय होता है। उदा०-पात्रप्रग्राहेण चरति भिक्षुकोऽन्नार्थी (अन्न चाहनेवाला भिक्षु अन्न का पात्र लिये विचरता है)। स व प्रग्राहेण चरति द्विजो दक्षिणार्थी (दक्षिणा चाहनेवाला द्विज व स व लेकर घूमता है) । उदाहरण में वृद्धि प्रादि होकर प्रग्राहः बनकर पात्र तथा स्त्र व शब्द के साथ षष्ठीतत्पुरुष समास हो गया है । (ग) परौ यज्ञे ॥३।३।४७॥ (EITY) ser (ens परौ ७१।। यज्ञे ७।१॥ अमु०-ग्रहः, अकर्तरि च कारके संज्ञायाम्, भावे, घन, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः-यज्ञविषये परिपूर्वाद ग्रहधातोर्घञ् प्रत्ययो भवति, कर्तृभिन्ने कारके संज्ञायां विषये भावे च ॥ उवा-उत्तरः परिग्राहः । अधरः परिग्राहः ॥ __भाषार्थ:- [यज्ञे] यज्ञविषय में [परौ] परि पूर्वक ग्रह धातु से कर्तृभिन्न कारक संज्ञाविषय में तथा भाव में घञ् प्रत्यय होता है ॥ उदा.-उत्तरः परिग्राहः (दर्शपौर्णमास यज्ञ में उत्तर वेदि के निर्माण को उत्तरः परिग्राहः कहते हैं) । अधरः परिग्राहः (नीचे का निर्माण) ॥ परिग्राहः पूर्ववत बनकर उत्तर तथा अधर के साथ षष्ठीतत्पुरुष समास हो गया है । अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्तौ [तृतीयः नौ वृ धान्ये ॥३॥३४॥ नौ ७।१।। वृ लुप्तपञ्चम्यन्तनिर्देश: ॥ धान्ये ७१॥ अनु०-अकर्तरि च कारके संज्ञायाम, भावे, घन धातोः, प्रत्यय:, परश्च ॥ अर्थः-व इति वृबृजोः सामान्येन ग्रहणम् । निपूर्वाद् वृ इत्येतस्माद् धातो: धान्येऽर्थे कर्तृभिन्ने कारके संज्ञायां विषये भावे च घञ् प्रत्ययो भवति ।। उदा०-नीवारा: व्रीहयः ॥ गजा Fan भाषार्थ:-[नो] नि पूर्वक [व] व धातु से [धान्ये] धान्यविशेष को कहना हो, तो कर्तृभिन्न कारक संज्ञा तथा भाव में घञ् प्रत्यय होता है | दूर में वृ से यहाँ वृद्ध वृज दोनों का ग्रहण है ॥ ग्रहवृदृनिश्चिगमश्च (३।३।५८) से अप प्राप्त था, उसका यह अपवाद है । उदा०-नीवाराः वोहयः (नीवार नाम स का धान्यविशेष)| नीवार में उपसर्गस्य० (६।३।१२२) से उपसर्ग के इकार को परदीर्घ हमा है ।मिका 15318IELTSTEP MSTER गिनमा उदि श्रतियोतिपूद्र वः ।।३।३।४६॥ 12 उदि ७।१।। श्रयतियोतिपूद्र वः ५॥१॥ स०-श्रयतिश्च यौतिश्च पूश्च द्रुश्च श्रयति…द्र, तस्मात, समाहारो द्वन्द्वः ॥ अन०-अकर्तरि च कारके संज्ञायाम, भावे, घन, धातो:, प्रत्यय:, परश्च ।। अर्थः-उत्पूर्वेभ्य: श्रि, यु, पू, द्रु इत्येतेभ्यो धातुभ्यः कर्तृभिन्ने कारके संज्ञायां भावे च घन प्रत्ययो भवति ॥ उदा०-उच्छायः । उद्यावः । उत्पावः । उद्दाव: ॥ भाषार्थ:-[उदि] उत् पूर्वक [श्रयतियौतिपूद्र वः] श्रि यु पू द्रु इन धातुओं से कर्तृभिन्न कारक संज्ञा में तथा भाव में घञ् प्रत्यय होता है । उदा०–उच्छ्रायः (ऊंचाई)। उद्यावः (इकट्ठा करना) । उत्पावः (यज्ञीय पात्रों का संस्कारविशेष)। उद्माव: (भागना) ॥ उत श्राय, यहाँ स्तो: श्चुना श्चुः (८४१३६) से श्चुत्व, तथा शश्छोऽटि (८४१६२) से छत्व होता है । शेष सब पूर्ववत् ही है। श्रि धातु से एरच (३६३३५६) से अच् प्राप्त था, तथा अन्य धातुओं से ऋदोरम् (३।३।५७) से अप प्राप्त था, उनका यह अपवाद है । विभाषाडि रुप्लवोः ॥३॥३॥५०॥ कोन विभाषा ११॥ प्राङि ७।१॥ रुप्लुवोः ६।२॥ स०-रुप्लु• इत्यत्रेतरेतरयोग द्वन्द्वः । अनु०-प्रकर्तरि च कारके संज्ञायाम, भावे, घन, धातो:, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थः-पाङ्युपपदे रु प्ल इत्येताभ्यां धातुभ्यां कर्तृभिन्ने कारके संज्ञायां भावे च विभाषा घन प्रत्ययो भवति ॥ उदा०-पाराव:, पारव: । प्राप्लावः, आप्लवः ।। का भाषार्थ:-[प्राङि] अाङ पूर्वक [रुप्लुवो:] रु तथा प्लु घातुनों से कर्तृ भिन्न पादः तृतीयोऽध्यायः कारक संज्ञा में तथा भाव में [विभाषा] विकल्प से घञ् प्रत्यय होता है । रु धातु से उपसर्ग रुवः (३।३।२२) से नित्य घन प्राप्त था, सो विकल्प से कह दिया । अतः पक्ष में ऋदोरप (३।३।५७)से अप ही होगा । इसी प्रकार प्लु धातु से भी पक्ष में उवर्णान्त होने से अप होगा। अप पक्ष में रु तथा प्ल को गुण तथा प्रवादेश हो जायेगा। एवं घञ् पक्ष में वृद्धि तथा आवादेश होकर पाराव: प्राप्लाव: बनेगा, ऐसा जाने ।। उदा.-पारावः (एक प्रकार को प्रावाज), आरवः । प्राप्लावः (स्नान, डुबकी मारना), प्राप्लवः ॥ यहाँ से ‘विभाषा’ को अनुवृत्ति ३।३।५५ तक जायेगी। RATE मा प्रवे ग्रहो वर्षप्रतिबन्धे ॥३॥३॥५१॥ अवे ७१॥ ग्रहः ५॥१॥ वर्षप्रतिबन्धे ७१० स०-वर्षस्य प्रतिबन्धो वर्षप्रति बन्ध:, तस्मिन्, षष्ठीतत्पुरुषः ॥ अनु०–विभाषा, अकर्तरि च कारके संज्ञायाम, भावे, घन, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः-वर्षप्रतिबन्धेऽभिधेये अवपूर्वाद ग्रहधातो: कर्तृ भिन्ने कारके संज्ञायां भावे च विकल्पेन घन प्रत्ययो भवति ॥ उदा०- अवग्राहो देवस्य, अवग्रहो देवस्य ॥ भाषार्थ:-[वर्षप्रतिबन्धे | वर्षप्रतिबन्ध अभिधेय होने पर [अवे] अव पूर्वक [ग्रहः] ग्रह धातु से कर्तृभिन्न कारक संज्ञा में तथा भाव में विकल्प से घञ् प्रत्यय होता है । वर्षा का समय हो जाने पर भी वर्षा का न होना’वर्षप्रतिबन्ध’कहाता है । ग्रहवृद० (३।३।५८) से अप प्राप्त था, घन प्रत्यय विकल्प से कह दिया है। अतः पक्ष में अप ही होगा । उदा०–प्रवग्राहो देवस्य (देव का न बरसना), अवग्रहो देवस्य ॥ यहाँ से ‘ग्रहः’ की अनुवृत्ति ३।३।५३ तक जायेगी। प्रे वणिजाम् ॥३।३५२॥ प्रे७१॥ वणिजाम् ६॥३॥ अन०-ग्रहः, विभाषा, अकर्तरि च कारके संज्ञा याम, भावे, घन्, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थ:-प्रशब्द उपपद ग्रहधातो: कर्तृ Fiभिन्ने कारके संज्ञायां भावे च विभाषा घन प्रत्ययो भवति, वणिजां सम्बन्धिनि वाच्ये।। उदा०-तुलाप्रमाहेण चरति, तुलाप्रग्रहेण वा ॥ और भाषार्थः- [वणिजाम् ] वणिक्सम्बन्धी प्रत्ययान्त वाच्य हो, तो [प्रे] प्र पूर्वक ग्रह धातु से कर्तृभिन्न कारक संज्ञाविषय में, तथा भाव में विकल्प से घञ् प्रत्यय होता है । उदा० -तुलाप्र ग्राहेण चरति (तराजू का मध्यसूत्र पकड़े घूमता है), तुलाप्रग्रहेण । तराजू के मध्यस्थित सूत्र को ‘प्रग्राह’ अथवा ‘प्रग्रह’ कहा जाता है । अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [तृतीयः तुला का सम्बन्ध वणिक् से होने के कारण सूत्र में ‘वणिजाम्’ पद प्रयुक्त हुआ है ।।
- यहाँ से ‘प्रे’ की अनुवृत्ति ३।३१५४ तक जायेगी रश्मौ च ॥३1३1३11 साल मासा कि PH farm रश्मी ७१।। च अ० ॥ अन०-प्रे, ग्रहः, विभाषा, अकर्तरि च कारके संज्ञा याम्, भावे, घन, धातो:, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थ:-रश्मौ प्रत्ययार्थे प्रपूर्वाद ग्रहधातो: कत भिन्ने कारके संज्ञायां भावे च विकल्पेन घन प्रत्ययो भवति ॥ उदा०–प्रग्राहः, प्रग्रहः ॥ भाषार्थ:-[रश्मौ] रश्मि अर्थात घोड़े की लगाम वाच्य हो, तो [च] भी प्र -की पूर्वक ग्रह धातु से कर्तृ भिन्न कारक संज्ञा में तथा भाव में घञ् प्रत्यय होता है, पक्ष की. मे अप् होता है । उदा० -प्रग्राहः (लगाम, रस्सी), प्रग्रहः ॥ कालीकट HEREP वणोतेराच्छादने ॥३।३।५४॥ शिवाजी वणोते: ५॥१॥ आच्छादने ७१॥ अनु०–प्रे, विभाषा, अकर्तरि च कारके संज्ञायाम, भावे, घन, धातो:, प्रत्यय:, परश्च ॥ अर्थ-आच्छादनेऽर्थे प्रपूर्वाद् वृज - - धातो: कत भिन्ने कारके संज्ञायां भावे च विभाषा घन प्रत्ययो भवति ॥ उदा० प्रावार:, प्रवरः ॥ PEPOR ER
- भाषार्थ:-[आच्छादने] आच्छादन अर्थ में प्र पूर्वक [वृणोते:] वृज धातु ___ से कर्तृभिन्न कारक संज्ञा में, तथा भाव में विकल्प से घञ् प्रत्यय होता है । ग्रहवृदृ० (३।३।५८) से अप प्राप्त था, सो पक्ष में वह भी होता है ॥ उदा० -प्रावारः (चादर), प्रवरः । यहाँ उपसर्गस्य० (६।३।१२२) से उपसर्ग को दीर्घ हुन्मा है ।। परौ भुवोऽवज्ञाने ॥३३॥५॥ भा र परौ ७१॥ भुवः ५॥१॥ अवज्ञाने ७१।। अनु०–विभाषा, अकर्तरि च कारके संज्ञायाम्, भावे, घन, घातो:, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थ:–अवज्ञानम् =तिरस्कारः, तस्मिन् वर्तमानात् परिपूर्वाद् भूधातोः कर्तृभिन्ने कारके संज्ञायां भावे च विकल्पेन घन प्रत्ययो भवति ।। उदा०–परिभाव:, परिभवः ॥ शिण क भाषार्थ:-[अवज्ञाने] अवज्ञान=तिरस्कार अर्थ में वर्तमान [परौ] परि पूर्वक [भुव:] भू धातु से कर्तृभिन्न कारक संज्ञा में तथा भाव में विकल्प से घञ् प्रत्यय होता है ।। ३।३१५७ से अप प्रत्यय प्राप्त था, सो पक्ष में वही होगा। , उदा०–परिभावः (निरादर), परिभवः ॥ पादः] तृतीयोऽध्यायः क मी - एरच ॥३।३१५६|Mाहीय. ए: ५११॥ अच् १११॥ अनु०-अकर्तरि च कारके संज्ञायाम, भावे, धातो:, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थ:- इवर्णान्ताद्धातोर्भाव अकर्तरि च कारके संज्ञायाम् अच प्रत्ययो भवति ॥ उदा० -जय:, चयः, नयः, क्षयः, अय: ॥ जही भाषार्थ:-[ए:] इवर्णान्त धातुओं से क भिन्न कारक संज्ञा में तथा भाव में [अच] अच् प्रत्यय होता है । यहाँ येन विधिस्त० (१३१७१) से तदन्तविधि करके ‘इवर्णान्त’ ऐसा अर्थ हुआ है ॥ उदा० – जयः (जीतना), चयः (चुनना), नयः (ले जाना), क्षयः (नाश), अयः (ज्ञान) ॥ चि जि घातु को सार्वधातुका ० (७।३।८४) से गुण, तथा अयादेश होकर चयः जयः प्रादि रूप बनेंगे । इण् धातु से अयः बना है । यह सूत्र घञ् का अपवाद है । चार व शिम ऋदोरप ॥३॥३॥५७॥ क्रमाकुर हि। ऋदोः ५११॥ अप १३१॥ स०-ऋत च उश्च ऋदुः, तस्मात, समाहारो द्वन्दः॥ अन-अकर्तरि च कारके संज्ञायाम, भावे, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थ:–ऋका रान्तेभ्य: उवर्णान्तेभ्यश्च धातुभ्यः कत्तं वजिते कारके संज्ञायां विषये भावे चाप प्रत्ययो भवति ॥ उदा०-ऋकारान्तेभ्य:-करः, गरः, शरः । उवर्णान्तेभ्यः - यव:, लव:, भाषार्थ:–[ऋदोः] ऋकारान्त तथा उवर्णान्त धातुओं से कर्तृ भिन्न कारक संज्ञा में तथा भाव में [अप्] अप् प्रत्यय होता है । यह भी घञ् का अपवादसूत्र है । गुण इत्यादि पूर्ववत होकर सिद्धि जानें । उदा०-करः (विक्षेप), गरः (विष), शरः (तीर) ! उवर्णान्तों से–यवः (मिलाना), लवः (काटना), पवः (पवित्र करना) यहां से ‘अप्’ की अनुवृत्ति ३।३।८७ तक जायेगी ॥ ग्रहवृदृनिश्चिगमश्च ॥३।३१५८॥ ग्रह · गम: ५।१।। च अ०॥ स०-ग्रङ्च वृश्च दृश्च निश्चिश्च गम च ग्रह गम्, तस्मात, समाहारो द्वन्द्वः ।। अनु०-अप, अकर्तरि च कारके संज्ञायाम, भावे, धातोः, प्रत्यय:, परश्च ॥ अर्थः -ग्रह, वृ, द, निर् पूर्वक चि, गम् इत्येतेभ्यो धातुभ्यः कर्तृवजिते कारके संज्ञायां विषये भावे चाप् प्रत्ययो भवति ॥ उदा०-ग्रहः। वरः । दरः। निश्चयः । गमः ॥ ४४२ अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [तृतीयः से भाषार्थ:- [ग्रहवृदनिश्चिगमश्च] ग्रह, वृ, दृ तथा निर् पूर्वक चि, एवं गम इन बातों से [च] भी क भिन्न कारक संज्ञाविषय में तथा भाव में अप् प्रत्यय होता है । यह सूत्र घञ् का अपजाद है। निश्चि में प्रच प्राप्त होता था ॥ उदा० ग्रह (ग्रहण)। वरः (श्रेष्ठ)। दरः (डर, गडढ़ा)। निश्चयः (निश्चय) । गमः (यात्रा)। सिद्धि में यथासम्भव गुण इत्यादि जानें । है 1.DIP का उपसगंऽदः ॥३॥३॥५६॥ ws या उपसर्गे ७॥१॥ अद: ५॥१॥ अनु०-अप, अकर्तरि च कारके संज्ञायाम, भावे, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थ:–उपसर्ग उपपदे अदधातोरप प्रत्ययो भवति कत्तु भिन्ने कारके संज्ञायां विषये भावे च ॥ उदा-विघस: । प्रघसः ।। मिश प र भाषार्थः-[उपसर्गे] उपसर्ग उपपद रहते [अद:] अद् धातु से अप प्रत्यय होता है, कर्तृभिन्न कारक संज्ञा में तथा भाव में ! अद् को अप परे रहते घन पोश्च (२।४।३८) से घस्ल आदेश होता है ।
- यहाँ से ‘अद:’ की अनुवृत्ति ३।३।६० तक जायेगो ॥ जिनहिती नौ ण च ॥३1३1०11 राम राम नो ७॥१॥ण लुप्तप्रथमान्तनिर्देश: ।। च अ०॥ अन०-अदः, अप, अकर्तरि च कारके संज्ञायाम, भावे, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थ:-निशब्द उपपदे अदधातो: कत भिन्ने कारके संज्ञायां विषये भावे च णः प्रत्ययो भवति, चकाराद अप च ।। उदा०-न्यादः; निघसः॥ सो भाषार्थ:–[ नौ] नि पूर्वक अधातु से कर्तृभिन्न कारक संज्ञा में तथा भाव में [ण] ण प्रत्यय होता है, [च] चकार से अप् प्रत्यय भी होता है। नि पूर्वक अद् धातु से ण प्रत्यय करने पर अत: उपधाया: (७।२।११६) से वृद्धि ; तथा अप पक्ष में पूर्ववत् २।४।३८ से घस्ल आदेश होता है । नि+प्राद्+ण-न्यादः (भोजन); नि+घस +अप=निघसः (भोजन) ॥ व्यधजपोरनुपसर्गे ॥३।३।६१॥ सन व्यधजपो: ६।२।। अनुपसर्गे ७।१।। स०-व्यध० इत्यत्रेतरेतरयोगद्वन्द्वः । अनु पसर्ग इत्यत्र नत्र तत्पुरुषः ॥ अनु०-अप, अकर्तरि च कारके संज्ञायाम्, भावे, धातो:, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थ:-व्यधजप इत्येताभ्यां वातृभ्यां कतभिन्ने कारके संज्ञायां भावे चाप् प्रत्ययो भवति, उपसर्ग उपपदे तु न भवति ।। उदा०- व्यधः । जपः ।। सदा भाषार्थ:–[अनुपसर्गे ] उपसर्ग रहित [व्यधजपो:] व्यध तथा जप धातुओं पाद: तृतीयोऽध्यायः से कर्तृभिन्न कारक संज्ञा में तथा भाव में अप् प्रत्यय होता ह ॥ उदा.–व्ययः (चोट) । जपः (जपना) ॥ पाती यहाँ से ‘अनुपसर्ग’ की अनवत्ति ३।३।६५ तक जायेगी। विधा स्वनहसोर्वा ॥३॥३॥६२॥ EPSE स्वनहसो: ६।२॥ वा अ०।। स-स्वन० इत्यत्रेतरेतरयोगद्वन्द्वः॥ अनु० अनुपसर्गे, अप, अकर्तरि च कारके संज्ञायाम्, भावे, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थः उपसर्गरहिताभ्यां स्वन हस इत्येताभ्यां धातुभ्यां वाऽप् प्रत्ययो भवति, कर्तृभिन्ने कारके संज्ञायां भावे च ॥ उदा०– स्वनः, स्वानः । हसः, हास: ॥ P भाषार्थ:-उपसर्गरहित [स्वनहसो:] स्वन और हस धातुओं से कर्तृभिन्न कारक संज्ञा में तथा भाव में [वा] विकल्प से अप प्रत्यय होता है। पक्ष में भावे (३।३।१८) से घन हो गया है, क्योंकि ‘भावे’ से घञ् को प्राप्ति में ये सब सूत्र हैं। घन पक्ष में अत उपधाया: (७२।११६) से वृद्धि हो ही जायेगी । उदा०–स्वनः (शब्द करना), स्वानः । हसः (हँसना), हास: ।। TOPPRET -आयाणी [का यहाँ से ‘वा’ की अनुवृत्ति ३॥३॥६५ तक जायेगी ॥ बाजार की मनमा यमः समुपनिविषु च ॥३।३।६३॥ यमः ५॥१॥ समुपनिविष ७।३।। च० अ० ॥ स०–सम् च उपश्च निश्च विश्च समु वयः, तेषु, इतरेतरयोगद्वन्द्वः ॥ अनु० –वा, अनुपसर्गे, अप, अकर्तरि च कारके संज्ञायाम, भावे, धातो:, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः-सम उप नि वि इत्येतेषुपपदेष अनुपसर्गेऽपि यम् धातोर्वाऽप् प्रत्ययो भवति, कर्तृभिन्ने कारके संज्ञायां भावे च ।। उदा०–संयम:, संयामः । उपयमः, उपयामः । नियमः, नियाम: । वियमः, वियाम: । यमः, याम: ॥ NEPाती प्रत्यय मात भावार्थ:-[समुपनिविषु] सम् उप नि वि उपसर्गपूर्णक तथा निरुपसर्ग [च] भी [यमः] यम धातु से कर्तृभिन्न कारक संज्ञा में तथा भाव में विकल्प से अप् प्रत्यय होता है ॥ पक्ष में यथाप्राप्त घञ् होगा । उदा०-संयमः (संयम), संयामः । उपयमः (विवाह), उपयामः । नियमः (नियम), नियामः । वियमः (दुःख), वियामः । यमः (संयम), यामः॥ ना गदनदपठस्वनः ।।३।३।६४॥ माजी नौ ७१।। गदनदपठस्वन: ५।१॥ स०-गदश्च नदश्च पठश्च स्वन् च गद- स्वन्, तस्मात्, समाहारो द्वन्द्वः ॥ अनु०-वा, अप्, अकर्तरि च कारके संज्ञायाम, भावे, धातो:, प्रत्यय:, परश्च ॥ अर्थ:-निपूर्वेभ्यो गदादिभ्यो धातुभ्यः कर्तृ भिन्ने कारके अष्टाध्यायो-प्रथमावृत्ती [तृतीयः संज्ञायां भावे च विकल्पेनाप् प्रत्ययो भवति ॥ उदा०—निगदः, निगाद: । निनदः, निनादः । निपठः, निपाठः । निस्वन:, निस्वानः ॥ पिवयीन भाषार्थ:–[नो] नि पूर्वक [गदनदपठस्वन:] गद, नद, पठ, स्वन इन घातुओं से विकल्प से कर्तृभिन्न कारक संज्ञा में तथा भाव में अप् प्रत्यय होता है । पक्ष में घञ् प्रत्यय होगा ॥ उदा.-निगदः (भाषण), निगादः । निनदः (आवाज), निनादः । निपठः (पढ़ना), निपाठः । निस्वनः (आवाज करना), निस्वानः ॥ माकन यहाँ से ‘नौ’ की अनुवृत्ति ३३.६५ तक जायेगी । भाडो, प्रत्यक, क्वणो वीणायां च ॥३॥३॥६५॥ काली काल इल क्वण: ५।१।। वीणायाम् ७।१॥च अ० ॥ अनु०-नौ, वा, अनुपसर्ग, अप, अकत्तंरि च कारके संज्ञायाम, भावे, धातोः, प्रत्यय:, परश्च ॥ अर्थः - क्वणघातोनि पूर्वादनुपसर्गाच्च वीणायां च विषये कत भिन्ने कारके संज्ञायां भावे च विकल्पेनाऽप् प्रत्ययो भवति ।। उदा०-निक्वणः, निक्वाण.. । अनुपसर्गात-क्वणः, क्वाणः । वीणायाम-कल्याणप्रक्वणा वीणा, कल्याणप्रक्वाणा ॥ कला (Pya ) भाषार्थ:-नि पूर्वक, अनुपसर्ग, तथा [वीणायाम ] वीणा विषय होने पर [च] भी [क्वणः] क्वण धातु से कर्तृभिन्न कारक संज्ञा में तथा भाव में विकल्प से अप प्रत्यय होता है ।। पक्ष में घन भी होगा । उदा०—निक्वण: (शब्द), निक्वाणः । क्वणः (आवाज), क्वाणः। कल्याणप्रक्वणा वीणा (उत्तम शब्दवाली वीणा), कल्याणप्रक्वाणा ।। ___यहाँ सोपसर्ग क्वण धातु से ही वीणा विषय होने पर प्रत्यय होता है, अनुपसर्ग से नहीं । सो ‘क्वण’ का केवल आवाज ही अर्थ होगा ॥ नित्यं पणः परिमाणे ॥३।३।६६॥ । [R नित्यम् ॥१॥ पणः ॥१॥ परिमाणे ७।१॥ अनु०- अप, अकर्तरि च कारके संज्ञायाम, भावे, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थ:-‘पण व्यवहारे स्तुतौ च’ अस्माद धातो: परिमाणे गम्यमाने कर्तृभिन्ने कारके संज्ञायां भावे च नित्यम अप प्रत्ययो भवति ॥ उदा०–मूलकपण:, शाकपण:।। (अ ) भाषार्थ:-[परिमाणे] परिमाण गम्यमान होने पर [पण:] पण धातु से [नित्यम् ] नित्य ही कर्तृभिन्न कारक संज्ञा में तथा भाव में अप् प्रत्यय होता है ॥ पण धातु से अप् प्रत्यय करके पण: बनाकर मूलक एवं शाक के साथ षष्ठी तत्पुरुष समास हो गया है ।। उदा० - मूलकपणः (मूली के ग?, जो बेचने के लिये गिनकर रखे जाते हैं), शाकपणः (शाक का गट्ठा) | FESTAPE पादः] तृतीयोऽध्यायः गया मदोऽनुपसर्गे ॥३।३।६७।। राध _मदः ५॥१॥ अनुपसर्गे ७।१॥ स०-अनुप० इत्यत्र नञ्तत्पुरुषः ॥ अनु०-अप, अकर्तरि च कारके संज्ञायाम्, भावे, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः-अनुपसर्गाद मदधातो: कत भिन्ने कारके संज्ञायां भावे चाप् प्रत्ययो भवति ॥ उदा०-विद्यया मदः=विद्यामदः । धनेन मदः=धनमद: ॥ BF 5 प्रकार . भाषार्थ:-[अनुपसर्गे ] उपसर्गरहित [मद:] मद धातु से कर्तृ भिन्न कारक संज्ञा में तथा भाव में अप प्रत्यय होता है। उदा०-विद्यामदः (विद्या के कारण अभिमान), धनमदः (धन के कारण अभिमान) ॥ विद्यामदः आदि में कर्तृकरणे. (२१११३१) से समास होता है । P 1 0 जियार प्रमदसम्मदी हर्षे ॥३३॥६८।। स मस्या विधान प्रमदसम्मदौ १।२।। हर्षे ७१।। स०-प्रमद० इत्यत्रेतरेतरयोगद्वन्द्वः ॥ अनु० अप, अकर्तरि च कारके संज्ञायाम, भावे,धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः-हर्षेऽभिधेये प्रमद सम्मद इत्येतो शब्दो अपप्रत्ययान्तौ निपात्येते कतृ भिन्ने कारके संज्ञायां भावे च ॥ उदा०-कन्यानां प्रमदः । कोकिलानां सम्मदः॥ माता अस्य भाषार्थ:- [हर्षे] हर्ष अभिधेय होने पर [प्रमदसम्मदी] प्रमद और सम्मद ये शब्द अपप्रत्ययान्त निपातन किये जाते हैं, कर्तृभिन्न कारक संज्ञा में तथा भाव में । पूर्व सूत्र से अनुपसर्ग मद घातु से अप प्राप्त था। यहाँ प्र तथा सम पूर्वक मद धातु से भी अप हो जाये, अत: निपातन कर दिया है। उदा०– कन्यानां प्रमदः (कन्याओं का हर्ष) । फोकिलानां सम्मदः (कोयलों का हर्ष) | IST जाने समुदोरजः पशुषु ॥३३॥६६॥ समुदो: ७२॥ अज: ५॥१॥ पशुषु ६।३।। स० -सम च उद च समुदौ, तयोः, इतरेतरयोगद्वन्द्वः ॥ अनु०-अप, अकर्तरि च कारके संज्ञायाम, भावे, धातोः, प्रत्यय:, परश्च ।। अर्थः-सम उद् इत्येतयोरुपपदयो: अज घातो कर्तृभिन्ने कारके संज्ञायां भावे चाप प्रत्ययो भवति पशुविषये ॥ उदा०-समजः पशूनाम् । उदजः पशूनाम् ॥ अश्या भाषार्थ:-[समुदो:] सम् उत् पूर्वक [अज:] अज धातु से कत्र्तृ भिन्न कारक संज्ञा में तथा भाव में, समुदाय से [पशुष] पशु विषय प्रतीत हो, तो अप प्रत्यय होता है ।। उदा०-समज: पशूनाम् (पशुओं का समूह) । उदजः पशूनाम् (पशुओं की प्रेरणा) ॥ प्रक्षेषु ग्लहः ॥३।३।७०।। - अक्षेषु ७।३॥ ग्लहः १३१।। अनु०-अप, अकर्तरि च कारके संज्ञायाम्, भावे, VIERS अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [तृतीयः मिमा धातो:, प्रत्ययः, परश्च ॥ पर्थः–ग्लह इति अपप्रत्ययान्तो निपात्यते अक्षविषये कर्तृभिन्ने कारके भावे च, लत्वं च भवति ग्रहधातोरत्र निपातनात् ॥ उदा० अक्षस्य ग्लहः ।। भाषार्थ:- [ग्लहः] ग्लह शब्द में [प्रक्षेषु] अक्ष विषय हो, तो ग्रह धातु से अप प्रत्यय तथा लत्व निपातन से होता है कर्तृभिन्न कारक तथा भाव में ॥ ग्रह धातु से ग्रहवृदृ० (३।३।५८) से अप सिद्ध ही था, लत्वार्थ निपातन है। उदा०– प्रक्षस्य ग्लहः (द्यूतक्रीडा में लगाई गई शर्त =धन जिसे जीतनेवाला ग्रहण करता है)।। जित क र प्रजने सतः ।।३।३।७१॥ ओर प्रजने ७।१।। सर्त: ५५१॥ अनु०-अप, अकर्तरि च कारके मंज्ञायाम, भावे, धातोः, प्रत्यय:, परश्च ॥ अर्थः-प्रजनम् = प्रथमं गर्भ ग्रहणम् । प्रजनेऽर्थे वर्तमानात् मृधातो: कर्तृभिन्ने कारके भावे चाभ प्रत्ययो भवति ॥ उदा०—गवामुपसरः, पशूनामुपसरः॥ पनि भाषार्थ: [प्रजने] प्रजन अर्थ में वर्तमान [सनें:] स धातु से अप् प्रत्यय होता है कत भिन्न कारक संज्ञा में तथा भाव में ॥ उदा. गवामपसरः (गौत्रों का गर्भग्रहणार्थ प्रथम बार गमन), पशूनामुपसरः (पशुओं का गर्भगरणार्थ प्रथम बार गनन) PEPPERFE गोमिट हमाची पोहोज ह्वः सम्प्रसारणं च न्यभ्युपविषु ॥३।३।७२॥ का बः ५॥१॥ सम्प्रसारणम् १११॥ च अ० ।। न्यभ्युपविषु ॥३॥ स० न्यभ्य: इत्यत्रेतरेतरयोगद्वन्द्वः ।। अनु०-अप, अकर्तरि च कारके मंज्ञायाम, भावे, घाताः, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्यः–नि अभि उप वि इत्येतेषुपपदेष दूत्र बाना: म प्रमाणाम अप प्रत्ययश्च भवति कर्तृभिन्ने कारने मंज्ञायां भावे च ॥ उदा–निहवः । अभितः । उपहवः । विहवः ॥ U p ARE IFery भाषार्थ:-[न्यभ्युपविष] नि अभि उप तथा वि पूर्वक हि] हुआ धातु से कत भिन्न कारक संज्ञा में तथा भाव में अप प्रत्यय होता है |चएर हत्र को [सम्प्रसारणम् ] सम्प्रसारण भी हो जाता है ।। उदा० -निहवः (बलाना): अभिहवः (सब अोर से बुलाना)। उपहवः (समीप बुलाना) । विहवः (प्रबलता से बुलाना)॥ ह्वज को प्रादेच उपदे० (६।१।४४) से ह्वा बन कर प्रकृत सूत्र से सम्प्र. सारण तथा अम् प्रत्यय होकर ‘नि ह, उ प्रा अप्’ रहा । सम्प्रसारणाच्च (६।१॥ १०४) लगकर ‘नि हु अ’ बना, पूर्ववत् गण तथा अवादेश होकर निहवः प्रादि रूप बन गये॥धात कपात नई यहां से ‘ह्वः सम्प्रसारणम्’ को अनुवृत्ति ३।३।७५ तक जायेगी। FिOR 13135 ४४७ तृतीयोऽध्यायः पाद:] PLE शाशा आङि युद्धे ॥३।३७३॥ PAR प्राङि ७१॥ युद्धे ‘७३१॥ अनु०-ह्वः सम्प्रसारणम्, अप, अकर्तरि च कारके संज्ञायाम, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थः —युद्धेऽभिधेये आङिः उपपदे धातो: सम्प्रसारणमप् प्रत्ययश्च भवति कत भिन्ने कारके संज्ञायाम् ॥ उदा०-पाहूयन्तेऽ स्मिन् =पाहवः ॥ IFIDEFE भाषार्थ:-[युद्धे ] युद्ध अभिधेय हो, तो [आङि] प्राङ पूर्वक हञ् धातु को सम्प्रसारण तथा अप् प्रत्यय होता है कर्त भिन्न कारक संज्ञा में ॥ उदा०– आहवः (युद्धक्षेत्र) ।। मानवता की रात 12121७४॥ 17 निपानमाहावः ।।३।३।७४॥ जयन निपानम् १।१॥ पाहाब: ११॥ अनु०-ह्वः सम्प्रसारणण, अप, अकर्त्तरि च कारके संज्ञायाम, धातोः प्रत्यय:,परश्च ।। अर्थः-प्राङपूर्वाद ह्वअधातोः सम्प्रसारणम, अप् प्रत्ययो वृद्धिश्च निपात्यते,निपानेऽभिधेये कर्त्त भिन्ने कारके संज्ञायाम ॥ निपिबन्ति अस्मिन्निति निपानम् ॥ उदा०- आहूयन्ते पशवो जलपानाय यत्र स पाहावः ॥ आम भाषार्थ:- [निपानम् ] निपान अभिधेय हो, तो प्राङ पूर्वक हृञ् धातु से अप प्रत्यय सम्प्रसारण तथा वृद्धि भी निपातन से करके [ग्राहाव:] प्राहाव शब्द सिद्ध करते हैं कर्तृभिन्न कारक संज्ञाविषय में ।। निपान जलाधार को कहते हैं, जो कि कुत्रों के समीप पशुओं के जल पीने के लिये बनाया जाता है ।। उदा० - पाहावः (पशुओं के जल पीने का चबच्चा) ॥ भावेऽनुपसर्गस्य ॥३॥३७५॥ भावे ७।१।। अनुपसर्गस्य ६।१॥ सः- न विद्यत उपसर्गो यस्य सोऽनुपरसर्गः, तस्य, बहुव्रीहिः ॥ अनु०-ह्वः सम्प्रसारणम , अप, धातो:, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थ: उपसर्गरहितस्य धातोः सम्प्रसारणम् अप प्रत्ययश्च भवति भावे वाच्ये ।। उदा-हवे हवे सुहवं शूरमिन्द्रम् । हवः ॥ कथा भाषार्थ:- [अनुपसर्गस्य ] उपसर्गरहित हज धातु से [भावे] भाव में अप प्रत्यय तथा सम्प्रसारण हो जाता है। कि यहाँ से ‘भावेऽनुपसर्गस्य’ को अनुवृत्ति ३।३७६ तक जायेगी॥ सकाराHIPR नवधः।।३।३।७६॥ ERH हन: ६।१।। च अ०॥ वधः १११॥ अनु० –भावेऽनुपसर्गस्य, अप, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थ:-उपसर्गरहिताद हनधातोर्भावेऽप प्रत्ययो भवति, तत्संनियोगेन च हनो वध प्रादेशो भवति ॥ उदा०-वधश्चौराणाम्, कंसस्य वधः॥ ४४८ अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्तो [तृतीयः भात, भाषार्थ:–अनुपसर्ग [हनः] हन् धातु से अप् प्रत्यय भाव में होता है, [च] तथा प्रत्यय के साथ ही साथ हन को [वध:] वध आदेश भी हो जाता है। यह वध प्रादेश अन्तोदात्त होता है, सो अनुदात्त (३।११४) अप परे रहते वध के प्रका अतो लोपः (६।४।४८) से लोप करने पर अनुदात्तस्य च० (६।१।१५५) से अप को उदात्त हो जाता है। उदा०-वधश्चौराणाम् (चोरों को मारना), कंसस्य वध: (कस का मारा जाना) ॥ । यहाँ से ‘हन:’ की अनुवृत्ति ३।३।८७ तक जाती है ।। मूत्तौं घनः ।।३।३।७७।। मूतौ ७ १॥ घनः १३१॥ अनु० -हनः, अप, अकर्त्तरि च कारके संज्ञायाम, भावे, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थः-मूर्तिः =काठिन्यम् । मूर्तावभिधेयायां हन् धातोरप प्रत्ययो भवति हनश्च ‘घन’ आदेशो भवति ।। उदा० -अभ्रधनः, दघिघन:, घनो मेघ:, धनं वस्त्रम् ॥ भाषार्थः- [मूतौं] मूत्ति = काठिन्य अभिधेय हो, तो हन धातु से अप प्रत्यय होता है, तथा हन को [घनः]घन आदेश भी हो जाता है । उदा० –प्रभ्रघनः (बादल का घनापन), दधिघन: (दही का कड़ापन), घनो मेघः (घने बादल), घनं वस्त्रम् ॥ यहां से ‘घनः’ की अनुवृत्ति ३।३३८३ तक जायेगी ।। ME Pारा प्रकार ___ अन्तर्घनो देशे ॥३॥३।७८॥ अन्तर्घन: ११॥ देशे ७.१॥ अनु०-धनः, हनः, अप, अकत्तं रि च कारके संज्ञा याम, भावे, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः–देशेऽभिधेये अन्त:पूर्वाद हन धातोरप् प्रत्ययो भवति कर्तृभिन्ने कारके संज्ञायाम, तस्य च हन: धनादेगो निपात्यते ॥ उदा०-अन्तर्घनो देश: ॥ ADh मारवाडि वित भाषार्थ:-[देशे] देश अभिधेय हो, तो कतृ भिन्न कारक संज्ञा में तथा भाव में [अन्तर्घन:] अन्तर्धन शब्द में अन्तर पूर्वक हन धातु से अप् प्रत्यय तथा हन को घन आवेश निपातन किया जाता है। उदा०–अन्तर्घन: देशविशेष) । जानकारिया प्रगारैकदेशे प्रघणः प्रघाणश्च । ३।३७६॥ यामह अगारैकदेशे ७१॥ प्रघणः शशा प्रघाणः ॥११॥ च अ०॥ स०-एकश्चामो देशश्च एकदेशः, कर्मधारयस्तत्पुरुषः । अगारस्य = गृहस्य एकदशः अगा रैकदेशः, पष्ठी तत्पुरुषः ॥ अनु०-घन:, हन:, अप्, अकर्तरि च कारके संज्ञायाम्, भावे, धातो:, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः-प्रगारैकदेशे वाच्ये प्रघण: प्रघाण : इत्येती शब्दो निपात्येते कत भिन्ने कारके संज्ञायाम ॥ प्रपूर्वाद हनधातोरप प्रत्ययः,हन्तेश्च घनादेशो निपात्यते कर्मणि, पक्षे वृद्धिश्च ॥ प्रविशद्भिर्जनै: पादैः प्रकर्षण हन्यते इति प्रघणः, प्रघाणः ॥ पाद:] तृतीयोऽध्यायः ४४६ भाषार्थ:-[अगारकदेशे] गृह का एकदेश वाच्य हो, तो [प्रघण: प्रघाणः] प्रघण और प्रघाण शब्द में प्र पूर्वक हन् धातु से अप् प्रत्यय और हन को धन प्रावेश कर्तृभिन्न कारक संज्ञा में (कर्म में) निपातन किये जाते हैं। यहाँ पूर्दपदात. (८।४।३) से णत्व हो जाता है । उदा.—प्रधणः (ड्योढ़ी) । प्रघाणः ।। उद्घनोऽत्याधानम् ॥३।३।८०॥ . उद्घन: ११॥ अत्याधानम १।१॥ अनु० –धनः, हनः, अप, अकर्तरि च कारके संज्ञायाम, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ।। अति = उपरि आधीयन्तेऽस्मिन्निति अत्या धानम् ॥ अर्थः -प्रत्याधाने वाच्ये उत्पूर्वाद् हन् धातोरप् प्रत्ययो हनश्च धन प्रादेश श्च निपात्यते कर्तृभिन्ने कारके संज्ञायाम ॥ उद् हन्यन्ते यस्मिन् काष्ठानीति उदघन:॥ भाषार्थ:-[उद्घनः] उद्घन शब्द में [अत्याधानम्] अत्याधान वाच्य हो, तो उत् पूर्वक हन् धातु से अप् प्रत्यय तथा हन् को घनादेश किया जाता है, कर्तृ भिन्न कारक संज्ञाविषय में || जिस काष्ठ को फाड़ना होता है, उसके नीचे एक काष्ठ और रखते हैं, उसे अत्याधान कहते हैं । उदा०-उधनः (जिस काष्ठ पर काष्ठ को रखकर बढ़ई लोग छोलते हैं वह) ॥ अपघनोऽङ्गम् ॥३।३।८१॥ अपघन: ११॥ अङ्गम् ११॥ अन–घन:, हनः, अप, अकर्तरि च कारके संज्ञायाम्, भावे, धातोः, प्रत्यय:, परश्च ॥ अर्थः -अपपूर्वाद् हन धातोरप प्रत्ययो हनो घनादेशश्च निपात्यते, अङ्ग चेत् तद् भवति, कर्तृभिन्ने कारके संज्ञायाम् ॥ अपहन्यतेऽनेनेति अपघनः ॥ भाषार्थ:-अप पूर्वक हन धातु से [अङ्गम] अङ्ग शरीर का अवयव अभि धेय हो, तो अप प्रत्यय तथा हन् को धन आदेश [अपघनः] अपघन शब्द में निपातन किया जाता है, कर्तृभिन्न कारक संज्ञा में ॥ ‘अपघनः’ (हाथ या पैर को ही कहते हैं, शरीर के सब अङ्गों को नहीं)॥ Pashी करणेऽयोविद्रुषु ।।३।३।८२॥ करणे ७॥१॥ अयोविद् ष ७।३।। स०-अयश्च विश्च द्रुश्च अयोविद्रवः, तेष, इत्यत्रेतरेतरयोगद्वन्द्वः ॥ अनु०-धनः, हनः, अप, धातो:, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः ४५० अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [तृतीयः अयस वि द्रु इत्येतेषूपपदेषु करणे कारके हनधातोरप् प्रत्ययो भवति, हनः स्थाने घनादेशश्च भवति ।। उदा०-यो हन्यतेऽनेनेति अयोधन: । विघनः । द्रधन: ॥ भाषार्थः- [अयोविद्रष] अयस् वि तथा द्रु उपपद रहते हन धातु से करणे] करण कारक में अप् प्रत्यय होता है, तथा हन के स्थान में घनादेश भी होता है ।। उदा०-अयोधनः (हथौड़ी) । विघनः (हथौड़ा) । द्रुधनः (कुल्हाड़ा) ॥ यहाँ से ‘करणे’ को धनवत्ति ३।३।८४ तक जायेगी। स्तम्ब कच।।३।३1८३॥ का कारण स्तम्ब ७१॥ क लुप्तप्रथमान्तनिर्देशः ॥ च अ०॥ अनु०-करणे, घन:, हन:, अप, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थ:-स्तम्ब शब्द उपपदे करणे कारके हनधातो: कः प्रत्ययो भवति अप, च, अपसन्नियोगेन च हन्तेर्घनादेशो भवति ॥ उदा० स्तम्बो हन्यतेऽनेन स्तम्बध्नः । स्तम्बधनः ॥ __ भाषार्थः- [स्तम्बे] स्तम्ब शब्द उपपद रहते करण कारक में हन् धातु से [क] क प्रत्यय [च ] तथा अप् प्रत्यय भी होता है, और अप प्रत्यय परे रहते हन को घन आदेश भी हो जाता है । करण कारक का सम्बन्ध क तथा अप दोनों के साथ लगेगा। क प्रत्यय परे रहते गमहनजन० (६।४६८) से उपधालोप तथा, हो हन्तेञ्णि (७३॥५४) से ह को कुत्व हो जायेगा । उदा०–स्तम्बध्नः (घास जिससे काटी जाय, खुरपा)। स्तम्बधनः ।। २६ परी घः ।।३।३।८४॥ छपरौ ७।१॥ घ: १११॥ अनु०-करणे, हनः, अप, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थः-परिपूर्वाद हन धातो: करणे कारके अप् प्रत्ययो भवति, हन्तेश्च ‘घ’ आदेशो भवति ॥ उदा०-परिहन्यन्तेऽनेनेति =परिघः, पलिघः॥ भाषार्थ:-[परौ] परि पूर्वक हन् धातु से करण कारक में अप प्रत्यय होता है, तथा हन् के स्थान में [घ:]घ आदेश भी होता है । परेश्च घाङ्कयो: (८।२।२२) से र को विकल्प से लत्व होकर-पलिघः भी बनेगा। उदा०–परिघः (लोहे का मुदगर), पलियः ।। उपञ्न आश्रये ॥३३॥८॥ उपघ्नः ॥१॥ प्राश्रये ७१ अनु०-हन:, अप, अकर्तरि च कारके संज्ञायाम, भावे, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थ:-उपघ्न इत्यत्र उपपूर्वाद हन्धातोरप् प्रत्ययः उपधालोपश्च निपात्यते पाश्रये गम्यमाने, कत्तुं भिन्ने कारके संज्ञायाम् ।। उदा०– पर्वतेन उपहन्यते पर्वतोपघ्न:; ग्रामेण उपहन्यते ग्रामोपघ्नः ।। पाद:] तृतीयोऽध्यायः भाषार्थः- [उपघ्न: ] उपघ्न शब्द में उप पूर्वक हन धातु से अप् प्रत्यय, तथा हन को उपधा का लोप निपातन किया जाता है [आश्रये] प्राश्रय सामीप्य प्रतीत होने पर, कर्तृभिन्न कारक संज्ञा में ॥ ‘उप ह न अप’ यहाँ पूर्ववत् हन् केह, को कुत्व होकर उपघ्नः बना। एवं पर्वत तथा ग्राम के साथ षष्ठीतत्पुरुष समास हो गया है । उदा०–पर्वतोपध्न: (पर्वत के समीपस्थ),ग्रामोपघ्नः (ग्राम के समीपस्थ)। R संघोदधौ गणप्रशंसयोः ॥३३॥८६॥ संघोदधौ ११२॥ गणप्रशंसयो: ७।२।। स०-उभयत्रेतरेतरयोग द्वन्द्वः॥ अनु०— हनः, अप्, अकर्तरि च कारके संज्ञायाम, भावे, घातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः-संघ उद्घ इत्येतो शब्दौ निपात्येते यथासंख्यं गणेऽभिधेये प्रशंसायां च गम्यमानायां कर्तृ भिन्ने कारके संज्ञायां भावे च । सम् उद् उपपदयोः हन्धातोरप प्रत्यय:, टिलोपो घत्वञ्च निपात्यते ॥ उदा०–सङ्घः (संहननं) पशूनाम् । उद्हन्यते =उत्कृष्टो ज्ञायत इति उद्घो मनुष्याणाम् ॥ स भाषार्थ:–[संघोदघौ] संघ और उद्घ शब्द यथासंख्य करके [गणप्रशंसयो:] गण अभिधेय तथा प्रशंसा गम्यमान होने पर निपातन किये जाते हैं, कर्तृभिन्न कारक संज्ञाविषय में तथा भाव में। सम्पूर्वक हन धातु से अप् प्रत्यय, हन के टि भाग का (अर्थात् अन का) लोप, तथा हकार को घत्व निपातन करके भाव में संघः शब्द बनाते हैं, गण अभिधेय होने पर । इसी प्रकार उत् पूर्वक हन् धातु से अप् प्रत्यय, टि लोप तथा घत्व, प्रशंसा गम्यमान होने पर कर्म में निपातन करके उद्घः शब्द बनाते हैं ॥ उदा०-संघः पशूनाम् (पशुओं को इकट्ठा करना)। उद्घो मनुष्याणाम् (मनुष्यों में प्रशस्त ॥ __निघो निमितम् ।।३।३।८७॥ निधः १.१॥ निमितम् १.१॥ अनु०-हनः, अप, अकर्तरि च कारके संज्ञायाम, भावे, धातो:, प्रत्यय:, परश्च ।। समन्तात मितं निमितम् ।। अर्थ:–निमितेऽभिधेये निपूर्वाद हन्धातोरप् प्रत्यय:, टिलोपो घत्वं च निपात्यते ॥ निर्विशेषं हन्यन्ते =ज्ञायन्ते इति निघा वृक्षा:॥ भाषार्थ:-सब प्रकार से जो मित बराबर वह ‘निमित’ कहाता हैं। [निमितम्] निमित अभिधेय हो, तो [निघः] नि पूर्वक हन् धातु से अप् प्रत्यय, टि भाग का ..लोप, तथा घ आदेश निपातन करके निघ शब्द सिद्ध करते हैं। उदा०-निघा वृक्षाः (एक बराबर ऊंचाई के वृक्ष)। निघा: शालयः (एक बराबर के ऊंचाई के घान)॥ ४५२ ३ यतेय अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [तृतीयः । डवितः वित्रः॥३॥३८॥ _ वितः ५॥१॥ वित्र: १।१।। स०-डु इत यस्य स वित्, तस्माद, बहुव्रीहिः॥ अनु०-अकर्तरि च कारके संज्ञायाम, भावे, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थ: डवितो धातोः कर्तृभिन्ने कारके संज्ञायां भावे च वित्रः प्रत्ययो भवति ॥ उदा०– डुपचष-पाकेन निवृत्तम् = पक्किमम्। उप्त्रिमम् । कृत्रिमम् ॥ ___ भाषार्थ:-[वितः] दुइतसंज्ञक है जिन धातुओं का उनसे कत भिन्न कारक संज्ञा में तथा भाव में [वित्रः] वित्र प्रत्यय होता है ॥ सिद्धि परि० १॥३।५ में म आदवितोऽथुच ।।३।३।८६॥ मारमा वित: ५॥१॥ अथच १।१।। स०-टु इत् यस्य स वित, तस्मात, बहुव्रीहिः॥ अन-अकर्तरि च कारके संज्ञायाम्, भावे, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थ:-वितो धातो: कत्तृ भिन्ने कारके संज्ञायां भावे च अथच् प्रत्ययो भवति ॥ उदा०-वेपथुः। श्वयथः । टुक्ष-क्षवथः॥ भाषार्थ:-[वित:]टु इतसंज्ञक है जिन धातुओं का उनसे क भिन्न कारक संज्ञा में तथा भाव में [अथुच] अथच प्रत्यय होता है । उदा०-वेपथुः । श्वयथुः । क्षवचुः (खांसी) ॥ सिद्धि परि० ११३५ में देखें ।। ।। माया या शायजयाचयतविच्छप्रच्छरक्षो न।।३।३।६०॥ (TE Fem) की। यज” रक्षः॥१॥ नङ १३१॥ स०-यजश्च याचश्च यतश्च विच्छश्च प्रच्छश्च रक्ष् च इति यज.. रक्ष, तस्मात, समाहारो द्वन्द्वः ॥ मन-प्रकर्तरि च कारके संज्ञा याम, भावे, धातो:, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः-यज देवपूजादौ, ट्याच याच्यायाम, यती प्रयत्ने, विच्छ गती, प्रच्छ जीप्सायाम , रक्ष रक्षणे इत्येतेभ्यो धातुभ्य: कर्तृ भिन्ने कारके संज्ञायां भावे च नङ प्रत्ययो भवति ॥ उदा०-यज्ञः। यात्रा। यत्नः। विश्नः । प्रश्नः । रक्ष्णः ॥ भाषार्थ:- [यज - रक्षः] यज् याच प्रावि धातुओं से कर्तृभिन्न कारक संज्ञा में तथा भाव में [नङ्] नङ् प्रत्यय होता है ॥ यज्+नङ्,इस अवस्था में स्तो: श्चुना० (८।४।३६) से श्चुत्व होकर यज् + =यज्ञः बना है । याच्+न, यहाँ पर भी श्चुत्व तथा टाप् होकर याच्या (मांगना) बना है । ‘यती प्रयत्ने’ से यत्नः बन ही जायेगा। विच्छ+न, प्रच्छ+न, यहाँ च्छवो: शू० (६।४।१६) से च्छ के स्थान में श् होकर–विश् + न=विश्नः (नक्षत्र); प्रच्छ+न= प्रश्न: बन गया। रक्ष+न, यहाँ ष्टुना ष्टुः (८।४।४०) से ष्टुत्व होकर रक्ष्णः ( रक्षा करना) बना है ।। पादा तृतीयोऽध्याय: ETTER JOPPLIP स्वपो नन् ॥३॥३६॥ स्वप: ५।१।। नन् १।१।। अनु.-भावे, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः स्वप धातोर्भावे नन प्रत्ययो भवति ॥ उदा-स्वप्न: ॥ भाषार्थ:- [स्वपः] ‘मिष्वप् शये’ पातु से भाव में [नन् ] नन् प्रत्यय होता हे ॥ उदा०-स्वप्न: (सोना) ॥ RES O FIND TRY उपसर्ग घोः किः ॥३।३।१२॥ RE उपसर्ग ७।१॥ घोः ॥१॥ किः ॥१॥ मनु०-अकर्तरि च कारके संज्ञायाम, भावे, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थ:-उपसर्ग उपपदे घुसंज्ञकेभ्यो धातुभ्यः किः प्रत्ययो भवति कर्तृभिन्ने कारके संज्ञायां भावे च ।। उबाल-विधिः, निधिः, प्रति निधिः, प्रदिः, अन्तद्धिः ॥ भाषार्थ:- [उपमर्ग] उपसर्ग उपपद रहते [घो:] घुसंशक पातुओं से [किः] कि प्रत्यय कत्तभिन्न कारक संज्ञा में तया भाव में होता है । सिडि में दाधा ध्वदाप् (१११११६) से जुदा उधाण की घु संज्ञा होकर कि प्रत्यय हुआ है। मातो लोप इटि च (६।४।६४) से ‘मा’ का लोप होकर विष =विषिः भादि बन गये हैं। उदा०-विधिः (विधान), निषिः (खजाना), प्रतिनिषिः (प्रतिनिधि), प्रदिः (प्रदान), अद्धिः (छिपना) ॥ अन्त:शब्दस्य अङ्किविधिसमासणत्वेषूपसंख्यानम् (वा० ११४१६५)इस वात्तिक से अन्तर् शब्द की उपसर्ग संज्ञा होती है ।। यहाँ से ‘घो: कि:’ की अनुवृत्ति ३।३।६३ तक जायेगी। नाम अ कर्मण्यधिकरणे च ॥३३६३॥ कर्मणि ७॥१॥ अधिकरणे ७१॥ च अ० ॥ अन०-घो:, किः, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः-कर्मण्युपपदेऽधिकरणे कारके घुसंज्ञकेभ्यो धातुभ्यः कि: प्रत्ययो भवति ॥ उदा०- जलं धीयतेऽस्मिन्निति जलषिः । शरो धीयतेऽस्मिन्निति शरधिः । उदकं धीयतेऽस्मिन्निति उदधिः ॥ val भाषार्थ:-[कर्मणि] कर्म उपपब रहते [अधिकरणे] अधिकरण कारक में [च] भी घुसंशक धातुओं से ‘कि’ प्रत्यय होता है। उदा.–जलधिः (समुद्र)। शरधि: (तूणीर तरकश) । उदधिः (सागर)। उदषिः में उदक को ‘उद’ मावेश पेषवासवाहनधिषु च (६।३।५६) से होता है । स्त्रियां क्तिन् ।।३३।६४॥ स्त्रियाम् ॥१॥ क्तिन ११॥ अनु०-प्रकर्तरि च कारके संज्ञायाम, भावे, अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्तो [तृतीयः धातो:, प्रत्ययः, परश्न ।। अर्थः-धातो: स्त्रीलिङ्ग कर्तृभिन्ने कारके संज्ञायां भावे च क्तिन् प्रत्ययो भवति ॥ उदा०-कृतिः, चितिः, मतिः ॥ भाषार्थ:-धातुमात्र से [स्त्रियाम] स्त्रीलिङ्ग में [क्तिन] क्तिन प्रत्यय होता है कतभिन्न कारक संज्ञा में तथा भाव में ।। मन धातु से ‘मति:’ अनुदात्तो पदेश० (६।४।३७) से नकार लोप होकर बनेगा। कित होने से कृतिः चिति: में गुण नहीं हुआ है ।। मा यहाँ से ‘स्त्रियाम’ को अनुवृत्ति ३।३।११२ तथा तक ‘क्तिन्’ की अनुवृत्ति ३॥३॥६७ तक जाती है । स्थागापापचो भावे ।३।३।६५॥ स्था पच: ५॥१॥ भावे ७।१।। स-स्थाश्च गाश्च पाश्च पच च स्थागापा पच, तस्मात्, समाहारो द्वन्द्वः ।। अनु०-स्त्रियाम, क्तिन,भावे, धातो:,प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थः-स्था, गा, पा, पच इत्येतेभ्यो धातुभ्य: स्त्रीलिङ्ग भावे क्तिन प्रत्ययो भवति ॥ पूर्वेणैव सिद्ध पुनर्वचनं स्थादिभ्यः पातश्चोपसर्गे (३।३।१०६) इत्यनेनाङ मा भूत् इत्येवमर्थम । पक्तिः इत्यत्र षिद्भिदादिभ्यो० (३।३।१०४) इत्यनेनाङि प्राप्ते क्तिन विधीयते ॥ उदा०-प्रस्थितिः । उद्गीति:, संगीतिः । प्रपीतिः, सम्पीतिः । पक्तिः॥ भाषार्थ:- [स्थागापापच:] स्था गा पा पच् इन धातुओं से स्त्रीलिङ्ग [भावे] भाव में क्तिन् प्रत्यय होता है । पूर्व सूत्र से ही क्तिन् सिद्ध था, पुनर्वचन स्था गा पा के प्राकारान्त होने से आतश्चोपसर्गे (३।३।१०६) से जो अङ्ग प्रत्यय प्राप्त था, उसके बाधनार्थ है । तथा पच से भी षिदभिदादिभ्यो०(३।३।१०४) से अङ प्राप्त था, उसके बाधनार्थ है । उदा.-प्रस्थितिः (अवस्था)। उद्गीतिः (सामगान), संगीतिः (संगीत)। प्रपोतिः (पीना), सम्पीतिः (इकट्ठा मिलकर पीना)। पक्तिः (पकाना) ॥ द्यतिस्यतिमा० (७।४।४०) से स्था के अन्त्य अल् (१।११५१) प्रा के स्थान में इत्व होकर प्रस्थितिः बना है । उद्गीति: प्रादि में घुमास्थागापा० (६।४।६६) से पूर्ववत् अन्त्य अल को ईत्व हुआ है । पच को चो: कुः (८।२।३०) से कुत्व होकर पक्तिः बना है ॥ - यहाँ से ‘भावे’ की अनुवृत्ति ३।३।६६ तक जायेगी। मन्त्रे वृषेषपचमनविदभूवीरा उदात्तः ॥३।३।६६।। मन्त्रे ७३१॥ वर्ष-रा: २३, पञ्चम्यर्थे प्रथमा॥ उदात्त: १।१।। स०-वृषश्च इषश्च पंचश्च मनश्च विदश्च भूश्च वीश्च राश्च वष…रा:, इत्यत्रेतरेतरयोगद्वन्द्वः ।। मन–भावे, स्त्रियाम् क्तिन, घातो:, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थः - मन्त्र विषये वृष AV के तृतीयोऽध्यायः ४५५ सेचने, इषु इच्छायाम, डुपचष् पाके, मन ज्ञाने,विद ज्ञाने, भू सत्तायाम , वी गतिव्या प्तिप्रजनादिषु, रा दाने इत्येतेभ्यो धातुभ्यः क्तिन प्रत्ययो भवति, स च उदात्त: स्त्रीलिङ्ग भावे ।। उदा० - दृष्टिः ( ऋक् ११३८।८)। इष्टिः (ऋक ४१४७) पक्तिः (ऋक्० ४।२४१५)। मति: (ऋक् १।१४१३१) वित्तिः। भूतिः। यन्ति वीतये (अथ० २०१६६।३) । रातिः (ऋक् १।३४।१) भाषार्थः- [मन्त्र] मन्त्रविषय में [वृषे…रा:] वृष इष् प्रादि धातुओं से स्त्रीलिङ्ग भाव में क्तिन् प्रत्यय होता है, [उदात्त:] और वह उदात्त होता है। नित्यादिनि० (६।१।१६१) से क्तिन्प्रत्ययान्त शब्द को आधुदात्त प्राप्त था, यहाँ प्रत्यय को उदात्त कर दिया है । मति की सिद्धि ३।३।६४ सूत्र पर देखें ॥ यहां से ‘उदात्तः’ को अनुवृत्ति ३।३।१०० तक जायेगी। न गर ऊतियूतिजूतिसातिहेतिकीर्तयश्च ॥३।३।६७।। for ऊति कीर्तय: १।३।। च अ० ।। स०-ऊति० इतरेतरयोगद्वन्द्वः ॥ अनु० उदात्त:, स्त्रियां, क्तिन, अकर्तरि च कारके संज्ञायाम, भावे, धातोः प्रत्यय: परश्च ॥ अर्थः-ऊत्यादयः शब्दा अन्तोदात्ता निपात्यन्ते ।। ऊतिः, इत्यत्र अव धातो; क्तिन, ज्वरत्वर० (६।४।२०) इत्यनेन वकारस्य उपधायाश्च स्थाने ऊठ भवति । स्वरार्थ निपात्यते, प्रत्यय ऊठ च सिद्ध एव ॥ यूतिः, इत्यत्र यु धातोर्दीर्घत्वं निपात्यते, क्तिन् तु सिद्ध एव । एवं जूति: इत्यत्र जु धातो: दीर्घत्वं निपात्यते । षोऽन्तकर्मणि इत्यस्माद् धातो: क्तिनि परतः यतिस्यति (७।४।४०) इत्यनेन इत्वे प्राप्ते तदभावार्थ निपा तनम्। अथवा-सन धातोः जनसनखना सञ्झलोः (६४१४२) इति ‘पात्वे’ कृते सातिः इति रूपम् । तत्र स्वरार्थमेव निपातनं स्यात् । हनधातोहिंधातोर्वा हेति: रूपम् । यदा हन्तेस्तदा हकारस्य एत्वं निपात्यते, अनुनासिकलोपस्तु अनुदात्तोप० (६।४।३७) इत्यनेन सिद्ध एव । यदा हि’ धातोस्तदा गुणो निपात्यते । कीत्तिः, इत्यत्र ‘कृत संशब्दने’ घातोश्चरादित्वाणिचि कृते ण्यासश्रन्थो युच् (३।३।१०७) इति युचि प्राप्ते क्तिन् प्रत्ययो निपात्यते॥ भाषार्थ:-[ऊति · कीर्तयः] ऊत्यादि शब्द [च] भी अन्तोदात्त निपातन किये जाते हैं । ‘क्तिन्’ प्रत्यय तो सामान्य ( ३।३।६४) सब धातुओं से सिद्ध ही था, विशेष कार्य निपातन से करते हैं । ऊतिः में अव धातु से क्तिन् प्रत्यय,ज्वरत्वर० (६।४।२०) से उपधा तथा वकार के स्थान में ऊठ होकर ऊठ ति=ऊतिः (रक्षा) रूप सिद्ध हो था, पुनः अन्तोदात्त स्वर के लिए वचन है,प्रन्यया क्तिन् के नित् होने से नित्यादि० (६।१।१६१) से प्राद्युदात्त होता ॥ यूतिः (मिलाना), जूतिः (भागना) में क्रम से अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [तृतीयः यु जुधातुओं से दीर्घत्व तथा अन्तोदात्त स्वर निपातन है, प्रत्यय सिद्ध हो था। सातिः (अन्त होना), षोऽन्तकर्मणि’ धातु से बनाएं, तो क्तिन् परे रहते जो द्यतिस्थति० (७।४।४०) से इत्व प्राप्त था, उसका प्रभाव निपातन है । अथवा ‘षण दाने’ धातु से बनावें, तो जनसन० (६।४।४२) से प्रात्व हो ही जायेगा, केवल स्वरार्थ वचन है। हेतिः (गति) हन् या हि धातु से बनेगा । हन से बनाए, तो हकार को एत्व निपातन करेंगे। अनुनासिक लोप अनुदात्तोपदेश० (६।४।३७) से सिद्ध ही है। हि से सिद्ध करें, तो गुण निपातन से होगा, क्योंकि क्तिन के कित होने से विङति च (१।१।५) से गुण निषेध प्राप्त था। कीतिः में कृत धातु के चुरादिगण को होने से ण्यन्त होकर ण्यासश्रन्थो० (३।३.१०७) से युच प्रत्यय प्राप्त था, क्तिन् निपातन से कर दिया है। ‘कृत णि ति’, यहाँ उपधायाश्च (७१।१०१) से इत्व स्परत्व होकर किर् ति रहा । णेरनिटि (६।४१५१) से णि का लोप, तथा उपधायां च (८२७८) से दीर्घ होकर कीतिः बन गया है ।। वजयजो वे क्यप् ।।३।३।१८॥ म वजय जोः ६।२॥ भावे ॥१॥ क्यप १११॥-व्रजश्च यज् च व्रजयजी, तयोः वजयजोः, इतरेतरयोगद्वन्द्वः ।। अनु० - उदात्त:, स्त्रियाम, धातो:, प्रत्ययः, परश्च । अर्थ:-व्रज यज इत्येताभ्यां घातुभ्यां स्त्रीलिङ्ग भावे क्यप प्रत्ययो भवति, स च उदात्त: ।। उवा०-व्रज्या । इज्या।। ___भाषार्थ:-[वजयजोः] व्रज तथा यज धातुओं से स्त्रीलिङ्ग [भावे ] भाव में [क्यप्] क्यप् प्रत्यय होता है, और वह उदात्त होता है । उदा०-व्रज्या (गमन) । हज्या (यज्ञ करना) ॥ यज् को वचिस्वपियजा. (६।१।१५) से सम्प्रसारण हो जायेगा । क्यप् के पित् होने से अनुदात्तो सुप्पिती (३।१४) से क्यप् को अनुदात्त प्राप्त था, उदात्त विधान कर दिया है ॥ कम यहाँ से ‘क्यप’ को अनुवृत्ति ३।३।१०० तक जायेगी। संज्ञायां समजनिषदनिपतमनविदषुशीभृत्रिणः ॥३॥३॥६६॥ संज्ञायाम् ७॥१॥ सम बिण: ॥१॥ स०-समजश्च निषदश्च निपतश्च मनश्च विदश्च षञ् च शीङ् न भृञ् च इण च समज भृत्रिण, तस्मात्, समाहारो द्वन्द्वः । मनु०-क्यप, उदात्तः, स्त्रियाम, अकर्तरि च कारके संज्ञायाम, भावे, घातो:, प्रत्यया, परश्च ॥ पन:-संज्ञायां विषये समपूर्वक प्रज, निपूर्वक षद पत, मन, विद,पन,शीङ, भृन, इण इत्येतेभ्यो धातुभ्य: स्त्रियां कर्तृभिन्ने कारके संज्ञायां विषये भावे च क्यप् प्रत्ययो भवति,स च क्या उदात्तो भवति।। उदा०-समजन्त्यस्याम् =समज्या। निषीद न्स्यस्याम =निषद्या । निपत्या । मन्यते तया मन्या। विदन्ति तया=विद्या । सुन्वन्ति नस्यां सुत्या। शेरते तस्यां शय्या । भरणं =भत्या । ईयते गम्यते यया इत्या ॥ पादः] Ta तृतीयोऽध्यायः ४५७ भाषार्थ:-[संज्ञायाम ] संज्ञाविषय में [सम… त्रिणः] सम् पूर्वक अज, नि पूधक षद तथा पत प्रादि धातुओं से स्त्रीलिङ्ग में कर्तृभिन्न कारक संज्ञा में तथा भाव में क्यप प्रत्यय होता है, और वह उदात्त होता है। उदा०-समज्या (सभा)। निष द्या (बाजार) । निपत्या (युद्धभूमि) । मन्या (गले के पास की नाड़ी, जिससे व्यक्ति क्रुद्ध है ऐसा जाना जाता है)। विद्या । सुत्या (जिस वेला=काल में रस निका लते हैं, वह काल)। शय्या (खाट)। भृत्या । (जीविका)। इत्या (जिसके द्वारा जाते हैं, ऐसो लालटेन)।। सुत्या, इत्या में ह्रस्वस्य पिति० (६।१।६६)से तुक् पागम हुआ है ।। शय्या में शीङ धातु के ई को (१।१।५२) अयङ् यि विङति (७।४।२२) से प्रयङ होकर शयङ+क्यप, शय् +य=शय्या बन गया है ।। कृत्रः श च ।।३।३।१००॥ कृत्र: ५।१|| श लुप्तप्रथमान्तनिर्देशः ॥ च अ०॥ अन०-क्यप, उदात्तः, स्त्रियां, अकत्तरि च कारके संज्ञायाम, भावे, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थ:–कृत्र धातोः स्त्रियां कत भिन्ने कारके संज्ञायां भावे च श: प्रत्ययो भवति चकारात क्यप च ॥ भाष्येऽत्र “वा वचनं कर्तव्यं क्तिन्नर्थम्” इति वातिकमस्ति । तेन पक्षे क्तिन् प्रत्ययोऽपि भवति ॥ उदा० -क्रिया, कृत्या, कृतिः॥ीम द्वारा प्रति _ भाषार्थः- [कृञः] कृञ् धातु से स्त्रीलिङ्ग में कर्तृभिन्न कारक संज्ञा तथा भाव में [श] श प्रत्यय होता है, तथा [च] चकार से क्यप भी होता है । महा भाष्य में यहां ‘वा वचनं कर्त्तव्यं क्तिन्नर्थम’ ऐसा कह कर पक्ष में क्तिन् प्रत्यय भी किया है । सो श क्यप तथा क्तिन तीन प्रत्यय होते हैं । दिति यहाँ से ‘श’ को अनुवृत्ति ३।३।१०१ तक जायेगी। इच्छा ॥३।३।१०१॥ ___इच्छा ११॥ अनु०-श, स्त्रियाम, भावे, धातो:, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थ: इच्छा इत्यत्र इषेर्धातो: श प्रत्ययो भावे स्त्रियां निपात्यते । भावे सार्वधातु० (३॥१॥ ६७) इत्यनेन यकि प्राप्ते तदभावो निपातनाद् भवति ।। भाषार्थ:–[इच्छा] इच्छा शब्द भाव स्त्रीलिङ्ग में शप्रत्ययान्त निपातन किया जाता है।। भाव में श प्रत्यय निपातन करने से सार्वधातुके यक (३॥१६७)से यक् प्राप्त था, उसका प्रभाव भी यहां निपातन है। इष गमियमां० (७।३१७७) से इष के षकार को छत्व, तथा छे च (६।१७१) से तुक होकर ‘इत् छ् न’ बना । स्तोः ३चुना श्च: (८.४१३६) से श्चुत्व, तथा टाप होकर इच्छा (-अभिलाषा) शब्द बन गया है ।। ४५८ अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [ततीयः अप्रत्ययात् ।।३।३।१०२।। अ लुप्तप्रथमान्तनिर्देश: ॥ प्रत्ययात् ५॥१॥ अनु०-स्त्रियाम्, अकर्तरि च कारके संज्ञायाम, भावे, धातो:, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थ:-प्रत्ययान्तेभ्यो धातुभ्यः स्त्री लिङ्ग कर्तृभिन्ने कारके संज्ञायां भावे च ‘अ’ प्रत्ययो भवति ॥ उदा०-चिकीर्षा, जिहीर्षा, पुत्रीया, पुत्रकाम्या, लोलूया, कण्डूया ॥ भाषार्थ:- [प्रत्ययात ] प्रत्ययान्त धातुओं से स्त्रीलिङ्ग कर्तृभिन्न कारक संज्ञा में तथा भाव में [अ] अप्रत्यय होता है । उदा०—चिकीर्षा (करने की इच्छा)। जिहीर्षा (हरण करने की इच्छा)। पुत्रीया (अपने पुत्र की इच्छा), पुत्रकाम्या । लोल्या (बार-बार काटने की क्रिया) । कण्डूया (खुजली) ॥ परिशिष्ट ११११५७ के समान चिकीर्ष जिहीष धातु बनाकर इस सूत्र से प्र प्रत्यय हो गया है। अप्रत्यय करने का यही लाभ है कि कृतद्धितसमा० (१.२१४:) से इन सब की प्रातिपदिक संज्ञा होकर रूप चलेंगे । इसी प्रकार पुत्रीय धातु परि० २।४।७१ के समान बनकर अप्रत्यय होगा। पुत्रकाम्या में पुत्रकाम्य धातु काम्यच्च (३।११६) से काम्यच प्रत्यय होकर बना है । नोलूय धातु परि० ११.४ के समान जानें । कण्डू शब्द से कडवादिभ्यो वक (३।१।२७) से यक् प्रत्यय होकर ‘कण्डूय’ धातु बना है, पुनः प्र प्रत्यय हो हो जायेगा। यह सब प्रत्ययान्न धातुएं हैं–सन, क्यच, यङ आदि प्रत्यय प्राकर पुनः सनाद्यन्ता० (३।१:३२) से धातु संज्ञा सब की होती है। सर्वत्र अजाद्यतष्टाप (४।१।४) से टाप होगा ॥ क्तिन का अपबाद यह सूत्र है । अप्रत्यय के परे रहते अतो लोपः (६।४।४८) से धातुओं के प्रकार का लोप हो जाता है । यहाँ से ‘प्र’ की अनवृत्ति ३:३।१०३ तक जायेगी। गुरोश्च हल: ॥३।३।१०३॥ 1177 गुरोः ५।१।। च अ०॥ हल: ५॥१॥ अनु०—-अ, स्त्रियाम्, अकर्तरि च कारके संज्ञायाम्, भावे, धातो: प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थ:– हलन्तो यो गुरुमान् धातुस्तस्मात् स्त्रीलिङ्ग कत भिन्ने कारके संज्ञायां भावे च ‘न’ प्रत्ययो भवति ।। उदा०– कुण्डा, हुण्डा, ईहा, ऊहा ॥ भापार्थ:—[हलः] हलन्त जो [गुरोः] गुरुमान धातु उनसे [च ) भी स्त्रीलिङ्ग क भिन्न कारक संज्ञा में तथा भाव में अप्रत्यय हो जाता है । सिद्धि परि० ११४।११ में देखें । ईह ऊह धातुओं में दीयं च (१।४।२) से ई ऊ को गुरु संज्ञा है। हलन्त हैं ही, सो प्रकृत सूत्र से ‘अ’ प्रत्यय तथा टाप् होकर ईहा ऊहा बन गया है। हल्ङ्याब्भ्यो दोघां० (६ ११६६) से सु का लोप हो ही जायेगा । ई पाद:] म तृतीयोऽध्यायः ४५६ षिदभिदादिभ्योऽङ ॥३।३।१०४॥ दलका षिद्भिदादिभ्यः ५॥३॥ अङ्॥१॥ स०- इत यस्य स षिद, बहुव्रीहिः । भिद आदिर्येषां ते भिदादयः, बहुव्रीहिः । षित् च भिदादयश्च षिभिदादयः, तेभ्य:, इतरेतरयोगद्वन्द्वः ॥ अनु०-स्त्रियाम, अकर्तरि च कारके संज्ञायाम, भावे, धातो:, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थ:–षिद्भ्यो भिदादिभ्यश्च धातुभ्य: स्त्रीलिङ्ग कत्तुं भिन्ने कारके संज्ञायां भावे चाङ प्रत्ययो भवति ॥ उदा०-जष-जरा। त्रपूष्-त्रपा। भिदादिभ्यः- भिदा, छिदा, विदा ॥ र भाषार्थः-[षिद्भिदादिभ्य:] षकार इत्संज्ञक है जिनका, ऐसी धातुओं से तथा भिटादिगण-पठित धातुओं से स्त्रीलिङ्ग में [अङ्] अङ प्रत्यय होता है कर्तृभिन्न कारक संज्ञा में तथा भाव में ॥ उदा०–जरा (वृद्धावस्था) । त्रपा (लज्जा)। भिदादियों से–भिदा (फाड़ना) । छिदा (काटना) । विदा (जानना)॥ जप त्रपूष षित् धातुएँ हैं, सो ज़ अङ, बनकर ज़ को ऋदृशो० (७।४।१६ ) से गुण रपत्व होकर ‘जर् ’ रहा, टाप होकर जरा बना, त्रप अङ टाप् =त्रपा बना। सु का लोप हल्ङ्याब्भ्यो० (६११:६६) से हो गया है । इसी प्रकार सब में जाने। यहाँ से ‘अङ्की अनुवृत्ति ३।३।१०६ तक जायेगी। चिन्तिपूजिकथिकुम्बिचर्चश्च ॥३॥३॥१०॥ चिन्तिपूजिकथिकुम्बिचर्चः ५।१।। च अ० ॥ स -चिन्तिश्च पूजिश्च कथिश्च कुम्बिश्च चर्च च चिन्तिपूजिकथिकुम्विचर्च , तस्मात्, समाहारो द्वन्तः ॥ अनु० – अङ, स्त्रियाम् , अकर्तरि च कारके संज्ञायाम, भावे, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थ: चिति स्मृत्याम्, पूज पूजायाम, कथ वाक्यप्रबन्ध, कुवि आच्छादने, चर्च अध्ययने इत्येतेभ्यो धातुभ्य: स्त्रलिङ्ग कर्तृभिन्ने कारके संज्ञायां भावे चाङ् प्रत्ययो भवति ॥ उदा० -चिन्ता। पूजा । कथा। कुम्बा । चर्चा ॥ भाषार्थ:-[चिन्ति ……चर्चः] चिन्त पूज प्रादि धातुओं से [च ] भी स्त्रीलिङ्ग कर्तृभिन्न कारक संज्ञा में तथा भाव में अङ प्रत्यय होता है ।। उदा०- चिन्ता. पूजा कथा । कुम्बा (मोटा घाघरा)। चर्चा (पढ़ना)॥ चिन्ति प्रादि सब धातुएं चुरादिगण की हैं, सो ण्यन्त होने से ज्यासश्रन्यो० (३।३।१०७) से युच् प्राप्त था, अङ विधान कर दिया है । पश्चात् णेरनिटि (६.४।५१) से णि का लोप हो ही जायेगा। चिति धातु के इदित होने से इदितो नुम् ० (७।१।५८) से नुमागम हो जाता है । सिद्धि पूर्ववत् ही जानें ॥ " आतश्चोपसर्गे ॥३।३।१०६॥ PL आत: ५।१।। च अ०॥ उपसर्ग ७:१॥ अनु०– अङ, स्त्रियाम्, अकत्तरि च EFIEEP ४६० अष्टाध्यायो-प्रथमावृत्ती [ततीयः कारके संज्ञायाम, भावे, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थ:-उपसर्ग उपपद आकारान्तेभ्यो धातुभ्यः स्त्रियां अङ प्रत्ययो भवति कतृ भिन्ने कारके संज्ञायां भावे च॥ उदा० - संज्ञायतेऽनेनेति =संज्ञा । उपधा । प्रदा । प्रधा । अन्तर्धा | सीन साँव भाषार्थ:– [उपसर्गे] उपसर्ग उपपद रहते [प्रात:] प्राकारान्त धातुओं से [च] भी स्त्रीलिङ्ग कत्तुं भिन्न कारक संज्ञा में तथा भाव में प्रङ प्रत्यय होता है ।। प्रोत्सगिक क्तिन प्राप्त था, उसका यह अपवाद है । उदा०-सज्ञा (नाम)। उपधा (स्थापन करना) । प्रदा (भेंट)। प्रधा (धारण करना) । अन्तर्दा (छिपना) ॥ ण्यासश्रन्थो युच् ॥३।३।१०७॥ ण्यासश्रन्थ: ५।१।। युच १३१॥ स०-णिश्च प्रासश्च श्रन्थ च ण्यासश्रन्थ, तस्मात्, समाहारो द्वन्द्वः ।। अन०-स्त्रियाम, अकर्तरि च कारके संज्ञायाम, भावे, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थ:-ज्यन्तेभ्यो धातुभ्य पास श्रन्थ इत्येताभ्यां च धातुभ्यां स्त्रियां युच् प्रत्ययो भवति कर्तृ भिन्ने कारके संज्ञायां भावे च ॥ उदा०-णि-कारणा, हारणा । पास-पासना । श्रन्थ–श्रन्थना।। भाषार्थ:-[ण्यासश्रन्थः] ण्यन्त धातुओं से, तथा प्रास उपवेशने (प्रदा० प्रा०), श्रन्य विमोचनप्रतिहर्षयोः (क्रया०प०) इन धातुओं से स्त्रीलिङ्ग में [युच्] यच प्रत्यय होता है कर्तृभिन्न कारक संज्ञा में तथा भाव में ॥ उदा०-कारणा (कराना), हारणा (हराना) । पासना (बैठना) । श्रन्यना (ढीलापन) ॥ सिद्धि में हेतुमति च (३।१।२६) से णिच् प्राकर कृ+णि रहा, वृद्धि होकर कारि को सनाद्यन्ता० (३।११३२) से धातु संज्ञा हुई । कारि से पुनः प्रकृत सूत्र से युच् प्रत्यय प्राकर युवोर नाको (७।१।१) से अन, तथा जेरनिटि (६।४।५१) से णि का लोप होकर ‘कार अन’ रहा। अटकुप्वाङ् (८।४।२) से णत्व, तथा टाप होकर कारणा बना है । इसी प्रकार हृ धातु से हारणा में भी समझे। पास श्रन्थ से बिना णिच् प्राये ही युच् प्रत्यय होगा ।। शिक्षा रोगाख्यायां ण्वुल बहुलम् ॥३।३।१०८।। रोगाख्यायाम ७१॥ वल ११॥ बहुलम् १२१॥ स०-रोगस्य आख्या रोगा रूया, तस्याम्, षष्ठीतत्पुरुषः ॥ अनु०-स्त्रियाम, अकर्तरि च कारके संज्ञायाम, भावे, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थ:-रोगाख्यायाम = रोगविशेषस्य संज्ञायां धातो: ण्वुल प्रत्ययो बहुलं भवति ।। क्तिनादीनां सर्वेषामपवाद: ।। उदा०–प्रच्छदिका, प्रवाहिका, विचचिका ॥ बहुलग्रहणात् क्वचिन्न भवति-शिरोत्तिः, क्तिन्नेव भवत्यत्र । भाषार्थः- [रोगाख्यायाम्] रोगविशेष को संज्ञा में धातु से स्त्रीलिङ्ग में पादः।। तृतीयोऽध्यायः [ण्वुल] ण्वुल प्रत्यय [बहुलम् ] बहुल करके होता है । क्तिन् आदि सब का अपवाद यह सूत्र है । उदा० -प्रदिका (वमन) । प्रवाहिका (पेचिश)। विचिका (दाद) || बहुल ग्रहण से कहीं नहीं भी होता–शिरोत्तिः (सिरदर्द) ॥ यहाँ से ‘एल’ की अनुवृत्ति ३३।११० तक जायेगी। । संज्ञायाम ॥३॥३।१०६॥ संज्ञायाम् ७३१॥ अनु०- ण्वल, स्त्रियाम, अकर्तरि च कारके संज्ञायाम, भावे, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः-संज्ञायां विषये धातो: स्त्रीलिङ्ग कर्तृभिन्ने कारके भावे च ण्वल प्रत्ययो भवति ।। उदा०-उद्दालकपुष्पञ्जिका, वारणपुष्पप्रचायिका, अभ्यषखादिका, आचोषखादिका, शालभञ्जिका, तालभजिका ॥ भाषार्थ:– [संज्ञायाम् ] संज्ञाविषय में धातु से स्त्रीलिङ्ग में ण्वुल् प्रत्यय होता है कर्तृ भिन्न कारक संज्ञा तथा भाव में ॥ नित्यं क्रीडाजीविकयोः (२१२।१७) से उद्दालकपुष्पञ्जिका प्रादि में षष्ठीसमास हुमा है ॥ सिद्धि भी वहीं २।२।१७ सूत्र पर देख लें ॥ उदा.- उद्दालकपुष्पञ्जिका, वारणपुष्पप्रचायिका, अभ्यूषखादिका (लिट्टि’ खाने को विशेष क्रीड़ा), पाचोषखादिका (चूस कर खाने की क्रीडा), शाल भजिका (शाल वृक्ष के पुष्पों को तोड़ने की क्रीडाविशेष), तालभजिका (ताल. वृक्ष के पुष्पों के तोड़ने की क्रीडाविशेष) । विभाषाऽऽख्यानपरिप्रश्नयोरिञ्च ॥३।३।११०।।। विभाषा शशा आख्यानपरिप्रश्नयोः ॥२॥ इत्र ११॥ च अ० ॥ स० आख्यानञ्च परिप्रश्नश्च आख्यानपरिप्रश्नौ, तयोः, इतरेतरयोगद्वन्द्वः।। अनु०-खुल, स्त्रियाम, अकर्तरि च कारके संज्ञायाम, भावे, धातोः, प्रत्यय:, परश्च ।। अर्थः पूर्व परिप्रश्नो भवति पश्चादाख्यानम् । आख्याने परिप्रश्ने च गम्यमाने धातोः कर्तृ - भिन्ने कारके संज्ञायां भावे च स्त्रीलिङ्ग विभाषा ‘इन’ प्रत्ययो भवति, चकाराद् ण्वुल च । पक्षे यथाप्राप्तं सर्वे प्रत्यया भवन्ति ॥ उदा०-कां कारिम् अकार्षी:, का कारिकामकार्षी:, कां क्रियामकार्षीः, कां कृत्यामकार्षी:,कां कृतिमकार्षी: । पाख्याने सर्वा कारि कारिका क्रियां कृत्यां कृति वा अकार्षम् । कां गणिं गणिका गणना बा अजीगणः । पाख्याने- सर्वां गणि गणिका गणनां वा अजीगणम । एवम्-कां पाठिम, कां पाठिकाम्, कां पठितिम्, कां याजिम्, का याजि काम, काम् इष्टिम् इत्यादि उदाहार्यम् ॥ १. इस विषय में अधिक ‘पाणिनिकालीन भारतवर्ष’ पृष्ठ १६३ हिन्दी संस्करण देखिये ॥ ४६२ अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [तृतीयः भाषार्थ:-आख्यानपरिप्रश्नयोः] उत्तर तथा परिप्रश्न गम्यमान होने पर धातु से स्त्रीलिङ्ग कर्तृ भिन्न कारक संज्ञा में तथा भाव में [विभाषा] विकल्प से [इञ] इञ् प्रत्यय होता है, तथा [च] चकार से बुल भी होता है । प्रथम परिप्रश्न अर्थात् पूछना, पश्चात् उसका भाख्यान - उत्तर होता है ।। पक्ष में यथाप्राप्त भाव के सब प्रत्यय होंगे ।। उदा०-परिधान में–का कारिमकार्षीः तुमने क्या काम किया), का कारिकामकार्षी:, को क्रियामकार्षी ,कां कृत्यामकार्षीः, कां कृतिमकार्षीः । श्राख्याने -सर्वां कारि कारिका क्रियां कृत्यां कृति वा अकार्षम् (मैंने सब काम कर लिया)। कां गणि गणिका गणना वा अजीगण: (तुमने क्या गिनती की) । पाख्याने सर्वां गणि गणिका गणनां वाऽजीगणम् । मैंने सब गिनती कर ली) । इसी प्रकार का पाटि को पाटिकां कां पठितिम्, कां याजि का याजिकां काम् इष्टिम आदि उदाहरण भी सनाने चाहिएं ॥ कारिन् में इन प्रत्यय परे रहते अचो णिति (७२।११५) से वृद्धि हुई है। कारिकाम् में ण्वुल प्रत्यय परे रहते वृद्धि हुई है। पक्ष में श प्रत्यय होकर क्रियाम’, काए होकर ‘कृत्यां’, तथा क्तिन होकर ‘कृतिम्’ बना है। सिद्धि परि० ३.३।१०० में देखें । इसी प्रकार गण धातु से प्रकृत सूत्र से इञ तथा ण्वुल, एवं पक्ष में प्यासश्र०(३।३।१०७)से यूच प्रत्यय हुना है । गण धातु अकारान्त चुरादि गण में पढ़ी है । अत: गण+णिच् इस अवस्था में अतो लोपः (६।४:४८) से प्रकार लोप हुआ है। सो अत उपधाया: (७।२।११६) से वृद्धि करते समय वह प्रकार स्थानिवत (१५११५५) हो गया, तो वृद्धि नहीं हुई। अब इञ् प्रत्यय होकर णेरनिटि (६१४१५१) से गि लोप होकर गणि गणिकाम् आदि बन गया है । यहाँ से विभाषा’ को अनुवृत्ति ३।३।१११ तक जायेगी ।।।। पर्यायाहंणोत्पत्तिषु ण्वुच् ।।३।३।१११॥ पर्यायाहोत्पत्तिषु ७५३॥ बुच् १॥३॥ स…-पर्यायश्च अर्हश्च ऋणं च उत्पत्ति श्च पर्याया ‘त्तयः, तासु, इतरेतरयोगद्वन्द्वः ॥ अनु —-विभाषा, स्त्रियाम, भावे, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थः–पर्याय अहं ऋण उत्पत्ति इत्येतेष्वर्थेषु द्योत्येषु धातोः स्त्रियां भावे विकल्पेन एक्च प्रत्ययो भवति ॥ उदा.-पर्याये तावत-भवतः शायिका,भवतोऽग्रग्रासिका । अहे-इक्षु भक्षिकामर्हति भवान,पयःपायिकामहति भवान् । ऋणे–इक्षुभक्षिकां मे धारयसि, प्रोदनभोजिकाम् । उत्पत्तौ–इक्षुभक्षिकां मे उदपादि भवान्, ओदनभोजिकाम्, पय:पाधिकाम् । पक्षे–तव चिकीर्षा, मम चिकीर्षा ॥ी भाषार्थ:- [पर्यायाह णोत्पत्तिषु] पर्याय, अहं, ऋण, उत्पत्ति इन अर्थों में धातु से स्त्रीलिङ्ग भाव में विकल्प से [ण्वुच्] ण्वुच् प्रत्यय होता है ॥ उदा०-पर्याय में-भवतः शायिका, भवतोऽग्ननातिका (आपके प्रथम भोजन की बारी)। अहं में पाद:] तनीयाऽध्यायः ४६३ इक्षभक्षिकामहति भवान् (पाप गन्ना खाने के योग्य हैं), पयःपायिकामहति भवान् (प्राप दूध पीने के योग्य हैं)। ऋण में इक्षुभक्षिकां मे धारयसि (मुझको गन्ना खिलाने का ऋण अापके ऊपर है) प्रोदनभोजिकाम ( चावल खिलाने का ऋण है)। उत्पत्ति में- इक्षभक्षिकां मे उदपादि भवान् (आपने गन्ने का खाना मेरे लिए उत्पन्न किया), प्रोदनभोजिकां, पयःपायिकाम् । पक्ष में-तव चिकीर्षा (तुम्हारे करदा चाहने को बारी), मम चिकीर्षा । परि १२.१६ में शायिका की सिद्धि देखें । इसी प्रकार अत्रग्रासिका प्रावि में भी समझे। ग्रासिका प्रादि बनकर अग आदि के साय षष्ठीतत्पुरुष समास होगा। विकल्प कहने से पक्ष में अप्रत्ययात् (३।३।१०२) से न प्रत्यय हुआ है । अशा आक्रोशे नञ्यनिः॥३।३।११२॥ प्रशारण आक्रोशे ७।१।। नजि ७१॥ अनिः ११॥ अनु०-स्त्रियाम, अकर्तरि च कारके संज्ञायाम, भावे, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थ:-आक्रोशे गम्यमाने दञ्युपपदे धातोरनिः प्रत्ययो भवति स्त्रीलिङ्गे कर्तृभिन्ने कारके संज्ञायां भावे च ॥ उदा० अकरणिस्ते वृषल ! भुयात् ॥ भाषार्थः — [अाक्रोशे] अक्रोश -क्रोधपूर्वक चिल्लाना गम्यमान हो तो नजि] नज उपपद रहते धातु से स्त्रीलिङ्ग कर्तृभिन्न कारक संज्ञा में तथा भाव में [अनि:] अनि प्रत्यय होता है । उदा०-अकरणिस्ते वृषल ! भूयात् (नीच! तेरी करणी का नाश हो जाये) ॥ नजपूर्वक कृञ् धातु से ‘अनि’ प्रत्यय होकर, तथा कृ को अनि परे रहते गुण, एवं नलोपो नत्र: (६।३।७१) से नञ् के नकार का लोप होकर अकरणिः बन गया है । अटकुप्वाङ (८।४।२) से अनि के न को णत्व हो हो जायेगा। कृत्यल्युटो बहुलम् ।।३।३।११३॥ कृत्यल्युट: १३॥ बहुलम् १:१।। स०- कृत्याश्च ल्युट च कृत्यल्युटः, इतरेतर योगद्वन्द्व ॥ अनु०-धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः-कृत्यसंज्ञका: प्रत्यया ल्युट च बहुलमर्थेषु भवन्ति । यत्र विहितास्ततोऽन्यत्रापि भवन्ति ।। तयोरेव कृत्यक्त० (३।४। ७०) इत्यनेन भावकर्मणोः कृत्या विधीयन्ते, कारकान्तरेष्वपि भवन्ति । भावे करणे अधिकरणे च ल्युट विहितस्ततोऽन्यत्राऽपि भवति ॥ उदा०–नाति अनेनेति स्नानीयं चूर्णम्, अत्र करणे कृत्यसंज्ञकोऽनीयर् । दीयते तस्मै दानीयो ब्राह्मणः, अत्र सम्प्रदानेऽ नीयर । ल्युट-अपसिच्यते तद् इति अपसेचनम् । अवसाव्यते तदिति अवस्रावणम्। भुज्यन्ते इति भोजनाः, राज्ञां भोजना: राजभोजना. शालय:। आच्छाद्यन्ते इति आच्छादनानि। सर्वत्र कर्मणि ल्युट्। प्रस्कन्दत्यस्मात् =प्रस्कन्दनम्, अत्रापादाने ल्युट् । प्रपतत्यस्मात प्रपतनम्, अत्रापि अपादाने ल्युट् ॥ ४६४ अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [तृतोय: भाषार्थ:-[कृत्यल्युटः] कृत्यसंज्ञा प्रत्यय तथा ल्युट् प्रत्यय [बहुलम् ] बहुल अर्यों में होते हैं ।। तयोरेव कृत्यक्त०(३।४१७०) से भाव कर्म में ही कृत्यसंज्ञक प्रत्ययों का विधान है। यहाँ कहने से उससे अन्यत्र कारकों में भी होते हैं । जैसे-स्नानीयम् में करण में कृत्यसंज्ञक अनीयर्, तथा दानीयः में सम्प्रदान में अनीयर् हुपा है । इसी प्रकार करण अधिकरण (३।३।११७), तथा भाव (३।३।११५) में ल्युट प्रत्यय कहा है,उससे अन्यत्र कर्म अपादानादि में भी ल्युट हो जाता है जैसे-अपसेचनम्, प्रपतनम् आदि में देखें ॥ स्त्र ण्यन्त धातु से वृद्धि प्रावादेश होकर ‘स्रावि’ धातु बनकर ल्यट प्रत्यय हुआ है । णेरणिटि (६।४।५१) से णि लोप होकर अवस्रावणम् बन गया है। प्रस्कन्दनम् में प्र पूर्वक स्कन्दिर धातु है, तथा प्रपतनम् में प्र पूर्वक पत्ल धातु है ।। उदा०-स्नातीयं चूर्णम् (उबटन)। दानीयो ब्राह्मणः (देने योग्य ब्राह्मण)। अपसेचनम् (जो अच्छी तरह न सींचा जाय) । प्रवस्त्रावणम् (जो बुरी तरह बहाया जाता है)। राजभोजनाः शालयः (राजा के भोजन करने योग्य चावल)। आच्छादनानि (वस्त्र)। प्रस्कन्दनम् (खींचा जाता है जिससे) । प्रपतनम् (जहाँ से वृक्षादि गिरते हैं) | नपुसके भावे क्तः ।।३।३।११४॥ । नपुसके ७.१॥ भावे ७।१।। क्तः ५॥१॥ अनु०-धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थ:-नपुसकलिङ्ग भावे धातो: क्तः प्रत्ययो भवति ॥ उदा०-हसितम, सुप्तम, जल्पितम् ।। भाषार्थ:- [नपं सके ] नपुंसक लिङ्ग [ भावे] भाव में धातुमात्र से [क्त:] क्त. प्रत्यय होता है । उदा०-हसितम्(हँसना), सुप्तम् (सोना), जल्पितम्(बकना), यहाँ से ‘नपुसके भावे’ को अनुवृत्ति ३।३।११६ तक जायेगी । ल्युट च ।।३।३।१५५॥ ल्युट १११॥ च अ०॥ अन०-नपुसके भावे, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थः-नपुंसकलिङ्ग भावे ल्युट प्रत्ययो भवति ॥ उदा०-हसनं छात्रस्य शोभनम । शयनम, आसनम् ॥ भाषार्थ:- नपुसकलिङ्ग भाव में धातु से [ल्युट ] ल्युट प्रत्यय [च] भी होता है ।। सिद्धि में ‘यु’ को अन युवोरनाको (७।१।१) से हो ही जायेगा। तथा अतोऽम् (७:१।२४) से सु को अम् हो जायेगा। यहाँ से ‘ल्युट’ की अनुवृत्ति ३।३।११७ तक जायेगी। कि कर्मणि च येन संस्पर्शात्कः शरीरसुखम् ।।३।३।११६।। अ कर्मणि ७।१।। च अ० ॥ येन ३।१॥ संस्पर्शात् ५॥१॥ कर्तुः ६॥१॥ शरीरसुखम पाद:] तृतीयोऽध्यायः EST १।१।। स० –शरीरस्य सुखम् शरीरसुखम्, षष्ठीतत्पुरुषः ॥ अनु०-ल्युट, नपुंसके, भावे, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थ:-येन (कर्मणा) संस्पर्शात् कर्तुः शरीरसुख मुत्पद्यते तस्मिन कर्मण्युपपदे धातोर्म्युट प्रत्ययो भवति ।। उदा०-प्रोदनभोजनं सुखम् । पयःपानं सुखम ॥ N EP TFFERI ___ भाषार्थ:- [येन] जिस कर्म के [संस्पर्शात] संस्पर्श से [कत्तः] कर्ता को [शरीरसुखम् ] शरीर का सुख उत्पन्न हो, ऐसे कर्मणि] कर्म के उपपद रहते [च] भी धातु से ल्युट प्रत्यय होता है । उदा०-प्रोदनभोजनंसु खम् (चावल खाने का सुख)। पयःपानं सुखम् (दूध पीने का सुख) ॥ प्रोदन या दूध के संस्पर्श से कर्ता खानेवाले के शरीर =जिह्वा को सुख होता है, अतः प्रोदन एवं पयः कर्म उपपद रहते भुज तथा पा धातु से ल्युट प्रत्यय हो गया है | शिशिर 1815 कसे करणाधिकरणयोश्च ॥३।३।११७॥ करणाधिकरणयोः ७६॥ च अ० ॥ स०-करणञ्च अधिकरणञ्च करणाघि करणे, तयोः, इतरेतरयोगद्वन्द्वः ।। अनु०-ल्युट, धातो:, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थ:-करणे ऽधिकरणे च कारके धातो: ल्युट् प्रत्ययो भवति ।। उदा०-प्रवृश्चन्त्यनेन =प्रव्रश्चनः, इध्मानां प्रव्रश्चनः इध्मप्रव्रश्चन: । शात्यतेऽनेन=शातनः, पलाशस्य शातनः पलाश शातनः । अधिकरणे -दुह्यन्ते अस्याम =दोहनी, गवां दोहनी गोदोहनी । धीयन्ते अस्याम् =घानी, सक्त नां धानी सक्त धानी ॥ भाषार्थ:- धातु से [करणाधिकरणयोः ] करण और अधिकरण कारक में [च] भी ल्युट प्रत्यय होता है ।। प्रपूर्वक ‘भोवश्चू छेदने’ धातु से प्रवश्चनः बना है । पश्चात् इध्म के साथ षष्ठीसमास होकर इध्मप्रवश्चनः (कुल्हाड़ी) बना है। शातनः में शदेरगतो त: (७।३।४२) से शदल के द को त् हुमा है। यहाँ शद्ल णिजन्त से ल्यूट हुआ है । पीछे षष्ठीसमास होकर पलाशशातनः (जिस डण्डे से वृक्ष के पत्ते गिराये जाते हैं) बनेगा। पूर्ववत् दोहन शब्द दुह से बनकर, टिड्ढाणन ० (४।१।१५) से डीप होकर, तथा पूर्ववत् षष्ठीसमास होकर गोदोहनी ( गौ दुहने का पात्र ) बना है। इसी प्रकार सक्तुषानी ( सत्त रखने का पात्र ) में भी जाने ।। या भी पाप यहाँ से ‘करणाधिकरणयो:’ की अनुवृत्ति ३।३।१२५ तक जायेगी॥ । उद्यावर पुसि संज्ञायां घः प्रायेण ॥३३॥११॥ पुस ७१॥ संज्ञायां ७।१।। घ: १।१॥ प्रायेण ३१॥ अनु०-करणा -शीक pot foty [:] [6]-गाशा अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [तृतीयः धिकरणयोः, धातोः, प्रत्यय:, परश्च ॥अर्थः-पुंल्लिङ्गयोः करणाधिकरणयो रभिधेययोः धातो: घ: प्रत्ययः प्रायेण भवति, समुदायेन चेत् संज्ञा गम्यते ।। उदा० दन्ताः छाद्यन्तेऽनेनेति दन्तच्छदः। उरः छाद्यतेऽनेनेति उरश्छदः । प्रधिकरणे– एत्य तस्मिन् कुर्वन्तीति आकरः । प्रालीयतेऽस्मिन्निति प्रालयः ।। भाषार्थ:-धातु से करण और अधिकरण कारक में [पुसि] पुल्लिङ्ग में [प्रायेण] प्रायः करके [घः] घ प्रत्यय होता है, [संज्ञायाम् ] यदि समुदाय से संज्ञा प्रतीत होता है कि तक यहां से ‘ध:’ को अनुवृति ३।३।११६ तक, तथा ‘पुसि संज्ञायाम्’ को अनवृत्ति ३।३।१२५ तक, एवं ‘प्रायेण’ की अनुवृत्ति ३।३।१२१ तक जाती है ॥ ३॥३॥११६ में प्रायेण न सम्बन्धित होता है । कीय गोचरसञ्चरवहवजव्यजापनिगमाश्च ।।३।३।११६॥
- गोचर …निगमाः १॥३॥ च अ० ॥ स०-गोचर० इत्यत्रेतरेतरयोगद्वन्द्वः ॥ अनु –पुसि, संज्ञायाम, घ:, करणाधिकरणयोः, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थः गोचर, सञ्चर, वह, व्रज, व्यज, पापण, निगम इत्येते शब्दा: पुंल्लिने संज्ञायां विषये घप्रत्ययान्ता निपात्यन्ते करणेऽधिकरणे च कारके ॥ गावश्चरन्ति अस्मिन्निति गोचरः। सञ्चरन्तेऽनेनेति सञ्चरः । वहन्ति तेन वहः। व्रजन्ति तेन व्रजः । व्यजन्ति तेन व्यजः। अत्र निपातनाद अज धातो: अजेयं (२१४५६) इत्यनेन वीभावो न भवति । एत्य तस्मिन आपणन्ते इति आपणः । निगच्छन्ति अस्मिन्निति निगमः ॥ रमन भाषार्थ:-[गोचर - निगमा:] गोचर प्रादि शब्द [च] भी घप्रत्ययान्त पुंल्लिङ्ग करण या प्राधिकरण कारक में संज्ञाविषय में निपातन किये जाते हैं । वि+ मज:=व्यजः, यहाँ प्रज धातु को अजेय॑० (२१४१५६) से वी भाव भी निपातन से नहीं होता ।। उदा०-गोचरः (गायें जहाँ चरती हैं)। सञ्चरः (जिसके द्वारा घूमते हैं)। वहः (गाड़ी) । व्रजः ( जिसके द्वारा जाते हैं ) । व्यजः (पङ खा) । प्रापणः (बाजार) । निगमः (वेद) ॥ है। मितिमा प्रवे तस्त्रोत्र ।।३।३।१२०॥ शीट का मांस अवे ॥१॥ तस्त्रोः ६।२॥ घन ११।। स०–तृ च स्त च तृस्त्री, तयोः, इतरेतरयोगद्वन्द्वः ॥ अनु०-पुसि संज्ञायां प्रायेण, करणाधिकरणयोः, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थ:-अव उपपदे त स्तृञ् इत्येताभ्यां धातुभ्यां करणेऽधिकरणे च कारके संज्ञायां प्रायेण घञ् प्रत्ययो भवति ॥ उदा-अवतारः । अवस्तारः ।। ____ भाषार्थ:-[अवे ] अव पूर्वक [तृस्त्रो:] तृ स्तृञ् धातुओं से करण और अधि पाद: तृतीयोऽध्यायः गाना ४६७ करण कारक में संज्ञाविषय में प्रायः करले [घञ्] घञ् प्रत्यय होता है। उदा० अवतारः (उतरना ) । अवस्तारः (कनात) ।। ___यहाँ से ‘घ’ की अनुवृत्ति ३।३।१२५ तक जायेगी ॥ अनी हलश्च ॥३।३।१२१॥ हल: ५।१।। च अ० ।। अनु०-घन, पुसि संज्ञायां प्रायेण, करणाधिकरणयोः, धातो:, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थ:-हलन्ताद धातोः पुसि करणाधिकरणयोः कारकयो: संज्ञायां विषये प्रायेण घन प्रत्ययो भवति ।। उदा०-लेख: । वेदः । वेष्टः । बन्धः । मार्गः । अपामार्गः । वीमार्गः ॥ (पा भाषार्थः-[हल:] हलन्त धातुओं से [च] भी संज्ञाविषय होने पर करण तथा अधिकरण कारक में पुंल्लिङ्ग में प्रायः करके घन प्रत्यय होता है । ‘वेष्ट वेष्टने’ धातु से घन होकर वेष्टः (कनात )। तथा ‘मजूष शुद्धौ से मार्गः, अपामार्गः (चिर चिटा) बनेगा । वि उपपद रहते ‘मजूष’ धातु से बीमार्गः (वृक्ष विशेष) भी बनेगा। अपामार्गः वीमार्गः में उपसर्गस्य घञ्य० (६।३।१२०) से ‘अप’ और ‘वि’ को दीर्घ हो जाता है । चजोः कु० ( ७।३।५२ ) से कुत्व, तथा मृजेवृद्धिः (७।२।११४) से यहाँ वृद्धि भी होती है ॥ रानी अध्यायन्यायोद्यावसंहाराश्च ।।३।३।१२२॥ मानन्द्रा अहारा: १॥३॥ च अ० ॥ स०–अध्या० इत्यत्रेतरयोगद्वन्द्वः ॥ अनु० घन, पुसि संज्ञायां, करणाधिकरणयोः, धातो:, प्रत्ययः परश्च ॥ अर्थः-अध्याय, न्याय, उद्याव, संहार इत्येते घनन्ता: शब्दा: पुंल्लिङ्गयोः करणाधिकरणयोः कारकयो: संज्ञायां निपात्यन्ते ॥ अधीयतेऽस्मिन् अध्याय: । नीयन्तेऽनेन कार्याणीति न्यायः । उद्युवन्ति अस्मिन् =उद्यावः । संह्रियन्तेऽनेन संहारः ॥ भाग भाषार्थ:- [अध्या: हारा:] अघि पूर्वक इङ धातु से अध्यायः, नि पूर्वक इण् पातु से न्यायः, उत् पूर्वक यु धातु से उद्यावः, तथा सम्पूर्वक ह धातु से संहारः ये घजन्त शब्द [च] भी पुंल्लिङ्ग में करण तथा प्रधिकरण कारक संज्ञा में निपातन किये जाते हैं । यहाँ भी वृद्धि प्रायादेशादि यथाप्राप्त जानें । अषि इ प्र, अधि ऐन, प्रायादेश तथा यणादेश होकर अध्यायः बना है ।। उदा०-अध्यायः । न्यायः । उद्याव: (जहाँ सब इकट्ठे होते हैं) । संहारः (नाश, प्रलय) ॥ ननेवाला), उदकोऽनुदके ॥३।३।१२३।। * उदङ्कः १३१॥ अनुदके ७।१॥ स०-न उदकम् अनुदकम्, तस्मिन्, नञ्तत्पुरुषः॥ अम०-घन, पुसि संज्ञायाम, करणाधिकरणयोः धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ प्रर्थ:– अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्तो [तृतीयः उदङ्क इति पुसि निपात्यते अनुदके विषये, अधिकरणे कारके उत्पूर्वाद् अञ्च धातो: घञ् निपातनाद् भवति ॥ उदा-तैलस्य उदकः तैलोदङ्कः । घृतोदकः ॥ दन्ताः भाषार्थ:- [अनुदके ] उदक विषय न हो, तो पुल्लिङ्ग में उत् पूर्वक अञ्च धातु से घज प्रत्ययान्त [उदङ्कः] उदङ क शब्द निपातन किया जाता है, अधिकरण कारक में संज्ञाविषय होने पर ।। उदा०-तलोदङ्कः (तेल का कुप्पा) । घृतोदङ्कः (घी का कुप्पा)॥ अञ्चु के च् को चजोः कु घि० (७।३।५२) से कुत्व हो गया है । च को कुत्व कर लेने पर ज को न स्वतः हो जायेगा। तत्पश्चात् न को नश्चापदान्तस्य झलि (८।३।२४)से अनुस्वार हो गया। तथा अनुस्वारस्य ययि० (८१४४५७) से अनुस्वार को कु बनकर उबड क: बन गया। तल तथा घृत के साथ उदङक: का षष्ठीतत्पुरुष समास हुन्ना है। -ग) गाशा गाजालमानायः ॥३।३।१२४॥ काम 1m जालम् १३१॥ पानायः १॥१॥ अन० - घन, पुसि, संज्ञायां, करणे, घातो:, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः -जालेऽभिधेये पुल्लिङ्गे करणे कारके संज्ञायाम प्रापर्वात णी धातो: घन निपात्यते-‘मानाय:’ इति ॥ उदा० - प्रानयन्त्यनेनेति अानायो मत्स्यानाम् । आनायो मगाणाम् ॥ण, नियम इयत सदर पुलिस most भाषार्थ:-[जालम् ] जाल अभिधेय हो, तो प्राङ पूर्वक नी धातु से करण कारक तथा संज्ञा में [पानायः] पानाय शब्द घञ् प्रत्ययान्त निपातन किया जाता है ॥ उदा०- मानायो मत्स्यानाम् (मछलियों का जाल)। मानायो मृगाणाम् (मृगों का जाल) की कशि का मान काश खनो घ च ।।३।३।१२५।। पोशाको सावन खन: ५॥१॥ घ लुप्तप्रथमान्तनिर्देशः ।। च अ०॥ अनु०-घन्, पुसि संज्ञायाम, करणाधिकरणयोः, धातो:, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थ:-खन धातोः पुल्लिङ्ग करणा धिकरणयो; कारकयो: घ: प्रत्ययो भवति संज्ञायाम, चकारात् घञ् च ।। उदा० आखनन्त्यनेन अस्मिन् वा प्राखनः, आखानः ।। 27 भाषार्थः-[खन:] खन पातु से पुल्लिङ्ग करणाधिकरण कारक संज्ञा में [घ घ प्रत्यय होता है, तथा च]चकार से घन भी होता है ॥ उदा०-पाखनः । (फावड़ा), प्राखान: ॥ घन पक्ष में प्रत उपधायाः (७१२।११६) से वृद्धि होगी। इतरेतरयोगचन्द ईषदुःसुषु कृच्छ्राकृच्छार्थेषु खल् ॥३।३।१२६॥ 15 ईषदुःसुषु ॥३॥ कृच्छाकृच्छार्थेषु ७।३।। खल् ११॥ स०-ईषच्च दुश्च सुश्च ईषद्दुःसवः, तेषु, इतरेतरयोगद्वन्द्वः । न कृच्छम् अकृच्छम , नञ्तत्पुरुषः । कृच्छञ्च पाद:] तृतीयोऽध्यायः ४६६ पESED प्रकृच्छञ्च कृच्छाकृच्छे, कृच्छाकृच्छ ऽथौं येषां ते कृच्छाकृच्छार्थाः, तेष, द्वन्द्वगर्भो बहुव्रीहिः ।। अनु-धातो:, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः-ईषद, दुर्, सु इत्येतेषूपपदेषु कृच्छाकृच्छार्थेषु धातो: खल् प्रत्ययो भवति ॥ कृच्छम् =कष्टम् । अकृच्छम् =सुखम्।। उदा०-ईषत्करो भवता कटः । दुष्करः । सुकरः । ईषत्भोजः । दुर्भोजः । सुभोजः ।। भाषार्थः-[कृच्छाकृच्छार्थेष ] कृच्छ अर्थवाले तथा प्रकृच्छ अर्थवाले [ईषदु: सुषु] ईषत् दुर् तथा सु ये उपपद हों, तो धातु से [खल] खल् प्रत्यय होता है । तयोरेव कृत्य • (३।४।७०) से भाव कर्म में ही ये खलर्थ प्रत्यय होते हैं ।। दुर् शब्द कृच्छ, तथा ईषत और सु प्रकृच्छ्र अर्थ में होते हैं। उदा० ईषत्करो भवता कटः । (आपके द्वारा चटाई सुगमता से बनती है) । दुष्करः (कठिन) । सुकरः । ईषत्भोजः (सुगमता से खाना) । दुर्भोज । सुभोजः ॥ यहाँ से ‘ईषदुःसुषु कृच्छाकच्छार्थेषु’ को अनुवृत्ति ३।३।१३० तक, तथा ‘खल’ को अनुवृत्ति ३।३।१२७ तक जायेगी। कर्तृकर्मणोश्च भूकत्रोः ॥३।३।१२७॥ कर्तृकर्मणोः ७।२।। च अ० ॥ भूकृशोः ६।२।। स०–कर्ता च कर्म च कर्तृ - कर्मणी, तयोः, इतरेतरयोगद्वन्द्वः । भूश्च कृत्र च भूकृञो, तयोः, इतरेतरयोगद्वन्द्वः ।। अनु०-ईषददुःसुषु कृच्छाकृच्छार्थेषु खल, धातो:, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः-भू कृन इत्येताभ्यां धातुभ्यां यथासङ्ख्यं कर्त्तरि कर्मणि चोपपदे, चकाराद कृच्छाकृच्छ्रर्थषु ईषद् दुर सु इत्येतेषु चोपपदेषु खल प्रत्ययो भवति ॥ उदा०-अनाढय न भवता ईषदाढय न शक्यं भवितुम् = ईषदाढ्य भवं भवता । अनाढय न भवता दुराढशन शक्यं भवितुम् =दुराढयभवं भवता । स्वाढ्य भवं भवता । कर्मणि-अनाढय: ईषदाढय: क्रियते इति ईषदाढयंकरो देवदत्तः । दुराढयंकरः । स्वाढन करो देवदत्तः ॥ भाषार्थ:-[भूकृञो:] भू तथा कृ धातु से यथासङ्ख्य करके [कर्तृकर्मणोः] कर्ता एवं कर्म उपपद रहते, [च] चकार से कृच्छ अकृच्छ्र अर्थ में वर्तमान ईषद् दुःको सु उपपद हों, तो भी खल् प्रत्यय होता है ।। उदा० - ईषदाढयंभवं भवता (धनाढय एष सुगमता से होने योग्य प्राप हो) दुराढ्यंभवं भवता (कठिनाई से धनाढय होने योग्य आप हो) । स्वाढ्यभवं भवता । कर्मणि - ईषदाढयंकरो देववत्तः (सुगमता से जि. धनवान बनाया जानेवाला देवदत्त)। दुराढ्यंकरः । कठिनाई से धनवान बनाया जानेवाला) । स्वाठ्यंकरो देवदत्तः ॥ ईषद् आढच भू खल ईषदाढ्य भो अ, अद्विषद० (६।३।६५) से पूर्वपद को मुम् अागम तथा अवादेश होकर ईषदाढय मुम् भव सु = ईषदाढ्यंभवम् बना है। इसी प्रकार ‘ईषवाढ्यंकरः’ में कृ को गुण होकर सिद्धि जानें ॥ 6.3 SIA प्रष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [तृतीयः प्रातो युच ॥३॥३।१२८॥ Psyp प्रात: ५॥१॥ युच ११॥ अन-ईषद्दुःसुषु कृच्छाकृच्छार्थष, धातो:, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थः -प्राकारान्तेभ्यो धातुभ्य: कृच्छाकृच्छार्थेष्वीषदादिषुपपदेषु युच प्रत्ययो भवति ॥ उदा०- ईषत्वानः सोमो भवता। दुष्पानः । सुपानः। ईष दानो गौर्भवता । दुर्दान: । सुदानः ।। भाषार्थ:- [प्रात:] प्राकारान्त धातुओं से कृच्छ अकृच्छ अर्थ में ईषदादि उपपद रहते [यच्] युच् प्रत्यय होता है ॥ उदा०- ईषत्पानः सोमो भवता (आपके द्वारा सोमपान करना प्रासान है) । दुष्पानः (पीना कठिन है) । सुपानः । ईषद्दानो गौर्भवता (अापके द्वारा गोदान करना आसान है)। दुर्वानः (गोवान कठिन है) ।सुदानः ।। पा तथा वा धातुएं प्राकारान्त हैं, सो सिद्धि में युच् प्रत्यय होकर ‘यु’ को अन हो गया है। ये सब खलथं प्रत्यय है, सो तयोरेव० (३।४७०) से भाव कर्म में ही होंगे । अतः भवता में कत करण० (२।३।१८) से अनभिहित कर्ता में तृतीया हो गई है। सोमव यहाँ से ‘युच’ की अनुवृत्ति ३।३।१३० तक जायेगी। नयनेनेति गीता कि पिकनिक छन्दसि गत्यर्थेभ्यः ।।३।३।१२६॥ मणिका 17 छन्दसि ७१॥ गत्यर्थेभ्य: ५॥३॥ स०-गतिरों येषां ते गत्यर्थाः, तेभ्यः, बहुव्रीहिः ॥ अनु० –युच्, ईषदुःसुषु कृच्छाकृच्छा!ष, धातोः, प्रत्ययः, परश्च । अर्थ:-कच्छाकृच्छार्थेष्वीषदादिषूपपदेष गत्यर्थेभ्यो धातुभ्यश्छन्दसि विषये युच प्रत्ययो भवति ॥ उदा०-सूपसदनोऽग्निः । सूपसदनमन्तरिक्षम || भाषार्थ:- [छन्दसि] वेदविषय में [गत्यर्थेभ्य:] गत्यर्थक पातुओं से कृच्छ प्रकृच्छ अर्थों में ईषदादि उपपद हों, तो युच प्रत्यय होता है ।। ‘सु उप षद्ल यु’, यु को अन, सु+उप को सवर्ण दीर्घ होकर सूपसदनः बन गया । यहाँ से ‘छन्दसि’ को अनुवृत्ति ३।३।१३० तक जायेगी। कि अन्येभ्योऽपि दृश्यते ।।३।३।१३०॥ मि. अन्येभ्य: ५।३॥ अपि प्र० ॥ दृश्यते क्रियापदम् ॥ अनु०-छन्दसि, युच, ईषददुःसुष कृच्छाकच्छार्थेष, धातो:, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः-गत्यर्थेभ्योऽन्ये ये धात वस्तेभ्यः छन्दसि विषये कृच्छाकृच्छार्भेष्वीषदादिषूपपदेषु युच् प्रत्ययो भवति ॥ (उदा०–सुदोहनाम् अकृणोद् ब्रह्मणे गाम । सुवेदनाम अकृणोद् ब्रह्मणे गाम ॥ कई भाषार्थः-वेदविषय में [अन्येभ्यः] गत्यर्थक धातुनों से अन्य जो धातुयें उनसे [अपि] भी कृच्छाकृच्छ अर्थ में ईषदादि उपपद रहते युच् प्रत्यय [दृश्यते] पादः] जि तृतीयोऽध्यायः देखा जाता है ।। सु दुह अन टाप्=सुदोहना; सुविद अन टाप् =सुवेदना बनकर द्वितीया में सुदोहनाम और सुवेदनाम बन गया है । ये गत्यर्थक धातुयें नहीं हैं । वर्तमानसामीप्ये वर्तमानवद्वा ॥३।३।१३१॥ वर्त्तमानसामीप्ये ७।१ वर्तमानवत अ० ॥ वा अ० ॥ समीपमेव सामीप्यम् । चातुर्वर्ण्यादीनाम् ० (वा० ५।१।१२४) इत्यनेन वात्तिकेन स्वार्थे ष्यन प्रत्यय: ।। स० वर्तमानस्य सामीप्यं वर्तमानसामीप्यं, तस्मिन, षष्ठीतत्पुरुषः । वर्तमाने इव वर्तमानवत, तत्र तस्येव (५।१।११५) इति वतिः ।। अनु०-धातो:, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थ:-वर्तमानस्य समीपे यो भूतकाल: भविष्यत्कालश्च तस्मिन् वर्तमानाद् धातोर्वर्त मानवत प्रत्यया वा भवन्ति ॥ वर्तमाने लट (३।२।१२३) इत्यारभ्य उणादयो बहुलम् (३।३।१) इति यावद ये प्रत्यया उक्तास्ते वर्तमानसमीपे भूते भविष्यति च भवन्ति ।। उदा०-देवदत्त कदाऽगतोऽसि ? अयमागच्छामि । आगच्छन्तमेव मां विद्धि । पक्षे अयमागमम् । एषोऽस्मि पागतः, एष प्रागतवान् । भविष्यति-कदा देवदत्त गमिष्यसि! एष गच्छामि । गच्छन्तमेव मां विद्धि । पक्षे-एष गमिष्यामि, एष.गन्ताऽस्मि ॥ भाषार्थः-[वर्तमानसामीप्ये ] वर्तमान के समीप, अर्थात् निकट के भूत निकट के भविष्यत्काल में वर्तमान धातु से [ वर्तमानवत् ] वर्तमानकाल के समान [वा] विकल्प से प्रत्यय होते हैं । वर्तमाने लट् (३।२।१२३) से लेकर उणादयो० (३।३।१) तक ‘वर्तमाने के अधिकार में जो प्रत्यय कहे हैं, वे यहाँ निकट के भूत या भविष्यत् को कहने में विकल्प से विधान किये जाते हैं। पक्ष में भूत भविष्यत् के प्रत्यय भी हो जाते हैं ॥ भूत अर्थ में प्रागच्छामि में लट लकार, तथा प्रागच्छन्तम् में शतृ प्रत्यय हुआ है। इसी प्रकार भविष्यत् अर्थ में गच्छामि गच्छन्तम् वर्तमानकाल के प्रत्यय हुये हैं। पक्ष में लुङ् लकार, निष्ठा प्रत्यय भूतकाल के, तथा लूट लुट् लकार भविष्यत् काल में हो जाते हैं । तात्पर्य यह हुआ कि निकट के भूत वा निकट के भविष्यत् में वक्ता वर्तमानकालिक प्रत्ययों का भी प्रयोग कर सकता है । उदा०-देवदत्त ! कवाऽगतो ऽसि ? अयमागच्छामि (अभी पाया था) । प्रागच्छन्तमेव मां विद्धि (मुझको प्राया ही समझे) । पक्ष में-अयमागमम् (अभी आया हूं) । एषोऽस्मि मागतः, एष प्रागतवान् । भविष्यत् में-कदा देवदत्त ! गमिष्यसि ? एष गच्छामि (अभी जाऊंगा) । गच्छन्तमेव मां विद्धि (मुझे गया हुआ ही समझे) । पक्ष में- एष गमि ब्यामि (अभी जाऊंगा) । एष गन्ताऽस्मि ।। यहां से ‘वर्तमानवद्वा’ को अनुवृत्ति ३।३।१३२ तक जायेगी। प्राशंसायां भूतवच्च ॥३३।१३२॥ SERS प्राशंसायाम् ७१॥ भूतवत् प० ॥च प० । अनु०- वर्तमानवद्वा, धातो:, OTE BERE १४७२ अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [तृतीयः छा प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थः-प्रप्राप्तस्येष्टपदार्थस्य प्राप्तुमिच्छा आशंसा, सा च भवि ष्यत्कालविषया भवति । तत्र भविष्यति काले प्राशंसायां गम्यमानायां धातोविकल्पेन भूतवत प्रत्यया भवन्ति, चकाराद् वर्तमानवच्च ॥ उदा०-उपाध्यायश्चेद आगमत पागतः आगच्छति वा, वयं व्याकरणमध्यगीष्महि अधीतवन्तोऽवीमहे वा। पक्षे । उपाध्यायश्चेदागमिष्यति, वयं व्याकरणमध्येष्यामहे ॥e bf -03 1 भाषार्थ:–[प्राशंसायाम ] आशंसा गम्यमान होने पर धातु से [भूतवत्] भूतकाल के समान, [च] तथा वर्तमानकाल के समान भी विकल्प से प्रत्यय हो जाते हैं । अप्राप्त प्रिय पदार्थ के प्राप्त करने की इच्छा को ‘प्राशंसा’ कहते हैं। वह भविष्यत काल विषयवाली होती हैं। प्राशंसा गम्यमान होने पर भविष्यत् काल के ही प्रत्यय होने चाहिये,यहाँ विकल्प से भूतवत् प्रत्यय विधान कर दिये हैं।। सो पक्ष में भविष्यत्काल के समान प्रत्यय भी होंगे, चकार से वर्तमानवत् भी कर दिये हैं ॥ भूत वत कहने से भागमत अध्यगीष्महि में लुङ, लकार, तथा मागतः अषीतवन्तः में निष्ठा प्रत्यय हो गया हैं । वर्तमानवत् कहने से लट् लकार में प्रागच्छति अधीमहे बनेंगे । तथा विकल्प कहने से भविष्यत्काल में प्रागमिष्यति अध्येष्यामहे प्रयोग भी बन गये है ॥ शरिममिका [I] परि० १०२।१ में अध्यगीष्ट की सिद्धि की है । उसी प्रकार अध्यगीष्महि बन ( गया ।। ‘पाङ अट गम् चिल त’ ऐसा पूर्ववत होकर पुषादिद्युता० (३।११५५) से चिल किो अङ होकर प्रागमत् बन गया है। प्रागमिष्यति आदि की सिद्धि पूर्व कई बार दिखा चके हैं, उसी प्रकार यहां समझे। आगतः में क्त प्रत्यय हुआ है। गम के अनुनासिक का लोप अनुदात्तोप० ( ६।४।३७) से हो जाता है। (१) उपाध्याय जी यदि प्रायगे (२) तो हय व्याकरण पढ़ लेंगे, ये दो वाक्य प्राशंसा दिखाने के लिये दिये हैं। दोनों वाक्यों की क्रियाओं में पूर्वोक्त प्रत्यय हो गये हैं ॥ IP यहाँ से ‘प्राशंसायाम’ को अनुवृत्ति ३।३।१३३ तक जायेगी। क्षिप्रवचने लुट् ॥३।३।१३।। क्षिप्रवचने ७।१॥ लृट् ११॥ स०-क्षिप्रस्य वचनम् क्षिप्रवचनम्, तस्मिन्, षष्ठीतत्पुरुषः ॥ अनु०– प्राशंसायाम, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः- प्राशंसायां गम्यमानायां क्षिप्रवचन उपपदे धातोलूट प्रत्ययो भवति ॥ पूर्वेण भूतवत् प्राप्ते लुड् विधीयते ।। उदा. - उपाध्यायश्चेत् क्षिप्रं त्वरितम् आशु शीन वागमिष्यति, क्षिप्रं त्वरितं शीघ्र वा व्याकरणमध्येष्यामहे ।। ___ भाषार्थ:-[क्षिप्रवचने] क्षिप्रवचन = शीघ्रवाची शब्द उपपद हो, तो प्राशंसा गम्यमान होने पर धातु से [लुट ]लट प्रत्यय होता है । पूर्व सूत्र से प्राशंसा गम्यमान जिTEPTER-10RFOREFER 2017 पादः] जितृतीयोऽध्यायः । ४७३ होने पर भूतवत् प्रत्यय प्राप्त थे, यहाँ भविष्यत्काल का लुट् प्रत्यय हो गया है । उदा०-उपाध्यायश्चेत् क्षिप्रं त्वरितम् प्राशु शीघ्र वाऽऽगमिष्यति, क्षिप्रं त्वरितं शीघ्र वा व्याकरणमध्येष्यामहे (उपाध्याय जी यदि शीघ्र आ जायेंगे, तो हम व्याकरण शीघ्र पढ़ लेंगे) PETS 16F कीशलगियीय गो प्राशसावचन लिङ्॥३।३।१३४॥ यी आशंसावचने ७३१॥ लिङ् ११॥ आशंसा उच्यतेऽनेन आशंसावचनम् ॥ अनु०-धातोः, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्णः-प्राशंसावचन उपपदे धातोलिङ् प्रत्ययो भवति ॥ उवा० – उपाध्यायश्चेदागच्छेत्, प्राशंसे अवकल्पये वा युक्तोऽधीयीय मिति भाषार्थः-[माशंसावचने] प्राशंसावाची शब्द उपपद हो, तो धातु से [लिङ] लिङ प्रत्यय होता है ।। प्राशंसा भविष्यत्काल विषयवाली होती है। यह सूत्र “आशंसायां० (३।३।१३२) का अपवाद है ॥ उदा०- उपाध्यायश्चेवाऽऽगच्छेत, प्राशंसे अवकल्पये वा युक्तोऽधीयीय (उपाध्याय जी यदि आ जायेंगे तो प्राशा है लगकर पढ़ेंगे) । अधिपूर्वक इङ् धातु से उत्तम पुरुष का ‘इट’ प्राकर लिङः सीयुट (३।४। १०२) से सीयुट प्रागम, तथा इटोऽत् (३।४।१०६) से इद को ‘प्रत्’ प्रादेश होकर ‘अधि इ सोय अ’ रहा । लिङ: सलोपो० (७।२१७९) से सकार लोप, तथा अचि ३नु धातु० (६।४७७) से धातु को इयङ प्रादेश होकर ‘अधि इयङ ईय प्र’ सवर्ण दीर्घ होकर अधीय ईय प्र= अधीयीय बन गया । - नानद्यतनवत् क्रियाप्रबन्धसामीप्ययोः ॥३।३।१३५।। शांत न अ०॥ अनद्यतनवत् अ०॥ क्रियाप्रबन्धसामीप्ययोः ७१२॥ स०-क्रियाणां प्रबन्धः क्रियाप्रबन्धः, षष्ठीतत्पुरुषः। क्रियाप्रबधश्च सामीप्यञ्च क्रियाप्रबन्धसामीप्ये, तयोः, इतरेतरयोगद्वन्द्वः ॥ अनु०-धातो:, प्रत्यय:, परश्च ॥ अर्थ:-क्रियाप्रबन्धे सामीप्ये च गम्यमानेऽनद्यतनवत् प्रत्ययविधिन भवति ॥ भूतानद्यतने अनद्यतने लङ् क(३।२।१११) इत्यनेन लङ् विहितः, भविष्यत्यनद्यतने च अनद्यतने लट (३३३१५) क इत्यनेन लट विहितस्तयोरयं प्रतिषेधः ॥ क्रियाप्रबन्धो नैरन्तर्येण क्रियाया अनष्ठानम्।। उदा०-क्रियाप्रबन्धे–यावज्जीवं भशमन्नम् अदात् । भृशमन्नं दास्यति । सामीप्ये -येयं प्रतिपद् अतिक्रान्ता तस्यां विद्युद अपप्तत । वृक्षमभेत्सीत् । मार्गमरौत्सीत् । योऽयं रविवासर आगामी तस्मिन् नगरान्तरं यास्यामः । धनं दास्यामः । पुस्तकं ग्रहीष्यामः। माजी भाषार्थ:-भूत अनद्यतनकाल में लङ तथा भविष्यत् अनद्यतन में लुट का विधान - किया है, उनका यह निषेष सूत्र है ॥ [क्रियाप्रबन्धसामीप्ययाः] क्रियाप्रबन्ध तथा ४७४ अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [तृतीयः सामीप्य गम्यमान हो, तो धातु से [अनद्यतनवत्] अनद्यतनवत् प्रत्ययविधि [न] नहीं होती है ।। क्रियाप्रबन्ध निरन्तर किसी क्रिया का अनुष्ठान । सामीप्य= तुल्यजातीय काल का व्यवधान न होना ।। अन यतनवत् निषेध होने से सामान्य भूत काल में कहा हुआ लुङ, तथा सामान्य भविष्यत् काल में कहा हुमा लट् प्रत्यय हो गया है ।। उदा०-क्रियाप्रबन्ध में-यावज्जीवं भृशमन्नम् अदात् (जब तक जिया निरन्तर अन्न का दान किया) । भृशमन्नं दास्यति । सामीप्य में–येयं प्रतिपद अति क्रान्ता तस्यां विद्युद अपप्तत् (जो यह प्रतिपद बीत गई, उसमें बिजली गिरी थी)। वृक्षमभत्सीत् (वृक्ष को फाड़ दिया था)। मार्गमरौत्सीत् (मार्ग को रोक दिया था)। योऽयं रविवासर आगामी तस्मिन नगरान्तरं यास्यामः (जो यह आगामी रविवार है, उसमें दूसरे शहर को जायेंगे) । धन दास्यामः (धन देंगे)। पुस्तकं ग्रहीष्यामः पुस्तक लेंगे) ॥ अपप्तत में परि० ३।११५२ के समान ‘म पत् अङत’ होकर पतः पुम् (७।४।१६) मिदचोऽन्त्यात् (१।१।४६) से अन्त्य अच् से परे पुम् होकर ‘म प पुम् त् अङ त’ =अपप्तत् बन गया । यहाँ चिल के स्थान में अङ पुषादिद्यु. (३।११५५) से होगा । प्रभेत्सीत् अच्छेत्सीत को सिद्धि परि० ३॥१॥५७ में देखें। अदात्त में सिच का लुक् गातिस्थाघु० (२।४७७) से हुआ है ॥ यहां से ‘नानद्यतनवत्’ की अनुवृत्ति ३।३।१३८ तक जायेगी। निय PिEN भविष्यति मर्यादावचनेऽवरस्मिन् ॥३।३।१३६॥ को ये भविष्यति ७.१॥ मर्यादावचने ७१॥ अवरस्मिन १॥ मर्यादा उच्यतेऽनेन मर्यांदावचनम ॥ अन-नानद्यतनवत, धातो:, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थ:-मर्यादा. वचनेऽवरस्मिन् प्रविभागे भविष्यति काले धातोरनद्यतनवत् प्रत्ययविधिन भवति ।। उदा.-योऽयमध्वा गन्तव्य आपाटलिपुत्रात् तस्य यदवरं कौशाम्ब्यास्तत्र द्विरोदनं भोक्ष्यामहे । तत्र सक्तून् पास्यामः ॥ आम भाषार्थ:–[अवरस्मिन् ] अवर प्रविभाग अर्थात् इधर के भाग को लेकर [मर्यादावचने] मर्यादा कहनी हो, तो [भविष्यति] भविष्यत्काल में घातु से अन द्यतनवत् प्रत्ययविधि नहीं होती हैं ।। अनद्यतन भविष्यत् काल में लुट् प्रत्यय प्राप्त था, उसका ही यहाँ निषेध है, अत: सामान्य भविष्यत् काल विहित लुट् हो गया है । उदा०–योऽयमध्वा गन्तव्यः प्रापाटलिपुत्रात, तस्य यदवरं कौशाम्ब्या स्तत्र द्विरोदनं भोक्ष्यामहे (जो यह मागं पाटलिपुत्र तक गन्तव्य है, उसका जो कौशाम्बी से इधर का भाग है, उसमें दो बार चावल खायेंगे)। तत्र सक्तून पास्यामः (वहाँ सत्तू पीयेंगे) ॥ सिद्धि में कुछ भी विशेष नहीं है ।। भुज के ज् को चोः कु: (८।२।३०) से कुत्व हुआ है । ‘भुक् स्य महिङ’ यहाँ अतो दी| यजि (७१३३१०१) से दीर्घत्व, तथा षत्वादि होकर भोक्ष्यामहे बना है। पूर्व राजाल पादः] तृतीयोऽध्यायः गया यहाँ से ‘भविष्यति’ की अनुवृत्ति ३।३।१३६ तक, ‘मर्यादावचने’ को ३।३।१३८ तक, एवं ‘अवरस्मिन्’ को ३।३।१३७ तक जायेगी। दिशा कालविभागे चानहोरात्राणाम् ॥३।३।१३७।। कालविभागे ११॥ च अ० ॥ अनहोत्राणाम् ६॥३॥ स०-कालस्य विभाग: कालविभागः, तस्मिन, षष्ठीतत्पुरुषः। अहानि च रात्रयश्च अहोरात्राणि, न अहो रात्राणि अनहोरात्राणि, तेषाम, द्वन्द्वगर्भो नवतत्पुरुषः ॥ अनु०-भविष्यति, मर्यादावचनेऽवरस्मिन्, नानद्यतनवत्, धातो:, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थ:-कालमर्यादाया मवरस्मिन् प्रविभागे सति भविष्यति काले घातोरनद्यतनवत् प्रत्ययविधिन भवति, न चेद् अहोरात्रसम्बन्धी विभागः, तत्र त्वनद्यतनवत् प्रत्ययविधिर्भवत्येव ॥ उदा योऽयं संवत्सर अागामी, तत्र यदवरमाग्रहायण्यास्तत्र युक्ता अध्येष्यामहे । तत्रोदनं भोक्ष्यामहे ॥ भाषार्थ:-[काल विभागे] कालकृत मर्यादा में अवर भाग को कहना हो, तो [च ] भी भविष्यत काल में धातु से अनद्यतनवत प्रत्ययविधि नहीं होती, यदि वह काल का मर्यादाविभाग [अनहोरात्राणम् ] अहोरात्र दिन-रात सम्बन्धी न हो ॥ पूर्व सूत्र से ही निषेध सिद्ध था, यहाँ ‘अनहोरात्राणाम्’ में निषेध करने के लिये यह वचन है ।। उदा०-योऽयं संवत्सर अागामी, तत्र यदवरमाग्रहायण्यास्तत्र युक्ता प्रध्येष्यामहे (जो यह आगामी वर्ष है, उसका जो अगहन पूर्णमासी से इधर का भाग है, उसमें लग कर पढ़ेंगे) । तत्रोदनं भोक्ष्यामहे ।। उदाहरण में प्राग्रहायणी कालवाची शब्द से अवर भाग की मर्यादा बांधी है, सो अध्येष्यामहे में अनद्यतन भविष्यत् काल के लुट् का निषेध होकर पूर्ववत् लुट् प्रत्यय हो गया है ॥ R eflim. TEA यहाँ से ‘कालविभागे चानहोरात्राणाम्’ को अनुवृत्ति ३।३।१३८ तक जायेगी ।। परस्मिन विभाषा ॥३।३।१३८॥ मगा परस्मिन ७१।। विभाषा १।१।। अनु०-कालविभागे चानहोरात्राणाम, भवि ध्यति मर्यादावचने, नानद्यतनवत्, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थ:-भविष्यति काले मर्यादावचने कालस्य परस्मिन् प्रविभागे सति घातोविकल्पेनानद्यतनवत् प्रत्ययविधिर्न भवति, न चेद् अहोरात्र-सम्बन्धी प्रविभागः ॥ उदा०-योऽयं संवत्सर आगामी, तत्र यत् परमाग्रहायण्यास्तत्र युक्ता अध्येष्यामहे । पक्षे-अध्येतास्महे । तत्र सक्तून पास्याम:, पातास्मो वा ॥ हमा भाषार्थ:-भविष्यत् काल में काल के [परस्मिन् ] परले भाग की मर्यादा को ४७६४ अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती त [तृतीयः कहना हो, तो अनद्यतनवत् प्रत्ययविधि [विभाषा] विकल्प से नहीं होती, यदि वह कालविभाग अहोरात्र-सम्बन्धी न हो तो॥ पूर्वसूत्र में कालकृत प्रवरप्रविभाग की मर्यादा में अनद्यतनवत् प्रत्ययविधि का निषेध था, यहां परप्रविभाग को कहने में विकल्प से निषेध कर दिया है। उदा.-योऽयं संवत्सर आगामी तत्र वन परमा प्रहायण्यास्तत्रयुक्ता मध्येण्यामहे(जो यह पानेवाला साल है उसका जो अगहन पूर्णमासी से परला भाग है, उसमें लगकर पढ़ेंगे)। पक्ष में -अध्येतास्महे । तत्र सक्तून पास्यामः, पातास्मो वा उसमें सत पीवेंगे) || विकल्प कहने से पक्ष में भविष्यत् काल का लुट् प्रत्यय होकर, ‘प्रधि इ तास् महिङ’ =अधि ए तास महे= अध्येतास्महे, तथा पाता. स्मा बन गया है रमजान मpिistीम, जान वार लिनिमित्ते लुङ क्रियातिपत्तौ ॥३।३।१३६॥ स्थिगित लिनिमित्ते ७।१।। लङ १॥१॥ क्रियातिपत्तौ ७१॥ स-लिङो निमित्तं । लिङ निमितम, तस्मिन्, षष्ठीतत्पुरुषः। क्रियाया अतिपत्तिः क्रियातिपत्तिः, तस्याम, षष्ठीतत्पुरुषः । अनु०-भविष्यति, धातो:, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः –भविष्यति काले लिङनिमित्ते क्रियातिपत्तौ सत्यां घातोलुङ् प्रत्ययो भवति ॥ हेतुहेतुमतोलिक (३।३।१५६) इत्येवमादिकं लिडो निमित्तम् ॥ उदा०–दक्षिणेन चेदागमिष्यत्, न शकटं पर्याभविष्यत् । अभोक्ष्यत भवान् घृतेन यदि मत्समीपमासिष्यत ॥ 3 भाषार्थ:-भविष्यत काल में [लिनिमित्ते] लिङ का निमित्त होने पर [क्रियातिपत्तौ] क्रिया को अतिपत्ति उल्लङ्घन अथवा क्रिया का सिद्धि न होना गम्यमान हो, तो धातु से [लुङ] लङ्ग प्रत्यय होता है || हेतु (कारण) और हेतुमत (फल =कार्य) लिङ् के निमित्त होते हैं। सो लिङ निमित्त का अर्थ हुमा-हेतुहेतु मद्भाव ॥ उदा०-दक्षिणेन चेदागमिष्यत्, न शकटं पयोभविष्यत् (यदि दक्षिण के रास्ते से प्रानोगे, तो गाड़ी नहीं उलटेगी)। प्रभोक्ष्यत भवान घृतेन, यदि मत्समोप मासिष्यत (यदि आप मेरे पास बैठोगे, तो घी से भोजन करोगे) ॥ उदाहरण में दक्षिण से माना तथा मेरे पास बैठना, यह हेतु है, छकड़े का न उलटना तथा घी से खाना, यह हेतुमत है । वह दक्षिण से आयेगा ही नहीं, अत: छकडा टूट जायेगा, एवं मेरे पास रहेगा ही नहीं, अत: घी से न खा सकेगा (यह बात बक्ता ने किसी प्रकार जान ली) यह क्रियातिपत्ति - क्रिया का उल्लङ्घन है। सो उदाहरण आग मिष्यत पर्याभविष्यत आदि में लङ लकार हो गया है। प्रागमिष्यत में गमेरिट पर० (७१२।५८) से इट मागम होता है । ‘परि प्राङ अट भू इट् स्य त पर्या भो इष्य त् =पर्याभविष्यत पूर्ववत बन गया है ।। प्रात्मनेपद में ‘त’ होकर प्रभोक्यत प्रासिष्यत भी इसी प्रकार समझे। भुत्य महिला कि यहां से सम्पूर्ण सूत्र की अनवृत्ति ३।३।१४१ तक जायेगी ।। IPS पाद:]] तृतीयोऽध्यायः गगर ४७७ पण या भूते च ॥३।३।१४०। भूते ७॥ च अ मन-लिङनिमित्ते लङ क्रियातिपत्ती, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ पूर्वेण भविष्यति विहितोऽत्र भूतेऽपि विधीयते ॥ अर्थः-भूते लिनिमित्ते क्रियातिपत्तो सत्यां लङ प्रत्ययो भवति ॥ उदा०-दष्टो मया भवत्पुत्रोऽन्नार्थी चङ् क्रम्यमाणः, अपरश्च द्विजो ब्राह्मणार्थी, यदि स तेन दृष्टोऽभविष्यत, तदा अभोक्ष्यत, न तु भुक्तवान् अन्येन पथा स गतः ॥ भाषार्थ:-लिङ्ग का निमित्त हेतुहेतुमत आदि हो, तो क्रियातिपत्ति होने पर [भूते] भूतकाल में [च] भी धातु से लुङ प्रत्यय होता है ।। पूर्वसूत्र से भविती ध्यत् काल में ही लुङ्ग प्राप्त था, यहाँ भूतकाल में भी बिधान कर दिया है । उदा० दृष्टो मया भवत्पुत्रोऽन्नार्थी चङ कम्यमाणः, अपरश्च द्विजो ब्राह्मणार्थी, यदि स तेन वृष्टोऽभविष्यत् तदा प्रभोल्यत, न तु भुक्तवान्, अन्येन पथा स गतः (मैंने अन्न के लिये इधर-उधर घूमते हुये आपके पुत्र को देखा था, तथा मैंने एक द्विज को देखा था, जो ब्राह्मण को भोजन कराने के लिये ढूढ रहा था। यदि वह आपके पुत्र को देख लेता, तो खिला देता, पर नहीं खा सका, क्योंकि वह अन्य रास्ते से चला गया = दिखाई नहीं दिया) । उदाहरण में ‘यदि वह उसके द्वारा देखा जाता’, यह हेतु है; ‘तो खिला देता यह हेतुमत् है, उसने देखा नहीं, अतः खिलाया नहीं, यह क्रियातिपत्ति है ।। भूतकालता प्रशित करने के लिये ही दृष्टो मया"प्रादि इतना बड़ा वाक्य दिखाया है। पहाँ से ‘भूते’ को अनुवृत्ति ३।३।१४१ तक जायेगी। TIME वोताप्योः ॥३।३।१४१॥ यी वा अ० ॥ आ अ० ॥ उताप्योः ७॥२॥ अनु०-लिङनिमित्त लुङ क्रियातिपत्ती, भूते, धातोः, प्रत्यय:, परश्च ॥ अर्थः-उताप्योः समर्थयोलिङ (३।३।१५२) इति सूत्रात प्राक लिनिमित्त क्रियातिपत्ती भूते विभाषा लङ् भवतीत्यधिकारो वेदितव्यः ।। उदा-विभाषा कथमि लिङ च (३।३।१४३) इत्यत्र कथं नाम तत्र भवान् ब्राह्मणम् अक्रोक्ष्यत् । यथाप्राप्त ‘क्रोशेत’ इति च ।। Esीतिमा इस भाषार्थ:- [उताप्योः] उताप्योः समर्थयोलिङ (३।३।१५२) से [आ] पहले पहले जितने सूत्र हैं, उनमें लिङ्ग का निमित्त होने पर क्रिया को अतिपत्ति में भूतकाल में [वा] विकल्प से लङ प्रत्यय होता है । विभाषा कथमि लिङ च ( ३।३।१४३) सूत्र में लिऊ का विधान है । अत: यहां प्रकृत सूत्र का अधिकार होने से पक्ष में भूत काल क्रियातिपत्ति विवक्षा होने पर लङ, भी हो गया। जहां लिङ का सम्बन्ध नहीं होगा, वहां इस सूत्र का अधिकार नहीं बैठेगा । र जीरा अरुको ४७८ अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [तृतीयः ‘वा+प्रा’ को सवर्णदीर्घ होकर ‘वा’ बना । पुनः वा+उताप्योः यहाँ आद् गुणः, (६।१८४) लगकर वोताप्योः बना है । यहाँ पर प्राङ मर्यादा में है, अभिविधि में नहीं। वही सिकाई विगर्हायां लडपिजात्वोः ॥३।३।१४२॥ मिली प्रय गायाम ७१।। लट श॥ अपिजात्वोः ७२॥ स०-अपिश्च जातुश्च अपि जातू, तयोः, इतरेतरयोगद्वन्द्वः ॥ अनु०-धातो:, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थ:-गर्हायां गम्यमानायाम् अपि, जातु इत्येतयोरुपपदयो: घातोर्लट प्रत्ययो भवति ॥ कालत्रये लट विधीयते ॥ उदा० -अपि तत्र भवान मांसं खादति । जातु तत्र भवान मांसं खादति, गहितमेतत् ॥ी नोला यार बहाल के . भाषार्थ:-वर्तमानकाल में लट प्रत्यय कहा है, कालसामान्य (तीन कालों) प्राप्त नहीं था, अतः विधान कर दिया है। [गर्हायाम्] निन्दा गम्यमान हो, तो [अपिजात्वोः] अपि तथा जातु उपपद रहते धातु से [लट्] लट् प्रत्यय होता है । उदा०-अपि तत्र भवान मांस खादति, जातु तत्र भवान् मांसं खादति, गहित मेतत् (क्या आप मांस खाते हैं, खाया था, वा खायेंगे, यह बड़ा निन्दित कर्म है)। किसी कालविशेष में ये लकार नहीं कहे गये हैं। अतः इस सारे प्रकरण में कहे गये प्रत्यय भूत भविष्यत वर्तमान तीनों ही कालों में होते हैं । सो विवक्षाधीन उदा हरणों के अर्थ लगा लेने चाहिये ।। यहां से गायाम्’ की अनुवृत्ति ३।३।१४४, तथा ‘लट’ को अनुवृत्ति ३।३।१४३ तक जायेगी। पाता २ विभाषा कथमि लिङ च ॥३।३।१४३॥ विभाषा ११॥ कथमि ७१॥ लिङ १।१।। च अ० ॥ अन -गर्हायाम, लट्, घातोः, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थ:-गर्हायां गम्यमानायां कथं शब्द उपपदे धातोः लिङ प्रत्ययो विकल्पेन भवति, चकारात लट् च । पक्षे स्वस्वकाले विहिताः सर्वे लकारा भवन्ति ।। उदा०–कथं नाम भवान ब्राह्मणं क्रोशेत । चकारात् लट-कथं नाम भवान ब्राह्मणं क्रोशति । पक्षे स्वस्वकाले सर्व लकारा:-कथं नाम भवान ब्राह्मणं क्रोक्ष्यति (लुट)। कथं नाम भवान् ब्राह्मणं क्रोष्टा (लुट)। कथं नाम भवान् ब्राह्म णमक्रोशत् (लङ)। कथं नाम भवान् ब्राह्मणं चक्रोश (लिट)। कथं नाम भवान् ब्राह्मणमऋक्षत् (लुङ) । अस्मिन् सूत्र लिङ निमित्तमस्त्यतो भूतविवक्षायां क्रियाति पत्तौ सत्यां वोताप्योः (३॥३॥१४१) इत्यनेन लुङपि भविष्यति ॥ कि काली भाषार्थ:-गर्दा गम्यमान हो, तो [कयमि] कथम् शब्द उपपद रहते [विभाषा] विकल्प करके [लिङ] लिङ प्रत्यय होता है, तथा [च] चकार से लट् प्रत्यय पादः] ज तृतीयोऽध्यायः भी होता है । पक्ष में अपने-अपने काल में विहित सारे ही लकार होते हैं ।। उदा० कथं नाम भवान् ब्राह्मणं क्रोशेत् (कैसे प्राप ब्राह्मण को डांटते हैं, डांटा, वा डांटेंगे)। शेष उदाहरण संस्कृत भाग के अनुसार जान लें । इस सूत्र में लिङका निमित्त है,अत: क्रियातिपत्ति में भूत काल की विवक्षा में लुङ भी पक्ष में होगा-प्रोक्ष्यत् बनेगा। किंवृत्ते लिङ लुटौ ॥३।३३१४४॥ किंवृत्ते ७॥१॥ लिङ लुटौ १२२॥ स०– किमो वृत्तं किंवृत्तम्, तम्मिन्, षष्ठी तत्पुरुषः । लिङ च लुट् च लिङ लुटो, इतरेतरयोगद्वन्द्वः ॥ अनु०-गर्दायाम, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थ:-किंवृत्त उपपदे धातोः गर्दायां गम्यमानायां लिङ लुटौ प्रत्ययौ भवतः॥ उदा०-को नाम यो विद्यां निन्देत । को नाम यो विद्यां निन्दिष्यति । कतरो विद्यां निन्देत् । कतरो विद्यां निन्दिष्यति ।। क्रियातिपत्तौ सत्या लङपि भवति वोताप्यो. (३।३।४१) इत्यनेन ॥ भाषार्थ:-[किंवृत्ते] किंवृत्त उपपद हो, तो गर्दा गम्यमान होने पर घातु से [लिङ लुटौ] लिङ तथा लुट् प्रत्यय होते हैं । किंवृत्त से यहाँ सर्वविभक्त्यन्त किम् शब्द, तथा इतर डतम प्रत्ययान्त किम् शब्द लिया जाता है ।। उदा० - को नाम यो विद्या निन्देत् (कौन है जो विद्या की निन्दा करता है, करेगा, वा की थी)। शेष उदा हरण संस्कृतानसार जान लें। लिङ प्रत्यय होने से भूतकाल विवक्षा में क्रियातिपत्ति में वोताप्योः (३।३।१४१) से लुङ भी होगा, सो ‘अनिन्दिष्यत् भी बनेगा। यह सब लकारों का अपवाद है ॥ यहाँ से ‘लिङ लुटो’ की अनुवृत्ति ३।३।१४५ तक जायेगी। Star अनवक्लप्त्यमर्षयोरकिंवृत्तेऽपि ॥३।३।१४५॥कामा अनव.. यो: ७।२।। अकिंवृत्ते ७१॥ अपि अ. ॥ स०.-अनवक्तृप्तिः, अमर्षः इत्यत्र नञ्तत्पुरुषः । अनववलप्तिश्च अमर्षश्च अनवक्लुप्त्यमौं, तयोः, इतरेतरयोग द्वन्द्वः ॥ अनु०-लिङ लटौ, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः-अनवक्तृप्ति अमर्ष इत्येतयोर्गम्यमानयोः किंवत्तेऽकिंवृत्ते चोपपदे धातो: लिङ लुटो प्रत्ययो भवतः ॥ अनव क्लूप्तिः= असंभावना । अमर्षः=अक्षमा ।। उदा०-नावकल्पयामि न संभावयामि न श्रद्दधे तत्र भवान् मांस भुजीत, मांसं भोक्ष्यते । किंवृत्तेऽपि-को नाम तत्र भवान मांसं भुजीत नावकल्पयामि । को नाम तत्र भवान मांसं भोक्ष्यते । अमर्षे- न मर्ष यामि तत्र भवान विद्यां निन्देत, तत्र भवान विद्यां निन्दिष्यति । किंवृत्तेऽपि-कदा. चित भवान् विद्यां निन्देत न मर्षयामि, कदाचित् निन्दिष्यति वा। भूत विवक्षायां 1 बोताप्योः (३।३।१४१) इत्यनेन लुङपि भवति ॥ 1 TERRIES भाषार्थ:- [अन–…र्षयो:] अनवक्तृप्ति= सम्भावना, प्रमर्ष = सहन न FTRU TEPE INT ४८० अष्ट अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्तौ [[तृतीयः करना गम्यमान हो, तो [भकिंवृत्ते] किंवृत्त उपपद न हो [अपि] या किंवृत्त उप पद हो, तो भी धातु से कालसामान्य में सब लकारों के अपवाद लिङ तथा लुट प्रत्यय होते हैं ॥ भूत क्रियातिपत्ति विवक्षा में लुङ् भी पक्ष में होगा ॥ उदा० नावकल्पयामि न सम्भावयामि न श्रद्दधे तत्र भवान् मांसं भुजोत, मांस भोक्ष्यते (मैं सोच भी नहीं सकता कि मांस खाते हैं) । अमर्ष में-न मर्षयामि तत्र भवान् विद्या निन्देत (मैं सहन नहीं कर सकता कि आप विद्या की निन्दा करते हैं) ॥ शेष उदाहरण संस्कृत भाग के अनुसार जान लें। यहां यथासंख्य नहीं होता है । भज धातु रुधादि गण की है, सो इनम् होकर ‘भु श्नम् ज् सीयुट् सुट त’ बिनकर श्नसोरल्लोप: (६।४।१११) से श्नम् के अ का लोप, तथा लिङः सलोपोऽन. (७१२१७६) से दोनों सकारों का लोप होकर ‘भुन ज् ईय त’ रहा । लोपो व्यो. पा(६।१।६४) से ईय के य का लोप होकर भन्जीत बना। नश्चापदा० (८।३।२४) एवं अनुस्वारस्य ययि० (८।४।५७) से न् को ज होकर भुजीत बना है ॥ । यहाँ से ‘अनवक्लप्त्यमर्षयो:’ को अनुवृत्ति ३।३।१४८ तक जायेगी। किकिलास्त्यर्थेषु लुट् ॥३॥३॥१४६॥ गट जोशी किकिलास्त्यर्थेषु ७।३।। लुट २१॥ स०-अस्ति अर्थो येषां तेऽस्त्याः , बहु व्रीहिः । किकिलश्च अस्त्यर्थाश्च किंकिलास्त्यर्थाः, तेषु इतरेतरयोगद्वन्द्वः ॥ अनु० अनवक्लृप्त्यमर्षयोः, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः-अनवक्लुप्त्यमर्षयोर्गम्यमानयोः किकिल-अस्त्यर्थेषु चोपपदेषु धातो: लृट् प्रत्ययो भवति ॥ ‘किकिल’ इति क्रोधद्योतक: समुदायो गृह्यते ।। उदा०-न संभावयामि किंकिल भवान धान्यं न दास्यति । न मर्षयामि किकिल भवान धान्यं न दास्यति । अस्त्यर्थेष-न सम्भावयामि न मर्ष यामि अस्ति नाम भवान मां त्यक्ष्यति । विद्यते भवति वा नाम तत्र भवान् मां पण त्यक्ष्यति ॥ p p s प्र भाषार्थ:-अनवक्लूप्ति तथा अमर्ष गम्यमान हों, तो [किंकिलास्त्यर्थेषु ] किकिल तथा अस्ति अर्थ वाले पदों के उपपद रहते धातु से [लट् ] लट् प्रत्यय होता है ॥ अस्ति, भवति, विद्यते यह सब अस्त्यर्थक पद हैं। किकिल यह क्रोध का द्योतन करने अर्थ में वर्तमान समुदायरूप शब्द है ।। उदा०–न सम्भावयामि किंकिल भवान धान्यं न दास्यति (मैं सोच भी नहीं सकता कि आप धान्य नहीं देंगे, दिया वा देते हैं। । न सम्भावयामि न मर्षयामि वा अस्ति नाम भवान् मां त्यक्ष्यति (मैं सोच नहीं सकता वा सहन नहीं कर सकता कि आप मुझे छोड़ देंगे)। शेष उदाहरण संस्कृतानुसार जान लें। उदाहरण में दा तथा त्यज् धातु से लृट् प्रत्यय हुआ है । । त्यज के ज को कुत्व होकर त्यक स्य ति, षत्व होकर त्यक्ष्यति बना है । पादः]] तृतीयोऽध्यायः ठाकर ४८१४ मोर जातुयदोलिङ् ॥३।३।१४७॥ सामसङ होम चिनीकरण जातुयदो: ७।२। लिङ् १।१।। स०-जातुश्च यत् च, जातुयदी, तयोः, इतरे तरयोगद्वन्द्वः ।। अनु०-अनवक्लप्त्यमर्षयोः, धातो:. प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थ:- अनव क्लुप्त्यमर्षयोर्गम्यमानयो: जातुयदोरुपपदयोः धातो: लिङ् प्रत्ययो भवति ॥ उदा०-नी संभावयामि जातु भवान धर्म त्यजेत, यद भवान् धर्म त्यजेत् । अमर्षे-न मर्षयामि न सहे, जातु भवान् ब्राह्मणं सदाचारिणं हन्यात्, यद भवान ब्राह्मणं सदाचारिण हन्यात् । भूते क्रियातिपत्तौ पक्षे लुङपि भविष्यति ॥ भाषार्थः अनवक्लूप्ति प्रमर्ष अभिधेय हो, तो [जातुयदोः] जातु तथा यद् उपपद रहते धातु से [लिङ] लिङ प्रत्यय होता है ॥ उदा०– न संभावयामि जातु भवान् धर्म त्यजेत् यद् भवान् धर्म त्यजेत् (मैं सोच नहीं सकता कि पाप कभी धर्म, छोड़ देंगे)। अमर्ष में-न मर्षयामि न सहे, जातु भवान् ब्राह्मणं सदाचारिणं हन्यात्, यद् भवान् ब्राह्मण सदाचारिणं हन्यात् (मैं सहन नहीं कर सकता कि पाप सदाचारी ब्राह्मण को मारेंगे) ॥ भूत क्रियातिपत्ति विवक्षा में पक्ष में वोताप्योः से लुङ, भी होगा, सो अत्यक्ष्यत् बनेगा ॥रियानवालीसा का निधन यहाँ से ‘लिङ’ को अनवृत्ति ३।३।१५० तक जायेगीpasps हाजिर ਸੁਨਣ ਲਈ पी यच्चयत्रयोः ॥३।३।१४८॥ हि यच्चयत्रयोः ७॥२॥ स०–यच्च च, यत्र च यच्चयत्री, तयोः, इतरेतरयोग द्वन्द्वः । अनु०–लिङ, अनवक्लृप्त्यमर्षयोः, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थ:-अनव क्लुप्त्यमर्ष योर्गम्यमानयोः, यच्च यत्र इत्येतयोरुपपदयोः धातोः लिङ प्रत्ययो भवति ॥ उदा.-न संभावयामि यच्च भवद्विधोऽनृतं वदेत यत्र भवद्विधोऽनृतं वदेत् । न मर्ष यामि न सहे, यच्च भवद्विघोऽनृतं वदेत. यत्र भवद्विधोऽनृतं वदेत् । भूते क्रियातिपत्तो वा लुङपि भविष्यति ॥ पर भावार्थ:-अनवक्तृप्ति अमर्ष गम्यमान हो, तो [यच्चयत्रयो:] यच्च, यत्र ये अव्यय उपपद रहते, पातु से लिङ प्रत्यय होता है ॥ भूत क्रियातिपत्ति में पक्ष में ला भी होगा ॥ उदा.-न संभावयामि यच्च भवद्विषोऽनृतं बवेत् (मैं सोच भी नहीं सकता कि प्राप जैसे झूठ बोल देंगे) ॥ वदेत् की सिद्धि परि० ३।१।६८ के पठेत के समान जाने ॥ शिवडी मिली ए यहाँ से ‘यच्चयत्रयोः’ को अनुवृत्ति ३।३।१५० तक जायेगी। इस चिर काका कोठी fsROgी प्रकाशन ४८२ अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्तौ [तृतीयः गर्हायाञ्च ॥३।३।१४६। गस्याम् ७१॥ च अ०॥ अन०-यच्चयत्रयोः, लिङ, धातोः, प्रत्यय:, परूच ॥अर्थः-गर्हायां =निन्दायां गम्यमानायां यच्च, यत्र इत्येतयोरुपपदयो: धातो: लिङ प्रत्ययो भवति ॥ उदा०—यच्च भवान मांस खादेत, यत्र भवान् मांसं खादेत, अहो गर्हितमेतत् । भूते क्रियातिपत्तौ वा लुपि भविष्यति ॥ का भाषार्थ:-[गर्हायाम् ] गर्दा गम्यमान हो, तो [च] भी यच्च यत्र उपपद रहते धातु से लिङ, प्रत्यय होता है ॥ पूर्ववत भूत क्रियातिपत्ति में विकल्प से लुङ, भी होगा ॥ उदा०-यच्च भवान् मांसं खादेत, यत्र भवान् मांसं खादेत., अहो गहितमेतत् (जो पाप मांस खाते हैं, यह बड़ी निन्दित बात है) । खादेत की सिद्धि परि ३१६६८ पठेत के समान जाने ॥ वित्रीकरणे च ॥३।३।१५०॥जिम हि चित्रीकरणे ७॥१॥ च अ०॥ अनु०– यच्चयत्रयोः, लिङ, धातो:, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थ:-चित्रीकरणम् पाश्चर्य, तस्मिन् गम्यमाने यच्च यत्र इत्येतयोरुपपदयोः धातोलिङ् प्रत्ययो भवति ।। उदा०-यच्च भवान् वेदविद्यां निन्देत्, यत्र भवान वेद विद्यां निन्देत, आश्चर्यमेतत, बुद्धिमान सज्जनोऽपि सन् । भूते क्रियातिपत्तो वा लुङपि भविष्यति ।। भाषार्थ:-[चित्रीकरणे ] चित्रीकरण प्राश्चर्य गम्यमान हो तो [च] भी यच्च, यत्र उपपद रहते धातु से लिङ् प्रत्यय होता है ॥ भूत क्रियातिपत्ति विवक्षा में पक्ष में लुङ भी होगा। उदा०-यच्च भवान वेदविद्यां निन्देत, यत्र भवान वेद विद्यां निन्देत्, पाश्चर्यमेतत् बुद्धिमान् सज्जनोऽपि सन् (बुद्धिमान् और सज्जन होते हुये भी जो प्राप वेब विद्या की निन्दा करते हैं, यह आश्चर्य है) ॥ यहाँ से ‘चित्रीकरणे’ को अनुवृत्ति ३।३।१५१ तक जायेगी । कोणी शेष लुडयदौ ॥३॥३।१५१॥ हि शेषे ७१॥ लट १२॥ अयदौ ७३१|| स०-न यदि: अयदिः तस्मिन “ना तत्पुरुषः ।। अन–चित्रीकरणे, घातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः-यच्चयत्राभ्यामन्यो यः स शेषः, तस्मिन्न पपदे चित्रीकरणे गम्यमाने धातो: लट् प्रत्ययो भवति, यदि शब्द श्चेत् न प्रयुज्यते ॥ उदा०-अन्धो नाम मार्गे क्षिप्रं यास्यति, बधिरो नाम व्याकरणं पठिष्यति, आश्चर्य मेतत् ॥ काम में वा संध्या पर पाद से त्या भाषार्थ:-यच्च यत्र की अपेक्षा से यहां शेष लिया गया है ॥ [अयदौ] यदि पाद:]
- तृतीयोऽध्यायः ४८३-४ का प्रयोग न हो और [शेषे यच्च यत्र से भिन्न शरद उपपद हो, तो चित्रीकरण गम्यमान होने पर धातु से [लट्] लुट् प्रत्यय होता है। उदा०-अन्धो नाम मार्गे क्षिप्रं यास्यति, बधिरो नाम व्याकरणं पठिष्यति, प्राश्चर्यमेतत् (अन्धा जल्दी-जल्दी मार्ग में चलेगा, तथा बहरा व्याकरण पढ़ेगा, पढ़ता है, अथवा पढ़ा, यह आश्चर्य की बात है) ॥ सपनाया जति उताप्योः समर्थयोलिङ ॥३।३।१५२॥ काली मिर 1 उताप्योः ७।२।। समर्थयोः ७२॥ लिङ ११॥ स०-उतश्च अपिश्च, उतापी, तयोः… इतरेतरयोगद्वन्द्वः ॥ समान: अर्थो ययोः तौ समर्थों, तयोः .. बहुव्रीहिः ॥ अनु०-धातोः, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थः- उत, अपि इत्येतयोः समर्थयो: समानार्थ योरुपपदयोः धातोलिङ् प्रत्ययो भवति ।। उदा०-उत कुर्यात, अपि कुर्यात् । उत - पठेत, अपि पठेत् ॥ भाषार्थ:- [उताप्योः] उत, अपि [समर्थयो:] समानार्थक उपपद हों, तो धातु से [लिङ ] लिङ, प्रत्यय होता है ।। बाढम् =हाँ अर्थ में उत अपि समानार्थक होते हैं, वोताप्योः का अधिकार यहाँ समाप्त हो जाने से प्रब वह सम्बन्धित नहीं होगा। अत उत् सार्वधातुके (६।४।११०) लगकर कुर्यात् बन गया, शेष पूर्ववत् समझे ॥ उदा० – उत कुर्यात् (हां करे) । अपि कुर्यात् (हाँ करे)। उत पठेत् (हां पढ़े)। अपि पठेत् (हाँ पढ़े) ॥ यहाँ से ‘लिङ’ की अनुवृत्ति ३।३।१५५ तक जायेगी ।। कामप्रवेदनेऽकच्चिति ।।३।३।१५३॥ टूटे) कामप्रवेदने ७॥१॥ अकच्चिति ७।१॥ स० -कामस्य इच्छाया: प्रवेदनं = प्रकाशनं, कामप्रवेदनं, तस्मिन् । पष्ठीतत्पुरुषः । न कच्चित् अकच्चित, तस्मिन् … नञ्तत्पुरुषः ।। अनु०-लिङ्ग, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थ:–कामप्रवेदने =स्वा भिप्रायप्रकाशने गम्यमाने धातोरकच्चितशब्द उपपदे लिङ प्रत्ययो भवति ॥ उदा. कामो मे भुजीत भवान, अभिलापो मे भुञ्जीत भवान् ॥ शर - भाषार्थ:-[कामप्रवेदने] अपने अभिप्राय का प्रकाशन करना गम्यमान हो मौर [अकच्चिति ] कच्चित् शब्द उपपद में न हो तो धातु से लिा. प्रत्यय होता है । काम= इच्छा, प्रवेदन =प्रकाशन ॥ उदा०-कामो मे भुञ्जीत भवान् (मेरी इच्छा है, कि अाप भोजन करें) । अभिलाषो मे भुञ्जीत भवान ॥ ३॥३॥१४५ सूत्र में भजीत की सिद्धि देखें ॥ का कि अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [तृतीय: महिने सम्भावनेऽलमिति चेत् सिद्धाप्रयोगे ॥३।३।१५४|| दिला " सम्भावने ७१॥ अलम् अ० ॥ इति अ० ॥ चेत अ०॥ सिद्धाप्रयोगे ७१॥ स०-न प्रयोग:, अप्रयोगः नञ्तत्पुरुषः । सिद्धोऽप्रयोगो यस्य स सिद्धाप्रयोगः (अलम शब्द:), तस्मिन् बहुव्रीहिः ॥ अनु–लिङ, धातो:, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः सम्भावनम् =क्रियासु शक्त: निश्चयः । अलंशब्दोऽत्र समर्थवाची । सम्भावनम अल मर्थेन विशेष्यते । अलं पर्याप्तम् इति सम्भावनेऽर्थे वर्तमानाद् धातोलिङ प्रत्ययो भवति, सिद्धश्चेद अलमोऽप्रयोगः॥ यत्र गम्यते चार्थो न चासो प्रयुज्यते स सिद्धा प्रयोगः ॥ उदा०-अपि पर्वतं शिरसा भिन्द्यात् । अपि वृक्षं हस्तेन त्रोटयेत् ॥ भाषार्थ:-[अलमइति ] पर्यप्त विशिष्ट [सम्भावने] सम्भावन अर्थ में वर्त्त मान धातु से लिङ् प्रत्यय होता है, [चेत् ] यदि अलम् शब्द का [सिद्धाप्रयोगे] अप्रयोग सिद्ध हो रहा हो, अर्थात् अलम् समर्थवाची शब्द के प्रयोग के बिना ही समर्थता की प्रतीति हो रही हो। सम्भावना=क्रियाओं में शक्ति के निश्चय को कहते हैं ।। प्रलं शब्द यहां समर्थवाची है ।। जहाँ किसी अर्थ की प्रतीति तो हो रही हो पर उस शब्द का प्रयोग न हो रहा हो, उसे सिद्ध+प्रप्रयोग=सिद्धाप्रयोग कहते हैं ।। उदा०-अपि पर्वतं शिरसा भिन्द्यात् (यह तो सिर से पर्वत तोड़ सकता है) अपि वृक्षं हस्तेन त्रोटयेत् (यह तो हाथ से वृक्ष तोड़ सकता है) । उदाहरण में प्रलं शब्द का प्रयोग नहीं है, पर अर्थ की प्रतीति हो रही है, सम्भावना की जा रही है सो भिद् धातु से लिङ, प्रत्यय हो गया है । रुधादिभ्यः श्नम् (३।१७८) से भिन्द्यात् में श्नम् विकरण होता है ॥ यहाँ से सारे सूत्र की अनुवृत्ति ३॥३१५५ तक जायेगी। विभाषा धातो सम्भावनवचनेऽयदि ॥३।३।१५।। म विभाषा ११॥ घातौ ७॥१॥ सम्भावनवचने ७॥१॥ अयदि ७॥१॥ स०-न यद् अयद, तस्मिन्-नजतत्पुरुषः ॥ अनु०–सम्भावनेऽलमिति चेत् सिद्धाप्रयोगे, लिङ, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ सम्भावनमुच्यतेऽनेन स सम्भावनवचन:, तस्मिन् ॥ अर्थः-सम्भावनवचने धातावपपदे यच्छब्दवजिते सिद्धाप्रयोगेऽलमर्थे सम्भावने घातो विभाषा लिङ् प्रत्ययो भवति ॥ उदा०-सम्भावयामि भुजोत भवान, अवकल्प यामि भुञ्जीत भवान् । पक्षे लट-सम्भावयामि भोक्ष्यते भवान्, अवकल्पयामि भोक्ष्यते भवान। टिमटि साविक दी भाषार्थ:-[सम्भावनवचने] सम्भावन अर्थ को कहनेवाला [धातो] धातु उपपद हो तो [अयदि] यत् शब्द उपपद न होने पर, सम्भावन अर्थ में वर्तमान धातु से [विभाषा] विकल्प से लिङ् प्रत्यय होता है, यदि अलम् शब्द का अप्रयोग सिद्ध पाद:] fr तृतीयोऽध्याय: हो । सम्भावना भविष्यत् काल विषय वाली होती है, अतः पक्ष में सामान्य भवि व्यत् काल का प्रत्यय लुट् हो गया है । उदा०–सम्भावयामि भुजीत भवान् (मैं सम्भावना करता हूं कि आप खावेंगे) । शेष उदाहरण संस्कृतानुसार जान लें। उदाहरण में सम्भावयामि अवकल्पयामि सम्भावनवचन धातु उपपद हैं, अलम् शब्द का अप्रयोग सिद्ध है ही सो भुज् धातु से लिङ तथा पक्ष में लट् प्रत्यय हुआ है ।। यहाँ से ‘विभाषा’ की अनुवृत्ति ३।३।१५६ तक जायेगी। हेतुहेतुमतोलिङ ॥३।३।१५६॥ हेतुहेतुमतो: ७।२। लिङ११॥ स०–हेतुश्च हेतुमत् च, हेतुहेतुमती तयोः, इतरेतरयोगद्वन्दः ॥ अनु०-विभाषा, धातो:, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थः-हेतु:– कारणम्, हेतुमत् = फलम् । हेतुभूते हेतुमति चार्थे वर्तमानाद् धातोविभषा लिङ प्रत्ययो भवति ॥ उदा०-दक्षिणेन चेद यायात, न शकटं पर्याभवेत । यदि कमल कमाह्वयेत् न शकटं पर्याभवेत् । पक्षे लुडपि-दक्षिणेन चेद् यास्यति, न शकटं पर्याभविष्यति ॥ भाषार्थ:-[हेतुहेतुमतो:] हेतु और हेतुमत् अर्थ में वर्तमान धातु से [लिङ्] लिङ् प्रत्यय विकल्प से होता है । ‘भविष्यदधिकारे’ इस महाभाष्य के वात्तिक से लिङ प्रत्यय (इस सूत्र से हेतु हेतुमत् में विहित) भविष्यत काल में ही होता है, अतः पक्ष में लुट् सामान्य भविष्यत् का ही उदाहरण दिया है । उदा०-दक्षिणेन चेद यायात, न शकटं पर्याभवेत् (यदि दक्षिण के रास्ते से जाये, तो छकड़ा न टूटे) । यदि कमलकमाह्वयेत् न शकटं पर्याभवेत् (यदि कमलक को बुला ले,) तो छकड़ा न टूटे) । पक्ष में लूट का उदाहरण संस्कृतानुसार जानें ॥ उदाहरण में दक्षिण से जाना एवं कमलक को बुलाना हेतु है, तथा छकड़े का टूटना हेतुमत है ॥ सिद्धि याँ पूर्ववत हैं। का शाशी इच्छाथषु लिङ्लोटो ॥३।३।१५७॥ोगा IP इच्छार्थेषु ७॥३॥ लिङ्लोटौ १२॥ स०–इच्छा अर्थों येषां ते, इच्छार्थास्तेष, | बहुव्रीहिः । लिङ् च लोट् च लिङ्लोटो, इतरेतरयोगद्वन्द्वः ॥ अनु०-धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः-इच्छार्थेषु धातुषूपपदेषु धातोलिङ लोटौ प्रत्ययौ भवत: ॥ उदा० - इच्छामि भुजीत भवान् । इच्छामि भुङ क्तां भवान् । कामये भुञ्जीत भवान् । कामये भुङ क्तां भवान् ॥ भाषार्थ:-[इच्छार्थेषु ] इच्छार्थक धातुओं के उपपद रहते [लिङ्लोटो] लिङ तथा लोट प्रत्यय होते हैं ॥ उदा०- इच्छामि भुजीत भवान् (मैं चाहता हूं अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [तृतीयः कि आप भोजन करें) । इच्छामि भुक्तां भवान, कामये भुञ्जीत भवान्, कामये भुङ क्तां भवान् ॥ भुजीत को सिद्धि ३।३।१४५ सूत्र पर देखें ॥ लोट लकार में पूर्ववत् सब कार्य होकर ‘भुन् न त’ रहा। टित प्रात्मने० (३४७६) से टि का एत्व होकर ‘भन्ज ते’ बना पुन: आमेत: ( ३।४।१०) से ए को पाम्, चो: कु: से कुत्वादि पूर्ववत् होकर भुङ क्ताम् बन गया ।। यहाँ से ‘इच्छार्थेषु’ की अनुवृत्ति ३।३।१५६ तक जायेगी ॥ सदा समानकत्तू केषु तुमुन् ।।३।३।१५८॥ समानकर्तृ केषु ७।३।। तुमुन् १११॥ स०-समान: कर्ता येषां, ते समानकत्तुं. कास्तेषु, बहुव्रीहिः ॥ अनु० - इच्छार्थेषु, धातो:, प्रत्यय:, परश्च ॥ अर्थ:-समान कर्तु केष्विच्छार्थेष धातुषूपपदेषु धातोस्तुमुन् प्रत्ययो भवति ॥ उदा.—देवदत्त इच्छति भोक्तुम् । कामयते भोक्तुम् । वाञ्छति भोक्तुम् । वष्टि भोक्तुम् ॥ भाषार्थः- [ समानकत्तु केषु ] समान है कर्ता जिनका ऐसी इच्छार्थक धातुओं के उपपद रहते धातु से [तुमुन् ] तुमुन् प्रत्यय होता है ॥ उदा०-देवदत्त इच्छति भोक्तुम् ( देवदत्त खाना चाहता है ) । कामयते भोक्तुम् (खाना चाहता है)। वाञ्छति भोक्तुम्, वष्टि भोक्तुम् ॥ उदाहरण में इच्छति, कामयते प्रादि इच्छार्थक धातुएं उपपद हैं, इच्छा करने का कर्ता तथा खाने का कर्ता भी वही एक देववत्त है, सो समानकर्तृक धातु उपपद है, अत : भुज् पातु से तुमुन् प्रत्यय हो गया हैं। चोः कुः (८।२।३०) से ज् को ग् होकर तथा खरि च ( ८।४५४ ) से क होकर भोक्तुम् बना है। कृन्मेजन्त: (१।१।३८) से अव्यय संज्ञा होने से अव्ययादाप्सुपः (३।४।८२) से ‘सु’ का लुक हो गया है ॥ JIO यहाँ से ‘समानकत्तू केष’ की अनुवृत्ति ३।३।१५६ तक जायेगी। लिङ च ॥३।३।१५६॥ लिङ ११॥ च अ० ॥ अनु०-समानकर्तृ केषु, इच्छार्थेष, धातो:, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थ:-समानकर्तृ केष्विच्छार्थेष धातुषूपपदेष घातोलिङ प्रत्ययो भवति ॥ उदा०-भुजीय इति इच्छति । अधीयीय इति अभिलषति ॥ स, भाषार्थ:–समालकर्तृक इच्छाक धातुओं के उपपद रहते पातु से [लिङ्] लिङ प्रत्यय [च] भी होता है । उदा०-भुजीय इति इच्छति (खाऊँ ऐसा चाहता है) ॥ भुजीय में ३।३।१४५ सूत्र के समान सब कार्य होकर उत्तम पुरुष का इट् पाकर इटोऽत (३।४।१०६) लगकर भुञ्ज ईय् प्रभुजीय बन गया । अभीयोय की सिद्धि ३।३।१३४ सूत्र पर देखें ॥ यहां से ‘लिङ्’ को अनुवृत्ति ३।३।१६० तक जायेगी। किाशी पाद: तृतीयोऽध्यायः ४८७ इच्छार्थेभ्यो विभाषा वर्तमाने ॥३।३।१६०॥ इच्छार्थेभ्य: ५।३॥ विभाषा ११॥ वर्तमाने ७॥१॥ स०-इच्छा अर्थो येषां ते इच्छार्थास्तेभ्यः बहुव्रीहिः ॥ अनु० -लिङ, धातो:, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थ: इच्छार्थेभ्यो धातुभ्यो वर्तमाने काले विभाषा लिङ् प्रत्ययो भवति ॥ वर्तमाने काले नित्यं लटि प्रापं. विकल्पेन लिङ् विधीयते, अत: पक्षे लड् भवति ॥ उदा०-इच्छेत्, कामयेत, वाञ्छेत् । पक्षे- इच्छति, कामयते, वाञ्छति ॥ भाषार्थः- [इच्छार्थेभ्यः] इच्छार्गक धातुओं से [वर्तमाने ] वर्तमान काल में [विभाषा] विकल्प से लिङ प्रत्यय होता है, पक्ष में वर्तमान काल का लट् प्रत्यय भी होता है ।। उदा०-इच्छेत् (चाहता है)॥ सिद्धि परि० ३।१।६८ के पठेत् के समान जाने । कामयते में इतना विशेष है कि, कमेणिङ ( ३।१।३०) से कम धातु से लिङ प्रत्यय तथा वृद्धि आदि होकर ‘कामि’ धातु बनी । पुनः सब कार्य पूर्ववत् हो होकर तथा गुण, अयादेशादि होकर ‘कामय इ त=कामयेत बना । कामयते में भी ऐसा समझे ॥ विधिनिमन्त्रणामन्त्रणाधीष्टसम्प्रश्नप्रार्थनेषु लिङ ॥३।३.१६१॥ लग विधि …. प्रार्थनेषु ७१३।। लिङ १।१॥ स०-विधिश्च निमन्त्रणञ्च प्राम न्त्रणञ्च अधीष्टश्च सम्प्रश्नश्च प्रार्थनञ्च, विधिनि प्रार्थनानि, तेष, इतरेतरयोग द्वन्द्वः॥ अन-धातो: प्रययः, परश्च ॥ अर्थ:-विधि:= प्राज्ञाप्रदानं, प्रेरणम् । निमन्त्रणम् =निय तरूपेण अाह्वानं, नियोगकरणम् । आमन्त्रणं =कामचारेण आह्वानम् आगच्छेत् वा न वा । अधीष्ट:=सत्कारपूर्वकमा ह्वानम । सम्यक प्रश्नः, सम्प्रश्नः । प्रार्थनं =याच्या। विध्यादिष्वर्थषु धातोलिङ प्रत्ययो भवति ॥ उदा- विधौ प्रोदनं पचेत, प्रामं गच्छेत् । निमन्त्रणे-इहाद्य भवान भुञ्जीत । इह भवान् आसीत । आमन्त्रणे-इह भवान् भुजीत, इह भवान आसीत। अधीष्टे-माणवक मे भवान उपनयेत । सम्प्रश्ने-किन्न खलु भो न्यायमधीयीय । प्रार्थने-भवति मे प्रार्थना व्याकरणमधीयीय ॥ भाषार्थः-[विधि …. नेष] विधि=प्राज्ञा देना । निमन्त्रण=नियत रूप से बुलाना । अामन्त्रण कामचार से बलाना, पावे या न आवे । अधीष्ट सत्कार पूर्वक व्यवहार करना । सम्प्रश्न =अच्छी प्रकार पूछ कर बात कहना, जैसे कि “प्राप ऐसा करेंगे न” ? प्रार्थना=प्रार्थना करके कुछ कहना, इन प्रों में धातु से [ लिङ् ] लिङ् प्रत्यय होता है । उदा०-विधि में –प्रोदनं पचेत् (वह चावल पकाये) । ग्राम गच्छेत् (गांव को जाये)। निमन्त्रण में-इहाद्य भवान् भुजीत (माज आप यहां भोजन करें) । इह भवान् आसीत (प्राप यहां बैठे) । आमन्त्रण ४८८ अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [तृतीयः में-इह भवान् भुञ्जीत, इह भवान् प्रासीत । अधीष्ट में -माणवकं मे भदान् उपनयेत (मेरे बालक का उपनयन पाप करायें) । सम्प्रश्न में किन्नु खलु भो न्यायमघीयीय (क्या मैं न्याय शास्त्र पढ़) । प्रार्थना में-भवति मे प्रार्थना व्याकरण मधीयीय ( मेरी यह प्रार्थना है, कि मैं व्याकरण पढ़ ) ॥ सिद्धियां कई वार पूर्व कर आये हैं, उसी प्रकार यहां भी जानें ॥ Pi TIPSPIRSPSSFI - यहाँ से विधिनिमन्त्रणामन्त्रणाधीष्टसम्प्रश्नप्रार्थनेषु’ की अनुवृत्ति ३।३।१६२ तक जायेगी। यह मोशन जल जल का लोट् च ॥३।३।१६२॥ी ) _लोट १॥१॥च अ०॥ अन० - विधि प्रार्थनेष, घातो:, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थः-विध्यादिष्वर्थेष धातोर्लोट् प्रत्ययः परश्च भवति ॥ उदा०-विधौ-वाराणसी __ गच्छतु भवान, भोजनं करोतु । निमन्त्रणे-प्रद्येह भुक्तां भवान् । आमन्त्रणे-इह भवान भुङक्ताम् । अधीष्टे-अधीच्छामि इह भवान मासं निवसतु । सम्प्रश्ने-कि भवान व्याकरणं पठतु ? प्रार्थने-न्यायं पाठयतु भवान , वेदं पाठयतु भवान् ॥ • भाषार्थ:-विधि प्रादि अर्थों में धातु से [लोट] लोट् प्रत्यय [च] भी होता है ॥ उदा०-विधि में-वाराणसी गच्छतु भवान् ( आप वाराणी जायें ) भोजनं भ.करोतु (आप भोजन करें)। निमन्त्रण में -अद्येह भुक्तां भवान् ( आज आप यहां खायें) । प्रामन्त्रण में-इह भवान् भक्ताम् (यहाँ आप खायें) । अधीष्ट में– हिअधीच्छामि इह भवान् मासं निवसतु (मेरी इच्छा है कि आप यहां महीने भर रहें)। सम्प्रश्न में-कि भवान् व्याकरणं पठतु ( क्या आप व्याकरण पढेंगे? ) । प्रार्थना में-न्यायं पाठयतु भवान् ( आप न्याय पढ़ायें यह प्रार्थना है) । वेदं पाठयतु भवान् ।। भुक्ताम् की सिद्धि ३।३।१५७ सूत्र पर देखें । गच्छतु में गम् शप ति, पूर्ववत् होकर इषगमि० ( ७।३।७७ ) से ठत्व, तथा छे च (६।१७१ ) से तुक मागम होकर.‘ग तुक छ अति’ रहा । श्चुत्व होकर गच्छ प्रति, एरुः (३।४।८६) से इ को उ होकर गच्छतु बन गया। इसी प्रकार एरुः लगकर करोतु प्रादि समझे। पाठयतु में पठ् णिजन्त से लोट् पायेगा यही विशेष है ॥ यहाँ से ‘लोट’ की अनुवृत्ति ३।३।१६३ तक जायेगी। की प्रैषातिसर्गप्राप्तकालेषु कृत्याश्च ॥३।३।१६३॥ प्रेषा…लेषु ७।३॥ कृत्याः १२शाच अ०॥ स०–प्राप्तः काल: प्राप्तकालः, कर्मधारयस्तत्पुरुषः । प्रेषश्च, अतिसर्गश्च, प्राप्तकालश्च, प्रेषा काला: तेष इतरे तरयोगद्वन्द्वः ॥ मनु०-लोट, धातो:, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थः -प्रेष, अतिसर्ग, “प्राब्तकाल इत्येतेष्वर्थेषु धातोः कृत्यसंज्ञकाः प्रत्यया भवन्ति, चकारात लोट च ३ पाद:] तृतीयोऽध्यायः ४८६ भवति ।। उदा०-भवता कटः करणीयः । कटः कर्त्तव्यः, कृत्यः, कार्यो वा। लोट प्रषितो भवान गच्छतु ग्रामम् । भवानतिसृष्ट: गच्छतु ग्रामम् । भवतः प्राप्तकाल: ग्रामं गच्छतु || पद भाषार्थ:–[षातिसर्गप्राप्तकालेष] प्रेष =प्रेरणा करना, अतिसर्ग =काम चारपूर्वक प्राज्ञा देना, प्राप्तकाल =समय आ जाना, इन प्रर्यों में पातु से [कृत्या!] कृत्यसंज्ञक प्रत्यय होते हैं, तथा [च] चकार से लोट भी होता है ॥ कृत्याः (३॥१॥ ६५) से तव्य अनीयर् प्रादि प्रत्ययों की कृत्य संज्ञा होती हैं ।। उदा.–भवता कटा करणीयः (पापको चटाई बनानी चाहिये; या आप चटाई बनावें; अथवा आपका चटाई बनाने का समय आ गया है, पाप करें) । कटः कर्तव्यः, कृत्यः, कार्यों वा ।। लोट-प्रेषितो भवान गच्छतु ग्रामम् (हमारी प्रेरणा है कि आप ग्राम को जायें)। भवानतिसृष्टः गच्छतु ग्रामम् (आप गांव को जावे ) । भवतः प्राप्तकालः ग्राम गच्छतु (आपका समय आ गया है, पाप गाव को जावें)॥ कार्य में ऋहलोयॆत् (३। १।१२४) से ण्यत्, तथा कृत्यः में विभाषा कृवृषो। (३।१।१२० ) से क्या हुआ है। तुक् प्रागम ह्रस्वस्य पिति० (६।१।६६) से हो ही जायेगा। यहाँ से ‘प्रैषातिसर्गप्राप्तकालेष’ को अनुवृत्ति ३।३।१६५ तक जायेगी । सीमा लिङ चोर्ध्वमोहत्तिके ॥३।३।१६४॥ीमा शिवम लिङ् १।१॥ च प्र० ॥ ऊर्ध्व मौहूत्तिके ७१॥ स०-मुहूर्ताद ऊर्ध्वम् ऊध्र्व मुहूर्तम्, पञ्चमीतत्पुरुषः ॥ ऊध्वंमुहूर्ते भवम् ऊर्ध्वमौहूत्तिक, तस्मिन, ऊर्ध्वमौहूत्तिके॥ अनु०–प्रैषातिसर्गप्राप्तकालेष, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थ:–प्रेषादिष्वर्भेष गम्यमानेष ऊर्ध्वमौहूत्तिके काले वर्तमानाद् धातोलिङ प्रत्ययो भवति, चकाराद्यथा प्राप्तं कृत्यप्रत्ययाः लोट च भवन्ति ॥ उदा०-मुहूर्तस्य पश्चाद् भवान् ग्राम गच्छेत् । मुहूर्तस्य पश्चाद् भवता खलु कटः करणीयः, कर्तव्यः, कार्यः, कृत्यो वा। मुहूर्तस्य पश्चाद् भवान खलु करोतु कटम् ॥ THE भाषार्थ:-प्रेष अतिसर्ग तथा प्राप्तकाल अर्थ गम्यमान हों, तो (ऊर्ध्वमोहूत्तिके) मुहूर्तभर से ऊपर के काल को कहने में धातु से [लिङ] लिङ् प्रत्यय होता है, तथा[च] चकार से यथाप्राप्त कृत्यसंज्ञक एवं लोट् प्रत्यय होते हैं । उदा०-मुहूर्तस्य पश्चाद् भवान प्रामं गच्छेत् (मुहूर्त भर के पश्चात् पाप ग्राम को जावें)। महूर्तस्य पश्चाद् भवता खलु कटः करणीयः ( मुहूर्तभर के पश्चात् अाप चटाई बनावें ) । ४६० अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [तृतीय: शेष उदाहरण संस्कृतान सार जान । एक ही उदाहरण में प्रेष अतिसर्ग प्राप्तकाल कोई भी अर्थ विवक्षा से लगाया जा सकता है। हमने एक ही अर्थ दिखा दिया है ।। रा यहाँ से ‘ऊर्ध्वमौहूत्तिके’ की अनुवृत्ति ३।३।१६५ तक जायेगी ।। सिल्वरसिक स्मे लोट् ॥३।३।१६५॥ [73 स्मे ७१॥ लोट १।१।। अनु०-ऊर्ध्वमोहूत्तिके, प्रेषातिसर्गप्राप्तकालेषु, धातो:, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः–स्मशब्द उपपदे प्रषादिष्वर्थेष गम्यमानेषु ऊर्ध्वमौहूत्तिके काले वर्तमानाद् धातोर्लोट् प्रत्ययो भवति ॥ उदा०-ऊवं मुहूर्ताद भवान् कटं करोतु स्म, ग्रामं गच्छतु स्म P भाषार्थ:-प्रेषादि अर्थ गम्यमान हों, तो मुहूर्तभर से ऊपर के काल के कहने में [स्मे] स्म शब्द उपपद रहते धातु से [लोट् ] लोट् प्रत्यय होता है। उदा०-ऊवं महूर्ताद् भवान कटं करोतु स्म (महूर्तभर के पश्चात् पाप चटाई बनावे), ग्रामं गच्छतु स्म (गांव जावें)। यहाँ से ‘स्मे लोट’ को अनुवृत्ति ३।३।१६६ तक जायेगी । अधीष्टे च ॥३।३।१६६।। अधीष्टे ७।१।। च अ० ।। अनु०-स्मे लोट, धातोः, प्रत्यय:, परश्च ॥ अर्थ: अधीष्टे गम्यमाने स्मशब्द उपपदे धातोर्लोट प्रत्ययो भवति ॥ उदा०-अधीच्छामि भवान् माणवकम् अध्यापयतु । अङ्ग स्म राजन अग्निहोत्रं जुहुधि । भाषार्थ:- [अधीष्टे ] अधीष्ट सत्कार गम्यमान हो, तो [च] भी स्म शब्द उपपद रहते धातु से लोट प्रत्यय होता है ।। उदा०-अधीच्छामि भवान् माणवकम् प्रध्यापयतु (मैं सत्कारपूर्वक इच्छा करता हूं कि आप बालक को पढ़ा)। अङ्ग स्म राजन् अग्निहोत्रं जुहुधि (हे राजन् ! आप अग्निहोत्र का अनुष्ठान करें)॥ कालसमयवेलासु तुमुन् ।।३।३।१६७॥ कालसमय वेलासु ७१३॥ तुमुन ११॥ स०- कालश्च समयश्च वेला च काल वेला:, तासु, इतरेतरयोगद्वन्द्वः॥ अनु०-धातोः, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थः काल समय वेला इत्येतेषपपदेष धातोस्तुमुन प्रत्ययो भवति ॥ उदा०-कालो भोक्तुम् । समयो भोक्तुम् । वेला भोक्तुम् ।। भाषार्थः- [कालसमयवेलासु] काल, समय, वेला ये शब्द उपपद रहते धातु से [तुमुन् ] तुमुन् प्रत्यय होता है ॥ उदा.-कालो भोक्तुम् (खाने का समय हो गया है) । समयो भोक्तुम् । वेला भोक्तुम् ॥ प्रान्त यहाँ से ‘कालसमयवेलासु’ को अनुवृत्ति ३।३।१६८ तक जायेगी। है पादः] ति तृतीयोऽध्यायः । ४६१ वाशिम सविल निकातिमिलिङ यदि ॥३।३।१६८॥ हिमालय लिङ् १११॥ यदि ७।१॥ अनु०-कालसमयवेलासु, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थ:-कालादिषूपपदेष यच्छब्दे चोपपदे धातोलिङ् प्रत्ययो भवति ॥ उदा.- कालो यद् भुञ्जीत भवान् । समयो यद् भुञ्जीत भवान्। वेला यद् भुजीत भवान् ॥ भाषार्थ:-काल, समय, वेला शब्द, और [यदि] यत् शब्द भी उपपद हो, तो धातु से [लिङ] लिङ प्रत्यय होता है ॥ उदा०–कालो यद् भुजीत भवान् (समय है कि प्राप भोजन करें)। समयो यद् भुजीत भवान् । वेला यद् भुजीत भवान् ।। यहां से ‘लिङ’ की अनुवृत्ति ३।३।१६६ तक जायेगी || RAINERAL अहं कृत्यतृचश्च ।।३।३।१६६॥ _७१।। कृत्यतृच: १।३॥ च अ० ॥ स०-कृत्याश्च तृच च कृत्यतृच:, इतरेतरयोगद्वन्द्वः । अनु०-लिङ, धातोः, प्रत्ययः, परश्च । अर्थ:-अh = योग्ये कर्तरि वाच्ये गम्यमाने वा धातो: कृत्यतृचः प्रत्यया भवन्ति, चकाराद् लिङ च ॥ उदा०-भवता खलु पठितव्या विद्या, पाठया, पठनीया वा। तच–पठिता विद्याया भवान् । भवान विद्यां पठेत् ॥ भाषार्थ:–[अर्ह ] अर्ह = योग्य कर्ता वाच्य हो या गम्यमान हो, तो धातु से [कृत्यतृचः] कृत्यसंज्ञक तथा तच प्रत्यय हो जाते हैं, तथा [च] चकार से लिङ् भी होता है । उदा०- कृत्य-भवता खलु पठितव्या विद्या (ग्राप विद्या पढ़ने के योग्य हैं) । तृच्-पठिता विद्याया भवान् ( आप विद्या पढ़ने के योग्य हैं)। भवान् विद्या पठेत् ॥ पठिता की सिद्धि परि० १।१।२ के ‘चेता’ के समान जानें। शेष सिद्धियां पूर्वसूत्रों के अनुसार हैं ।। बामा प्रावश्यकाधमयॆयोणिनिः ॥३।३।१७०॥ माहय अावश्यकाधमर्ण्ययो: ७।२॥ णिनिः ११॥ स.-प्रावश्यकञ्च प्राधमर्ण्यञ्च आवश्यकाधमये, तयोः, इतरेतरयोगद्वन्द्वः ।। अनु०-धातो:, प्रत्ययः, परश्च ।। पर अवश्यं भाव आवश्यकम, द्वन्द्वमनोज्ञादिम्यच (५।१।१३२) इति वञ् ॥ अर्थः-अवश्यं भावविशिष्टे प्राधमर्ण्य विशिष्टे च कर्तरि वाच्ये धातोणिनि: प्रत्ययो भवति । उदा०-धर्मोपदेशी, प्रात:स्नायी, अवश्यङ्कारी। प्राधमण्ये-शतं दायी, सहस्र दायी, निष्कं दायी ॥ DJEnglisकिसीins या भाषार्थ:-[आवश्यकाधमर्ण्ययोः] अावश्यक और आधमर्ण्य =ऋण विशिष्ट कर्ता वाच्य हो, तो धातु से [णिनिः] णिनि प्रत्यय होता है ।। उदा०-धर्मोपदेशी (अवश्य ही धर्म का उपदेश करनेवाला), प्रातःस्नायो(नित्य प्रातः स्नान करनेवाला), ४६२ अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [तृतीयः अवश्यङ्कारी (अवश्य करनेवाला)। प्राधमर्ण्य में–शतं दायो (सौ रुपये का ऋणी), सहस्र दायी, निष्कं दायी (एक प्रकार के सिक्के का ऋणी) ॥ शिर उदाहरण में णिनि प्रत्यय होकर सौ च (६।४।१३) से दीर्घ, हलङ्याब्भ्यो. (६।११६६) से सु का लोप, तथा नलोप: प्रा०(८।२७)से नकार लोप हो जायेगा। बायो में प्रातो युक् चिण्कृतोः (७३।३३) से युक् प्रागम भी होता है। सहस्र तं आदि में कर्तृकर्मणोः कृति ( २।३१६५) से कर्म में षष्ठी प्राप्त थी। उसका अकेनोभ० (२।३७०) से निषेध हो गया, तो कर्म में द्वितीया यथाप्राप्त हो गई है। षष्ठी विभक्ति न होने से षष्ठीसमास भी नहीं हुआ। यहाँ से ‘पावश्यकाघमर्ययो:’ की अनुवृत्ति ३।३।१७१ तक जायेगी । कृत्याश्च ॥३।३।१७१॥ कृत्याः ११३॥ च अ० ॥ अनु०-आवश्यकाधमर्ण्ययो:: धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थ:–आवश्यकाधमर्ण्य विशिष्टेऽर्थे धातो: कृत्यसंज्ञका: प्रत्यया अपि भवन्ति ॥ उदा०-भवता खल अवश्यं कट: कर्तव्यः, करणीयः, कार्यः, कृत्यः । प्राधमये-भवता शतं दातव्यम, सहस्र देयम् ॥ भाषार्थ:-प्रावश्यक और प्राधमये विशिष्ट अर्थ हों, तो धातु से [कृत्या:] कृत्यसंज्ञक प्रत्यय [च] भी हो जाते हैं । उदा.-भवता खलु अवश्यं कटः कर्तव्यः (पापको अवश्य चटाई बनानी चाहिये) । प्राधमये में-भवता शतं दातव्यम् (प्राप को सौ रुपये देने हैं)॥ यहाँ से ‘कृत्या:’ को अनुवृत्ति ३।३।१७२ तक जायेगी । काम का शकि लिङ च ॥३।३।१७२॥ राजी नही शकि ७१। लिङ ११॥ च अ०॥ अनु०-कृत्याः, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः-शक्यार्थविशिष्टे धात्वर्थे धातोलिङ् प्रत्ययो भवति, चकारात् कृत्याश्च ।। उदा.- भवान शत्रु जयेत् । भवता शत्रुर्जेतव्यः ॥ भाषार्थ:-[शकि] शक्यार्थ गम्यमान हो, तो धातु से [लिङ्] लिङ् प्रत्यय होता है, तथा [च] चकार से कृत्यसंज्ञक प्रत्यय भी होते हैं ॥ उदा०-भवान् शत्रु जयेत् (आप शत्रु को जीत सकते हैं) । भवता शत्रुर्जेतव्यः (आपके द्वारा शत्रु जोता जा सकता है) आशिषि लिङ्लोटौ ॥३।३।१७३॥ को आशिषि ७।१॥ लिङ्लोटौ १२॥ स-लिङ० इत्यत्रेतरेतरयोगद्वन्द्वः ।। अनु०-धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थ:-पाशीविशिष्टेऽर्थे वर्तमानाद् धातो लिङ्लोटौ प्रत्ययो भवतः ।। उदो०-चिरं जीव्याद् भवान् । चिरं जीवतु भवान् । पाद:] तृतीयोऽध्यायःगमा ४६३ 1 भाषार्थ:-[आशिषि] आशीर्वादविशिष्ट अर्थ में वर्तमान धातु से [लिङ - लोटौ] लिङ तथा लोट् प्रत्यय होते हैं । उदा०-चिरं जीव्याद् भवान् ( प्राप दीर्घ काल तक जीवें) । चिरं जीवतु भवान् ।। जीव् यासुट सुट तिप् = जीव यास स्त रहा। स्कोः संयोगाद्योरन्ते च (८।२।२६) से यास के स् का लोप हुआ। पुनः इसी सूत्र से सुट् के. स का लोप होकर जीव्यात् बन गया ।। जीवतु की सिद्धि सूत्र (३।३।१६२) के समान ही जाने ॥ नाम REE पि यहाँ से ‘माशिषि’ को अनुवृत्ति ३।३।१७४ तक जायेगी ॥ PREM मिति क्तिचक्तौ च संज्ञायाम् ||३।३।१७४॥ हल क्तिचक्तौ १।२।। च अ० ॥ संज्ञायाम ७२॥ स.-क्तिच० इत्यत्रेतरेतरयोग द्वन्द्वः ।। अनु०-आशिषि, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थ:- आशिषि विषये धातोः क्तिचक्ती प्रत्ययो भवतः, समुदायेन चेत् संज्ञा गम्यते ॥ उदा०-तनुतात् (लोट) = तन्ति:, सनुतात् =साति:, भवतात =भूतिः । क्त-देवा एनं देयासुः (लिङ्) = देवदत्तः ॥ । भाषार्थ:–पाशीर्वाद विषय में धातु से [क्तिच्क्तौ] क्तिच् और क्त प्रत्यय [च] भी होते हैं, यदि समुदाय से [संज्ञायाम् ] संज्ञा प्रतीत हो ॥ हिप माडि लुङ् ॥३॥३॥१७॥ माङि ७।१।। लुङ ११॥ अनु०-धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ मण्डूकप्लुतगत्या ‘लिङ्लोटौ’ इत्यप्यनुवर्तते ॥ अर्थः-माङ्युपपदे धातोर्लुङ् लिङ लोट् च प्रत्यया भवन्ति ।। उदा०-मा कार्षीत् । मा हार्षीत् । लिङ –मा वदे: (विदुर० ३।२५) । लोट-मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि (गी० अ० २। श्लोक ४७)॥ भाषार्थ:-[ माङि ] माङ् शब्द उपपद हो, तो धातु से [ लुङ ] लुङ् लिङ् लोट प्रत्यय भी होते हैं । उदा०–मा कार्षीत् (मत करे) । मा हार्षीत् । लिङ मा वदेः (मत बोले )। लोट् -मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि (तेरा प्रकर्म में सङ्ग न हो)। न माझ्योगे (६४७४) से कार्षीत हार्षीत में अट का मागम नहीं हुमा है। शेष सिद्धि परि० १११११ में देखें । वदेः की सिद्धि यासुट् प्रादि होकर पूर्ववत् ही जानें । अस्तु की सिद्धि प्रस् शप् तिप् होकर एरु: (३।४१८६), तथा अदिप्रभृतिभ्यः शप: (२१४१७२) लगकर जाने । यहां से ‘माङि लुङ’ की अनुवृत्ति ३।३।१७६ तक जायेगी। IBERS स्मोत्तरे लङ् च ॥३३॥१७६॥ TRE स्मोत्तरे ७।१॥ लङ ११॥ च अ०॥ स०– स्मशब्द उत्तरम् (=अधिकं ) ४६४ अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [तृतीयः यस्य स स्मोत्तरः, तस्मिन् , बहुव्रीहिः । अनु०-माङि लुङ, धातो:, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः-स्मशब्दोत्तरे माङय पपदे धातोर्लङ प्रत्ययो भवति, चकाराल्लुङ च ।। उदा०-मा स्म करोत्। मा स्म कार्षीत् । मा स्म हरत्। मा स्म हार्षीत् ॥ जित का भाषार्थ:-[ स्मोत्तरे ] स्म शब्द उत्तर =अधिक है जिस से, उस माङ शब्द के उपपद रहते धातु से [ लङ ]लङ , तथा [च] चकार से लुङ, प्रत्यय होते हैं । उदा०-मा स्म करोत् (वह न करे) । मा स्म कार्षीत् । मा स्म हरत् ( वह मत ले जावे) । मा स्म हार्षीत् ।। सिद्धियों में अट् प्रागम का प्रभाव भी पूर्ववत ही जानें । उत्तर शब्द यहाँ ‘अधिक’ अर्थ का वाचक है। अतः माङ से पूर्व स्म का प्रयोग होने पर भी यह विधि होती है ।। Ja = (लि) ping-a|| इति तृतीयः पादः ॥ पर किकी कृत्यसंशक प्रत्यय व सेवा चतुर्थः पादः (म राह धातसम्बन्धे प्रत्ययाः ४ामाला धातुसम्बन्धे ७।१॥ प्रत्ययाः १॥३॥ धातुशब्देनात्र घात्वर्थो लक्ष्यते ॥ स०– धात्वो: ( =धात्वर्थयोः ) सम्बन्धो घातुसम्बन्ध:, तस्मिन्, षष्ठीतत्पुरुषः ।। अर्थः धात्वर्थ सम्बन्धे सति अयथाकालोक्ता: अपि प्रत्ययाः साघवो भवन्ति ॥ उदा. अग्निष्टोमयाजी अस्य पुत्रो जनिता । कृतः कट: श्वो भविता ॥ मा भाषार्थ:-[घातुसम्बन्धे] दो धातुओं के अर्थ का सम्बन्ध होने पर भिन्न काल में विहित [प्रत्ययाः] प्रत्यय भी कालान्तर में साधु होते हैं ।। धातु शब्द से यहाँ धात्वर्थ का ग्रहण किया गया है ।। वाक्य में साध्य होने के कारण क्रिया को प्रधानता होती है, और कारकों को गौणता होती है। अत: क्रिया को कहनेवाले तिङन्त को प्रधानता, और सुबन्तों को गौणता होती है । इस प्रकार तिडन्त विशेष्य तथा सुबन्त विशेषण बन जाते हैं। और सुबन्त में पाये हुए प्रत्यय अयथाकाल होने पर भी तिङन्त के काल में साधु माने जाते हैं । उदाहरण ‘अग्निष्टोमयाजी’ में यज धातु से भूतकाल में करणे यजः (३।२।८५) से ‘णिनि’ प्रत्यय हुआ है (वहाँ ‘भूते’ ३।२।८४ को अनुवृत्ति है) । जनिता में जन पातु से अनद्यतन भविष्यत् काल में लुट् असमयोचिरं जीवान अयान । विर बीय पक्षा पाद:] तृतीयोऽध्यायः गया ४६५ (३।३।१५) प्रत्यय हुआ है । सो णिनि तथा लुट भिन्नकालोक्त प्रत्यय हैं, जो कि इस सूत्र से साधु माने गये हैं। अग्निष्टोमयाजी तथा जनिता का विशेषण विशेष्यभाव से यहाँ धात्वर्थ सम्बन्ध है । सो भूतकालोक्त णिनिप्रत्ययान्त अग्निष्टोमयाजी(विशेषण होने से ) अपने भूतकाल को छोड़कर ‘जनिता’ के भविष्यत्काल को ही कहने लगा। अतः अर्थ हुा-“अग्निष्टोम यज्ञ करेगा, ऐसा पुत्र उसका होगा।” इसी प्रकार कृतः में क्त भूतकाल (३१२.८४) में, तथा भविता में लुट भविष्यत् काल में है । विशेषण विशेष्यभाव से दोनों का पात्वर्ण सम्बन्ध है । अतः भिन्नकालोक्त क्त और लुट भी साप माने गये । कृतः अपना भूतकाल छोड़कर भविता के भविष्यत काल को ही कहने लगा। सो अर्थ हुना-“चटाई बनी यह बात कल होगी” ॥ । यहाँ से ‘धातुसम्बन्धे’ को अनुवृत्ति ३।४।६ तक जायेगी ।। क्रियासमभिहारे लोट् लोटो हिस्वौ वा च तध्वमोः ॥३।४।२॥ क्रियासमभिहारे ७।१।। लोट १।१।। लोटः ६१॥ हिस्वी १।२॥ वा अ० ॥ च अ० ॥ तध्वमोः ६॥२॥ समभिहरणं समभिहारः, भावे (३।३।१८) इत्यनेन घत्र ।। स-क्रियाया: समभिहार: क्रियासमभिहारः, तस्मिन्, षष्ठीतत्पुरुषः । हि च स्व च हिस्वी, इतरेतरयोगद्वन्द्वः । त च ध्वम च तध्वमौ, तयोः, इतरेतरयोगद्वन्द्वः ॥ अनु० धातुसम्बन्धे, धातो:, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः-क्रियासमभिहारे गम्यमाने धात्वर्थसम्बन्धे सर्वस्मिन् काले धातोर्लोट प्रत्ययो भवति, तस्य च लोट: स्थाने हिस्वौ प्रादेशी भवतः। तध्वम्भाविनस्तु लोटः स्थाने वा हिस्वावादेशौ भवतः, पक्षे तध्वमावेव तिष्ठतः ।। उदा०-स भवान् लुनीहि लुनीहि इत्येवायं लुनाति । तौ भवन्तौ लुनीहि लुनीहि इतीमौ लुनीतः । ते भवन्तो लुनीहि लुनीहि इतीमे लुनन्ति । त्वं लुनीहि लुनीहि इति लुनासि । युवां लुनीहि लुनीहि इति युवां लुनीथः। यूयं लुनीहि लनीहि इति यूयं लुनीथ ॥ तध्वविषये-लोट् मध्यमबहुवचन विषये हिस्वौ वा भवतः । अत: पक्षे-‘यूयं लनीत लुनीत इति यूयं लनीथ’ इत्यवतिष्ठते । अहं लुनीहि लनीहि इत्येवाहं लुनामि । प्रावां लुनीहि लुनीहि इति लुनीव:। वयं लुनीहि लुनीहि इति लुनीम: ।। भूतविषये-स भवान् लुनीहि लुनीहि इति अलावीत् । तौ भवन्तौ लुनीहि लुनीहि इति अलाविष्टाम् । ते भवन्तो लुनीहि लनीहि इति अलाविषुः । त्वं लुनीहि लुनीहि इति अलावीः । युवां लनीहि लुनीहि इति अलाविष्टम् । यूयं लुनीहि लुनीहि इति अलाविष्ट । तध्वम् विषये हिस्वौ वा भवतः। अत: पक्षे ‘त’ अवतिष्ठते—यूयं लनीत लुनीत इति यूयम् अलाविष्ट । अहं लुनीहि लुनीहि इति अन्नाविषम् । आवां लुनीहि लुनीहि इति अला विष्व । वयं लनीहि लुनीहि इति अलाविष्म ।। भविष्यविषये- स भवान लनीहि लुनीहि इति लविष्यति । तो भवन्तौ लुनीहि लुनीहि इति लविध्यतः । ते भवन्तो ४६६ अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [चतुर्थः लुनीहि लुनीहि इति लविष्यन्ति । त्वं लुनीहि लुनीहि इति लविष्यसि । युवाम् लुनीहि लुनीहि इति लविष्यथः । यूयं लुनीहि लुनीहि इति लविष्यथ ॥ तध्वम् विषये पक्षे ‘त’ अवतिष्ठते-यूयं लुनीत लुनीत इति लविष्यथ । अहं लुनीहि लुनीहि इति लविष्यामि । आवां लुनीहि लुनीहि इति लविष्यावः । वयं लुनीहि लुनीहि इति लविष्यामः॥ स्वादेशविषये -स भवान् अधीष्व अधीष्व इत्येवायमधीते । तौ भवन्तौ अधीष्व अधीष्व इतीमावधीयाते । ते भवन्तोऽघीष्व अधीष्व इतीमे अधीयते। त्वमधीष्व अधीष्व इत्यधीषे । युवामधीष्व अधीष्व इत्यधीयाथे। यूयम अधोष्व अघीष्व इति अघीध्वे । तध्वम् विषये हिस्वौ विकल्प्येते, अतोऽत्र पक्षे ध्वम्-यूयमधीध्वमधीध्वमिति अधीध्वे । अहमधीष्व अधीष्व इत्यधीये । आवामधीष्व अधीष्व इत्यधीवहे। वयम धीष्वाऽधीष्व इत्यधीमहे । भूतविषये-स भवान् अधीष्व अधीष्व इत्यध्यगीष्ट । एवं सर्वत्र सर्वेषु पुरुषेषु वचनेषु चोदाहार्यम् । ध्वम विषये पक्षे -यूयमधीध्वमधीध्वमिति अध्यगीढवम् । भविष्यद्विषये-स भवान अधीष्व अधीष्व इति अध्येष्यते । एवं सर्वत्र सर्वेष पुरुषेषु वचनेषु चोदाहार्यम् । वमविषये पक्षे-यूयमधीध्वमधीध्वमिति अध्येष्यध्वे ।। PASEमीमा _भाषार्थ:- [क्रियासमभिहारे] क्रियासमभिहार =क्रिया का पौन:पुन्य गम्य मान हो, तो धातु से धात्वर्थ सम्बन्ध होने पर सब कालों में [लोट] प्रत्यय हो जाता है, और उस [लोट:] लोट् के स्थान में (सब पुरुषों तया वचनों में) [हिस्त्रौ] हि और स्व प्रादेश नित्य होते हैं, [च] तथा [तध्वमो: ] त ध्वम् भावी लोट के स्थान में [वा] विकल्प से हि स्व आदेश होते हैं, पक्ष में त ध्वम् ही रहते हैं ।। गि यहाँ परस्मैपदी घातुओं के लोट को ‘हि’ प्रादेश, तथा प्रात्मनेपदी धातुओं के लोट् को स्व प्रादेश होता है। सो कैसे ? यह व्याख्यान से द्वितीयावृत्ति प्रादि में पता लगेगा। मीकि तस्थ स्थमिमां तान्तन्ताम: (३।४।१०१) से थस को त परस्मैपद में होता है। उस ‘त’ का प्रकृत सूत्र में ग्रहण है । सो इस सूत्र से ‘त’ को परस्मैपद में विकल्प से हि प्रादेश होगा । पक्ष में ‘त’ का रूप भी रहेगा। ध्वम् प्रात्मनेपद का प्रत्यय है. सो प्रात्मनेपद में विकल्प से ‘स्व’ आदेश होकर पक्ष में ध्वम् का रूप भी रहेगा ।। क्रिया समभिहारता दिखाने के लिए यहाँ सर्वत्र द्वित्व करके ‘लुनीहि, लुनीहि’ ऐसा दिखाया है । लुनीहि लुनीहि या अधीष्व अधोष्व के पश्चात् ‘इत्येवायं लुनाति’ या इत्येवाय मधीते’ इत्यादि का अनुप्रयोग यह दर्शाने के लिये किया गया है कि लनीहि लुनीहि प्रादि किस काल किस पुरुष या किस वचन के प्रयोग हैं, तया धात्वर्ण का कैसे सम्बन्ध है ॥ उदा.-स भवान लुनीहि लुनीहि इत्येवायं लुनाति (बह आप बार चार काटते हैं)। इसी प्रकार सब पुरुषों एवं वचनों में संस्कृतभाग के अनुसार है पाद:] तृतीयोऽध्यायः ४६७ उदाहरण जानें ॥ भूतविषय में-स भवान लुनीहि लुनीहि इत्यलावीत् (उस आपने बार बार काटा)। इसी प्रकार सब पुरुषों एवं वचनों में पूर्ववत् जानें ॥ भविष्यविषय में-स भवान लुनीहि लुनीहि इति लविष्यति (वह प्राप बार बार काटेंगे)। इसी प्रकार औरों में जानें ॥ स्व आदेश विषय में- भवान् अधीष्व अधीष्व इत्येवायमधीते (वह पाप बार-बार पढ़ते हैं) । इसी प्रकार औरों में जान लें ॥ भूतविषय में-स भवान अधीष्व अधीष्व इत्यध्यगीष्ट (उस मापने बार बार पढ़ा) । इसी प्रकार पूर्ववत् औरों में जाने ॥ भविष्य विषय में - स भवान अधीष्व अधीष्व इत्यध्येष्यते (वह आप बार बार पढ़ेंगे) ॥ यह लोट प्रत्यय सब लकारों का अपवाद है । अतः सब लकारों के सब पुरुषों के सब वचनों में इनके उदाहरण समझने चाहिये । सम्पूर्ण उदाहरण दिखाना कठिन है । हि स्व आदेश होकर रूप तो एक ही जैसे बनेंगे, सो समझ लें ॥ सिद्धि में भी कुछ विशेष नहीं है । ‘लू लोट्’ लोट को हि आदेश होकर ‘लू हि’ रहा । शेष सिद्धि परि० १॥३॥१४ में देख लें। अधि इङ् स्व, प्रादेशप्रत्यययो: (८।३।५६) से षत्व, एवं सवर्ण दीर्घ होकर अधीष्व बन गया । यहाँ से ‘लोट् लोटो हिस्वौ वा च तध्वमोः’ को अनुवृत्ति ३।४।३ तक जायेगी। समुच्चयेऽन्यतरस्याम् ।।३।४॥३॥ समुच्चये ७।१।। अन्यतरस्याम् प० । अनु०-लोट लोटो हिस्वो वा च तध्वमोः, धातुसम्बन्धे, धातोः, प्रत्यय:, परश्च ।। अर्थ:-समुच्चीयमानक्रियावचनाद् धातोः धातुसम्बन्धे लोट प्रत्ययो विकल्पेन भवति, तस्य च लोट: स्थाने हिस्वावा देशौ भवतः, तध्वंभाविनस्तु वा हिस्वी भवतः ।। उदा.-भ्राष्ट्रमट, मठमट, खदूरमट, स्थाल्यपिधानमट इत्येवायमटति । एवं सर्वेषु पुरुषेषु वचनेषु चोदाहार्यम् । तभाविनस्तु मध्यमपुरुषबहुवचनपक्षे-भ्राष्ट्रमटत, मठमटत, खदूरमटत, स्थाल्यपिधानमटत इत्येवं यूयमटथ । अभ्यतरस्यां ग्रहणेन पक्षे सर्वे लकाराः स्वस्वविषये भवन्ति । तद्यथा-भ्राष्ट्र मटति, मठमटति, खदूरमटति, स्थाल्यपिधानमटति इत्येवायमटति । भविष्यविषये भ्राष्ट्रमट,मठमट,खदूरमट, स्थाल्यपिधानमट इत्येवायम टिष्यति । पक्षे-भ्राष्ट्रमटिष्यति, मठमटिष्यति इत्यादयः प्रयोगा ज्ञेयाः । एवं भूतविषयेऽपि बोद्धव्यम् ॥ प्रक स्वादेशविषये-छन्दोऽधीष्व, व्याकरणमधीष्व, निरुक्तमधीष्व इत्येवायमधीते । ४६८ अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [चतुर्थः एवं सर्वेषु लकारेषु सर्वेषु पुरुषेषु सर्वेषु च वचनेषूदाहार्यम् । अन्यतरस्यां ग्रहणेन पक्षे सर्वे लकारा भवन्ति । तेन छन्दोऽधीते, व्याकरणमधीते, निरुक्तमधीते इत्येवायमधीते इत्यादयोऽपि बोद्धव्याः॥ ध्वमविषयेऽपि पक्षे-छन्दोऽधीध्वम्, व्याकरणमधीध्वम, नि रुक्तमधीध्वम् इत्येवं यूयमधीध्वे इत्यादयः सर्वेष लकारेष ज्ञेयाः । एवं वेदानधीष्व, गुरु सेवस्व, मृदु वद, प्रात: स्नाहि इत्येवायं करोति, करिष्यति, अकार्षीद् वा इत्यादिकमपि ज्ञेयम ॥ भाषार्थ:–[समुच्चये] समुच्चीयमान क्रियाओं को कहनेवाली धातु से लोट प्रत्यय [अन्यतरस्याम्] विकल्प से होता है, और उस लोट् के स्थान में हि और स्व प्रादेश होते हैं, पर त ध्वम् भावी लोट को विकल्प से हि स्व प्रादेश होते हैं । पक्ष में त’ ध्वम् को ही श्रुति होती हैं । की जहाँ अनेक क्रियाओं को कहा जाये कि यह भी कर, वह भी कर, वह क्रियाओं का समच्चय होता है । हि आदेश परस्मैपद में, तथा स्व प्रावेश आत्मनेपद में होगा। यह सब पूर्ववत् ही जानें ॥ उदा०-भ्राष्ट्रमट, मठमट, खदूरमट, स्थाल्यपिधानमट इत्येवायमटति (भाड़ पर जाता है, मठ को जाता है, कमरे में जाता है, बटलोई के ढक्कन तक जाता है) । इसी प्रकार सारे उदाहरण संस्कृतभाग के अनुसार जान लें । स्व आदेश विषय में-छन्दोऽधीष्व, व्याकरणमधीष्व, निरुक्तमधीष्व इत्ये बायमधीते (वेद पढ़ता है, व्याकरण पढ़ता है, निरुक्त पढ़ता है, यह सब पढ़ता है) । इसी प्रकार अन्य उदाहरण जान लें ॥ विकल्प से लोट विधान करने से यहां पक्ष में सब लकार होंगे। लोट भी कालत्रय में होता है । ये सब उदाहरण स्वयं जान लेने चाहिये, विस्तारभय से सारे नहीं दिखाये ।। सिद्धि में अट घातु से आये लोट प्रत्यय को ‘हि’ आदेश होकर, पुनः प्रतो हे: (६।४।१०५) से लुक हो गया है | यथाविध्यनुप्रयोगः पूर्वस्मिन् ॥३४॥४॥ । यथाविधि अ०॥ अनप्रयोगः ११॥ पूर्वस्मिन ७॥ अनु०-धातोः ।। अर्थः-पूर्वस्मिन लोडविधाने यथाविधि =यस्माद् धातोर्लोड विधीयते, तस्यैव धातो रनुप्रयोगः कर्त्तव्यः ।। उदा०-स भवान लुनीहि लुनीहि इति लुनाति, इत्यत्र ‘लुना तीति’ अनुप्रयुज्यते । पर्यायवाची छिनत्तीति नानुप्रयुज्यते । एवं सर्वत्र ॥ 16 भाषार्थ:-[पूर्वस्मिन् ] पूर्व के लोविधायक क्रियासम० (३।४१२) सूत्र में [यथाविधि यथाविधि अर्थात् जिस धातु से लोट विधान किया हो,पश्चात् उसी धातु का [अनुप्रयोगः] अनुप्रयोग होता है ।। यथा लुनीहि में लू धातु से लोट् विहित पाद:] तृतीयोऽध्यायः गंवा ४६६ है, तो पश्चात् लुनाति का ही अनुप्रयोग होगा, पर्यायवाची ‘छिनत्ति’ का नहीं।” ऐसा सर्वत्र जानें ॥ यहां से ‘अनुप्रयोग:’ को प्रनवत्ति ३.४.५ तक जायेगी॥ की समुच्चये सामान्यवचनस्य ॥३॥४॥५॥ समुच्चये ७।१।। सामान्यवचनस्य ६।१।। स०-उच्यतेऽनेनेति वचनः, सामान्य स्य वचन: सामान्यवचन:, षष्ठीतत्पुरुषः । अनु०-अनुप्रयोगः, धातोः ॥ अर्थ: समुच्चये सामान्यवचनस्य धातोरनुप्रयोगः कर्त्तव्य: ।। उदा० - प्रोदनं भुङ्क्षव, सक्त न । पिब, घानाः खाद इत्यभ्यवहरति । वेदानधीष्व, सत्यं वद, अग्निहोत्रं, जुहुधि, सत्पुरुषान् सेवस्व, एवं धर्मं करोति करिष्यति अकार्षीद् वा ॥ हुए भाषार्थ:-[समुच्चये] समुच्चय में अर्थात् समुच्चयेऽन्य ० (३४॥३) से जहां लोट विषान किया है, वहाँ [सामान्यवचनस्य] सामान्यवचन धातु का अनुप्रयोग होता है । समुच्चय होने से उदाहरण में भुङ क्ष्व पिब इत्यादि सभी धातुनों का अनुप्रयोग होना चाहिये था, सामान्यवचन (अर्थात् किसी एक ऐसी धातु का अनु प्रयोग जिसमें समुच्चीयमान सारी धातुओं का अर्थ हो) धातु का अनुप्रयोग विधान कर दिया है । उदा०–प्रोदनं भुङ क्ष्व, सक्तून पिब, धानाः खाव इत्यम्यवहरति (चावल खाता है, सत्तू पीता है, धान खाता है, यह सब खाता है) । वेदानषीष्व, सत्यं वद, अग्निहोत्रं जुहुषि सत्पुरुषान् सेवस्व, एवं धर्म करोति, करिष्यति, प्रका र्षीद वा (वेद पढ़ता है, सत्य बोलता है, हवन करता है, सत्पुरुषों का सेवन करता है, इस प्रकार धर्म करता है, करेगा, या किया) ॥ उदाहरण में अभ्यवहरति का अर्थ-खाना, पीना, चूसना, चाटना प्रादि सभी सामान्यरूप से है, सो उसका अनु प्रयोग कर दिया, तो भुङ्क्ते पिबति इत्यादि के अलग-अलग अनुप्रयोग की प्राव श्यकता नहीं रही । इसी प्रकार करोति क्रिया सामान्य है। वह सभी क्रियानों में रहती है, सो प्रषोते वदति का अलग-अलग अनुप्रयोग न करके करोति सामान्य का अनुप्रयोग कर दिया । छन्दसि लुङ्ललिटः ॥३।४।६।। थन् जामता कुलगीक छन्दसि ७।१॥ लुङ्लङ्लिटः ११३॥ स०-लङ्० इत्यत्रेतरेतरयोगद्वन्द्वः ॥ अनु० धातुसम्बन्धे, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ।। अन्यतरस्यामिति चानुवर्तते मण्डूकप्लुतगत्या ॥ अर्थः-वेदविषये धात्वर्थ सम्बन्धे धातोरन्यतरस्यां कालसामान्ये लुङ् लङ् लिट इत्येते प्रत्यया भवन्ति ॥ उदा०-देवो देवेभिरागमत् (ऋ० १११।५), अत्र वर्तमाने लुङ । लङ्-शकलाङ्गुष्ठकोऽकरत् । अहं तेभ्योऽकरं नमः ( यजु० १६८)। लिट-अहन्नहिमन्व अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [चतुर्थः पस्ततर्द (ऋ० १॥३२॥१)। ततर्द इत्यत्र वर्तमानकाले लिट । त्वष्टाऽस्मै वज्र स्वयं ततक्ष (ऋ० ११३२।२) । अत्रापि वर्तमानकाले लिट। पश्य देवस्य काव्यं न ममार न जीर्यति (अथ० १०।८।३२)। ममार इत्यत्रापि वर्तमानकाले लिट् । अद्या ममार स ह्य: समान (ऋ० १०॥५५॥५)। पक्षे-अद्य म्रियते । स दाधार पृथिवीम् (यजु० १३।४) ॥ त भाषार्थ:-[छन्दसि] वेदविषय में धात्वर्थ सम्बन्ध होने पर विकल्प से [लुङ लङ लिटः] लुङ लङ् तथा लिट् प्रत्यय होते हैं । लुङ् सामान्य भूत, लङ अनद्यतनभूत, तथा लिट् परोक्षभूतकाल में होते हैं, परन्तु वेद में ये लकार सामा न्य काल में विकल्प से हो जाते हैं । विशेष:-वेद के अर्थ समझने में यह सूत्र विशेष महत्त्व का है । लुङ लङ लिट् लकार देखकर भूतकाल का ही अर्थ वेद में नहीं लिया जा सकता । परन्तु अपर दिये उदाहरणों के समान वर्तमान भविष्यत् भूत सभी अर्थ निकलते हैं । हामी यहां से ‘छन्दसि’ की अनुवृत्ति ३।४।१७ तक जायेगी। जी लिङथें लेट् ।।३।४७॥ लिङर्थे ७॥१॥ लेट् ११॥ स०-लिङोऽर्थः लिङर्थः, तस्मिन्, षष्ठीतत्पुरुषः ॥ अनु०-छन्दसि, धातो: प्रत्ययः, परश्च । अत्राप्यन्यतरस्यामभिसम्बध्यते ॥ अर्थ: छन्दसि विषये धातोलिङर्थऽन्यतरस्यां लेट् प्रत्ययो भवति ॥ हेतुहेतुमदभावो विध्या दयश्च (३।३।१५६, १६१) लिङोऽर्थाः॥ उवा०-जोषिषत्, तारिषत, मन्दिषत् । धियो यो नः प्रचोदयात् (ऋ० ३१६२।१०)। सविता धर्म साविषत् (यजु० ६५; १८३०)॥ भाषार्थ:-वेदविषय में [लिथै ] लिङ के अर्थ में धातु से विकल्प से [लेट्] लेट प्रत्यय होता है, और वह परे होता है । लेट् लकार में सिद्धि विस्तार से परि० ३।११३४ में देखें । प्र पूर्वक ‘चुद प्रेरणे ण्यन्त धातु से लेट में प्रार्थना अर्थ में पूर्ववत् प्रचोदयात् की सिद्धि जानें । ’ प्रेरणे’ से सावि
- यहाँ से ‘लेट्’ की अनुवृत्ति ३.४।८ तक जायेगी। वा उपसंवादाशयोश्च ॥३॥४॥८॥ उपसंवादाशयोः ॥२॥ च अ० ॥ स०-उपसंवादश्च प्राशङ्का च उपसंवा दाशङ्क, तयोः, इतरेतरयोगद्वन्द्वः । अनु०-लेट, छन्दसि, धातो:, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थः-उपसंवाद:=पणबन्धः, व्यवहारे परस्परं भाषणम् । कारणं दृष्टवा कार्यस्य पादः] तृतीयोऽध्यायः ५०१ अनुमानम् आशङ्का । उपसंवादे पाशङ्कायाञ्च गम्यमानायां छन्दसि विषये धातोर्लेट प्रत्ययो भवति ।। उदा०—निहारं च हरासि मे निहारं निहराणि ते स्वाहा (यजु० ३।५०)। आशङ्कायाम्-नेज्जिह्मायन्तो नरकं पताम (ऋ० खिल० १०।१०६।१)। भाषार्थ:-[उपसंवादाशङ्कयो ] उपसंवाद तथा प्राशङ्का गम्यमान हों, तो [च ] भी धातु से वेदविषय में लेट् प्रत्यय होता है ॥ उपसंवाद=पणबन्ध को कहते हैं, अर्थात् ‘तू ऐसा करे तो मैं भी ऐसा करूं’ ऐसा व्यवहार में परस्पर कहना ॥ उदा०-निहारञ्च हरासि मे निहारं निहराणि ते स्वाहा (तू मुझको क्रेतव्य वस्तु दे, तो मैं तुझको भी दूं)॥ हरासि हर प्रयच्छ [मे] मह्यम् [निहारम्] पदार्थ मूल्यम् [नि] नितराम् [हराणि] प्रयच्छानि ॥ (देखो-३० भा० यजु० ३।५०)। प्राशङका में-नेज्जिह्मायन्तो नरकं पताम (कुटिल पाचरण करते हुए कहीं हम नरक में न जा गिरें)। निहारञ्च हरासि मे उदाहरण में उपसंवाद गम्यमान है । अत: ह धातु से लेट् लकार हो गया है । सिद्धि परि० ३१३४ में पठासि के समान जानें । इसी प्रकार नेज्जिह्मायन्तो (नि० १।११)=कुटिल प्राचरण से नरकपात को आशङ्का हो रही है । सो पत धातु से लेट् लकार होकर ‘पताम’ बन गया है । सिद्धि उत्तम पुरुष में पूर्ववत् समझे। तुमर्श सेसेनसेऽसेन्क्सेकसेनध्यअध्यन्कध्यैकध्यैन् शध्यैशध्यनुतवैतवेङ्तवेनः ॥३।४।६॥ तुमर्थे ७१॥ सेवेन: १।३।। स०-तुमुनः अर्थः तुमर्थः, षष्ठीतत्पुरुषः । सेसेन० इत्यत्रेतरेतरयोगद्वन्द्वः ॥ अनु० – छन्दसि, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः छन्दसि विषये तुमर्थे धातो: से, सेन्, असे, असेन, क्से, कसेन, अध्य, अध्यन, कध्ये, कध्यैन्, शध्ये, शध्यैन्, तवै, तवेङ्, तवेन् इत्येते प्रत्यया भवन्ति ॥ तुमर्थो भावः ।। उदा०-से-वक्षे रायः । सेन्-ता वामेषे रथानाम् (ऋ० १॥६६॥३) । असे, असेन् क्रत्वे दक्षाय जीवसे (अथ०६।१६।२)। जीवसे, स्वरे विशेषः। क्से-प्रेषे भगाय (यजु० ॥७)। कसेन-गवामिव श्रियसे ( ऋ० १५९६३ )। अध्य, अध्यन-कर्म ण्युपाचरध्यै । उपाचरध्यै । स्वरे विशेषः । कध्यै-इन्द्राग्नी आहुवध्यै (यजु० ३६१३)। कध्यैन -श्रियध्य । शध्य-पिबध्ये (ऋ० ७६२।२)। शध्यैन-सह मादयध्यै (यजु० ३।१३) तवै-सोममिन्द्राय पातवै । तवेङ–दशमे मासि सूतवे (ऋ० १०१८४१३)। तवेन–स्वर्देवेषु गन्तवे (यजु० १५।५५), कर्त्तवे, हत्तवे ॥ भाषार्थ:-वेदविषय में [तुमर्थे] तुमर्थ में धातु से [सेसे.. तवेनः] से, सेन् प्रादि प्रत्यय होत हैं । तुमुन् प्रत्यय भाव में होता है, सो तुमर्थ का अर्थ हुआ भाव। अतः भाव में ये सब प्रत्यय होंगे। सिद्धियाँ सब परि० ११३।३८ के जीवसे के समान समिति ५०२ अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [चतुर्थः जान लें। से, सेन, मध्य, अध्यन प्रादि प्रत्ययों में केवल स्वर का भेद है। नित करने से नित्यादिनित्यय (६।१।१६१) से प्रायुदात्त होगा। अन्यत्र प्रत्ययस्वर (३।११३) होगा। धातु से सूतवे प्रयोग में तवेङ प्रत्यय के ङित् होने से गणा भाव भी होगा। _ यहाँ से ‘तुमर्थ’ की अनुवृत्ति ३।४।१७ तक जायेगी । प्रय रोहिष्य अव्यथिष्ये ॥३।४।१०॥ हमार- प्रय प्र०॥ रोहिष्य अ० ॥ अव्यथिष्य प्र० ॥ अनु० -तुमर्थे, छन्दसि, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः-प्रय, रोहिष्य, अव्यथिष्य इत्येते शब्दास्तुमर्य छन्दसि विषये निपात्यन्ते ।। प्रय इति प्र पूर्वाद या धातो: के प्रत्ययो निपात्यते, प्रयातुं =प्रय (ऋ० १२१४२॥६)। रोहिष्य इति रुह धातोः इष्य प्रत्ययः, रोढुं =रोहिष्य । अव्यथिष्य इति नपूर्वाद् व्यथ धातो: इष्य प्रत्यय:, अव्यथितुम् = अव्यथिष्यं ।। 22 भाषार्थ:- [प्रये, रोहिष्य, अव्यथिष्य] प्रय, रोहिष्य, अव्यथिष्य ये शब्द वेदविषय में तुमर्थ में निपातन किये जाते हैं। प्र पूर्वक या धातु से के प्रत्यय निपातन करके प्रय बनाया है। ‘के’ के कित् होने से या धातु के ‘मा’ का लोप भी प्रातो लोप इटि च (६॥४॥६४) से हो जायेगा। कह धातु से ‘इष्य’ प्रत्यय करके रोहिष्य बना है । नञ् पूर्वक व्यथ धातु से इष्य प्रत्यय करके अव्यथिष्य रूप बना है । सर्वत्र कृन्मे (१२११३८) से अव्यय संज्ञा होकर पूर्ववत सु का लुक् होगा। दशे विख्ये च ॥३।४।११॥ दशे अ०॥ विख्ये अ०॥ च अ०॥ अनु०-तुमर्थे, छन्दसि, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः-दशे विख्ये इत्येतौ शब्दौ तुमर्थे निपात्येते वैदिके प्रयोगे ॥ ‘दृशे’ इत्यत्र दृश् धातो: के प्रत्यय: । दृशे विश्वाय सूर्यम् (यजु० ७४१)। विख्ये’ इत्यत्र विपूर्वात ख्या’ धातो: के प्रत्यय: । विख्ये त्वा हरामि ॥ * भाषार्थः-[दृशे विख्ये] दृशे विख्ये ये दो शब्द [च] भी वेदविषय में तुमुन के अर्थ में निपातन किये जाते हैं। दृशिर् एवं वि पूर्वक ख्या धातु से ‘के’ प्रत्यय निपातन करके दृशे दिहले ये शब्द सिद्ध होंगे । ख्या का आकार लोप पूर्ववत् ही होगा। पूर्ववत् अव्यय संज्ञा होकर सु का लुक भी सिद्धि में जानें ॥ द्रष्टुम् के अर्थ में वृशे, तथा विख्यातुम् के अर्थ में विख्ये बना है ॥ E शकि णमूलकमुलौ ॥३॥४॥१२॥ शश शकि ७१॥ णमुलमुलौ १।२॥ स०–णमु० इत्यत्रेतरेतरयोगद्वन्द्वः ॥ अनु० तुमर्थे, छन्दसि, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थ:-शक्नोति धातावुपपदे तुमर्थे छन्दसि P पादः] तृतीयोऽध्यायः ५०३ विषये धातोर्णमुल्कमुलौ प्रत्ययौ भवतः ॥ उदा०-अग्निं वै देवा विभाजं नाशक्नुवन, विभक्तुमित्यर्थः । कमुल–अपलुपं नाशक्नुवन, अपलोप्तुमित्यर्थः ।। भाषार्थ:–[शकि] शक्नोति धातु उपपद हो, तो वेदविषय में तुमर्थ में धातु से [णमुल्कमुलौ] णमुल तथा कमुल प्रत्यय होते हैं । णमुल में णित् वृद्धि के लिये, तथा कमल में कित् गुण-वृद्धि के प्रतिषेधार्थ है । वि पूर्वक भज धातु से णमुल् होकर विभज् णमुल =विभाज् अम् =विभाजम्, तथा अप पूर्वक लुप धातु से अपलुपं बना है । सिद्धि में पूर्ववत् मकारान्त मानकर अव्यय संज्ञा होकर ‘सु’ का लुक होगा। ईश्वरे तोसुन्कसुनौ ॥३॥४॥१३॥ ईश्वरे ७॥१॥ तोसुन कसुनौ ११२॥ स०-तोसु० इत्यत्रेतरेतरयोगद्वन्द्वः ॥ अनु० तुमर्थे, छन्दसि, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः-ईश्वरशब्द उपपदे छन्दसि विषये तुमर्थे धातोस्तोसुन कसुनौ प्रत्ययो भवतः ॥ उदा०- ईश्वरोऽभिचरितोः, अभिचरितु मित्यर्थः । ईश्वरो विलिख:, विलेखितुमित्यर्थः । ईश्वरो वितृदः॥ भावार्थ:- [ईश्वरे] ईश्वर शब्द के उपपद रहते तुमर्थ में वेदविषय में धातु से [तोसुन्कसुनौ] तोसुन कसुन प्रत्यय होते हैं। कसुन में कित् गुण वृद्धि प्रति षेधार्थ है । सिद्धि में क्त्वातोसुन (१३१॥३६) से अव्यय संज्ञा होकक सु का लुक पूर्ववत् होगा। अभि चर् तोस् =अभि चर इट् तोस् =अभिचरितोः बना है। वि लिख कसुन =वि लिख अस्=विलिखः बन गया । कृत्यार्थे तवैकेन्केन्यत्वनः ।।३।४।१४॥ कृत्यार्थे ७।१॥ तवैकेन केन्यत्वनः १२३॥ स०-कृत्यस्य अर्थः कृत्यार्थः, तस्मिन्, षष्ठीतत्पुरुषः । तवे च केन च केन्यश्च त्वन च तवैत्वन:, इतरेतरयोगद्वन्द्वः ।। अनु०-छन्दसि, धातो:, प्रत्ययः, परश्च ॥ कृत्यानामथौँ भावकर्मणी, तयोरेव कृत्य. (३।४१७०) इत्यनेन ॥ अर्थ:-छन्दसि विषये कृत्यार्थेऽभिधेये धातो: तवै केन् केन्य त्वन इत्येते प्रत्यया भवन्ति ॥ उदा–तवै–अन्वेतवै, अन्वेतव्यमित्यर्थः । परिस्तरि तवै, परिस्तरितव्यमित्यर्थः । परिधातव,परिधातव्यमित्यर्थः । केन्-नावगाहे, नावशाहि तव्यमित्यर्थः। केन्य-दिदृक्षेण्यः (तै० ब्रा० २।७।६।४), शश्र पेण्यः । दिदृक्षितव्यं शुश्रूषितव्यमित्यर्थः । त्वन्-कत्वं हवि (अथ० ११४.३), कर्तव्यमित्यर्थः ॥ लिए भाषार्थ:-[कृत्यार्थे ] कृत्या में तयोरेव कृत्य० (३।४।७०) से भाव कर्म में वेदविषय में धातु से तवैकेन्केन्यत्वनः]तवे, केन्, केन्य, त्वन् ये चार प्रत्यय होते हैं । भष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [चतुर्थः दिवृक्षग्यः शुश्रूषेण्यः में दिवृक्ष शुश्रूष सन्नन्त पातुनों से केन्य प्रत्यय होकर, सु आकर रुत्व विसर्जनीय हुमा है। तवै केन प्रत्ययान्त को अव्ययसंज्ञा पूर्ववत् कृन्मेजन्तः (१।१०३६) से होगी। सिद्धियों में कुछ भी विशेष नहीं है। यहाँ से ‘कृत्यार्थे’ को अनुवृत्ति ३।४।१५ तक जायेगी । अवचक्षे च ॥३॥४॥१५॥ी समय की प्रवचक्षे अ० ॥ च अ. ॥ अनु०-कृत्यार्थे, छन्दसि, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः -छन्दसि विषये कृत्यार्थे अवपूर्वात् चक्षिङ् धातो: शेन प्रत्ययो निपात्यते । अव चक्षे इति (यजु० १७।६३), अवख्यातव्यमित्यर्थः॥ भाषार्थ:-कृत्यार्थ अभिधेय हो, तो वेदविषय में प्रव पूर्वक चक्षिङ्ग धातु से शेन प्रत्ययान्त [अवचक्षे ] अवचक्षे शब्द [च] भी निपातन किया जाता है । शेन् के शित् होने से उसकी सार्वधातुकसंज्ञा होकर चक्षिङः ख्यान (२।४५४) से चक्षिक को ख्याञ् प्रादेश नहीं होता ॥ पूर्ववत् अव्ययसंज्ञादि होकर सिद्धि जानें ॥ भावलक्षणे स्थेण्कृञ्चदिचरिहुतमिजनिभ्यस्तोसुन् ।।३।४।१६॥ - भावलक्षणे ७१।। स्थेण भ्य: ॥३॥ तोसुन १११॥०-लक्ष्यते येन तल्ल क्षणम्, भावस्य लक्षणं भावलक्षणम्, तस्मिन्, षष्ठीतत्पुरुषः । स्थेण० इत्यत्रेतरेतरयोग द्वन्द्वः । अनु०-छन्दसि, तुमर्थे,धातोः, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थ:-भावलक्षणे वर्तमानेभ्यः स्था, इण, कृत्र, वदि, चरि, हु, तमि, जनि इत्येतेभ्यो धातुभ्यश्छन्दसि विषये तुमणे तोसुन प्रत्ययो भवति ॥ उदा०-या संस्थातोर्वेद्यां सीदन्ति । इण -पुरा सूर्यस्यो देतोराधेय: (का० सं० ८१३)। कृत्र–पुरा वत्सानामपाकतॊः । वदि-पुरा प्रवदितो रग्नौ प्रहोतव्यम् । चरि-पुरा प्रचरितोराग्नीधे होतव्यम । हु–पा होतोरप्रमत्तस्ति ष्ठति । तमि-या तमितोरासीत । जनि-प्रा विनितोः सम्भवामेति ॥ भाषार्थ:–[भावलक्षणे] भाव=क्रिया के लक्षण में वर्तमान स्थेिण … भ्य.] स्था, इण् प्रादि धातुओं से वेदविषय में तुमर्थ में तोसुन ] तोसुन प्रत्यय होता है। उदेतोः की सिद्धि परि० १।११३६ में दिखा पाये हैं । सो सब में वही प्रकार जानना चाहिये। सम्पूर्वक स्था धातु से संस्थातो:’ बना है ।‘मा संस्थातोर्वेद्यां सीदन्ति’ का अर्थ है यज्ञ की समाप्तिपर्यन्त बैठते हैं । सो समाप्तिपर्यन्त से बैठना क्रिया लक्षित हो रही है । अत: स्था धातु भावलक्षण=क्रिया के लक्षण में वर्तमान है। इस प्रकार अन्य उदाहरणों में भी भावलक्षण है। यहाँ से ‘भावलक्षणे की अनुवृत्ति ३।४।१७ तक जायेगी। पाद:] तृतीयोऽध्यायः ५.५ सपितृदोः कसुन् ॥३४॥१७॥ सृपितृदोः ६।२॥ कसुन ११॥ स०-सृपि० इत्यत्रेतरेतरयोगद्वन्द्वः ।। अनु० भावलक्षणे, छन्दसि, तुमणे, धातो:, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थ:-भावलक्षणे वर्तमाना. भ्यां सृपि तृद इत्येताम्यां धातुम्यां छन्दसि विषये तुमणे कसुन् प्रत्ययो भवति ।। उदा०-पुरा क्रू रस्य विसृपो विरप्शिन् (यजु० १२८) । पुरा जत्रुभ्य आतृद: (ऋ० ८।१।१२) ॥ भाषार्थ:-भावलक्षण में वर्तमान [सृपितृदोः] सृपि तथा तद धातुओं से वेदविषय में तुमर्थ में [कसुन ] कसुन प्रत्यय होता है । परि० १११।३६ में विसृपः की सिद्धि दिखाई है, सो मातृदः में भी उसी प्रकार जानें। कसुन में कित्करण गुणप्रतिषेधार्थ है। प्रिलङ्खल्वोः प्रतिषेधयोः प्राचां क्त्वा ।।३।४।१८॥ अलङ्खल्वोः ७।२॥ प्रतिषेधयो: ७।२।। प्राचाम ६।३।। क्त्वा १शशा स० अलं० इत्यत्रेतरेतरयोगद्वन्द्वः । अनु०-धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थ:–प्रतिषेध वाचिनो: अलं खलु इत्येतयोरुपपदयोः धातो: क्त्वा प्रत्ययो भवति, प्राचामाचार्याणां मतेन ॥ उदा०-प्रलं कृत्वा, अलं बाले रुदित्वा। खलु कृत्वा । अन्येषां मते क्त्वा न भवति-प्रलं करणेन, अलं रोदनेन । खलु करणेन इत्येव भवति ॥ नया भाषार्थ:-[प्रतिषेधयोः] प्रतिषेधवाची [अलङ्खल्वोः] प्रलं तथा खलु शब्द उपपद रहते [प्राचाम् ] प्राचीन प्राचार्यों के मत में धातु से [क्त्वा] क्त्वा प्रत्यय होता है। अन्यों के मत में नहीं होता ।। उदा०-अलं कृत्वा (मत कर)। प्रलं बाले रविस्वा (हे बालिके, मत रो)। खलु कृत्वा (मत कर) । अन्यों के मत में क्त्वा न होकर प्रलं करणेन (भाव में ३३।११५ से ल्युट्) आदि प्रयोग बनेंगे ॥ सिद्धि परि० १।१०३६ के चित्वा जित्वा की तरह जानें । यहाँ से ‘क्त्वा’ की प्रवृत्ति ३।४।२४ तक जायेगी। –उदीचां माङो व्यतीहारे ॥३।४।१६॥ नाम - उदीचाम् ॥३॥ माङः ५॥१॥ व्यतीहारे ७।१॥ अनु० क्त्वा, धातो:, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थः-व्यतीहारेऽर्थे वर्तमानाद मेङ धातोः उदीचामाचार्याणां मतेन क्त्वा प्रत्ययो भवति ॥ अपूर्वकालत्वादप्राप्तोऽयं (३।४।२०) क्त्वा विधीयते ॥ उदा०-अप मित्य याचते। अन्येषां मते यथाप्राप्तं-याचित्वा अपमयते इति भवति ।। अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [चतुर्थः भाषार्थ:-[व्यतीहारे] व्यतीहार अर्थवाली [माङ:] मेङ, धातु से [उदी चाम्] उदीच्य प्राचार्यों के मत में क्त्वा प्रत्यय होता है । मेङ को प्रादेच उपदेशे० (६३११४४) से प्रात्व करके, सूत्र में ‘माङ्’ निर्देश किया है । समानकत कयोः पूर्वकाले (३।४।२१) से पूर्वकालिक क्त्वा प्रत्यय प्राप्त था । अपूकालिक क्रिया से भी क्त्वा हो जाये, अत: यह सूत्र बनाया है। उदाहरण में ‘भिक्षुक पहले मांगता है, पश्चात् परस्पर विनिमय करता है, सो विनिमय क्रिया अपूर्वकालिक है । उदीचाम् कहा है, अतः अन्य प्राचार्यों के मत में यथाप्राप्त पूर्व कालिक धातु से भी क्त्वा होकर याचित्वा अपमयते बनेगा। अर्थ इसका पूर्ववत ही होगा । अपमित्य में मयतेरिदन्यतरस्याम् (६।४७०) से ‘मा’ के प्रा को इत्व हुमा है। शेष सिद्धि परि० १४१३५५ के प्रकृत्य के समान जाने ॥ कित परावरयोगे च ॥३।४।२०॥ न वि परावरयोगे ७१॥ च अ० ॥ स०-परश्च अवरश्च परावरी, ताभ्यां योग: पराबरयोगः, तस्मिन, द्वन्द्वगर्भस्तृतीयातत्पुरुषः । अनु०- क्त्वा, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थ:–परेणावरस्य (=पूर्वस्य) योगे गम्यमाने, अवरेण च (=पूर्वेण च) परस्य योगे गम्यमाने धातोः क्त्वा प्रत्ययो भवति ॥ उदा.-परेण-अप्राप्य नदी पर्वत: स्थितः । अवरेण-अतिक्रम्य तु पर्वत नदी स्थिता ॥ es भाषार्थ:- [परावरयोगे] जब पर का अवर ( =पूर्व ) के साथ, या पूर्व का पर के साथ योग गम्यमान हो, तो [च] भी धातु से क्त्वा प्रत्यय होता है। उदा. अप्राप्य नदी पर्वतः स्थितः (पर भाग में स्थित नदी से पूर्व पर्वत स्थित है)। अवर के द्वारा-अतिक्रम्य तु पर्वतं नदी स्थिता (पर्वत के पश्चात् पर भाग में नदी स्थित है) ॥ प्र पूर्वक प्राप्लु तथा प्रति पूर्वक क्रम धातु से क्त्वा प्रत्यय होकर प्राप्य एवं अतिक्रम्य की सिद्धि पूर्ववत् जाने । प्राप्य बनाकर पुनः नञ् समास होकर अप्राप्य बनेगा ॥ समानक कयोः पूर्वकाले ॥३।४।२१॥ समानकत्तकयोः ७१२॥ पूर्वकाले ७।१॥ स०-समान: कर्ता ययोः तो समान कर्तृकौ, तयोः, बहुव्रीहिः । पूर्वश्चासौ कालश्च पूर्वकाल:, तस्मिन, कर्मधारयस्तत्पु रुषः ॥ अनु०-क्वा, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थः-समानकत्तू कयोर्धात्वर्थयो: पूर्व काले धात्वर्थे वर्तमानाद् धातोः क्त्वा प्रत्ययो भवति ॥ उदा०- देवदत्तो भुक्त्वा व्रजति, पीत्वा व्रजति, स्नात्वा भुक्त ॥ शशार की img भाषार्थ:-[समानकर्तृकयोः] समान अर्थात एक कर्ता है जिन दो क्रियाओं पाद:] तृतीयोऽध्यायः ५०७ का, उनमें जो [पूर्वकाले] पूर्वकाल में वर्तमान धात है उससे क्त्वा प्रत्यय होता है। उदा० –देवदत्तो भक्त्वा व्रजति (देवदत्त खाकर जाता है) । पीत्वा व्रजति (पोकर जाता है) । स्नात्वा भुङ क्ते (स्नान करके खाता है ) ॥ उदाहरण में जाने क्रिया का तथा खाने क्रिया का कर्ता देवदत्त ही है । सो भज् एवं व्रज समानाकर्तृक धातुएँ हैं । एवं पहले खाता है पीछे जाता है, अतः भुज् धातु पूर्वकालिक है। सो इससे क्त्वा प्रत्यय हो गया है। इसी प्रकार सब में समझे। सिद्धियाँ परि० १।११३६ में देखें । भुक्त्वा में चो! कु: (८।२।३०) से ज़ को कुत्व हुआ है, तथा पीत्वा में घुमास्थागापा० (६।४।६६) से ‘पा’ के प्रा को ईत्व हुआ है । लायक कोशिका ip यहाँ से “समानक कयो: पूर्व काले” को अनुवृत्ति ३।४।२६ तक जायेगी । भाभीक्ष्ण्ये णमुल च ।।३।४।२२॥ प्राभीक्ष्ण्ये ७११॥ णमुल् १३१॥ च अ. ॥ अनु०-समानकर्तृकयो: पूर्वकाले, क्त्वा, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थ:-प्राभीक्ष्ण्ये गम्यमाने समानकत्तू कयोर्धात्वर्थयो: पूर्वकाले धात्वर्थे वर्तमानाद् धातोर्णमुल प्रत्ययो भवति, चकारात् क्त्वा च ॥ उदा० भोजम् भोजं व्रजति । भक्त्वा भुक्त्वा व्रजति ।। भाषार्थः= [भाभीक्ष्ण्ये] भाभीक्ष्ण्ये == पौनःपुन्य अर्थ में समानाकर्तृक दो धातुओं में जो पूर्वकालिक धातु उससे [णमुल] णणुल प्रत्यय होता है, [च] चकार से क्त्वा भी होता है । उदा०-भोजम् भोजं व्रजति (खा-खा कर जाता है)। भुक्त्वा भुक्त्वा व्रजति । सिद्धि पूर्ववत् जानें ॥ यहाँ से ‘भाभीक्ष्ण्ये’ की अनुवृत्ति ३।४।२३ तक, तथा ‘णमुल’ को अनुवृत्ति ३।४।२४ तक जायेगी। पनि यद्यनाकाक्षे ॥३।४।२३॥ 11 न अ० ॥ यदि ७१।। अनाकाङ्क्ष ७॥ स-पाकाङ्क्षतीति प्राकाक्षम, पचाद्यच् प्रत्ययः। न आकाङ्क्षम् अनाकङ्क्षम्, तस्मिन्, नञ्तत्पुरुषः ।। अनु० प्राभीक्ष्ण्ये, णमुल, समानकर्तकयो: पूर्व काले, क्त्वा, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थ: समानकर्तृकयोर्धात्वर्थयो: पूर्वकाले वर्तमानाद् धातोः यच्छब्द उपपदे क्त्वाणमुलौ प्रत्ययौ न भवतोऽनाकाङ्क्ष वाच्ये ।। उदा०-यदयं भक्त ततः पठति । यदयम. धीते ततः शेते ॥ भाषर्थ:–समानकर्तावाले धातुओं में से पूर्वकालिक धात्वर्ण में वर्तमान धातु से [यदि] यद शब्द के उपपद होने पर क्त्वा णमुल प्रत्यय [न] नहीं होते हैं, यदि [अनाकाक्षे] अन्य वाक्य की प्राकाङ क्षा न रखने वाला वाक्य अभिधेय हो । उदा-यदय भुक्ते ततः पठति (यह बार बार पहले खाता है, पोछे पढ़ता है)। अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [चतुर्थः यदयमधीते ततः शेते (यह पहले बार बार पढ़ता है, तब सोता है) ॥ यहाँ भोजन पठन क्रियावाला वाक्य अन्य किसी वाक्य को प्राकाङ क्षा नहीं रखता है । इसी प्रकार अध्ययन-शयनवाला वाक्य भी अनाकाङ्क्ष है ।। जाला । विभाषाऽग्रेप्रथमपूर्वेष ॥३।४।२४॥ विभाषा ११॥ अग्रेप्रथमपूर्वेषु ७।३।। स०-अग्रे च प्रथमश्च पूर्वश्च अग्रेप्रथम पूर्वाः, तेषु, इतरेतरयोगद्वन्द्वः ॥ अनु०-समानकर्तृकयोः पूर्वकाले, क्त्वा, णमुल्, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः-अग्रे प्रथम पूर्व इत्येतेषूपपदेष समानक कयोः पूर्वकाले धातोविभाषा क्त्वाणमुलौ प्रत्ययौ भवतः ॥ उदा०–अग्रे भोज व्रजति । अग्रे भुक्त्वा व्रजति । प्रथमं भोजं व्रजति । प्रथमं भक्त्वा व्रजति । पूर्व भोजं व्रजति । पूर्व भुक्त्वा व्रजति ॥ विभाषाग्रहणात् पक्षे लडादयोऽपि भवन्ति-अग्रे भुङ्क्ते ततो व्रजति । प्रथमं भुङ्क्ते ततो व्रजति । पूर्व भुङ्क्ते ततो व्रजति ॥ भाषार्थ:- [अग्रेप्रथमपूर्वेष] अग्रे प्रथम पूर्व उपपद हों, तो समानकर्तृक पूर्व कालिक धातु से [विभाषा] विकल्प से क्त्वा णमुल प्रत्यय होते हैं । पक्ष में लडादि लकार होते हैं । उदा०- अग्ने भोजं व्रजति (पाये खाकर जाता है) । प्रने भुक्त्वा व्रजति इत्यादि संस्कृतभाग के अनुसार सारे उदाहरण जानें ॥ शक कर्मण्याक्रोशे कृत्रः खमुञ् ॥३॥४॥२५॥ । कर्मणि ७।१।। आक्रोशे ७ाशा कृत्र: ५।शा खमुञ् १११॥ अनु०–समानकर्तृ कयोः पूर्व काले, धातो:, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थ:-कर्मण्युपपदे आक्रोशे गम्यमाने समान कत्तू कयोः पूर्वकाले कृञ् धातोः खमुन् प्रत्ययो भवति ॥ उदा०-चोरङ्कारमाक्रो शति । दस्युङ्कारमाक्रोशति ॥ _ भाषार्थ:-[कर्मणि] कर्म उपपद रहते [आक्रोशे] प्राक्रोश गम्यमान हो, तो समानकर्तृक पूर्वकालिक [कृञः] कृञ् धातु से [खमुन] खमुन् प्रत्यय होता है । प्रत्यय के खित् होने से अद्विषद० (६:३।६५) से मुम् आगम होकर चोर मुम् कार् अम्=चोरङ्कारमाक्रोशति (चोर है, ऐसा कहकर चिल्लाता है)। दस्युङ्कारमाक्रोशति बन गया है। यहाँ से ‘कृवः’ की अनुवृत्ति ३।४।२८ तक जायेगी। स्वादुमि णमूल ।।३।४।२६॥ FIR स्वादुमि ७.१॥ णमुल् १शा अनु०-कृत्र:, समानकत्तू कयोः पूर्वकाले, धातोः, १. यहाँ ‘स्वादु’ शब्द को वोतो गुणवचनात (१९४४) से ङीष प्रत्यय प्राप्त । था। वह न हो जाये, इसलिये मकारान्त निपातन करके ‘स्वादुम्’ शब्द माना है ।। पादः] तृतीयोऽध्यायः ष्णा ५०६ प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थ:-स्वाद्वर्थेष शब्देषूपपदेषु समानकत कयो: पूर्वकाले कृब्धातो र्णमुल् प्रत्ययो भवति ॥ उदा०-स्वादुङ्कारं भुङ्क्ते। सम्पन्नङ्कारं भुक्ते । लवण कार भुङ्क्ते ॥हिती माय समान दुराड हम भाषार्थ:-[स्वादुमि] स्वादुवाची शब्दों के उपपद रहते समानकर्तृक पूर्व कालिक कृ धातु से [णमुल] णमुल प्रत्यय होता है। सिद्धि परि० १.११३८ में देखें। यहाँ से ‘णमुल्’ को अनुवृत्ति ३।४१५८ तक जायेगी ॥ सा कि अन्यथवंकथमित्सु सिद्धाप्रयोगश्चेत् ॥३।४।२७॥ ___ अन्य “त्थंसु ७॥३॥ सिद्धाप्रयोग: ११॥ चेत् अ० ॥ स०–अन्यथा च एवं च कथं च इत्थं च अन्य-त्थमः, तेषु, इत्यत्रेतरेतरयोगद्वन्द्वः।। न प्रयोगः अप्रयोगः, नञ्तत्पुरुषः । सिद्धः अप्रयोगो यस्य स सिद्धाप्रयोग:, बहुव्रीहिः ॥ अनु०-ण मुल, कृत्रः, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थ:-अन्यथा एवं कथम् इत्थम् इत्येतेषूपपदेषु कृधातो र्णमुल प्रत्ययो भवति सिद्धाप्रयोगश्चेत् करोतिर्भवेत् ॥ उदा०-अन्यथाकारं भुङ्क्ते । एवंकारं भक्ते । कथङ्कारं भुङ क्ते। इत्थंकार भङ क्ते ॥ भाषार्थ:-[अन्य त्यसु] अन्यथा एवं कणं इत्थम् शब्दों के उपपद रहते कृञ् धातु से णमुल प्रत्यय होता है, [चेत् ] यदि कृञ् का [सिद्धाप्रयोग:]अप्रयोग सिद्ध हो ॥ उदा-अन्यथाकारं भुङ्क्ते (बिगाड़ कर खाता है)। एवंकारं भुङ्क्ते (इस प्रकार खाता है) । कशंकारं भक्ते (किस प्रकार खाता है)। इत्थंकारं भुङ्क्ते (इस प्रकार खाता है) । यहाँ उदाहरणों में अन्यथा भुङ्क्ते का जो अर्थ है, वही अन्यथाकार भुङ्क्ते का है । अर्थात अभीष्ट अर्थ बिना कृञ् पातु (कार) के प्रयोग के ही कहा जा रहा है। अत: यहाँ कृत्र का प्रयोग भी मप्रयोग के समान है । इस प्रकार सिद्ध कृज के प्रयोग को यहाँ सिवाप्रयोग कहा है। उदाहरणों में सर्वत्र कृन्मेजन्त: (१०११३८) से अव्ययसंज्ञा होगी। को यहां से ‘सिद्धाप्रयोगः’ को अनुत्ति ३।४।२८ तक जायेगी। यथातथयोरसूयाप्रतिवचने ॥३।४।२८।। का रे यथातथयोः ७॥२॥ प्रसूयाप्रतिवचने ७११॥ स यथा च तथा च यथातथी, तयोः, इनरेतरयोगद्वन्द्वः । असूयया=निन्दया प्रतिवचनं = प्रत्युत्तरम् असूयाप्रतिवचनम्, तस्मिन तृतीयातत्पुरुषः । अनु०-सिद्धाप्रयोगः, णमुल, कृत्रः, धातो:, प्रत्ययः,परश्च ।। अर्थः -असूयाप्रतिवचने गम्यमाने यथातथयोरुपपदयोः कृजो णमुल प्रत्ययो भवति, सिद्धाप्रयोगश्चेत् करोतिर्भवति ।। उदा०- यथाकारमहं भोक्ष्ये,तथाकारं किं तवानेन । ५१० अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [चतुर्थ: भाषार्थ:- [यथातथयो:] यथा तथा शब्द उपपद रहते [असूयाप्रतिवचने | असूयाप्रतिवचन=निन्दा से प्रत्युत्तर गम्यमान हो, तो कृञ् धातु से णमुल प्रत्यय होता है, यदि कृञ् का अप्रयोग सिद्ध हो ॥ - उदाहरण में जो यथा भोक्ष्ये का अर्थ है, वही यथाकारं भोक्ष्ये का है । अत: कृञ् का प्रयोग सिद्ध है। किसी ने किसी से पूछा कि तुम कैसे खाते हो? तो उसने निन्दा से उत्तर दिया कि यथाकारमहं भोक्ष्ये तथाकारं किं तवानेन ? (मैं जैसे खाता हूं, वैसे खाता हूँ ,इससे तुमको क्या? ) । सो यहाँ असूयाप्रतिवचन है । यो कर्मणि दशिविदोः साकल्ये ॥३।४।२६॥ र कर्मणि ७॥१॥ दृशिविदोः ६।२॥ साकल्ये ७१।। स०-दृशि० इत्यत्रेतरेतर योगद्वन्द्वः ।। अनु० -णमुल, धातो:, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थ:-साकल्ये =सम्पूर्णता विशिष्टे कर्मण्युपपदे दृशि विद इत्येताभ्यां धातुभ्यां णमुल प्रत्ययो भवति ॥ उदा० यवनदर्श हन्ति । ब्राह्मण वेदं भोजयति ॥ __भाषार्थ:- [साकल्ये ] साकल्य सम्पूर्णताविशिष्ट [कर्मणि] कर्म उपपद हो, तो [दृशिविदो:] दृशिर् तथा विद धातुनों से णमुल प्रत्यय होता है ॥ यवनदर्श, ब्राह्मणवेदं में “जिन-जिन (सब) यवनों को देखता है मारता है। एवं जिन-जिन ब्राह्मणों को जानता है खिलाता है” यह अर्थ होने से यवन तथा ब्राह्मण साकल्य विशिष्ट कर्म हैं, सो णमल हुआ है ।। सिद्धि सारी परि० १११३८ की तरह जानें ।। यहां से ‘कर्मणि’ को अनुवृत्ति ३।४।३६ तक जायेगी ।। म यावति विन्दजीवोः ।।३।४।३०॥ यावति ७१॥ विन्दजीवोः ६।२॥ स.-विन्द० इतरेतरयोगद्वन्द्वः ॥ अन णमुल, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः-यावच्छब्द उपपदे विन्द जीव इत्येताभ्यां धातुभ्यां णमुल प्रत्ययो भवति ।। उदा०-यावद्वेदं भोजयति । यावज्जीवमधीते ।। भाषार्थ:- [यावति] यावत् शब्द उपपद रहते [विन्दजीवोः] “विद्लु लाभे’ एवं ‘जीव प्राणधारणे’ धातुओं से णमुल प्रत्यय होता है ।। उदा०-यावद्वेदं भोजयति (जितना पाता है, उतना खिलाता है)। यावज्जीवमधीते (मरणपर्यन्त पढ़ता है) ।। शिशा चर्मोदरयोः पूरेः ॥३।४।३१॥ishes चर्मोदरयो: ७२॥ पूरेः ५॥१॥ स०-चर्म० इत्यत्रतरेतरयोग द्वन्द्वः ।। अनु० कर्मणि, णमुल, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थः-चर्म उदर इत्येतयोः कर्मणोरुपपदयो य॑न्तात् ‘पूरी प्राप्यायने’ इत्यस्याद धातोर्णमुल प्रत्ययो भवति ।। उदा०-चर्मपूर स्तृणाति । उदरपूरं भुङ्क्त ॥ पादः] नितीयोऽध्यायः ५११ म भाषार्थ:-[चर्मोदरयोः] चर्म तथा उदर कर्म उपपद रहते [पूरेः] पूरी ण्यन्त धातु से णमुल प्रत्यय होता है ॥ पूरी का पूर् रूप शेष रह जाता है। तत्प श्चात् णिच् लाकर ‘पूरि’ ऐसे ण्यन्त का इस सूत्र में ग्रहण है ॥ उदा० - चर्मपूर स्तृणाति (सब चमड़े को ढ़ांपता है)। उदरपूरं भुङ क्ते (पेट भरकर खाता है) ॥ यहाँ से ‘पुरे:’ की अनुवृत्ति ३।४।३२ तक जायेगी ।। वर्षप्रमाण ऊलोपश्चास्यान्यतरस्याम् ।।३।४।३२।। वर्षप्रमाणे ७.१।। ऊलोप: १.१॥ च अ० ।। अस्य ६।१।। अन्यतरस्याम् अ० ।। स०-वर्षस्य प्रमाणं वर्षप्रमाणं, तस्मिन्, षष्ठीतत्पुरुषः। ऊकारस्य लोप ऊलोप:, षष्ठीतत्पुरुषः ॥ अनु०-पूरेः, कर्मणि, णमुल, धातो:, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः-वर्ष प्रमाणे गम्यमाने कर्मण्युपपदे ण्यन्तात् पूरीधातोणं मुल् प्रत्ययो भवति, तस्य च पूरेविक ल्पेन ऊकारलोपो भवति ॥ उदा०-गोष्पदनं वृष्टो देवः, गोष्पदपूरं वृष्टो देवः । सीताप्रं वृष्टो देवः, सीतापूरं वृष्टो देव: ।। भाषार्थ:- [वर्षप्रमाणे] वर्षा का प्रमाण गम्यमान हो (कि कितनी वर्षा हुई है), तो कर्म उपपद रहते ण्यन्त पूरी धातु से णमल प्रत्यय होता है, [च] तथा [अस्य] इस पूरी धातु के [ऊलोप:] ऊकार का लोप [अन्यतरस्याम] विकल्प से होता है ।। उदा.– गोष्पदनं वष्टो देवः (भूमि में गाय के खुर के द्वारा हुए गडढे के भरने जितनी वर्षा हुई), गोष्पदपूरं वृष्टो देवः । सीतानं वृष्टो देवः (हल की फाली से हुये गड्ढे के भरने जितनी वर्षा हुई), सीतापूरं वष्टो देवः ॥ ‘गोष्पद’ तथा ‘सीता’ कर्म पूरी धातु के उपपद हैं, वर्षा का प्रमाण कहा ही जा रहा है । सो उदाहरण में णमुल प्रत्यय, तथा पक्ष में पूरी के ऊकार का लोप होकर गोष्पद पूर् अम् =गोष्पदनं बना है, पक्ष में ऊकारलोप न होकर गोष्पदपूर बनेगा ॥ यहाँ से ‘वर्षप्रमाणे’ की अनुवत्ति ३।४।३३ तक जायेगी। चेले क्नोपेः ॥३॥४॥३३॥ भामा चेले ७।१।। क्नोपे: ५॥१॥ अनु०-वर्षप्रमाणे, कर्मणि, णमुल, धातो:, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थ:-चेलार्थेषु कर्म सूपपदेषु वर्षप्रमाणे गम्यमाने ‘क्नूयी शब्दे उन्दे च’ इत्यस्माद् ण्यन्ताद धातोर्णमुल प्रत्ययो भवति ॥ उदा०-चेलक्नोपं वृष्टो देवः, वस्त्रक्नोपं, वसनक्नोपम् ॥ दिली, भाषार्थ:– [चेले] चेलवाची कर्म उपपद हों, तो वर्षा का प्रमाण गम्यमान होने पर [क्नोपेः] क्नयो ण्यन्त धातु से पमुल प्रत्यय होता है । क्नोपि ण्यन्त निर्देश सूत्र में है, अत: ज्यन्त क्नोपि धातु से णमुल प्रत्यय होता है । प्रतिह्रीव्ली० (७।३।३६) से पुक पागम, पुगन्त० (७॥३॥८६) से गुण, तथा लोपो व्योर्व लि (६।१।६४) से ५१२ अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [चतुर्थः यकार लोप होकर नोपि धातु बना ह ॥ उदा०-चेलक्नोपं वृष्टो देवः (कपड़ा गीला हो गया, इतनी वर्षा हुई), वस्त्रक्नोपं, वसनक्नोपम् ॥ निमूलसमूलयोः कषः ॥३॥४॥३४॥ निमूलसमूलयो: ७।२॥ कष: ५॥१॥ स०-निमू० इत्यत्रेतरेतरयोगद्वन्द्वः ।। अनु०-कर्मणि, णमुल, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थ:-निमूल समूल इत्येतयोः कर्मणोरुपपदयोः कषधातोर्णमुल प्रत्ययो भवति ॥ उदा.-निमूलकाष कषति । समूलकाषं कषति ॥ भाषार्थ:-[निमूलसमूलयो:] निमूल तथा समूल कर्म उपपद रहते [कष:] कष धातु से णमुल प्रत्यय होता है । उदा०-निमूलकाषं कवति (जड़ को छोड़. कर काटता है)। समूलकाषं कषति (जड़समेत काटता है)। शुष्कचूर्णरूक्षेषु पिषः ॥३॥४॥३५॥ तानाजी मार शुष्कचूर्णरूक्षेषु ७।३।। पिषः ५॥१॥ स-शुष्कश्च चूर्णश्च रूक्षश्च शुष्कचूर्ण रूक्षाः, तेष, इतरेतरयोगद्वन्द्वः ॥ अन०-कर्मणि, णमुल, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्य:-शुष्क चूर्ण रूक्ष इत्येतेष कर्मसूपपदेषु पिषधातोर्णमुल प्रत्ययो भवति । उदा.-शुष्कपेषं पिनष्टि । चूर्णपेषं पिनष्टि । रूक्षपेषं निष्टि || _भाषार्थ:-[शुष्कचूर्णरूक्षेष] शुष्क चूर्ण तथा रूक्ष कर्म उपपद रहते [पिष:] ‘पिष्ल सञ्चूर्णने’ धातु से णमुल् प्रत्यय होता है ॥ उदा०-शुष्कपेषं पिनष्टि (सूखे को पीसता है)। चूर्णपेषं पिनष्टि (चूर्ण को पोसता है) । रूक्षपेष पिनष्ट (रूखे को पोसता है)। समूलाकृतजीवेषु हन्कञ्ग्रहः ॥३॥४॥३६॥ पु. समूलाकृतजीवेषु ७।३॥ हन्कृञ्ग्रहः ५॥१॥ स०-समू० इत्यत्रेतरेतरयोगद्वन्द्वः । हन च कृन च ग्रह च हन्कृञ्ग्रह , तस्मात्, समाहारो द्वन्द्वः । अनु०-कर्मणि, णमुल, धातो:, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थ:- समूल अकृत जीव इत्येतेष कर्मसूपपदेष यथा सङ ख्यं हन कृत्र ग्रह इत्येतेभ्यो धातुभ्यो णमुल् प्रत्ययो भवति ॥ उदा-समूल घातं हन्ति । अकृतकारं करोति । जीवग्राहं गृह्णाति ॥ भाषार्थ:-[समूलाकृतजीवेषु ] समूल प्रकृत तथा जीव कर्म उपपद हों, तो यथासङ्ख्य करके [हन्कृञ्ग्रहः] हन् कृष तथा ग्रह धातुओं से णमुल प्रत्यय होता है ॥ उदा०–समूलघातं हन्ति (मूल समेत मारता है)। प्रकृतकारं करोति (न किये को करता है) । जीवग्राहं गृह्णाति (जीव को ग्रहण करता है) । परि० ३।२०५१ के शीर्षघाती के समान समूलघातं की सिद्धि जानें, । अन्तर केवल इतना है कि यहां णमुल प्रत्यय हुआ है, तथा शीर्षघाती में णिनि हुमा है। तृतीयोऽध्यायः करणे हनः ।।३।४।३७॥ VID) करणे ७।१।। हनः ॥१॥ अनु० -णमुल, धातो:, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः करणे कारक उपपदे हन्धातोर्णमुल प्रत्ययो भवति ॥ उदा०-पाणिभ्याम् उप हन्ति =पाण्युपधातं वेदि हन्ति । पादोपघातं वेदि हन्ति॥ को भाषार्थ:– [करणे] करण कारक उपपद हो, तो [हनः] हन् धातु से णमुल प्रत्यय होता है ।। उदा०–पाण्युपघातं वेदि हन्ति (हाथ से वेदि को कूटता है)। पादोपघातं वेदि हन्ति (पैर से वेदि को कूटता है)। सिद्धि परि० ३।२।५१ के समान जानें ।। यहां से ‘करणे’ को अनुवृत्ति ३।४।४० तक जायेगी। रह गोमो लाली स्नेहने पिषः ॥३।४.३८।।) नोपशी से 15स्नेहने ७।१।। पिष: ५।१॥ अनु०-करणे, णमुल, धातो:, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थः-स्नेहनवाचिनि करण उपपदे विषधातोर्ण मुल प्रत्ययो भवति । उदा०-उदकेन पिनष्टि =उदपेषं पिनष्टि । तैलपेष पिनष्टि । माय श भाषार्थ:–[स्नेहने] स्नेहनवाची करण उपपद हो, तो [पिष:] पिष् धातु से णमुल प्रत्यय होता है। उदा०–उदपेषं पिनष्टि (जल से पोसता है)। तैल पेषं पिनष्टि (तेल से पीसता है) ॥ उदपेष में पेषवासवाहनधिषु च (६।३।५६) से उदक को उद भाव हो गया है | है जी - ) हस्ते वत्तिग्रहोः ॥३।४।३६॥ श श हस्ते ७१।। वत्तिग्रहो: ६।२॥ स०-वत्ति ० इत्यत्रेतरेतरयोगद्वन्द्वः ॥ अनु० – करणे, णमुल, धातो:, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थ:-हस्लवाचिनि करण उपपदे बत्ति ग्रह इत्येताभ्यां धातुभ्यां णमुल प्रत्ययो भवति ॥ उदा०-हस्तेन वर्तयति हस्तवनं वर्त यति, करवतम् । हस्तग्राहं गृह्णाति, करग्राहं गृह्णाति ॥ भापार्थ:–[इस्ते] हस्तवाची करण उपपद हो, तो [वत्तिग्रहो:] वत्ति तथा ग्रह धातुओं से णमुल प्रत्यय होता है ॥ उदा०-हस्तवत्त वर्तयति (हाथ से करता १. स्नेहन द्रव पदार्थ = बहनेवाली वस्तु को कहते है । यथा-पानी तेल एवं गलाया हग्रा लोहा सोना चाँदी ग्रादि । अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती है), करवतम् । हस्तग्राहं गृह्णाति (हाथ से ग्रहण करता है), करग्राहम ॥ वृतु का वत्ति यहाँ णिजन्त निर्देश है, अतः ण्यन्त से ही प्रत्यय होगा । पुन: णेरनिटि (६॥४॥ ५१) से णि का लोप हो जायेगा ॥ माण उमर स्वे पूषः ।।३।४।४०॥ स्वे ७१।। पुष: ५॥१॥ अनु० -करणे, णमुल, धातो!, प्रत्यय:, परश्च ॥ अर्थः-स्ववाचिनि करण उपपदे पुषधातोर्णमुल प्रत्ययो भवति ॥ उदा०-स्वपोषं पुष्णाति, आत्मपोष, गोपोषं, धनपोषं, रैपोषम् ॥ भाषार्थः - [स्वे] स्ववाची करण उपपद रहते [पुषः] पुष धातु से णमुल प्रत्यय होता है । स्व शब्द यहाँ अपना आत्मीय ज्ञाति तथा धन का पर्यायवाची है। पित्पर्यायवच० (वा० ११४६७) इस वात्तिक से स्व के स्वरूप पर्यायों तथा स्वविशेष का यहां ग्रहण है ॥ उदा०-स्वपोषं पुष्णाति (अपने द्वारा पुष्ट करता है), प्रात्मपोषं, गोपोष, धनपोषम , रेपोषम् ।। अधिकरणे बन्धः ।।३।४।४१॥ ऊरी प्रिमिरीका अधिकरण ७।१॥ बन्ध: ५॥१॥ अनु०-णमुल्, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थ:-अधिकरणवाचिनि शब्द उपपदे बन्धधातोर्णमुल प्रत्ययो भवति ॥ उदा० चक्रे बध्नाति = चक्रबन्धं बध्नाति, कूटबन्धं बध्नाति, मुष्टिबन्धं बध्नाति, चोरकबन्धं बध्नाति ।। EिRI भाषार्थ:-[अधिकरणे] अधिकरणवाची शब्द उपपद हों, तो [बन्धः] बन्ध धातु से णमुल प्रत्यय होता है । उदा०-चक्रबन्ध बध्नाति (चक्र= पहिये में बांधता है) । कूटबन्धं बध्नाति (लोहे के मुद्गर में बांधता है)। मुष्टिबन्धं बध्नाति (मुट्ठी में बांधता है) । चोरकबन्धं बध्नाति (चोरक बन्ध विशेष में बांधता है)। के यहां से ‘बन्ध:’ की अनुवृत्ति ३।४।४२ तक जायेगी ।। अ तिथि घालो, प्रत्ययः, परपच ।। संज्ञायाम |॥३४॥४॥ aSTERBE क संज्ञायाम् ७।१।। अनु०-बन्धः, णमुल, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थः– संज्ञायां विषये बन्धधातोर्ण मुल प्रत्ययो भवति ॥ उदा०–क्रौञ्चबन्धं बध्नाति, मयू रिकाबन्धं, अट्टालिकाबन्धम् ॥ अमाल भाषार्थ:-[संज्ञायाम्] संज्ञाविषय में बन्ध धातु से णमुल प्रत्यय होता है ।। पूर्व सूत्र से अधिकरण उपपद रहते प्राप्त था, यहाँ कारकसामान्य उपपद रहते भी कह दिया ॥ ‘क्रौञ्चबन्ध’ आदि बन्धविशेषों के नाम हैं ॥ सिद्धियां सब परि० १॥१॥ ३८ के समान जाने ।। पादः] । तृतीयोऽध्यायः गम कोंजीवपुरुषयो शिवहोः ॥३॥४॥४३॥ कत्रों: ७।२॥ जीवपुरुषयो: ७॥२॥ नशिवहो: ६।२॥ स.-उभयत्रेतरेतरयोग द्वन्द्वः ।। अनु० - णमुल, धातो:, प्रत्ययः, परश्च । अर्थः-कर्तृवाचिनो: जीवपुरुषयो.. रुपपदयो: यथासङ्ख्यं नशि वह इत्येताभ्यां धातुभ्यां णमुल प्रत्ययो भवति ॥ उदा. जीवो नश्यति = जीवनाशं नश्यति । पुरुषवाहं वहति ॥ कालोनी भाषार्थ:–[कों:] कर्त्तावाची [जीवपुरुषयोः] जीव तथा पुरुष शब्द उपपद हों,तो यथासङ ख्य करके [नशिवहोः]नश तथा वह धातुओं से णमुल प्रत्यय होता है । उदाo-जीवनाशं नश्यति (जीव नष्ट होता है)। पुरुषवाहं वहति (पुरुष वहन करता है)॥ 1 KIRTHORIPPTH यहाँ से ‘कों:’ की अनुवृत्ति ३।४।४५ तक जायेगी। हवा उपवीडकप ऊर्ध्वं शुषिपूरोः ॥३॥४॥४४॥ ऊर्ध्वं ७१॥ शुषिपूरो: ६।२॥ स-शुषि० इत्यत्रेतरेतरयोगद्वन्द्रः ॥ अनु० कों:, णमुल्, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः - कर्तृवाचिनि ऊर्ध्वशब्द उपपदे शुषि” पूरी इत्येताभ्यां धातुभ्यां णमल प्रत्ययो भवति ॥ उदा०-ऊर्ध्वशोषं शुष्यति । ऊर्ध्व पूरं पूर्यते ॥
- TO 9 भाषार्थ:–कर्तावाची [ऊर्ध्वं] ऊर्ध्व शब्द उपपद हो, तो [शुषिपूरो:] ‘शुषि शोषणे’ तथा ‘पूरी प्राप्यायने’ धातुओं से णमुल प्रत्यय होता है ।। उदा०-ऊर्ध्वशोष शुष्यति (ऊपर सूखता है)। ऊर्ध्वपूरं पूर्यते (ऊपर वर्षा के जल आदि से पूरा होता है) ॥ PPP उपमाने कर्मणि च ॥ सापामार B.PAPER ॥ उपमाने ७१ कर्मणि ७१।। च प्र. ॥ अन-कोंः, णमुल, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थः-उपमानवाचिनि कर्मणि कर्तरि चोपपदे धातोर्णमुल प्रत्ययो भवति ।।। उदा०-मातरमिव धयति- मातृधायं धयति । गुरुसेवं सेवते । कर्त्तरि–बाल इवी रोदिति =बाल रोदं रोदिति । सिंहगर्ज गर्जति ।। भाषार्थ:–[उपमाने] उपमानवाची [कर्मणि] कर्म उपपद रहते, [च] चकार से कर्ता उपपद रहते भी घातुमात्र से णमुल प्रत्यय होता है । जिससे उपमा दी जाय वह उपमान होता है ।। उदा०–मातृधायं धयति (जैसे माता का दूध पीता? है वैसे दूध पीता है)। गुरुसेवं सेवते (जैसे गुरु की सेवा करता है वैसे सेवा करता है) । कर्त्ता में बालरोदं रोदिति (जैसे बालक रोता है वैसे रोता है )। सिंहगर्ज गर्जति (जैसे सिंह गरजता है वैसे गरजता है) ॥ मातृधायं, यहाँ प्रातो युक्० (६।३।३३ ) से यु आगम होता है कि FिE कशमle अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [चतुर्थः कषादिषु यथाविध्यनुप्रयोगः ॥३४॥४६॥ _कषादिषु ७१३॥ यथाविधि अ० ॥ अनुप्रयोग: १११।। स०-कष प्रादिर्येषां ते कषादयः, तेषु, बहुव्रीहिः ॥ अर्थ:-निमूलसमूलयोः कष: (३।४६३४) इत्यारम्य ये श्रांतवस्ते कषादयः, एतेष यथाविध्यनुप्रयोगो भवति ।। यस्माद् धातोर्णमुल् विहितः तस्यैव धातोरनुप्रयोगः कर्त्तव्यः । तथा चैवोदाहृतम् ॥ भाषार्थ:-[कषादिषु] कषादि धातुओं में [यथाविधि] यथाविधि [अनु प्रयोगः] अनुप्रयोग होता है, अर्थात् जिस धातु से णमुल का विधान करेंगे, उसका हो पश्चात् प्रयोग होगा। निमूलसमूलयो: कष: (३।४।३४) से लेकर इस सूत्र पर्यन्त 1. जितना धातुए है। व कषादि है सीमित र उपदंशस्तृतीयायाम् ॥३।४।४७।।। उपदंश: ५॥१॥ तृतीयायाम् ७१।। अनु० - णमुल, धातोः, प्रत्ययः, परश्च । अर्थः–तृतीयान्त उपपदे उपपूर्वाद ‘दंश दशने’ इत्यस्माद् धातोर्णमुल प्रत्ययो भवति । उदा०- मूलकोपदंशं भुङ क्ते, मूलकेनोपदंशम् । आर्द्रकोपदंशं भुङ क्ते, आर्द्र केणोप दंशम् ॥ बी भाषार्थ:-[तृतीयायाम् ] तृतीयान्त शब्द उपपद रहते [उपदंश:] उपपूर्वक दंश धातु से णमुल प्रत्यय होता है। उदा०–मूलकोपवंश भुङ क्ते (मूली से काट-काट कर खाता है), मूलकेनोपदंशम् । पार्द्रकोपदंश भुङ्क्ते (अदरक से काट-काट कर खाता है), प्रार्द्र केणोपवंश भुङ्क्ते ॥ मूलकोपदंशं आदि में ‘तृतीयाप्रभृतीन्यन्य० (२।२।२१) से विकल्प से समास हुआ है। शेष पूर्ववत् ही जाने । यहाँ से आगे जिन उपपदों के रहते प्रत्यय कहेंगे, वहाँ सर्वत्र पूर्वोक्त सूत्र से विकल्प से समास हुमा करेगा ।। यहाँ से ‘तृतीयायाम’ की अनुवृत्ति ३।४।५१ तक जायेगी। FEETE - हिसार्थानाञ्च समानकर्मकाणाम् ॥३॥४॥४८॥ हिंसार्थानाम् ६॥३॥च अ०॥ समानकर्मकाणाम् ६।३।। स०-हिंसा अर्थो येषां ते हिंसाः , तेषां, बहुव्रीहिः । समानं कर्म येषां ते समानकर्मका:, तेषां, बहुव्रीहिः ।। अनु०-तृतीयायाम, णमुल्, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थ:-तृतीयान्त उपपदे अनु प्रयुक्तधातुना सह समानकर्म केभ्यो हिसार्थकधातुभ्यो णमुल प्रत्ययो भवति ।। उदाo दण्डोपघातं गाः कालयति, दण्डेनोपघातम् । नखोपघातं यूकान गृह्णाति, नखेनोप. घातम ॥ भाषार्थः-अनुप्रयुक्त धातु के साथ[समानकर्मकाणाम् ]समान कर्मवाली हिंसा र्थानाम् ] हिंसार्थक धातुओं से [च ] भी तृतीयान्त उपपद रहते णमुल प्रत्यय होता है । पाद:] तृतीयोऽध्यायः ५१७ अनुप्रयोग की हुई धातु का तथा जिससे णमुल हो रहा हो उन धातुओं का समान कम होना चाहिये । सो उदाहरण में ‘कालयति’ ‘गृह्णाति’ अनुप्रयुक्त धातु हैं । इन दोनों धातुषों और हन का गाः अथवा यूकान् समान कम हैं। सो इस प्रकार ये समानकर्मक धातुयें हुई । अतः उप पूर्वक हन धातु से णमुल प्रत्यय हुआ है ।। हिंसा-म्। र्थानां तथा समानकर्मकाणाम् पदों में पञ्चभी के अर्थ में षष्ठी हुई है ॥ उदा०-हो दण्डोपघातं गाः कालयति (डण्डे से मारकर गौ को हटाता है), दण्डेनोपघातम् । नखोपघातं यूकान गृह्णाति ( नाखून से दबाकर जू को पकड़ता है), नखेनोपघातम् ।। पूर्ववत विकल्प से समास होकर सिद्धियां जाने का Pars सप्तम्यां चोपपोडरुधकर्षः ॥३।४।४६।। कोश सप्तम्याम् ७१।। च प० ॥ उपपीडरुधकर्षः १११, पञ्चम्यर्थे प्रथमा । स० पीडश्च रुधश्च कर्षश्च पीडरुधकर्षः, समाहारद्वन्द्वः । उपपूर्व पीडरुधकर्षः उपपीडरुध कर्षः, उत्तरपदलोपो तत्पुरुषः । अनु०-तृतीयायाम, णमुल, धातोः प्रत्यय , परश्च ॥ अर्थः- तृतीयान्ते सप्तम्यन्ते चोपपद उपपूर्वेभ्य: पौड रुध कर्ष इत्येतेभ्यो धातुभ्यो णमुल प्रत्ययो भवति ॥ उदा०-पार्वोपपीडं शेते, पार्श्वयोरुपपीडम्, पाश्र्वाभ्यामुप पीडम् । पाण्युपरोधं चूर्ण पिनष्टि, पाणावुपरोधम, पाणिनोपरोधम् । पाण्युपकर्ष धाना: संगृह्णाति, पाणावुकर्ष, पाणिनोपकर्षम् ॥ara भाषार्थ:–तृतीयान्त तथा [सप्तम्याम् ] सप्तम्यन्त उपपद हो, तो [उपपीड रुधकर्षः] उपपूर्वक पीड रुप तथा कर्ष धातुओं से [च] भी णमुल प्रत्यय होता है। उदा०-पाश्र्वोपपीडं शेते (बगल से या बगल में दबाकर सोता है), पार्श्व योरुपपीड, पाश्र्वाभ्यामुपपीडम । पाण्युपरोधं चूर्ण पिनष्टि (हाथ से दबाकर प्राटा पीसता है),पाणावुपरोध,पाणिनोपरोधम् । पाण्युपकर्ष धानाः संगृह्णाति (हाथ से पकड़ कर पानों को इकट्ठा करता है), पाणावुपकर्ष, पाणिनोपकर्षम् ॥ सर्वत्र तृतीया प्रभृती० (२।२।२१) से विकल्प से समास होकर पाश्र्वयोरुपपीडम् प्रादि भी बनेंगे। यहाँ ‘कृष’ धातु से शप तथा गुण करके निर्देश किया गया है। अतः भ्वादिगण की कृष धातु का ग्रहण होता है, तुवादि का नहीं | किसान लि पातो, यहां से ‘सप्तम्याम्’ की अनुवृत्ति ३।४।५१ तक जायेगी॥न प्रय:-परिक्ति समासत्तौ ॥३।४।५०॥ समासत्तौ ७॥१॥ अनु०-सप्तम्याम्,तृतीयायाम, णमुल, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थ:-समासत्तिः सन्निकटता, तस्यां गम्यमानायां तृतीयासप्तम्योरुपपदयोर्धातोर्णमुल प्रत्ययो भवति ॥ उदा०-केशग्राह युध्यन्ते, केश हिं, कशेप ग्राहम् । हस्तप्राहम, हस्ताहम, हस्तेषु ग्राहम् ॥श्य सम्पूर्ण शिर को कष्टोते. अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [चतुर्थः भाषार्थ:–[समासत्तौ] समासत्ति अर्थात् सन्निकटता गम्यमान हो, तो तृतीयान्त तथा सप्तम्यन्त उपपद रहते धातु से णमुल प्रत्यय होता है । ‘उदा०– केशग्राहं युध्यन्ते (केशों से पकड़ कर लड़ते हैं)॥ शेष उदाहरण पूर्ववत जान लें। उदाहरणों में पेश वा हाथ पकड़-पकड़कर युद्ध हो रहा है । अतः यहाँ प्रति सन्नि कटता है ॥ पूर्ववत हो उदाहरणों में विकल्प से समास हुआ है ॥ काशीयोमा प्रमाणे च ॥३॥४॥५१॥) कौगात mins प्रमाणे ७।१॥ च अ० ॥ अनु०-सप्तम्यां, तृतीयायां, णमुल, धातो:, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः-प्रमाणे गम्यमाने तृतीयासप्तम्योरुपपदयोर्धातोर्णमुल् प्रत्ययो भवति ।। उदा०-द्वयनुलोत्कर्ष खण्डिकां छिनत्ति, द्वयङ्गुलेनोत्कर्षम् । सप्तम्याम-द्वघगुल उत्कर्षम्, द्वयगुलोत्कर्षम् ॥ 100 F1 भाषार्थ:-[प्रमाणे ] प्रमाण मायाम =लम्बाई गम्यमान हो, तो [च] भी सप्तम्यन्त तथा तृतीयान्त उपपद रहते धातु से णमुल प्रत्यय होता है। उदा०-व्यङ्गु लोत्कर्ष खण्डिकां छिनत्ति (दो-दो अगुल छोड़कर लकड़ी काटता है),द्वयगुलेनोत्कर्षम् । द्वघङ ङ्गुल उत्कर्षम्, दयालोकर्षम् ।। पूर्ववत् समास का विकल्प यहाँ भी जानें !। TOPIPAPSAFPT अपादाने परीप्सायाम् ॥३॥४॥५२॥ शाणा कीमत का अपादाने ७।१॥ परीप्सायाम् ७१॥ अनु०–णमुल्, धातो:, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थः-परीप्सा त्वरा, तस्यां गम्यमानायामपादान उपपदे धातोर्णमुल प्रत्ययो भवति ॥ उदा०–शय्योत्थायं घावति, शय्याया उत्थायं धावति ।। TH भाषार्थ:-[परीप्सायाम् ] परीप्सा-शीघ्रता गम्यमान हो, तो [अपादाने] अपादान उपपद रहते धातु से णमुल् प्रत्यय होता है । उदा०-शय्योत्थायं धावति (खाट से उठते ही भागता है), शय्याया उत्थाय धावति ॥ ‘उत स्था अम्’ यहाँ उद: स्थास्तम्भो: (८।४।६०) से स्था धातु को पूर्वसवर्ण आदेश होकर ‘उत्था अम्’ बना। प्रातो युक्० (७।३।३३) से युक् प्रागम होकर उत्थायं बन गया ॥ हा यहाँ से ‘परीप्सायाम्’ को अनुवृत्ति ३।४।५३ तक जायेगी। द्वितीयायाञ्च ॥३।४।५३॥ द्वितीयायाम ७।१॥ च अ०॥ अनु०-परीप्सायाम, णमुल, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थः द्वितीयान्त उपपदे परीप्सायां गम्यमानायां धातोर्णमुल् प्रत्ययो भवति॥ उदा०-यष्टिग्राहं युध्यन्ते, यष्टि ग्राहम् । असिग्राहं, असि ग्राहम् । लोष्टग्राहं, लोष्टं ग्राहम ॥ POESimppy पनिाय हिंसावादातुन भी ततीमान वरपर्व पाद:] 13 तृतीयोऽध्यायः भाषार्थः- [द्वितीयायाम् ] द्वितीयान्त उपपद रहते [च ] भी शीघ्रता गम्य मान हो, तो धातु से णमुल प्रत्यय होता है ।। उदा० -यष्टिग्राहं युध्यन्ते (लाठी लेकर लड़ते हैं), यष्टि ग्राहम् । असिग्राहं युध्यन्ते (तलवार लेकर लड़ते हैं), असिग्राहम् । लोष्टग्राहम (ढेला लेकर लड़ते हैं), लोष्टं ग्राहम् ॥ उदाहरणों में शीघ्रता यही है कि जो कुछ लाठी प्रादि सामने मिल जाती है, उसी को लेकर लड़ने लगता है, कुछ नहीं सोचता कि शस्त्रादि तो ले लें ॥ पूर्ववत् यहाँ भी समास का विकल्प जाने । यहाँ से ‘द्वितीयायाम’ की अनुवृत्ति ३।४।५८ तक जायेगी ॥ नियामा मिशि स्वाऽध्रवे ॥३।४।५४॥ मानमिति स्वाङ्ग ७१।। अध्र वे ७१।। स०-अध्र व० इत्यत्र नजतत्पुरुषः । स्वम् अङ्गं स्वाङ्गम्, कर्मधारयस्तत्पुरुषः ।। अनु०-द्वितीयायाम्, णमुल, धातोः, प्रत्यय:,परश्च ॥ अर्थः-अध्र वे स्वाङ्गवाचिनि द्वितीयान्त उपपदे धातोणमुल प्रत्ययो भवति ॥ यस्मि नने छिन्नेऽपि प्राणी न म्रियते तदध्र वम् ॥ उदा०- अक्षिनिकाणं जल्पति, अक्षि निकाणं जल्पति । भ्रू विक्षेपं कथयति, भ्र वं विक्षेपं कथयति ।। अशोक भाषार्थ:-[अध्र वे] अध्रुव [स्वाङ्ग ] स्वाङ्गवाची द्वितीयान्त शब्द उपपद रहते धातु से णमुल प्रत्यय होता है । अपने अङ्ग को स्वाङ्ग कहते हैं । जिस अङ्ग के नष्ट हो जाने पर भी प्राणी मरता नहीं, वह अध्रुव होता है । उदाहरणों में अक्षि एवं भ्र के नष्ट हो जाने पर भी प्राणी मरता नहीं, अतः ये अध्रुव स्वाङ्गवाची शब्द हैं ॥ उदा०–अक्षिनिकाणं जल्पति (आँख बन्द कर बड़बड़ाता है), अक्षि निकाणम् । भ्र विक्षेप कथयति (भौहें टेढी करके कहता है) । भ्र वं विक्षेप कथ यति ।। पूर्ववत् यहाँ भी समास का विकल्प जानें ॥ कौर यहाँ से ‘स्वाङ्गे’ को अनुवृत्ति ३।४१५५ तक जायेगी। बायकारिक्तियमाने च ॥३४॥५५॥ PDPET -सी परिक्लिश्यमाने ७.१॥ च अ० ॥ अनु०-स्वाङ्गे, द्वितीयायाम, णमल, धातो:, प्रत्ययः, परश्च ।। परितः सर्वत: क्लिश्यमानः परिक्लिश्यमानः ॥ अर्थः-परिक्लि श्यमाने स्वाङ्गवाचिनि द्वितीयान्त उपपदे धातोर्णमुल प्रत्ययो भवति ॥ उदा०-उर: पेषं युध्यन्ते, उर: पेषं युध्यन्ते । शिर:पेषं युध्यन्ते, शिरः पेषम् ॥ithani भाषार्थः -[परिक्लिश्यमाने] चारों ओर से क्लेश को प्राप्त हो रहा हो, ऐसा स्वाङ्गवाची द्वितीयान्त शब्द उपपद हो, तो [च] भी धातु से णमुल प्रत्यय होता है ॥ उदा०-उर:पेषं युध्यन्ते (सम्पूर्ण छाती को कष्ट देते हुये लड़ते हैं), उरः पेषम् । शिरःपेषम् (सम्पूर्ण शिर को कष्ट देते हुये लड़ते हैं), शिरः पेषम् ॥ यहाँ ५२० अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती चतुर्थः विकल्प से समास करने का एकपद एवं एकस्वर करना ही प्रयोजन है । रूप तो दोनों पक्षों में एक जैसा ही है । उदाहरण में ‘उरः’ एवं ‘शिरः’ परिक्लिश्यमान स्वाङ्गवाची द्वितीयान्त शब्द उपपद हैं ।। नीता विशिपतिपदिस्कन्दा व्याप्यमानासेव्यमानयोः ॥३॥४॥५६॥ सारख्यात विशिपतिदिस्कन्दाम ६।३।। व्याप्यमानाव्यमानयोः ७,२॥ स०-उभयत्रेतरेतर योगद्वन्द्वः ॥ अनु०–द्वितीयायाम, णमल, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थ:-द्विती यान्त उपपदे विशि पति पदि स्कन्दिर इत्येतेभ्यो धातुभ्यो व्याप्यमाने आसेव्यमाने च गम्यमाने प णमुल प्रत्ययो भवति ॥ क्रियया पदार्थानां साकल्येन सम्बन्धो व्याप्ति: । क्रिणया: पोन:पुन्यमासेवा ॥ उदा०-व्याप्तौ-गेहानुप्रवेशमास्ते। असमासपक्षे -गेहं गेहमनुप्रवेशमास्ते । प्रासेवायाम–गेहानुप्रवेशमास्ते । असमासपक्षे -गेहमनुप्रवेशमनुप्रवेशमास्ते । पति-गेहानुप्रपातमास्ते, गेहं गेहमनुप्रपातमास्ते । प्रासेवायाम् – गेहानुप्रपातमास्ते, गेहमनुप्रपातमनुप्रपातमास्ते । पदि-गेहानुप्रपादमास्ते, गेहं गेहमनुप्रपादमास्ते । प्रासेवायाम् – गेहानुप्रपादमास्ते, गेहमनुप्रपादमनुप्रपाद. मास्ते । स्कन्दि -गेहावस्कन्दमास्ते, गेहं गेहमवस्कन्दमास्ते । आसेवायाम् -गेहावस्क न्द्रमास्ते, गेहमवस्कन्दमवस्कन्दमास्ते ॥शिव भाषार्थ:- [व्याप्यमानासेव्यमानयो:] व्याप्यमान तथा प्रासेव्यमान गम्य मान हों, तो द्वितीयान्त उपपद रहते [विशिपतिपदिस्कन्दाम्] विशि, पति, पदि तथा स्कन्द धातुओं से णमुल् प्रत्यय होता है ।। उदा०-व्याप्ति में -गेहानुप्रवेश मास्ते (घर-घर में प्रवेश करके रहता है)। असमासपक्ष के सब उदाहरण संस्कृतभाग के अनुसार जानते जावें। प्रासेवा में-गेहानुष वेशमास्ते (घर में प्रवेश कर-करके रहता है)। पति-गेहानप्रपातमास्ते (घर-घर में जाकर रहता है) । प्रासेवा में-गेहान प्रपातमास्ते (घर में जा-जा करके रहता है) । शेष पदि स्कन्द धातुपा से णमुल होकर भी गेडानुप्रपातमास्ते’ के समान अर्थ जानें । हि व्याप्ति द्रव्यों (=सुबन्त) का धर्म है, अतः व्याप्ति गम्यमान होने पर नित्य वीप्सयो: (८।११४) से सुबन्त को(गेहम को)द्वित्व हुआ है । तथा प्रासेवा किया का धर्म है, सो पासेवा गम्यमान होने पर क्रियावाची को (अनुप्रवेशम को) द्वित्व हुआ है । इसी प्रकार उदाहरणों के अर्थों में भी व्याप्ति में द्रव्यों को वीप्सा (घर घर में), तथा प्रासेवा में क्रिया की वोप्सा (जा-जाकर) समझनी चाहिथे। पूर्व वत यहाँ भी विकल्प से समास होकर दो रूप बना करेंगे । समासपक्ष में व्याप्ति एवं प्रासेवा समास के द्वारा ही कहे जाते हैं, अतः समासपक्ष में नित्यवीप्रायोः (८।१।४) से द्वित्व नहीं होता ॥ पा) तृतीयोऽध्यायः । ५२१ शता कृष्णा प्रस्य तितषोः क्रियान्तरे कालेषु ॥३॥४॥५७॥ अस्यतितृषोः ६।२।। क्रियान्तरे ७१॥ कालेष ७:३॥ स०- अस्य ति० इत्यत्र तरेतरयोगद्वन्द्वः ॥ क्रियान्तरः क्रियामन्तरयति, तस्मिन्, तत्पुरुषः ॥ अनु०-द्वितीया याम, णमुल्, धातो., प्रत्ययः, परश्च ॥ अथः-कालवाचिषु द्वितीयान्तेषूपपदेषु क्रिया न्तरे वर्तमानाभ्यां ‘असु क्षेपणे’ ‘नितृषा पिपासायाम्’ इत्येताभ्यां धातुभ्यां णमुल् प्रत्ययो भवति ॥ उदा०-द्वचहात्यासं गा: पाययति । असमासे – द्वघहमत्यासम् । यहात्यास गा: पाययति, त्र्यहमत्यासन् । द्वचहतषं गा: पायथति, द्वयह तर्षम् ॥ भाषार्थ:-[क्रियान्तरे ] क्रिया के अन्तर =व्यवधान में वर्तमान [अस्यति तृषोः] असु तथा तृष धातुओं से [कालेषु] कालवाची द्वितीयान्त शब्द उपपद रहते णमुल प्रत्यय होता है ॥ उदाहरण में द्वचहात्यास द्वचहतर्ष का अर्थ है — “दो दिन के अन्तर में एवं दो दिन प्यासे रखकर पानी पिलाता है” । सो दो दिन के अन न्तर पानी पिलाने की क्रिया करने से क्रियान्तर है हो । कालवाची द्वितीयान्त द्वयह (दो दिन) यह (तीन दिन) भी उपपद हैं । सो प्रति पूर्वक असु तथा तृष धातु से णमुल प्रत्यय हो गया है। पूर्ववत समास विकल्प से होकर द्वघहम प्रत्यासम् प्रादि प्रयोग भी बनेंगे । मा नाम्न्यादिशिग्रहोः ।।३।४।५८॥ हिमा हि नाम्नि ७१।। आदिशिग्रहोः ६।२।। स०–अादिशिश्च ग्रहश्च आदिशिग्रही, तयो:, इतरेतरयोगद्वन्द्वः ॥ अनु०–द्वितीयायाम, णमुल, धातोः, प्रत्ययः, परश्च !! अर्थ:–द्वितीयान्ते नामशब्द उपपदे प्राङपूर्वकदिशि, ग्रह इत्येताभ्यां धातुभ्यां णमुल प्रत्ययो भवति ॥ उदा०-नामादेशमाचष्टे । नामग्राहमाचष्टे ॥ीर ज लसी भाषार्थ:-द्वितीयान्त [नाम्नि ] नाम शब्द उपपद रहते [अादिशिग्रहोः] पाङ पूर्वक दिश तथा ग्रह धातु से णमुल प्रत्यय होता है। उदा०-नामादेशमाचष्टे (नाम लेकर कहता है) । नामग्राहमाचष्टे (नाम लेकर कहता है) ॥ जयर - अव्ययेऽयथाभित्रेताख्याने कृत्रः क्त्वाणमुलौ ॥३।४।५६॥ तारीख अव्यये ७१॥ अयथाभिप्रेताल्याने ७॥१॥ कृञः ५३१।। क्त्वाणमुलौ १।२॥ स-यद् यद् अभिप्रेतं यथाभिप्रेतम्, अव्ययीभावः । न यथाभिप्रेतम् अयथाभिप्रेतम्, नञ्तत्पुरुषः । अयथाभिप्रेतस्य पाख्यानम् अयथाभिप्रताख्यानम्, षष्ठीतत्पुरुषः । क्त्वा च णमुल च क्त्वाणमुलौ, इतरेतरयोगद्वन्द्वः ॥ अनु०-धातोः, प्रत्ययः, परश्च ।। माहिती (SIP) angular ५२२ अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [चतुर्थः अर्थ:-अयथाभिप्रेताख्याने गम्यमाने अव्यय उपपदे कृब्धातोः क्त्वाणमुलौ प्रत्ययौ भवतः ॥ उदा०-हे ब्राह्मण ! तव पुत्रः शास्त्रार्थे विजयी अभूदिति, किं तर्हि मूर्ख ! नीचःकृत्याचक्षे, नीचैः कृत्वा । नीचै:कारम् । हे ब्राह्मण ! तव पुत्रेण वधः कृतः, किं तहि मूर्ख ! उच्च:कृत्याचक्षे, उच्चैःकृत्वा । उच्च:कारम् ।। एक भाषार्थ:-[अयथाभिप्रेताख्याने] अयथाभिप्रेताख्यान अर्थात इष्ट का कथन जैसा होना चाहिये नैसा न होना गम्यमान हो, तो [अव्यये] अव्यय शब्द उपपद रहते [कृत्रः] कृज् धातु से [क्त्वाणमुलौ] क्त्वा और णमुल प्रत्यय होते हैं । उदाहरण में कोई किसी से धीरे से कहता है कि तुम्हारा पुत्र शास्त्रार्थ में विजयी हो गया । सो दूसरा कहता है कि मूर्ख ! तुम प्रसन्नता की बात को धीरे से क्यों कहते हो ? इसी प्रकार किसी ने जोर से कहा कि तुम्हारे पुत्र ने हत्या कर दी । तो दूसरे ने कहा कि तुम निन्दित बात को इतने जोर से क्यों बोल रहे हो? अर्थात् अच्छी बात जोर से कहनी चाहिये, एवं निन्दनीय बात धीरे से कही जाती है। सो यदि हर्ष में जोर से उल्लसित होकर न कहे, तथा निन्दित बात को जोर से हर्ष से बोले, तो यह अयथाभिप्रेताख्यान है। यही उदाहरणों से प्रकट हो रहा है । अतः उच्चैः नीचैः अव्यय उपपद रहते कृ धातु से क्त्वा णमुल प्रत्यय हो गये हैं ॥ क्त्वा च (२।२।२२) से विकल्प से समास होकर नीचे कृत्य, नीचैः कृत्वा दो रूप बनेंगे। समासपक्ष में क्त्वा को ल्यप हो ही जायेगा ॥ णमुलप्रत्ययान्त नीचे:कारम में भी तृतीयाप्रभृ० (२।२।२१)से विकल्प में समास होगा। सो पक्ष में नीचैः कारम् भी बनेगा। ऐसा ही आगे के सूत्रों में समझते जावें || . माना यहाँ से ‘कृनः’ को अनुवृत्ति ३।४.६० तक, तथा ‘क्त्वाणमुलौ’ की अनुवृत्ति ३४.६४ तक जायेगी। मिनि तिर्यच्यपवर्ग ॥३।४।६। हामी पदि समान तिर्यचि ७१।। अपवर्ग ७११॥ अनु०- कृत्रः, क्त्वाणमुलो, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थ:–तिर्यकशब्द उपपदे कृञ्धातोरपवर्गे गम्यमाने क्त्वाणमुलौ प्रत्ययौ भवतः ॥ अपवर्गः समाप्ति: ॥ उदा०-तिर्यकृत्य गतः, तिर्यक् कृत्वा । तिर्यक कारम॥ मा भाषार्थ:- [तिर्य चि] तिर्यक् शब्द उपपद रहते [अपवर्गे ] अपवर्ग गम्यमान होने पर कृ धातु से क्त्वा णमुल प्रत्यय होते हैं ॥ उदा०-तिर्यकृत्य गतः (सारा कार्य समाप्त करके चला गया), तिर्यक् कृत्वा । तिर्यक्कारम् ।। अपवर्ग समाप्ति को कहते हैं । पूर्ववत् क्त्वा च (२।२।२२) से विकल्प से समास यहाँ भी जानें । णमुल में तृतीयाप्रभृती० (२।२।२१) से समास विकल्प से होगा। पाद:] ५२३ तृतीयोऽध्याय: नव किया जा स्वाङ्ग तस्प्रत्यये कृभ्वोः ॥३।४।६१॥ मला उप स्वाङ्गे ७१॥ तस्प्रत्यये ७१॥ कृभ्वोः ६।२॥ स०-तस प्रत्ययो यस्मात स तस्प्रत्ययः शब्दः, तस्मिन, बहुव्रीहिः। क च भू च कृम्वौ, तयोः, इतरेतरयोगद्वन्द्वः॥ अनु० - क्त्वाणमुलो, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थः-तस्प्रत्ययान्ते स्वाङ्गवाचिनि शब्द उपपदे कृ भू इत्येताभ्यां धातुभ्यां क्त्वाणमुलौ प्रत्ययौ भवतः ॥ उदा०-मुखत: कृत्य गतः,मुखतः कृत्वा। मुखत:कारम । पाणित:कृत्य, पाणित: कत्वा । पाणित:कारम । मुखतोभूय गतः, मुखतो भूत्वा । मुखतोभावम् । पाणितोभूय गतः, पाणितो भूत्वा । पाणितोभावम् ॥ भाषार्थ:-[तस्प्रत्यये] तस्प्रत्ययान्त [स्वाङ्ग] स्वाङ्गवाची शब्द उपपद हो, तो [कृभ्वोः] कृ भू धातुओं से क्त्वा णमुल प्रत्यय होते हैं ॥ उदा०-मुखतः कृत्य गतः (सामने करके चला गया), पाणितःकृत्य (हाथ से करके)। मुखतोभूय गतः (सामने होकर चला गया), पाणितोभूय गत: (हाथ से करके चला गया) ॥ शेष उदाहरण संस्कृतभाग के अनुसार जानें ॥ अपादाने चा० (५।४।४५) से मुखतः प्रादि में तसि प्रत्यय हुआ है । सो ये तस्प्रत्ययान्त स्वाङ्गवाची शब्द हैं । यहाँ भी समास का विकल्प पूर्ववत् जाने ॥ यहाँ से ‘कृभ्वो:’ की अनुवृत्ति ३।४।६२ तक जायेगी। नाधार्थप्रत्यये व्यर्थे ।।३।४।६२॥ (नाधार्थप्रत्यये ७१॥ व्यर्थे ७१॥ स०-ना च धा च नाधौ, तयोरर्थ इवार्थो येषां ते नाधार्थाः (प्रत्ययाः), द्वन्द्वगर्भो बहुव्रीहिः । नाधार्था: प्रत्यया यस्य (समुदाय स्य) स नाधार्थप्रत्ययः (समुदाय:), तस्मिन, बहुव्रीहिः । च्वे: अर्थ: च्व्यर्थः, तस्मिन, षष्ठीतत्पुरुषः ॥ अनु०-कम्वोः, क्त्वाणमुलौ, धातो:, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः च्व्यर्थे नाधार्थप्रत्ययान्ते उपपदे कृम्वोर्धात्वोः क्त्वाणमुलो प्रत्ययो भवत: ।। उदा० अनाना नाना कृत्वा गत: नानाकृत्य गतः, नाना कृत्वा; नानाकारम् । विनाकृत्य, विना कृत्वा; विनाकारम् । अनाना नाना भूत्वा गतः= नानाभूय, नाना भूत्वा; नाना भावम् । विनाभूय, विना भूत्वा ; विनाभावम् । धार्थप्रत्ययान्ते-अद्विधा द्विधा कृत्वा गतः =द्विधाकृत्य,द्विधा कृत्वा । द्विधाकारम् । द्वैधंकृत्य द्वैधं कृत्वा; द्वैघकारम । अद्विधा द्विधा भूत्वा गतः=द्विधाभूय, द्विधा भूत्वा ; द्विधाभावम् । द्वैधंभूय, द्वैधं भूत्वा; द्वैधंभावम् ॥ भाषार्थः-[च्व्यर्थ ] च्व्यर्थ में वर्तमान [नाधार्थप्रत्यये] नाधार्थप्रत्ययान्त शब्द उपपद हों, तो कृ भू धातुओं से क्त्वा और णमुल प्रत्यय होते हैं ॥ उदा०– नानाकृत्य गतः (जो अनेक प्रकार का नहीं उसे अनेक प्रकार का बनाकर चला ५२४ र अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती बत्ती [चतुर्थः गया) । विनाकृत्य (जो छोड़ने योग्य नहीं उसको छोड़ कर) । नानाभय (जो भिन्न प्राकर का नहीं वह भिन्न प्रकार का होकर) । धार्थप्रत्ययान्त उपपदवाले द्विधाकृत्य (जो दो प्रकार का नहीं उसे दो प्रकार का बनाकर) । द्वैधं कृत्य (जो दो प्रकार का नहीं उसे दो प्रकार का बनाकर) । शेष छोड़ दिये गये उदाहरण संस्कृत भाग के अनुसार जानें । यहाँ केवल अर्थप्रदर्शनार्थ ही उदाहरण दिये हैं। वि का अथ अभूततदभाव है, अर्थात जो नहीं था वह हो गया । विनभ्यां नानाऔ न सह (५।२।२७) से नाना विना में ना नाज प्रत्यय हुये हैं । सो ये नाप्रत्ययान्त शब्द हैं। संख्याया विधार्थे धा (५॥३४२) से द्विधा में धा प्रत्यय हुआ है । द्वित्र्योश्च धमा (५।३।४५) से द्वेधं में धमुञ् प्रत्यय हुमा है । सो ये द्वधं आदि धाप्रत्ययान्त शब्द हैं। इनके उपपद रहते कृ भू धातु से क्त्वा णमुल परे रहते भू को ‘भौ’ वृद्धि, तथा प्रावादेश होकर भाव अम् =भावम् बना है ॥ वीकार गरमी तूष्णोमि भुवः ॥३॥४॥६३॥ मताधि जिति - तूष्णीमि ७।१।। भुव: ५।१।। अनु०-वत्वाणमुलौ, धातो:, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थ:-तूष्णींशब्द उपपदे भूधातो: क्त्वाणमुलौ प्रत्ययो भवत: ॥ उदा०-तूष्णीं भूय गतः, तूष्णीं भूत्वा । तृणीभावम् ॥ से _भाषार्थ:-[तूष्णीमि] तूष्णीम् शब्द उपपद हो, तो [भव:] भू धातु से क्त्वा णमुल प्रत्यय होते हैं । उदा०-तूष्णीभय गतः (चुप होकर चला गया), तूष्णीं भूत्वा; तूष्णींभावम् ॥ पूर्ववत् यहाँ भी क्त्वा च (२।२।२२) एवं तृतीयाप्रभृ० (२।२।२१) से समास का विकल्प जानें ॥ णा शिका - यहाँ से ‘भव:’ की अनवत्ति ३।४।६४ तक जायेगी काम होगा का अन्वच्यानुलोम्ये ।।३।४।६४॥ शाठिया अन्वचि ७।१।। प्रानुलोम्ये ७।१।। अनु०–भवः, क्त्वाणमुलौ, धातो:, प्रत्यय:, परश्च ॥ अनुलोमस्य भाव: प्रानुलोम्यम, गुणवचनब्राह्मणा० (५२१११२३) इति व्य प्रत्ययः ॥ अर्थ:–अन्वक्शब्द उपपदे प्रानुलोम्ये =अानुकूल्ये गम्यमाने भूधातो: क्त्वाणमुलौ प्रत्ययो भवतः ॥ उदा०-अन्वरभूयास्ते, अन्वग्भूत्वा । अन्वग्भावम् ॥
- भाषार्थ:- [प्रानुलोम्ये] श्रानुलोम्य = अनुकूलता गम्यमान हो, तो [अन्वचि] अन्वक शब्द उपपद रहते भू धातु से क्त्वा णमूल प्रत्यय होते हैं । उदा०-अन्वम्भूया. स्ते (अनुकूल बनकर रहता है), अन्वग् भूत्वा । अन्वग्भावम् ॥ शकषज्ञाग्लाघटरभलभकामसहाहस्त्यिर्थेषु तुमुन् ॥३।४।६५।। शक र्थेषु ७।३।। तुमुन् १:१।। स०-अस्ति अर्थो येषां तेऽस्त्याः , बहुव्रीहिः। पाद:] तृतीयोऽध्यायः १२ ५२५ शकश्च घृषश्च ज्ञाश्च ग्लाश्च घटश्च रभश्च लभश्च क्रमश्च सहश्च अहश्च अस्त्यर्था श्च शक स्त्यर्थाः, तेषु, इतरेतरयोगद्वन्द्वः ।। अन०-धातोः, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थः-शकादिषूपपदेषु धातुमात्रात् तुमुन् प्रत्ययो भवति ।। प्रक्रियार्थोपपदार्थोऽय मारम्भः ।। उदा०-शक्नोति भोक्तुम् । घृष्णोति भोक्तुम् । जानाति पठितुम । ग्लायति गन्तुम् । घटते शयितुम् । प्रारभते लेखितुम । लभते खादितुम् । प्रक्रमते रचयितुम् । उत्सहते भोक्तुम । अर्हति पाठयितुम् । अस्त्यर्थेषु-अस्ति भोक्तुम् । भवति कर्तुम । विद्यते भोक्तुम ॥ताई भाषार्थ:- [शक र्थेषु] शक, धृष, ज्ञा, ग्ला, घट, रभ, लभ, क्रम, सह, अहं तथा अस्ति अर्थवाली धातुओं (== भवति विद्यते प्रादि ) के उपपद रहते धातुमात्र से [तुमुन ] तुमुन् प्रत्यय होता है । यहाँ तुमुन्ण्वुलौ क्रियायां० (३।३।१०) से तुमन प्राप्त ही था । पुनर्विधान क्रियार्थक्रिया उपपद न हो, तो भी तुमन हो जाये, इसलिये है ।। उदा०- शक्नोति भोक्तुम् (खाने में कुशल प्रवीण है) । धृष्णोति भोक्तुम् (खाने में कुशल है) । जानाति पठितुम् (पढ़ने में प्रवीण है) । ग्लायति गन्तुम् (जाने में अशक्त है) । घटते शयितुम् (सोने में होशियार है) । प्रारभते लेखितुम् (लिखना प्रारम्भ करता है) । लभते खादितुम (भोजन प्राप्त करता है)। प्रक्रमते रचयितुम (रचना प्रारम्भ करता है) । उत्सहते भोक्तुम (भोजन करने में प्रवृत्त होता है )। अहं ति पाठयितुम् (पढ़ाने में कुशल है)। अर्थकों के उपपद रहते प्रस्ति भोक्तुम् (भो नन है) । भवति कर्तुम् (करना है)। विद्यते भोक्तुम (भोजन है)। यहाँ से ‘तुमन’ को अनवत्ति ३।४।६६ तक जायेगी ।।सामान SPEE Mali पर्याप्तिवचनेष्वलमर्थेषु ॥३।४।६६॥ ग णि पर्याप्तिवचनेषु ७।३॥ अलमर्थेषु ७॥३॥ स० पर्याप्तिरुच्यते यैस्ते पर्याप्ति. वचनाः (शब्दा:) अलमादयः ॥ अलमों येषां ते अलमर्थाः, तेष, बहुव्रीहिः ।। अनु० - तुमुन्, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ॥ अर्थः- अल मर्थेषु पर्यान्तिवचनेषूपपदेषु धातोस्तुमुन प्रत्ययो भवति ॥ उदा०-पर्याप्तो भोक्तुम् । समर्थो भोक्तुत् । अलं भोक्तुम् ।। भाषार्थ:- [अलमर्थेष ] अलम् अर्थ = सामर्थ्य अर्थवाले [पर्याप्तिवचनेषु] परिपूर्णतावाची शब्दों के उपपद रहते धातु से तुम न प्रत्यय होता है। उदा०-पर्याप्तो भोक्तुम् (खाने में समर्थ है। । समर्थो भोक्तुम् । अलं भोक्तुम् ।। पर्याप्ति प्रन्यूनता अर्थात् परिपूर्णता को कहते हैं । यहाँ परिपूर्णता दो प्रकार से सम्भव है, भोजन के प्राधिक्य से, अथवा भोजन करनेवाले को समर्थता से । यहाँ भोक्ता के सामर्थ्य का’ ग्रहण हो, अनः ‘अलमर्थेषु’ को पर्याप्तिवचनेष का विशेषण बनाया है। मा ha ५२६ अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [चतुर्थः समय कतरि कृत् ।।३।४।६७॥ नमो राहि कर्तरि ७।१।। कृत् १॥१॥ अर्य:- धातो:, प्रत्ययः ॥ अर्थ:-अस्मिन् धात्व धिकारे कृत्संज्ञका: प्रत्यया: कर्तरि कारके भवन्ति ।। उदा०-कर्ता, कारकः, नन्दनः, ग्राही, पचः॥को वाय ३ मा भाषार्थ:-इस धातु के अधिकार में सामान्यविहित [कृत ] कृत संज्ञक प्रत्यय [कर्तरि] कर्ता कारक में होते हैं । का यह सूत्र सामान्य करके जहाँ कृत प्रत्यय कहे हैं, उनको कर्ता में विधान करता है । जहाँ किसी विशेष कारक में कोई कृत प्रत्यय कहा है, वहां यह सूत्र नहीं लगेगा। जैसे कि आढ्य सुभग० (३।२।५६) से करण में ख्युन कहा है। सो वह करण में ही होगा, इस सूत्र से कर्त्ता में नहीं ॥ कृदतिङ (३।१।६३) से धात्वधिकार में विहित प्रत्ययों को कृत् संज्ञा होती है । उदाहरण में तृच् ण्वुल प्रादि कर्ता में हुये हैं। Flure यहाँ से ‘कर्तरि’ की अनुवृत्ति ३।४।६६ तक जायेगी। ) Ans भव्यगेयप्रवचनोपस्थानीयजन्यालाव्यापात्या वा ॥३४॥६॥ भव्य पात्या: ११३|| वा अ०॥ स०-भव्य० इत्यत्रेतरेतरयोगद्वन्द्वः ।। अन०-कर्त्तरि, प्रत्ययः ॥ अर्थ:-भव्यादयः शब्दा: कृत्यप्रत्ययान्ताः कर्तरि वा निपात्यन्ते ।। कृत्यप्रत्ययान्तत्वात तयोरेव कृत्य ( ३१४।७०) इत्यनेन भावकर्मणोः प्राप्त: कर्तरि वा निपात्यन्ते । पक्षे यथा प्राप्तं भावे कर्मणि च भवन्ति ॥ उदा० भवत्यसो भव्य:, भव्यमनेन। गेयो माणवक: साम्नाम गेयानि माणवकेन सामानि । प्रवचनीयो गुरुः स्वाध्यायस्य, प्रवचनीयो गुरुणा स्वाध्यायः। उपस्थानीयः शिष्यो गुरोः, उपस्थानीय: शिष्येण गुरुः । जायतेऽसौ .जन्यः, जन्यमनेन । प्राप्ल वतेऽसौ प्राप्लाव्यः, प्राप्लाव्यमनेन । आपतत्यसौ पापात्यः, पायात्य मनेन ।। भावार्थः- [भव्य पात्या:] भव्य गेयादि कृत्यप्रत्ययान्त शब्द कर्ता में [वा] विकल्प से निपातन किये जाते हैं। कृत्यसंज्ञक होने से ये शब्द तयोरेव कृत्य . (३।४।७०) से भाव कर्म में ही प्राप्त थे, कर्त्ता में भी निपातन कर दिया है । सो पक्ष में भाव कर्म में ये शब्द होंगे। गेय, प्रवचनीय, उपस्थानीय में धातु सकर्मक हैं, सो इनसे कर्म में कृत्यप्रत्यय प्राप्त थे, कर्ता में निपातन कर दिया है। अत: पक्ष में उनसे भाव में कृत्य प्रत्यय होंगे ॥ उदा०–भव्य (होनेवाला, अथवा इसके द्वारा होने योग्य) । गेयो माणवकः साम्नाम, गेयानि माणवकेन सामानि (सामवेद के मन्त्रों का पान करनेवाला लड़का, अयवा लड़के के द्वारा गाये जानेवाले सामवेद के मन्त्र) । प्रवचनीयो गुरुः स्वाध्यायस्य, प्रवचनीयो गुरुणा स्वाध्याय: (वेद का प्रवचन पादः] तृतीयोऽध्यायः ५२७ करनेवाला गुरु, अथवा गुरु के द्वारा प्रवचन किया जानेवाला वेद)। उपस्थानीयः शिष्यो गुरोः, उपस्थानीयः शिष्येण गरुः (गुरु के समीप उपस्थित होने वाला शिष्य, अथवा शिष्य के द्वारा उपस्थित होने योग्य गुरु) । जन्यः, जन्यमनेन (पैदा होने वाला, अथवा इसके द्वारा पैदा होने योग्य) । आप्लाव्यः, प्राप्लाव्यमनेन (कूदकर जानेवाला, अथवा इसके द्वारा कूदने योग्य) । आपात्यः, श्रापात्यमनेन (गिरनेवाला, अथवा इसके द्वारा गिरने योग्य) ॥ उदाहरणों में कर्ता में प्रत्यय होने पर कर्ता अभि हित हो गया है । अतः प्रातिपदिकार्थ में प्रथमा हुई है, और अनभिहित कर्म में कर्तृ कर्मणो: (२।३।६५) से षष्ठी हो गई है। भाव तथा कर्म में प्रत्यय होने पर कर्ता अनभिहित होता है। अतः कर्ता में कर्तृकरण (२।३।१८) से तृतीया हो गई है । कर्म अभिहित है, अतः प्रातिपदिकार्थ में प्रथमा हुई है । सिद्धियां परिशिष्ट में देखें ॥ कापूस लः कर्मणि च भावे चाकर्मकेभ्यः ॥३।४।६॥ ल: ११३॥ कर्मणि ७।१।। च अ० ।। भावे ७११॥ च प्र०॥ अकर्मकेभ्यः ५॥३॥ अनु० - कर्त्तरि, धातोः ॥ अर्थ:-ल:= लकारा: सकर्मकेभ्यो धातुभ्यः कर्मणि कारके भवन्ति चकारात् कर्तरि च, अकर्म के म्यो धातुभ्यो भावे भवन्ति चकारात कर्तरि च ॥ द्विश्चकारग्रहणादुभयत्र ‘कर्तरि’ इति सम्बध्यते ।। अकर्मकग्रहणात् सकर्मका अपि धातव पाक्षिप्ता भवन्ति ॥ उदा०—सकर्मकेभ्यः कर्मणि पठ्यते विद्या ब्राह्मणेन । कर्त्तरि-पठति विद्यां ब्राह्मणः । अकर्म केभ्यो भावे प्रास्यते देवदत्तेन, हस्यते देवदत्तेन । कतरि-प्रास्ते देवदत्तः, हसति देवदत्तः ॥ भाषार्थ:-सकर्मक धातुओं से [ल:] लकार [कर्मणि] कर्मकारक में होते हैं [च] चकार से कर्ता में भी होते हैं, और [अकर्मकेभ्यः] अकर्मक धातुओं से [भावे] भाव में होते है तथा [च] चकार से कर्त्ता में भी होते हैं । दो चकार लगाने से दो बार ‘कर्तरि’ का अनुकर्षण है। सो सकर्मक एवं अकर्मक दोनों धातुओं के साथ कर्तरि का सम्बन्ध लगता है ॥ सूत्र में ‘अकर्मकेभ्यः’ कहा है, अतः स्वयमेव ‘सकर्मकेभ्यः’ का सम्बन्ध कर्मणि के साथ लगता है ॥ माजी ) प्रति भाववाच्य कर्मवाच्य कर्तृवाच्य क्या होता है, यह भावकर्मणो (१॥३॥१३) सूत्र पर देखें । भाववाच्य कर्मवाच्य में विभक्ति वचन व्यवस्था अनभिहिते (२।३।१) सूत्र पर देखें ॥ पठ् धातु सकर्मक है, इसलिये उससे लकार कर्मवाच्य तथा कर्तृवाच्य में हुये हैं । एवं प्रास तथा हस् घातु अकर्मक हैं, अतः भाव और कर्ता में लकार हुए हैं। जिस धातु का कर्म के साथ सम्बन्ध नहीं है वह अकर्मक, तया जिसका कर्म के साथ सम्बन्ध है वह सकर्मक धातु होती है । पठ धातु का विद्या कर्म के साय ITS ५२८ अष्ट अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्तों का [चतुर्थ: सम्बन्ध है अतः वह सकर्मक है। प्रास, और हम का कर्म के साथ न सम्बन्ध है न हो सकता है, अत: वे अकर्मक धातु हैं ।। उदा० -सकर्मकों से कर्म में–पठयते विद्या ब्राह्मणेन (ब्राह्मग के द्वारा विद्या पढ़ी जाती है) । कर्ता में -पठति विद्यां ब्राह्मण: (ब्राह्मण विद्या पढ़ता है) । अकर्मकों से भाव में -प्रास्यते देवदत्तेन (देवदत्त के द्वारा बैठा जाता है । हस्यते देवदत्तेन (देवदत्त के द्वारा हंसा जाता है) । कर्ता में-प्रास्ते देवदत्तः (देवदत्त बैठता है) । हसति देवदत्त: (देवदत्त हँसता है) ॥ कत यहाँ से ‘कर्मणि भावे चाकर्म केभ्यः’ की अनुवृत्ति ३।४।७२ तक जायेगी ।। हो का सिकार तयोरेव कृत्यक्तखलर्थाः ॥३।४।७०॥ एक तयोः ७१२॥ एव अ० ॥ कृत्यक्तखलर्थाः १।३।। स०-खल अर्थो येषां ते खलाः , वहुव्रीहिः, । कृत्याश् च क्तश्च खलाश्च कृत्यक्तखलाः , इतरेतरयोगद्वन्द्वः ।। अन०-कर्मणि भावे चाकर्म केभ्यः, प्रत्ययः ॥ अर्थः–तयोरेव =भावकर्मणोरेव कृत्यसंज्ञकाः क्तः खलाश्च प्रत्यया भवन्ति । अर्थात सकर्म केभ्यो धातुभ्यो विहिता ये कृत्यसंज्ञका: क्तः खलाश्व प्रत्ययास्ते कर्मणि ; अकर्म केभ्यो धातुभ्यो विहि ताश्च ये कृत्यक्तखलस्तेि भावे भवन्ति ।। उदा० – कृत्याः कर्मणि - कर्तव्यो घट: कुलालेन, भवता ग्रामो गन्तव्यः। कृत्याः भावे-नासितव्यं भवता. शयितव्यं भवता। क्तः कर्मणि-कृतो घटः कुलालेन । क्तो भावे-प्रामितं भवना, शयित भवता । खलाः कर्मणि-ईपत्पच अोदनो देवदत्तेन, सुपच:, दुष्पचः । ईषत्पठा विद्या ब्राह्मगेन, सुपठा, दुष्पठा। खलीः भावे–ईवत्स्वयं भवता, गुम्बाम , दु:स्वपम । प्रायः ईषदाढ्यं भवं भवता, स्वाढ्यं भवम्, दुराढ्यं भवम् ।। भाषार्थ:-[कृत्यक्तवला:] कृत्यसंज्ञक प्रत्यय यत तया खलप्रयंकाले प्रत्यय [तयो:] भाव और कर्म में [एव] ही होते हैं। अर्थात सकर्मक धातुओं से विहित जो कृत्य कन और खलथं प्रत्यय वे कर्म में होते हैं, तथा कर्मक धातुओं से विहित जो कृत्य का और खलर्थ प्रत्यय वे भाव में होते हैं। उदा - कृत्यों का कर्म में - कर्तव्यो घटः कुलालेन (कुम्हार के द्वारा घड़ा बनाया जाना चाहिये), भपता ग्रामो गन्तव्यः (आपके द्वारा ग्राम को नपा जाना चाहिये। । कृत्यों . अब में - ग्रामित व्य भवता (आपके द्वारा बैठा जाना चाहिये ), शयितव्यं भवता (अापके द्वारा सोया जाना चाहिये)। कर का कार्य में-कुतो घटः कुलालेन (कुम्हार के द्वारा घड़ा बनाया गया।। क्त का भाव में-त्रासितं भवता (आपके द्वारा बैठा गधा), शयित भवता म.उमा (आपके द्वारा सोया गया)। खजनों का कर्म-ईष पद प्रोदनो देवदत्तेन (देवदत्त निमी के द्वारा चायल पकाया जाना प्राधान है), सुपचः, दुष्पचः । ई पल्पडा विद्या ब्राह्मणेन यती ब्राह्मण के द्वारा विद्या पढ़ा जाना आसान है), सुगठा, दुपठा। खनों का भाव इन्ध में -ईषत्स्वपं भवता (ग्राप के द्वारा सोना आसान है), सुस्वपम , दुःस्वपम् । ईषदाढ्यं. पाद. तृतीयोऽध्यायः ५२६ भवं भवता, स्वायंभवम , दुराढ्यंभवम् ।। ईषत्पच: आदि में ईषद्दुःसुषु० (३।३। १२६) से, तथा ईषदाढ्यंभवं में कत कर्मणोश्च० (३।३।१२७) से ‘खल’ प्रत्यय हा है । प्रास् शीङ भू तथा स्वप् अकर्मक धातुयें हैं,सो उनसे भाव में प्रत्यय हुये हैं। तथा पच पठ् प्रादि सकर्मक हैं, सो उनसे कर्म में प्रत्यय हुये हैं। कर्त्तव्यम् में तव्यत्तव्या नीयर: ( ३।१।६६) से तव्य प्रत्यय हुआ है, जिसकी ‘कृत्य’ संज्ञा कृत्याः (३.१६५) से हुई है। भाव कर्म में विभक्ति वचन की व्यवस्था अनभिहिते (२१३११) सूत्र पर देखें ।। प्रादिकर्मणि क्तः कर्तरि च ॥३।४७१॥ आदिकर्मणि ७१।। क्तः १।१।। कर्तरि ७।१।। च अ०॥ स०-आदि चादः कर्म च आदिकर्म, तस्मिन्, कर्मधारयस्तत्पुरुषः ॥ अनु०-कर्मणि भावे चाकर्मके म्यः, प्रत्ययः ।। अर्थः -पादिकर्मणि क्रियारम्भस्यादिक्षणेऽर्थे विहितः क्तः प्रत्यय: कतरि भवति, चकाराद्भावकर्मणोरपि भवति ॥ उदा०-प्रकृतः कटं देवदत्त: । प्रभुक्त प्रोदनं देवदत्तः । कर्मणि-प्रकृतः कटो देवदत्तेन । प्रभुक्त प्रोदनो देवदत्तेन । भावे प्रकतं देवदत्तेन । प्रभक्तं देवदत्तेन ॥ भाषार्थ:-[आदिकर्मणि] क्रिया के प्रारम्भ के प्रादि क्षण में विहित जो [क्तः] क्त प्रत्यय वह [कर्तरि कर्ता में होता है, [च] तया चकार से यथाप्राप्त भावकर्म में भी होता है । तयोरेव कृत्यक्तखलीः (३।४।७०) से ‘क्त’ भाव और कर्म में ही प्राप्त था,कर्ता में भी विधान कर दिया है । आदिकर्मणि निष्ठा वक्तव्या (वा. ३।२।१०२) इस वात्तिक से प्रादिकर्म में क्त प्रत्यय का विधान है, उसी को यहाँ कर्ता में कह दिया है ।। उदा०-प्रकृतः कटं देवदत्तः (देवदत्त ने चटाई बनानी प्रारम्भ को) । प्रभुक्त प्रोदनं देवदत्तः (देवदत्त ने चावल खाना प्रारम्भ किया)। कर्म में-प्रकृतः कटो देवदत्तेन (देवदत्त के द्वारा चटाई बनाना प्रारम्भ किया गया)। प्रभुक्त मोदनो देवदत्तेन । भाव में प्रकृतं देवदत्तेन (देवदत्त के द्वारा प्रारम्भ किया गया)। प्रभुक्तं देवदत्तेन ।। यहां से ‘क्तः कतरि’ को अनुवृत्ति ३।४।७२ तक जायेगी ।। ) जि गत्यकर्मकश्लिषशीङ्स्थासवसजनरुहजीर्यतिभ्यश्च ॥३।४।७२॥ गत्यर्था । भ्य: ५।३॥ च अ० ॥ स०-गतिरों येषां ते गत्यर्थाः, बहुव्रीहिः । गत्यर्थाश्च अकर्मकाश्च श्लिषश्च शीङ् च स्थाश्च प्रासश्च वसश्च जनश्च रुहश्च जीर्य तिश्च गत्यर्था जीर्यंतयः,तेभ्य:, इतरेतरयोगद्वन्द्वः॥ अनु० –क्तः, कर्तरि, कर्मणि भावे चाकर्मकेभ्यः, धातो:, प्रत्ययः॥ अर्थः-गत्यर्थेभ्यो धातुभ्योऽक केभ्यः श्लिषादि ५.३० अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [चतुर्थः भ्यश्च य: क्तो विहित: स कर्तरि भवति, चकाराद् यथाप्राप्तं भावकर्मणोर्भवति ।। उदा०—गत्यर्थेभ्य:-गतो देवदत्तो ग्रामम्, गतो देवदत्तेन ग्राम:, गतं देवदत्तेन । वजितो देवदत्तो ग्रामम, ब्रजितो देवदत्तेन ग्राम:, वजितं देवदत्तेन । अकर्मकेभ्यः ग्लानो देवदत्तः, ग्लानं देवदत्तेन । आसितो देवदत्तः, आसितं देवदत्तेन । श्लिष-उप श्लिष्टा कन्यां माता, उपश्लिष्टा कन्या मात्रा, उपश्लिष्टं भवता। शीङ-उपशयितो गुरु देवदत्तः, उपशयितो गुरुर्देवदत्तेन, उपशयितं भवता। स्था-उपस्थितो गुरु देव दत्तः, उपस्थितो गुरुर्देवदत्तेन, उपस्थितं भवता । आस-उपासितो गुरु देवदत्तः, उपा सितो गुरुर्देवदत्तेन,उपासितं भवता । वस-अनूषितो गुरु देवदत्तः,अनूषितो गुरुर्देवदत्तेन, अनूषितं भवता । जन-अनुजात: पुत्र: कन्याम, अनुजाता पुत्रेण कन्या, अनुजातं पुत्रेण । रुह-प्रारूढो वृक्षं देवदत्तः, आरूढो वृक्षो देवदत्तेन, पारूढं देवदत्तेन । ज–अनुजीर्णो देवदत्तो वृषलम, अनुजीर्णो देवदत्तेन वृषल:, अनुजीणं देवत्तेन ॥ भाषार्थ:-[गत्यर्था जीर्यतिम्य:] गत्यर्थक, प्रकर्मक, एवं श्लिष, शीङ, स्था, प्रास, वस, जन, रुह तथा ज धातुओं से विहित जो क्त प्रत्यय वह कर्ता में होता है, [च] चकार से यथाप्राप्त भाव कर्म में भी होता है । श्लिष प्रादि धातुयें उपसर्ग सहित होने पर सकर्मक हो जाती है। प्रतः सूत्र में उन का पाठ किया गया है। उदाहरणों में इन धातुओं के सोपसर्ग उदाहरण दिखाये गये है ॥ उदा० – गत्यर्थकों से-गतो देवदत्तो प्रामम् (देवदत्त गांव को गया)। कर्म में-गतो देवदत्तेन ग्रामः (देववत्त के द्वारा ग्राम को जाया गया)। भाव में-गतं देववत्तेन (देवदत्त के द्वारा जाया गया) । अकर्मकों से-ग्लानो देवदत्तः (देवदत्ता ने ग्लानि को), ग्लानं देवदतेन देवदत्त के द्वारा ग्लानि की गई)। प्रासितो देवदत्तः (देवदत्त बैठा), प्रासितं देवदत्तेन (देवदत्त के द्वारा बैठा गया)। श्लिष-उपश्लिष्टा कन्यां माता (माता ने कन्या का प्रालिङ्गन किया) । उपश्लिष्टा कन्या मात्रा (माता के द्वारा कन्या का प्रालिङ्गन किया गया)। उपश्लिष्टं भवता (आपके द्वारा आलिङ्गन किया गया)। शीङ -उपशयितो गुरू देवदत्त: (देववत्त गुरु जी के पास रहा) । उपशयितो गुरुर्देवदत्तेन (देवदत्त के द्वारा गुरुजी के पास रहा गया)। उपशयितं भवता (मापके द्वारा रहा गया) । स्था-उपस्थितो गुरू देवदत्तः (देववत्त गुरु के पास उपस्थित हुमा)। कर्म एवं भाव में उदाहरण संस्कृतभाग में देख लें। प्रागे से यहां अर्थप्रदर्शनार्थ कत्त वाच्य ही विखायेंगे। प्रास–उपासितो गुरु देवदत्तः (देववत्त ने गुरु की उपासना की)। बस- अनूषितो गुरु देवदत्तः (देववत्त गुरु के पास रहा) । जन-अनुजातः पुत्रः कन्याम् (कन्या के पश्चात पुत्र पैदा हुआ)। रुह-बारूढो वृक्षं देववत्तः (देवदत्त पेड़ पर चढ़ा) । ज-अनुजीर्णो देवदत्तो वृषलम (वेवदत्त ने वृषल=नीच को मार-मार कर क्षीण कर दिया) ॥ पाद:] तृतीयोऽध्यायः । - दाशगोध्नौ संप्रदाने ॥३॥४॥७३॥ काही दाशगोध्नो ११२॥ सम्प्रदाने ७१॥ स०-दाशश्च गोध्नश्च दाशगोनी, इतरेतरयोगद्वन्द्वः ।। अर्थः-दाश गोघ्न इत्येतो कृदन्तौ शब्दो सम्प्रदाने कारके निपा त्येते ॥ कृत्संज्ञकत्वात् कर्तरि प्राप्तौ,सम्प्रदाने निपात्येते ॥ ‘दाथ दाने’ अस्माद् धातो: पचाद्यच् (३।१।१३४)। दाशन्ति तस्मै इति दाश: । गोघ्न इति टकप्रत्ययान्तो निपा त्यते । गां=दुग्धादिक’ नन्ति प्राप्नुवन्ति’ यस्मै स गोघ्नोऽतिथि: ॥ भाषार्थ:-[दाशगोघ्नो] दाश तथा गोध्न कृदन्त शब्द [सम्प्रदाने] सम्प्रदान कारक में निपातन किये जाते हैं । कृदन्त होने से कर्तरि कृत् (३।४।६७) से कर्ता में प्राप्त थे, सम्प्रदान में निपातन कर दिया है । दाश: में दाश्र धातु से पचादि अच् सम्प्रदान कारक में हुआ है । तथा गोध्न: में गो पूर्वक हन धातु से टक् प्रत्यय निपा. तन से हुआ है,जो कि प्रकृत सूत्र से सम्प्रदान में हुमा। हन् के ‘ह’को कुत्व हो हन्तेजि. (७।३।५४) से, तथा उपधा का लोप गमहनजनखनघसां० (६।४६८) से हुमा ह ॥ उदा.-दाशः (जिसके लिये दिया जाता है)। गोन: (गौ का विकार दूध प्रादि जिसके लिये प्राप्त किया जाता है, ऐसा अतिथि) ॥ भीमादयोऽपादाने ॥३।४।७४।। भीमादयः १॥३॥ अपादाने ७१॥ स०-भीम प्रादिर्येषां ते भीमादयः, बहुव्रीहिः अर्थः–भीमादयः शब्दा प्रोणादिकाः, तेऽपादाने कारके निपात्यन्त ॥ उदा०-बिभ्यति जना अस्मात् स भीमः, भीष्मो वा । बिभेत्यस्मादिति भयानकः॥ भाषार्थ:-[भीमादयः] भीमादि उणादिप्रत्ययान्त शब्द [अपादाने] अपादान कारक में निपातन किये जाते हैं ।। पूर्ववत् कर्ता में प्राप्त होने पर प्रपादान में निपातन हैं । भिय: षुग वा (उणा० १.१४८) इस उणादिसूत्र से ‘जिभी भये’ धातु से मक् प्रत्यय, तथा विकल्प से षक पागम होकर भीमः (जिससे लोग डरते हैं), भीष्मः बना है । भयानक: में पूर्ववत् ‘भी’ धातु से प्रानक: शीङ भियः (उणा०३।८२) इस उणादिसूत्र से प्रानक प्रत्यय हुमा है । गुण अयादेश होकर भयानकः बना ।।। (प्रो) ताभ्यामन्यत्रोणादयः ॥३।४।७५॥ ताभ्याम् ५।२॥ अन्यत्र प० । उणादय: १।३।। स०-उण् ादिर्येषां ते उणा दयः, बहुव्रीहिः ।। अनु०-प्रत्यय: ॥ प्रय:-उणादय: प्रत्ययास्ताभ्याम = सम्प्रदाना १. यहाँ ‘हन हिमागत्योः’ धातुपाठ में पड़े होने से नन्ति का अर्थ प्राप्त करना है। क्योंकि गति के ज्ञान गमन और प्राप्ति तीन अर्थ होते हैं। गौ का अर्थ भी यहाँ निरुक्त के प्रमाण से (नि० २।५) गो का विकार दूध या चमड़ा आदि है ॥ ५३२ अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [चतुर्थः पादानाभ्यामन्यत्र कारके भवन्ति ॥ कृत्संज्ञकत्वात् कर्तवैव प्राप्ते कर्मादिष्वपि विधी यन्ते ॥ उदा०-कृष्यतेऽसो=कृषिः। तन्यते इति तन्तुः । वृत्तमिति वम । चरितमिति चर्म ॥ भाषार्थ:-‘ताभ्याम् पद से यहाँ उपयुक्त सम्प्रदान और अपादान लिये गये हैं। [उणादयः] उणादि प्रत्यय [ताभ्याम् ] संप्रदान तथा अपादान कारकों से [अन्यत्र] अन्यत्र कर्मादि कारकों में भी होते हैं। उणादि प्रत्यय कदतिङ (३॥१॥ ६३) से कृत्संज्ञक होते हैं । सो कर्त्ता में ही प्राप्त थे, अन्य कारकों में भी विधान कर दिया ॥ उदो०- कृषिः (खेती) में इगुपधात् कित् (उणा० ४।१२०) इस उणादिसूत्र से कृष धातु से इन प्रत्यय तथा इन को कित्वत् कार्य हुना है, जो कि प्रकृत सूत्र से कर्त्ता में हुआ । तन्तुः(धागा) में तन् पातु से सितनि गमि० (उणा० १६६६)से तुन् प्रत्यय हुआ है, जो कि प्रकृत सूत्र से कर्म में हुआ है । चर्म वम की सिद्धि ३।३।२ सूत्र पर देखें ॥ क्तोऽधिकरणे च ध्रौव्यगतिप्रत्यवसानार्थभ्यः ।।३।४।७६॥ वह क्त: ११॥ पधिकरणे ७।१॥ च अ०॥ ध्रौव्यर्थेभ्य: ५।३।। स०-ध्रौव्य श्च गतिश्च प्रत्यवसानञ्च ध्रौव्यगतिप्रत्यवसानानि, तान्यर्था येषां ते ध्रौव्य.. र्थाः, तेभ्यः, द्वन्द्वगर्भो बहुव्रीहिः ॥ अनु०-धातोः, प्रत्ययः ॥ अर्थः-ध्रौव्यार्थाः =स्थित्यर्थ का: (अकर्मकाः), प्रत्यवसानार्थाः=अभ्यवहारार्थाः । स्थित्यर्थेभ्यः (अकर्म केभ्य:) गत्यर्थेभ्य: प्रत्यवसानार्थेभ्यश्च धातुभ्यो य: क्तो विहितः सोऽधिकरणे कारके भवति, चकाराद् यथाप्राप्तं भावकर्मकत्तष ॥ उदा०-अकर्मकेभ्योऽधिकरणे-इदमेषामासितम, इदमेषां स्थितम । भावे-आसितं तेन, स्थितं तेन । कर्तरि-पासितो देवदत्तः, स्थितो देवदत्तः । गत्यर्थेभ्योऽधिकरणे-इश्मेषां यातम् इदमेषां गतम् । कर्मणि-यातो देवदत्तेन ग्राम:, गतो देवदत्तेन ग्राम: । भावे-यातं देवदत्तेन, गतं देवदत्तेन । कर्तरि-यातो देव दत्तो ग्राम,गतो देवदत्तो ग्रामम् । प्रत्यवसानार्थेभ्योऽधिकरणे-इदमेषां भुक्तम् । कर्मणि ( मुक्त प्रोदनो देवदत्तेन । भावे - देवदत्तेन भुक्तम् ॥ भाषार्थ:-[ध्रौव्यगतिप्रत्यवसानार्थेभ्यः] ध्रौव्याणक स्थित्यर्थक (अकर्मक) गत्यर्थक तथा प्रत्यवसानाशक यातुनों से विहित जो [क्तः] क्त प्रत्यय वह [अधि करणे] अधिकरण कारक में होता है,[च] तथा चकार से यथाप्राप्त भाव कर्म कर्ता में भी होता है।। पूर्ववत् ही यहां भी अकर्मक धातुओं से क्त कर्ता एवं भाव में होगा, तथा सकर्मक धातुओं से कर्ता एवं कर्म में होगा, ऐसा जाने ।। गत्यर्थाकर्मकश्लिष० (३।४.७२) से गत्यर्थक तथा अकर्मक धातुनों से विहित क्त कर्ता में भी होता है, सो पासितो देवदत्तः, यातो देवदत्तो प्रामम प्रादि कर्ता के उदाहरण भी दिये हैं। पादः] तृतीयोऽध्यायः सकर्मक धातुओं से जब कर्म वा सम्बन्ध नहीं होगा,तब वे अकर्मक ही मानी जायंगी, तो भाव में क्त होगा । जैसे कि ‘यातं देवदत्तेन’ में है ॥ ध्रौव्य अकर्मक धातुओं के उपलक्षण के लिये है, प्रत्यवसानार्थ अम्यवहारार्थ (खाने-पीने योग्य) को कहते हैं। इदमेषाम् प्रासितम (यह इनके बैठने का स्थान), इदमेषां स्थितम् (यह इनके ठहरने का स्थान) यहाँ एषां’ में अधिकरणवाचिनश्च (२।३।६८) से षष्ठी विभक्ति हुई है ॥ लस्य ॥३।४।७७॥ एलस्य ६।१॥ अर्थः- इतोऽग्रे प्रातृतीयाध्यायपरिसमाप्तेः (३।४।११७) वक्ष्य माणानि कार्याणि लकारस्यैव स्थाने भवन्ति, इत्यधिकारो वेदितव्यः । लस्येति उत्सृ ष्टानुबन्धस्य लकारसामान्यस्य निर्देशः । तेन धातोविहितस्य लकारमात्रस्य ग्रहणं भवति -लट्, लिट्, लुट, लुट्, लेट्, लोट्, लङ, लिङ्, लुङ, लुङ, इत्येते दश लकारा ॥ अग्र उदाहरिष्यामः ॥ anोनशकि __ भाषार्थ:–[लस्य] ‘लस्य’ यह अधिकारसूत्र है, पावपर्यन्त जायेगा। यहां से प्रागे जो कार्य कहेंगे, वे लकार के स्थान में हुमा करेंगे, ऐसा जानना चाहिये । ‘लस्य’ यहां ‘ल’ का सामान्यनिर्देश है। अतः लस्य से लकारमात्र (दसों लकारों) का ग्रहण होता है। 11 तिप्तस्झिसिप्थस्थमिब्वस्मस्ताताम्झथासाथाम्ध्वमिड् वहिमहिङ् ॥३।४।७८॥ तिप्त….. महिङ १११॥ स०-तिप्तस्झि० इत्यत्र समाहारो द्वन्द्वः ।। अनु० लस्य, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थः- धातो: तिप-तस्-झि,सिप्-थस्-थ,मिप्-वस्-मस् (परस्मैपदम्), त-आताम्-झ, थास-प्राथाम्-ध्वम्, इट-वहि-महिङ (आत्मनेपदम्) इत्येते अष्टादश आदेशाः लस्य =लकारस्य स्थाने भवन्ति ।। तत्र नव आदेशा: परस्मै पदिनां धातूनां, नव च आत्मनेपदिनाम् ॥ उदा०-परस्मैपदिभ्यः-पठति पठत: पठन्ति, पठसि पठथः पठथ, पठामि पठाव: पठाम: । प्रात्मनेपदिभ्यः-एधते एधेते एधन्ते, एघसे एघेथे एधध्वे, एघे एधावहे, एधामहे । एवमन्येषु लकारेषूदाहार्यम् ॥ 9 भाषार्थ:- लकार लट्, लिट् प्रादि के स्थान में [तिप.. महिङ] तिप् तस् झि मावि १८ प्रत्यय होते हैं। इनमें ६ तिप् तस् आदि परस्पदी धातुओं से, तथा शेष प्रात्मनेपदी धातुओं से होते हैं । पठ् शप तिप्=पठति बना। पठन्ति की सिद्धि परि० १।१।२ के पचन्ति के समान जानें । पठामि आदि में अतो दी? यनि (७।३।१०१) से दीर्घ होगा । एषु शप् त एधते बना । यहां सर्वत्र टित प्रात्मक (३।४७६) से टिभाग को एत्व होता है । एघेते, एपेशे की सिद्धि परि० १।१।११ अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्तो [चतुर्थः के पचेते के समान जाने । एषन्ते में पठन्ति के समान शप् को पररूप होगा। ‘एछ प्रयास =यहाँ थास: से (३।४।८०) से थास् को ‘से’ होकर एक्से बना है। एषावहे में भी अतो दी| यनि (७।३।१०१)से दीर्घ होगा ॥ ये सब प्रादेश यहाँ लट् के स्थान में हुए हैं। इसी प्रकाश अन्य दसों लकारों के स्थान में भी ये प्रादेश होंगे, सो जानें ॥ टित प्रात्मनेपदानां टेरे ॥३।४।७।। टितः ६१॥ आत्मनेपदानाम ६।३॥ टेः ६।१।। ए लुप्तप्रथमान्तनिर्देशः ॥ अन लस्य, धातोः, प्रत्ययः, परश्च ।। अर्थ:-टितो लकारस्य य पात्मनेपदादेशास्तेषां टे: एकारादेशो भवति ॥ उदा०-एधते, एघेते ॥ क म ला भाषार्थ:–[टित:] टित् अर्थात् लट् लिट् लुटू लुट् लेट लोट् इन छ: लकारों के जो [प्रात्मनेपदानाम ] प्रात्मनेपद प्रादेश ‘त प्राताम झ’ आदि, उनके [टे:] टि भाग को [ए] एकार प्रादेश हो जाता है । टि संज्ञा अचोऽन्त्यादि टि (१।११६३) से होती है। यहां से ‘टित:’ को अनुवृत्ति ३।४।८० तक जायेगी॥ मना कि nिe थासस्से ॥३॥४८॥ थास: ६॥१॥ से लुप्तप्रथमान्तनिर्देशः ।। अनु०-टितः, लस्य ॥ अर्थ:-टितो लकारस्य यः ‘थास्’ प्रादेशः तस्य स्थाने ‘से’ प्रादेशो भवति ॥ उदा०-एघसे, पचसे ।। भाषार्थ:-टित् ६ लकारों के स्थान में जो[थास:] थास् प्रादेश, उसके स्थान में [से ] ‘से आदेश होता है । यहां लट् लकार का ही उदाहरण दिया है। ऐसे ही टित् छहों लकारों में ‘से’ प्रावेश होगा, ऐसा जानें ॥ एषसे की सिद्धि ३४१७८ सूत्र में देख लें ॥ PARAPE लिटस्तझयोरेशिरेच् ॥३।४।८१॥ रास लिट: ६।१।। तझयोः ६।२॥ एशिरेच श१॥ स०–तझ० इत्यत्रेतरेतरयोग द्वन्द्वः। एश् च इरेच च एशिरेच्, समाहारो द्वन्द्वः॥ अर्थ:-लिडादेशयोस्तझयोः स्थाने यथासङ्ख्यम् एश् इरेच इत्येतावादेशौ भवतः ॥ उदा-त-पेचे, लेभे । झ पेचिरे, लेभिरे ॥ भाषार्थ:-[लिट:] लिट् के स्थान में जो [तझयोः]त और भावेश, उनको यथासङ्ख्य करके [एशिरेच्] एश् तथा इरेच् प्रावेश होते हैं । लिट् लकार में सिद्धि परि० १।२।६ के समान जानें । केवल यहाँ यही विशेष है कि अत एकहल् मध्ये० (१।४।१२०) से अभ्यास का लोप एवं धातु के ‘प्र’ को एत्व हो जाता है ।। यहाँ से ‘लिट:’ को अनुवृत्ति ३४१८२ तक जायेगी। पादः] तृतीयोऽध्याय: ५३५ हैं
- परस्मैपदानां णलतुसुस्थलथ सणल्वमाः ॥३।४।२॥ परस्मैपदानाम् ६।३। णलतु .. माः १२३॥ स०-णल• इत्यत्रेतरेतरयोग द्वन्द्वः ।। अनु०-लिटः॥ अर्थः-लिडादेशानां परस्मैपदसंज्ञकानां तिबादीनां स्थाने यथासंख्यं णल, अतुस, उस, थल, अथस, अ, णल, व, म इत्येते नव आदेशा भवन्ति ।। उदा०-पपाठ पेठतुः पेठुः, पेठिथ पेठथु: पेठ, पपाठ-पपठ, पेठिव, पेठिम ।। भावार्थ:-लिट् लकार के[परस्मैपदानाम् ] परस्मैपदसंज्ञक जो तिबादि प्रादेश, उनके स्थान में यथासंख्य करके [णल “माः] णल अतुस् आदि ६ आदेश हो जाते हैं ।। पेठतुः पेठः प्रादि में पूर्ववत् अत एकहल्मध्ये अना० (६।४।१२०) से अभ्यास लोप तथा एत्व होगा ॥ शेष पूर्वनिर्दिष्ट सिद्धियों के अनुसार ही जानें । णलुत्तमो वा (७.१९१) से उत्तम पुरुष का णल विकल्प से णित्वत् माना जाता है । अत: णित् पक्ष में अत उपधायाः (७।२।११६) से वृद्धि होकर पपाठ, और प्रणित् पक्ष में वृद्धि न होकर पपठ बन गया है | यहाँ से सम्पूर्ण सूत्र की अनुवृत्ति ३।४८४ तक जायेगी। विदो लटो वा ॥३॥४८३॥ - विदः ॥१॥ लटः ६॥१॥ वा अ० ॥ अनु०-परस्मैपदानां णलतुसुस्थलथसण ल्वमा, धातोः॥ अर्थ:-‘विद ज्ञाने’ इत्यस्माद्धातो: परो यो लट् तस्य परस्मैपदसंज्ञकानां तिबादीनां स्थाने यथासंख्यं णलादयो नव आदेशा विकल्पेन भवन्ति ॥ उदा०-वेद विदतुः विदुः, वेत्थ विदथुः विद, वेद विद्व विद्म । पक्षे लडेव-वेत्ति वित्तः विदन्ति, वेसि वित्थः वित्त्थ, वेदिम विद्व: विदमः॥ भाषार्थ:-[विद:] ‘विद ज्ञाने’ धातु से [लटः] लडावेश (तिप् प्रादि) जो परस्मैपदसंज्ञक उनके स्थान में क्रम से णल अतुस् प्रादि ६ प्रादेश [वा] विकल्प से होते हैं, अर्थात् वर्तमानकाल में वेद वेत्ति दोनों प्रयोग होंगे ॥ वेत्ति में खरि च (८।४।५४) से द् तो त् हुमा है। शेष पूर्ववत हो जाने । उदा०-वेद (जानता है), विदतुः (दोनों जानते हैं), विदुः (जानते हैं)। पक्ष में-वेत्ति (जानता है), वित्तः, विदन्ति ॥ __यहाँ से ‘लटो वा’ की अनुवृत्ति ३।४८४ तक जायेगी। ब्रुवः पञ्चानामादित आहो ब्रुवः ॥३।४।८४॥ ब्रव: ॥१॥ पञ्चानाम् ६॥३॥ आदित: अ०॥ पाहः १।१।। ब्रवः ६॥१॥ अनु०-लटो वा, परस्मैपदानां णलतुसुस्थलथुसणल्वमाः, धातोः ॥ अर्थः-ब्रू बधातो प्रष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [चतुर्थः रुत्तरो यो लट तस्यादिभूतानां परस्मैपदसंज्ञकानां पञ्चानां तिबादीनां स्थाने यथाक्रम पञ्चव णलादय आदेशा विकल्पेन भवन्ति, तत् सन्नियोगेन च ब्रव: स्थाने प्राह इत्यय मादेशो भवति ॥ उदा०-पाह पाहतुः पाहुः, पात्थ पाहथुः। पक्षे तिबादय एव ब्रवीति ब्रूतः ब्रु वन्ति, ब्रवीषि ब्रूथः॥ भाषार्थ:- [ब्रुवः] बू धातु से परे जो लट् लकार, उसके स्थान में जो पर स्मैपदसंज्ञक [आदितः] आदि के [पञ्चानाम ] पाँच प्रादेश (तिप् तस् झि सिप् थस् ), उनके स्थान में क्रम से पांच ही णल्, अतुस्, उस्, थल, प्रथुस् ये प्रादेश विकल्प से हो जाते हैं, तथा उन मादेशों के साथ-साथ [ब्र व:] ज् धातु को [पाहः] बाह प्रादेश भी हो जाता है ।। उदाहरण संस्कृतभाग में देखें । लोटो लङ्वत् ।।३।४।२५॥ लोटः ६॥१॥ लवत अ० ॥ लङ इव लवत्, षष्ठ्यन्तात् तत्र तस्येव (५१। ११५) इति वति: ।। अर्थः-लोट्लकास्भ्य लङ्वत् कार्य भवति ॥ अतिदेशसूत्रमिदम्॥ उदा० –पचताम्, पचतम्, पचत, पचाव, पचाम ॥ भाषार्थ:-यह अतिदेशसूत्र है । [लोट:] लोट् लकार को [लङ वत्] लङ के समान कार्य हो जाते हैं । लङ्वत् प्रतिवेश होने से ङित् लकारों को कहे हुए तस्थस्थमिपां० (३।४।१०१) से ताम् तम त अम् प्रादेश लोट को भी हो जाते हैं ! सो लोट् के तस् को ताम् होकर पचताम्, लोट ले यस् को तम् होकर पचतम् , तथा थ को त होकर पचत बना है । इसी प्रकार लङ्वत् अतिदेश होने से पचाव पचाम में नित्यं डिन्तः (३।४६६) से ङित सकारों को कहा हुआ सकारलोप यहाँ भी हो जाता है। पच् शप् व, यहाँ प्राडुत्तमस्य पिच्च (३।४१६२) से प्राट् प्रागम होकर पच् नाट व=पचाव, पचाम बन गया ।। यहां से ‘लोट:’ की अनुवृत्ति ३।४।६३ तक जायेगी ॥
- एरुः ॥३॥४॥८६॥ नाए। ६।१।। उः १०१।। अनु०-लोटः ।। अर्थः–लोडादेशानाम् इकारस्य स्थाने उकारादेशो भवति ॥ उदा०-पचतु, पचन्तु ॥ भाषार्थ:–लोट् लकार के जो तिप् प्रादि प्रादेश, उनके [ए:] इकार को [उ:] उकार प्रावेश होता है । ति तथा अन्ति (झि) लोडादेश हैं, सो इनके इ को उ हो गया है । लोडादेश सिप तथा मिप् के इकार को उकार नहीं होता, क्योंकि इन्हें ‘हि’ और ‘नि’ आदेश विधान किये हैं। पाद:] तृतीयोऽध्यायः सेह्य पिच्च ॥३४।८७।। सेः ६.१॥ हि लुप्तप्रथमान्तनिर्देशः ।। अपित् ११॥ च अ०॥ स०-न पित अपित, नञ्तत्पुरुषः ॥ अनु० –लोटः ।। अर्थः-लोडादेशस्य सिपः स्थाने ‘हि’ इत्यय मादेशो भवति, अपिच्च भवति स प्रादेशः॥ उदा०–लुनीहि, पुनीहि, राध्नुहि, तक्ष्णहि ॥ वाय को भाषार्थ:–लोडादेश जो [सेः ] सिप् उसके स्थान में [हि] हि आदेश होता है, [च] और वह [अपित् ] अपित् भी होता है ।। सिप् पित् है, सो उसके स्थान में हुमा प्रादेश ‘हि’ भी स्थानिवद्भाव से पित् माना जाता, प्रतः अपित कर दिया है ।। यहाँ से ‘सेह्य पित्” की अनुवृत्ति ३।४।८८ तक जायेगी। जा वा छन्दसि ॥३॥४॥८॥ीना मिा वा अ० ॥ छन्दसि ॥१॥ मनु०-सेह्य पित, लोटः ॥ अर्थः-पूर्वसूत्रेण सिप: स्थाने यो हिविधीयते, स वेदविषये विकल्पेनाऽपिद् भवति ॥ पूर्वेण नित्यमपिति प्राप्ते विकल्प्यते ॥ उदा० - युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनः (यजु०४।१६)। जुहोधि,जुहुधि । प्रीणाहि, प्रीणीहि ॥ भाषार्थ:–पूर्व सूत्र से जो लोट को हि विधान किया है, उसको [छन्दसि] वेदविषय में [वा] विकल्प से अपित होता है । पूर्वसूत्र से नित्य अपित प्राप्त था, विकल्प कर दिया है ॥ युयोधि में व्यत्ययो बहुलम् (३.१।८५) से व्यत्यय होने से शप को श्लु हो गया हैं । अतः श्लौ (६।१।१०) से द्वित्व भी हो जायेगा । जुहुधि की सिद्धि परि० ३।३.१६६ में देखें। पित् पक्ष में जुहोधि युयोधि गुण होकर बनेगा, तथा अपित् पक्ष मे जुहुधि बनेगा । प्रीणीहि में अपित् पक्ष में ङित बत (१।२।४) होने से ई हल्यघोः (६।४।११३) से ईत्व हुआ है । पित पक्ष में ईत्व न होकर प्रोणाहि बनेगा ॥ मेनिः ।।३।४।८६॥ मे: ६।१॥ नि: ११॥ अन-लोटः।। अर्ष:-लोडादेशस्य मिप: स्थाने निः’ इत्ययमादेशो भवति ।। उदा०-पठानि, पचानि ।। भाषार्थः-लोडादेश जो [मेः] मिप् उसके स्थान में [निः] नि प्रादेश हो जाता है ॥ आडुत्तमस्य० (३।४।६२) से प्राट् अागम होकर सिद्धि जाने । LO ५३८ अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [चतुर्थ: प्रामेतः ॥३।४।६०॥ आम् १।१॥ एतः ६।१॥ अनु० -लोट: ।। अर्थ:-लोट्सम्बन्धिन एकारस्य स्थाने ‘प्राम’ आदेशो भवति ॥ लोटष्टित्वात् टित प्रात्मनेपदा० (३।४।७६) इति सूत्रेण यदेत्वं भवति, तस्येह ‘प्रोम्’ विधीयते ॥ उदा०-पचताम,पचेताम्, पचन्ताम् ॥ भाषार्थः-लोट सम्बन्धी जो [एत:] एकार उसे [आम ] आदेश होता है । लोट के टित होने से टित आत्मनेपदा० (३।४७६) से जो टि भाग को एत्व प्राप्त था, उसी को यह सूत्र प्राम करता है । । यहाँ से ‘एत:’ की अनुवृत्ति ३४६१ तक जायेगी। सवाभ्यां वामौ ॥३॥४॥६॥ सवाभ्यां श२॥ वामौ श२॥ स०-सश्च वश्च सवौ, ताभ्याम, इतरेतरयोग द्वन्द्वः ।। वश्च अम् च वामी, इतरेतरयोगद्वन्द्वः ॥ अन.-एतः, लोटः।। अर्थ: सकारवकाराभ्यामुत्तरस्य लोटसम्बन्धिन एकारस्य स्थाने यथासंख्यम् व अम इत्येतावादेशी भवतः ।। उदा०-पचस्व । पचध्वम् ॥ भाषार्थ:-[सवाभ्याम् ] सकार वकार से उत्तर लोट् सम्बन्धी एकार के स्थान में यथासङख्य करके [वामो] व और अम प्रादेश हो जाते हैं। पच् शप् थास, यहाँ थास: से(३।४।२०) से थास् को ‘से’ होकर ‘पचसे’ बना । उस स् से उत्तर ए को व होकर पचस्व (तू पका) बन गया। ‘पच् शप् ध्वम्’, यहाँ टित प्रात्मने (३।४१७९) से टि भाग को ए होकर पचध्वे बना । अब व से उत्तर ए को इस से अम होकर पचध्वम् बन गया ॥ प्राडुत्तमस्य पिच्च ॥३।४।६२॥ आट २१॥ उत्तमस्य ६।१॥ पित १३१॥ च अ० ॥ अनु० - लोटः॥ अर्थः लोटसम्बन्धिन उत्तमपुरुषस्याडागमो भवति, स चोत्तमपुरुष: पिद् भवति ।। उदा० करवाणि, करवाव, करवाम ।। भाषार्थ:-लोट् सम्बन्धी [उत्तमस्य] उत्तम पुरुष को [प्राट्] प्राट् का आगम हो जाता है, [च] और वह उत्तम पुरुष [पित् ] पित भी माना जाता है । यहाँ से ‘उत्तमस्य’ की अनुवृत्ति ३।४।६३ तक जायेगी। एत ऐ॥३।४।६३॥ एतः ६।१॥ ऐ लुप्तप्रथमान्तनिदेश; ॥ अनु०-उत्तमस्य, लोट: ॥ अर्थः लोटसम्बन्धिन उत्तमपुरुषस्य य एकारस्तस्य स्थाने ‘ऐ’ इत्ययमादेशो भवति ॥ उदा० करवै, करवावहै, करवामहै ॥ पाद:] तृतीयोऽध्यायः भाषार्थ:–लोट् लकार सम्बन्धी उत्तम पुरुष का जो [एत:] एकार, उसके स्थान में [ऐ] ‘ऐ’ प्रादेश होता है। परि० ३।४१६२ के समान सब कार्य होकर ‘करव प्राट् इट्’ रहा । टित प्रात्म० (३।४१७६) से एत्व, तथा उस ‘ए’ को प्रकृतसूत्र से ‘ऐ’ एवं प्राटश्च (६.१८७) से वृद्धि एकादेश होकर करवै प्रादि की सिद्धि जाने ॥ 110_लेटोऽडाटौ ॥३।४।६४॥ या लेट: ६।१॥ अडाटौ १२॥ स.–अडाटौ इत्यत्रेतरेतरयोगद्वन्द्वः॥ अर्थः लेटोऽट प्राट् इत्येतो आगमौ पर्यायेण भवत: ॥ उदा०-जीवाति शरदः शतम् । भवति, भवाति, भविषति, भविषाति ॥ भाषार्थ:-[लेट:] लेट लकार को [अडाटौ] अट पाट का आगम पर्याय से होता है । सिद्धि परि० ३॥१३४ में देखें ॥ यहां से ‘लेट:’ की अनुवृत्ति ३।४।६८ तक जायेगी। प्रात ऐ॥३।४।६।। प्रातः ६॥१॥ ऐ लुप्तप्रथमान्तनिर्देशः ।। अनु०-लेटः ॥ अर्थः-लेट सम्बन्धिन प्राकारस्य स्थाने ऐकारादेशो भवति ॥ आत्मनेपदेषु ‘पाताम आथाम’ इत्यत्र आकारो विद्यते, तस्येह कार्य मुच्यते ॥ उदा०-एधिषैते एविषैते, एधते एधते । एधि पैथे एधिषथे, एधैथे एधेथे ॥ भाषार्थ:-लेट् सम्बन्धी जो[प्रातः] आकार उसके स्थान में [ऐ] ऐकारादेश होता है ।। प्रात्मनेपद के प्राताम् प्राथाम् में प्राकार है, उसी प्रकार को यहां ऐ होता है । यहाँ से ‘ऐ’ को अनुवृत्ति ३।४।६६ तक जायेगी। वैतोऽन्यत्र ॥३४॥६६॥ । वा अ० ॥ एत: ६।१॥ अन्यत्र अ० ॥ अनु०-ऐ, लेटः ॥ अर्थः-लेट सम्बन्धिन एकारस्य स्थाने वा ऐकारादेशो भवत्यन्यत्र, अर्थात ‘पात ऐ’ इत्येतत्सूत्र विषयं वर्जयित्वा ॥ उदा०-एधतै एघात एधते एधाते । एधिषत एधिषात एधिषते एधिषाते । एधन्तै एधान्त एधन्ते एधान्ते एधिषन्तै एधिषान्त एधिषन्ते एधिषान्ते । एधस एधासै एधसे एधासे । एधिषस एविषासै एधिषसे एधिषासे । एधव एधा ध्वं एधध्वे एधाध्वे । एधिषध्वं एधिषाध्व एधिषध्वे एधिषाध्वे । एधै, एधे । एधिष, एधिषे । एघवहै एधाव है, एधवहे एधावहे । एधिषवहै एधिषावहै एधिषवहे एधिषा वहे । एधमहै एधामहै एधमहे एधामहे । एधिषमहै एधिषामहै एधिषमहे एधिषामहे । अहमेव पशूनामीश, सप्ताहानि शय, मदन एव बो ग्रहा गृह्यान्तै, मद्देवतान्येव वः पात्राणि उच्चान्त । न च भवति-यत्र क्व च ते मनो दक्षं दधस उत्तरम् ।। ५४० अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती
- किदाशिषि ॥३।४।१०४॥ कित ११॥ आशिषि ७१॥ अनु०-यासुट परस्मैपदेषूदात्त:, लिङः ॥ अर्थ:-आशिषि विहितस्य परमैपदविषस्य लिङो यासुड आगमो भवति, स किदु दात्तश्च भवति ॥ उदा०-उच्यात उच्यास्ताम् । इज्यात इज्यास्ताम् । जागर्यात् जागर्यास्ताम ॥ भाषार्थ:-[आशिषि] प्राशीर्वाद में विहित परस्मैपदसंज्ञक लिङ, को यासुट प्रागम होता है, वह [कित] कित् और उदात्त होता है । कित तथा डित दोनों में गणप्रतिषेध कार्य समान है। किन्तु यहाँ कित करने के विशेष प्रयोजन ये हैं कि-कित् परे रहते संप्रसारण तथा जागृ धातु को गुण हो जावे। वच् तथा यज् धातु को यासुट के कित होने से वचिस्वपियजा० (१।१५) से सम्प्रसारण होकर उच्यात् इज्यात बनता है । तथा जागर्यात में यासुट् के कित करने से जाग्रो विचि. (७।३।८५) से गुण हो जाता है । क्योंकि वहाँ ङित परे रहते गुणनिषेध कहा है, सो कित् परे रहते हो ही जायेगा। उच्यास्ताम् प्रादि में तस्थस्थमिपां० (३।४। १०१) से तस को ताम् हुआ है ॥ LEEPAIR पंत झस्य रन ।।३।४।१०५॥ 5519ी झस्य ६।१ रन् ११॥ अनु० -लिङः ।। अर्थ:-लिङादेशस्य झस्य ‘रन’ आदेशो भवति ।। उदा०-पचेरन, यजेरन् ॥ धरी भाषार्थ:-लिङादेश जो [झम्य] झ उसको [रन् ] रन् प्रादेश होता है ॥ इटोऽत् ॥३।४।१०६॥ इटः ६।१।। अत् १११॥ अनु०-लिङः ।। अर्थ:-लिङादेशस्य इटः स्थाने ‘अत्’ इत्ययमादेशो भवति ।। उदा०-पचेय, यजेय, कृषीय ॥ भाषार्थ:-लिङ प्रादेश [इट:] ‘इट्’ (उत्तमपुरुष का एकवचन) के स्थान में [अत ] ‘अत’ प्रादेश होता है ।। ‘पच् शप सीय इट’ पूर्ववत होकर लिङः सलोपो. (७२।७६) से सकार लोपः, तथा प्रकृत सूत्र से इद् के स्थान में प्रत प्रादेश होकर-पच ईय् अ-पचेय बन गया ।। प्राशीलिङ, में कृ सीय इट -कृ सीय प्र=कृषोय बना । यहाँ ‘प्रत्’ के ‘त’ को इत्संज्ञा का निषेध नहीं होता ॥om hur HU UT पाद:] तृतीयोऽध्यायः सुट् तिथोः ॥३।४।१०७॥ सुट १।१।। तिथोः ६।२।। स०-तिश्च थ च तिथौ, तयोः, इतरेतरयोगद्वन्द्वः ।। अनु -लिङः ।। अर्थ:-लिङ्सम्बन्धिनोस्तकारथकारयोः ‘सुड’ प्रागमो भवति ।। उदा०-एघिषीष्ट, एधिषीष्ठाः । भूयात्, भूयास्ताम् । पचेत ॥ भाषार्थ:- लिङ सम्बन्धी [तिथो] तकार और थकार को [सुट्] सुट् का प्रागम होता है । ति में इकार उच्चारणार्थ है। परस्मैपद के थस एवं थ को तस्थ स्थमिपां० (३।४।१०१)से क्रम से तम् त आदेश हो जाते हैं । अतः परस्मैपद के थकार के प्रागम का उदाहरण नहीं देखा जा सकता॥सट प्रागम तकार थकार मात्र को कहा है । अतः विधिलिङ, एवं प्राशीलिङ में प्रात्मनेपदी परस्मैपदी सभी धातुओं से सुट होता है। पर विधिलिङ, के सार्वधातुक होने से लिङः सलोपो० (७।२१७६) से सकार लोप होकर श्रवण नहीं होता, आशीलिङ में श्रवण होता है ॥ एधिषीष्ट की सिद्धि परि० १।२।११ के भित्सीष्ट के समान जाने । एधिषीष्ठाः थास में बनेगा। भूयात् में ‘स्को: संयोगाद्यो० (८।३।२६) से यासुट के सकार का लोप होगा। तथा पुन: इसी सूत्र से सुट के सकार का लोप भी हो जायेगा ।। पचेत, की सिद्धि परि० ३।१। ६८ के पठेत के समान जाने । झेजु स् ॥३।४।१०८।। झेः ६।१॥ जुस ११॥ अनु०–लिङः॥ अर्थ:-लिङादेशस्य भे: स्थाने जुस आदेशो भवति ॥ उदा०-पचेयु:, पच्यासुः । भवेयुः, भूयासुः ॥ भाषार्थ:-लिङादेश [झेः] ‘झि’ (परस्मैपद में) को [जुस्] जुस् आदेश हो जाता है । विधिलिङ प्राशीलिङ् दोनों में ही झि को जुस् हो जायेगा । पचेयुः भवेयुः में सूत्र ३।४।१०२ के समान सारे कार्य होकर प्रकृत सूत्र से झि को जुस् हो जायेगा॥ प्राशीलिङ में पच् यास् झि=पच् यास् उस्=रुत्व विसर्गादि होकर पच्यासुः बन गया। विधिलिङ में सार्वधातुक होने से शप् प्रत्यय होता है । पर प्राशीलिङ लिङाशिषि (३।४।११६) से प्रार्धधातुकसंज्ञक होता है । अतः वहाँ शप विकरण नहीं होता ॥ यहां से ‘झेर्जुस्’ को अनुवृत्ति ३।४।११२ तक जायेगी। मलिजा सिजभ्यस्तविदिभ्यश्च ।।३।४।१०६॥ सिजभ्यस्तविदिभ्यः ॥३॥ च प्र०॥ स०-सिच् च अभ्यस्तञ्च विदिश्च सिजभ्य स्तविदयः, तेभ्य:, इतरेतरयोगद्वन्द्वः ॥ अनु०-झर्जुस्, लस्य, मण्डूकप्लतगत्या ङित इत्यप्यनुवर्तते, नित्यं जितः (३४६९) इत्यत: ॥ अर्थ:-सिच: परस्य. अभ्यस्तसंज्ञके ५४४ अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [चतुर्थः भ्यो वेत्तेश्चोत्तरस्य डितो झर्जुसादेशो भवति ॥ उदा०—सिच्- अकार्षः, अहार्षुः । अभ्यस्तसंज्ञकेभ्यः-अबिभयु:, अजुहवः, अजागरुः । वेत्ते:-अविदुः॥ भाषार्थ:-[सिजभ्यस्तविदिभ्यः] सिच से उत्तर, अभ्यस्तसंज्ञक से उत्तर, तथा विद् धातु से उत्तर [च] भी झि को जुस् प्रादेश होता है ॥ अभ्यस्त और विदि का ग्रहण सिच परे न रहने पर, अर्थात् लङ में भी झि को जुस हो जावे इसलिए है ॥ यहाँ प्रश्न यह है कि लट् लकार में झि को जुस् क्यों नहीं होता? इसका उत्तर यह है कि यहाँ ‘ङितः’ की अनुवृत्ति मण्डूकप्लुतगति से प्राती है । सो ङित् लकार (लङ) के हो झि को जुस् होगा ॥ यहाँ से ‘सिचः’ को अनुवृत्ति ३।४।११० तक जायेगी। प्रातः ।।३।४।११०॥ प्रातः ५॥१॥ अन-झर्जुस, सिचः ॥ अर्थ:–पूर्वेणैव प्राप्ते नियमार्थमिदं सूत्रम् । सिच:=सिजलुकि आकारान्तादेव झेर्जुस् भवति ॥ उदा.- अदुः । अधुः । अस्थुः ।। _भाषार्थ:–पूर्वसूत्र से ही झि को जुस् प्राप्त था, पुन: यह सूत्र नियमार्थ हैं ॥ सिच से उत्तर (सिचलुगन्त से उत्तर) यदि झि को जुस् हो, तो [प्रात:] प्राकारान्त घातु से उत्तर ही हो । यहाँ ‘सिच:’ एवं ‘प्रातः’ दोनों में पञ्चमी है । सो दोनों से अनन्तर झि सम्भव नहीं, अतः सिच: से यहाँ सिच्लुगन्त अर्थात् जहाँ सिच का लुक् हो जावे, वहीं का ग्रहण होता है । प्रत्ययलक्षण से वहाँ सिच से उत्तर ‘झि’ होगा। तथा श्रति से प्राकारान्त धातु से उत्तर भी हो ही जायेगा । दा पा स्था इन धातुओं के सिच का लुक् गातिस्थाघूपाभूभ्य:० (२।४१७७) से हुना है ॥ यहां से ‘प्रात:’ को अनुवृत्ति ३।४।१११ तक जायेगी । लङः शाकटायनस्यैव ।।३।४।१११॥ - लङः ६।१।। शाकटायनस्य ६।१।। एव अ० ।। अनु०-प्रातः, झेर्जुस । अर्य: आकारान्तादुत्तरस्य लङादेशस्य भेर्नुस् प्रादेशो भवति, शाकटायनस्याचार्यस्य मतेन ॥ उदा०-अयु:, अवः । अन्येषां मते-अयान, अवान् ॥ Pre भाषार्थ:-प्राकारान्त धातुओं से उत्तर [लङ:] लङ् के स्थान में जो झि आदेश उसको जस् प्रादेश होता है, [शाकटायनस्य] शाकटायन प्राचार्य के मत में [एव] हो । गत यहां से सम्पूर्ण सूत्र को अनुवृत्ति ३।४।११२ तक जायेगी। पादः] निशाणार तृतीयोऽध्यायः द्विषश्च ॥३।४।११२॥ 19 ती द्विष: ५।१।। च अ० ॥ अनु०-लङ: शाकटायनस्यैव, झर्जुस् । अर्थ:-द्विष् धातोरुत्तरस्य लङादेशस्य झर्जुस् प्रादेशो भवति, शाकटायनस्यैवाचार्यस्य मतेन । उदा०-अद्विषः । अन्येषां मते-अद्विषन् । भाषार्थ:-[द्विष:] द्विष् पातु से परे [च] भी लङादेश कि के स्थान में जुस आदेश होता है, शाकटायन प्राचार्य के ही मत में ॥ अन्यों के मत में नहीं होगा, सो अद्विषन् (उन्होंने द्वेष किया) बनेगा ।। । तिशित् सार्वधातुकम् ॥३।४।११३॥ तिशित् १।१।। सार्वधातुकम् ॥१॥ स०–श् इत् यस्य स शित्, बहुव्रीहिः॥ तिङ च शित् च तिशित्, समाहारो द्वन्द्वः ।। अनु०-धातोः,प्रत्यय:,परश्च ॥ अर्थः धातोविहिताः तिङः शितश्च प्रत्यया सार्वधातुकसंज्ञका भवन्ति ॥ उदा०-भवति, नयति । स्वपिति, रोदिति । पचमानः, यजमानः ॥ की माता भाषार्थः-धातु से विहित [तिशित ] तिङ तथा शित् =शकार जिनका इत्संज्ञक हो, उन प्रत्ययों को [सार्वधातुकम्] सार्वधातुक संज्ञा होती है ॥ शप् के शित होने से सार्वधातुक संज्ञा होकर सार्वधातुकाश्रित सार्वधातु (७३।८४) से ‘भू’ ‘नी’ को गुण होता है । स्वपिति रोदिति में तिप् को सार्वधातुक संज्ञा होने से रुदादिभ्यः सार्वधातुके (७१२७६) से इट् प्रागम हो गया है। स्वप् इट् ति स्व पिति, रुद् इट् ति =रोदिति बना । प्रदिप्रभृतिभ्यः (२।४७२)से शप् का लुक् हो ही जायेगा । पचमानः की सिद्धि परि० ३।२।१२४ में देखें । यजमान: में भी इसी तरह जानें, केवल यहाँ पूङ यजो: शानन् (३।२।१२८) से शानन् प्रत्यय होता है ॥ fonार्धधातुकं शेषः ॥३।४।११४॥ ghts प्रार्धधातुकम् १।१॥ शेषः ११॥ अनु०-धातोः, प्रत्यय:, परश्च ॥ अर्थ: धातोविहिताः शेषा: (तिशिद्भिन्नाः)प्रत्यया प्रार्धधातुकसंज्ञका भवन्ति ।। तिङ शितं वर्जयित्वाऽन्यः प्रत्ययः शेष: ।। उदा०-लविता, लवितुम्, लवितव्यम् ॥ भाषार्थ:-[शेष:] शेष अर्थात् तिङ शित से शेष बचे, धातु से विहित जो प्रत्यय, उनको [प्रार्द्धधातुकम ] श्राद्ध धातुक संज्ञा होती है ।। तृच तुमन् तव्य प्रत्यय तिङ शित से शेष हैं, सो प्राद्ध धातुसंज्ञक हैं । प्रार्धधातुक संज्ञा होने से सार्वधातु० (७ ३८४) से गुण, तथा प्रार्धधातुकस्ये० (७।२।३५) से इट् प्रागम हो जाता है । । यहाँ से ‘प्रार्द्धघातुकम्’ को अनुवृत्ति ३।४. ११७ तक जायेगी। है ५४६ अष्टाध्यायी-प्रथमावृत्ती [चतुर्थः लिट् च ।।३।४।११५॥ लिट् १११।। च अ० ॥ अनु०-पार्द्धधातुकम् ॥ अर्थ:-लिडादेशा ये तिबादय स्ते प्रार्द्धधातुकसं ज्ञका भवन्ति ॥ उदा०-पेचिथ, शेकिथ । जग्ले, मम्ले ।। 11 भाषार्थ:-[लिट ] लिडादेश जो तिबादि उनकी [च] भी प्रार्द्धधातुक संज्ञा होती है। लिङाशिषि ॥३।४।११६॥ लिङ १।१।। आशिषि ७।१॥ अन०-पार्द्धधातुकम् ॥ अर्थ:-आशिषि विषये यो लिङ्स आर्धधातुकसंज्ञको भवति ॥ उदा०-लविषीष्ट, एधिषीष्ट ॥ ____भाषार्थ:-[आशिषि] पाशीर्वाद अर्थ में जो [लिङ] लिङ वह प्रार्धधातुक संज्ञक होता है ।। परि० १।२।११ के समान सिद्धि जानें। पूर्ववत् यहाँ भी प्रार्ध धातुक संज्ञा होने से इट् आगम होता है | REIPAatha पाय छन्दस्युभयथा ॥३।४।११७॥ आला छन्दसि ७।१॥ उभयथा अ०॥ अर्थः-छन्दसि विषये उभयथा सार्वधातुकम प्राध घातुकं च भवति । अर्थात् यस्य सार्वधातुकसंज्ञा विहिता तस्याद्धधातुकसंज्ञाऽपि भवति, यस्यार्द्धधातुकसंज्ञा कृता तस्य सार्वधातुकसंज्ञाऽपि भवति ।। उदा०- वर्धन्तु त्वा सुष्टु तयः (ऋ० ७६६७) । स्वस्तये नावमिवारुहेम । लिट सार्वधातुकम्-ससृवांसो विश्रुण्विरे । सोममिन्द्राय सुन्विरे । लिङ उभयथा भवति-उपस्थेयाम शरणं बृहन्तम् ।। भाषार्थः-[छन्दसि] वेदविषय में [उभयथा] बोनों सार्वधातुक प्रार्धधातुक संज्ञायें होती हैं । अर्थात् जिसकी सार्वधातुक संज्ञा कही है, उसकी प्रार्धधातुक संज्ञा भी होती है । तथा जिसको प्रार्धधातुक संज्ञा कही है, उसकी सार्वधातुक संज्ञा भी होती है। अथवा एक ही स्थान में दोनों संज्ञायें हो जाती हैं। मा की ॥ इति तृतीयोऽध्यायः ॥ शक give apnimamibpmSTRो की,