मूल (चौपाई)
जे न भजहिं अस प्रभु भ्रम त्यागी।
ग्यान रंक नर मंद अभागी॥
पुनि सादर बोले मुनि नारद।
सुनहु राम बिग्यान बिसारद॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो मनुष्य भ्रमको त्यागकर ऐसे प्रभुको नहीं भजते, वे ज्ञानके कंगाल, दुर्बुद्धि और अभागे हैं। फिर नारद मुनि आदरसहित बोले—हे विज्ञान-विशारद श्रीरामजी! सुनिये—॥ २॥
मूल (चौपाई)
संतन्ह के लच्छन रघुबीरा।
कहहु नाथ भव भंजन भीरा॥
सुनु मुनि संतन्ह के गुन कहऊँ।
जिन्ह ते मैं उन्ह कें बस रहऊँ॥
अनुवाद (हिन्दी)
हे रघुवीर! हे भव-भय (जन्म-मरणके भय)-का नाश करनेवाले मेरे नाथ! अब कृपा कर संतोंके लक्षण कहिये। [श्रीरामजीने कहा—] हे मुनि! सुनो, मैं संतोंके गुणोंको कहता हूँ, जिनके कारण मैं उनके वशमें रहता हूँ॥ ३॥
मूल (चौपाई)
षट बिकार जित अनघ अकामा।
अचल अकिंचन सुचि सुखधामा॥
अमित बोध अनीह मितभोगी।
सत्यसार कबि कोबिद जोगी॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे संत [काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मत्सर—इन] छः विकारों (दोषों) को जीते हुए, पापरहित, कामनारहित, निश्चल (स्थिरबुद्धि), अकिञ्चन (सर्वत्यागी), बाहर-भीतरसे पवित्र, सुखके धाम, असीम ज्ञानवान्, इच्छारहित, मिताहारी, सत्यनिष्ठ, कवि, विद्वान्, योगी,॥ ४॥
मूल (चौपाई)
सावधान मानद मदहीना।
धीर धर्म गति परम प्रबीना॥
अनुवाद (हिन्दी)
सावधान, दूसरोंको मान देनेवाले, अभिमानरहित, धैर्यवान्, धर्मके ज्ञान और आचरणमें अत्यन्त निपुण,॥ ५॥
दोहा
मूल (दोहा)
गुनागार संसार दुख रहित बिगत संदेह।
तजि मम चरन सरोज प्रिय तिन्ह कहुँ देह न गेह॥ ४५॥
अनुवाद (हिन्दी)
गुणोंके घर, संसारके दुःखोंसे रहित और सन्देहोंसे सर्वथा छूटे हुए होते हैं। मेरे चरणकमलोंको छोड़कर उनको न देह ही प्रिय होती है, न घर ही॥ ४५॥
मूल (चौपाई)
निज गुन श्रवन सुनत सकुचाहीं।
पर गुन सुनत अधिक हरषाहीं॥
सम सीतल नहिं त्यागहिं नीती।
सरल सुभाउ सबहि सन प्रीती॥
अनुवाद (हिन्दी)
कानोंसे अपने गुण सुननेमें सकुचाते हैं, दूसरोंके गुण सुननेसे विशेष हर्षित होते हैं। सम और शीतल हैं, न्यायका कभी त्याग नहीं करते। सरलस्वभाव होते हैं और सभीसे प्रेम रखते हैं॥ १॥
मूल (चौपाई)
जप तप ब्रत दम संजम नेमा।
गुरु गोबिंद बिप्र पद प्रेमा॥
श्रद्धा छमा मयत्री दाया।
मुदिता मम पद प्रीति अमाया॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे जप, तप, व्रत, दम, संयम और नियममें रत रहते हैं और गुरु, गोविन्द तथा ब्राह्मणोंके चरणोंमें प्रेम रखते हैं। उनमें श्रद्धा, क्षमा, मैत्री, दया, मुदिता (प्रसन्नता) और मेरे चरणोंमें निष्कपट प्रेम होता है॥ २॥
मूल (चौपाई)
बिरति बिबेक बिनय बिग्याना।
बोध जथारथ बेद पुराना॥
दंभ मान मद करहिं न काऊ।
भूलि न देहिं कुमारग पाऊ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तथा वैराग्य, विवेक, विनय, विज्ञान (परमात्माके तत्त्वका ज्ञान) और वेद-पुराणका यथार्थ ज्ञान रहता है। वे दम्भ, अभिमान और मद कभी नहीं करते और भूलकर भी कुमार्गपर पैर नहीं रखते॥ ३॥
मूल (चौपाई)
गावहिं सुनहिं सदा मम लीला।
हेतु रहित परहित रत सीला॥
मुनि सुनु साधुन्ह के गुन जेते।
कहि न सकहिं सारद श्रुति तेते॥
अनुवाद (हिन्दी)
सदा मेरी लीलाओंको गाते-सुनते हैं और बिना ही कारण दूसरोंके हितमें लगे रहनेवाले होते हैं। हे मुनि! सुनो, संतोंके जितने गुण हैं, उनको सरस्वती और वेद भी नहीं कह सकते॥ ४॥
छंद
मूल (दोहा)
कहि सक न सारद सेष नारद सुनत पद पंकज गहे।
अस दीनबंधु कृपाल अपने भगत गुन निज मुख कहे॥
सिरु नाइ बारहिं बार चरनन्हि ब्रह्मपुर नारद गए।
ते धन्य तुलसीदास आस बिहाइ जे हरि रँग रँए॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘शेष और शारदा भी नहीं कह सकते’ यह सुनते ही नारदजीने श्रीरामजीके चरणकमल पकड़ लिये। दीनबन्धु कृपालु प्रभुने इस प्रकार अपने श्रीमुखसे अपने भक्तोंके गुण कहे। भगवान् के चरणोंमें बार-बार सिर नवाकर नारदजी ब्रह्मलोकको चले गये। तुलसीदासजी कहते हैं कि वे पुरुष धन्य हैं, जो सब आशा छोड़कर केवल श्रीहरिके रंगमें रँग गये हैं।
दोहा
मूल (दोहा)
रावनारि जसु पावन गावहिं सुनहिं जे लोग।
राम भगति दृढ़ पावहिं बिनु बिराग जप जोग॥ ४६ (क)॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो लोग रावणके शत्रु श्रीरामजीका पवित्र यश गावेंगे और सुनेंगे, वे वैराग्य, जप और योगके बिना ही श्रीरामजीकी दृढ़ भक्ति पावेंगे॥ ४६(क)॥
मूल (दोहा)
दीप सिखा सम जुबति तन मन जनि होसि पतंग।
भजहि राम तजि काम मद करहि सदा सतसंग॥ ४६ (ख)॥
अनुवाद (हिन्दी)
युवती स्त्रियोंका शरीर दीपककी लौके समान है, हे मन! तू उसका पतिंगा न बन। काम और मदको छोड़कर श्रीरामचन्द्रजीका भजन कर और सदा सत्संग कर॥ ४६(ख)॥
भागसूचना
मासपारायण, बाईसवाँ विश्राम
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने तृतीयः सोपानः समाप्तः।
अनुवाद (समाप्ति)
कलियुगके सम्पूर्ण पापोंको विध्वंस करनेवाले श्रीरामचरितमानसका
यह तीसरा सोपान समाप्त हुआ।
मूलम् (समाप्तिः)
(अरण्यकाण्ड समाप्त)
अनुवाद (हिन्दी)
Misc Detail
॥ श्रीगणेशाय नमः॥
श्रीजानकीवल्लभो विजयते
भागसूचना
श्रीरामचरितमानस (चतुर्थ सोपान)