मूल (चौपाई)
बंदउँ नाम राम रघुबर को।
हेतु कृसानु भानु हिमकर को॥
बिधि हरि हरमय बेद प्रान सो।
अगुन अनूपम गुन निधान सो॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं श्रीरघुनाथजीके नाम ‘राम’ की वन्दना करता हूँ, जो कृशानु (अग्नि), भानु (सूर्य) और हिमकर (चन्द्रमा) का हेतु अर्थात् ‘र’ ‘आ’ और ‘म’ रूपसे बीज है। वह ‘राम’ नाम ब्रह्मा, विष्णु और शिवरूप है। वह वेदोंका प्राण है; निर्गुण, उपमारहित और गुणोंका भण्डार है॥ १॥
मूल (चौपाई)
महामंत्र जोइ जपत महेसू।
कासीं मुकुति हेतु उपदेसू॥
महिमा जासु जान गनराऊ।
प्रथम पूजिअत नाम प्रभाऊ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो महामन्त्र है, जिसे महेश्वर श्रीशिवजी जपते हैं और उनके द्वारा जिसका उपदेश काशीमें मुक्तिका कारण है, तथा जिसकी महिमाको गणेशजी जानते हैं, जो इस ‘राम’ नामके प्रभावसे ही सबसे पहले पूजे जाते हैं॥ २॥
मूल (चौपाई)
जान आदिकबि नाम प्रतापू।
भयउ सुद्ध करि उलटा जापू॥
सहस नाम सम सुनि सिव बानी।
जपि जेईं पिय संग भवानी॥
अनुवाद (हिन्दी)
आदिकवि श्रीवाल्मीकिजी रामनामके प्रतापको जानते हैं, जो उलटा नाम (‘मरा’, ‘मरा’) जपकर पवित्र हो गये। श्रीशिवजीके इस वचनको सुनकर कि एक राम-नाम सहस्र नामके समान है, पार्वतीजी सदा अपने पति (श्रीशिवजी) के साथ रामनामका जप करती रहती हैं॥ ३॥
मूल (चौपाई)
हरषे हेतु हेरि हर ही को।
किय भूषन तिय भूषन ती को॥
नाम प्रभाउ जान सिव नीको।
कालकूट फलु दीन्ह अमी को॥
अनुवाद (हिन्दी)
नामके प्रति पार्वतीजीके हृदयकी ऐसी प्रीति देखकर श्रीशिवजी हर्षित हो गये और उन्होंने स्त्रियोंमें भूषणरूप (पतिव्रताओंमें शिरोमणि) पार्वतीजीको अपना भूषण बना लिया (अर्थात् उन्हें अपने अङ्गमें धारण करके अर्द्धाङ्गिनी बना लिया)। नामके प्रभावको श्रीशिवजी भलीभाँति जानते हैं, जिस (प्रभाव) के कारण कालकूट जहरने उनको अमृतका फल दिया॥४॥
दोहा
मूल (दोहा)
बरषा रितु रघुपति भगति तुलसी सालि सुदास।
राम नाम बर बरन जुग सावन भादव मास॥ १९॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीरघुनाथजीकी भक्ति वर्षा-ऋतु है, तुलसीदासजी कहते हैं कि उत्तम सेवकगण धान हैं और ‘राम’ नामके दो सुन्दर अक्षर सावन-भादोंके महीने हैं॥ १९॥
मूल (चौपाई)
आखर मधुर मनोहर दोऊ।
बरन बिलोचन जन जिय जोऊ॥
सुमिरत सुलभ सुखद सब काहू।
लोक लाहु परलोक निबाहू॥
अनुवाद (हिन्दी)
दोनों अक्षर मधुर और मनोहर हैं, जो वर्णमालारूपी शरीरके नेत्र हैं, भक्तोंके जीवन हैं तथा स्मरण करनेमें सबके लिये सुलभ और सुख देनेवाले हैं, और जो इस लोकमें लाभ और परलोकमें निर्वाह करते हैं (अर्थात् भगवान् के दिव्य धाममें दिव्य देहसे सदा भगवत्सेवामें नियुक्त रखते हैं)॥ १॥
मूल (चौपाई)
कहत सुनत सुमिरत सुठि नीके।
राम लखन सम प्रिय तुलसी के॥
बरनत बरन प्रीति बिलगाती।
ब्रह्म जीव सम सहज सँघाती॥
अनुवाद (हिन्दी)
ये कहने, सुनने और स्मरण करनेमें बहुत ही अच्छे (सुन्दर और मधुर) हैं; तुलसीदासको तो श्रीराम-लक्ष्मणके समान प्यारे हैं। इनका (‘र’ और ‘म’ का) अलग-अलग वर्णन करनेमें प्रीति बिलगाती है (अर्थात् बीजमन्त्रकी दृष्टिसे इनके उच्चारण, अर्थ और फलमें भिन्नता दीख पड़ती है) परन्तु हैं ये जीव और ब्रह्मके समान स्वभावसे ही साथ रहनेवाले (सदा एकरूप और एकरस)॥ २॥
मूल (चौपाई)
नर नारायन सरिस सुभ्राता।
जग पालक बिसेषि जन त्राता॥
भगति सुतिय कल करन बिभूषन।
जग हित हेतु बिमल बिधु पूषन॥
अनुवाद (हिन्दी)
ये दोनों अक्षर नर-नारायणके समान सुन्दर भाई हैं, ये जगत् का पालन और विशेषरूपसे भक्तोंकी रक्षा करनेवाले हैं। ये भक्तिरूपिणी सुन्दर स्त्रीके कानोंके सुन्दर आभूषण (कर्णफूल) हैं और जगत् के हितके लिये निर्मल चन्द्रमा और सूर्य हैं॥ ३॥
मूल (चौपाई)
स्वाद तोष सम सुगति सुधा के।
कमठ सेष सम धर बसुधा के॥
जन मन मंजु कंज मधुकर से।
जीह जसोमति हरि हलधर से॥
अनुवाद (हिन्दी)
ये सुन्दर गति (मोक्ष) रूपी अमृतके स्वाद और तृप्तिके समान हैं, कच्छप और शेषजीके समान पृथ्वीके धारण करनेवाले हैं, भक्तोंके मनरूपी सुन्दर कमलमें विहार करनेवाले भौंरेके समान हैं और जीभरूपी यशोदाजीके लिये श्रीकृष्ण और बलरामजीके समान (आनन्द देनेवाले) हैं॥ ४॥
दोहा
मूल (दोहा)
एकु छत्रु एकु मुकुटमनि सब बरननि पर जोउ।
तुलसी रघुबर नाम के बरन बिराजत दोउ॥ २०॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुलसीदासजी कहते हैं—श्रीरघुनाथजीके नामके दोनों अक्षर बड़ी शोभा देते हैं, जिनमेंसे एक (रकार) छत्ररूप (रेर्फ)से और दूसरा (मकार) मुकुटमणि (अनुस्वार.) रूपसे सब अक्षरोंके ऊपर हैं॥ २०॥
मूल (चौपाई)
समुझत सरिस नाम अरु नामी।
प्रीति परसपर प्रभु अनुगामी॥
नाम रूप दुइ ईस उपाधी।
अकथ अनादि सुसामुझि साधी॥
अनुवाद (हिन्दी)
समझनेमें नाम और नामी दोनों एक-से हैं, किन्तु दोनोंमें परस्पर स्वामी और सेवकके समान प्रीति है (अर्थात् नाम और नामीमें पूर्ण एकता होनेपर भी जैसे स्वामीके पीछे सेवक चलता है, उसी प्रकार नामके पीछे नामी चलते हैं। प्रभु श्रीरामजी अपने ‘राम’ नामका ही अनुगमन करते हैं, नाम लेते ही वहाँ आ जाते हैं)। नाम और रूप दोनों ईश्वरकी उपाधि हैं; ये (भगवान् के नाम और रूप) दोनों अनिर्वचनीय हैं, अनादि हैं और सुन्दर (शुद्ध भक्तियुक्त) बुद्धिसे ही इनका (दिव्य अविनाशी) स्वरूप जाननेमें आता है॥ १॥
मूल (चौपाई)
को बड़ छोट कहत अपराधू।
सुनि गुन भेदु समुझिहहिं साधू॥
देखिअहिं रूप नाम आधीना।
रूप ग्यान नहिं नाम बिहीना॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन (नाम और रूप) में कौन बड़ा है, कौन छोटा, यह कहना तो अपराध है। इनके गुणोंका तारतम्य (कमी-बेशी) सुनकर साधु पुरुष स्वयं ही समझ लेंगे। रूप नामके अधीन देखे जाते हैं, नामके बिना रूपका ज्ञान नहीं हो सकता॥ २॥
मूल (चौपाई)
रूप बिसेष नाम बिनु जानें।
करतल गत न परहिं पहिचानें॥
सुमिरिअ नाम रूप बिनु देखें।
आवत हृदयँ सनेह बिसेषें॥
अनुवाद (हिन्दी)
कोई-सा विशेष रूप बिना उसका नाम जाने हथेलीपर रखा हुआ भी पहचाना नहीं जा सकता और रूपके बिना देखे भी नामका स्मरण किया जाय तो विशेष प्रेमके साथ वह रूप हृदयमें आ जाता है॥ ३॥
मूल (चौपाई)
नाम रूप गति अकथ कहानी।
समुझत सुखद न परति बखानी॥
अगुन सगुन बिच नाम सुसाखी।
उभय प्रबोधक चतुर दुभाषी॥
अनुवाद (हिन्दी)
नाम और रूपकी गतिकी कहानी (विशेषताकी कथा) अकथनीय है। वह समझनेमें सुखदायक है, परन्तु उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। निर्गुण और सगुणके बीचमें नाम सुन्दर साक्षी है और दोनोंका यथार्थ ज्ञान करानेवाला चतुर दुभाषिया है॥ ४॥
दोहा
मूल (दोहा)
राम नाम मनिदीप धरु जीह देहरीं द्वार।
तुलसी भीतर बाहेरहुँ जौं चाहसि उजिआर॥ २१॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुलसीदासजी कहते हैं, यदि तू भीतर और बाहर दोनों ओर उजाला चाहता है तो मुखरूपी द्वारकी जीभरूपी देहलीपर रामनामरूपी मणि-दीपकको रख॥ २१॥
मूल (चौपाई)
नाम जीहँ जपि जागहिं जोगी।
बिरति बिरंचि प्रपंच बियोगी॥
ब्रह्मसुखहि अनुभवहिं अनूपा।
अकथ अनामय नाम न रूपा॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्माके बनाये हुए इस प्रपञ्च (दृश्य जगत् ) से भलीभाँति छूटे हुए वैराग्यवान् मुक्त योगी पुरुष इस नामको ही जीभसे जपते हुए (तत्त्वज्ञानरूपी दिनमें) जागते हैं और नाम तथा रूपसे रहित अनुपम, अनिर्वचनीय, अनामय ब्रह्मसुखका अनुभव करते हैं॥ १॥
मूल (चौपाई)
जाना चहहिं गूढ़ गति जेऊ।
नाम जीहँ जपि जानहिं तेऊ॥
साधक नाम जपहिं लय लाएँ।
होहिं सिद्ध अनिमादिक पाएँ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो परमात्माके गूढ़ रहस्यको (यथार्थ महिमाको) जानना चाहते हैं, वे (जिज्ञासु) भी नामको जीभसे जपकर उसे जान लेते हैं। (लौकिक सिद्धियोंके चाहनेवाले अर्थार्थी) साधक लौ लगाकर नामका जप करते हैं और अणिमादि (आठों) सिद्धियोंको पाकर सिद्ध हो जाते हैं॥ २॥
मूल (चौपाई)
जपहिं नामु जन आरत भारी।
मिटहिं कुसंकट होहिं सुखारी॥
राम भगत जग चारि प्रकारा।
सुकृती चारिउ अनघ उदारा॥
अनुवाद (हिन्दी)
(संकटसे घबराये हुए) आर्त भक्त नामजप करते हैं तो उनके बड़े भारी बुरे-बुरे संकट मिट जाते हैं और वे सुखी हो जाते हैं। जगत् में चार प्रकारके (१-अर्थार्थी—धनादिकी चाहसे भजनेवाले, २-आर्त—संकटकी निवृत्तिके लिये भजनेवाले, ३-जिज्ञासु—भगवान् को जाननेकी इच्छासे भजनेवाले, ४-ज्ञानी—भगवान् को तत्त्वसे जानकर स्वाभाविक ही प्रेमसे भजनेवाले) रामभक्त हैं और चारों ही पुण्यात्मा, पापरहित और उदार हैं॥ ३॥
मूल (चौपाई)
चहू चतुर कहुँ नाम अधारा।
ग्यानी प्रभुहि बिसेषि पिआरा॥
चहुँ जुग चहुँ श्रुति नाम प्रभाऊ।
कलि बिसेषि नहिं आन उपाऊ॥
अनुवाद (हिन्दी)
चारों ही चतुर भक्तोंको नामका ही आधार है; इनमें ज्ञानी भक्त प्रभुको विशेषरूपसे प्रिय है। यों तो चारों युगोंमें और चारों ही वेदोंमें नामका प्रभाव है, परन्तु कलियुगमें विशेषरूपसे है। इसमें तो (नामको छोड़कर) दूसरा कोई उपाय ही नहीं है॥ ४॥
दोहा
मूल (दोहा)
सकल कामना हीन जे राम भगति रस लीन।
नाम सुप्रेम पियूष ह्रद तिन्हहुँ किए मन मीन॥ २२॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो सब प्रकारकी (भोग और मोक्षकी भी) कामनाओंसे रहित और श्रीरामभक्तिके रसमें लीन हैं, उन्होंने भी नामके सुन्दर प्रेमरूपी अमृतके सरोवरमें अपने मनको मछली बना रखा है (अर्थात् वे नामरूपी सुधाका निरन्तर आस्वादन करते रहते हैं, क्षणभर भी उससे अलग होना नहीं चाहते)॥ २२॥
मूल (चौपाई)
अगुन सगुन दुइ ब्रह्म सरूपा।
अकथ अगाध अनादि अनूपा॥
मोरें मत बड़ नामु दुहू तें।
किए जेहिं जुग निज बस निज बूतें॥
अनुवाद (हिन्दी)
निर्गुण और सगुण—ब्रह्मके दो स्वरूप हैं। ये दोनों ही अकथनीय, अथाह, अनादि और अनुपम हैं। मेरी सम्मतिमें नाम इन दोनोंसे बड़ा है, जिसने अपने बलसे दोनोंको अपने वशमें कर रखा है॥ १॥
मूल (चौपाई)
प्रौढ़ि सुजन जनि जानहिं जन की।
कहउँ प्रतीति प्रीति रुचि मन की॥
एकु दारुगत देखिअ एकू।
पावक सम जुग ब्रह्म बिबेकू॥
उभय अगम जुग सुगम नाम तें।
कहेउँ नामु बड़ ब्रह्म राम तें॥
ब्यापकु एकु ब्रह्म अबिनासी।
सत चेतन घन आनँद रासी॥
अनुवाद (हिन्दी)
सज्जनगण इस बातको मुझ दासकी ढिठाई या केवल काव्योक्ति न समझें। मैं अपने मनके विश्वास, प्रेम और रुचिकी बात कहता हूँ। (निर्गुण और सगुण) दोनों प्रकारके ब्रह्मका ज्ञान अग्निके समान है। निर्गुण उस अप्रकट अग्निके समान है जो काठके अंदर है, परन्तु दीखती नहीं; और सगुण उस प्रकट अग्निके समान है जो प्रत्यक्ष दीखती है। (तत्त्वतः दोनों एक ही हैं; केवल प्रकट-अप्रकटके भेदसे भिन्न मालूम होती हैं। इसी प्रकार निर्गुण और सगुण तत्त्वतः एक ही हैं। इतना होनेपर भी) दोनों ही जाननेमें बड़े कठिन हैं, परन्तु नामसे दोनों सुगम हो जाते हैं। इसीसे मैंने नामको (निर्गुण) ब्रह्मसे और (सगुण) रामसे बड़ा कहा है, ब्रह्म व्यापक है, एक है, अविनाशी है; सत्ता, चैतन्य और आनन्दकी घनराशि है॥ २-३॥
मूल (चौपाई)
अस प्रभु हृदयँ अछत अबिकारी।
सकल जीव जग दीन दुखारी॥
नाम निरूपन नाम जतन तें।
सोउ प्रगटत जिमि मोल रतन तें॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसे विकाररहित प्रभुके हृदयमें रहते भी जगत् के सब जीव दीन और दुखी हैं। नामका निरूपण करके (नामके यथार्थ स्वरूप, महिमा, रहस्य और प्रभावको जानकर)नामका जतन करनेसे (श्रद्धापूर्वक नामजपरूपी साधन करनेसे) वही ब्रह्म ऐसे प्रकट हो जाता है जैसे रत्नके जाननेसे उसका मूल्य॥ ४॥
दोहा
मूल (दोहा)
निरगुन तें एहि भाँति बड़ नाम प्रभाउ अपार।
कहउँ नामु बड़ राम तें निज बिचार अनुसार॥ २३॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार निर्गुणसे नामका प्रभाव अत्यन्त बड़ा है। अब अपने विचारके अनुसार कहता हूँ कि नाम (सगुण) रामसे भी बड़ा है॥ २३॥
मूल (चौपाई)
राम भगत हित नर तनु धारी।
सहि संकट किए साधु सुखारी॥
नामु सप्रेम जपत अनयासा।
भगत होहिं मुद मंगल बासा॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीरामचन्द्रजीने भक्तोंके हितके लिये मनुष्य-शरीर धारण करके स्वयं कष्ट सहकर साधुओंको सुखी किया; परन्तु भक्तगण प्रेमके साथ नामका जप करते हुए सहजहीमें आनन्द और कल्याणके घर हो जाते हैं॥ १॥
मूल (चौपाई)
राम एक तापस तिय तारी।
नाम कोटि खल कुमति सुधारी॥
रिषि हित राम सुकेतुसुता की।
सहित सेन सुत कीन्हि बिबाकी॥
सहित दोष दुख दास दुरासा।
दलइ नामु जिमि रबि निसि नासा॥
भंजेउ राम आपु भव चापू।
भव भय भंजन नाम प्रतापू॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीरामजीने एक तपस्वीकी स्त्री (अहल्या) को ही तारा, परन्तु नामने करोड़ों दुष्टोंकी बिगड़ी बुद्धिको सुधार दिया। श्रीरामजीने ऋषि विश्वामित्रके हितके लिये एक सुकेतु यक्षकी कन्या ताड़काकी सेना और पुत्र (सुबाहु) सहित समाप्ति की; परन्तु नाम अपने भक्तोंके दोष, दुःख और दुराशाओंका इस तरह नाश कर देता है जैसे सूर्य रात्रिका। श्रीरामजीने तो स्वयं शिवजीके धनुषको तोड़ा, परन्तु नामका प्रताप ही संसारके सब भयोंका नाश करनेवाला है॥ २-३॥
मूल (चौपाई)
दंडक बनु प्रभु कीन्ह सुहावन।
जन मन अमित नाम किए पावन॥
निसिचर निकर दले रघुनंदन।
नामु सकल कलि कलुष निकंदन॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रभु श्रीरामजीने (भयानक) दण्डक वनको सुहावना बनाया, परन्तु नामने असंख्य मनुष्योंके मनोंको पवित्र कर दिया। श्रीरघुनाथजीने राक्षसोंके समूहको मारा, परन्तु नाम तो कलियुगके सारे पापोंकी जड़ उखाड़नेवाला है॥ ४॥
दोहा
मूल (दोहा)
सबरी गीध सुसेवकनि सुगति दीन्हि रघुनाथ।
नाम उधारे अमित खल बेद बिदित गुन गाथ॥ २४॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीरघुनाथजीने तो शबरी, जटायु आदि उत्तम सेवकोंको ही मुक्ति दी; परन्तु नामने अगनित दुष्टोंका उद्धार किया। नामके गुणोंकी कथा वेदोंमें प्रसिद्ध है॥ २४॥
मूल (चौपाई)
राम सुकंठ बिभीषन दोऊ।
राखे सरन जान सबु कोऊ॥
नाम गरीब अनेक नेवाजे।
लोक बेद बर बिरिद बिराजे॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीरामजीने सुग्रीव और विभीषण दोको ही अपने शरणमें रखा, यह सब कोई जानते हैं; परंतु नामने अनेक गरीबोंपर कृपा की है। नामका यह सुन्दर विरद लोक और वेदमें विशेषरूपसे प्रकाशित है॥ १॥
मूल (चौपाई)
राम भालु कपि कटकु बटोरा।
सेतु हेतु श्रमु कीन्ह न थोरा॥
नामु लेत भवसिंधु सुखाहीं।
करहु बिचारु सुजन मन माहीं॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीरामजीने तो भालू और बन्दरोंकी सेना बटोरी और समुद्रपर पुल बाँधनेके लिये थोड़ा परिश्रम नहीं किया; परंतु नाम लेते ही संसार-समुद्र सूख जाता है। सज्जनगण! मनमें विचार कीजिये (कि दोनोंमें कौन बड़ा है)॥ २॥
मूल (चौपाई)
राम सकुल रन रावनु मारा।
सीय सहित निज पुर पगु धारा॥
राजा रामु अवध रजधानी।
गावत गुन सुर मुनि बर बानी॥
सेवक सुमिरत नामु सप्रीती।
बिनु श्रम प्रबल मोह दलु जीती॥
फिरत सनेहँ मगन सुख अपनें।
नाम प्रसाद सोच नहिं सपनें॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीरामचन्द्रजीने कुटुम्बसहित रावणको युद्धमें मारा, तब सीतासहित उन्होंने अपने नगर (अयोध्या)में प्रवेश किया। राम राजा हुए, अवध उनकी राजधानी हुई, देवता और मुनि सुन्दर वाणीसे जिनके गुण गाते हैं। परंतु सेवक (भक्त) प्रेमपूर्वक नामके स्मरणमात्रसे बिना परिश्रम मोहकी प्रबल सेनाको जीतकर प्रेममें मग्न हुए अपने ही सुखमें विचरते हैं, नामके प्रसादसे उन्हें सपनेमें भी कोई चिन्ता नहीं सताती॥ ३-४॥
दोहा
मूल (दोहा)
ब्रह्म राम तें नामु बड़ बर दायक बर दानि।
रामचरित सत कोटि महँ लिय महेस जियँ जानि॥ २५॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार नाम (निर्गुण) ब्रह्म और (सगुण) राम दोनोंसे बड़ा है। यह वरदान देनेवालोंको भी वर देनेवाला है। श्रीशिवजीने अपने हृदयमें यह जानकर ही सौ करोड़ रामचरित्रमेंसे इस ‘राम’ नामको (साररूपसे चुनकर) ग्रहण किया है॥ २५॥
भागसूचना
मासपारायण, पहला विश्राम
मूल (चौपाई)
नाम प्रसाद संभु अबिनासी।
साजु अमंगल मंगल रासी॥
सुक सनकादि सिद्ध मुनि जोगी।
नाम प्रसाद ब्रह्मसुख भोगी॥
अनुवाद (हिन्दी)
नामहीके प्रसादसे शिवजी अविनाशी हैं और अमङ्गल वेषवाले होनेपर भी मङ्गलकी राशि हैं। शुकदेवजी और सनकादि सिद्ध, मुनि, योगीगण नामके ही प्रसादसे ब्रह्मानन्दको भोगते हैं॥ १॥
मूल (चौपाई)
नारद जानेउ नाम प्रतापू।
जग प्रिय हरि हरि हर प्रिय आपू॥
नामु जपत प्रभु कीन्ह प्रसादू।
भगत सिरोमनि भे प्रहलादू॥
अनुवाद (हिन्दी)
नारदजीने नामके प्रतापको जाना है। हरि सारे संसारको प्यारे हैं, (हरिको हर प्यारे हैं) और आप (श्रीनारदजी) हरि और हर दोनोंको प्रिय हैं। नामके जपनेसे प्रभुने कृपा की, जिससे प्रह्लाद भक्तशिरोमणि हो गये॥ २॥
मूल (चौपाई)
ध्रुवँ सगलानि जपेउ हरि नाऊँ।
पायउ अचल अनूपम ठाऊँ॥
सुमिरि पवनसुत पावन नामू।
अपने बस करि राखे रामू॥
अनुवाद (हिन्दी)
ध्रुवजीने ग्लानिसे (विमाताके वचनोंसे दुखी होकर सकामभावसे) हरिनामको जपा और उसके प्रतापसे अचल अनुपम स्थान (ध्रुवलोक) प्राप्त किया। हनुमान् जी ने पवित्र नामका स्मरण करके श्रीरामजीको अपने वशमें कर रखा है॥ ३॥
मूल (चौपाई)
अपतु अजामिलु गजु गनिकाऊ।
भए मुकुत हरि नाम प्रभाऊ॥
कहौं कहाँ लगि नाम बड़ाई।
रामु न सकहिं नाम गुन गाई॥
अनुवाद (हिन्दी)
नीच अजामिल, गज और गणिका (वेश्या) भी श्रीहरिके नामके प्रभावसे मुक्त हो गये। मैं नामकी बड़ाई कहाँतक कहूँ, राम भी नामके गुणोंको नहीं गा सकते॥ ४॥
दोहा
मूल (दोहा)
नामु राम को कलपतरु कलि कल्यान निवासु।
जो सुमिरत भयो भाँग तें तुलसी तुलसीदासु॥ २६॥
अनुवाद (हिन्दी)
कलियुगमें रामका नाम कल्पतरु (मनचाहा पदार्थ देनेवाला) और कल्याणका निवास (मुक्तिका घर) है, जिसको स्मरण करनेसे भाँग-सा (निकृष्ट) तुलसीदास तुलसीके समान (पवित्र) हो गया॥ २६॥
मूल (चौपाई)
चहुँ जुग तीनि काल तिहुँ लोका।
भए नाम जपि जीव बिसोका॥
बेद पुरान संत मत एहू।
सकल सुकृत फल राम सनेहू॥
अनुवाद (हिन्दी)
(केवल कलियुगकी ही बात नहीं है,) चारों युगोंमें, तीनों कालोंमें और तीनों लोकोंमें नामको जपकर जीव शोकरहित हुए हैं। वेद, पुराण और संतोंका मत यही है कि समस्त पुण्योंका फल श्रीरामजीमें (या रामनाममें) प्रेम होना है॥ १॥
मूल (चौपाई)
ध्यानु प्रथम जुग मखबिधि दूजें।
द्वापर परितोषत प्रभु पूजें॥
कलि केवल मल मूल मलीना।
पाप पयोनिधि जन मन मीना॥
अनुवाद (हिन्दी)
पहले (सत्य) युगमें ध्यानसे, दूसरे (त्रेता) युगमें यज्ञसे और द्वापरमें पूजनसे भगवान् प्रसन्न होते हैं; परंतु कलियुग केवल पापकी जड़ और मलिन है, इसमें मनुष्योंका मन पापरूपी समुद्रमें मछली बना हुआ है (अर्थात् पापसे कभी अलग होना ही नहीं चाहता; इससे ध्यान,यज्ञ और पूजन नहीं बन सकते)॥ २॥
मूल (चौपाई)
नाम कामतरु काल कराला।
सुमिरत समन सकल जग जाला॥
राम नाम कलि अभिमत दाता।
हित परलोक लोक पितु माता॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसे कराल (कलियुगके) कालमें तो नाम ही कल्पवृक्ष है, जो स्मरण करते ही संसारके सब जंजालोंको नाश कर देनेवाला है। कलियुगमें यह रामनाम मनोवाञ्छित फल देनेवाला है, परलोकका परम हितैषी और इस लोकका माता-पिता है (अर्थात् परलोकमें भगवान् का परमधाम देता है और इस लोकमें माता-पिताके समान सब प्रकारसे पालन और रक्षण करता है)॥ ३॥
मूल (चौपाई)
नहिं कलि करम न भगति बिबेकू।
राम नाम अवलंबन एकू॥
कालनेमि कलि कपट निधानू।
नाम सुमति समरथ हनुमानू॥
अनुवाद (हिन्दी)
कलियुगमें न कर्म है, न भक्ति है और न ज्ञान ही है; रामनाम ही एक आधार है। कपटकी खान कलियुगरूपी कालनेमिके (मारनेके) लिये रामनाम ही बुद्धिमान् और समर्थ श्रीहनुमान् जी हैं॥ ४॥
दोहा
मूल (दोहा)
राम नाम नरकेसरी कनककसिपु कलिकाल।
जापक जन प्रहलाद जिमि पालिहि दलि सुरसाल॥ २७॥
अनुवाद (हिन्दी)
रामनाम श्रीनृसिंह भगवान् है, कलियुग हिरण्यकशिपु है और जप करनेवाले जन प्रह्लादके समान हैं; यह रामनाम देवताओंके शत्रु (कलियुगरूपी दैत्य) को मारकर जप करनेवालोंकी रक्षा करेगा॥ २७॥
मूल (चौपाई)
भायँ कुभायँ अनख आलसहूँ।
नाम जपत मंगल दिसि दसहूँ॥
सुमिरि सो नाम राम गुन गाथा।
करउँ नाइ रघुनाथहि माथा॥
अनुवाद (हिन्दी)
अच्छे भाव (प्रेम) से, बुरे भाव (वैर) से, क्रोधसे या आलस्यसे, किसी तरहसे भी नाम जपनेसे दसों दिशाओंमें कल्याण होता है। उसी (परम कल्याणकारी) रामनामका स्मरण करके और श्रीरघुनाथजीको मस्तक नवाकर मैं रामजीके गुणोंका वर्णन करता हूँ॥ १॥