मूल (चौपाई)
तारा बिकल देखि रघुराया।
दीन्ह ग्यान हरि लीन्ही माया॥
छिति जल पावक गगन समीरा।
पंच रचित अति अधम सरीरा॥
अनुवाद (हिन्दी)
ताराको व्याकुल देखकर श्रीरघुनाथजीने उसे ज्ञान दिया और उसकी माया (अज्ञान) हर ली। (उन्होंने कहा—) पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश और वायु—इन पाँच तत्त्वोंसे यह अत्यन्त अधम शरीर रचा गया है॥ २॥
मूल (चौपाई)
प्रगट सो तनु तव आगें सोवा।
जीव नित्य केहि लगि तुम्ह रोवा॥
उपजा ग्यान चरन तब लागी।
लीन्हेसि परम भगति बर मागी॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह शरीर तो प्रत्यक्ष तुम्हारे सामने सोया हुआ है, और जीव नित्य है। फिर तुम किसके लिये रो रही हो? जब ज्ञान उत्पन्न हो गया, तब वह भगवान् के चरणों लगी और उसने परम भक्तिका वर माँग लिया॥ ३॥
मूल (चौपाई)
उमा दारु जोषित की नाईं।
सबहि नचावत रामु गोसाईं॥
तब सुग्रीवहि आयसु दीन्हा।
मृतक कर्म बिधिवत सब कीन्हा॥
अनुवाद (हिन्दी)
(शिवजी कहते हैं—) हे उमा! स्वामी श्रीरामजी सबको कठपुतलीकी तरह नचाते हैं। तदनन्तर श्रीरामजीने सुग्रीवको आज्ञा दी और सुग्रीवने विधिपूर्वक बालिका सब मृतक-कर्म किया॥ ४॥
मूल (चौपाई)
राम कहा अनुजहि समुझाई।
राज देहु सुग्रीवहि जाई॥
रघुपति चरन नाइ करि माथा।
चले सकल प्रेरित रघुनाथा॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब श्रीरामचन्द्रजीने छोटे भाई लक्ष्मणको समझाकर कहा कि तुम जाकर सुग्रीवको राज्य दे दो। श्रीरघुनाथजीकी प्रेरणा (आज्ञा) से सब लोग श्रीरघुनाथजीके चरणोंमें मस्तक नवाकर चले॥ ५॥
दोहा
मूल (दोहा)
लछिमन तुरत बोलाए पुरजन बिप्र समाज।
राजु दीन्ह सुग्रीव कहँ अंगद कहँ जुबराज॥ ११॥
अनुवाद (हिन्दी)
लक्ष्मणजीने तुरंत ही सब नगरनिवासियोंको और ब्राह्मणोंके समाजको बुला लिया और (उनके सामने) सुग्रीवको राज्य और अंगदको युवराज-पद दिया॥ ११॥
मूल (चौपाई)
उमा राम सम हित जग माहीं।
गुरु पितु मातु बंधु प्रभु नाहीं॥
सुर नर मुनि सब कै यह रीती।
स्वारथ लागि करहिं सब प्रीती॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे पार्वती! जगत् में श्रीरामजीके समान हित करनेवाला गुरु, पिता, माता, बन्धु और स्वामी कोई नहीं है। देवता, मनुष्य और मुनि सबकी यह रीति है कि स्वार्थके लिये ही सब प्रीति करते हैं॥ १॥
मूल (चौपाई)
बालि त्रास ब्याकुल दिन राती।
तन बहु ब्रन चिंताँ जर छाती॥
सोइ सुग्रीव कीन्ह कपिराऊ।
अति कृपाल रघुबीर सुभाऊ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो सुग्रीव दिन-रात बालिके भयसे व्याकुल रहता था, जिसके शरीरमें बहुत-से घाव हो गये थे और जिसकी छाती चिन्ताके मारे जला करती थी, उसी सुग्रीवको उन्होंने वानरोंका राजा बना दिया। श्रीरामचन्द्रजीका स्वभाव अत्यन्त ही कृपालु है॥ २॥
मूल (चौपाई)
जानतहूँ अस प्रभु परिहरहीं।
काहे न बिपति जाल नर परहीं॥
पुनि सुग्रीवहि लीन्ह बोलाई।
बहु प्रकार नृपनीति सिखाई॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो लोग जानते हुए भी ऐसे प्रभुको त्याग देते हैं, वे क्यों न विपत्तिके जालमें फँसें? फिर श्रीरामजीने सुग्रीवको बुला लिया और बहुत प्रकारसे उन्हें राजनीतिकी शिक्षा दी॥ ३॥
मूल (चौपाई)
कह प्रभु सुनु सुग्रीव हरीसा।
पुर न जाउँ दस चारि बरीसा॥
गत ग्रीषम बरषा रितु आई।
रहिहउँ निकट सैल पर छाई॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर प्रभुने कहा—हे वानरपति सुग्रीव! सुनो, मैं चौदह वर्षतक गाँव (बस्ती) में नहीं जाऊँगा। ग्रीष्म-ऋतु बीतकर वर्षा-ऋतु आ गयी। अतः मैं यहाँ पास ही पर्वतपर टिक रहूँगा॥ ४॥
मूल (चौपाई)
अंगद सहित करहु तुम्ह राजू।
संतत हृदयँ धरेहु मम काजू॥
जब सुग्रीव भवन फिरि आए।
रामु प्रबरषन गिरि पर छाए॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुम अंगदसहित राज्य करो। मेरे कामका हृदयमें सदा ध्यान रखना। तदनन्तर जब सुग्रीवजी घर लौट आये, तब श्रीरामजी प्रवर्षण पर्वतपर जा टिके॥ ५॥