1.07 नाट्यवर्गः

मूलम्

निषादर्षभगान्धारषड्जमध्यमधैवताः ॥1.7.1.1॥

शब्दाः

निषादस्वरः. (1) - निषाद (पुं)
ऋषभस्वरः. (1) - ऋषभ (पुं)
गान्धारस्वरः. (1) - गान्धार (पुं)
षड्जस्वरः. (1) - षड्ज (पुं)
मध्यमस्वरः. (1) - मध्यम (पुं)
धैवतस्वरः. (1) - धैवत (पुं) ॥1.7.1.1॥

मूलम्

पञ्चमश्चेत्यमी सप्त तन्त्रीकण्ठोत्थिताः स्वराः ॥1.7.1.2॥

शब्दाः

पञ्चमस्वरः. (1) - पञ्चम (पुं) ॥1.7.1.2॥

मूलम्

काकली तु कले सूक्ष्मे ध्वनौ तु मधुरास्फुटे ॥1.7.2.1॥

शब्दाः

सूक्ष्मध्वनिः. (1) - काकली (स्त्री) ॥1.7.2.1॥

मूलम्

कलो मन्द्रस्तु गम्भीरे तारोऽत्युच्चैस्त्रयस्त्रिषु ॥1.7.2.2॥

शब्दाः

अव्यक्तमधुरध्वनिः. (1) - कल (पुं)
गम्भीरध्वनिः. (1) - मन्द्र (पुं)
अत्युच्चध्वनिः. (1) - तार (पुं) ॥1.7.2.2॥

नृणामुरसि मध्यस्थो द्वाविंशतिविधो ध्वनिः ॥1.7.2.3॥ स मन्द्रः कण्ठमध्यस्थस्तारः शिरसि गीयते ॥1.7.2.4॥
मूलम्

समन्वितलयस्त्वेकतालो वीणा तु वल्लकी ॥1.7.3.1॥

शब्दाः

गीतवाद्यलयसाम्यध्वनिः. (1) - समन्वितलय (पुं)
वीणा. (2) - वीणा (स्त्री), वल्लकी (स्त्री) ॥1.7.3.1॥

मूलम्

विपञ्ची सा तु तन्त्रीभिः सप्तभिः परिवादिनी ॥1.7.3.2॥

शब्दाः

वीणा. (1) - विपञ्ची (स्त्री)
सप्ततन्त्रियुता वीणा-सितारः. (1) - परिवादिनी (स्त्री) ॥1.7.3.2॥

मूलम्

ततं वीणादिकं वाद्यमानद्धं मुरजादिकम् ॥1.7.4.1॥

शब्दाः

वीणादिवाद्यम्. (1) - तत (नपुं)
मुरजादिवाद्यम्. (1) - आनद्ध (नपुं) ॥1.7.4.1॥

मूलम्

वंशादिकं तु सुषिरं कांस्यतालादिकं घनम् ॥1.7.4.2॥

शब्दाः

वंशादिवाद्यम्. (1) - सुषिर (नपुं)
कांस्यतालादिवाद्यम्. (1) - घन (नपुं) ॥1.7.4.2॥

मूलम्

चतुर्विधमिदं वाद्यं वादित्रातोद्यनामकम् ॥1.7.5.1॥

शब्दाः

चतुर्वाद्याः. (3) - वाद्य (नपुं), वादित्र (नपुं), आतोद्य (नपुं) ॥1.7.5.1॥

मूलम्

मृदङ्गा मुरजा भेदास्त्वङ्क्यालिङ्ग्योर्ध्वकास्त्रयः ॥1.7.5.2॥

शब्दाः

मृदङ्गः. (2) - मृदङ्ग (पुं), मुरज (पुं) ॥1.7.5.2॥

मूलम्

स्याद्यशः पटहो ढक्का भेरी स्त्री दुन्दुभिः पुमान् ॥1.7.6.1॥

शब्दाः

यशःपटहः. (2) - यशःपटह (पुं), ढक्का (स्त्री)
भेरी. (2) - भेरी (स्त्री), दुन्दुभि (पुं) ॥1.7.6.1॥

मूलम्

आनकः पटहोऽस्त्री स्यात्कोणो वीणादि वादनम् ॥1.7.6.2॥

शब्दाः

पटहः. (2) - आनक (पुं), पटह (पुं-नपुं)
वीणादिवादनम्. (1) - कोण (पुं) ॥1.7.6.2॥

मूलम्

वीणादण्डः प्रवालः स्यात्ककुभस्तु प्रसेवकः ॥1.7.7.1॥

शब्दाः

वीणादण्डः. (2) - वीणादण्ड (पुं), प्रवाल (पुं)
वीणादण्डाधःस्थितशब्दगाम्भीर्यार्थचर्मावनद्धदारुभाण्डः. (2) - ककुभ (पुं), प्रसेवक (पुं) ॥1.7.7.1॥

मूलम्

कोलम्बकस्तु कायोऽस्या उपनाहो निबन्धनम् ॥1.7.7.2॥

शब्दाः

तन्त्रीहीन वीणा. (1) - कोलम्बक (पुं)
यत्र तन्त्र्यो निबध्यन्ते तस्योर्ध्वविभागः. (1) - उपनाह (पुं) ॥1.7.7.2॥

मूलम्

वाद्यप्रभेदा डमरुमड्डुडिण्डिमझर्झराः ॥1.7.8.1॥

शब्दाः

वाद्यविशेषः. (4) - डमरु (पुं), मड्डु (पुं), डिण्डिम (पुं), झर्झर (पुं) ॥1.7.8.1॥

मूलम्

मर्दलः पणवोऽन्ये च नर्तकीलासिके समे ॥1.7.8.2॥

शब्दाः

वाद्यविशेषः. (2) - मर्दल (पुं), पणव (पुं)
नर्तकी. (2) - नर्तकी (स्त्री), लासिका (स्त्री) ॥1.7.8.2॥

मूलम्

विलम्बितं द्रुतं मध्यं तत्त्वमोघो घनं क्रमात् ॥1.7.9.1॥

शब्दाः

विलम्बितनृत्यगीतवाद्यम्. (1) - तत्त्व (नपुं)
द्रुतनृत्यगीतवाद्यम्. (1) - ओघ (पुं)
मध्यसमयनृत्यगीतवाद्यम्. (1) - घन (नपुं) ॥1.7.9.1॥

मूलम्

तालः कालक्रियामानं लयः साम्यमथास्त्रियाम् ॥1.7.9.2॥

शब्दाः

तालः. (2) - ताल (पुं), कालक्रियामान (नपुं)
गानतन्त्रीलयः. (1) - लय (पुं) ॥1.7.9.2॥

मूलम्

ताण्डवं नटनं नाट्यं लास्यं नृत्यं च नर्तने ॥1.7.10.1॥

शब्दाः

नृत्यम्. (6) - ताण्डव (पुं-नपुं), नटन (नपुं), नाट्य (नपुं), लास्य (नपुं), नृत्य (नपुं), नर्तन (नपुं) ॥1.7.10.1॥

मूलम्

तौर्यत्रिकं नृत्यगीतवाद्यं नाट्यमिदं त्रयम् ॥1.7.10.2॥

शब्दाः

नृत्यगीतवाद्यानाम् मेलनम्. (2) - तौर्यत्रिक (नपुं), नाट्य (नपुं) ॥1.7.10.2॥

मूलम्

भ्रकुंसश्च भ्रुकुंसश्च भ्रूकुंसश्चेति नर्तकः ॥1.7.11.1॥

शब्दाः

स्त्रीवेषधारी पुरुषः. (3) - भ्रकुंस (पुं), भ्रुकुंस (पुं), भ्रूकुंस (पुं) ॥1.7.11.1॥

मूलम्

स्त्रीवेषधारी पुरुषो नाट्योक्तौ गणिकाज्जुका ॥1.7.11.2॥

शब्दाः

अज्जुका. (2) - गणिका (स्त्री), अज्जुका (स्त्री) ॥1.7.11.2॥

मूलम्

भगिनीपतिरावुत्तो भावो विद्वानथावुकः ॥1.7.12.1॥

शब्दाः

भगिनीपतिः. (1) - आवुत्त (पुं)
विद्वान्. (1) - भाव (पुं)
जनकः. (1) - आवुक (पुं) ॥1.7.12.1॥

मूलम्

जनको युवराजस्तु कुमारो भर्तृदारकः ॥1.7.12.2॥

शब्दाः

युवराजः. (2) - कुमार (पुं), भर्तृदारक (पुं) ॥1.7.12.2॥

मूलम्

राजा भट्टारको देवस्तत्सुता भर्तृदारिका ॥1.7.13.1॥

शब्दाः

नाट्योक्तराजा. (2) - भट्टारक (पुं), देव (पुं)
राजपुत्री. (1) - भर्तृदारिका (स्त्री) ॥1.7.13.1॥

मूलम्

देवी कृताभिषेकायामितरासु तु भट्टिनी ॥1.7.13.2॥

शब्दाः

बद्धपट्टा राज्ञी. (1) - देवी (स्त्री)
राज्ञी. (1) - भट्टिनी (स्त्री) ॥1.7.13.2॥

मूलम्

अब्रह्मण्यमवध्योक्तौ राजश्यालस्तु राष्ट्रियः ॥1.7.14.1॥

शब्दाः

अवध्यब्राह्मणादेर्दोषोक्तिः. (1) - अब्रह्मण्य (नपुं)
राज्ञः श्यालः. (1) - राष्ट्रिय (पुं) ॥1.7.14.1॥

मूलम्

अम्बा माताथ बाला स्याद्वासूरार्यस्तु मारिषः ॥1.7.14.2॥

शब्दाः

माता. (2) - अम्बा (स्त्री), मातृ (स्त्री)
राज्ञः बाला. (1) - वासू (स्त्री)
मान्यः. (2) - आर्य (पुं), मारिष (पुं) ॥1.7.14.2॥

मूलम्

अत्तिका भगिनी ज्येष्ठा निष्ठानिर्वहणे समे ॥1.7.15.1॥

शब्दाः

ज्येष्ठभगिनी. (1) - अत्तिका (स्त्री)
निर्वहणम्. (2) - निष्ठा (स्त्री), निर्वहण (नपुं) ॥1.7.15.1॥

मूलम्

हण्डे हञ्जे हलाह्वाने नीचां चेटीं सखीं प्रति ॥1.7.15.2॥

शब्दाः

नीचां प्रत्याह्वानः. (1) - हण्डे (अव्य)
चेडीं प्रत्याह्वानः. (1) - हञ्जे (अव्य)
सखीं प्रत्याह्वानः. (1) - हला (अव्य) ॥1.7.15.2॥

मूलम्

अङ्गहारोऽङ्गविक्षेपो व्यञ्जकाभिनयौ समौ ॥1.7.16.1॥

शब्दाः

नृत्यविशेषः. (2) - अङ्गहार (पुं), अङ्गविक्षेप (पुं)
मनोगतभावाभिव्यञ्जकम्. (2) - व्यञ्जक (पुं), अभिनय (पुं) ॥1.7.16.1॥

मूलम्

निर्वृत्ते त्वङ्गसत्त्वाभ्यां द्वे त्रिष्वाङ्गिकसात्त्विके ॥1.7.16.2॥

शब्दाः

अङ्गेन निवृत्तं भ्रूविक्षेपादिः. (1) - आङ्गिक (वि)
अन्तःकरणेन निष्पन्नं स्वेदरोमाञ्चादिः. (1) - सात्त्विक (वि) ॥1.7.16.2॥

मूलम्

शृङ्गारवीरकरुणाद्भुतहास्यभयानकाः ॥1.7.17.1॥

शब्दाः

नवरसेष्वेकः. (6) - शृङ्गार (पुं), वीर (पुं), करुणा (स्त्री), अद्भुत (पुं), हास्य (पुं), भयानक (पुं) ॥1.7.17.1॥

मूलम्

बीभत्सरौद्रौ च रसाः शृङ्गारः शुचिरुज्ज्वलः ॥1.7.17.2॥

शब्दाः

नवरसेष्वेकः. (2) - बीभत्स (पुं), रौद्र (पुं)
शृङ्गाररसः. (3) - शृङ्गार (पुं), शुचि (पुं), उज्ज्वल (पुं) ॥1.7.17.2॥

मूलम्

उत्साहवर्धनो वीरः कारुण्यं करुणा घृणा ॥1.7.18.1॥

शब्दाः

वीररसः. (2) - उत्साहवर्धन (पुं), वीर (पुं)
करुणरसः. (3) - कारुण्य (नपुं), करुणा (स्त्री), घृणा (स्त्री) ॥1.7.18.1॥

मूलम्

कृपा दयानुकम्पा स्यादनुक्रोशोऽप्यथो हसः ॥1.7.18.2॥

शब्दाः

करुणरसः. (4) - कृपा (स्त्री), दया (स्त्री), अनुकम्पा (स्त्री), अनुक्रोश (पुं)
हास्यरसः. (1) - हस (पुं) ॥1.7.18.2॥

मूलम्

हासो हास्यं च बीभत्सं विकृतं त्रिष्विदं द्वयम् ॥1.7.19.1॥

शब्दाः

हास्यरसः. (2) - हास (पुं), हास्य (नपुं)
बीभत्सरसः. (2) - बीभत्स (पुं), विकृत (वि) ॥1.7.19.1॥

मूलम्

विस्मयोऽद्भुतमाश्चर्यं चित्रमप्यथ भैरवम् ॥1.7.19.2॥

शब्दाः

अद्भुतरसः. (4) - विस्मय (पुं), अद्भुत (वि), आश्चर्य (वि), चित्र (वि)
भयानकरसः. (1) - भैरव (वि) ॥1.7.19.2॥

मूलम्

दारुणं भीषणं भीष्मं घोरं भीमं भयानकम् ॥1.7.20.1॥

शब्दाः

भयानकरसः. (6) - दारुण (वि), भीषण (वि), भीष्म (वि), घोर (वि), भीम (वि), भयानक (वि) ॥1.7.20.1॥

मूलम्

भयङ्करं प्रतिभयं रौद्रं तूग्रममी त्रिषु ॥1.7.20.2॥

शब्दाः

भयानकरसः. (2) - भयङ्कर (वि), प्रतिभय (वि)
रौद्ररसः. (2) - रौद्र (वि), उग्र (वि) ॥1.7.20.2॥

मूलम्

चतुर्दश दरस्त्रासो भीतिर्भीः साध्वसं भयम् ॥1.7.21.1॥

शब्दाः

भयम्. (6) - दर (पुं), त्रास (पुं), भीति (स्त्री), भी (स्त्री), साध्वस (नपुं), भय (नपुं) ॥1.7.21.1॥

मूलम्

विकारो मानसो भावोऽनुभावो भावबोधकः ॥1.7.21.2॥

शब्दाः

मनोविकारः. (1) - विकार (पुं)
चित्तविकारप्रकाशककटाक्षादिः. (1) - अनुभाव (पुं) ॥1.7.21.2॥

मूलम्

गर्वोऽभिमानोऽहङ्कारो मानश्चित्तसमुन्नतिः ॥1.7.22.1॥

शब्दाः

अहङ्कारः. (3) - गर्व (पुं), अभिमान (पुं), अहङ्कार (पुं)
अभिमानः. (2) - मान (पुं), चित्तसमुन्नति (स्त्री) ॥1.7.22.1॥

मूलम्

दर्पोऽवलोकोऽवष्टम्भश्चित्तोद्रेकः स्मयो मदः ॥1.7.22.2॥

शब्दाः

मदः. (6) - दर्प (पुं), अवलेप (पुं), अवष्टम्भ (पुं), चित्तोद्रेक (पुं), स्मय (पुं), मद (पुं) ॥1.7.22.2॥

मूलम्

अनादरः परिभवः परीभावस्तिरस्क्रिया ॥1.7.22.3॥

शब्दाः

परिभवः. (4) - अनादर (पुं), परिभव (पुं), परीभाव (पुं), तिरस्क्रिया (स्त्री) ॥1.7.22.3॥

मूलम्

रीढावमाननावज्ञावहेलनमसूर्क्षणम् ॥1.7.23.1॥

शब्दाः

परिभवः. (5) - रीढा (स्त्री), अवमानना (स्त्री), अवज्ञा (स्त्री), अवहेलन (नपुं), असूर्क्षण (नपुं) ॥1.7.23.1॥

मूलम्

मन्दाक्षं ह्रीस्त्रपा व्रीडा लज्जा सापत्रपान्यतः ॥1.7.23.2॥

शब्दाः

लज्जा. (5) - मन्दाक्ष (नपुं), ह्री (स्त्री), त्रपा (स्त्री), व्रीडा (स्त्री), लज्जा (स्त्री)
पित्रादेः पुरतः जातलज्जा. (1) - अपत्रपा (स्त्री) ॥1.7.23.2॥

मूलम्

क्षान्तिस्तितिक्षाभिध्या तु परस्य विषये स्पृहा ॥1.7.24.1॥

शब्दाः

क्षमा. (2) - क्षान्ति (स्त्री), तितिक्षा (स्त्री)
परद्रव्येच्छा. (1) - अभिध्या (स्त्री) ॥1.7.24.1॥

मूलम्

अक्षान्तिरीर्ष्यासूया तु दोषारोपो गुणेष्वपि ॥1.7.24.2॥

शब्दाः

परोत्कर्षासहिष्णुत्वम्. (2) - अक्षान्ति (स्त्री), ईर्ष्या (स्त्री)
गुणेषु दोषारोपः. (1) - असूया (स्त्री) ॥1.7.24.2॥

मूलम्

वैरं विरोधो विद्वेषो मन्युशोकौ तु शुक्स्त्रियाम् ॥1.7.25.1॥

शब्दाः

वैरम्. (3) - वैर (नपुं), विरोध (पुं), विद्वेष (पुं)
शोकः. (3) - मन्यु (पुं), शोक (पुं), शुच् (स्त्री) ॥1.7.25.1॥

मूलम्

पश्चात्तापोऽनुतापश्च विप्रतीसार इत्यपि ॥1.7.25.2॥

शब्दाः

पश्चात्तापः. (3) - पश्चात्ताप (पुं), अनुताप (पुं), विप्रतीसार (पुं) ॥1.7.25.2॥

मूलम्

कोपक्रोधामर्षरोषप्रतिघा रुट्क्रुधौ स्त्रियौ ॥1.7.26.1॥

शब्दाः

कोपः. (7) - कोप (पुं), क्रोध (पुं), अमर्ष (पुं), रोष (पुं), प्रतिघ (पुं), रुट् (स्त्री), क्रुध् (स्त्री) ॥1.7.26.1॥

मूलम्

शुचौ तु चरिते शीलमुन्मादश्चित्तविभ्रमः ॥1.7.26.2॥

शब्दाः

सुस्वभावः. (1) - शील (नपुं)
चित्तविभ्रमः. (2) - उन्माद (पुं), चित्तविभ्रम (पुं) ॥1.7.26.2॥

मूलम्

प्रेमा ना प्रियता हार्दं प्रेमस्नेहोऽथ दोहदम् ॥1.7.27.1॥

शब्दाः

स्नेहः. (5) - प्रेमन् (पुं), प्रियता (स्त्री), हार्द (नपुं), प्रेमन् (नपुं), स्नेह (पुं)
स्पृहा. (1) - दोहद (नपुं) ॥1.7.27.1॥

मूलम्

इच्छा काङ्क्षा स्पृहेहा तृड्वाञ्छा लिप्सा मनोरथः ॥1.7.27.2॥

शब्दाः

स्पृहा. (8) - इच्छा (स्त्री), काङ्क्षा (स्त्री), स्पृहा (स्त्री), ईहा (स्त्री), तृष् (स्त्री), वाञ्छा (स्त्री), लिप्सा (स्त्री), मनोरथ (पुं) ॥1.7.27.2॥

मूलम्

कामोऽभिलाषस्तर्षश्च सोऽत्यर्थं लालसा द्वयोः ॥1.7.28.1॥

शब्दाः

स्पृहा. (3) - काम (पुं), अभिलाष (पुं), तर्ष (पुं)
अतिप्रीतिः. (1) - लालसा (स्त्री-पुं) ॥1.7.28.1॥

मूलम्

उपाधिर्ना धर्मचिन्ता पुंस्याधिर्मानसी व्यथा ॥1.7.28.2॥

शब्दाः

धर्मविचारः. (2) - उपाधि (पुं), धर्मचिन्ता (स्त्री)
मनःपीडा. (1) - आधि (पुं) ॥1.7.28.2॥

मूलम्

स्याच्चिन्ता स्मृतिराध्यानमुत्कण्ठोत्कलिके समे ॥1.7.29.1॥

शब्दाः

स्मरणम्. (3) - चिन्ता (स्त्री), स्मृति (स्त्री), आध्यान (नपुं)
कामादिजस्मृतिः. (2) - उत्कण्ठा (स्त्री), उत्कलिका (स्त्री) ॥1.7.29.1॥

मूलम्

उत्साहोऽध्यवसायः स्यात्स वीर्यमतिशक्तिभाक् ॥1.7.29.2॥

शब्दाः

उत्साहः. (2) - उत्साह (पुं), अध्यवसाय (पुं)
अतिशयिताध्यवसायः. (2) - वीर्य (वि), अतिशक्तिभाज् (पुं) ॥1.7.29.2॥

मूलम्

कपटोऽस्त्री व्याजदम्भोपधयश्छद्मकैतवे ॥1.7.30.1॥

शब्दाः

कपटः. (6) - कपट (पुं-नपुं), व्याज (पुं), दम्भ (पुं), उपधि (पुं), छद्म (नपुं), कैतव (नपुं) ॥1.7.30.1॥

मूलम्

कुसृतिर्निकृतिः शाठ्यं प्रमादोऽनवधानता ॥1.7.30.2॥

शब्दाः

कपटः. (3) - कुसृति (स्त्री), निकृति (स्त्री), शाठ्य (नपुं)
अविमृष्टकृत्यम्. (2) - प्रमाद (पुं), अनवधानता (स्त्री) ॥1.7.30.2॥

मूलम्

कौतूहलं कौतुकं च कुतुकं च कुतूहलम् ॥1.7.31.1॥

शब्दाः

कौतुकम्. (4) - कौतूहल (नपुं), कौतुक (नपुं), कुतुक (नपुं), कुतूहल (नपुं) ॥1.7.31.1॥

मूलम्

स्त्रीणां विलासबिब्बोकविभ्रमा ललितं तथा ॥1.7.31.2॥

शब्दाः

स्त्रीणाम् श्रृङ्गारभावजाः क्रिया. (4) - विलास (पुं), बिब्बोक (पुं), विभ्रम (पुं), ललित (नपुं) ॥1.7.31.2॥

मूलम्

हेला लीलेत्यमी हावाः क्रियाः शृङ्गारभावजाः ॥1.7.32.1॥

शब्दाः

स्त्रीणाम् श्रृङ्गारभावजाः क्रिया. (3) - हेला (स्त्री), लीला (स्त्री), हाव (पुं) ॥1.7.32.1॥

मूलम्

द्रवकेलिपरीहासाः क्रीडा लीला च नर्म च ॥1.7.32.2॥

शब्दाः

क्रीडा. (6) - द्रव (पुं), केलि (स्त्री-पुं), परीहास (पुं), क्रीडा (स्त्री), लीला (स्त्री), नर्मन् (नपुं) ॥1.7.32.2॥

मूलम्

व्याजोऽपदेशो लक्ष्यं च क्रीडा खेला च कूर्दनम् ॥1.7.33.1॥

शब्दाः

स्वरूपाच्छादनम्. (3) - व्याज (पुं), अपदेश (पुं), लक्ष्य (नपुं)
कन्दुकादिक्रीडनम्. (3) - क्रीडा (स्त्री), खेला (स्त्री), कूर्दन (नपुं) ॥1.7.33.1॥

मूलम्

घर्मो निदाघः स्वेदः स्यात्प्रलयो नष्टचेष्टता ॥1.7.33.2॥

शब्दाः

प्रस्वेदहेतोस्तापः. (3) - घर्म (पुं), निदाघ (पुं), स्वेद (पुं)
सात्विकभावः. (2) - प्रलय (पुं), नष्टचेष्टता (स्त्री) ॥1.7.33.2॥

मूलम्

अवहित्थाकारगुप्तिः समौ संवेगसंभ्रमौ ॥1.7.34.1॥

शब्दाः

आकारगोपनम्. (2) - अवहित्था (स्त्री), आकारगुप्ति (स्त्री)
हर्षादिना कर्मसु त्वरणम्. (2) - संवेग (पुं), सम्भ्रम (पुं) ॥1.7.34.1॥

मूलम्

स्यादाच्छुरितकं हासः सोत्प्रासः स मनाक्स्मितम् ॥1.7.34.2॥

शब्दाः

परस्यामर्षजनकहासम्. (1) - आच्छुरितक (नपुं)
ईषद् हासः. (2) - मनाक् (अव्य), स्मित (नपुं) ॥1.7.34.2॥

मूलम्

मध्यमः स्याद्विहसितं रोमाञ्चो रोमहर्षणम् ॥1.7.35.1॥

शब्दाः

मध्यमहासः. (1) - विहसित (नपुं)
रोमाञ्चः. (2) - रोमाञ्च (पुं), रोमहर्षण (नपुं) ॥1.7.35.1॥

मूलम्

क्रन्दितं रुदितम्क्रुष्टं जृम्भस्तु त्रिषु जृम्भणम् ॥1.7.35.2॥

शब्दाः

रोदनम्. (3) - क्रन्दित (नपुं), रुदित (नपुं), क्रुष्ट (नपुं)
मुखादिविकासः. (2) - जृम्भ (वि), जृम्भण (नपुं) ॥1.7.35.2॥

मूलम्

विप्रलम्भो विसंवादो रिङ्गणं स्खलनं समे ॥1.7.36.1॥

शब्दाः

अङ्गीकृतासम्पादनम्. (2) - विप्रलम्भ (पुं), विसंवाद (पुं)
धर्मादेश्चलनम्. (2) - रिङ्खण (नपुं), स्खलन (नपुं) ॥1.7.36.1॥

मूलम्

स्यान्निद्रा शयनं स्वापः स्वप्नः संवेश इत्यपि ॥1.7.36.2॥

शब्दाः

निद्रा. (5) - निद्रा (स्त्री), शयन (नपुं), स्वाप (पुं), स्वप्न (पुं), संवेश (पुं) ॥1.7.36.2॥

मूलम्

तन्द्री प्रमीला भ्रकुटिर्भ्रुकुटिर्भ्रूकुटिः स्त्रियाम् ॥1.7.37.1॥

शब्दाः

अत्यन्तश्रमादिना सर्वेन्द्रियासामर्थ्यः. (2) - तन्द्री (स्त्री), प्रमीला (स्त्री)
क्रोधादिजनितभ्रूलता. (3) - भ्रकुटि (स्त्री), भ्रुकुटि (स्त्री), भ्रूकुटि (स्त्री) ॥1.7.37.1॥

मूलम्

अदृष्टिः स्यादसौम्येऽक्ष्णि संसिद्धिप्रकृती त्विमे ॥1.7.37.2॥

शब्दाः

क्रूरदृष्टिः. (1) - अदृष्टि (स्त्री)
स्वभावः. (2) - संसिद्धि (स्त्री), प्रकृति (स्त्री) ॥1.7.37.2॥

मूलम्

स्वरूपं च स्वभावश्च निसर्गश्चाथ वेपथुः ॥1.7.38.1॥

शब्दाः

स्वभावः. (3) - स्वरूप (नपुं), स्वभाव (पुं), निसर्ग (पुं)
कम्पः. (1) - वेपथु (पुं) ॥1.7.38.1॥

मूलम्

कम्पोऽथ क्षण उद्धर्षो मह उद्धव उत्सवः ॥1.7.38.2॥

शब्दाः

कम्पः. (1) - कम्प (पुं)
उत्सवः. (5) - क्षण (पुं), उद्धर्ष (पुं), मह (पुं), उद्धव (पुं), उत्सव (पुं) ॥1.7.38.2॥