दोहा
मूल (दोहा)
कह बाली सुनु भीरु प्रिय समदरसी रघुनाथ।
जौं कदाचि मोहि मारहिं तौ पुनि होउँ सनाथ॥ ७॥
अनुवाद (हिन्दी)
बालिने कहा—हे भीरु! (डरपोक) प्रिये! सुनो, श्रीरघुनाथजी समदर्शी हैं। जो कदाचित् वे मुझे मारेंगे ही तो मैं सनाथ हो जाऊँगा (परमपद पा जाऊँगा)॥ ७॥
मूल (चौपाई)
अस कहि चला महा अभिमानी।
तृन समान सुग्रीवहि जानी॥
भिरे उभौ बाली अति तर्जा।
मुठिका मारि महाधुनि गर्जा॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसा कहकर वह महान् अभिमानी बालि सुग्रीवको तिनकेके समान जानकर चला। दोनों भिड़ गये। बालिने सुग्रीवको बहुत धमकाया और घूँसा मारकर बड़े जोरसे गरजा॥ १॥
मूल (चौपाई)
तब सुग्रीव बिकल होइ भागा।
मुष्टि प्रहार बज्र सम लागा॥
मैं जो कहा रघुबीर कृपाला।
बंधु न होइ मोर यह काला॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब सुग्रीव व्याकुल होकर भागा। घूँसेकी चोट उसे वज्रके समान लगी। (सुग्रीवने आकर कहा—) हे कृपालु रघुवीर! मैंने आपसे पहले ही कहा था कि बालि मेरा भाई नहीं है, काल है॥ २॥
मूल (चौपाई)
एकरूप तुम्ह भ्राता दोऊ।
तेहि भ्रम तें नहिं मारेउँ सोऊ॥
कर परसा सुग्रीव सरीरा।
तनु भा कुलिस गई सब पीरा॥
अनुवाद (हिन्दी)
(श्रीरामजीने कहा—) तुम दोनों भाइयोंका एक-सा ही रूप है। इसी भ्रमसे मैंने उसको नहीं मारा। फिर श्रीरामजीने सुग्रीवके शरीरको हाथसे स्पर्श किया, जिससे उसका शरीर वज्रके समान हो गया और सारी पीड़ा जाती रही॥ ३॥
मूल (चौपाई)
मेली कंठ सुमन कै माला।
पठवा पुनि बल देइ बिसाला॥
पुनि नाना बिधि भई लराई।
बिटप ओट देखहिं रघुराई॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब श्रीरामजीने सुग्रीवके गलेमें फूलोंकी माला डाल दी और फिर उसे बड़ा भारी बल देकर भेजा। दोनोंमें पुनः अनेक प्रकारसे युद्ध हुआ। श्रीरघुनाथजी वृक्षकी आड़से देख रहे थे॥ ४॥
दोहा
मूल (दोहा)
बहु छल बल सुग्रीव कर हियँ हारा भय मानि।
मारा बालि राम तब हृदय माझ सर तानि॥ ८॥
अनुवाद (हिन्दी)
सुग्रीवने बहुत-से छल-बल किये, किन्तु (अन्तमें) भय मानकर हृदयसे हार गया। तब श्रीरामजीने तानकर बालिके हृदयमें बाण मारा॥ ८॥
मूल (चौपाई)
परा बिकल महि सर के लागें।
पुनि उठि बैठ देखि प्रभु आगें॥
स्याम गात सिर जटा बनाएँ।
अरुन नयन सर चाप चढ़ाएँ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बाणके लगते ही बालि व्याकुल होकर पृथ्वीपर गिर पड़ा। किन्तु प्रभु श्रीरामचन्द्रजीको आगे देखकर वह फिर उठ बैठा। भगवान् का श्याम शरीर है, सिरपर जटा बनाये हैं, लाल नेत्र हैं, बाण लिये हैं और धनुष चढ़ाये हैं॥ १॥
मूल (चौपाई)
पुनि पुनि चितइ चरन चित दीन्हा।
सुफल जन्म माना प्रभु चीन्हा॥
हृदयँ प्रीति मुख बचन कठोरा।
बोला चितइ राम की ओरा॥
अनुवाद (हिन्दी)
बालिने बार-बार भगवान् की ओर देखकर चित्तको उनके चरणोंमें लगा दिया। प्रभुको पहचानकर उसने अपना जन्म सफल माना। उसके हृदयमें प्रीति थी, पर मुखमें कठोर वचन थे। वह श्रीरामजीकी ओर देखकर बोला—॥ २॥
मूल (चौपाई)
धर्म हेतु अवतरेहु गोसाईं।
मारेहु मोहि ब्याध की नाईं॥
मैं बैरी सुग्रीव पिआरा।
अवगुन कवन नाथ मोहि मारा॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे गोसाईं! आपने धर्मकी रक्षाके लिये अवतार लिया है और मुझे व्याधकी तरह (छिपकर) मारा? मैं वैरी और सुग्रीव प्यारा? हे नाथ! किस दोषसे आपने मुझे मारा?॥ ३॥
मूल (चौपाई)
अनुज बधू भगिनी सुत नारी।
सुनु सठ कन्या सम ए चारी॥
इन्हहि कुदृष्टि बिलोकइ जोई।
ताहि बधें कछु पाप न होई॥
अनुवाद (हिन्दी)
(श्रीरामजीने कहा—) हे मूर्ख! सुन, छोटे भाईकी स्त्री, बहिन, पुत्रकी स्त्री और कन्या—ये चारों समान हैं। इनको जो कोई बुरी दृष्टिसे देखता है, उसे मारनेमें कुछ भी पाप नहीं होता॥ ४॥
मूल (चौपाई)
मूढ़ तोहि अतिसय अभिमाना।
नारि सिखावन करसि न काना॥
मम भुज बल आश्रित तेहि जानी।
मारा चहसि अधम अभिमानी॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे मूढ़! तुझे अत्यन्त अभिमान है। तूने अपनी स्त्रीकी सीखपर भी कान (ध्यान) नहीं दिया। सुग्रीवको मेरी भुजाओंके बलका आश्रित जानकर भी अरे अधम अभिमानी! तूने उसको मारना चाहा!॥ ५॥
दोहा
मूल (दोहा)
सुनहु राम स्वामी सन चल न चातुरी मोरि।
प्रभु अजहूँ मैं पापी अंतकाल गति तोरि॥ ९॥
अनुवाद (हिन्दी)
(बालिने कहा—) हे श्रीरामजी! सुनिये, स्वामी (आप) से मेरी चतुराई नहीं चल सकती। हे प्रभो! अन्तकालमें आपकी गति (शरण) पाकर मैं अब भी पापी ही रहा?॥ १॥
मूल (चौपाई)
सुनत राम अति कोमल बानी।
बालि सीस परसेउ निज पानी॥
अचल करौं तनु राखहु प्राना।
बालि कहा सुनु कृपानिधाना॥
अनुवाद (हिन्दी)
बालिकी अत्यन्त कोमल वाणी सुनकर श्रीरामजीने उसके सिरको अपने हाथसे स्पर्श किया (और कहा—) मैं तुम्हारे शरीरको अचल कर दूँ, तुम प्राणोंको रखो। बालिने कहा—हे कृपानिधान! सुनिये—॥ १॥
मूल (चौपाई)
जन्म जन्म मुनि जतनु कराहीं।
अंत राम कहि आवत नाहीं॥
जासु नाम बल संकर कासी।
देत सबहि सम गति अबिनासी॥
अनुवाद (हिन्दी)
मुनिगण जन्म-जन्ममें (प्रत्येक जन्ममें)(अनेकों प्रकारका) साधन करते रहते हैं। फिर भी अन्तकालमें उन्हें ‘राम’ नहीं कह आता (उनके मुखसे रामनाम नहीं निकलता)। जिनके नामके बलसे शङ्करजी काशीमें सबको समानरूपसे अविनाशिनी गति (मुक्ति) देते हैं॥ २॥
मूल (चौपाई)
मम लोचन गोचर सोइ आवा।
बहुरि कि प्रभु अस बनिहि बनावा॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह श्रीरामजी स्वयं मेरे नेत्रोंके सामने आ गये हैं। हे प्रभो! ऐसा संयोग क्या फिर कभी बन पड़ेगा?॥ ३॥
छंद
मूल (दोहा)
सो नयन गोचर जासु गुन नित नेति कहि श्रुति गावहीं।
जिति पवन मन गो निरस करि मुनि ध्यान कबहुँक पावहीं॥
मोहि जानि अति अभिमान बस प्रभु कहेउ राखु सरीरही।
अस कवन सठ हठि काटि सुरतरु बारि करिहि बबूरही॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रुतियाँ ‘नेति-नेति’ कहकर निरन्तर जिनका गुणगान करती रहती हैं, तथा प्राण और मनको जीतकर एवं इन्द्रियोंको (विषयोंके रससे सर्वथा) नीरस बनाकर मुनिगण ध्यानमें जिनकी कभी क्वचित् ही झलक पाते हैं, वे ही प्रभु (आप) साक्षात् मेरे सामने प्रकट हैं। आपने मुझे अत्यन्त अभिमानवश जानकर यह कहा कि तुम शरीर रख लो। परन्तु ऐसा मूर्ख कौन होगा जो हठपूर्वक कल्पवृक्षको काटकर उससे बबूरके बाड़ लगावेगा (अर्थात् पूर्णकाम बना देनेवाले आपको छोड़कर आपसे इस नश्वर शरीरकी रक्षा चाहेगा)?॥ १॥
मूल (दोहा)
अब नाथ करि करुना बिलोकहु देहु जो बर मागऊँ।
जेहिं जोनि जन्मौं कर्म बस तहँ राम पद अनुरागऊँ॥
यह तनय मम सम बिनय बल कल्यानप्रद प्रभु लीजिऐ।
गहि बाँह सुर नर नाह आपन दास अंगद कीजिऐ॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे नाथ! अब मुझपर दयादृष्टि कीजिये और मैं जो वर माँगता हूँ उसे दीजिये। मैं कर्मवश जिस योनिमें जन्म लूँ, वहीं श्रीरामजी (आप) के चरणोंमें प्रेम करूँ! हे कल्याणप्रद प्रभो! यह मेरा पुत्र अंगद विनय और बलमें मेरे ही समान है, इसे स्वीकार कीजिये। और हे देवता और मनुष्योंके नाथ! बाँह पकड़कर इसे अपना दास बनाइये॥ २॥
दोहा
मूल (दोहा)
राम चरन दृढ़ प्रीति करि बालि कीन्ह तनु त्याग।
सुमन माल जिमि कंठ ते गिरत न जानइ नाग॥ १०॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीरामजीके चरणोंमें दृढ़ प्रीति करके बालिने शरीरको वैसे ही (आसानीसे) त्याग दिया जैसे हाथी अपने गलेसे फूलोंकी मालाका गिरना न जाने॥ १०॥
मूल (चौपाई)
राम बालि निज धाम पठावा।
नगर लोग सब ब्याकुल धावा॥
नाना बिधि बिलाप कर तारा।
छूटे केस न देह सँभारा॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीरामचन्द्रजीने बालिको अपने परम धाम भेज दिया। नगरके सब लोग व्याकुल होकर दौड़े। बालिकी स्त्री तारा अनेकों प्रकारसे विलाप करने लगी। उसके बाल बिखरे हुए हैं और देहकी सँभाल नहीं है॥ १॥