दोहा
मूल (दोहा)
ब्यापक अकल अनीह अज निर्गुन नाम न रूप।
भगत हेतु नाना बिधि करत चरित्र अनूप॥ २०५॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो व्यापक, अकल (निरवयव), इच्छारहित, अजन्मा और निर्गुण हैं; तथा जिनका न नाम है न रूप, वही भगवान् भक्तोंके लिये नाना प्रकारके अनुपम (अलौकिक) चरित्र करते हैं॥ २०५॥
मूल (चौपाई)
यह सब चरित कहा मैं गाई।
आगिलि कथा सुनहु मन लाई॥
बिस्वामित्र महामुनि ग्यानी।
बसहिं बिपिन सुभ आश्रम जानी॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह सब चरित्र मैंने गाकर (बखानकर) कहा। अब आगेकी कथा मन लगाकर सुनो। ज्ञानी महामुनि विश्वामित्रजी वनमें शुभ आश्रम (पवित्र स्थान) जानकर बसते थे,॥ १॥
मूल (चौपाई)
जहँ जप जग्य जोग मुनि करहीं।
अति मारीच सुबाहुहि डरहीं॥
देखत जग्य निसाचर धावहिं।
करहिं उपद्रव मुनि दुख पावहिं॥
अनुवाद (हिन्दी)
जहाँ वे मुनि जप, यज्ञ और योग करते थे, परन्तु मारीच और सुबाहुसे बहुत डरते थे। यज्ञ देखते ही राक्षस दौड़ पड़ते थे और उपद्रव मचाते थे, जिससे मुनि (बहुत) दुःख पाते थे॥ २॥
मूल (चौपाई)
गाधितनय मन चिंता ब्यापी।
हरि बिनु मरहिं न निसिचर पापी॥
तब मुनिबर मन कीन्ह बिचारा।
प्रभु अवतरेउ हरन महि भारा॥
अनुवाद (हिन्दी)
गाधिके पुत्र विश्वामित्रजीके मनमें चिन्ता छा गयी कि ये पापी राक्षस भगवान् के (मारे) बिना न मरेंगे। तब श्रेष्ठ मुनिने मनमें विचार किया कि प्रभुने पृथ्वीका भार हरनेके लिये अवतार लिया है॥ ३॥
मूल (चौपाई)
एहूँ मिस देखौं पद जाई।
करि बिनती आनौं दोउ भाई॥
ग्यान बिराग सकल गुन अयना।
सो प्रभु मैं देखब भरि नयना॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी बहाने जाकर मैं उनके चरणोंका दर्शन करूँ और विनती करके दोनों भाइयोंको ले आऊँ। (अहा!) जो ज्ञान, वैराग्य और सब गुणोंके धाम हैं, उन प्रभुको मैं नेत्र भरकर देखूँगा॥ ४॥
दोहा
मूल (दोहा)
बहुबिधि करत मनोरथ जात लागि नहिं बार।
करि मज्जन सरऊ जल गए भूप दरबार॥ २०६॥
अनुवाद (हिन्दी)
बहुत प्रकारसे मनोरथ करते हुए जानेमें देर नहीं लगी। सरयूजीके जलमें स्नान करके वे राजाके दरवाजेपर पहुँचे॥ २०६॥
मूल (चौपाई)
मुनि आगमन सुना जब राजा।
मिलन गयउ लै बिप्र समाजा॥
करि दंडवत मुनिहि सनमानी।
निज आसन बैठारेन्हि आनी॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजाने जब मुनिका आना सुना, तब वे ब्राह्मणोंके समाजको साथ लेकर मिलने गये और दण्डवत् करके मुनिका सम्मान करते हुए उन्हें लाकर अपने आसनपर बैठाया॥ १॥
मूल (चौपाई)
चरन पखारि कीन्हि अति पूजा।
मो सम आजु धन्य नहिं दूजा॥
बिबिध भाँति भोजन करवावा।
मुनिबर हृदयँ हरष अति पावा॥
अनुवाद (हिन्दी)
चरणोंको धोकर बहुत पूजा की और कहा—मेरे समान धन्य आज दूसरा कोई नहीं है। फिर अनेक प्रकारके भोजन करवाये, जिससे श्रेष्ठ मुनिने अपने हृदयमें बहुत ही हर्ष प्राप्त किया॥ २॥
मूल (चौपाई)
पुनि चरननि मेले सुत चारी।
राम देखि मुनि देह बिसारी॥
भए मगन देखत मुख सोभा।
जनु चकोर पूरन ससि लोभा॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर राजाने चारों पुत्रोंको मुनिके चरणोंपर डाल दिया (उनसे प्रणाम कराया)। श्रीरामचन्द्रजीको देखकर मुनि अपनी देहकी सुधि भूल गये। वे श्रीरामजीके मुखकी शोभा देखते ही ऐसे मग्न हो गये, मानो चकोर पूर्ण चन्द्रमाको देखकर लुभा गया हो॥ ३॥
मूल (चौपाई)
तब मन हरषि बचन कह राऊ।
मुनि अस कृपा न कीन्हिहु काऊ॥
केहि कारन आगमन तुम्हारा।
कहहु सो करत न लावउँ बारा॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब राजाने मनमें हर्षित होकर ये वचन कहे—हे मुनि! इस प्रकार कृपा तो आपने कभी नहीं की। आज किस कारणसे आपका शुभागमन हुआ? कहिये, मैं उसे पूरा करनेमें देर नहीं लगाऊँगा॥ ४॥
मूल (चौपाई)
असुर समूह सतावहिं मोही।
मैं जाचन आयउँ नृप तोही॥
अनुज समेत देहु रघुनाथा।
निसिचर बध मैं होब सनाथा॥
अनुवाद (हिन्दी)
(मुनिने कहा—) हे राजन्! राक्षसोंके समूह मुझे बहुत सताते हैं। इसीलिये मैं तुमसे कुछ माँगने आया हूँ। छोटे भाईसहित श्रीरघुनाथजीको मुझे दो। राक्षसोंके मारे जानेपर मैं सनाथ (सुरक्षित) हो जाऊँगा॥ ५॥
दोहा
मूल (दोहा)
देहु भूप मन हरषित तजहु मोह अग्यान।
धर्म सुजस प्रभु तुम्ह कौं इन्ह कहँ अति कल्यान॥ २०७॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे राजन्! प्रसन्न मनसे इनको दो, मोह और अज्ञानको छोड़ दो। हे स्वामी! इससे तुमको धर्म और सुयशकी प्राप्ति होगी और इनका परम कल्याण होगा॥ २०७॥
मूल (चौपाई)
सुनि राजा अति अप्रिय बानी।
हृदय कंप मुख दुति कुमुलानी॥
चौथेंपन पायउँ सुत चारी।
बिप्र बचन नहिं कहेहु बिचारी॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस अत्यन्त अप्रिय वाणीको सुनकर राजाका हृदय काँप उठा और उनके मुखकी कान्ति फीकी पड़ गयी। (उन्होंने कहा—) हे ब्राह्मण! मैंने चौथेपनमें चार पुत्र पाये हैं, आपने विचारकर बात नहीं कही॥ १॥
मूल (चौपाई)
मागहु भूमि धेनु धन कोसा।
सर्बस देउँ आजु सहरोसा॥
देह प्रान तें प्रिय कछु नाहीं।
सोउ मुनि देउँ निमिष एक माहीं॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे मुनि! आप पृथ्वी, गौ, धन और खजाना माँग लीजिये, मैं आज बड़े हर्षके साथ अपना सर्वस्व दे दूँगा। देह और प्राणसे अधिक प्यारा कुछ भी नहीं होता, मैं उसे भी एक पलमें दे दूँगा॥ २॥
मूल (चौपाई)
सब सुत प्रिय मोहि प्रान कि नाईं।
राम देत नहिं बनइ गोसाईं॥
कहँ निसिचर अति घोर कठोरा।
कहँ सुंदर सुत परम किसोरा॥
अनुवाद (हिन्दी)
सभी पुत्र मुझे प्राणोंके समान प्यारे हैं; उनमें भी हे प्रभो! रामको तो (किसी प्रकार भी) देते नहीं बनता। कहाँ अत्यन्त डरावने और क्रूर राक्षस और कहाँ परम किशोर अवस्थाके (बिलकुल सुकुमार) मेरे सुन्दर पुत्र!॥ ३॥
मूल (चौपाई)
सुनि नृप गिरा प्रेम रस सानी।
हृदयँ हरष माना मुनि ग्यानी॥
तब बसिष्ठ बहुबिधि समुझावा।
नृप संदेह नास कहँ पावा॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रेम-रसमें सनी हुई राजाकी वाणी सुनकर ज्ञानी मुनि विश्वामित्रजीने हृदयमें बड़ा हर्ष माना। तब वसिष्ठजीने राजाको बहुत प्रकारसे समझाया, जिससे राजाका सन्देह नाशको प्राप्त हुआ॥ ४॥
मूल (चौपाई)
अति आदर दोउ तनय बोलाए।
हृदयँ लाइ बहु भाँति सिखाए॥
मेरे प्रान नाथ सुत दोऊ।
तुम्ह मुनि पिता आन नहिं कोऊ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजाने बड़े ही आदरसे दोनों पुत्रोंको बुलाया और हृदयसे लगाकर बहुत प्रकारसे उन्हें शिक्षा दी। (फिर कहा—) हे नाथ! ये दोनों पुत्र मेरे प्राण हैं। हे मुनि! (अब) आप ही इनके पिता हैं, दूसरा कोई नहीं॥ ५॥
दोहा
मूल (दोहा)
सौंपे भूप रिषिहि सुत बहुबिधि देइ असीस।
जननी भवन गए प्रभु चले नाइ पद सीस॥ २०८(क)॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजाने बहुत प्रकारसे आशीर्वाद देकर पुत्रोंको ऋषिके हवाले कर दिया। फिर प्रभु माताके महलमें गये और उनके चरणोंमें सिर नवाकर चले॥ २०८(क)॥
सोरठा
मूल (दोहा)
पुरुषसिंह दोउ बीर हरषि चले मुनि भय हरन।
कृपासिंधु मतिधीर अखिल बिस्व कारन करन॥ २०८(ख)॥
अनुवाद (हिन्दी)
पुरुषोंमें सिंहरूप दोनों भाई (राम-लक्ष्मण) मुनिका भय हरनेके लिये प्रसन्न होकर चले । वे कृपाके समुद्र, धीरबुद्धि और सम्पूर्ण विश्वके कारणके भी कारण हैं॥ २०८(ख)॥
मूल (चौपाई)
अरुन नयन उर बाहु बिसाला।
नील जलज तनु स्याम तमाला॥
कटि पट पीत कसें बर भाथा।
रुचिर चाप सायक दुहुँ हाथा॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् के लाल नेत्र हैं, चौड़ी छाती और विशाल भुजाएँ हैं, नील कमल और तमालके वृक्षकी तरह श्याम शरीर है, कमरमें पीताम्बर (पहने) और सुन्दर तरकस कसे हुए हैं। दोनों हाथोंमें (क्रमशः) सुन्दर धनुष और बाण हैं॥ १॥
मूल (चौपाई)
स्याम गौर सुंदर दोउ भाई।
बिस्वामित्र महानिधि पाई॥
प्रभु ब्रह्मन्यदेव मैं जाना।
मोहि निति पिता तजेउ भगवाना॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्याम और गौर वर्णके दोनों भाई परम सुन्दर हैं। विश्वामित्रजीको महान् निधि प्राप्त हो गयी। (वे सोचने लगे—) मैं जान गया कि प्रभु ब्रह्मण्यदेव (ब्राह्मणोंके भक्त) हैं। मेरे लिये भगवान् ने अपने पिताको भी छोड़ दिया॥ २॥
मूल (चौपाई)
चले जात मुनि दीन्हि देखाई।
सुनि ताड़का क्रोध करि धाई॥
एकहिं बान प्रान हरि लीन्हा।
दीन जानि तेहि निज पद दीन्हा॥
अनुवाद (हिन्दी)
मार्गमें चले जाते हुए मुनिने ताड़काको दिखलाया। शब्द सुनते ही वह क्रोध करके दौड़ी। श्रीरामजीने एक ही बाणसे उसके प्राण हर लिये और दीन जानकर उसको निजपद (अपना दिव्य स्वरूप) दिया॥ ३॥
मूल (चौपाई)
तब रिषि निज नाथहि जियँ चीन्ही।
बिद्यानिधि कहुँ बिद्या दीन्ही॥
जाते लाग न छुधा पिपासा।
अतुलित बल तनु तेज प्रकासा॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब ऋषि विश्वामित्रने प्रभुको मनमें विद्याका भण्डार समझते हुए भी (लीलाको पूर्ण करनेके लिये) ऐसी विद्या दी, जिससे भूख-प्यास न लगे और शरीरमें अतुलित बल और तेजका प्रकाश हो॥ ४॥